Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
અહો! શ્રુતજ્ઞાન ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૭૭
માનસોલ્લાસ-૨
: દ્રવ્ય સહાયક : પૂ. આ. શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મ.સા. સમુદાયના
પૂ. આ. જગશ્ચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. તથા પૂ. આ. શ્રી અભયચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી
શ્રી ધર્મનાથ શેઠ પો. હે. 9. મૂ. પૂ. જૈન સંઘ જૈન નગર છે. મૂ. પૂ. જૈન સંઘ, પાલડી, અમદાવાદના
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સોમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
030
031
032
033
034
035
036
037
038
039
040
041
042
043
044
045
046
047
048
049
050
051
052
053
054
शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
824
288
520
578
278
252
324
302
196 190
202
480
228
60
218
190
138
296
210
274
286
216
532
113
112
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ ( - भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. खा पुस्तो www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड sरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ
ईर्त्ता टीडाडार-संचा
ક્રમ
055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प
057
ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | 058 सिद्धान्तलक्षगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश)
062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
067
068 मोहराजापराजयम्
069 | क्रियाकोश
-
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
072 | जन्मसमुद्रजातक
073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
ભાષા
सं
.:
सं
सं
सं
गु.
सं
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य
सं
F
सं
सं
सं
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
शुभ.
सं
सं/ हिं
सं.
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
| श्री धर्म
श्री धर्मदत्त
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
श्री अंबालाल प्रेमचंद
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
420
638
192
428
406
308
128
532
376
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
075
076
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २
જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨
082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3
O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१
084 ल्याए 125
ORS विश्वलोचन कोश
086 | Sथा रत्न छोश भाग-1
0875था रत्न छोश भाग-2
હસ્તસગ્રીવનમ્
088
089
090
એન્દ્રચતુર્વિશનિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
गुभ.
शुभ,
गुभ.
गुभ.
शुभ
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
सं.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ,
गु४.
सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा
गुभ.
गुभ.
सं
सं.
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
374
238
194
192
254
260
238
260
114
910
436
336
230
322
114
560
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
क्रम
कर्त्ता / टीकाकार
91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
सं.
सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं./गु
सं.
सं,
सं.
सं. सं.
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
सं./हि
अरविन्द धामणिया
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
पृष्ठ
272
240
254
282
118
466
342
362
134
70
316
224
612
307
250
514
454
354
337
354
372
142
336
364
218
656
122
764
404
404
540
274
414
400
320
148
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
122
208 70
310
462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रम
पुस्तक नाम
202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका
203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका
204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका
205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका
207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक
208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक
210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक
211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक
212 रायपसेणिय सूत्र
213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १
214 धातु पारायणम्
215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १
216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२
217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह
219
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची ।
220
221
वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
| वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका)
222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्त्ता / टिकाकार
भाषा
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री शीलंकाचार्य
गुजराती
श्री मलयगिरि
गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
आ. श्री धर्मसूरि
सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत
श्री हेमचंद्राचार्य
आ. श्री मुनिचंद्रसूरि
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री बेचरदास दोशी
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
श्री हेमचंद्राचार्य
सं./ गुजराती
आ. श्री वरदराज
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
विविध कर्ता
संस्कृत
रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत
संपादक / प्रकाशक
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री माणेक मुनि
श्री बेचरदास दोशी
श्री बेचरदास दोशी
राजकीय संस्कृत पुस्तकालय
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
महादेव शर्मा
पृष्ठ
285
280
315
307
361
301
263
395
386
351
260
272
530
648
510
560
427
88
78
112
228
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES
Published under the authority of the Government of His Highness the Maharaja Gaekwad of Baroda.
General Editor: B. BHATTACHARYYA, M. A., Ph. D.
No. LXXXIV
मानसोल्लासः
द्वितीयो भागः
Aho ! Shrutgyanam
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Aho! Shrutgyanam
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
MĀNASOLLĀSA
OF
KING SOMES'VARA
Edited with an introduction
BY
G. K. SHRIGONDEKAR, M. A. Superintendent, MSS. Section, Oriental Institute, Baroda.
Vol. II
BARODA
ORIENTAL INSTITUTE
1939
Aho! Shrutgyanam
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Printed by R. R. Bakhale, at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society Building, Sandhurst Road, Bombay 4.
AND
Published on behalf of the Government of Baroda by Benoytosh
Bhattacharyya at the Oriental Institute, Baroda.
Price Rs, 5-0-0
Aho! Shrutgyanam
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Introduction.
The second volume of the Mānasollāsa, the encyclopaedic work of the Western Cālukya King Someśvara, is now offered to the Sanskrit knowing public. The volume contains the whole of the third Vimsati in twenty chapters and part of the fourth Vimšati comprising fifteen chapters.
The third Vimsati deals with the twenty kinds of Upabhogas or enjoyments, . while the fourth treats of the twenty kinds of Vinodas or royal sports, out of which only fifteen are described in the present volume. The remaining five Vinodas and the last Vimsati, namely, the Kridāvimšati wilj appear in the third or the last volume. It is worthy of note that in the 4th Vimsati the chapter on Music is the longest and equals in length the whole of the first volume. This, no doubt, bespeaks the great interest the royal author King Somesvara took in the science and perhaps also in the art of Music.
THE MSS. MATERIAL. . The present volume is prepared with the help of the following four MSS:
A. Belongs to the Oriental Institute. It is a complete copy
prepared with the help of three MSS.
B.
Belongs to the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. It is incomplete. In this MS. even the Grhopabhoga or the first Adhyāya of the third Vimsati is not complete.
Complete. It did not give much help in the preparation of this volume, since the subjects treated of in this volume are unusual; it is full of mistakes. It belongs to the Bikaner Durbar and we have a photostat copy of the same in our
collection, F. Complete but full of mistakes. This belongs to the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona.
SUBJECT-MATTER.
The first Adhyāya of the third Vimsati opens with Muhūrta Jyotisa or the Science of Astrology for finding out auspicious moments while
Aho ! Shrutgyanam
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
building new houses for princes, ladies of the harem and ministers. No information is, however, available here on town-planning or building of forts, since ostensibly the purpose of the Vimsati is to describe the Upabhogas or royal enjoyments. It treats, nevertheless, of a few types of palaces like Prthvijaya, Muktakona, Sarvatobhadra, Srivatsa etc. being fit objects of royal enjoyment.
THE CATUSKAS. As the Catuskas' allow good light and ventilation inside the house, every palace is here recommended to have at least one Catuska. Various kinds of palaces are mentioned here and their names differ with the number of Catuskas, the number and direction of the Alindas, Sālās and Bhadras contained in them.
1. The definition of a Oatuska and the order of construction as given in śloka 31 on page 4 is :
चत्वारो मध्यगाः स्तम्भा यत्र तत्स्याच्चतुष्ककम् । तस्माद्वहिरलिन्दं स्याच्छाला स्यात्तदनन्तरम् ॥ (अलिन्दं)च पुन्तः शाला क्रमेणैवं प्रवर्धते ।
Next to the Oatuska is the Alinda and next to it is the Salá. These extensions take place in this particular order. The Sālā is then followed by an Alinda and the latter by the sala in the order of construction. Extension in this particular order is considered necessary in the case of the king's palace.
The definition of शाला is:गृहमेकं तु यच्छन्नं सर्व शालेति सा स्मृता ॥ समराङ्गणसूत्रधार ॥ And the definition of an अलिन्द is :
शालाग्रे वलभी या स्यादलिन्देति वदन्ति ताम् ॥ समराङ्गणसूत्रधार ।। And केचिदलिन्दकं द्वारं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥२३८॥ ।
केचिदलिन्दं शालां च केचिच्चालिन्दकं च तत्।। गृहबाह्यस्थिताः काष्टा गृहमत्यन्तनिर्गताः ॥२३९ ।। काष्ठाकाष्ठस्य यद्हं तद्वा चालिन्दसंज्ञकम् । गृहादहिश्व ये काष्ठा गृहस्यान्तर्गताश्च ये ॥२४॥ तेषाङ्कोष्टीकृतं तिर्यग्गेहं चालिन्दसंज्ञकम्।। स्तम्भहीनं गृहाबाह्यान्निर्गतङ्काष्टनिर्मितम् ॥ २४१॥ मध्यादूर्ध्वगतं गेहं तच्च वालिन्दसंज्ञकम् । यत्रालिन्दश्च तत्रैव द्वारमार्ग प्रशस्यते ॥ २४२ ॥ अलिन्दं द्वारहीनं च गृहकोटीसमं स्मृतम् । यत्रालिन्दं तत्र शाला तत्र द्वारश्च शोभनम् ॥ २४३॥ शालालिन्दं (न्द) द्वारहीनं न गृहं कारयेन्दुधः।
-विश्वकर्माप्रकाशः।
Ahol Shrutgyanam
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
7
THE PALACES.
Houses with four Salas, three Salas, two Śālās and one Śālā are described afterwards. Sixteen kinds of palaces with one Śālā are distinguished. Dhruva is the first among the sixteen and Vijaya is the last among them. The result of living in these houses is the same as is conveyed by the very name given to these buildings e. g. Dhruva 'permanency', Vijaya 'victory' and so forth.
WORSHIP OF VASTU.
The king is required to worship the Vastu or the site of the palace, a big square divided into 81 padas and has to give specified offerings to the deities residing in those 81 pādas. The king has to perform this Vastupūjā before building the palace and thereafter annually after the building is completed. The king's palace may have one to nine stories. In the palace there must be certain very dark places to be illumined by Manidipas (or jewel-lamps) also entablatures (Matta-varanas) with rich display of ivory, having pillars of gold or sandal wood, pavements of glass, crystal etc. and walls either made of crystal slabs looking like mirrors or made beautiful with wonderful pictures.
MATERIALS FOR PAINTING.
The author now deals with painters and painting, as also with the methods of preparing Vajralepa (adamantine paste), painting, brushes, pure and mixed colours. In his opinion there are only four Suddha or original colours: white, red, yellow and black; and he recommends the use of Sankha (conch) powder for white colour. He distinguishes three
kinds of red colour and recommends Darada (red lead) for reddish brown, Alaktaka (red sap) for blood-red and Gairika (red chalk) for dark red. He prescribes Haritala (yellow orpiment) for the yellow colour and Kajjala (soot or lamp-black) for the black colour. While dealing with the Miśravarnas he recommends gold to be used in showing the golden
ornaments.
ICONOMETRY.
In the Mānasollasa, very interesting details are given on portrait painting, which is dependent in the first place on the three principal lines, called the plumb lines here named as the Brahmasutra and the two Pakṣasutras. The Brahmasutra is the line which begins from the Keśanta (forehead where the line of hair begins) and passes through the middle of
Aho! Shrutgyanam
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
the eyebrow, the tip of the nose, chin, chest and navel to the middle of the two feet. This line, therefore, marks the centre of the body from head to foot.
The two Pakşasūtras are usually six angulas away from the Brahmasūtra on either side. They start from the Karnānta (the top of the ear) and pass through the chin, the middle part of the knees, the outside skin and the second finger near the toe to the ground.
THE 'FIVE ATTITUDES. With the variation of the distance between the central and side lines five different positions of the subject are obtained, in the same manner as the front, profile and three quarter positions are obtained in Western Art The five positions are named in the Mānasollāsa as- Rju, Ardharju, Sāci,
i and Bhittika. Rjusthāna is the front position in which the distance between the central plumb line (Brahmasūtra) and the two Pakşasūtras i. e. side lines is six angulas on both the sides. Ardharjukasthāna is that in which the distance from the Brahmasūtra to one Pakşasūtrs is eight angulas on one side and four angulas on the other. The Sācisthāna is that in which the distance from the Brahmasūtra to one Pakşasūtra is ten angulas on one side and two angulas on the other. The Ardbākşikasthāna is that in which the distance from the Brahmasūtra to one Pakşasūtra is eleven angulas on one side and one angula on the other. Bhittikasthāna is that in which only the Paksasūtras are seen while the Brahmasutra disappears.
Later the table for measuring lengths is given :8 This = 1 STO
8 Tas = 1 35c or ATEN 8 Fius = 1 argis
2 Afars = IT or 8 arargs = 1
3 ASIS = 1 STEUERTI 8 TTS = 1 TFT
4 ATE =1 TT 8 18 = 19a
3 21s= 1 faarfa or atd.
The whole body from head to foot is nine Tālas in height. The face from Keśānta to Hanu=1 A. giar=4 375.478
a to gu=1 ara हृदय to नाभि%D1 ताल
नाभि to मे%3D1 ताल 55= 2 ans
जानु-4 अङ्गल = 2 ans
Tu=2 31930s Thus according to Brahmasūtra the height of the body is 9 Tālas the Mauli (crown of the head) is 4 angulas from the Keśānta; thus the real height is 9 Tālas and 4 angulas i. e. 9 Tālas.
Aho ! Shrutgyanam
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
Next come the details of vertical measurements:
1. First is the Mastaka-sutra i. e. the line of the crown.
2. Four angulas below is the Kesanta (end of the front hair) sutra. This goes round the head three angulas above the Karṇāgra.
3. Two angulas below is the Tapanoddeśa-sutra. This goes through the Sankhamadhya, one angula above the Karṇagra and one angula above the occiput.
4. One angula below is the Kacotsanga-sutra which goes from near the eyebrows, the upper end of the ear to the Sirṣakūrma (occiput).
5. One angula below is the Kanīnikā-sūtra which goes by the Apanga, the upper end of the Pippali and above the pit of the back of the head.
6. Two angulas below is the Nasāmadhya-sutra. It goes through the high portion of the cheeks to the middle of the ear.
7. Two angulas below is the Nasāgrasutra. It goes through the cheeks, the root of the ear, the Kesotpatti-pradeśa and the back.
8. Half an angula below is the Vaktramaḍhya-sutra. It goes by the Sprkka or Krkaāṭikā.
9. Half an angula below is the Adharoṣṭha-sutra. It goes by the joint of the chin to the back of the neck.
10. Two angulas below is the Hanvagra-sutra. It goes by the neck to the joint of the shoulder.
11. Four angulas below is the Hikka-sutra. It goes from below the shoulders and the tops of the hands.
12. Seven angulas below is the Vakṣaḥsthala-sutra. It goes by the red part of the nipples and the arm-pit joints to the back-bone. 13. Five angulas below is the Vibhramasanga-sutra. It goes below the nipples, the part between the breast and the backbone, the upper part of the elbow joint to the middle of the back.
14. Six angulas below is the Jatharamadhya-sutra. It goes by the end of the biceps to the back.
Aho! Shrutgyanam
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
15. Six angulas below is the Nabhi-sutra. It goes by the loins to the top of the Kakundaras (buttocks).
16. Four angulas below is the Pakvāśayasutra. It goes by the middle of the Nitamba (hips) above the Sphiks i. e. fleshy part of the buttocks.
17. Four angulas below is the Kañcipada-sutra. It goes by the middle of the buttocks.
18. Four angulas below is the Lingasiraḥ-sutra. It runs by the root of the thighs to the expanse or curving of the buttocks. 19. Five angulas below is the Lingagra-sutra. It goes from below the buttocks and enters the fold of the buttocks.
20. Eight angulas below is the Uru-sutra.
21. Four angulas below is the Manasūtra i. e. Urumadhya-sūtra.
22. Four angulas below is the Janumurdha-sutra. These three sutras should go round both the thighs.
23. Four angulas below is the Janvadhaḥ-sutra. This also should go round the knee.
24. Twelve angulas (one Tala) below is the Sakrabasti-sūtra.
25. Ten angulas below is the Nalakāntaga-sutra. It runs from the top of the ankle to the top of the heel.
26. Two angulas below is the Gulphānta-sūtra. 27. Four angulas below is the Bhumi-sutra.
The total length of the Brahma-sutra amounts thus to 108 angulas. The author next gives elaborate iconometrical details of the different parts of the body for all the five (rju etc.) attitudes of images.
While dealing with the measurement of the palm of the hand on page 32 he gives the names of different lines on hands. The first of these lines is called Ayurlekha (the heart-line), the second of these is the Saktirekha (head-line) and the third is the Pumrekha (the life-line). This is joined to Šaktirekha. The terms Saktirekha and Pumrekha are not usually met with in works on Palmistry.
Further he gives in detail the rules for painting on the walls in the first four. Sthanas or attitudes, omitting naturally the last or the Bhittikasthana as no part of the face is visible there on the Bhitti (wall). He, however,
Aho! Shrutgyanam
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
11
does not recognise any other Sthāna besides the five already mentioned even though the position happens to be intermediate between any two acknowledged attitudes.
THE DEITIES.
Then he gives the Dhyānas of the twenty-four forms of Jagannātha or Vişņu beginning with Keśava. All the twenty-four forms of Vişnu are endowed with four hands, carrying the well-known symbols of Vişņu, namely, the Sankha (conch), Cakra (discus), Gadā (mace) and Padma (lotus) in different orders.
For the four symbols of Vişņu the author here has used abbreviations: thus Sa for Sankha, Ca for Cakra, Ga for Gadā and Pa for Padma. Three abbreviations of symbols usually occur in each set of four letters where the
rth denotes the abbreviated name of the deity. The first letter shows the symbol in the right lower hand, the second in the right upper, the third in the left upper, while the fourth which is not mentioned denotes the left lower hand holding the remaining symbol. Thus the abbreviation means that the form bears clockwise Padma in the right lower hand, Sankha in the right upper, Cakra in the left upper and Gadā in the left lower (though not mentioned). The last letter ke indicates that the name of the form is Kesava.
Then he gives the iconography of the eight-armed images of Hari, Trivikrama, Nrsimha, Rāma and Nrvarāha and declares that these should be ten Tālas in height while Vāmana should be of seven Tālas.
The two works Silparatna and Mānasollāsa agree so closely that one is tempted to believe that out of the two one must have borrowed from the other. The Silaparatna of Srikumāra being probably a work of the 16th century it is likely that it must have borrowed from the Mānasollāsa. It is, however, also probable that both of them might have borrowed from some earlier work which formed a common source.
In the first chapter the author deals with architecture, iconography, drawing, painting and cognate subjects. The Mūrtis treated of in this work are : Keśava etc. twenty-four forms of facr, gift, er , area, TA, Tatia, ATE, AFFU and F; Ha, Agica in human form as in THTETUT, as in TETE as Taara, as starringt, as GATASIT and as gftat; filialas Fir T, TOET, * . AfgqEXreat with eight hands, 75, ST, TH, TETTE, OT, ay, Fr, 16A, ATT&T, sf, art , graa, rate, aats, 1979, FHC, 4, 5, H, TH, 75, 7, RITA, TE anda.
Aho ! Shrutgyanam
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
12
.
At the end of this chapter he gives a full description of two animals namely, the horse and the elephant but does not mention the bull which is found in the Silparatna of Srikumāra.1 The deities already mentioned seem to be the favourite gods of the time. Their forms without exception are pleasant; loathsome or dreadfull pictures which are likely to cause depression of spirits are not allowed to be drawn in palaces, as everything pleasant and attractive must be before the eye of a king to keep him cheerful. In this connection it may be remembered that the Uttararāmacarita of Bhavabhūti clearly shows the tragic effect the unpleasant pictures produced on the minds of Rāma and Sītā. On this point further information may also be obtained from the Yogagrhacitra as cited in the Hathayogapradipikā.? The sight of Smaśāna and Naraka, for instance, makes a man think of the transitoriness of the world. He is likely to develop a strong sense of Vairāgya or non-attachment which is dangerous for a person who has to guide the destinies of a kingdom. In short, the pictures must be fitting to the gay atmosphere of the palace. It, therefore, stands to reason that everything in the palace must be such as will keep the king always cheerful. There is a passage }, in the Mānasollāsa to show that the main purpose of the pictures should be to remove the anguish from the heart.
VARIETIES OF PICTURES. The author then proceeds to classify the different kinds of pictures and explain the various technical terms. The exact copy of an object as we find in a reflection is named by him as Viddha while mere resemblance is called Aviddha. The picture that expresses the Rasas like Srngāra is called a Bhāvacitra while the one with bright colours is named as Dbūlicitra. It is worthy of note that here King Someśvara proudly describes himself as ATTarrara (f. -804)--the creator or master of the art of drawing and painting.
1. It is noteworthy that the silparatna part 2 in the Trivandrum Series gives the bull, horse and elephant for examples but one of them i. e, the bull is omitted in the Mānasollāsa.
2. AT TITTEFUTOT TEHTAUTTA
श्मशानं च लिखेद्घोरं नरकांश्च लिखेक्वचित् ॥ तान्दष्ट्रा भीषणाकागन संसारे सारजिते। अनवसादो भवति योगी सिध्द्यभिलाषुकः॥
19 STATT Fragarrari gola 11
(Hathayogapradspikā. 1-13. comm.) 3. fara retra rapattag* f. 3-804.
Aho ! Shrutgyanam
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
13
To prevent smoke nuisance from the QTAITIJT in the palace he recommends the construction of latticed windows etc. The necessity of having a qcx in the palace and the passage i. e. Time shows that the old engineers had a good grasp of the problems of light and ventilation.
The king is advised also to spend different seasons in different types of palaces which are constructed differently to suit the seasons and the variable weather. The author is particular in having four palaces for the four seasons, i. e. the spring, the summer, the winter and the rainy season.
Then begins the chapter entitled the Snānopabhoga or the enjoyment of bath'. The king's person, he says, should first be anointed with fragrant oil and then massaged by expert wrestlers well-versed in the art of massaging. An ointment prepared with fragrant unguents like Kostba etc. in water or Kāñjikā is applied afterwards to the body for rubbing and cleaning the skin. A Khali (a special preparation of an ointment of wheat-flour etc. in Āranālas ) is then applied to remove grease from the skin and it serves the same purpose as the modern soap. Young women then pour over the head water from golden jars made fragrant by various scented things. The scented oil of Amalaki is then applied to the hair; sometimes scented turmeric is applied in addition. The oil and turmeric are then removed with warm water and the body is rubbed vigorously with a dry towel. Finally the removal of wet clothings completes the elaborate process of a royal bath.
The bath over, the king should put on a pair of sandals made of Śriparni or Harichandana wood or of leather which covers only the front portion of the foot according to convenience. This is called the Pādukābhoga or the enjoyment of sandals.
Coming out of the Snānagsha (bath room) the king should enter the Sukha--Mandir (pleasure hall). He should then summon the officer-in-charge of Tāmbūla 'betel leaves' and take from him one Tāmbūla. For this purpose excellent areca nuts are obtained from places like Vanavāsī. A slice from the top of the nut is first removed and then it is dried in the shade. One fourth of this nut is used in preparing the Tāmbūla which consists of fifty-two yellowish betel leaves with their ends removed. The ingredients used for the Tāmbūla include pearl oyster, the Is'āvāsa camphor, Kastūri (musk) and various other sweet smelling things.
1. NatafaTaga ATSTTEETTI (rêt. -983) 2. Taret: tifa T FATEIŞI ( 373)
Aho ! Shrutgyanam
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
The author then proceeds to describe the vilepanas or unguents to render the skin soft, clean and fair. Different vilepanas are prescribed for different seasons. The vilepana called Sāndhya is designed to remove the smell of perspiration. In this chapter the author deals with the tests of Chandana and Kastūri which are used in the summer and the rainy season respectively. The le pana known as pullinga is prescribed for the cold season (Hemanta and Siśira) exclusively. The colour of the vilepana is required to be harmonized with the dress which also changes according to seasons.
The author next deals with the interesting topic of Vastropabhoga or the "enjoyment of garments". The chapter opens with astrological observations on the auspicious and inauspicious moments for putting on new dress and gives the results arising therefrom. The author incidentally observes that for putting on new clothing on ceremonial occasions like the Grhotsava or marriage, it is not necessary to observe the Muhūrta or auspicious moments. After applying the vilepana to his body the king should call the officer-in-charge of the royal ward-robe and order him to bring excellent clothes of cotton or silk woven with silver or golden threads of various kinds and colours brought from different countries and wear them.
In the Vasanta (spring) season the king is asked to put on silk or cotton clothes which are thin and charming. In Grīşma (summer) he should wear clothes of white colour. But if he wants to wear woollen clothes of white colour they must be very thin, soft and beautiful. In the rainy season he should wear red, pink, reddish and dark-red clothes made in an attractive style. In the Sarad (autumn) season he should wear very thin clothes dyed with safflower or lac. In the cold season, he should wear woollen clothes of various kinds. On the whole the king should according to different seasons wear thin, costly and beautiful clothes of various colours to suit his own complexion.
Then comes the Mālyabhoga (enjoyment of garlands). After putting on fine clothes he should wear garlands made of various kinds of flowers. The line in मानसोल्लासः-बिभर्ति माल्यं शिरसा नृपतिः स्वानुसारतः ।
Få 3. 37. V. OTTE y.
1. Among the places mentioned one is Anilvād or Anahila purapattana (modern Pattaņa in the Mehasana Prānt of the Baroda Raj).
Aho ! Shrutgyanam
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
15
reminds one of Sri Vālmīki's remark :
कुर्वन्ति कुसुमापीडाः शिरस्सु सुरभीनमी।
मेघप्रकाशैः फलकैर्दाक्षिणात्या नरा यथा ॥ रा. २-९३-१३ while describing the Chitrakūta mountain. To have a tust of hair of a considerable size on the crown of the head is a southern custom even now and in the Madras Presidency one comes across men also with garlands put on the Sikhā. It may be remarked here that the author does not refer to the Pūjā of the Istadevatā which is usually done after Snāna.
After Mālyopabhoga comes the Bhūsupabhoga (enjoyment of ornaments). In the beginning of the chapter the author deals with various kinds of pearls and precious stones, more or less on the same line as in the second Vimsati. While talking of diamonds he uses the line वैराकरभवं वज्रं विप्रजातीयमुत्तमम् । which means that the diamond produced in the a t mine is of the highest (TTT) quality. Then he describes the ornaments with pearls and precious stones and deals with separate ornaments for men and women. Some of the ornaments described in the Mānasollāsa may be said to be current in modern times e. g. the ornament called Sārikā, for instance, is current now and it is called Sari in Marāthi. Though fashions in ornaments are always in a flux, we can nevertheless find them used even in modern days. Ornaments like Keyūra etc. are also found in both Northern and Southern India bearing either the same or an entirely different name. It is, however, noteworthy that there is no mention of any ornament for the nose which very probably was introduced after the advent of the Muhammedans.
Then comes the Asanopabhoga (enjoyment of seats). In this section, various kinds of royal seats are described; the Mangalāsana seems
1. In Marāthi à Tit means the mine of diamonds (see Molesworth's dictionary). But no Marathi dictionary gives the etymology of the word.(Tamil)=a diamond and आकर=a mine. Thus बैराकर or वैरागर (of. वैरागरे च सोपारे कलो वज्रसुमुद्भवः । मानसोल्लास Pt. I i.e. diamonds are produced in वैरागर and सोपारा (i.e.शुपरिक the modern Fratari near Bombay on the B. B. & C. I. Ry.) means a mine of diamonds. The place near the diamond mines (Trør) became known as arret; even now it is known as are in the pier district of the altar division in the Central Provinces. There were diamùnd-mines near this place on the river Sātin. Thus it seems that the influence of the Tamil language was felt as far as C. P. owing perhaps to its influence on Canarese
2. , , , Tract, T, TTT, FATIGT, rafin, piedi, 9A, TETI, ag were being used a few years back. All these are mentioned in Amhigh with slightly different names.
Aho! Shrutgyanam
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
16
to be the chauranga in Marathi (a table), pavitrasana a chair, majjanāsana a big table or sofa which are used in places other than the Darbar hall where Simhasana is the only seat that is used.
Then comes the Chamarabhoga (enjoyment of a chauri in Marathi) or a bushy tail of the chamara used as a fly-whisk or a fan. This section includes fanning by (fans made of) Taḍapatra, Morchela or Kurchaka made up of the feathers of a peacock and the Valaka Vyajana i. e. the fan made up of Vala (or in Marathi).
Then comes the Asthanabhoga (enjoyment of holding the Darbar). The king should sit on the throne placed in the assembly hall (Darbar hall) and ask his Pratihāra to send a Sarvavahana (general invitation) to attend the Darbar. In response to the general invitation, first the women of the harem are allowed to enter the assembly hall. They come in palanquins fitted with curtains and accompanied by staff bearers (attendants on women's apartments) who carry sticks made of teak wood or cane. The chief duty of the staff bearer is to cry out "Go away, Go away" in order to make room for the palanquin to pass through crowded roads. The ladies of the harem, according to their positions, occupy their respective seats on all sides of the throne except the front. Their eyes are generally turned towards the king or they cast occasional glances at him in order that he may be in a pleasant mood. Other invited ladies come to the assembly hall on horses, mares or on foot. Thus women of different ages enter the hall finely dressed and richly adorned with ornaments of gold and jewels. Here the author incidentally gives. striking characteristics of the women belonging to different nationalities adjoining his territory. He carefully describes the women of Kuntala, Dravida, Mahārāṣṭra, Andhra and Gurjara but does not mention those of his own territory. The countries mentioned in this connection in a minor way fix the boundary of the territory over which Someśvara ruled.
In this connection peculiarities in dress of f and as stated in the body of the text, remind one of the beautiful in the commentary of the काव्यप्रकाश text "कामिनी कुचकलशवत् गूढं चमत्करोति.' ( 5th उल्लास ).
1. काश्विद् द्रविडकामिन्यः प्रकाशितपयोधराः ॥ 2. गुर्जर्यो वनिताः काश्विदापाणिकृत कञ्चुकाः ॥ 3. नान्ध्रीपयोधर हवातितरां प्रकाशो
नो गुर्जरीस्तन इवातितरां निगूढः । अर्थो गिरामपिहितः पिहितश्च कश्वित् सौभाग्यमेति मरहट्टवधूकुचाभः ॥
- मानसोल्लास.
-- मानसोल्लास.
women quoted
- काव्यप्रकाश 5th उल्लास - टीका.
Aho! Shrutgyanam
"
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
17
The commentator seems to be a Northerner as he does not clearly understand the difference between the r and fate ladies and confounds all the southern ladies with 375 g ladies. Hence a perfect agreement is seen between the two lines: Firea afacFIAFT: TEFTISTATUTETTI: and ArtūITT galfaati #IFT: Similarly, the description of the dress of Gujarāti ladies stated by these different authorities exactly tallies in sense.
Gujarati ladies of to-day have the uttarīya (upper garment) put on in such a way that the left hand is kept visible. This seems to be the custom of the Āndhra' ladies also, so much so, that it attracted the attention of the King Someśvara. It is noteworthy, however, that he gives no special characteristics of Canarese women although he is himself a Canarese king, loving Canarese language and script and ruling over a Canarese speaking country. Either he identifies entry with Fuick or he omits OTIC# because he thinks it to be quite a well known thing. The Western ges are known as कुन्तलप्रभुsi. e. the lords of कुन्तल country with its capital at कल्याणपुर or कल्याणी. Now-a-days ATI seems to be the vernacular of this country. All these women are taken as an ornament of the Darbar. It seems that some are Purdah ladies while others are not; they can attract the attention of whosoever happens to look at them.
After the entry of the ladies of the harem and other invited women, come all the princes modestly bowing to the king and take their respective seats in front of him. The Purohita (priest) dressed in white takes his seat near the princes. Then come the Amātya, Mantri, Sachiva etc. who form part of the second of the seven Angas (limbs of the kingdom). They sit in their proper places when ordered by the king. Then come the Mandalādhīśvaras (rulers or Governors of districts or provinces) and Samantāmātyakas (the feudatory princes or their ministers) who are required to sit in front of the king to the right and left in their proper places as ordered by the king. Then enter the officers of the state and are seated in their respective seats. Here the author
1. आन्ध्रनार्यो वराः काश्चिदपसव्योत्तरीयकाः। मानसोल्लास.
2. मानसोल्लास Pt. 1. 15 gives no distinction between मन्त्रि or सचिव. From STATOTTETR in Pt. I it seems that starts are different ministers or companions of the king.
Aho ! Shrutgyanam
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
18
gives an elaborate list of officers who are classified under three main heads of Dharma, Artha and Kāma. The names of the different officers mentioned are interesting as showing the administrative machinery of the author, King Someśvara and incidentally of the age to which the king belonged. The designations, significant in themselves, are given below:(1) Kosādhikarin, apparently the Accountant General of to-day (2) Nişkādhikārin, the Treasury officer or the mint officer who is actually in charge of the Niskas i.e. gold coins (3) Mūlyādhikārin, probably the officer who fixes the wages or salary (4) Arghādhikārin, probably for fixing the value of articles to be sold in the bazar (5) Karmādhikārin, probably the officer in charge of the Karmakāņda (performance of religious duties) (6) Vidyādhikarin, the officer in charge of the recognised fourteen Vidyās while (7) the Šāstrādhikārin may be in charge of the other Šāstras (departments of knowledge), such as sciences of politics, agriculture, music, astronomy, astrology, palmistry, medicine, Dhanurveda, etc. The word (8) Chitrādbikārin shows that there was an officer in charge of the picture gallery. (9) Mrgādhikarin is in charge of the deer etc. and the beasts of prey, while (10) Paksādhikarin may be the man in charge of the aviary. (11) The Angādhikārins are the body guards or A. D. C.s and (12) Prāņadhikārins are the physicians. (13) Ghāsādhikarin may perhaps be the officer in charge of the grass or forest department. (14) Sudhādhikārin seems to be the officer in charge of the white-washing, painting or decoration department. The names of the (15) Vastrádhikārin and (16) Phaladhikarin have come twice in the list. (17) Parņādhikārin may be the officer in charge of the betel nut or garden department. (18) Varņādhikārin seems to be the officer whose duty it may be to see whether all the Varņas (Brahmaņa, Kşatriya, Vaisya and Sudra) behave properly according to the established customs. (19) Duştādhikārin seems to be the Jail Superintendent. There is no engineering department but we think that (20) Durgādhikārin may include engineers also. It is posible that there was an engineering department, otherwise it was not possible for the author to introduce a long chapter on buildings in the beginning of the third Vimsati. This department may form one of the departments under the Durgādhikārin or Grámādhikärin or Desādhikārin or perhaps the Sudhādhikārin. All officers wear fine coats of long sleeves embroidered with gold, turbans and golden ornaments. Betel-nut-bearers and trustworthy swordsmen (A. D. C.s) who have conquered their passions should stand attentively near the king.
1. Of.ftarTeTaT FTATIT in the Baroda State.
Aho ! Shrutgyanam
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
19
T
Then comes a list of professional people who utter the words « Victory to the King". It is worthy of note that in this list along with Bhatta, Chārana, Bandi, Vaitālika and Chāțukāra are included poets, astrologers, Vādis (plaintiffs, complainants), Vāgis'as-orators, Pāthakasreaders of the Purânas and Kathakas-story tellers, that is to say, the modern Harikīrtana people. All these, therefore, appear to be the servants of his private department. The Ankas (those who fight with their enemies by the same weapon) are also included in this list. The whole assembly in the Darbar Hall should eagerly look at the king as they would look at the moon when it rises on the first day of the month. The king then should order the door-keeper to summon the smaller kings who have come there to seek his protection to appear before him. Immediately on entering the hall the new-comer should prostrate himself before the throne. The king, thereupon, should sympathetically ask the new-comer to get up and take his appointed seat. When a ruling king seeks protection, a seat befitting his position may be given to him with due respect. He should please him with kind words and present him fine clothes, gold ornaments, jewels, horses and elephants, villages, cities or even small countries and make him stay in the best houses. In the same way, he should please the princes, ministers, warriors, officers, scholars, favourites and those who can amuse and excite mirth! Then leaving the Darbar Hall he should go to the pleasure house in the company of women.
Next follows the enjoyment of children. The author in this section deals with the Samskāras like Garbhādhāna, Surgavana, Simanta, Jātakarma, Nāmakarana and incidentally gives detailed information on this subject culled from Jyotisa, Vaidyaka and Dharmaśāstra works.
At the time of the Simanta ceremony the Šāstrakāras! say that the forraugs should sing songs in praise of Soma, but here the King Someśvara actually advises that they should play the Soma Rāga which he defines as under :
अवरोहे सगन्धारः सोमरागस्तु षाडवः। --मानसोल्लास. The FeaTaTaT defines Soma Rāga in the following words :
षड्जे पाइजीभवः षड्जग्रहांशान्त्यानगोत्कटः।
सोमरागः स्मृतो वीरे तारे मध्यस्थमध्यमः।। -सङ्गीतरत्नाकर. अ.२-१ 1. 3712ITT: - aforretrat HŞTIIFA HA TIF Caie grai पारस्करः-अथाह वीणागाथिनौ राजानं संगायतां योवाप्यन्यो वीरतर इति। नियुक्तामप्यके गाथामुपोदाहरन्ति । सोम एव नो राजेमा मानुषीः प्रजाः । आविमुक्तचक्र आसीरंस्तीरे तुभ्यमसावितियां नदीमुपावसिता भवति तस्या नाम गृह्णाति। . आपस्तम्बः--गायतामति वीणागाथिनौ संशास्ति। हिरण्यकेशी:-सोम एव नो राजा याहाह्मणीः प्रजाः।
19.
Aho ! Shrutgyanam
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
20
स्वरमेलकलानिधि mentions this राग among अधमरागs and defines it as
सन्यासः सग्रहश्चैव सांशः सम्पूर्ण एव च । सोमरागः सदा गेयो मन्द्रमध्यमभूषितः ।।
लक्ष्यसङ्गीत indirectly mentions it in दुर्गा of बिलावल मेल :
अवरोहे गसंयोगे सोमरागस्य नोद्भवः ॥
under :
King Someśvara is an eminent authority on music as can be seen from the introductory stanzas of Sangitaratnākara1 and the first Sloka of the second Adhyāya of Sangītasamayasara". While dealing with the Namakarana ceremony the king advises that the male child should be named with suffixes such as simha, malla, bāhu, pāla, etc. This chapter shows that the king was very affectionate3 and tender-hearted.
EDUCATION OF THE PRINCE.
After performing the Upanayana ceremony in the eighth or eleventh year the prince should be taught one of the Vedas, the use of weapons and various other sciences. How many subjects the princes had to learn is given on page 110. They are required to be trained by experts and repeatedly examined by experts. When the king is pleased with the progress of the princes he should embrace them and honour them with sweet words and presents and the teachers should be presented with cows, towns or even villages. After educating the princes properly the king should get them married. The marriage customs also are given in the book. They appear like the present Maratha customs as observed in the royal family at Baroda excepting perhaps the use of s. p. 113. The Maratha bridegroom and the bride before are brought together face to face with a screen between them and the recitation of a goes on. They put garlands on the neck of each other after the removal of the screen put between them. The custom appears somewhat like that of the Aśvalayanas and resembles
- सङ्गीतरत्नाकर. अ. 1-18.
1. रुद्रटो नान्यभूपालो भोजभूवल्लभस्तथा । परमर्दी च सोमेशो जगदेकमहीपतिः ॥ 2. भाण्डीकभाषयोद्दिष्टा भोजसोमेश्वरादिभिः । गेयलक्षणतः केचिद् वक्ष्यन्ते लक्ष्यसम्भवाः ॥ 3. बालकानां स्वकीयानामव्यक्तं गृणुयाद्वचः । अर्धईभाषितं तेषां गालिदानं मनोहरम् ।। and फलप्रदर्शनाद् बालमानीतं मातुरङ्कतः । अङ्कमारोपयेब्दालमुरः स्कन्धतलं तथा ॥ As well as the lines like the following:
-- सङ्गीतसमयसार. 21.
कुमारं सुकुमाराङ्गमालिङ्गेदवनीपतिः । कर्णे कर्णे च कर्षन्तं वर्षन्तं हर्षमात्मनि ॥ पुत्रं गात्रात्समुत्पन्नमीक्षन्ते पुण्यभागिनः । पुत्राणां दर्शनं चन्द्रदर्शनादपि सौख्यदम || Of. धन्यास्तदंगरजसा मलिनीभवन्ति ।
शाकुन्तल. VII. 17.
Aho! Shrutgyanam
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
21
th; one given in the Prayogaratna of Nārāyaṇabhatta. How the prince proceeds to the bride's house is not given but the author has described the procession from the bride's house to the bridegroom's residence after the marriage ceremony is over. It should be accompanied by hundreds of torches while the music of the Panchamabāśabdas is going on. The use of the compound Panchamahāśabda in the line
ततः पञ्चमहाशद्वैर्वाद्यमानैर्ऋजेद्वरः । shows that there are five auspicious and sweet sounds produced by five instruments. The word occurs many a time in the copper-plate grants. The five instruments seem to include , T5, 5167, and straat.
Such lines as
वीणाभेरीमृदङ्गाकाहलकलागीतं च नृत्यं तथा। शि. मा. पू. स्तोत्र.
show that the sound of the instruments was not only loud but also sweet.
The investment with the honour of Panchamahāśabda was always granted by mighty kings to the most important citizens of the state. No such honour seems to have been given in the days of the Moghul and Maratha Ascendency..
Then comes the Annabhoga. In this chapter he has given the names of a great many articles of food and the directions as to the preparations of various dishes. The king should take his food along with his sons, grandsons, relations, lords, A. D. C.s and his special private servants. In this chapter the author gives methods of preparing vegetarian as well as nonvegetarian articles of food. Many names appear as being current in Canarese, Tamil, etc. while there are others which still survive in Marathi, Thus Dhośā, Idali, etc. are even to-day found in Canarese and Tamil while dishes like HOS-aig, gift-alat. af#r-TË, FT60f-45f0f are known to the Marāthas. The method of using Hingu (asafoetida) as given in the Mānasollāsa is not to use it in small quantities as is now being done usually but by using Hingu water. Water can give the smell of Hingu if powder of Hingu is mixed with water and kept standing for sone time. This use of Hingu is not known in Northern India. The process of Hingudhūpa is also described here which resembles Phodani (Marathi) or Vaghāra (Gujarāti) of modern days.
1. In this proces ion the bridegroom with his bride goes on a female elephant only. In a marriage procession if a horse is to be used it is the male-borse and not the female.
Aho ! Shrutgyanam
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
While describing non-vegetarian preparations the method of temoving the hair of a pig is given. The animal should first be covered with a white piece of cloth. Boiling water should then be poured on the body of the boar with the help of a Gandaka (a vessel used for taking water from a big earthern pot) with a handle slowly till the hair are so shaken from the roots that they can be easily removed by hands. The remainder may then be removed with the help of a pair of scissors. Another method of removing the hair from the body is to besmear it with mud and burn the skin with fire made of grass. While treating of the preparation of us of at he says that ar should be kept in the form of a roll like a
In the opinion of the author dishes prepared in earthern vessels taste well. Peculiar mice living in the fields near rivers are also included in the non-vegetarian food. Aster describing the vegetarian dishes the author proceeds to describe the preparations of milk and curds. Then he refers to the manner in which the district officers are to be treated while at dinner. The king himself should be supplied with a golden dish having a bunch of golden vessels for curries. The king with his face turned towards the east should sit on a cushion with a white napkin spread from the navel to the knee. Thus the use of napkins at the time of dinner appears to be an old custom of rich men or princes in India. In the beginning the king should take rice with ra and ghee; in the middle sweetmeats i, e. dishes prepared with milk, sugar and ghee should be eaten. Then he should take fruits, sweet as well as sour, cold drinks, Sikharini and thick curds. Lastly, he should take buttermilk and salt with rice, which may be followed by milk and sugar. No mention of Rangavali or artistic designs made of coloured powders by the side of the dish is made by the author.
The king is then recommended to change foods and drinks in accordance with the needs of different seasons. He is asked to eat for instance, pungent things in spring, sweet and cold things in summer, salted things in the rainy season, sweet things in autumn, greasy and hot things in Hemanta and hot and cold things in winter. It is probable that this routine is fixed in accordance with medical laws in order to counteract the Dosa? which becomes predominant in a particular season. Then comes the right or the enjoyment of drinking water.
1. cf. The line 2915 TETÈXT afaragts ar Page 128. shows how almanacs were prepared. They were in scrolls. Before he art of printing came to India such almanacs were in use everywhere.
2. In medical books we find that every season has the of some to (i, e. ara, ga and 75%) and the # of some el.
Aho! Shrutgyanam
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
23
The king is asked to sip' water very often during meals. This the author thinks, imparts taste to the food and helps digestion. Someśvara's rule regarding the drinking of water is rather peculiar. He recommends that whenever the king is thirsty he should drink water and should never think of time and circumstances, that is to say, whether it is morning or mid-night or whether he is with a full or an empty stomach, In this respect the author recommends that the rules of medical science may be violated. Compare with this the rules like the following as found in medical works: -
पिबेद्घटसहस्रं तु यावन्नास्तमितो रविः । अस्तगत्ते दिवानाथे बिन्दुरेको घटायते ॥
ग्रीष्मे शरदि पातव्यं स्वेच्छया सलिलं नरैः । अन्यदा स्वल्पमेवैतद् वातश्लेष्मभयात् पिबेत् ।।
Then he gives the nine varieties of water of which Hamsodaka is known in other medical books as Amšūdaka. He does not de Audbhida water which is given in Bhāvapra kāśa as
विदार्य भूमिं निम्नां यन्महत्या धारया स्रवेत् । तत्तोयमोद्भिदं नाम बदन्तीति महर्षयः ॥
भावप्रकाश ॥ He then teaches Pindāvāsa and Puspāvāga which impart fragrancy and taste to pure water. According to him water should be stored in earthern pots or leather pots purified with no (which includes हरितकी, बिभीतक and आमलकी) and should be drunk in golden vessels.
The king should drink Divya (rain) water in the Sarad season. flowing water from rivers in Hemanta, from lakes in Sisira, from big reservoirs (covered with lotuses etc.) in spring, from springs in the hot season and from wells etc. in the rainy season.
Then comes the Pādābhyangopabhoga--the pleasure of smearing the feet with unguents. After taking meals the king should lie down on the left side and ask the maid servants proficient in the art of shampooing to apply unguents to the feet. In the spring ghee, curds or cold milk should be used as an unguent, in the hot season butter, in the rainy season fat, marrow or butter-milk, in the Sarad ghee washed in water a hundred times or sandal-wood-water, in the Hemant and Sisira pure oil.
1. अत्यम्नुपानान्न विपच्यतेऽन्नमनम्बुपानाच्च स एव दोषः ।
तस्मान्नरो वह्निविवर्द्धनाय मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि ॥ 2. Cf. fatę HET a rangfaat la: 1
उदिते तु सहस्रांशौ बिन्दुरेको घटायते॥ -प्रबन्धचिन्तामणि ॥ 3. This is known as ata baft in Marāthi. In some books it is given that after meals first walk a hundred steps, then lie on the back for 8 respiratione, on the right side for 16 respirations and on the left side for 32 respirations,
Aho! Shrutgyanam
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
24
When shampooing is over the feet should be washed with water (good to touch according to season) by first applying the powder of Masūra pulse inixed with turmeric (to remove the grease) and then they should again be washed and dried.
Then comes Yānopabhoga. Herein he gives nine kinds of Yānas (vehicles) beginning with Dolā and ending with Plāvaka-a canoe or coracle. Dolāyāna with one bar resembles modern palanquin. The male elephant should be quick and pleasant in gait while the female elephant should go slowly along with a Puspaka (known in Marathi as Ambāri) on the back. A good mare also can be used as a Yāna, or a horse having all the four gaits should be taken as a Yāna. The four gaits are Mayūragati, Tittiragati, Marālagati and Catuskagati. The seventh vehicle is called the Ratha mostly with two wheels which is drawn by two or four horses. Eighth is the boat and the ninth is the pleasure boat, coracle or a canoe, round in form, made of bamboo chips and covered with leather.
Then comes the Chatrabhoga. In this chapter the royal umbrella, Meghaďambarī (parasol), Câmara (fly-whisk) and another kind of Cāmara made of the feathers of a peacock's tail are described. These yet and prat only are included in the royal insignia.
Then comes the Sayyābhoga in which seven kinds of beds and eight kinds of bed-steads are described. One of the seven beds (Toyaśayyā) is filled in with water and will appear quite original even in modern age. This of course is made of leather and contains water. Of the bed-steads there is none quite unkown to us. The king should have Hamsajāśayyā, i.e. a bed prepared from the feathers of Hamsa in the spring, the bed of flowers or tender foliage at the time of enjoyment, the cotton bed in the hot season and the water bed at noon. In Hemanta, Sisira and the rainy season the king should use the cotton bed to remove cold. In the Sarad season he should use the Dolāmañca i.e. swinging bed with the filaments of lotuses in it for the sake of enjoyment.
Then comes the Dhūpabhoga. Herein he gives the ingredients of the then well known Dhūpas such as the Cūrņadhūpa, Pindadhūpa and Vartidhūpa. The incense holder of gold or silver should be prepared in the form of a bird or a beast with many holes in it to allow the Dhūpa or smoke to go out of the holder. This method is useful especially in the case of Pindadhūpa. Different incense holders are described for Cūrņadhūpa and Vartidhūpa. This last kind of Dhūpa is to be placed right before the face of the king or of his beloveds or before the skirts of their Sāris or their hair.
Aho ! Shrutgyanam
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
25
Then comes the Yoşidupabhoga or the enjoyment of women. First he gives the qualifications of women whom a king should marry. Then he says among the women the beautiful is the best, among the beautiful one in full youth is the best, among the young the music knowing is the best aud among the music-knowing the dancer is the best. But at the same time he says that it is difficult to get one with all the qualities mentioned.
Regarding women other authors on Kamasastra recognise three kinds, the classification being based (1) on sex psychology, (2) on physical signs and (3) on the inherent and inborn disposition of mind.
a
not
But of
as
he
The second division comprises four kinds of women differently named as Padmini, Citriņi, Sankhini and Hastini. The author describes fully in his book पद्मिनी and चित्रिणी leaving aside शङ्खिनी and हस्तिनी worth enjoying. the first division अधम and apparently takes only two viz. Mrgi and Vaḍavā and describes them fully leaving aside fat which he treats as 4 and not worthy of enjoyment. f it is clear, is common to both these divisions. Thus the author women into six kinds combining both these kinds divides all instead of seven as a is common to both these divisions. Of the third variety also he has mentioned some kinds. At the end he advises that king should select a is girl who Padmini, Citriņi, Mrgi or Vadava and a girl who has inborn qualities that make her resemble a goddess. It is not very difficult to understand what this author means by a Devamsa (having qualities of a god or goddess) girl. Bharatamuni takes this as Devasila or Devangana while other writers Devasattva. Kamasastra take it as on Thus he selects only two girls Padmini and Citrini on sex basis, two i. e. Mrgi and Vadava on physical signs, and only a few on inborn disposition. He should from among these select one for his queen from a Kṣatriya family, but good girls from Vaisya and Sudra castes also can be selected only for the purpose of enjoyment. The third Vimsati ends with this chapter.
either
a
on
After describing the Upabhoga Vimsati (twenty chapters enjoyment) the author proceeds to describe the Vinoda Vimsati or twenty chapters on pleasure. The first chapter is the Sastravinoda. The king should invite all his servants, ministers, princes, governors, tributary kings, poets, scholars, ladies of the harem and well known courtiers and make them seated in their proper places. Then he should get up from his seat, enter the arena well dressed with a small dagger in a sheath hanging from the belt () which is made of glittering and costly cloth. He should apply sandal paste mixed with saffron to the hand near the
Aho! Shrutgyanam
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
26
shoulder beautified by two moon symbols of sandal paste. On the forehead he should wear a sign mark' of collyrium and have two white lines on both the sides of it. Like the hoods of Sesa (the serpent) he should besmear the chest with sandal paste, mark the head with the crest of the tiger's tail and wear ornaments on the neck, hands and ears. Thus dressed he, adored by the audience, should enter the arena. The peculiar Tilaka mark, that is to say, the black line in the middle and two white lines on two sides, shows that the king belonged to the Vaisnava sect resembling the Viravaiṣṇava or the sect of the modern days. The custom of making the tiger's tail as the crest-jewel is noteworthy. After entering the arena, he should select a warrior who is considered to be his equal as his opponent and show his skill in the art of using the weapons. He should begin with a small dagger in his hand and show his dexterity in wielding it.
Here some hints are given in order to test the dagger. According to the author the length of the dagger is to be measured by Angusthaparvas; the first Angusthaparva is life, the second is wealth and the third is death. In this manner the whole length should be measured. The sword or dagger that ends with the third q i. e. of death, should be forthwith abandoned.
Further on, he describes certain Sthānas or strategic positions for fighting with the sword. Then he mentions the various gaits while playing the sword. The best dagger for the king should be four Vitastis (or the distance between the extended thumb and the little finger) in length. After showing his skill with the small dagger for some time he should take a longer dagger of five Vitastis and should show his skill in wielding it. Then he should take a regular sword and test it by the Angusthaparva method already mentioned. Three kinds of swords are distinguished. A sword that is 50 fingers long belongs to the first class, that which is between 25 and 50 fingers in length is placed in the second class, while the third class of sword measures 25 fingers only. Then he gives the description of the different kinds of swords and adds that swords can also be differentiated according to the shades of colour and their lustre. Taking the sword in the right hand and the shield in the
1. ललाटे तिलकं कुर्यान्मध्ये कज्जलरेखया । aur: qâ a fanai fĦarsai qfegqòa 11 2 द्वीपिपुच्छाजिनेनाथ कुर्याच्छिरा से शेखरम् ।
Aho! Shrutgyanam
- मानसोल्लास 4-1-11.
- मानसोल्लास 4-1-12.
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
27
left the king should show his skill in the practice of sword in different strategic positions. He should show his skill in Pañcaghatas' both in the offensive as well as defensive by dexterous movements of his limbs, the sword and the shield and thus please the assembly.
When these feats are over he should have leather bands fastened round his fingers and take his beautiful bow, made of bamboo coated with red arsenic, vermilion and lac, and surrouned by sinew strings, golden belt and various jewels. It must have the quality of i. e. bounding up. It may have three, five, seven or nine qs (joints). One of the terminals should be so fine that it becomes pleasurable to handle the bow. The author then describes some Asanas or strategic positions. Then he describes the seven kinds of Mustis (fists) to be used in battle. After this he describes the different styles such as Kaisika, Satvata and Bharata to be used with a particular Musti and at a particular Lakṣya (target). They are the 'names of dramatic styles also. He adds two more styles, namely, the Vatsakarna and Skandhanyasa which are not found in the drama. Then he gives the methods of making the shield strong. One hundred skins of cows, twenty skins of horses and eight skins of oxen will become as strong as the elephant's skin when tanned by proper methods. He then advises practices by which he can pierce through a very hard target. Then he gives the different Laksyas and the different Sandhanas and shows how to discharge arrows at the targets. Parapara lakṣya is that which is inferred from sound. Then he gives five kinds of Calalakṣyas. Then come Uttamalakṣya (distance 200 Dhanus), the Madhyamalakṣya and Kaniṣṭalakṣya based on the distance between the archer and the target. He should simultaneously be able to throw one arrow towards the target, one arrow in the hand and five arrows in the sky. This can be performed only when high proficiency in archery is achieved. Then he should make an execution of Radhavedha. This seems to be more difficult than the one quoted in Mahabharata, Matsyavedha. This was done by Arjuna at the time of Draupadi Śvayamvara'. In a moving fish is pierced through by looking at the reflection in the water-pot below. The Kharjuri-vedhana feat shows that
1. Five kinds of blows by the sword. 2. Cf. 11-74 to 87. 3. Cf. अर्जुन 's fest in महाभारत ॥ पञ्चबाणान संसक्तान्संमुमोचैकबाणवत् । 4. Cf. This word occurs in very difficult feat in archery.
5. इदं धनुर्लक्ष्यमिमे च बाणाः छिद्रेण यन्त्रस्य समर्पयध्वम्
1-145-204.
art also. This was considered as a शृण्वन्तु ये भूपतयः समेताः । शरैः शितैर्व्योमचरैर्दशार्थैः ॥
- महाभारत 161.
Aho! Shrutgyanam
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
ärchery had advanced to a great degree. Then comes the Pattra-vrsalaccheda feat, which requires a q (an untouchable), for if at all through mistake any one dies it should be a Vrsala and not a high born one. There are eighty-four' of such feats in archery. Only a few of them are given in this book. Of these about fifty-two very difficult ones are recommended to be shown in the amphitheatre.
Then he should show his skill in discs by playing with five or seven discs simultaneously. Then he should show his skill in spears The spears should have different lengths according to circumstances for instance, when a man is on foot he should have a spear of seven arms, if he is on horseback he should have a six-armed spear and if he is on an elephant it should be of nine arms. In this way only three kinds of spears are required. The spear stick should be a strong one. The spear-head should be twentyone fingers in length. Below the head there should be a hook and behind it a pair of scissors and at the bottom a small Asani (i. e. a bud). A foot soldier and a soldier on an elephant require such spears, while a mounted warrior requires only the spear head. He should show then various Ävarta (circular movements) like कङ्कणावर्त, कण्ठावर्त and पृष्ठावर्त etc. by moving the spear around a particular part of the body like the wrist, neck, back etc. respectively and demonstrate their uses.
After showing his skill in spears he should demonstrate his skill in the use of Gadā (mace) which should be made of iron, of sandal-wood or of tin inlaid with jewels and gold. When he has finished the various movements lights should be waved before his eyes by the ladies of the harem for removing bad effects of evil sight; while the bards, poets and the musicians should praise him and blessings should be showered upon him by his priest and other Brahmins. Salutations from the princes should add to his happiness.
After dinner he should enter the assembly hall and should call the best poets, musicians, disputants and eloquent scholars of various subjects and make them seated around him. He should look at them with a smiling face or gracious looks. Those who are experts in the art of words, such as the grammarians and logicians, those who are endowed with natural Pratibha (genius) and those who have studied the three
NAS
1. The figure eightyfour seems to be a favourite figure of the Indians. Cf. 84 lacs of Yonis, 84 Asanas in Hathayoga, 84 Asanas in Kāmas'ā tra and in the present chapter also 84 feats,
Aho! Shrutgyanam
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
29
jewels' (Buddhists) etc. should be asked by the king to recite a good piece of poetry. Buddhism it seems had a good hold on the public even then as it is seen from the line : रत्नत्रय कृताभ्यासान् ।
The soul of poetics, in the opinion of this king, is Artha. He does not give prominence to Rīti, Śabda, Alankara or Dhvani. Thus it seems that the theory of Dhvani had not reached this king or it was not accepted by him or his court poets. It appears that the Pandits of the South were slow in accepting this theory as we can understand from the fact that Anandavardhana wrote his Dhvanyaloka in Kashmir, some hundred and fifty years before this author. Here the author first enumerates the ten Gunas and his definitions of औदार्य, ओजस्, कान्ति and समाधि are almost identical with those found in Dandin's Kavyadarśa. Next he defines the three styles वैदर्भी, गौडीया and पाश्चाली. Further while describing the three kinds of Vṛttas, namely, Visama, Sama and Ardhasama, he says that Vṛttas with one to twenty-six syllables have different class names according to the number of letters each Pada (quarter) contains. Later the Dandakas and Gathas with three Pādas are described. Then he gives the class names of the Vṛttas consisting of one to twenty-six syllables. Further on he deals with the Ganas and the Pratyayas like Prastara etc and defines the various Alankaras numbering about twenty-seven. Amongst the definitions of Alankaras that of Svabhāvokti is worth noting. His definition of Mahākāvya is similar to that given by Dandin; the definition of Campu is also to be found here. Then he gives the five Prakṛtis, five Avasthas and five Sandhis in ten kinds of dramas. In a Nataka the hero according to him should be Dhirodatta. In his classification of dramas Dima and Anka are missing. Then he gives the Angas of far, in the first three is of which he follows the order of Bharatamuni. Then he describes how Rasa is enjoyed by Vibhava, Anubhava, Sattvikabhāva and Vyabhicaribhava and describes them in detail.
The author next deals with Nyāyaśāstra. A discussion should be arranged between two Naiyyāyikas and the subject of the dispute should be Gita, Nṛtta or Vadya. So fond of music this king is that even while selecting a subject for discussion amongst the Naiyyayikas he gives preference to Gita and Nṛtta and to no Vada like at: which is often met with in modern times. Then he defines Vāda and the allied terms like Pratijñā, Hetu, Udāharaṇa, Nigama, Upanaya etc. Vada he says, should be accompanied by Jati, Nigrahasthana and Chala for understanding the rea
1. The three jewels of the Buddhists are:- 1 g 2 and 3 . 2. The king is Harar as will be seen from his chapter on music.
A
Aho! Shrutgyanam
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
truth. Then he defines Jalpa, Vitandā, Chala, Jāti and the different Nigrahasthānas. The names of two Nigrahasthānas i. e. Nigrāhyopeksana and Anigrāhyānuyoga differ from those given in the Nyāyasūtra of Gautama where they appear as CTILOITATUĦ and ATTĪSODUIT: respectively. He closes this chapter with the Hettvābhāsas and mentions the presents to be given to the successful condidate in the discussion. These appear to be the only two Šāstras (Kavya and Nyāya) in which the King Someśvara took some special interest since he completely omits the other Sāstras.
The author next deals with the Gajavahyālivinoda or the sport with elephants in the arena. The king is asked to witness the sports and fights of elephants in the arena and thereby amuse himself. Only those elephants that are in rut can run and fight and therefore, good training should be imparted to them for fighting with the Yavanas.' Medicines should also be given to elephants for making them strong, healthy and furious, after taking into consideration the variety and constitution of the elephants. Here he classifies the elephants into three chief classes, namely, Mrga, Manda and Bhadra, and calls the mixed varieties the Miśra and Sankīrṇa. The constitutions in the case of elephants are three, according to him viz. Sleşma (phlegmatic), Pitta (bilious), Anila (nervous), Mišra and Sankirņa. The temperament of the elephants is of three kinds, namely, Sātviki, Rājasi and Tāmasi, to which the two mixed classes Miśra and Sankirņa are added. The temperament of elephants having predominance of Kapha, Pitta and Vāta is respectively classified as Sättviki, Rājasi and Tāmasī. Then he gives the qualities of the three kinds of elephants namely the Sättvika, Rājasa and Tāmasa. Medicines are then prescribed in the form of balls or powders and those that can be used as ointments to the different parts of the body. The following are some of the medicines for these elephants: बृहण, मुखवर्धन, कटवर्धन, कटशोधन, मदभेदन, मदवर्द्धन, मद्धिकर and मदगन्धप्रवर्तन.
In this connecticn, he mentions medicines which have the power to change the colour of the Mada (secretion to white, blue, yellow, black or green colour. Curiously enough, the author mentions Kopadīpana medicines which excite anger in elephants and recommends that these should be administered to the elephants the day previous to the fight so that they may be able to run and fight furiously.
1. The taas were considered as very powerful enemies even at that time, owing perhaps, to the invasion of Mahmud of Gazni,
Aho ! Shrutgyanam
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
31
By the use of a (nourishing) medicines the elephant attains seven kinds of Sobhas, named here as सञ्जातरुधिरा, प्रतिच्छन्ना, पक्षलेपिनी, वरिष्टाद्युत्, समकल्पा, व्यतिकीर्णिका and द्रोणिका.
Then he describes the twelve stages of anger (Madāvasthās), five of which are internal and seven external. The elephants with the help of medicines should attain only the first five (external) stages of anger. Medicines should not be used so as to lead them to the sixth or the seventh stage because in these stages the madness may lead the elephant to fatal results. Mad elephants should always be kept in readiness for sports. The audience present should be animated by, the sounds of musical instruments like वीरसूड, ढक्का and जयघण्टा. The fans (servants) of the elephants should, surrounding the elephant, make war-cries and thus animate the warriors. Having heard these animating sounds the king should present the keepers of the elephants with elegant raiments. Medicines should be given to the elephants for making them excited. The Manda elephants should be kept in the sun, the Bhadra in the shade and the sun and the Mrga in the shade. On the day of the sports no food or water should be given to the elephants. Oil should be applied to their hips and loins and red lead to their heads and trunks. There should be a Tilak mark in the forehead (below the frontal sinews) in the middle, more or less on the same lines as we meet with even to-day in the Madras Presidency. They should then be tied to the posts at a distance from each other.
Here the author gives the measurements of the arena i. e. Vāhyālī1 (which is known now at Baroda as Aggaḍ2). The space required for the Vāhyāli should be one hundred Dhanus i. e. four-hundred cubits in length and sixty Dhanus or two hundred and forty cubits in breadth. The ground must be smooth and somewhat raised to the north. One strong house inside the Aggad may be prepared with a ditch around and a staircase leading to the top in order to have a view of the sports from an elevated seat at the top of the house. Another house should be constructed outside the ditch but it must have a ditch around it. There should be two raised seats with network and ditches, one in the south and the other in the north. These should be as high as the chest of an elephant. When the Vāhyālī is furnished thus the king should be informed of the arrangements by the chamberlain. Thereupon the king after finishing his worship, should issue a proclamation in the city with the help of drummers that men who
1. This word occurs in बाण's कादम्बरी in connection with चंद्रापीड's education. 2. The Aggad in Baroda is almost of the same area as the one mentioned here. It is 468' x 218'.
Aho! Shrutgyanam
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
32
are fat, women who are pregnant, children and those who are lame and defective in some limb, should not move out in the public thoroughfares, as there is danger to life from furious elephants. He should issue another proclamation inviting good runners to take part in the sport by running with the elephant in return for money. After taking meals he should dress himself and put on ornaments, send proper dress to the princes, their wives and to his tributary princes, and go along with his queen and ladies of the harem to the arena on an elephant in the afternoon when the sun is setting. On reaching the Vāhyāli he should get his wives down first and make the queen, princes, governors of the provinces, tributary princes, ministers and councillors go to the Alokamandir with the help of lights. The king himself should alight, cross the bridge over the ditch, and climbing the ladder he should reach the Alokamandir and take his seat on the Simhasana surrounded by his women. He should get all those that have entered the Alokamandir seated in their proper places. Being pleased on hearing the sound of Virasudas he should ask his Gajadhyaksa (officer in charge of elephants) to call the runners. Concealed in a veil and having ornaments on their bodies they should, in rivalry show their respect to the king separately. The king then should ask them to state their reasons as to why they venture to run with the elephants. On hearing them he should give proper answers. There are three kinds of Parikarakas (runners) according to their speed in running. The total space of the arena is divided into three parts; the first is called the Dvipabhūmi, the second the Nṛpabhūmi and the third the Parikarabhūmi. The runner who is able to maintain his position before the first-class elephant even by one cubit in any of the three Bhumis mentioned is considered to be the best. Similarly one who is able to maintain his position before an elephant of the middle class, is considered to be the second best, while the one who is able to maintain his position before a third class elephant belongs to the third class. He then gives the definitions of the best, middling and low speeds of elephants. The author remarks further that when a runner goes ahead by one Bhumi leaving the elephant in the previous Bhumi, he is considered to have won the race and the elephant is defeated. But on the other hand, the runner who leaves the track fixed for running and goes astray or takes to a zigzag course or who is caught by the elephant is said to be defeated. He, who runs for others, obtains a reward if successful; defeat brings no reward and if caught by the elephant he is dead.
Then the author mentions certain conditions which are required to be fulfilled by the runner for success. If a thief with his hands tied runs
1. Cf. The gladiators in the Roman history.
Aho! Shrutgyanam
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
33
in front of the elephant and survives the ordeal he is said to be free from his guilt which is otherwise removed by life when he is killed by the elephant. Aster describing the conditions of running, he defines success and defeat and then describes three classes of riders, namely, the best, the middling and the low. The author further shows the methods of mounting the elephants and different positions of riding, which are followed by different kinds of movements of the rider's body, the manipulations of the elephant's goad in respect of touching and piercing with it and the strokes of its point ( 317 or ortofr ). Elephants further are classified according to their power of understanding. Different Asanas (positions of standing of elephants are then stated. This is followed by instructions as to how the driver should control the elephant when dealing with the Parikāra. Then are given the conditions under which the driver is defeated. When an elephant reaches a stage when neither a threat nor a goad is able to control him he should be brought to the arena with his face covered by a piece of cloth and surrounded by the riders of the elephant and horsemen. Kettle-drums (ITE) should then be beaten at a little distance while the Parikāra should be asked to stand before the elephant. Soon afterwards the covering on the face of the elephant should be removed and the Parikāraka should be shown to the elephant. The elephant being naturally in an angry mood forthwith gives a chase in order to kill him. The elephant at this juncture is simultaneously attacked by the horsemen (Tmert in Baroda) when the elephant leaves the Parikāraka and runs after the horses. Some of the horses which are unfortunately overtaken in the run are forthwith killed. The elephant then turns to the spectators in the arena and kills some of them with his feet, tusks or by the sweep of his trunk. He throws stones at them, pulls them down from the trees and lifts them up from the ditches. The elephant thus creates a havoc and spreads destruction amongst men, animals, horses and chariots. On one side of the elephant is kept a group of she-elephants and on the other a group of horses is kept, while the arena is cleared of human beings. The elephant is then secured with great difficulty and led to his place of rest with the help of horsemen carrying goads in their hands.
US,
A fight between two elephants is then started. The author here describes different kinds of strokes made by the tusks. The elephants are placed face to face and the fight starts. This is called free in Baroda. When the fight is over presents should be given to the officer in charge of elephants, the Keeper of elephants, the runners, the drivers, the drum-beaters and the horsomen
Aho ! Shrutgyanam
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
34
running by the elephants. The king should thereafter ride an elephant and return to his palace.
Then comes Vājivāhyālīvinoda or the game of Indian Polo. The space required for this game measures 400 x 400' with a fencing all around and two entrances. Tents should be pitched either in the north or the south according to the current of wind for witnessing the game. When everything is ready the tent-officer should inform the king accordingly. The king should then call the chief officer of horses and order him to bring there the best horses. The king should understand their kind by the countries they come from. He then names the countries from which different classes of horses take their origin. The test for horses is based on the eight kinds of praafs, ao, TT, TT, TT, tra, Fat and 317417.
This is followed by a description of distinctive marks on the body of a horse, which are in the nature of Avartas or curls of hair. Then he classifies horses according to colour and castes which are four in number. He mentions the peculiarities of other kinds of horses, including those in respect of the formation of their body. Here he describes the 997 OTOT and AS horses. The speeds of horses are then classified as high, middling and low. Signs of bad horses are then given.
Later the methods of punishing and breaking raw horses are enumerated in order to make them fit for training. When the training is complete they may be used by the king. It is recommended that the best horse which is fitted with the best saddles, bridles and ornaments, should be selected for the king.
The author describes a game which appears to be akin to the modern Polo. When the horse is fully equipped, the king should put on orna. ments and dress and repair to the Polo ground. The best horsemen should be ranged into two opposing teams each consisting of eight members. The king joins either party according to his discretion. The queen and other companions should stay in the Mandapa reserved for distinguished guests. Afterwards he should enter the Vāhyāli. There should be two goals each consisting of two autors in the Vāhyāli on each side and these
TuS should be at a distance of three Dhanus or 12 cubits from each other. The distance between the two posts of the same arto i. e. goal posts should be four Dhanus or 16 cubits or 24 feet in length. The whole game is then described and of this an account has been already given by the editor else-where! The game of Polo in India
1. See the editor's paper “ Polo under the Cālukyas " in the Allahabad Oriental Conference of 1926 A, D,
Aho ! Shrutgyanam
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
35
shows perfection in the art of riding. It differs from the modern or Muhammadan court Polo in having eight' players in each team and in having two sets of goal-posts on each side. The ball is made of Pāribhadra tree. Thus Polo under the Cālukyas appears to be a game more difficult than the modern one. It is purely Indian. The king should please the spectators by his play and after finishing the game he should dismount when the ladies of the harem should welcome him by waving lights before his face. The king then should reward the players and go to the palace where court-bards should sing loud praises of the king.
The next chapter is entitled the 'Ankavinoda-Anka is a person who duels with another carrying the same weapon. Altogether eight kinds of Ankas are here described, viz. Paribhūtānka, Matsarāńka and Bhūmyanka etc. which are defined later on. Peculiar is Birudānka who rides a buffalo with a burning torch even during the day. The king is recommended to witness such duels. For this purpose an arena which is high, round, even and strong should be made; it should be sixteen cubits in diameter and thrice as much i. e. 48 cubits in circumference. Round the arena there should be 32 posts adorned at the top with Nimba leaves or flags and staff-bearers should be posted round the arena The Viksanamaņdapa' or the visiters' gallery should be on a high level and it should be extensive, square in size with a canopy over it. It should have an open space in front and a raised seat in the centre. He should call the Ankas on Saturday when the fighters should take their vows and oaths which should be recorded. They are to be presented with ornaments etc. and allowed to go. The king should come well-dressed next day in the afternoon along with the ladies of the harem, officers, governors of provinces, tributary princes, ministers and members of the council. On taking his seat he should see others seated in their proper places. The fighters with different marks on their bodies and special dress should then come there on female elephants Entering the arena they should, in the Kūrmāsana posture, bow down to the king and request him to give the signal. The fight commences when the king removes the stick separating the two combatants. In order to stop the duel he is required to insert the stick between the two combatants. The king should show no partiality to either of them. One who kills his opponent and thus fulfils his vow should be declared successful and rewarded by the king with articles of dress, gold ornaments, villages, gold coins or life-long pensions. The king should also show favour to the relations of the deceased combatant, protect his family with suitable grants and help
1. This is a speciality of the Southern India. 2. It seems that the Purdah system was not so much in vogue then.
Aho ! Shrutgyanam
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
36
his relations in performing the final obsequies. In this manner he should pass the day and when the sports are over he should return to his palace.
Mallavinoda follows next. There are three kinds of wrestlers. The best is called Jyesthika, the middling Antarjyesthika and the low is known as Govala. A corpulent and strong frame with high ambition marks the best type of wrestlers, while others have these qualities in a descending degree. Upto twenty years a wrestler is called Bhavisņu and upto thirty he is known as Praudha; after this age, however, he is not considered fit for wrestling. Usually thirty-two years should be the age of average wrestlers. The king should maintain Bhavişņu and Praudha wrestlers upto thirty-two on condition that they may be required to fight at the end of this period. They should be given adequate allowances and good nourishing food. The special food given to the wrestlers is also described. The wrestlers especially of the Bhavisņu class should be very carefully kept under restraint, otherwise they are likely to go astray and become weak in consequence. They should be made to practise wrestling every alternate day for increasing their strength. They should be conversant with the four Sansthānas i. e. Sthānakas and all the Vijñānas. The four Sansthānas seem to be the four chief positions (front, back, right and left) while the Vijñānas are the special tactics colloquially known as Pencha by which the opponent is defeated. After this are enumerated the names of different Vijñānas with their definitions. All these Vijñānas he should practise under the supervision of his teacher so long as he remains in service. He should practise these in the morning, so that he may be an expert in using the special tactics. In the morning again he should practise Bhārasrama or weight-lifting both by hands and feet as this gives strength to his limbs. He should also practise Bhramagaśrama, (walking) and Salilaśrama (swimming ). In the evening he should practise Bāhupellaņakaśrama or the game of clasping hands with a firm grip. Then he should do Stambhasrama (a game similar to modern Mallakhāmba). The wrestlers should practise these during their period of training, after which they should, with the Mallādhyaksa as their leader, appear before the king and request him to witness their skill. Here the author gives the definitions of different wrestlers and names them as भारी, संस्थाननिरत, बहुयोधी, वलनेसह, रक्षणक, ढकण, दर्शन, लगन and नियत.
The king should select wrestlers who are similar in appearance and strength and make them fight with Karāsphālana (modern Salāmi) in the beginning of the fight. He should then hear their Pratijñās or solemn declarations. The king should then call the chief of the household and
Aho! Shrutgyanam
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
37
command him to equip a suitable arena, with a Manḍapa for Lord Sri Kṛṣṇa. The chief officer should have the arena fitted properly with a small but raised seat for the king and a Mandapa for Lord Krisna and inform him accordingly. The king should then call upon the chief of the wrestlers to summon them to the arena. Wrestlers of the first class should be brought to the arena with honour on an elephant amidst sounds of trumpets. They should wear chains of gold and attractive dress previously sent to them by the king. They should also anoint themselves with the sandal paste and partake of a little curds and rice which are regarded as auspicious. The king in the meantime after finishing his dinner should dress himself and come to the arena accompanied by his servants, friends, princes and ladies of the harem. The wrestlers then should show their respect to the king who with flowers in his folded hands should worship Lord Sri Kṛṣṇa' (the portrait or idol) and after taking his seat on the Simhasana should see others well seated in their proper places. The wrestlers should begin their fight after clasping each other's hands. Wearing a dress fit for wrestling purposes they should fight in various ways. If both are equally fatigued they must be taken as equal. He who does not feel any fatigue should be declared successful, especially if he is able to break one of the limbs of his opponent. This method of wrestling is Southern. It seems that Northern or a wrestling was not in vogue then. The king should reward the successful candidates with dress, ornaments, vehicles or horses and allow them to go. The remainder of the day the king along with his retinue should pass in the arena discussing the wrestling bout and in the evening return in a palanquin.
The Tamracuḍavinoda or the amusement through cock-fight is described next. The chapter opens with a description of the different kinds of cocks and the special characteristics of the limbs of the cock. The king should keep the best cocks in his possession and nourish them through experts with excellent food and water. Methods of training them by applying mud mixed with salt to the comb etc. also are stated. Every possible care should be taken of these birds. The notice of challenge should be stuck to a post or a banner held high and the king should make his own cocks fight with those of his favourite queen whom he should take as an opponent. On 'Saturday night the ground should be first cleared and besmeared with cowdung and a Ratimandala (a table) with small squares in it should be drawn
1. The king or the Jyesthi people appear to be the Upasakas of Sri Kṛṣṇa 2 Of मल्लविनोद.
5
Aho! Shrutgyanam
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
38
with the help of rice-flour or with conch-flour (mixed with water). The preceptor by the recitation of proper Mantras should locate the deities in their proper squares. One Mokṣaka i. e. one who liberates or separates the cocks from fight should also be kept near the table. The liberator after reciting a particular Mantra should allow one cock, which is white or black and which has been successful in a previous fight to enter. Before uttering the Mantra he should meditate on a cock or an eagle. Then are specified the signs of successful cocks. The treatment of this subject may be considered superstitious from the modern standpoint. In the case of a successful cock lamp-black is applied to the crest or comb to remove the effects of an evil eye. The fight should take place from the month of Kārtika to that of Phalguna. Those cocks which show auspicious signs in the morning as well as after taking a little food, should be made to fight. Vadakas (drummers etc.), Nartakas (dancers) and experts in the art of cock-fighting should be adorned with garlands. The successful party should be ready to snatch away the flag with the challenge stuck to it from the previously successful party.
Another method of cock-fight is also described here. A small arena for actual cock-fight should be prepared. It should be circular and thirty cubits in circumference. There a Vedika or a raised platform should be provided. The king should occupy the royal seat placed on the platform along with his retinue. Small knives or awls keenly sharpened should be tied to the legs of the cocks. If any of the two fighting cocks injures any limb of its opponent, the opponent is declared defeated; if however the cock is killed or runs away then the defeat is through misfortune. The men of successful party should sit on the backs of the defeated party and put that party to shame through sarcastic fats, i.e. songs or metres with three feet and take away their challenge banner. The stick should be forcibly taken away by the successful party. The successful cock is taken in procession through the city on the back of an elephant. To know the duration of the fight a time-measure (watch) of gold or silver is required to be kept in readiness. The method of preparing this timemeasure is given in the text. These cocks should be made to fight for five successive Mondays. On the sixth Monday the successful cock should be adorned with dress, gold threads, a piece of cloth and garlands. At the most the fight can take place twelve times. All the eight sentiments (viz. Sṛngāra etc.) can be very easily seen in the cock-fight. There is a Támracūḍādi chapter in the Mantramahodadhi but it has nothing to do with the cock-fight.
1. This seems to be the method in South India where members of the successful party sit on the backs of the defeated party. Sitting on tha back is even done to-day in Gujarat in the game of faut fair but not as a punishment for the defeat.
Aho! Shrutgyanam
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
Then comes the Lāvakavinoda or the amusement of quails. This seems to be a favourite game in olden days. cf. Hieraar: in the seventh Tale of Mrcchakatika. IV.
In the beginning of the chapter the king Someśvara describes the kinds of Lāvakas and advises kings to preserve the best kinds of both males and females in stock. They should be well looked after with proper food and drink. Good care should be taken of the female Lāvaka, when it lays eggs and also of the young ones. The Lāvaka birds should be made to fight in a round arena on which a thin blue board of green wood is placed. All around a piece of cloth should be spread to serve as a fence. The instrument for measuring time should be kept near to show the length of the fight. The maximum time allowed for the fight is nine Nādis.' The owner is considered successful and is rewarded, if his Lāvaka is able to fight for nine Nādis without a break. But if the fight is equal he does not get any reward. If the Lāvaka is not able to fight for the full period the owner is supposed to have been defeated. At the end of the fight no strength is left in the Lāvakas--they gasp for breath. At such a stage they continue the fight through sheer anger and will-force even though the body is exhausted. Those birds that are not able to look at the opponent or contract their bodies are sure to run away (through fear), therefore they should not be allowed to fight. If the beak of one is broken or the fight is stopped both the combatants are considered to be equal. The braver of the two is declared the winner while the run-away Lāvaka is declared defeated.
Then comes the Mesayuddhavinoda-or the amusement derived from the ram-fight. The chapter opens with the description of the different varieties of rams. The ram? born with the head turned away is never defeated in the fight. The ram with a black head is also very brave. They are to be looked after very carefully, nourished with good food and they may be kept in darkness. Wine should be given to them for making them excited. Birch-bark when thrown on their face makes them very angry and in quence they fight fiercely. It becomes almost impossible to make the ram that is once defeated fight again. The fight should take place for some wager. The flag of victory is snatchel away by the successful party and the conditions of agreement are fulfilled i. e. the money wagered on the competition is taken by the successful party.
1. Nāļi is a measure which is filled up in 120 Mātrās by the stream of water. Hence 120 Mātrās mean a Nādī.
2. पराङ्मुखो य उत्पन्नो युद्धे न स पराजितः। मानसोल्लास.
Aho ! Shrutgyanam
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
40
: : Then comes the Mabişavinoda or the amusement derived from the buffalo-fight. The author is of opinion that the buffaloes obtained from Berar, Kolhapur, Punjab and the Kathiawad are excellent fighters. He then gives the description of the bodily peculiarities of the fighting buffaloes. They should be reared from early child allowed to pass through their noses when they complete one year. They should be given a particular kind of food and allowed to immerse in water for their pleasure. After five years they become strong and haughty Before the fight the buffalloes with their bodies besmeared with mud should be in the company of she-buffaloes and a garland of Nimba leaves should be placed on their neck and chest. Thereafter the two combatants should be made to look at each other by the clapping of the hands and loud noises and almost immediately the fight begins. They then fight like elephants. The buffalo whose shoulder is injured by the horns of his opponent begins to run away and the opponent pushes him with his head. He who follows is to be reckoned as the successful buffalo.
Then comes the Pārāvatavinoda or the ammusement through the pigeons. The author declares that in Sindha pigeons of the Brahmin, Ksatriya and Vaiśya kinds are found. The Sūdra kind is seldom available. This is followed by a description of all the four kinds of pigeons already mentioned along with the charcteristics of the type that is considered untouchable. He further warns that if a pigeon of the untouchable type ever enters a house the householder is required to perform some Prāyaścitta (atonement for the sins). In the palace only the first three
should be allowed to remain. They are to be properly fed and put in cages, made either of gold, silver or wood. Each cage should contain a pair, one a male and the other a female having similarity in colour or other common characteristics. A female pigeon is very devoted to her mate and she does not usually allow any other pigeon except her mate to enter the cage. There they go on multiplying. The male pigeon should then be trained to carry letters. Thus he should be let loose from a distance to the place where the female is kept. It can travel by day the distance upto thirty Yojanas i.e. 120 Kosas or 240 miles) in quest of his mate. They are very useful to the king as carriers of messages. They are also pious and sacred and therefore should always be maintained.
The next chapter treats of the Sārameyavinoda or the amusement with doge. Here are given the names of the countries which produce good
Aho ! Shrutgyanam
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
41
dogs with notes on the special features of the dogs coming from these countries. This is followed with a special description of the dogs and bitches required in hunting. Two bitches should be let loose on promise of a reward to catch a hare at its resting place. She that catches first is successful and gets the reward. If both of them catch the hare at the same time they are considered equal. For catching a boar many dogs should be let loose. When the boar makes a fierce attack on the dogs, the king should have the boar pierced and battered with iron clubs, spears and arrows. The wild boar then is caught by the shoulders, neck and ears by the dogs and is then devoured by them.
Then comes the Syenavinoda or the pleasure of hawking. Here the author describes the different kinds of falcons. The male falcon is of a small size while the female one is of a much bigger size. The female provides better amusement than the male. Four methods are described for catching the falcons: 1 catching by the hand 2 by means of nets 3 by means of nooses and 4 by means of a sticky substance. Young ones in the nests can be caught by the hand. The method of catching them by means of nets and nooses is also described later. The fourth method that is described next is interesting. The milky juice of the Asvattha tree should be collected and put in a vessel over fire till it becomes sticky. This should be applied to all the sticks placed around a bird that is to serve the purpose of a bait for the falcon. When a falcon is attracted it usually sits on these sticks and is unable to move. When thus the falcon is caught, the sticky substance should be removed from the body. Its body should be covered and a string should be tied to the feet. It should be often touched to remove its fear and should not be allowed to sleep that night and the following. Then after three days the falcons should be taken out with their eyes closed for being trained. The two ends of a long rope should be held in hand by two
men, namely the keeper and the trainer. When the training is over, they should be used for amusement. On the preceding day the falcons should not be given any food nor should they be allowed to sleep. This process makes them specially furious. Then they should be taken to a place green with grass and abounding in trees peopled with birds. The beaters should beat the bush so that the hare and birds may run away in fear. The falcons should then be let loose. By the strength of their wings they are able to catch birds at heights where they are almost invisible to the ordinary eye. The king is recommended to amuse himself with falcons in this manner.
Aho! Shrutgyanam
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
Then comes the Matsyavinoda i. e. the amusement of angling. In this chapter the author divides fish into two classes according as they have either skin or scales. They are further sub-divided into two classes, I fat and 2 thin. Then he describes various kinds of fish available in rivulets rivers and the sea. The author states the names of fish that feed on riceflour and others that do not. Then he mentions different kinds of food given to different kinds of fish. After feeding the fish in different places with proper nourishment the king should go to the place which abounds in fish with his angling rod. He then describes the kinds of rods and strings to be used in angling. With rod and line he should amuse himself by catching fish.
The last topic dealt with in this book is totaal or the amusement derived from hunting' which is considered as the highest rate by Kālidāsa in
TIEF . The author recommends that the king should have a reserve forest full of beautiful trees without thorns laden with fruits and flowers and free from fierce animals. This reserve forest should not be far away from the capital. The forest may have lakes full of water and fish. It should be at least a Yojana (8 miles) in length. Any fierce animal entering the forest should be killed by sentries riding on buffaloes. This statement of the author indicates that in the country over which Someśvara ruled, buffalo-riding was not uncommon.
Then he describes the methods of hunting which are thirty-one in number. They are :
पानीयजा चारजा च क्षेत्रजा मार्गमा तथा। ऊपरा दीपमृगजा तथा च विटपाश्रया। बधजा काण्डपटजा मश्चजा भूमिगेइजा। बलिवर्दतिरोधाना महिषारोहणोद्भवा । अश्वजा त्रिवजा चैव शारीरी स्तम्भनी तथा। वायुजा दमनोत्पन्ना गौरिजा कोपसम्भवा । कामजा ध्वनिजाता च तथा मदविकारजा । नीहारजा पाशजाता जालजा यन्त्रसम्भवा । व्याघ्रमोक्षणसम्भूता तथा कबलदानजा। एकत्रिंशत्प्रकारयं मृगया राजसम्मता ॥
1 A paper on the methods of hunting was read by the editor at the 17th International Congress of Orientalists held at Oxford in 1928 A. D. when he was sent there as a state delegate by H. H. the late Maharaja Baheb, Baroda.
2 PAGE GYFI are for ETTÄTET Pata : 11 Tray I.
3 He gives thirty-one but only thirty methods of hunting, are mentioned in the stanzas. Some lines in the text may be missing. All the methods too are not de cribed in the text, Out of these only twenty-one methods are described.
Aho ! Shrutgyanam
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
He advises not to practise killing of jackals or mice as it is degrading. A king should as well avoid hunting 1740, TEHET, HET OP HIET when they are in their resorting places or when they are in water,
Let us take these twenty-one kinds one by one. grafigar i. e. hunting near watering places. Big pits are dug out specially near watering places. In these pits the king and all the ladies of the haremdressed fully in green and wearing a feat (like the modern Pyjama) conceal themselves in such a manner that the deer do not get any scent of these people while the wind is blowing. All his men too should be dressed in green from top.to bottom. The beaters should then scatter gram before the Dipamrga (decoying deer) which are specially trained in order to attract wild deer. The trained deer return to the spot followed by the wild deer near the tank. When this wild deer comes near the tank or begins picking gram or fight with the decoying deer the king armed with his bow and arrow should kill the deer by surprise. Immediately his men should rush to the scene and remove the carcass of the deer in order that no remnant of its body and no trace of its blood may remain. When this is done other deer may be similarly attracted to this place of death. This method is better than the one which makes the hunter wander about in the hot sun in search of the game.
The second variety of hunting is called Carajā i.e. due to wandering of animals in search of food. When a forest-fire is raging, animals living there leave it in search of another which abounds in fruit and corn. They should be allowed to graze in the forest until they become bold enough to eat their food even in the presence of men moving near them. The king may kill them while a-hunting from an underground cellar (if it is day-time) or from pits or from under the shade of a tree (if it is night).
There is another kind of Cārajā Mļgayā in which wild bears are coaxed into confidence by the hunters who spread gram on their way in such a manner that the line ends near the tent prepared for the king. The same process holds good in the case of the deer also.
Ksetrajā - This is a kind of hunting in which the deer are killed when they come into a forest abounding in trees or in cultivated lands of peas, wheat, pulses etc. Here also the king should be dressed in green with weapons of green colour.
Mārgajā - The king first ascertains the path by which the deer habitually move. After knowing the route he takes his seat near it in a pit or the branch of a tree and kills them. :
Aho ! Shrutgyanam
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ūsarā -- The deer are habituated to take saltish earth, when they bigin to lick the ground they should be beaten with clubs on the backbone and thus killed.
Dipamrgajā – Young, robust and elegant male deer are trained. Bridles with bits made of iron and tin are then applied to them like horses. Female deer are similarly trained. These are called Dīpamrgas which in the absence of a better word may be translated as decoying deer or deer to serve as a bait. They are so trained that at the slightest sign they come back to their master in spite of temptations of food or a male or female of the species. The king accompanied by such Dipamrgas and two hunters should go to the forest.
When a herd of wild deer is traced the information is carried to the king, who should, then, carefully hide himself. The hunters carefully enter the forest, hide themselves behind trees and sometimes behind bullocks. One of them stealthily comes out of the forest, to inform the king leaving no ground for the deer to suspect the existence of men in the forest. He scatters leaves before himself so that the animals may not suspect the presence of men in the forest. Then the king with his bow and five arrows in one hand and a Dipamrga in the other should go forward followed by two hunters with Dipamrgas in their hands. The informant posted in the middle then should proceed cautiously and inform the person nearest to the herd. On the first man signalling these people to come nearer they should go with their bodies covered with Yavas (grass). If the herd looks at them they should let the Dipamrgas go and walk on all fours. The credulous ones among the herd may come towards the Dipamțgas either for company or for a fight. When the deer is thus drawn nearer the king should, from the place of hiding, either behind a Dipamrga or on a tree discharge arrows at the deer and kill it.
By tying the Dīpamțgas to a tree also he can have a lot of Shikār. After describing the two methods of attracting the forest deer by means of Baddha (chained or restrained) Dipamrgas he now gives the method of attracting them with the help of Mukta (unrestrained) Dīpamrgas. These unrestrained Dīpamrgas freely mix with the forest deer. The hunter spreads gram in the forest and makes a sign by snapping the thumb and the middle-finger (
S T). On hearing the signal the Dipamrgas return followed by a number of forest deer. These are then killed.
There is another way of attracting the deer by Balivardatirodhāna (lit. hiding behind a bullock) method. Hunters conceal themselves
Aho ! Shrutgyanam
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
45
behind bullocks, move as the bullocks move. and allow the unrestrained deer to move with their eyes towards the hunters. These unrestrained deer mix freely with the forest deer. Thus the hunters (keeping themselves behind the bullocks) surround the deer on all sides. Then the king takes his seat along with the ladies among the trees around him. When at the appointed place the hunters bring the decoying deer along with the forest deer, the latter are killed. by the king with arrows.
ونیم
Another interesting method of hunting the forest deer is given here. With a pair of decoying deer one female and the other a castrated male deer the king should go to the forest accompanied by hunters. Under the excitement of sexual passion the forest deer approaches the castrated or the female deer. The hunters walk on all fours and surround the forest deer which like to have communion with the Dipamrga, when the hunters suddenly get up and frighten them. The hunters then separate the forest deer and the Dipamṛga. At this stage the king comes and kills the deer. Though this kind of killing is condemned in the Rāmāyana' and Mahabharata', Someśvara recommends it.
Sun
Then comes Vitapajā or that arising from the trees. Taking a small tree in his hands and hiding himself behind the leaves the king should lightly move on green lands keeping himself concealed behind other trees. When the distance between the two is easy he can kill the animals, Then comes the Vadhraja arising out of the nets with leathern thongs. Nets should be spread and the king should remain at the end on a tree. The hunters, who move like quadruped animals, should suddenly make a thundering noise on one side so that the herd of deer may be forced to run into the leathern thongs of the net. When they are near the king should kill them with arrows.
377%
Then comes Kāṇḍapatajā or hunting by means of screen's surrounding a tent. Cutting a branch on the south-west side of a big tree, walls should be erected on three sides namely in the front and on the two sides at a distance of two cubits. The wall behind should be five cubits long. On the two sides of the tree branches of trees with green leaves should be piled up so that the walls may be concealed behind these upto the height of the navel. Then curtains from this place should be
1 मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत् क्रौञ्चमिथुनादकमवधीः काममोहितम् । 3072941021
2 Of, the curse of किन्दमऋषि to पण्डु the father of पाण्डवः ॥
6
Aho! Shrutgyanam
2
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
46
spread over a distance of a Krosa or two miles. A hundred hunters should go to the very end of the curtain on both the sides of the wall. The king should keep his queen and other ladies behind him and he should stand in front of the tree. The hunters then all should make loud noises and beat the bush in order to terrify the deer and other forest animals like tigers, wolves, jackals, bears etc., and make them run from botta the sides. They are then killed by the king with his arrows.
Another kind of Kāņdapaļajā hunting is described next. When a herd of deer without fear moves about in the jungle a band of hunters with four white legs like those of bullocks should surround the herd carefully against the direction of the wind in order that the deer may not get the scent and run away. The hunters should so arrange themselves that not a single animal can run away. Then the herd of the deer should be pressed hard and made to come near the king who then should kill them with arrows.
Then comes Vāhajā i. e. due to horses. Mounting a very speedy and trained horse the king should go to the forest and kill the deer variety of weapons.
Another kind of hunting is called the Tādikā i. e. hunting by means of clapping. When the deer are seen on a spot abounding in green gra free from dried leaves, the king should take with him some Tādas or hunters experts in timely clapping and go to the place where the deer are found. The Tādas should keep their hair dishevelled and by bending the body they should move it up and down in a circle (as in a play called Pingā in Marāthi). They should, by making a peculiar sound by mouth, attract the attention of the deer which will then fix their eyes on the Tādaka only. Then the king should come from behind and kill them with arrows.
Next follows the Vāyujā i. e. due to wind. On a stormy day when a herd of deer is seen the king should go with some eight or ten hunters in the opposite direction of the wind in order that the herd may not get any scent of them. There he should either mount a tree or a small hillock with his weapons ready. The hunters from behind should create a row in order to drive them from their original place towards the king. One after another they should be killed, except the first or the leader of the herd.
Then follows the Dāmini or the hunting due to restraint. The hunter should with or without a bullock, during the day, chase the deer in such a way that the deer may not get even water or grass. They thus become tired and are unable to run away when the hunter is sighted. Gradually
Aho ! Shrutgyanam
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
47
the hunter comes nearer and nearer. The deer then struok with hunge and thirst is completely prostrated and in consequence easily killed.
Another kind of hunting described by the author is called the Kopajā i. e. due to wrath. When two deer fight for the sake of a female or land, he should keep himself concealed behind a tree aud kill the one defeated in the fight..
Next comes the Kāmajā i. e. due to lust. When the deer are engaged in amorous sports, they become easily forgetful of the security of their person. The king should take this opportunity and kill them outright. This kind of killing forms the subject matter of the many interesting stories in the Epics (see foot note on page 45).
e After this comes the Dhvanijāi.e. due to sound. The king should climb a tree full of fruit liked by the deer. Keeping the decoying deer in front he should make an artificial sound like that of a deer. This will make the herd gather round the guide or decoying deer. The king can then kill them with arrows.
Next follows the Madavikārajā i.e. due to madness. Certain drugs mixed with food stuff may be given to the deer of different kinds and to the fish. In consequence they become insane and are easily killed.
The Tuşārajā or the hunting arising out of dew drops is another interesting kind of hunting described by our author. In moist seasons like the rainy season, spring or autumn when the land remains often wet by frost or dew, the deer find themselves in difficulties and generally take recourse to the thickets, woods, clusters or bushes. The king should go to the hunting ground before daybreak on a trained horse with a blackish armour on his body. Hunters seated on buffaloes or bullocks should go before him to find out the place where a herd of deer is sitting. The king should be informed when the shelter is discovered. Usually at this time the deer are found with their limbs contracted and eyes closed. The king then riding a buffalo goes with a small bow and arrows from behind a hunter and kills them..
Then comes the Pāšajā i. e. hunting with nooses. For this purpose nooses of thread of various kinds are prepared and are placed on a soft piece of grassy land with the corners tied to nails in such a way that they cannot be seen by the deer. Thus spreading the nooses in one place the king should follow the deer after letting a very slow and trained dog loose on the herd. At this the deer run rather slowly. While going through the trap they are caught by the hind legs and become frightened. They can then be beaten by sticks or their heads can be cut off.
Then comes the Jālajā or hunting with nets. This is more or less similar to the above with the difference that here a net is spread instead of nooses.
Aho ! Shrutgyanam
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
48
Then follows the Vyāghrajā or hunting with leopards. A leopard is caught in nets as described above and ropes are tied to its neck on both the sides and it is made to walk through the city. After ten days the rope is removed from one side and a deer with an injured leg is put before it. The leopard is then tempted to catch the deer. The flesh of the deer's lap is applied to the leapard's mouth and body. The leopard still tied with one rope to its neck, attacks the deer speedily and having caught it drinks the blood of its neck. Thereafter the leopard is released by removing the other rope tied to its neck. After three day's 'a male deer is placed before it and the same process is repeated till the leopard is fully trained to kill the deer in this particular fashion Trained leopards are then carried on bullock-carts or horse-backs to the forest and are let loose on the herd of deer. The leopard then runs with great speed and leaving aside the females it catches only the Krşņasāra i.e. the spotted antelope. This is known all over India as the famous Cheeta Hunt.
These twenty-one kinds of hunting are described in the Mānasollāsa, though the number mentioned originally is thirty-one.
With the description of hunting the present volume is closed. There remain now five chapters of this Vimsati beginning with Gita, to be published besides the whole of the 5th Vimšati. These chapters are very extensive, that on Music alone being equal to the first volume, as has been pointed out already.
Difficulties of the editor are enhanced by the fact that the extant MSS. are full of errors. Under the circumstances the original readings of the MSS. had to be supplemented with the editor's owr suggestions in brackets except in the first two formes where the incorrect texts are given in the foot notes while the correct readings are incorporated in the body of the book. Beyond this any tampering with the text has been scrupulously avoided. He has taken sufficient care in suggesting correct readings, and it is for this reason that proofs had to be detained often and or for a considerable time. This accounts for the delay in presenting the volume to the public. In spite of scrupulous care some errors have unfortunately crept in, and for this the editor craves the indulgence of scholars. The stanzas have also been numbered incorrectly on some pages. ,
It is a matter of the deepest regret to us all that our beloved Maharaja Sayaji Rao III Gaekwad should not live to see the completion of the second volume of the Mānasollāsa in the publication of which he used to take a sustained and lively interest. In his demise the world has tost a great patron of Oriental learning. Mày his soul rest in peace! Baroda,
G. K. SHRIGONDEKAR, 27th February 1939
Aho ! Shrutgyanam
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुक्रमणिका
:
. .
م س
س
ه
6
:: :: :: :: :: :: :
तृतीयविंशतिः मन्दिरमुहूर्तम् भूमिलक्षणम् काष्ठलक्षणम् आयलक्षणम् मन्दिरमुखनिर्णयः षोडशगृहलक्षणम् षोडशगेहवासफलम् ... वास्तूपशमनम् ... वास्तुपूजाविधानम् ... गृहप्रवेशः ... राजनिवासगृहवर्णनम् ... चित्रकारस्वरूपम् चित्रभित्तिः... लेखनीलेखनम् शुद्धवर्णद्रव्याणि मिश्रवर्णः ... चित्रवर्णाः ... ... पक्षसूत्रलक्षणम् ताललक्षणम् तिर्यबानलक्षणम् सामान्यचित्रप्रक्रिया ... केशवादिचतुर्विंशतिमूर्तिभेदाः अष्टबाहुहरिमूर्तिः वामनमूर्तिः... श्रीराममूर्तिः नृवराहमूर्तिः नरसिंहमूर्तिः त्रिविक्रममूर्तिः मत्स्यावतारमूर्तिः कूर्मावतारमूर्तिः
• पृष्ठम् ___ १ ब्रह्मदेवमूर्तिः २ महादेवमूर्तिः
स्वच्छन्दभैरवमूर्तिः अर्धनारीश्वरमूर्तिः ... उमामहेश्वरमूर्तिः ...
हरिहरमूर्तिः ।। स्वामिकार्तिकमूर्तिः ... ८ गणेशमूर्तिः... ११ काली(कात्यायनी)मूर्तिः
इन्द्रमूर्तिः ... अग्निमूर्तिः ... यममूर्तिः ... राक्षसेन्द्रमूर्तिः वरुणमूर्तिः ... वायुमूर्तिः ... कुबेरमूर्तिः ... ईशानमूर्तिः... मातृकावर्णनम् श्रीमूर्तिलक्षणम् नागमूर्तिः ...
दैत्यदानवपिशाचवेतालमूर्तिलक्षणानि | क्षेत्रपालमूर्तिः
| कामदेवमूर्तिः ६३ सूर्यमूर्तिः ...
| चन्द्रमूर्तिः ... ६१ भौममूर्तिः ... ६२ | बुधमूर्तिः ...
गुरुशुक्रमूर्ती ६२ शनिमूर्तिः ...
:: :: :: :: :: :: :: :: ::
: :: :: ::
:::::::
: :: :: :: :
::: :: :: ::
Aho ! Shrutgyanam
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
पृष्ठम्
पृष्ठम्
१४२
१४५
१५५
१७१
राहुमूर्तिः ... केतुमूर्तिः ... हयचित्रम् ... गजचित्रम् ... सर्वचित्रप्रकरणम् गृहोपभोगः ... स्नानभोगः ... पादुकाभोगः ताम्बूलभोगः विलेपनभोगः वस्त्रोपभोगः माल्योपभोगः भूषोपभोगः आसनोपभोगः चामरभोगः आस्थानभोगः पुत्रभोगः ... अन्नभोगः पानीयभोगः पादाभ्यङ्गोपभोगः यानोपभोगः
७३ | छत्रभोगः ... ७३ शय्याभोगः... | धूपभोगः ... | योषिद्भोगः चतुर्थावशतिः शस्त्रविद्याविनोदः शास्त्रविनोदः | गजवाह्यालीविनोदः ... ८५ तुरगवाह्यालीविनोदः ...
