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सुख अमृत पीवत स्वेद न हो, निज भाव विराजत खेद न हो। सिद्ध० असमान महाबल धारत है, हम पूजत पाप बिडारत है ॥३॥
. . ॐ ह्री अतुलवीर्याय नम. अध्यं । विपरीत सभीत पराश्रितता, अतिरिक्त धरै न करै थिरता। परकी अभिलाष न सेवत है, निज भाविक आनन्द बेवत है ॥४॥ ____ॐ ह्री अनन्तसुखाय नम अयं । निज आत्म विकाशक बोध लह्यो, भ्रम को परवेश न लेश कह्यो। निजरूप सुधारस मग्न भये, हम सिद्धन शुद्ध प्रतीति नये ॥५॥
ॐ ह्री अनन्तसम्यक्त्वाय नमा अर्घ्य । निज भाव विडार विभाव न हो, गमनादिक भेद विकार न हो। निजथान निरूपम नित्य बसे, नमसिद्ध अनाचल रूप लसै ॥६॥ ____ॐ ह्री अचलाय नम अध्यं । चौपई--गुरणपर्यय परणतिके भेद, अति सूक्षम असमान अखेद।
ज्ञान गहे, न कहै जड़ बैन, नमो सिद्ध सूक्षम गुरग ऐन ॥७॥ ॐ ह्री अनन्तसूक्ष्मत्वाय नम. अयं ।
अयम
पूजा