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वसुविधि अर्घ देऊ तुम मम द्यौ, वसुविधि गुण सुखदाई।
जासु पाय वसु त्रास न पाऊं, "सन्त" कहे हर्षाई ॥प्रभु पूजोरे० सिद्ध
ॐ ह्री नमो सिद्धाण श्रीसिद्धपरमेष्ठिने श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गाहण __ अगुरुलघुमव्वावाह बत्तीसगुणसयुक्ताय सर्वसुख प्राप्तये अध्यं ।। ६ ॥
गीता छन्द । निर्मल सलिल शुभ वास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमे चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत, कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्म प्रकृति नसाय युगपत, ज्ञान निर्मल रूप है, दुख जन्म टाल अपार गुण, सूक्षम स्वरूप अनूप है। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अछेद शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय अमेय चाहूं, ज्ञेय द्यो हम शुभमती ।
ॐ ह्री महं सिद्धच क्राधिपतये नमः सम्मत्तणाणादि अष्टगुणाय महायं ।
प्रथम
पूजा
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