अङ्कविनोदः ९० मल्लविनोदः
कुक्कुटविनोदः | लावकविनोदः ९९ मेषविनोदः ...
| महिषविनोदः १०७ पारावतविनोदः ११५ सारमेयविनोदः १६६ श्येनविनोदः १३८ मत्स्यविनोदः १३९ मृगयाविनोदः
२२५ २२९ २३९
२५३
२५९ .२६१ २६२ २६४ २६७ २७१ २७५
Aho ! Shrutgyanam
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसोमेश्वरभूपतिविरचितः मानसोल्लासः।
द्वितीयो भागः।
उपभोगाः प्रवक्ष्यन्ते विस्तरेण मयाऽधुना । नाम्ना ये पूर्वमुद्दिष्टा विंशतिस्तु यथाक्रमम् ॥ १॥ वैशाखे फाल्गुने मागें सहस्ये श्रावणे तथा । शुक्लपक्षे गृहान्कुर्यात्सर्वकामफलप्रदान् ॥ २॥ .. उत्तरात्रितयं चित्रा रोहिणी स्वातिरेव च । ज्येष्ठा मृगशिरो मूलमश्विनीहस्त एव च ॥ ३ ॥ ऋक्षाण्येतानि शस्यन्ते सर्वदा वास्तुकर्माण । क्रूरग्रहैरदुष्टानि सौख्यदानि भवन्ति हि ॥४॥ आदित्यं मङ्गलं त्यक्त्वा सर्वे वाराः शुभावहाः। गृहकर्मणि शस्यन्ते वास्तुविद्याविशारदैः ॥५॥ नन्दा एकादशी षष्ठी प्रतिपञ्चेति कीर्तिताः । पञ्चमी दशमी पर्व पूर्णा एता निरूपिताः ॥ ६ ॥ नन्दाः पूर्णश्च तिथयो मन्दिरारम्भणे शुभाः । नातिक्षीणे निशानाथे गृहारम्भौं भवन्ति हि ॥७॥
१ A पुष्ये च. २ A त्य. ३ Fण. ४ A म्भे.
Aho! Shrutgyanam
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः ।
तृषो धनुस्तुका कन्या मिथुनं कलशं तथा । लग्नान्येतानि शस्तानि गृहमासादकर्मणि ॥ ८ ॥ तैतिलं गरजं नागो बवं करणमुत्तमम् । करणं शरणानां च धनधान्यकरं भवेत् ।। ९ ।।
अतिगण्डं व्यतीपातं परिघं वज्रमेव च । गण्डं शूलं च विष्कम्भ व्याघातं च विवर्जयेत् ॥ १० ॥
अन्ये सर्वे शुभा योगा वास्तुस्थापन, कर्मणि । यथा नाम तथा तेषां फलसिद्धिरुदाहृता ॥ ११ ॥
माहेन्द्रं रोहिणी चैव सावित्रं मैत्र एव च । गन्धर्वेऽभिजिते' चैतन्मुहूर्ते कारयेद्गृहान् ॥ १२ ॥
चन्द्रार्कादिग्रहाः सर्वे स्वक्षेत्रे शुभदा गृहे । बलाबलं विचार्यैषां गृहारम्भं तु कारयेत् ॥ १३ ॥ न विद्धा न च नीचस्था न च वीक्ष्णांशुदूषितः । इति मन्दिरमुहूर्तम् ।
विप्राणां पाण्डुरा भूमिलोहिता क्षेत्रजन्मनाम् ।। १४. पीता विशां समाख्याता वृषलेषु च मेचका । रत्निमत्रिकृतं गर्तं पूरयेतन्मृदा पुनः ।। १५ ।। लाभमभ्यधिके किन्यादीने हानि समे समम् ।
इति भूमिलक्षणम् ।
धनिष्ठादीनि सन्त्यज्य पक्षीणि प्रयत्नतः ॥ १६ ॥
शुभे नक्षत्रयोगे च तैरुं छिन्द्याच्छुभावहमें । सनीडं क्षीरवृक्षं च वायुवाविषितम् ॥ १७ ॥
[ अभ्यायः १
१ A लुषं २ Aणे ३ A ष्कु ४ A तिचेति ५ A पक्षे ६ A च तीक्ष्णा सुदुःखिताः । ७ A ष्वसिता तथा ८BDF ९ A भै० १० D भो मध्येऽधिके ११ F बा० १२F निः १३D च १४ A रून
१५ A हान् ।
Aho! Shrutgyanam
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
दन्तिदन्ताहतं चैव विद्युत्पातनिपीडितम् ।
स्वयं शुष्कं च भग्नं च वक्रं देवालयोद्भवम् ॥ १८ ॥
चैत्यवृक्षं शिवक्षेत्रेनदीसङ्गमसम्भवम् । तडागकूपमध्यस्थं कण्टकाकुलितं तथा ।। १९ ।। नीपं बिभीतकं निम्बं श्लेष्मान्तकैमहीरुहम् । असारांश्छाखिनः सर्वान् वर्जयेद्गृहकर्माणि ॥ २० ॥
एकजात्या द्विजात्या वा त्रिजात्या वा महीरुहाम् । कारयेन्मन्दिरं राजा श्रियमिच्छन्महीयसीम् ॥ २१ ॥
इति कालक्षणम् । व्यासेन गुणितं दैर्घ्यमष्टकैश्च विभाजितम् । यच्छेषं स भवेदयः प्रोक्तो नामभिरष्टभिः ।। २२ ॥
एको ध्वजो द्वयं धूमस्त्रिकः सिंहः प्रकीर्तितः । चतुर्थः सारमेयस्तु पञ्चमो वृष इष्यते ॥ २३ ॥
षष्ठंः खरो विनिर्दिष्टः सप्तमः स गजो भवेत् । अष्टमो" वायसः प्रोक्तश्रयमायविनिर्णयः ॥ २४ ॥
इति आयलक्षणम् ।
ऐन्द्रीं दिशं समारभ्य प्रदक्षिणविधानतः । अष्टासु दिक्षु बोद्धव्याः क्रमेणाय ध्वजादिकाः || २५ ॥ पश्चिमाशाननः श्लाघ्यो ध्वजः सर्वमुखोऽथवा ।
उत्तराभिमुखः सिंहो वृषः प्राचीमुखः शुभः || २६ ॥
दक्षिणाभिमुखो हस्ती सारमेयोत्तराननः । मुखं द्वारं विनिर्दिष्टं मन्दिरस्य विचक्षणः ॥ २७ ॥
१ A वृत्त • AF वेत्र० २ F त्रं ३ F त० ४F हाः ५A द्दा ६ Fता ७ A ष्कं कः BD को F का ९A : १० BF को ११ A
आयनाम १२ A शां १३ A य
Aho! Shrutgyanam
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
मानसोल्लासः ।
इति मन्दिरमुखनिर्णयः ।
नृपगेहानि वक्ष्यामि स्तम्भसङ्ख्याप्रमाणतः । [ चतुष्कालिन्द ] शालाभिश्चतु [ ] मनोहरैः ॥ २८ ॥
पृथ्वीजयं गृहं कार्य देशभागं विचक्षणैः । मध्ये स्तम्भशतं तस्य भद्रेऽष्टाविंशतिस्तथा ॥ २९ ॥ चतुर्भद्रेषु च शतं स्तम्भानां द्वादशाधिकम् । नव कोणाँ विदिग्देशे स्युः षटत्रिंशच्चतुर्ष्वपि ॥ ३० ॥ चत्वारो मध्यगाः स्तम्भा यत्र तत्स्याच्चतुष्ककम् । तस्माद्बहिरलिन्दं स्याच्छाला स्यात्तदनन्तरम् ॥ ३१ ॥ [ अलिन्दै ] च पुनः शाला क्रमेणैवं प्रवर्धते । यावत्कर्तुमतीतं स्याद् गृहं नरपतेः शुभम् || ३२ ॥ यच्चतुष्कगतं क्षेत्रं पञ्चधा तद्विर्भज्यते । तद्भागप्रति कार्यं त्रिभिर्भागैरलिन्दकम् ।। ३३ ।। सार्धत्रिभागिकाः शालाः कर्तव्या: सुविचक्षणैः । इयं स्थितिः समस्तानां गृहाणां प्रतिपादितां ॥ ३४ ॥ नाम्ना तु मुक्तकोणं यत् तत्कार्यं रविभागतः । मध्ये स्तम्भशतं सार्द्धं षडिन्यून [ निरूपितम् ] ॥ ३५ ॥ [ चत्वरिंशत्तथा ] स्तम्भा भद्रे भद्रे निरूपितः । शतं षष्ट्यधिकं ते स्वतुर्भद्रेऽपि सङ्खयया ॥ ३६ ॥ एकादश तथा कोणा विदिशं विदिशं प्रति । चतुर्दशैं तथा त्रिंशचैतसृष्वपि सङ्ख्यया ॥ ३७ ॥ कथ्यते सर्वतोभद्रं मनुभागैर्विभाजितम् । मध्यस्तम्भा भवन्त्यस्य षण्णवत्यधिकं शतम् ॥ ३८ ॥
[ अध्यायः १
१ MSS चतुष्कभेद ( AD दा: ) २ MSS भेदै ( F द० ) ३D देशभाषा ४ A तु ५ Mss ६F ७ Mss न्दे ८ AF तः ९ Fभु १० BD तिमं ११ Mss ताः १२F का १३ Mss. ०णा ये १४ ना १५ MSS तिपूरिताः ( F' 'नि० ) । १६ MSS चत्वारः संस्थिताः । १७ Fता १८ A ट्रा १९ मत्यः Mss, भ्य २० E शे २१ MSS चतुःषष्टिश्च ।
Aho! Shrutgyanam
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
चत्वारिंशच्चतुर्भद्रे स्तम्भा एवं निरूपिताः । एवं चतुर्षु भद्रेषु शतं षष्टिस्तथाधिकम् ॥ ३९ ॥ कोणास्तस्य विधातव्यास्त्रयोदशमिता बुधैः । समन्ताद्गणिताः कोणा द्विपञ्चाशद्भवन्ति ते ।। ४० । श्रीवत्समन्तष्टभाग स्याच्चतुःषष्टिः सुमध्यगाः । तस्य स्तम्भाः प्रयोक्तव्या भद्रेष्टादशसख्यया ॥ ४१ ॥ चतुष्वपि च भद्रेषु द्विसप्ततिरुदाहृताः । सप्तकोणाः समन्ताच्च द्विगुणाः मर्नुसङ्ख्यया ॥ ४२ ॥
एवमादीन्यनन्तानि गेहानि धरणीभुजाम् । कियन्त्यपि मनोज्ञानि प्रणीतानि यथाक्रमम् ॥ ४३ ॥
चतुःशालं त्रिशालं च द्विशालञ्चैकशालकम् । वक्ष्यामि भवनं राज्ञां नामलक्षणसंयुतम् ॥ ४४ ॥
*
अलिन्दैश्च चतुद्वारैश्चतुश्शालमुदाहृतम् । सर्वतोभद्रनामेदं नृपाणां शस्यते गृहम् ।। ४५ ।।
वर्धमानं तथाख्यातं दक्षिणद्वार वर्जितम् । स्वस्तिकं तद्भवेन्नाम्ना पूर्वद्वारविवर्जितम् ।। ४६ ।।
उत्तरद्वारहीनं चेद्रुचकं तद्भवेद्गुहम् । सर्वतोभद्रमाद्यं च चतुश्शालमुदाहृतम् ॥ ४७ ॥ शुभप्रदं नरेन्द्राणां विजयारोग्यवर्धनम् । नन्द्यावर्त वर्धमानं स्वस्तिकं रुचकं तथा ॥ ४८ ॥
चत्वारि स्युस्त्रिशालानि गेहानि धरणीभुजाम् । नैर्ऋते मुख्यगेहं स्याच्छाले चोत्तरपूर्वगे ॥ ४९ ॥
- पूर्वायाश्चोत्तरद्वारमुत्तरायाश्च पूर्वतः । कर्तव्ये गर्भस्य द्वारे द्वे तु विचक्षणैः ॥ ५० ॥
1
१ MSS त्रिकम् २ D म्मिता ग० । ३ Mss. गे ४ Miss भेदो त्रि० । ५ Fर्थे । ६ A सन्तु ७ Mss त्रिलिङ्गै । F स्त्रि० । ८ Mss, विजये जय० ९ एतत्तथा । १० Mss हे ११ FD रं० ।
Aho! Shrutgyanam
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः
AAAAmarane
एकं स्यात्पूर्वतो द्वारमन्यदुत्तरत:स्थितम् । अङ्गणाइक्षिणा शाला हस्तिनी परिकीर्तिता ॥ ५१ ॥ अङ्गणात्पश्चिमा शाला महिषीति निगद्यते । इदं द्विशालं सिद्धार्थ सर्वकामफलप्रदम् ।। ५२ ॥ नृपाणां शस्यते स्थातुं विशेषाद्वित्तवर्धनम् । वायव्ये गर्भगेहं स्याच्छाले दक्षिणपूर्वगे ॥ ५३ ।। द्वारे शालामुखे कार्ये शालाद्वारे च सम्मुखे । महिषी त्वङ्गणात्पश्चादुत्तरा गौः प्रकीर्तिता ॥ ५४ ॥ द्विशालं भयदं त्वेतद यमसूर्यं विनिर्मितम् ॥ ऐशाने प्रथमें वेश्म शाले दक्षिणपश्चिमे ॥ ५५ ।। अङ्गणापूर्वतच्छागी गांवी चोत्तरतः स्थिता । दण्डाख्यं नाम तत्मोक्तं वि(द्वि)शालं भयदं नृणाम् ॥ ५६ ।। वर्जनीयं प्रयत्नेन नृपैरावासकर्मणि । आग्नेयं मुख्यवेश्म स्याच्छाले चोत्तरपश्चिमे ॥ ५७ ।। अङ्गणात्पूर्वगा च्छागी दक्षिणा हस्तिनी मता। वाताख्यं नाम तत्मोक्तं नृणामुद्वेगकारकम् ।। ५८ ।। नृपाणां नैव कर्तव्यं निवासार्थ कथञ्चन । द्विशालमेकं सिद्धार्थं प्रशस्तं पृथिवीभुर्जाम् ॥ ५९ ॥ क्रीडार्थं सन्निवासार्थ भोगार्थ च प्रशस्यते । ध्रुवं हनिमलिन्देन पूर्वालिन्दं तु धन्यकम् ॥ ६० ॥ जयं स्यादक्षिणालिन्दं पश्चालिन्दं खरं भवेत् । दुर्मुखं चोत्तरालिन्दमेकालिन्दं चतुर्ग्रहम् ॥ ६१ ॥ धन्यं जयश्च शुभदं निन्दिते खरदुर्मुखे । पूर्वदक्षिणतोऽलिन्दं नन्दं नाम्ना निगद्यते ॥ ६२ ॥
१D सं। २ F ना० । ३ A न्मु० । ४ Mss धूतसूत्रं । ५ Mss मे ६ Mss गोधी । ७. ८F जा । ९ Mss यः १० F. D. ल्लि । ११ Mss श्च १२ Mss कान्तं
Aho! Shrutgyanam
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
दक्षिणोत्तरतोऽलिन्दं सुपक्षं परिचक्षते । उत्तरालिन्दहीनं यत्सुमुखं परिकीर्तितम् ॥ ६३ ॥
पश्चिमालिन्दतो हीनं धनदं गेहमुच्यते । दक्षिणालिन्दहीनं यदाक्रान्तं तदुदाहृतम् || ६४ ॥
पूर्वालिन्दविहीनं यद्विपुलं परिकीर्त्यते । सर्वतोऽलिन्दसंक्तं विजयं गेहमुत्तमम् ।। ६५ ।।
एवं षोडश गेहानि कथितानि परिस्फुटम् । इति पोडशगृहलक्षणम् ॥
यथा नाम फलं तेषु ज्ञेयं तत्र निवासिनाम् || ६६ || धन्यं तस्मात्प्रकर्तव्यं नृपाणां गेहमुत्तमम् । हीनस्तम्भमलिन्दं स्याच्छाला स्तम्भैः समावृता ॥ ६७ ॥ नृपाणां गृहकर्तणां क्रम एष निरूपितः । अन्यच्चतुष्पकारं तदेकशालं गृहं भवेत् ॥ ६८ ॥
प्रधानगेहं स्तम्भैश्च शाला स्तम्भैः समा भवेत् । तस्य लक्ष्म प्रवक्ष्यामि शुभाशुभफलोदयम् ।। ६९ । उत्तरा शस्यते शाला शाला पूर्वा प्रशस्यते । दक्षिणा पश्चिमा शाला द्वे शाले परिनिन्दिते ॥ ७० ॥
नृपाणां सुखवासार्थं न कर्तव्ये कदाचन । तिष्ठन् गेहेषु शस्तेषु श्रियमामोति पुष्कलाम् ॥ ७१ ॥
आरोग्यं विजयं कीर्तिं सन्तोषं परमाप्नुयात् । एवं षोडशगेहानां फलं लक्षणनामकम् ।। ७२ ।। सोमेश्वरनृपेणोक्तं वास्तुपद्धतिमार्गतः ।
इति षोडश गेहलक्षणम् ।
१ Miss न्दः २ B. D. नुप.
Aho! Shrutgyanam
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः ।
[अध्यायः१
सोमेश्वरनृपभोक्तवास्तुपद्धतिमार्गतः। अन्तर्गृहस्य कोणे स्यादेशाने शालिपिष्टकैः ॥ ७३ ॥ एकाशीतिपदं यत्नान्मण्डलं समकोष्ठकम् । ..... पूर्वपश्चिमगा रेखा दक्षिणोत्तरगा दश ॥ ७४ ॥ एकाशीतिपदं त्वेवं कर्तव्यं वास्तुमण्डलम् । तत्र पूज्यान सुरान् वक्ष्ये पदसल्याव्यवस्थितान् ।। ७५।। एकपा द्विधं च त्रिपचं नव॑पद्यकम् । ईशानकोणादारभ्य प्रादक्षिण्यंक्रमेण च ॥ ७६ ॥ पूजनीयाः प्रयत्नेन बाह्याः कोष्टगताः शुभाः । शिखी ततश्च पर्जन्यो जयन्त कुलिशायुधैः ॥ ७७ ॥ सूर्यसत्यभृशाकाशा वायुः पूषा तथैव च । विवस्वानथ पूज्यः स्याद्हक्षतयमौ तथा ॥ ७८ ॥ गन्धर्वभृङ्गराजौ च मृगः पितगणस्तथा। दौवारिकश्च सुग्रीवः पुष्पदन्तजलाधिपौ ॥ ७९ ॥ असुरश्चाथ शोप॑श्च पापो रोगाऽहिमुख्यकौ । भल्लाँटसोमनागाः स्युरदितिदितिरेव च ॥ ८० ।। द्वात्रिंशत्तु बहिः प्रोक्ताश्चत्वारोऽन्तर्व्यवस्थिताः । आप ईशानकोणे स्यात्सावित्रो" वन्हिकोणगः ॥ ८१ ॥ जयो नैऋतकोणस्थो रुद्रो वायव्यकोणगैः । ब्रह्मा नवपदो मध्ये तस्यैवास्ते समीपैगः ।। ८२ ॥ पैदमेकं परित्यज्य पूर्वादिदिगवस्थिताः । अर्यमा पूर्वदिग्भागे सविताग्नेयकोणगः ॥ ८३ ॥
D. omits this time. २ A को । ३ F दशी । ४ 0 ले । ५ A द्यां । ६ A यां । ७ A नवैव । F न चैव । ८ A तुर्य । ९ F णा। १० F त । ११ धा। १२ Mss स्त १३ Fद्भद्रक्षः A म॒श । १४ Mss मास्त १५ A कपि । १६ A शेष । १७ ल्वा । १८A स्तु १९ F क्रो। २. Fग । २१ B. निति । २२ Fग । २३ झेशान । २४ F पा । २५ F ग । २६ F पा. २७ F ता. २८ F ग,
Aho ! Shrutgyanam
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
विवस्वान दक्षिणे भागे नैर्ऋते विबुधाधिपः । मित्रस्तु पश्चिमे भागे राजयक्ष्मा च मारुते ॥ ८४ ॥ पृथ्वीधरः सौम्यगः स्यादेशाने चापवत्सकः । अर्यमा च विवस्वांश्च मित्रः पृथ्वीधरस्तथा ।। ८५ ॥
पितामहसमीपस्थाश्चत्वारस्त्रिदशा इमे । त्रिपाङ्के(दाः)कोणसंस्थाना बहिः कोणस्य पार्श्वगाः ॥ ८६ ॥ पदिका इति विख्याताः शेषा द्विपदिकाः सुराः । कुण्डं त्रिमेखलं कार्य मण्डलैशानभागतः ।। ८७ ।। हस्तप्रमाणविस्तारं खाते नवकरोन्मितम् । तत्र होमः प्रकतव्यैः समिद्भिः क्षीरजातिभिः ।। ८८ ।। पालाशीभिः समिद्भिर्वा कुशैर्वाभिरेव च । बिल्यै निम् यथासम्भवमाहृतैः ।। ८९ ।। देवतानां पृथक् कुर्याद्धोममष्टोत्तरं शतम् । अष्टाधिक विंशतिं वा प्रतिदैवतमाचरेत् ॥ ९० ॥
ततो मण्डलसंस्थाभ्यो” देवताभ्यो बलि हरेत् । कुँशरं शिखिने दद्यात् पर्जन्यायाज्यसंयुतम् ।। ९१ ।। ओदनं 'सोत्पलं दद्याज्जयन्ताय निवेदयेत् । ध्वजानपूपा पिष्टेन कूर्मरूपं प्रकल्पितम् ॥ ९२ ॥ पैष्टं कुलीशमिन्द्राय पञ्चरत्नानि दापयेत् । धूमवर्णवितानं च कुर्यात् सूर्याय कल्पयेत् ॥ ९३ ॥
संत्याय घृतगोधूमं मत्स्यान् दद्याद्भृशाय च । शष्कुलीरन्तरिक्षाय सक्तून् दद्याच्च वायैवे ( तथाग्नये ) ॥ ९४ ॥
९
1
१ प २ mss ता । ३ mss गौ । ४ F शि । ५ B दगाः । F का । ६ रा । ७ F । ८ Fà SF मं. । १० F व्यं । ११A नीम्बजैर्बाध । १२ mss कां । १३ mss तिर्वा । १४ प्यो पूजां कृत्वा । १५ A कृतान्तं, D कृशराम् । १६ A. B त्यज । १७ A सौ, सा । १८ DF वार । १९ A म्रवर्णविमा । २० A सक्तून् । २१ B D सम्पाद्य । २२ F द्भ, A दृ । २३ A स ।
२-३
Aho! Shrutgyanam
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
' मानसोल्लासः।
[अध्याय १
पूष्णे लाजाः प्रदातव्याः वित्तपे' (वितथे ) चणकौदनम् । गृहक्षताय मध्वन्नं यमाय पललौदनम् ॥ ९५ ॥ .. . गन्धर्वाय सुगन्धाम्बु अङ्गायोरणजिबिकाम् ( का)। मृगाय यावकं देयं पितृभ्यः कृशरस्तथा ।। ९६ ॥ दौवारिके दन्तकाष्ठं पैष्टं कृष्णबलिं तथा । क्षिपेदपूपं सुग्रीवे पुष्पदन्ते तु पायसम् ।। ९७ ॥ कमलं सकुशस्तम्भं(म्बं) वरुणाय समर्पयेत । असुराय सुरा देया पैष्टं सौवर्णमेव च ॥ ९८ ॥ घृतौदनं च शोषाय यवाः स्युः पापसंद्वके । रोगाय मोदकसर्पिः फणिने नागकेसरम् ॥ ९९ ॥ भक्तो"मुख्याय दातव्यों भल्लाटाय ततः क्षिपेत् मुद्गौदनं ततः सोमे पायसं मधुमिश्रितम् ॥ १०॥ .. शालिपिष्टं तु सर्पाय (शैलाय) पोलिकामदिते क्षिपेत् । दित्यै तु पूरिकां दद्यात् मरीचेः सर्कुशौदनम् ॥ १०१॥ सवित्रे गुडपूपांश्च ज॑याय धृतचन्दनम् । विश्वसेनाय (विवस्वते च) दातव्यं पायसं रक्तचन्दनम् ॥ १०२ ॥ देवाधिपतये दद्यात् तालमिश्रृंघृतौदनम् । मिश्रा (त्रा) य सघृतं भक्तं रुद्राय गुडपायसम् ॥ १०३ ॥ तिलाशतं पञ्चगव्यं दद्यादर्यमणे (म्णे)बलिकर्मणि । तिलाक्षतं पञ्चगव्यं भक्ष्यभोज्यं पृथग्विधम् ॥ १०४ ॥ आज्यं च दधिसंयुक्तं ब्रह्मणे विनिवेदयेत् । सर्वेषां काञ्चनं दद्यात् ब्राह्मणे गां पयस्विनीम् ॥ १०५ ॥
१ B विष्णवे F विकृपे । A चित्तपे नचकादनः । २ A हं कृत्वायमध्वान्तम् । ३ F भु। ४ D य । ५B कृणाम् A पैष्टकत्ते, कृष्णं च । ६D च।७ All except Aसु। ८ Mss शे । ९ A शि । १० A कान्स । ११ A Nो, क्ष्या। १२ Dखा। १३ A व्या। १४ F तै। १५A चं सकुशोदकम् । १६ A यन्तो। १७ F सृष्ट । १८ B वक्. D क्से । १९ वद्धृतम् । २० A तिलमिश्रघृतोदकम्, तालमिष्टं घृतोदनम् । २१ F म्णौ । २२D लिम्।
Aho ! Shrutgyanam
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
राक्षसानां बलिं दद्यान्मधुमांसौदनादिकम् ।
एवं सम्पूजिता देवाः शान्तिं कुर्वन्ति ते सदा ।। १०६ ॥
मासौदनं सरुधिरं हरिद्रौदनमेवच । ईशानभागमाश्रित्य वायव्यै( चरक्यै) च निवेदयेत् ॥ १०७ ॥ आग्नेयीं दिशमाश्रित्य स्थितायै मांसखण्डकम् । दध्योदनं सरुधिरं विदार्यै विनिवेदयेत् ॥ १०८ ॥ पूतनायै च नैर्ऋत्ये पीतं रक्तं बलिं क्षिपेत् । वायव्ये पाराक्षस्यै मत्स्यमांसं सुरासवम् ।। १०९ ॥ पायसं वा प्रदातव्यं तन्नाम्ना सर्वतः क्रमात् । प्रणवादिनमोन्तञ्च (श्च) यथापूर्व बलिर्भवेत् ॥ ११० ॥ ततः सर्वौषधीस्नानं यजमानस्य कारयेत् । विप्रांश्च भोजयेद्भक्त्या विदुषो गृहमागतान् ॥ १११ ॥ इति वास्तूपशमनम्
इ वास्तूपशमनं विरचय्य समाचरेत् । प्रासादभवनोद्याने प्रा (नप्रा) रम्भपरिवर्तने ॥ ११२ ॥
परवेश्मप्रवेशेच सर्वदोषप्रशान्तये । विधाय वास्तुपूजां च गृह सूत्रेण सर्वतः ॥ ११३ ॥
पावमानेन सूक्तेन रक्षोघ्नेन च वेष्टयेत् । मङ्गलं तूर्यघोषेण कुर्याद्राह्मणवाचनम् ॥ ११४ ॥
११
प्रतिसंवत्सरं यस्तु विधिनाऽनेन पार्थिवः । सद्मन्यायतने कुर्यात्स सुखं लभते ध्रुवम् ॥ ११५ ॥
इति वास्तुपूजाविधानम्
उत्तरात्रितयं हस्तो रोहिणी रेवती मृगः । पुष्योनुराधा चित्रा च स्वात्यश्विन्यभिजित्तथा ॥ ११६ ॥
१ ज २A त्यै । ३ D व्यै । ४ Fति । ५ । ६ है । ७F रो । ८ A ष्या । ९ Mss न ।
Aho! Shrutgyanam
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
मानसोल्लासः ।
धनिष्ठ वारुणं चेति प्रवेशक्षणि वेश्मनः । सूर्यभूमिसुतौ त्यक्त्वा प्रवेशेऽन्ये शुभावहाः ।। ११७ ॥
धनुः कुम्भस्तथा कन्या मिथुनं वृषभस्तथा । मीनश्चेति शुभाः वौरा राशयो लग्नसंगताः ।। ११८ ॥
लग्नं चतुर्थ दशमं सप्तमं केन्द्रसंज्ञितम् । नवमं पञ्चमं लग्गत् त्रिकोणं परिकीर्तितम् ॥ ११९ ॥ केन्द्रत्रिकोणगाः शस्ताः गुरुशुक्रबुध ग्रहाः । पापास्त्रिलाभपष्टस्थाः शुभा वेश्मप्रवेशने ॥ १२० ॥ सुधाकरवलं लब्ध्वा नातिक्षीणे निशाकरे । तिथिं रिक्तां परित्यज्य विशेन्मन्दिरमूर्जितम् ॥ १२१ ॥ ब्राह्मणोदीरितैर्मन्त्रैः शोभनैः शङ्खनिःस्वनैः । मङ्गलैस्तूर्यनादैश्व विशेद्वेश्म विशपतिः ।। १२२ ।। इति गृहप्रवेशः ।
एकभूमे द्विभूमे व भूमित्रयसमन्विते । भूचतुष्टयसंयुक्ते पञ्चभूमेऽपि वा शुभे ॥ १२३ ॥ षट्सप्तभूमे वा तथा चैवाष्टभूमिके । प्रासादे नवभूमे वा निवसेद्वसुधाधिपः ।। १२४ ॥ सुधाधवलिते रम्ये वास्तुलक्षणसंयुते । जालमार्गकृतोद्योते कापि सर्वप्रकाशके ।। १२५ ।। कापि सन्तमसोपेते मणिदीपप्रकाशिते । दन्तिदन्तविनिर्माणमत्तवारणशोभिते ।। १२६ ।। सौवर्णस्तम्भरुचिरे चन्दनस्तम्भगन्धिनि । रत्नस्तम्भकृताभासे प्रवालस्तम्भरञ्जिते ।। १२७ ॥
काकुट्टिमरोचिष्णौ स्फटिकोज्ज्वलकुट्टिमे । सुधायाः कुट्टिमोपेते स्फुरद्दरदकुट्टिमे ॥ १२८ ॥
[ अध्याय १
१ A ष्टां । २ A च । ३ A सर्वे । ४ A नं। ५ Fता । ६Dधाः AAतः ८ त्र । SB द्वि । १० B मेर्वा । ११E कौ.
Aho! Shrutgyanam
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
स्फटिकोपलविन्यासदर्पणाकाराभित्तिके । विचित्रचित्रसंयुक्त प्रमोदकरभित्तिके ॥ १२९ ॥
इति राजनिवासगृहवर्णनम् प्रगल्भैर्भावकैस्तज्ज्ञैः सूक्ष्मरेखाविशारदैः । 'विधिनिर्माणकुशलैः पत्रलेखनकोविदः ॥ १३० ॥ वर्णपूरणदक्षैश्च वीरणे — कृतश्रमैः । चित्रकैलखयेच्चित्रं नानारससमुद्भवम् ॥ १३१॥
इति चित्रकारस्वरूपम् सुधया निर्मितां भित्तिं श्लथक्षतविवर्जिताम् । लेपाय चित्रकर्मार्थं लेपद्रव्यं प्रचक्षते ॥ १३२ ।। महिषीत्वचमादाय नवां तोयेन पाचयेत् । नवनीतमिवायाति यावचिकणती भृशम् ॥ १३३ ॥ तत्कल्कं चिक्कि(क्क)णीभूतं शलाकोपरि कल्पयेत् । यत्नेन शोषयेत्पश्चाद्यावत्काठिन्यमामुयात् ॥ १३४ ॥ वज्रलेपोऽयमाख्यातश्चित्रे सर्वस्य शस्यते । तं कृत्वा मृत्तिकापात्रे तोयं क्षिप्त्वा प्रतापयेत् ॥ १३५ ॥ सन्तप्तो द्रवतां याति सर्ववर्णेषु तद्वः ।। मिश्रणीयः प्रमाणेन यथा वर्णो न नश्यति ॥ १३६ ॥ आदाय मृत्तिका श्वेतां वज्रलेपेन मिश्रयेत् । तया लेपं प्रकुर्वीत शुष्कभित्तौ त्रिवारतः ॥ १३७ ॥ शङ्खचूर्णसितापिष्टं वज्रलेपसमन्वितम् । आदाय भितिको लिम्पेत् यावत्सौ श्लक्ष्णतां व्रजेत् ॥ १३८॥ धातुं नीलगिरौ जातं श्वेतं चन्द्रसमप्रभम् । नगनाम्नैव विख्यातं शिलायां परिपेषितम् ॥ १३९ ॥
१A पद । २ A वेद B D वेध । ३ Mss except A ची । ४ A ऽथ कृतैः समे । ५ F नव । B. D. F ताम् भजेत् । ७ A द्रवम् । ८ F य । ९ A शुष्के। १. A कालेपे । ११ D स ।
Aho! Shrutgyanam
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्याय १
'मिश्रितं वज्रलेपेन समादाय च पाणिना । लिम्पेच मृदुयोगेन स्वच्छमच्छं शनैः शनैः ॥ १४०॥
इति चित्रभित्तिः । पश्चाच्चित्र विचित्रं च तस्यां भित्तौ लिखेबुधः । नानाभावरसैर्युक्तं सुवेषं वर्णकोचितम् ।। १४१ ॥ कनिष्ठिकापरीणाहां भागद्वयसमायताम् । घनवेणुसमुद्भूतां तूंलिकां परिकल्पयेत् ॥ १४२ ॥ तदने ताम्रजं शङ्ख यवमात्रं विनिक्षिपेत् । तावन्मात्रं बहिः कुर्यात्तिन्दूनामरिता बुधैः ॥ १४३ ॥ . कज्जलं भक्तसिक्थन मृदित्वा कॅन्दिकाकृतिम् । वति कृत्वा तया लेख्यं वर्तिका नाम सा भवेत् ॥ १४४ ॥ वत्सकर्णसमुद्भूतरोमाण्यादाय यत्नतः । तूलिकाग्रे न्यसेत्तानि लाक्षाबन्धनयोगतः ॥ १४५ ॥ लेखनी नाम सा प्रोक्ता सा चैवं त्रिविधा भवेत् । स्थूला मध्या तथा सूक्ष्मा तया चित्रं विरच्यते ॥ १४६ ॥ स्थूलया लेपनं कार्यं तिर्यगाहितया तया । अङ्ग(क)नं मध्ययों कुर्यादपश्विनिविष्टया ॥ १४७ ॥ सूक्ष्मया च ताँ रेखा सूक्ष्मां कुर्वीत कोविदः। - अग्रेण चित्रको धीमान् चित्रविद्याविशारदः ॥ १४८ ॥
इति लेखनीलेखनम् प्राणि वा यदि वाप्राणि तत्प्रमाणमभीप्सितम् । चिन्तयेत्तत्प्रमाणं तद्धयानं भित्तौ निवेशयेत् ॥ १४९ ।। भित्तौ निवेशितस्यास्य घृष्यमाणस्य वेतसा । तन्मानेन लिखेल्लेखां सर्वाङ्गेषु विचक्षणः ॥ १५० ॥
१F omits this and the following three lines २ A म्पयेन्म । ३ B D इति वज्रलेपलक्षणम् । ४ F न । ५ Aङ । ६ D मी । ७ D कर्कादि । ८ A वृतिं । ९ D ख। १० A आदानं । ११ Aमं । १२ F दरोणपा। १३ A याश्वं । १४ A या । १५ A कादी।१६Dणी । १७D णी।१८ A चे।
Aho! Shrutgyanam
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
विंशतिः ३.]
मानसोल्लासः।
पूर्व तिन्दुकया लेख्यं यद्वा वर्तिकया बुधैः। आकारमात्रिका लेखां विना वर्गलिखेत्पुनः ।। १५१ ॥ आकारजनिका लेखां तिन्दुवर्तिकनिर्मिताम् । . .. लिखेत्तामेवं लेखन्या गैरिकोद्भूतवर्णया ॥ १५२ ।। पुरस्ताद्वर्णकैः पश्चात्तत्तद्रूपोचितैः स्फुटम् । उज्ज्वलं प्रोन्नतस्थाने श्यामलं निम्नदेशतः ॥ १५३ ॥ एकवर्णेऽपि तत्कुर्यात्तारतम्यविभेदतः । अच्छश्चदुज्ज्वलो वर्णो घनः श्यामलतां व्रजेत् ॥ १५४ ॥ भिन्नवर्णेषु रूपेषु भिन्नो वर्णः प्रयुज्यते । मिश्रवर्णेषु रूपेषु मिश्रो वर्णः प्रयुज्यते ।। १५५॥ श्वेतेषु पूरयेच्छंच शोणेषु दरदं तथा । . रक्तेष्वलक्तकरसं लोहिते गैरिकं तथा ॥ १५६ ॥ पीतेषु हरितालं स्यात् कृष्णे कज्जलमिष्यते । शुद्धों वर्णा इमे प्रोक्ताश्चत्वारश्चित्रसंश्रयाः ॥ १५७ ॥
इतिशुद्धवर्णद्रव्याणि मिश्रवर्णानतो वक्ष्ये वर्णसंयोगसम्भवान् । दरदं शङ्खसाम्मश्रं भवेत्कोकनदच्छवि।। १५८ ।। अलक्तं शवसम्मिश्रं सस्य (ज्ञा-) सदृशं भवेत् । गैरिकं शबँमिश्रं च धूम्रच्छायं निरूपितम् ॥ १५९ ॥ हरितालं शवयुत चोरेश्व (टा-) सदृशप्रभम् । कज्जलं शवसम्मिश्रं धूम्रच्छायं निरूपितम् ॥ १६० ॥ नीली शवेन संयुक्ता कपोतसदृशी भवेत् । राजावतः स एव स्यादतसीपुष्पसनिमः ॥ १६१ ॥ ..
१ A तिन्दुकलेल्यं स्याद् । २ F B न D नितां । ३ A क । ४ A काढू । ५ A तं । ६ D र्णायितं कु। ७Dच्छः षडु । ८ B DF च्छेषं । ९ A छ ।-१० F जायते मधुर।--११-A विः। १२-A चोरस्य । १३ A सम्मिश्रं । १४ Fक्तं । १५ A. वेराश्व ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्याय १
केवलैव हि या नीली भवेदिन्दीवरप्रभा । हरितालेन मिश्रा चेजायते हरितच्छविः ॥ १६२ ।। कज्जलं गैरिकोपेतं श्यामवर्ण प्रजायते । अलक्तकेन संयुक्तं कज्जलं पाटलं भवेत् ॥ १६३ ॥ अलक्तं नीलिकायुक्तं जम्बूवर्णं भवेत्स्फुटम् ।
इति मिश्रवर्णाः । एवं शुद्धाश्च मिश्राश्च वर्णभेदाः प्रकीर्तिताः ।। १६४ ॥ तत्तद्रूपानुसारेण पूरणीयास्तु चित्रकैः । एणसारङ्गशार्दूलशिखितित्तिरिकादिषु ॥ १६५ ॥ भिन्नवर्णेषु सत्त्वेषु पृथग्वर्णः प्रयुज्यते । वृक्षपर्वतवस्त्रादिपदार्थेषु यथोचिताः ॥ १६६ ॥ भिन्ना वर्णाः प्रयोक्तव्याश्चित्रकश्चित्रकर्मणि । गौरवर्णेषु नीलेषु हरितालं पुरो न्यसेत् ॥ १६७ ॥ गौरेषु गैरिकं पश्चान्नीली नीलेषु योजयेत् । क्षुरेण तीक्ष्णधारेण रेखा न्यूनाधिका हरेत् ॥ १६८॥ पाण्डुरं विन्दुजातं यत्तत्सर्व तेन कारयेत् । .. पूरितं वणेमात्रं यत्तावन्मात्रं हरेत् सुधीः ॥ १६९ ॥ . मृदुघर्षणयोगेन यथा शंखो न नश्यति । रोमराजिं सि(जिमि)तां कुर्याद्रेखां नानाविधामपि ॥ १७० ॥ वीरणः सूक्ष्मतुण्डागुमदुघर्षणयोगतः । शुद्धं सुवर्णमत्यर्थं शिलायां परिपेषितम् ॥ १७१ ॥ कृत्वा कांस्यमये पात्रे गालयेत्तन्मुहुर्मुहुः । लि(क्षि)प्त्वा तोयं तदालोड्य निहिते(तं)तज्जलं मुहुः ॥ १७२ ॥
१ A बाण । २ A न० । ३ D न्यसेत् पुनः । ४ A शाखो। ५ B जि । ६ B D ची 1 ७ F ह्य।
Aho! Shrutgyanam
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३)
मानसोल्लासः।
१७
यावच्छिलारजो याति तावत्कुर्वीत यत्नतः । घनत्वान्ममृणं हेम न याति सह वारिणा ।। १७३ ॥ आस्तेऽतिनिर्मलं हेम बालार्करुचिरच्छवि । तत्कल्कं हेमजं स्वल्पं वज्रलेपेन मेलयेत् ॥ १७४॥ मिलितं वज्रलेपेन लेखन्यग्रे निवेशयेत् । लिखेदाभरणं कापि यत्किञ्चिद्धेमकल्पितम् ॥ १७५ ॥ . . चित्रे निवेशितं हेम यदा शोषं प्रपद्यते । वराहदंष्ट्रया तत्तु घट्टयेत्कनकं शनैः ॥ १७६ ॥ यावत्कान्तिं समायाति विद्युञ्चकितविग्रहोंम् । सर्वचित्रेषु सामान्यो विधिरेष प्रकीर्तितः ॥ १७७ ॥ . प्रान्ते कज्जलवणेन लिखेदेखा विचक्षणः । वस्त्रमाभरणं पुष्पं मुखरागाधिकं सुधीः ।। १७८ ॥ अलक्तेन लिखेत्पश्चाच्चित्रं पूर्ण' भवेत्ततः ।
___इति चित्रवर्णः ऋजुस्यामथमं स्थानमन्यत्तद्वज्र ( दर्धर्जु ) संज्ञितम् ।। १७९ ॥ तृतीयं स्थानकं साँचि तुर्य तद ( त्वर्धा ) क्षिसंज्ञितम् । पञ्चमं भित्तिकं प्राहुः पश्चाद्भागगतं च यत् ॥ १८० ॥ पञ्चस्थानानि मुख्यानि कथितानीह संज्ञया । तेषां तु लक्षणं वक्ष्ये ब्रह्मसूत्रविभेदतः ॥ १८१ ॥ ब्रह्मसूत्राद्धाहेः सूत्रे षड्जवा(ट्क्षड)ङ्गुलमध्यमे । यत्र स्यादृजुसंस्थानं रूपं साम्मुख्ययोगि तत् ॥ १८२ ॥ . अन्तरं ब्रह्मसूत्रस्य पक्षसूत्रस्य चैकतः। अष्टाङ्गलं ततोऽन्यत्र चतुरङ्गलमन्तरम् ॥ १८३ ॥ .
१Dङ्ग । २ D ह । ३ D वं । ४ A त्रवर्ण । ५8 वर्णा । ६ A सन्मुख। ७A ने । ४ A वा । ९ A पाङ्गिगदितम् । १० A त । ११ BF इज्रा । १२ D तु ऋ, A मृदु । १३ A मिनम्
Aho! Shrutgyanam
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
। अध्याय १
उक्तमर्द्ध के स्थाने लम्बसूत्रक्रमो भवेत् । अङ्गुलानि दशैकत्र कलामात्रं ततोऽन्यतः ॥ १८४ ॥ अन्तरं ब्रह्मसूत्रस्य पक्षसूत्रद्वयस्य च । साचिस्थानं समाख्यातं मूर्द्धसूत्रस्थितिक्रमः ॥ १८५ ॥ एकत्रैकाङ्गलं यस्मिन्नन्यत्रैकादशाङ्गलम् । मध्यं तू (ध्यात्वर्धा)ीक्षिके स्थाने लम्बसूत्रक्रमो भवेत् ॥ १८६ ।। पक्षसूत्रद्वयं तिष्ठेद् ब्रह्मसूत्रं न दृश्यते । . . लम्बसूत्रक्रमो ह्येष भितिके समुदाहृतः ॥ १८७ ॥ स्थानेषु परिवृत्तेषु लम्बसूत्रंक्रमोऽद्ययम् । . व्यन्तरेषु तदर्द्धन लम्बसूत्रक्रमो भवेत् ॥ १८८ ॥ केशान्ततः समागत्य भ्रूमध्यान्नासिकाग्रतः ।। चिबुकाद्धृदयानाभेश्वरणद्वयमध्यगम् ॥ १८९॥. आभूमर्मस्तकं यावद ब्रह्ममूत्रमुदाहृतम् ।। अचलं तहजुस्थाने स्थानेष्वन्येषु तेच्चलम् ॥ १९ ॥ पार्श्वयोस्तत्र मूत्रे द्वे षड्द (ट्पड) जुलदूरगे। ... कर्णान्ताच्चिङ्घकाज्जानुमध्यात्तलकबाह्यतः ॥ १९१ ॥. पादप्रदेशिनीमध्याद्भूमि प्राप्ते उभे अपि । पक्षसूत्रे समाख्याते सर्वस्थानेषु निश्चिते" ॥ १९२ ॥
। इति पक्षसूत्रलक्षणम् । तत्र मानं प्रवक्ष्यामि शरीरे नवतालगम् । परमाण्वादिभेदेन यथा बोधः प्रजायते ॥ १९३ ॥ परमाणुभिरष्टाभिस्त्रसरेणुर्निगद्यते । त्रसरेणुभिरष्टाभिबालाग्रमभिधीयते ॥ १९४ ॥
१ A अर्धाङ्गलं क्षिपेन्मध्ये । २ A द्वै जु । ३ तिष्ठन् । ४AF त्तोऽयं A षिक्ते । ५ Fत्रे।६ A मूर्ते। ७D गुदगुलदूरगे। ८ F च्चु । ९ D हुकः । १० B. D ना ११ A तम् , श्चलम् ।
..
Aho! Shrutgyanam
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
बालारष्टभिर्लिक्षाः यूका लिक्षाष्टकं भवेत् । यूकाष्टकं यवः प्रोक्तो यवाष्टकमथाङ्गुलम् ।। १९५॥ . एकाङ्गुलं भवेन्मात्रा द्वे' मात्रे गोलकं कला । त्रिमात्रम (ध्य)र्द्धकला भागश्च चतुरङ्गुलम् ॥ १९६ ॥ त्रयो भागा वितस्तिः स्याद्वितस्तिस्ताल उच्यते । तालस्तु मुखमाख्यातः व्यवहाराय कोविदः ॥ १९७ ॥ उत्सेधस्तुभवेदैर्ध्य विस्तारस्तिर्यगीरितः । आनाह(हः) परिधिः स्थौल्यमेवं मानत्रयं भवेत् ॥ १९८ ॥ दैवतं यल्लिखेद्रूपं यावन्मानमभीप्सितम् । विभजेद्वदनं तस्य त्रिभिर्भागैविचक्षणः ॥ १९९ ॥ केशान्ताद्धनुपर्यन्तं मुखं ताल इति स्मृतम् । स्याद्वादशाङ्गुलं वकं तत्तद्रूपस्य मानतः ॥ २०० ॥ तालमात्रं मुखं तत्र ग्रीवा स्याच्चतुरङ्गुला । तालः स्याद्धृदयं यावदानाभेस्ताल इष्यते ।। २०१॥ नाभेरधस्तात्तालस्तु मेदावधिमितो भवेत् । तालद्वयं भवेदूरू जानु स्याच्चतुरङ्गुलम् ॥ २०२॥ तालद्वयमिता जङ्घा चरणश्चतुरङ्गुलेः । नव तालमिदं मानं केशान्ताच्चरणावधि ॥ २०३ ॥ केशान्तस्योपरिप्रोक्तं मस्तकं चतुरङ्ग्लम् । केशान्तान्मौलिरुद्दिष्टः शिष्टैरष्टादशाङ्गुलैः ।। २०४ ॥ ब्रह्मसूत्रस्य मानेन तालमानं निरूपितम् ।
___ इति ताललक्षणम् । तिर्यक्मूत्रविधि वक्ष्ये प्रतिसन्धि यथाक्रमम् ।। २०५॥ मस्तके प्रथम सूत्रं केशान्ते तदनन्तरम् । कर्णाग्रं(ग्रात) व्यङ्गुलादूर्ध्व तत्सूत्रं वेष्टयेच्छिरः ॥ २०६ ॥ . .
१D द्विमात्रा । २ A नं । ३ A मि। ४ Fणे च । ५ F लम् ।
: ..
Aho ! Shrutgyanam
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
मानसोल्लासः ।
ततोऽधस्तपनोदे (नोद्दे )शे द्विमात्रे सूत्रपादपे (तनम् ) । तैंद्याति शङ्खमध्येन कर्णाग्रादूर्ध्वमङ्गलात् ॥ २०७ ॥ शिरसः पृष्ठेर्कूर्मस्य प्रोष्टँमङ्गुलतो व्रजेत् । वेष्टितं घटते सूत्रं स्थापने वामतः क्रमात् ।। २०८ ॥ ततोऽङ्गुलं समुत्सृज्य सूत्रपातं प्रकल्पयेत् । कैंचोत्सङ्गाद्भुवोपान्ता कर्णाग्राच्छीर्षकूमम् । ॥ २०९ ॥
ततोङ्गुलं परित्यज्य समारभ्य कनीनिकाम् । अपाङ्गात्पिप्पलीमूर्द्धशिरोगतर्ध्वकं नयेत् ॥ २१० ॥
त्यक्त्वा कलां ततः पूर्ते ( सूत्र ) नासामध्ये निवेशितम् । कपोलोच्चप्रदेशेन नेर्यौच्छ्रान्त (च्छोत्र ) स्य मध्यतः ॥ २११ ॥
ततोऽङ्गुलैद्वये सूत्रं नासाग्रेण कपोलयोः । कर्णमूलान्नयेत्पृष्टं केशोत्पत्तिप्रदेशतः ।। २१२ ॥
तैंतोऽङ्गुलद्वयं सूत्रं नासाग्रेण कपोलयोः ।
ततो द्य(तःसा)र्धाङ्गुलं त्यक्त्वा वक्रमध्याद्विनिःसृतम् ॥ २१३ ॥
सूत्रं सृक्कर्मदेशेन प्रापयेत्तत्कृकाटिकाम् । ततश्चार्धाङ्गुलं त्यक्त्वा सूत्रं स्यादधरोष्ठजम् ।। २१४ ॥
हनुसन्धिविभागेन यावत्पश्चिमकन्धरम् । ततोऽङ्गुलद्वयं त्यक्त्वा हन्वये सूत्रमिष्यते ॥ २१५ ॥
कन्धरात्स्कन्धसन्धेि' तत् समत्वेन प्रपद्यते । ततः कलाद्वये त्यक्ते हिक्कायां भुजशीर्षयोः ।। २१६ ॥
अधस्तात्ककुंदैः सूत्रं परावृत्यै प्रकल्पयेत् । सप्ताङ्गुलं समुत्सृज्य सूत्रं वक्षस्थलोद्भवम् ॥ २१७ ॥
[ अध्याय १
१ F नो । २ D शेद्वि । ३ D पा । ४ A दद्या BD ददा । ५A थकू । ६ F क। ७ Dथ A टि । ९A त्रं । १० B कण्ठो D भ्रुवोः सः । ११ A न्तां । १२ Aकम् । १३D पं. A प्पि । १४ D र्धिकेतुये, १५ B. Fयौ के । १६ A याव । १७ A मूलद्वयं । १८ F adds this line 1. १९ A ज्य । २० A न्वाग्रं । २१ A देशे । २२ A दं । २३ H वर्त्य ।
Aho! Shrutgyanam
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
स्तनरोहितमार्गेण कक्षासन्धौ निवेश्यते । तदेव सममार्गेण परावृत्तंप्रदेशतः ॥ २१८ ॥ मध्ये फलकमानीतं (य) पृष्ठवंशे समाप्यते । ततः पञ्चाङ्गुलं त्यक्त्वा क्रमाद्विभ्रमसङ्गन्म(ग)म् ॥ २१९ ॥ नयेच्च सममार्गेण मूत्रं चुकयोरधः । आरभ्य बृहतीदेश(शात) बाहुमध्योध्द्रसङ्गमम् ॥ २२० ॥ परावृत्यैव तन्नीतं पृष्ठमध्ये समर्पयेत् । षडङ्गुलं समुत्सृज्य मूत्रं जठरमध्यगंम् ॥ २२१ ॥ बाहुपीनान्तकं नेयं परावृत्य समं हि तत् । भागं कलाधिकं त्यक्ता सूत्रं नाभिसमुंद्धृतम् ॥ २२२ ।। श्रोणीमॉर्गसमानीतं कुंकुन्दराशिरो नयेत् । भागमेकं ततस्त्यक्ता मूत्रं पक्काशयागंतम् ॥ २२३ ॥ नितम्बमध्यादानीतं स्फिजोरू नियोजयेत् । ततः कलाद्वयं त्यक्ता सूत्रं काञ्चीपदस्थितम् ॥ २२४ ॥ स्फिजोर्मध्यमदेशेन समं नीत्वा नियोजयेत् । त्यक्ताङ्गुलानि चत्वारि सूत्रं लिङ्गशिरोगतम् ॥ २२५ ॥ ऊरुमूलात्समानीतं जघनाभोगसङ्गतम् । पञ्चाङ्गुलं परित्यज्य लिङ्गाग्रात्सूत्रमुत्थितम् ॥ २२६ ॥ स्फिजोरधः समानीतं वलीमध्ये निवेश्यते । ततो भागद्वयं त्यक्ता सूत्रं 'पूर्वे निवेशितम् ॥ २२७ ॥ परित्यज्य ततो भौगं मानसूत्रं व्यवस्थितम् । ततः कलाद्वये त्यक्त्वाँ जानुमूर्धनि सङ्गतम् ॥ २२८ ॥ इति स्त्रत्रयं तज्ज्ञः समन्तात् परिवेष्टयेत् ।
गोलकद्वितयं त्यक्त्वा स्थापितं जानुनोरधः ॥ २२९ ॥ १ A तः F ते । २ F न । २ A भवेच्च । ३ B चुबु । ४ D श । ५ A मध्योx, Dस्योर्ध्व । ६A समं धृतम् । ७ B भाग । ८ D क । ९ D न्तगम् । १० A लि । ११ A सूच्या A पूर्वो। १२ A निवेशयेत् । १३ A भागमथो ) भागमर्थ । १४ D ते। .
Aho! Shrutgyanam
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
'[ अध्याय १
सूत्रं तु वेष्टयेत्प्राज्ञः समन्तात् सर्वतः समम् । . तालमेकं ततस्त्यक्त्वा शुक्रवस्तौ निवेशितम् ॥ २३० ।। सूत्रमावेष्टयेत्प्राज्ञः समचित्रविशारदः। ततो दशाङ्गुले त्यक्ते यत्सूत्रं नलकान्तगम् ।। २३१ ॥ गुल्फमस्तकमानीतं पाणिमस्तकमानयेत् । कलामेकां ततस्त्यक्त्वा सूत्रं गुल्फान्तसङ्गतम् ॥ २३२ ।। वेष्टयेच्चित्रको धीमान् सर्व सर्वत्र मानतः। ततो भागं परित्यज्य भूमिसूत्रं परित्यजेत् ॥ २३३ ॥ पडिशतिविधं सूत्रं तिर्यमाने निरूपितम् ।
इति तिर्यङ्मानलक्षणम् । अतऊर्ध्व प्रवक्ष्यामि प्रदेशानां विनिर्णयम् ॥ २३४ ॥ आकारश्च तथा दैर्ध्य स्थौल्यं विस्तारमेव च । छत्राकारं भवेच्छी शिखादेशे समुन्नतम् ॥ २३५ ॥ शिखायाः पूर्वतो भागं किश्चिनिम्नं भवेत्तां । शिखायाः पार्श्वनिम्नं यत् कलामात्रं विहाय तत् ॥ २३६ ॥ शिखायाः पश्चिमे भागे प्रोन्नतं जायते मनाक् । ततोऽधस्ताद्भवेद्गतः शृगा(प्रणा)लसदृशाकृतिः ॥ २३७ ॥ एकाकुलस्तु विस्तारो दैर्ध्य स्यादैङ्गुलद्वयम् । कर्णाग्रसन्धौ संलग्नः कर्णपृष्ठेऽङ्गुलान्तरम् ॥ २३८ ॥ ततोऽधोयङ्गुलातीतस्व्यङ्गुलोऽथ करो(चो)द्भवः । एकैकाङ्गुलविस्तारः शिरोगतस्य पार्श्वयोः ।। २३९ ॥ इत्येष पश्चिम भागे कथितः केशसम्भवः ।। केशाः कृष्णाः पिशङ्गा वा जटिलाः कुटिलाः कचित् ॥ २४० ॥
१D भाग। २D मष्टमये । ३ A त । ४ BF मं । ५ A नं निरूप्यते । ६ A श । ७ BF चनं। ८ DF दा । ९ BD भर्तुः । १० D द्यं । ११ Dरः । १२ A ‘व्य D य ।
Aho! Shrutgyanam
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
विरच्यन्ते यथाशोभं तत्तद्रूपानुसारतः । अष्टादशाङ्गुलं पूर्व पश्चिमार्द्धं तथैव च ॥ २४९ ॥ भवेतां कर्णयोरूर्ध्व भागौ पूर्वापरौ समौ । सीमन्ताद्गर्तमध्यान्तं भवेदष्टादशाङ्गुलम् || २४२ ॥ वामदक्षिणयोर्वेष्ट्यं भवेत्तालैस्तुनिर्मितम् । एवं भागद्वयोपयुक्तो विस्तारो मस्तकाश्रयः ॥ २४३ ॥ पत्रिंशदङ्गलो ज्ञेयः परिणाहो विचक्षणैः । भ्रूपृष्ठात्केशपर्यन्तं ललाटं व्यकुलं भवेत् ॥ २४४ ॥ भ्रूयुग्ममध्यादारभ्य ततो द्यर्धकलामितम् । भ्रुवोपान्तात्तदेव स्यात्कलाद्वितयसंमितम् ।। २४५ ।। आरोपितधनुः प्रख्या भ्रुवोर्लेखा विरच्यते । मात्रांर्द्धकृतविस्तारी क्रमशः परीहीयते ॥ २४६ ॥
प्रान्ते श्लक्ष्णा च तीक्ष्णा सां दैर्घ्यं च त्र्यङ्गुला भवेत् । त्रियवं रोमदैर्घ्यं च भ्रुवोर्मध्ये विधीयते ॥ २४७ ॥
द्वियवं तु भवेदादौ प्रान्ते स्याद्यवमात्रकम् । वितर्के हसने कोपे विस्मये मध्यकुञ्चिता ॥ २४८ ॥ जुगुप्सिते सूक्ष्मदृष्टौ भ्रूयुगं कुञ्चितं भवेत् । केशान्तरेखाविन्यासो द्वितीयेन्दुकलाकृतिः ।। २४९ ॥ प्रान्तीरु (बु) त्क्षेपनमानौ प्रदेशौ परिकीर्तिता । उत्क्षेपाभ्यां समौ कुर्याद्भुवोः प्रत विचक्षणः || २५० ॥ एवं ललाटमानं तु चतुष्कल मुदाहृतम् । उत्क्षेपप्रान्तदेशे" स्यादृजुरूपा लकावली || २५१ ॥
कलामात्रा च सा ज्ञेया स्थोंपनी ( स्थपति) सूत्रकारिभिः । ततस्तिर्यग् व्रजेद्रेखा मात्राद्वितयसम्मिता ॥ २५२ ॥
२३
१ A त । २ F द्य । ३ A ड्विं । ४ Aरि । ५AF दार्द्ध । ६D तं । ७D र्द्ध । ८ BD रः । D. F. च स्याद्दैर्ध्य । १० F तां चु D न्तावुत्क्ष | ११ A. नी । १२ A वोपान्तौ । १३ B. E तच । १४ D शः | १५ D स्थ । १६ D वधिः । १७ B संयुता ।
Aho! Shrutgyanam
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्याय १ निर्गच्छति ततः कूर्च तद्रेखामात्रया मितम् । कुर्वत्रे (चरे) खा भ्रुवोः प्रान्तमध्ये स्यादङ्गुलद्वयम् ।। २५३ ॥ स एव सङ्ख्यो (शङ्खो) विख्यातः प्रदेशविधिकोविदः । पिप्पल्याः कूर्चरखाया भवेदङ्गुलमन्तरम् ॥ २५४ ।। एवं ललाटविन्यासः कथितः सोमभूभुजा । अर्धाङलंध्रुवोर्मध्यान्नासामूलं निरूप्यते ॥ २५५ ॥ किञ्चिल्ललाटतो निम्नं तस्य पार्श्वे कनीनिके । समन्तान्नेत्रयो गर्तावक्षिकूपौ च कल्पितौ ॥ २५६ ॥ अर्धाङ्गुल प्रमाणे (णौ) तौ नेत्रवर्त्मबहिः स्थितौ । अर्धाङ्गुलप्रमाणेन नेत्रवर्त्मद्वयं भवेत् ॥ २५७ ।। निमीलनार्धवा च ( दूर्ववर्त्म ) भवेदङ्गुलसम्मितम् । त्रियवं पक्ष्मणां दैर्ध्य सादवा मकृमा (सान्द्रिमा वक्रिमा) शुभः ॥ २५८ ॥ अर्धाङ्गुलमिते स्यातां नेत्रमूले कनीनिके । यङ्गुलं नेत्रयोदैर्ध्य विस्तारः स्यात्तदर्धतः ॥ २५९ ॥ एवं पञ्चयवौ कार्यों शुक्लभागौ विचक्षणैः । तन्मध्ये मेचकं कुर्यान्मण्डलं वर्तुलाकृति ॥ २६० ॥ तच्च पञ्चयवं प्रोक्तं तन्मध्ये दृष्टिरिष्यते । वर्तुला यवमात्रा च पुत्रिका प्रतिविम्बिनी ॥ २६१ ॥ रक्तता प्रान्तयोः शस्ता तीक्ष्णताऽपाङ्गन्योः शुभा। मध्योन्नतं नेत्रगोलं का कार्य प्रयत्नतः ॥ २६२ ॥ आकारो नेत्रयोः कार्यों नीलोत्पलदलोपमः। अपाङ्गन्योरधः कार्यों कपोलौ द्वयङ्गुलौ मतौ ॥ २६३ ॥ कर्णपिप्पल(लि)देशान्तौ तिर्यसूत्रेण मापितौ । अपाङ्गपिप्पलीमध्ये पञ्चाङ्गुलमुदाहृतम् ॥ २६४ ।।
Mss ता । २ A न्ते। ३ Mss ल । ४ B. D. F add this line ५ A सादवा मकृमा C Dदमान् कृता, B दमावकृमा । ६ Mss except F तिः। ७ A म्ब।
Aho! Shrutgyanam
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
तदेव च समं तियई मापितं चतुरङ्गुलम् । ऊर्ध्वाधोबन्धयोर्मध्ये कर्णयोस्त्र्यङ्गुलं भवेत् ।। २६५ ॥
सं स्याद्दिगोलकायामो नासायाः पुरतः स्थितः । तस्य मध्ये भवेद्गोजी' मैणालाकारधारिणी ॥ २६६ ॥ अर्धाङ्गुला भवेद्दैर्ये विस्तारे त्रियवा भवेत् । उत्तरोष्ठो भवेत्तस्या अधस्ताद्भागदैर्घ्यः ॥ २६७ ॥
यवपञ्चकविस्तारः क्रमशः परिहीयते । श्मश्रूत्तरोष्ठयोर्मध्ये रेखा किश्चित्समुर्त्यांला || २६८ ।। उन्नता यवमात्रा स्याद्दैर्ध्याद्दोष (दोष्ठ ) प्रमाणिनी । अधरोष्ठे(ष्ठो) भवेत्तस्या अधस्ताद्भागदैर्घ्यवान् ॥ २६९॥
ओष्ठयोरुभयोः प्रान्तसंयोगे किंणी मते । नेत्रज्योतिःसमें कार्ये विकाररहिताकृतौ ॥ २७० ॥
विकाद्वर्धते सृक्का तथा सङ्कोचमेति च ।
हसने दन्तनिष्का से भीतैमर्कट ( भीते तर्फे च ) - रोदने ॥ २७१ ॥
वर्धते सृक्किणेर्द्वन्द्वमेकैकाङ्गुलमायतौ ।
चुम्बने फूत्कृतौ तद्वदानादिफल चूषणे ॥ २७२ ॥
सङ्कुचेत्सृकिर्णेद्विन्द्वमेकैकाङ्गुलहानित: गोजिह्वाधरयोर्मध्यं व्यासेन चतुरङ्गुलम् || || २७३ ॥
पार्श्वद्वयं क्रमाद्धीनं त्रिद्वये काङ्गुलमानतः ।
१७
दन्ता द्वादश दृश्या स्युः पङ्किद्वयसमाश्रिताः ॥ २७४ ॥
ऊर्ध्वा पचवा दृश्यास्तलस्थास्त्रियवास्तथा । राजदन्तौ तु मध्यस्थौ ऊ(स्थावू ) र्ध्वपंक्तिसमाति ॥ २७५ ॥
३५
१ A सः । २ A राजा F होजी । ३D मृ । ४ A. ष्टे । ५ D. भाक् । ६ F. क्तता ७ A. क्क । ८ A. नेत्रज्योतिः समः ९ A र्यो १० B. D. F. रेव । ११ १३ A. भक्ष F. चूक्ष | १४ A. के । १५D. मूलं । १६ A थे । १७ F.
F. भीतेच । १२ A. क्व ।
। १८ A. एक । १९
।
४
Aho! Shrutgyanam
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १
तयो पार्श्वगतौ मध्यौ तत्पार्धे पारिभक्षको । तत्पार्श्वगौ कर्तनारव्यौ ततः स्यात्त(ता)न्तु खण्डनौ ॥ २७६ ॥ सुश्लक्ष्णाः कान्तिसम्पन्नाः स्वस्थाः शुभ्रा निरन्तराः। दशनाः शिल्पिभिः कार्या अंर्चाया लेखनेपि वा ॥ २७७ ॥ वीटिकाखण्डने द्वारे (हासे) त्रासादगुलचर्वणे । दर्पणालोकने दृश्या दशनच्छदगृहिताः ॥ २७८ ॥ सकणौ पार्श्वगौ देशौ कौँ स्याता निरस्थिको । तस्या ( स्माद् ) बहिश्चलास्थि स्यात्कर्णमूलेन सङ्गतम् ॥२७९ ॥ क्रमशो हीयते तत्तु यावत् स्याद्धनुमण्डलम् । सााङ्गुलं भवेदूर्ध्व तिर्यक् स्याच्चतुरङ्गुलम् ।। २८० ॥ अधरोष्ठतलोद्देशे चिबुकं समुदाहृतम् । कुब्जकूर्च भवेत्तस्मिनिने मात्राप्रमाणके ॥ २८१ ॥ हनुपृष्ठे भवेत्कूर्चे पर्चलास्थिक्रमेण तु । यवमानं प्रकुर्वीत कूर्च प्रथमसम्भवम् ॥ २८२ ॥ द्वयष्टवत्सरदेशस्य पुरुषस्य विचक्षणः । प्रकुर्वीत ततश्चोर्ध्वमधिकं यवमानतः ॥ २८३ ॥ अष्टाङ्गुला भवेद्वीवा विस्तारेण निरूपिता । द्विगोला सा च दैर्येण परिणाहे द्वितालिका ।। २८४ ॥ ग्रीवामध्यप्रदेशे तु निगालः परिकीर्तितः । अधस्तस्य भवेद्धिक्का मात्रामात्रा प्रकीर्तिता ॥ २८५ ।। हिकाया हृदये तालस्तालश्च स्तनचूचुके । कक्षामूले तथा तालस्तालः कक्षधरो भवेत् ॥ २८६ ॥ कन्धरास्कन्धसन्धिः स्याद्धिक्कायाश्चतुरङ्गुलैः।
कक्षामूलात्कुक्षिधरो भवेदष्टाङ्गुलायतः ॥ २८७ ॥ १D प । २ P नु । ३ D च्छाः । ४ Other mss आचार्या F आऊर्या । ५ DF वा । ६ D F हकाः A हिका ७ A. हिः स्थला। ८ A ब । ९ D. च । १० A रा. ११ B F यङ्गुली । १२ A ताः । १३.B. Fला A लं। १४ D कुक्ष।
Aho ! Shrutgyanam
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः।
२७.
Kmvha..
हिक्कायाः पार्श्वयोर्लग्ने जत्रुणी भुजमूर्ध्वगे' ( मूर्धगे )। एकादशाङ्गुले प्रोक्ते किश्चिदुन्नतविग्रहे ॥ २८८ ॥ हिक्कायाः कक्षमूलाच स्तनचूचुकबन्धुतः । मध्ये वक्षःस्थलं प्रोक्तं तालमात्रं समंततः ॥ २८९ ॥ द्वयोर्चचुकयोमध्ये तालमानमुदाहृतम् । कार्यं चूचुकयोवृत्तं मेचकं द्वयङ्गुलं भवेत् ॥ २९०॥ चुचुको मण्डलस्यान्तर्यवमात्रो निगद्यते । उत्सेधाद्विस्तृतेस्तद्वत्प्रमाणं परिकीर्तितम् ॥ २९१ ॥ स्त्रीणां तु द्वियवः कार्यश्चूचुकश्चित्रकोविदः । प्रोक्त(:)स्तनपरीणाहैः स्तनमष्टादशाङ्गुलम् ॥ २९२ ।। बृहतीनामतः ख्यातं कक्षमूलस्तनान्तरम् । षडङ्गुलं च मानेन सूत्रितं सूत्रकोविदः ॥ २९३ ॥ स्तनद्वितयमध्यस्थः किञ्चिनिन्नः कलामितः । प्रदेशे (शो) बन्धुरित्युक्तश्चित्रशास्त्रविशारदैः ॥ २९४ ॥ कन्धरास्कन्धसन्धिस्तु वाहुमूर्धनि भागकः । पूर्वापरे कक्षमूले मू(ता)लेनैकेन सम्मिते ॥ २९५॥ अभ्यन्तरे तथैव स्यात् ताल एको निरूपितः । कक्षमूलैंपरीणाहस्तदेव(व)स्याहितालकः ॥२९६ ॥ बाहुशीर्षस्य बाहोश्च सन्धिस्थानं निरूपितम् । कामूलात्कलाद्वन्द्वं तिर्यसूत्रप्रमाणतः ॥ २९७ ॥ बन्धुदेशाद् भवेन्नाभिस्तालेनैकेन मापिता । नाभिरङ्गुलविस्तारा वर्तुलार्धाङ्गुलाँवटा ॥ २९८ ॥
१D तु । २ F ाते। ३ B. F ता । ४ B. D. F. व्यं । ५ A त्र। ६ A श्चिबु। . A द्विगणं । ८ A चिबु । ९A न्तं पञ्चमात्रा । १० A त । ११ A क्त स्था। । १२ A ह। १३ D. लं.१४D. म्न । १५ A. वे । १६ A. न्ध । १७ B. D. ले । १८ B. D. श्च । १९F.क्षा। २.B.D. क्ष। २१ Bन्ध । २२ A. त्ता। २३ A. द्वय । २४ A लोचय । B. D. ला च या।
Aho! Shrutgyanam
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १
बन्धस्य पार्श्वयोस्तियविस्तारस्तु द्विभागिकः । चतुर्यवसमोपेतस्त्वेवं सप्तदशाङ्गुलः॥ २९९ ॥ बन्धुदेशपरीणाह एकपश्चाशदङ्गुलः । ततोऽधो मध्यभागस्तु प्रोक्तो मनुमिताङ्गुलः ॥ ३००॥ मध्यभागपरीणाहों द्विचत्वारिंशदँडलः। नाभिदेशस्य विस्तारो भवेच्चन्द्रकलाङ्गुलः ॥ ३०१॥ नाभिस्थाने परीणाहो भवेत्तालचतुष्टयम् । श्रोणीदेशः स विख्यातः कायस्थानपरीक्षकैः ॥ ३०२ ॥ पक्काशयगते सूत्रे विस्तारोऽष्टादशाङ्गुलः । पक्काशयपरीणाहश्चतुष्पश्चाशदङ्गुलः ॥ ३०३ ॥ स प्रदेशः कटिर्नाम काञ्चीदामविधारकः । स्त्रीणां चेदधिकः कार्यों भागेनैकेन कर्तृभिः ॥ ३०४॥ वस्तिमस्तकमूत्रस्य सप्तपञ्चाशदङ्गुलः। परीणाहो" विधातव्यः सूचीभागेन विस्तृतः ॥ ३०५॥ बस्तेस्थानस्य विस्तारो विंशत्यङ्गुलसम्मितः । तस्य प्रोक्तः परीणाहः षष्ठेचैङ्गुलमितो बुधैः ॥ ३०६॥ जठरं वक्षसा युक्त कार्य गोमुखसन्निभम् । स्त्रीणां मध्ये कृशं कार्यं नाहेर्ने त्रिंशदङ्गुलम् ॥ ३०७॥ भागेनैकेन तस्याधो लिङ्गमूलं प्रकल्पयेत् । पश्चाङ्गुलं लिङ्गदैर्ध्य मुष्कयोश्चतुरङ्गुलम् ॥ ३०८ ॥ लिङ्गस्य मूलविस्तारः कलामात्रो निगद्यते । पार्श्वयोरुभयोस्तस्य मुष्कमूलं द्विमात्रिकम् ॥ ३०९ ॥ एवं च लिङ्ग कस्य मूलं स्याच्चतुरङ्गुलम् ।
मूलोपान्ते प्रकर्तव्ये द्वे रेखे वंक्षणाश्रिते ॥ ३१० ॥ १ A. बाध । २ A लम् F. ला। ३ A शे। ४ B कं । A1 ५A कःपञ्चदशाङ्गुलः B. कं पञ्चदशाङ्गुल लं।६ B था। - Dहः । ८ A दशाङ्गुलल: D. दशाङ्गुलः, । ९ B. D. ञ्च दशा। १० A मो। ११
B.D.तिः। १२ A विास्तस्तस्य च D. बस्तश्च स्थान । १३ A 5 । १४ Aध्यं । १५ AF. दे। १६A मूलस्य । १७ A ख्यस्य । १८ A स्तु।
Aho! Shrutgyanam
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
विनिर्गते कलामात्रे तयोर्मध्यं वि(द्वि)भागिकम् । रेखयोः प्रान्ततो बस्तेविस्तारः स्यात् षडङ्गुलः ॥ ३११ ॥ भाग एको लिङ्गदैर्ध्य मणिरेकाङ्गुलस्ततः । षडङ्गुलः परीणाहो मणिमूलेऽधिको मैनाक् ॥ ३१२ ॥ मुष्कयो गिकं दैर्ध्य तदर्थं बीजसंयुतम् । त्वमेव मूलभागः स्यात् तन्निम्नांशा प्रकल्प(लप्यते ॥ ३१३ ॥ मुष्की सबीजको वृत्तौ भागद्वयविभागितौ । तालमात्रपरीणाही कर्तव्यौ शिल्पकोविदः ॥ ३१४ ॥ अधस्तानीतसूत्रस्य लग्ने स्यातां कुंकुन्दरे । पश्चाद्भागे प्रकर्तव्ये भागद्वयकृतान्तरे ।। ३१५ ॥ वस्तिमस्तकसूत्रस्य कटिसूत्रस्य चान्तरम् । फलकाकृति कर्तव्यं पश्चाद्भागं (गे) च शिल्पिभिः ॥ ३१६ ॥ बस्तिमस्तकसूत्राच लिङ्गाग्रपरिमाणकें । स्फिजौ चैव विधातव्ये करिकुम्भसहोदरे ॥ ३१७ ॥ स्फिजोरधः परीणाहस्रयस्त्रिंशन्मिताङ्गुलः । ऊरुमध्यपरीणाहः कार्यः पत्रिंशदङ्गुलः ॥ ३१८ ॥ श्रोणी(आणि देशपरीणाहो भवेत्तालद्वयान्वितः । क्रमशो हीयमानौ तावूरू कार्यों विचक्षणैः ॥ ३१९ ॥ अरोमको वलीशून्यौ रम्भास्तम्भकृतोपमौ । श्लक्ष्णौ मनोहरौ वृत्तावूरू कार्यों विचक्षणैः॥ ३२० ॥ ततस्तु जानुनी कार्ये चतुरङ्गुलमायते । अङ्गुलत्रयविस्तारे तत्पाश्चौं द्विकलौ मतौ ॥ ३२१ ॥ परीणाहो विरच्यः स्यादङ्गुलान्येकविंशतिः । पश्चाद्भागे मनाग्निम्ने मध्ये किञ्चित्समुन्नते ॥३२२॥
१ B वितम् D विकम् । २ A योब। ३ F ल । ४ BDF भवेत् । ५ D दिमासा। ६ D येत् । ७ A क । ८ B. F. कैः A. कं । ९ A म । १० A. ड्विं । ११ F omits this stanza |
Aho! Shrutgyanam
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १
जङ्घामूलपरीणाहों भवेदष्टादशाङ्गुलः । जङ्घाप्रान्तपरीणाहश्चतुर्दशभिरङ्कुलैः ॥ ३२३ ॥ ततोऽधो गुल्फदेशः स्यानाहः स्यात्षोडशाङ्गुलः । चतुर्दशाङ्गुलं दैर्ध्य चरणे गणितं बुधैः ।। ३२४ ॥ उच्छायः पाणिदेशस्य गणितश्चतुरङ्गुलः। तिर्यसूत्रं समं पाऎस्यङ्गुलं समुदाहृतम् ॥ ३२५ ॥ पाणिदेशस्य विस्तारो भवेत्पञ्चभिरङ्कुलैः। भागमात्रॉन्तरादूर्ध्व पाणितो भागतः पुरः ॥ ३२६ ॥ गुल्फो द्वयङ्गुलकौ कायौं विस्तारेण समन्ततः । पादपृष्ठं तु कर्तव्यं प्रोन्नतं गजपृष्ठवत् ।। ३२७ ॥ तस्याधस्तलदेशस्तु निम्नोऽभ्यन्तरतो भवेत् । बहिर्भागे समं कार्य पाणेर्यावत्कनिष्टकम् ॥ ३२८ ॥ अङ्गुलं(ष्ठ )मूलदेशे तु तलं कार्य समुन्नतम् । पादाग्रतलविस्तारः षडङ्गुल उदाहृत्तः ॥३२९ ॥ पाष्णेश्च तलविस्तारः कथितश्चतुरङ्गुलः। पादपृष्ठस्य चोत्सेधो भागस्त्वर्धाङ्गुलाधिकः ॥ ३३० ।। अग्रपादस्य चोत्सेधस्व्यङ्गुलः समुदाहृतः ॥ अङ्गुष्ठमूलदेशस्य व्यङ्गुल स्यात्समुच्छ्रयः ॥ ३३१॥ अङ्गुष्ठस्य समुत्सेधो मात्रास्याट्वियवाधिका।। अङ्गुष्ठदैर्घ्यमुद्दिष्टमङ्गुलद(त्र)यसम्मितम् ॥ ३३२ ॥ अङ्गुष्ठस्य परीणाहो भवेत्पञ्चभिरङ्गलैः । द्विपर्वाङ्गुष्ठमुद्दिष्टं प्रान्तपर्वार्धतो मु(न)खः ॥ ३३३ ॥ तर्जनीयमुद्दिष्टं त्र्यमुलं द्वियवाधिकम् । अ(व्य)ङ्गुलस्तु परीणाहस्तस्याः पर्वत्रयं भवेत् ॥ ३३४ ॥
A हो । २ A. लः । ३ A. ना । ४ B छु ।५ B त्रत । ६ D. F. न । ७ D. पाणि 1 CA मु । ९F.गे। १० BD. अ। ११ A.ष्ट्रय । १२ F.प्रांतं । १३ BD टम । १४ A स्य। १५ D. स्य।
Aho! Shrutgyanam
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लास: मध्यमादैर्घ्यमुद्दिष्टं यवों द्वाविंशतिर्बुधैः । कनिष्ठादैयमाख्यातं सप्तभिर्दशभिर्यवैः ॥ ३३५ ॥ परीणाहस्तु तस्याः स्याद्यवानामेकविंशतिः। आयामोऽनामिकायाश्च यवा विंशतिरिष्यते ॥ ३३६ ॥ अनामिकापरीणाहः कार्योऽष्ट (ष्टा)दशभिर्यवैः । कनिष्ठादैर्घ्यमाख्यातं सप्तभिर्दशभिर्यवैः ॥ ३३७ ।। कनिष्ठायाः परीणाहो यवाः पञ्चदश स्मृताः। . पर्वत्रयं तु सर्वासामङ्गुलीनां प्रकीर्तितम् ॥ ३३८ ॥ सर्वासा पादशाखानामग्रपर्वार्धतो नखाः। अर्धाङ्गुलं समुत्सेधः सर्वासामग्रतो भवेत् ॥ ३३९ ॥ कन्धरास्कन्धसन्धेस्तु पश्चाद्भागे कृकाटिका । कृकाटीदेशतः कक्षामूलमेकादशाङ्गुलम् ॥ ३४०॥ स्कन्धाभ्यां निर्गता (तौ ) वंशफलकों (को) पट्क्षडङ्गुलौ । तयोर्मध्ये भवेद्वंशः कलामात्रप्रमाणकः ॥ ३४१ ॥ उत्तानकदलीपत्रसन्निभः पष्ठवंशकः। तदेवं पृष्ठभागस्य स्वरूपं परिकीर्तितम् ॥ ३४२ ॥ कक्षायाः कूपरं यावद्धाहुपति कथ्यते । अष्ठादशाङ्गुलं दैध्यमांनाहेऽष्टादशाङ्गुलम् ॥ ३४३ ॥ कूर्परात्तलपर्यन्तं पर्व सप्तदशाङ्गुलम् । परीणाहः प्रबाहोस्तु पोडशाङ्गुलसम्मितः ॥ ३४४ ॥ प्रकोष्ठस्य परीणाहश्चतुर्दशभिरङ्कुलैः । मणिबन्धपरीणाहः कर्तव्यो द्वादशाङ्गुलः ॥ ३४५ ॥ विस्तारस्त्रिकलो बाहोः कूपरेऽङ्गुलपञ्चकम् । परीणाहस्त्रि(त्रि)भागेन प्रबाहोविस्तृतिर्मता ॥ ३४६ ॥
१.A.Bहै । २ B. व । ३ A है । ४ A मे । ५ BD F तो।६ B काः D कः । ७ A षडद । CDध्यं । ९ A न्तः B तः। १० Aध्ये मानेऽप्य । ११ A राङ्ग। १२B कः। १३ F विस्तति। ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः१ प्रकोष्ठे मणिबन्धे च परिणाहस्त्रि(त्रि)भागतः । एवं भुजस्य विस्तारः परीणाहश्च वर्णितः ।। ३४७ ॥ सप्ताङ्गुलानि पाणैः स्युमध्यमाङ्गुलमूलतः । षडङ्गुल(लं)प्रमाणेन ( देशिन्या ) आयामे (अनामेः) सार्धपश्चकम् ।।३४८॥ कनिष्ठामूलरेखाया भवेदङ्गुलपञ्चकम् । इत्यायामस्तले प्रोक्तः पञ्चमात्रा तु विस्तृतिः ॥ ३४९ ॥ अङ्गुल (ष्ठ ) मूलरेखायास्तर्जन्याश्च तथैव च । मध्यभागप्रमाणं स्यादमुलत्रयसम्मितम् ॥ ३५० ॥ कनिष्ठामूलरेखाया अधस्तादमुलान्तरे । अनामे: कलया मूलान्मध्यायाः सार्द्धमात्रया ॥ ३५१ ॥ आयुर्लेखा भवेत्सा तु किञ्चिदिकां (द्वक्रा ) प्रशंस्यते । मध्यमातर्जनीमध्यं प्रतिष्ठी सौ प्रकल्प्यते ॥ ३५२ ॥ अङ्गुष्ठमूलतर्जन्योस्व्यङ्गुलान्तरमध्यगा ॥ शक्तिरेखा प्रकल्प्या स्यात्सापि वक्रॉ मनाम् भवेत् ॥ ३५३ ॥ मध्यमा यत्र रेखाया गोलकं हि (कद्वि )यवान्तरे । अनामायाँः कनिष्ठायाः सा स्यात्यङ्गुलदूरगा॥३५४ ॥ तलमध्ये भवेदन्या रेखों कार्मुकसनिभा। सु(पुं)रेखा लेखि(ख)नीया सा सङ्गता शक्तिरेखया ॥ ३५५ ॥ कनिष्ठानां मध्यमानां सन्धिः सङ्कोचकारकः । आयूरेखा भवेत्तत्रै पुरा प्रोक्ता तु या मया ॥ ३५६ ॥ तर्जनीसन्धिदेशे तु शक्तिरेखासमुद्भवः । अङ्गुष्ठच(त)लैंसन्धौ तु पुलेखा संव्यवस्थिता ॥ ३५७ ॥
Aठ। २ Aन | ३E. F.णो। ४BD आयामविस्तरः। ५) स्तु। ६ A ट। A मे। CA अध्यायाः D ग्रवायामा। ९ F A दिष्का । १. A दृश्य । ११ A. वि। १२F.ष्टां। १३ A सां। १४ A ल्पते F स्पयेत् । १५A न्या। १६ A व्य । १७ D मा । १८ A चक्रा समा। १९ A यांशकेभागा। २. Dयोः । २१ B. F. ह्रस्वा । २२ BD समध्यानां । २३ F.C.र । २४ A.आयु and आद्यले । २५ D तत् । २६ D. द्भवा । २७ A बल। २८D. पुंलिखाम । २९ B मध्यसं ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
अत्रियं सार्धमयामेन कनिष्ठिका | अनामाँ द्विकलायामा यैवद्वयसमन्विता ॥ ३५८ ॥
पञ्चाङ्गुलोयता मध्या तर्जनी चतुरङ्गुला । अङ्गुष्ठस्य तथा दैर्घ्यं चतुरङ्गुलसम्मितम् ॥ ३५९ ॥ अङ्गुष्टस्य परीणाहः कर्तव्यश्चतुरङ्गलः || तर्जन्य।स्तुपरीणाहस्त्र्यङ्गुलः परिकीर्तितः ॥ ३६० ॥ साध्यर्ध कलाप्रोक्ता मध्यम परिणाहतः । अनामाँ तर्जनीप्रख्या यवयुग्मेन हीयते ।। ३६१ ॥ अनामिकापरीणाहं त्र्यङ्गुलं परिकीर्तितम् । अनामिकापरीणाहाद् द्वियवोना कनिष्ठिका || ३६२ ॥ एवं दैर्घ्यपरीणाहः स्फुटः प्रोक्तः प्रमाणतः । अङ्गुष्ठप्रथमं पर्व द्व्यङ्गुलं द्वियधिकम् ॥ ३६३ ।। अग्रपर्व तथा प्रोक्तं द्व्यङ्गुलं द्वियवोनकम् । अङ्गुष्ठस्य बहिः पर्व तृतीयं त्र्य (द्य) ङ्गुलं भवेत् ॥ ३६४ ॥ पृष्ठेऽयैपर्वणश्चोर्ध्वं भवेन्नखसमुद्भर्वैः ।
तर्जन्याः प्रथमं पर्व यवाः पञ्चदश स्मृतम् ।। ३६५ ॥ चतुर्दशैं द्वितीयं स्यादेकादश तृतीयकम् । त्रीण्यङ्गुलानि साधनि मध्याद्यं पर्व पश्चिमम् ॥ ३६६ ॥ ॐ पर्वा पृष्ठे तु नः कार्यो" विचक्षणैः । अनामे (:) प्रथमं पर्व यवा दशमितं तथा ॥ ३६७ ॥ अङ्गुलं मध्यपर्व स्यात्तस्याः पृष्ठे तु पर्वणि I प्रथमे कुलं सार्धं दैर्ध्य स्यात्पूर्ववन्नखः || ३६८ ।।
निर्लोम प्रोज्ज्वलं कार्य पण्यङ्गुलितैलं बुधैः । अङ्गुल्यग्रे यवाग्रं स्यात्स (दर्वाक् स) जीवः क्रियते नखः || ३६९ ॥
१ A. या सांधे F यं समा । A यं सामा २ A सायामेन F यातेमेन A यातमेन । ३A सिका द्विकलायाता ।
४ पद । ५ A. लीयतौ मध्यौ । ६ A. हा । ७ A मिस्त । ८ग्मं । ९A । १० D. यवोनकम् । ११ D. ष्ठा । १२ A वम् । १३ B. D. F. शं । १४ F. न्तृ । १५ A अर्ध । १६ A खे । १७ A कार्ये । १८ A तथामिकतं । १९ B. D. त्री । २० B. D. ल । २१ A देया ।
५
Aho! Shrutgyanam
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
मानसोल्लासः ।
ततोऽग्रे जीवहीनं तु नखाग्रं परिकल्पयेत् । सजीवो लोहितः किञ्चिनिर्जीवो मधुरच्छविः ।। ३७० ॥
यवत्रितयमानेन नखाग्रं परिकल्पयेत् । प्रदेशलक्षणं प्रोक्तं स्थानानां लक्ष्यते तथा ।। ३७१ ॥
पञ्चानाञ्च चतुर्णाश्च तथाष्टानां यथाक्रमम् । ऋजु स्यात्सम्मुखं स्थानमन्यदर्द्धर्जुसंज्ञितम् ॥ ३७२ ।।
तृतीयं स्थानकं साचि तुर्य द्यर्धाक्षिसंज्ञितम् । पञ्चमं भित्तिकं प्राहुर्मज्जा (स्तज्ञाः) पार्श्वगतं च तत् ॥ ३७३ ॥
पञ्चस्थानानि मुख्यानि कथितानीह संज्ञया । ऋज्वादिपदपूर्व स्यात्परावृत्तं चतुर्विधम् ॥ ३७४ ॥
स्थानकानि नवैर्वै स्युचित्रलेखाविधिं प्रति । नवस्थानकमध्ये स्युष्टौ ( ष्टाव ) न्तरसंज्ञया ॥ ३७५ ॥
तेषां तु लक्षणं वक्ष्ये ब्रह्मसूत्र विभेदतः । पुरतः पूर्वभागः स्यात्परभागस्तु पृष्ठतः || ३७६ || प्रमाणो वृद्धिभागो हीनश्चेत् क्षयभागकः । चतुष्टयं प्रकाराणां व्यवहाराय दर्शितम् || ३७७ ॥
भूलोकमल्लदेवेन बोधार्थ शिल्पकारिणाम् ।
ब्रह्मसूत्राद्बहिः सूत्रे षड़ (ट्पड ) ङुलमध्यमे || ३७८ ॥
यत्र स्याँमामृजु (तदृजु) स्थानं रूपं स्यान् मुखयोगितम् (सांमुख्य योगि तत्) ।
सम्मुखं स्यादृजुस्थानं परभागोऽत्र नेष्यते ।। ३७९ ।।
पूर्व भागगतं गात्रं सम्पूर्ण दृश्यते स्फुटम् । कर्णौ मात्रामितावत्र शङ्खावंकुल सम्मितौ ॥ ३८० ॥
[ अध्यायः १
पादौ भागमितौ दृश्यावङ्गुल्यश्च विभागिकाः । ऋजुस्थानमिदं प्रोक्तमवक्राकारधारणात् ।। ३८१ ॥
१ A प्रथ । २ A भक्ति । ३ D यत् । ४ A नचैव । ५Dव । ६ Aय B अ । ७D श्याममृजु
B श्यामा । ८ A सामुख ९द । १० B. D. क्तं मेचका । ११F का ।
Aho! Shrutgyanam
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
अथार्धर्ज्जु (र्जु) प्रवक्ष्यामि स्थानकञ्च क्रमागतम् । अन्तरं ब्रह्मसूत्रस्य पक्षसूत्रस्य चैकतः ।। ३८२ ।।
अष्टाङ्गुलं ततोऽन्यत्र चतुरङ्गुलमन्तरम् । उक्तेर्जु स्थाने लम्बसूत्रक्रियाक्रमः || ३८३ ॥ इदानीं सम्प्रवक्ष्यामि सार्चिसूत्रस्य लक्षणम् । अपाङ्गात्कर्णपाल्याश्च स्तनस्यान्तरपार्श्वतः ॥ ३८४ ॥ जानुत्रिभागतो गर्ह्य जङ्घामान्ताद्विनिर्गतम् । परभागगते पादे कल्पि (ल्य ) तेऽङ्गुष्ठमूलतः || ३८५ ॥
स्तनबाह्यप्रदेशाच्च कुचचूचुकतो बहिः । जानुतः पञ्चमांशेन बहिर्भागे व्यवस्थितम् || ३८६ ॥
सर्वपादेतु मध्याया अनामायाश्च मध्यगम् । स्यातामेवं पक्षपा (सूत्रे ब्रह्मसूत्रं तु कथ्यते ॥ ३८७ ॥
ललाटे च भ्रुवोर्मध्ये नासाग्रे बन्धो बहिः । नाभिरन्धं (न्ध्र) बहिःपार्श्व(र्श्वे ) लिङ्गमध्ये समागतम् ॥ ३८८ ॥
परभागगतस्याग्रं मुख(जेर्गुल्फ - ) स्योपरि सङ्गतम् । ब्रह्मसूत्रकारोऽयं भागेनैकेन संयुतः ॥ ३८९ ॥
कथितोऽथ प्रदेशानां सन्निवेशोऽभिधीयते । परभागे प्रदृश्येत कर्णावर्त्तो यवद्वयम् ॥ ३९० ॥
इतरलुप्यते सर्व तत्पाली दृश्यते मनाक् । शङ्खश्चैवाक्षिकूटश्च कूर्चमूलं तथैव च ॥ ३९९ ॥ लुप्यते परभागे तु स्थानकेऽर्धर्जुसंज्ञिते । पञ्चाङ्गुलं बाहुमूलं परभागे प्रशस्यते ।। ३९२ ॥
परभागमतश्चापि किञ्चित्तिर्यग वहिर्भवेत् । कर्णावर्तस्य यः प्रान्तः पूर्वभागे स लुप्यते ॥ ३९३ ॥
१ D अर्द्धार्जुकं । २ D ची । ३ Aमा । ४ A. बाधतो । ५ F. सु । ६ A. गो । D. दृश्य । ९D. भि: Bभि ।
Aho! Shrutgyanam
D. नेर्जु
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १
सार्दाडलं प्रदृश्यं स्याच्छ्रवणे(ण)पूर्वभागतः । नासिकाग्रं यवाः पञ्च परभागव्यवस्थितम् ।। ३९४ ॥ यवत्रयं पुटस्तस्य ब्रह्मसूत्रादिति स्थितिः । नासापुटात्कपोलस्य सार्द्धद्वयङ्गुलमन्तरम् ॥ ३९५ ।। परभागौष्टयुग्मस्य मात्रा सा(स)द्वियवा भवेत् । हनुश्चैव तथा ग्रीवा परभागेऽङ्गुलद्वयम् ॥ ३९६ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परो(रे)भागे ग्रीवा दृश्या षडङ्गुला। ब्रह्मसूत्रात्परे भागे हिक्का मात्रान्तरा भवेत् ॥ ३९७ ।। हन्वग्रात्परभागेंशमव(समध)स्थादङ्गुले लिखेत् । बन्धुस्था(स्थ)ब्रह्मसूत्रार्ध (त्रं च) परभाग(गः)स्थितस्ततः॥ ३९८ ॥ पञ्चाङ्गुले प्रेकर्तव्यः पुरःसप्ताङ्गुलान्तरे । कक्षामूलाहिर्लेखा बाहुमूलसमाश्रिता ॥ ३९९ ॥ अष्टाङलान्तरा लेख्या चित्रकर्मविशारदैः । कक्षाद्वितयमध्ये स्यादङ्गुलानां च विंशतिः ॥ ४०० ॥ पश्चाङ्गुलै(लं)परा(रे )भागे बाहुमूलं प्रकल्पयेत् । चुचुकात्परभागस्था बृहती द्वयङ्गुले लिखेत् ॥ ४०१ ॥ पूर्वभागं (गे) कलाद्वन्द्वे" बहिर्लेखों शरीरगाम् । विस्तारे परभागस्थश्च(च)तुर्दशयवस्ततः ॥ ४०२ ॥ आयतोऽयं बुधैः कार्यों वृत्त(त्तः)पूर्वकलामितः । पार्श्वसूत्रे तु संलग्ना मध्यभागगता बुधैः ॥ ४०३ ॥ लेखनीया बहिर्लेखा पूर्वभागसमाश्रिता । ता(सा)निर्गता तथा श्रोणी सार्धपञ्चाङ्गुला परौं ॥ ४०४॥ पूर्वभागे तथा श्रोणी भवेद्दशभिरङ्गुलैः। ब्रह्मसूत्रात्तथा काञ्ची परभागे षडङ्गुला ॥ ४०५॥
१ A. ल । २ A. यां । ३ A. यव । ४ D. भे. A. गो। ५ A. गो। ६ D. F. द्वि B. द्धि । ७ B. F.हिक्का। ८ F. बा D. बन्ध । ९ A. न कर्तव्ये B न कर्तव्यं । १० D. F. तु । ११A. ले। १२ A. चिबु । १३ A गस्याब्रु । १४ A लं । १५ F न्द्रं । १६ F ख्यं । ७ A. ताः । १८ B रे।
Aho! Shrutgyanam
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
एकादशाङ्गुला पूर्वे भागे लेख्या विचक्षणैः । मेदमूलं परे भागे मात्रा भागयुग्मकम् ॥ ४०६ || दशाङ्गुलं पूर्वभागे लेखनीयं विशारदैः । लिङ्गमूलात्परे भागे वङ्खणं सार्धमकुलम् ॥ ४०७ ॥ अङ्गुलद्वितयं सार्द्धं पूर्वभागे तु वङ्क्षणः । णात्परभागस्थैमूरुशीर्ष बहिः स्थितम् ॥ ४०८ ॥
अष्टाङ्गुलं परे भागे पूर्वतन्तु (स्तु) दशाङ्गुलम् | परस्थमूरुमूलं तु कुर्यादङ्गुलगूहितम् ॥ ४०९ ॥ पूर्वस्थितोरुमूलेन चित्रलेखनकोविदैः । जानुमण्डलतो बाह्यं कलामात्रं प्रदृश्यते ॥ ४१० ॥
परभागे परे पादे पूर्वभागे कलाद्वयम् । पूर्वस्याङ्गेरिदं मानं विपरीतं . प्रदृश्यते ॥ ४११ ॥
इतरत्सर्वमृजुवत्परंजङ्गागतं भवेत् । पूर्वभागेऽङ्गुष्ठमूलं परपोष्णिसमं लिखेत् ॥ ४१२ ॥
खापरपादस्य भूमिसूत्रं विधीयते ।
पार्ष्णः प्रदेशिनी (नीं) यावत्पाददैर्ध्य य (न) वाङ्गुलम् ॥ ४१३ ।।
परार्धाङ्गुष्ठैतैश्चोर्ध्वमङ्गुलं” परिकल्पयेत् । प्रदेशिन्या समारभ्य कनिष्ठां यावदङ्गुलिः । ४१४ ॥ यवद्वय विनाग्राः स्युरङ्गुल्यः क्रमविस्तृताः । भूमिसूत्रादधोऽङ्गुल्योऽङ्गुष्ठं (च) परिकल्पयेत् ॥ ४१५ ॥ कनिष्ठाग्रं तथा कार्यं भूमिमूत्रसमं यर्थौ । अर्धर्जुकमितिस्थानं क्रमशो लक्षणान्वितम् ॥। ४१६ ।।
साम्प्रतं क्रमशः प्राप्तं साचिस्थानं निगद्यते । अङ्गुलानि दशैकत्र कलामांत्रं ततोऽन्यतः || ४१७ ॥
३७
१ Aर्व । २ A वृषणं । ३ A तु वृषणम् । ४ A वृषणात् । ५ A स्तु । ६ F. खे । ७ A. रा । ८ A
गा । ९A मार्ष्टि । १० B. D. नेत्राग्रे परि । ११A लः । १२ A लतश्चार्थे अ । १३ A य । १४ A गुल्फम । १५ A त्रं । १६ A तथा । १७ D. त्रां ।
Aho! Shrutgyanam
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
मानसोल्लासः ।
अन्तरं ब्रह्मसूत्रस्य पक्षसूत्रद्वयस्य च । साचिस्थाने' समाख्यातें ऊर्ध्वसूत्रस्थितिक्रमः || ४१८ ॥ इदानीं लक्ष्यतेऽस्माभिः साचिरूपविनिर्णयः । ललाटाल्लोचनप्रान्तात्कपोलस्कन्धदेशतः ।। ४१९ ॥
एकाङ्गुलात्स्तनस्यान्तर्नाभे:सार्धाङ्गुलाद्बहिः । वङ्गणान्मणिदेशाच्च बहिर्व्यक्तं विनिर्गतम् ॥ ४२० ॥
परपादाङ्गुष्टमूले पार्श्वसूत्रं विधीयते । सीमन्ताच्च भ्रुवोर्मध्यान्नासारन्ध्रस्य मध्यतः || ४२१ ||
अङ्गुलाद्बोधतः पञ्चान्नाभिरन्ध्रस्य मध्यतः । मेहनस्य बहिर्भागाज्जानुमण्डलपूर्वर्तः ॥ ४२२ ॥
नलकस्य तथा प्रान्ताद् ब्रह्मसूत्रं न्यसेत् क्रमात् । मस्तकस्य तथा पृष्ठात्कर्णोपान्तात्तथैव च ॥ ४२३ ॥
कन्धरास्कन्धसन्धेश्च स्तनचूचुकमण्डलात् । अङ्गुलात्पूर्वतश्चैव मध्यभागेन सङ्गतम् ॥ ४२४ ॥ कलामात्रं परित्यज्य काचीदेशस्य मध्यतः । मणिबन्धगतं तद्वत्पूर्वपादस्य पाणिः || ४२५ ।। अन्यपार्श्वगतं सूत्रं क्रमेणैव निरूपितम् । ब्रह्मसूत्राद्बहिर्लेखा केशान्ते परभागका || ४२६ || लिख्यते तु कलामात्र मस्तकं सार्धमङ्गुलम् | भाग एकः प्रदृश्यः स्यादुत्सेधः पूर्वभागिकः ।। ४२७ ॥
उत्सेधाच्च कलामानाद्बहिर्लेखा शिरःस्थिती | उत्सेधैप्रान्ततो रेखा भागद्वयकृतान्तरीं ॥ ४२८ ॥
ततः शरासनाकाराः(रा) कर्णावर्ताग्रगामिनी । लिख्यते शिरसो लेखा भागद्वयकृतान्तरा || ४२९ ॥
१ A. न । २ D. नं मू । A चि । ८ A ते । ९ D ि।
[ अध्यायः १
३ A भि । ४ A वृषणादा F. वंक्षणादा । ५ A.
। ६D. वत् । १० D नान् । ११ Aकः । १२ D ताः । १३ A धः प्रा । १४ A गाः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः।
शङ्खप्रदेशे केशान्ता लिख्यते सा विचक्षणैः । केशान्ते परभागस्य ब्रह्मसूत्रस्य चान्तरम् ॥ ४३०॥ कलामात्रं विनिर्दिष्टं भ्रूलेखाऽर्धयवाधिका । भ्रूलेखा द्यगुला दृश्या नासामूलं चतुर्यवम् ॥ ४३१ ॥ कनिनी लुप्यते तत्र श्वेतभागश्च दृश्यते । दृश्यते त्रियवं ज्योतिरवशिष्टं विलुप्यते ॥ ४३२ ॥ ब्रह्मसूत्राच नेत्रीयमेवं सार्धाङ्गुलान्तरम् । नासामूलाद्वर्त्मरेखा बँक्रा कार्या विचक्षणः ॥ ४३३ ॥ ब्रह्मसूत्राद्वमरेखाप्रान्तो रुद्रंयवैर्मितः । यवद्वयं प्रलुप्येत पूर्वभागस्य चक्षुषः ॥ ४३४ ॥ करवीर(:)शि(सि)तो भाग इतरत् दृश्यते स्फुटम् । ब्रह्मसूत्रस्य नेत्रस्य सार्धमङ्गुलमन्तरम् ॥ ४३५ ॥ अक्षिकँटश्च शङ्खश्च कपोलो गण्डमण्डलम् । पिप्पली कर्णपाली च कर्णमूली प्रदृश्यते ॥ ४३६ ॥ कर्णगर्ने त्रिभागान्ते दृश्यते पूर्वभागतः । नासामध्यं ब्रह्मसूत्रोंच्चतुर्यवमुदीरितम् ॥ ४३७॥ परभागे कपोलस्था बहिर्लेखा चतुर्यौ । परभागस्थनेत्रस्य बुधैब्रह्मकपोलतः ॥ ४३८ ॥ ऊर्ध्व विनिर्गतं कार्यं परिमाणाद्यवद्वयम् । नासाग्रं परभागस्थं ब्रह्मसूत्रेऽङ्गुलं भवेत् ॥ ४३९ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे घोणापुंटोऽङ्गुलं भवेत् । दृश्यतेऽथ यवो गोजी तदग्रेऽाधिको यवः ॥ ४४० ॥ उत्तरोष्ठः प्रकर्तव्यस्तत्समोऽप्यधरो भवेत् । हनुचक्रवहिलेखा तत्समा परिकल्पयेत् ॥ ४४१ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे स्यातामोष्ठौ तथा हनुः।
चतुर्यवमितादृश्याः पूर्वभागे यव(था)र्जुके ॥ ४४२ ॥ १ A. शदे । २ D. नी । ३ D त्रार्ध । ४ A. च । ५ A. द्ध । ६ D. ति। ७ A. रं । ८ B. D. शङ्खश्च कूटश्च । ९ A त्रिभागोन F कर्णेगर्तेभ्रिभोगोने B D कर्णगर्तत्रिभिर्भागो। १० A त्रं च । ११ D. विधा । १२ A. धब। १३ A. रो। १४ A गो। १५ B. D. F. धुं । १६ A. ध्व । १७ D. म ।
'Aho! Shrutgyanam
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः। .
[अध्यायः१
ranAna.wwwaunuwarana
हनुमण्डलतश्चाधो गलवृद्धिश्चतुर्यवा । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे ग्रीवा लेख्या कलान्तरा ॥ ४४३ ॥ कन्धरास्कन्धसन्धेश्च गलवृद्धस्तथान्तरम। मात्रामात्रं प्रकुर्वीत हिक्का भागेन कल्प(लप्यते ॥ ४४४ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे कक्षामूलं तु भागतः । कक्षामूलाहिः कार्य बाहुरेखाऽङ्गुलत्रयम् ॥ ४४५ ॥ ब्रह्ममूत्रात्परे भागे कला स्यात्कुचचूचुकम् । ऊर्ध्वभागः प्रदृश्येत बाहुरेखा ततो बहिः ॥ ४४६ ॥ अङ्गुलत्रितयोद्देशे करणीया विचक्षणैः । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे मध्यदेश(क)कलामितः ॥ ४४७ ॥ ततो बहिर्वाहुरेखा व्यङ्गुला लिख्यते बुधैः । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे भागः स्यावियवाधिकः ॥ ४४८ ॥ ततो भवेद्धाहुरेखा व्यङ्गुला कथिता शुभा। ब्रह्मसूत्रात्परे काञ्चीस्थानं पञ्चाङ्गुलायुतम् ॥ ४४९ ॥ ततो भवेद्धाहुरेखा व्यङ्गुला द्वियवाधिका । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे बस्तिमस्तकपार्श्वगम् ॥ ४५० ॥ पञ्चाङ्गुलं प्रकर्तव्यं यवार्धाधिकतो बुधैः । सार्धयङ्गुलतः कार्या बाहुरेखा ततो बहिः ॥ ४५१ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे बस्तिमस्तकपार्श्वगम् । पञ्चाङ्गुलं मेमूलं चतुर्यवसमन्वितम् ॥ ४५२ ॥ पञ्चाङ्गुले ब्रह्मसूत्राद् बस्तिपार्श्व परं भवेत् । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे मेढ़मूलं चतुर्यवम् ॥ ४५३ ॥ तस्मादूशिरःसन्धिर्भवेत्पश्चाङ्गुलौन्वितः ।
ऊरू परे ब्रह्मसूत्रात्करणीयः(यौ) षडङ्गुले ॥ ४५४ ॥ १D.न्धेः च A न्धिश्च । २ A. द्धि । ३ F. चतुर्यवा। ४ D. येत् । ५ F ये A. र्या । ६ B D. तत्र । ७ A. अर्ध। ८ B. F.गे। ९ B D कुक्षौ । १० Fधः। ११ This stanza is found only in B and D। १२ D रू । १३ D लं त ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३j
मानसोल्लास।
मणिबन्धगता रेखा द्यङ्गुले द्वियवाधिके । अङ्गुष्ठपार्श्वगा रेखा ब्रह्मसूत्राद्दशाङ्गुले ॥ ४५४ ॥ ततोऽधस्तात्मदृश्येत पताकाकारकं तलम् । कनिष्ठा गुप्यते तत्र रेखया सक्थिमध्यया ॥ ४५५ ॥ पञ्चाङ्गुलं ब्रह्मसूत्रात्सक्थिमध्यं प्रकीर्तितम् । विप्रसूत्रात्परे भागे सक्थिमध्यं षडङ्गुलम् ॥ ४५६ ॥ ब्रह्मसूत्राद्भवेदांणि गेनैकेन कल्पिता । जानुशीर्षकलामानं जानोऽधस्ततोऽङ्गुले ॥ ४५७ ॥ शबस्तौ ब्रह्मसूत्रं तलं त्यक्त्वा प्रगॅच्छति । यवज्रयादगुलान्तं पादपृष्ठे च तिष्ठते ॥ ४५८ ॥ परभागे गते पादे मध्यमाक्रम्य गच्छति । पूर्वपादस्य पृष्ठे तु परपादस्य कोविदैः ॥ ४५९ ॥ भूमिरेखा प्रकर्तव्या पाणिस्तस्य विलुप्यते । नेत्रमात्रामितं दैर्ध्य परपादे प्रकल्प(लप्यते ॥ ४६० ॥ अर्घर्जुकाकृतिः कार्यः पादश्चित्रविशारदैः । परपादस्य कूर्चायाः पूर्वपादतलस्य च ॥ ४६१ ॥ मध्ये व्योम प्रदृश्येत मात्रया मात्रितं स्फुटम् । एकमङ्गुलमुत्सृज्य ब्रह्मसूत्रस्य प (पू) वेतः ॥ ४६२ ॥ ग्रीवा द्विभागिका लेख्या चित्रकर्मविशारदैः। पूर्वभागे प्रकुर्वीत कक्षामूलं च तालतः ॥ ४६३ ॥ कक्षामूलात्ततो बाहुभवेतिर्यग् विभागिः । ब्रह्मसूत्रात्कलामात्रे हृदयं पुरतः स्थितम् ॥ ४६४ ॥ हृदयाच्चूचुकं कार्य गोलकत्रैयदूरगम् । स्तनमेचकचक्रं तु लिख्यते वृत्तमायतम् ॥ ४६५ ॥
A लुप्य । २ B. D. त्पा । ३ B D. धातु । ४ B D. क्रं । ५ D. य । ६ F.या। " A क्रमा । ८ BF मक्रम । ९ F तत्र । १. D. क्रमायि । ११ A काः ! १२ A तः। १३ DE..
