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स्वानंद ज्ञान विनाश विन, अचल सुथिर रहे राज। सिद्ध अविनाशी अविकारहो, बंदू निजहित काज ॥ी पहपनि म.ari वि., इन्द्रादिक पूजित चरन, महा भक्ति उर धार। ३१६ ! तुम महान ऐश्वर्यको, धारत हो अधिकार | Hifarmi ta cry । गुण समूह गुरुता धरै, महा भाग सुख रूप।
तीन लोक कल्याण कर, पूजू शिव भूप मा महा विभवको धरत है, हितकारण मितकार । धर्म-नाथ परमेश हो, पूजत हूँ सुखकार ॥ी या न विन कारण असहाय हो, स्वयं प्रभा अविरुद्ध । तुमको बंदूभावसों, निज प्रातम कर शुद्ध पगा
लोकवासको नाश कर, लोक सम्बन्ध निवार । । अचल विराजे शिवपुरी, पूजत हूँ उर धार पनि नम:ri विश्व नाम संसार है, जन्म मरण सो होय । सोई ब्याधि विनासियो, जजोड़ करदोय
॥ीतिम.
प्रष्टम