Aho! Shrutgyanam
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लास।
[ अध्यायः१
मात्रामितं तु विस्तारे दैर्ध्य गोर्लकमादिशेत् । स्तनमण्डलतः कार्या बृहती चतुरमुला ॥ ४६६ ॥ ततः सप्ताङ्गुला लेख्या बाहुलेखा विचक्षणैः । बाहोरभ्यन्तरे रेखा निर्गत्य परिगच्छति ॥ ४६७ ॥ मध्यभागं परित्यज्य जघने सङ्गता भवेत् । मध्यस्य चाङ्गरेखाया भवेत्व्यङ्गुलमन्तरम् ॥ ४६८ ॥ श्रोणेश्च भुजरेखाया अन्तरं भाग इष्यते । ब्रह्मसूत्राद्भवेच्छोणी पूर्वभागे दशाङ्गुलम् ॥ ४६९ ॥ एकादशाङ्गुलः काञ्चीगुणदेशः प्रकल्प (लप्य) ते । पूर्वभागे प्रकोष्ठः स्यात् सूत्रादेकादशाङ्गुलं ॥ ४७०॥ नितम्बो गुप्यते तत्र प्रकोष्ठेन निगृहितः । बहिर्भागे प्रदृश्यं स्यात्स्फिक्कुट मणिबन्धतः ॥ ४७१ ।। अर्धाङ्गुलप्रमाणेन पञ्चमीचन्द्रसन्निभम् । सूत्रात्तु मेहनं कुर्यात्कलामात्रेण कोविदः ॥ ४७२ ॥ मेहँनाद् द्यङ्गुले श्रोणिः श्रोणेरष्टाङ्गुले भुजः। पताकासन्निभः कार्यो दृश्यः पृष्टकरो बुधैः ॥ ४७३ ॥ कनिष्ठानखतो लेख्या सक्थिरेखा बहिर्गता । सूत्रतो यमुलं कार्यमूरुमूलं विचक्षणैः ॥ ४७४ ॥ पुरोदेशस्थितः सूत्रादौणिदेशस्तु भागतः । श्रोणिदेशाद्धहिलेखा भवेदष्टाङ्गुलैर्मिता ॥ ४७५ ॥ जानुकाटिका लेख्या ब्रह्मसूत्रात्पडङ्गुला। पराङिजानुसन्धौ तु पूर्वजानु व्यवस्थितम् ॥ ४७६ ॥
गुलं तत्प्रमाणेन लेखनीयं समासतः ।
जानुचक्रावहिर्लेखा लेखनीया षडङ्गुले ॥४७७॥ ... D रो। २ D कर्ण । ३ A ना। ४ B द्वय D द। ५ B. F. र्जानुज । ६ A लं । ७ B. लु। ८ A. D. कू। ९ A. भः । १० A. महता । ११ D. शक्ति । १२ D. त्पा । १३ D. गो। १४ A. तंश्च क्रिया, श्वकृतका D तः कृकाटिका । १५ D यो । १६ A लं।
Aho ! Shrutgyanam
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। सार्धपञ्चाङ्गुलं तत्र जडामध्यं प्रकीर्तितम् । .. द्यर्धाक्षि वक्ष्यते स्थानं लक्ष्यलक्षणसंयुतम् ॥ ४७८ ॥.. एकत्रैकाङ्गुलं यस्मिन्नन्यत्रैकादशाङ्गुलम् । मध्ये द्यर्धाक्षिकं स्थानं लम्बसूत्रक्रमो भवेत् ॥ ४७९ ॥ केशान्तान्नासिकानाच्च कक्षामूलाच नाभितः । ऊरुमध्यात्पार्श्वसूत्र मूलेऽङ्गुष्ठस्य संसृतम् ।। ४८० ॥ सीमन्ततो भ्रुवोर्मध्याह्मसूत्रं विनिर्गतम् । गोपयेदग्रतः कक्षामूले देशा(शोऽ)थ मात्रया ॥ ४८१ ॥ अङ्गुलं'नाभितस्त्यक्त्वा लिङ्गपाश्चाविषाणि(णिदेश)तः । अङ्गुष्ठोपान्तदेशाच्च पूर्वमध्याङ्गुली व्रजेत् ॥ ४८२ ॥ अन्यपार्श्वगतं मूत्र मूर्धपृष्ठाद्विनिर्गतम् । कन्धरास्कन्धसन्धेश्च मध्यदेशेन सङ्गतम् ॥ ४८३ ॥ मणिबन्धात्तर्जनीतः पूर्वपादस्य पाणितः । क्रमेणैवं प्रकुर्वीत सूत्रत्रयमितीरितम् ॥ ४८४ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे केशान्तश्चौधगोलकः। अङ्गुलं च तथा दृश्या भ्रूलेखा यवतोधिका ॥ ४८५॥ ततः सूत्रात्परे भागे ब्रह्मसूत्रश्च (नेत्रदेशश्च ? ) षड्यः । ततश्च निर्गतं वर्त्म ध्व(उर्ध्व)भागे यवद्वयम् ॥ ४८६॥.... नासामूलस्थितात्सूत्रान्नेत्राग्रं परभागि:म् । दृश्यते षड्यवं तत्र त्रियवं कृष्णमण्डलम् ॥ ४८७ ॥ त्रियकैः ( वः ) श्वेतभागः स्याल्लप्यते करकस्तथा । नासामध्यात्तथा दृश्यं कपोलं त्रिय स्फुटम् ॥ ४८८ ॥
१ FD ई । २ A भि। ३ A ध्यं, र्द्धीक्षियव । ४ A कस्थाने । ५ A B त्र। ६ A स्मृता B सृतः। ७ B D F मि। ८ A B F गोहेपीहत्वतःकक्ष्या A गोपयेत्त्वग्रतः, मोहेर्हन्वग्रतः। ९ A लें। १० A ले, नं। ११ D श्वाद् A व । १२ A ली। १३ ऊर्ध्व। १४ A न्थि । १५ A मालकाः। १६ F भू । १७F वा। १८ A. B. D. तत्र। १९ A न्तेवाग्रं B प्रागन । २० A का । २१ D यः। २२ A यत्र करकः । २३ D. F. वः।।
Aho! Shrutgyanam
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः१ नासामध्यं ब्रह्मसूत्राच्चतुर्यवमुदाहृतम् । नासाग्रं ब्रह्मसूत्राच्च दृश्यं स्यादङ्गुलं परे ॥ ४८९ ॥ तस्मात्सूत्रात्परे भागे दृश्य (श्यः) कक्षधरोऽङ्गुलम् । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे कक्षामूलं तु मात्रया ॥ ४९० ॥ कक्षामूलाद्धाहुमूलं मात्रामात्रं प्रदृश्यते । अन्यः प्रलुप्यते बाहुर्जेठरेण तलावधिः ॥ ४९१ ॥ ब्रह्मसूत्रात्कुचावतों भवेदङ्गुलतो बहिः । अर्धचन्द्राकृतिदृश्यः स एवाङ्गुलसम्मितः ॥ ४९२ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे नाभिरङ्गुलमात्रिका । ततो बहिः प्रदृश्येत जठरं चैकमङ्गुलम् ॥ ४९३ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परः काञ्चीगुणदेशोऽङ्गुलयम् । ब्रह्मसूत्राद् बस्तिशिरः पाच स्याञ्चतुरङ्गुलम् ॥ ४९४ ॥ ब्रह्मसूत्रान्मुष्कमूलं दृश्यते तच्चतुर्यवम् । मुष्को न दृश्यते तत्र लिङ्गेन परिगृहितः ॥ ४९५ ॥ ब्रह्मसूत्रादूरुमूलं भवेद्भागेन सङ्गतम् । लिङ्गस्याग्रे भवेदूरुभागः स्यात्रियवाधिकः ।। ४९६ ॥ ब्रह्मसूत्रादूरुमध्यं भवेदध्यर्धगोलकम् । सक्थिदेशाहिदृश्य(श्यो)ह्यङ्गुष्ठश्चापि तर्जनी ॥ ४९७ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे देशे परपादस्त्रिभागतः । दृश्यते साचिंत(वत् तद्वदगुल्योपि तदर्षिक:(काः)॥ ४९८ ॥ पूर्वार्दै गुल्फशीर्षाच्च पराह्ने (दें) नखमध्यतः । भवेद्भूमिगतं सूत्रं परपादस्य लेखने ॥ ४९९ ॥ परामिब्रह्मसूत्राच्च पूर्वभागे प्रदृश्यते । सप्ताङ्गुलकृतायामः शेषं पूर्वेण लिप्यते ॥ ५००॥
१ D तु । २ A ज। ३ A धि। ४ A द्व। ५ DN A Bः। ६ A F दध्यर्धगोलकम् । HD ८ A शक्ति । ९ A F वि । १० D ल्या । ११ A हे । १२ F ख्य। ...
Aho ! Shrutgyanam
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
उरुश्च परपादस्य जैडावर्धे(ते) न लुप्यते । अक्षि(भि)पार्णिश्च निखिलौ पूर्वपादेन दर्शितौ ॥ ५०१॥ वितस्तिः पूर्वपादस्य दैर्घ्यम निरूप्यते । साचिवल्लिख्यते तज्ज्ञैरङ्गुष्ठो लुप्यते मनाक् ॥ ५०२॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे शीर्षमेकादशाङ्गुलम् । उत्सेधस्य तथाचोर्ध्वं शीर्ष स्यात्सार्धमङ्गुलम् ।। ५०३ ।। उत्सेधस्य तथापाङ्ग मस्तकं व्यङ्गुलं भवेत् । तत्प्रदेशाच्छिरःपृष्ठं लेख्यं सप्तभिरनुलैः ॥ ५०४ ॥ शङ्खस्थाने समे चोर्ध्वं निम्नं किञ्चिच्छिरो भवेत् । ततः शिरोगता लेखा धन्वाकारा प्रर्लिख्यते ॥ ५०५॥ ब्रह्ममूत्रात्परे भागे ताँल(लुस्यादङ्गुलत्रयम् । भूलेखा यवमाना तु तत्पमाणां विलिख्यते ॥ ५०६॥ नासामूलं ब्रह्मसूत्रादर्धमात्रं पुरःस्थितम् । कनिनी द्वियवा दृश्या करवीरो न दृश्यते ॥ ५०७ ॥ द्वियवः श्वेतभागश्च दृश्यते तदनन्तरम् । दृश्यते त्रियवं तत्र लोचनं कृत(कृष्ण)मण्डलम् ॥ ५०८ ॥ श्वेतापागो(तभागो)प्यपाङ्गस्थः समग्रं परिदृश्यते । समग्रो दृश्यते कर्णो यवद्वितयवर्जितः ।। ५०९ ॥ कर्णावर्ताद्धहिः शीर्षपृष्ठं दृश्यं ततोऽङ्गुलम् । कर्णपालीबहिर्देशे पृष्ठकेशान्तको मनाक् ॥ ५१० ॥ अर्धाङ्गुलप्रमाणेन दृश्यते चित्रलेखने"। शङ्खकोंगल(सः कपोलो )गण्डश्च दृश्यते पूर्णपण्डलः ॥ ५११ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परेभागे भवेन्नासापुटोङ्गुलम् । अर्ध प्रदृश्यते गोजेरोष्ठांध तु यवाधिकम् ॥ ५१२ ॥
१ A दैर्ध्यमत्रनिरूप्यते । २ BD F ति। ३ । मञ्। ४ D ष्टौ। ५ D शीर्षमेकादशाङ्गुलम् । A ले। ७ A ना। - A णं । ९ A. ने कुच। १० F. का । ११ A नैः । १२. A कापोलगण्डस्य D कागोलगण्डश्च। १३ । १४ A लात् । १५ D. शेषा ।
Aho! Shrutgyanam
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
मानसोल्लासः ।
ब्रह्मसूत्रात् पुरोभागे हनुग्रीवस्य सङ्गमः ।
लिख्यते व्यगु (लैस्त) ज्ज्ञैग्रीवा तत्र द्विभागिका ।। ५१३ ॥
[ अध्यायः १
ब्रह्मसूत्रात्रे भागे हिक्का सार्वत्रिभागका । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे सार्धसप्तदशाङ्गुलम् ॥ ५१४ ॥ तिर्यङ्मानेन बोद्धव्यं बाहमूलं विचक्षणैः । ततो विनिर्गतं कार्य बाहुशीर्ष द्विमात्रिकम् ।। ५१५ । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे कुक्षिमूलं च सङ्गतम् । कक्षामूलाद्वाहुरेखा बाह्य भागद्वयं भवेत् ॥ ५९६ ॥ ब्रह्मसूत्रात् परे भागे त्र्यङ्गुलं समुदाहृतम् । बाहोराभ्यन्तरा ( री ) रेखा विधृतां स्याद्दशाङ्गुलीं ।। ५१७ ॥ सप्ताङ्गलं बाहुमध्यं तिर्यसूत्रेण कैल्पयेत् । बृहतीदेशमुत्सृज्य बाहोराभ्यन्तरी शुभा ॥ ५९८ ॥ रेखा लेख्या तथा तज्ज्ञैर्जघने सङ्गता यथा । कुक्षेच बाहुरेखाया अन्तरं त्र्यङ्गुलं भवेत् ।। ५१९ ।। कूर्परस्य तथा श्रोणेव्यम चाङ्गुलमिष्यते । कूर्परस्थानविस्तारः पञ्चाङ्गुलमुदीरितः ।। ५२० ।। नाभिस्थब्रह्मसूत्रस्य श्रोणेर्मध्यं निगद्यते । अङ्गुलैर्मनुसङ्ख्याकैस्तिर्यग्विस्तारकल्पनैंम् ॥ ५२१ ॥ पक्षाश्रयब्रह्मसूत्रभुजयोः कल्प (लप्य ) मैंन्तरम् । चतुर्दशाङ्गुलं प्राज्ञैः प्रबाहुः पञ्चमात्रिकः ॥ ५२२ ॥ वस्तिशीर्षगति (त) ब्रह्मसूत्रस्य च भुजस्य च । अन्तरं तालमात्रं स्यात्प्रकोष्ठात्पञ्चमात्रिकम् ॥ ५२३ ॥ बस्तिस्थैबह्मसूत्रस्य प्र ( प्र ) कोष्टस्य चान्तरेंम् । दशाङ्गुलं सार्धमात्रं भागः स्यात्प्रकोष्ठकः ।। ५२४ ॥
७ A
१ A परे । २ A. न्ते । ३ A लः । ४ A त्रि ।५A भागि। ६ A भागत्रयभवेन्मुखम् । D द्भवेदङ्गि । ९ Aतः । १० A लम् ।११AD कल्पितम् । १२ १६ A लै: । १७ A स्थं । १८
. १३ D कल्पितम् । १४ A त्रमु । १५A नान्तरम् । १९F रे । २० D त्र । २१ D त्य ।
Aho! Shrutgyanam
रा ।
न
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः। ब्रह्मसूत्रपुरोभाग लिङ्ग द्वयङ्गुलसम्मितम् । मुष्कमूलं भवेन्मात्रा बाहुरष्टाङ्गुलं' ततः ॥ ५२५॥ चतुरङ्गलमुद्दिष्टो मणिबन्धो विचक्षणैः । पताकेवे करः कार्यः ऊरुलग्नतलो बुधैः ॥ ५२६ ॥ मणिबन्धादहिर्देशे स्फिक्कँटं द्वयङ्गुलं भवेत् । ऊरुस्तस्मादधस्तालो रेखया करवाह्यया ॥ ५२७ ॥ . करबाह्यगता रेखा सङ्गता सँस्थिरेखया । अं(आ) णिदेशस्य विस्तारो भागद्वयमुदाहृतः ॥ ५२८ ॥ जानुसन्धिप्रमाणं तु सप्ताङ्गुलमुदाहृतम् । जानुचक्रस्य विस्तारः सार्धमङ्गुलमिष्यते ॥ ५२९ ॥ इन्द्रबस्तेस्तु विस्तारो वितस्तेरमिष्यते । नलसन्धेश्च विस्तारः कथितश्चतुरङ्गुलः ॥ ५३० ॥ ततो विनिर्गता कार्या वृत्ता पाणि द्वि(दि)मात्रिका। यवद्वितयहीना सा कर्तव्या सुविचक्षणैः ॥ ५३१॥ कनिष्ठानामिकामध्यात्ता(स्ता)सामूर्ध्व प्रदोशनी । अङ्गुष्ठ ऊर्ध्वतस्तासां कर्तव्योऽसौ क्रमेण तु ॥ ५३२ ॥ एवं द्वयर्धाक्षिकं स्थानं विस्तारेण निरूपितम् । ऊर्ध्वरूपं प्रवक्ष्यामि भित्तिकं स्थानक(क) स्फुटम् ॥ ५३३॥ पक्षसूत्रद्वयं तिष्ठेब्रह्ममूत्रं न दृश्यते । लम्बसूत्रक्रमो ह्येष भित्तिके समुदाहृतः ॥ ५३४ ॥ अलीके नासिकामध्ये चूचुके सेन्द्रमूर्धनि । अङ्गुष्ठगुल्फमूले च पक्षसूत्रं निवेश्यते ॥ ५३५ ॥ तेनैव मिलितं कार्य मध्यसूत्रं विचक्षणैः । नान्यत्रं दृश्यते कापि ब्रह्मसूत्रं ततः स्मृतम् ।। ५३६ ॥
3A ला। २ A B च । ३ A कू । ४ A शशि । ५ B D पा A F म, श्रो। ६ A व । A त। ८D. B. त्वा । ९ F. त्सं।
Aho ! Shrutgyanam
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
४.८
मानसोल्लासः ।
ऊर्ध्वपृष्ठे तथा स्कन्धे कूर्परे पापान्ततः । इतरत्पक्षसूत्रं तु क्रमेणैवं विधीयते ॥ ५३७ ॥
ब्रह्मसूत्रात्रे (पुरी) भागे केशान्तस्त्रियवान्तरः । नासामूलस्य सूत्रस्य (तु) यवद्वितयमन्तरम् ।। ५३८ ॥
मानान्तरा गोजी निम्ना सा परिकल्प (ल्प्य ) ते । आस्यमध्यगता रेखा सूत्रान्त (तु) द्वियवान्तरम् ।। ५३९ ॥
अन्तरं ब्रह्मसूत्रस्य चिबुकस्यैकमङ्गुलम् | हनुचक्रं ततो लेख्यं सूत्रात्पञ्चयवान्तरम् ॥ ५४० ॥
द्व्यङ्गुलं हनुचक्रं स्याद्वीवासन्धिस्तु मात्रया । हिक्का भागान्तरा कार्या ब्रह्मसूत्रानुसारतः || ५४१ ॥ घटिते ब्रह्मसूत्रेण स्तना (न) रोहितचूचुके । मूलमग्रं च लिङ्गस्य भवेत्सूत्रेण घट्टितम् ॥ ५४२ ॥ ऊरुदेश तथा जानुं जंङ्घा ( ङ्घां ) सन्त्यज्य गच्छति । अङ्गुष्ठयमूलं (ले) च सूत्रं तद्घटितं भवेत् ॥ ५४३ ॥
अर्न्यपक्षस्थिते सूत्रे” मूर्धपृष्ठं तु घट्टितम् । सार्धालान्तरं कार्य मस्तकाग्रं विचक्षणैः || ५४४ ॥ साङ्गलान्तरस्तद्वत् केशान्तः पश्चिमो भवेत् । स्कन्धदेशः प्रकर्तव्यः पक्षसूत्रेण घट्टितः ॥ ५४५ ॥ पक्षसूत्रस्य कूर्चस्य मध्यं द्व्यङ्गुलसम्मितम् । लम्बसूत्रगतश्चैवं निम्नभागः प्रकीर्तितः ॥ ५४६ ॥ अधिकं सूत्रतो यत्तु तदिदानीं निरूप्यते । नासाग्रमण्डलं कार्य ब्रह्मसूत्राद्विनिर्गतम् ॥ ५४७ ॥
परस्य (च) तथा तेन पक्षसूत्रेण घट्टितः । पाणिप्रान्तप्रदेशस्य (श्च) कार्यः सूत्रेण 'चोदितः || ५४८ ॥
१ A पूर्व । २ A सू । ३ D. च । ४ A स्य । ९DF तं । १० DF नं। ११ पक्षसूत्रेण घट्टितः । १३ F यो ।
[ अध्यायः १
अ । ५ दि । ६D शगतंजानु, A शे । A नुं । १२F Takes these two lines after
Aho! Shrutgyanam
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAJAPANA/
विंशतिः३]
मानसोल्लास। मात्रया मात्रिक कार्यमधिकं स्तनरोहितम् । वाधो निम्नः प्रदेशः स्यादधिको दशभिर्यवैः ॥५४९ ॥ सूत्रान्मध्यप्रदेशस्तु निर्गतोऽर्धार्धगोलकम् । जठरं तस्य वाँधस्थमधिकं यवयुग्मतः ॥ ५५० ॥ नाभिरन्ध्रप्रदेशः स्यादधिको व्यर्धगोलकम् । पक्काशयस्तस्य गुप्तेर्भवेद्भागेन निर्गतः ॥ ५५१ ॥ काञ्चीसूत्रप्रदेशस्तु भवेयङ्गुलतोधिकः । बस्तिशीर्षप्रदेशस्तु भवेदमुलतोअधिकः ॥ ५५२ ॥ अधिका येङ्गुला(:)कार्या(:)सूत्रादङ्गुष्ठको(का)बुधैः। यवयुग्माधिके कार्ये प्रदेशिन्यौं च लेखने ॥ ५५३ ॥ अन्यस्य पंक्षसूत्रस्य फलेक गोलकाधिकम् । कलया बाहुमूलं स्यात्फलक द्वयॉलं ततः ॥ ५५४ ॥ भुजमध्यप्रदेशस्तु पञ्चा(च)दशयवाधिकः। अर्धाङ्गुलाधिकं कार्य फलकं सुविचक्षणैः ॥ ५५५॥ यव(व)मानक्रमाद्धीना रेखा बाह्वोस्तु बाह्यगा । यावत्कूपरकस्थानं तत्र सूत्रेण घट्टिता ॥ ५५६ ॥ कूर्परा निर्गता काञ्ची जघनं स्फित्क(क्त)टं तथा । काञ्ची यमुलतः कार्या व्यङ्गुलं बस्तिमस्तकम् ॥ ५५७ ।। बस्तिसूत्रप्रदेशः स्याचतुर्भिनियतोऽङ्गुलैः । स्फिजोमण्डलभागस्तु क्रमशो यवहीनकः ॥ ५५८ ॥ स्फिजोबन्धप्रदेशस्तु सूत्रादमुलतोधकः । ऊरोबाह्यगता रेखा क्रमशः परिहीयते ॥ ५५९ ॥ घटिता जानुसन्धौ तु जंघा स्यादमुलाधिका।। अधिको निर्गतः कूर्चः कथितः सूत्रयुग्मके ॥ ५६० ॥
.१ A वी। २ A ध्र। ३ A द । ४ A.न। ५ A कम् । ६ F स्तुधेन । ७ A चुर्ले F बुर्ले । A द। ९ D त्र्यं । १० A न्ये । ११ A सूत्रपक्षस्य । १२ B. D. F. फलञ्च । १३ A लः । १४ A लान्तकः । १५ D त्रि। १६ Bन्य । १७ A कटिं। १८A स्तिये । १९ A बन्धु । २० A को।
Aho! Shrutgyanam
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः१
VandanaKAARY
आकारलक्षणं वक्ष्ये प्रमाणेन यथाक्रमम् । अर्धमङ्ग प्रदृश्यं स्याद्भित्तिके तन्न दृश्यते ॥ ५६१ ॥ ललाटाधु भ्रुवोर्लेखा लोचनं श्रवणं तथा । नासापुटस्तथा सा(चा) वाहुरेकस्तथा पुनः ॥ ५६२ ॥ स्फिक्क(क्त)टं सक्थि जङ्घा च दृश्यते पर्दयुग्मकम् । एतदेव प्रदृश्यं स्यादन्यद्भित्तिगतं भवेत् ॥ ५६३ ॥ भाग एको ललाटस्य भ्रूलेखा व्यङ्गुला तथा । शङ्खप्रदेशकस्तिर्यगङ्गुलत्रयसम्मितम् (तः) ॥ ५६४ ॥ अमुलं कूर्चमूलं स्यान्मात्रामात्रं ततः परम् । कथितः पूर्ववत् कर्णः समः परिलिख्यते ॥ ५६५ ॥ कनिनी लुप्यते नेत्रे करवीरो न दृश्यते । पुरतः श्वेतभागोऽपि लुप्यते तत्र भित्तिके ॥ ५६६॥ कृष्णमण्डलकस्याध लुप्यते चित्रलेखने । दृश्यं साधयवद्वन्द्व मेचके मण्डलेऽर्धतः ॥ ५६७ ॥ अपाङ्गश्वेतभागोऽत्र दृश्यते यवपश्चर्कः । कपोलो गण्डदेशश्च सम्पूर्णः परिदृश्यते ॥ ५६८ ॥ नासिकर्धि प्रदृश्येत गोजिकाध तथैव च । कलामात्रे प्रदृश्येते दशनच्छदने उभे ॥ ५६९ ॥ हनुमण्डलमधू च कलामात्रं प्रदृश्यते । ग्रीवा चाष्टाङ्गुला लेख्या चित्रकर्मणि भित्तिके ॥ ५७० ॥ बाहुमूलद्वयस्योर्ध्व हिक्कासूत्रस्य चोपरि । रेखा चापाकृतिर्लेख्या प्रदेशे भुजशीर्षके ॥ ५७१ ॥ हिकायामन्व(मंस)देशस्य विस्तारस्तालमात्रकः । बाहुर्यथोदितः पूर्व तथैव परिलिख्यते ॥ ५७२ ॥
१ B क । २१ । ३ A मे । ४ D ग्रं । ५A श्थे । ६ D कम् । ७ D ले । ८ A । ९ A त । १. B. F. शु। ११ B. मंश, मङ्ग D अंश । १२ A वस्त B र्वत।
Aho ! Shrutgyanam
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
५१
पताकासन्निवेशेन लिख्यते करपल्लवः । चतुदेशाङ्गुलं मध्यं भुजस्य जठरस्य च ।। ५७३ ॥ दृश्यते केवलं लिङ्गं मुष्कमूलं च दृश्यते । ऊरु जा(जर्जा)नु च जवा च लिख्यते ख्यातमानतः॥ ५७४ ॥ चतुर्दशाङ्गुलं दैर्ध्य पादयोः परिलिख्यते । षडङ्गुलस्तु विस्तारः पूर्वपादस्तु(स्य) लिख्यते ॥ ५७५ ॥ पूर्वपादस्य पृष्ठे तु द्यङ्गुलो दृश्यते परम्(रः) । अङ्गुष्ठो दृश्यते तत्र तत्परा च प्रदेशिनी ॥ ५७६ ॥ इतरा नैव दृश्यन्ते परभागाङ्घिसंश्रिताः । एवं लक्षणमुद्दिष्टं भित्तिकस्य यथाक्रमम् ॥ ५७७ ॥ ऋज्वधर्जुकेसाचीनां द्यर्धाक्षे भित्तिकस्य च । सूत्रतो लक्षणं प्रोक्तं समयं(ग्रं) सोमभूभुजा ।। ५७८ ॥ चतुष्पकारभित्तीनां वृत्तीनां वच्मि लक्षणम् । सूत्रतो मानतश्चापि प्रदेशानां विनिर्णयात् ॥ ५७९ ॥ ऋजुकेऽर्धर्जुके साचीस्थाने द्यर्धाक्षिसंज्ञके । पक्षसूत्रे तथा प्रोक्ते परावृत्तिष्ठते त(तस्त)था ॥ ५८० ॥ शिखाकृकाटिकामध्या(त्) पृष्ठवंशा(त् )स्फिगैन्तरात् । निर्गत्य पाणिमध्ये तु ब्रह्मसूत्रं प्रतिष्ठितम् ॥ ५८१ ॥ तिर्यकर्णागतं(तात्) सूत्रा(त) शिरश्चन्द्रार्धसन्निभम् । षडङ्गुलस्तदुत्सेध आयामस्तु दशाङ्गुलः ॥ ५८२ ॥ तस्मात्सूत्रादधोभागे प्रदेशः केशसंयुतः । षडङ्गुलं तस्य दैध्ये विस्तारस्तु दशाङ्गुलः ॥ ५८३॥ कर्णमूलपदेशे तु विस्तारः स्याहिर(घ)ङ्गुलः । शिरोगतप्रदेशे तु विस्तारस्तु षडङ्गुलः ॥ ५८४ ॥ अधस्तात्कर्णरन्ध्रस्य विस्तारो य१लो मतः।
कर्णी सार्धाङ्गुलौ दृश्यौ पाल्यौ चाङ्गुलसम्मिते ॥ ५८५॥ १D ले। २ A र्जुसा। ३ D ज । ४ A कार्णाग्रगां B काणाग्रगां । ५ D ।
Aho! Shrutgyanam
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः१
annonnnnnnnnnAmANaranwww
चलास्थिहनुविस्तारः सूत्रप्रोक्त (क्तो) दशाङ्गुलः। ग्रीवा चाष्टाङ्गुला तिर्यविस्तारेण निगद्यते ॥ ५८६ ॥ पार्श्वतो ब्रह्मसूत्रस्य कक्षामूले तु नालिके । कक्षामूलात्ततो बाह्यवाहोर्लेखा षडङ्गुला ॥ ५८७ ॥ ऋजुवत्सर्वमङ्गस्य अनेनान्यन्निरूपितम् । प्रदृश्येत तले तस्मिन् करपल्लवसंस्थिते ॥ ५८८ ॥ गुदस्थानोंत् स्फिजो रेखां द्वितीया चन्द्रसन्निभा । पक्षसूत्रावधि प्रोक्ते(क्ता) स्फिग्मध्ये बन्धदेशतः ॥ ५८९ ॥ मुष्कौ वृत्ताङ्गुलौ दृश्यौ तदधो लिङ्गमङ्गुलम् । ऊर्वोरभ्यन्तरं तत्र भवेदङ्लसम्मितम् ॥ ५९० ॥ ऊर्वोर्मध्यप्रदेशे तु भवेद्गोलकमन्तरम् । श्रोणिदेशे तथा प्रोक्तमन्तरं चतुरङ्गुलम् ॥ ५९१ ॥ . यावत्पाणिप्रदेशः स्यात्तावदावृ(दीड)क्षमन्तरम् । भूमिसूत्रे तथा पाणिः कर्तव्ये(व्यः) सुविचक्षणैः ॥ ५९२ ।। भूमिसूत्रात्ततो यूज़ कनिष्ठे सप्तमात्रिके। अर्धाङ्गुलाधिके तस्मिन्ननामे मध्यमे क्रमात् ॥ ५९३ ॥ गुल्फ(ल्फ)देशाहिदृश्ये न दृश्या च प्रदेशिनी । अङ्गुष्ठे(ठो)ऽपि न दृश्येत जङ्घाया:(क्या) परिगृहितः॥ ५९४ ।। ऋजुवृत्तिरिति ख्याता सूत्रमानानुसारतः । चित्रकाणां प्रबोधार्थ चित्रं सोममहीभुजा ॥ ५९५ ॥ वृत्तिरर्धर्जुकेदानी कथ्यते लक्ष्मलक्ष्यते(तः)। पक्षसूत्रे प्रकर्तव्ये यथैवार्धर्जुके तथा ॥ ५९६ ॥ चतुरङ्गुलमेकत्र भागद्वितयमन्यतः।
अर्धर्जुके यथा सूत्रं तद्वत्तद्वृत्तिके भवेत् ॥ ५९७ ॥ १ A. ब । २ B. ल । ३ B D. तः । ४ D न्येनि । ५ A न B ना । ६ D लेखे।
Aho ! Shrutgyanam
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
ऋजुके मस्तके सूत्रं तद्वदृश्यं प्रकल्पयेत् ।
विस्तार इच्छया चैव चूचूभागेति (पि) तद्दिवम् १ ॥ ५९८ ॥
ब्रह्मसूत्रात्परे भागे कर्णपाली च दृश्यते । पूर्वभागे युतः कर्ण ऋजुवृत्तौ यथा तथा ।। ५९९ ।।
केशान्तमध्यगात्सूत्रात्परि(रे) भागे त्रिमात्रिकः । चलास्थिहनुविस्तारः पूर्वाङ्गे प्राङ्कुलो भवेत् || ६०० ।। ब्रह्मसूत्रात्रे भागे ग्रीवा गोलकसम्मिता ।
डडुला भवेत्पूर्वे विस्तारेण निरूपिता ॥ ६०१ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे कक्षामूलं दशाङ्गुलम् । तालमानं भवेत्पूर्वे कक्षामूलं तु निश्चितम् ।। ६०२ ।। कक्षामूलात्परे भागे रेखा बाहस्तु बाह्यगा । षडङ्गुला भवेत्तिर्यग् विस्तारेण प्रमाणतः ।। ६०३ ॥ पुरस्तात्कक्षमूला रेखा बाह्या तु बाह्यगी । सप्तमात्रा भवेत्तिर्यग् विस्तारेण सुनिश्चिता || ६०४ || ब्रह्मसूत्रात्परे भागे पूर्ववद्धीयते क्रमात् । श्रोणी काञ्चीप्रदेशश्च बस्तिदेशस्तथैव च ।। ६०५ ॥
ब्रह्मसूत्रात्परे भागे स्फिग्रेखा नचन्द्रवत् । पूर्वभागस्फिजा लुप्तं लेखार्धं परभागिकम् || ६०६ ॥
ब्रह्मसूत्रात्रे भागे सक्थि दृश्यं दशाङ्गुलम् । पूर्वभागप्रदेश: (गे प्रदृश्यः) स्यात्क (दू ) रुदेशस्तु मात्रिकः ॥ ६०७ ॥ परे तु मध्यदेशस्तु परभागे द्विभागिकः । पूर्वभागे
यः(श्यं स्यात्सार्धमङ्गुलकं स्फुटम् ॥ ६०८ ||
पराङ्के ब्रह्मसूत्रस्य पुरोभागः प्रदृश्यते । अर्धाङ्गुलप्रमाणेन यावत्तलकसङ्गमः ॥ ६०९ ॥ समग्रं दृश्यते सक्थि पूर्वपादस्य सङ्गतम् । अधस्ताद्वैरुमध्यस्य व्योम जानुव्यवस्थितम् ॥ ६१० ॥
५३
१ D या । २ B. D ख । ३ A का । ४ B. F ग । ५ B. F देशः । ६ रा । ७A द्
Aho! Shrutgyanam
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४
मानसोल्लासः ।
क्रमशो वर्धमानं तु यावत्सार्धाङ्गलावधि | जङ्गयोरन्तरं तद्वत्सार्धमङ्गुलमिष्यते ।। ६११ ॥ इन्द्रवस्तिप्रदेशे तु किञ्चिदूनं प्रकल्पयेत् । लुप्यते परपादेऽस्मिन्नङ्गुष्ठः पादशाखिकः ।। ६१२ ।। अधस्ताद्भूमिसूत्रस्य पाणिः पूर्वपदाश्रिता । यवप्रमाणिका दृश्या वृत्तत्वाच्चित्रकर्माणि ॥ ६१३ ॥ अनुष्ठमूलदेशस्य नव (ख) सन्धेर्यदन्तरम् । तत्कलामात्रकं कार्यं चित्रकर्मविशारदैः ॥ ६१४ ॥
भूमिसूत्रात्तथा चोर्ध्वं कनिष्ठा कलया स्मृता । सर्वाङ्गुल्यस्तथाऽङ्गुष्ठो दृश्यन्ते पूर्वपादगाः ।। ६१५ ॥
भूमिसूत्रं परित्यज्य पराङ्घ्रः पाणिमण्डलम् । अडलेन विधातव्यो भित्तिचित्रे ह्ययं क्रमः
६१६ ॥
एवमर्धर्जुका वृत्तिः समग्रा परिकीर्तिता । क्षयवृद्धिप्रदेशैस्तु सूत्रं मानात्सुनिश्चितम् ॥ ६१७ ||
साचिस्थानगता वृत्तिरिदानीं परिकीर्त्यते । सूत्रत्रितयभेदेन पूर्वापरविभागतः ॥ ६१८ ॥ एतासां विगतं स्थाने पक्षसूत्रं विधीयते । तद्वत्तद्वृत्तिके कार्य सूत्रत्रितयपातनम् ॥ ६१९ ॥
ब्रह्मसूत्रात्रे भागे केशान्तंश्चाङ्गुलद्वये । दशाङ्गुलं" शिरःपृष्ठं पूर्वभागे विधीयते ।। ६२० ||
परे भागे प्रदृश्यं स्याद्भयुगं मात्रया मितम् । भ्रूपुच्छाच्चैव कर्णाग्रं भागेनैकेन कल्प (ल्प्यते ।। ६२१ ॥
सार्धमङ्गलमुद्दिष्टा तिर्यकर्णस्य विस्तृतिः । ततो बहिः प्रदृश्यं स्यात्कर्णपृष्ठं चतुर्यवम् ॥ ६२२ ॥
[ अध्यायः १
१ D रे । २ A ते । ३ A काः । ४ Dण । ५ D वा । ६ A र्ध्व । ७ A ड्ङ्गैः । ८ D श ।
९ A सूत्र । १० D च गते । ११ B F ले । १ २D, F र ।
Aho! Shrutgyanam
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। मात्रामात्री प्रकर्तव्या कर्णपाली विचक्षणैः । कर्णावतात्पुरोभागे सार्धसप्ताङ्गुलं शिरः ॥ ६२३ ॥ पालीदेशात्समारभ्य कृकाटी पद्भिरङ्गुलैः । तिर्यमानेन कर्तव्या चित्रकर्मणि कोविदैः ॥ ६२४ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे दृश्या या सार्धमङ्गुलम् । यवमात्रमधोवमै पक्षसूत्रात्महीयते ॥ ६२५॥ ललाटं च कपोलश्च पक्षसूत्रेण घट्टितम् । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे कपोले(लो) द्वयङ्गुले ततः ॥ ६२६ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे पालिसन्धिस्तु गोलकः । ईषद्वका प्रकर्तव्या गण्डलेखा विचक्षणैः ॥ ६२७ ॥ गण्डपान्तस्य हन्वाश्च सन्धिःस्यात्पर्शसूत्रतः । अङ्गुलान्तरतः कार्यों यवेनैकेन वाधिकः ॥ ६२८॥ अङ्गुलेन हनुः कार्या ब्रह्मसूत्रात्परे स्थिता। कन्धरा पृष्ठभागस्था हनुश्चापि निरूपिता ॥ ६२९ ॥ दशाङ्गुलं तथा तिर्यग् विस्तारेण परिस्फुटम्। गलवृद्धेईनुः प्रान्ताद्यवमानेन लम्बते ॥ ६३० ॥ ग्रीवाया गलवृद्धश्च सन्धिः सार्धाङ्गुलो भवेत् । अष्टाङ्गुला भवेद्गीवा ब्रह्मसूत्रपुरःस्थिता ।। ६३१ ॥ सार्धमङ्गुलकं त्यक्त्वा ब्रह्मसूत्रं व्यवस्थिता । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे वाः सप्ताङ्गुलो भवेत् ॥ ६३२ ।। कक्षामूलं परे भागे मात्रया समवस्थितम् । कक्षामूलद्वयस्योक्तमन्तरं मनुमात्रया ॥ ६३३ ॥ बाहुमूलगता रेखा बाह्या पञ्चभिरनुलैः । ब्रह्मसूत्र(त्र) परस्थेने बाहुना परिलोपितम् ॥ ६३४ ॥
१Fत्र । २ D क् । ३ B लं। ४ B. F. ल । ५ A क्षि । ६ A ना... निरूपिता A F हनुखामिनि । ७ A वान्ध्रः, चान्ध्रः F वांधं, । ८ A लं। ९ A स्थाने।
Aho ! Shrutgyanam
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोलासः।
[ अध्यायः
nmAAAAAAAAAAA
जठरं श्रोणिदेशश्च सक्थ्यध न च दृश्यते । तद्बाहुदेशमध्यस्तु रचनीयः षडङ्गुलः ।। ६३५ ॥ बाहुदेशस्य मध्यस्याप्यन्तरं स्याद्दशाङ्गुलम् । इतरस्य तथा बाहोर्मध्यदेशस्य मध्यगः ( गम् ) ॥ ६३६ ॥ अंङ्गुलं दृश्यते व्योम यावच्छोणितटं भवेत् । प्रकोष्ठकॅस्य मध्यस्याप्यन्तरं स्याद्दशाङ्गुलम् ।। ६३७ ॥ प्रकोष्ठस्तस्य बाहोश्च काञ्चीदेशेन गृहितः । अधोभागे(गो) न दृश्येत प्रकोष्ठस्य करावधेः ॥ ६३८ ॥ दृश्या(श्य)बाह्वन्तरच्छा(स्था)या रेखायाः श्रोणिमध्यतः । अन्तरं रचनीयं स्यादिक्सङ्खचैरङ्गुलैः स्फुटम् ॥ ६३९ ॥ काञ्चीसूत्रप्रदेशस्य दृश्यबाहोर्यदन्तरम् । गदितं रविमात्राभिश्चित्रशास्त्रानुसारतः ॥ ६४० ॥ बस्तिमस्तकदेशस्य दृश्या(श्य)वाहोर्यदन्तरम् । तिथिमात्राभिरुद्दिष्टं तिर्यकसूत्रं(त्र) प्रमाणतः ॥ ६४१ ॥ दृश्यस्य मणिबन्धस्य गुदस्य च यदन्तरम् । दशाङ्गुलं विधेयं तचित्रव्यापारकोविदैः ॥ ६४२ ॥ पूर्ववच्च स्फिजोर्लेखा कर्तव्या सुविचक्षणैः । कलामा तथा लुप्ता स्फिजोर्लेखा परस्थिता ॥ ६४३ ॥ त्रिभागलोपितं सक्थि पूर्वसक्थ्युपरिस्थितम् । समग्रो दृश्यते चाङ्ग्रिः पुरोभागसमाश्रितः ॥ ६४४ ॥ ऊरुमूलं तथा जानु जङ्घाकाण्डं तथैव च । त्रिभिर्भागैः प्रदृश्येत पराजिन्समवस्थितम् ॥ ६४५ ॥ पूर्वाचिकूर्चदेशस्य पराने खसन्धितः। समग्रं दृश्यते बाह्यमङ्गुलार्ध विचक्षणैः ॥ ६४६ ॥
१ A च्छा । २ A व । ३ F स्त। ४ B. F छ । ५ A स्तस्य । ६ A या B य । ७ A श्यं ८Aर। ९ A ले। १. B क्थिपरिस्थितम् ।
Aho! Shrutgyanam
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशतिः३]
मानसोल्लासः। एकादशाङ्गुलं दैर्ध्य पूर्वपादस्य कल्प्यते । घटिता भूमिसूत्रेण पाणिस्तस्मिन् परिस्फुटम् ॥ ६४७ ॥ सार्धमङ्गुलमुत्सृज्य लिख्यते तु कनिष्ठिका । अङ्गुल्यश्च तथाङ्गुष्ठो लिख्यन्ते पूर्ववत्स्फुटम् ॥ ६४८ ॥ प्रदेशिनी तथाऽङ्गुष्ठो मध्यमाग्रं तथैव च । दृश्यते परपादस्य पूर्वेणान्यत्मलुप्यते ॥ ६४९ ॥ परपादगता पाणिः समग्रो दृश्यते पुनः । भूमिसूत्रात्परित्यज्य मानतः सार्धमङ्गुलम् ॥ ६५० ।। ईक्साचिगता वृत्तिः कथिता लक्षणान्विता । तिर्यसूत्रप्रदेशेन लम्बसूत्रक्रमेण च ॥ ६५१ ॥ द्वयर्धाशिवत्प्रकर्तव्यं तथा च लम्बसूत्रकम् । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे रुद्रमात्राभिरीरितम् ॥ ६५२ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परे भागे तालमडुलतो भवेत् । पुरोभागे ललाटं तु साधमङ्गुलतो भवेत् ॥ ६५३॥ कलामात्रा प्रदृश्या स्या वोर्लेखा सुनिश्चितम् । अङ्गुलं तु परे भागे पुरोभागे तथाङ्गुलम् ॥ ६५४ ॥ धूपुच्छतः कर्णमूलं पञ्चाङ्गुलमुदीरितम् । कलामात्रो भवेत्कर्णस्तियङ्मानेन निश्चितम् ॥ ६५५ ॥ अर्धपाली परा दृश्या पुरस्था मात्रया मिता । पालीदेत्कृिकाटी स्याद्भागेनैकेन कल्पिता ॥ ६५६ ॥ ब्रह्मसूत्रात्परेभागे नेत्रवम चतुर्यवम् । अर्धाङ्गुलं परित्यज्य पक्षसूत्रं प्रतिष्ठितम् ॥ ६५७ ।। पक्षसूत्रे तु संलग्नं पक्ष्म कार्य विचक्षणैः । ब्रह्मसूत्रात्परे भागे दृश्यते कृष्णमण्डलम् ॥ ६५८ ॥
१A ले । २ Fख ! ३ A ले। ४ Fष्ट । ५A यां । ६ D ग्रो। ७ D तत् । F लम्ब । SA य F यद्भू । १० D शक । ११ A क्ष । १२ D. Fथें ।
.
Aho! Shrutgyanam
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः ।
यवद्वयप्रमाणेन श्वेतभागच ( अ ) तुर्यवम् । ब्रह्मसूत्रात्रे भागे बुध ( न ) वर्त्म चतुर्यवम् ।। ६५९ ॥ 'परे भागे प्रदृश्यःस्यात्कपोलच चतुर्यवः । अर्धमात्रात्कपोलात्तु नासामध्यं प्रकल्प्यते ।। ६६० ।।
पक्षसूत्राद्विनिष्क्रान्तं नासाग्रं तु चतुर्थवम् । ओष्ट (ष्ठ) तत्र प्रकर्तव्यौ तिर्यगङ्गुलविस्तृतौ ॥ ६६१ ॥ घटित पक्षसूत्रेण प्रकर्तव्यौ विचक्षणैः । ब्रह्मसूत्रात्रे भागे चिबुकं द्वियवं भवेत् ।। ६६२ ॥
घटितं ब्रह्मसूत्रेण हनुचक्रं प्रकल्पयेत् । हनुचक्रात्तथा ग्रीवा भागेनार्धेन कल्प (ल्प्य ) ते ।। ६६३ ॥
tara विस्तारो भागद्वितयसम्मितः । ग्रीवायाश्च वहिर्दश्यः स्कन्धदेशस्तथाङ्गुलम् || ६६४ ॥
ब्रह्मसूत्रात्रे भागे बाहुमूलं त्रिमात्रकम् । पञ्चमात्रं पुरोभागे कक्षामूलं विधीयते ।। ६६५ ॥
द्विकक्षामूलयोर्मध्ये भवेदेकादशाङ्गुलम् | उक्तादन्यः पुरो बाहुः कक्षामूलानु (तु) भागतः ॥ ६६६ ॥ कूर्परस्यान्तरी रेखा श्रोणिदेशे निगद्यते ।
तस्याश्च मध्यरेखाया अन्तरं संव्यवस्थितम् || ६६७ ॥ चापाकारं प्रकर्तव्यं तत्सार्धाङ्गुलविस्तृति: ( ति ) । बाहोस्तस्य बहिर्लेखा बस्तिशीर्षेण घट्टिता ॥ ६६८ ॥
परपादस्फिजा गूढः प्रकोष्ठो नैव दृश्यते । पूर्वेण पक्षसूत्रेण पृष्ठपार्श्व सुघट्टितम् ॥ ६६९ ॥
तेनैव घटित रेखा स्फिजोरन्तरवर्तिनी । बस्तिशीर्षगतं सूत्रं गुदराजेर्द्विगोलकम् ।। ६७० ॥
[ अध्यायः १
3 Fomits this line २ AB३ A ऊध्व । ४ A अ । ५ A क्षि । ६ A ल्पते । ७ A रो • F गो । D न घढ्यते । १० D ट्टि । ११ B जौं !
Aho! Shrutgyanam
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
स्फिङ्मण्डलगता रेखा बाह्या पश्चाङ्गुला भवेत् । यवतो वर्धते यावत् कल्पितं नाभिसूत्रकम् ॥ ६७१ ॥ कूपरस्य तथा नाभेरन्तरं सार्धगोलकम् । भुजं विना शिरोदेशान्निर्गतं जठरं बहिः ।। ६७२ ॥ हीयते च ततश्चाधो मणिबन्धावधि क्रमात् । बस्तिसूत्रप्रदेशे तु यवषट्कमुदाहृतम् ॥ ६७३ ॥ ततो वंक्षणदेशः स्यादङ्गुलं परिकल्पितम्(तः) । ऊरुमूलं ततः कुर्यात्करादङ्गुलतो बहिः।। ६७४ ।। कनिष्ठा१लिसंल्लग्ना सक्थिरेखा विरच्यते । तर्जनी दृश्यते चार्धमङ्गुलाग्रेण सङ्गता ॥ ६७५ ॥ तियक्तलस्य विस्तारो(रं) भागेनैकेन कल्पयेत् । पूर्वभागस्फिजोले(ले)खा किञ्चिद्वका प्रकल्प(लय)ते ॥ ६७६ ॥ गुदात्सार्धाङ्खला सा तु प्रदृश्या चित्रकर्मणि । समग्रो दृश्यते चाशः पूर्वभागसमाश्रितः ॥ ६७७ ॥ त्रयोदशाकुलायामं पदं तस्य प्रदृश्यते । परभागस्थितं सथि सार्धभाँग प्रदृश्यते ॥ ६७८ ॥ जानुभागो हि भागेन जङ्घामूलं च भागतः । इन्द्रबस्तिप्रदेशस्य दृश्यं स्यादङ्गुलत्रयम् ॥ ६७९ ॥ कूर्चिकां च ततः पाणिः प्रत्येकं व्यङ्गुल मतम् । पूर्वपार्दैगता पाणिभूमिसूत्रेण घट्टिता ॥ ६८० ॥ भूमिसूत्रं परित्यज्य कनिष्ठा मात्रया भवेत् । भृमिसूत्रं परित्यज्य परपाणिर्विधीयते ॥ ६८१ ॥ सार्धगोलकमानेन चित्रकर्मविशारदः। पूर्वाङ्गिपृष्ठदेशे च परपादः प्रदृश्यते ॥ ६८२ ॥
.१ वृष ? । २ P वि । ३ D क । ४ D ग्रा! ५ D ता । ६ B. D वस्ति । ७ Dगः । ८ B:D ईकू । ९ F ता । १० B. F मतो। ११ D दे ग । १२ D शं ।
Aho! Shrutgyanam
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः
पञ्चाङ्गुलकृतायामः शिल्पिभिः परिकल्पितः । पूर्वाङ्गुष्ठनखादूर्ध्वं कल्प्यते च प्रदेशिनी ॥ ६८३ ॥ अङ्गुलान्तरिता कार्या पराङ्गुष्ठेन गुहिता । तर्जनी मध्यमानाम( मा ) कनिष्ठा च क्रमादिमाः ॥ ६८४॥ उपर्युपरि तिष्ठन्त्यः कल्प(लप्य)न्ते चार्धरूपतः। एवं च॑र्धक्रमा वृत्तिर्विस्तारेण निरूपिता ॥ ६८५ ॥ लम्बसूत्रं पुरस्कृत्य तिर्यकसूत्रानुसारतः।
इति सामान्यचित्रप्रक्रिया स्थानकानाञ्च वृत्तीनां यत्प्रमाणं निरूपितम् ॥ ६८६ ॥ तदन्तरप्रमाणेन व्यन्तराणि भवन्ति हि । नवभेदमभिन्नानां स्थानकानां विनिर्णयः ॥ ६८७॥ आयुधानां विपर्यासाच्चतुर्वपि च बाहुषु । जगन्नाथस्य वक्ष्यन्ते चतुर्विंशतिमूर्तयः ॥ ६८८ ॥ पादक्षिण्येन बोद्धव्या चतुर्विंशतिमूर्तयः । अधोहस्तक्रमणादौ यथैवाक्षरसंज्ञया ॥ ६८९ ॥ अवशिष्टमधोबाहोश्चतुर्थ नामवाचकम् । प्राधान्यं व्यञ्जनेष्वेव दीर्घानुस्वारयोर्बहिः ॥ ६९० ॥ छन्दसः पूरणार्थाय कचिदाद्यं प्रलुप्यते । पशचंके शपंगाना गाचशमा चगापगो ॥ ६९१ ॥ गोपशंवि चशंपाम पागचत्रि शचागवा । पंचांगश्री गचंपाह शपचाप पशागदा ॥ ६९२ ॥ गशापाशं(सं) गशाचंवा चशगाप्र चगाशनि । चंपाशंपु पगाचा(शा)धो चंपागोनृ गपाचतुः (चु )॥ ६९३ ।। पाचशंज शगाचों पे शोचपाह शगापर्क । चतुर्बाहुयुताः सर्वाः मूर्तयः परिकीर्तिताः ॥ ६९४ ॥
इति केशवादिचतुर्विशतिमूर्तिभेदाः । १D मा । २ D ता । ३ D ल्प। ४ A द्यर्धात्क्रमा वृत्तिः । ५ A वोढ० । ६ A चं। . B.F.व ! F वोशो । ९ A क्ष।
Aho ! Shrutgyanam
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
अष्टबाहोरेर्मूर्तेरायुधानि वदाम्यहम् । नन्दश्च गदा वाण (:) पद्म (अं) दक्षिणबाहुषु ।। ६९५ ।।
शङ्खो धनुस्तथा चक्रं खेटकं वामबाहुषु । त्रिविक्रमो नृसिंहश्च दशतालौ प्रकीर्तितौ ।। ६९६ ॥
वामनः सप्ततालस्तु विप्रमूर्तिर्हरिच्छविः । कृष्णाजिनोपवीती स्याच्छत्री धृतकमण्डलुः ।। ६९७ ॥ कुण्डली शिखया युक्तः कुब्जाकारो मनोहरः । श्रीरामश्च वराहश्च दशतालाबुदाहृतौ ।। ६९८ ॥ रामस्तु द्विभुजो लेख्यः शरचापधरो विभुः । नृवराहं प्रवक्ष्यामि सुकरास्येन शोभितम् ।। ६९९ ।। गदापद्मधरं धात्रीं दंष्ट्राग्रेण समुद्धृताम् । बिभ्राणं कूर्परे वामे विस्मयोत्फुल्ललोचनम् ।। ७०० ।। नीलोत्पलधरां देवीमुपरिष्टात्प्रकल्पते(येत् ) । दक्षिणं कटिसंस्थं च बाहुं तस्याः प्रकल्पयेत् ॥ ७०१ ॥ कूर्मपृष्ठे पदं चैकमन्यन्नागेन्द्रमूर्धनि ।
अथवा सूकराकारं महाकायं कचिल्लिखेत् ।। ७०२ ।। तीक्ष्णदंष्ट्राग्रघोणास्यं स्तब्धकर्णोर्ध्वरोमकम् । नरसिंहाकृतिं वक्ष्ये रौद्रसिंहमुखेक्षण ( णा) म् ॥ ७०३ ॥
भुजाष्टकसमायुक्तं (क्तां) स्तब्ध पानसयत्प्रभुम् (पीतसटाप्रभाम् ) । हिरण्यकशिपुं दैत्यं दारयन्तीं नखाङ्कुरैः ।। ७०४ ।।
ऊर्वोरुपरि विन्यस्य खड्गखेटकधारिणी । तस्यान्त्रमालां निष्कृष्य बाहुयुग्मेन विभ्रतीम् ।। ७०५ ॥
आकारं पुरुषस्यैव धारयन्तीं मनोहराम् । अधःस्थिताभ्यां बाहुभ्यां घा (दा) रयन्तीं प्रकल्पयेत् ॥ ७०६ ॥
६१
१ A ह । २ A पु । ३D न । D तज्जपीनसयत्प्रभम् । ५A न्तं F न्ती । ६ Aणं Fणी । ७ Fन्ती ।
Aho! Shrutgyanam
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः१
ऊध्वेस्थिताभ्यां बाहुभ्यामान्त्रमालां तु बिभ्रतीम् । मध्यस्थिताभ्यां बाहुभ्यां दक्षिणे चक्रपङ्कजे ॥ ७०७ ॥ कौमोदकी तथा शङ्ख बाहुभ्यामभिवामतः । नीलोत्पलदलच्छायां किंवा चम्पकसप्रभाम् ॥ ७०८ ॥ तप्तकाञ्चनसङ्काशां बालार्कसदृशीं लिखेत् । आसीनं द्विभुजं देवं प्रसन्नवदनेक्षणम् ॥ ७०९ ॥ श्वेतस्फटिकसङ्काशं चतुर्बाहुमथापि वा । आजानुलम्बिनौ बाहू कर्तव्यौ तत्र दक्षिणौ ॥ ७१० ॥ समीपे कल्पयेच्चक्रं वामे शङ्ख समीपतः । ऊर्ध्वस्थिताभ्यां बाहुभ्यां दक्षिणं(ण) पञ्चकं(पङ्कज)न्यसेत् ॥ ७११ ॥ वामे बाहौ गदा रम्यां लिखेचित्रविशारदः । तथा त्रिविक्रमं वक्ष्ये वामपादेन मेदिनीम् ॥ ७१२ ॥ आक्रामन्तं द्वितीयेन साकल्येन नभस्तलम् । ऊर्ध्वपादसमीपस्थं वामनं दीनलोचनम् ॥ ७१३ ॥ आलिखेत समीपस्थं बाल शृ(भ)ङ्गारधारिणम् । तस्य बन्धं प्रकुर्वन्ति(वन्तं) गगनान्तं प्रकल्पयेत् ॥ ७१४ ॥ मत्स्यावतारिणं देवं मत्स्याकारं प्रकल्पयेत् । कूर्मावतारिणं देवं कमठाकृतिमालिखेत् ॥ ७१५ ॥ लिखेचतुर्मुखं देवं चतुर्बाहुं शुभेक्षणम् ।। रक्तकुण्डलसंयुक्तं लम्बकू!पवीतिनम् ॥ ७१६ ॥ कृष्णाजिनधरं देवं शुक्लाम्बरविराजितम् । दक्षिणं वरदं हस्तं तथान्यं स्तु(ञ)वधारिणम् ॥ ७१७॥ कमण्डलुधरं वामं तथान्यं संयुतं रोच(स्रुचा)। बिभ्राणं चतुरो वेदान् पुरतश्चास्य विन्यसेत् ।। ७१८ ॥
१Fणे । २ A म । ३ D न्यत्सूत्र B न्यं सूत्र। ४ A देवं । ५ B. D. स्तथा। ६ F पु।
Aho! Shrutgyanam
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
वामे पार्थे तु सावित्री दक्षिणे तु सरस्वतीम् ।
आज्यस्थाली पुरोभागे महर्षीश्च समन्ततः ॥ ७१९ ॥ हंसारूढं लिखेत्कोपि क्वचिच्च कमलासनम् । स्रष्टारं सर्वलोकानां ब्रह्माणं परिकल्पयेत् ॥ ७२० ॥ महादेवं प्रवक्ष्यामि यथा लेख्यः स भित्तिषु । मुक्तार्करश्मिसङ्काशस्तप्तस्वर्णनिभोऽपि वा ।। ७२१ ॥ उन्नतांसो महाबाहुः कमलायतलोचनः । द्वीपिचर्मपरीधानो वृत्तजङ्घोरुमण्डलः ॥ ७२२ ॥ केयूरहारसम्पन्नः कटिसूत्रत्रयान्वितः । नवेन्दुकलिकाक्रान्तजटाजूटविराजितः ॥ ७२३ ।। इन्दुमू(शू)लत्रिनेत्रे(त्रै)णनागाभरणभूषितः ।
द्यष्टवर्षदेशीयो नीलकण्ठो मनोहरः ॥ ७२४ ॥ कुण्डली पीनगण्डः स्यादष्टभिर्वाहुभिर्युतः । दशभिर्बाहुभिर्वाथ भुजैः षोडशभिः कचित् ॥ ७२५ ॥ अष्टादशभुजः कापि चतुर्बाहुरथापि वा । तेषु शस्त्राणि वक्ष्यामि भुजेषु च यथाक्रमम् ॥ ७२६ ॥ अक्षमालामासं शक्ति दण्डं शूलं च दक्षिणे। खदानं भुजगं चैव कपालं खेटकं तथा ॥ ७२७ ॥ घरदं च तथा हस्तं वामभागे निवेशयेत् । गजासुरवधे नाट्ये बाहुभिर्देशभियुतः ॥ ७२८ ॥ पुरत्रयस्य दहने भुजैःषोडशभिर्युतः। बाणश्चक्रं गदा चैव दक्षिणेप्यधिकं भवेत् ॥ ७२९ ॥ धनुश्चैव तथा घण्टा शङ्खो वामेऽधिकं भवेत् । दश पूर्व भुजाः प्रोक्ताः षोडशैवं निरूपिताः ॥ ७३० ॥ स्वच्छन्दभैरवाकारे बाहवोऽष्टींदश स्मृताः । डमरुं च तथा शङ्खमधिकं तत्र कल्पयेत् ।। ७३१ ॥
१B वीभिः । २ A का । ३ A त । ४ A स । ५ D रैः । ६ A 2 । ७ B F माधिके A हुंच्य ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
80
मानसोल्लासः ।
त्रिशूल डमरुं चैव वरदं चाक्षिमालिकाम् । चतुर्बाहोर्महेशस्य शान्तमूर्तेः समालिखेत् ॥ ७३२ ॥ अन्यास्तु दशहस्तस्य भवेयुर्हेतयः क्रमात् । अष्टबाहोर्महेशस्य न स्यातां खङ्गखेटकौ ।। ७३३ ।। अर्धनारीश्वरो देवः कथ्यते लक्षणान्वितः । दक्षिणं पुरुषाकारं वामं योषिन्मयं वपुः ।। ७३४ ॥ त्रिशूलं दक्षिणे हस्ते वामहस्ते च दर्पणम् । उत्पलं वा प्रकुर्वीत केयूरवलयान्वितम् ।। ७३५ ।। दक्षिणे श्रवणे नागं वामे कर्णे तु कुण्डलम् । जटाभारो दक्षिणे स्यादर्ध(थ) चन्द्रार्धभूषितः ॥ ७३६ | कुन्तले कबरीभारं वामभागे तु विन्यसेत् । ललाटे लोचनस्यार्धं तिलकार्थे प्रकल्पयेत् ॥ ७३७ ॥ विशालं दक्षिण वक्षो वामं पीनपयोधरम् । द्वीपिचर्मपरीधानं कटिसूत्रत्रयान्वितम् ॥ ७३८ ॥ देवस्य दक्षिणं पादं पद्मस्योपरि कल्पयेत् । तस्योर्ध्वं च तथा वामं नूपुरालङ्कृतं लिखेत् ।। ७३९ । नरनारीमयं देवमेवं चित्रे प्रकल्पयेत् । उमामहेश्वरस्यापि स्वरूपं वर्ण्यतेऽधुना ॥ ७४० ॥ द्विभुजं वा चतुर्बाहुं जटामण्डलमण्डितम् । त्रिनेत्रं पार्वतीस्कन्धविन्यस्तैककरं कुचे || ७४१ ॥ करं द्वितीयं सव्ये तु शूलमुत्पलकं लिखेत् । वामं पद्मासनं पादं दक्षिणं किञ्चिदश्चितम् ॥ ७४२ ॥
एवमर्धेन्दुसंस्थाने निविष्टं शङ्करं लिखेत् । वामोरुवर्तिनीं देवीं हर वक्त्रावलोकिनीम् ॥ ७४३ ॥
[ अध्यायः १
स्पृशन्तीं देवदेवस्य वामांसं लीलया लिखेत् । दक्षिणैः करजैः स्कन्धं स्पृशन्तीं कुक्षिमेव वा ॥ ७४४ ॥
१ B. F. ण्ड । २ A लात् । ३ F । ४ D मे । ५ A स्यार्धे ६D वं सर्वदा । ७A त्ये B
Aho! Shrutgyanam
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। उत्पलं वामहस्तेन दर्पणं वापि विभ्रतीम् । जयां च विजयां पार्चे गणेशं षण्मुखं लिखेत् ॥ ७४५ ॥ उमामहेश्वरस्यैवं स्वरूपं परिकीर्तितम् । देवं हरिहरं वक्ष्ये सर्वपातकनाशनम् ॥ ७४६ ॥ दक्षिणे शङ्करस्यार्धमध विष्णोश्च वामतः । बालेन्दुभूषितः कार्यो जटाभारस्तु दक्षिणे ॥ ७४७॥ नानारत्नमयं दिव्यं किरीटं वामभागतः । दक्षिणं सर्पराजेन भूषितं कर्णमालिखेत् ॥ ७४८ ॥ मकराकारकं दिव्यं कुण्डलं वामकर्णतः । वरदो दक्षिणो हस्तो द्वितीयः शूलभृत्तथा ॥ ७४९ ॥ कर्तव्यो वामभागे तु शङ्खचक्रधरौ करौ । दक्षिणं वसनं कार्य द्वीपिचर्ममयं शुभम् ॥ ७५० ॥ पीताम्बरमयं भव्यं जघनं सव्यमालिखेत । वामः पादः प्रकर्तव्यो नानारत्नविभूषितः ॥ ७५१ ॥ दक्षिणाधिः प्रकर्तव्यो भुजगेन्द्रेण वेष्टितः । सुधांशुधवलः कार्यः शिवभागो विचक्षणैः ॥ ७५२ ॥ अतसीपुष्पसङ्काशो विष्णुभागो विरच्यते । विलिखेत् षण्मुखं देवं मयूरवरवाहनम् ॥ ७५३ ॥ तरुणादित्यसङ्काशं बालाभरणभूषितम् । स्थानीये खेटके वापि कुमारो लिख्यते यदा ॥ ७५४ ॥ भुजान्द्वादश कुर्वात खेटके चतुरो भुजान् । ग्रामे धैने द्विबाहुः स्याल्लेखनीयो विचक्षणैः॥ ७५५ ॥ वक्त्रैः षड्डिरुपेतो वा मुखेनैकेन वा युतः। . दक्षिणं निम्नगं पाणिं वरदं चाऽभयं लिखेत् ॥ ७५६ ॥
१ A दि । २ A द्विबाहुःस्याल्लेख्यः । ३ F ग्रामे द्विबाहुलेख्यास्यात् । A बुध्र ।।
Aho! Shrutgyanam
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः
शक्तिं पाशमासं बाणं शूलं चेत्युत्तरोत्तरम् । पताका कार्मुकं कुर्यात्वेटकं मुष्टिबन्धनम् ॥ ७५७ ।। प्रसृतां तर्जनी पाणौ ताम्रचूडं च वामतः । अभयो वरदो वैको द्वितीयः खगभृत्करः ॥ ७५८ ॥ दक्षिणे वामतः शक्ति(:) पाशो वा कुक्कुटोऽपि वा । द्विभुजस्य कुमारस्य कर(रे)शक्तिर्विधीयते ॥ ७५९ ॥ दक्षिणे वामतः कार्यस्ताम्रचूडधरः करः।
इति स्वामिकार्तिकलक्षणम् । . विनायकस्य वक्ष्यामि मूर्ति चित्रोपयोगिनीम् ॥ ७६० ॥ गजवक्रां त्रिनेत्रां तां चतुर्बाहुं महोदराम् । भग्नैकदन्तसंयुक्तां स्तब्धकर्णा समालिखेत् ॥ ७६१ ॥ नागोपवीतिनी पुष्टां पीनस्कन्धाङ्गिपाणिकॉम् । भग्नदन्तधरश्चैकमन्यमुत्पलसंयुतम् ॥ ७६२ ॥ दक्षिणे विलिखेद्वामौ सकुठारसलड्डुको । पार्थे सिद्धिकबुद्धिभ्यामधस्तादाखुनान्वित( ता )म् ॥ ७६३ ॥ आसीन( ना )मुत्तमे पीठे सिन्दूरारुणविग्रह(हा)म् ।
इति गणेशमूर्तिः। वक्ष्ये कात्यायनी देवी शिवनारायणात्मिकाम् ॥ ७६४ ॥ बाहुभिर्दशभिर्युक्तां जटामुकुटमण्डिताम् । लोचनत्रयसंयुक्तामधेन्दुकृतशेखराम् ॥ ७६५ ॥ अतसीपुष्पसच्छायामिन्दीवरदलेक्षणाम् । पीनोन्नतकुचाभोगां तनुमध्येन शोभिताम् ।। ७६६ ।। त्रिभङ्स्थिानसंस्थानां महिषासुरमर्दिनीम् । त्रिशूलं दक्षिणे खड्गं चक्रं शक्तिं वरं तथा ॥ ७६७ ॥
A B D तमग्रतः । २ A उ। ३ A वरदो चैको । ४ A णो । ५ D हु। ६ D नं । - Dटं। CD कम् । A ता । १. A ङ्गी । ११ F। १२ Dक्तिधरं ।
Aho! Shrutgyanam
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
अधिज्यकार्मुकं वामे पाशमङ्कुशखेटकम् । घण्टा वा परशुं वापि धारयन्ती समालिखेत् ।। ७६८ ॥ अधस्तान्महिषं तस्याश्छिन्नग्रीवं समालिखेत् । छिन्नस्थान(न) समुत्पन्नं खगखेटकधारिणम् ।। ७६९ ॥ हृदि शूलेन निर्भिन्नं रुधिरारुणविग्रहम् । प्रबद्धं नागपाशेन भृकुटीभीषणेक्षणम् ॥ ७७० ॥ नाभेरूज़ विनिष्क्रान्तं दारुणं पुरुषं लिखेत् । दक्षिणं चरणं देव्याः सिंहपृष्ठे प्रतिष्ठितम् ॥ ७७१ ।। उत्तुङ्गमश्चितं वामं महिषस्योपरिस्थितम् ।
इति काली ( कात्यायनी ) मूर्तिः ॥ सुरराजं प्रवक्ष्येऽहमैरावणसमाश्रितम् ॥ ७७२ ॥ किरीटकुण्डलधरं भुजद्वयसमन्वितम् । कुलिशं दक्षिणे पाणौ वामहस्ते तथोत्पलम् ॥ ७७३ ॥ दिव्यरत्नविभूषाढ्यं दिव्यचीनांशुकैयुतम् । छत्रचामरधारिण्यः स्त्रियः पार्थे च कल्पयेत् ॥ ७७४ ॥ सिंहासनस्थमथवा लिखेद्गन्धर्वसंयुतम् ।। इन्द्राणी वामतस्तस्य लिखेदुत्पलधारिणीम् ॥ ७७५ ॥ दिव्यशृङ्गारसंयुक्तामिन्द्रवत्रावलोकिनीम् ।
इति इन्द्रमूर्तिः ॥ वन्हे: स्वरूपं वक्ष्यामि शुद्धकाञ्चनसप्रभम् ॥ ७७६ ॥ अर्धचन्द्रासनगतं रक्तवस्त्रविराजितम् । लोहितं च प्रकुर्वीत बालार्कसमतेजसम् ।। ७७७ ।। युक्तं यज्ञोपवीतेन लम्बकूर्चेन शोभितम् । मेषपृष्ठस्थितं देवं भुजद्वयसमन्वितम् ॥ ७७८ ॥
१A धृ ? । २ A ष्यं D ज्यं । ३ D दानवं । ४ D दारुणं । ५ DF ण्यौ ।६ DF यौ। Dचा।८D नव । ९D]प। १० F ष्टि ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः दक्षिणे त्वक्षसूत्रं स्यात्करे वामे कमण्डलुम् (लुः)। . स्वाहादेवी तु तत्पार्धे कुङ्कुमेन विलेपिता ॥ ७७९ ॥ अरुणैरम्बरैभव्या लेख्या माणिक्यभूषिता । कुण्डस्थो वा प्रकर्तव्यो हव्यवाहो विचक्षणैः ॥ ७८० ॥ ज्वालाभिः सप्तभिः शीर्षे शोभमानो महाद्युतिः ।
इति अग्निमूर्तिः । पितृराज प्रवक्ष्यामि नीलाञ्जनसमच्छविम् ॥ ७८१ ॥ दण्डपार्श्वधरं दोभ्यो प्रदीप्ताग्निविलोचनम् । महामहिषमारूढं सिंहासनमथापि वा ॥ ७८२ ॥ मृत्युना चित्रगुप्तेन पार्श्वयोरुपशोभितम् । करालैः किङ्करैश्चैव सुरासुरगणैस्तथा ॥ ७८३ ॥ धामभिः पापिभिश्चैव सेव्यमानं निरन्तरम् ।
इति यममूर्तिः। राक्षसेन्द्रं प्रवक्ष्यामि नितं (ति) नैऋतेः (ती) स्थितम् ॥ ७८४ ॥ नरयानसमारूढं रक्षोभिर्बहुभिर्दृतम् । कालमेष (घ) समाभासं खङ्गखेटकधारिणम् ॥ ७८५॥ पीतवस्त्रपरीधानं स्वर्णभूषणभूषितम् ।
इति राक्षसेन्द्रमूर्तिः । जलेशं वर्णयिष्यामि कुन्दशह्वेन्दुसप्रभम् ॥ ७८६ ॥ पाशपङ्कजहस्तं च मकरस्योपरिस्थितम् । शुक्लाम्बरपरीधानं दिव्यरत्नकिरीटिनम् ॥ ७८७ ।। पृथुवक्षस्थलन्यस्ततारहारविभूषितम् ।
इति वरुणमूर्तिः समीरणं प्रवक्ष्यामि धूनं हरिणवाहनम् ॥ ७८८ ॥ १ D अरुणारुणसङ्काशा । २ A षैः । ३ B D त्रि। ४ B नि ।
Aho! Shrutgyanam
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
चित्राम्बरधरं देवं चित्ररत्नविभूषितम् । वरदं दक्षिणं हस्तं वामं युक्तं पताकया ॥ ७८९ ॥ बिभ्राणं कुण्डलोपेतं किरीटवरधारिणम् ।
इति वायुमूर्तिः हरमित्रं प्रवक्ष्यामि दिव्यहारविभूषितम् ॥ ७९० ॥ किरीटकुण्डलयुतं श्वेताम्बरविराजितम् । . नरयुक्तविमानस्थं गदापाणिं वरप्रदम् ॥ ७९१ ॥ महोदरं महाबाहुं गौरवर्ण मनोहरम् । अष्टाभिर्निधिभिर्युक्तं द्रविणव्यग्रपाणिभिः ॥ ७९२ ॥ समन्ता ह्यफैर्युक्तं चित्रकर्मणि लेखयेत् ।
इति कुबेरमूर्तिः । ईशानं सम्प्रवक्ष्यामि शरदभ्रसमप्रभम् ॥ ७९३ ॥ शुभ्रं वृषभमारूढं बालेन्दुकृतशेखरम् । जयमङ्गलभूषाढ्यं लोचनत्रयभूषितम् ॥ ७९४ ॥ त्रिशूलपाणिं वरदं व्याघ्रचर्माम्बरावृतम् । फणिकुण्डलभूषाढ्यं नागयज्ञोपवीतिनम् ॥ ७९५ ॥ लिखेदेवंविधं देवं चित्रके चित्रकोविदः ।
इति ईशानमूर्तिः मातॄणां लक्षणं वक्ष्ये ब्रह्माणी वैष्णवी तथा ॥ ७९६ ॥ माहेश्वरी च कौमारी वाराही वासवी तथा । सप्तमी नारसिंही च तत्तद्रूपायुधैः समाः ॥ ७९७ ॥ तत्तद्वाहनसंयुक्ताः कर्तव्या मातरो बुधैः । वीरेश्वरो विधातव्यो मातॄणामग्रतस्तथा ॥ ७९८ ॥
१० मवि । २ A रश्च ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०
मानसोल्लासः ।
वीणात्रिशूलहस्तश्च वृषारूढो जटाधरः । इति मातृकावर्णनम्
श्रियं देवीं प्रवक्ष्यामि नवयौवनशालिनीम् ॥ ७९९ ॥ सुलोचनां चारुवक्त्रां गौराङ्गीमरुणाधराम् । सीमन्तं बिभ्रतीं शीर्षे मणिकुण्डलधारिणीम् ॥ ८०० ॥ श्रीफलं दक्षिणे पाणौ वामे पद्मं तु विभ्रतीम् । श्वेतपद्मासनासीनां श्वेतवस्त्रविभूषिताम् || ८०१ ॥ कचकावद्धगात्रीं" च मुक्ताहारविभूषिताम् । चामरैवीज्यमानां च योषिद्भयां पार्श्वयोर्द्वयोः ।। ८०२ ॥ सामगैस्तोष्यमानां (णां ) च भृङ्गारसलिलोस्करैः ।
इति श्रीमूर्तिलक्षणम् ।
नागानां वक्ष्यते रूपं नाभेरूर्ध्वं नराकृतिः ।। ८०३ ॥
सर्पाकारमधोभागे मस्तके योगमण्डलम् । एका फणा त्रयो वापि पञ्च वा सप्त वा नव ॥ ८०४ ॥ द्विजिह्वास्ते विधातव्याः खङ्गचर्मधरौ करौ । इति नागमूर्तिः ।
किरीटकुण्डलोपेता वदंष्ट्रा भयानका ।। ८०५ ।। नानाशस्त्रधराः कार्याः दैत्याः सुरगणद्विषः । दानवा विकृताकारा भ्रुकुटीकुटिलाननाः || ८०६ ॥ किरीटेन च कुब्जेन मण्डिताः शस्त्रपाणयः । दंष्ट्राकरालवदना भ्रुकुटीकुटिलेक्षणाः ।। ८०७ ॥ नानारूपा महाकाया नानाशस्त्रधरास्तथा ।
कुटिलाः कृष्णमेघाभाः स्थूलबाहुमहोदराः ॥ ८०८ ॥ उत्फुल्ला नासिका कार्या लेखने चित्र कोविदैः । अत्यर्थं कृशकायास्ते चर्मास्थिस्नायुविग्रहाः ।। ८०९ ।। ह्रस्वकीर्णशिरोजाः स्युः पिशाचाश्चित्रकर्मणि । teक्षा एव वेताला दीर्घदेहाः कृशोदराः || ८१० ॥
१ D त्रां । २ Aकं । ३ A दि । ४ A का । ५ D दि ।
Aho! Shrutgyanam
[ अध्यायः १
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
कपिलैमूर्धजैर्युक्ता लेखनीया मनीषिमिः ।
- इति दैत्यदानवपिशाचवेतालमूर्तयः । क्षेत्रपालो विधातव्यो दिग्वासा झण्टिभूषितः ।। ८११ ॥ कृत्तिका डमरूं बिभ्रदक्षिणे तु करद्वये । वामे शूलं कपालं च मुण्डमालोपवीतिकाम् ॥ ८१२ ॥ करोटीनिकरोदारमालाग्रथितशेखरः।
इति क्षेत्रपालमूर्तिः । वक्ष्ये मनसिजं देवमिक्षुचापधरं तथा ॥ ८१३ ॥ पञ्चपुष्पमयान्बाणान् विभ्राणं दक्षिणे करे । हरितं लोहितं वापि दिव्याभरणभूषितम् ॥ ८१४ ॥ किञ्चित्कुटिलसंस्थानं पुष्पमालाभिचारितम् । पीतं वस्त्रं वसानं च वसन्तेन समन्वितम् ॥ ८१५ ।। नानाकुसुमभूषेण कङ्कोलीपत्रवाससा । दाडिमीकर्णपूरेण कण्ठे बकुलमालिनी (नम् ) ॥ ८१६ ॥ चम्पकैः स्वर्णसङ्काशैः कृतशेखरमालिना (नम् ) । पार्थे चाश्वमुखः कार्यो मकरध्वजधारकः ॥ ८१७ ॥ भीतिदक्षिणभागेऽस्य भाजनोपस्करान्विता । वामभागे रतिः कार्या रन्तुकामा निरन्तरम् ॥ ८१८ ॥ शय्या तु सारसैयुक्ता वापिका नन्दनं वनम् ।
इति कामदेवमूर्तिः । रक्तवर्णो महातेजा द्विबाहुः पद्मभृद्रविः ॥ ८१९ ॥ सप्तभिस्तुरगैर्युक्ते सप्तरज्जुसमन्विते । एकचके रथे तिष्ठन्पाँदाक्रान्तसरोरुहः ॥ ८२० ॥ माणिक्यकुण्डलोदारः पद्मरागकिरीटकः ।
रक्ताम्बरधरी रम्यः सुव्यक्ताङ्गी मनोहरः ॥ ८२१ ॥ १ A रुप्टि B कु D कुल । २ D कम्। ३ D ठिनी। ४ D लोद्गू । ५ B D सदा । ६ D ना | VA
पञ्च । ८B लया। ९ A वामे। १. F म्प ।
Aho! Shrutgyanam
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः ।
पादौ तस्य प्रकर्तव्यौ सुमहत्तेजसा वृतौ ।
अनूरुः सारथिः कार्यः प्रतीहारौ च पार्श्वयोः || ८२२ ॥
दण्डपिङ्गलनामानौ खङ्गखेटकधारिणौ । धाता च लेखनीहस्तो जगत्कर्मविलेखकः || ८२३॥
कार्यो भानुसमीपस्थञ्चित्रकर्मविशारदैः ।
इति सूर्यमूर्तिः
चन्द्रश्वित्रे विधातव्यः श्वेतः श्वेताम्बरावृतः || ८२४ ॥
दशश्वेताश्वसंयुक्तमारूढः स्यन्दनं शुभम् । द्विभुजो दक्षिणे पाणौ गदां बिभ्रत्पृषोदम् || ८२५ ॥ वामस्तु वरदो हस्तः शशाङ्कस्य निरूप्यते । इति चन्द्रमूर्तिः ।
धरापुत्रस्य वक्ष्यामि लक्षणं चित्रकर्मणि ॥ ८२६ ॥ चतुर्भुजो मेषगमश्राङ्गारसदृशद्युतिः । दक्षिणं वैर्द्धगं हस्तं वरदं परिकल्पयेत् ॥ ८२७ ॥ ऊर्ध्व (र्ध्व) शक्तिसमायुक्तं वामौ शूलगदाधरौ । इति भौममूर्तिः ।
सिंहारूढं बुधं वक्ष्ये कर्णिकारसमप्रभम् ॥ ८२८ ॥ पीतमाल्याम्बरधरं स्वर्णभूषाविभूषितम् । वरदं खङ्गसंयुक्तं खेटकेन समन्वितम् ॥ ८२९ ।। गदया च समायुक्तं बिभ्राणं दोचतुष्टयम् । इति बुधमूर्तिः ।
पीतो देवगुरुर्लेख्यः शुभ्रव भृगुनन्दनः || ८३० ॥ चतुर्भिर्वाहुभिर्युक्तश्चित्रकर्मविशारदैः । arat साक्षत्र कमण्डलुधरौ तथा ।। ८३१ ॥
१ A भानुः । २ B दक्षिणाधोहस्तं । ३ A तूर्ध्वगं ।
Aho! Shrutgyanam
i
अध्यायः R
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
दण्डिनौ च तथा बाहू बिभ्राणौ परिकल्पयेत् । इति गुरुशुक्रमूर्ति (त) ।
सौरिं नीलसमाभासं गृध्रारूढं चतुर्भुजम् || ८३२ || वरदं बाणसंयुक्तं चापशूलधरं लिखेत् । इति शनिमूर्तिः
सिंहासनगतं राहुं करालवदनं लिखेत् ॥ ८३३ || वरदं खङ्गसंयुक्तं खेटशूलधरं क्रमात् । इति राहुमूर्तिः । धूम्रादिवाहवः सर्वे वरदाश्च गदाधराः ।। ८३४ ।। गृध्रपृष्ठसमारूढा लेखनीयास्तु केतवः । इति मूर्तिः ।
ग्रहाः किरीटिनः कार्या नवताप्रमाणतः ।। ८३५ ॥
रत्नकुण्डलकेयूरहाराभरणभूषिताः । चित्रकर्मोपयोगार्थं हयलक्ष्म प्रवक्ष्यते ।। ८३६ ॥ आयामाच्च तथोत्सेधाद्विस्तरात्परिणाहतः । मुखं तालत्रयं प्रोक्तमायामेन प्रमाणितम् ॥ ८३७ ॥ तन्मध्यवर्तिनो वक्ष्ये प्रदेशान्मात्रया मितान् । वर्तुलं मस्तकं कार्य षडङ्गुलमितं बुधैः ॥ ८३८ ॥ अङ्गुलं कर्णमूलान्तदु (मुत्सेधेन व्यवस्थितम् । कर्णमूलात्तथा कर्णौ कार्यावष्टाङ्गलाहि (य) तौ ।। ८३९ ॥
नागवल्लीदलप्रख्यौ चतुरङ्गलविस्तृतौ । कर्णमूलस्य नेत्रस्य मध्यं कार्य नवाङ्गुलम् || ८४० || नेत्रस्य भागे दैर्घ्यं स्यात्सार्धद्व्यङ्गुलविस्तृतम् । भ्रुवौ विस्तारे देर्येण तु पडडुले ।। ८४१ ॥
भ्रुवोर्मध्य प्रदेशस्तु द्वादशाङ्गुलसम्मितः । षडङ्गुलं भवेद्भालं केशान्ते मध्यदेशतः ।। ८४२ ।।
१ F णो । २ D स्त । ३ A तौ । ४ Fलि |
Aho! Shrutgyanam
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
मानसोल्लासः।
[अध्यायः१
अष्टाङ्गुलं ततश्चाधो द्वादशाङ्गुलविस्तृतम् । एकस्तालो भवेदैर्घ्य ललाटस्य प्रमाणतः ॥ ८४३ ॥ नयनाद्गण्डविस्तारः षोडशाङ्गुलसम्मितः । नासावंशश्च(स्य) दैर्ध्य स्याचतुरङ्गुलसम्मितम् ॥ ८४४ ॥ विस्तारस्यङ्गुलः प्रोक्तो नासिका चतुरङ्गुला । नासापुटस्य विस्तारो द्वयङ्गुलः परिकीर्तितः ॥ ८४५ ॥ पुटयोरन्तरं प्रोक्तं मूर्धभागे षडङ्गलम् । एको भागस्त्वधोभागे तत्र रेखात्रयं भवेत् ॥ ८४६ ॥ तस्याधः प्रोथदेशः स्याच्चतुरङ्गुलमायतः। चतुरङ्गुलविस्तारः पीनत्वं चतुरङ्गुलम् ॥ ८४७ ॥ मुखैराजे() पुटस्यापि मध्यं स्याचतुरङ्गुलम् । मुखरेखाबहिभांगे हनुः स्याच्चतुरमुला ॥८४८॥ चिबुकं तत्र कर्तव्यं पञ्चाङ्गुलमितं बुधैः । प्रोथश्च (थाच) सक्कपर्यन्तमास्यरेखा स्वराङ्गुला ॥ ८४९ ॥ मस्तकात्कीकशाखा (खं ) वा चतुस्तालमितं भवेत् । स्यात्केशदेशविस्तारः शीर्षदेशेऽङ्गुलत्रयम् ॥ ८५० ॥ एको भागो भवेन्मध्यं प्रान्ते (न्तो ) मध्यमितो भवेत् । कृतकेसरकः स्कन्धः कर्तव्यः कीकसावधि ॥ ८५१ ॥ कीकसायाँ तथा कार्याः केसरा दैर्यशालिनः। मस्तके च तथा केशी द्वादशाङ्गुलदैध्यकाः ॥ ८५२ ॥ तरङ्गिता घनाः स्निग्धाः श्लक्ष्णाः कार्या मनोहराः । निगालाद्वैत्सपर्यन्तं ग्रीवानलकदीर्घता ॥ ८५३ ॥ तालद्वितयमाख्याता तद्विस्तारोऽङ्गुलत्रयम् । स्कन्धमूलपरीणाहः षड्तालाश्चाङ्गुलद्वयम् ॥ ८५४ ॥
१D विस्तृतः। २ Fरे। ३ A मुखं राजे । ४ A D F का B कीकशाखान्तं । ५ F मम्रा । ६ D धिः। A खांस्त F पां। ८ A सा। ९ A यॆ । १० D शाः द्वा A शाहा । ११ Dर्घि । १२ A कृष्णाः । १३ BD लद्वय ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
स्कन्धमध्यपरीणाहश्चतुष्पञ्चाशदकुलः । ग्रीवासन्धिपरीणाहस्त्रितालच नवाङ्गुलः || ८५५ ॥
वक्ष्ये (क्षो ) देशस्य विस्तारो द्वादशाङ्गुलसम्मितः । अष्टादशाङ्गुलं दैर्ध्य वक्षोदेशस्य कल्पितम् ।। ८५६ ।। कक्षाकीकसयोर्मध्यं द्विचत्वारिंशदङ्गुलम् । बाहुदैर्घ्य भवेत्तत्र प्रोक्तं पञ्चदशाङ्गुलम् ।। ८५७ ।।
बाहुमूलपरीणाहस्त्रिंशदङ्गुल सम्मितम् (तः) । बाहुमध्यपरीणाहो वितस्तिद्वयवेष्टनः || ८५८ ॥
बाहुमान्तपरीणाहो भवेदष्टादशाङ्गलः । जङ्घायाश्च परीणाहो द्वादशाङ्गुलसम्मितः ।। ८६९ ।।
पलिहस्तस्य दैर्घ्य तु षडङ्गुलमुदीरितम् । पलि हस्तपरीणाहो भवेदष्टादशाङ्गुलः || ८६० ||
कुष्टिकाया भवेदैर्ध्य षडङ्गुलमुदीरितम् । कुष्टिकायाः परीणाहो द्वादशाङ्गुलसम्मितः || ८६१ ।। खुरदैर्घ्यं समुद्दिष्टं षडङ्गुलमितं बुधैः । भवेत्खुरपरीणाहो विंशत्यङ्गुलसम्मितः || ८६२ ||
पृष्ठप्रदेशे दैर्घ्यं च चतुस्तालमुदाहृतम् । कक्षादेशपरीणाहः सप्ततालो दशाङ्गुलः || ८६३ ॥
मध्यभागपरीणाहः शताङ्गुलमितो भवेत् । रन्ध्रस्थाने परीणाहः सप्ततालो दैशाङ्गुलः || ८६४ ||
रन्ध्रोपरन्ध्रयोर्मध्यं विंशत्यङ्गुलमायतम् । त्रिकस्थानस्य विस्तारो द्विगुणैः षोडशाङ्गुलैः || ८६५ ।।
जघनस्य तु विस्तारः षट्चत्वारिंशदङ्गुलः । पुच्छमूलं भवेद्भागो नाहेन द्वादशाङ्गुलम् || ८६६ ।।
१ A मन्तरम् । २ B टाङ्गुलः स च । ३ BD ली । ४ Aख । ५ A श्व । ६D णः ।
Aho! Shrutgyanam
७५
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
मानसोल्लासः ।
वर्तिकादैर्घ्यमाख्यातं विंशत्यङ्गलसम्मितम् । तत्र बालाः प्रकर्तव्याचमरीपुच्छसन्निभाः || ८६७ ॥
दै जननि (न) रोहाद्वा द्वाविंशत्यलं भवेत् ? । वक्त्र ( * ) सक्थिगतं दैर्ध्य षट्त्रिंशदङ्गुलैर्मितम् ॥। ८६८ ॥ मूले तस्य परीणाहः स्याच्चत्वारिंशदङ्गुलैः । सक्थिमध्यस्य नाहः स्यादेकोनत्रिंशदङ्गुलः || ८६९ ॥
सक्थिमान्तपरीणाहस्तालद्वितयसन्निभः । नवाङ्गुलायता स्थूला(रा) नाहेन त्रिंशदङ्गुला || ८७० ।।
उपरन्ध्रान्तमारभ्ये कोशस्थानं तु तालतः । भागार्यंतो भवेत्कोशो मुष्कावष्टाङ्गुलायतौ ॥। ८७१ ।। स्थूरयोर्युर्प्रभागस्थे जङ्गे च पलिहस्तकें | कुष्टंके च खुरद्वन्द्वं लेखौं (ख्यं) पौरस्त्यपादवत् ।। ८७२ ।। स्कन्धौ” मुखं च मध्यं च कृशं कार्यं प्रमाणतः । वडवाया महद्वक्षो जघनं च सुविस्तृम् || ८७३ ।। एतल्लक्षणमुद्दिष्टं वाजिनां सोमभूभुजा । इति चित्रम् |
गजस्य वक्ष्यते लक्ष्म सूत्रमानानुसारतः ।। ८७४ ॥ गजस्य लक्षणं वक्ष्ये प्रमाणेन प्रमाणितम् । चित्रकर्मोपयोगार्थं विचित्रं चित्रवेदिनाम् || ८७५ ।।
केशान्ततः समारभ्य यावत्स्यात्प्रतिमानकम् । मुखं तत्कथितं तज्ज्ञैर्गजानां चित्रवेदिभिः ।। ८७६ ।।
ऊर्ध्वं केशान्ततः शीर्ष यावत्कुम्भसमुद्भवः । शीर्षस्योपरि कुम्भौ द्वौ कर्तव्यौ कुचसन्निभौ || ८७७ ॥
[ अध्यायः १
१ A जनीरोह B जनैर्निरोहाद्वा F जनैरोह । २ A लो। ३ A त्रि । ४ A लम् । ५ A भ्याकाश : ६ A याता । ७D लाया बु । ८F ना । ९ F कै । १० A ष्ठे केचित् । ११ D खं BF खां । १२ D F न्धो । १३ A स । १४ BD ज्ञानार्थ B विस्तृतम् ।
Aho! Shrutgyanam
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
७७
वायुकुम्भस्य शीर्षस्य सन्धेराप्रतिमानतः । पिप्पलीदन्तवेष्टाभ्यां वेष्टितं मुखमीरितम् ॥ ८७८ ॥ त्रिधा विभज्य त्रितालं त्रीन्भागान् परिकल्पयेत् । त्रिधा विभज्य तद्वत्रं त्रितालं परिकल्पयेत् ।। ८७९ ॥ ऋजूनि लम्बप(सूत्राणि विधेयानि त्रयोदश । एकवालविभिन्नानि चित्रकर्मविशारदैः ॥ ८८० ॥ तत्तत्प्रमाणकान्येव तिर्यक्सूत्राणि कारयेत् । एकादशैव तानि स्युः करिणां चित्रकर्मणि ॥ ८८१ ।। विशं शेतं समुद्दिष्टाः कोष्ठास्तत्सूत्रमध्यगाः । तत्र सूत्रेषु वक्ष्यामि प्रदेशान्नागसम्भवान् ॥ ८८२ ॥ लम्बसूत्रं बहिष्ठं यत्तच्छिष्टं प्रतिमानके । निदाने वायुकुम्भाग्रे दन्तमूले द्वितीयकम् ॥ ८८३ ॥ बिन्दुमध्ये मदच्छिद्रं (द्रे) मुक्कदेशे तृतीयकम् । कण्ठे च पिप्पलीदेशे कुम्भप्रान्ते तुरीयकम् ॥ ८८४ ॥ आसने कर्णमध्ये च पुरोनखरपश्चिमे । अंशेन कर्णपूरण (च) नखरं (रे) पश्चिमे तथा ॥ ८८५ ॥ द्वितीये नखरे लग्नं कार्य मूत्रं तु पञ्चमम् । अंश(से)कर्णदलस्याग्रे पश्चान्नग(ख)रपश्चिमे ॥ ८८६ ॥ मूत्रं षष्ठं प्रकुर्वीत मूत्रन्यासविशारदः। मध्यदेशे प्रयुञ्जीत लम्बसूत्रचतुष्टयम् ॥ ८८७ ॥ मूत्राणां दशकं त्वेवं कथितं मूत्रवेदिभिः । पेचैके चाँपराजि(छ)श्च प(पा)श्वात्यनखमध्यगः(गम्) ॥ ८८८ ॥ एकादशं भवेत्सूत्रं द्वादशं जघने स्मृतम् । त्रयोदशं बहिष्टं तु पुच्छमूले सुघट्टितम् ॥ ८८९ ॥ लम्बसूत्रक्रमो ह्येष कुञ्जरस्य निरूपितः ।
तिर्यक्मूत्राणि वक्ष्यामि सङ्गतानि प्रदेशतः ॥८९० ॥ १ A यु B F यु । २ F त । ३ F वं। ४ B D स्ता। ५ F विंशतं B D शच्छ । ED हिः पृष्ठ तत् । ७A म । ८D ध्य। ९ Dadds this line। १० B आसने। १० तृतीय। १२ सूत्रे । १३ D शैः । १४ D श्चिमं ख । १५ A मो। १६ A पञ्च । १७ D वा । १८ A ध्रस्य । १९ A पाद्यात्यनकगा D पश्चात्ता।
Aho ! Shrutgyanam
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १
मस्तके वंशपृष्ठे च सूत्रमूर्ध्व प्रकल्पयेत् । वायुकुम्भस्य शीर्षस्य सन्धौ पिप्पलिदेशतः ॥ ८९१ ॥ पेचके च विधातव्यं सूत्रमेतद्वितीयकम् । वायुकुम्भस्य मध्ये च नेत्रकर्णदलाग्रतः ॥ ८९२ ॥ पेचकस्याप्यधोभागे सूत्र कार्य तृतीयकम् । मुखमध्ये मुक्कदेशे पुच्छमस्तकसङ्गतम् ॥ ८९३ ॥ चतुर्थ कल्पयेत्सूत्रं चित्रकल्पेन कोविदः। प्रतिमानात्प्रवेष्टाच्च कण्ठाच्च गुदसङ्गतम् ॥ ८९४ ॥ पञ्चमं रचयेत्सूत्रं तिर्यक्सूत्रविशारदः । दन्ताग्रात्वत्सदेशाच्च कक्षाभागात्समागतम् ॥ ८९५ ॥ षष्ठं सूत्रं विधातव्यं चित्रलेखनकोविदः । पञ्चतालं भवेद्गात्रं जठरं पञ्चतालकम् ।। ८९६ ॥ चतुस्तालं तथा प्रोक्तमपरं चित्रवेदिभिः। मुख्यं च (खस्य) त्रिगुणं दैर्ध्य कर्णात्पुच्छावधि स्थितम् ।। ८९७ ॥ जठरेण समं गात्रं तालहीनं ततोऽपरम् । एतल्लक्षणमुद्दिष्टं सूत्रमानानुसारतः ॥ ८९८ ॥ अनेनैव प्रमाणेन लेखनीया गजाकृतिः।
इति गजचित्रम् । असङ्ख्यातानि सत्त्वानि शक्यन्ते नैव भाषितुम् ॥ ८९९ ॥ तत्तद्रूपानुसारेण लेखनीयानि कोविदैः। सादृश्यं लिख्यते यत्तु दर्पणे प्रतिबिम्बवत् ॥ ९०० ॥ तच्चित्रं विद्धमित्याहुर्विश्वकर्मादयो बुधाः । आकस्मिकं लिखामीति यदनुद्दिश्य लिख्यते ॥ ९०१ ।।
१D कल्पन B कर्मणि । २ A नं। ३ A तः । ४ A दः। ५ A गम् । ६ D चित्रके । ७A अमुकं वि ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः। आकारमात्रसम्पन्ने तदविद्धमितिस्मृतम् । शृङ्गारादिरसो यत्र दर्शनादेव गम्यते ॥ ९०२ ॥ भावचित्रं तदाख्यातं चित्तकौतुककारकम् । सदुच्चैर्वर्णकैलेख्यं धूलिचित्रं विदुर्बुधाः ॥ ९०३ ॥ सुप्रमाणं तथा विद्धमविद्धं भावचित्रकम् । रसधूलिगतं प्रोक्तं मानसोल्लासपुस्तके ।। ९०४ ॥ निर्मितं चित्रलक्ष्मेदं चित्ततोदनहारकम् । भूलोकमल्लदेवेन चित्रविद्याविरञ्चिना ॥ ९०५ ॥
इति सर्वचित्रप्रकरणम् । चित्रं लक्षणसंयुक्तं लेखयित्वा महीपतिः । प्रासादे रुचिरे तुङ्गे सौवर्णकलशान्विते ॥ ९०६ ॥ नानावर्णविचित्राङ्गरचनापरिशोधिना । चित्रवस्तुसमाकीर्णवितानेनोपरञ्जिते ॥ ९०७ ॥ विशाले स्तम्भविन्यस्तपट्टिकाधारधारिते । वरदारुसमाकीणे वेणुकाम्रविनिर्मिते ॥ ९०८ ॥ गुञ्जापुञ्जसुसञ्छन्ने मृत्तिकाश्लक्ष्णभित्तिके । धा(घ)राकुटिमशोभाब्ये गोमयालेपपाविते ॥ ९०९ ॥ पञ्चवर्णवितानाढ्ये मध्यपद्मविभूषिते । "तिष्ठेद्विवाससंयुक्तो भुवनाश्रयसमनि ॥ ९१० ॥ ईशानकोणभागे तु सर्वलक्षणसंयुतम् ।। दक्षिणे मुखशालाङ्के देवतारूपचित्रितम् ।। ९११ ॥ स्नानगेहं तु तत्पार्चे कर्तव्यं वेदिकायुतम् । होमशाला तदभ्याशे वन्हिकुण्डविमण्डिता ॥ ९१२ ॥ धूमँनिर्गमनोपायकृतजालपरिष्करा ।
कृत्वैवं देवतागारं तत्र सम्पूजयेद्धरिम् ॥ ९१३ ॥ A कं सत्त्वे । २ A वित। ३ F नं। ४ B विद्यां विरच्यता। ५A झं। ६A शोभिता B
शोभिना । F शोधता । ७ F स्त्र। ८D शोभि । ९ Aण। १० A कम्रा । ११ A संच्छि D विच्छि । ११D चिते । १३ B तिष्ठते सः समायुक्तो। १४ Fप। १५ D शोभा । १६A तैरु । १७F मस्य।..
Aho! Shrutgyanam
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०
मानसोल्लासः ।
हरिद्रादलसञ्छन्ने वालमूलकभित्तिके । मरुकैर्दमनैर्बद्धे' सिकतामयभूतले ।। ९१४ ॥
सेचितो (ते) गन्धतोयैश्च मण्डपे सुमनोरमे । कान्ताभिर्वीज्यमानस्तु ग्रीष्मे मध्यं दिनं नयेत् ॥ ९९५ ॥
प्रासादस्योर्ध्वभूभागप्राङ्गणे सुमनोहरे ।
सुधाकर सुधायो ( श्रोतसचिते शशिवारिणा ।। ९१६ ।।
पुष्पकरशोभाव्ये मृदुगन्धवहे सुखे । सुखसंलापयोग्याभिः प्रेयसीभिः समन्वितः ।। ९१७ ॥
गीतज्ञैर्वाद्यनिपुणैस्तद्रुणज्ञानकोविदैः ।
विदग्धैर्वाक्यचतुरैः परिहासविनोदिभिः ।। ९१८ ।।
साहित्यरसभावज्ञैः कथाकथनकोविदैः । प्रसादपात्रैश्चयुतो निशार्धं गमयेन्नृपः ॥ ९९९ ॥
ततो विसृज्य तान्सर्वान्सुखशालामथावसेत् । प्रियया सह सम्प्रीत्या निशाशेषं नयेत्सुखी ।। ९२० ॥ वसन्ते च तथा ग्रीष्मे एवंविधगृहोषितः । शीतलान्सुखसंस्पर्शान्भोगान् सेवेत भूपतिः ।। ९२१ ॥
नीरन्धके निवाते च शीतस करवर्जिते । हर्म्ये चतुष्किकायां वा वर्षासु निर्वसेन्नृपः ।। ९२२ ।। गवाक्षैः शोभिते हर्म्ये रम्ये सर्वप्रकाशके । निवातभूगृहे भव्ये हर्म्ये वा शीतवर्जिते ॥ ९२३ ॥ तिरस्करिण्या पिहिते कपटेन निगूहिते । वराङ्गीपीवरोद्वृत्तस्तनस्तबकमध्यगः ॥ ९२४ ॥
हेमन्ते शिशिरे राजा निवसेच्छीतवर्जितः । एवं दिव्येषु गेहेषु निवसेद्यत्र भूपतिः ।। ९२५ ।।
[ अध्यायः १
१ A द्ध। २ BF सेवि D सर्व । ३ A स्यार्ध । ४ B द्योत D श्वे । ५ D सिं । ६ A का ।
७ D विशेत् । & A सी । ९D निविशन्तृ । १० Bर्प D प्रेरण ।
Aho! Shrutgyanam
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः।
ऋतुकालविभागेषु गृहभोगः प्रकीर्त्तितः । एवं गृहोपभोगोऽयं कथितः सोमभूभुजा ॥ ९२६ ॥
इति गृहोपभोगः ॥ १ ॥ अथ स्नानोपभोगोऽयं कथ्यते सुमनोहरः। स्वगृहाभ्यन्तरेशानकोणे स्नानगृहं न्यसेत् ॥ ९२७ ॥ काञ्चनस्तम्भरुचिरं स्फुटत्स्फटिकवेदिकम् । काचकुटिमशोभाढ्यं दरदाक्लप्तभित्तिकम् ॥ ९२८ ॥ चीनपट्टवितानेन चित्रेण परिशोभितम् ।। वरुणस्य वितानेन स्पर्धमानं स्वतेजसा ॥ ९२९ ।। तत्र स्थित्वा महीपालः स्नानभोगमथाचरेत् । केतकीबहलामोदैर्जातीपरिमलोत्करैः ॥ ९३० ॥ पुन्नागचम्पकोद्दामगन्धसंवासितैस्तितः । यन्त्रसम्पीडितैस्तैलं गृहीत्वाऽभ्यङ्गन्माचरेत् ॥ ९३१ ॥ केतकीगर्भपत्राभनखरैस्तरुणीजनैः। सुकुमारकरस्पर्शहर्षोत्कर्षकैरैर्वृतः ॥ ९३२ ॥
औषधीगन्धसंसिद्धः स्तुत्यैर्दोपापहैः शुभैः । तैलैरभ्यज्यं गात्राणि मल्लैः संवाहँवेदिभिः ।। ९३३ ।। मृदुहस्ततलैः स्वैरं मर्दनं च समाचरेत् । कोष्ठं पटोलकं मुस्तां ग्रन्थिपर्ण निशाद्वैयम् ॥ ९३४ ॥ पालकं तगरं मांसं ( सी) वाजिगन्धा च पुष्करम् । एषां मूलानि संगृह्य छायाशुष्काणि कारयेत् ॥ ९३५ ॥ निम्बस्य राजवृक्षस्य तुलस्याश्चार्जकस्य च । पत्राण्येषां समाहृत्य प्रागुक्तैः सह लेपयेत् ॥ ९३६ ॥ एलाजातीसर्षपाश्च तिलाः कुस्तुम्बुराण्यपि ।
बाकुची चक्रमर्दश्च वीजान्येषां समाहरेत् ॥ ९३७ ॥ १D लिप । २ F कृ। ३ A हि। ४ A पत्रगर्भा । ५ B च । ६ B D स्य F व्व। B द । CB का । ९ B क्ता । १० B ह्र । ११ । ख । १२ B प्रकारये ।
११
Aho! Shrutgyanam
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः लवड़ पद्मकं लोधं श्रीखण्डं सुरदारु च । अगरुं सरलं चैव काष्ठान्येनानि निक्षिपेत् ॥ ९३८ ।। नागकेसरपुन्नागकान्ता(न्त)कुङ्कुमचम्पकम् । पुष्पाण्येतानि संगृह्य तेषां मध्ये विनिक्षिपेत् ॥ ९३९ ॥ गुग्गुलु सैन्धवं चैव बॉलं सर्जरसन्तथा । द्रव्याण्येतानि सम्पेष्य पयसा काचिकेन वा ॥ ९४० ॥ अभ्यक्तगोत्रो नृपतिरुद्वर्तनमथाचरेत् । अधुना स्नेहनित्या(त्यै) सुगन्धा कथ्यते खली ॥ ९४१ ॥ आरनालसुसंसिद्धगोधूमश्लक्ष्णचूर्णकैः । मदनस्य च मूलेन चूर्णितेन विमिश्रिता ॥ ९४२ ।। स्नेहापनयने योज्या पिशुनेनोत्तमा खेली। नानातीर्थाहृतैस्तोयैर्विमलैर्मलहारिभिः ॥ ९४३ ॥ सुगन्धवासनायुक्तैः सुखोष्णः स्पर्शसौख्यदैः । एभिरापूरितैः पात्रैः लोहकूपरगादिभिः ॥ ९४४ ॥ कलशैः काञ्चनोत्पन्नः कान्तैः कान्ताकरोत्थितः। शातकुम्भमयैः कुम्भैः राजद्भिरपि राजतैः ॥ ९४५ ॥ करिकुम्भयुगप्रख्यपयोधरविडम्विभिः। चन्द्रकान्तमुखाभासाः परिपूर्णपयोधराः ॥ ९४६ ॥ स्वलावण्यतरङ्गिण्यः प्रत्यक्षा जलदेवताः । मेघकान्ता इव श्यामाः कान्ताः कनकविद्युतः ॥ ९४७ ॥ अभिषेकाम्बुधारोत्थस्फुरत्स्तनितविभ्रमाः । इतस्ततः पर्यटन्त्यः समाः सौम्या वरस्त्रियः ॥ ९४८ ॥ स्नपनं नृपतेः कुर्युस्तन्मुखाहितदृष्टयः । सुगन्धामलकैः श्लक्ष्णैरनुलिप्य शिरोरुहान् ॥ ९४९ ॥
१B पञ्च । २Fलं। ३ A लः। ४ A सस्त A कजलसः। ५Fमा। ६A मूत्र | Fa| CBD पेया। ९Fखू। १.DF ज्झि । ११A जि। १२ BD सक्त।
Aho ! Shrutgyanam
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। तान्यप्यपनयेयुस्ताः सुखोष्णैः सलिलैः पुनः । वङ्गचोलकलिङ्गान्ध्रमलयक्षेत्रजातया ।। ९५० ॥ धूपवासितयात्यर्थं कृतालेपं हरिद्रया । ईषच्छीतेन तोयेन रागिण्यो रागहेतवः ॥९५१ ॥ स्नपयेयुर्महीपालं स्नानभोग इतीरितः । निर्वत्यैवं नृपः स्नानं परीधायाङ्गमार्जनम् ॥ ९५२ ॥ सितं सुधौतं वसनं धृतमा परित्यजेत् । भूलोकमल्लदेवेन स्नानभोग उदाहृतः ।। ९५३ ॥
इति स्नानविधिः ( भोगः ) ॥२॥ इदानीं पादुकाभोगः कथ्यते ललितक्रमः । श्रीपर्णीदारुघटिते हरिचन्दननिर्मिते ॥ ९५४ ॥ गिरिमल्लीसमुद्भूते स्यन्दनद्रुभकल्पिते । मयूरपिच्छगुञ्जादि(भिः) समन्तात्परिशोभिते ॥ ९५५ ॥ चर्मणा निर्मिते वापि नानावर्णसुरञ्जिते । गजदन्तसमुद्भूते सुवर्णरचनान्विते ॥ ९५६ ॥ विचित्रे सुदृढे श्लक्ष्णे शिजाने सुमनोहरे । लघुच्छत्रकृताधारे सुस्पर्श पादुके समे ॥ ९५७ ॥ अध्यास्ते यन्महीपालः पादुकाभोग इष्यते । ईरितः पादुकाभोगः सोमेश्वरमहीभुजा ॥ ९५८ ॥
इति पादुकाभोगः ॥ ३ ॥ इदानीमुत्तमो भोगस्ताम्बूलस्य निगद्यते । स्नानगेहादथागम्य प्रविश्य सुखमन्दिरम् ॥ ९५९ ॥ ताम्बूलभोगमन्विच्छंस्ताम्बूलस्याधिकारिणम् । समाहूय महीपालस्ताम्बूलास्वादनं चरेत् ॥ ९६० ॥
१D तम । २ F य । ३ A त । ४ A ण्यौ। ५ A F निर्वत्यैवं । ६A लिखि। . F स्पंदन । Fथा A पा। ९F शंपा। १.A भोगा। ११ A दुपा । १२ Dशेत ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः४
नैलवर्तिपुरोद्भूतांस्तथेश्वरपुरोद्भवान् । काण्डिकापुरजान्वापि क्रमुकौघान् सुपाकिनः॥ ९६१ ॥ भङ्गे पाटलेसङ्काशान् कषायमधुरान्वरान् । फालान् कृत्वोष्णतोयेन प्रक्षाल्याशोष्य घर्षितान् ॥ ९६२ ॥ कस्तूरिकल्कसंयुक्तान् छायाशुष्कान् मनोहरीन् । तरुणानि सवल्कानि कथितानि प्रयत्नतः ॥ ९६३ ॥ वनवासप्रभूतानि क्रमुकस्य फलानि च । कृत्वा त्वचा 'वियुक्तानि छायाँयां शोषितानि च ॥ ९६४ ॥ चतुर्भागनियुक्तानि ताम्बूलार्थं समाहरेत् । वनवासे राष्ट्रराजे सम्भूतानि वराणि च ॥ ९६५ ॥ कर्पूरवल्लीजातानि नागवेल्युद्भवानि च । उषितानि समं वल्या वत्सरं वरकेषु च ॥ ९६६ ॥ दानि(नादे)योदकसिद्धीनि पाण्डुराणि गुरूण्यपि । पर्णानि प्रान्तकृत्तानि द्विपञ्चाशन्मितानि च ॥ ९६७ ॥ बहिस्थकृष्णपर्णानि विडैके विदि(हि)तानि च । शैलोदकसमुद्भूतशिलापाकसमुद्भवम् ॥ ९६८ ॥ मुक्ताशुक्तिभवं चूर्ण वीटकेषु निधापितम् । अपकमुज्ज्वलं स्वच्छं कर्पूरस्फटिकोपमम् ॥ ९६९ ॥ मलयाचलशृङ्गोत्थलतानिर्याससम्भवम् । तलिन शकलाकारं चन्द्रकान्तसमप्रभम् ॥ ९७० ॥ सहकारसमानेन सौरभेण समन्वितम् । ईशावासाभिधानं च कपूरं सहजं वरम् ॥ ९७१ ॥ समानीय महीपालस्ताम्बूलार्थ प्रकल्पयेत् ।
कस्तूरी चूर्णकं श्लक्ष्णं घनसारस्य चूर्णकम् ॥ ९७२ ॥ १ F मे D न B D एलाचूर्ण। २ D पू । ३ D त्या। ४ A के। ५ D लि । ६ D क । ७D फाली F हालिं । ८D F रमान् । ९ F नि। १० D छायया । ११ D लि । १२ A वे । १३ B D च Fचकेषु । १४ DF ना। १५ BD F क्ता। १६ D वा । १७ D वि। १८ BD लि ।
Aho! Shrutgyanam
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
८५
मिश्रयित्वा समं कृत्वा ताम्बूलार्थ नियोजयेत् । कस्तूरीशशिकङ्कोल्लजातीफलसुचूर्णकम् ॥ ९७३ ॥ श्लक्ष्णं करम्बकं हृद्यं नानापरिमलोत्कटम् । खदिरकाथचूर्णंतु कस्तुरीक्षोदमिश्रितम् ॥ ९७४ ॥ श्रीखण्डकल्कसंयुक्तं कर्पूररजसान्वितम् । मेलयित्वा समै गैर्गुटिका कल्पिता शुभा ॥ ९७५ ॥ त्रिदोषशमनी कण्ठया दन्तानां च बलावहा । अन्यत्खदिरसारस्य चूर्ण कोष्टाम्लसंयुतम् ॥ ९७६ ॥ जातीफलस्य चूर्णेन मिश्रितं मुखरञ्जनम् । जम्बीरबीजपूरस्य कलिकाभिः समन्वितम् ॥ ९७७ ॥ कर्पूरपूर्व खादेच्च तदनु क्रमुकान्वितम् । इत्थं विविधयोगेन ताम्बूलं पृथिवीक्षिता ॥ ९७८ ॥ यत्स्वाद्यते स ताम्बूलभोगश्चतुरवर्णितः । ताम्बूलभोगः कथितः श्रीसोमेश्वरभूभुजा ॥ ९७९ ॥
इति ताम्बूलभोगः ॥ ४ ॥ विलेपनोपभोगोऽयं कथ्यते भोगिनां प्रियः। अच्छं विलेपनं रम्यमङ्ग-सौख्यप्रदायकम् ॥ ९८० ॥ ततः समाचरेद्भः कान्ताकरमनोहरम् । चन्दनागरुकपूरकस्तूरीकुङ्कुमान्वितम् ॥ ९८१ ॥ सुरभीकेसरोन्मिश्रग्रन्थिपर्णसमायुतम् । जातीतिफलोपेतं सुश्लक्ष्णं भूरि धूपितम् ॥ ९८२ ॥ वसन्ते लेपनं कुर्याद्यक्षकर्दममुत्तमम् । कक्षाभागे कर्णसन्धौ नाभौ वंक्षणयोरपि ॥ ९८३ ॥ स्वेदगन्धंविनाशार्थं सान्ध्याख्यं लेपमाचरेत् ।
चन्दनस्य तरोर्मूलं ग्रन्थिकोटक(र)कर्परम् ॥ ९८४ ॥ १. रब । २ F ण्डं ! ३ A लि । ४ Fषः। ५ F त । ६ A व । ७ Aन्धि ! ८ B साध्या। ९ B DF ख ।
Aho! Shrutgyanam
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः ५
गन्धोत्कटं हिमस्पर्श वरिष्ठं तन्निरूपितम् । यच्छेदांद्रक्ततां धत्ते घर्षे पीतत्वमेव च ॥ ९८५ ॥ शोषे शुभ्रत्वमायाति स्वादे तिक्तरसं भवेत् । पुन्नागकेसरैर्युक्तं श्रीखण्डं शशिना युतम् ॥ ९८६ ॥ केतकीमल्लिकोन्मिश्रपाटलीगन्धवासितम् ।। शशाङ्ककरसङ्काशं हिमडिण्डीरपाण्डुरम् ॥ ॥ ९८७ ॥ निदाघे शीतलं लेपं नृपः कुर्यात्समुज्ज्वलम् । श्रीखण्डं तादृशं भव्यं निघृष्टं पेषितं पुनः ॥ ९८८ ॥ मसृणं लेपयेद्गात्रं स्वच्छमच्छं विलेपनम् । काश्मीरदेशसम्भूतं हरिचन्दनकेसरम् ॥ ९८९ ॥ लोहितं तत्समादाय पेषण्या श्लक्ष्णपेषितम् । कटुतैलसमायुक्तं लाक्षारागसमप्रभम् ॥ ९९० ॥ तादृशं कुङ्कुम श्रेष्ठं लेपनार्थ महीभृताम् । कुङ्कुमं लघुसम्मिश्रं घनसारसुधूपितम् ।। ९९१ ॥ कुर्वीत लेपनं रम्यं वर्षाकाले नरेश्वरः । मदतारुण्यसम्पन्नमृगनाभिसमुद्भवा ।। ९९२ ॥ गोलकाकारसंस्थाना किञ्चित्कुङ्कुमपिञ्जरा । मृदिता चिक्कणीभूता द्विगुणेव विलोक्यते ।। ९९३ ॥ दृग्धा याति न भस्मत्वं लसत्सिमिसिमास्वना । स्वादे तिक्ता कटुर्वाऽपि तुलने लघुतां गता ॥ ९९४ ॥ तादृग्विधा वरिष्ठा या कस्तूरी सा नृपोचिता । एवंविधौ समानीय कस्तूरी दिव्यसौरभाम् ॥ ९९५ ॥ पेषण्या पेषयित्वा तां तोयमिश्रां विलेपयेत् । गन्धि(न्ध)मार्जारबीजानि समाहृत्य विनिक्षिपेत् ॥ ९९६ ॥
१ A तन्निरूप्यते । २ D च्छिद्रा । ३ B D पा । ४ A रस । ५ A म । ६ A धा . A नाय्या । ८ Aरी।९ A भा।
Aho! Shrutgyanam
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
M-MvVAARAR
उष्णतैले समुद्धृत्य कटुतैलेन लेपयेत् । विकीर्य च निशाचूर्ण छायायां च विशोषयेत् ॥ ९९७॥ एवं सचिनुयाद्भरि काथयेत्संचितान्यपि । श्रीक्षाम्रकजम्बूनां तुलसीवीजपूरयोः ॥ ९९८ ॥ पल्लवैः कथितैस्तोयै-जानि क्षालयेत् पुनः। प्रक्षाल्य शोषयेत्तज्ज्ञस्ततः कुयोच्च खण्डशः ॥ ९९९ ॥ निक्षिप्य वारिमध्ये च बीजपूरफलत्वचः। कैथयेन्मोचयेत्पश्चात्ततः स्नेहोऽपि निःसरेत् ॥ १००० ॥ तोयोपरिस्थितं स्नेहं शुक्त्या काञ्चनजातया । आहरेच्च प्रयत्नेन यद्वा बीजानि तापयेत् ॥ १॥ पेषण्यां पीडयित्वा च स्नेहं निःसारयेद्वधः । निःसारितं ततः स्नेहं सितया धूपयेत्पुनः ॥ २॥ पश्चाच्च लघुकपूरैर्वारं वारं च धूपयेत् । पुंल्लिङ्गं नाम तं प्राहुर्दिव्यगन्धं मनोहरम् ॥ ३॥ नृपाणां लेपने शस्तं हेमन्तशिशिरादिषु । चन्दनं बहुसौरभ्यं मिलितं पद्मकेसरैः ॥ ४ ॥ उत्पलाभासितं लेपे शरत्काले प्रशस्यते । नवकेसरसम्भूतं कुङ्कुमं कायरञ्जनम् ॥ ५ ॥ सुगन्धितैलसंयुक्तं शीतकालेऽनुलेपनम् । वस्त्रभूषानुसारेण शृङ्गाराङ्गविलेपनम् ॥ ६ ॥ ललाटे बाहुशिखरे कण्ठे वक्षस्यथोदरे । नानागन्धसमोपेतं नानावर्णसमन्वितम् ॥ ७ ॥ विलेपनोपभोगाय क्रियते यद्विलेपनम् । विलेपनोपभोगोऽयं वर्णितः सोमभूभुजा ॥ ८॥
इति विलेपनभोगः ॥५॥
१F झू । २ D क्वा । ३ A ततः। ४ A का । ५ D पिष्ट । ६ D श्रि।
Aho ! Shrutgyanam
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः६ वस्त्राङ्गउरणामु)पभोगोऽयमधुना परिकीत्यते । अश्विनी वस्त्रदा प्रोक्ता रोहिणी धनवर्धिनी ॥९॥ पुनर्वसौ(स्वोः) वसुप्राप्तिः पुष्ये सौख्यं प्रवर्तते । उत्तरायां यशोलाभो हस्ते सिद्धिस्तु कर्मणाम् ॥ १०१० ॥ चित्रायां शुभसम्प्राप्तिः स्वात्यां सौभाग्यसम्पदः । विशाखायां जनप्रीतिमैत्रे मित्रसमागमः ॥ ११ ॥ तुष्टिः स्यादुत्तराषाढे धनिष्ठा धान्यपूरणी । उत्तरायां शुभंप्राप्ती रेवती रत्नद्धिकृत् ॥ १२ ॥ एवमक्षगणः प्रोक्तो नवीनाम्बरधारणे । बुधे धनागमं विद्यात्प्रजोवृद्धिर्भवेद्गुरौ ॥ १३ ॥ आयुः प्रवर्धते शुक्रे नूनने वस्त्रधारणे । गृहोत्सवे विवाहे च परभूपालसङ्गमे ॥ १४ ॥ उत्सवेषु च सर्वेषु गीतनृत्यविनोदने । दानकर्मणि यज्ञे च तथा युद्धमहोत्सवे ॥ १५ ॥ जये नवाम्बरं धार्यं न दुष्यति कदाचन । कृतानुलेपो राजेन्द्रो वस्त्रभाण्डाधिकारिणम् ॥ १६ ॥ आनेतुमादिशेद्वस्त्राण्युत्तमानि बहूनि च । पोद्दालपुरजातानि चीरपल्लीभवानि च ॥ १७ ॥ नागपत्तनजातानि चोलदेशोद्भवानि च । अल्लिकार्कुलजातानि सिंहलद्वीपजानि च ॥ १८ ॥ अणिलावाडजातानि मूलस्थानोद्भवानि च । तोण्डीदेशसमुत्थानि पञ्चपट्टणजानि च ॥ १९ ॥ भिन्नजाता(ती)नि दिव्यानि महाचीनभवानि च । कलिङ्गदेशजातानि वङ्गदेशभवानि च ॥ १०२० ॥
....१D वर्ण्य । २ A भा।३ A. वं ऋ । ४ D विं । ५ F ज्ञा । ६ A णः । ७ F दा । ८ DF कर। ९F वेगा A वेगा।
Aho ! Shrutgyanam
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३)
मानसोल्लासः। वसनानि विचित्राणि पट्टसूत्रमयानि च । कासक्षौमसूत्राणि रोमभिनिर्मितानि च ॥ २१ ॥ श्वेतानि रक्तवर्णानि पीतानि हरितानि च । नीलानि च तथा प्रान्ते पल्लवेषु सितानि च ॥ २२ ॥ एतद्यत्ययभिन्नानि सितलेखामयानि च । नानावर्णसुरेखाणि पञ्चवर्णाञ्चलानि च ॥ २३ ॥ चक्ररेखासुरम्याणि रेखात्रययुतानि च । उत्तरीया चै(रावर)रेखाणि मध्य(ध्ये)सूक्ष्मसुरेखैया ।। २४ ॥ अङ्गुल्यायतरेखाणि सूक्ष्मरेखाणि मध्यतः । अङ्गुलीद्वयरेखाणि वृत्तरेखाणि कुत्रचित् ।। २५ ॥ चतुष्कोणसुरेखानि कचिद्धिन्दुयुतानि च । सुश्लक्ष्णानि सुरम्याणि घनानि विरलानि च ॥ २६ ॥ लघूनि बहुमूल्यानि गुरूणि च दृढानि च । प्रक्षालेऽधिकरङ्गानि रञ्जितानि च यन्त्रकैः ॥ २७ ॥ तन्तुबन्धसुरक्तानि नानावर्णकृतानि च । मञ्जिष्ठारागरक्तानि लाक्षाद्रवयुतानि च ॥२८॥ कौसुम्भरसलिप्तानि सिन्दूरारुणितानि च । हरिद्रारागमिश्राणि नीलीरागोत्कटानि च ॥ २९ ॥ अभयारसकृष्णानि निशानीलीमयानि च । शुकपिच्छसवर्णानि केकिकण्ठच्छवीनि च ॥१०३०॥ . पिच्छाकपिच्छवर्णानि हंसकुन्दनिभानि च । चीरघट्टकास(पट्टक-शे)लाकमच्छदा(दो)पाङ्गिन्कानि च ॥ ३१ ॥ पट्टिका च पटीपट्ट पोश्च विविधाः शुभाः। अङ्गिका च तथोष्णीषकैपि(कोशि)का विविधाकृतिः ॥ ३२ ॥ भावारा विविधाकारा दर्शिता वस्त्रधारिभिः।
विचित्रवर्णवस्त्राणि पट्टसूत्रमयानि च ॥ ३३ ॥ १D च । २ F वरेषाणि । ३ F रक्ष। ४ D कोसम्भ F कोसुम्भ A कौसुम्ब। ५ A छ ।
के।
Aho ! Shrutgyanam
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः७
AAAA
.
वसन्ते विभृयाद्राजा क्षौमकासकानि च । सुश्लक्ष्णानि मनोज्ञानि सूक्ष्माणि विरलानि च ॥ ३४ ॥ निदाघे धारयेद्राजा सितानि विविधानि च । रोमजानि सुसूक्ष्माणि श्लक्ष्णानि विविधानि च ॥ ३५ ॥ माञ्जिष्ठानि च रक्तानि प्राट्काले विधारयेत् । पाटलान्यभिरामाणि धूम्राणि मधुराणि च ॥ ३६ ॥ शरत्कालेऽतिसूक्ष्माणि वसनानि विधारयेत् । कौसुम्भानि मुभव्यानि लाक्षिकानि घनानि च ॥ ३७ ।। अडिन्काश्च पटीजाताः शीतकाले भव( जे ) न्नृपः । ऋतूनामनुसारेण शृङ्गारस्यानुसारतः ॥ ३८ ॥ शीतवाते प्रयाणे च पापद्धौं वारिखेलने । सूक्ष्माणि बहुमूल्यानि वर्णाढ्यानि वराणि च ॥ ३९ ॥ नानाद्वीपसमुत्थानि श्रृङ्गारे धारयेन्नृपः । एवं यद्विभृयाद्वस्त्रं वस्त्रभोगः प्रकीर्तितः ॥ १०४०।। वस्त्रभोगोऽयमाख्यातः सोमेश्वरमहीभुजा ।
इति वस्त्रोपभोगः ॥ ६ ॥ अधुना कथ्यते सम्यङ् माल्यभोगो मनोहरः॥४१॥ वस्त्रप्रसाधनं कृत्वा ततो माल्यं विधारयेत् । चम्पकं मल्लिकायुक्तं चम्पकान्युत्पलैः सह ॥ ४२ ॥ चम्पकं सुरभीयुक्तं चम्पकं पाटलान्वितम् । मल्लिका पाटलायुक्ता मल्लिका सुरभीयुता ॥४३॥ मल्लिका बकुलैर्मिश्रा मल्लिकोत्पलसंयुता । मालती मल्लिकोपेता मालती पाटलान्विता ।। ४४ ।। मालती बकुलोपेता मालती सुरभीयुता । करवीरेण संयुक्तं शतपत्रं मनोहरम् ॥ ४५ ॥ D विचित्राणि । २D स । ३ D F ता। ४ A चाऽप ? । ५ A वा।
Aho! Shrutgyanam
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
शतपत्रं संमरुकं शतपत्रं सपाटलम् । मालती मल्लिका यूथी वर्णपुष्पेण संयुता ॥ ४६ ॥
रुवैती तथा यूथा ( थी) नेवाली च तथा मता । बिभर्ति माल्यं शिरसा नृपतिः स्वानुसारतः ॥ ४७ ॥
स्वेपके (स्वकेशेषु च कुल्या (कण्ठे ) च माल्यभोगः प्रकीर्तितः । इति माल्योपभोगः ॥ ७ ॥
एवं विधार्य माल्यानि भूषणान्यथ भूपतिः ॥ ४८ ॥ - रत्नहेममयान्यङ्गैर्विभृयात्सैप्रभाणि च । यन्त्रसंघट्टितानीव सुवृत्तान्युज्ज्वलानि च ॥ ४९ ॥ नवनीरसुकान्तानि मौक्तिकानि वराणि च । शुक्तिगर्भसुमुक्तानि कुम्भिकुम्भोद्भवानि च ।। १०५० ॥
वंशरन्ध्रमभूतानि मेघधाराभवानि च । सिंहलद्वीपजातानि रत्नाकरभवानि च ॥ ५१ ॥
दाडिमबीजकान्तानि शक्रगोपनिभानि च । रक्तपद्मसरागणि बालसूर्यप्रभाणि च ॥ ५२ ॥ माणिक्यान्यतिरैम्याणि स्थूलानि विविधानि च । अतसीपुष्पसङ्काशं हरिकान्त (न्ति ) समप्रभम् ॥ ५३ ॥
हरकण्ठसमच्छायमिन्द्रनीलं प्रभायुतम् । रोहिणाद्रिसमुद्भूत (तं) तृणग्राहि मनोहरम् ॥ ५४ ॥
मसृणं चातिशोभाढ्यमिन्द्रनीलं सुपीवरम् । इन्द्रायुधान्त (र्ग)र्भेण हरितेन समप्रभम् ॥ ५५ ॥ कीर पक्षसंक्षाभं गरुडोद्वारसम्भवम् ।
श्लक्ष्णं मरकतं कान्तं नलिका (ना) भं दलोपमम् ॥ ५६ ॥
विषघ्नं दुर्लभं रत्नं बहुमूल्यं मनोहरम् ।
सितं ब्राह्मणजातीयं रक्तं क्षत्रियजातिकम् ॥ ५७ ॥
९१
७
१ D कुरब । २ CDF ह । ३ C खो D खोम्प । ४ F स । ५ Fत्सु । ६ F टि | D गात्राणि । ९ D रागाणि । १० A नृ । ११ A लि । १२ A सवृक्षाभं समक्षाभं । १३ मा
Aho! Shrutgyanam
D11
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः८
rwww
wwwwwwwwwwwwwww.
वैश्यजातीयकं पीतं कृष्णं वृषलजातिकम् । षट्कोणसिद्धं दीप्तं च फलकेषु समं लघु ॥ ५८ ॥ वैराकरभवं वजं विप्रजातीयमुत्तमम् । एतानि रत्नमुख्यानि कथितानीह लक्ष्मतः ॥ ५९ ॥ गोमूत्रवर्ण निर्णीतं रक्तं गोमेदकं भवेत् । ईषत् कृष्णं सिताभं च वैडूर्यकमुदाहृतम् ॥ १०६० ॥ ईपपीतं च वज्राभं पुष्परागं प्रचक्षते । पकविम्बफलाभासं शुकचञ्चुसमप्रभम् ॥ ६१ ॥ काकतुन्डीसमच्छायं प्रवालमाभिधायते ।। तपनस्य करस्पर्शादुगिरत्यनलं हि यः॥ ६२॥ सूर्यकान्तं विजानीयात्स्फटिकं रत्नमुत्तमम् । अमृतांशुकरस्पर्शायः स्रवत्यमृतोदकम् ॥ ६३ ॥ दुर्लभं तन्महारत्नं चन्द्रकान्तं विदुर्बुधाः । श्वेताभ्रकसमं वर्णे हिमाद्रिशिखरोद्भवम् ॥ ६४ ॥ निर्मलं च प्रभायुक्तं स्फटिकं परिकीर्तितम् । सर्वेषामेव रत्नानां लक्षणं समुदाहृतम् ॥ ६५ ॥ निजवर्णसमुत्कर्षात्कान्तिमत्त्वान्महार्घता । स्थूलमुक्ताफलैः कार्या कण्ठे त्वेकावली वरा ॥ ६६ ॥ मध्यमुक्ताफलैः कुर्यात्रिसरं सुविचक्षणः । तथा पञ्चसरं कुर्यान्नवसप्तसरं तथा ॥ ६७ ॥ उपान्ते नीलमाणिक्यमिश्रितं सुमनोहरम् । काञ्चनीभिम्रणालीभिः पडिस्थाभिः सुशोभितान् ॥ ६८ ॥ .... क्रमशो हीयमानाश्च सरान्कुर्यान्मनोहरान् ।
गुच्छीकृतमृणाला(ली)भिहारे सर्वान्सरान समान् ॥ ६९ ॥ ..१D क्ष्यते । २ D स्यातप । ३ । F रमान् । ४ D ण्ठी । ५ F सिहरि ।
Aho! Shrutgyanam
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
XS
winniwww.w.w
.w.r
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः। नीलमाणिक्यसंयुक्तापूर्वं त(व)त्परिकल्पयेत् । नीलमु(यु)क्तास्तथामुक्ता मध्ये सिद्धन्तिकायुताः ॥ १०७० ॥ नीललंम्बणिकाः ख्याता हरिन्माणिक्यजास्तथा । . . नीलमाणिक्यसंयुक्ता मुक्ताः पूर्वक्रमेण च ॥ ७१ ॥ कृतो वर्णसरो नाम दर्शनीयो मनोहरः। एत एव सरो(रा)हीना मृणालीभिः सुसंहताः ॥ ७२ ॥ आनाभिलम्बिता भूषा ब्रह्मसूत्रमितीरिता । सुवर्णोपरिविन्यस्तरत्नरांजिसमन्वितम् ॥ ७३ ॥.. हरिन्माणिक्यनीलेन बृहता नायकेन च । मध्यदेशनिविष्टेन मणिना परिशोभितम् ॥ ७४ ॥ पदकं रुचिरं रम्यं वक्षःस्थलविभूषणम् । । नानारत्नविचित्रं च मध्यनायकसंयुतम् ॥ ७५ ॥ सरल(कै)लम्बितं रम्यं पदकं बन्धुरं विदुः। सिंहरत्न(वक्त्र)समाकॉरं नानारत्नविचिंत्रितम् ॥ ७६॥ . सूसकैर्लम्बनयुक्त केयूरं बाहुभूषणम् । सुवर्णमणिविन्यस्तमुक्ताजालकमङ्गन्दम् ॥ ७७ ॥ पेचकापिच्छसंयुक्तं बाहुसन्धिविभूषणम् । सुवर्णोपरिविन्यस्तनानारत्नविराजितम् ॥ ७८ ॥ हस्तस्य कटकं रम्यं स्त्रप्रभापरिशोभितम् । . . वज्रद्वितयमध्यस्थं हरिन्माणिक्यनीलकम् ॥ ७९ ॥ .. द्विहीरकमितिख्यातमङ्गुलीयकमुत्तमम् । अरकोणनिविष्टै पविभिः परिशोभितम् ॥ १०८० ॥ मध्ये रत्नसमायुक्तमात्रे (मन्त)वज्रमितीरितम् । वृत्ताकारैर्निविष्टैश्च कुलिशैरपि वेष्टितम् ॥ ८१ ॥
AC D Fध्द्तु । २ C F त । ३ D अत एव सरा । ४ A जाति । ५ DF विनि। ६ A सीह । VD भासं। ८D५। ९Dरे। १. D टश्च । ११ Dमने।
Aho! Shrutgyanam
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
मानसोल्लासः।
[अध्यायः८
AAAAAAA""
मध्ये च मणिना युक्तं रविमण्डलमीरितम् । ऋज्वायतचतुष्कोणक्रमोन्नतनिवेशिभिः ॥ ८२ ॥ वज्रमध्यगमाणिक्यैनन्द्यावर्ताङ्गुलीयकम् । माणिक्येन सुरङ्गण मौक्तिकेन सुशोभिना ॥ ८३ ॥ प्रवालनाभिरम्येण तथा मरकतेन च । पुष्परागेण वज्रेण नीलेन परिशोभिना ॥ ८४ ॥ गोमेदकेन रत्नेन वैडूर्येण विनिर्मितम् । रत्नैर्नवग्रहच्छायैर्नवभिः परिकल्पितम् ॥ ८५ ॥ नवग्रहमितिख्यातमङ्गुलीयकमुत्तमम् । अङ्गुलीवेष्टकं वजैर्वेष्टितं वज्रवेष्टकम् ॥ ८६ ॥ अन्य रत्नैश्च यत्त्वेवं तद्वद्वेष्टकमुच्यते । हीरयोरुभयोर्मध्ये कीलितं हीरमुत्तमम् ॥ ८७ ॥ त्रिहीरकमिति ख्यातमङ्गुलीयकमुत्तमम् । यत्तु नागफणाकारं बा(ब)हुरत्नविभूषितम् ॥ ८८ ॥ अङ्गुलीवलये(य) वत्रैर्वेष्टिते(तं) शक्तिमुद्रिका । अन्यैश्च विविधै रत्नैः सन्निवेशविशेषतः ॥ ८९ ॥ नानारूपाभिधानैश्च कल्पिता मुद्रिका(:)शुर्भाः । केवलैमौक्तिकैरेव तु(व)लये तु निशेविता(वेशितैः) ॥ १०९० ॥ मुक्ताताडकसंज्ञं तत्कर्णभूषणमुत्तमम् । वलयद्वयविन्यस्तमुक्ताफलविराजितम् ॥ ९१॥ मध्ये नीलेन संयुक्तं द्विराजित(क)मुदाहृतम् । एवं त्रिराजिकं प्रोक्तं पूर्णमध्यं च मौक्तिकैः ॥ ९२ ॥ तत्पूर्णमध्यमाख्यातं मुक्ताफलविभूषणम् । मौक्तिकानि बहिः पंक्तौ तदत (त्न) फुलकं ततः ॥ ९३ ॥
१F वज्रतं । २D टि । ३ F लैव । ४ F पवि । ५ D ताः । ६ A भा । ७A ळ । + A D षु। ९ Dणे।
Aho ! Shrutgyanam
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
वज्राणि च ततोऽप्यन्तर्वज्रगर्भमितीरितम् । एवं बहिस्थमुक्तं यन्मध्यवत्रैश्च पूरितम् ॥ ९४ ॥ मध्ये माणिक्यसंयुक्तं भुवि मण्डनमुच्यते । नीलैमरकतैश्चैव माणिक्यैश्च करम्बितम् ॥ ९५ ॥ यद्रूपं(पै)रचितैम(तम)ध्ये तत्तत्संज्ञकमुच्यते । सोपानक्रमविन्यस्तवज्रपङ्किविराजितम् ॥ ९६ ॥ षडष्टनेमिभिः कान्तं कुण्डलं तत्प्रचक्षते । शोधितेन सुवर्णेन सुचिरेणातिकान्तिना ॥ ९७ ॥ शृङ्खला विविधाः कार्या स्ताटङ्कटकानि च । स्त्रीपुंसयोः समानानि भूषणान्यत्र विस्तरात् ॥ ९८ ॥ कथितान्यथ वक्ष्यामि स्त्रीणां पुंसां पृथक् पृथक् । अश्वत्थपत्रसङ्काशं सुवर्णेन विमिश्रितम् ॥ ९९ ॥ माणिक्यवज्रखचितमायतैौक्तिकैर्युतम् । तत्र मुक्ताफलैः पार्वे सूसकाभ्यां विराजितम् ॥ ११०० ॥ ताभ्यां बहिर्मरालाभं नानारत्नैः प्रकल्पयेत् । तदूर्ध्वं वज्रमाणिक्यमौक्तिकैः कृतवन्धनम् ॥ १॥ तदिदं हंसतिलकं योपित्सीमन्तभूषणम् । कैनत्काञ्चनपट्टेन पिनद्धं वलयाकृतिः(ति) ॥२॥ मुक्ताजालं तदूर्ध्वं च कृतं तद् दण्डकं भवेत् । क्रमशो वर्धमानं तच्चूडामण्डनमुत्तमम् ॥ ३ ॥ केतकीदलसङ्काशं कनत्काञ्चनकल्पितम् । दण्डकस्यो भागस्य भूषणं तदुदाहृतम् ॥ ४॥ सौवर्णकल्पितं पद्म नानारत्नविराजितम् ।
चूडिकापरभागस्य भूषणं परिकीर्तितम् ॥ ५॥ १ A भिंतमी । २ A ड। ३D कण । ४ A लस्त । ५ mss कृतं तं D कृतदण्डकसंभवेत् । ६A डी।
Aho! Shrutgyanam
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
९६
मानसोल्लासः ।
सौवर्णकुसुमैः कृतं मुक्तास रसमन्वितम् । बृहन्माणिक्यनीलैश्च लम्बनं चूडिभूषणम् ॥ ६ ॥
पिचुमन्दफलाकारैमौक्तिकै मलकैः कृतम् । माणिक्यै गरुडैहरैर्मुकुलं कर्णभूषणम् ॥ ७ ॥ तस्या बहिश्च संलग्ना लम्बनी नीलनिर्मिता | नवभिर्दशभिर्वापि स्थूलमुक्ताफलैः कृता ॥ ८ ॥ कण्ठप्रमाणरचिता सरिका गलभूषणम् । ततो बहिश्च संलग्ना वज्रसङ्कलका शुभा ॥ ९ ॥ सिंहसमाकारौ स्वर्णरत्नविनिर्मितौ । मुक्तकसंयुक्तौ नीलमाणिक्यलम्बनौ ॥ १११० ॥ कञ्चुके कीलितौ कार्यों भुजभूषणको वरौ । नामतो बाहुवलयौ पुंसि यावङ्गदाभिधौ ॥ ११ ॥ काञ्चनीभिः शलाकाभिः सुसूक्ष्माभिर्विनिर्मितौ । मणिबन्धमितार्दूर्ध्वं वलयैर्वर्धितैः क्रमात् ॥ १२ ॥ प्रादेशमात्रकं दैर्ध्य विस्तारे बाहुवेष्टनम् । द्विधा विभज्य कर्तव्यं ग्रथितं कीलकेन तु ॥ १३ ॥
१४
अनेनैव प्रकारेण वज्रमाणिक्यमौक्तिकैः । चूडकं मण्डनं स्त्रीणां प्रकोष्ठस्य विभूषणम् ॥ १४ ॥ अनेनैव प्रकारेण तदर्धेन विनिर्मितम् । अर्धचूडमिति ख्यातं स्त्रीणां प्रियतमं सदा ॥ १५ ॥
चतुरङ्गुलविस्तारं जघनाभोगवेष्टितम् । सौवर्णरत्नरचितं सूत्र ( स ) कैलम्बनयुतम् ॥ १६ ॥
हेमघर्घरघण्टाभिर्निर्मितं स्वसंयुतम् ।
काचीदामेति विख्यातं कटिभूषणमुत्तमम् ॥ १७ ॥
[ अध्यायः ८
१ DF: । २F ना । ३ CFलि । ४ A तासु । ५ A शक । ६D मणिक । ७ एज ।
८ .D म्बि । ९ A ना। १० A पूर्व । ११ A त्रि । १२A द्वि । १३ A च । १४ D न्थि । - १५ A दं । १६ A त ।
Aho! Shrutgyanam
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
हस्तचूडकवज्रस्य जङ्घाकाण्डप्रमाणकौ । नानारत्नैश्च खचितौ विख्यातौ पादचूडकौ ॥ १८ ॥ सुवर्णरचित कार्यों त्रिभागे कृतखण्डनौ । सन्धिदेशे सुष्टि कीलकेन च कीलितौ ।। १९ । चतुरस्रौ स्रौ वा तथाष्टात्रौ च कारयेत् । सौवर्णैर्बुदै रम्यैः पङ्किस्थैर्वा विराजितौ ॥ ११२० ॥ श्लक्ष्णौ वा कान्तिसंयुक्तौ नादवन्तावथापि वा । रत्नैर्वा विविधैर्युक्तौ कटक पादभूषणौ ॥ २१ ॥ त्रिपञ्चाक्लृप्तौ नानारत्नशतैः कृतौ । कीलकाहि (त) संधी तौ पादपादा (ला) वितरितौ ॥ २२ ॥ किङ्किण्यः स्वर्णरचिता गुणगुम्फितविग्रहाः । नादवर्त्यैः सुरम्यास्ताः पादघर्घरिकाभिधाः ॥ २३ ॥ ईदृग्रूरूपसमाकारा नानारत्नैर्विनिर्मिताः । ध्वनिहीनाः सुशोभाढ्याः राढकाः परिकीर्तिताः ॥ २४ ॥ आयताश्च सुवक्राश्च कटकाकारनिर्मिताः । अन्दुका इति विख्याता योषितां पादभूषणम् ॥ २५ ॥ पादतर्जनिमानेन कनत्काञ्चननिर्मिता । स्थूलाच ध्वनिसंयुक्ता यमला मुद्रिका वरा ॥ २६ ॥ शिखरैः शोभितं यत्तु शेखरं तद्विदुर्बुधाः । मुकुलाभं भवेद्यस्तु मुकुलं तत्प्रकीर्तितम् ॥ २७ ॥ केवलं सरकैर्यत्तच्छ्रोिवेष्टनमुच्यते । एवं विरचितं रत्नै राज्ञां मस्तकभूषणम् ॥ २८ ॥ दलकं हेमरचितं व्याघ्रपुच्छं (च्छ) विनिर्मितम् । मुक्तामाणिक्यखचितं पुरुषाणां विभूषणम् ॥ २९ ॥ शुचिना भूषणं धार्यं दिव्यरत्न विनिर्मितम् । -रत्नाधिदेवतास्तुष्टा यच्छन्ति महतीं श्रियम् ।। ११३० ॥
१ A शस्तु । २ F क्रु । ३ F चहि A वहि । ४ DF न्त्यः । ५A च । ६A सै । ७F छ । १३
Aho! Shrutgyanam
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः
यथारुचि यथाशोभं प्रेयस्याश्चित्तसम्मतम् । धत्ते यद्भूषणं राजा भूषाभोगः प्रकीर्तितः ॥ ३१ ॥ भूषाभोगोऽयमाख्यातः सोमेश्वरमहीभुजा ।
इति भूषोपभोगः ॥ ८ ॥ सम्प्रत्यासनभोगश्च कथ्यते राजवल्लभः ॥३२॥ चम्पकाम्रमधूकानां पनसौदुम्बरस्य च । पीठानि सुविशालानि चतुष्पदयुतानि च ॥ ३३ ॥ आयतं चतुरस्रं च काञ्चनेनोपशोभितम् । श्लक्ष्णं मनोहरं पीठं मङ्गलासनमुत्तमम् ॥ ३४ ॥ श्रीपरिचितं रम्यं हस्तमात्रायु(य)तं शुभम् । अरनिविस्तृतं पीठं पवित्रासनमुच्यते ॥ ३५ ॥ शाकदारुमयं भव्यं दृढं श्लक्ष्णं सुविस्तृतम् । चतुःपादयुतं पीठं मज्जनासनमीरितम् ॥ ३६ ॥ इष्टकानिर्मितं पीठं पृष्ठौंधारेण संयुतम् । सुधाकुट्टिमशोभान्यं मजने पीठमीरितम् ॥ ३७ ॥ कार्यसपूरितं वृत्तं छागीपट्टींवगुण्ठितम् । . हंसपिच्छभृतं वापि गदि दि)कारव्यं सुखासनम् ॥ ३८ ॥ छागचर्ममयं रक्तागर्भ सुविस्तृतम् । नानावणेविचित्रं तदासनं पट्टगद्दिका ॥ ३९ ॥ तस्योपरि च विन्यस्तं हंसपिच्छैः सुपूरितम् । सितपट्टेपिनद्धं च श्वेतपच्छदसंयुतम् ॥ ११४० ॥ सङ्गीतकप्रसङ्गे च गजवाजिविनोदने । सर्वदा सुखसंवासे भूशय्यासनमुत्तमम् ॥ ४१ ॥ पञ्चभिः सप्तभिर्वापि नवभिलोहजैः पदैः । लोहपट्टकृताधारैर्लोहजालकमूर्धनि ॥ ४२ ॥
फ । २D विचि । ३ F टि । ४ Dछ । जि । ६ F पादा । ७ D पूर्ण। ८ F सपूर्णि ।
_ ९F1
Aho ! Shrutgyanam
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
INDIAN
विंशतिः
मानसोल्लासः। छटि(दि)कापट्टगर्भस्थं कार्पासेन विमिश्रितम् । लोहासनामिदं प्रोक्तमुपरिष्टात्सुकीलितम् ॥ ४३ ॥ शाकदारुविनिमाणं दन्तिदन्तसुचित्रितम् । नानावर्णशताकारं मृत्वैकफल(पृष्ठैकफल)संयुतम् ॥ ४४ ॥ चतुष्पादकृताधारं सार्धहस्तं सुविस्तृतम् । ईषत्समुन्नतं राज्ञां पृष्ठाधारासनं स्मृतम् ॥ ४५ ॥ रुचिरेण सुवर्णेन निर्मितं तत्र रञ्जितम् । अष्टाभिः स्फाटिकैः सिंहमूर्धभिः सुविधारितम् ॥ ४६ ॥ अधः काञ्चनविन्यस्तरत्नवोदित्रयान्वितम् । आस्थानमण्डनं राज्ञां सिंहासनमिदं परम् ॥ ४७॥ पूतासनं देवकार्ये सुखल्यां(य)मङ्गलासनम् । स्वैरमन्यानि पीठानि सैंहमास्थानमण्डपे ॥ ४८ ॥ एतानि पीठान्यध्यास्ते राजा विभवभूषितः । यदासनोपभोगोऽयमभिज्ञैः परिभाषितः ॥ ४९ ॥ संप(सम्प)त्यासनभोगश्च कथितं(तः) लक्षणान्वितम् (तः) । एवमासनभोगश्च कथितः सोमभूभुजा ॥ ११५० ॥
इत्यासनोपभोगः ॥९॥ चारुचामरभोगोऽयं कथ्यतेऽमरवल्लभः । आस्थानमण्डपे रम्ये "विशाले सुखशीतले ।। ५१ ।। विन्यस्तरत्नशोभाट्ये हेमस्तम्भविभूषिते । चित्रभित्तिमनोरम्ये नानावर्णवितानके ॥ ५२ ॥ सुधाकुटिमके दिव्ये सिंहपीठे भवेन्नृपः । शरच्छशाङ्कसङ्काशैर्यशःपुञ्जनिभैः सितैः ॥ ५३ ॥ मण्डितैमदण्डैश्च रत्नकान्तिविचित्रितैः ।
मयूरपिच्छसम्भूतैश्चमरीपुच्छसम्भवैः ॥ ५४ ॥ १ A लकम् । २ F Omits this line । ३ A D शेषा । ४ D या । ५ A तत् । ६ F
Omits this line |
D नानावर्णवितानके। ८D F वसे ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः ११
चामरैर्हस्तविन्यस्तैर्वीजयन्ति वराङ्गनाः । सहस्राक्षमुखाभासैबर्हिबर्हविनिर्मितः ॥ ५५ ॥ कूर्चकैर्वीजयन्तीह श्यामलाः कुन्तलाङ्गनाः । वालकव्यजनै रम्यैः सौरभ्येण मनोहरैः ॥ ५६ ॥ वीजयन्ति महीपालं कामिन्यः कामदेवताः । चन्द्रमण्डलसङ्काशेर्नानापट्टविनिर्मितैः ॥ ५७॥ वीजयन्ति धरानाथं वीजनैगलोचनाः । तालपत्रसमुद्भूतै रत्नकालंकृतैः शुभैः ॥ ५८ ॥ वीजनैश्चतुरनैश्च वीजयन्ति सुमध्यमाः। शोभार्थ विभवार्थं च स्वेदापनयनाय च ॥ ५९ ॥ चामरैर्वीजनं यत्तु स भोगश्चामराभिधः । एवं चामरभोगोऽयं भाषितः सोमभुमुजा॥ ११६०॥
इति चामरभोगः ॥ १० ॥ अधुनाऽऽस्थानभोगोऽयं कथ्यते जनवल्लभः । चामरैय॑जनैरेवं वीज्यमानो महीपतिः ॥ ६१ ॥ आस्थानमण्डपन्यस्तवरसिंहासनस्थितः । समाहूय प्रतीहारं सर्वानानं समादिशेत् ॥ ६२ ॥ ततो दौवारिकाहूता विशन्ति नृपमन्दिरम् । पट्टीपिनद्धदोलान्तःस्थिताः शुद्धान्तयोषितः ॥ ६३॥ विचित्रछत्रसञ्छन्नछायाश्चामरवीजिताः । सौविदल्लकरच्छन्दवेत्रदण्डनिवारणैः ॥६४ ॥ अपसापसपेंति गच्छ गच्छेति तर्जनैः। सुदूरोत्सारिताशेषमार्गस्थजनवर्जिताः ॥ ६५ ॥ प्रविशेयुपस्थानं सर्वाभरणभूषिताः । नानारत्नमयैर्दिव्यैश्चूडामण्डनदण्डकैः ॥६६॥ A यच्छया । २ F भेण । ३ D हि । ४ D F अभ्र । ५ A चित्र। ६ A रो। ७F डी।
-
--
Aho! Shrutgyanam
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः।
१०१
सीमन्तस्यान्तरे हंसेतिलकेन विराजिताः । मुक्तामरकताकीणैर्नीलमाणिक्यलम्बनैः ॥ ६७ ॥ कर्णावतंसमुकुलैः कुण्डलैर्मणिमण्डितैः। अलकाभरणैः पुष्पैः कनत्काञ्चननिर्मितैः ॥ ६८ ॥ कण्ठभूषणकैर्दिव्यैर्मुक्तामाणिक्यसम्भवैः। पदकैरत्नशोभायैर्दिव्यरत्नयुतैः सरैः ॥ ६९ ॥ हारैर्मुक्तामयैः शुभैः स्तनस्थलविभूषणैः । विचित्ररत्नरचितैरङ्गदैर्वाहुभूषणैः ॥ ११७० ॥ साचिभूषणकैर्दिव्यैश्चडाकैरत्नराजितैः। कटकै रत्नरचितैर्नानारत्नाकुलीयकैः ॥ ७१॥ रत्नकाञ्चीकलापैश्च जङ्घाभूषणचूडकैः । नूपुरैः पादकटकैर्दिव्यरत्नविभूषितैः ॥ ७२ ॥ पार्दै:(दैः)पदकराजीभिः किङ्किणीजालकैरपि । अभिशाखाविभूषाभिः कणन्तीभिः पदे पदे ॥ ७३ ॥ मुद्रिकाभिर्विचित्राभिर्भूषिता नृपयोषितः। दिव्यवस्त्रपरीधानाः पदकञ्चुकशोभिताः ॥ ७४ ॥ सौमकासकैर्युक्ता गन्धमाल्यविभूषिताः। श्रीखण्डक्षोदशुभ्राङ्गन्यः कुङ्कुमद्रवरञ्जिताः ॥ ७५ ॥ सान्द्रकस्तूरिकापत्रवल्लीभिः समलङ्कृताः । तिलकैर्विविधैर्भव्यैर्नानावणैमनोहरैः ॥ ७६ ॥ मनोरमारमण्यस्तास्तरुण्यः सुखभूमयः । यथायोग्यं यथास्थानं यथाप्रेम यथासनम् ॥ ७७ ॥ समन्तान्नृपमावेक्ष्य निविष्टाः पर्युपासते । काश्चित्तुरङ्गमारूढाः काश्चिदश्वतरीस्थिताः ॥ ७८ ॥
१F स। २ A हन्त । ३ A णे, गै? । ४ A णैर्मुख्यै । ५A ध्वी F वि । ६ A र । ७ CF दे । 4D कागल । ९D युक्तैः । १० A मं ।
Aho! Shrutgyanam
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAAA
VIN
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः ११ काश्चिचरणसञ्चारावालयन्त्यो मनो नृणाम् । काश्चित्कनकभूषाढ्याः काश्चिद्रत्नविभूषिताः ॥ ७९ ॥ काश्चिन्मुक्तामयैहारैर्मण्डितस्तनमण्डलाः । काश्चिच्छवमयैःश्लक्ष्णैर्नानारूपविनिर्मितैः ॥ ११८० ॥ मणिभिर्भूषिताः काश्चिन्नयनानन्दचन्द्रिकाः । काश्चित्सुरक्तवस्त्रैश्च रञ्जयन्त्यो मनो नृणाम् ॥ ८१ ॥ हरितैर्वसनैः काश्चिद्धरन्त्यो हृदयं नृणाम् । नीलाम्बरधरैः काश्चिनिगिरन्त्यो दृशो नृणाम् ॥ ८२ ॥ मल्लिकामालिकाः काश्चित्काश्चिच्चम्पकमालिकाः । मालतीमालिकाः काश्चित्काश्चिदुत्पलमालिकाः ॥ ८३ ॥ काश्चिदुत्पलमालाभिर्भूषिताश्चोत्पलेक्षणाः । काश्चित्सुरभिमालाभिजिता भ्रमराकुलाः ॥ ८४ ॥ काश्चित्कुण्ड(न्त)लकामिन्यः कुटिलीकृतकुण्ड(त)लाः । काश्चिद्रविडकामिन्यः प्रकाशितपयोधराः ॥ ८५॥ काश्चिल्ललाटलटभाः सिन्दूरारुणमस्तकाः । महाराष्ट्रस्त्रियः काश्चिल्लम्बकोपक(ल)भूषिताः ॥ ८६ ॥ आन्ध्रनार्यो वराः काश्चिदपसव्योत्तरीयकाः । गुर्जयों वनिताः काश्चिदापाणिकृतकञ्चुकाः ॥ ८७ ॥ अम्भोजलेपनाः काश्चित्काश्चिच्चन्द्रसमाननाः । काश्चित्प्रहासवदनाः काश्चिद्रम्यमुखश्रियः ॥ ८८ ॥ सुनीलमूर्धजाः काश्चित्काश्चिञ्चन्द्रार्धभालिकाः । सुशोभश्रवणाः काश्चित्काश्चित्स्वच्छकपोलकाः ॥ ८९ ।। भ्रूभङ्गविभ्रमाः काश्चित्काश्चिद्दीर्घविलोचनाः । रम्यनासापुटाः काश्चित्काश्चिद्दाडिमदन्तिकाः ॥ ११९० ॥
१D चाराश्च । २ F च सं । ३ D द्वर्णक ! ४ A कुण्डली D कटिसूत्रविराजिताः । ५ D नय । ६ A मसा । Fटीः।
Aho ! Shrutgyanam
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशतिः १]
मानसोल्लासः ।
पकविम्बाधराः काश्चित्काचित्कम्बुशिरोधराः । वृत्तबाहुलताः काश्चित्काचित्कोमलपाणयः ।। ९१ ॥ केतकीनखराः काश्चित्काश्चित्पीनपयोधराः । कृशोदर्यस्तथा काश्रित्काचित्स्थूलनितम्बकाः || ९२ ॥ रम्भोरुयुगला काश्रित्काचिज्जङ्घामनोहराः । मृदुपादतलाः काश्चित्काश्चिच्चञ्चन्नखत्विषः ॥ ९३ ॥ खड्गश्यामाङ्गनाः काश्चित्काञ्चित्स्वर्णसमप्रभाः । वंशश्यामाः स्त्रियः काश्चित्काचिच्चम्पक सत्विषः ॥ ९४ ॥ यूनां हृदयहारिण्यो गौरश्यामाच काचन । चित्तवृत्तिहरा नृणां कडुश्यामाश्च काश्चन ।। ९५ ।। काश्चिदुत्पलवर्णेन समत्वेनाभिवर्णिताः । काश्चिद्भमरपक्षाभाः स्निग्धकान्तिमनोहराः ॥ ९६ ॥
काश्चिन्मरालगामिन्यः काश्चिन्मृगविलोचनाः । कलकण्ठरवौः काश्चित्काश्चित्सर्वगुणान्विताः ॥ ९७ ॥ अबला योषितः काश्चित् काचिन्मुग्धा वरस्त्रियः । मध्ये मनोहराः काश्चित्काचित्प्रौढविचक्षणाः ॥ ९८ ॥ आस्थान भूषणाः सर्वाः समागत्य नृपालयम् । प्रवेश्योभयपार्श्वे च पृष्ठभागे च संस्थिताः ।। ९९ ।।
उपान्तभ्रमराक्रान्तकेतकीपत्रसन्निभैः । कटाक्षैर्वीक्ष्य राजानं हर्षयन्तिं मुहुर्मुहुः || १२०० ॥
कान्तदन्तविनिर्मुक्तचन्द्रिकामृतनिर्भ (झ) रैः । सिञ्चन्त्य इव भूपालं हसितेन वराङ्गनाः || १ ॥
प्रतिरूपगुणाकारैरलङ्कारैरलङ्कृताः । कुमारा विनयोपेताः प्रणम्य जनकं नृपम् || २ | आसने च यथोद्दिष्टे' यथाहं पृथिवीभुज । उपविष्टाः पुरोभागे नातिदूरे मनस्विनः || ३ ||
१०३
१ F स । २ A क । ३ A ताः । ४ A काश्चित् । ५A न्ती । ६ F न्ति । ७ A वन्नु। ८ D नं। SD । १० A जाम् ।
Aho! Shrutgyanam
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
૦૬
मानसोल्लासः ।
पुरोधाः शुभ्रवसनो रत्नकुण्डलमण्डितः । कुमाराभ्यास (श) देशे च निवसेत शुभासने ॥ ४ ॥
अमात्यमन्त्रिसचिव द्वितीयाङ्गवि (नि) योजिताः । निविशेयुर्यथास्थानं नृपादिष्टासने क्रमात् ॥ ५ ॥ मण्डलाधीश्वराः शूराः सामन्तामात्यका अपि । वामदक्षिणर्पेङ्किस्थाः पुरोभागे महीभुजः || ६ || संविशेयुर्यथास्थानमासनेषु नृपाज्ञया । देशाधिकारिणः केचित्केचिद्रामाधिकारिणः ॥ ७॥ धर्माधिकारिणः केचित्केचिदर्थाधिकारिणः । कमाधिकारिणः केचित्केचित्कोशाधिकारिणः ॥ ८ ॥ बलाधिकारिणः केचित्केचिदुर्गाधिकारिणः । त्राधिकारिणः केचित्केचिद्भूषाधिकारिणः ॥ ९ ॥
निष्काधिकारिणः केचित्केचिद्वर्णाधिकारिणः । तुलाधिकारिणः केचित्केचिन्मुद्राधिकारिणः ॥ १२१० ॥
मूल्याधिकारिणः केचित्केचिदर्घाधिकारिणः । दूताधिकारिणः केचित्केचिद्दुष्टाधिकारिणः ।। ११ ।।
तीर्थाधिकारिणः केचित्केचिन्नावाधिकारिणः । मार्गाधिकारिणः केचित्केचिद्दाराधिकारिणः ॥ १२ ॥
भाराधिकारिणः केचित्केचिद्वीपाधिकारिणः। द्वास्थाधिकारिणः केचित्केचिन्मल्लाधिकारिणः ॥ १३ ॥
अङ्गाधिकारिणः केचित्केचिद्योधाधिकारिणः । देवाधिकारिणः केचित्केचिच्छास्त्राधिकारिणः ॥ १४ ॥
दानाधिकारिणः केचित्केचिद्दण्डाधिकारिणः । गजाधिकारिणः केचित्केचिदश्वाधिकारिणः ॥ १५ ॥
[ अध्यायः ११
१ D बान् । २ F तान् । ३ CF मा । ४ D मध्य । ५ ACF द्वर्णा । F omits these
two lines । ७ D कु । CD add these two lines.
Aho! Shrutgyanam
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः।
१०५
रथाधिकारिणः केचित्कचित्माणाधिकारिणः । शस्त्राधिकारिणः केचित्केचिच्चापाधिकारिणः ॥ १६ ॥ मृगाधिकारिणः केचित्केचित्पक्षाधिकारिणः । स्नानाधिकारिणः केचित्केचित्सुदाधिकारिणः ॥ १७ ॥ तोयाधिकारिणः केचित्केचिच्छत्राधिकारिणः । दीपाधिकारिणः केचित्केचित्तैलाधिकारिणः ॥ १८॥ गवाधिकारिणः केचित्केचिद्धासाधिकारिणः । क्षीराधिकारिणः केचित्केचित्कर्माधिकारिणः ॥ १९ ॥ शय्याधिकारिणः केचित्केचित्कान्ताधिकारिणः । पुत्राधिकारिणः केचित्केचिद्विद्याधिकारिणः ॥ १२२० ॥ वाद्याधिकारिणः केचित्केचिद्याधिकारिणः । नृत्ताधिकारिणः केचित्केचिच्चित्राधिकारिणः ॥ २१ ॥ पर्णाधिकारिणः केचित्केचित्खन्यधिकारिणः । शुल्काधिकारिणः केचित्कंचिद्धान्याधिकारिणः ॥ २२ ॥ सुधाधिकारिणः केचित्केचिद्वस्त्राधिकारिणः । अश्माधिकारिणः केचित्केचिन्मुद्राधिकारिणः ॥ २३ ॥ पटीपट्टाङ्गिकाश्चित्रा दीर्घबाहुविनिर्मिताः। धारयन्तः सुखोष्णीषं हेमाभरणभूषिताः ॥ २४ ॥ निविशेयुर्यथास्थानं भक्तिनम्रा नृपेश्वरे । कृताञ्जलिपुटाः सर्वे मुखालोकनतत्पराः ॥ २५ ॥ ताम्बूलधारिणो भक्ता विश्वस्ताः खड्गधारिणः । राज्ञः समीपे तिष्ठेयुः सावधाना जितेन्द्रियाः ॥ २६ ॥ कवयो गणकाश्चैव वादिनो वाग्मिनस्तथा । पाउँकाः कथका भट्टाः सूतमागधबन्दिनः ॥ २७ ॥ वाग्गेयकाराश्चतुरा गाथ(य)का वांशिका अपि । वैणिका वाधकाराश्च नतेकाश्चारणा नटाः ॥ २८॥
१A स्वन्या । २Fङ्ग। ३D चतुराः । ४ A काश्च च । १४
Aho ! Shrutgyanam
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः ११ वैतालिकाश्चाटुकाराः प्रहासचतुर्रा नराः। अङ्कमल्लोश्च योधाश्च तथान्ये विविधा नराः ॥ २९ ॥ विचित्रवस्त्रैः सौवर्णैर्भूषणैर्भूषिता नराः । दिव्यपट्टांशुकोष्णीषभ्रांजिता भव्यमूर्तयः ॥ १२३० ।। शौर्योदायैस्तथा युक्ता नृपचित्तानुरझंकाः । वारं वारं समन्तात्ते जय जीवेतिवादिनः ॥ ३१ ॥ उपासीरन्नृपश्रेष्ठं सेवाधर्मविशारदाः। तचित्तवेदिनः सर्वे विनयानतमस्तकाः ।। ३२ ॥ आस्थानमण्डपान्तस्थैः सर्वैः सेवागतैर्नृपम् । वीक्ष्यमाणैनरैभव्य(व्यं) नव(वं)चन्द्रमिवोदितम् ॥ ३३ ॥ नानादेशाधिपान्भूपान्स्वात्मरक्षार्थमागतान् । प्रवेशय प्रतीहारेत्यादिशेत्पृथिवीपतिः ॥ ३४ ॥ प्रवेशितान् प्रतीहारैः प्रणतान् दण्डवद्भुवि । सप्रसादमिति ब्रूयादुत्तिष्ठत निषीदत ॥ ३५ ॥ नृपाणामासनं योग्यं दापयेन्मानपूर्वकम् । आसनेषूपविष्टानां दृष्टया सन्तोषमावहेत् ।। ३६ ॥ वचनेन महाप्रीतिं जनयित्वा गंतलमान् । दिव्यैर्वस्त्रैः पटीपट्टैविचित्रैः स्वर्णभूषणैः ॥ ३७ ।। सुरत्नाभरणैर्भव्यैर्वाजिभिवरवारणैः । ग्रामैः पुरैस्तथा देशैस्तोषयेत्पार्थिवान्नृपः ॥ ३८ ॥ विसर्जयेच्च तान सर्वान्बहुमानपुरःसरम्।। आवासेषु सुरम्येषु स्थापयेत्पृथिवीपतिः ॥ ३९ ॥ कांश्चित्मसन्नया दृष्टया कांश्चिन्मधुरभाषितैः । कांश्चित्पभूतदानेन कांश्चिन्मानेने हर्षयेत् ।। १२४० ॥
१D राननाः । २ Fल्लीव। ३CFषणा। ४ Aव । ५CF वस्त्रां।६DAF रञ्जिताः। ८ A प्रा । ९D जि। १० A ग । ११ F येन।
Aho ! Shrutgyanam
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
१०७
कुमारान्मन्त्रिणोऽमात्यान्सचिवान्मण्डलाधिपान् । सुभटान्सेवकान्दक्षान्सर्वानप्यधिकारिणः ॥ ४१ ॥ विद्याप्रसादपात्राणि हास्यपात्राणि कानि च । तोषयित्वा यथायोग्यं सर्वास्तानिजमन्दिरम् ॥ ४२ ॥ पुरन्दरनिभो राजा प्रविशेत्केलिकेतनम् । क्रीडते स्त्रीजनैः सार्धं तोषयेत्ताश्च पूर्ववत् ॥ ४३ ॥ करोत्यास्थानमित्थं यः पार्थिवः प्रथितोन्नतिः । आस्थानभोग इत्येष कथितः सोमभूभुजा ॥ ४४ ॥
इत्यास्थानभोगः ॥ १० ॥ पुत्राणामुपभोगोऽयं सद्यः संपरिकीर्त्यते । ऋतुकालमनुल्लङ्घय पुत्रार्थी सङ्गमाचरेत् ॥ ४५ ॥ सवर्णासु विशेषेण सतां धर्ममनुस्मरन् । रजोदिनात्समारभ्य यावत्षोडशवासरान् ॥ ४६॥ ऋतुस्तावद्भवेत्स्त्रीणां प्रजापतिविनिर्मितः । तिथिं द्वितीयां यत्नेन चतुर्थी च विवर्जयेत् ॥ ४७॥ पुष्टा भार्यानुयात्कन्यां तस्मात्कुर्वीत तां कृशाम् । रक्ताधिक्याद्भवेत्कन्या शुक्राधिक्ये भवेत्सुतः॥४८॥ तस्माच्छुक्रविशुद्धयर्थं वृष्यं भुञ्जीत भोजनम् । जाते गर्भे भवेत्स्त्रीणां पाण्डुरं गण्डमण्डलम् ॥ ४९ ॥ कुचयोश्चचुकं कृष्णं जठरं किञ्चिदुन्नतम् । तृतीये मासि सम्प्राप्ते कुर्यात्पुंसवनं नृपः ॥ १२५० ॥ श्रवणे मृगशीर्षे च हस्ते पुष्ये पुनर्वसौ । मूले पुंसंज्ञिते धिष्ण्ये वारे(िकर्काडा)रबृहस्पतेः ।। ५१ ॥ माषद्वितयमध्यस्थं यवं घृतसमन्वितम् । प्राशयेन्नृपतिः पत्नी वेदमन्त्रमुदीरयेत् ॥ ५२ ॥
१ A स । २ A क्ला।
Aho! Shrutgyanam
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १२
एतत्पुंसवनं ख्यातं गर्भस्थः पुरुषो भवेत् । अष्टमे मासि षष्ठे वा धिष्ण्यैः पुन्नामभिर्नृपः ॥ ५३॥ सीमन्तोन्नयनं कुर्यादष्टमङ्गलसंज्ञितम् । उदुम्बरफलैः क्लुप्तं कुर्यात्कण्ठविभूषणम् ॥ ५४॥ शललीपुच्छसम्भूतकण्टकाग्रेण मूर्धनि । सीमन्तोन्नयनं कुर्याद्भार्यायाः पृथिवीपतिः ॥ ५५॥ वैणिकैर्वादयद्भिश्च सोमराग(ग)मनोहरम् । उच्चारयेत्सुविप्रेषु साममन्त्रान्शुभाक्षरान् ॥ ५६ ॥ पटहादिभिरन्यैश्च तूर्यपञ्चमहास्वनैः। अष्टमङ्गलनामानं कुर्यादुत्सवमूर्जितम् ॥ ५७ ॥ तोषयेद्विजमुख्यांश्च गोभूस्वर्णाम्बरादिभिः । सम्पूर्णे नवमे मासि जाते पुत्रे मनोहरे ॥ ५८ ॥ जातकर्म प्रकुर्वीत स्वगृह्योक्तेन कर्मणा । सौवर्णमुद्रिकालिप्ते प्राशयेन्मधुसार्पिषी ॥ ५९॥ बालकं च ततो मातुः पाययेच्च पयोधरम् । तत्राभ्युदयिकं श्राद्धं हेम्ना कुर्वीत भूपतिः ॥ १२६० ।। प्रातःसन्ध्यासु सायाह्ने रात्रावपि शुभावहम् । दिवसाद्वादशादूर्ध्वमुत्तरात्रितये मृगे ।। ६१ ॥ चित्रानुराधाहस्तेषु श्रवणादित्रयेऽपि च । अश्विन्यां रोहिणीस्वात्यो रेवत्यां पुष्यमूलयोः ॥ ६२ ॥ शुभे वारे तिथौ लग्ने पुत्रराश्यनुरूपतः । विख्यातं राजवंश्यानां नाम कुर्यान्महीपतिः ॥ ६३ ॥ सिंह मल्लं तथा बाहुं पालं वर्म पराक्रमम् । सेनं चन्द्रं तथा दिव्यसत्त्वं केसरिणं रथम् ॥ ६४ ॥ अनीकं च पदं प्रान्ते कुर्यान्नाम्नो यथारुचि । षष्ठे मासि शिशोः कार्यमनप्राशनमुत्तमम् ॥ ६५ ॥
TA स्थं । २F प्रतुवति । ३ A त्वके । ४ F D तथा। ५D दप्रा । ६ Dमय ।
Aho! Shrutgyanam
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः।
रेवतीरोहिणीहस्तपुष्यश्रवणयुग्मकैः । उत्तरात्रितयेनापि वारे चेन्दोवृहस्पतेः ॥ ६६ ॥ बुधभार्गवयोश्चैव शस्ते लग्ने शुभे तिथौ । बालकानां स्वकीयानामव्यक्तं शृणुयाद्वचः ॥ ६७ ॥ अर्धार्धभाषितं तेषां गालिदानं मनोहरम् । जानुच मणं पश्येत्स्वलितं च पदक्रमम् ॥ ६८ ॥ मातृहस्तावलम्बेन ललितं गमनं शनैः । फलप्रदर्शनाद्वालमानीतं मातुरन्तः ॥ ६९ ॥ अङ्कमारोपयेद्धालमुरस्कन्धतलं तथा । रक्षामन्त्राक्षरैः पत्रैर्लाक्षया परिवेष्टितैः ॥ १२७० ॥ शार्दूलनखसंयुक्त प्रवालाङ्कुरशोभितम् । कपदकेन चित्रेण शङ्खन च विराजितम् ॥ ७१॥ अजरामरसम्मिश्रं बिभ्राणं कण्ठमूत्रकम् । पञ्चलोहसुकृप्तैश्च वलयभूषिताशिकम् ॥ ७२ ॥ पादयोः कटिदेशे च हेमघर्घरिकायुतम् । स्वर्णकुण्डलिकाः प्रान्त(कापोत) कर्णपालीविराजितम् ॥ ७३ ॥ अश्वत्थपत्रसङ्काशं(श) मूर्धभूषाङ्कितालकम् । मातरं पितरं दृष्ट्वा धावमानमितस्ततः ।। ७४ ॥ कुमारं सुकुमाराङ्गमालिङ्गेन्दवनीपतिः । कणे कू. च कर्षन्तं त(वर्षन्तं हर्षमात्मनि ॥ ७५ ॥ चुम्बन्तं वदनं भूपः परिष्वज्य सुखीभवेत् । योगीन्द्रमिव सानन्दं दिग्वस्त्रमपरिग्रहम् ॥ ७६ ॥ जटिलं भूतिभूषाढ्यं गङ्गाधरमिवात्मजम् । विष्णुरुद्रसमाभासं नरकत्राणकारणंम् ॥ ७७ ॥ पुत्रं गात्रात्समुत्पन्नमीक्षन्ते पुण्यभागिनः ।
एकद्विवत्सरस्यान्ते कारयेत्कर्णवेधनम् ॥ ७८ ॥ १D श्र । २ D णौँ । ३ D ,ौँ । ४ D कर्षतं । ५ A सेनं । ६ A कट । ७ A क। .
.
Aho ! Shrutgyanam
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
अध्यायः १२
पुनर्वसधनिष्ठायां रेवत्यां श्रवणे मृगे । उत्तरात्रितये हस्ते चित्रायां मैत्रपुष्ययोः ॥ ७९ ॥ अश्विन्यां शोभने वारे तिथौ लग्ने च शोभने । वत्सरद्वितयादूज़ चूडा कार्या यथाकुलम् ॥ १२८० ॥ अश्विनीरेवतीमूलज्येष्ठासु श्रवणत्रये । हस्तत्रये च पुष्ये च तथैवादितिदैवते ॥ ८१ ॥ शस्ते वारे शभे लग्ने तिथौ च शुभशंसिनि । अन्नप्राशनधिष्ण्येषु ध्रुवनक्षत्रवर्जिते ॥ ८२ ॥ भौमे सौम्ये गुरौ शुक्रे कुर्यान्मञ्जिीनिबन्धनम् । वर्षे गर्भाष्टमे वापि गर्भकादशकेऽपि वा ॥ ८३ ।। व्रतबन्धं प्रकुर्वीत क्षत्रियस्य यथोचितम् । आर्द्रायां श्रवणे स्वात्यां चित्रायां हस्तमूलयोः ॥ ८४ ॥ पूर्वात्रये च रेवत्यामाश्लेषायां पुनर्वसौ । मृगशीर्षे धनिष्ठायामश्विन पुष्ययोरपि ॥ ८५ ॥ वारे बुधे गुरौ शुक्रे विद्यारम्भं च कारयेत् । वेदमध्यापयेत्पुत्र(त्रान्) शस्त्रविद्यां च शिक्षयेत् ।। ८६ ॥ गजाश्वरोहणे तज्ज(ज्ज्ञान् ) रथयाने विशारदम् (दान् )। शस्त्रशास्त्रकृताभ्यासान् गजारोहे सुशिक्षितान् ॥ ८७ ॥ अश्ववाहसुनिष्णातान्सद्विद्यैस्तान्परीक्षयेत् । एकैकं क्रमशः पुत्रं परीक्षेत विचक्षणः ॥ ८८ ॥ पाटवं च बलं प्रज्ञा कलाकौशलमेव च । श्रुतौ तर्के तथा धर्मे काव्ये व्याकरणेऽपि च ॥ ८९ ॥ धनुर्वेदे भूमिबले स्वरशास्त्रे कलास्वपि । दृढघाते दूरपाते लघुसन्धानमोक्षणे ॥ १२९०॥
१F omits these two linse । २ A सौ । ३ D मि । ४ A णा । ५ A त्रान् । ६ D शा। ७ A ज्ञान । ८D न। ९ A दान् ? । १० D प्रवीणान् सर्वकर्मसु । ११ A बाहु ।
Aho! Shrutgyanam
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
१११
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। विचित्रव्यधने लक्ष्ये चापविद्यां परीक्षयेत् । दूरे दृढं चले लक्ष्यं लाघवं बाणमोक्षणे ॥९१ ॥ विद्योत्कर्ष परीक्षेत बल(लं)कोदण्डकर्षणे । गात्रेषु सौष्ठवं पादसञ्चारे लाघवं तथा ॥ ९२ ॥ हस्ते निष्ठुरतां दृष्टौ शौर्य स्थैर्यं च चेतसि । वितस्तित्रिचतुःपञ्चभेदाः ख्याताऽसिधेनुषु ॥९३ ॥ खङ्गं कुन्तं गदां शक्तिं चक्रं शूलपरश्वधे । परप्रयुक्तघातेषु वञ्चनात्मौदिरिष्यते ॥ ९४ ॥ क्षुरिकायां तथा लघ्व्यों बन्धचातुर्यमीक्षते । परस्य बाहुसंरोधौ (धो) वीक्ष्यन्ते (ते) पाणिपाद(त)तः ॥९५ ॥ एवमस्त्रप्रकर्ष तु कुमाराणां मनस्विनाम् । कृतास्त्राणां परीक्षेत तज्ज्ञैः सह महीपतिः ॥ ९६ ॥ गजाचारोहणे तेषां प्राविण्यं पृथिवीश्वरः । कुमाराणां परीक्षेत लक्ष्यलक्षणकोविदः॥९७ ॥ तेषामुत्कर्षमन्विच्छेत्स्वस्मादप्यवनीपतिः । गुणाधिकतराः पुत्राः प्राप्यन्ते सुकृताधिकैः ॥९८॥ विनीताः श्रुतसम्पन्नाः शास्त्रेषु च कृतश्रमाः। गजाश्वारोहणे दक्षा लभ्यन्ते सुकृतैः सुताः ॥ ९९ ॥ धर्मज्ञाः शुचयो धीराः पितृशुश्रूषणे रताः। रूपौदार्यगुणोपेता दृश्यन्ते सुकृतैः सुताः ॥ १३०० ॥ एवं गुणाधिकान् पुत्रान् दृष्टा रोमाञ्चकञ्चुकः। आलिङ्गन्य मूर्युपाघ्राय चाशीर्भिरभिनन्दयेत् ॥ १॥ पुत्राणां दर्शनं चन्द्रदर्शनादपि सौख्यदम् । पुत्रगात्रपरिष्वङ्गश्चन्दनादपि शीतलः ॥२॥
D दं । २ D ढमी। ३ A ध्यां । ४ Dश्व । ५ Fणै। ६ D लक्षणं लक्ष्य । ७ Dश्व ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १२
इति ब्रुवन् महीपालो वाग्भिरानन्ध पुत्रकान् । गजाश्वरत्नभूषाभिस्तोषयित्वा सुखी भवेत् ॥ ३ ॥ उपाध्यायेषु सर्वेषु ग्रामपट्टनखेटकम् । वस्त्राणि काञ्चनं भूमिं मानपूर्वकमर्पयेत् ॥ ४ ॥ सम्पाप्तयौवनान्पुत्रान्कृतगोदानमङ्गलान् । समावर्तनसम्पन्नान्कामभोगसुखोचितान् ॥ ५ ॥ रूपलावण्यवर्णाढ्या लक्षणैः समलङ्कृताः । महाकुलसमुत्पन्नाः समजातिनिरूपिताः ॥ ६ ॥ विवाहविधिना राजा रत्नभूषणभूषितान् । कुमारान्प्रापयेत्कन्यां (न्या) धर्मार्थ सुखमन्दिरम् ॥ ७ ॥ पापा(पा)स्त्रिषष्ठलाभस्था(स्था)स्त्यक्त्वाँ मङ्गलमष्टमम् । शुक्लपक्षे तिथौ शस्ते शोभनर्ग्रहवासरे ॥ ८॥ कुर्याद्विवाहं भूपालः पुत्रस्यामित्रकर्शिनः। शोभने सुविशाले च मध्यवेदीविराजिते ॥ ९॥ पटीपट्टवितानेन स्तम्भैः पट्टीवगुण्ठितः । तोरणालङ्कृतद्वारे गोमयालिप्तभूमिके ॥ १३१० ॥ पुष्पप्रकरशोभाढ्ये मण्डपे सुमनोहरे । कृत्वा नान्दीमुखं श्राद्धं संपूज्य कुलदेवताः ॥ ११ पुण्याहवाचनं कृत्वा मुहूर्ते गणकोदिते । मधुपर्केण सम्मान्यं सितवस्त्रैविभूषितम् ॥ १२॥ मुद्रिकालङ्कृतं पुत्रं वेदीमारोपयेच्छनैः । तण्डुलैः कारयेत्पुञ्जौ पूर्वापरसमास्थितौ ॥ १३ ॥ सितं दुकूलं तन्मध्ये कल्पयेद्यवधायकम् । पुत्रं प्राचीमुखं कृत्वा तण्डुलोपरिवर्तिनम् ॥ १४ ॥
१Dढ्य ल। २ D तान् । ३ D नान् । ४ D तान् । ५ F स्वामि । ६ CA नेप्र।९र्षणः । १. Fदा । ११ Dम।
रे। ७ A क्त ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
पश्चिमाशामुखीं कन्यां पुञ्जस्योपरिवर्तिनीम् । उभाभ्यां करयोर्दत्वा तण्डुलान् जीरकादिकान् ॥ १५ ॥
जाते लग्ने तु मध्यस्थं पटमुत्सारयेत्ततः । हस्तस्थांस्तण्डुलान्कन्याकुमारौ क्षिपतौ मिथः ॥ १६ ॥
परस्परमुखाम्भोजविनिवेशितलोचनौ । कन्याया दक्षिणं पाणि कुमारकरमध्यगम् ॥ १७ ॥ कृत्वा कन्यापिता कन्यां धारापूर्वं समर्पयेत् । कुमारं च तथा कन्यां वेष्टयेत् पञ्चतन्तुभिः ॥ १८ ॥ प्रादक्षिण्यात्पञ्चवारान् कृतं सूत्रं समाचरेत् । निष्कासितं प्रयत्नेन उभाभ्यां पादयोरधः ॥ १९ ॥
कुङ्कुमेन समालिप्य कङ्कणं तद्विधीयते । अनेनैव प्रकारेण कन्यायाः कङ्कणं न्यसेत् ।। १३२० ॥
ततो होमं प्रकुर्वीत यथोक्तविधिना द्विजः । कनिष्ठामङ्गुलीं धृत्वा पत्युः पत्नी व्रजेदनु ॥ २१ ॥
प्रदक्षिणक्रमेणैव कृते होमे यथाविधि । वारत्रयं भ्रमित्वा तु सप्ततण्डुलर्पुञ्जकान् ॥ २२ ॥
आक्रमेत्पदविन्यासैस्ततः पट्टासने विशेत् । वा पार्श्वे विधातव्या पत्युः पत्नी शुभानना ॥ २३ ॥ ततो वस्त्राणि रम्याणि रत्नानि भूषणानि च । गजाश्वमहिषीर्गाश्च दासीदासान्धनं बहु ॥ २४ ॥ दद्यात्पुत्राय तत्पत्न्यै विवाहोत्सवमङ्गले । विप्रांश्च तोषयेत्तत्र वस्त्रकाञ्चनभूषणैः ॥ २५ ॥
यथार्ह तोषयेदन्यान्वस्त्रैः स्वर्णैश्च भूषणैः । वादित्राणां महानादैः शोभनैः शङ्खनिःस्वनैः ॥ २६ ॥
i
१ A पक्षवारान्कृत । २ A ले । ३ - D कुं । ४ A पूँज । ५ का ६Aरत्नानि कामन । A
१५
Aho! Shrutgyanam
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
事急部
मानसोल्लासः ।
गीतैर्मङ्गलवाक्यैश्च वेदमन्त्रैः शुभार्थकैः ।
बेन्दिभिः पठ्यमानैश्च जयमाला शुभाक्षरैः ॥ २७ ॥
पूरयेद्वयोम सर्वत्र दिशश्च विदिशस्तथा । तोषयेदन्नपानैश्च ताम्बूलैरितरान् जनान् ॥ २८ ॥
हर्षयेदासवैर्मद्यैः कान्तावृन्दं मनोहरम् | गोकुलं घासदानैश्च परितोषं नयेन्नृपः ॥ २९ ॥
एवं निरन्तरं कार्य विवाहेऽह्नां चतुष्टयम् । चतुर्थे वासरे, रात्रौ कुर्याच्छृङ्गारमूर्जितम् ।। १३३० ॥ वरवध्वोर्यथाशोभं लोकलोचनहारकम् । आहूय करिणां वृन्दं घण्टा निनादितम् ॥ ३१ ॥
कर्णचामर शोभाढ्यं सिन्दूरारुणमस्तकम् । पुष्पकैः शोभितं दान्तं महामालाभियोजितम् ॥ ३२ ॥
आरोहार्थ कुमारस्य तत्सेवकजनस्य च । उद्दीप्य हस्तदीपांश्च शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ३३ ॥
तारा लोकमिवातन्वन् मेदिन्यां मेदिनीपतिः । कुमारं कृतशृङ्गारं तद्वधुं कृतमण्डनाम् ॥ ३४ ॥ आरोप्य करिणीं यत्नान्मुक्ती पुष्पकधारिणीम् । आरोपयेदेशैवेश्याः कान्तादृन्दमनिन्दितम् ॥ ३५ ॥
इन्दुवक्त्र सलावण्यमिन्दीवरदलेक्षणम् । ततः पञ्चमहाशब्दैर्वाद्यमानैर्व्रजेद्वरः ॥ ३६ ॥ पुरवीभ्यां पुरन्ध्रीभिः पूजितः पुरवासिनाम् ।
यात्रां विनिर्वर्त्य सम्रागत्य नृपालयम् ॥ ३७ ॥
अवतीर्य वशा पृष्ठात्मणमेज्जनकं निजम् । एवं विवाहिताः पुत्राः रमन्ते रमणीयुताः ॥ ३८ ॥
AA 143 Fत । ३ A त्र ।
Aho! Shrutgyanam
[ अध्यायः १९
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
लभन्ते च प्रजाः श्रेष्ठा रूपशीलगुणान्विताः ।
तेषां पुत्रांश्च कन्याश्च स्वाङ्कमारोप्य लालयन् ॥ ३९ ॥
निर्भरानन्दसन्दोहः पुत्रभोगमवाप्नुयात् । एवं शिशूंल्लालयित्वा शिक्षयित्वा विवाह्य च ।। १३४० ॥
तत्प्रजाः पालयेद्यत्तु पुत्रभोगः प्रकीर्तितः । कथितः पुत्रभोगोऽयं सोमेश्वरमहीभुजा ॥ ४१ ॥ इति पुत्रभोगः ॥ १२ ॥
अन्नभोगोऽयमधुना द्वयोरन्यो निगद्यते । बान्धवान्मण्डपाधीशान्सामन्तान् मान्यकान् भटान् ॥ ४२ ॥
आश्रितान् सुहृदो भृत्यान् गीतवाद्यविशारदान् । आहूय स्वोचिते स्थाने निर्वि (वे ) श्याग्रे तु भोजयेत् ॥ ४३ ॥
पुत्रैः पौत्रैः प्रपौत्रैव सह भुञ्जीत पार्थिवः । भोज्यं भक्ष्यं तथा पेयं लेां चोष्यं तथैव च ॥ ४४ ॥ इति पञ्चविधं हृद्यं पथ्यं भुञ्जीत भूपतिः । रक्तशालिर्महाशालिर्गन्धशालिः कलिङ्गकः ।। ४५ ।। मैण्डशालिः स्थूलशालिः सूक्ष्मशालिः सषष्ठिकः । रक्तत्वय (त्वाद्र)क्तशालिः स्यान्महाशालिर्महाकृतिः ॥ ४६ ॥
ivi
सुगन्धिर्गन्धशालिः स्यात्कलिङ्गोत्थः कलिङ्गकः । शुकशून्यो मुण्डशालिः स्थूलशालिस्तदाकृतिः ॥ ४७ ॥ सौक्ष्म्यात्तु सूक्ष्मशालिः स्याद्विमासः षष्ठिकः स्मृतः । एतान् शालीन् पृथक् सर्वान्मुसलैर्विदुषीकृतान् ॥ ४८ ॥
निक्षिप्य तण्डुलान् पट्टे विसृजेत्कणकांस्ततः । पाषाणमृत्तिकाशाली तृणपर्णं तुषं तथा ॥ ४९ ॥
यत्नाद्विकण्यापन येद्दासीभिस्तण्डुलेस्थितान् । अखण्डान् शोधितानेव क्षालितान् बहुशो " जलैः ॥ १३५० ॥
१ C D श्रीमत्सोम । २ C ल्य । ३D omits these two lines। ४ A लां F लान् । ५. शंस्तथा ।
Aho! Shrutgyanam
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १३
तण्डुलान् कुन्दसङ्काशस्तिोयान्तर्धारितांश्चिरम् । स्थाल्यां ताम्रकृतायां वा मृज्जातायामथापि वा ॥ ५१॥ . तण्डुलत्रिगुणं तोयं निक्षिपेच्च पिधापयेत् । वाससा शशिशुभ्रेण धौतेन च घनेन च ॥ ५२ ॥ चुल्यां निधाय निधूमे वन्ही तत् काथयेजलम् । सुतप्ते बुद्बुदोपेते स्वल्पबाष्पसमन्विते ।। ५३ ॥ तण्डुलानावपेत्स्थाल्यां दा च परिघट्टयेत् । सिक्थं विमर्च वीक्षेत वारं वारं विचक्षणः ।। ५४ ॥ मृदु(द)भूते च तसिक्ते (क्थे) किञ्चिद्वा कणगर्भिते । तत्र दुग्धं घृतं वापि निक्षिप्योत्तारयेत्ततः ॥ ५५ ॥ स्थाल्यास्ये पिटकं दत्वा मण्डं तं स्रावयेद्गुणः(णी)। ईषदुद्ध()रितं मण्डमूष्मणा परिशोषयेत् ॥ ५६ ॥ एवं भक्तं सुपकं यद्राजयोग्यं तदुत्तमम् । राजमुद्रास्तथा पीता निष्या(प्पा)वाश्चणका अपि ॥ ५७ ॥ कृष्णाढक्यस्तथा माषा मसरा राजमाषकाः। सूपकर्मणि सप्तैते नियोज्याः सूपकारकैः ॥ ५८ ॥ दलिताऽदलिताश्चैते पचनीया यथारुचि । चणका राजमाषाश्च मसूरा राजमुद्काः ॥ ५९ ।। घरट्रैर्दलिताः कार्याः पाकार्थ हि विचक्षणैः । किश्चिद्दष्टास्तथाढक्यो यन्त्रावतैर्द्विधाकृताः ॥ १३६० ॥ विदली च कृताः सम्यक् शूर्पकैर्वितुषीकृताः । स्थाल्यां शीतोदकं क्षिप्त्वा विदलैः सममानतः ॥ ६१ ॥ आवपेद्विदलान्पश्चाच्चुल्यामारोपयेत्ततः ।
द्वग्निपच्यमानेऽन्तहिङ्गुतोयं विनिक्षिपेत् ॥ ६२ ॥ १ A तयं । २ A ल्याइ । ३ A क्तं च्छं । ४ D मृष्य । ५ D ख्ते । ६ D कं । ७ D मण्डमास्रावये दूमः । ८ F स्या A पो। ९ D माष । १० A टैः । ११ F लिः । १२ D ते। १३ D omits these iwalioent
Aho ! Shrutgyanam
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। वर्णाथ रंजनीचूर्णमीपत्तत्र नियोजयेत् । मुहुर्मुहुक्षिपेत्तोयं यावत्पाकस्य पूर्णता ।। ६३ ॥ सुश्लक्ष्णं सैन्धवं कृत्वा विंशत्यंशेन निक्षिपेत् । वर्णतः स्वादुता (स्वादतः) गन्धान्मार्दवाल्लाघवादपि ॥ ६४ ।। एवं विदलपाकस्य सम्यसिद्धिरुदाहृता । निष्पावा मेचकाढक्यो हिङ्गुना परिवर्जिताः ॥ ६५ ॥ अभिन्नाः पूर्ववत् पाक्या (च्या) हरिद्राचूर्णकं विना । मसूरमाषपाकेषु हिडतोयं विनिक्षिपेत् ॥ ६६ ॥ इतरः पूर्ववत् कार्यः पाकः पाकविचक्षणैः । प्रक्षालितान्वरान्मुद्गान् समतोये विनिक्षिपेत् ।। ६७ ॥ चुल्यां मुद्रग्निना पाकः कर्तव्यः सूपकारकैः । पच्यमानेषु मुद्गेषु हिङ्गुवारि विनिक्षिपेत् ॥ ६८ ॥ आईकस्य च खण्डानि मूक्ष्माणि च विनिक्षिपेत् । वार्ताकं पाटितं तैलं भृ (लभृ)ष्टं तत्र विनिक्षिपेत् ॥ ६९ ॥ तैलभृष्टा मृदूभृताः क्षिपेद्वा बिसचक्रिकाः। बीजानि वा प्रियालस्य क्षिप्त्वा दा विवर्तयेत् ॥ १३७० ॥ पुनः पुनः क्षिपेत्तोयं स्तोकं स्तोकं विचक्षणः । केचिदिच्छन्ति रुच्यर्थ मेषमांसस्य खण्डकान् ॥ ७१ ॥
कान्वापि द्विधा भिन्नान्मेदेसः शकलानि वा । मुहुः सूपे सुनिष्पन्ने चूर्णितं मरिचं क्षिपेत् ॥ ७२ ॥ उत्तार्य नागरं चूर्णं क्षिप्त्वा दा विघट्टयेत् । श्यामाककङ्गुनीवारगन्धशालिसुतण्डुलैः ॥ ७३ ॥ सरवेष्टिक(त)सेवाकैदिवसैलघुविस्तृतैः । चिरप्रसूतमहिषीपयसा पायसं पचेत् ॥ ७४ ॥
१ A रा ? रि ? रे ? । २ D ताग्नौ । ३ D जकानि । ४ A का । ५ A ध । ६ D षु । ७ D रा । 4A का । ९D प। १० A D सा C सां।
Aho ! Shrutgyanam
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
૬૮
मानसोल्लासः ।
पायसं लेहने योग्यं स्वादुगन्धं मनोहरम् । गोधूमाः क्षालिता शुभ्राः शोषिता रविरश्मिभिः ।। ७५ ॥ घरद्वैश्चूर्णिताः श्लक्ष्णाश्चालन्या वितुषीकृताः । गोधूमचूर्णकं श्लक्ष्णं किंचित्घृतविमिश्रितम् ।। ७६ ।। लवणेन च संयुक्तं क्षीरनीरेण पिण्डितम् । सुमहत्यां काष्ठपात्र्यां करास्फालैर्विमर्दयेत् ।। ७७ ।।
मर्दितं चिकणीभूतं गोलकान्परिकल्पयेत् । स्नेहाभ्यक्तैः करतलैः शालि चूर्णैर्विरूक्षितान् ॥ ७८ ॥ प्रसारयेत्गोलकांस्तान् करसञ्चारवर्तनैः । विस्तृता मण्डकाः श्लक्ष्णाः सितपट्टसमप्रभाः ॥ ७९ ॥ प्रयत्नान्निक्षिपेत्तज्ज्ञस्तप्तख पर मस्तके पक्वांश्चापनयेच्छ्रीघ्रं यावत्कार्ण्य न जायते ॥ १३८० ॥ चतस्रश्च चतस्र घटिता मण्डका वराः । गोलान्प्रसारितान्पाणावङ्गारेषु विनिक्षिपेत् ॥ ८१ ॥
1
अङ्गारपालिकाः शस्ताः किञ्चित्कृष्णत्वमागताः । गोलकान्पिष्टकालिप्तान पेषण्या तान्प्रसारयेत् || ८२ ॥
सुतप्ततापनिक्षिप्तानीषत्पकान्विवर्तयेत् । कॅपरेपि पचेदेवं पोलिकानामयं क्रमः ॥ ८३ ॥
तैलपूर्णकटाहे तु सुतप्ते सोहला " पचेत । उत्तानपाकसंसिद्धाः कठिनाः सोहला मैताः ॥ ८४ ॥
तैलमग्नाः पीतवर्णा मृद्य: (द्यः) पाहलिकाः स्मृताः । तनुप्रसारितान्गोलान्ताप्य स्नेहेन पौचितान् ॥ ८५ ॥
उपर्युपरि निक्षिप्ता (:) पत्रिका विपचेत्सुधीः । गोधूमचूर्णादुद्धृत्य शूर्वेणाभ्याहतान् कणान् ॥ ८६ ॥
[ अध्यायः १३
१F पीडि D पिण्डकम् । २ यन्त्र्यां । ३ D हि । ४ D ख । ५ A लो । ६ A सि । ७. D द्य । A तागी । ९D लता । १० A प्यान् । ११ A सञ्चि ।
Aho! Shrutgyanam
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः ।
दुग्धाक्तान् घृतपकांश्च सितया च विमिश्रितान् । एलामरिचचूर्णेन युक्तान्कीसारसंज्ञितान् ॥ ८७ ॥ गोलकेन समावेष्ट्य तैलेनोदुम्बरान्पचेत् । उत्क्काथ्य विदलान पिष्ट्रा चणकप्रभृतीन् शुभान् ॥ ८८ ॥ हिङ्गुसैन्धवसंयुक्तान् शर्करापरिमिश्रितान् । मरिचैलाविचूर्णेन युक्तान्गोलकवेष्टितान् ॥ ८९ ॥ किञ्चित्प्रसारिते तैले पूरिका विपचेच्छुभाः ।
3
एवं तापयां पचेदन्याः पूरिकाश्च विचक्षणः ।। १३९० ॥ हरिमन्थस्य विदलं हिजीरकमिश्रितम् । लवणेन च संयुक्तमार्द्रकेण समन्वितम् । । ९१ ॥ वेष्टयित्वा गोलकेन वेष्टिका खर्परे पचेत् । विदलं चणकस्यैवं पूर्वसम्भार संस्कृतम् ।। ९२ ।। ताप्यां तैलें (ल) विलिप्तायां घोसकान्विपचेद्बुधः । माषस्य राजमाषस्य वट्टाणस्य च धोसकान् ॥ ९३ ॥ अनेनैव प्रकारेण विपचेत्पाक तत्त्ववित् । वाणकस्य विदलं विदलं चणकस्य च ॥ ९४॥ चूर्णितं वारिणा सार्धं सर्पिषा परिभावितम् । सैन्धवेन च संयुक्तं कण्डुना परिघट्टितम् ॥ ९५ ॥ निष्पावचूर्णसंयुक्तं पेषण्यां च प्रसारितम् । कटाहे तैलसंपूर्ण कटकर्णान्प्रपाचयेत् ॥ ९६ ॥ यावद्बुद्बुद संकाशा भवन्ति कनकल्विषः । माषस्य विंदलाँन् क्लिन्नान्निस्तुषान्हस्तलोडनैः ॥ ९७ ॥ ततः सम्पेष्य पेषण्यां सम्भारेण विमिश्रितान् । स्थाल्यां विमर्द्य बहुशः स्थापयेत्तदहस्ततः ।। ९८ ।। आम्लीभूतं माषपिष्टं वैटिकासु विनिक्षिपेत् । गर्भाभिरन्याभिः पिधाय परिपाचयेत् ।। ९९ ।। अवतार्यात्र मरिचं चूर्णितं विकिरेदेनु । घृताक्ती हिडुसर्पिभ्यां जीरकेण च धूपयेत् ।। १४०० ॥
विंशतिः ३ ]
११९
१ D तास । २ F कृती D कृता । ३ A ऽपि । ४ Dव। ५ A संस्का । ६ A लं । ७A ला क्लि । ८ Aपि ।९D सतः । १० A तः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १३
सुशीता धवला(क) श्लक्ष्णा एता इडेरिका वराः। तस्यैव मापिष्टस्य गोलकान्विस्तृतान्धनान् ॥ १॥ पञ्चभिः सप्तभिर्वापि छिट्टैश्च परिशोभितान् । तप्ततैले पचेद्यावल्लौहित्यं तेषु जायते ॥ २ ॥ घारिकासंज्ञया ख्याता भक्ष्येषु सुमनोहराः । निच्छिद्रा घारिका(काः)पका मथिते शर्करायुते ॥ ३ ॥ एलामरिचसंयुक्ते निक्षिप्ता वटि (ट)काभिधाः । त एव वटकाः क्षिप्ताः काश्चिके काञ्जिकाभिधाः ॥४॥ यत्र यत्र द्रवद्रव्ये तन्नाम्ना वटकास्तु ते । आरनालेन सान्द्रेण दध्ना सुमथितेन च ॥ ५॥ सैन्धवादकधान्याकजीरकं च विमिश्रयेत् । मरिचानि द्विधा कृत्वा क्षिपेत्तत्र तु पाकवित् ॥ ६ ॥ दा विघट्टयन्सर्व पद्यावद्घनीभवेत् । उत्तार्य वटकान्क्षिप्त्वा विकिरेन्मारिचं रजः ॥७॥ हिङ्गुना धूपयेत्सम्यग् वटकास्ते मनोभिधाः । दुग्धमुत्काथ्य तन्मध्ये तक्रमम्लं विनिक्षिपेत् ॥ ८॥ हित्वा तोयं घनीभूतं वस्त्रबद्धं पृथक्कृतम् । शालितण्डुलपिष्टेन मिश्रितं परिपेषितम् ॥ ९॥ नानाकारैः सुघटितं सर्पिषा परिपाचितम् । पकशकरया सिक्तमेलाचूर्णेन वासितम् ॥ १४१० ॥ क्षीरप्रकारनामेदं भक्ष्यं मृष्टं मनोहरम् । शर्करों वारिसंयुक्तां ताम्रपाने विषाचयेत् ॥ ११ ॥
A
१D लः । २ Dन्दु । ३ A स । ४ Dत्तते। ५ A लो। ६ D विनि । ७ टि। तिघहयेस्स । ९ A । १० A ना। ११ Dरयापि च ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशतिः ।
मानसोल्लास। अर्धपाके क्षिपेदुग्धं सकं वापि यथारुचि। तेन मुञ्चेन्मलं सा तु शर्करा कथिता सती ॥ १२ ॥ निर्मलेन च वस्त्रेण गालयेत्ता मुहुर्मुहुः। मृदौ पाके द्रुता पेया मध्यमे मधुसन्निभा ॥१३॥ खरे तु कठिना भक्ष्या साधिके शर्करा भवेत् । खरपाके सुसिद्धायाः सिताया सम्पुटे ॥१४॥ नानारूपाणि कुर्वीत खण्डपाकविशारदः । शोधितायां सितायां तु क्षीरं संमिश्रयेत्समम् ॥ १५ ॥ खरपाकावधिर्यावत्तावत्तथियेत्पुनः । उत्तार्य नागरं तीक्ष्णमेलाकर्पूरकेसरैः ॥ १६ ॥ निक्षिप्य गोलकाः कार्या नाम्ना वर्षोलकास्तुते । वराहपललं स्निग्धं मृष्टं सारङ्गज पैलम् ॥ १७ ॥ हरिणस्यामिषं पथ्यं रूक्षं मांसं शशोद्भवम् ।
आविकं तरसं रुच्यं लघुक्रव्यमू(म)जोद्भचम् ॥१८॥ मत्स्यमांसं भवेदृष्यं शाकुनं लघु कीर्तितम् । रुरुसम्वरसंभूतं पुष्टं चेद्रुच्यमीरितम् ।। १९ ॥ मांसान्यन्यानि बल्यानि रसनाप्रीतिदानि च । कुशस्य व्याधियुक्तस्य जराजर्जरितस्य च ॥ १४२० ॥ शावकस्य च शुष्कस्य विषसन्दूषितस्य च। . वारिणा निहतस्यापि श्रमशोषमृतस्य च ॥ २१ ॥ क्लिन्नस्य पूतिगन्धस्य मांसानि परिवर्जयेत् । पृष्टवंशस्य पार्श्वस्थं बहिरन्तश्च संस्थितम् ।। २२ ॥ जघनस्य घनं पिण्डं पुच्छमूलसमुद्भवम् । क्रोडदेशोद्भवं चैव कक्षाभागस्य पूरकम् ॥ २३ ॥ पार्श्वयोः संस्थितं चैव कुक्षिसन्धिविलेपकम् । आस्य(अंस)पूर्वाशसंभूतं मुकुलं हृदयोद्भवम् ॥ २४ ॥
A फ।
१A | २D द्धाः स्युः। ३D त। A पञ्च । ५A टैः। ६F क। ७ A ट। ९ घुक्रव । १.Dजा। ११Dम्पू । १२Dन्धि । १४ A अंश ।
१६
Aho ! Shrutgyanam
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १३
कालखण्डं तथा वृक्को गुदान्त्रं च तथान्त्रकम् । अक्षिणी रसनाकर्णावूधो वृषणकर्णकम् ॥ २५॥... पशु(शु)कायां स(सु)संलग्नं वपामष्टिस्क(म्मस्तिष्क)मजे (माज)कम् । पादाः शृङ्गन्खुरास्त्वक् च श्रेष्ठमेतत्पलं मतम् ॥ २६ ॥ एतेषु मांसवर्गेषु केषाञ्चित्किंचिदुत्तमम् । वराहं सितवस्त्रेण प्रच्छाद्योत्फुल्लवारिणा ॥ २७ ॥ गण्डकेनें सदण्डेन तावसिञ्चन्मुहुर्मुहुः । यावत्तज्जातरोमाणि प्रोन्मूल्यन्ते सुखं करैः ॥२८॥ पश्चात्कत्रिकया रोमाण्युद्धृष्टाण्यपसारयेत् । अथवा कर्दमालिप्तं दहेत्तं तृणवह्निना ॥ २९ ॥ सुखोत्पाट्यानि रोमाणि पूर्ववच्चापसारयेत् । आजानुसन्धिमूलाझि तृणैः प्रच्छाद्य तं देहेत् ॥ १४३०॥ . कठिनत्वमुपायातं क्षालयेनिमलजलैः । पाण्डुरं बिससङ्कनशं समं संस्थापितं कटे ॥ ३१ ॥ . आमूर्ध प्रस्थापयति कत्रिकापरिपाटितम् । ... सारीफळकरेखाभ्या चित्त (वच्च त) स्यायामसुण्ठिकाम् (शुण्ठकान्) ॥३२॥ चतुरस्रीकृतान्खण्डान्शूलपोतान्मतार्पयेत् ।। अङ्गारेषु प्रभूतेषु घृतबिन्दुसवावधि ॥ ३३ ॥ पश्चान्मरिचचूर्णेन विकिरेत्सैन्धवं ततः। अथाम्लपरिस्विनीन् पूर्ववत्परिकल्पयेत् ॥ ३४ ॥ अथवा दारितान्कृत्वा त्वक्शेषान्लवणान्वितान् । . भृज्ये"(जे)दङ्गारपुञ्जेषु शुण्ठकानमृतोपमान् ॥ ३५ ॥ स्विन्नानां शुण्ठकानां च मेदोभागं प्रगृह्य च । . ताडपत्रसमाकाराः कृत्वा चक्कलिकाः शुभाः॥ ३६॥ .... मथिते शर्करायुक्ते दधन्येलाविमिश्रिते ।
कर्पूरवासिते तत्र रुच्याश्चकैलिकाः क्षिपेत् ॥ ३७॥ .. १A । २ A दू? यू, बूधौ। ३ D मृ । ४ A मर्जु । ५D थे । ६ D गुरुणा A ण्डुवौ । ७ D तप्त ।
CAाडि Aहरेत् । १.Dठे। ११Dन्ति । १२ तेयो। १३ । १४ A त। १५0 ण्ठ। १६ पात । १७ A वेन च । १८DF तान् परितः स्वि। १९ Aनन्। २. D जे । २१F मोदा। २२ क । २३ A क।
Aho! Shrutgyanam
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः ।
मांसमेदोर्मयान्शुण्ठान् पूर्ववच्छकेली कृतान् । मथिते राजिकायुक्ते मातुलिङ्गकसरे ॥ ३८ ॥
विंशतिः ३]
धूपिते हिना सम्यक् दनि चकलिकाः क्षिपेत् । घृते वा चक्कलीं भृष्ट्वा किरेदेला सशर्कराम् ।। ३९ ।।
अथवा मातुलुङ्गस्य सुपकस्य च केसरैः । सूक्ष्मैरार्द्रकखण्डैश्च केसरामै ( म्ले ) मनोहरैः || १४४० ॥ चूर्णितं मरिचं राजिसैन्धवैर्मिश्रयेत्ततः हिङ्गुना धूपिताः साम्ला हृद्याक्कलिका वराः ।। ४१ ॥ दध्ना विमिश्रच्चिञ्चां किंवा दाडिमसारकम् । अथवामलकं पिष्टं मेलयेद्वाम्लवेतसम् ॥ ४२ ॥ रसं वा मातुलिङ्गस्य रसं दन्तशठस्य च । मिश्रयेद्वा रसानेतान्द्वित्रान्वाऽपि यथारुचि ॥ ४३ ॥ गन्धार्थं धान्यकं हिङ्गु जीरकं तत्र निक्षिपेत् । हरिद्रां चैव वर्णार्थं सुसूक्ष्मं च तथार्द्रकम् ॥ ४४ ॥ रुच्यर्थं विश्वमारचं सैन्धवं च विनिक्षिपेत् । गालयेत्सितवस्त्रेण किंचित्तैलं विमिश्रयेत् ॥ ४५ ॥ मृदः स्थाल्यां विनिक्षिप्य दवघट्टनपूर्वकम् । प्रलेहकं मृदावग्नौ पचेत्पाकविशारदः ॥ ४६ ॥ प्रक्षिप्य शुण्ठकांस्तत्र मृदु कुर्याचं पाकतः । भावितांश्च रसैः सर्वैः सिद्धानुत्तारयेद्बुधैः ॥ ४७ ॥ धूपयेद्धिना वापि नखधूपेन वा पुनः । धूपेन जीरकस्यापि शशिधूपेन कोविदः ॥ ४८ ॥ चणकस्य समान्खण्डान्कल्पयित्वा विचक्षणः । निशाजीरकतीक्ष्णाद्यैः शुण्ठीधान्यकहिङ्गुभिः ॥ ४९ ॥
१२३
१ D पमा । २ D च । ३ A वा क। ४A लै । ५CD चाजा । ६ A श्वताः । CD चक्क । 4 D कै: 1 A प्रह्वेलकं । १० F तु । ११ D ततः । १२. Aण्ठि ।
Aho! Shrutgyanam
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४.
मानसोल्लासः ।
चूर्णितैर्मेलयित्वा तांस्तप्ततैले विनिक्षिपेत् । समानार्द्रकखण्डांश्च चणकान्हरितानपि ।। १४५० ।।
श्लक्ष्णमांसैः क्षिपेत्कोलं निष्पावन्कोमलानषि । पलाण्डुशकलान्वाऽपि लशुनं वाऽपि निक्षिपेत् ॥ ५१ ॥ एवं पूर्वोदितं सुदः प्रयुञ्जीत यथारुचि । शोषितेऽम्लरसे पश्चात्सिद्धमुत्तार्य धूपयेत् ।। ५२ ।। बदराकारकान्खण्डान् पूर्ववच्चूर्णमिश्रितान् । आर्द्रकांस्तत्प्रमाणांश्च पक्कतैले विपाचयेत् ।। ५३ ।।
वार्ताकशकलांश्चैव मूलकस्य च खण्डकान् । पैलाण्ड्रार्द्रकसम्भूतान्मुद्रा(गा)ङ्खरबिनिर्मिताम् ।। ५४ ।।
वटकानिक्षिपेत्तत्र मेषकस्य च चूर्णकम् । कासमर्देन संयुक्तं पलान्यन्यानि कानिचित् ।। ५५ । सुसिद्धं वासयेद्धूपैर्नानारसविमिश्रितम् । नानाद्रव्यसमेता सा कवचन्दी भवेच्छुभा ॥ ५६ ॥
स्थूलामलकसङ्काशान् शुद्धमांसस्य खण्डकान् । काथयेद्राजिकातोयैर्नागरार्द्रकसंयुतैः ॥ ५७ ॥
[ अध्याय १३
(स्था) पयेत्तज्जलं पोटे (पात्रे) रिक्तैर(क्तेचा)ग्लैर्विपाचयेत् । तत्समाञ्शुण्ठकान्क्षिप्त्वा सैन्धवं तत्र योजयेत् ॥ ५८ ॥ मेथकचूर्णकं तत्र धान्यांकस्य च पूलिकाम् । निक्षिप्योचारयेत्सुद्रो घृते (तं) वान्यत्र तापयेत् ॥ ५९ ॥
सुतप्ते च घृते पालशुनं हिदुना सह ।
प्रक्षिप्य संस्कृतं मांसं तस्यां स्थाल्यां प्रवेशयेत् ।। १४६० ।।
पिहितं च ततः कुर्यात्किञ्चित्कालं प्रतीक्ष्य च । उत्तारयेत्ततः सिद्धं पुर्यलख्यामिदं वरम् ॥ ६१ ॥
१ D तैलेन । २ A कात्कोव । ३ A ण्ड । ४ A ला । ५A एलाद्वा । ६ न्यु D कः । CD समोपेता । १०D क्का थ । ११ D पे । १२ D वा A बा । १३ A र्यु । १४ F ख्या' C
Aho! Shrutgyanam
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
पृष्ठवंशसमुद्भूतं शुद्ध मांसं प्रगृह्यते । घनसारप्रमाणानि कृत्वा खण्डानि मूळकैः ।। ६२ ॥ विध्वा तु बहुशस्तानि बहुरन्ध्राणि कारयेत् । हिङ्वाकरसैयुक्तं सैन्धवेन च पेषयेत् ॥ ६३ ॥ शूलपोतानि कृत्वा तान्यङ्गारेषु प्रतापयेत् । घृतेन सिश्चत्पाकवा(झोवारंवारं विवर्तयेत् ॥ ६४॥ सिद्धेषु मारिचं चूर्णं विकिरेन्सैन्धवान्वितम् । नाम्ना भडित्रकं रुच्यं लघु पथ्यं मनोहरम् ॥६५॥ अनेनैव प्रकारेण जर्जरीकृर्त्य खण्डकान् । स्थाल्यामम्लेन संयोज्य पाचयद्धिङ्गुनासह ॥ ६६ ॥ आर्द्रकस्य रसेनापि धान्यकस्य रसेन च । जीरकस्य च चूर्णेन मेथ(था)कस्य च मिश्रयेत् ॥ ६७ ॥ शोषयित्वा द्रवं सर्वं घृतेन परिव(भोजयेत् । क्षिपेच्च मरिचं भुंष्टे सूदो हण्डैभडित्रके ॥ ६८॥ मेषस्य कन्धरां छित्वा स्थाल्या रक्तं विधारितम् । मर्दयेत्करशाखाभिर्निक्षिप्य लवणं मनाक् ॥ ६९ ॥ मृद्यमाने तु रुधिरे सिराजालँविनिःसृते । अपनीय तथा शुद्धं कीलालं पिहितं न्यसेत् ॥ १४७० ॥ कोडदेशात्समारभ्य कर्चिकाग्रेण पाटिताम् । त्वचं विभज्य गात्रेभ्यो हरेदाह्यान्तरास्थिताम् ॥ ७१ ॥ पूर्वोद्दिष्टप्रदेशेषु स्थितं मांसमथाहरेत् । स्नायुग्रन्थिविनिर्मुक्तं खण्डशः परिकल्पयेत् ॥ ७२ ॥ पूगीफलप्रमाणानि कृत्वा खण्डानि पूर्ववत् । संस्कुर्यात्पूर्ववच्चूर्णैरम्लैश्च परिपाचयेत् ॥ ७३ ॥
१A करपूर । २ Dपू । ३ D सिञ्चयेत्पाकं । ४ A ज्ञोबा ? । ५ A द्रव्यं । ६ A त । 4A AAन्थ । १०से। ११Dठ।
म्।
Aho ! Shrutgyanam
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः:१३
स्तोकावशेषपाकेस्मिन्न्यस्तं रक्तं विनिक्षिपेत् । पूर्णे पाके समुत्तार्य धूपयेद्धिगुजीरकैः ॥ ७४ ॥ .. कर्पूरचूर्णकं तस्मिन् एलाचूर्णेन संयुतम् । विकिरेन्मरिचयुक्तं कृष्णपाकमिदं वरम् ।। ७५ ॥ अङ्गारभृष्टकं मांसं शुद्धे पट्टे निधापयेत् । . कर्त(तीर्या तिलशः कृत्वा मातुलिङ्गस्य केसरैः॥ ७६ ॥ . आर्द्रकैः केसरालै(म्ल)श्च गृञ्जनस्तत्प्रमाणकैः । जीरकैमरिचैः पिष्टैहिमुसैन्धवचूर्णकैः ॥ ७७ ॥ मिश्रयित्वा तु तन्मांस हिडधूपेन वासयेत् । . आमं मांसं च पेषण्यां हिडतोयेन सैचितम् ॥ ७८ ॥ लवणेन च चूर्णेन संहितं पेषयेद्बुधः। पिष्टवच्चिकणं कृत्वा गोलकानि प्रकल्पयेत् ॥ ७९ ॥ चूर्णीकृतं तु यन्मासं गोलकैस्तद्विवेष्टयेत् । .. चूर्णगर्भाश्च वटकान्मक्षिपेदाणके शुभे ॥ १४८० ॥ ख्यातास्ते मांसवटका रुच्या दृश्या मनोहराः। त एव वटकास्तैले पकाः स्युर्भूषिकॉभिधाः ॥ ८१ ॥ तदेव चूर्णितं मांसं कणिकापरिवेष्टितम् । अङ्गारेषु तथा भृष्टं कोशलीति निगद्यते ॥ ८२ ॥ वार्ता इन्तदेशस्य समीपे कृतरन्ध्रकम् । निष्कासितेषु बीजेषु तेनं मांसेन पूरितम् ॥ ८३ ॥ तैलेन पाचितं किञ्चिदाणके परिपाचयेत् । पूरभट्टांकसंज्ञं तत्स्वादुना परिपाचयेत् ॥ ८४ ॥ कोशातकीफलेऽप्येवं मूलकस्य च कन्दके। पूरिते चूर्णमांसेन तत्तन्नाम्ना तु कथ्यते ॥ ८५॥
Aण । २ A भ । ३ A सिञ्चि । ४ A सेचितं । ५ A ता। ६ D ऐण । ७ F भ्रटाक़ D प्दा । .
Aho! Shrutgyanam
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
आमं मांसं सुपिष्टं तु केसरादिविमिश्रितम् ।। वटकीकृत्य तैलेन तप्तेन परिपाचयेत् ।। ८६ ॥ आणके च क्षिपेत्तज्ञस्तापयेद्वा विभावसौ। . नाम्ना वटिमकं तत्तु त्रिः (त्रि) प्रकारमुदीरितम् ।। ८७ ॥ ... अंन्त्राणि खण्डशः कृत्वा कालखण्डं तथा कृतम् । . वारिप्रक्षालितं कृत्वा खण्डिताः (तान्) समरूपतः ॥ ८८ ॥.... मेदसः शकलास्तद्वन्मासखण्डांस्तथैव च ।। राजिकाकल्कदिग्धास्तांस्तोयमिश्रान्विपाचयेत् ॥ ८९ ॥ आर्द्रकस्य रसं स्तोकं अम्लमल्पं विमिश्रयेत् । .... प्रमाणाल्लवणं क्षिप्त्वा हिडन्तोयं च मेलयेत् ॥ १४९० ॥ किश्चिच्छेषं द्रवं तत्तु समुत्तार्य विधूपयेत् । पञ्चवर्णीति विख्याता नानारूपरसावहा ॥ ९१ ॥ अन्त्राणि जलधौतानि शूलयष्टयां विवेष्टयेत् । ....... तापयेच्च तथाऽङ्गारैर्यावत्कठिनतां ययुः ॥ ९२ ।। पश्चाद्विचूर्णितं श्लक्ष्णं सैन्धवं तेषु योजयेत् । अन्त्रशुण्ठकमाख्यातं चर्वणे मर्मरारवम् ॥ ९३ ॥ .. पूर्ववच्छोषिते रक्ते बीजपूरस्य केसरम् । रसमाईकसंभूतं रसं दन्तशठस्य च ॥ ९४ ॥ जीरकं हिङ्गुमरिचं धान्यकं सैन्धवं क्षिपेत् । मेदसः श्लक्ष्णखण्डानि क्षिप्त्वा सर्व विलोडयेत् ॥ ९५॥ अन्त्रं प्रक्षालितं यत्नात्तेन रक्तेन पूरितम् । पेटकाकृतियुक्तासु कम्रासु परिवेष्टयेत् ॥ ९६ ॥ कम्रामुखानि बध्नीयात् केवलैरन्त्रकैस्तथा । तैरेव रज्जुसङ्काशैर्गृहीत्वोपरि तापयेत ॥ ९७॥
-
१D निर्मि । २ D चाक्षि। ३ D सास्ना पट्टकमम् । ४ A आ । ५ D ता। ७ A जि । ८ A प।९ A कैःसमा D कैस्ततः । १० A स ।
A पाच ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः ११
अङ्गारैः किंशुकाकारैर्यावत्काठिन्यमाप्नुयुः । मण्डलीयं समाख्याता राजवृक्षफलोपमा ॥ ९८ ॥ पञ्चाङ्गपट्टद्वेष्टय वर्तिबद्धोज्ज्वला वपा । अङ्गुलद्वयमानेन खण्डांस्तस्याः प्रकल्पयेत् ॥ ९९ ॥ खण्डानि कालखण्डस्य तत्प्रमाणानि चान्तरा । शूलपोतानि कृत्वा तान्यनारेषु प्रतापयेत् ॥ १५०० ॥ सैन्धवं विकिरेत्तत्र सुश्लक्ष्णं मरिचान्वितम् । वर्णशुण्ठकनामेदं वर्णितं सोमभूभुजा ॥१॥ अङ्गारेषु तथा भृष्ट्वा कालखण्डं विकृत्य च । पूगीफलप्रमाणेन खण्डान्कृत्वा विचक्षणः ॥२॥ तैलेनाभ्यज्य तान्सर्वान्मरिचाजाजिसैन्धवैः। चूर्णितैर्विकिरेत्पश्चाद्धिकुधूपेन धूपयेत् ॥ ३॥ अनेन विधिना भृष्ट्वा राजिकाकल्पलेपितम् ( तान् )। कालखण्डान्मकुर्वीत दना राजिकयाऽथवा ॥ ४ ॥ भृष्टस्य कालखण्डस्य कृत्वा चेक(क)लिकाः शुभाः। कैसरैर्मातुलिङ्गस्य सैन्धवाद्यैश्च मिश्रयेत् ॥ ५॥ समेदस्कौ द्विधा भक्तौ कृत्वा लवणमिश्रितो । आम्लकैर्भावयित्वा तौ तैलेन परिपाचयेत् ॥ ६ ॥ क्रोडदेशोद्भवं मांसमस्या सह विखण्डितम् ।। अंसकीकससंयुक्तं पार्श्वकुल्या समन्वितम् ॥ ७ ॥ मृद्भाण्डे स्थाल्य(ल)वक्त्रे तनिक्षिप्य बहलोदके । हिडना चाकेणापि सैन्धवेन च संयुतम् ॥ ८ ॥ काययेत्सुचिरं कालं यावत्तन्मार्दवं भजेत् । उत्कॉथितमिदं सूपं ख्यातं शास्त्रविशारदैः ॥ ९॥
.. A माः।२D येष्टा च । ३Cष्टा । ४ D ता: C ताम् । ५ Dत्र F च । ६ A कस । ७ D को। Dasसना A सस्त्वा । १. A त्काषित । ११D ख्यातं सपशास्त्रविशारदैः ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
विशैस्तस्य च मेषस्य जठरं पाटयेदनु । आन्तरं सर्वमुत्सार्य बध्नीयादपराङ्घ्रिकौ ॥ १५१० ॥
शिरश्च रज्वा दृढया ज्वालायां परितापयेत् । यावद्रोमाणि गच्छन्ति यावत्कृष्णत्वमेति च ॥ ११ ॥ ततः प्रक्षाल्य तोयेन शेषं क्रोडवदाचरेत् । अन्येषां श्वापदानां च शेषं मेषवदाचरेत् ॥ १२ ॥ सदस्कानि मांसानि कृत्वा दीर्घाणि कर्तनैः । हिङ्गुतोयेन संसिच्य लवणेन विलोडयेत् ॥ १३ ॥ छायायां तानि खण्डानि वास्तु (यु) ना परिशोषयेत् । एकद्वित्रिदिनान्तेषु भृष्टान्यङ्गारपुञ्जके ॥ १४ ॥ स्थूलीकृतानि यावच स्वादुरुच्यानि यन्नृणाम् । उपष (ख)ण्डकनामानि सर्वशाकोत्तमानि च ।। १५ ॥ हरिणस्य तथा खण्डान् चक्कैली परिकल्पितान् । सम्भारसहितान्प्राज्यलवणेन विमिश्रितान् ॥ १६ ॥ शोषितानपि चात्यर्थमग्निना परिभर्जितान । हृद्यान्यथा (पथ्या) सुगन्धांच कल्पयेदुपखण्डकान् ॥ १७ ॥
रुरुशम्बरसारङ्गन्छागस्य नलकं पृथु । अग्नौ भृष्ट्वा शिलाघातैः स्फोटैयित्वा प्रयत्नतः ॥ १८ ॥ मज्जानं तु ततो हृत्वा लवणाम्लेन हिङ्गुना । मरिचाजाजिचूर्णेन पचेत्स्थाल्यां विचक्षणः ॥ १९ ॥
यस्य कस्यापि मेषादेः शिरो भृष्ट्वा विभिद्य च । आददीत च मस्तिष्कं काञ्जिकेन विपाचयेत् ॥ १५२० ॥ • आणके तैलमध्ये वा यथारुचि पुनः पचेत् । चूर्णैः संयोज्य तत्पचाद्धिङधूपेन धूपयेत् ॥ २१ ॥ पक्षिणामपि सर्वेषां पिच्छानुत्सार्थ सर्वतः । चञ्चुपादं पृथक्कृत्वा पाटयित्वा ततो ( थो) दरम् || २२ ॥
१. D चित्तलस्य । २ A खातृ । ३ A बच्चा । ४ F पथा । ५ A स्फे | १७
Aho! Shrutgyanam
१२९
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
मानसोल्लासः ।
निष्कृष्यान्त्रादिकं सर्वं पूर्ववत्परिपाचयेत् ।
यथा सूकरमेषाणां क्रियाः प्रोक्ता विपाचने ।। २३॥ सशल्कोनां च मत्स्यानां शल्कं स्फे (स्फो) ट्यं प्रयत्नतः । स्थूलाश्वेत्खण्डशः कार्या लघवश्चेत्सरूपतः ॥ २४ ॥ मत्स्यानां छेदयेत्शीर्षं पुच्छं तेषां च पक्षिणाम् । विपाट्य जठरं तस्मादैन्त्राण्यपसारयेत् ।। २५ ।। कहाँकष्ट बडिशा दग्धा खवल चाचुकैः ? | पाठीनैश्च तथैतेषां पृथक् कृत्वा शिरः पचेत् ? ।। २६ ।। मत्स्यानां घर्षणं कार्यं तैलेन लवणेन च । यावत्पच्छलतां याति मत्स्यगन्धश्च नश्यति ॥ २७ ॥ क्षालयेदुदकैः पश्चाद्धरिद्राकल्कमिश्रितैः ।
वस्त्रे ध्वा निपीड्यैतान् स्रावयेत्सङ्गतं जलम् || २८ ॥ क्षिपेत्पूर्वप्रसिद्धेषु प्रपवेष्वाणकेषु तान् । स्वल्पे काले गते सूदः स्थालीमुत्तार्य धूपयेत् ॥ २९ ॥ मत्स्यखण्डानि धौतानि चिञ्चाम्लेन विपाचयेत् । ततो गोधूमचूर्णं तु विकिरेत्तेषु सर्वतः ॥ १५३० ॥ तप्ततैले क्षिपेत्तानि पिङ्गान्युत्तारयेत्ततः । एलामरिचचूर्णेन सैन्धवेन च भावयेत् ॥ ३१ ॥ आण वा तथा तैले वह्नौ वा धूमवर्जिते । पूर्वोक्तविधिना मत्स्यान् यथारुचि विपाचयेत् ॥ ३२ ॥ मत्स्यांश्च खण्डशः कृत्वा चतुरङ्गुलसम्मितान् । लवणेन समायुक्तान् कुम्भेषु परिपूरयेत् ॥ ३३ ॥ खरखण्डा इति ख्याताश्चिरकालं वसन्ति ते । भोजनावसरे सुदो वह्निना परिभर्जयेत् ॥ ३४ ॥
मत्स्याण्डकोशावादाय वन्हिना परिभजयेत् । दृढीभूते (तो) ततः पश्चात् खण्डशः परिकल्पयेत् ॥ ३५ ॥
[ अध्यायः ३
१ A था । २ À ध्या । ३ A दा । ४ D कन्दं करोष्ट बिडिशाः । ५ Aठा ६CF खी । ७ D
Aho! Shrutgyanam
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
विपच्य तप्ततैले तान्येलामरिचकादिभिः । विकीर्य सैन्धवेनापि हिङ्गुना परिधूपयेत् ॥ ३६ ॥ कच्छपान् वह्निना भृष्ट्वा पादांश्छल्कांश्च मोचयेत् । शिरश्चैव पृथक्कृत्वा पक्करम्भाफलोपमान् ॥ ३७॥ अम्लकैश्च विपच्याथ तैलेनाज्येन वा पुनः । पाचयेच्च सुसिद्धांस्तान चूर्णकैरवचूर्णयेत् ॥ ३८ ॥ आणके वा पचेत्तज्ज्ञो निधूमे वा हुताशने । नन्द्यावर्ता इति ख्याता मृदुरुच्या मनाहेराः ॥ ३९ ॥ कर्कटांस्तु लघूनस्थूलान् हस्तपादवियोजितान् । रूक्षे ताम्रमये पात्रे सुतप्ते तान्वि(भ)वर्जयेत् ॥ १५४० ॥ स्फोटिते खपरे तांस्तु मृदो भाण्डे विनिक्षिपेत् । विपचेल्लवणाम्लैश्च पुनः सर्पिषि पाचयेत् ॥४१॥ जीरकं लवणं तीक्ष्णं चूर्णितं ते निक्षिपेत् । वृष्याँ बलकरा हृद्या मृष्टास्ते घृतककेटाः ॥ ४२ ॥ मूख(प)काः क्षेत्रसंभूता नदीकूलेषु संस्थिताः । स्थूलाः श्यामास्तथा पुष्टा जात्या ते मयिगाः स्मृताः॥४३॥ प्रतप्ते सलिले तांस्तु निक्षिपेत्पुच्छधारणात् । उद्धृत्य तस्मात्सलिलाद्रोमाण्युत्पाटयेत्ततः ॥ ४४ ॥ विभेद्य जठरं तेषां स्फोटयेदन्त्रकाणि तु । सम्भारसहितैरम्लैः पचेच्च लवणान्वितैः ॥ ४५ ॥ शूलपोतांस्ततः कृत्वा तानङ्गारैः प्रतापयेत् । यावरहिस्त्वचस्तेषां शोषमायान्ति तापनात् ॥४६॥ सुपक्केषु तथा तेषु मूख(प)केषु किरदनु । लवणं मरिचं शुण्ठी जीरकं च विचूर्णितम् ॥ ४७ ॥ फलशाकं पत्रशार्क कन्दशाकं च मूलकम् । पुष्पशाकं शिम्बिशाकं पक्कापकविभेदतः ॥४८॥
१ A रेव । २ A दौ । ३ D तेषु वि । ४ A पा । ५ D णः । ६ A खं ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १३ कल्पयेद्विविधैः शाकर्मीसवत् पाककोविदः । वटकान् पर्पटान् हृयानङ्गारैः परिभर्जयेत् ॥ ४९ ॥ आम्राम्रातकजम्बूश्च बीजपूराग्निमन्थकैः। भल्लातागस्त्यकोपसिद्राक्षाभृङ्गकसल्लकैः ॥ ५० ॥ पुनर्नवा मरी तीक्ष्णा अंतसी सुरसाद्वयम् । मरुकं तालपर्णी च भिण्डुकी मुण्डका तथा ॥ ५१॥ ब्राह्मी चैवाम्लपत्री च कोकिलाक्षी कुसुम्भकम् । अञ्जनं पद्मकोशश्च शेढकं च तथापरं ॥ ५२ ॥ सगृह्य पल्लवानेषाम्ल(म्लि)काम्लेन मिश्रयेत् । जम्बीराम्लेन दध्ना वा लवणेन च संयुतान् ॥ ५३ ॥ श्रीफलं केतकं चिश्चा मेषशृङ्गी सुगन्धिजम् । कुटजं मारचं पथ्या विषमुष्टिकशिम्बिजम् ॥ ५४॥ एलारामठनीवारमेथिकापर्पटं तथा । अगस्त्यं नन्दनं राजमातुलिङ्गकपाटाल ॥ ५५ ॥ कटं मदं कर्कटं च करीरं टेण्टुकं तथा । वेत्रकारीफलं चैव लवणाम्भसि निक्षिपेत् ॥ ५६ ॥ चूतमाम्रातकं धात्री कुँहिरी कर्कटी तथा । कूष्माण्डं त्रपुसं द्राक्षा कर्कटी बृहतीद्वयम् ॥ ५७ ॥ कोशातकीवीजपूरं निष्पावं करमर्दकम् । जम्बीरबिम्बवार्ताककर्मरं लवणाम्भसि ॥ ५८ ॥ अथवा राजिकाचूर्णे सतैले लवणान्विते । प्रक्षाल्य वृन्तसहित फलं चूतादिकं न्यसेत् ॥ ५९॥ कारवेल्लं सपनसं कदलीफलमेव च ।
सतैले राजिकाचूर्णे निक्षिपेल्लवणान्विते ।। १५६० ॥ १ A खै । २ A क । ३ ) ऋ । ४ D E C ण्डि । ५ D म्मल्लिका । ६ D लिः । ७ D कू गी।
Aति । ९ A वन्दरं । १०
ते Fतें।
Aho! Shrutgyanam
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः।
मानसोल्लास। वंशाङ्करं लघु चक्रीं शतावर्यास्तथैव च । पातालटेण्टुंकानां च प्ररोहान्क्षालितान्मृदून् ॥ ६१ ॥ सलिले लवणोपेते तैले वाऽपि सराजिके । लवणेन समायुक्त प्रक्षिपदकुरानिमान् ॥ ६२ ॥ मागिणीमाकं पैष्टुं कचोरं वनमागिणीम् । कर्पूरमागिणीमूलं तयैवाम्लहरिद्रका ॥ ६३ ।। सूरणं मधुशिग्रं च तथा बिलकन्दकम् । एतानि पूर्ववत्कृत्वा तैले वापि विनिक्षिपेत् ॥ ६४ ॥ गव्यं वा माहिषं वापि क्षीरं नीरविवर्जितम् । पचेत्स्थाल्यां मृदावनौ दर्वीघट्टनसंयुतम् ॥ ६५ ॥ अँर्धावशेष कुर्वीत त्रिभागेनावशेषितम् । षड्भागशेषितं वाऽपि कुर्यादष्टावशेषिकम् ॥ ६६ ॥ अर्धावशिष्टं पाने स्यात्रिभागं लेाकं भवेत् । षड्भागं पिण्डतामेति शर्करा स्यादथाष्टमे ॥ ६७ ॥ अंधविशेषिते दुग्धे तक्रमीषद् विनिक्षिपेत् । नवस्थाल्यो न्यसेत्तत्तुं निवाते स्थापयेच्च ताम् ।। ६८ ॥ शर्करामिश्रितं वापि फैलैवापि विमिश्रयेत् । यामषट्कोषितं क्षीरमम्लतां घनतां भजेत् ॥ ६९ ॥ दधीति नाम प्राप्नोति पथ्यं मृष्टं मनोहरम् । हीनकाले तथा पथ्यं चिरकालेऽम्लता बहु ॥ १५७० ॥ मन्थानेन मथित्वा तन्नवनीतमयो हरेत् । निर्जलं मथितं प्रोक्तमुदस्वित्या (विच) जलार्धम् ॥ ७१ ॥ पादाम्बु तक्रमुद्दिष्टं धूपितं हिडजीरकैः ।
आर्द्रकेण समायुक्तमेलासैन्धवचूर्णितम् ॥ ७२ ॥ १D व । २ D तालं A तलं आर्द्रा । ३ A ण्ड । ४ F ये । ५ D रो। ६ D वष्ठ । ७ A आर्दा । A ष। ९ A आर्दा । १० A ष्ट । ११ A आर्दा। १२ D तन्तु । १३ D तम्। १४ F क। "Dr। १६ A त्याच । १७ A द्धि ।
-
Aho ! Shrutgyanam
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १३
मथितं शर्करायुक्तमेलाचूर्णविमिश्रितम् । कर्पूरधूपितं नाम्ना मजिकेत्यभिधीयते ॥ ७३ ॥ निष्पीड्य दधि वस्त्रेण स्रावयेत्तद्रुतं जलम् । शर्करैलासमायुक्ता सूदैः शिखरिणी मता ॥ ७४ ॥ स्रावितं यद्धृतं तोयं जीरकाकसैन्धवैः। संयुक्तं हिडधूपेन धूपितं मस्तु कीर्तितम् ॥ ७५ ॥ नवनीतं नवं धौत नीरलेशविवर्जितम् । तापयेदग्निना सम्यक् मृदुना घृतभाण्डके ॥ ७६ ॥ पाके संपूर्णतां याते क्षिपेद्गोधूमबीजकम् । क्षिपेत्ताम्बूलपत्रं च पश्चादुत्तारयेद्धृतम् ॥ ७७ ॥ तण्डुलक्षालितं तोयं चिश्चाम्लेन विमिश्रितम् । ईषत्तक्रेण संयुक्त सितया सह योजितम् ॥ ७८॥ एलाचूर्णसमायुक्तमार्द्रकस्य रसेन च । धूपितं हिङ्गुना सम्यक् व्यञ्जनं परिकीर्तितम् ॥ ७९ ॥ सौवीरनिर्मलं साम्लं लवणेन च संयुतम् । हिङ्गुना जीरकेणापि धूपितं धूपकाञ्जिकम् ॥ १५८० ॥ शङ्कद्वयं समास्थाप्य बधीयादुज्ज्वलाम्बरम् । प्रसार्य ष(य)ष्टिभिः किश्चित्क्षीरमम्लेन भेदितम् ॥ ८१॥ .. सितया च समायुक्तमेलाचूर्णविमिश्रितम् । क्षिपेत्प्रसारिते वस्त्रे स्रावयेत्पेषयेत्समम् ॥ ८२ ॥ पुनः पुनः क्षिपेत्तत्र यावन्निर्मलतां व्रजेत् । पक्कचिश्चाफलं भृष्टं वर्णार्थं तत्र निक्षिपेत् ॥ ८३ ॥ यस्य कस्य फलस्यापि रसेन परिमिश्रयेत् । तत्तन्नामसमाख्यातं पानकं पेयमुत्तमम् ॥ ८४ ॥ सौवर्णे राजते पात्रे रीतियन्त्रविधारिते । भोजयेन्मण्डलेशादीन्यथायोग्यप्रदेशतः ॥ ८५ ॥
१D आव। २ A त । ३ A मधु । ४ A य । ५A तः। ६ DF श्रितम् । ७ Dपान |
Fवंत।
Aho ! Shrutgyanam
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
विशाले काञ्चने पात्रे स्वर्णकञ्च्चोले संयुते । लोहगङ्गालकैर्युक्ते रुक्मपिंगालकैट्टेते ॥ ८६ ॥
भैर्मशुक्तिसमोपेते कनकस्थालसँयुते । जलप्रक्षालिते सम्यक् सितवप्रमार्जिते ॥ ८७ ॥ वर्धयेत्पूर्वकथितमन्नपकान्नपानकम् । ऊरुनाभिप्रदेशान्तं सञ्छाद्य सितवाससा ॥ ८८ ॥ गद्दिकायां समासीनः पूर्वाशासम्मुखो नृपः । अनं मुद्द्रसमोपेतं भुञ्जीतोष्णं घृतप्लुतम् ॥ ८९ ॥ प्राचीमुखस्तु भुञ्जान आयुश्च लभते बहु । यशश्च लभतेऽत्यर्थमश्नन्दक्षिणदिङ्मुखः || १५९० ।। श्रियं तु लभते पुष्टां भुञ्जानः पश्चिमाननः । सत्यवाक्यफलं प्राप्नोत्यश्नन् धनददिङ्मुखः ॥ ९१ ॥ श्लक्ष्णमांससमायुक्तं विदलैर्वा विमिश्रितम् । लेहे विविधैर्हयैर्लेपितं वा तथोदनम् ॥ ९२ ॥
मांसप्रकारकैर्मृष्टरम्लमिश्रैव च पल्लवैः । नानाविधैस्तथा शाकैः फलपत्रसमुद्भवैः ।। ९३ ।।
वटकैः पर्पेटैर्हृद्यैः खारखण्डोर्पखण्डकैः । यथारुचि यथासात्म्यं सुखं भुञ्जीत भूपतिः ॥ ९४ ॥
पक्कान्नं पायसं मध्ये शर्कराघृतमिश्रितम् । ततः फलानि भुञ्जीत मधुराम्लरसानि च ॥ ९५ ॥
पिबेच्च पानकं हृद्यं लिह्याच्छिखरिणीमपि । चूषेत मज्जिकां पचादधि चांद्यात्ततो घनम् ।। ९६ ।।
ततस्तक्रा*मश्रीयात् सैन्धवेन च संयुतम् ।
क्षीरं वाऽपि पिवेत्पश्चात् पिबेद्वा काञ्जिकं वैरम् ॥ ९७ ॥
१३५
ACFम्बो । २ भुम । ३ A सङ्गते । ४ D ब्रेण । ५A Fम्ल । ६ A न्न | D प्रले हैर्वि । ८ A ण्डेप । ९ A वा । १० A न्त । ११ A वरी ।
Aho! Shrutgyanam
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
मानसोल्लासः ।
मांसमम्लेन भुञ्जीत दुग्धं वो शर्करायुतम् । लवणेन तथा चाम्लं क्षारं कटुकषायकैः ॥ ९८ ॥
वसन्ते कटु चाश्रीयाद्रीष्मे मधुरशीतलम् । वर्षासु च तथा क्षारं मधुरं शरदि स्मृतम् ॥ ९९ ॥
हेमन्ते स्निग्धमुष्णं च शिशिरेऽप्युष्णमम्लकम् । एवं भुञ्जीत यद्भूपो अन्नभोगः स कथ्यते ।। १६०० ॥ अन्नभोगः समाख्यातः सोमेश्वरमहीभुजा ।
॥ इत्यन्नभोगः ॥ १३ ॥ हृद्यः पानीयभोगोऽयमिदानीमभिधीयते ॥ १ ॥ मध्ये मध्ये पिबेद्वारि स्तोकं स्तोकं सुशीतलम् । भोजनस्य च रुच्यर्थं पाकार्थमशनस्य च ॥ २ ॥
पिपासायां च जातायां स्वेच्छया पीयते जलम् । नियमो नात्र कालस्य तृषावेगो न धार्यते ॥ ३ ॥
असवः प्राणिनामापो जीवितं यत्तदाश्रितम् । मूच्छिता अपि जीवन्ति यतस्तोयेन सिञ्चिताः ॥ ४ ॥ दिव्य (व्या)न्तरिक्षं नादेयं नैर्झरं सारसं जलम् । भौमं चौण्डं च ताड कमौद्भिदं नवमं स्मृतम् ॥ ५ ॥ स्वात्यां पयोदनिर्मुक्तं सूर्यरश्मिविमिश्रितम् । सर्वदोषापहं स्वादु दिव्यमित्युच्यते जलम् ।। ६ ।। प्रावृड्जलदनिर्मुक्तमव्यक्तं स्वादुर्लक्षणम् । वारि स्फटिकसङ्काशमान्तरिक्षमिति स्मृतम् ॥ ७ ॥
नद्यां शैलप्रसूतायामिन्द्रनीलसमप्रभम् । प्रशस्त भूमिभागस्थं नीरं नादेयमुच्यते ॥ ८ ॥
१ DF शर्करया सह । २ D ढं F ढं । ३ A ढाक F डाग | ४ A तज्जलम् ।
Aho! Shrutgyanam
[ अध्यायः १४
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३७
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। वालुकासु करैर्गतं कृत्वा यत्प्राप्यते जलम् । उत्क्षेपणेन नैर्मल्यं याति निष्प(ष्य)न्दजं हि तत् ॥९॥ नद्याः शैलवराद्वाऽपि मृतमेकत्र संस्थितम् । कुमुदाम्भोजसञ्छन्नं तोयं सारसमुच्यते ॥ १६१० ॥ वापीकूपसमुत्पन्नं नीलोत्पलदलप्रभम् । विमलं मधुरास्वादं भौममम्भोऽभिधीयते ॥ ११ ॥ स्वयं दीर्घशिलाश्वभ्रष्वतसीपुष्पसन्निभम् । निर्मलं मधुरं पथ्यं सलिलं चौण्डमुच्यते ॥ १२ ॥ पालिबन्धेन संरुद्ध(द्धः)कुल्यापूरागतो रसः । प्रतिवर्ष वना(नवा)म्भोभिमि(मि)श्रस्ताडाक उच्यते ॥ १३ ॥ निर्मलं लघु पानीयमुत्तानं स्वादु शीतलम् ।
शैलसानुसमुद्भेदान्नैझरं परिकीर्तितम् ॥ १४ ॥ दशमं केचिदिच्छन्ति वार्ड्स जीवनमुत्तमम् । नारिकेलसमुद्भूतं स्वादु वृष्यं मनोहरम् ॥ १५॥ हंसोदकं तथा चान्यत् क्रियासंस्कारसंस्कृतम् । दिवा सूर्याशुसन्तप्तं रात्रौ चन्द्रांशुशीतलम् ॥ १६ ॥ सकर्दमं सशैवालं पल्वलोत्थं सपल्लवम् । वर्जयेदूपरोद्भूतं गन्धवर्णैश्च दूषितम् ॥ १७ ॥ अशोकपल्लवप्रख्यं शुद्धस्फटिकसन्निभम् । नीलोत्पलदलश्यामं कषायमधुरं वरम् ॥ १८ ॥ कणामुस्तकसंयुक्तमेलोशीरकचन्दनैः । मंदित मृत्तिकापिण्डं खदिराङ्गारपाचितम् ॥ १९ ।। निक्षिपेन्निर्मले तोये सर्वदोषहरे शुभे ।
कथितः पिण्डवासोऽयं सलिलेषु विचक्षणैः॥ १६२० ॥ १ A क्षे। २ A ष्क । ३ D भैर । ४ C F ढ। ५ A प्रतिबन्धेन यत्तोयं तत्ताडागं समुच्यते । ६ D च्यते । ७ C क्षं। ८D मृदि ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८ मानसोल्लासः।
[अध्यायः १५ सहकाररसेनापि पाटलोत्पलचम्पकैः । वासयेच्च यथाकालं पुष्पवासोऽयमीरितः ॥ २१॥ लवङ्गोशीरकपुरकान्तानलदचन्दनैः। सलिलामयकैङ्कोलपथ्याक-रसंयुतैः ॥ २२ ॥ विचूर्णितः समैरेभिः सुशीतामलवारिणां । चूर्णाधिवासिनः प्राह श्रीमंत्सोमेश्वरो नृपः ॥ २३ ॥ करकैर्मण्मयैः श्लक्ष्णः प्रवालारुणकान्तिभिः । चर्मपात्रैः सुरम्यैर्वा त्रिफलो(ला)परिशोधितैः ॥ २४ ॥ नालैश्च सुबहुच्छिद्रैः रौप्यस्फँटिककाञ्चनैः । सहितैस्तैः शुभकरैः सितवस्त्रावगुण्ठितः ॥२५॥ भृतं मुशीतलं तोयं निर्मलं मृदु वीजितम् । पिबेत्सौवर्णचषकैः शुक्तिभिर्वा विसैरपि ॥ २६ ॥ दिव्यं शरदि पानीयं हेमन्ते सरिदुद्भवम् । शिशिरे वारि ताडागं वसन्ते सारसं पयः ॥ २७ ॥ निदाघे नै_रं तोयं भौमं प्राकृषि पीयते । हंसोदकं सैंदा पथ्यं वार्स पेयं यथारुचि ॥ २८ ॥ सहजं निर्मलं वापि संस्कृतं गन्धवासनैः । पीयते सलिलं यत्तु पानभोगः स कीर्तितः ॥ २९ ॥
॥ इति पानीयभोगः ॥१४॥ प्रोक्तः पानीयभोगोऽयं सोमेश्वरमहीभुजा । पादाभ्यङ्गोपभोगोऽयमधुना परिकीर्त्यते ॥ १६३० ॥ वामपार्श्वे शयानः सन्पादावभ्यञ्जयेत्सुखी । सर्पिषा शतधौतेन नवनीतेन वा नृपः ॥ ३१ ॥ दध्ना तैलेन पयसा तक्रेणापि युतेन वा ।
श्रीखण्डक्षोदनीरेण बदाः फेनकेन वा ॥ ३२॥ १ A व । २ A कांका । ३ A णः। ४ A नि। ५ C मान् । ६ D न्यै । ७ D F स्फा ।
८A जीवि। ९ A ब । १. F त्सु। ११ A घेनि । १२ A तथा। १३ A य॑ते । १४ F भि।
Aho! Shrutgyanam
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः।
१३९
पादसंवाहदक्षाणां कामिनीनां मनोहरैः। अशोकपल्लवप्रख्यैर्हस्तैरत्यन्तपेशलैः ॥ ३३ ॥ वसन्ते सर्पिषा दना शीतेन पयसाऽपि वा । निदाघे नवनीतेन काञ्जिकेनै सफेनकैः ॥ ३४ ॥ वर्षासु वसयाभ्यङ्यौ पादौ तक्रेण वा पुनः । शतधौतेन शरदि सर्पिषा चन्दनोदकैः ॥ ३५॥ हेमन्ते शिशिरे चैव तैलेनाभ्यञ्जयेत्पदे । पश्चात्प्रक्षालयेत्पादौ सुखस्पर्शेन पाय(थ)सा ॥ ३६ ।। मसरयवपिष्टैश्च हरिद्राचूर्णमिश्रितैः। उद्धृ()त्य च पुनः पादौ क्षालयेत्सुखवारिणा ॥ ३७॥ एवं यः कारयेद्राजा भोजनादूर्ध्वमन्वहम् । पादाभ्यङ्गोपभोगोऽयं वर्णितः सोमभूभुजा ।। ३८ ॥
इति पादाम्यङ्गोपभोगः ॥ १५ ॥ इदानीं सुखदोऽत्यर्थं यानभोगो निरूप्यते । दोला सुखासनं हस्ती करिण्यश्वतरी हयः ॥ ३९ ॥ रथो नौः प्लवर्कश्चेति नवधा यानमुच्यते । सुवक्रया वेणुजया हेमरत्ननिबद्धया ॥ १६४० ॥ स्वर्णशृङ्खलवत्पट्टन्यस्तशय्योपधानया । दिव्यपट्टप्रच्छदया वीधद्वयबा(वा)ह्यया ॥ ४१ ॥ एकदण्डिकया यानं दोलायानं तदुच्यते । दन्दिदन्तविनिर्माणं हेमरत्नविभूषितम् ॥ ४२ ॥ शार्दूलचर्मसन्नद्धं दण्डिकाद्वयधारि च । चतुभिर्विविधैर्वा(वविधैर्वा)ह्यं हंसशय्यासमन्वितम् ।। ४३ ॥ पृथ्व्यांधारेण संयुक्तं सुखासनमिति स्मृतम् । समग्रं विपुलस्कन्धं मृदुसञ्चारसंयुतम् ॥ ४४॥
१C D F स्तलैरभ्यञ्जयेच्छनैः। २ A सा। ३ C F काजिकैः परिकीर्तितः D काजिकैः कोल । ४ A गौ । ५ D निणी । ६ A का। ७ D विवि । ८ A वी।
Aho! Shrutgyanam
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १६
जवने त्वरितं नागं याने शंसन्ति कोविदाः । सौवर्णस्तम्भयुक्तेन मुक्तादामविराजिना ॥ ४५ ॥ काञ्चनैः कलशैः श्लक्ष्णैरुपरिष्टाद्विराजिना । मयूरपिच्छपुच्छैा प्रच्छन्नेन सुशोभिना ॥ ४६ ॥ चौरुचामीकरच्छन्नपुष्पकेणोपशोभिता । करिणी लघुसञ्चारा वेशदेश(शे) त्वकम्पना ॥ ४७ ॥ उपवेशे स्थिरा धीरा गमने च जवाधिका। गतौ तु सलिला रम्या सर्वतस्त्रासवर्जिता ॥ ४८ ॥ चारुचामीकरच्छन्नपुष्पकेणोपशोभिता । अस्खलन्ती पदन्यासे यानेष्वश्वतरी वरा ॥ ४९ ॥ मयूरगतिको बा(वा)ह्यस्तित्तिरीगतिसन्निभः । मरालगमनो वाऽपि चतुष्कगतिशोभितः॥ १६५० ॥ गच्छतः कम्पतेऽश्वस्य पुच्छंग्रीवं विशेषतः। त्वरिता गतिरित्यर्थं मायूरीति निगद्यते ॥५१॥ शीघ्र पदानि कुरुते यत्र पुच्छं न कम्पते । सा गतिस्तैत्तिरी ज्ञेया हयवाहनकोविदैः॥ ५२ ॥ पार्थाभ्यां दोलनं यत्र हंसवद्गच्छतो हरेः। शिरोऽपि म(विधु)नुते तद्वन्मरालीगतिरीदृशी ॥ ५३ ॥ पादैश्चतुर्भिः सञ्चारे ललितं यत्र गच्छति । चतुष्कगतिराख्याताऽनुत्तमा सुखदायिनी ॥ ५४ ॥ अश्वैश्चतुर्भिाभ्यां वा युक्तश्चक्रयुगान्वितः । मत्तवारणकैर्भव्यश्चित्रितैः परिशोभितः ॥ ५५ ॥ नानावर्णपताकाभिाजितः सुदृढाक्षकः । उत्तमः स्यन्दनो याने नृपाणामेव निर्मितः॥ ५६ ॥ शाकजैः फलकैश्छन्ना यों च वल्कलवेष्टिता । आयता सुदृढा नीरे सा नौर्याने प्रशस्यते ॥ ५७ ॥
१ This line is repeated below in 491 २D देश।३D धारा। ४ Dभनः। ५)च्छं। वा । ७Dर। ८Dज। ९ Aउ। १० A तम् । ११D च्छि। १२ A यो। १३ Aर।
६
Aho ! Shrutgyanam
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
वेणुकस्रभिरन्योन्यं गुम्फितो वर्तुलाकृतिः । पिनद्धचर्मणा वाह्ये प्लवकोऽयं जलेचरः ॥ ५८ ॥ एतैर्यानैर्यथायोग्यं याति यः पृथिवीपतिः । यानोपभोगः कथितः सोमेश्वरमहीभुजा || ५९ ॥
इतियानोपभोगः ॥ १६ ॥
इदानीं छत्रभोगोऽयं कथ्यते राजवल्लभः । पट्टनिबद्धेन दण्डेनोपरि धारितम् || १६६० ।। नानावर्णसुसूत्राभिः कम्राभिः कृतपञ्जरम् । श्वेतवस्त्रेण सञ्छन्नं मुक्तादामसुसुसकम् ॥ ६१ ॥ नील विद्रुममुक्ताभं लम्बनैः परिशोभितम् । चञ्चत्काञ्चनजांतेन कलशेन विराजितम् ॥ ६२ ॥
पुण्डरीकसितच्छत्रं राजयोग्यमनुत्तमम् । नीलपट्टनिबद्धानि रौप्यदण्डधृतानि च ॥ ६३ ॥
नानावर्णविचित्राणि झल्लरीभिर्युतानि च । मेघडम्बरनामानि चामरोत्तंसितानि च ॥ ६४ ॥ छत्राणि विलसत्कान्तिमणिभिर्जडितानि च । सैसौवर्णकलापस्थं (स्थ) चन्द्रकैः परिकल्पितम् ॥ ६५॥
सुवर्णदन्ती (न्ति) दण्डेन रत्नेन परिमण्डितम् । कलशेन तदुत्थेन शुभ्रेण परिशोभितम् ॥ ६६ ॥ पिच्छछत्रमिदं प्राहु: सॉगिरीति विचक्षणाः । रोहितैः पिञ्जरैचित्रैर्नानावर्णैर्नृपोत्तमः ॥ ६७ ॥ आतपत्रैरसंख्यातैः वरियन्नातपं चरेत् । एतेषां शीतलां छायामाश्रितः पृथिवीपतिः ।। ६८ ॥
सुखेन मोदते यत्तु छत्रभोगः प्रकीर्तितः । छत्रभोगोऽयमुद्दिष्टः सोमेश्वरमहीभुजा || ६९ ॥
१४१
१ Dषा । २F मण्डितानि वराणि च । ३ A सौवर्णक । ४ A दंतप्रकल्पेन दंतिदण्डेन परिकल्पितं । ५ D सिग । ६ A वरि ।
Aho! Shrutgyanam
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १८
॥ इति छत्रभागः ॥ १७॥ शय्याभोगोऽयमधुना वय॑ते सुखदायकः । हंसपिच्छमयी काचिच्छाल्मलीतूलजा परा ॥ १६७० ॥ कासिरचिता चान्या केसरितरा कृता । पल्लवैः कल्पिता काचित् काचित्कुसुमनिर्मिता ॥ ७१ ॥ पानीयपूरिता काचिच्छय्येयं सप्तधा स्मृता । दन्ताद्धि () लोहचरण(:)साष्टापदपदस्तथा ॥ ७२ ॥ वर(रव)श्च वलनं चैव वेग्रिरुः (त्रिका) पट्टिकामयः । दोलाक्षश्चेति कथिता मञ्चा विद्वद्भिरष्टधा ।। ७३ ।। शऱ्यांना लक्षणं वक्ष्ये मञ्चकानां तथैव च । मरालजठरोद्भूतैर्मण्ड(मृदु)भिः पु(पि)च्छगुच्छकैः ॥ ७४ ॥ श्लक्ष्णेन चर्मणा नदैः शय्या हंसमयी शुभा। शाल्मलीफलगर्भोत्थैः तूंलैजिविवर्जितैः ॥ ७५ ॥ घनेन वासना(सा)नद्धैः शाल्मलीतूलिका भवेत् ।। कार्यासपिण्डकं यत्नाद्वीजं संस्फेध(स्फोट्य) पट्टके ॥ ७६ ॥ अयःशलाकया पश्चाद्धनुषा तं विवेचयेत् । दृढेन वाससाऽऽसीव्य विशालपरिशोभिना ॥ ७७ ॥ या शय्या क्रियते मृद्वी सा तु कार्पासजा मता। केसरैः पद्मसम्भूतैर्नागपुष्पसमुद्भवैः ॥ ७८ ॥ सुरभीकुसुमोत्यैश्च तथा कुङ्कुमसम्भवैः । पटीपट्टेन चित्रेण गुम्फितैश्चारु शिल्पिभिः ॥ ७९ ॥ शय्या केसरजाऽऽख्याता सुगन्धिः पृथिवीभुजाम् । कैमलोत्पलकल्हाररम्भाकङ्कोलिपल्लवैः ॥ १६८० ॥ कोमलैः कल्पिता शय्या शीतला पल्लवाभिधा । मल्लिकापाटलीपुष्पैः कुसुमैश्चम्पकस्य च ॥ ८१ ॥
१ A ल । २ D च । ३ A वग्निकः F वग्रिरुः । ४ A यने । ५ A स्थू । ६ D नने । ७D मा Fतली शाल्मलिका Cशाल्मलीमा D लीतू । ९ A स्फे। १. A व्या । ११D को।
Aho! Shrutgyanam
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३॥
मानसोल्लासः।
अन्यैः सुगन्धिभिः पुष्पैरपन्तैः कृता तु या । शय्या कुसुमजा नाम कामकेलिसुखावहा ॥ ८२ ॥ चर्मजा वारिणा पूर्णा तोयशय्या प्रकीर्तिता । द्विपदन्तकृतैः पादैश्चतुर्भिरुपशोभितैः ॥ ८३ ॥ दन्ताजिना(ना)म मञ्चोऽयम् सर्वदन्तमयः शुभः । ताम्रारकूटघटितश्चरणैस्तन्मयैः शुभैः ॥ ८४ ॥ लाहेमञ्चकनामाऽयं सुदृढः परिकीर्तितः । चारुचामीकरानद्धो रचनापरिरञ्जितः ॥ ८५॥ अष्टापदमयः प्रोक्तो मञ्चकोऽयं चतुष्पदः । यन्त्रिपत्रकृतै दैरानन्दं तनुते नदन् ॥ ८६ ॥ वर(स्व)मञ्चः समाख्यातो रतिकेलिषु कामुकैः । उपवेशनमात्रेण गच्छत्यूर्ध्वमधश्च यः ॥ ८७ ॥ दृढाजिश्चारुरूपश्च लव(वल)मञ्चः प्रकीर्तितः । त्वभित्रस्य बाह्याभिस्तनुभिर्गुम्फितो धनम् ॥ ८८ ॥ कुटिलैश्चरणैर्युक्तो वेत्रमञ्चः प्रकीर्तितः । कासगुणकप्ताभिः पट्टिकाभिः सुगुम्फितः ॥ ८९ ॥ दीर्घाभिश्चित्रवर्णाभिर्मश्चोऽयं पट्टिकाभिधः । श्रीखण्डदारुघटितः कनत्काञ्चनभूषितः ॥ १६९० ॥ खचितो दिव्यरत्नैश्च मत्तवारणशोभितः । सौवर्णशृङ्खलाबद्धो लम्बमानः सदोलनः ॥ ९१ ।। किञ्जल्कशय्यामा(य्यया)युक्तो दोलामञ्चः सुखप्रदः । वसन्ते हंसजा शय्या क्रीडायां पुष्पपत्रजा ॥ ९२ ।। निदाघे तुलजा शय्या मध्याह्न तोयजा शुभा। हेमन्ते शिशिरे चैव वर्षासु च विचक्षणः ।। ९३ ॥ भजेत शय्यां कार्पासीं नृपः शीतापनुत्तये । शरत्काले तु कैञ्जल्की दोलामञ्चसमाश्रिताम् ॥ ९४ ॥
१Dता। २ A च । ३ F यन्त्र D यन्त्रयन्त्रि । ४ D रच F चर।
Aho ! Shrutgyanam
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
मानसोल्लासः ।
अधितिष्ठेन्महीपालो भोगार्थ सुविचक्षणः । एवंविधेषु मञ्चेषु शय्यास्वेवंविधासु च ।। ९५ ॥ शेते विशाम्पतिर्यत्तु शय्याभोगः प्रकीर्तितः । शय्या भोगोऽयमाख्यातः सोमेश्वरमहीभुजा ।। ९६ ॥ ॥ इति शय्याभोगः ॥ १८ ॥
अधुना धूपभोगोऽयं वर्ण्यते सौरभोत्कटः । लाक्षागुग्गुल कर्पूररालकुण्डुरु सिल्हकं ॥ ९७ ॥ श्रीखण्डं दारु सैरलं लघुकोष्ठ च वालकैः । मांसीकुङ्कुमपथ्या च(च) कस्तूरीपूतिबीजकैः ॥ ९८ ॥ शङ्खनाभिनर्वैश्चैव सितामधुघृतं गुडः । समान्येतानि चूर्णानि द्रवद्रव्यं विहाय च ।। ९९ ।। द्विगुणं लघुकर्पूरं चूर्णधूपोऽयमुत्तमः । एतान्येव हि सिल्हेन मिश्रयेन्मधुसर्पिषा ॥ १७०० ॥ गुडेन पिण्डयेत्पश्चात् पिण्डधूपो बरो मतः । द्रव्याण्येतानि तोयेन पिष्टानि मधुसर्पिषा ॥ १ ॥ वर्त्तिरूपाणि शुष्काणि वर्त्तिधूपो मनोहरः । रीतिरूपमयो वापि सुवर्णघटितोऽथवा ॥ २ ॥ खगो वाऽपि मृगो वाऽपि सँरन्ध्रः सम्पुटात्मकः । अङ्गारगर्भिते (तो) पिण्डेनार्त्वितो धूपमुद्भिरेत् || ३ || मुखर्णादिभिः पिण्डधूपे स्वयं क्रमः । अङ्गारगर्भिते पात्रे चक्रदण्डेन संयुते ॥ ४ ॥ विकिरेद्धपचूर्ण तद्वारंवारमिति क्रमः । दन्तेन रचिते श्लक्ष्णे सुपात्रे बहुदण्डकैः ॥ ५ ॥
दण्डेन वा समायुक्ते धूपैंने सूचि संयुते । सूचिकाग्रे विनिक्षिप्य वत्तिं सन्धुक्ष्य वह्निना ॥ ६ ॥
[ अध्यायः १९
१ F रः । २ Dन्दु ? । ३ A सिंहि । ४ Aश। ५A ष्ठ । ६ Aख । ७A सं । ८ D ते । SD १० F पेन ।
Aho! Shrutgyanam
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। स्थगयेसम्प(म्पु)टेनाथ रन्धेधूपो विनिःसरेत् । करण्डं दण्डसंयुक्तं पाणिना परिवर्तयेत् ॥ ७ ॥ आत्मनोऽपि मुखं क्वापि प्रेयसीवदनेषु वा । करण्डकमदण्डं तु धूपवर्तिसमन्वितम् ॥ ८॥ अंशुकान्तं क्षिपेद्वाऽपि खोम्पके वापि निक्षिपेत् । धृर्पयेत शुभां शय्यां वसनेनावगुण्ठिताम् ॥ ९॥ . . पञ्जसैधौंतवासांसि पिण्डकैचूर्णकैरपि । गृहं च पिहितद्वारं निरोधितगवाक्षकम् ॥ १७१० ॥ धूपयेद्बहलैधूपैः पिण्डधूमसमुद्भवैः । विलासचतुराणां हि नृपाणां च विनोदिनाम् ॥ ११ ॥ धृपभोगोऽयमाख्यातः सोमेश्वरमहीभुजा । भूलोकमल्लदेवेन धूपभोगोऽयमीरितः ॥ १२ ॥
इति धूपभोगः ॥ १९॥ योषितामुपभोगोऽयं कथ्यते स्मरदीपनः । अचापल्यं भयं लज्जा दाक्षिण्यमनुकूलता ॥ १३ ॥ मधुरस्वरता दाक्ष्यं पटुत्वं प्रियवादिता । मानः शुचित्वं दाक्षिण्यं गुरुशुश्रूषणे रतिः ॥ १४ ॥ धर्मज्ञतार्जवं सत्यं कौशलं सर्वकर्मसु । हृष्टता स्मितहासित्वं पतिदोषनिगृहनम् ॥ १५ ॥ व्ययवैमुख्यमित्येते योषितां प्रवरा गुणाः । स्त्रीणां रूपवती श्रेष्ठा सुरूपा( सयौवना ॥ १६ ॥ संयौवनासु गीतज्ञा गीतज्ञास्वपि नर्तकी । उत्तरोत्तरमेतासु श्रेष्ठ्यं पूर्वगुणैः सह ॥ १७ ॥ एतैः सर्वगुणैर्युक्ता दुर्लभा रमणी भुवि । मृगी च पद्मिनी चैव चित्रिणी वडवा तथा ॥१८॥
१ A F स्था। २A जम्पने। ३ A अ। ४ Fपाय। ५ मा ६Dच। CDFसु। १९
Aho! Shrutgyanam
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६
मानसोल्लासः ।
हस्तिनी शङ्खिनी चेति षड्विधा जातिरिष्यते । आ द्वे उत्तमेतत्र मध्यमे मध्य संस्थिते ॥ १९ ॥
अन्त्यस्थिते कनिष्ठे च त्रिधा जात्या प्रकीर्तिताः । मध्यमोत्तम जातीया भोगयोग्या वरस्त्रियः ।। १७२० ॥ हस्तिनी शनी चेमे भोगाय परिवर्जयेत पादौ कोकनदच्छयौ गूढगुल्फोपशोभिनी ॥ २१ ॥ अनुपूर्वेण वृत्ते च जङ्घे ऊरू सकान्तिकौ ॥ पीवरं जघनं गुह्यमश्वत्थदलसन्निभम् ॥ २२ ॥ तनु वृत्तं तथा मध्यं वर्चुलावुन्नतौ स्तनौ ॥ कोमल बाहुयुगलं शिरीषकुसुमोपमम् ॥ २३ ॥
कङ्केलिँपलवाकारौ करादृज्वङ्गुलीयुतौं । आताम्रनखरौ ग्रीवा पूगीकण्ठोपमा मता ॥ २४ ॥
प्रवालमणिसैन्दंश (दृशं) दशनच्छद सम्पुटम् । दाडिमबीजसङ्काशा रदनाः सुमनोहराः ।। २५ ।।
समौ तनुकपोलौ च श्रवणौ शुक्तिसन्निभौ । उन्नता सरलस्रोता नासिका लक्षणान्विता ॥ २६ ॥
पक्ष्मले चक्षुषी दीर्घे त्रस्यन्मृगविलोकने । क्रे दीर्घे भ्रुवौ भालमष्टमीचन्द्रसन्निभम् ॥ २७ ॥ भालानुरूपं शीर्ष च सतरङ्गाः शिरोरुहाः । सुप्रमाणा गलनि (ङ्गलति का गतिर्मृगगजोपमा ॥ २८ ॥ क्षणे रोषः क्षणे तोषो बहुरीर्ष्याकुलेक्षणा । ऋतुप्रमाणसम्प्रीतिर्लालसा रतिकर्मणि ।। २९ ।।
पद्मसौरभ्यसङ्काशमच्छं निधुवनोदकम् । चित्ते चञ्चलता दाढर्यमनुरागे प्रियं वचः ।। १७३० |
१ D दाकारौ । २ C तौ । ३D गु । ४ Fल्लि । ५ F सन्दे । ६ A ला ।
Aho! Shrutgyanam
[ अध्यायः २०
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४७
विंशतिः३]
मानसोल्लासः। एतैर्गुणैः समायुक्ता मृगीजात्योपलक्षिता । मधुवर्णाः सुकान्ताश्च नखराश्चरणोद्भवाः ॥ ३१ ॥ अङ्गुल्यः संहता रूंढ्यः (ऋज्व्यः) परिपाट्या समाः शुभाः। रक्तपङ्कजसङ्काशौ समौ पादतलौ शुभौ ॥ ३२ ॥ गूढौ गुल्फो सुवृत्तौ च जङ्ग्रे पादानुरूपके । रम्भास्तम्भानभावूरू विशालं जघनं तथा ॥ ३३ ॥ ईषद्विकसिताम्भोजसदृशं स्मरमन्दिरम् । वलित्रितयशोभाढ्यं मुष्टिग्राह्यं च मध्यमम् ॥ ३४ ॥ स्थूल श्रीफैलसङ्कगशौ स्तनावविरलौ समौ । वर्तुले बाहुशिखरे बाहू सुललितावपि ॥ ३५ ॥ सुकुमारतरौ हस्तौ तले पल्लवकोमले । मुद्गशिम्बिसमाकाराः करशाखा मनोरमाः ॥ ३६ ॥ पद्मपत्रसमच्छायमधुराः करजा वराः। नातिस्थूला नातिदीघों न इस्वा सुस(ष)मा शुभा ॥ ३७ ॥ ग्रीवा रेखात्रयोपेता बिम्बीभागनिभोऽधरः । पकदाडिमबीजाभा दन्ताः कान्तिमनोहराः ॥ ३८ ॥ तिलपुष्पसमाकारा नासिका सुमनोहरा। नीलोत्पलस्य नालेन समे श्रवणगे(पा)लिके ॥ ३९ ॥ शोभने श्रवसी गण्डौ समावुज्वलकान्तिकौ । कुन्दपत्रोदरासीनशुभ्रभ्रमरसन्निभे ॥ १७४० ॥ लोचने प्रान्तसंरक्ते घनश्यामलपक्ष्मणी । सन्त्रस्तब(बा)लसारङ्गभङ्गीचञ्चलमीक्षणम् ॥ ४१॥ अधिज्यकामकोदण्डकुटिले सन्नते ध्रुवौ । अष्टमीचन्द्रसङ्काशं ललाटं सुमनोहरम् ॥ ४२ ॥
.... १D रुज्वः F शब्द्यः । २ D घनं । ३Aप । ४D नौ च । ५ D माकारा। ६ D कारे शुभ्रताम्ररसान्तरे।
Aho! Shrutgyanam
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
मानसोल्लासः।
[अध्यायः २०
बहवः श्यामलाः सूक्ष्मा मृदुदीर्घाः शिरोरुहाः। नववंशसमच्छाया ( यो ) वर्णः कान्तिमनोरमः ॥ ४३ ॥ गतिमत्तेभसदृशी शिरीषमृदुलं वपुः । पद्मसौरभसङ्काशो वपुःपरिमलः शुभः ॥ ४४ ॥ अम्भोजगर्भसंस्पर्धिगन्धं निवनोदकम् । कोकिलालापमधुरो ध्वनिः श्रुतिसुखावहः ॥ ४५ ॥ रम्यस्त्रीभावसंसर्गः शुचि चाल्पं च भोजनम् ।। अल्पभूषणसम्प्रीतिः श्वेतपुष्पाम्बरे रतिः॥ ४६॥ मानः सौतिशयो लज्जा भूषणं परमं मतम् ॥ गुरुदेवार्चनासक्तिः सम्भोगे त्यक्तलज्जता ॥ ४७ ॥ दाक्षिण्यं दानशीलत्वं बन्धुप्रीतिर्मितं वचः ॥ सत्यवाक्त्वं दृढा प्रीतिः शोभा भूषां विनाऽपि च ॥ ४८ ॥ एतैर्गुणैः समायुक्ता पद्मिनी कीर्तिता बुधैः । लघुपादतले रम्ये तनुंजके सुशोभने ॥ ४९ ॥ किञ्चिद्वक्रौ शुभावूरू पृथुलं जघनस्थलम् । उन्नतः सुकुमारश्च सरसो मदनालयः ॥ १७५० ।। त्रिवलीमध्यसङ्काशो मध्यभागो मनोहरः। पीनौ वृत्तौ सुरम्यौ च वर्धमानौ पयोधरौ ॥५१॥ वक्षःस्थलं विशालं स्यादानुपूर्व्या तनू भुजौ । सुकुमारं करतलमगुल्यः सरलाः शुभाः ॥ ५२ ॥ कम्बुनाभिनिभः कण्ठः किश्चिदभ्युन्नतोऽधरः । सुच्छाया दशना नासा नातिदीर्घा न वामना ॥ ५३ ।। तनू कपोलफलको कौँ शोभासमन्वितौ । दीर्घे तीक्ष्णे च नयने निम्बपत्रार्धसन्निभे ॥ ५४॥
१D । २ F तोलनं । ३ A सान्ति । ४ D वाक्य । ५ A नतु ।
D च। ७ F वर्त । ८ व।
Aho! Shrutgyanam
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशतिः ३ ]
मानसोल्लासः ।
भ्रुवौ भातलं रम्यं वाः कृष्णाः शिरोरुहाः । सुप्रमाणं व संस्थानं लतावत्तनुविग्रहः ।। ५५ ।। गीते नृत्ते च वाद्ये च रतिः सुललिता गतिः । सुगन्धि रागसलिलं सुसूक्ष्मस्वरभाषणम् ॥ ५६ ॥ कलाकौशल सम्प्रीतिः श्यामो वर्णो मनोहरः । गौरः श्या (रश्या) मोऽथवावर्णश्चित्रभूषाम्बरस्पृहा ।। ५७ ।।
विचित्रे च रते प्रीतिश्चित्रिण्या लक्षणन्त्विदम् । अलक्तरससच्छाये शोभने पादयोस्तले ।। ५८ ।। गुल्फौ सुसन्नौज वृत्ते दीर्घे च मांसले । ईषद्वक्राकृती ऊरू गम्भीरं नाभिमण्डलम् ।। ५९ ।।
उदरं तनु वृत्तं च स्तनावायतचूचुकौ ।
उरो विशालं बाहू च वृत्तौ दीर्घौ च मांसल ।। १७६० ।।
रक्तपङ्कजसङ्काशौ कोमलौ करपल्लवौ । अङ्गुल्यः कोमला वृत्ता दीर्घा स्थूला च कन्धरा ॥ ६१ ॥
पीनौ रदच्छदौ रम्यौ दशनाः स्थूलसंहताः । तथा स्थूलायतौ कर्णौ नेत्रे नीलोत्पलप्रभे ॥ ६२ ॥
स्थूले भ्रुवौ तथा वक्रे निम्नं भालमथोन्नतम् । स्थूला दीर्घा घनाः केशा बहुरीय मृदुर्गतिः ॥ ६३ ॥
गम्भीर अधुरा वाणी चलं चित्तं मृदुस्तनुः । निद्रा बुभुक्षा सततं स्निग्धकामुककामिता ॥ ६४ ॥
सम्भोगान्ते सरक्तत्वं मांसगन्धिद्रवोऽधिकः । सुरताहवशूरत्वं नवाङ्गुलरतिस्तथा ।। ६५ ।।
इत्येतैर्लक्षणैर्युक्ता वडवाँ परिकीर्तिती । शङ्खिनी हस्तिनीशीला विशालाई भगांऽधमा ॥ ६६ ॥
१४९५
१ D समुन्न । २ D ललाटं तद् । ३ Aता । ४ A ग्रन्थि । ५ A वाः । ६ A. ताः । ७ A. श. । • A F विष्टीपा भगा Df... द्विभगा । ९ CF गो ।
Aho! Shrutgyanam
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
[अध्यायः २०
मानसोल्लासः। दुर्गन्धा दुःस्वभावा च तस्माद्भोगे विवर्जिते । सुरूपा कान्तिसंयुक्ताचपला भयवर्जिता ॥ ६७ ॥ अस्वेदा च सुगन्धिश्च चिरकालनिमेषिणी । स्थिरस्तनी मिताहारा वलीपलितवर्जिता ॥ ६८ ॥ श्वेतभूषाम्बरप्रीता गौरश्यामोत्तमप्रिया । प्रसन्ना त्यागशीला च शौचाचारसमन्विता ॥ ६९ ॥ ईपल्ल(दृग्ल)क्षणसम्पन्ना योषिदेवांशकोद्भवा । सुसंस्थाना सुतन्वी च तरङ्गितशिरोरुहा ॥ १७७० ॥ सहासवदनाम्भोजा पक्ष्मलाक्षी दृढस्तनी । मितास्या तनुमध्या च दर्शनीयाँ नितम्बिनी ॥ ७१ ॥ सुकुमारकराद्भिश्च सुभगा प्रियभाषिणी । कलाविद्भङ्गिचतुरा सदा साहसिके रता ॥ ७२ ॥ सदैवासत्यवचना सिद्धांशकसमुद्भवा।। सुरम्यनिम्नवदना शफरीचललोचना ॥ ७३ ॥ मध्ये क्षामा कान्तिमती सपुष्पनखरावली । नातिस्थूला न च कृशा गीतवाद्यप्रिया सदा ॥ ७४ ।। सुगन्धिकुसुमासक्ता गीतज्ञा चातिकामिनी । अव्यवस्थाचलपान्ता स्वैरिणी पटुंहासिनी ॥ ७५ ।। ईदृग् लक्षणसंयुक्ता गन्धर्वांशकसम्भवा । सम्पूर्णचन्द्रवदना निम्ननासा कृशोदरी ॥ ७६ ॥ उत्तुङ्गभाला वक्रा(क)भ्रूश्चञ्चच्चलविलोचना। तन्वी च हरितश्यामा घनवृत्तलघुस्तनी ॥ ७७ ॥ प्रमाणोत्सेधसंयुक्ता राजज्जघनमण्डला । श्लक्ष्णोरुर्वृत्तजङ्घा च निर्लोमा स्वेदवर्जिता ॥ ७८ ॥
१D चापलाभयवर्जिता । २ A धृड । ३ A य । ४ A ४ । ५ A नी ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः३j
मानसोल्लासः। कृशाङ्गुली स्वल्पनखी' स्वेदेपि च ससौरभा। गीतनृत्तकलादक्षा सम्भोगे चित्तहारिणी ॥ ७९ ॥ मौग्ध्यवैदग्ध्यसंयुक्ता सानुरागाऽतिकाङ्किणी । विलासविभ्रमोपेता विचित्रवसना(न)प्रिया ॥ १७८० ॥ सनर्महासचतुरा साऽप्सरोंशकसम्भवा । सहकारफलाकारवदना चारुहासिनी ॥ ८१॥ समभालतला सुभ्रूस्तीक्ष्णापाङ्गविलोकिनी । स्वच्छगण्डस्थलच्छाया वृत्तपीनपयोधरा ॥ ८२ ॥ सकान्तिरदना रम्यरेखालङ्कृतकन्धरा । तनुपध्या पृथुश्रोणी(णि) रुजङ्घा मनोहरा ॥ ८३ ॥ माल्यमण्डनके दक्षा वृत्तज्ञा चपलाशया । उद्वेजयति भर्तारं कासन्ती द्रविणं बहु ॥ ८४ ।। पुनः सङ्घट्टते विद्याधरांशकसमुद्भवा । दीर्घानना निम्नघोणा लघुलोचनभामिनी ॥ ८५ ॥ त्रिकोणभालफलका घननीलशिरोरुहा । जङ्घाकाण्डे प्रकोष्टे च सूक्ष्मरोमसमन्विता ॥ ८६ ॥ विचूचुककुचाभोगा मध्यभागे कृशा भृशम् । . विशालजघनोपेता सुप्रमाणा लसन्नखी ॥ ८७ ॥ निगृहयित्री गुह्यानि गुह्यकांशसमुद्भवा । नात्यायतमुखी दीर्घलोचना समनासिका ॥ ८८ ॥ तनुदन्तच्छदा दीर्वाधिंका पृथुलहस्तिनी । विशालवक्षाः सुग्रीवा भूषणेषु रता सदा ॥ ८९ ॥ मृदुबाहुः श्लक्ष्णकक्षा करकाठिन्यसंयुता । तनुमध्या शुभतनुर्विशालजघनस्थला ॥ १७९० ॥
१D खा। २ F भि। ३ A र । ४ D त। ५ A पु D रूरू। ६ A गो। 6D धिषका पृथुलस्तनी ।
D यन्ती।
Aho ! Shrutgyanam
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः २०
ईषद्वक्रोरुजङ्घा च स्फुटिताजितला मनाक् । चलचित्ता प्रिये लोला पुष्पमाल्यविलेपनों ।। ९१ ॥ प्रस्थापयन्ती ताम्बूलं स्वीयं प्रियतमं प्रति । अत्यन्तच्छविसंयुक्ता श्यामकर्ण(वर्णा) मनोरमा ॥ ९२ ॥ एवं रूपगुणोपेता किन्नरांशकसम्भवा । तन्वी गौरी लघुकुचा दीर्घनेत्रा कृशोदरी ॥ ९३ ॥ लघुश्रोणी सदा भीरुरेवं धारयते ढूँढम् । गन्धवद्रव्यमाल्येषु लुब्धा शुद्धासनप्रिया ।। ९४ ॥ ज्योत्स्नाध्वनिविहारेषु जलक्रीडासु लम्पटा । गोरश्यामा वक्रमतिश्छिद्रान्वेषणतत्परा ॥ ९५ ॥ एतल्लक्षणसंयुक्ता यक्षांशकसमुद्भवा । तन्वी कान्तिमती किञ्चिद्रेक्तपिङ्गललोचना ॥९६ ॥ . अच्छगण्डस्थला स्निग्धघननीलशीरोरुहा । ईषद्विकृतजना च लीलाकुटिलगामिनी ॥ ९७ ॥ गृहान्तर्तिनी नित्यं क्षीरखण्डासवप्रिया । सखीः सङ्घट्टयत्याशु पुनर्विघटयत्यपि ॥ ९८ ॥ गौरश्यामा च वर्णेन नागांशकसमुद्भवा । वकालका कुन्तलिनी दीर्घभूर्दीर्घलोचना ॥ ९९ ॥ वृत्तस्तनी लघुतनुः ककुश्यामा समोदरी । उत्तुङ्गजघनाभोगा श्लक्ष्णजङ्घोरुशालिनी ॥ १८०० ॥ कोमलाडितलाऽताम्रनखरावलिरञ्जिता । कातरा गूढसञ्चारा परवेश्माशनप्रिया ॥ १॥ एवं रूपगुणोपेता पित्र्यंशकसमुद्भवा । स्म(स्मे)रानना विशालाक्षी दृढस्तनमनोहरा ॥ २ ॥
१A नम्। २ A नुष । ३ Aधू । ४D जाल । ५A दु ।
Aho! Shrutgyanam
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ३]
मानसोल्लासः ।
मृदुबाहुः कृशा मध्ये सुसंस्थान (ना) नितम्बिनी । रम्यजङ्घोरुयुगला मृदुपादतला वरा || ३ ||
गौराङ्गी दृढचित्ता च देवभक्ता पतिव्रता । ऋजुस्वभाव दान्ता च कोपना सुप्रसादिनी ॥ ४ ॥
स्वल्पाना च धर्मज्ञा ऋष्यंशकसमुद्भवा । ऋक्षवानरमार्जारदैत्यदानवरक्षसाम् ॥ ५ ॥
पिशाचखरशार्दूलमत्स्य सैरिभपोत्रिणाम् । सारमेयाऽखुनकुलरुरुकाकगवामपि ॥ ६ ॥
क्रोष्टुवृश्चिकहंसानां नक्रकुक्कुटयोरपि । अन्यासामपि जातीनामंशकोद्भव योषितः ॥ ७ ॥
रूपस्वभावगन्धाद्यैर्दूषिताः परिवर्जयेत् । क्षत्रियान्वयसम्भूता शीलाचारगुणान्विता ॥ ८ ॥
सुरूपा चानुकूला च तरुणी शुभलक्षणा । मृगी वा पद्मिनी वापि चित्रिणी वडवा तथा ॥ ९॥ देवायंशकसम्भूता राज्ञी कार्या महीभुजा । वैश्यशूद्रकुलोत्पन्नों रूपयौवनसंयुत ( : ) ।। १८१० ।।
गीतनृत्तकलादक्षा चि (श्चितज्ञाः प्रेमनिर्भराः । सम्भोग सुख साम्राज्य संवर्धनविचक्षणाः ॥ ११ ॥
अवरोधवधूः कान्ताः कुर्याद्भोगाय भूपतिः । रूपलावण्यसंयुक्ता युक्तास्तारुण्यसम्पदा ॥ १२ ॥ सविलासा विलासिन्यः कर्तव्याः पृथिवीभुजा । दिव्यरत्नविभूषाभिर्वस्त्रमाल्यादिलेपनैः ।। १३ ।।
यानासनगृहैर्भव्यैर्माननीया यथाक्रमम् | ईक्षणैर्नर्मभिर्गोष्टिचा हसितैः स्पर्शनैरपि ॥ १४ ॥
१५३
१ A दै । २ A वो। ३ A स । ४ D देवताद्यंश । ५ न्नां । ६ A तां । ७Aक्षां । ८ A
२०
Aho! Shrutgyanam
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः २० क्रीडाभिश्च प्रियालापैः सम्भोगैस्ताश्च रञ्जयेत् । वस्त्राभरणदानैश्च पानखादनतर्पणैः ॥ १५ ॥ प्रेमनिर्भरसंलापैर्वनादिक्रीडनैरपि । तोषयेद्योषितस्तास्तास्तुष्टा भोगाय कल्पयेत् ॥ १६ ॥ भोजने मज्जने कान्ता पादाभ्यङ्गेऽङ्गमर्दने । केशसंवाहने चैव दिव्यगन्धविलेपने ॥१७॥ गीतवाद्यश्रुतौ (न)त्तप्रेक्षणे चारुदर्शने । जलादिक्रीडने चैव योजयेत्ताः सुयोषितः ॥ १८ ॥ अतोऽयमुपभोग्यत्वाद्योषिद्भोगः गोर्तितः । राज्ञः सप्ताङ्गपूर्णस्य निःशेषीकृतवैरिणः । विंशतिः प्राह भोगाना श्रीमान् सोमेश्वरो नृपः ॥ १९ ॥ कन्दर्पोत्सवहेतुमद्भुतरसमोल्लामलील स्पृशम् विद्वन्मानसरञ्जनीं जनतया सत्कीर्तितां प्रत्यहम् । साश्चर्यामुपभोगविंशतिमिमा सोमेश्वरो भूपतिवाग्देवीकुलनन्दनः कथितवान् प्रत्यर्थिभूपान्तकः ॥ १८२० ॥
इति श्री महाराजाधिराज-सत्याश्रयकुलतिलक-चालुक्याभरण-श्रीमद्भूलोकमल्लश्रीसोमेश्वरविरचिते मानसोल्लासे राज्योपभोगकथने
तृतीयोऽध्यायः समाप्तः॥
---
-
-
-
Dस्त।२D नानागुणेन । ..
Aho ! Shrutgyanam
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
१५५
विंशतिः ४]
इदानी प्रमोदापादकविनोदाः कथ्यन्ते ।
अत ऊर्ध्व प्रवक्ष्यन्ते विनोदा हर्षहेतवः ।। विंशतिः सङ्ख्यया ते स्युलक्ष्यलक्षणसंयुताः ॥१॥ क्षुरिकाखङ्गकोदण्डचक्रकुन्तगदादिषु । शस्त्रेषु विविधैन्यासैः शिक्षितच.तिजश्रमः ॥ २॥ तत्तद्विद्यान् समाहूय सेवकान्सचिवादिकान् । कुमारान् मण्डलाधीशान परमण्डलिकानपि ॥ ३ ॥ पण्डितान् काव्यकर्तश्च देशभाषाविशारदान् । पाठकान्गायकांश्चैव मृतमागधन्दिनः ॥ ४ ॥ अन्तःपुरपुरन्ध्रीश्च शुद्धान्तवरयोषितः। विलासिनर्मिनाकान्ताः प्रसिद्धाः पण्ययोषितः ॥ ५॥ अलङ्कृतास्तथा सर्वान्यथास्थानं निवेशयेत् । ततः स्वयं समुत्थाय प्रमोदनमथाचरेत् ॥ ॥६॥ घनं श्लक्ष्णं सितं वस्त्रं विलासपरिशोभितम् । आजानुलम्बिनं वृत्तं वीरकच्छादिवेष्टितम् ॥ ७ ॥ पञ्चवर्णैकपटैश्च चित्रपट्टैर्मनोहरैः। समन्ततो यथाशोभं समानाञ्चलमानतः ॥ ८॥ क्षरिकागर्भितं भव्यं नत्काञ्चनकल्पितम । दलं प्रसूतिसङ्काशं दृढप(स)मादिवेष्टितम् ॥ ९ ॥ तिलके पूर्णचन्द्राभे रचयेद्भुजमस्तके । चन्दनं घुसूणोपेतं हेमपट्टसमाकृति ॥१०॥ ललाटे तिलकं कुर्यान्मध्ये कज्जलरेखया ।
तस्याः पार्थे च रेखाभ्यों सिताभ्यां परिभूषयेत् ॥ ११ ॥ ... १A वि। २ A तू । ३ A ट । ४ A न्मा। ५A व । ६ D सा । ७ D भृ । ८ A श्रुतम् । %A तिः। १.A भ्यो।
Aho ! Shrutgyanam
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः१
शेषभोगोपमा चर्चा चन्दनेनोरसि न्यसेत् । दीपिपुच्छाजिनेनाथ कुर्याच्छिरसि शेखरम् ॥ १२ ॥ चामीकरमया(यीं) कण्ठे चारुशृङ्खलिकां क्षिपेत् । हस्तयोर्भर्मवलयौ कर्णयोः स्वर्णपत्रके ॥ १३ ॥ एवं रचितशृङ्गारो वीरमूर्तिर्मनोहरः ।। प्रविशेखुरली रम्यां प्रेक्षकैः परिशोभिताम् ॥ १४ ॥ 'विहितोचितशृङ्गारो(र:) शस्त्रविद्याविशारदम् । प्रतियोगिनमास्थार्य शस्त्रविद्या विनोदयेत् ॥ १५ ॥ वितस्तिमात्रिकाहीनं मध्यमं विहिर्नस्ति च । स्थापयित्वोत्तमां शस्त्रीं गृह्णीयाच्छिक्षया नृपः॥१६॥ अङ्गुष्ठपर्वमानेन माननीयासिधेनुका। मुष्टिभागं परित्यज्य गणयेद्वंशपृष्ठतः ॥१७॥ आयुर्लक्ष्मीम(म)ति चे(च)ति समुच्चार्य पुनः पुनः। आयुर्लक्ष्म(क्ष्मी)प्र(प)दे शस्ता वा मृत्युपदे स्थिती ॥ १८ ॥ तीक्ष्णधारा हूँढा लध्वी तिर्यग्रेखाविवर्जितौं । अभिन्नधारा नात्युच्चैनींचैस्तिष्ठेत्ससौष्ठव॑म् ॥ १९ ॥ वामं पादं तथा सव्यं प्रमृतं बाहुदण्डकम् । पुरस्कृत्यावतिष्ठेत सङ्कामेच परं प्रति ॥२०॥ समुष्टिकं बाहुदण्डं दक्षिणं क्षुरिकान्वितम् । शिरःसमं समुत्क्षिप्य भैरवं स्थानमाचरेत् ॥ २१ ॥ दक्षिणं क्षुरिकाहस्तमपसौर्य च पृष्ठतः। वामदण्डं प्रसार्याग्रे पल्लीवालं प्रदर्शयेत् ॥ २२॥ क्षुरिकाग्रे तथा दण्डं प्रसार्य पुरतः समम् ।
पुरतो नम्रगावस्तु शुनकस्थानकं न्यसेत् ॥ २३॥ १A यं । २ A र । ३ F शिल। ४ A के। ५ A परं । ६ F omits these two lines. I .Dज। ८ D प्य । ९ A तस्तिकम् । १० A घृ। ११ D करयो । । १२ D मेरु। १३ Dक्ष्मी। १४ D तिं चेति। १५ D ते। १६ A धृ। १७ A ताः। १८ A वः। १९ A चा। .
Aho! Shrutgyanam
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
प्रसार्य दक्षिण बाहुमसिधेनुमधोमुखीम् । उरसि न्यस्तदण्डस्तु स्थानकं नूकमाचरेत् ॥ २४ ॥
क्षुरिकाग्रं समुन्नम्य नीचे तु मणिबन्धने । दण्डं चोरसि संस्थाप्य विनूकं स्थानमाश्रयेत् ॥ २५ वामे भागे सशस्त्रीकं करं सन्न्यस्य कम्पयन् । दण्डैवत्सन्न्यसेद्दण्डं लुलितं स्थानकं भजॆत् ।। २६ । क्षुरिका प्रसार्या दण्डं सडूनेच्य वक्षसि । नहयं स्थानकं कुर्याद्भूप(पः ) सौष्ठवसंयुतम् ॥ २७ ॥
असिधेनुमुरोदेशे कृत्वा दण्डं तर्दग्रतः ।
नट्टेकं नाम संस्थानं कुर्यात्स रञ्जर्यं स ( स ) ताम् || २८ ॥ जानुनोर्मध्यभागे तु शस्त्र्यंग्रेण स्पृशन्भुवम् । वामं प्रसार्य दोर्दण्डं स्थानं रोपितकं चरेत् ।। २९ ।। दकस्य शिरस्थाने" सवि (सासि ) धेनुं करं दधत् । वामदण्डं क्षिपन्नग्रे स्थानं पोत्ताङ्गुलं भजेत् ॥ ३० ॥ उत्क्षिप्य दक्षिण बाहुं सासिधेनुं मृगारिवत् । दण्डं नीचं तथा कृत्वा स्थानं व्याघ्रनखं श्रयेत् ॥ ३१ ॥
वामदण्डस्थलस्याधः कुर्वन्मूर्मि(वीं)सशस्त्रिक(का)म् । दक्षिणे च स्तने दण्डं भजेदर्घकपोलके ॥ ३२ ॥ वामं पुरः स्थितं पादं दक्षिणेन स्पृशेन्न । वामं पुनः क्षिपेदग्रे दक्षिणेन पुनः स्पृशेत् ॥ ३३ ॥ तथैवोपन्यसेत्पादं दक्षिणं चरणेन तु । गतागतैर्विनिर्गच्छन्पदे ग्राहं समाचरेत् ॥ ३४ ॥ पुरः स्थितेन पादेन पाश्चात्यं घट्टयेत्पुनः । तदेवाग्रे क्षिपन्गच्छन् पदप्राप्तिं गतिं भजेत् ।। ३५ ।।
१ Dरू । २A न्य । ३ A ण्डत्स । ४ A न्यं । ५A वेत् । ६Dम ९ D स्ना । १० A ल । ११ A नं। १२ D साचिधेनुकरं । १३ D र्यान्मू । १४ D
१६ D पश्चात्सं । १७ D पादं । १८ A प्तिग ।
Aho! Shrutgyanam
१५७
D सं । . D ये ।
| १५ D पा ।
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
मानसोल्लासः।
[अध्यायः१
न्यस्तौ च पादावुक्षिप्य प्रसर्पश्च शनैः शनैः । अनुक्षेपगतिं कुर्यात् सर्पणेनं विसर्पणः ॥ ३६ ॥ पादयोहतसञ्चारैरीषदुत्क्षेपलक्षणैः। सर्पणं सर्पवत कुर्यात्सर्पिका गतिमाचरेत् ॥ ३७ ॥ आकुञ्चितैस्तथा पादैर्लीलाचक्रमणाश्चितैः। मत्तवारणवद्गच्छन्मत्तेभगतिमाचरेत् ॥ ३८ ॥ जिघृक्षया दैतं गत्वा यदुत्लुत्यापसर्पति । तां गतिं वायसीं बिभ्रद्विचरेच्छस्त्रकोविदः ॥ ३९ ॥ आकुश्चिताभ्यां पादाभ्यामङ्गुल्यो(:) स्पृशन्महीम् । वाकोटीं गतिमास्थाय सञ्चरेत्क्षुरिकाकरः ॥ ४०॥ गात्रसङ्गोचनं कृत्वा सिंहवल्लङ्घयन्धुवम् । पश्चाननगतिं कुर्वन्दर्शयेत्पाणिलाघवम् ॥ ४१ ॥ किश्चिदाकुश्चयन् शस्त्रीं किञ्चिदालोलयन्भुजम् । आवतैः परिवतैश्च तथा सव्यापसव्यकैः॥ ४२ ॥ भ्रामयेत् क्षुरिकाज़ पृष्ठे पादे तथाऽग्रतः । कक्षयोः कण्ठदेशे च पादसञ्चारसंयुतः ॥ ४३ ॥ विद्युत्पञ्जरमध्यस्थमिवात्मानं प्रदर्शयेत् । चारणे धारणे चैव धारणे मारणे तथा ॥ ४४ ॥ अमोघों दर्शयेदाशां दुर्निवारों भयङ्करः।। शस्त्री प्रदर्शयेदेवं दुष्टाशयविभीषणीम् ॥ ४५ ॥ प्रेयसी मानसोल्लासां विद्वज्जनविनोदिनीम् ।। चतुर्वितस्तिकां शस्त्रीमादाय नृपतिस्ततः॥ १६ ॥ दक्षिणाधिं पुरस्कृत्य दण्डं धृत्वा तथोरसि । पूर्ववद्भ्रामयेदेनां करतालसमन्विताम् ॥४७॥
:. १D नातिसर्पणे । २ A k। ३. A द्भु। ४ A ६ । ५ A स्त्रिं । ६ A सव्याश्च व्य F सम्यैश्च । .D शीर्षे । ८ A IS A च । १० A घा।
Aho ! Shrutgyanam
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
vvvvvvvv
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। सम्भारैः कथितैः पूर्व दर्शयेत्पादलाघवम् । धारापू(घा)तो विधिस्तस्याः कथितः पूर्वमूरिभिः ॥ ४८॥ खोच्छ(श्च)नं च तथा चान्ये प्रवदन्ति मनीषिणः । मतद्वयानुसारेण धाराघातैश्च खोञ्चैनैः ।। ४९ ॥ चतुर्वितस्तिकाशस्च्या विद्योत्कर्ष प्रदर्शयेत्। आदाय च ततः शस्त्रीं दीर्घा पश्चवितस्तिकाम् ॥ ५० ॥ कर्णोपान्ते तु विन्यस्य मुष्टिं परजयोर्जिताम् । वाम बाहुं प्रसार्याथ करशाखामुखैः स्पृशन् ॥ ५१ ।। शस्त्रीमुखं ततः पादैरुत्प्लवेत चरेदपि। निषीदेत्कूर्मसंस्थाने लाघवेन तथोत्पतेत् ॥ ५२ ॥ खोश्चयेदग्रघातेन दीर्घशस्त्र्याम(स्व)यं मृधेः(धे)। दीर्घासिधेनुके चित्र्यं(काचित्र) दर्शयित्वेति पार्थिवः ॥ ५३ ॥ ततः खड्गविनोदेन रञ्जयेत्प्रेक्षान् भृशम् । क्षुरिकोक्तप्रमाणेन गणयेत् खड्गमुत्तमम् ॥ ५४॥ पञ्चाशताङ्गुलैः श्रेष्ठः पञ्चत्रि(वि)शतिकोऽवरः । अनयोर्मध्यमानेन मध्यमः परिकीर्त्यते ॥ ५५ ॥ अव्रणः पोगलो(रो)पेतस्तिर्यग्भेदविवर्जितः । प्रणयुक्तोऽपि निस्त्रिंशो बिल्वकुञ्जरकुण्डलैः॥ ५६ ॥ वर्धमानध्वजच्छत्रस्वस्तिकैश्च व्रणैः शुभैः(भ)ः। मानहीनो विभिन्नश्च कुण्ठितो ध्वनिवर्जितः ॥ ५७ ॥ नेत्रचित्तविरोधी च वर्जनीयो दुरासदः । असिमरकतश्यामः पोगलैः(1): परिवर्जितः ॥ ५८॥ बाणबाहुनच्छेदी बाणाय शाङ्गिणा धृतः।
कृपाणः शादलश्यामस्त वद्दीर्घपोगरः ॥ ५९॥ . १Fखांचनं। २ D च। ३ D जि। ४ A स्त्रा। ५ A वि । ६ A का। - A । 6 A छ । ९ A कथ्य । १० A प।११ A तु। १२ A कुंवि । १३ D धिं । १४ A वि । १५ A नव। १६ A न । १७ D लः।
Aho ! Shrutgyanam
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
मानसोल्लासः ।
अच्छेद्यो रोहिणीवाहः पौलस्त्येन धृतः पुरा । कुटिलैः पोगेरैर्युक्तो वरस्क (र: के) सरसन्निभैः || ६० ॥ मत्कुणः करवालोऽयं लोहवर्णो न वर्ण्यते । गोजिह्वापल्लवप्रख्यः पोगो यत्र दृश्यते ।। ६१ । असिर्निरवो नाम द्विषच्छेदकरः शुभः । तरुणीकेशसङ्काशः सूक्ष्मपाण्डुरपोगरः ।। ६२ ।। भद्राङ्गः करवालोऽयं भद्रकालीकर स्थितः । राजजम्बूफलश्यामो वपाण्डुरपोगरः || ६३ ॥ स्निग्धच्छायर्वपुः खङ्गः कँरवालोऽभिधीयते । असिः प्रत्यग्रजीमूतशकलश्यामलच्छविः ॥ ६४ ॥ पाठीनत्वक्समाकारेपो गरोऽयं सुबणकः । केलिचन्द्रकसंकाशैः पोगरैर्निविडै": श्रितः ।। ६५ ।। कच्छेलक इति ख्यातः खड़े : खड्गभृतां वरैः । तमालव्याल रोलम्बनिकुरुम्बसमच्छविः ।। ६६ ।। कौक्षेयकः समाख्यातः पुरुषाकारपोगरः । एरण्डबीजसङ्कार्शी(श)पगरस्तारपट्टकैः ॥ ६७ ॥ रामारोमावलिश्यामो न नमेन्नामितोऽप्यसिः । नववारिधर: (र) श्यामः पिङ्गाकुञ्चितपोगरः || ६८ ॥ खङ्गः ढाको नाम विषवज्रभयापहः । स्वर्णवनिभैः सूक्ष्मैः पोगरैः स्वर्णपञ्जरः ॥ ६९ ॥ मुक्ताचूर्णसमाकीरैः रव्यातस्तित्तिरवज्जरः (चकः) ।
१६
[ अध्यायः १
पोगरैः कज्जलप्रख्यैः खङ्गः स्यात्कालवज्जर : (ज्रकः) ।। ७० । वियत्श्याम(च्छया)वपुःसारः स्वल्पपाण्डुरपोगरः । सरोजिनीच्छदच्छायः कोङ्गिः खङ्गोऽभिधीयते ॥ ७१ ॥
२५
१. A पो । २ A गारे । ३D जैन A णौं । ४ A लीर । ५ D क्त्र । ६ A पुरः ख । ७A वेनि
८ A टी । ९A रः | १० D वा । ११ A है । १२ D बे । १३ A । १४DF मतः १५ D निरुल F निकुर । १६ A च्छे । १७ भीताख्यः । १८ D शाः । १९ D पाँगराः । २०D काः । ५१ F पढा D षडा । २२ D चूर्ण । २३ A गा । २४ A ख्यै । २५ D कौ ।
Aho! Shrutgyanam
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लास।
कदलीशृङ्खला वापि यस्मिन्दृश्यान्तरान्तरा । वणेपोगरभेदेन खगजातिनिरूपिता ।। ७२ ॥ सोमेश्वरनरेन्द्रेण शस्त्रशास्त्रकलाविदा । कोशात् खङ्गं समाकृष्य बिलादाशीविषं यथा ॥ ७३ ॥ चर्म वा फलकं वापि गृह्णीयाद्वामपाणिना । पाणिना भ्रामयेत्खङ्गं चर्म वामेन चालयेत् ॥ ७४ ॥ पूर्वोक्तपदसञ्चारैः सञ्चरेत विचक्षणः । शीर्षस्योपरि संस्थाप्य खगचर्म तथोरसि ॥ ७५ ॥ दक्षिणाधिं पुरस्कृत्य स्थानं शिखरकं श्रयेत् । वामं हस्तं प्रसार्याग्रे चर्मणा फलकेन वा ॥ ७६ ॥ कर्णोपान्ते समासंज्य स्थानं कापोलकं भजेत् । वक्षस्यासज्य फलकं खड्गं तत्रैव बाह्यतः ॥ ७७ ॥ परस्यान्तरमीक्षेत श्रीवत्सं स्थानमाश्रितः । खङ्ग महीमुखं कृत्वा खङ्गागं पुरतः समम् ॥ ७८ ॥ वीक्ष्यमाणः परच्छिद्रं स्थानं भूमण्डलं भजेत् । कुक्षिदे” त्सरं कृत्वा फलं तियक्तथोरसि ॥ ७९ ॥ अग्रे प्रसार्य फलक तीक्ष्णाग्रं स्थानकं न्यसेत् ।। कडगं चरणे विन्धादोलगं दक्षिणाङ्गजे(के) ॥ ८॥ पोगरं वामभागे स्यात्कालवल्कं तु मस्तके । आनाभि कण्ठपर्यन्तं खङ्गाग्रेण तु भेदनम् ॥ ८१ ॥ मुनयनाम तत्प्रोक्तं कौक्षेयकविचक्षणैः । पारणं हननं तेषु पञ्चघातेषु पाटवम् ॥ ८२ ॥ दर्शयेट्टैचनाघातं हस्तलाघवमाचरेत् । फलके वा तथा चर्मण्य सर्व निगृह्य च ॥ ८३ ॥
A शख D F शाख । २ D F साद्य । ३ ) यो। ४ D वे । ५ D F स्यासाद्य । ६A व । . D न्यसेत् । ८ D शस्थितम् । ९ D ग्य । १० A प्र । ११ D हो । १२ D द्धननं । १३ रमे।
२१
Aho ! Shrutgyanam
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
मानसोल्लासः ।
सञ्चरेत्परघातार्थं शून्यं पश्येत्पराङ्गेकम् । पञ्चघातप्रयोगं च पञ्चघातनिवारणम् ॥ ८४ ॥ पादलाघवसंस्थानं चालनं खचर्मणां । प्रदर्श्य रञ्जयेद्राजा सर्वोश्च खुरलीगतान् ।। ८५ ।। बद्धगोधाङ्गुलीत्राणस्ततो गृह्णीत कार्मुकम् । पक्कवंशकृतं भव्यं गोलादरदरञ्जितम् ॥ ८६ ॥ लाक्षाविलिप्तं कान्तं च स्नायुभिः परिवेष्टितम् । स्वर्णपट्टनिबद्धं च नानारत्नविचित्रितम् ॥ ८७ ॥
सुप्रमाणं दृढं रम्यमुखों (च्छा) लगुणसंयुतम् । त्रिपर्व पञ्चपर्वापि सप्त तथैव च ॥ ८८ ॥
नवपर्व ज्यया युक्तमर्कवल्कसमुत्थ (थ) या । to वा दृढ सम्यक् श्लक्ष्णया समयापि च ॥ ८९ ॥ मस्तकेन कृताधरं मुष्टिसौख्यविधायिना ।
हस्रं सार्धसाहस्रं द्विसहस्रमिति क्रमात् ॥ ९० ॥ बौलानां सङख्यया युक्तं मृदु मध्यं तथोत्तमम् । उत्तमेन दृढं हन्याद्दूरं मध्येन दर्शयेत् ॥ ९१ ॥ मृदुना च तथा लक्ष्यं लाघवं चित्रमेव च । उभावसौ नतौ कार्यावुरश्च विततं तथा ।। ९२ ।। पूर्व (र्व) प्रसारितो बाह्य (हो) टमुष्टिरकम्पितः । मणिबन्धे मनागन्तै(न्तः) वक्रः कार्यः स्वकल्पशः || ९३ ॥ मृष्टेरभिर्मुखं वक्रं अंसस्योपरि संस्थितम् । चित्र(बु)कांश (स)स्य मध्यस्थमन्तरं चतुरङ्गुलम् || ९४ ॥ पूर्वबाहुः समः कार्योऽप्यपरो (व) लिनो (तो) भुजः । दृष्टिर्लक्ष्यँगता कार्या पार्श्वे च ऋजुसंस्थित (ते) ॥ ९५ ॥
[ अध्यायः १
१ Aग । २ णोः । ३ Aर्वा । ४ Aग ५A स्था । ६A । ७A तं क ( F च ) D च । ३८ A यां । ९D रम्भ । १० A ख्या । ११ A सहस्रं साहस्रं र्द्धसाहस्रमिति क्रमात् । १२D ब । १३ ते १४ Aढा । १५ A न्तु । १६D म१७ Aक्ष
Aho! Shrutgyanam
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः।
पूरकेण समायुक्तं वायुना जठरं दृढम् । त्रिकं च सन्नतं कार्य पादौ स्थानस्थितौ दृढौ ॥ ९६ ॥ एवं लक्षणसंयुक्तं दर्शयेत्सौष्ठवं नृपः ।। पूर्वमाकुश्चितं पादं चापस्थानाङ्गयोजितम् ॥ ९७ ॥ तिर्यक्षसारितं कृत्वा पृष्ठे पादं तथाऽपरम् । अङ्गुष्ठः पूर्वपादस्य पश्चात्पादकनिष्ठिका ॥ ९८ ॥ वितस्तिपञ्चकं मध्यं तयोरालीढकं भवेत् । व्यत्यासं पादयोः कृत्वा प्रत्यालीढं प्रयोजयेत् ॥ ९९ ॥ वैशाखे तु समौ पादौ वितस्तित्रयमन्तरम् । वितस्त्यन्तरमात्रौ तु समौ पादौ प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ पूर्ववत्पादसंस्थानं समपादं प्रदर्शयेत् । चतुर्वितस्तिकं मध्यं तियक् पादावुभावपि ॥१॥ अस्त्रादिवाहने शस्तं मण्डलं स्थानकं विदुः। पूर्वाङ्गिपाणॆरारभ्य पार्थाभ्या(श्चात्या)ङ्गुष्ठकावधि ॥ २॥ वितस्तिमात्रं मध्यं चेजातं जातं(स्थान) प्रदर्शयेत् । जातस्य वैपरीत्येनाभिजातं नियोजयेत् ॥ ३॥ पश्चात्यान(पाश्चात्याचि समुत्क्षिप्य हंसपादं प्रकाशयेत् । बाह्ये तो वलितो पादौ जानुनी च भुवि स्थिते ॥ ४ ॥ आसनं दारं कृत्वा प्रौढिं प्रकटयेन्नृपः । अधः पादतले कृत्वा पद्मासनमथाचरेत् ॥ ५॥ वामं जानु क्षितौ कृत्वा दक्षिणं पादमुत्कटम् । गरुडस्यासने स्थित्वा गारुडान्सायकान्क्षिपेत् ॥ ६ ॥ दक्षिणं स्वस्तिकाकारं वामं दर्दुरवत्पदम् । आसनं मृगयायोग्यं कुर्यात्स्वस्तिकदर्दुरम् ॥७॥
१D F यनू । २ D छ । ३ A के। ४ A त्र । ५ D पार्श्वभ्यामनिं । ६ A त्सा। . A क्षि।
Aho ! Shrutgyanam
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
मानसोल्लासः ।
आपीड्य भूमिं जानुभ्यामासनं जानुपीडनम् । अनुत्तानेऽथवोत्ताने शयने शयनासनम् ॥ ८ ॥ धृतचापस्य हस्तस्य तर्जनी प्रोन्नता यदि । तुङ्गौ मुष्टिः समाख्यातैः सत्युत्ताने शरासने ॥ ९ ॥ दक्षिणाग्रं यदा चापं तिर्यक् प्रणिहितं भवेत् । उन्नतायां कनिष्टायां मुष्टिः स्यादुपतुकः ।। ११० ॥ अङ्गुष्ठमुन्नतं कुर्यान्मुष्टौ तं(ष्टिः सः)परिमण्डले(लः) । गुलिकादिव्यचे ( धे) तस्य विनियोगं प्रदर्शयेत् ॥ ११ ॥ तर्जन्यङ्गुष्ठयोरग्रे अन्योन्यं परिचुम्बतः । मुष्टिः समधृत नाम स्थूले धनुषि दृश्यते ॥ १२ ॥
तलेनाक्रम्यते चापः दृढाकर्षणकर्मणि । मुष्टिस्तलाश्रयो नाम बलिनां सम्प्रदर्श्यते ॥ १३ ॥ अङ्गुल्यस्तु समाचापे यस्मिन्नङ्गष्ठपीडिताः ।
मुष्टिः स विज्ञेयो दृढघा प्रशस्यते || १४ || एवं प्रयोगभेदेन चापे मुष्टिं तु षडिधाम् । प्रयोजयेत्क्रियाकाले चापविद्याविशारदः ।। १५ ॥ अङ्गुष्ठपीडितं कुर्यात्तर्जनीनखरं तले ।
१५
अङ्गुलीत्रितयं स्थाप्यं मुष्टिः स्यात्सिंहकर्णिका (कः) ।। १६ ॥ सिंहकर्णिकमुष्टौ च तर्जनी चेत्प्रसारिता ।
पताको नाम मुष्टिः स्यान्नलिकास्थ (स्थू) लकाण्डके || १७ ॥ अङ्गुष्ठनखपृष्ठे च तर्जनीनखरो भवेत् ।
अधोवर्तिर्भ (तीं भवेन्मुष्टिः शेषाडुल्योऽत्र पूर्ववत् ॥ १८ ॥ तर्जन्यङ्गुष्ठयोर श्लिष्टे चेत्पूर्ववर्षुरा (रः) । मुचुाँ (टी) सूक्ष्मनाराचमुष्टिः प्रशस्यते ।। १९ ॥
[ अध्यायः १
१डित । २ ते ३ Aङ्गा । ४ Aष्टिः । ५A ता । ६D । ७D रु। SA मा । १० Aक । ११D च । १२A पाटि । १३ A स मुष्टि: । १४ A सम । १६ D परा । १७D चढ़ी । १८ D व्याध ।
Aho! Shrutgyanam
“ A तौ ।
१५D ल ।
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
तर्जन्यावेष्टिताङ्गुष्ठ(ः) शेषाः पाणितले स्थिता ( : ) । वज्रमुष्टिरियं ख्याता दृढकर्मणि कोविदैः ॥ १२० ॥ पुङ्ङ्खस्योर्ध्वमधः स्याच्चेत्तर्जनी' मध्यमा स्थिताः (ता) । तथा पुमुखेऽष्टो मुष्टिस्त्रैयम्बैको मतः ॥ २१ ॥
3
तर्जनीमध्यमामध्ये यत्रं पुङ्खः प्रपीड्यते । अनामिकासमायोगान्मुष्टिः स्यादेकलव्यकः ।। २२ ॥ कैयौ द्वौ तिर्यक्कोदण्डमार्गणे ।
(a) एवं सप्तविधं मुष्टिं कुर्यान्नानाविधे र्व्यधे || २३ ||
आकृष्टसायकं मुष्टिं कर्णाग्रस्योर्ध्वमङ्गले । विन्यस्य दर्शयन्सो (येत्सो) ऽयं कैशिकं नीर्चवेधने ॥ २४ ॥
कर्णाग्रेचुम्बितं मुष्टिं कृत्वा सायकपीडनम् ।
सात्वतं दर्शयन्सो (येत्सोऽयं पूर्ववन्नी चलक्ष ( क्ष्य) के ।। २५ ।।
कर्णनाभिसमं मुष्टिं कृत्वा मार्गणगर्भितम् ।
वार्षगण्यं ( वत्सकर्ण) प्रयुञ्जीत सोऽयं लक्ष्ये समं (मे) नृपः ।। २६ ।।
अधस्तात्कर्णरन्ध्रस्य मुष्टिमेकाले स्थिरम् ।
विन्यस्य भरतं सोयं समे लक्ष्ये प्रदर्शयेत् ॥ २७ ॥
अपरे बाहुशिखरे मुष्टिं कृत्वा समार्गणम् ।
उच्चे दूरे तथा लक्ष्ये छन्दन्यायं ( स्कन्धन्यासं) प्रदर्शयेत् ॥ २८ ॥
उरः समं समं लक्ष्यं मनुष्योत्सेधमानतः । तदूर्ध्वमुञ्चं (चं) लक्ष्यं स्यात्तदधो नीचमुच्यते ॥ २९ ॥
शुष्कर्मशतं गव्यमहोरात्रं जले स्थितम् । षोडशाङ्गुलविस्तीर्ण दृढं बद्धं च रज्जुभिः ॥ १३० ॥
इदं चर्म दृढं प्रोक्तं गजचर्मसमं बुधैः । एवं विंशतिरस्य चर्माण्यष्टौ नरस्य तु ॥ ३१ ॥
१६५
१ D स्यार्ध । २ Aना । ३ A ष्टौ । ४ A न्त । ५A न्त्र । ६ D व । ७ध्व । ८A व
$ A प्रा । १० F व् । ११ A ङ्गलो । १२ A ष्येत्सो D व्येत्से । १३ A व । १४ A छ ।
Aho! Shrutgyanam
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः१
एवं सर्वदृढानां हि गजवाजिनृणां क्रमः । कथितः सोमभूपेन जामदग्न्यमतानुगः ॥ ३२ ॥ षडिशदङ्गुला भस्त्रां छागमांसेन पूरयेत् । एतन्मांसं दृढ़ विध्यद्गजकायप्रमाणकम् ॥ ३३ ॥ गजरा(जाजा)श्वखुराघातैः समन्तात्परिशोषितः(तम्)। दृढमश्वखुरं नाम मध्ये मातङ्गन्मान(ज)कम् ॥ ३४ ॥ विषाणं सप्तवर्षस्य महिषस्य प्रगृह्यं च । मूलाग्रवर्जितं मध्ये द्विपकायसमं दृढम् ॥ ३५॥ सूत्रं पञ्चाङ्गुलोत्सेधं तिर्यगामा(या)मकल्पितम् । निबिडं चर्मणा बद्धं विध्येत्करिसमं दृढम् ॥ ३६ ॥ कर्मष्ठकपालं तु हस्तविस्तारवर्तुलम । विध्येदस्थि दृढं नाम कुञ्जराङ्गप्रमाणकम् ॥ ३७॥ षडिंशदङ्गुलं स्थौल्यावाल्कजङ्घन(जाङ्गल) पिण्डिंतम् । रज्जुभिर्वेष्टितं विध्येदिभगात्रंसमं दृढम् ॥ ३८ ॥ अङ्गुलं दारुसारं तु षोडशाङ्गुलविस्तृतम् । इदं दारु दृढं विध्येदन्तिदेहसमं नृपः ॥ ३९ ॥ भ्रमत्कुलालचक्रस्थं मृदः पिण्डं नवाङ्गलम् । दृढं प्रवाह(विहि)तं विध्येत्समं नागेन चर्मणा ॥ १४० ॥ कार्यसनिर्मितं पुञ्जमुत्सेधेन षडङ्गुलम् । चर्मनद्धं दृढं विध्येसिन्धुरागसमं नृपः ॥४१॥ करीषधान्यपांसनां पृथपर्ण तु कर्कट(श)म् । अष्टाङ्गुलं दृढं विध्येद्वारणाङ्गसमं नृपः ॥ ४२ ॥ यङ्गुलां मांसवर्णां च षोडशाङ्गुलविस्तृताम् । शिलां विध्येदृढं सम्यक् स्तम्बेरमसमं नृपः॥४३॥
१ F निं । २ A जराजाश्वखुरोवातैः । ३ D शे। ४ A णां। ५ D ह्यते। ६ D गगमक । ७D दाल्व । ८ A ण्ड ! ९ F A त्रं । १० D धू A डू।
Aho ! Shrutgyanam
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः । षोडशाङ्गुलविस्तीर्णमुत्सेधे सर्षपास्त्रयः ।
आयसं दृढमेतत्तु विध्येत्सामजसन्निभम् ॥ ४४ ॥ दृढान्येतानि बधीयात्स्तम्भशाखाद्वयान्तरे । त्रिवारममितेनैव नरवक्षःसमुन्नतौ ॥ ४५ ॥ भित्वा तानि विनिर्गत्य निर्भिद्याग्रेण भूतलम् । यथावत्तिष्ठते बाणस्तथाविध्येत्क्रियायुतः॥ ४६ ॥ अङ्गुष्ठभागपार्थे तु तर्जन्याँ सङ्गन्ते शरे । चापमुष्टौ समे पुङ्ख समसन्धानमुच्यते ॥ ४७॥ समसन्धों रथे ज्यायामधःसन्धानकं भवेत् । तस्मादेवर्ध्वितः सन्धादूर्ध्वसन्धानमिष्यते ॥ ४८ ॥ ऊर्ध्वदूरस्थिते लक्ष्ये नीचसन्धानसङ्गतिः । नीचलक्ष्ये तथा चोर्ध्व समलक्ष्ये समं भवेत् ॥ ४९ ॥ षोडशाङ्गुलवृत्तं तु स्थूलं लक्ष्यमुदाहृतम् । अङ्गुलद्वितयं सूक्ष्मं पञ्चगुञ्जीशिरोरुहम् ।। १५० ॥ शब्देनानुमित लक्ष्यं परापरमुदाहृतम् । चलं पञ्चविधं लक्ष्यं दर्शयेत्तस्य वेधने ( नम् ) ।। ५१ ।। तिर्यग्धावंस्तथा गच्छन्भ्राम्यश्चैव तथोत्पतन् । आकाशे भूतले तोये तेषां स्थानमुदाहृतम् ॥ ५२ ॥ उत्तमं द्विशतं प्रोक्तं शतं सार्ध तु मध्यमम् । विशं शतं कनिष्ठं स्याइरे धन्वन्तरे क्षितौ ।। ५३ ।। धर्षयेदुत्तमं दूरं चतुर्भिः सायकैः शनैः । समपत्रैः स्थूलसूक्ष्मैः निःपत्रैश्चैव नागरैः ॥ ५४ ।। पाते त्वेकं करे त्वेकं गगने पञ्चसायकान् । दर्शयेल्लाघवन्त्वेवं विध्यल्लक्ष्यं महीपतिः ॥ ५५ ॥
HD वेध्ये । २ D तेन। ३ Aव । ४ D न्यां । ५ D में । ६ Dन्धौ। ७ F द्याव्या । ८ A वोदू । SA स्थ । १०A आंशिरोसहां। ११A है। १२ ते। १३A व। १४Dवा। १५ पत्रैश्चैव च। १ADI
Aho! Shrutgyanam
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः१
AAAAN
चतस्रः सम्पदस्त्वेता युद्धे शत्रुनिबर्हणे । मृगयायां विनोदेन सोपयोगा महीपतेः॥ ५६ ॥ चित्रं कुतुहलकरं प्रेक्षकाणां मनोहरम् । दर्शयेत्तदपि प्रौढ्या विनोदाय महीपतिः ॥ ५७ ।। स्तम्भस्योपरिविन्यस्तचक्रयन्त्रे सुकीलितम् ।। वायुप्रेरितपत्रैस्तु भ्राम्यमाणं द्रुतं झैषम् ॥ ५८ ।। पात्रमध्ये स्थिते तोये वीक्ष्य विध्यन्विलोचने । प्रत्यालीढस्थितो राजा राधावेधं प्रदर्शयेत् ॥ ५९॥" खर्जूरीसदृशाकारं कृत्वा दारुमयं तरुम् । नाराचैः शतशो विध्येत्स्थाने कण्टकपत्रयोः ॥ १६० ॥ पंत्राणा(णि)कण्टकांश्चैव सायकैरेव कल्पयेत् । खर्जूरीवेधनं चित्रं प्रेयसीनां प्रदर्शयेत् ॥ ६१ ॥ वृषलं सम्मुख कृत्वा पत्रं वक्षसि विन्यसेत् । तदेव तिर्यग् मोक्षेण बाणपुवेन धारयेत् ॥ ६२ ॥ पत्रच्छेदमिदं चित्रं चित्तभ्रान्तिकरं नृणाम् । रसं विस्मयमातन्वन्दर्शयेद्वेधमुत्तमम् ॥ ६३ ॥ एफसन्धानयुक्ताभ्यां बाणाभ्यां लक्ष्ययुग्मकम् । विध्यन्मदर्शयेच्चित्रं यमलार्जुनसंज्ञकम् ॥ ६४ ॥
अत ऊर्ध्वं स्थितं लक्ष्यमेकमोक्षेणे बाणयोः । विकटार्जुन के(क)चित्रं नृपो" विध्यन् विनोदयेत् ॥ ६५ ॥ अर्धचन्द्राकृतीं कृत्वा तर्जन्यङ्गुष्ठको ततः । तृणकाण्डं तयोरग्रे धारित चतुरङ्कुलम् ॥ ६६ ॥ अमुल्यनुपपातेन तद्विध्यन्पृथिवीपतिः । अर्धचन्द्राह्वयं चित्रं दर्शयेच्च सभासदाम् ।। ६७ ॥
११
१A । २ A स्वे । ३ A त्र। ४ D कौतू । ५ D हस्ते। ६ A 5। ७ A मध्ये वीक्ष्यन्वि । ८D य । ९ D८ । १. D स । ११ D विविधं । १२ A क्षण । १३ A र्ज। १४ A पे । १५ A ण्डे । 1. D प्र। १७ A द्या।
Aho ! Shrutgyanam
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६९
विंशतिः४]
मानसोल्लासः। सन्धतः सायकस्त्वेको द्वितीयः सम्मुखः स्थितः। द्वावेतावेकमोक्षेण पुरः पश्चाच्च गच्छतः ॥ ६८ ॥ पूर्वापरस्थितं लक्ष्यं प्रविध्यन्नवनीपतिः । मालाविद्याधरं चित्रं दर्शयेच्चित्रवेष्टितम् ॥६९ ॥ चतुर्भिरधिकाशीतिश्चित्राणामवनीभुजा । इत्थं प्रदर्शनीया स्याँदोपश्चाशच तु(दु)करा ॥ १७० ।। दृढलक्ष्ये तथा दूरे लाघवे चित्रकर्मणि । एवं लक्षणसंयुक्तां धनुर्विद्यां प्रदर्शयेत् ॥ ७१ ॥ ततोऽष्टारं समादाय चक्रं पर्डरमेव वा । मुष्टिभिः सिंहकर्णाद्यैर्लक्ष्यं हन्यान्महीपतिः ॥ ७२ ॥ ईषत्कुञ्चिततर्जन्या भ्रामयेद्वामदक्षिणम् । उत्क्षिप्योत्क्षिप्य वेगेन पञ्च सप्त प्रधारयेत् ॥ ७३ ॥ एवं प्रदर्शयेच्चित्रं चक्रचारविचक्षणः । ततः कुन्तं समादाय तदुत्कर्ष प्रदर्शयेत् ॥ ७४ ॥ सप्तारनिर्भवेद्भूमौ षडरत्निस्तु वाजिनि । वारणे च नवारत्निः कुन्तदण्डास्त्रयः स्मृताः ॥ ७५॥ त्रिशूली जर्जरो जीर्णो व्रणकोशसमन्वितः। स्थूलग्रन्थिः कृशग्रन्थिकूरपर्वभिरायतः ॥ ७६ ॥ एवंविधेन दण्डेन युक्तं कुन्तं विवर्जयेत् । सदोषं विघ्नकारित्वात्कुन्तकर्मणि निन्दितम् ॥ ७७ ॥ निष्कोशः सरणः शुद्धः पकवेणुः स(सु)भूमिजः । कुन्ते प्रशस्यते दण्डः सर्वकार्यस्य साधकः ॥ ७८ ॥ फलमग्रे भवेदेकविंशत्यङ्गुलमानतः । अङ्कुशेन फैलस्याधो युक्तः पृष्ठे च कर्तरी ॥ ७९ ॥
१D न्धि Fन्धे । २ A क्षोण । ३ A दर्शनीया। ४ D स्युः। ५ F द्वि । ६ A ण्ड । ७ F omits these two lines I C A FUISF omits these two lines 1 9. D 799AE.
Aho! Shrutgyanam
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
मानसोल्लासः ।
अंशनिर्मूलदेशे स्यादयसो मुकुलाकृतिः ।
ईदृक्षो वा (क्षः पातिकः कुन्तः फलमात्रस्तु वाजिनि ॥ १८० ॥
पदातिकुन्तवस्कुन्तो दीर्घत्वेन विशेषतः । गजारूढेन सन्धार्यः समराङ्गणमूर्धनि ॥ ८१ ॥
भूमिकुन्तं समादाय दक्षिणेन च पाणिना । अँशनेरग्रतो हस्तमात्रेऽनुत्तानमुष्टिना ॥ ८२ ॥ वितस्तित्रितयं त्यक्त्वा वामेनोत्तानर्मुष्टिना ॥ सङ्ग्रह्य कुन्तं जाते (न) स्थानकेन चरेलघु || ८३ || चालयन्मणिबन्धेन कङ्कणावर्तमाचरेत् । स्कन्धे चावर्तयन् कुन्तं कण्ठावर्त प्रदर्शयेत् ॥ ८४ ॥ पृष्ठे च भ्रामयेत् कुन्तं पृष्ठावर्त निदर्शयेत् । कक्षायां च तथावर्त तर्जन्यां तु तदान्वेयम् ॥ ८५ ॥
यत्र यत्र प्रदेशे तु भ्रामयेत्कुन्तमुत्तमम् । तत्तन्नाम्ना तमावर्त दर्शयेत्कुन्तकोविदः ॥ ८६ ॥
फलेन दर्शयेदाशां परवेधात्मिकां नृपः । अङ्कुशेन विकर्षाशां कर्तेर्यो धारणात्मिकाम् ॥ ८७ ॥ विनेनाशा (नाशाशा) मशन्यां च दर्शयेत्कुन्तकोविदः । इति कुन्तविनोदेन रञ्जयेत समागतान् ॥ ८८ ॥ गदां लोहमयीं कुर्याद्दारुस | रमयीं तथा । घनेन निर्मितां वापि रत्नकाञ्चनभूषिताम् ॥। ८९ ।। स्थूलोदरीं च स्थूलाग्रां समदन्तीं परां शुभाम् ।
गृह्य मूलदेशे तु खङ्गवद्दृढमुष्टिना ॥ १९० ॥
भ्रामयेत्करयुग्मेन करेणैकेन वा पुनः । विचरेन्मण्डलैचित्रैः सव्यैश्चैवापसव्यकैः ॥ ९१ ॥
[ अध्यायः १.
Aद । ३ D अंशेन चा A अंशनेर । ४ D पाणि । ५ D तेछा स्था A तेस्था
१ A अं । २ ६ A ष । ७ D प्रद । ८ F बूर्त । ९Dत्व । १० A र्तव्या । ११ D वन् । १२ D शु । १३ D तापसं । १४ A गृह मूल । १५ D ले चि ।
Aho! Shrutgyanam
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
गतागतैश्च गोमुत्रैरुप्नुत्प्लु (लवनुत्नु) तैरपि । पातयन्परघातश्चि प्रहाराशाश्च दर्शयेत् ।। ९२ ।।
उपन्यस्तैरपैन्यस्तैरावर्तपरिवर्तनैः । दर्शयेत्तु गर्दीविद्यां विनोदाय महीपतिः ॥ ९३ ॥
नीराज्यमानो राज्ञीभिः स्तूयमानश्च बन्दिभिः । कविभिर्वर्ण्यमानश्च गीयमानश्च गायकैः ॥ ९४ ॥
आशीर्भिर्वर्धमानश्च जयजीवेतिवादिभिः । पुरोध :ममुखैर्विप्रैर्नन्दवर्धस्वभाषितैः ।। ९५ ।। प्रणम्यमानो भूपालैर्बद्धाञ्जलिपुटैर्नरैः । भजेत्प्रमोदं भूपालः शस्त्रविद्याविनोदनैः ।। ९६ ।। शस्त्रविद्याविनोदोऽयं कथितः सोमभूभुजा ।
इति शस्त्रविद्या विनोदः ॥ १ ॥ अथ शास्त्रविनोदोऽयं विविधः परिकीर्त्यते ।। ९७ ।। देवता विधिनाभ्यर्च्य विप्रान्सन्तोष्य दानतः ।
(d) राजकार्याणि क्षुत्काले विहिताशनः ॥ ९८ ॥
सभामण्डपमध्यस्थः समासीनः शुभासने । विनोदाय कवीन्प्रौढान् गायकान् वादिनस्तथा ।। ९९ ॥ वाग्मिनः पण्डितान प्राज्ञान् सर्वशास्त्रविशारदान् । समाहूय नृपस्तैस्तैरागतैः परिवेष्टितः ॥ २०० ॥
यथोचितासनासीनैराशीर्भिरभिनन्दितः । प्रसन्नकान्तया दृष्ट्या तान् सर्वानवलोक्य च ॥ १ ॥
तत्र शद्रकलादक्षान्निसर्गप्रतिभान्वितान् । रत्नत्रयकृताभ्यासान् सर्वव्यापारकोविदान् ।। २ ।।
१७१
१ D त्योस्य । २ D तैस्तान् । ३ Aथ । ४ A ता । ५ A चा । ६A । ७ A गम ।
Aho! Shrutgyanam
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः२
उत्पादकांश्च भावज्ञाश्छन्दोविचितिपारगान् । मधुरान् काव्यतत्वज्ञान सर्वभाषाविशारदान् ॥ ३ ॥ आज्ञापयेत्कवीनाजा काव्यं पठत सुन्दरम् । पठ्यमाने ततः काव्ये गुणान् दोषान विचारयेत् ॥ ४॥ शब्दाः शरीरं काव्यस्य प्राणोऽर्थः परिकीर्तितः । अलङ्कारास्तऽकारा(रः) रसा भावाश्च चेष्टिता(तम्) ॥५॥ छन्दोऽस्य पदसञ्चारो नानाप्रकृतयस्तथा । शब्दविद्यास्यं ममैतैः काव्यदेवस्य रम्यता ॥ ६॥ . महापाणाक्षरं श्लिष्टं मिथश्च श्लिष्टवर्णकम् । प्रसिद्धार्थपदाख्यातं प्रसाद इति कथ्यते ॥ ७ ॥ प्रारब्धमार्गनिर्वाहः समता परिकीर्तिता । शब्दार्थों कर्णसुखदौ माधुर्यं तत्पक्ष(क्ष्य)ते ॥ ८॥ अक्षराणां च लालित्यं सौकुमार्य विदुर्बुधाः । निरपेक्षार्थवाचित्वमर्थव्यक्तिरुदाहृता ॥ ९॥ शस्तैर्विशेषणैर्युक्तैरौदार्यमाभिधीयते ।
ओजः समासबाहुल्यं विकटाक्षरसन्धि वा ॥ २१०॥ . लोकानुसारि सम्भाव्यं कथनं कान्तिरिष्यते । समाधिरन्यधर्मश्चेदन्यत्र प्रतिपद्यते ॥ ११ ॥ दोषलेषरसंस्पृष्टा गुणैः सर्वैरलता। वैदर्भी कथिता रीतिः श्रवणश्रव्यकारिणी ॥ १२ ॥ समस्तैरुद्भटैः शब्दैरोज कान्तिगुणान्वितैः।। गौडीया नाम सा प्रोक्ता रीतिः काव्यविचक्षणैः ॥ १३ ॥
१D न्दःशास्त्रविशारदान् । २ D तिपारगान् । ३ A स्वकाव्यं पठयतामसौ। ४ A था। ५ वे । SDन्त आख्यातः । ७AY। ८F थे । ९ A च। १.Dक्तेः। ११DFच! १२ A व्य । १३D तः। १४ A खैः । १५ A णाः । १६ A णः । १७ A टा। १८ A यु ।
Aho! Shrutgyanam
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः
मानसोल्लासः। ईषत्नवैः(श्लथैः)पदैर्युक्ती पुराणच्छायया युता । मधुरा सुकुमारा च पाञ्चाली रीतिरिष्यते ॥ १४ ॥ विषमं च समं चैव तथैवार्धसमं भवेत् । एवं त्रिविधमाख्यातं वृत्तं छन्दोविशारदः॥ १५॥ एकाक्षरात्समारभ्य यावत्पड्विंशतिं गताः । एकैकाक्षरसंवृद्धया पादाः स्युश्छन्दसां विदुः ॥ १६ ॥ ऊर्ध्वं ततः साँदिष्टाश्चण्ड(घ)ष्टयादिदण्डकाः । तच्छेषं कथिता गाथाः पादैः षड्भिस्त्रिभिस्तथा ॥ १७ ॥ तत्रोक्ता प्रथमात्युक्ता द्वितीया मध्यमा ततः । प्रतिष्ठा सुप्रतिष्ठा च गायत्र्युष्णिगनुष्टुभा(भः) ॥ १८ ॥ बृहती च तथापङ्किस्त्रिष्टुप् च जगती परा। तथातिजगती" शकर्यन्यों स्यादतिशकरी ॥ १९॥ अष्टिरत्यष्टिरुद्दिष्टा धृतिश्चातिधृतिः स्मृता । कृतिश्च प्रकृतिश्चैवमाकृतिर्विकृतिर्मता ॥ २२० ॥ सङ्घन्त्यभि(ति)कृती स्यातामुत्कृतिश्चरमा भवेत् । इति संज्ञाः समाख्याताश्छन्दसा पूर्वमूरिभिः ॥ २१ ॥ मकारख्रिगुरुज्ञेयो नकारस्त्रिलघुर्मतः । आदौ गुरुभकारः स्यात्सकारे गुरुरन्ततः ॥ २२ ॥ मध्ये गुरुजकारः स्याद्रकारो लघुमध्यकः । आदौ लघुर्यकारः स्यात्तकारोऽन्त्यलघुर्मतः ॥ २३ ॥ प्रस्तारो नष्टमुद्दिष्टमेकवादिलघु(ग)क्रिया। संख्या चैव तथा द्वाव(चैवाध्वयोगश्च)पत्ययाः षडुदाहृताः॥२४॥
१D लाधैः। २ A तै। ३ A ला। ४ D समता । ५A वितिं । ६ A श्च । ७A मुद्दि । ८. कवितार्गन्धाः । ९ A स्त्रिष्टुप । १० A च जग। ११ A ता । १२ A न्य । १३ F वृ। १४ A संस्क। १५ D रे A रं । १६ A को मध्यलघु ( F घुः) स्मृतः । १७ A र्घयकारे । १८A न्य।
Aho ! Shrutgyanam
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
मानसोल्लासः।
[अध्यायः
एकदेशेन सादृश्यं बहुसादृश्यमेव वा । यत्र प्रतीयते काव्ये सोपमेति निगद्यते ॥ २५ ॥ सा चापि द्विविधा प्रोक्ता पदवाक्यार्थभेदतः । तत्रोदाहरणं वक्ष्ये पृथक् पृथगिदं यथा ॥ २६ ॥
पदार्थोपमा यथा । इन्दुबिम्बसमानेन वदनेन कृशोदरी। आह्लादयति चित्तं मे कुम्भिकुम्भोन्नतस्तनी ॥ २७ ॥
वाक्यार्थोपमा यथा। वक्ष(क्षः)स्थले विलसता मुक्ताहारेण राजते । सुमेरुरिव गाङ्गन प्रवाहेण नराधिपः ॥ २८ ॥ उपमेयं(ये) समारोप्य कथ्यते यत्र वस्तुनि । उपमानं तेंदा ख्यातं रूपकं पूर्वमूरिभिः ॥ २९ ॥ पुष्पचापस्य तन्वङ्गी परमास्त्रं जगज्जये । मनो हरति लोकस्य लावण्यरसदीर्घिका ॥ २३० ॥ समादाय च सादृश्यमन्यस्यान्यत्र भावनात् । उत्प्रेक्ष(क्ष्य)ते हि यद्वस्तु तामुत्प्रेक्षां प्रचक्षते ॥ ३१ ॥ मधु(म)वैरि(री)विधुस्तन्वि त्वया वक्त्रेण निर्जितः । इतीव सेवते पादौ पद्मकान्ती मृगीदृशः ॥ ३२ ॥ वक्तुं किञ्चिदुपक्रम्य निषेध इव तस्य यः। उत्कर्षापादनायासावाक्षेपः कथितो बुधैः ।। ३३ ॥ तस्याः(स्या)स्तव वियोगोत्थं तापं प्राणान्तकं शृणु। ने वक्ष्ये त्वं दयाहीनः परदुःखसुखी यतः ॥ ३४ ॥ गन्तमिच्छसि चेदाढं गच्छ कान्त यथासुखम् ।
मम यद्भावि तद्भावि नामङ्गल्यं ब्रवीम्यहम् ॥३५॥ १F च । २ A शे । ३ F सि । ४ F से। ५ A तथा। ६ D च । ७ A मा । ८ D हवः । ९D तद । १०A यदाहीनः । ११A न्त ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७५
vav५.
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। उद्वर्तयामि गौराङ्गि चन्दनेन किमाननम्। निसर्गमधुरस्यास्य मण्डनेयं विडम्बना ॥ ३६ ॥ रूपं शब्दश्च गन्धश्च रसः स्पर्शक्रियागुणाः। द्रव्यं च वर्ण्यते यत्तु स्वभावोक्तिरसौ मता ॥३७॥ सर्वाङ्गपाण्डुरैः पिच्छैश्चञ्च्वा च कनकत्विषा । हरिद्रापिञ्जरैः पादै राजहंसो विराजते ॥ ३८॥
इति रूपम् । अथ शब्दः वीणाया निष्कलो नादो मधुरः श्रुतिशोभनः । कस्य नो हरते चेतो मृगीमपि वशं नयेत् ॥ ३९॥
___ इति शब्दः। अथ गन्धः अन्येभगन्धमाघ्राय दिशो जिघ्रति वारणः । अत्यर्थ कैरमुत्क्षिप्य कोपारुणितलोचनः ॥ २४० ॥
इति गन्धः। अथ रसः विशालायाः फलं रम्यं लोभादास्वाद्य सत्वतः । व्यादाय वदनं मूढो धुनीते मर्कटः शिरैः॥४१॥
इति रसः । अथ स्पर्शः पीनवृत्तघनोत्तुङ्गस्तनस्पर्श (शि) करोत्पलम् । तन्वङ्गन्या मानसं यूनां लाँधैर्यविवर्जितम् ॥ ४२ ॥
इति स्पर्शः।
१ A णः । २ A झं। ३ D कि । ४ A म । ५A खः । ६ Dशः । ७ A अया।
ज ।
Aho! Shrutgyanam
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
मानसोल्लासः ।
अथ क्रिया.
ऊर्ध्वरोमा लश्रोत्रः पुच्छं कुण्डलतां नयन् । कामुकः पृष्ठमारोहन हरिणीमनुधावति ।। ४३ ।।
अथ गुणः घनगर्जितमाकर्ण्य घनदानविभूषितः । घनवारिमदस्रावी गजोऽयं मदर्जनः ॥
इति क्रिया ।
४४ ॥
इति गुणः ।
अथ द्रव्यम्
अतसीपुष्पसङ्काशः पद्मपत्रायतेक्षणः । शङ्खचक्रगदापाणिर्दृश्यते गरुडध्वजः ॥ ४५ ॥
इति द्रव्यम् ।
गुणजातिक्रिया द्रव्यवाच्येत्र स्थितं पर्देम् । सर्वैः सम्बध्यते वाक्यैर्दीपकं तत्प्रचक्षते ॥ ४६ ॥ श्वेतिमा दृश्यते शङ्खे क्षीराम्भोधौ सुधाकरे । दिग्दन्तिदशने कुन्दे यशःसुँ तव भूपते ।। ४७ ।। भद्रो नगेन्द्रः कुरुते स्वामिनो जयसम्पदम् । मदयत्यूर्जितं राज्यं रिपूनभिभवत्यौ ॥ ४८ ॥ कुरुते तत्र सङ्गीतं तद्विदां चित्तरञ्जनम् । कामिन्या मन्मथोल्लासं सन्तापं च वियोगिनाम् ॥ ४९ ॥ विष्णुना निर्जिता दैत्याः सुरास्त्राता महात्मना । योगिनः प्रापिता मोक्षं जनो जति मोहितः ।। २५० ॥ दीपक (i) श्लोकमध्ये तु श्लोकस्यान्ते च दीपकम् | गुणजातिक्रियाद्रव्यसंङ्गि ज्ञेयं विचक्षणैः ॥ ५१ ॥ पदमावर्तते यत्र भिन्नभिन्नार्थवाचि यत् । आवृत्तिर्नाम सा ज्ञेया वचो व्युत्पत्तिकारिणी || ५२ ॥
[ अध्यायः
१ Aथः । २A गर्जिनी । ३ F च्यते । ४ A दाम् । ५ A चते । ६- A स्तु
AAय । १० Aङ्गी । ११ A यन् । १२ D वैत्यप
Aho! Shrutgyanam
A
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४)
मानसोल्लास।
१७७
क्षीरेण नीरं घटते सद्भिः सन्तो मिलन्ति च । चक्राहाश्चक्रवाकीभिः सङ्गच्छन्ते दिनागमे ॥ ५३॥ पुष्पिता रचयत्येष वनमाली मधूत्सवः । पुष्पितां कुरुते तन्वी नवयौवनसङ्गमः ।। ५४ ॥ विधेयार्थस्य सिध्यर्थं साम्यादन्यार्थभी(भा)षणम् । सोऽयमर्थान्तरन्यासः कथितः सोमभूभुजा ॥ ५५ ॥ पक्काम्रकदलीद्राक्षाफलाढ्येऽपि वने वसैन् । करभः कण्टकान्वाञ्छत्यधमो ह्यधमप्रियः ॥ ५६॥ उक्त्वा सादृश्यमन्योऽन्यमुपमानोपमेययोः। उपमेयस्य भेदोक्तिय॑तिरेकः स्मृतो बुधैः ।। ५७ ॥ सुवंशजो गुणयुतो निर्जितारातिमण्डलः। दत्तपृष्टो रणे चापस्त्वं पुनः सम्मुखः सदा ॥ ५८ ॥ प्रतीतारणत्यागाँधत्र कार्यमुदीर्यते । हेत्वन्तरात्स्वभावाद्वा सेयमुक्ता विभावना ॥ ५९ ॥ ... दिग्वधूमुखमाभाति विना चन्दनचर्चया। . ... अतीवपाण्डुरच्छायं सान्द्रं चन्द्रमरीचिभिः ॥६०॥ दोषेष्वशिक्षितैः सद्भिः कदाचिन्न प्रदुष्यते । कलुषं साधुवृत्तेषु तथापि खलु मानसम् ।। ६१ ॥ इष्टमर्थमनुक्ता(क्त्वा)न्यैः साभिप्रायैर्विशेषतः (णैः)। यदुच्यते समासेन सा समासोक्तिरिष्यते ॥ ६२ ॥ ऋजुभिः सफलैः सा(3)गुणसङ्गमशालिभिः। पत्रिभिः सङ्गन्तो हन्ति वैऋश्चापः पुरस्थितम् ॥ ६३ ॥ अर्थस्य प्रतिपाद्यस्य यः सम्भाव्यः प॑दश्यते । उत्कर्षोऽतिशयोक्तिः स्यात् सोऽलङ्कारः कविप्रियः ॥ ६४॥ ..
.१ A ली । २ A न्वी। ३ D द्धार्थात् । ४ D ध्यादन्यत्रभा । ५ D सेत् । ६. A क । ७ A गोय । ८ A दा। ९ A व । १० A खं । ११ A धर्ममु । १२ D साधैः । १३ - F च । १४ A पं.। १५ Aध । १६ D दृश्य । १७ A तिस्यात् ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः
मम प्रियावियोगोऽयं रसायनमिवाभवत् । नयामि दिवसन्त्वेकं वर्षाणामयुतैः समम् ॥ ६५ ॥ स्थितयोरेकशय्यायां दम्पत्योर्मानिनो रुषा । वितस्तिमात्रमप्यासीदन्तरं शतयोजनम् ॥ ६६ ॥ विशेषणैर्हेतुभूतैर्विशेषो यत्र मन्यते । अलङ्कारः स कथितो हेतुर्नाम विचक्षणैः ॥ ६७ ॥ निःशेषितरिपोर्दातुर्धर्मज्ञस्य दयावतः । तवैवं रमणीनाथ जगत्येकस्य वीरता ॥ ६८ ॥ गूढेङ्गितैः संज्ञया वा मुच्यतेऽयों हृदि स्थितः। अलङ्कारः स सूक्ष्मः स्याद्विदग्धैरेव लक्ष्यते ॥ ६९ ॥ हृदिस्थं कामुकं दृष्ट्वा वयस्यां वक्ति कामिनी । दन्तनिर्मितदम्पत्योर्विवाह निशि कुर्वते ॥ ७० ॥ उद्दिष्टानां पदार्थानामनुद्दिष्टैर्यथाक्रमम् । सम्बन्धः कथ्यते योऽसौ यथासङ्ख्यं क्रमश्च सः॥ ७१ ॥ शौर्येण काव्यबन्धेन रूपेण च नृप त्वया । रिपवः पण्डिता रामा निर्जिता निर्जिता हूँताः ॥ ७२ ॥ गुरुदेवनृपादीनां मानने चाटुंभू(भा)षणम् । प्रेयो नाम स विज्ञेयः प्रीतेरुत्पादको यतः ॥ ७३ ॥ तव पादाम्बुजद्वन्दं ध्यायतः पुरुषोत्तम । समुद्भूता महाप्रीतिर्दुष्टे वक्तुं न पार्यते ॥ ७४ ॥ त्वत्पादप्रणतिप्राप्तप्रसादात् रिपवः प्रभो । रमन्ते सह कान्ताभिः सम्प्रत्युद्यानभूमिषु ॥ ७५ ॥ कृशाङ्गैविकृतैननैर्मुखवाद्यपरैर्गणैः। नृत्यद्भिः स्मापिता गौरी नवोढा सुस्थिता य (भ) ॥ ७६ ॥
A न यासि । २ A थै। ३ A तः । ४ A दं। ५A ६ F ह६A दु । - A रि। Dस्वा F स्रा । ९ तः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
देव त्वद्वैरिकान्तानां स्नातानां नयनोदकैः । प्रलापजपसक्तानां मुद्रालीके करस्थितिः ।। ७७ । त्वत्कोप (पे) पावकः साक्षादासस्तव नराधिपः ( प ) । पतत्येष रिपौ यस्मिन् स भस्मै भवति क्षणात् ॥ ७८ ॥
दृश्यते सेतुरद्यापि राघवेण कृतो महान् । रावणो निहतः सङ्ख्ये सीता प्रत्याहृता यतः ॥ ७९ ॥
रावणाज्जातसन्त्रासो मारीचिर्मृगरूपधृक् । लोभयन्स्वर्णशृङ्गाद्यैर्विद्धो रामेण लीलया ॥ ८० ॥
भिन्नां शूर्पनखानासां निर्यद्रुधिर सन्ततिम् । दृष्ट्वा जुगुप्सितां सीतां जहास रघुनन्दनः || ८१ ॥ स वार्मंनवपुर्देयाँद्देवो निःश्रेयसं सताम् । पद्भ्यां लोकत्रयं क्रामन् यश्चकाराद्भुतं महत् ॥ ८२ ॥
अहङ्कारपरं वाक्यं वंशवीर्यश्रुतादिभिः । बध्यते यत्तदूर्जस्वि कथितं कविभिः पुरा ॥ ८३ ॥ कारागारे धृतः शक्रो बलानिर्जित्य सङ्गरे । तस्य मे दशकण्ठस्य विहाराहूत किं भयम् ॥ ८४ ॥ तद्वाचकैः पदैः साक्षादनुक्त्वा तस्य सिद्धये । भङ्गयन्तरेण कथनं पर्यायोक्तिरुदाहता ।। ८५ ।। रिपवस्तस्य भूपालाः सदाराः पाणिसम्पुटैः । पिवन्त्यरण्यमासाद्य नित्यं नवनवं जलम् || ८६ ॥
कापि कार्ये प्रवृत्तस्य यदि दैवसहायता । कथ्यते यत्र तत् ख्यातं समी (मा) हितमलङ्कृतम् ॥ ८७ ॥
रुष्टा (ट) प्रार्थयमानेन गौरीकण्ठग्रहो हठात् ।
99
प्राप्तः शिवेन कैलासकम्पाद्रावणनिर्मितात् ॥ ८८ ॥
१७९
१ A त्वा । २ A मुजालोके । ३ A क्षासिस्त । ४ A स्मसान । ५A ची । ६ Aस । ७ A यादेवे । ८ A सह । ९ A यत्र दूर्जिस्विः । १० A त्या रण । ११ A खे ।
Aho! Shrutgyanam
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः२
॥
समृद्धो (द्धेः) हेमरत्नानामाशयस्य समुन्नतेः। वर्णनं क्रियते यत्र तदुदात्तं प्रचक्षते ॥ ८९॥........ त्वत्पादनतिमात्रेण समृद्धिर्जायते नृपे । पद्मरागमहानीलहेममौक्तिकशालिनी ॥ ९० ॥ यं पश्यति क्षमापाल भवष्टिः प्रसेदुषी । तेन स्पर्धा वितन्वन्ति शक्रवैश्रवणादयः ॥ ९१ ॥ दृष्टमर्थमपन्हुत्य व्याजेनान्यस्य कीर्तनम् । तदुत्कर्षवतीं प्राहुरपन्हुतिमलङ्कृतिम् ॥ ९२ ।। अयं न धरणीनाथ करे कौक्षेयकस्तव । त्वत्प्रतापानलस्येयमुद्गता धूमसन्ततिः ॥ ९३ ॥ अखण्डेषु सखण्डेषु नानार्थत्वं पदेषु यत् । गुम्फ्यते कविभिः काव्यैः श्लिष्टमिष्टं मनीषिणाम् ॥ ९४ ।। हतवान् दानवान् क्रूरान्भक्तँटन्दावनप्रियः । पूज्यज्येष्ठवलः श्रीमान् भवान् कृष्णश्च भूपते ॥ ९५॥ ... सर्वहेतिभयात्वत्तः शत्रवातन्मृगीदृपः। आसन्नविधवाकारास्त्वयि सङ्ग्रामसङ्गते ॥ ९६ ॥ क्रियाजातिगुणाधी(दी)नामुक्त्वा वैकल्यमेकशः। उत्कर्षस्याभिधानं यत्सा विशेषोक्तिरिष्यते ॥ ९७ ॥ अनाकारगतिश्चन्द्रस्त्वन्मुखं कठिनस्तनि । असागरसभुद्भूता सुधेयं वचनं तव ॥ ९८ ॥ उत्कृष्टैः सह निर्देशो व्यापारे यत्र कथ्यते । साम्ययोगः स विज्ञेयो विशेषोत्पादहेतवे ॥ ९९ ॥ - भवान् शक्रश्च राजेन्द्र बिभ्रतो भुवनत्रयम् ।
त्वं धर्मचरणादेव मरुत्वान्दृष्टिसर्जनात ॥ १०॥ १F द्वौ । २ A पः। ३ A दि। ४ A यतां । ५A र । ६ A । ७ D पदार्थेषु । ८ D वाच्यैः श्लिष्ट मनीषिणाम् । ९ A ष । १० A तं । ११ A तू। १२ A ङ्गतौ । १३ D क्त्वा । १४ A नी, नं। १५ A उद्दिष्टैः । १६ A व । १७ A न्द ।
Aho! Shrutgyanam
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः।
अविरोध्यपि यद्वस्तु विरुद्धमिव भाष ( स ) ते । यत्र सोऽयमलङ्कारो विरुद्ध इति कथ्यते ॥ १ ॥ हारयोगेऽपि दारियं न जहात्युदरं तव । . अधस्थमपि वामोरु गुरुतां जघनं गतम् ॥२॥ निर्वेदादथ सन्तोषादन्यदेव प्रशस्यते । अप्रस्तुतप्रशंसेयमाख्याता कविभिः पुरा ॥ ३ ॥ अपि वर्षसहस्राणि भ्रान्त्वा नो लभ्यते मरौ । तरुच्छाया दलं मूलं फलं जलमनाविलम् ॥ ४ ॥ अज्ञानाद्वा प्रसङ्गाद्वा बुद्धिपूर्वमथापि वा। आमृष्टममृतं येन स भवत्यजरामरः ॥५॥ निन्दाव्याजेन यत्किञ्चिच्छ(स्तू)यते सविशेषणम् । व्याजस्तुतिरिति ख्याता नागरोक्तिविशारदैः ॥ ६ ॥ अधुनापि न शुष्यन्ति समुद्राः सप्त भूपते । महतापि किमेतेन त्वत्प्रतापौग्निना कृतम् ॥ ७ ॥ अर्थेऽन्यस्मिन् प्रवृत्तेन किश्चित्तत्सदृशं फलम् ॥ निर्दिश्यते प्रतीत्यर्थ तन्निदर्शनमुच्यते ॥ ८ ॥ खलं खलु [णाः प्राप्य भजन्ते दोषरूपताम् । अहिवळ समासाद्य दुग्धं सम्पद्यते विषम् ॥ ९॥ गुणानां कर्मणां वापि सहभावो निबध्यते । यत्र काव्ये समाख्याता परिवृत्तिरियं बुधैः ।। ११० ॥ राजन्धर्मकरं स्तुत्यं सततं यत्सुखावहम् । तद्दत्वा द्रविणं कीर्तिमग्रहीस्वमनश्वरीम् ॥ ११ ॥ रणरङ्गाङ्गणे वीर शस्त्राणि पततां द्विषां । प्राणमात्राभयं दत्वा सर्व धर्म त्वमग्रहीः ॥ १२ ॥
।
. १A व । २D दुच्य । ३ A पो। ४ A ग । ५ A कं । ६ D मृत्युं । ७ A त्वग्द । ८ A स्थ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
मानसोल्लासः।
[अध्यायः२
करशाखाग्रमादाय द्विषतां सङ्गतान्तरे । भूवाजिगजसम्पन्ना दत्ता लक्ष्मीस्त्वया नृप ॥ १३ ॥ अर्थस्याभीष्टभूतस्य यत्राशंसनमुच्यते । प्रशस्तवाचकैः शब्दैः साशीरित्यभिधीयते ॥ १४ ॥ लक्ष्मीलोचननीलाब्जविकासरजनीकरः ॥ सुभगङ्करणो भूयाधुष्माकं मधुसूदनः ॥ १५ ॥ अलक्रियाणां बव्हीनों द्वयोरपि निबन्धनम् । क्रियते यत्र तत्ख्यातं सङ्कीर्णमिति कोविदैः ॥१६॥ यदि सा मृगशावाक्षी पाणिपल्लवशालिनी । दैवादृष्टिपथं यात्तिया(दा) मोदेते मे मनः ॥ १७ ॥ उरस्याङ्क करे विभ्रत्कौस्तुभं श्रियमम्बुजम् । हरिवः श्रेयसे भूयालक्ष्मीवक्त्राब्जषट्पदः ॥ १८ ॥ गुणः प्रबन्धविषयः कवेर्भात (र्भाव)स्तु मानसः । भाविकं नाम तत्माहुः काव्यालङ्कारकोविदाः ॥ १९ ॥ सर्गबन्धो महाकाव्यं समीक्षेतास्य लक्षणम् । आशीर्वादो नमस्कारो वस्तूदेशोऽपि तन्मुखः ।। १२० ॥ पौराणिककथोद्भूतमितिहासकथाश्रितम् । स्वबुद्धयुत्प्रेक्षितं प्राविशिष्टपुरुषाश्रितम् ॥ २१ ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां कथनैर्यत्समन्वितम् । पुरसागरशैलर्तुसोमसूर्या (यों) दयैरपि ॥ २२ ॥ जलोद्यानमधुक्रीडासम्भोगोत्सववर्णनैः । विवाहैर्विप्रलम्भैश्च पुत्रजन्मोपवर्णनैः ॥ २३ ॥ द्यूतमन्त्रप्रयाणाजिनायकोत्कर्षकीर्तनः । एतैर्वर्णनकैर्युक्तं न्यूनाधिक्येन दुष्यति ॥ २४ ॥
१ A त । २ D ली । ३ A द्धी । ४ D ता । ५ A न । ६ D व। ७ A त्म । ८ F है। Dदयोऽपिच ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः।
उच्छासोन्मेषसगै काण्डस्तबंकसन्धिभिः । आश्वासैर्वा तथाध्यायैः पद्धत्या च विराजितम् ॥ २५ ॥ एतैरनतिविस्तीर्णैभव्यवृत्तैः सुसन्धिभिः । रचितं रसभावान्यं काव्यं लक्षणसंयुतम् ॥ २६ ॥ वृत्तस(ग)न्धि तथा चूर्ण समस्तपदबन्धुरम् । त्रिःप्रकारमिदं गद्यं पूर्ववर्णनकैयुतम् ॥ २७ ॥ गद्यैः पद्यैः समायुक्तामेतद्वर्णनकैर्युताम् । चम्पुनाम्ना समाख्यातां शुश्रूषेत महीपतिः ॥ २८ ॥ रूपाणि नाटकादीनि दश वीक्षेत भूपतिः । तत्रादौ नाटके बीजं स्वल्पोद्दिष्टं तु कारणम् ॥ २९ ॥ अवान्तरार्थविच्छेदे बिन्दुरच्छेदकारणम् । कथामध्ये समुत्पन्नमासमाप्ते : पताकिकाँ ॥ १३० ॥ प्रादेशिकी स्यात्मकरी त्रिवर्गः कायमुच्यते । एता(:) प्रकृतयः पञ्च प्रोक्ता नाटकवेदिभिः ॥ ३१ ॥ पूर्वावस्थास्विहारम्भः साकल्पो (सङ्कल्पो)मानसः स्मृतः । प्रयत्नस्तु फलावाप्तापारोऽतित्वरायुतः ॥ ३२ ॥ अपायपातका(को)पायैः (१) प्राप्तिः सा (त्याशा) परिकीर्तिता । प्रत्यूहस्य प्रतीकारो नियताप्तिश्च निश्चिता ॥ ३३ ॥ परिपूर्णफलावाप्तिः फलागम इति स्मृतः । इत्यवस्थाः समाख्याताः पञ्च नाटकसंश्रयाः ॥ ३४॥ बीजंग्रारम्भयोगेन मुखसन्धिरुदाहृतः । बिन्दु यत्र (यत्न) समायोगे सन्धिः प्रतिमुखं मतम् ॥ ३५ ॥ पताकाप्त्याशयोर्योगे गर्भसन्धिरुदीरितः । प्रकरीनियताप्तिभ्यां विमर्शः सन्धिरिष्यते ।। ३६ ॥
A म्ब । २ A स । ३ D सर्व । ४ D द । ५ न्ना । ६ A D कः। ८ Aण: F गाः । SD तः । १० A ल्यो। ११ D पै: A ये। १२ F आयाययान्त । १३A यात। १४ A पैः। १५ ।
Aho! Shrutgyanam
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः २ कार्यात्फलागमोपेतात्सन्धिनिर्वहणं भवेत् । इति प्रगदिताः पञ्च सन्धयः सन्धिकोविदः ॥ ३७ ॥ गुणैः श्लाघ्यैः समायुक्तः ख्यातवंशश्च नाटकैः (के)। . धीरोदात्तः प्रतापी चे काव्ये वा नायको नृपः ॥ ३८ ।। पुरावृत्तानुकर्तव्या प्रशस्ता नाटके कथा । पश्चाद्या दशपर्यन्तास्तस्मिन्ननः प्रकीर्तिताः ॥ ३९ । एको रसोऽत्र मुख्यः स्याच्छृङ्गारो वीर एव वा । एवमन्ये रसाः सर्वे कुर्यान्निर्वहे (ह) णेऽद्रुतम् ॥ १४०॥ देवद्विजनरेन्द्राणां लिङ्गिनां संस्कृतं वचः । भवेद्वाक्यं महादेव्या मन्त्रिजाव(वे)श्ययोः कचित् ॥ ४१ ॥ . स्त्रीणां विदूषकस्यापि शूद्राणां प्राकृतं वचः । म्लेच्छान्त्यजपिशाचादे : पैशाचं वापि मागधम् ॥ ४२ ॥ कार्य(:)प्रकरणे नेताऽमात्यो विप्रोऽथवा वणिक् । उत्प्रेक्ष्यं स तथा कुर्याच्छेषं नाटकलक्षणम् ॥ ४३ ॥ यत्र वक्ता भवेदेकः स्वरूप(स्य)वृत्तं परस्य वा । निपुणः पण्डितो धूर्त एकाङ्कः स तु भाणकः ॥ ४४ ॥ देवासुरकथाबद्धस्यङ्को द्वादशनायकः । एवं समवकारः स्याच्छेषं नाटकवद्भवेत् ॥ ४५ ॥ ईहामंगस्त्वयं प्रोक्तो दिव्यप्रोद्धतनायकः । दिव्यस्त्रीहेतुसङ्ग्रामस्त्रीरोपकथनात्मकः ॥ ४६ ॥ शृङ्गारहास्यरहितै रसैः सर्वैः समन्वितः । प्राप्तोऽयमुच्यते यत्र धीरोदात्तश्च नायकः ॥ ४७ ॥ मनुष्यनायकः ख्यातः स्वल्पस्त्रीजनसंयुतः। नियुद्धयुद्धसङ्घस्तर्जनेन च संयुतः॥४८॥
१ A वी । २ A ती । ३ A ब । ४ D या । ५ D णो । ६ A दैः । ७ F चा। ८ D क्ष्यः । ९D पयस्य । १० D न्मृ । ११ A तैः।
Aho! Shrutgyanam
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। एकाङ्कः स्त्रीविहीनो वा बहुभिः पुरुषैर्युतः । व्यायोगोऽयं समाख्यातो नाट्यलक्षणकोविदैः॥ ४९ ॥ रख्याताख्यातसमायुक्तः स्त्रीविलास(प)समन्वितः। नृनायको निर्वृत्ताजिः करुणोऽत्ररसो मतः ॥ १५० ॥ भारतीयत्तिबहुला(लो) नान्या(ना)चाकुलवे(चे)ष्टितः । उत्सृष्टिकाई कथितो नाद्य(व्य)तत्त्वविचक्षणैः ॥५१॥ मुनिभिब्राह्मणैः क(दु)टनरैः प्राकृतसंस्कृतैः । वचोभिः क्रियते हास्यं शुद्धं प्रहसनं हि तत् ॥ ५२ ।। वेश्या नपुंसकैश्वेटो विटो धूर्तश्च बन्धकी । वेषचेष्टोक्तिविकटा बहुदम्भसमन्विता ॥ ५३ ।। नानारूपाणि यत्र स्युर्वीथ्यङ्गानि त्रयोदश । सङ्कीर्ण(ण)नाम तत्प्रोक्तमेतत्प्रहसनं बुधैः ॥ ५४॥ एकपात्रा द्विपात्रा वा रसैः सर्वैः समन्विता। वीथ्यङ्गयुक्ता चैकाङ्का वीथिका नाम रूपकम् ॥ ५५॥ सूक्ष्मार्थस्य पदैस्यान्यपदेनार्थप्रकाशनम् । अङ्गमुढे(द्धा)त्यकं नाम वीथ्यङ्गं प्रथमं बुधैः ।। ५६ ॥ यत्रान्यस्य समादेशात् कार्यमन्यत्प्रसाध्यते । तच्चावलगितं नाम विज्ञेयं नाट्यवेदिभिः ॥ ५७ ।। प्रस्तुतार्थे तु कस्मिंश्चिच्छुभे वाऽप्यथवाऽशुभे । कौशलादुच्यतेऽन्योऽर्थस्तदवस्पन्दितं मतम् ॥ ५८ ॥ उपहासेन संयुक्ता नीलिका स्यात्प्रहेलिका। असत्प्रलापः स ज्ञेयो मूर्खेषु बुधभाषितम् ॥ ५९ ॥ एकद्वित्रिपँवचना केली कथ्यते बुधैः । असद्भूतं मिथ(:)स्तोत्रं प्रपश्चो हास्यकृन्मतः ॥ १६०॥
१ A ताघ । २ A ता। ३ A सी। ४ A नृ। ५ Dता। ६ D कः। ७ A ब्र। ८A कंचे । SA का। १. A वे। ११ A स्यवी। १२ A दास्यान्य । १३ D रास्य। १४ A न्यान्य । १५A नि। १६ Dन । १७ A प्रति बचना । १८ D साक । २४
Aho ! Shrutgyanam
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः२
दोषा गुणा गुणा दोषा यत्र स्युमदेवं हि तत् ।। उक्तिप्रत्युक्तिमुत्कृष्टशूरयोऽधिबलं विदुः ।। ६१ ॥ श्रुतिसाम्यादनेकार्थयोजनं त्रिगतं भवेत् । व्याहारो हास्यलोभाट्याच्छ(द्वाक्छ)लनात्तु छलं भवेत् ॥ ६२ ॥ संरम्भशस्त्रपतनविवाहपरिगुम्फितम् । बहुवाक्यापवादाभ्यां युतं गण्डं विदुर्बुधाः ॥ ६३ ॥ विभावैरनुभावैश्च सात्विकैर्व्यभिचारिभिः । आनीयमानः स्वादुत्वं स्थायी भावो रसो मतः ॥ ६४ ॥ ज्ञान(य)मानतया तत्र विभावो भावपोकृत् । अनुभावो विकारस्तु भावसंमूचनात्मकः ॥६५॥ अनुकूलमनोधर्माः सात्विकाः परिकीर्तिताः । विशेषादाभिमुख्येन चरन्तो व्यभिचारिणः ॥६६॥ रोमाञ्चः प्रलयः स्वेदः स्तम्भः कम्पो विवर्णता । वैश्च(स्व)र्यमश्रु चेत्यष्टौ भावाः सत्वसमुद्भवाः ॥ ६७ ॥ निर्वेदावेगवैवर्ण्यचिन्ताम्यादम (मद) श्रमाः । स्वापो विबोधो निद्रा च दैन्यालस्यमपस्मृतिः ॥ ६८ ॥ शहूंग ग्लानिस्त्रपा मोहो गर्वश्चपलता मतिः । अवहित्थोग्रतात/स्त्रासोन्मादौ विषण्णता ॥ ६९ ॥ अश्रु हर्षः स्मृतिर्जाडयममर्षों मरणं धृतिः । त्रिंशदेते त्रिभिर्युक्ता भावाः स्युर्व्यभिचारिणः ॥ १७० ॥ हासः शोको रतिः क्रोधो जुगुप्साभयविस्मयाः । उत्साहश्चेति विज्ञेयाः स्थायिभावा रसाश्रयाः ॥ ७१ ॥ हास्यं करुणश्रृङ्गारौ रौद्रबीभत्ससंज्ञकौ । भयानकाद्भुतौ वीर इत्यष्टौ नाटके रसाः ॥ ७२ ॥
१A मंदवं । २ A म्भ। ३ A योष । ४ A भावि । ५ D वैवर्ण्य। ६ D या। ७ A स्कृ । ८D शोको । ९ A व्य । १. Fषेमि ।
Aho! Shrutgyanam
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
अमू
मानसोल्लासः ।
एवं काव्यकथाः श्रुत्वा विचार्य च गुणागुणौ ! ततस्तु तार्किकान् राजा कौतुकेन विवादयेत् ॥ ७३ ॥
कुलेन विद्यया ख्यात्या समयोर्वाद इष्यते । वादस्य विषयो गीतं नृत्तं वा वाद्यमेव वा ॥ ७४ ॥
स्वपक्षे साधनं यत्र परपक्षे च दूषणम् । सिद्धान्तेनाविरोधश्च सम्बन्धश्च प्रतिज्ञया ।। ७५ ।।
हेतुदृष्टान्तयोर्योगों निगमोपनयौ तथा । ' पक्षस्य प्रतिपक्षस्य ग्रहो वादः स उच्यते ।। ७६ ॥
साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणो यत्तु कीर्तनम् । प्रतिज्ञा नाम सा प्रोक्ता हेतुस्तत्साधनं विदुः ॥ ७७ ॥
साध्यसाधनयोर्यत्रविनाभावः प्रदर्श्यते । तदुदाहरणं प्रोक्तं निगमः पक्षनिर्णयः ॥ ७८ ॥
दृष्टान्ते कथितव्याप्तेर्हेतोः पक्षोपसंहृतिः ।
चाप्युपनये (यः) पक्षे (क्ष) धर्मख्यापनयोच्यते ॥ ७९ ॥
उपनयः पक्षधर्मख्यापनाय । पयुज्यते । शिष्यस्य गुरुणा सार्धं सतीर्थानां परस्परम् ॥ १८० ॥ वस्तुतत्वावबोधाय वादः कार्यो विमत्सरम् । जातिभिर्निग्रहस्थानैश्छलैरपि समन्वितः ॥ ८१ ॥ स एव वादो जल्पः स्यात् ख्यातिपूजादिहेतुकः । स्थापनं प्रतिपक्षस्य जल्पे यस्मिन्न विद्यते ॥ ८२ ॥
वितण्डा नाम सा प्रोक्ता पूर्वोक्तफलसिद्धये । स्थ (छ) लमस्य विकल्पेन परवाक्योपघातनम् ॥ ८३ ॥
सामान्येनोपचारेण वचनेनेति तत्रिधा । प्रयुक्ते साधने सम्यगुत्तराप्रतिभासनात् ॥ ८४ ॥
१८७
१A चार । २ A त्र । ३D ता । ४ D adds this line । ५ A र्मा । ६D रूपो । ७ A द्या । ८ A मे । ९D भासना ।
Aho! Shrutgyanam
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
मानसोल्लासः।
[अध्यायः २
समीकरणबुध्या यः प्रसङ्गो जातिरित्यसौ । प्रतिदृष्टान्तसरणं प्रतिज्ञाहानिरिष्यते ॥ ८५ ॥ अर्थान्तरस्य निर्देशः प्रतिज्ञान्तरमुच्यते । से प्रतिज्ञाविरोधो यद्वैरं हेतुपतिज्ञयोः ॥ ८६ ॥ प्रतिज्ञायाः परित्यागस्तत्सं(स सं)न्यासो विधीयते । विशेषरहिते हेतौ दूषिते प्रतिवादिना ॥ ८७ ॥ सविशेषस्य कथनं हेत्वन्तरमुदाहृतम् । प्रकृतार्थपरित्यागात्तदसम्बद्धभाषणम् ॥ ८८ ॥ अर्थान्तरमिति प्रोक्तं निग्रहस्थानसन्निधौ । वारत्रितयमुक्तोऽपि पर्षदा प्रतिवादिनीं ।। ८९ ॥ यन्न वेत्ति परः सम्यगज्ञानाख्यं तदुच्यते । प्रतिज्ञादेः क्रमं त्यक्त्वा क्रमव्यत्ययसङ्ग्रहः ॥ १९० ॥ अप्राप्तकालं तत्प्रोक्तं निग्रहस्थानवेदिभिः । केनाप्यवयवेनात्र हीनं तन्न्यूनमुच्यते ।। ९१ ।। हेतूदाहरणाधिक्यादधिकं तद्विदुर्बुधाः। अनुवादं परित्यज्य पुनस्तस्यैवें भाषणम् ।। ९२ ॥ शब्दस्यार्थस्य तत्प्रोक्तं पुनरुक्तं मनीषिभिः । विज्ञातस्य पदार्थस्य त्रीन्वारान् भाषितस्य च ॥ ९३ ॥ नांनुवादः परोक्तस्य भवेत्तद(दन)नुवादनम् । उत्तरस्य यदज्ञानमुक्ती त्वप्रतिभा बुधैः ॥ ९४ ॥ अन्यकार्यात्कथाभङ्गः कथाविक्षेप उच्यते । अभ्युपेत्य निजं दोषं परदोषस्य भाषणम् ॥ ९५ ॥ मतानुज्ञेति सा प्रोक्ता दोषोद्भावनवेदिभिः । प्राप्तस्य निग्रहस्थानं तदनुद्भावनं च यत् ॥९६॥
१ A ब। २ A F सं। ३ A यं द्वैरं F A वै। ४ F सत्सं। ५ A तापा। ६ A ता। ७D ग् ज्ञानाख्यं A तन्यू । ९A स्यव। १.A......नानुवादनं । ११Dप। १२ Dक्त । १३ यक। १४ Dतु।
च।
Aho ! Shrutgyanam
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८९
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। निग्राह्योपेक्षणं नाम निग्रहस्थानमुच्यते । अनिग्रहे निग्रहस्य यदुद्भावनमुच्यते ॥ ९७ ॥ अनिग्राह्यं तु योगोऽयं दूषणत्वेन कीर्तितः। स्वसिद्धान्तं परित्यज्य यदुच्छृङ्खलभाषणम् ॥ ९८ ॥ अपसिद्धान्तनामेदं निग्रहस्थानमुच्यते । अपक्षधर्मो हेतुर्यः सोऽसिद्धः परिकीर्तितः ॥ ९९ ॥ साध्यधर्मविरुद्धो यः विरुद्धः परिकीर्तितः । पक्षत्रितयगामी यः सोऽनैकान्तिक उच्यते ॥ २००॥ कालात्ययापदिष्टोऽयं पक्षे योऽन्येन बाध्यते । सन्देहहेतुभूतेन बाध्यो यः प्रतिहेतुना ॥ १ ॥ हेत्वाभासः स विज्ञेयः समः प्रकरणेन सः। ततो विवदमानेषु निग्रहस्थानवर्त्मनि ॥ २॥ स्थितानामजयं ब्रूयादितरेषां जयं नृपः । इति शास्त्रविनोदेन दिनशेषं नयेन्नृपः ॥३॥ कवीनां तार्किकाणाञ्च प्रसादं भूरि दापयेत् । उक्तः शास्त्रविनोदोऽयं सोमेश्वरमहीभुजा ॥ ४ ॥
इति शास्त्रविनोदः ॥ २ ॥ इदानीं गजवाह्यालीविनोदः परिकीर्त्यते । गजैविनोदैन(नं) कुर्याद्वाह्याली सङ्गतो नृपः ॥५॥ सङ्ग्रामार्थ श्रमस्तेषां कार्यों यवनयोधने । मदहीना न धावन्ति न युध्यन्ते मतङ्गजाः ॥६॥ मद एव गुणस्तस्मात्तदर्थ यत्नमाचरेत् । बृंहणैः कवलैर्वृष्यैस्तदासञ्चय(अन)कारणैः ॥७॥ व्यस्तारकारकैश्चान्यैर्मुखवर्धनकैरपि । करवृद्धिकरैर्योगैः कटैंशुद्धिकरैरपि ॥ ८॥
१ A omits this line। २ D स सिद्धः । ३ दं। ४A द्वागजा । ५ A व्या D व्यस्तारककरै । ६० ।
Aho! Shrutgyanam
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः३ प्रभेदनैर्वर्धनैश्च गन्धवर्णकरैस्तथा। दोषो(दो)त्पादनकैः पिण्डैर्जातिधात्वनुसारतः ॥९॥ गजानुपचरेद्राजा प्रयत्नादन्नपानकैः। तत्रादौ जातयो ज्ञेया त (स्त)स्माद्वक्ष्यामि लक्षणम् ॥ २१० ॥ गात्रापरं नखा दन्ताः कोशो मध्यं करं गलः । तनून्येतानि दीर्घाणि शीर्ष पृष्ठं च वालधिः ॥ ११ ॥ तलानि चिबुकं चैव इस्वानि च भवन्ति हि । समदौ च कटौ कुक्षिः कर्णौ च तनवो भृशम् ॥ १२ ॥ अङ्गुली हनुकेशं च वक्षः कुब्जं प्रदृश्यते । यस्य श्यामो भवेद्वर्णः कृष्णे स्थूले च लोचने ॥ १३ ॥ आकार ईदृशः प्रोक्तो वनचारस्तु कथ्यते । एकाकी न प्रयात्येष गोप्रचारं च गच्छति ॥ १४ ॥ यूथानुवर्ती भीरुश्च चलचित्तो वने मृगः । धृतस्य कर्मकाले तु भवेदुत्तानवेदिता ॥ १५ ॥ दुःशीलता च चापल्यं लक्ष्मैतन्मृगदन्तिनः । उरो मुखं तथा कणों विशालानि भवन्ति हि ॥ १६॥ गात्रापरं शिरो दन्ताः सगदे(द) वर्मकन्धरम् । केशा वालाश्च रोमाणि स्थूलानि च भवन्ति हि ॥ १७ ॥ वालधिः पृष्ठवंशश्च चिबुकं हस्त एव च । भवन्त्यतानि दीर्घाणि लम्बते मेढ़कोशकम् ॥ १८ ॥ भेककुक्षिसमाकुक्षि लो(लो)चने कपिले शुभे । कृष्णमेघनिभो वर्णः सर्वाङ्गे परिपीनता ॥ १९ ॥ जाड्यं च बलिबाहुल्यमाहुर्मन्दस्य लक्षणम् । वने तु वसतस्तस्य शशादेनं भयं भवेत् ॥ २२० ॥
१ A र इव । २ D बलिचित्ता। ३ D च । ४ लश्च । ५A श्च । ६ D वर्ण । . D
A हो ।
Aho! Shrutgyanam
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः।
न रुष्यति भवत्येको निद्रालुः सततं भवेत् । शिक्षाकाले धृतस्यैतल्लक्षणं परिदृश्यते ॥ २१॥ गम्भीरं वेदनं तस्य कर्म शीघ्रं न शिक्षति । शिक्षितं विस्मरत्याशु मत्तः स्मरविशिक्षितः ॥ २२ ॥ मन्दकोपो गतौ स्तद्यो (ब्धो)मन्दो मातङ्ग ईदृशः । गात्रापरं करः पुच्छं न स्थूलं न कृशं समम् ॥ २३ ॥ विशालमुन्नतं वक्षो धनुराकारवंशकः । कुम्भौ च ना (वा)तकुम्भश्च कटौ चापि प्रवेश(ष्ट)कौ ॥ २४ ॥ स्थूल(ला)दन्ता भवन्तीह विपुलं श्रवणासनम् । वैराहजघनश्चैव छागकुक्षिमनोहरः ॥ २५ ॥ समस्निग्धा नखा दन्ता लोचने मधुपिङ्गाले । गौरवर्णोऽत्युदग्रश्च कृष्णविन्दुविराजितः ॥ २६ ॥ आतानं तालुजिह्वोष्ठमेतद्भद्रस्य लक्षणम् । बने यूथस्य पुरतो यात्याहारविहारयोः ॥ २७॥ मेघभेरीस्वनाद्भीतिं नैति हृप्यत्यनाकुलः । समानीतो वनात्कर्मकाँले सो(ऽस्या)न्थवेदना ॥ २८ ॥ आशुग्राही सुशीलश्च न विस्मरति शिक्षितम् । कर्मशूरः स्वयं शूरो रूपलक्षणसंयुतः ॥ २९ ॥ ईदृशो भद्रजातिः स्यात्कुञ्जरो विजयावहः । मिश्रस्तुभयसंयोगे सङ्कीर्णस्त्रिगुणो मतः ॥ २३० ॥ भद्रमन्दो भद्रमृगो मन्दभद्रस्तथापरः । मन्दमृगो मृगभद्रो मृगमन्दश्च मिश्रकः ॥ ३१ ॥ भद्रमन्दमृगश्चैको भद्रो वा मृगमन्दयोः । मन्दभद्रमृगश्चान्यो मन्दो वा मृगभद्रयोः॥ ३२ ॥
१ A शि । २ D तिः। ३ D ब्धा । ४ D वा । ५ A भवः । ६ A F घु । ७ D लस्तत्त्वार्थवेदने । Fख। ९ A गो।
Aho ! Shrutgyanam
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः ३ गुणाधिक्येन नामैषां वर्णाद्वा मुखलक्षणात् । मिश्रसङ्कीर्णजातीनां नामलक्षणमीदृशम् ॥ ३३ ॥ मिश्राणां मिश्रचारस्तु सङ्कीर्णानां तथाह्वयः । शुद्ध(द्ध) सङ्कीर्णमिश्राणां जातिभेद इतीरितः ॥ ३४ ॥ एतेषामुत्तमो भद्रो मन्दो मध्यमलक्षणः । मृगः कनिष्ठो मिश्राणां सङ्कीर्णानामयं क्रमः ॥ ३५ ॥ श्लेष्मपित्तानिला ख्याता धातूनामपि जातिवत् । शुद्धा मिश्राश्च सङ्कीणों भेदा ज्ञेया विचक्षणः ॥ ३६॥ सात्विकी कफतः पित्ताद्राजसी तामसी चलात् । प्रकृतिर्मिश्रसङ्कीर्णा विज्ञेया पूर्ववबुधैः ॥ ३७॥ मेधावी स्निग्धवर्णश्च दीप्ताग्निर्मितभोजनः । अन्वर्थवेदी दीर्घायुः कामुकः सात्विको गजः ॥ ३८ ॥ वेगवान् बहुभुक् शूरः प्रज्ञावाँश्चलमानसः। उत्तानवेदी दुष्टश्च राजसोऽयमनेकपः ॥ ३९ ॥ क्लेशेन कर्म गृह्णाति गृहीतं विस्मरत्यपि । प्रत्यर्थवेदी निद्रालुस्तामसो द्विरदः स्मृतः ॥ २४० ॥ बैल्लोच्चटा विदारी च गोक्षुरः शाल्मली वरी । वाजिगन्धा तु गोक्षीरो (गालीरी) गोजिह्वा भूमिशर्करा ॥ ११ ॥ हिंसा च कुटजं धात्री छिन्ना माषाश्च चूर्णिताः। क्षीरेण सहितः पिण्डो गजानां बृंहणो महत् ॥ ४२ ॥ बलागोक्षुरकुष्माण्डमाषधात्रीशतावरी । उच्चटाकुटजां (जा) चूर्ण सम(भ)ये पयसान्वितः (तम् ) ॥ ४३ ॥ परुषांकोल्लहिंस्राश्च लक्ष्मणा सिन्धुवल्लिका । चित्रकः सुरसा शिग्रः काश्मीरी गिरिकर्णिका ॥४४॥
। ) उट
१मिव । २ D यः। ३ D बालोचदा A बलोच्छदा । ४ A हिस्ता। ५ कुंजरं चूर्ण समये F उच्चटाकुटलां । ७ D पुरुषान् कोलहिंस्रांश्च । ८ A कं ।
Aho! Shrutgyanam
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४
मानसोल्लासः। भूशर्कराऽग्निमन्थः शफ(म्ब)री च शतावरी । पूतिकः कर्णिकारश्च व्यस्तारान्तै(स्तै)लमम्बुना ॥ ४५ ॥ भल्लातमूलमूर्वा च कदली च महाँगुणः(हा)। केतकी च कुमारी च विदारी रक्तसौरिका ॥ ४६ ॥ एतैः समैः कृतचूर्णो दधिक्षीरघृतान्वितः । दत्तः प्रतिभय पिण्डो गजानां मुखवर्धनः ॥ ४७ ॥ कृष्णा घोला(ण्टा)वता(बला)गुञ्जा सुवहा गोक्षुरः सहाँ । शताव्हा मुंशली वेलुल्लं)प्रती(ची)वलविदारिका ॥ ४८ ॥ भूशर्करा शाल्मली च श्लक्ष्णाचूर्णीकृताः समाः । दन्ना पिण्डीकृता दत्ताः करीणां कटवर्धन:(नाः) ॥ ४९ ॥ एलाप्रियङ्गुकुटजहरितालं मनःशिला । त्रिमैतत्कृ(यामा कृष्णधान्या(ना)श्च रामठं सर्पकञ्चुकः ॥४५० ॥ आखुविद्वेषि(ष्य)हिंस्राश्च मुस्ताचित्रकसैन्धवाः । वीना(रा) रसोनो धत्तूरस्त्रिवत्ता(ता) च विचूर्णिता ॥५१॥ एतैर्वस्तै(ति)स्तथा बस्तिः प्रलेपश्च कटे कृतः । प्रयुक्तोऽयं यथायोगं करीणां कटशोधकः ॥ ५२ ॥ पारापतशकृद्धिङ्गुचर्तिनी (तिवा)परिवर्तयेत् । यवमध्यप्रमाणा च मुहूर्तस्थितिमर्हति ॥ ५३ ॥ चित्रकश्च तथा दूर्वा घोण्टामूलमथापि वा । चूतश्च तैः कृतचूर्णो भेदनो मधुतैलयुक् ॥५४॥ गुडस्तैलं पु(सु)रा शू(शु)ण्ठी कृष्णामधुव(क)संयुतम् । षडङ्गमेतदातव्यं मदभेदैनवर्धनम् ॥ ५५ ॥ अशिघैरसोनाश्च कदम्बसमुदायकः । पद्माट(क्ष)सुरसाह्या(खा)श्च गुडूची च करजः ॥५६॥
१ D सुखावहा F सहागुवः । २ D णैः । ३ A यं। ४ D ती । ५ F दा । ६ A सु । ७ A श। A F कः । ९ A वा । १० A वति...। ११ D दवि । १२ A ग्र। १३ A वस्तु... । १४ D कम् ।.
Aho ! Shrutgyanam
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः३
चम्पकं च समरेतैश्चूर्णितैर्दधिमिश्रितैः । पिण्डोऽयं मददृद्धौ स्यादिक्षुक्षीरघृतानि च ॥ ५७ ॥ केतकीशिग्रुसुरसावेल्लतू(न्त)रमुशीरकम् । सिद्धका(को)यूषि(थि)का रम्भा कबन्धो मुस्तकं च तैः ॥ ५८ ॥ चूर्णितैश्च समैः श्लक्ष्णैर्मधुतैलसमन्वितैः । दत्तैः प्रवर्तते गन्धः सिन्धुराणां मदाम्भसि ॥ ५९॥ पारिजातकपुष्पाणि किंशुक किणिर्ह (ही)गुडः । हरीतकी हस्तिकर्णी मधुना मेंधु(द)शौक्ल्यकृत् ॥ ४६० ॥ शिलाजाज(च) तक्रेण शालिपिष्टमजापयः। यशः(यासः) काञ्ची च शौक्ल्यस्य करणं करिणां मदे ॥ ६१ ॥ अञ्जनस्य तरोर्मूलं नारीरसपरिप्लुतम् । कुटजेन समायुक्तं नीलवर्णकरं मदे ॥ ६२ ॥ तालकद्विगुणा दावी रक्तवर्णकरी मदे । हरिद्रा मधुसंयुक्ता पीतवर्णा महामदे ॥ ६३ ॥ शयनावसरे दत्ता ग्रीसमध्ये मधुप्लुता । श्याम वर्ण करोत्याशु करिणां मदवारिणः ॥ ६४ ॥ धात्रीफलानि नोली च मधुकं कृष्णवर्णव(क)त् । दूर्वा च मधुना दत्ता हरितं वर्णमावहेत् ।। ६५ ॥ बृहतीफलमूलानि शुण्ठी सैन्धवसंयुता। मूत्रपञ्चकृते (तो) कोशे लेपोऽयं कोपदीपनः ॥६६॥ कोष्टे(कुष्ठं)वा दारुरजनी तंगेरं तैलसंयुतम् । पायुलेपप्रयोगेण करिणां कोपवर्धनम् ॥६७ ॥ पिप्पली मरिचं शुण्ठी मर्कटीफलमेव च । तैलेन कटलेपोऽयं करिणः कोपयेभृशम् ॥ ६८ ॥
१ A शा। २ Dन्धा । ३ A न्धू । ४ D हं । ५ D सर्वरोगहृत् । ६ A तुत F तुत । GD क्त्य । ८ D द । ९ A त्वा । १० D F कासं । ११ A ती । १२ A रङ्गम् । १३ D नः । ।
Aho! Shrutgyanam
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः 8 ]
मानसोल्लासः ।
राजिका पीलुमूलं च फणिजं पिप्पली कणा । नागरं बीजपूरेण पिण्डोऽयं कोपदीपनः ॥ ६९ ॥ कोपदीपनयोगास्तु कथिता ये कटादिषु । पूर्वेद्युस्ते विधातव्या धावेच्चाहवकर्मणि || ४७० || बृंहणैः बृंह (हि) तानां च सप्त शोभा भवन्ति हि । वक्ष्यामि लक्षणं तासां क्रमशो नामसंयुतम् ॥ ७१ ॥ करं कर्णौ च पुच्छं च तुच्छं चालयति द्विपः । सृक्कणी तालु जिह्वा च स्तनयुग्मं विलोचने ॥ ७२ ॥ ईषद्व्यक्तिं समायति सोञ्जनं ( सौजन्यं) वर्धते क्रमात् । सुच्छाया रक्तवृद्धिश्व सञ्जातरुधिरा मता ॥ ७३ ॥ प्रतिमाने च कण्डे च मणिबन्धे च वक्षसि । कक्षयोर्मासवृद्धिश्चेत्प्रतिच्छन्नेति सा मता ॥ ७४ ॥ सर्वसन्धिषु गात्रेषु वदने पक्षयोर्द्वयोः । पीनता वलिनाशश्च यत्रासौ पक्षलेपिनी ॥ ७५ ॥ कक्षयोः कन्द (ध) रोदेशे दन्तस्योभयपार्श्वयोः । उच्छ्रनता भवेद्यत्र धातुसाम्यं समता ॥ ७६ ॥ वरिष्ठा ( ) दियं शोभा चतुर्थी करिणां सदा । युद्धेऽध्वनि विनोदे च समकक्षा प्रशस्यते ॥ ७७ ॥ वंश (शो) स्य सम्म (म)तां याति त्रिकं पक्षो यथा ( दा ) गजे । निद्रालुर्मन्दगामी च दीर्घोच्छसस्तथालसः ॥ ७८ ॥
पञ्चमा (मी) संमकल्पेयं शोभा शोभाकरी भृशम् ।
१०
गा(ग) तौ च ल (ला)ति मांसानि षष्ठी सौं व्यतिकीर्णिका ॥ ७९ ॥
निमग्नः पृष्ठवंश (शो )स्य कदल्युत्तानपत्रवत् ।
यत्र सा द्रोणिका नाम शोभेयं सप्तमी मता ।। ४८० ॥
१९५
१ A य । २ D साथ । ३ Dज । ४ D च्छि । ५AF ना । ६ D कर्म । ७ D दि त्रयं ।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६
"
मानसोल्लासः ।
ततः सञ्जातशोभस्य मन्दा (दा) वस्थातु (स्तु) दन्तिनः । अतः (अन्तः) पञ्च मैंहे (दे) सप्त द्वादशेतित्व ( स ) मौरिताः ॥ ८१ ॥ पृष्टं मेढूं समं तु स्यादीषद्रक्ते च लोचने । कान्तिमान् करिणीलुब्धो नभश्च परिजिघ्रति ।। ८२ ॥ गजवीभ्यां पदं धत्ते द्विपेभ्यः परिकुप्यति । दर्शनीयो गजाघाती दन्ताभ्यां हन्ति भूरुहान् ॥ ८३ ॥
पांसुक्रीडनलोलः स्यात्पडून लेपनतत्परः । प्रथमान्त (तां) मवस्थां प्राप्तः सञ्चित उच्यते ॥ ८४ ॥
स्वल्पनिद्रो रुषायुक्तो जृम्भते यस्तु सन्ततम् । बहुक्रुद्ध रक्तनेत्रो कोपावस्था द्वितीयकी ॥ ८५ ॥
कुरुते बृंहितं शश्वदन्नं च परिवर्तयेत् । आलानं नाशु भजते शय्यां न प्रतिपद्यते ॥ ८६ ॥ वृक्षशाखां समालम्ब्य प्रसारयति कन्धराम् । गमने पाटवं धत्ते तृतीये प्रसवे गजः ॥ ८७ ॥
उच्छूनः कटदेशस्तु मुखं च परिशोभितम् । ऊँ (र्षा) मूलस्य योगेन स्रोतस विते तथा ॥ ८८ ॥
कż चुम्बति हस्तेन तिर्यग्वीक्षणतत्परः । अपसर्पति पश्चाच्च क्रोधनः सृकलेहनः ॥ ८९ ॥
अत्यासन्नमदो हृष्टो वारणः स्यात्प्रभेदने । दृश्यते तिलकप्रायं दानं यस्य कटद्वये || ४९० ॥
वाग्विभे (विभा) ति यतस्तस्मै कुप्येत्तिलकितं हि तत् । वितस्तिमात्रं वदने दानं गण्डस्थलान्तरे ॥ ९१ ॥
पुष्करे सीकरस्रावी निर्भयोऽर्धकपोलिकै' । गच्छन्नीषन्मदस्रावी दानतः प्रतिभूयसा ।। ९२ ।।
[ अध्यायः ३
१ A स्तातु । २ Aव । ३D द्वगी । ४ D भः । ५D हा । ६ A द्धो त्वसौ सेयं F द्वे कसों । ७ A आर्षमूलस्य मलं च F ऊर्ष... मूलं च । ८ A सा । ९ D दौ । १० Dगी । ११ A को ।
Aho! Shrutgyanam
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः।
१९७
दानप्रवाहौ' मिलितौ नेत्रयोर्दूषितामया(याः)। मेघवद्गर्जितं यस्य पूर्वलक्षणलक्षितः ॥ ९३ ॥ अधोऽर्नुबन्धिनी बाह्या तृतीया परिकीर्तिता । बहुगन्धिमदस्रावी समदक्षा(कक्षो) घनश्रिता(या)॥ ९४ ॥ हर्षकोऽप्यधिको यत्र विना(नो)दायोधने क्षमः । सर्वसत्वजिघांसुः स्यादारूढस्य वशानुगः॥ ९५॥ राजवाह्यो गजो यत्र सा भवेद्गन्धचारिणी । सदा कलुषितस्वान्तो ग्रासद्वेषी जिघांसनः ॥ ९६ ॥ कर्णयोस्तनयोरक्ष्णोः कटयोस्तालुपुष्करे । रोमहर्षेषु कोशेषु स्रवत्यष्टासु सर्वदा ॥ ९७ ॥ आरोहस्रवसो(त्श्रवसी) यस्यामवस्था क्रोधनी तु सा । रात्रौ भ्राम्यति संरब्धः स्तम्भं नाश्रयते रुषा॥ ९८ ॥ निद्रां बुभुक्षा नो वेत्ति नेत्रकर्णावधि श्रयेत् । अधो मर्दै(:)प्रवाहेन(ण) भवेत्सो वॉलितापरः ॥ ९९ ॥ अतिप्रवाहवापाभ्यां निर्मासश्चास्थिभूषणः । प्रणिधित्रितयो(या)लम्बी प्रतिबिम्ब हिनस्ति च ॥ ५००॥ एवं निरङ्कुशो यस्यामवस्था सातिवर्तिनी । न पश्यति न जानाति न शृणोति न तिष्ठति ॥ १ ॥ सम्भिन्नमदमर्यादो यस्यां क्षौण्यौ(क्षोण्यु)ग्रगन्धवान् । षष्ठयां निवर्तयेन्नागं सप्तमी नैव लङ्घयेत् ॥ २॥ अन्त्यधारा(तु)क्षयादेही क्षिप्रमेव हि नश्यति । एवं मदयुतान्नागान् विनोदाय प्रकल्पयेत् ॥३॥ गजाध्यक्षं समाहूय दीपनायादिशेन्नृपः । वीरसूडाभिधं वाद्यं मृदङ्गमिहर्षणम् ॥ ४ ॥
१ A F दौ । २ D तु । ३ A द्र। ४ A F ह्यां। '५ D वा। ६ A F षा। ७ A त्पृष्ठसु । 4 D न्द । ९ A व । १० A । ११ D म्बाः । १२ A न्य । १३ D क्षपदा । १४ A Fध्वनि ।
Aho! Shrutgyanam.
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८
मानसोल्लासः ।
ढक्का (क)या जयघण्टाभिर्वादयेति च निर्दिशेत् । रजन्याः प्रथमे यामे वीरसूडस्य वाह ( द ) ने || ५ ||
समन्ताद्गजमावेष्ट्य तिष्ठेयुः परिचारकाः । सिंहनादींश्च ते कुर्युर्भटानां रोमहर्षणान् ॥ ६ ॥ तेषां वन्समाकर्ण्य समाहूय महीपतिः । पट्टनि पट्टिकाश्चैव घनं श्वेतं दुकूलकम् || ७ || शृङ्गारार्थं नृपो दद्यात्तेषां तेषं पृथक् पृथक् । मण्डनार्थं मदेभानां तैलं सिन्दूरमेव च ॥ ८ ॥
कौशुम्भं वीरकक्षार्थी कोपायोद्दीपपिण्डकान् । निद्रारम्भे च निद्रार्थी निद्रान्ते मद (भद्र ) दन्तिनाम् ॥ ९ ॥
मृगाणां शयनान्ते च निद्रार्थे मद (न्द ) दन्तिनाम् । उद्दीपनं ततः पिण्डान् प्रागुपात्तान् पृथक् पृथक् ॥ ५१० ॥
प्रकृत्याद्यनुरोधेन महामात्रैः प्रदापयेत् । स्थापयेदातपे मन्दान् भद्रान्छायातपे गजान् ॥ ११ ॥
मृगांछायासु बनीयान्महामात्री विचक्षणः । विनोददिवसे तेषामन्नपानं निवारयेत् ॥ १२ ॥ तैलेन जघनं लेप्यं सिन्दूरेण च मस्तकम् । वातकुम्भस्य मध्यं (ध्ये ) तु कुर्यात्तिकमुत्तमम् ॥ १३ ॥ अलङ्कृतांस्तथा नागान् वाद्याल्यै भ्यास (श ) देशतः । आलानेषु च बध्नीयद् दूरतस्तु परस्परम् || १४ || शतधन्वान्तरायामां विस्तारे षष्टिसम्मिताम् । शङ्खगर्तपदीनां कण्टकादिविवजिताम् ॥ १५ ॥
अपांसुलां समां लक्ष्णां पूर्वभागोन्नतीं मनाक् । भुवं कुम्भानृतां कुर्याद्वैयें द्वारद्वयाङ्किताम् ॥
१६ ॥
Aho! Shrutgyanam
[ अध्यायः ३
१ A दा । २ D टा आरोमहर्षणाः । ३D वं स । ४ D यद्दन्ति । ५A न । ६ A दद्यात् । ७ Dम्भी । ८ A Fर्थे । ९ Aत्र । १० A णाः । ११D विचार । १२ D च । १३ A ल्प | १४ AF या दू । १५ Aम्म । १६ A ता । १७ A र्घ्य ।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः।
१२२
तोरणौ द्वौ प्रकुर्वीत द्वारयोः सुमनोहरौ । प्राङ्मुखोदङ्मुखो(खीं) वापि वाह्याली परिकल्पयेत् ॥ १७॥ पूर्वाभिमुखवाह्यालीदेक्षिणं मध्यभागतः । उपान्ते वृत्तिसंश्लिष्टं कुर्यादालोक्यमन्दिरम् ॥ १८ ॥ उच्चाधिष्ठानमूर्द्धस्थं परिखापरिवेष्टितम् । विशालं च सुरम्यं च पृष्टभित्तिसमन्वितम् ॥ १९ ॥ सुधाधवलितस्तम्भैः काञ्चनैः परिशोभितम् । नानावर्णवितानाढ्यं काचकुटिमकल्पितम् ॥ ५२० ॥ परिखायां परिन्यस्तैः फलकैः कृतमार्गकम् । निःश्रेणीकल्पितारोहं वारणानां निवारणम् ॥ २१ ॥ . गेहमन्यं प्रकुर्वीत परिखायास्तु वाह्यतः । ईषत्पश्चात्प्रदेशे तु दक्षिणं भागमाश्रितम् ॥ २२ ॥ परिखावेष्टितं तुझं चित्रभित्तिसमन्वितम् । सुरम्यं सुविशालं च परमण्डलिकाश्रयम् ॥ २३ ।। आलोकमन्दिस्याग्रे लालवेडी जालवेदीं) प्रकल्पयेत् । निखातैरष्टभिः स्तम्भैः पार्श्वद्वयनिवेशितैः ॥ २४ ॥ स्थूलदीघार्गलद्वन्द्वी दृढकीलकधारिताम् । द्विपवक्षःस्थलोत्सेधा पार्श्वयोर्गत(त)संयुताम् ॥ २५ ॥ अन्यामीग्विधां कुर्याद्धविनान्तोष(प)योगिना(नी)म् । पूर्वद्वारसमीपे तामुत्तरां दिशमाश्रिताम् ॥ २६ ॥ एवं लक्षणसंयुक्तां वाह्याली परिकल्प्य च । महत्तरेण विज्ञप्तः कृतदेवार्चनक्रियः ॥ २७ ॥ आघोष्य डिण्डिमं राजा पुरवीथ्यां चतुष्पथे ।
तुन्दिलैगर्भिणा(णी) दृन्दैालैः पादाङ्गकुण्ठेि तैः ॥ २८ ॥ १ A F ल्या । २ A F णा । ३ A र्धभागस्थं । ४ A धा । ५ D तैः । ६ D पार्थात् F पाश्चात्य ।
D लाक्षं । ८D ण्डी Fद्वंद्वाडां। ९A न्दां। १०D धारितम् । ११D वाचना। १२D स्फाल्य । १३ D तं। १४A कुठि।
Aho! Shrutgyanam
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ अध्यायः३
मानसोल्लासः। न यातव्यं न यातव्य कौतुकाद्दर्शनोत्सुकैः । विषमा मत्तमातङ्गा मारयन्ति कृतान्तवत् ॥ २९ ॥ अन्यां च घोषणां कुर्याद्यः कश्चित्पादवेगवान् । धनलुब्धो द्विपस्याग्रे स धावतु स धावतु ॥ ५३० ॥ ततो भुक्त्युत्तरं राजा प्रसाधनपरो भवेत् । कान्तानां च कुमाराणां भूषार्थ वस्त्रभूषणम् ॥ ३१ ॥ प्रस्थापयेद्यथायोग्यं सामन्तामात्यमन्त्रिणाम् । आह्वाँय्य करिणो वाहान् स्वयं सम्भृतमण्डनः ॥ ३२ ॥ अलङ्कृतास्तथा राज्ञीस्तथान्या भोगयोषितः । आरोहयेत्समायाताः करिणीः स्वर्णपुष्पकाः ॥ ३३ ॥ मुक्ताँजालसमाकीर्णा पुष्पिकाकिङ्किणीयुताम् । पार्श्वघण्टाद्वयोपेतां सिन्दूरारुणमस्तकाम् ॥ ३४ ॥ चामरालङ्कृतश्रोत्रा वृत्तनक्षत्रमालिकाम् । ततः स्वयं समारोहेत् करिणी मृदुचारिणीम् ॥ ३५ ।। पश्चिमाशोन्मुखे सूर्ये किश्चिद्विगलितातपे । शनैः शनैर्वजन् गच्छेदिन्द्रभागें महीपतिः ॥ ३६॥ ततः सम्प्राप्य वाह्यालीमुपवेश्य करेणुकाः । उत्तारयेत्ततः कान्ताः पुरस्ताच्च प्रवेशयेत् ।। ३७ ॥ कुमारमण्डलाधीशसामन्तामात्यमान्यकान् । सेवकान्विविधानन्यानालोकेन प्रवेशयेत् ॥ ३८ ॥ ततः करेणोरुत्तीर्णः सुखासनमधिष्ठितः । विशेदवहितो राजा परिघासेतुमार्गतः ॥ ३९ ॥ निःश्रेण्याथ समारुह्य लीलयालोकमन्दिरम् । सिंहासनमथारोहेत्कान्ताभिः परिवारितः ॥ ५४० ॥
१ A व्यां। २ A F क्तो। ३ A मान्य F न्मान्य । ४ D हूय । ५ D ज्ञात। ६ A यन्स । ७F ताल A तामाला ८ A F गो। ९ A लाल ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः 8 ]
मानसोल्लासः ।
ततः प्रवेशितान्सर्वान्यथाईमुपवेशयेत् । वीरेडव्वनिं श्रुत्वा प्रहर्षोत्फुल्लमनसः || ५४१ ॥ गजाध्यक्षं समादिश्य परिकारान्समाह्वयेत् । प्रच्छादनपटच्छन्ना अन्तर्विहितमण्डनाः || ४२ ॥ अहमहमिकाक्रान्ता विज्ञपेयुः पृथक् पृथक् । परिपृच्छेत्ततो राजा तेषां धावनकारणम् ॥ ४३ ॥ अ(आ)वां मत्सरिणो(णौ) देव वयं कनककाङ्क्षिणः । मया द्विपासनं रुद्धमहं परिभवान्वितः ॥ ४४ ॥
प्रतिज्ञतु (तु) समारूढो जवतोऽहं नराधिप । इति विज्ञाप्यमानस्तैर्यथायोग्यं समादिशेत् ।। ४५ ।। उत्तमो मध्यमो हीनस्त्रिविधः परिकारकः । एतेषां लक्षणं वक्ष्ये जवोत्कर्षात्पृथक् पृथक् ॥ ४६ ॥
प्रथमा द्विप भूमिः स्यात्मध्यमा नृपतेर्मही । तृतीया परिकारस्य भूमिरेवं त्रिधा मता ॥ ४७ ॥
प्रथमायां द्वितीयायां हस्तं निष्कासयन् भुवि । तृतीयायां परित्यज्य यो धावति सत्तम: ।। ४८ ।। मध्यमस्य च नागस्य विधिना प्राक्तनेन यः । पुरो धावति स ज्ञेयो मध्यमः परिकारकः || ४९ ।। कनिष्ठस्य तु नागस्य प्रागुक्तविधिना तु यः । अग्रे धावति से ज्ञेयः कनिष्ठः परिकारकः ।। ५५० ॥ अग्रिमस्य पदाङ्कस्य पार्श्वात्यः पुरतो भवेत् । ज्ञेयः स उत्तमजवो वाजिनामपि घातकः ॥ ५१ ॥
दशधन्वा(न्वन्तरस्थे(स्थं) वा पटी (रि) कारं जवाधिकम् । पञ्चाशदन्तरे हन्ति दन्त्यसाबुत्तमो जवे ।। ५२ ।
૨૦૬
१ A वार। २ D लोचनः । ३ A अहमहाकान्ता । ४ D च्छत । ५ A द्वीपा D द्विप्या । ६D ज्ञातुमसौ । ७ A तीयां । ८ D उ । ९D कृते । १० A वि । ११ Aवि । १२D श्रन्त्यः | १३ A तु ।
२६
Aho! Shrutgyanam
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
मानसोल्लासः।
[अध्यायः३
nown wwin-..
पौरस्त्यस्य पदाङ्कास्य पाश्चात्यो मध्यमो यदि । जवेन मध्यमो ज्ञेयो दन्ती गतिविशारदैः ॥ ५३ ।। अष्टधन्वा(न्व)न्तरगतमशीत्या परिकारकम् । यो हन्ति दन्ती स ज्ञेयो मध्यमो जववेदिभिः ॥ ५४ ॥ पूर्वस्य व(वा)रणाङ्करस्य भवेदर्थात्कु(क्तुि)पश्चिमः । स कनिष्ठजवो ज्ञेयो वारणो वारणावरः ॥ ५५ ॥ पञ्चधन्वन्तरगतं शतधन्वा(न्व)न्तराधि । परिकारं निहन्याँद्यः सदा हीनजवो गजः ॥ ५६ ॥ भूमित्रये भूद्वये च प्रथमायीं तथा भुवि । वेगयुक्ता गजाः सत्वश्रेष्ठमध्याधमाः मात् ।। ५७ ॥ आलाय स्थापयेद्बाह्यं (ह्ये) तीव्रकोपपराङ्मुखम् । पात्यतोरणाभ्यणे मद(न्द)कोपं तु सम्मुखम् ॥ ५८ ॥ यावन्ती(ती)भुवमाघातो या सङ्ख्या हस्तकर्षणो(णी)। तथाधिक्याज्जयोऽन्यस्य हीने हीनः समे समः ॥ ५९ ॥ गजेन मत्सरी धावन् प्रविश्य जघनान्तिकम् ! तर्जयेनि हस्तेन युध्यमानः प्रधावति ।। ५६० ॥ भूमिद्वये तृतीयायां त्यक्ता गच्छति यो द्विम् । स जयी परिकारः स्याद्वारणस्तु पराजयी ॥६१॥ तुम्बिकां वा परित्यज्य वीथिं हित्वाऽन्यतो व्रजेत् । सर्पवद्वापि यः सर्प()तो वा सम्पराजितः ॥ ६२ ॥ परार्थ धावमानस्तु जयी चेर्द्धनमाप्नुयात् । पराजये धनं नास्ति कुञ्जरेण हतो हतः ॥ ६३ ॥
१ A स्त । २ D पान्त्यिो । ३ D वारणो वारणोत्तमः 1 x These four lines are omitted in D५ A न्वा । ६ D धिपः । ७ A पा । ८ Dन्तं । ९D वन्त्यि । १० D र्षणा । ११ D जने । १२ D रोयावत् । १३ F द्धस्ति । १४ D पः। १५ D यम् । १६ D कुंचितांकां वा । १७ A F न्त्यतो । १८ A F याः । १९ D वृत्तो। २० A द्धृत ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः।
२०३
जघने दन्तयोर्वापि कुर्याच्चूर्णेन लाञ्छनम् । मार्टि वा तत्कृते चान्यः प्रतिज्ञाधावनत्विदम् ॥ ६४ ॥ प्रतिज्ञापारगो यः स्यान्जयस्तस्य प्रकीर्तितः । प्रतिज्ञापगमे वापि मारणे वा गजो जयी ॥६५॥ नृपभूमौ लिखेद्रेखां विंशत्या कार्मुकै भुवि । गजस्य धावतश्चान्तस्तिर्यग्यायी जयी भवेत् ॥ ६६ ।। लग्नश्च येन्निषेर्धाय धावको विजयी भवेत् । तयोरन्यतरस्यापि मारणे वारणों जयीं ॥ ६७ ॥ युगपंद्धावतो पृष्ठे यस्य सीकरसङ्करः । जयं तस्य विजानीयात्तद्वधे हस्तिनो जयम् ॥ ६८ ॥ उत्तमो दन्तिनो भूमौ भूपभूमौ तु मध्यमः । कनिष्ठो निजभूमौ च स्थापनीयो यथाक्रमम् ॥ ६९ ॥ उत्तमो मध्यमं गच्छेन्मध्यमश्चाधमावधिम् । अधमो निजभूम्यन्तं धारयेयुर्गजं क्रमात् ॥ ५७० ॥ अनया परिपाट्यैवं निजां भूमि नयञ्जयी । एवं कर्तुं न शक्नोति हतेऽस्मिन् वारणो जयी ॥ ७१ ॥ बद्धहस्तो यदा चोरः पुरो धावति हस्तिनः । गतापराधो जीवेचेद्धतः पापात्प्रमुच्यते ॥ ७२ ॥ जवाधिकस्य नागस्य वाजिनो धावनं पुरः । सीकराः सादिनः पृष्ठे निर्गतौ सादिनो जयः ।। ७३ ॥ वलयं दन्तिनो द॑न्ती(न्ते) सादी क्षिपति दन्तिनः । अन्यो हरति दण्डेन तत्राशक्तः पराजितः ॥ ७४ ॥ धावभेदाः समाख्यातास्तथा जयपराजयौ ।
इदानीं तु प्रवक्ष्यामि गजारोहणलक्षणम् ॥ ७५॥ १A वान्यः । २ D के भु। ३ D नं श्राA तश्वा । ४ A लग F गल । ५ A ल । ६ A धावको। ७D णे । ८ A या। ९ D पद्व्यापनः पृष्ठो A वद्धा । १० D च अ F चेह । ११ A कान्त । १२ D तक।
१३D ध। १४ D चलनं। १५F दिती। १६A भिः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
मानसोल्लासः ।
निषदी त्रिविधो ज्ञेयो रेखायुक्तिबलैर्युतः । अमो मध्यमः श्रेष्ठः सर्वैस्तैरुत्तमोत्तमः ॥ ७६ ॥ मात्राभ्यामपराभ्यां च पार्श्वभ्यामपि रज्जुभिः । कणा धृत्वा मुखे प्रोक्तं वृक्षादेरधिरोहणम् ॥ ७७ ॥ एतान्येवावरोहे स्युरापतः कर्णतो रैणम् (णे ) । एवं दशविधं प्रोक्तमवरोहणलक्षणम् ॥ ७८ ॥ प्रविश्यासनमुत्कृष्टं मध्यं मध्यसमासनम् । पादाग्रेणावकृष्टं स्यादासनं त्रिविधं स्मृतम् ॥ ७९ ॥
मन्दादिजातौ युद्धे च प्रोक्तमुत्कृष्टमासनम् । भद्रादिजातौ धावे च मध्यमासनमिष्यते ॥ ५८० ॥ अवाग्रे मृगजातौ तु शिरोविधृतितत्परे । अवकृष्टासनं शस्तं मातङ्गानां यथाक्रमम् ॥ ८१ ॥ समं दृढं च संलग्नं जानुसन्धि समाहितम् । आसनत्रितयेऽप्येवं सौष्ठवं परिकल्पयेत् ॥ ८२ ॥
गजस्य प्रेरणार्थ यत् पुरस्तादासनं वपुः । करोतु यन्ता प्रणिधेन (धिर्ना ) नासौ (सा) बनतो मतः ॥ ८३ ॥
अङ्कुशे त्वथो (घो) वाऽपि घातार्थ कुरुते वपुः । तिर्यग्वक्त्रं स विज्ञेयः पार्श्वावनतसंज्ञकः ॥ ८४ ॥ आकृष्ट (प्य) पृष्ठतो नागमुत्तानं कुरुते वपुः । यत्र यन्ता स प्रणिधिः पृष्ठावनतनामकः ।। ८५ ॥ गजस्य भयनाशार्थं कोपोपशमनाय च ।
सान्त्वनं क्रियते वाचा सीं भवेदुपलाघ ( प ) ना || ८६ ॥
99
१२
गजस्य शिक्षितं भावं क्रियया यत्प्रभाषते ।
प्रज्ञापनाख्यः प्रणिधिः स ज्ञेयो गजशिक्षकैः ॥ ८७ ॥
[ अध्यायः ३
१ A षाथी F धादी । २ Dया । ३ A तरेण F तरेणं । ४ D तः । ५A नासावनगतो F नासौवनो । ६ A नारथवा F नरथावा । ७ A वक्रं । ८ Dष्टं । ९ Aग । १० D स्याद्भेद । ११ D तान् । १२ D वान् । १३ A यायां । १४ A रूया ।
Aho! Shrutgyanam
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
वाचाभिभर्त्सनं यत्स्याच्छिक्षार्थं सामजन्मनः । प्रणिधिस्तर्जनो नाम स प्रोक्तः सोमभूभुजा ॥ ८८ ॥ सृणिः प्रसार्यतेऽग्रे यैदतिक्षिप्तः स कथ्यते । पश्चादाकृष्यते यत्तु प्रतिक्षिप्तः स कथ्यते ॥ ८९ ॥ अङ्कुशो वर्त्यते यत्र पार्श्वयोरुभयोरपि । प्रतो नाम स ज्ञेय आरोहणविशारदैः ।। ५९० ॥
उत्क्षिप्य भ्रामणं यत्तु सृणिः सूक्ष्मैः(क्ष्मः) स कथ्यते । सृरधोमुखीभाव आदीर्णः प्रणिधिर्भवेत् ॥ ९१ ॥ शिरस (:) स्पर्शमात्रं यदङ्कुशेन विधीयते । ईषत्पूँ(त्स्पृष्टः स विज्ञेयो घातः प्रणिधिकोविदैः ॥ ९२ ॥
अर्धाङ्गुलं निमग्नवेदङ्कुशः करिमस्तके | प्रणिधानाभिधो घातो विधेयानां विधीयते ॥ ९३ ॥
द्वित्र्यङ्गुलप्रमाणस्तु वातः पीडितको मतः । द्वाभ्यां कराभ्यामुत्क्षिप्य स घातः क्षिप्तकः स्मृतः ॥ ९४॥ सृणिपार्श्वेन घातोऽयं भवेत्तारित काभिधः । आघातस्ततः प्रोक्तस्तोद इत्यभिधानतः ।। ९५ ॥ आरक्षा द्वादश प्रोक्ता सृणिघाताश्रया गजे । कुम्भाग्रे बिन्दुसंज्ञे तु तदधश्च वितानकैः (कौ ॥ ९६ ॥ वितानयोर्वहिः पार्श्वविग्राहायुदाहृतौ । वितानयोस्ततश्चान्तर्निदानौ समुदाहृतौ ॥ ९७ ॥ कर्णाग्रशिरसः सन्धिः स्रोतः सन्धिरुदाहृतः तदग्रे कर्णसन्धेिस्तु तत्पश्चात्कर्णमूलके ॥ ९८ ॥ पुरः सारयितुं नागमकुशाग्रेण वेधनम् । कर्णमूले तैंदत्रोक्तं तौदनाम्ना विचक्षणैः ॥ ९९ ॥
२०५
१ Dभिर्भ । २ A ग्रयं D ग्रन्था । ३ D र्त । ४ AF हृ । ५D यन् । ६ Domits these
two lines | ७ Dस । ८ A धैः । ९D लनि । १०
। ११ D धारघातस्तत्त्रो कस्तोदमत्यभि । १५ A न्धी तु । १६ D यद
१२ A राघातस्ततः प्रोक्तस्वेद इत्याश्रया । १३ A श्रविप्रा । १४ D पत । नुन्नो । १७ D नुन्नं नाम ।
Aho! Shrutgyanam
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः ३
अवग्रहे विताने च पश्चात्साधयितुं गजम् । अङ्कुशाग्रेण यो घातः सोऽवकर्ष इति स्मृतः ॥ ६०० ।। तिर्यग्विवर्तनाथ तु कर्णसन्धौ मृणेर्हतिः । निवर्तन इति ख्यातो गजारोहणकोविदः॥१॥ मुखोत्क्षेपाय यत्कुन्निदानेऽङ्कुशघातनम् । उत्कर्णक इति ख्यातः सृणिकर्मविचक्षणैः ॥ २ ॥ पादयोः प्रणिधौ सय कलापस्य निपीडनम् । बहिमुखे च कर्तव्ये यन्तुः पादतले दृढे ॥ ३ ॥ दृढं पूरयितुं गाढमङ्गुष्ठाभ्यां प्रपीडयेत् । आकर्षणाय पाणिभ्यां स्थित य(तम)वनिपीडनम् ॥ ४ ॥ वामतः प्रेरणे घातो दक्षिणेन पुनर्भवेत् । वामेनाङ्गुष्ठयोगेन दक्षिणेन निवर्तयेत् ॥ ५॥ अधोमुखं विधातुं तं कुञ्जरं यदि वाञ्छति । निम्नाङ्गुष्ठौ विधातव्यौ ताभ्यामेव प्रपीडनम् ॥ ६ ॥ ऊर्ध्वाननं गजं गर्तु यन्ता प्रेप्सुर्भवेद्यादि । उन्नताङ्गुष्ठयोगेन प्रोन्नयेद् द्विरदाननम् ॥ ७ ॥ अङ्कुशोत्क्षेपमात्रेण यो विद्यौदिङ्गितं गजः । अन्त्यवेदी स विज्ञेयः सङ्कीर्णोऽयं मतङ्गजः ॥ ८ ॥ अकशेन तु दण्डेन चमणि स्मृत (स्पृष्ट) एव यः। द्विरदो वेत्ति यः कृत्यं मृग उत्तानवेदितः ॥ ९॥ असक्स्रावे . हननं वेत्ति कृत्यं चिरेण यः । गम्भीरवेदी विज्ञेयो मन्दो नाम मतङ्गजः ॥ ६१० ॥ प्रहारस्यानुरूपेण यो जानाति वधावधम् । अन्वर्थवेदी विज्ञेयो भद्रजातिवंरो गजः ॥ ११ ॥
१D सन्ध । २ D इ । ३ DF विख्यातः । ४ A द्यः F न्छ । ५ A णंयप्रा। ६ DF स्थिय । DFध । ८ A णो। FA तः । १. D रो। ११ A योचे । १२ D शक्षे । १३ Dन्या । १४ A F तो। १५ A F अत्य । १६ A । १७ A F ता। १८ F A हनान्येति कृत्या।
Aho! Shrutgyanam
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशतिः ४]
मानसोल्लासः।
२०७
धृतो धावति चात्यर्थं प्रेरितस्तुं न गच्छति । अत्यर्थवेदी विज्ञेयो व्यालो मिश्रगजो मतः ॥ १२ ॥ एकः प्रसारितः पादस्तदन्यो नतजानुकः । पाश्चात्यमासनं ज्ञेयमेकजान्वानतं बुधैः ॥ १३ ॥ प्रसारिताभ्यां पादाभ्यामातंतोभयजानुकम् । उत्कुण्डं (कट)उत्कटं ज्ञेयं पश्चिमं कुञ्जरासनम् ।। १४ ॥ वंशस्योभयपाः यत्संहते नजानुनी । मण्डूकासनमेतत्स्याएं सङ्ग्रामकर्मणि ॥ १५ ॥ एकमुत्कटकं पादमन्यच्च नतजानुकम् । यत्करोति नरः(गजः) पृष्ठे तत्कूर्मासनमुच्यते ॥ १६ ॥ यो धू(यद्भू )तविधूतो (धुतौ) शस्तमुभयानतजानुकम् । एकजानुनतं चैकमासनं धावकमणि ॥ १७॥ कूर्ममुत्कर्टकं चैव लीलायानं(ने) प्रशस्यते । आसनं तूर्वसंझं यत् सङ्ग्रामे तद्विधीयते ॥ १८॥ सन्निधि यावदायोति परिकारो गजस्य हि । यन्त्रा तावन्न मोक्तव्यों सृणि: पाणिनिबन्धनैः(नी)॥ १९ ॥ गजं धावयते यस्तु परिकारस्य पृष्ठतः । दृष्टया तल्लक्षया भाव्यं लक्षयेच्च जवक्षयम् ॥ ६२० ॥ आकुलं यदवेक्षेत निम्नपृष्ठो” भवेदपि । जडपादगतिर्वापि ज्ञेयो नष्टगजस्तथा ॥ २१ ॥ नष्टस्य चेष्टितं ज्ञात्वा त्रिकान्दोलनकै र्शम् । प्रेरयेद्वारणं यत्नौद्यथासौ हन्यते द्रुतम् ।। २२ ॥ पौतितः परिकारश्चेत्करिणा करताडनैः । धारयेदकुशाकर्षधारणं मारणोद्यतम् ॥ २३ ॥
१D स्तनु वांछिती । २Dवन्त्यि ।। ३ D न । ४ A ण्डे मु । ५ A तु । ६ A F नि। . D , • D omits these two lines । A टित । १० D लयान । ११ A धिर्या । १२ A 3 १३ D च । १४ D व्यः । १५ A णि पावेष्णि F वष्णि । १६ D गजो A गजं धावयतो। १७ A न्तुः । १०दिवीतेतं । १९ A Fष्ठे। २. A येज्ञो जव स्तथा। २१ A २२ A यन्नाद्य । २३ A Fप।
TT
Aho! Shrutgyanam
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः ३
यदाङ्कुशं तिरस्कृत्य दन्ताभ्यां परिकारकम् । मारयेसिन्धुरस्तस्य जयो यन्तुः पराजयः ।। २४ ॥ परिकारो नखाने चेत्परितो न्यस्तविग्रहः । उपायस्तत्र कर्तव्यो धावनीयो गजो भृशम् ।। २५ ॥ धावतो वारणेन्द्रस्य भवेद्यदि नखाहतिः । तदा पराजयो न स्यादशक्यत्वान्निषादिनः॥२६ ।। परिवृत्य यथा नागः पादैर्मुद्राति भूतले । पराजयस्तँदा ज्ञेयो महामात्य(त्र)स्य निश्चितम् ॥ २७ ॥ व्यालं क्रूराशय(यं)प्राप्तमवस्थामतिवर्तिनी (नीम् ) । परीक्षार्थं महीपालस्तं प्रयत्नात्समानयेत् ॥ २८ ॥ वाचाङ्कुशेन पादाभ्यां दुर्निवारो मतङ्गजः। आरूढकातिगो यस्मादनारूढगजो मतः ॥ २९ ॥ तस्मात्तादृग्विधं नागं मुखपट्टाढतेक्षणम् । वस्त्रोदक(र)समाकीणी(ण)कर्णद्वितयरन्ध्रकम् ।। ६३० ॥ आरोहस्ते(हैस्तै) हयारूढैः सादिभिः परिवेष्टितम् । कृतान्तमिव दुर्धर्ष वाह्यालीभूमिमानयेत् ॥ ३१ ।। पोरसर(ड)रवं भूरि कारयेत्तस्य दूरतः । द्वारपवेशनात् पूर्वमादिशेत् परिकारकम् ॥ ३२ ॥ अपसार्य हयारोहानुत्सृजेत्कर्णकन्दुकौ । मुखपट्ट समुत्क्षिप्य परिकारं प्रदर्शयेत् ॥ ३३ ॥ उद्घाटितस्तब्धकर्णो निपीड्य चिबुकस्थलम् । करं प्रसार्य पुरतः पुच्छमुन्नम्य कोपतः॥ ३४॥ संरम्भेण जवाधिक्यात्परिकारमनुद्रवेत् । स्वमेन इ(मान्तमि)व सम्प्राप्य जिघांस(सुः) परिकारकम् ॥ ३५ ॥
१D म । २ D ने । ३ A ति । ४ A F ख । ५ A F मुद्राति । ६ D लम् । ७ A रुद्रा। A महीस्तं । ९ A ढायते त । १० A ण द्वि तय । ११ A हास्ते D हास्तै F हस्ति । ११ D यन् ३D omits this line । १४ D चा । १५ A चटि । १६ D # । १७ A त। .
Aho! Shrutgyanam
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। अश्वसादिभिराक्रान्तस्त्यक्त्वा तं परिकारकम् । अश्वान्नभिद्रवन्नागः सर्वेषां भयकारकः ॥ ३६॥ निहत्यावं ततः सर्वान् प्रेक्षकान् समुपाद्रवन् । सम्प्राप्य च ततः पादैः कांश्चित्सम्परिपेषयेत् ॥ ३७ ॥ नखाघातैस्ततः कांश्चित्कांश्चिदन्तविभेदनैः । शुण्डाप्रहारणैः कांश्चित्कांश्चित्पाषाणपातनैः ।। ३८॥ वृक्षारूढांस्तथा कांश्चित्कौश्चिदन्ताभिहन(घात)नैः । गर्तप्रविष्टकान् कांश्चिच्छुण्डयोक्षिप्य मारयेत् ॥ ३९ ॥ संहारभैरवप्रख्यो मृत्युर्मातङ्गविग्रहः । रैथानश्वानरानुष्ट्रान् मारयेदवितन्द्रितः ॥ ६४० ॥ एकतः करिणीयूथमन्यतो हयवृन्दकम् । नराणां युगलं तस्मिन् सङ्गतं नैव दृश्यते ॥४१॥ निनन्तुकं तदाँ जातं वाह्यालीभूमिमण्डलम् । कथञ्चिन्नीयते कृच्छ्रात्सादिभिस्तोत्रपाणिभिः ॥ ४२ ॥ प्रवर्तयेत्ततो युद्धं गजानामनुरूपतः । कायेनं घातनैः शक्त्यां वयसा सत्त्वजातितः ॥ ४३ ॥ निष्टम्भर्वत्क(वान्क)मठवैद्वारकवादिकोलवत् । कर्मबन्धपरित्यक्तो भीमवच्च बलाम्बितः ॥ ४४ ॥ चतुर्दशरदाघातैः परां परिणतिं गतः। युद्धकर्मप्रविष्टोऽयमजेयः प्रतिकुञ्जरैः॥ ४५ ॥ तिर्यगुन्नतघातो यः परिलेखः स उच्यते । तल्लेखं तु विजानीयादूर्ध्वघातं तु दण्डवत् ॥ ४६ ॥ स्वे(खे) दन्तद्वितयान्तस्थं वदनं प्रतिदन्तिनः ।
कृत्वा यः(यत्)पीडनं तस्य स घाँतः कतरी मतः॥४७॥ . १ D तत्क्रान्त । २ D पेषणैः । ३ D दन्ताभिहननस्तरोः । ४ D याकृष्य । ५A भेरव । ६
-
अश्वरत्नमष्टरत्नं । ७D था। ८ A तद्या। ९A ल्या । १. A वा । ११ A द्वा। १२ A ग्धा । १३ A द्याते परि । १४ A तु । १५ A वदनन्तिनः । १६ A द्या । १७ A रि।
Aho! Shrutgyanam
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१०
मानसोल्लासः ।
दन्तवेष्टतले घातस्तलघातः स कथ्यते ।
अधस्ताद्दन्तघातः स्यात्तस्माच्च तघातनम् ॥ ४८ ॥
वदनं तिर्यगुन्नम्य प्रहारस्त्वजघातनम् । प्र (अ)जाघाते तु वदनाति (नन्ति ) गुन्नम्य घातयेत् ॥ ४९ ॥
प्रतिमाने प्रतिमानं रदनं दन्तवेष्टयोः ।
विधाय लोडनं यत्तु दन्तघातः स उच्यते ।। ६५० ||
शिरस्तिर्यक् समाकृष्य दन्तेनैकेन हन्ति यत् । प्रतीद्वी (तिद्वि) पप्रती (ति) पानं सूचीघातः स उच्यते ॥ ५१ ॥
दन्ताभ्यां दन्तघातेन शकलानि पतन्ति यत् । ताडकाघात इत्येर्षं कथितो घातकोविदैः || ५२ || लीलावेल (लां) समारुह्य गात्राभ्यामतिकोपनः । हन्ति यत्सिंहवन्नागं स घातः सन्धितो मतः ॥ ५३ ॥
अपेत्य गात्रं सङ्कोच्य पश्चादुत्पत्य मेषवत् । हन्ति दन्ती प्रतीभं यत् स निर्घातः प्रकीर्तितः ॥ ५४ ॥
तथा कार्यो द्विप यत्नाद्यथा न समपार्श्वकौ । भवेतां मतमातङ्गौ न स्यात्तिर्यग् यथासु (मु) खैम् ॥ ५५ ॥
गर्जे (जं) सम्मुखमान (ना) य्य स्वगजाल्लो (जलो ) ठयेत्ततः । पश्चात् (स.) ते प्रतिगजे स्वगजं वात्र (चाप) कर्षयेत् ॥ ५६ ॥
गजाध्यक्ष महामात्रै परिकीर्यनिषादिनीम् । वादिनां विं(वी)रसुडस्य धावतां हयसादिनाम् ।। ५७ ।।
वासांसि काञ्चनं भूरि स्वर्णभूषणकान्यपि । प(पा)रितोष (षि)कदानेन कुर्यान्मुदितमानसान् ॥ ५८ ॥
कदाचित्स्वयमारोहेद्विधेयभटलक्षणे ( णम्) । विनोदार्थं महीपालो जननेत्रोत्सवाय च ॥ ५९ ॥
१ Aघ । २ A लघातम् । ३ A र जघा । ४D वथा । ५A धाइ । D सङ्कोचं । ९ D यौं । १० D पौ । ११A स्य । १२ A या । ३ Aष । न्मृ । १६ D क्षं । १७D । १८ D कृत्वा । १९ D नं । २० A चि ।
[ अध्यायः ३
Aho! Shrutgyanam
६Dषः । ७D डी।
१४D त । १५ D
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
ततः समागतान् सर्वान्यथामानं विसर्ज्य च । करेणुका समारुह्य प्रविशेद्राजमन्दिरम् || ६६० । उक्तोऽयं गजवाह्यालीविनोदः सोमभूभुजा । ॥ इति गजवाह्यालीविनोदः ॥ ३ ॥ साम्प्रतं वाजिवाह्यालीविनोदः प्रतिपद्यते ॥ ६१ ॥ पूर्व भूमिं परीक्षेत वाह्यालीहेतवे नृपः । अकर्दमामपाषाणां गर्तशङ्कविवर्जिताम् ।। ६२ ।। न मृीं नातिकठिनां प्रागुदीचीप्लवां शुभाम् । विशालां सुस (ष) मां श्लक्ष्णां वौह्यालीं कारयेन्त्रपः ॥ ६३ ॥
शतधन्व (न्वन्तरमितां चतुरस्रां समन्ततः । वृत्ति संवेष्टितां द्वारद्वितयेन समन्विताम् ॥ ६४ ॥
उत्तरमान्तदेशे वा समीरस्यानुकूलतः । दक्षिणप्रान्तदेशे वा कुर्याद्दर्शनमण्डपम् ॥ ६५ ॥ रचयित्वा तु वाह्यालीं विज्ञप्तो गृहकारकैः । समाहूय हयाध्यक्षमश्वानयनमादिशेत् ॥ ६६ ॥ समानीतांस्ततो वाहानवलोक्य महीपतिः । तेषां जातीः परीक्षेत देशनामविभेदतः ।। ६७ ॥ आवर्तवर्ण सत्त्वानि छायागन्धगतिस्वराः । आकारश्चाष्टधाऽश्वानां श्रेष्ठमध्यकनीयसाम् ॥ ६८ ॥ काम्बोजयवनस्तेज बहकावालास्तथा । तोखरिकाः सकेकाणा एते सप्तोत्तमोत्तमाः ॥ ६९ ॥ पोद्दाराः कान्दलेयाश्च यौधेया वाजपेयकाः । नायुजाः पारसीकाः षडेते चोत्तमा हयाः ।। ६७० ॥ तैत्तिला वर्क्सकान्धारा वामतेया ससैन्धवाः ।
सावित्राः पार्वतेयाश्च काश्मीराः सम्बितीयकाः ॥ ७१ ॥
२११
१ D सृज्य । २ D तिकथ्यते । ३ A मापा । ४ A चीं । ५ A कारयेद्धरणी । ६ AF राके । ७ A समाय । ८ D न्धि । ९ D न । १० A ही । ११ Dतु । १२ A कवा | १३D योद्धारः | १४ D त्रा । १५ D वा । १६ A द्य । १७ A नावार्मतेय । १८ A मध्यमा हयाः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः४
तेजीकुलजनीहारसारस्वततुरुष्ककाः । चतुर्दशैते वाहेषु मध्यमाः परिकीर्तिताः ॥ ७२ ॥ मेदका आर्जनेयाश्च त्रैगा गुजरास्तथा । राजसावन्त्यसौराष्ट्राः पारियात्राः सहारकाः ॥ ७३ ॥ दुग्धवार्टीः स्तब्धवाटाः कनिष्ठा द्वादश स्मृताः। तंत्राप्येकोऽतिकष्टः स्यात्स्तब्धवादी(ट)समुद्भवः॥ ७४ ॥ षविंशतिविभेदाः स्युः राज्ञा ने(ज्ञे)यास्तुरङ्गमाः। न जायन्ते कलौ यस्मात्तस्मान्न गणिता मया ।। ७५ ॥ जलावर्तवदावर्तो मुकुलो मुकुलाकृतिः । शुक्तिः शुक्तिसमाकारो गोलीहा(जिव्हे)वावला(ली)ढकः ॥ ७६ ॥ शतपद्यभिधा ज्ञेया शतपद्या समाकृतिः । पादुका पादुकाकारस्तदर्धस्त्वर्धपादुकाः(का) ॥ ७७॥ बहीवर्तसमायोगः सम्पातः परिकीर्तितः । अष्टौ भेदाः समाख्याता आवतानों मनीषिभिः ॥ ७८ ॥ द्वावुरस्यौ शिरस्यौ द्वौ द्वौ(द्वौ रन्ध्रोपरन्ध्रयोः । एको भाले प्रमाणेन(पाणे च)ध्रुवावर्ता दश स्मृताः ॥ ७९ ॥ स्यान्निगाले देवमणिस्तधो रोचमानकः । कण्ठीवर्तस्तयोर्मध्ये प्रशस्तस्तेि विशेषतः ॥ ६८० ॥ ललाटे मृकणोव्हिॉस्त्वचि केशान्तयोस्तथा । वक्षःस्थले कर्णमूले शुभावर्ताः प्रकीर्तिताः ॥ ८१ ॥ श्वेतः कृष्णोऽरुणः पीतः शुद्धाश्चत्वार एव हि । मिश्रास्त्वनेकधा वर्णास्तेषां भेदः प्रवक्ष्यते ।। ८२ ॥ केशा वालाश्च रोमाणि वर्म चैव खुरास्तथा ।
श्वेतैरतर्भवेदश्वः कैका(का)ह्वो विप्रजातिजः ॥ ८३ ॥ १ A साम्बती । २ D चतुष्कलाः ।३ FA गू। ४D म्बष्टका । ५ A आहराः १६ Aटा...F यस्तथवायः। ७ D adds this line | ८ D ट्त्रिं । ९ D लीहावाहावली । १० A परिकीर्तितः । ११ A वोहावत । १२ A सयातः । १३ A तमि । १४ D दा । १५ Aङ्ग । १६ D स्तश्च । १७ D णौ। १८ A बर्बाहो। १९ A त । २० D च । २१ A का। २२ D च । २३ D का।
Aho ! Shrutgyanam
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः 8 ]
मानसोल्लासः ।
पूर्ववत्सर्वशुकाङ्गत्वचा कृष्णो भवेद्यदि । वर्णनाम्ना स विज्ञेयः कत्तलोऽयं तुरङ्गमः ॥ ८४ ॥ लोमभिः केशवालैश्च त्वचा कृष्णः खुरैरपि । काल इत्युच्यते वाजी शूद्रः शौर्याधिकस्तथा ॥ ८५ ॥ केशमभृतिवालान्त: (न्त) सर्वाङ्ग "रोहितो यदि । कर्पाह इति विख्यातः क्षत्रजातिस्तुरङ्गमः || ८६ ॥ केशैस्तनुरुहैवले कञ्चनाभैस्तुरङ्गमः । सेराह इति विख्यातो वैश्यजातिसमुद्भवः ॥ ८७ ॥ सितलोहितरोमाणि सर्वाङ्गे मिश्रितानि च । मुखाङ्घ्रिवालकेशेषु लोहितचोर उच्यते ॥ ८८ ॥ केशवालाङ्घितुण्डे च मेचको रुरुसन्निभः । नील इत्युच्यते वाजी सिंत कृष्णे तनूरुहे" ।। ८९ ॥ पाटली पुष्पसङ्काशा (शो) नलकेषु सितेतरः । कृष्णग्नन्थिया (पा) होश्वः सङ्ग्रामे विजयप्रदः ।। ६९० ॥
मधूकवल्कलच्छायो मोह इत्युच्यते हयः । पक्कजम्बूफलच्छायो जम् इत्यभिधीयते ॥ ९१ ॥
hary पीत लोहितो हरितो मँत: । उन्दुरेण समच्छायैः सैंप्त(प्ति) रुन्दीर उच्यते ।। ९२ ।। केश केसरपुच्छे च जानुनोऽघ मेचकः । सर्वाङ्गलोहितैः पीतैर्हेराहः कथ्यते हयः ।। ९३ ।। शेष ( शोण) स्तेष्वेव देशेषु सर्वा किञ्चिदुज्वलः | रक्तरेखाङ्कितः पृष्टे गॉण्ट (मण्ड ) वर्णस्तुरङ्गमः ॥ ९४ ॥ येन केनापि वर्णेर्नै मुखे पुच्छे च (पादेषु) पाण्डुरः । पञ्चकल्याणनामयं भौषितः सोमभूभुजा ॥ ९५ ॥
२१३
१ A ष्णा । २ A एतन्ना । ३ A कृष्टः । ४ Aख । ५A ङ्गैरा । ६D वा । ७ A लक्षणं यस्तु । ८ A सित । ९A नु । १० A हि । ११ Aन्धि । १२ D हेश्च । १३ D सुयुद्धविजयावहः । १४ A ब । १५ A लोह । १६ A लो । १७ D सि । १८ A अदुम्बर । १९ A य । २०D स उन्दुर २१ D यः केसरसमः पुच्छे । २२ Aस्तु । २३D कहाहः । २४ A मेषीकृ । २५ A गंवि F गंठिक ! २६ D षु । २७ A ण्ड । २८ A ल्पा-नामा । २९ D माच । ३० D सोमभूपेन भाषितः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
मानसोल्लासः ।
केशेषु वदने पुच्छे वंशे पादेषु पाण्डुरः । अष्टमण्ठों (ङ्ग) लनामा च सर्ववर्णेषु शस्यते ।। ९६ ।।
श्वेतः सर्वेषु पादेषु पादयोर्वापि यो भवेत् । धौतपादः स विज्ञेयः प्रशस्तो मुखपुण्ड्रकः ।। ९७ ।।
विशालैः पट्टकैः श्वेतैः स्थाने स्थाने विराजितः | येन केनापि वर्णेन लाह इति कथ्यते ।। ९८ ॥ चित्रितः पार्श्वदेशे च श्वेतविन्दुकदम्बकैः । यो वा को वा भवेद्वर्णस्तरञ्जः कथ्यते हयः ॥ ९९ ॥
सितस्य बिन्दवः कृष्णाः स्थूलाः सूक्ष्माः समन्ततः । दृश्यन्ते वाजिनो यस्य पिङ्गलः स निगद्यते । ७०० ॥ श्वेतस्य सर्वगात्रेषु श्यामला मण्डला यदि । एके तं बहुलं प्राहुरपरे मलिनं बुधाः ॥ १ ॥ अङ्कात् कोपि (ऽति) मेधावी दिव्याचारो मिताशनः । अलङ्कारसहो गीतमानपूजाप्रियः सदा ॥ २ ॥ उत्क्षिप्य पादं द्रावी शुचिशय्यासनप्रियः । सोऽयमुत्तमसत्वः स्याच्छोभनाङ्गस्तुरङ्गमः ॥ ३ ॥
पारावतगलाभासः शक्रचापसमद्युतिः । छायं पार्थिवा ज्ञेया हयरोमसमाश्रिता ॥ ४॥
मुक्तास्फटिकसङ्काशा छायेयं वारिजा शुभा । बालार्कपद्मरागाभा छायेयं तैजसी स्मृता ॥ ५ ॥
क्षीरैः समासमा गन्धस्वेदादिषु शुभ हयः । शुभद्वीपे च हंसे च शिखितित्तिर टिट्टिभैः ॥ ६ ॥ गत्या सेमाना ये वाहा सौदिनान्ते सुखावहाः । बाहुमूले जानुसन्धौ गमने यस्य वक्रता ॥ ७ ॥
[ अध्यायः 8
१ A च । २ A रा । ३ A मुद्रकः । ४ A omits this Pada । ५ D त्माकोप । ६ A चोक्षा ।
७ D प्रज्ञा । ८ D जी । ९A भो । १० A यः । ११A शिरसि द्विणि । १२ A ससमाना । १३ A हादिनान्ते ।
Aho! Shrutgyanam
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः।
प्रसारणं च पादानामुच्चामिः स वरो रणे । सन्धित्रयेऽपि' पादानां नतत्वं गमने यदि ॥८॥ वक्रपादस्तुरङ्गोऽयं विनोदेषु प्रशस्यते । द्रुतं क्षिपति पादश्चिद्वक्रपादस्तुरङ्गमः ॥९॥ समपादो विनोदेषु प्रेक्षकाणां मनोहरः। नातीवोचैर्नातिनः पादैाति तुरङ्गमः ॥ ७१० ॥ मध्यपादः स विज्ञेयः प्रशस्तः समराङ्गणे । वक्रता मणिबन्धेषु दृश्यते यस्य वाजिनः ॥ ११ ॥ नीचपादः स विज्ञेयः प्रशस्तोऽध्वगतौ हयः । पादानां दृश्यते यस्य स्तब्धता सर्वसन्धिषु ।। १२ ॥ अध्वन्येवोपयोग्योऽसौ स्तब्धपादस्तुरङ्गमः । गम्भीरोऽस्खलितः स्निग्धो मधुरः श्रुतिकोमलः ॥ १३ ॥ वनिः प्रशस्यतेऽश्वानां स्वामिनो विजयावहः । निर्मासमायतं वक्रमक्ष्णोर्मध्ये समुन्नतम् ॥ १४ ॥ निळलीकेन भावेन वाहानां शस्यते मुखम् । श्वेते कृष्णे पिशङ्ग वा मल्लिकाकान्तिसन्निभे ॥ १५ ॥ वैडूर्यस्फटिकच्छाये पुष्परागसमप्रभे । एणोष्ट्रटिभिक्रौञ्चहंसलोचनसन्निभे ॥ १६ ॥ प्रशस्तै लोचने यस्य वाजिनस्ते शुभावहाः ।
ओष्टौं मुखं सक्कणी च सूना प्रोथस्तनुम॒दुः ॥ १७ ॥ स्तब्धावलोमशाव॑न्तर्नागवल्लीदलोपमौ । इस्वो कौँ शुभौ शीर्ष कपित्थफलसन्निभम् ॥ १८ ॥ स्कन्धः पीनो दृढः शस्तो ग्रीवा केकिगलोपमा ।
वक्षो वृत्तं विशालं च स्थूलावंसौं सुविस्तृतौ ॥ १९ ।। १ A वाहासादिनां । २ D ऽपि । ३ D नां । ४ A सु। ५ A स ५ D स्त। ७ Dठो ।
Dवा।९D शौ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः४
कोडं सुनिबिडं शस्तं बाहू वृत्ती सुदीर्घको । समानं वर्तुलं जानुयुगलं गूढगुल्फकम् ।। ७२० ॥ जळे दीर्घ च निमासे तथा गूढशिरे मते । मणिबन्धौ तथा इस्वी स्तब्धौ चैव शुभावहौ ।। २१ ।। खुराः खैरखुराकारा रेखावलिविवर्जिताः। अन्तः कुहरसंयुक्ता अभिन्नाश्चैव कर्णिकाः ।। २२ ॥ इपन्नम्रः पृष्ठवंशो इस्वो मांसः सुर्लपितः । पार्चे दीर्घ समे वृत्ते समुद्रद्धं तथोदरम् ॥ २३ ॥ अरोमशॉवेककणौ(वर्णी)ीषणौ वतू(तु)लौ लघू । इस्वं च मेहनं शस्तं सुसंलग्नौ तु पिण्डकौ ॥ २४ ॥ वृत्तं विशालं जघनं प्रच्छन्नं च गुदं वरम् । सुदीपँर्वाहुभिर्वालैः पुच्छं मनं प्रशस्यते ।। २५ ॥ उपान्तौ विकटौ शस्तौ ऋजुपीने च सक्थिनी । हस्वी कूचौं स्मृतौ तेषां जङ्घाकाण्डौ च पूर्ववत् ॥ २६ ॥ कक्षायां पुल(लि)ने द्वाल्पा(द्वीप) मध्यखण्डे तथोपरि। पश्चस्वेतासु धारासु धावन्सत्त्वेन संयुतः ॥ २७ ॥ पञ्चम्यामपि धारायां लोहमास्यगतं हयः । अनवटेंभ्य यो धावत्यस्खलंश्चलवालधि(धिः) ॥ २८ ॥ अनुप्लुत्यावतिष्ठेत ध्रियमाणस्ततो भृशम् । स भवत्युत्तमप्राण इतरौ मध्यमाग(ध)मौ" ।। २९ ॥ रोमस्वपि मनाक् स्पर्श पाणिभ्यां सहते न च । ऊँरुसंवलनं बाह्वोरुक्षे(त्क्षे)पं जैवि(व)नो हयः ।। ७३० ॥ पाणिसंस्पर्शमात्रेण रागासँ(त्स)म्पीडनेन च । वला(ल्ग)या ज्ञापनेनैवे धावन्नन्तरवृत्तिकः ॥ ३१ ॥
A सौ. दी ।२ A ब । ३ A खु। ४ D मेलि । ५) मादकौ। ६ D वर्तुलौ च सदा लघू । ७D वी। ८ D नद्रा । ९ A या । १० ) त्पृष्ट । ११ A स्व । १२ A चा। १३ D श्रु । १४ D णेत।
१५A मो। १६ A उ। १७ A पथि । १८ A सपी। १९ D वल । २. A ववधा । २१ D तमा
Aho! Shrutgyanam
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
पाष्णिसङ्घट्टनेगी: कशाघातैः सुनिष्ठरैः ।
आराखाञ्चनकैर्गच्छन् अश्वो मैंहः प्रकीर्तितः ॥ ३२ ॥
धैन्वन्तरशतं गत्वा पुनरागच्छति द्रुतम् । मात्रा षोडशकेनाश्वो भवेदुत्तमवेगवान् ॥ ३३ ॥
चतुर्विंशतिमात्राभिर्मध्यवेगस्तुरङ्गमः । द्वात्रिंशता तु मात्राभिहन वेगस्तुरङ्गमः ॥ ३४ ॥ वितस्तिसप्तैकोत्सेधः खुरान्तात्की कसावधिः । परिणाहे तथा दैर्घ्य दश सार्धा वितस्तयः || ३५ ॥ वक्रपुण्ड्राः छिन्नपुण्ड्राः कृष्णो (ष्णी)ष्ठपुटतालुकाः । लग्नोथा दीर्घकर्णा ह्रस्वगण्डोत्तरो (रौ )ष्टकाः || ३६ ॥
करालतीक्ष्णदंष्ट्राश्च गृध्रकाकविलोचनाः । स्कन्धे बहुवलीका तथा हीनस्वरान्वितः ॥ ३७ ॥ वक्रमे। चित्रकर्णा लम्बमुकास्तुरङ्गमाः । घनकुञ्चितवालाञ्च विज्ञेयास्ते हि सू (शू) कलाः ॥ ३८ ॥ एवंविधस्वरूपा ये दुष्टचित्ता भवन्ति ते । दन्तैः खादन्ति निघ्नन्ति पादैरभ्याशमागतम् ॥ ३९ ॥ पश्चाद्भागेन चोत्प्लुत्य पातयन्ति च सादिनम् । पूर्वपादौ समुत्क्षिप्य पतन्ति सह सादिना ॥ ७४० ॥ वेला (लगा। )मकृष्य गच्छन्ति सङ्कटेषु विशन्ति च । सङ्ग(ङ्घ)माश्रित्य तिष्ठन्ति न यान्त्यपि च ताडिताः ॥ ४१ ॥ कुलालचक्रवत्तिर्यग्व(ग्न)मन्ति च लुठन्ति च । एतैर्दोषैः समायुक्ता ज्ञेयास्ते दुष्टघोटकाः ॥ ४२ ॥
दुष्टानां दमैनं वक्ष्ये घोटकानां यथोचितम् । -उपायैर्विविधैर्यन्त्रैः (स्नैः)शिक्षां गृह्णन्ति ते यथा ॥ ४३ ॥
-२१७
१ A ६ । २ A र्घाः । ३D श्वरंहः । ४ D तम् । ५ A धावन्शरशतं । ६ Aपू, यू । ७ Dरी। ८ A ड्रा। ९ A ड्रा । १० A ह्न । ११ A तः । १२ D स्तुरङ्गमाः । १३ D तान् । १४ D ब १५ D दा । १६ A श्री । १७ A लक्षणं । १८ A त ।
२८
Aho! Shrutgyanam
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
ranevar
१९८ मानसोल्लासः।
[अध्यायः धार्यमाणस्तु यस्तिर्यग् भवत्यश्वः पुनःपुनः । बाह्यां वला(ल्गा) समाकृष्य मण्डले साधयेत्तु तम् ॥ ४४ ।। अविलाणं विधार्योर्ध्व यस्तिष्ठति भयाद्धयः । निपीड्य मृकणी(णी) गाढं स रागा(पादाभ्यां प्रपीड्यते ॥ ४५ ॥ समुच्छलति यो वाजी तस्य वल्गी कृषेद भृशम् । पश्चात्स धार्यते गाढं वलगाकर्षणयोगतः ॥ ४६ ॥ चलगामपाकरोत्यर्थ ति(त)मादौ धारयेद् दृढम् । पश्चा, शिथिलों कर्षकु(न्कु)द्विली(ल्गां) विचक्षणः ॥ ४७॥ न मन्येत(ता)विलाणं यः कर्कशो वदने हयः । सूत्रिका निक्षिपेदास्ये तस्यां वल्गां कृषदृशम् ॥ ४८॥ अविलाणं गतां वलगी कत्सूत्रिकया सह । तथापि चेन्न मन्येत कृषेन्मस्तकपट्टिकाम् ।। ४९ ॥ उन्नामयति यः शीर्ष वारं वारं तुरङ्गमः। वलौ(ल्गा)माकृष्य तं वाहं पुलया वाहयेसुधीः ॥ ७५० ॥ ऊर्ध्वं यो लालिकां धत्ते मोक्षाकर्षणतत्परः। धारॉय(यां) तं तुरीयायां तुरङ्ग वाहयेजवात् ॥ ५१ ॥ एवं कृते च मुश्वेच्च लालिका घोटको भयात । कविकावर्तिकापार्वे कीलकैस्तां प्रकीलयेत् ॥ ५२ ॥ उद्घाटयति यो वकं घोटको लघुहस्तकः । तं पुलायां नियुञ्जीत वाजिवाहविशारदः ॥ ५३ ॥ निष्कासयति यो जिह्वां वारं वारं तुरङ्गमः । लालिकॉपार्श्वतस्तस्य कारयेत्तीक्ष्णकण्टकान् ॥ ५४॥ योऽधस्तात् कुरुते शीर्ष तस्योरस्त्राणपट्टिकाम् ।
विधाय शिथिलामूर्ध्वं वल्गये(यो)नमयेच्छिरः ॥५५॥ १D ह्यं । २ D कि । ३ A मच्च । ४ A लां । ५ A शे च्छनैः । ६ A ला। ७ D क्ल्गामपाक रोत्यर्थ यो वाजी, A अपां करोति । ८ A चा । ९ A लाकर्षतु । १० D ल्गं । ११ A शे। १२ A बालां बलां । १३ D वल्ग A बल । १४ D यन् । १५ A धीः । १६ A g D _पोलायि । १७ D धारया तं त्वरायुक्तं वाहयेत्तुरगं जवात् । १८ A कांपा । १९ A वेबलये। .
।
Aho ! Shrutgyanam
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ।
मानसोल्लासः । निहन्यादासनं यस्तु पश्चाद्भागं निवेशयेत् । स पश्चात्पादतो नेयो नामयेत्तु त्रिकं ततः ॥ ५६ ॥ उत्पतो बा(तेद्वा)द्यमानो यस्य(यस्तस्य) वक्त्रे विनिक्षिपेत् । शिल्लिका(लीका)केशि(श) निर्माण(ल्यं) न्यसेता कडिया(का)लिका(कम्)॥५७॥ एणवत्प्लवते यस्तु तं कशादर्शनं विना । वल्गां प्रशिथिला धृत्वा धाराक्रान्त्या पुलापयेत् ॥ ५८ ॥ असोढारोहणो वाजी तस्य ग्रीवां पराङ्मुखीम् । कृत्वा वैला(ल्गा) दृढा धृत्वा वेगाद्वाह्यः स सादिना ॥ ५९ ॥ सर्पवद्वक्रगामी यस्तस्य पक्षद्वये हयौ । संयोज्य वाहयेद्यत्नात्ताडनाक्रमणोक्तिभिः ॥ ७६० ॥ आरोहन्तं निहन्याधः पश्चात्पादेन वाहकः । उरः प्रमाणके तोये समारोहेनिधाय तम् ॥ ६१ ॥ अश्ववारेण यः सांकमारुढेन पतेद्भुवि । पर्याणकविहीनं तमन्यमारोप्य वाहयेत् ॥ ६२॥ आधाय सादिनं वाजी येन केनापि वर्मना । नि:सरेत्तत्पयनैव कशाघातैस्तु तं नयेत् ॥ ६३॥ यः पार्श्वमुंक्षिपदाढं गाढोरेस्त्राणपीडितम् । कृत्वा धृत्वा तथा वल्गां वाहयेत्तं स्थिरासनम् ॥ ६४ ॥ प्रेरितोऽपि न गच्छेद्यस्तमारुह्य तुरङ्गमम् । तिष्ठेच सुचिरं कालं यावद्यास्यति कुत्रचित् ॥ ६५ ॥ तथापि चेन्न गच्छेद्यः कशया ताडयेत्तु तम् । तथापि चेत्स्थिरस्तिष्ठेदुर्दमो वाहनाधमः ॥ ६६ ॥ मोचकस्य प्रकर्तव्योः पार्ण्यन्ते लोहकण्टकाः । तैः कुक्षौ ताडनीयोऽसौ धावनार्थ तुरङ्गमः ॥ ६७ ॥
१ A वलां। २ A कृ। ३ D वकां। ४ D नात् । ५ A शंङ्का । ६ A वय॑ता । . A सरे । 4A द्वेषु क्षिः। ९ A ढव । १० A वाला । ११ A व्या। १२ D.क्ष्यां ।
Aho! Shrutgyanam
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः एवं प्रमृद्यमानोऽपि पदमेकं न चेद्वजेत् । पश्चात्पादक्रमैनॆयो भ्राम्यो वा चक्रवद्धयः ॥ ६८॥...... एवं कृतेऽपि यो वाहः स्थाणुवत्तिष्ठति स्थिरः। .. . पिधाय नेत्रे पट्टेन तूर्यादिस्वनमाचरेत् ।। ६९ ॥ .......... मण्डले वाह्यमानः सन्नन्तर्विशति यो हयः । वल्गां बाह्यां समाकृष्य मण्डले तं प्रसारयेत् ॥ ७७० ॥ बहिब्रजति यो वाजी मण्डले भ्रमणक्रमे । तस्यान्यस्तुरगो योज्यो बहिः पार्थेऽश्वसादिना ॥ ७१ ॥ .... एकया वल्गया यस्तु सम्यक् धावति घोटकः। तयैव वल्गया वाह्यो यावन्निविण्णतां व्रजेत् ॥ ७२ ॥ . ... प्राप्य यस्तुतिस्तू ...........................। .. एवं कृते स निर्वेदावल्गामेनां परित्यजेत् ।। ७३ ॥ ... अन्यया वगया सम्यक् धृतो धावति घोटकः। आश्रयं किमनुप्राप्य यस्तु तिष्ठति सू(शू)कलः ॥ ७४॥ . अनाश्रये प्रदेशेऽसौ वाहनीयः प्रयत्नतः । एवं साध्या प्रयत्नेने सू(शू)कला दुष्टचेतसः ।। ७५ ॥ ततस्ते राजवाह्यत्त्वं भजन्ति तुरगोत्तमाः । शुभवर्णैः शुभावतः शुभगन्धैः शुभस्वरैः ॥ ७६ ॥ . .. शुभसत्त्वैः शुभीकारैर्युक्ता बाहाः शुभावहाः । मुखे पादेषु निर्मासास्त्रिके वक्षसि विस्तृताः ॥ ७७ ॥ ... जघने स्कन्धयोः पीना इस्वाः पृष्ठे च कर्णयोः । कन्धरामध्ययोत्ताः शावसारङ्गलोचनाः ।। ७८ ॥ महाजवा महाप्राणा नृपाणामुचिता हयाः। एवं रूपगुणोपेतान् शिक्षितानश्ववाहकैः ॥ ७९ ॥
A वलां । २ A धार । ३ A खूण । ४ D omits this line। ५A द्वला । ६ A. लया। VA किसनुक्षि । ८ A सूलकः । ९ A त्नने । १० A व । ११ A भच्छायैः । १२ D तांश्चल । . .
Aho! Shrutgyanam
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः।
vivartanA
तुङ्गस्कन्धोन्नतग्रीवान् लोहेलालाविमोक्षिणः । नीचपाश्चात्यचरणान वेण(ग)वन्मार्गगामिनः ॥ ७८० ॥ मण्डले सर्वधारासु प्रोथसञ्चुम्बितांसकान् । वल्ल्याकृष्य भागे तु क्षिपतस्तत्पदं पुरः ॥ ८१ ॥ प्रेरते(णे)धावतः शीघ्र ग्रहणे तिष्ठतः सुखम् । जयघण्टादिनादेभ्यो बहुवाहखुरारवान्(त् ) ॥ ८२ ॥ गजोष्ट्रसनिधानाच्च त्रासो येषां न जायते । तानेवं शिक्षितानश्वानादायात्यन्तमुत्तमान् ।। ८३ ॥ सज्जीकुर्याच पर्याणैर्दन्तिदन्तविनिर्मितैः । सौवर्णपट्टभूषाचैर्मुक्तामाणिक्यशोभितैः ॥ ८४ ॥ दीपिचर्मपिनबैश्च पटीपट्टविराजितैः। उरोबद्धैः पुच्छबद्धैनौनावणः सुशोभितैः ॥ ८५ ॥ . पादाधारैश्च सौवर्णैर्लम्बिभिः पार्श्वयोर्द्वयोः । उष्ट्ररोमकृतैः पट्टैः सौवर्णकटकान्वितैः ॥ ८६ ॥ आकर्षवर्धकैः श्लक्ष्णैमध्यभागनिपीडितैः। हैमिभिः कण्ठिकाभिश्च संलग्नाभिर्मुखे" पुनः ॥ ८७ ॥ मस्तकस्थेन पट्टेन वृताभिर्गण्डवर्धकै । रौप्यनिर्मितलाली(ला)नां बद्धवलगांभिरन्तयोः ॥ ८८ ।। रत्नकाश्चनयुक्तेन मुक्ताजालैंचितेन च । निबन्धकेन पर्यन्ते व्याघ्रलाङ्ग(यू)लशोभिना ॥ ८९ ॥ पेञ्चाकपुच्छपिच्छैश्च लोहितैर्धाजता भृशम् । शङ्ख मणिभित्तैः कू(क)णत्कनकशृङ्खलैः ॥ ७९० ॥ पैदकैः पादुकाभिश्च हेमकिङ्किणिकान्वितैः । ग्रीवासु मण्डितानश्वान् कुङ्कुमेनोपलेपितान् ॥ ९१ ॥
१D हं । २ A क्ष। ३ D त्य । ४ A णा । ५ D णु । ६ A ल, लयः । ७ A bण । ८ A च । ९D नि। १.A डनैः ११ A कविभिः काश्चित्स । १२ A रवैः खलैः । १३ D सुखं । १४ D त्ता। १५D नै । १६ Aला। १७D लाञ्चि। १८Dो । १९ A । २. A पट ।
Aho! Shrutgyanam
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३३
मानसोल्लासः ।
छेत्रचामरसंयुक्तान् पुरतः काहलान्वितान् । प्रस्थापयेच वाह्यालीं स्वयं यायात्ततो नृपः ।। ९२ ॥
कृतप्रसाधनो वीरो वाहविद्याविशारदः । चित्रपट्टकृतोष्णीषो धृतपीतोर्ध्वकञ्चुकः ।। ९३ ।। पटीपट्ट (ई) सर्वोल (च) धारयन् धृतर्कञ्च ( ञ्चु ) कः । चारुचामीकरमयीं शृङ्खलां वक्षसा धरन ॥ ९४ ॥ स्वर्णताटङ्कपत्राभ्यां भूषितश्रवणद्वयः । अन्यानपि हयारोहान् कृतविद्याञ् जितश्रमान् ॥ ९५ ॥ ज्ञाताश्वहृदयान् दक्षान् स्थिरहस्तान् दृढासनान् । वीथीमण्डलधारासु सञ्चारचतुरान वन् ॥ ९६ ॥ पञ्च (सच) वेदिततत्वज्ञानैश्वान्त्रोहे (रोहा) नरेश्वरः । कृतानुरूपशृङ्गारान् विभजेच्च द्विधाकृतान् ॥ ९७ ॥ स्वपक्षे स्थापयेदष्टावष्टौ पक्षान्तरे क्षिपेत् । अन्तःपुरैः कुमारैश्च सचिवामात्यमन्त्रिभिः ॥ ९८ ॥ अन्यैर्बहुविधैः पात्रै राजयोग्यैः समन्वितः । सुखासनं समारुह्य वाजिनं प्रियया सह ॥ ९९ ॥ ततः प्रविश्य वाह्याळीं सहयातान् प्रवेश्य च । मण्डपे पूर्वसङ्घप्ते यथास्थानं निवेशयेत् ॥ ८०० ॥ ततः स्वयं समारोहेदिव्यं काम्बोजवाजिनम् । धन्वा (न्वन्तरेत्र याद तेर्द्वारयोस्तोरणद्वयम् ॥ १ ॥ तोरणस्तम्भयोर्मध्यं चतुर्धन्वा (न्व ) न्तरायतम् । कुर्यात् कन्दुकनिष्कासान् ज्ञातुं जयपराजयौ ॥ २ ॥
यैवकन्दुक निष्कासः कृतस्तेषां जयो भवेत् । वक्रकुण्डलिताग्राः स्युर्वेत्रजा दृढबन्धनाः
३ ॥
[ अध्यायः ४
१ A च । २ AD द । ३D तार्ध । ४ A वल्गा । ५ A विभीतं । ६ Aव । ७ D वर्ती 1. A ये, यम् । ९ D विद्या । १० हयान् । ११ न् नत्वारो । १२A विधा । १३D त । १४ र्द्धा ।
Aho! Shrutgyanam
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः। शोणेन चर्मणा नद्धा मुखे कृष्णेन गुंण्ठिताः । पञ्चाङ्गुलपरीणाहा गेदिकाश्चा(प)मात्रिकाः॥४॥ शोभिना हेमपट्टेन कचिद्रत्नविभूषिताः । प्रगृह्य मेदिकाः सर्वे पक्षद्वितयसादिनः ॥ ५ ॥ आरोहेयुर्वरान् वाहान् स्वतोरणसमीपगाः । सुवृत्तं कन्दुकं क्लुप्तं पारिभद्रकदारुणा ॥६॥ चर्मणा वेष्टितं भव्यं लोहितं दृष्टिरञ्जनम् । दुवाल्या प्रेरयन्नवं गेर्दिकाग्रेण भूतले ॥ ७ ॥ कन्दुकं चालयेदेकः परतोरणसम्मुखम् । तत्पक्षाश्चानुगच्छेयुः प्रतिपक्षाश्चसम्मुखम् ॥ ८ ॥ आगच्छेत ततस्त्वेकः कन्दुकं ताडयन् बलात् । जवयुक्तेन वाहेन प्रतीपं कन्दुकं नयेत् ॥ ९ ॥ प्रतिपक्षस्तथैवान्यः कन्दुकं परिवर्तयेत् । एवमन्योन्यसङ्घर्षाद्यातायातैश्च कन्दुकम् ॥ ८१० ॥ क्रीडन्तः प्रेरयेयुस्ते बहुधीतैरनेकशः। पुरोघातेन तेष्वेकः पश्चाद्वातेन चापरः ॥ ११ ॥ तिर्यग्घात तै)स्तथा चान्यो बहिर्घात(तै)स्तथेतरः । गेडि(दि)काग्रेण सङ्गृह्य नयेतान्यो विहायसा ॥ १२ ॥ गगनस्थं परः सादी ग्रेडि(दि)काग्रेण धारयेत् । अपरश्चश्विवारोऽपि तैमादायाम्बरान्नयेत् ॥ १३ ॥ एवं सङ्कुल बातेन कन्दुकं भुवि चाम्बरे । नयन्तस्तोरणस्यान्तर्बहिनिष्कास्य कन्दुकम् ॥ १४ ॥ जयं लभन्ते तत्पशास्तूर्यनादविग्रॅम्भितम् । विनोद्य कन्दुकेनैवं जयमासाद्य भूपतिः ॥१५॥
१ A शौ । २ A गण्ठिता । ३ D डि । ४ D टुम । ५ A का । ६ D डि । ७ D णम् । ८ D डि SAश्व । १. D युः । ११ Dघा । १२ A धायै । १३ A दि । १४ Dश्व तथा सादी। १५ जापात मगनं नयेत् । १६ D ल।
Aho ! Shrutgyanam
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४ - मानसोल्लासः।
[अध्यायः ४ तस्मादवतरेदश्वात्स्तूयमानश्च बन्दिभिः । तोकारदेशसम्भूतं सर्वलक्षणसंयुतम् ॥ १६ ॥ शिक्षितं जवसम्पन्नमारोहेत्तुरगोत्तमम् । ततो मण्डलवारीषु(धारासु) धारयेत्तत्तु(न्तु)रङ्गमम् ॥ १७ ॥ अन्तर्वल्गों समाकृष्य बहिर्वला(ल्गा)कृताश्रयः । दृढाँक(रु)श्वलजङ्घश्च स्थिरहस्तोऽश्लथासनः ॥ १८ ॥ विस्तृतोरस्थलश्चैव बाह्यकर्णाग्रदन्तदृक् ॥ अङ्गुष्ठाग्रेण सम्पीड्य पादाधारयुगं दृढम् ॥ १९ ॥ परतो मध्यपदिन पाणिभ्यां ताडयेद्धयम् । विगत्या परिगच्छन्तं कशाघातेन ताडयेत् ॥ ८२० ॥ वाग्भिः सन्तर्जयेदश्वमूरुभ्यां परिपीडयेत् । धारासु वर्धयेद्भावं क्रमेण च विवर्त(त)येत् ॥ २१॥ कृषितं सात्वयेदेनं स्कन्धास्फालनमाचरेत् । सव्यापसव्यचारीषु तां तां वल्गां समाकृशेत् ॥ २२ ॥ वीथ्यामुत्प्लवने धार्य सम्यग् वल्गाद्वयं समम् । एवं वाहनविद्यायामुत्कर्ष दर्शयेन्नृपः ॥ २३ ॥ रञ्जयन् प्रेक्षकाँल्लोकानश्वविद्याविशारदान् । अन्तःपुरपुरन्ध्रीभिः कृतनीराजनाविधिः ॥ २४ ॥ स्वर्णवस्त्रैरलङ्कारैस्तोषयेदश्ववाहकान् । स्तूयमानो जनैः सर्वैर्गीयमानश्च गायकैः ॥ २५ ।। कविभिः पैठ्यमानस्तु प्रविशेद्राजमन्दिरम् । एवं तुरगवाह्यालीविनोदः कथितो मुदा ॥ २६ ॥. .. भूलोकमल्लदेवेन जगदानन्ददायिना । विनोदो वाजिवाह्यालीसङ्गतः प्रतिपादितः ॥ २७ ॥
इति तुरगवाह्यालीविनोदः ॥ ४॥ १D ततु । २ A लां, ला । ३ D ल्ग । ४ A ढ। ५ A pऽग्र। , A पठेन । A णि । D.सुधासु । ९ A न्धस्याला। १. D लम्बां वल्गां। ११ A बलां । १२. A ला । १३ A ततः । १४ A पा । १५ ह।
Aho ! Shrutgyanam
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
अधुनाडूविनोदोऽयं वर्ण्यते सोमभूभुजा । के(येन वा युध्यते सार्धमेकः खलकधार्मेनि ॥ २८ ॥
समेनास्त्रेण यस्तज्ज्ञैरङ्गः स परिकीर्तितः । अङ्काश्च त्रिविधाः प्रोक्तास्तेषां वक्ष्यामि लक्षणम् ॥ २९ ॥
अभिधानं नाम तेषां कारणैश्च पृथक् पृथक् । गालिभिस्ताडनैर्मूर्धहन नैर्द लबन्धनैः ॥ ८३० ॥
आस्ताम्बूलघातैश्च केशानां छेदनैरपि । एतैरन्यैश्च विविधैः कारणैर्योऽभिभूयते ॥ ३१ ॥ परिभूता इत्येष विश्रुतो जनसंसदि । एकवेश्यानिमित्तेन कामक्रोधविमोहितः || ३२ || ईर्ष्यया युध्यते यस्तु मत्सराङ्कः स उच्यते । गृहक्षेत्रादिहरणात् सीमाव्याजाच्च युध्यते ॥ ३३ ॥
देशलाभनिमित्ताच्च भूम्यङ्को नामतो हि सः । एकमुद्दिश्य सर्वान्वा बिरुदं पाठयेत्तु यः ॥ ३४ ॥
गाययेद्वादयेद्वाऽपि काला वा मदोद्धतः । आरुह्य महिषं दर्प (र्पाद् ) दिवा दीपं प्रदीपयेत् ॥ ३५ ॥ तृणानि विकिरन वीथ्यां विरुदाडूने निगद्यते शस्त्रविद्यावलेपेन युद्धवृत्या विजीविषुः ॥ ३६ ॥ युध्यते यस्तु स ज्ञेयो विद्याङ्को नाम नामतः । पित्रादिमारणोद्भूतं वैरं संस्मृत्य युध्यते ॥ ३७ ॥ वैराङ्क इति नामास्य कृतवान् सोमभूपतिः । कृतापराधकं राजा योधयेन्निग्रहाय यैम् ॥ ३८ ॥
तादृशेन द्वितीयेन द्रोहाङ्कः सोऽभिधीयते । कृत्वा पापानि यो मोहाद्विरक्तोऽभ्येत्य भूपतिः (तिम्) | ३९ ॥
१ A मुच्य । २ A गामनी, धामति । ३ A ङ्कसाः । ४ A स्येता । ५D र्वत्वाद् । ६D ढं ।'
• A द्वाद ।
हा । ९ A यन । १० A तम् ।
२९
L
Aho! Shrutgyanam
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAMww.
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः ५ युध्येताद्य(घ)निवृत्यर्थं प्रायश्चित्ताङ्क उच्यते । एवं विवादसम्पन्नान वारयेयुद्धकर्मणः ॥ ८४० ॥ अशक्यत्वात्ततो पश्चाद्योधयेद्धार्मिको नृपः । ईदृशौष्टविधानङ्कान्योधयन् पृथिवीपतिः ॥ ४१ ॥ पापं नामोति तेषां च व्याजपापं व्यपोहति । कारयेत्खलकं राजा तुङ्ग वृत्तं समं दृढम् ॥ ४२ ॥ द्वयष्टहस्तसुविस्तीर्णं त्रिगुणं परिणाहतः । द्वात्रिंशन्मेकर्युक्तं द्वारेणैकेन संयुतम् ॥ ४३ ॥ निम्बपत्रैः पताकाभिर्मेढकाग्राणि भूषयेत् । द्वारं सोपानसंयुक्तं कुर्यात्तोरणमण्डितम् ॥ ४४ ॥ अधिष्ठितं दण्डधेरैः खलकं लक्षणान्वितम् । खलकेन समोत्सेधे कुर्याद्वीक्षणमण्डपम् ॥ ४५ ॥ विशालं चतुरस्रं च सवितानं च साङ्गणम् । मध्ये वेदिकया युक्तं चित्रभित्तिसमन्वितम् ॥ ४६॥ सुधाधवलितं रम्यं श्लक्ष्णकुट्टिमशोभितम् । स्वर्णपट्टपिनदैश्च स्तम्भैः सुपरिमण्डितम् ॥ ४७॥ वारे शनैश्चरे सोऽयमङ्कानाहूय योधैयेत् । पतिज्ञां शृणुयाचेषां" विविधां शौर्यशालिनीम् ॥ ४८ ॥ प्रधावाम्यहमित्येको रुणध्मीति तथापरः । खाँश्चामीति तथा चैको धारयामीति चापरः॥४९॥ अपसमि" नेत्येकः च(श्च)समीति कश्चन । मारयाम्यहमित्येको म्रियेऽहं नेति चापरः ॥ ८५० ॥ शस्न्याः शस्त्रिकया स्पर्श हनिष्यामीति कश्चन । अनशस्त्रैः तवाङ्गानि दारयामीति चेतरः॥५१॥
१ A. रुद्ध । २ A + । ३ D शो । ४ A न प्रा । ५ D द्वि । ६ A मण्ड। ७D धा। ८D दी। SA नी। १. D वाद। ११ A के । १२ A धा । १३ A खा । १४ D मीतिनैक चसमीतिकश्चन । A अपसपामिनेत्येकः सर्पग्रामीतिः चापरः। १५A अस्त्रशस्त्री, आस्त्रां ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२७
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। छिनद्मि पादं धावन्तं नन्तं हस्तं निहन्म्यहम् । दण्ड छिनमि निक्षिप्तं गात्रं विद्या(ध्या)म्युपागतम् ॥ ५२ ॥ ब्रुवतामेवमन्योन्यं प्रतिज्ञा लेखयेन्नृपः । तेषां भूषाविशेषांश्च दत्वा कुर्याद्विसर्जनम् ॥ ५३ ॥ ततः प्रभाकरे वारे कृतपूर्वाह्निकक्रियः। निवयं भोजनं राजा भवेत्सम्भृतमण्डनः ॥ ५४॥ यामावशेषे दिवसे शुद्धान्तवनितायुतः । प्रसादचित्तैभृत्यैश्च पुरैम(रम)ण्डलपालकैः ॥ ५५ ॥ परमण्डलभूपालैः सचिवामात्यमन्त्रिभिः। प्रविश्य वीःणाङ्गा(गा)रमधितिष्ठेन्नृपासनम् ॥ ५६ ॥ ततः समागतान् सर्वान्यथायोग्यं निवेशयेत् । अङ्कगस्ततः समायान्ति समारुह्य करेणुकाः ॥ ५७ ॥ मुदितास्तूर्यघोषेण कुर्वन्तः सिंहगर्जितम् । काहलां वादयन्तश्च बिरुदाक्षरवादिनीम् ॥ ५८॥ हरिताङ्गरागकाः केचित्केचित्पीताङ्गरागिणः । कृष्णाङ्गरागिणः केचित्केचिच्छेताङ्गरागिणः ॥ ५९ ॥ त्रिबिन्दु(न्दु) विन्दुमाला च (लञ्च)त्रिशूलं मण्डलाकृतिः (ति)। पुत्रिकाकारमर्धेन्दुसदृशं तिलकं भवेत् ॥ ८६० ॥ तिलकं भालदेशे तु नेत्रस्याधः कटस्थले । बाह्रोश्च शिखरे वत्से दधाना जठरेऽपि च ॥ ६१॥ पञ्चवर्णकपट्टांश्च वसाना जानुलम्बिनः । सौवर्ण दधतो रम्यं पट्टिकावेष्टितं दलम् ॥ ६२॥ शङ्खजैर्मणिभिः स्थूलैः कृतकण्ठविभूषणाः।
पीतलोहितपट्टैश्च शोभिताश्चावलम्बने ॥ ६३ ॥ १D नतं । २ A ण्ड । ३ A नक्षिप्रं । ४ A याः। ५ A वीस D वीक्षणाङ्गारं । ६A बिडं । • D ति। ८ D शिरसे । ९ D वृत्वा A धृत्वा । १० D म्बिनः ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
मानसोल्लासः ।
प्रविश्य खलकं सर्वे कृतकूर्मासनक्रियाः । प्रणमन्तो महीपालं विज्ञषेयुः पृथक् पृथक् ॥ ६४ ॥ क्षितीशः परिभूतेन योधयेत्परिभावकम् । स्त्रीमत्सरसमायुक्तं मत्सरेणैव योधयेत् ॥ ६५ ॥ सविरोधौ क्षितेत्यर्थे योधनीयो (यौ) परस्परम् । बिरुदं योधयेद्राजा बिरुदप्रतिरोधिना ।। ६६ ॥
विद्याङ्क (ङ्कः) समविद्येन तद्विधेनैव योधयेत् । वैरा (ड्रो) वैरिणा सार्धं योधनीयो महीभुजा ॥ ६७ ॥
द्रोहाङ्कं तादृशेनैव वध्येन सह योधयेत् । पापिनां (नं) पापशुध्यर्थं पापिना सह योधयेत् ॥ ६८ ॥
दण्डधारयु(धृतं दण्डमङ्कन्योर्मध्यवर्तिनम् । अपनीर्यं ततो मुञ्चेद् द्वावडूने युद्धलालसी ॥ ६९ ॥
निवारयन्तौ खोश्ञ्चन्तौ धावन्तावपसर्पिणौ । क्रोधरक्तेक्षणौ वीरौ सन्दष्टो (टो) टपुटावपि ।। ८७० ॥ मुञ्च मुञ्चेति जल्पन्तौ खोश्च खोश्चेति भाषिणौ । स्खलद्गतियुतौ वीरौ क्षिपन्तौ पुरतः सह ॥ ७१ ॥ रुधिरोक्षितसर्वाङ्गौ लम्बमानान्त्रमालिकौ । क्षुरिकायां विभिन्नायां पतितायां करादपि ॥ ७२ ॥
विच्छिन्नशस्त्रबाहौ च चरणे परिखण्डिते । निवारणार्थं युद्धेस्य दण्डं मध्ये निवेशयेत् ॥ ७३ ॥
अपक्षगामी नृपतिर्धर्मयुद्धं प्रवर्तयेत् । निहतृणा जयो युद्धे दैवेनैव प्रवर्तते ॥ ७४ ॥
प्रतिज्ञापालकानां तु जयं दद्यान्नृपः स्वयम् । प्रसाददानकं भूरि वस्त्रकाञ्चनभूषणम् ॥ ७५ ॥
[ अध्यायः ५
१ D कः । २ A ते त्य । ३ D यः । ४ D ङ्कं । ५ Dङ्कं यै । ६ D यं । ७ D तौ । ८ च । ९ A द्ध । १० A हतॄणां ।
Aho! Shrutgyanam
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः 8 ]
मानसोल्लासः ।
नामानश्वांस्तथा निष्कान् वृत्तिं दत्वा तु जीवितम् । मृतानां बन्धुरक्षार्थं परलोकक्रियाकृते ॥ ७६ ॥ कृपादानं प्रदातव्यं काञ्चनं भूरि भूभुजा । एवमुक्तविनोदेन दिनशेषं समाप्य च ॥ ७७ ॥ विसर्ज्य च जनान् सर्वान्प्रविशेद्राजमन्दिरम् । एवमङ्कविनोदोऽयं कथितो सोमभूभुजाः ॥ ७८ ॥ इत्यङ्कत्रिनोदः ॥ ५ ॥
अथ मलविनोदोsपि कथ्यते राजवल्लभः । मल्लास्तु त्रिविधा ज्ञेया उत्तमो मध्यमोऽधमः ॥ ७९ ॥ उत्तमो ज्यै(ज्ये) ष्ठिको नाम मध्यमो ऽन्तरज्येष्ठिकः । कनिष्ठ गोवलो ज्ञेयः कायैप्राणगुणोत्तरात् ॥ ८८० ॥ आविंशतेर्वत्सरेभ्यो भविष्णुर्मल्ल उच्यते । तत ऊर्ध्वं त्रिंशदब्दात्प्ररूढः परिकीर्तितः ॥ ८१ ॥ ततः परं हीयमानो नियुद्धे त्वक्षमो भवेत् । महाकायो महाप्राणो मल्लविद्याविशारदः ॥ ८२ ॥ ज्येष्ठिकः कथ्यते मल्लः प्राणविद्याधिकोऽपि वा । अर्धेन ज्येष्ठिमल्लस्य कायप्राणगुणैस्तु यः ८३ ॥ हीयमानो भवेन्मल्लो नाम्ना सोऽन्तरज्येष्टिकः । ततोऽपि हीयमानश्वेतैरेव गुणैस्तथा ॥ ८४ ॥ गोवलो नाम मल्लोऽसौ नियुद्धे वेगवान् वरः । वेगल्लः सरलो दीर्घो भविष्णुः शैशवे भवेत् ॥ ८५ ॥
जङ्गाकाण्डे कोष्टके च हनुदेशेऽस्थिसारवान् ।
90
द्वात्रिंशत वत्सराणां पाल्यंशो (शे) देशवि (श्रुतः ॥ ८६ ॥ पूर्णा तासु पालीषु वर्तयिष्ये नियोधनम् ।
एवं समादिशन्मल्लान् सर्वान् क्षोणिपतिः स्वयम् ॥ ८७ ॥
२२९
१ A पत्नीं । २ A वीरनन्दनः । ३ Dजे । ४ Dजे । ५ A यः । ६ A णोड़। ७D जै । “D वैग ! ९ D तां । १० A षोडश । ११ A स्तृताः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
मानसोल्लासः ।
पोषार्थ द्रविणं तेभ्यो दत्वा पचाद्विसर्प (ज) येत् । भविष्णवः प्ररूढार्थं पोष्या बृंहणभोजनैः ॥ ८८ ॥ मासस्तथा दक्षा पिष्टैः क्षीरविमिश्रितैः । घृतेन सितया चैव विदार्या वाजिगन्धया ॥ ८९ ॥ घृतेन भृष्टैः कुष्माण्डेश्वर्णितैः सितयान्वितैः । योषितां दर्शनात्स्पर्शात्संल्ला (ला) पात्सङ्गमादपि ।। ८९० ।।
संरक्ष्यों यत्नतो मल्ला विशेषेण भविष्णवः । एकान्तरे दिने कुर्युः श्रममश्रमहेतवे ॥ ९१ ॥ पृथक् पृथक् स्वगेहेषु निजैर्गोवलकैः सह । गोवळे: : सह कुर्वीत नियुद्धं प्राणवर्धनम् ॥ ९२ ॥ संस्थानानि च चत्वारि कल्पयेयुर्हढानि च । विज्ञानानि च सर्वाणि तेभ्यर्सेयुरशेषतः ।। ९३ ।। वक्ष्यामि स्थानकानाञ्च विज्ञानानां च लक्षणम् । कक्षे पूर्वापरे धृत्वा प्रोत्तानपतितस्य हि ॥ ९४ ॥ तत्कपोलं स्वपार्श्वेन सम्पीड्यार्धाङ्गकं भवेत् । पुरः कक्ष समादाय पूर्ववत्पतितः स हि ॥ ९५ ॥ मूर्ध्नि कूर्मासनं बध्वा भजेद्वाप्येकपादके (कम् ) । उत्तानप्रतिमल्लस्य निवार्य चरणद्वयम् ॥ ९६ ॥
उदरस्योपरिस्थोंनं स्थानं करवलं स्मृतम् । स्वयमुत्तानपतितो जठरागमनोद्यतम् ।। ९७ ।।
पादाभ्यां पीडयन् मध्ये जठरस्थानकं भवेत् । पराङ्मुखस्य मल्लस्य स्थितस्य पतितस्य वा ॥ ९८ ॥ कक्षामाक्रम्य पार्श्वभ्यां पृष्ठस्थानकमाचरेत् । उक्तानि स्थानकान्येवं विज्ञानानि प्रचक्ष्महे ॥ ९९॥
[ अध्यायः ६
१ D पौषा | २ A श्व | ३ | ४ A बृ । ५A क्षयेत्त । ६A मल्लान्वि । ७ A वा । ८ A चेत्पु ।
९ A ल । १० A जेत् । ११ Aढां । १२ Dप । १३ A नंतंस्था | १४ A न । १५ A खलं, A खं । १६ A च्छा ।
Aho! Shrutgyanam
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३१
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। स्वरूपेण तथा नाम्ना विस्तरेण यथागमम् । अर्धाङ्गस्थानकच्छे(स्थे)न मल्लेन स्थूलवर्मणा ॥ ९०० ॥ पीडनान्मुखदेशस्य विज्ञानं स्यात्तदेव तु । स्थित्वैवार्धाङ्ग के स्थाने पादस्याकर्षणं वहिः ॥१॥ बहिः पणमितिज्ञेयं विज्ञानं पादमोटनम् । शिरःस्थानकमास्थाय गृहीत्वैकेन मूर्धकम् ॥२॥ अन्येन तत्करस्याधः क्षिप्तेन स्वकरे धृते । बहिर्भागे च वैलिते विज्ञानं बाहुमोटनम् ॥ ३॥ तस्यैव परिद(ह)त्तस्य मोटने वाहुसी भवेत् । जवाभ्यां च भुजाक्रान्तौ ताभ्यां शिरसि पीडिते ॥४॥ पुरः कक्षा समाकृष्यं गुणालं प्राणघातकः (कम्) । ग्रीवायोः सभुजायाश्च पादेनाक्रमणे सति ॥५॥ अन्यजान्ववबढेन कुर्यादुत्तरढोरैम् । शिरःस्थितेन मल्लेन विक्षेपायोद्यतं पदम् ॥ ६ ॥ गृहीत्वा सक्थियुग्मेन कक्षे निक्षिप्य पाणिकम् । उत्तानजानुदेशस्य कटियन्त्रेण पीडनम् ॥ ७ ॥ पटिशं नाम विज्ञानं जानुसन्धिप्रभञ्जनम् । अनेनैव प्रकारेण बाहुसन्धिप्रपीडनम् ॥ ८॥ छैडुकी नाम विज्ञानं प्राह सोमेशभूपतिः । अधो विध(य तद्वाहोः पूर्ववत्पीडनं यदि ॥९॥ विज्ञानमन्त छुडुकी बाहुसन्धिप्रभञ्जनी । मैंन्या कक्षे विनिक्षिप्य भुजेनैकेन संयुताम् ॥ ९१०॥ गलं प्रकोष्ठेनापीड्य तत्करेण करान्तरम् । सन्धौ प्रगृह्य जठरं सक्थिभ्यां परिपीडयेत ॥११॥
१D क्षे । २ A छिन्नौ चार्धाङ्गिकौ। ३ A व । ४ A न । ५ D च । D चाटु A चापु । ७ A च्छा। ८A प्यो, ष्णौ। ९A न्व । १० D न्यद ज्ञात्वा च वाहेन । ११ A त्व । १२ A रा । १३ A काम । १४ A दि। १५D छण्डु A छड। १६A धो। १७ A त्प। A १८ Dन्तो बुडकी। १९D नीः। २. A क ?।
Aho! Shrutgyanam
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः
ततस्तद् ढोङ्करं नाम विज्ञानं जीवघातनम् । अर्धाङ्गस्थानके स्थित्वा बाहुभ्यां मध्यमुन्नयन् ॥ १२ ॥ पार्श्वन पीडयन् कण्ठं कक्षामूलं स्वजवाया। तुष्टिरिति विज्ञेयं विज्ञानं मध्यभञ्जनम् ॥ १३ ॥ शिरस्थानकविज्ञानान्यमूनेकादशैव तु । स्थाने करवले स्थित्वा वक्रे क्षिप्त्वा निजोदरम् ॥ १४ ॥ पाँदमुर्देवडं नाम्ना विज्ञानं श्वासरोधनम् । उरसा पीडनं तद्वद्विज्ञानं मुखपट्टकम् ॥ १५ ॥ हस्तद्वयेन वक्रस्य पिधानं मुस्तिकाह्वयम् । स्थित्वा करवैले स्थाने मणिवन्धस्य मोटनम् ॥ १६ ॥ क्रियते यत्र तत्रोक्तं कुट्टीनं करभञ्जनम् । बाहुभ्यां मध्यमाक्रम्य जङ्घामाक्रम्य जङ्घया ॥१७॥ जानुसन्धिविभागार्थं भजेञ्चरणपट्टिशम् । परस्य जानुसन्धौ तु कर निक्षिप्य कञ्चन ॥ १८ ॥ जवाभ्यामूरुमाक्रम्य विदध्याल्लोलपादकम् । जठरस्थानके स्थित्वा बाहोयत्र निपीडनम् ॥ १९ ॥ सन्दशाकृतिबाहुभ्यां सन्देशं नाम तद्भवेत् । जवां विधाय मन्यायां जानुसन्धिनिपीडिती ॥ ९२० ॥ चूडी वा पूर्वकश्छ(क्षा)वा कर्ष(पन) ढोडूंगरमाचरेत् । अरुभ्यां मध्यमाक्रम्य पादौ निक्षिप्य कायोः ॥ २१ ॥ आविध्य बाहुना जो कुर्याज्जवलशेयकम् । साम्याज्जवलशङ्खस्य पादस्यैकस्य पीडनात् ॥ २२ ॥
-
----
-
-
१A स्वस्त, स्तत्त । २ A ठाङ्करक । ३ A मञ्जनं । ४ A त् । ५ D adds these two lines | MA A पो। D इंब, द्धव । ९ D कः । १. D सि । ११ A ब। १२D टयकं A दाकं । १३ A म । १४ D नः । १५ A भ्यामरु । १६ A न्त्र । १७ A सह । १८ D प्रपीडिताम् । १९ A ता| २. D डा । २१D वत्कच्छा। २२ A का। २३ D पाद । २४ A जडैः । २५ D वेन ।
Aho! Shrutgyanam
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३३
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। उक्तं कक्षवडं' नाम विज्ञानं पादभञ्जनम् । सर्वाङ्गं पीडयेद्यत्र मध्यमाक्रम्य तिष्ठतः ॥ २३ ॥ सुमुखी नाम विज्ञानं सङ्कोचादङ्गसाधनम् । ऊरुभ्यां मध्यमाक्रम्य मन्यां कक्षान्तरे क्षिपेत् ॥ २४ ॥ ज्ञेयं गूढं गु( ढाड )लि म विज्ञानं कण्ठमोटनम् । पृष्ठस्थांत( न )कमास्थाय बाहूं कक्षान्तनिगतौ ॥ २५ ॥ मन्यायी सङ्गन्तौ कृत्वा करशाखानिबन्धनौ । ताभ्यां सम्पीडयेन्मन्यां कुर्वथाधोमुखं शिरः ॥ २६ ॥ ऊरुभ्यां मध्यमापीडय युज्योंगरुडपक्षकम् । पृष्ठस्थैः प्रतिमल्लस्य पृष्ठपृष्ठे भुजं बलात् ॥ २७॥ आकृष्य वर्तयन्कुर्याद्विज्ञानं वेसर्णादु( टनं बु )धः । जानुसन्धौ क्षिपेजवां पतितः स्यादवामुखम् ॥ २८ ॥ उरसा पीडयेत्पादं तदङ्गवलनं भवेत् । मन्यां कक्षान्तरे कुर्याद्वाहुं गरुडपक्षवत् ॥ २९ ॥ मध्यपीडनयोगेन भवेत्सदुपवेदनम् । एकद्विव्यङ्गुली मुक्त्वों करशाखाचतुष्ठयम् ॥ ९३० ॥ भज्यतेऽङ्गुष्ठवज्यं तद्विज्ञानं चतुरङ्गुलम् । बाहुना बाहुमाविध्य धृत्वा चान्येन मुद्धकम् ॥ ३१॥ मोठ्यते तु शिरैस्तियग्विज्ञानं तद्वधा(दा)भिधम् हस्तौ पादौ च शीर्ष च पद्भयामावेष्टय पीडनात् ॥ ३२ ॥ विज्ञानं तत्समाख्यातं डोकरं सकुटुम्बकम् । विज्ञानान्येवमुक्तानि बॅन्धमोटनकारणम् ॥ ३३ ॥
१ A टं। २ A गुधि । ३ D मु। ४ ।) ड । ५ H यक । ६ D हु । ७ D रेक्षिपेत् । ८ D याः। ९D न्मूर्धा। १. D ज्या। ११ A रुरड । १२ A स्था। १३ Dठं। १४ A स्वा । १५ A तैयः,र्धय । १६ A णेबु D नेबु। १७ D तस्यह्य । १८ D लव । १९ A न्म। २. A वै । २१ A ली। २२ A ता। २३ A द्व। २४ A माद्य । २५ A रोति । २६ A छ । २७ A स्कू । २८ A वधमोड ।
Aho! Shrutgyanam
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
मानसोल्लासः ।
वक्ष्यामि वञ्चनोपायान्विधिवच्छास्त्रदृष्टितः । छुडुक्यां तु प्रयुक्तायां भ्रमित्वा तां निषेधयेत् || ३४ ॥ मुखस्योपरिजयां' वा निक्षिप्य विनिवारयेत् । पट्टिशेन गृहीतावित्रिवृत्यापनयेभतम् ।। ३५ ।। बाहुमोटनविज्ञानं हस्तौ संयोज्य वारयेत् । शिरस्थानगनं मल्लं बाहुभ्यामुत्क्षिपेलात् ।। ३६ ।। पादाभ्यामकर्षेद्वा देहं वा वर्तयेदवाक् । स्थितं करवले स्थाने जयेच्छुः प्रतिमल्लकम् ॥ ३७ ॥ पश्चात्कक्षान्तरं (र) न्यस्तपादाङ्गुष्ठेन कर्षयेत् । अशक्य (क्त) तथा क्रष्टुमूरुभ्यां तस्य सक्थिकम् ॥ ३८ ॥ निपीड्य धारयेन्मलं यया ( था ) नान्यक्षमो भवेत् । जठरस्थान संलग्नं (नां ) पुरः कच्छी विधार्य च ॥ ३९ ॥
कूर्पराभ्यां निपीड्यो अवसृत्य विमोचयेत् । तथा मोचयमानस्य ज धृत्वा निजाङ्क्षिणा ।। ९४० ॥
नाभिदेशे विनुद्याथ पातयेद्धरणीतले । पात्यमानस्तथा मल्लः पादं पश्चात्प्रसौर्य च ॥ ४१ ॥ तिष्ठेत्स्थैर्यमथालम्ब्य यथा न पतति क्षितौ । पालीदिने नियुद्धाख्यः श्रम एवं निवेदितः || ४२ ॥ सच प्रभाते कर्तव्यो विज्ञायो (नो) पायसिद्धित: । उ ( स ) पालीदिवसे प्रातर्वालुका भृतगोणिकाः ॥ ४३ ॥ बाहुभ्यामुत्क्षिपेच्छक्त्या पादाभ्यां च मुहुर्मुहुः । भारं सोढुं स कर्तव्यो" ज्येष्ठैर्मल्लैर्विशेषतः ॥ ४४ ॥ भारश्रमोऽयमाख्यातो गात्रप्राणविवर्धनः ।
भ्रमणार्थं ततो गच्छेत्क्रोशमेकं बहिः पुरात् || ४५ ॥
[ अध्यायः ६
१ A छुडक्या ज्ञानभोगेन यामित्वा । २ Aङ्घा । ३ D यान्वि । ४ A द्ग । ५ D व । ६ A यस्थं ।
· A ह। ८ A श्च । ९A यन्म | १० छ । ११ क्षां । १२ D रुं । १३ A सर्पयेत् । १४ A व । १५ D व्योविज्ञायो । १६ A व्या ।
Aho! Shrutgyanam
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः।
निवर्तेत तथा तूर्ण श्रमोऽयं भ्रमणाभिधः । पुष्करिण्यां तडागे वा नद्यां च प्रविशेज्जलम् ॥ ४६॥ कण्ठदघ्नं ततस्तोय बाहुभ्यामवलोडयेत् । जङ्घाबलावहः पूर्वः कथितो भ्रमणश्रमः । ४७ ॥ बाहुपाणकरो ज्ञेयो द्वितीयः सलिल:(ल) नमः । स्थितौ तुदेतामन्योन्यं कराभ्यां बाबा)हुयुग्मकम् ।। ४८ ।। सायङ्काले विधातव्यो बाहूपेलणकः श्रमः । आश्लेषयोग्य(ग्य) सुश्लक्ष्णमूर्ध() वाहुतलोन्नतम् ॥ ४९ ॥ दृढं निखानितं स्तम्भं चर्चितं चन्दनादिना । उत्प्लुत्याक्रम्य सक्थिभ्यां बाहुभ्यां चैव वक्षसा ॥९५० ।। दृढं सम्पीड्य तं स्तम्भं पद्भयामूर्ध्व समाश्रयेत् । बाहुभ्यां च ततोरुभ्यामावर्तनविवर्तनः ॥ ५१ ॥ अंधश्चोर्ध्वं च संश्लेष्य स्तम्भेन श्रममाचरेत् । एवं कृतश्रमा मल्लाः पुष्टा हृष्टाः समागताः ।। ५२ ॥ विज्ञपेयुर्महीपालं मल्लाध्यक्षपुरःसराः । पाल्य॑(ल्यः) पूर्णा इहास्माकं पोषिता च निजी तनु(नुः) ॥ ५३॥ जितश्रमा वयं जाता नियोधर्य महीपते । इति विज्ञाप्यमानस्तु गुणा(ण)स्तेषां विचारयेत् ।। ५४ ॥ भेदैादशभिर्युक्तीन्मिथस्तेषां नियोधने । महाकायस्तु यो मल्लो भौरी स परिकीर्तितः ॥ ५५ ॥ बलाढयः कथ्यते प्राणी ऊर्जलश्च सुशिक्षितः। संस्थाननिरतो ज्ञेयो यः स्थाने सुस्थितासनः ।। ५६ ॥ श्रमं न याति यो युद्धे बहुयोधी स कथ्यते । विज्ञानेन गृहीतोऽपि यो मुञ्चति न भाषते ॥ ५७ ॥
नारफालयति हस्तेन सम्बद्धः पतितो युधः । 1 D न । २ A तः । ३ D पाति । ४ A त ।५ A धैं । ६ D adds this line । ७ A आधाश्चार्ध । ८ D पाल्याः । ९ D स्वपुत्रवत् । १० A ज। ११ D क्ताः मि। १२ A भी। १३ D ऊर्च
A ऊर्जा । १४ A परी । १५Dन। १६ A न्धः । १७ A रधेः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः६
वलनं सहते यस्तु स भवेद्वलनेसहः॥ ५८ ॥ यो रक्षति हि विज्ञानं मल्लो रक्षणको ह(म)तः । आशुंप्रयुक्त विज्ञाने तदपाये पर द्रुतम् ॥ ५९ ॥ स मल्लो ढकणो धन्यः शीघ्रविज्ञानकारकः । परप्रयुक्त विज्ञानं पररन्धं च पश्यति ॥ ९६० ॥ दर्शनाख्यक्रियायोगान्मल्लो दर्शन उच्यते । उत्लुत्य यो लगेत्कण्ठे स मल्लो लँगनो भवेत् ॥ ६१ ॥ मर्यादापालको युद्धे नियतः परिकीर्तितः । एवंविधगुणान् मल्लान् समकायवयोबलान् ॥ ६२ ॥ नियुद्धे योजयेद्राजा करास्फालनपूर्वकम् । प्रतिज्ञा ते च जल्पन्ति शृणुयातां नराधिपः ।। ६३ ॥ घटिकाभ्यन्तरे देव मोटयेत्प(प्र)तियोधिनम् । मल्लद्वयं मोटयामि जल्पत्येवं तथापरः ॥ ६४ ॥ मल्लत्रयं भिनग्रीति वदेदन्योऽपि ज्येष्टकः । विज्ञानेनाहमेकेन पातयामीति भाषते ॥ ६५ ।। यस्मिन्नेव स्थित(तः)स्थाने तस्मिन्नेव निपातयेत्ये)। एवं कृतप्रतिज्ञांस्तांन्विमर्थ च ततो निशि ॥ ६६ ।। महत्तरं समाहूय महीपालः संपादिशेत् । अलङ्कुरुष्व वाक्याडे" त(चाख्खाडव)।देवमण्डपम् ।। ६७ ॥ इत्यादिष्टो नृपेन्द्रेण ततो ग्रा(ग्र)हमहत्तरः । स्तम्भैः षोडशभियुक्तं गृहं कृत्वा समायतम् ॥ ६८ ॥ पश्चिमे तु दिशाभागे चतुरस्रां सुविस्तृताम् । सार्धहस्तसमुत्सेधां वेदिकां तत्र कारयेत् ॥ ६९ ।।
१A श्रु । २ D तदपाय । ३D परमं । ४ A न्या। ५A का६ A छ। ७ A लगतो। ८ A ध। ९Aभ। १० A कम् । ११ व्यं ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशतिः 8 ]
मानसोल्लासः ।
वेदिकानेयकोणे तु कुर्याच्छ्रीकृष्णमण्डपम् । वेदिकायः पुरोदेशे दशहस्तसुविस्तृता ( ( ) म् ।। ९७० ।। त्रिंशद्धस्तपरीणाहं वितस्तिद्वयघातवत् ( खातकम् ) । पूरयेच्च ततः खातं ग्रामसञ्जातया मृदा ।। ७१ ।। मृत्तिकां सेचयेत्तोयैः कुद्दालैश्च निखार्तयेत् । चौर (ल)येच्चालिनीभिश्च दृषदादीन्विशोधयेत् ।। ७२ ।। सुश्लक्ष्णां मृत्तिकामीषदाद्र शुद्धां च कारयेत् । एवमक्खाडकं कृत्वा प्रातरागत्य भूपतिम् ॥ ७३ ॥ विज्ञापयेद्गुहामात्यः सर्वे सम्पादितं मया । ततः कौतुक संयुक्त मल्लाध्यक्षं समादिशेत् ॥ ७४ ॥
आवाहयाखिलान् मल्लान् नियुद्धायेति भूपतिः । गृहीतवचना (नो) ऽध्यक्षो विनयानतकन्धरः ।। ७५ ॥ निर्गत्य च तथा कुर्याद्यथादिष्टं महीभुजा । ततः करेणुकाः सर्वाः प्रेषयेच्च पृथक् पृथक् ।। ७६ ।। ज्यैष्टिकानां च मल्लानां तूर्याणि च बहूनि च । सौवणशृङ्खलास्तेषु नेत्रप पृथग्विधम् ॥ ७७ ॥
शृङ्गारार्थं यथायोग्यं दापयेच्च पृथक् पृथक् । चन्दनालिप्तसर्वाङ्गाः स्वणशृङ्खलभूषिताः ।। ७८ ।। दधिमण्डलभक्तांश्च भुक्ता स्वल्पं प्रसाध्यै च । गृहीताक्षतदूर्वास्ते आरोहेयुः करेणुकाः ।। ७९ ।।
म(ग) व्हरीतूर्यनादेन समायाता नृपाङ्गणम् । कृतभोजनशृङ्गारैः सायाह्ने सेवकैः सह । ९८० ||
पुत्रमित्रकलत्रैश्च विशेदाखाडकं तदा । भुजास्फालननादेन पूरयन्तो दिगन्तरम् ॥ ८१ ॥
२३७
१ Aयाम् । २A । ३ A सा । ४ A दाशुद्धां चापि । ५A कावडं D खाडकं ६ ID
७ 4 व्हायाखि । A वयतो । ९D पश्येत् । १० Aङ्ग । ११A द्य । १२ A रे ।
Aho! Shrutgyanam
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः६
विज्ञपेयुस्ततो भूपं सर्वे मल्लाः समागताः । पुष्पाञ्जलिं गृहीत्वा च कृष्णे कृष्ल(त)नमस्कृतिः ॥ ८२ ।। सिंहासनं समारुह्य सर्वीस्थाने निवेशयेत् । यस्य येन कृतं पूर्व युद्धाय करताडनम् ॥ ८३ ॥ आहूय तानसौ मुक्ता योधयेत्पृथिवीपतिः । चल्लंणं परिधास्यं च दृढं कच्छां विवेष्टय च ॥ ८४ ।। जूटकं बन्धयित्वा तु भुजावास्फाल्य सन्मुखौ । नियुध्येतामुभौ मल्लौ रोधनैः प्रतिरोधनैः॥ ८५ ॥ प्रकोष्टधारणैश्चैव मणिबन्धविमोचनैः। कच्छधारणमोक्षाभ्यां पातनैरधर (रव)पातनः ॥ ८६ ॥ बाहुसङ्घटनैश्चैव तथा पादैरघट्टनैः । आश्लेषैः पीडनैश्चैव विश्लेषैरपसर्पणैः ।। ८७ ॥ उत्प्लुत्य लैंगनैः कण्ठे जठरे पृष्ठतस्तथा । भ्रमणैर्धामणैश्चैव वलनैवतनैस्तथा ।। ८८ ॥ सन्निपातावधूतैश्च तोलनैः स्फालनैस्तथा । नानाविधैश्च विज्ञानविविधैबन्धैमोचनैः ॥ ८९ ॥ श्रान्ताश्चोत्तानपतिताः स्वेदाीकृतविग्रहाः । कर्दमालिप्तसर्वाङ्गा मुकुलीकृतलोचनाः ॥ ९९० ॥ मुश्चन्तः श्वासफुत्कारं दृश्यन्ते ते सँमाकुलाः । द्वावप्येवंविधौ दृष्ट्वा समीकुर्यान्नृपेश्वरः ॥ ९१ ॥ आ(अ)श्रमस्य जयं दद्यान्मोटनाच्च विशेषतः । एवं नियोध्यं तान् सर्वान् सजयान भूरिकाश्चनैः ॥ ९२ ॥ वस्त्रैराभरणैर्यानर्वाहैश्च परितोषयेत् । विसज्यं च ततो मल्लान् सेवकानितरानपि ॥ ९३ ॥
A नमे । २ A सर्व । ३ A ष्ण। ४ A & । ५ A वि। ६ A तः । ७ D कृत । ८ A वलभं। Dढां । १. D घः। ११ A नेचै । १२ D त्य च । १३ D लगत् । १४ A चर्मणो। १५ A तेश्च । १%Dद्ध । १७D ते। १८ वनाकुलान् । १९ Aधं । २. Dज्य । २१ A सुज्य।
Aho ! Shrutgyanam
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः 8]
मानसोल्लासः ।
मल्लयुद्धप्रकारन्तं ब्रुवाणः प्रमदान्वितः ।
एवं मल्लविनोदेन नीत्वा वासरशेषकम् ॥ ९४ ॥
सुखासनं समारुह्य प्रविशेद्राजमन्दिरम् । मल्लानां लक्षणं युद्धेश्रमैश्च परिपोषणम् ।। ९५ ।। कथितं सोमभूपेन सर्वमल्लोपकारकम् । उक्त मल्लविनोदोऽयं सोमेश्वरमहीभुजा ।। ९६ ॥ इति मल्लविनोदः ॥ ६ ॥
ताम्रचूडविनोदस्तु साम्प्रतं परिकीर्त्यते । कुक्कुटानों च सद्भिस्तु ज्ञातव्या जातयः पुरा ॥ ९७ ॥ आकारः पोषणं चैव शुभं रूपं च शाकुनम् आयोधनप्रकारश्च व्यवस्थाश्च जयाजये ॥ ९८ ॥
कुक्कुटानामिदं ज्ञात्वा पश्चात्कुर्यात्तदाहवम् । पादौ सितौ सिते चारे नखराः पाण्डुराः शुभाः ।। ९९ ।। लोचने च तथा शुक्ले शुक्लप्राणो विशेषतः । शङ्खध्वनिनिभो नादस्तीक्ष्णाग्रा पिच्छसन्ततिः ॥ १००० ॥ कम्बुग्रन्थिंनिभं शीर्षं" यस्यासौ शङ्खजातिः । चरणौ पाण्डुरच्छायौ दीर्घवालयः कृशाः ।। १ ।। दीर्घो देहस्तथा कार्य व दीर्घा च नासिका । मृदुपहारसंयुक्तं मन्दर्युद्धं भवेत्स्थिरम् ॥ २ ॥ यस्यासौ स भवेज्जात्या कुक्कुटो गुरुसंज्ञकः । उन्नतः सितवृत्ताङ्घ्रिः पृथुवक्षस्थलो महान् ॥ ३ ॥ आक्रम्य युध्यते शूर अंशुजातिः प्रकीर्तितः । सूक्ष्मरः शोणपादश्च सितशुक्तिसमन्वितः ॥ ४ ॥ शुक्लाक्षों दीर्घशब्दश्च जात्या नारः प्रकीर्तितः । हारिद्रौ चरणौ पि सितौ वा कृष्णबिन्दुकौ ॥ ५ ॥
१ A रान्ते । ? A द्धं । ३ A माच्च । ४ D तो । ५ A हवमिच्छद्भिर्ज्ञा । ६
। १२A की १३ A ६ । १४
८ A ण्ड । ९ A ण । १० Aन्धि । ११ १६ Aक्ष्मो । १७ A रावो । १८ D चा ।
Aho! Shrutgyanam
२३९
श्रुतं ।
। १५D द्वय ।
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
AKAARAAKAL
मानसोल्लासः।
[अध्यायः ७ कांस्यवौँ भवेतां वा प्रियङ्गुकणबिन्दुको । कृष्णाश्च नखरा यस्य कृष्णो वा चित्रितोऽपि वा ॥ ६॥ रक्ते' दृशौस्त(त)लस्तब्धो गृध्रजातिः स कुक्कुटः। श्यामला शुक्तयो यस्य किञ्चित्पाण्डुरतां श्रितः ॥ ७ ॥ कृष्णां रेखा वचौलम्भो जातिगोः स कथ्यते । कृष्णवर्णोऽपि दीर्घाङ्गो वक्रतुण्डो रणे क्षमः ॥ ८॥ बृहन्नाथो(दो)महाकायो जात्या श्रोणः प्रकीर्तितः। कृष्णपादो मारनेत्रः कृष्णपक्ष्मातिदीर्घकः ॥ ९ ॥ वैश्चयंश्च शिरो युक्ते(रे) सर्पजातिः प्रकीर्तितः। चरणौ हरितच्छायौ धारे शुक्ले च लोचने ॥ १०१० ॥ आकारो वर्तुलो यस्य तं विद्यात्कूर्मजातिकम् । कन्धरादेशसञ्जातं पिच्छं केसरसंज्ञितत् ॥ ११ ॥ त्रिकस्थानसमुद्भूतं बर्हमन्तक विदुः । पुच्छे जातानि दीर्घाणि सक्थिस्थानि भुजानि तु ॥ १२ ॥ शाखादयोऽपि कथ्यन्ते महिलापिच्छसंज्ञया । तेषामूर्ध्वगते पिच्छे दीर्धेषु(पुं)पिच्छसंज्ञिते ॥ १३ ॥ योपिपिच्छवहिस्थानि वालश्चान्यनृ नि तु । निमांसे (सो) पादतलकः ह्रस्वाच(श्चारणशाखिकाः ॥ १४ ॥ आरे वृत्ते तथा जो संश्लिष्टसमथुक्तिके । बृहतीबीजसङ्काशा शुक्तयः कूपराश्रिताः १५ ॥ क्रोडपश्चिमपादाभ्यां पादयोर्वक्रता भवेत् । क्रोडदेशो विशालः स्याद् ग्रीवा दीर्घा च पीवरा ॥१६॥ स्थूलं शिरस्तथा वृत्तं गर्भस्थे लघुलोचैने । स्थूला कुब्जा तथा वासा पेशलं तनु वासरम् ॥ १७ ॥
१ A क्तौ । २ A शो। ३ A क्ल। ४ A ष्णले । ५ A A चो। ६ A त्यागोः। ७ A तो। CA रण। Aणः। १. A ताः। ११ A च । १२ A यश्च । १३ D ता। १४ A रोच। १५ D सजि । १६ A रिकां । १७A ये। १८ A र्ध। १९ D जंति । २० A सू। २१ A ब्रहन्ती। २२ A भोज।
Aho! Shrutgyanam
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। केसरं विशदं दीर्घ तथा मकरिफा वरी। अंसौ समुन्नतौ शस्तौ ईस्वाहस्वविलम्बिनौ ॥ १८ ॥ कर्कशानि च पिच्छानि पृष्टं कूर्मवदुन्नतम् । संलग्नः पुच्छसन्धिः स्यात्समं पुच्छं प्रशस्यते ॥ १९ ॥ दीर्घा वालाधिका शस्ता महिलापिच्छकं लघु । 'पिच्छे वायसे (चायते) स्यातां पृष्ठभागोऽतिविस्मृ(स्तृ)तः ॥१०२० ॥ एवं लक्षणसंयुक्तान् सुभान्कुक्कुटान् वरान् । धारयित्वा कुलाये च तज्जैस्तान् परितो(पो)षयेत् ॥ २१ ॥ रसोद घृतोपेतैर्दना च परिमिश्रितैः। अङ्गुष्टतर्जनीयोगानिष्पीड्य शिखरं दृढम् ॥ २२ ॥ इतरैः कराशाखाग्रैर्वकं व्यादाय भोजयेत् । धात्रीफलप्रमाणांश्च ग्रासान् यत्नेन भोजयेत् ॥ २३ ॥ पाययेच्छीतलं तोयं क्षालयेदुष्णवारिणा । मुखं सशेखरं लिम्पेन्मृदा लवणयुक्तया ॥ २४ ॥ निष्पावपत्रस्वरसैनिशया वो विलेपयेत् । चक्रामयेत्मनाक् पश्चाधाममेकमतन्द्रितः ॥ २५ ॥ खेलयेत्पांसुले स्थाने करीषे वा सुचूर्णिते । मध्यंदिने कुलायेषु निक्षिपेत् कुक्कुटान् पृथक् ॥ २६ ॥ सायं पुनस्तथा भोज्य (ज्या)तैलेनाभ्यज्य युक्तितः । शेखरं मुखदेशं च जड पादतलं तथा ॥ २७ ॥ उष्णाम्बुप्लुतवस्त्रं तु निष्पीड्य स्वेदयेच्छनैः । वासयष्टिं समारोप्य शाययेन्निशि कुक्कुटान् ॥ २८ ॥ मार्जारादिभयाद्रक्षेत्प्रयत्नात्परिपालकः । एवं सम्पोष्य यत्नेन कुक्कुटान् युद्धकोविदान् ॥ २९ ॥
१ D राः । २ D ह्रस्वौइस्वावलम्बिनौ। ३ A पुष्पं । ४ A घं। ५ पुपि। ६ A गेऽतिविस्मृतः. गोविनिस्तत D गतिविस्मृता। ७ A य । ८ A स । ९ A वाधि । १० A चक्रा । ११A ज्य । १२ A टि।
३१
Aho ! Shrutgyanam
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
मानसोल्लासः ।
पत्रिकालम्बनं कृत्वा ध्वजदण्डं समुत्क्षिपेत् । ततः प्रसादचित्तैश्च कुक्कुटाहवलम्पटैः ।। १०३० || प्रतिपक्षीकृतं (तैः सार्धं योधयेत्कुक्कुटान्नृपः । प्रत्यर्थिषु तथा मुख्यां विधाय प्राणवल्लभाम् ॥ ३१ ॥
तया सह प्रकुर्वीत कुक्कुटाहवमुत्तमम् । वारे शनैश्वरे रात्रौ सम्माये धरणीतलम् || ३२ ॥ सुलिप्ते मन्दिरस्यान्तरालिखेद्रतिमण्डलम् । ग्रन्थिभ्यां नियतं सूत्रं कृत्वैकादशमुष्टिकम् || ३३ ||
चतुरस्रं प्रकुर्वीत तेन मण्डलकं समम् । प्राक्प्रत्यगायते रेखे द्वे मध्ये दक्षिणोत्तरे ॥ ३४ ॥
एवं नवपदं क्षेत्रं समं यत्नात्प्रकल्पयेत् । मध्यमं ब्रह्मणः कोष्टं प्रयमिन्द्रस्य कोष्टकम् || ३५ ॥
वन्हेराय कोष्टं दक्षिणं यमकोष्टकम् |
नैऋ (ऋत्यं नैऋ (ऋतं कोष्टं पाश्चात्यं वरुणस्य च ।। ३६ ।।
वायव्यं वायुसंज्ञं स्यात् कौबेरं भैरवास्पदम् । ईशानमीशकोष्टं स्यात् तत्माच्या बहिरालिखेत् || ३७ ॥
सूर्यमण्डलकं वृत्तमर्थमिन्दोच मण्डलम् । दक्षिणे दिङ्मुखे लेख्यं क्षुरिके शक्रकोष्टके || ३८ ॥
उत्तराग्रा भवेत्पूर्वा दक्षिणा पश्चिमानना । इन्द्र हल्लिखेत्पूर्वं कोष्टकं तत्प्रमाणकम् ।। ३९ ।।
तोरणालङ्कृतं कुर्यात्रिशूलत्रय भूषितम् । अग्निकोष्ठस्य तत्को चुल्लवद्विन्दुकत्रिकम् । १०४० ॥ आलिखेयमकोष्ठस्य याम्ये रेखासमाश्रिता (तम्) | मातृकागणमुद्दिश्य पङ्क्तिो बिन्दुसप्तकम् ॥ ४१ ॥
[ अध्यायः ७
१ A समर्प्य । २ D सेआ । ३ A न्धि । ४ A प्रच्या । ५ D नैर्ऋतं कोष्टं पाश्चात्यं ज्ञेयं तद्वरुणस्य च ।
६ A तेर । ७ D च्यामिन्द्रकोष्टकं । ८ A गोदङ्मुखं । ९D ख्ये । १० A स्यायामे ।
Aho! Shrutgyanam
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४)
मानसोल्लासः।
२४३
त्रिकोणं' वारुणात्कोष्टात्पश्चिम कोष्टमालिखेत् । तत्कोष्ठमध्ये विलिखेत्कुक्कुटस्य पदद्वयम् ॥ ४२ ॥ आग्नेय (य)शिरसं सर्प किलिखेद्वायुकोष्ठके। कौबेरे भैरवो लेख्यो दक्षिणाशाशिरो(रा) महान् ॥ ४३॥ कपाल कत्रिका(का) हस्त(हस्ते) त्रिशूल(लं)डमरूं दधत् । शालिपिष्टस्य कल्केन शवकल्केन वा बुधः॥४४॥ मण्डलं रातिनामेदं शुचौ देशे समालिखेत् । आचार्या मन्त्रमुच्चार्य तत्तत्कोष्टगतान्सुरान् ॥ ४५ ॥ मैन्धिभिर्विविधैः पुष्पैस्ताम्बूलैधूपदीपकैः । इङ्गिताकारतत्वज्ञैर्जयाजयविचक्षणैः ॥ ४६ ॥ सेवाकारैश्च संवेष्टय समन्ताद्रतिमण्डलम् । तत्रैको मोक्षको दक्षः पूर्वाभिमुखमास्थितः ॥ ४७ ॥ त्रिकोणकोष्ठकस्यान्ते स्थापनीयो महीभुजा । तत्रैकं शुभसंयुक्तं सम्पाप्तविजयं पुरा ॥ ४८॥ पाण्डुरं तु सिते पक्षे कृष्णं कृष्णे तु कुक्कुटम् । मोक्षको नेहरेर्यानं कुक्कुटं गरुडं तथा ॥ ४९ ॥ ध्यात्वा समाहितो भूत्वा मन्त्रमुच्चारयेदिमम् । ॐ गरुडानां सुवर्चा पक्षपक्षित्वनंतरं ग्रवत अमा याहि स्वाहा ।।१०५०॥ पक्षौ वक्षः प्रयत्नेन त्रिकोणस्थपदस्थितम् । जयेत्युक्ता विमुञ्चत्तं प्राङ्मुखं चरणायुवम् ॥ ५१ ॥ विमुक्तस्ताम्रचूडस्तु यद्वर्णं कुसुमं स्पृशेत् । चश्वा तद्वर्णमाशंसेत्कुक्कुटं प्रतियोधिनम् ॥ ५२ ॥ ततोऽपसार्य पुष्पाणि वारिणा परिषिच्य च। ।
पुनस्तेनैव करुणं मोक्तव्यश्चरणायुधः ॥ ५३॥ १ A णव । २ A को। ३ A मः। ४ D यः। ५ A प्य । ६ A रू। ७ D ल । ८ A रू । ९ A तत्कोष्ठं च। १० A न्श । ११D सुगन्धै। १२ A हरिमात्मानं । १३ A य । १४ A त । १५A.
न तरय । १६ A ताम्। १७D तत् । १८ Aश्वा । १९D मास्यति । २.Dर्षि।
Aho! Shrutgyanam
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
मानसोल्लासः ।
संलग्नपिच्छेः शीघ्रं चेत्तोरणाभिमुखं व्रजेत् । ऊर्ध्वं दक्षिणनेत्रेण संविष्टो विजयं वदेत् ॥ ५४ ॥ इन्द्रकोष्टं समाविश्य क्षुरिकामुत्तराननाम् । मुष्टौ स्पृशन् जयं शंसेदितरां व प्रदेशतः ।। ५५ ।। तस्मिन्कोष्ठे समास्थाय घनवर्ष महीतले । दक्षिणे वित्तवर्षे च जयं शंसत्यसंशम् ॥ ५६ ॥ तत्र थो यदि बीक्षेत पादयोरन्तरालकम् । दक्षिणेन समानृत्य पश्य पृष्ठं जयं वदेत् ॥ ५७ ॥ तत्रस्थं (स्थो) चरणाग्रेण दक्षिणेन शिखी स्पृशेत् । नासा वा नखराग्रेण मस्तकं वा जयी भवेत् ।। ५८ ।। परस्परसमं स्पृष्टं पक्षयुग्मं समुत्क्षिपेत् । तत्रस्थो जयमाशंसेत्जन्वा दक्षिणं व्रजेत् ॥ ५९ ॥
अनलस्य गृहे स्थित्वा स्थित्वा पिच्छनिभः सरन । पक्षावास्फाल यन्त्रापि जयमाख्याति निश्चितम् ।। १०६० ॥
तत्रस्थः पश्चिमं बिन्दुं स्पृशन्स्था (शैश्चा) प्यप्रदक्षिणम् । परिवृत्य व्रर्जे शीघ्रं कुक्कुटो विजयी भवेत् ॥ ६१ ॥ दक्षिण कोष्ठमाविश्य कूटजं लग्नपिच्छगः । प्रसार्य कन्धरादूर्ध्वं सम्पश्यन् जयमादिशेत् ॥ ६२ ॥ तत्र प्रदक्षिणं कृत्वा घटयित्वा तु वर्त्मनि । दक्षिणे पुच्छमाधूय नेत्रं भित्त्वा जयी भवेत् ॥ ६३ ॥
तत्रस्थाबिन्दुकांश्चञ्च्वा विशमाने (नो) च संस्पृशेत् । मूलं चाँदक्षिणो रा (या) यात्कुक्कुटो विजयी भवेत् ॥ ६४॥
नैऋ (ऋत्य कोष्ठमासाद्य विनिमील्य विलोचने । शेते जठरमुन्नम्य जयैवांश्चरणायुधः ॥ ६५ ॥
[ अध्यायः ७
wwwww
१ D च्छं । २ D नु । ३ D स्पर्श । ४ D वा । ५ A स्थां । ६ A यः । ७ A स्था । ८ A त्यृ । ९ A स्व D ख । १० Dम। A ११ स्कूजत्वा । १२ D यित्वा । १३ A न्दुस्पृशंस्वच्छा Fवस्था । १४ A जंशी । १५ D सजयन् । १६ A स्थू । १७ D वा । १८ A णाराया । १९D तं । २० A यं
Aho! Shrutgyanam
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशतिः४]
मानसोल्लासः।
w
तत्रस्थानलकोणेन कुकवाकुर्विनिर्गतः। तद्गृहे मक्षिकां वापि कीटं वा खण्डयञ्जयी ॥ ६६ ॥ पुच्छं प्रसार्य वा तत्र जानुभ्यां वा महीं स्पृशेत् । निर्गत्य पुरुष चश्वा संस्पृशन् वा जयी भवेत् ॥ ६७ ॥ जलेशस्य गृहे स्थित्वा दक्षिणं चरणं पुरः। प्रसार्य चञ्च्वा भूदेवीं स्पृशन् विजयवान् भवेत् ॥ ६८ ॥ तत्रस्थं दक्षिणं भ्रान्त्वा मुकुलीकृतपुच्छकम् । व्याघवच्चालेद्यस्तु स जयी कुक्कुटो मतः॥ ६९ ॥ विकीर्य पुच्छं तत्रस्थं चञ्च्चा पृष्टं स्पृशन्नपि । पादेन विलिखन् भूमिं जयमाप्नोति कुक्कुटः ॥१०७० ॥ तस्मादुवाट्य वदनं ग्रीवामूर्ध्वं प्रसार्य च । जृम्भते यस्तु पक्षीशस्त्वरितं विजयी भवेत् ॥ ७१ ॥ कुलायकोष्ठके तिष्ठनत्रजन घेटयन् दृशौ । शिशुवज्जृम्भमाणस्तु विजयी चरणायुधः ।। ७२ ।। आसाद्य कोष्टकं वा(प्रा)च्यमुपविश्य महीतलम् । चञ्च्वा स ताडयन पक्षी विजयं ध्रुवमाप्नुयात् ॥ ७३ ॥ तंत्रत्यो रङ्गमूर्धानं खादचञ्च्चा जयी भवेत् । साशं ( सोऽश्नन् ) दंष्ट्रांडुरं वापि कूज॑न्वाऽपि मुहुमुहुः ॥ ७४ ॥ ऐशाने कोष्ठके स्थित्वा भैरैवायुधवाससी। चक्षुर्वा संस्पृशश्चञ्च्या कुक्कुटो जयभाग् भवेत् ॥ ७५ ।। कुबेरभवने स्थित्वा निक्षिपेद्गजवत्पदम् । चञ्चुना दक्षिणे भागे भूमौ घर्षञ्जयी भवेत् ॥ ७६ ॥ अत्क्षिपन्नपि पुष्पं च मोक्षं कर्ष( पञ् ) जयी भवेत् ।
निर्गत्य शाम्भवात्कोष्ठात् भ्रमित्वा च प्रदक्षिणम् ॥ ७७ ॥ A धन्वा । २ A दुद्यम्य । ३ D ल । ४ A न्त्र । ५ D घटयेदृशौ A घटयन्दिशौ । ६ जान्यो। ७.Dी । ८D दनवावि । ९ A दष्ट्राङ्करवा । १० A जत्वा । ११ A नैर । १२ A अयावहम् ।
१३ This line is omitted in D। १४ Aठे ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
मानसोल्लासः।
[अध्यायः
चञ्च्वा स्पृशन्निशानाथं जयमामोति कर्मठः । ब्रह्मणः कोष्ठके स्थित्वा चक्षुषी विनिमीलयन् ॥ ७८ ॥ उत्क्षिपन् वदनं स्थित्वा विजयी चरणायुधः । तत्रस्थः कुक्कुटो गाढं ग्रसते गगनाङ्गणम् ॥ ७९ ॥ उत्क्षिपन् दक्षिणं पक्षं समानं विजयी भवेत् । रेखाद्वितीयसम्पाते कोलके वहते यदि ॥ १०८० ॥ कीलकं वापि चांकामेद्धन्यावा यदि घोणकम् । मध्यमेन खुरेणाथ वामं कण्डूयते यदि ॥ ८१ ॥ धुनुते वामतः पुच्छं तस्य चक्षुर्विभिद्यते । घर्षतो यदि चञ्चग्रं नखस्योपरि संस्पृशेत् ॥ ८२ ॥ सन्धि वा जानुनस्तस्य लोचनं स्फुटति स्फुटम् । वामेन चरणेनाथ स्पृशत्यङ्गं यथा निजम् ।। ८३ ॥ तदङ्ग भिद्यते तस्य नासाँ चञ्चवैव भज्यते । चरणस्य बहिर्भागं चच्चग्रेण निहन्ति चेत् ॥ ८४ ॥ पुच्छं प्रसार्य धुनुते कुक्कुटः स पलायते । पिच्छानि सर्वगात्रेषु विकीर्णानि समानि चेत् ॥ ८५ ॥ देक्षिणं पादतलकं चञ्च्चा कोञ्चति चेत्स्वकम् । नखं वामपदाक्रान्तगाढं यदि विकर्षति ॥ ८६ ।। भिन्दनक्षस्य नयनं कुक्कुटः समराङ्गणे । दक्षिणेन पदेनाङ्ग संस्पृशन् परघातनः ॥ ८७ ।। दक्षिणे नैतचेष्टाभिरादिशेज्जयमात्मनः । ग्रीवामाकुञ्च्य रसनां दर्शयन् यदि जृम्भते ॥ ८८ ॥ उत्क्षिपेच मुहुः शीर्ष सङ्ख्या ( ङ्ये ) वा विषमे जयः।
दक्षिणं पादमुक्षिप्य मुष्टिं बद्धावतिष्ठते ॥ ८९ ॥ १ A भ्र। २ A षा । ३ D येत् । ४ D धुव A F हव । ५ A चक्रोमेह । ६ A उच्चा। ७A सां । ८ A वा । ९ These two lines are omitted in D। १० A द । ११ A णोन्न । १२ A च ।
१३ A टिबद्धव ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः।
२४७
NAMMorn.rani
उत्क्षिप्तं दक्षिणं रूपं जयमाप्नोति निश्चितम् । प्रसायें दक्षिणं पादं सह पक्षेण कुक्कुटः॥१०९० ॥ अस्पृशन् रभसा कपञ्जयं शंसत्यवारितम् । दक्षिणाङ्गकृताचे(श्वे)ष्टाः सौष्ठवेन समन्विताः ॥ ९१ ॥ रत्यामन्यत्र देशे वा खलके वा जयावहाँः । गतिः प्रदक्षिणा शस्ता वीक्षणं चारु दक्षिणम् ॥ ९२ ॥ अङ्गस्य गाढता श्रेष्ठा कथिता सोमभूभुजा । रत्या निरीक्षमाणानां दक्षिणा(णं) जेयवादिनाम् ॥ ९३ ॥ दीपोत्थकज्जलेनैषां शिखरे तिलकं न्यसेत् । निदाघे घटिताः पक्षा आषाढे सम्भवन्ति च ॥ ९४ ॥ यावदाश्वयुजं मासं तावत्तिष्ठन्ति कोमलाः । अत ऊर्ध्वं दृढाः पक्षास्ततो युद्धं प्रकल्पयेत् ॥ ९५॥ योधयेत्फाल्गुनं यावत्तत ऊर्ध्वं न योधयेत् । रत्याँ निरीक्ष(क्षि)ता ये तु कुक्कुटा जयकारिणः ॥ ९६ ॥ प्रातः स्वल्पं प्रभोज्याथ निरीक्ष्याः पुनरेव ते । शुभाश्चेष्टा भजेयुर्ये प्रभाते कुक्कुटाः पुनः॥ ९७ ॥ युद्धार्थ परिकल्प्यास्ते पञ्च सप्त नवाथवा। पट्टैश्च पट्टिकाभिश्च चन्दनैः कुडमैरपि ॥ ९८ ॥ माल्यैराभरणैश्चैव मण्डनीयास्तु नर्तकाः । वादकाः पुष्पमालाभिर्मण्डनीयाश्च लेपनैः ॥ ९९ ॥ अन्योन्यविजयस्वच्छाः(स्थाः) कुक्कुटायोधलम्पटाः । कुक्कुटायोधविज्ञाने तज्ज्ञा भूष्याश्च मण्डनैः ॥ ११०० ।। सेवकारान् जयंज्ञांश्च विशेषेण विभूषयेत् । उच्छिंतध्वजकादन्ये ध्वजं हर्तुं समुद्यताः ॥१॥
A त्या।
१D सत्येन । २Dठावन । ३ हः। ४ A त्या । ५ D गज । ६A ते। ८ A यो। ९ A याज्ञा। १. A थि । ११ A वान्य।
Aho ! Shrutgyanam
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
ઘટ
मानसोल्लासः ।
तूर्यनादेन संहृष्टाः कुर्वन्तः सिंहगर्जितम् । कल्पितान कुक्कुटान् श्लिष्टांन्संयोज्य च पुनः पुनः ॥ २ ॥
प्रहरत्रितयादूर्ध्वं गच्छेयुः खलकं पुरः । त्रिंशद्धस्तपरीणाहं सुवृत्तं वेदिकानृतम् ॥ ३ ॥
बहुभिर्मेढकैर्बद्धं समन्तान्मृदुभूमिकम् । पांसुकर्दमपापाणैर्वर्जितं सुसमं दृडम् ॥ ४ ॥
पूर्वद्वारसमोपेतं पुष्पमण्डपिकायुतम् । प्रतीच्यां कल्पितास्तेऽपि पूर्ववृद्धायनोच्छ्रितम् ॥ ५ ॥
खळकं कारयेद्राजा मण्डपेन समन्वितम् । राज्ञः पक्षस्थिताः सर्वे विशेर्युः खलकं पुरा ॥ ६ ॥ उत्तरे दक्षिणे वापि दिग्भागे खलकान्ततः । आच्छाद्य कुक्कुटान्वस्त्रैस्तिष्ठेयुः पङ्क्तिस्तु (स्तु) ते ॥ ७ ॥ प्रतिपक्षागमालोके कारयेर्त्तत्पराजयः (यम्) । ततो राजा समभ्येत्यं वेदिकां परिभूषयेत् ॥ ८ ॥ अन्तःपुरपुरन्ध्रीभिः प्राणवल्लभया युतैः । पूर्वोक्तेन प्रकारेण तदन्यां दिशमाश्रिताः ॥ ९ ॥ नृपपक्षस्थिताः सर्वे तिष्ठेयुर्गलगर्जना: । ततः पूर्वं प्रविष्ठ ये चेष्टाविज्ञानकोविदाः ॥ १११० ॥
वीक्षेन्तव्यमुद्दाघन्कु( नन्तरुद्घाट्य कुक्कुटान्स्वान्पृथक् पृथक् तत्र यः शुभचेष्टाभिरन्वितस्तन्नियोधनम् ॥ ११ ॥
प्रकुर्युः कुक्कुटं तज्ज्ञा आरे चान्योऽस्य तेजयेत् । क्षुरिकाग्रेण संलेख्य पुत्रिकां धरणीतले ।। १२ ।।
[ अध्यायः ७
नेत्रमृदमादाय दक्षिणारानने क्षिपेत् ।
यथा तैक्ष्ण्यं भजेदारा तथा कुर्वीत कोविदः ॥ १३ ॥
१ A ष्टायुद्धायोग्याश्च वा विष्टान् समतिकवायुना । २ D डकैर्बद्धं सङ्गतान् । A ढके तद्वत्स । ३ A ४ Aषा । ५ A त । ६A त्रि । ७ A क्य । ८ D खलकेतत्प । ९ D सभामेत्य । १७ Aप। ११ Dवि । १२ Dर्व । १३ Aति । १४ A क्ष्ये । १५ वन्यमुद्धाव्य कुक्कुटान् । १६ D न्यौस्थि
Aho! Shrutgyanam
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः ।
आरे' सुनिशिते कृत्वा भूमिं संसिच्यै वारिणा । तन्मृदा लेपयेत्पादावृर्ध्वं तालु च शेखरम् ॥ १४ ॥ अनेनैव प्रकारेण कुर्वीरन (र्वाणः) प्रतिशस्यते । मिश्रपादो जयेच्छ्रेतं तं श्वेतो जयमेचकम् ॥ १५ ॥ मिश्रपादो जयेत्कृष्णं एवं पक्षान्तरैः सह । योधयेत्कुक्कुट पश्चाद्धीरनीराजितावुभौ ॥ १६ ॥ विकीर्णकैंसर गतौ चञ्चुप्रान्तेन मस्तकम् ॥ का' केसरारूढां चिबुकालम्बिकूर्चिकाम् ॥ १७ ॥ पृष्टं पुच्छं तथा धृत्वा धृत्वा पादप्रहारिणौ । मुखदेशं विभिन्दैन्तावारघातैः परस्परम् ॥ १८ ॥ वमन्तौ रुधिरं वक्रात्स्रवच्छोणितमस्तकौ । मुहुर्मुहुर्धार्यमाणौ मार्जकैः पाय ( द ) तोदकैः * ।। १९ ॥ वाससा विश्वै(ध्य) मानौ तौ मुच्यमानौ पुनः पुनः । धावन्तावनुगच्छन्तौ भ्रमन्तौ तापि कचित् ।। ११२० । सम्मुखौ पुनरायातौ गोपायन्तौ च मस्तकम् ।
५४
दष्टञ्चुक शान्तौ पाता (दा) घातविवर्जितौ ॥ २१ ॥ निश्वसन्तौ विकास्यास्यं शिथिलीकृतपक्षकौ । लपुच्छी स्तब्धपादौ तिष्ठन्तौ च संवेपथू (थु ) || २२ ॥
सन्दष्टचञ्चु शान्तौ पादाघातविवर्जितौ । लिखिताविव तिष्ठन्तौ जङ्घान्तर्न्यस्तमस्तकौ ॥ २३ ॥
93
पक्षान्तस्थितवत्रौ च मिथः संश्लिष्टकन्धरौ । घटिताविव तिष्ठन्तौ चेष्टहीनौ च कुक्कुटौ ॥ २४ ॥
न स्पृष्टव्यौ तथा भूमौ मार्जकैर्धर्मवर्तिभिः । अन्यथा मार्जकैः स्थित्वा प्रोज्छनीयमसृक् सृतम् ॥ २५ ॥
२४९
१ D रा । २ Aमि । ३ Aध्य । ४ A लू । ५A ष्ण । ६ Aटं । ७ D करगा चञ्चु । ८ D निज ।९ A टी । १० A र्च । ११ A कृ । १२ D द्यायचा । १३ A तं । १४ A के । १५D विद्य । १६ A तु । १७ D तावपिच । १८ D Omits this line | १९A क्ष्ण । २०D यथापशू । २१ A गत । १२ D ट । २३D च्छा ।
३२
Aho! Shrutgyanam
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
मानसोल्लासः ।
आच्छाद्य वाससा वक्रं कुक्कुटस्योंधिमार्जकः ।
४
स्वदयेच्च (च्छु) सितैरुष्णैर्वारं वारं मुखोद्गतैः || २६ ||
उद्धरेत्पतितं शीघ्रं वक्त्रं च रु( ऋ) जुतां नयेत् । श्रमात पाययेत्तोयं मार्जकानामयं विधिः ॥ २७ ॥ कुक्कुटो यस्य पक्षस्थः महरेच्च यदा यदा । तदा तदा प्रकुर्वीरंस्तत्पक्षा गलगर्जितम् ॥ २८ ॥ मीलिते स्फुटिते चापि लोचने कुक्कुटस्य हि । भने तु चञ्चुपुटके श्रमे वा रक्तनिर्गमात् ॥ २९ ॥ स्वीकृत्यापजयं युद्धाद्वारणीयः स्वकुक्कुटः । मृते पलायिते वापि दैवादेव पराजयः ।। ११३० ॥ पराजितानामारुह्य पृष्ठ" स्कन्धं जयावहाः । परिहार (स) परैर्वाक्यैर्लज्जयेयुः पराजितान् ॥ ३१ ॥
परिहासपदार्थाभिर्मर्मभिर्मि(न्मि) तगालिभिः । त्रिपदीभिः सरामा (गा) भिर्गापयेयुः पराजितान् ॥ ३२ ॥ पराजितानामाकृष्य ध्वजयष्टि(ष्टिं) बलात्ततः । जयतुर्यनिनादैश्व नृत्यद्भिर्नकैः पुनः ॥ ३३ ॥ करेणुकां समारोप्य कुक्कुटं विजयोर्जितम् । भ्रामयेत्पुरवीथीषु जयी भवनमानयेत् ॥ ३४ ॥ दिवसत्रितयन्त्वेवं विन पानीयसङ्ख्यया । योधयेत्कुक्कटन्श्रेष्ठान् जयावधि महीपतिः ।। ३५ ।
अवधं युद्धयमानस्य ज्ञातुं नाली प्रकल्पयेत् । सौवर्णी राजतीं वापि द्वाविंशत्यङ्गुलायताम् || ३६ ||
१९
मध्ये वक्रां सुसंश्लिष्टां स्रोतसलोकवाहिनीम् । वदनेन पिधायास्यं तस्यां शून्यां (न्यं) तु वेदयेत् ॥ ३७ ॥
[ अध्यायः ७
१ A सा । २ D स्य वि । ३ A खे । ४Dमि । ५A जनां । ६ A आ । ७ A कांग | D वा । ९ यस्तु । १० D तस्यदैव । ११ D न्वितान् । १२A ताः । १३ A भिम । १४ A .... । १५ D नपा । १६ D चिन्ता । १७
। १८ D सो । १९ A नी । २० D स्याः । २१ D नुं ।
Aho! Shrutgyanam
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः 8 ]
मानसोल्लासः ।
पूर्णा (f) तदन्येन वक्रेण विनिवेशयेत् । तोयपूर्णे घंटे तस्य रन्ध्रानिष्कासयेज्जलम् ॥ ३८ ॥ ज्वा (ना)लायाः श्लक्ष्णभागस्तु मेयस्त्वङ्गुलमानतः । एकद्वित्रिक्रमेणैवं यावत्स्याद्वादशाङ्गुलम् ।। ३९ ।। ततोऽर्कवारे सम्प्राप्ते योधयेदग्रयोधिनम् । सोमवारे तु धौरेयं कुक्कुटं जलसङ्ख्यया ।। ११४० ॥ सलिलस्याढकं यावन्नाडी रन्ध्रेण संश्रयेत् । मुख्यं तु योधयेत्तावत्तदर्धेनाग्रयोधिनम् ॥ ४१ ॥ द्वितीये सोमवारे स्यादाढकद्वितयं ततः । योधयेदाढकन्त्वेकं द्वौ प्रस्थौ विनिवारयेत् ।। ४२ ।।
पुनः प्रस्थद्वयं यावद्येोधयेत्कुक्कुटौ मिथः । तद्वत्कुक्कुटमानार्थं योधयेदग्रयोधिनम् ॥ ४३ ॥
९
तृतीये सोमवारे स्यादाढकत्रितयं जलम् ।
दाढकं त्वेकं द्वौ प्रस्थौ विनिवारयेत् ॥ ४४ ॥ पुनरप्याढकं युद्धं प्रस्थमेकं निवारयेत् । अवशिष्टं पुनः प्रस्थं योधयेच्चरणायुधम् ।। ४५ ।।
एवं द्वादशरात्रेषु नीरमानं प्रकल्पयेत् । ध्वजयष्टिं तु गृह्णीयुः सम्प्राप्तैविजया बलात् ॥ ४६ ॥
अनेनैव प्रकारेण पञ्च सोमस्य वासरान् । योधयेत्कुक्कटान राजा पुंरयोधिभिरन्वितान् ॥ ४७ ॥
षष्ठे वारे तु सम्प्राप्ते कुलार्य परिमण्डयेत् । वस्त्रैः काञ्चनपट्टैश्च पट्टिकामात्यकैरपि ॥ ४८ ॥ पराजितस्ततः पूर्व वर्णमाख्याय निक्षिपेत् । कुलाये कुक्कुटं प्रातरन्यैरप्राप्तदर्शनम् ॥ ४९ ॥
१ A न । २ Aर्ण । ३ A स्यां । ४ D मिथ । ५A स्तौ । ६A च्छाद । ८ A धं । ९ A जि । १० A यात् । ११ A से । १२ D पुनरर्चाभिरर्चितान् ।
Aho! Shrutgyanam
२५१
७ A ध्वजक ।
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
मानसोल्लासः ।
बलवान्निक्षिपेत्पश्चात्कुक्कटं जयशंसिनम् । न विलम्बं प्रकुर्वीत मासांर्धादधिकं कचित् ॥ ११५० ॥ निम्बपत्रमपामार्ग सूर्यपत्र (अं) ससर्पपम् । बदरीवटपत्रं च ब्रह्मदण्डसमन्वितम् ॥ ५१ ॥ बन्धनीयं कुलायाग्रे रक्षार्थ परिकर्मणे 1 रजकावटतोयेन सेचनीयौ कुलायकौ ॥ ५२ ॥ नानाविधफलैः पुष्पैर्नानापकान्नवस्त्रकैः । मण्डयेर्त्तं यथाभागमा समन्तान्मनोहरम् ॥ ५३ ॥
कुलाये मण्डिते सम्यक् करिणीमधिरोपयेत् । उषिता नर्तकाः सर्वे नृत्यन्तो यान्ति ते पुरः ॥ ५४ ॥ किरन्तः पुष्पवर्षाणि कुर्वन्तः सिंहगर्जितम् । महता तूर्यघोषेण पूरयन्तो दिगन्तरम् ॥ ५५ ॥
विभूत्या परया युक्ताः पक्षद्वितयवेदिनः । प्रविशेयुः खलं सर्वे पराजितपुरःसरम् (राः) ॥ ५६ ॥
ताम्बूलं चन्दनं पुष्पं वस्त्राण्याभरणानि च । यथायोग्यं प्रयच्छन्तो" मानयन्तः परस्परम् ।। ५७ ॥ नीडयोः स्थितयोः पूर्व मण्डितौ तौ कुलायेकौ । न्यसेन्टपतिशोभार्थं स्त्रे स्वे पक्षं(क्षे ) निजं निजम् ॥ ५८ ॥ पुरा जिता: कुलायस्या (स्था:) परिमार्ग्य पुरोऽङ्गणम् । पृष्ठतस्तूर्यनादेन समुत्पाद्यै (ट्य) कुलायकम् ॥ ५९ ॥
वीक्षेरन्कुक्कुटं तज्ज्ञा जयाय जयसूचकम् । कुक्कुटाभिमुखो भूत्वा यदि तिष्ठति कुक्कुटः ॥ १९६० ॥
न निस्सरति नीडा तिष्ठेद्वापि पराङ्मुखः । भवेत्सङ्कुचितग्रीवो निर्दिशेत्स पराभवम् ।। ६१ ।।
[ अध्यायः ७
१ D नः ।- २ A सार्धाधि । ३ D ण्डी । ४ A र।५ A खलमण्डपिका पुष्पैः फलैः । ६ A तां तथा ७ A नन्ता । ८AD र । ९D ले । D १० न्त्या । ११ A कैः । १२ D स्याः । १३ A परमार्जा | १४ D ग । १५ A द्य । १६ A यस्ति ।
Aho! Shrutgyanam
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः।
२५३
भूमिं विलिख्य तिष्ठेद्वा अखिलानाह्वयन्ति(येत) वा। प्रदक्षिणमुपादृत्य निःसरन् विजयी भवेत् ॥ ६२ ॥ कुक्कटे निर्गते नीडाद्वा(दा)रे कुर्यात्सुतेजिते । क्रमोऽयं प्रतिपक्षेऽपि शेषं कुर्वीत पूर्ववत् ॥ ६३ ॥ योधयेत्पूर्ववत्तौ तु पूर्ववच्च जयाजयौ । हसनं खेलनं गीतं सर्व पूर्ववदाचरेत् ॥ ६४ ॥ युद्धेरन्कन्दुकैः पुष्पैः पक्षिणोयुध्यमानयोः । हरिचन्दननीरैश्च सिञ्चयुर्नलयन्त्रकैः ॥६५॥ कुक्कुटाकारमुद्राभिः कुङ्कुमाइंगभिरङ्कन्येत् । पराजितं जयोपेतो ललाटे दोष्णि वक्षसि ॥ ६६ ॥ एकादशस्तथा वारो नान्दीमुख इति स्मृतः । द्वादशः कृत्तिकट्टाख्यस्तत्राप्येवं विभूतयः ॥ ६७ ॥ तत ऊर्ध्वं न युद्धं स्यात्कुक्कुटानां कथश्चन । कुक्कुटानां विनोदोयं कथितः सोमभूभुजा ॥ ६८॥ शृङ्गारवीररोद्राश्च कृता(करुणा)द्भुतभयानकाः। बीभत्सहास्यसंयुक्ता रसाः स्युः कुक्कुटाहवे ॥ ६९ ॥ कुंकवाकुविनोदोऽयं वर्णितः सोमभूभुजा ।
इति कुक्कुटविनोदः ॥ ७ ॥ इदानीं कथ्यते कोऽपि विनोदो लावकाश्रयः ॥ ११७० ।। । कच्छेलः खारडीकश्च गोरञ्जो विगरैस्तथा। पांसुलीश्वे (लोवे)रसश्चैताः षट् स्युर्लावकजातयः ॥ ७१ ॥ कच्छमण्डलसम्भूता कच्छेलौः परिकीर्तिताः । तद्वेश्यास्तु गृहोत्पन्नाः खारडीका भवन्ति ते ॥ ७२ ।। . विन्ध्ये सह्ये च सम्भूता लावकाः शोणमस्तकाः। गेरञ्जा इति विख्याता युद्धकर्मणि मध्यमाः ॥ ७३ ॥
१४
१D महिलांचा । २ A क । ३ D पु। ४ A ङ्का, को। ५Dङ्कादि। ६ A श कृत्तिकादा। D... adds this lines ८D छे । ९D का। १. D लः। ११ A D लो श्वेतस्क्ताश्च । १२ Dछ। १३D छ । १४ A द्वत्स्या । १५Aध्य । १६ D गौ।
Aho! Shrutgyanam
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४
मानसोल्लासः ।
खारडीकेण संयुक्ता (क्ता) गेरज्या जायते तु यः । विस (ग): स समाख्यातो मिश्रजातिर सन्ततिः ॥ ७४ ॥ कच्छदेशं परित्यज्य ये ऽन्यदेशसमुद्भवः । अशोणमस्तकाः सर्वे लावकः पाशु(पांसु) लाः मताः ॥ ७५ ॥ खारपांसुलयोगाच्च लावः समुपजायते ।
वेसो नाम संज्ञेयः पांसुलानामयं बली ॥ ७६ ॥
सर्वेषामुत्तमः प्रोक्तः खारडीर्विगरेंस्तथा । वेरसः पांसुलश्चैव मध्यमौ परिकीर्तितौ ॥ ७७ ॥ पांसुलः पांसुलेनैव युद्धं कर्तु भवेत्क्षमः ।
१२
93
रञ्ज लाविका श्रेष्ठा विगराणां प्रसूतये ॥ ७८ ॥ युद्धकर्मसु गेरञ्जः कातरः परिकीर्तितः । आश्विनात्फाल्गुनं यावत् प्रसूयन्ते तु लावकाः ॥ ७९ ॥ तिलपुष्पोद्गमे जाता अग्रजाः परिकीर्तिताः । मधूकपुष्पपते तु पाश्चात्या इति विश्रुताः ।। ११८० ।। तस्मादाश्वयुजे तेषां यत्नं कुर्वीत सन्ततेः ।
tal arts orat महाकाय सुलक्षणी ॥ ८१ ॥ पञ्जरेषु विनिक्षिप्य पोषयेच्च प्रयत्नतः । गोधूमपिष्टसंयुक्तं मत्स्यमांसं सुचूर्णितम् ॥ ८२ ॥ जलोष्मस्वेदितं तैलमृदितं करपल्लवैः । अङ्गुष्ठतर्जनी योगात्सेवाः कुर्याद्यथाविधि ॥ ८३ ॥ ताभिः सम्पोषेयल्लावी यवनालार्द्रबीजकैः । प्रियङतण्डुलैस्तद्वन्मुद्गानां विदलैरपि ॥ ८४ ॥
त्रिकालं भोजयेदेताः पानीयं पाययेदपि । करीषसार्ध (सान्द्र) चूर्णेन मृत्तिकामिश्रितेन च ।। ८५ ।
[ अध्यायः ८
१ D वरार । २ A यो । ३ A वा । ४ A आ । ५A कास्ते । ६ DS शुभावहाः । ७A has
।
विचित्रं यस्य सर्वोङ्ग विगरो नामनामतः । ८ A चे ९ A य १३ D व । १४ D यातेषु । १५ A गो । १६ A ज्जीः । २• D सर्वाः । २१ A द्यवाकृतीः ।
१०D लः । ११ A वत्क्ष । १२A गो । १७ A र्लावार्म । १८ A यः । १९ A णः ।
Aho! Shrutgyanam
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
प्रियङधान्यमिश्रेण तद्विहारं प्रकल्पयेत् । पूर्वाह्णे चापराह्णे च किञ्चिदातपगोचरे ॥ ८६ ॥ मध्याह्ने शीतले स्थाने स्थापयेत्ताः प्रयत्नतः । गैरैजीसङ्गमेच्छ सर्वे सुरतकांक्षिणः ॥ ८७ ॥
जैने वीर्यसम्पन्नाः पोष्याः खारडिका वैराः । पुष्टासु तासु लावीषु विवृते स्मरमन्दिरे ॥ ८८ ॥ गर्भाशये समुच्छ्रने मृदुस्पर्शे व्यवापयेत् । गर्भाशये घनीभूते व्यक्तीभूते चा ( तथा ) ण्डके ॥ ८९ ॥ न लगेद्वीर्यतो यस्मात्तस्मात्काले व्यवापयेत् । वंशकाग्रशलाकाभिस्ताउँदेशे परान्विताः (ताम् ) ।। ११९० ॥ ऊर्ध्व(र्ध्वं वस्त्रेण सन्नद्ध मध्ये कम्रा ( म्रां ) विभाजिताः (ताम् ) । पार्श्वद्व ( द्वा) रेद्वयोपेता (तां) मध्यद्वारसमन्विताः (ताम् ) || ९१ ॥
अन्तैर्जलं (जालीं) विधायास्यां दम्पती विनिवेशयेत् । एकस्मिन् कोष्ठके लावीमन्यस्मिन् लावकं क्षिपेत् ॥ ९२ ॥
रते”(बु)मेलयेत्तौ तु द्वारमुद्घाट्य मध्यमम् । सम्भोगे विनिवृत्ते च पूर्ववत्पञ्जरे क्षिपेत् ॥ ९३ ॥
अन्येद्युः प्रसवे प्राप्ते लैघ्व्यां जाल्यां विनिक्षिपेत् । गण्डकानि (कान्नि) क्षिपेद्दारि पार्श्वद्वारसमन्वितम् (न्) । ९४ ॥
गण्डकाभ्यन्तरे लावी प्रविश्याण्डं प्रसूयते ।
एकान्तरे दिने प्राप्ते लावी सूते तथाण्डकम् ।। ९५ । एवं क्रमेण सासू बहून्यण्डानि लाविका । पश्चादाच्छाद्य पक्षाभ्यां विवर्सेच्छिशुवत्सला ।। ९६ ॥ त्रिसप्तवासराण्येवं रक्षत्यैण्डान्यहर्निशम् । anaण्डानं निर्भिद्य निःसरन्ति च पिल्लिकाः ॥ ९७ ॥
३५५
१ A गो । २ A श्वश्वत्स । ३ A जान । ४ A च । ५A प ६ these two lines are omitted in D। ७ D वद्देशे । ८ A द्धांमध्य । ९ A या । १० A नर्जलीं । ११ D ररतुमें A रते. । १२ A ल. द्रयां । १३ D तम् । १४ A संशि । १५ A न्त्य ।
Aho! Shrutgyanam
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
मानसोल्लासः ।
तदानीमेव धावन्ति मात्रा सह बुभुक्षिताः ।
ततः पुनः क्षिपेज्जाल्यामेव वा सह पिल्लकान् ॥ ९८ ॥ वैभिकीय (प्रकीटा) न्समादाय ग्रासार्थं तत्र निक्षिपेत् । ततः क्रमात्प्रवर्त(र्ध)न्ते स्त्रीपुंसाकृत्यलक्षिताः ॥ ९९ ॥ ऊर्ध्व (र्ध्वं ) मासद्वयाद्वयक्तिं यान्ति पिच्छविशेषतः । सितासिताभ्यां राजिभ्यामुपेतैः पिच्छकै रुजः (चः) ॥ १२० ॥ विभ्राणस्ते पुमांसः स्युस्ताम्रवर्णैस्तु योषितः । त्रिचतुर्मास कादूर्ध्व युध्यन्ते ते परस्परम् ॥ १ ॥
पृथक् पृथक् प्रकर्तव्याः पञ्जरेषु विचक्षणैः । ततः संवत्सरादूर्ध्वं युद्धयोग्या भवन्ति ते ॥ २ ॥ अन्योऽन्यं न सहन्ते ते दर्पक्रोधसमन्विताः । ततः श्रमं कारयेत लावकान्युद्ध सिद्धये || ३ || लावीं पञ्जरके कृत्वा दर्शयेल्लावकस्य ताम् । आकृष्य पञ्जरालावं निक्षिपेत्तमवान्तरे (वस्तरे ) ॥ ४॥ कुलका नि(रेनि) मिंते कलशान्विते । अधस्ताच्च तथा चान्यं लावकं रक्षयेदुधः || ५ |
दर्शयेत्तस्य कोपार्थं लावकं दर्पकूजितम् । वि(पि) धायै योधयेत्तन्तु वस्त्रवेण्या तु लावकम् || ६ ॥
अवस्तरे स्थितं लावं वस्त्रेणाच्छाद्य शिक्षकः । लावक धारणरज्वा लम्बितां दर्शयेत्पुरः ॥ ७ ॥ धावतं (त्तां) शनैस्त लावकं चनुधावयेत् । उत्क्षिपेच्च तथा चोर्ध्वं पक्षयोर्दासिद्धये ॥ ८ ॥ पोषयेच्च तथा लावं पोषितौ पितरौ यथा । पुष्टं जितश्रमं शूरं योधयेत्प्रतियोधिना ॥ ९ ॥
[ अध्यायः ८
७दु।
१ A पे. ल्या । २ D नम्रकीडात् । ३D च्छं । ४ D रः । ५A गैस्त । ६D सि । ८ D पीद्गन्ध । ९ A रांला । १० D drops these lines | ११ D ये । १२ D वान्त । १३ A की । १४ Dणीं । १५ A ता । १६ A यन्पु । १७ A श्रा । १८ द्ज्ञो । १९ A वा ।
Aho! Shrutgyanam
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४)
मानसोल्लासः । धात्रीफलसमाकारं मस्तकं स्थूलकन्धरम् । आपाण्डुरध्रुवं इस्वलोचनं कुब्जचञ्चुकम् ॥ १२१० ॥ . . स्व(ख)राल्पपिच्छसंयुक्तं स्थूलोसू वृत्तजङ्घकम् । विशालाशितलं दीर्घचरणाङ्गुलिसन्ततिम् ॥ ११ ॥ पृथुत्रिकं महाकायं युद्धकर्मविशारदम् । ज्यैष्ठिकं तं प्रकुर्वीत लावकं वरलक्षणम् ॥ १२ ॥ अन्तज्येष्टिं प्रकुर्वीत तनो न्यूनं च लावकम् । ततोऽपि गुणतो हीनं विदधीती(ता)अयोधिनम् ॥ १३ ॥ मात्राशतेन विशेन पूर्यते तोयधारया । तावत्पात्रं प्रकुर्वीत सा नाडी कथिता बुधैः ॥ १४ ॥ एकां च योधयेन्नाडीमेकां विश्रामयेत्तथा । विश्रामनाडीः सन्त्य॑ज्य योर्धयेत्पश्चनाडिौंः॥१५॥ एवं च योधयेत्सप्त नव चैव यथाक्रमम् । हीनं मध्यं तथा ज्येष्ठं लावक धरणीपतिः ॥ १६ ॥ वितस्त्युत्सेघसंयुक्त हस्तत्रितयविस्तृतम् । किल(लि)ञ्ज कारयेनीलं वस्त्रेण परिगुम्फितम् ॥ १७ ॥.... वृत्ताकारं तथादाय भूतले खलकाकृति । अखाडै नाम तज्ज्ञेयं लावौ तत्र तु योधयेत् ॥१८॥ खारडी खारडीकेन विगरं विगरेण च । चे(वे)रसञ्चे(संवे)रसेनैव कच्छलं कच्छलेन च ॥ १९ ॥ प्रागेव लावयुद्धार्थ योधयेदग्रयोधिनम् । अन्तयेष्ठि(ष्ठि) तथा मध्ये ज्येष्ठिमं तं (मन्ते) नियोधयेत् ॥ १२२०॥ . उत्क्षिप्तोऽवस्तरो येन निजलावकदर्पतः।
तस्य चेयुध्यते लावो नवनाडीकृतावधि ॥२१॥ १ A त । २ A स्वा । ३ A घे । ४ A ति । ५ A l । ६ A तो। ७ डी। ८ A न्त । .D ज । १. A काम् । ११ D कनिष्ठं । १२ D कल A का । १३D तिः । १४ A ण्डं । १५ १६ D त्पश्चेत । १७ D बलवान् दर्पतः स्वयम् । १८ D धिः ।
मध्ये।
Aho ! Shrutgyanam
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
मानसोल्लासः ।
नवनाड्यन्तरे लावो विजयेत परं यदि । विशेषेण जयस्तस्य तस्यैवावस्तरो चलः || २२ ॥
नवनाडीकृतां सङ्खयां पूरयेद्यदि लावकः । तस्यैव विजयो ज्ञेयो येनावस्तर उच्छ्रितः ।। २३ ॥ त( उ ) च्छ्रितावस्तरस्यैव लावो यदि पलायते । नवनाड्यन्तरे तस्मात्तदन्यो जयमाप्नुयात् ॥ २४ ॥ अवस्तरं च गृह्णाति कृतं च पर्णमनुते । साम्येपणो न लभ्येत समयाद्वा स लभ्यते ॥ २५ ॥ ततः प्रवर्तते (येद्) युद्धं लावकानां नरेश्वरः । युध्यमानास्ततो लाबाचञ्चत्रा चर्वन्ति मस्तकम् || २६ ॥ कृकाटिकां विधृत्वाऽथ चत्वारो (त्वरयो ) त्प्लुत्य पक्षकैः । प्रहरन्ति मुहुः पादैर्भ्रमन्ति च विमुक्तये ॥ २७ ॥ ग्रीपुच्छं समुत्पाद्य (ट्य) चञ्च्वा भिन्दन्ति कन्धराम् । सन्दशवत्तथा नासां दृष्ट्वा निघ्नन्ति पक्षकैः ॥ २८ ॥
रक्ताक्तशिरसः केचिद्भिन्नग्रीवास्तथापरे । पिच्छैर्वियोजिताः केचित्केचिलोहितत्रकाः ॥ २९ ॥
उत्खातनखराः केचित्केचित्पाटितवर्ष्मकाः । उत्प (त्स) नचञ्चवः केचित्केचिदुद्वान्तशोणिताः || १२३० ॥ पुरः प्रसर्पिणः केचित्केचित्स्युँरपसर्पिणः । आक्रान्तकन्धराः केचित् केचिदुन्नमिताननाः || ३१ ॥ खस्ताङ्गाः स्रस्तपक्षाच स्रस्तग्रीवा विलोचनाः । स्रस्तजङ्घोरुपादाश्च स्रस्तसर्वाङ्गसन्धयः || ३२ ॥ धैर्यमालम्ब्य तिष्ठन्ति व्यादायास्यं च (श्व) सन्ति च । तथाप्यमर्षा युध्यन्ते गात्रादभ्यधिकं मनः || ३३ ॥
[ अध्यायः ८
१A फ । २A द । ३ A दौ । ४ D वां । ५A६A लोहितैः । ७ A त्सु
८ A नमदा |
Aho! Shrutgyanam
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः।
प्रागवस्थामतिक्रम्य त्वरितं प्रहरन्ति ये । गर्लगर्जश्च कुर्वन्तो नदन्ताश्च मुहुर्मुहुः ॥ ३४ ॥ लाविका ये न वीक्ष्य(क्ष)न्ते ये च सङ्कोचिताङ्गकाः । पलायनपरा ज्ञेया लावकास्ते विचक्षणैः ॥ ३५॥ एवंविधान्परिज्ञाय पलायनपरायणान् । अन्ययुद्धं समामन्त्र्य युद्धादेनान्निवारयेत् ॥ ३६॥ एकस्य चञ्च्चां भग्नायां साम्यं कुर्याइयोरपि । अक्षमत्वेन वा साम्यं द्वयोः कुर्यान्महीपतिः ॥ ३७॥ शूरस्य विजयं दद्याद्विद्वतस्य पराजयम् । इति लावकयुद्धेऽस्मिन् समयः परिकीर्तितः ॥ ३८ ॥
इति लावकयुद्धः (द्धम्)॥८॥ इदानीं मेषयुद्धस्य विनोदः परिकीर्त्यते । मेषास्तु त्रिविधा ज्ञेयाश्चोलिका जटिलास्तथा ॥ ३९ ॥ शोणवर्णास्तथा चान्ये सम्भवन्ति महीतले । भ्रुवौ पादाश्च जठरं पुच्छमास्यं श्रुतिद्वयम् ॥ १२४०॥ इति यस्य भवेत्कृष्णं चोलिकः स उदाहृतः । एतैरेव भवेच्छ्रुतैः कुँष्णश्चोत्साहचोलिकाः (क) ॥ ४१ ॥ रोमाणि स्थूलदीर्घाणि तेषां कण्ठे स्तने तथा । येन केनापि वर्णेन यस्योर्णा सर्वगात्रजा ॥ ४२ ॥ मृदुला गुम्फिता श्लक्ष्णा जटिल: स प्रकीर्तितः । बन्धुर(रः)स्कन्धदेशे तु स्थूलसँङ्गन्तशृङ्गकः ।। ४३ ॥ हस्वाणि स्थूलरोणाणि सर्वाङ्गीणानि यस्य तु । लोहितो यश्च वर्णेन शोणः स परिकीर्तितः ॥ ४४ ॥ विभक्ताङ्गोऽस्थिसारश्च शूरश्वाश(त) तुण्डकः । आवर्तः प्रोथदेशे स्याच्छतपद्या समाकृतिः ॥ ४५ ॥
१ A च । २ A च्छ । ३ A जच । ४ A क्ष्यते । ५ A न्यथु। ६ A द्धोऽथ F द्धोत्त्थ। ७ A त 4 D च्छा । ९D नौ । १० D लास्ते । ११D ताः । १२A स्थ। १३ A सङ्गक। १४A शौ । १५D कृत
Aho! Shrutgyanam
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
मानसोल्लासः ।
पुच्छेन मुकुलावर्तः सः शुभो लक्षणान्वितः ॥ पराङ्मुखो य उत्पन्नो युद्धे न स पराजितः ॥ ४६ ॥ कृष्णमस्तकमेषोऽपि शूरः स्यादिति निश्चितम् । तेषां तुं पोषण कार्य सूपकेश्चणकैरपि ॥ ४७ ॥ तैलाक्तया कृसरया दूर्वा वेण्या तथार्द्रया । सैन्धवं घृतसंयुक्तं सप्तमेऽहनि दापयेत् ॥ ४८ ॥ दातव्यं पोषणार्थं तु तेन रोडो बली भवेत् । पूर्वाह्णे चापराह्णे च भ्रममेव (येच्च) शनैः शनैः ॥ ४९ ॥
निवर्त्य पाययेत्तोयं तेन चाप्यायितो भवेत् ।
पत्ति (ट्टि)का (क) लोहसम्भूता (त) शृङ्गं विद्वास्य कीलयेत् ॥ १२५० ।।
मुद्रिका (क) बन्धनार्थं हि तत्रैव विनिवेशयेत् । शृङ्गद्वयेऽपि बभीयात् मटकद्वितये ध्रुवम् ॥ ५१ ॥ तिमिरे स्थापयेन्मेषं लशुनं चापि भोजयेत् । आदित्यवारे युद्धार्थं कारयेल्लघुभोजनम् ॥ ५२ ॥ मदार्थ पाययेन्मयं व्योषं वा भूर्ण(र्ज) पर्णकम् । क्रोधार्थ निक्षिपेद्वक्रे तेन युध्येत निष्टुम् ॥ ५३ ॥ योधयेच्च ततो मेषावन्योन्यं घोरघट्टनैः । ततोऽपसृत्य सर्पन्तौ कुवन्तौ शीर्षताडनम् ॥ ५४ ॥ कुकाटी मांसखण्डानि पातयन्तौ महीतले । युध्ये मेषको विपदसृत्यातिदूरकम् ।। ५५ ।। केचि (काश्चि)च्छीघ्रप्रहारांश्च कुर्वन्तौ शतसङ्ख्यया । उन्नयेत्पतितं योक्ता भवत् ततो नमेत् ॥ ५६ ॥
99
पैलायितस्तु यो मेषो न स शक्यः प्रयोजितुम् । पणपूर्वं नियोद्ध्यास्ते ध्वजहेतोनियोधनम् ॥ ५७ ॥
[ अध्यायः ९
1
१ D श्वान्यन्त । २ A नु । ३ A श । ४ A भृश । ५ Dङ्ग । ६Aरः । ७A नौ ८ A युद्धयते । ९A को । १० D किंचिच्छीघ्रं । ११ पेत्य । १२ D भुन । १३ A त्सजयो । १४ D adds these two lines,
Aho! Shrutgyanam
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
पलायेति ततो मेषे पण ग्राह्यो यथोदितः । एवं मेषविशेषाणां विनोदः कथितो भृशम् ॥ ५८ ॥ कथ्यते सोमभूपेन विनोदो महिषाश्रयः । भूलोकमल्लदेवेन कलासर्वस्ववेदिना ॥ ५९ ॥
इति मेषविनोदः ॥ ९ ॥
इदानीं कथ्यते कोsपि विनोदो महिषाश्रयः । वैदर्भा (:) कारहाटीच जालधन्रसमुद्भवाः ।। १२६० ॥ सौराष्ट्रमध्यदेशा (श्या च महिषा युद्धवेदिनः । स्थूलस्कन्धा महाकाया विशालोरस्थलास्तथा ॥ ६१ ॥ कुब्जपोल (र) स्त्यपादाथ लाक्षापिङ्गलचक्षुषः । हीनाः पश्चिमभागेषु ग्नपष्ठाः समोदराः ॥ ६२ ॥ अस्रस्तमेढ्रकाश्चैव हस्ववर्ऋविषाणकाः । श्वेतकुष्णाः पुण्ड्राश्च श्वेताश्वेितपुच्छकः ॥ ६३ ॥ ईदृशा महिषा ज्ञेया प्रशस्ता युद्धकर्मणि । बालान्प्रियङ्गुपिष्टेन क्षीरमिश्रेण पोषयेत् ॥ ६४ ॥
दधा समाषचूर्णेन बृंहयेत्तान् प्रयत्नतः । ऊर्ध्वं संवत्सरात्तेषां नासावेधं समाचरेत् ।। ६५ ।।
नासायां निक्षिपेद्रज्जुं दृढां धारणहेतवे । पिण्याकैः पू (कपूर्णकुल्माषैविंदलैश्चणकस्य च ।। ६६ ॥ कृशराभि”: सतैलाभिस्तत्रैर्लवणसंयुतैः । तत्तत्काल समुद्धृतैर्हरितैर्यवसैरपि ॥ ६७ ॥
जलावगाहनैस्तेषां तुष्टिं पुष्टिं च कारयेत् । वर्षाणां पञ्चकादूर्ध्वं दर्पवन्तो बलान्विताः ॥ ६८ ॥
महाकाया विभक्ताङ्गा युद्धयोग्या भवन्ति ते । महिषीवृन्दमध्यस्थौ कर्दमा लिप्तगात्रकौ ॥ ६९ ॥
Aho! Shrutgyanam
२६१
१ A यिनि । २A क । ३ Aट।४ A ला । ५ D स्थ । ६Aभ। ७A रा ८ A ऋत्र । ९ D च । १० A कः । ११A भि ।
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
मानसोल्लासः ।
निम्बपत्रकृतां मालां धारयन्तावुरःस्थले || विमुक्तनासिकाबन्धों (शू )लिकाप्रोतशृङ्गको ॥ १२७० ॥
गोपानां करतालैश्च सिंहनादैः प्रहर्षितौ । ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य वदनं वीक्षमाणौ परस्परम् ॥ ७१ ॥
कुञ्जराविव दुर्धर्षो महिषौ योधयेन्नृपः । प्रहरन्तौ विषाणाग्रैः कोन्मीलितमस्तकौ ॥ ७२ ॥ नर्दन्तावि(व)वसर्पन्तौ भूतलन्यस्तजानुकौ । उत्क्षिप्तपुच्छौ क्रुद्धौ श्वसन्तौ वान्तनकौ ॥ ७३ ॥ कीनास (नांश) लिप्तसर्वाङ्ग क्रोधसंरक्तलोचना । तत्रैः पीड्यमानस्तु महिषेण बलीयसा ॥ ७४ ॥ शृङ्गाग्रंदारितस्कन्धः सैरिभः प्रपैलायते । पाश्चात्यभागं शृङ्गाभ्यां धारयन्ननुधावति ॥ ७५ ॥ सम्प्राप्तविजयः क्रोधाव (द्व)ली प्रेक्षकनाशनैः । विनोदो महिषस्यैवं कथितः सोमभूभुजा ॥ ७६ ॥
इति महिषविनोदः ॥ १० ॥
१६
पारींवतविनोदस्य वर्णनं क्रियतेऽधुना । सिन्धुदेशे विशेषेण ब्राह्मणः क्षत्रिया विशः | ७७ || परापताः प्रजायन्ते शूद्राः स्युर्यत्र कुत्रचित् । सशिखा पादपिच्छाढ्योंश्विरकणनशालिनः ॥ ७८ ॥ ज्ञेयास्ते ब्राह्मणा जात्या पवित्राः शुभदर्शनाः । पादपिच्छैः समायुक्ताः शैश्वत्कणनकोविदाः ॥ ७९ ॥ पारापताः शिखाहीनाः ज्ञेया क्षत्रियजातयः । अल्पक्कणसमायुक्ताः पादपिच्छविवर्जिताः ।। १२८० ॥ पापतास्तु विशिखा विज्ञेया वैश्यजातयः । श्वेताः कृष्णास्तथा शोणाः पीताश्च हरितास्तथा ॥ ८१ ॥
[ अध्यायः १०
१ D शूलका शूलिनौ । २ A षो । ३ A पाः । ४ A क्रुद्धौ स्वसतौ वातफेनकौ । ५ A किं । ६ A त्क ।
७ A क । ८ A ग्रं । ९ A न्ध | १० A भ । ११ ब । १२ A रप । १३ Aण । १४ D परा । १५ A या । १६ A चित्रेक्षणविशालिनः । १७ Dस ।
Aho! Shrutgyanam
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। कर्बुराः पाटलाश्चित्रा भवन्त्येतासु जातिषु । हरिताङ्गा नीलकण्ठोः कृष्णराजिकपक्षकाः ॥ ८२ ॥ रक्तलोचनपादाश्च शूद्रोः पारापतास्तथा । देवालये तथा सौधे शैलाग्रे च वसन्ति ते ॥ ८३ ॥ न पोष्या ध्वनिहीनत्वाच्छूद्रोः पारापताधमाः । चण्डालान्त्यजजातीयाः कपोता विविधा पुनः ॥ ८४ ॥ न स्पृश्या नैव सम्पोष्या गृहस्थेन कदाचन । प्रमादाद्यस्य गेहान्तः प्रविष्टाश्चेत् कपोतकाः ॥ ८५ ॥ . प्रायश्चित्तं प्रकुर्वीत वेदोक्तविधिना बुंधः। ब्राह्मणाः क्षत्रियाश्चैमे प्रशस्ता राजमन्दिरे ॥ ८६ ॥ पोषणीयाः प्रयत्नेन यवगोधूमतण्डुलैः।। अन्यैरपि तथा धान्यैः शुक्लैरार्दैरथापि वा ॥ ८७ ॥ पानीयपूरितं पश्चात्पानार्थं स्थापयेद्बुधः। सौवर्णे राजते वापि पञ्जरे दारुनिर्मिते ॥ ८८॥ स्थापयेद्दम्पती राजा सदृशौ वर्णरूपतः । पतिव्रता भवन्त्येताः पारापतकुलाङ्गनाः ॥ ८९ ॥ पारापतश्च स्वगृहं प्रवेशयति नेतरम् । गलघूणितनादेन फुलद्रुतगलेन च ॥ १२९० ॥ प्रसारितेन पुच्छेन प्रियां दृष्ट्वा प्रनृत्यति । चुम्वति प्रेयसी प्रत्यिा परित्य मुहुर्मुहुः ॥ ९१ ॥ सङ्गमं च करोत्येष वारं वारं मुदान्वितः । रक्षते(न्तौ) चाण्डके स्नेहात् याम यामं पृथक् पृथक् ॥ ९२ ॥ शावकान् पालयन्तौ तौ कण्ठस्थाहारदानतः । पारापतं तथाभूतं शिक्षितं क्रमशः पथि ॥ ९३ ॥
१ A ण्ठा । २ A द्रा । ३ A द्रा । ४ D चे । ५ D तिकाः । ६ A ततः । ७ A प्रो। ८ A यं। Dथे। १. A तिं । ११D रूपवर्णतः । १२ Dः। १३ A लिं। १४ Dन्ति । १५ Dadds these two lines |
Aho ! Shrutgyanam
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः ११
तमेकं पञ्जरे कृत्वा नीत्वा दूरं समुत्सृजेत् । लेखपत्रं समासज्य कण्ठे तं मोचयेन्नरः ॥ ९४ ॥ त्रिंशद्योजनपर्यन्तमह्ना याति स्मरन् प्रियाम् । पवित्रा दर्शनीयाश्च राजकार्योपयोगिनः ॥ ९५॥ अत एव महीपालैः संग्राह्यास्ते विशेषतः । रतिकालेऽपि ते धार्या रागवर्धनहेतवें ॥ ९६ ॥ गलघूर्णितनादेन हर्षमुत्पादयन्ति हि । पारापतविनोदोऽयं धर्मकर्मार्थसिद्धये ॥ ९७ ॥
इति पारापतविनोदः ॥ ११॥ इदानी कीय॑ते सद्योविनोदः सरमाभुवः । आभिराः सेवुणाश्चैव कहराः पडियँण्ड(र्यन्त) जाः ॥ ९८ ॥ गर्ता दुग्धवाटाश्च तथा कर्णाटदेशीः । आन्ध्रदेशसमुत्पन्नास्तथा च्य(च)वनवासजाः ॥ ९९ ॥ वैदर्भास्तालनीराश्च तापीतटसमुद्भवाः । राष्ट्रष्येतेषु सञ्जाताः शौर्य वीर्यबलान्विताः ॥ १३०० ॥ सुरावाः सारमेयाः स्युनानावर्णगुणान्विताः । आभीरौस्तनुरोमाणः सेवुणाश्च तनुत्वचः ॥१॥ कढेरौंः स्वच्छरोमणिः पर्यन्तास्तनुपुच्छकाः ।
गर्तास्तु महाकायाः दुग्धवाटाः कृशाङ्गकाः ॥२॥ कर्णाटदेशसम्भूताः कुब्जकेशाश्च कुक्कुराः । आन्ध्रदेशसमुत्पन्नाः स्वल्पकाया महाबलाः ॥ ३ ।। रोमी वनवासाः स्युर्वेदी रम्यमूर्तयः । स्ना(ता)लनीरसमुत्पन्नाः कान्तिमन्तोऽल्परोमकाः ॥ ४ ॥ तापीतटसमुत्पन्नाः शुनकाः कोमलाङ्गकाः । पाण्डुराः शोणवर्णाश्च पीतश्वेताश्च कर्बुराः ॥५॥
A साद्य । २ D वः । ३ D कथितः सोमभूभुजा । ४ A कथितः। ५A सेनु D सैवु । ६ D हो । ७Dम। ८A जः। ९ A अ। १०A शूरास्ताः। ११ A या स्य। १२ D भी। १३ D सै १४D हो। १५Aण । १६ A सा वा नवास ।
Aho! Shrutgyanam
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। धूम्राङ्गाः पाटलाश्चैव तथा मेचकराजिकाः । भ्रूनेत्रतुण्डधवलाः स(श)बलाः कृष्णरोहिताः ॥ ६॥ श्वेतबिन्दुभिराकीर्णा नानावर्णास्तथापरे । ऊर्ध्वकर्णाः श्लिष्टकर्णासा(स्त)थापतितकर्णकाः ॥ ७ ॥ तथा सस्तैककर्णाश्च सारपेया भवन्ति ते । शिरसि श्वेतकेशाश्च पुच्छाग्रे चै पाण्डुराः ॥ ८॥ ध्रुवावर्तविहीनाश्च न ग्राह्याः कुक्कुराधमाः। रसोनबीजसङ्कगशैदंष्ट्राडरविराजिताः ॥ ९ ॥ चूतपल्लवसँङ्काशरसनारञ्जिताननाः । लांक्षारससमच्छायस्थूलोत्तुङ्गविलोचनाः ॥ १३१० ॥ पतितभ्रूयुगस्थूलमूर्धानो जठराननाः। सर्जपत्रसमाकारा(:)कर्णोपान्ते ध्रुवान्विताः ॥ ११ ॥ स्थूलदीर्घनखग्रीवाः सुस्थविस्तीर्णवक्षसः । तनुवर्तुलमध्याश्च विशालौश(स)फलस्थलाः ॥ १२ ॥ निर्मासोरु(सोरू)रुजङ्घाश्च तथा वृत्ताडिसन्धयः । खर्जूरवीजसङ्काशनखरांप्रेष्ठ(स्पृष्ट)भूमयः ॥ १३ ॥ हरिणक्समाकाराः पृष्ठप्रतनुपुच्छकाः। कर्कशस्पर्शरोमाणः श्लक्ष्णविग्रहकान्तयः ॥१४॥ क्रोधशक्तिसमोपेताः प्रशस्ताः सरमासुताः । एवंविधगुणोपेताः शक्तिमन्तो महाबलाः ॥ १५ ॥ वराहपुण्डरीकाभल्लॅनिर्भेदकोविदाः । दीर्घनिर्मासवदनाः फॅशनासाल्पभोजनाः ॥ १६ ॥ जिगि(ङ्गिणीपत्रसङ्काशश्रवसस्तनुकन्धराः । शशपृष्ठसहपृष्ठाः कन्दुकाकारमस्तकाः॥ १७ ॥
१ A स्ये । २ A ष्व । ३ A शाः । ४ ]) निःकाश । ५ D सर्जपत्र । ६ A लास्तु । ७ A गा। ८ A न्त । S A ता । १० A स्त । ११ D लाः । १२ A सउ । १३ D रान्पृ। १४ A द्रक्सनाकारप्रष्टा। १५ A व। १६ A च । १७ Dल्लु । १८ D कृ। १९ ।
३४
Aho! Shrutgyanam
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः१९ पिप्पिलीमध्यमध्याश्च पृथवः समजङ्घिकाः । गोधूमसूक्ष्मनरवरौस्तुण्डीफलतलास्तथा ॥ १८॥ ऊर्ध्वसंलग्नवक्षाश्च तनुत्वसूक्ष्मरोमकाः। लताललितपुच्छाश्च पूर्वापरसुशोभिताः ॥ १९ ॥ सकुँद्वित्रि(स्त्रिः)प्रसूताश्च वेगिन्यो गृहिणीयु(ग्राहिभियु)ताः। शशकोङ्कटसारङ्गकुरङ्गहरिणैन(ण)कॉन् ॥ १३२० ॥ हन्तुमेताः प्रयोक्तव्यास्त्वरिताः कुक्कुराङ्गनाः । गोष्या मांसैर्वसर्भ(साभ)क्तैर्निशि क्षीरेण तर्पिताः ॥ २१ ॥ प्रसूता मण्डपानेन दुग्धेनैव हि बालकाः। नीडस्थितान्वनस्थानान् शशान् हन्तुं विनोदवान् ॥ २२ ॥ . सारमेयीद्वयं मुश्चेत् पणपूर्व महीपतिः । येत्थूनि(च्छुनी) पूर्वमाधत्ते शंसस्त(शशन्त)स्य भवेजयः॥ २३ ॥ शूनीभ्यां युगपद्ग्राहे भवेत्साम्यं द्वयोरपि । सूकरस्य बहून्मुश्चेत्सारमेयान् महाबलान् ॥ २४ ॥ तेषु परोधिनं क्रोमूर्ध्वकेशं रुषान्वितम् । सङ्कनेचितसमस्ताङ्ग वमन्तं फेनपिण्डकम् ॥ २५ ॥ गर्जन्तं घर्घरै दैर्दष्ट्रासङ्घभीषणम् । तोमरैर्भल्लनाराचैर्निशितैस्तं प्रवेश(घ)येत् ॥ २६ ॥ ततः श्वानः प्रगृह्णन्ति स्कन्धे कण्ठे च कर्णयोः॥ पाश्चात्यसक्थिभागेषु (द)शन्तः खादयन्ति ते ॥ २७ ॥ ततः किलकिलानादं कुर्वन्धाणैर्वियुज्यते । सारमेयविनोदोऽयं कथितः सोमभूभुजा ॥ २८ ॥
इति सारमेयविनोदः ॥ १२ ॥
१ A प्र । २ A रातु । ३ A कद्वि । ४ A णिच्युता । ५ A णोनका। ६ A | A ता । CA का।
A च । १० A नाश । ११A य । १२D शुनी यं शशमाधत्ते तस्य स्याज्जय एव च । १३D विचक्षणान् । १४ A डमूर्ध । १५ A घ । ६ A नं। १७ A प। १८ A दृशन्तः ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६७
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। सद्यः श्येनविनोदोऽयं कथ्यते कौतुकावहः । शालिवा जावडा(ला) लघु(नः) प्राजिको लङ्गणस्तथा ॥ २९ ॥ सञ्चाणा वेसरा गृध्रास्तथा य(ज)वलकण्ठि(ट्टि)काः। . चण्डी यावावहाः श्येनाः श्येनानां जातयस्त्विमाः ।। १३३० ॥ विनोदेषु प्रयुञ्जन्ते ततोऽन्ये जातिमात्रकाः। . कॉणकश्चेति विख्यातः पुमानल्पशरीरकः ॥ ३१ ॥ अजेंडेति च विख्याता श्येनयोर्षों बृहद्वपुः । श्ये जातिषु विख्याता विनोदेवजडा वरा ॥ ३२ ॥ .. कोणका स्वल्पकायत्वादधमा लघुमारकोः । नवा इत्यभिधीयन्ते प्रथमे वत्सरे मताः॥ ३३ ॥ मुक्तारूंढपुच्छाश्च कुपु) इति विश्रुताः। वर्षासु पुच्छं मुश्चन्ति नवं शरदि बिभ्रति ॥ ३४ ॥ प्रतिवर्ष भवत्येवं बलिनो वेगसंयुताः। उपायैस्तैस्तु सङ्गाह्याचतुर्भिश्चतुरैनवैः ॥ ३५॥ करैर्जालैश्च पाशैश्च चिक्कलेपैश्च युक्तितः । सञ्चाणा वेसरा ग्राह्या नीडस्थाश्च करग्रहैः ।। ३६ ॥ अजातपक्षकाः शावा अलेजम्ब इति स्मृताः। सार्धहस्तसुविस्तीर्णः(ग) हस्तत्रयसमन्वितम् ॥ ३७॥ चतुर्भिरङ्गुलै (ल) स्थूलैः सार्धहस्तप्रमाणकैः । दण्डैविधारितं कृत्वा जालं भूमौ निवेशयेत् ॥ ३८ ॥ जालकात्परतो बद्धाः स्थापनीयाः कपोतकाः । वृक्षाग्राच्छिखरौद्वाऽपि गगनाद्वा निपात्य तेम्(तान्) ॥ ३९ ॥ चतुर्भिरङ्गुलैः(ल) स्थूलैः सार्धहस्तप्रमाणकैः ।
प्रहरन् बध्यते श्येनो जालेन परिगुम्फितः॥ १३४० ॥ १D लिवी। २D णा। ३ D च जय F यमल। ४ F रुचेण्डी कायाश्वहाः हावाः A रुचण्डीवहावा । ५ D खूप । ६ D द्रोणि A द्रोण । ७ A ताः। ८ A काः । ९ D जाण्डे । १. A धा। ११ A has श्येनजातिषु विख्यातः पुमानल्पशरीरकः before this line | १२ A दोष्व । १३ D ताण F तोण । १४ A ड्ड । १५ F नतः । १६ A गू। १७ Dञ्चा। १८ D नीडस्थाश्च करग्रहैः । १९ Dश । २० D आल २१ ) राग्राद्वापि । २२ A तः।
Aho ! Shrutgyanam
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १३
क्रमोन्जालं विधायादौ चतुरस्रं समायतम् । आपादमस्तकोत्सेधं हरित्पल्लववेष्टितम् ॥ ४१ ॥ वधं दण्डं तथालम्ब्य कण्ठेनावभुजेन वा। तडिकाख्यमवष्टभ्य यष्टयस्थितपाशतः ॥ ४२ ॥ कण्ठे गृहीत्वा कर्फत्तं खादन्तं बद्धपक्षिणम् । शीघ्रं पाशैर्विमुञ्चेत यथा पाणैर्न मुच्यते ॥ ४३ ॥ अश्वत्थदुग्धमादाय शनैर्मेद्वग्निना पचेत् ।। यावचिक्कणतां याति किञ्चित्तैलेन मर्दयेत् ॥ ४४ ॥ बद्धयष्टिस्तु(न्तु) चिक्केन हस्तमात्रात्म(म्प)लेपयेत् । बद्धस्य पक्षिणः पार्वे समन्तात्तां प्ररोपयेत् ॥ ४५ ॥ पतन्तं सहसा श्येनं पक्षिणं भोक्तुमुद्यतम् । यष्टयस्ता निबध्नन्ति चिक्कलिप्ताः समन्ततः ॥ ४६॥ तैलेन भस्मना चिकं स्फोटयेत्पक्षिपिच्छगम् । एवं धृतांस्तु तान् श्येनान्सूते(सप्त) पक्षपुटांस्ततः ।। ४७ ॥ तनुर्वन्धि(न्ध)बन(द्ध) पादान् हस्तमारोप्य यत्नतः । तन्मुखं मांसखण्डेन स्पृष्टं तद्भक्षयेद्यथा ॥ ४८ ॥ वारं वारं स्पृशेद्धस्तैस्तस्य त्रासनिवृत्तये । जागरं कारयेच्छयेनं रात्रौ स्थैर्योपपत्तये ॥ ४९ ॥ ततस्व्यहे व्यतीते तु सायंसन्ध्यासमागमे । तरुमूले स्वयं स्थित्वा मनागुद्घाटयेदृशौ ॥ १३५० ॥ धारके तरुमूलस्थे सिद्धयत्येषां समुत्प्लवः । समुत्प्लवस्य संसिद्धौ कुर्याद्ध(द)मविकासनम् ॥ ५१ ॥ चटकान् भक्षयेत्तांस्तु पोषणार्थं च धारकः । प्रमाणेन परं दद्याद्यथा क्षुद्वर्धते भृशम् ॥ ५२॥
१ D कम्राजा । २ D थ । ३ A प । ४ D डी। ५ D ग्रे। ६ A र्ष । ७ A प्रक । ८ A द। ९D नान् A नि । १० A स्प। ११ A प । १२ A व ।
Aho! Shrutgyanam
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४]
मानसोल्लासः। ग्रासगृनुर्यदा श्येनस्तदा हस्तान्तरं नयेत् । दर्शनात्कलविङ्करस्य प्रलोभ्य च शनैः शनैः ॥ ५३ ॥ कुर्यात्स(त्सु)वर्तुलं श्लक्ष्णं दोरं हस्तप्रमाणकम् । एकतो मुद्रिकायुक्तमन्यतो वध्रसंयुतम् ॥ ५४ ॥ तन्मुद्रिकामध्यगतां रज्जु दीर्घा प्रकल्पयेत् । तदन्तं धारको धत्ते शिर्शकश्च तथा परम् ॥ ५५ ॥ एहीति ध्वनिमाहूय चटकं दर्शयेत्पुरः। आनयेत्स्वकराभ्याशमारा+रात्क्रमाक्रमात् ॥ ५६ ॥ आह्वाने(न) शिक्षिते श्येने दोरकं प्रतिमोचयेत् । विमुक्तदोरकं श्येनं समर्माह्वानसुशिक्षितम् ॥ ५७ ॥ चटकं प्रोतनयनमुत्क्षिप्तं गगनान्तरम् । निहन्तुं मोचयेच्छयेनं मुष्टिमध्ये व्यवस्थितम् ॥ ५८ ॥ मुष्टिनिर्गमसिद्धं तं स्थूलपैक्षिषु योजयेत् । बृहत्कायांस्तथा श्येनान्विना मुष्टय(ष्टया) तु शिक्षयेत् ॥ ५९ ॥ सेवा(श्चा)णं वेसरं चैव तथा रगणजातिकम् । शिक्षयेन्मुष्टियोगेन तदन्यान्मुष्टिना विना ॥ १३६० ॥ विनाविष्ट(यष्टिं) विना मुष्टया शिक्ष्या जलव(वल)कट्टिकाः । पाजी चैं गृध्रजाती च शैशकेषु नियोजयेत् ॥ ६१ ॥ जालिवं जावलं लग्नं शिक्षयेद्वचनक्रमात् । वायसं करसंलग्नं दर्शयित्वा समायेत् ॥ ६२ ॥ अम्बरौंदागते श्येने का यत्नेन वश्चयेत् । वञ्चिते वायसे श्येनः पुनर्गच्छति वेगवान् ॥ ६३ ॥ शिक्षयेच प्रदश्र्यैवमेहीति वचसाह्वयेत् । बहुशो वञ्चितं श्येनं वायसेनैव तर्पयेत् ॥ ६४॥
A क। २ A भ्यं । ३ D सवर्तुलां रज्जु A संव। ४ A समु । ५ Aङ्गं । ६ D क्षित । VA दू । ८ A न् । ९ A म । १. A यष्टिषु । ११ घ्यं । १२ D संवाणं वस । १३ Domits this line| १४ Dव । १५ A शशाणे । १६ A रादि । A १७ ने।
Aho ! Shrutgyanam
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १३
कङ्कगदिषु विहङ्गेषु नभस्तलविहारिषु । मारणं शिक्षयेदेतान् बलिष्ठान् शालिवाटि(दि)कान् ॥६५॥ विनोददिवसांपूर्वमभोजननागरौ (जागरे)। कारयेच्छिक्षितान् श्येनान् कोपस्यस्पार्ध(स्पर्द्धाधि)टद्धये ॥ ६६ ॥ मांसभोजनवेलायां गिलितं पुच्छंमुद्रॅिन् । श्वस्तने क्षुधितो ज्ञेयस्ततो मुश्चेत्तु पक्षिषु ॥ ६७ ॥ वृषवाह समारुह्य धारकैः श्येनपाणिभिः । मोचकैर्मुष्टिगःश्ये(गश्ये) नैमिपाणिस्थयष्टिभिः॥ ६८॥ पार्श्वद्वितयपाकिस्थैर्बहुभिः परिवेष्टितः। गच्छेद्बहुतॄणां भूमि स्वल्पवीरुत्समावृताम् ॥ ६९ ॥ बल्वजस्तम्बसङ्कीर्णां बहुपक्षिभिराश्रिताम् । यष्टिभिश्चीलयन्घासं विटपाग्राणि ताडयेत् ॥ १३७०॥ ताडयेद्गुल्ममध्यानि त्रासयन्शशपक्षिणः । उड्डीनेषु विहङ्गोषु मोचयेच्छयेनकं नृपः ॥ ७१ ॥ कपिञ्जलेषु लावेषु वर्तकातित्तिरीष्वपि । तथा तृणमयूरेषु टिटिभादिषु पक्षिषु ॥ ७२ ॥ वेसरील्ल(रॉल्ल)गडान् श्येनान पक्षिष्येतेषु मोचयेत् । क्रौञ्चसारसकङ्केषु शालिवाख्यान विमोचयेत् ॥ ७३ ॥ शशेषु ध्रजातीयान् द्विमाजि)कानेणशावके । मोचयेद्भककाकेषु तथा जवलकटिभी (का)न् ॥ ७४ ॥ बकेषु चवाकेषु तथा स॒णमयूरके ।
जो(वाडा(ला)ल्लगडाश्चै(डांश्चै)व मोचयेत्पृथिवीपतिः ।। ७५ ॥ १A स्थ । २ A ढि । ३ A सापू। ४ A मं । ५ A लिक्षितान्ये । ६ D येन कोपो भवेद्भवम् । ७A छ । ८ A. रम् । ९ A स्व । १० A योत । ११ A ञ्चतु । १२ A षो। १३A कैस्ये ।१४ D गैः ।
१५A नोवा । १६A भोरुप । १७ A नृ। १८ Dम्भ । १९ A श्व। २. A ल्फ। २१ A येच्चशि । २१ A यछे । २३ D विव । २४ A प्र । २५ A राळगतान् । २६ A को । २७ A पा । २८ A वृद्ध । २९ Dहादि । ३. A का । ३१A टि। ३२ D का। ३३ A ।३४ A प्रण। ३५ Dअण्डजेषु च सर्वेष।
Aho! Shrutgyanam
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ।
मानसोल्लासः।
२७१
वेसरो रंगणान्हैन्ति सञ्चाणा मुष्टिशक्तितः । अम्बरस्थान् खगान् हन्तुं प्रभवन्ति स्ववेगतः ॥ ७६ ॥ कङ्कगदीनपि दूरस्थानपि दृष्टेरगोचरान् । स्वपक्षवलसामर्थ्यात् प्रहर्तु शालिवा(वः) क्षमः ॥ ७७ ॥ द्रुमचर्मपिनद्धांगाः स्वपक्षबलसामर्थ्यात् प्रहर्तु शालिवादनाः(वाः क्षमाः) । प्राजिकाश्च तथा गृध्राः स्थूलोन्नन्ति विहङ्गमान् ॥ ७८ ॥ अम्बरेणैव दूरस्थान्स्वपक्षबलमाश्रिताः । एवं श्येनविनोदोऽयं कथितः सोमभूभुजा ॥ ७९ ॥ उक्तः सकृ(त्कृतविश्वेन सोमेश्वरमहीभुजा । उदितः सोमभूपेन विनोदः श्येनसम्भवः ।। १३८० ॥
इति श्येनविनोदः ॥ १३ ॥ अग्रे मत्स्यविनोदोऽयं कीयते राजवल्लभैः । मत्स्याः स्युबहुजातीया गणनागोचरा न ते ॥ ८१ ॥ तथापि कियतो वक्ष्ये विनोदेखूपयोगिनः। ते च जात्या द्विधा ज्ञेयाश्चर्मोः शल्कजा इति ॥ ८२ ॥ प्रत्येकं ते द्विधा प्रोक्ताः स्थूलसूक्ष्मविभेदतः। द्रुमचर्मपिनद्धाङ्गाश्चर्मजाः शल्कँवनिताः ॥ ८३॥. शल्कशुक्तिपिनङ्गिाः शल्कजास्ते प्रकीर्तिताः। केचित्समुद्रसम्भूताः केचिनयुद्भवा अपि ॥ ८४ ॥ .. तेषां नामानि वक्ष्यामि सङ्केपेण निबोधत । . सोरश्च शृङ्गसौरश्च चविलोचो बैलस्तथा ॥ ८५ ॥ कण्टकारः सङ्कुचकैश्चर्मजोः सागरोद्भवाः । कोवासकः खिरीडश्च पोठीनः सिंहतुण्डकः ॥ ८६ ॥
A F वंश । २ A F ग । ३ A न । ४ D संवा । ५ A मिष्टि । ६ Dadds this line, GD पक्षिणोगाचरांस्तथा । ८ Dadds this line | ९ A only has this lins । १० D जि। ११D लान्ध । १२ A नैव । १३ A रोदितारातिपोष्टिता। १४ A gives these two lines | १५A भ। १8A जा! १७ A क। १८ A द्धाये। १९ । २. D च । २१ D बि । २२ A का। २३ A जी। २४ A रडश्चैव । २५ A पी। २६A सी।
Aho! Shrutgyanam
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७१
मानसोल्लासः ।
[ अध्यायः १४ एते मत्स्था महाकायाश्चर्मजा निम्नगोद्भवाः । पाटल:(ल) पिच्छकस्त्वेकस्तथाऽन्यो दन्तपाटलैः ॥ ८७॥ मध्यकायाविमौ मत्स्यौ नदीजी चर्मसम्भवौ । गाग्धरो गोजलश्चैव विद्रुवश्च तथापरः ॥ ८८ ॥ मत्स्यः कण्ठस्यश्चेति स्वल्पकाया नदोद्भवाः । पण्डिमानो महाकायः शल्कोः सागरोद्भवाः ॥ ८९ ।। पल्लैकस्तोमरश्चेति मध्यकायौ समुद्रजौ । महाशीलकलवैश्च नाडको बडिशस्तथा ॥१३९० ॥ वटगिश्च महाकायाः सशल्काः सरिदुद्भवाः । रोहितः स्वर्णमीनैश्च तथा बण्डालिपोऽपरः ॥ ९१ ॥ मध्यकायाः सशल्कास्ते बलवन्तो नदीचराः। मरिलेस्तुम्बयो वाश्चि शल्कजा मध्यविग्रहाः ॥ ९२ ॥ एते त्रयो न खादन्ति पिष्टि(ट)मामिषभोजिनः । कौरत्थश्च महानद्या सङ्गतस्य महीभृतः ॥ ९३ ॥ षट् सप्त योजने(न) यावन्नदीमायाति सागरात् । गम्भीरेषु विशालेषु इदेषु विलसन्ति ते ॥ ९४ ॥ तेषां सङ्ग्रहणे स्थानमिदमेव न सागरः । नद्यां कर्दमहीनायां सशिलायां भवन्ति ते ॥ ९५ ॥ कोवाकीर्यों महाकायाः सशल्का मध्यजातयः। शिलासङ्घके स्थाने गम्भीरे कोरकादयः॥ ९६ ॥ वालुकाबहुले तोये गम्भीरे रोहितादयः। सपङ्क च सुविस्तीर्णे प्रवाहँरहिते इदे ॥ ९७ ॥ पाठीनप्रमुखा मत्स्या निवसन्ति सकच्छपाः । पाषाणप्रान्तविवरे नाभिदघ्नोदके तथा ॥ ९८॥
१ A स्त्व । २ A ल। ३ A दि । ४D ग। ५ Dज । ६A दु। ७D य। ८A दाभ । Aण्डी। १.D जः। ११ Dः। १२Dल्ला। १३ A शि। १४ D ह्रस्व । १५A स्ता। १६ A पर। १७D मा । १८D षष्ठा। १९D लि। २. Dचो। २१ D कोल । २२ A श्च ।
A ता। २४ A न्ति । २५ A सि । २६ A द्या । २७ D शी। २८ D कट । २९ A ल। ३.A के। ३१ A स्त। ३२ A है। ३३ A त्सयी।
Aho! Shrutgyanam
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः ।
थोग्यरस्तुम्बेरो वामी निवसन्ति निजेच्छया । ह्रदशीर्षे तथा चान्ते मध्ये वा सङ्कटस्थले ।। ९९ ।। वक्रस्थले वा द्वीपे वा सायं प्रातश्च चौरयेत् । तिलानां पललं पिण्डी लाजानां चूर्णमेव च ।। १४०० ॥ भर्जितं चणपिष्टं च भक्तकेन समन्वितम् । बिल्वमात्रन् कृतीन गोलन कल्क (ह्र) वादींश्च चारयेत् ॥ १ ॥ चूर्णकं सिच्छ (क्थ) कैर्युक्तं जलमध्ये च लोडयेत् । तिलानां पललैः कण्वै रोदनेन विमिश्रितैः || २ | बदरीमात्रकन गोलन् चैरयेद्रोहितादिकन् । भृष्टकम् चूर्णेन भक्तकैः सह सक्तभिः || ३ || चारयेद्वडिशान् मत्स्यान् पिण्डानाम्रफळाकृतीं । बिल्वपत्राणि संक्षोद्य सक्तकेन समन्वितम् ( तान् ) ॥ ४ ॥
धात्रीफलमितान् पिण्डान् चौरयेगिरंन् (त्मकिरन ) बुधैः । तिलीका कालखण्डानि कवक चारयेत्सुधीः || ५ ||
२९ 30
पूर्तिगँन्धीनि मांसानि पाठीनानपि चारयेत् । चिकारयतः सिंहतुण्डाभिधापान ।। ६ ।। मैरली चारयेयैत्नाद्धीवरः कर्कटीमिषम् । भृष्टमूषिकमांसानि चारयेत्कच्छपान् बुधः ।। ७ ।। भूलवा (ताः) क्षुद्रमत्स्यांच चारयेद्वामिषं वतो ( तु तान् ) । तडागपालिपादेशे ” जलाहरणतीर्थ के " ॥ ८ ॥ अनेनैव प्रकारेण चारयेद्यत्नतो झषान् ।
३७
३८
एवं वा (चा) रितमत्स्यै चारकैः पृथिवीपतिः ।। ९ ।। १F थोग्य | २ AF बणे-मि । ३ A दा । ४ A वाते । ५ A वा । ६A डी। ८ A गर्भि । ९A पृश्च । १० A ताकृ । ११ A तागो । १४ A कागो । १५ A ला । २१ A सुंक्षु । २२ A जा । २७ A न्धा । २८ A टिनान । २९वि । ३० Aकं । ३१ A ज्ञा । ३२ Aरु ।
१६ A जा । १७ A द्राद्धि । २३ D न्वरगीन् । २४
३३
A घन्ता । ३५A क । ३६ A तृष्टभूषी । ३७ A स्त्या । ३८ D खाचितम् । ३९ A श
।
८१ A खात् । ४२ A त्सै ।
३५
२७३
७A च । १२ A लाकधादिश्च । १३ A लै किये । १८ A का । १९A सूभ । २० A ति । Aध । २५ A काश्चा
२६
A लिं । ३.४
४० A कः !
Aho! Shrutgyanam
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १४ विज्ञप्तस्तान्समाक्रष्टुं पश्यद्रज्जूंश्च यष्टिकाः । माकन्दुकयोल्कः सुदृढेकैवल्कलैः ।। १४१० ॥ कार्यातसन्तुभिः श्लक्ष्णैः कारयेहाँरिका वराः । तत्र मूर्व(वा)भवाः श्रेष्ठा मध्यमाः कटकार्जका(न्दुकार्कजाः) ॥ ११ ॥ कार्यासनीः कनिष्ठी(:) स्युंद्रीयंभेदाद्यथाक्रमम् । स्थूला मध्याश्च सूक्ष्माश्च त्रिगुणाश्च समायतीः ॥ १२ ॥ श्लक्ष्णाश्च दोरिकास्त ः कुर्यादङ्गलवर्तिकाः । छा(व्या)मानां द्वे शते तज्ञः प्रमाणं परमावधि ॥ १३ ॥ नैव व्यामद्वया(य)हीनां कुर्याद्रज्जु प्रमाणतः ।
चूतत्त(न्त)शलाकान्तः स्था(स्थौल्ये प्रोक्त(क्तः) परोऽवधिः ॥ १४ ॥ हयकेशप्रमाणोऽयं तनुत्वे परमोऽवधिः । वैणवा (वी) शस्यते यष्टिभूतलादुद्गता तु या ॥ १५ ॥ शाखा वा कण्टकाकारा माडशाखार्थं वा भवेत् । सरटस्य तु पुच्छेन सदृशी क्रमकार्यतः ॥ १६॥ . आसनपर्वसंयुक्ता नीरन्ध्रा पक्षवंशजा । षडङ्गुलपरीणाहा(हो) मूलदेश(शे)परोऽवधिः ॥ १७ ॥ स्थूलयष्टेः कनिष्ठास्यात्त(यास्त)दर्ध स्यात्परोऽवधिः । नातिदीर्घा नातिहस्वा शिथिला नैव नो दृढा ॥ १८ ॥ यष्टिः |शस्यते तज्ज्ञैवैणवी मत्स्यकर्षणे । दशाङ्गुलपरीमाणा माडशाखासमुद्भवा ॥ १९ ॥ क्रमात्तन्वी वरा यष्टिः स्यादसंहतपत्रिका । गालमङ्कुशवै स्यात्तथाश्वखुरच(व)क्रकम् ॥ १४२० ॥ माकन्दफलवकं च म(क) केटाकारच(व)क्रकम् । तीक्ष्णश्च(क्ष्णं च) ततविश्रेणि लोहेन घटितं दृढम् ॥ २१ ॥ A स्थात्स । २ A क्र. ५ । ३ A श्चाद्रज्जूं । ४ A का । ५ A मुर्वा के दुकययावल्के । ६ A रक्त । हारिका वरा । ८A पूर्व । ९ A वा । १० D टु। ११D काः । १२D जा। १३ Aध।
A द्रव्यदाय ।१५A ता। १६ A स्ततज्ञाः । १७A जा Dज्या । १८A ज्ञाः । १९A व्योमल्हया विना। २० A चतुर्वृत्त । २१० क्तपरोवधि D क्तो । २२ D मा Aमोवधि । २३D णा । २४ A भू । २५ A य । २६ A वा । २७ A नि । २८ A धि। २९ A धि। ३. A ना। ३. A षु। ३२ A तान्त्रि । ३३ D देशे । ३४ A त्याश्च । ३५ A वक्ढे । ३६ A णा ।
Aho! Shrutgyanam
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७५
اینه که یه نیومة
وه به ميه من
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। स्थूलमूलं च सूक्ष्मानं कण्टकेन समन्वितम् । रज्जुबन्धनदेशस्तु वृत्तो वो फलकाकृतिः ॥ २२ ॥ निम्नमध्यस्तु कर्तव्यो बडिशस्य (शःस) तु धीमता । स्थूल रज्जु स्थूल यष्टौ न बनीयात्तनुं तनौ ॥ २३ ॥ नीरमीनप्रमाणेन स्थौल्यं दैर्घ्यं च कल्पयेत् । रज्जुप्रमाण(णं)वडिशं रज्जोरग्रे निबन्धयेत् ॥ २४ ॥ मयूरपिच्छकाण्डं तु रज्जुमध्ये निवेशयेत् । यष्टिमूले तथा चान्यां रज्जु दीर्घा च योजयेत् ॥ २५ ॥ पुच्छवत्कल्पयेत्तत्र्यष्टि(ज्ज्ञो यष्टिं)मोहनहेतवे । यस्य यद्रोचते पक्षे पिष्टमामिषमेव वा ॥ २६ ॥ बडिशाग्रे तदासज चारस्थाने विनिक्षिपेत् । विक्षेप(वीक्षेत)पिच्छकाण्डं तदेकाग्रमनसा नृपः ॥ २७ ॥ यदा स्पृशति तन्मीनो बाडिशं भक्षयेच्च तम्() । यदा चलति य(त)द्भेदं तदाऽऽया(घा)तं प्रयोजयेत् ॥ २८ ।। मांसााशिनां तथी मग्रे(भग्नो) चलने पिष्टभोजिना । गोलपोतो यदा मत्स्यो भवेच्च प्रबलायते ॥ २९ ॥ बलहीनं तु(त) मार्ष ब(र्षेद्र)लिष्ठो यष्टिमुत्सृजेत् । शनैः शनैस्तमाकर्षेद्रज्जुस्त्रुट्यात नो यथा ॥ १४३०॥ यष्टिमोक्षे समाकर्षेत्पुच्छरज्जुं प्रगृह्य वा । एवं मत्स्यविनोदोऽयं नामरूपादिभेदतः ॥ ३१ ॥ भूलोकमल्लदेवेन वर्णितः पृथिवीभुजा । प्रमोदाय विनोदोऽयं नाम मत्स्यसमाश्रयः ॥ ३२ ॥ कथितः सोमभूपेन वैश्यते मृगयाश्रयः ।
इति मत्स्याविनोदः ॥ १४ ॥
- १ D तः । २ A वक्र । ३ A डी। ४ A ज्जू । ५ A त्ततु । ६ A श्रृ । ७ D ज्जा । ८ A ज्ञेय । ९० पाः। १० D यान्तं । ११ A मत्स्या। १२ D यामग्ने । १३ A त । १४ D नां। १५ A. गतप्रोतो। १६ A च । १७ A नु। १८ D र्षद् । १९ A यदि । २० A ज्जुः स्फुट । २१ A णि भे, न। २२ A तं । २३ A तं । २४ A चक्ष । २५A याः Fया।
Aho! Shrutgyanam
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६
मानसोल्लासः।
. [अध्यायः १५ पर्वतैरुन्नतैर्युक्ता गह्वरैः कन्दरैर्युता ॥ ३३ ॥ गुल्मः कण्टकिभिः कीर्णा बहुपाषाणदुर्गमाः (मा)। दुःसञ्चाराऽतिनिबिडा ऋक्षव्याघनिषेविता ॥ ३४ ॥ मातङ्गसर्पबहुला वर्जनीयाटवी नृपः। अकण्टकैद्रुमैर्युक्त समभूभागभूषितां ॥ ३५ ॥ कुल्यातटाकसंयुक्ता वृक्षैर्भक्ष्यफलैयुती । वीरुद्भिश्च समाकीर्णा नयनानन्ददायिनी ॥ ३६ ॥ सुरक्षा नातिविस्तीर्णा दुष्टप्राणिविवर्जिता ।। सारङ्गैर्हरिणः शावैः कुरङ्गरम्भ(ल्ल)कैः शुभा ।। ३७ ।। रुरुभिः शम्बरैः कोलैंगोधनै": कारण(वै)युता । मयूरैः कुक्कुटै वैः कुक्कुटै(रै)श्व कैपिञ्जलैः ॥ ३८ । वर्तकः करवाणश्च तथा त॒णमयूरकैः। हारितकाङ्गवरकैः कपोतैश्चित्रपिच्छकैः ॥ ३९ ॥ खगैर्बहुविधैरन्यैर्मगैर्नानाविधैर्युता। एवंविधावी रम्या निरैपाया सुखोचिता ॥ १४४० ॥ नृपाणां शस्यते नित्यं मृगयाकेलिकर्मणि । सा रक्ष्या रक्षकैराप्तैरेव(क)योजनविस्तृता ॥ ४१ ॥ जनसञ्चाररहिता वृक्षच्छेदविवर्जिता । निवारितमृगाघाता प्रत्यन्ते छिन्नभूरुहा ॥ ४२ ॥
१ A रै। २ A ताः। ३ A म । ४ A सञ्चारेणा । ५A रू। ६ A क्ताः। ७ A ताः । ८ A. ताः। A झ्यानाति F क्ष्यानति । १० A लैगो । ११ A नै । १२ A क्कुकै F कु। १३ A सपिण्ड । १४ D ता । १५ D बा। १६ A । १७ D तको। १८ A तटि । १९ A द्र। २. A एवं । २१ Aञ्च। २५ D न्त ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७७
विशतिः४]
मानसोल्लासः। उपान्तवनवित्रस्तसमागममृगैर्युता। अनेनैव प्रकारेण रक्षणीयाऽटवी सदा ॥ ४३ ॥ स्वपुरस्य समीपस्था विनोदाय महीभुजाम् । लुब्धकैर्महिषारूडै (:) शोधनीया पुनः पुनः ॥ ४४ ॥ व्याघ्रादीन्पैदसङ्घातैस्तां विलोक्य विघातयेत् । तांस्तान् भेदान्प्रवक्ष्यामि राजयोग्यान्पृथक् पृथक् ॥ ४५ ॥ पानीयजा चारजा च क्षेत्रजा मार्गजा तथा । उष्ट(ऊष)रा दीपमृगजा तथा च विटपाश्रया ॥ ४६॥ वभ्र(ध्र)जा काण्डपटजा मञ्चजा भूमिगेहजा। बलिवर्द तिरोधाना महिषारोहणोद्भवा ।। ४७ ॥ अश्वजा चित्रजा चैव शारीरी स्तम्भनी तथा । वायुजा दैमनोत्पन्ना गौरिजा कोपसम्भवा ॥४८॥ कामजोत्विति(ध्वनि)जाता च तथा मदविकारजा । नीहारजा पाशजाता जालजा यन्त्रसम्भवा ॥४९॥ व्याघ्रमोक्षणसम्भूता तथा कवलदानजा । एकत्रिंशत्प्रकारेयं मृगया राजसम्मता ॥ १४५० ॥ निमज्जनाजलस्यान्त(:) प्रवेशाच्च बिलान्तरे । गवयस्याच्छभल्लस्य व्याघ्रस्य महिषस्य च ॥ ५१॥ खङ्गस्य मृगयात्त्यर्थं प्रसा(मा)दबहु(ला) यतः । तस्मादेषां विवा स्यात् धीमतां पृथिवीभुजाम् ॥ ५२ ॥ शिवाजम्बुकमार्जारकोकमूषिकसम्भवा । कुत्सिता मृगया भूपैवर्जनीया विनोदने ॥ ५३ ॥ नद्या तटाके सरसि कृत्रिमे च जलाश्रये । मृणामिदमावेक्ष्य यत्र विस्तीर्णमङ्गणम् ॥ ५४॥
१ A मि । २ A स्थ । ३ A सोप्यनी । ४ A न्य । ५ D मा । ६ D gives these three lines | A । ८ A षो। ९ A म्भि। १० A ड। ११ D गो। १२ A जारि । १३ A म। १४ A म्भवा । १५ A ते । १६ हो । १७ D ही। १८ A णां परमा वक्ष्ये ।
Aho! Shrutgyanam
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १५
पानतीर्थ प्रकुर्वीत मृगाणां सलिलार्थिनाम् । अन्यत्र रोधनं कुर्याल्लभन्ते जलकं यथा ॥ ५५ ॥ नृ()त्या वा वंशजाला कटैर्वा क(व)ल्कलैः सितैः । निखार्य मेढ(र)कांस्तज्ज्ञः सुदृढं परिवेष्टयेत् ॥ ५६ ॥ संवीक्ष्य मारुतं यत्नादङ्गणं परिकल्पयेत् । यथा गन्धं न जानन्ति सम्प्राप्ता मृगजातयः॥ ५७ ॥ मनुष्यगन्धमाघ्राय पलायन्ते मृगादयः। तस्माद्वायुगतिं ज्ञात्वा गतौ(ति) तत्र प्रकल्पयेत् ॥ ५८ ॥ पार्श्वयोस्तीर्थपानस्य ग-युग्मं प्रकल्पयेत् । धनुतियविस्तीर्णं वर्तुलं हस्तखातकम् ॥ ५९॥ गर्तस्योभयपाधै तु सार्द्धहस्तंसुविस्तृतौ । हस्तद्वयायतों कुर्यादवटौ पूर्वखातकौ ॥ १४६० ॥ पश्चात्प्रधानगर्तस्य गर्तमन्यं प्रकल्पयेत् । हस्तद्वितयविस्तीर्ण हस्तत्रयसमाहितम् ॥ ६१ ॥ दिवा यामत्रयादग्गिर्त कुर्वीत बुद्धिमान् । मनुष्यपदसञ्चारगन्धं संरक्ष्य यत्नतः ॥ ६२ ॥ एवं सर्व()विधायार्थ समागत्य नृपालयम् । गर्तनिर्वर्तनं राज्ञे लुब्धको विनिवेदयेत् ॥ ६३ ॥ विजयः क्रियतां देव कौतुकं ते भविष्यति । मृगवेधेनं पूर्यन्ते सायकाः शतसङ्ख्यया ।। ६४ ॥ लुब्धकेनेति विज्ञप्तः कौतुकोल्लोसिमानसः । समाहूय ततो वाहाँस्तोयस्थानं मृगाश्रयम् ॥ ६५ ॥ मितैः प्रेम(मो)दचित्तैश्च वृतो यायान्महीपतिः । साधु कतिपयैराप्तैलुब्धकैः प्रेयसीजनैः ॥ ६६ ॥
१ A जं। २ A यदका । ३ A त । ४ A श्च । ५ A श्वं । ६ A स्तेन । ७ A तो। ८ A स्तारं । ९ A न्व । १० A यक । ११ A धन पूर्व । १२ A न. वि । १३ A समानसा । १४A म । १५ A मा । १६ A सि।
Aho ! Shrutgyanam
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः।
हयानां हेषितं यावन्मनुष्याणां च भाषितम् । न शृण्वन्ति मृगस्तावत् दूरे वां सन्निवेशयेत् ॥ ६७ ॥ हरितांशुककूणै (स)हरितांशुकशेखरैः । कमुपारी(ङ्कपत्र)मद्धाभिहेतुभा(हतिभि)वापधारिभिः ॥ ६८ ॥ तीक्ष्णसाहसं (यक हस्तैश्च कैश्चिदीपमृगान्वितैः । समागत्य पटस्थानं नीलाम्बरपरिच्छदम् ॥ ६९ ॥ तु(तू)लगीं तथा मृद्वी गद्दिका गर्तेमात्रिकाम् । किञ्चिन्मध्यात्पुरोभागे शय्यां मध्यां(मध्ये)निवेशयेत् ॥ १४७० ॥ श्यामलान्युपधानानि हरिता द्विपदीस्तथा । गर्तस्य पश्चिमां भित्ति छादयेनीलवाससा ।। ७१ ॥ कीलरुद्धेन न यथा निपत(ते)न्मृत्तिका तथा । शय्यायाश्च पुरोभागे धनूंषि विनिवेशयेत् ॥ ७२ ।। सायकान्तीक्ष्णफलकास्थूलेंकर्णान्क्षुरप्रकान् । पार्श्वगर्तद्वये ज्ञाना(नि)लुब्धकान्मृगधारकान् ।। ७३ ।। स्थापयेत्पृथिवीपालो दशपञ्चाष्ट सप्त वा पृष्टभागस्थिते गर्ने भटानाप्तान्निवेशयेत् ॥ ७४ ॥ ततः सायन्तनीं सन्न्यां निर्वयं पृथिवीपतिः । प्रधानगर्त प्रविशेत्प्रेयसीभिः समन्वितः ॥ ७५ ॥ शैय्यायां तु स्वयं तिष्ठेत्पश्चौद्भित्त्वै(त्त्यै)व योषितः । उपविष्टास्ततस्ताश्च द्विपदीः परिधाय च ॥ ७६ ॥ नियतास्तत्र तिष्ठेयुहासचापलवर्जिताः। कियन्तः(तः)प्रसादविनतानाय(स) नादि(दौ) निवेशयेत् ॥ ७७ ।। ताम्बलधारकं चैव तथा करकधारकम् ।
ततश्चास्तं गते भाँनौ ये स्थिता गर्तके बहिः ॥ ७८ ॥ A नी । २ A वििन्त न शये र । ३ A रा...भिहे । ४ A नु । ५ D क। ६ A चिह्रि D श्चिद्दी ।
A ने। ८ A भीय...गर्तिकां । ९ Aर्ति। १.A राज्यान्तस्यान्ति । ११A दि। १२ A गतस्य पश्चमनमिति । १३ A किलरुहैन । १४ A तमृति । १५ Dणा । १६A यज्ञानान् । १७A । १८A पश्चाद । १९ A स्याच । २० A सज्यायां । २१ A द्भिवोतुवीताम् । २२D चिन्ता । २३ A य (स) D यनादीनि । २४ A नाव।
Aho! Shrutgyanam
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८०
मानसोल्लासः।
[अध्यायः१५
मृगाणां दृष्टिमार्गाच्च तत्स्थानादपसारयेत् । निर्मनुष्ये तु सञ्जाते सारङ्गै रज्जुचालितैः ।। ७९ ॥ ततोऽरण्यमृगाः सर्वे समायान्ति पिपासवः । चणकान्विकिरेत्तत्र द्वि (दी) पानां चौरहेतवे ॥ १४८० ॥ चरन्ति च ततस्ते तु दोरधारकों दिताः । दूरस्थानपि पश्यन्ति सूचयन्ति च वीक्षणात् ॥ ८१॥ नींचदृष्टया नीचमृगानुच्चावचमृगांस्तथा । आघ्राणसहितान्लोकानं सूचयन्ति स्वजातिकान् ॥ ८२ ॥ . पुच्छोत्क्षेपात्खुराघाताद् व्याघ्रादीन्मनुजानपि । आसनं मृगयावेधं" कृत्वा स्वस्तिकदैदुरम् ।। ८३ ॥ तिर्यक् चापं विधृत्याथ तिर्यक् सन्धाय सायकम् । आगता जलपानार्थं मृगा दी[मृगान्तिके ॥ ८४ ॥ गत दृढं नवं दृष्ट्वा सम्भ्रमाक्षिप्तमानसाः। उद्ग्रीवा स्तब्धकर्णाश्च वीक्षमाणाश्च सम्मुखम् ॥ ८५॥ गर्तान्तर्दत्तनेत्राश्च सुविष्टब्धशरीरकम् । वश्चयेद्वीक्षणं तेषां हस्तपादायकम्पनैः ॥ ८६ ॥ स्थाणुवनिश्चलो भूत्वा गर्तमध्ये स्थिती जनः । चारार्थ विनतंग्रीवः पानार्थ चलिते तैया(वलितस्तथा) ॥ ८७ ॥ युद्धार्थ कुपितेना(तोवा)पि तिर्यग्ग्रीवे(वो)ऽथवा मृगे(गः)। विनिगुह्य निजं कार्य गर्तकण्ठसमाननम् ॥ ८८ ॥ तोयस्थितमिष्वा (वैश्वा)सं समकोटिद्वयं दधन् । वश्चितप्रेक्षणं भूभृदन्यचित्तं मृगं हठात् ॥ ८९ ॥ बाणेनाकर्णकृष्टेन विध्येकक्षान्तरं दृढम् ।
अङ्गणे पतितं कर्णे मृगं क(म)मणि पीडितम् ॥ १४९० ॥
A हस्तान्ता । २ D न्तस्था । ३ A क । ४ A वा । ५ D विचरन्तिततस्ते । ६ D वादिनः । ७ A विचक्षणान् । ८ D adds this line | ९ A ता लो। १० A का सू । ११ A दिम। १२ A ध । १३ A ददु । १४ A है । १५ स्क। १६ A दि । १७ A सूविष्टं च D सुविस्तब्धशरीरकान् । १८ A ता। १९ A नाः । २० A वा । २१ A ता। १२ A प्स । २३ D ग्रू । २४ A श्वा? । २५A कै ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४
मानसोल्लासः।
unawwarriannKAARAM
उपानद्ढपादैस्तु बद्ध(न्ध)कैरन्यतो दृढम् ।। सायकान्पतितास्तद्वैदङ्गणादपकर्षयेत् ॥ ९१ ॥ कीलालं पांशुना छाद्यं यथा गन्धो न जायते । एवं पानीयजा प्रोक्ता मृगया मृगयोत्तमा ॥ ९२ ॥ सुखावहीं नरेन्द्राणां सर्वभोगसमन्विता । यतोऽस्यां शीतला ज्योत्ना शय्या मृद्वी सुखावहा ॥ ९३ ॥ मनोरमाच]ख्यातां भू(खाता भूः)स्वाधं ताम्बूलमुत्तमम् । प्रसादचित्तकैगोष्टी विद्यते सुखदायिनी ॥ ९४ ॥ अनायासेन लभ्यन्ते सम्प्राप्ता मृगजातयः । अन्यासु भ्राम्यते पादैर्घर्मक्लेशोऽनुभूयते ॥ ९५ ॥ न ताम्बूलं न पानीयं न कान्ता न सुहृजना(:)। |मादो व्याघ्रसादेर्दुःखमाँयाससम्भवैम् ॥ ९६ ॥ नृपाणामपि जीयेत तस्मादेती न संश्रयेत् । दावाग्निना परिप्लुष्टे तृणपल्लववर्जिते ॥ ९७ ॥ वने" बुभूक्षिताः सर्वे मृगाश्चीतपपीडिताः। निष्पादवल्लरी (रों) मृद्वी फलपुष्पसमन्विताम् ॥ ९८ ॥ . कोमलौंन पल्लवान भैक्ष्यानश्वत्थविद्रुमोद्भवान् । ... मधुकस्य फलं पुष्पं पकं चिश्चाफलं तथा ॥ ९९ ॥ . मदनस्याहिमारस्य बकुलोदुम्बरस्य च । धान्याः पिण्डीकृतस्यापि कॉम स्म(काश्म)श्चितकस्य च ॥ १५००॥
१ Aदेसु । २ A न दृढं । ३ A द्वे। ४ A ये। ५A ति । ६ D वा। ७ A तोग मन्वि । ८ A वि। A यी। १० D नभ्या । ११ A तुल्य । १२ A तृ। १३ A मक्तेशोलतूतये । १४ A म्बु । १५ A नि ।' १६ A न्ता सुहृजना। १७ A क । १८ A खः मासाय । १९ A व । २०Aजा यंते। २१A तान् न ताः न तत्समाः। २२ A पा । २३A श्ल । २४ A वने बुलूक्तिता। २५ A श्वतिय । २६ A पिडीता । २७ A प २८ A द्वि। २९ D तान् । ३० A लाप। ३१ A वा । ३२ A तक्षा अश्वछादिदुमुद्रवा । ३३ D धू। ३४ A विवा । ३५ D मेद । ३६ A पीठीक । ३७ D अश्म ।
Aho! Shrutgyanam
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १५
हरितं हरी(रि)मन्थञ्च फलपुष्पसमन्वितम् । कणिशं यावनालस्य क्रमशश्चारयेन्मृगान् ॥ १ ॥ तटाके वा तथोद्याने मृगसञ्चारभूमिषु । चारसक्ता मृगाः सर्वे परं विश्वासमागताः ॥ २ ॥ आरु(मनु)ष्येभ्यो भयं त्यक्त्वा चरन्ति , बुभुक्षिताः। गर्ने वा पूर्ववत् स्थित्वा विटपं वा समाश्रिताः ( तः)॥ ३ ॥ पुरो दीपमृगान्कृत्वा सारङ्गान् हरिणांत (णांस्त) था। अपराह्ने ऽर्थंवा रात्रौ मृगागमनकालवित् ।। ४ ।। दिवा चेद्भग्र(ग)हे स्थित्वा यत्र स्थाने त्वलाक्षिती(तः)। विटयं वा समाश्रित्य तलच्छौयं 4 मु(यमनुत्तमम् ॥ ५ ॥ रजन्यां गर्तमध्याँस्य मृगान्विध्येन्महीपति(:)। सारङ्गीन्हरिणानेणान्हरुसम्बरकोनपि ॥६॥ कथितेन प्रकारेण पापध्यौ मारयेत्स्वयम् । वैरासा(हान् )स च मार्गस्तु विस्तारेण प्रक्ष(क्ष्य)ते ॥ ७ ॥ पुष्टा एंव हि मार्यन्ते ततः पौष्टींस्तु(पुष्टांस्तु) मूचका(कः)। क्रोडानां पदवीं वीक्ष्य तिर्यक् शक्त्या न्यसेत् क्रमात् ॥ ८ ॥ शुष्कपत्रेषु चणकान्पुञ्जितान्मुष्टिसम्मितान् । व्याममात्रान्तरे पुञ्जान्पतिस्थान्दण्डवन्यसेत् ॥ ९॥ दण्डो नाम स विख्यातः कोलानी चरकर्मणि ।
एवं विन्यस्य तं दण्डमास्वादय (द्य च) वने निशि ॥ १५१० ॥ १D हरिमन्यस्य वृक्षस्य । २ A निसंयवेनश्चि । ३ A मश्वारयेन्मृगा । ४ D य । ५A संवा ।
SAN Aरे। ८ A ता। ९ A ष्यत्पोत्तयं त्यक्ता । 1. Aव। ११ A ता । १२ A वस्थि । १३ चा । १४ A ता । १५ A राद्वि । १६ A गाकृ । १७ Aणांसूषा । १८D तथा । १९ विश । २० A वेदू। २१ D छन्ने । २२ D ते । २३ A पे। २४ D सा । २५ A छा । २६ Dच। २७Aध्य । २८ A ङ्गाहा । २९ A न्वेगा । ३. A नरु। ३१D संव। ३२ A फा। ३३ A
या। A सयं । ३५ A वा । ३६ A सु। ३७D च । ३८ A ग । ३९ A त। ४. A छासु । ४१ A कोजन । ४२ A वि । ४३ A क्ष्ये । ४४ A सेक। ४५ A पुज्यायंक्ती D पूजां पङ्किदण्डं च विन्य । ४६A त। ४७A नी । ४८ A स्यं ।
Aho! Shrutgyanam
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८३
marnawwwwwwwwwwwww xnnn
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः। पोत्रिणां लुब्धकः संज्ञा दिवा वि(वी)क्षेत दण्डकं (के)। सूकरैर्दड (ण्ड) पङ्किस्था(स्था)श्रवणकाम(भ)क्षिता अ(न)पि ॥ ११ ॥ वर्धा (4) येत तदा दण्डमभीष्टि] स्थानकं प्रेति । पलवलं वा तडागं वा विविक्तं वा प्रदेशकम् ॥ १२ ॥ दण्डपति नयेत्तत्र क्रोडौस्तदनुयायिनः । दण्डमार्गे तु संलग्नाः सूराश्चणकोत्साः ।। १३ ॥ अ (आ) यान्त्यभिमतं स्थानं बहवो दण्डकान्तरे । विकिरेच्चणकांस्तत्र बहु(हू)नां चारकारणात् ॥ १४ ॥ चरन्ति सूकरास्तत्र स(सु) लुब्धाः प्रत्यहं निशि । वायोरधस्ततोदे(नोदे)शे महिषं दूरतस्तरौं' ॥ १५ ॥ बध्नीयोन्मृगयातो विश्वासार्थं निशात्रयम् । ततः मात्समीपस्थं कुर्वीत महिषं सुधीः ॥ १६ ॥ महिषान्झुत्तये(तु भये)त्यक्ते पोत्रिभिस्तु निशाष्टके । ताणी(णी) नराकृतिं कृत्वा महिषस्योपरि न्यसेत् ॥ १७ ॥ निशाद्वये व्यतीते तमारोहेन्मृगयुः स्वयम् । सञ्चार्यों महिप॑स्तेन यत्नौद्गन्धवहादधः ॥ १८ ॥ पौणिपादस्य चलनं दर्शयेच्च शनैः शनैः । चलनाश्च भये त्यक्ते क्षिपेचणकमेककम् ॥ १९ ॥ तस्य गन्धं समाघ्राय किश्चिक्षुभितमानसौंः । घर्घर निस्वनं कृत्वा केशानुत्क्षिप्य सर्वतः ॥ १५२० ॥
१A पत्रिणी। २ A छध । ३ D दह । ४ A ति । ५ A प। ६ A वक्त । ७ A क्ति। ८ A त । १D डां। १. D शा। ११ A न । १२D ने। १३ A नु। १४ A मा। १५ A कश्च। १६ A सवः । १७ A ताति । १८ A क । १९ A स्मा। २. A छाः। २१ A रे। २२ A या मृ । २३ Dस्त । २४ A त्र। २५A त्रा। २६ A श । २७ A रकं । २८ A वि। २९ A धिः। ३. Dन्नुभ। ३१ A तिम। ३२ A क्रति D कृती। ३३ A विन्य ।।४ A य । ३.A स्त्र। ३६ A यो। ३७ A हिस्ते। ३८Aना। ३९A | ४. A या। ४१ A त। ४२ Aल । ४३ A त्त। ४ Aच । ४५A सा। ४६ Aक्षु। ४७ A सा। ४८ A पं । ४९ A को। ५. A न तिमा। ५१Dशः।
Aho ! Shrutgyanam
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
- ९८४
मानसोल्लासः ।
श्रवसी सम्मुखीकृत्यं पुर्च्छमुन्नम्य सम्भ्रमात् । • ग्रासलुब्धस्ततः क्रोडाश्चरन्ति चणकान्पुनः ।। २१ ॥ एकैद्वित्रिक्रमात्तेषां चणकान्निक्षिपेद् बहून ।
ततो गन्धं सहन्ते ते सु (सु) करा ग्रासलालसः || २२ | प्रसृत्या सम्मितान्पश्चार्च्चणकान्निक्षिपेत् पुरः । चणकक्षेपसमये शब्दं कुर्याच्छेने (:) शनै (:) ॥ २३ ॥
एवं शब्द सहान्कुर्याद्वराहान्मृगयुरान् । ततो यष्टिं समादाय पृष्ठकण्डूयकं चरेत् ॥ २४ ॥
२७
ततोऽवतीर्य महिषोंकि ( कि ) यद्भिर्दिवसैः सुधीः । हस्तेन चणकान्दद्यात्पिष्टपिण्डांश्च लुब्धकः ॥ २५ ॥ ततः कण्ठे निबन्धीयाद् घण्टी (ण्टां ) नादैवत शुभम् । एवं विश्वासमौनीँयै नाम कुर्यात्पृथक् पृथक् ।। २६ ।। बहवो महिषारूढाः स्वकुर्वन्त्यथ सुकरानेँ । एवं संयोजितान्को लान्पृथक्स्थानस्थित बहून् ॥ २७ ॥ एकत्र मेलने तज्ञो विपिने सुखधामा । निर्जनं तृणभूयिष्टं लताविटपिसकुलम् ॥ २८ ॥
४१
वासार्थं कल्पयेत् स्थानं सोदकं पोत्रिणीं सुखम् । विलोरुद्रमस्थाने वेद" कुर्याद्विचक्षणः ॥ २९ ॥
हस्तमात्रसमुत्सेधां मध्यभागसमुन्नताम् ! तस्याः पार्श्वे कटैर्मित्तिं कल्पयेर्देपचारिणीम् ।। १५३० ।।
५३
[ अध्यायः १५
१५D तं ।
१ A सी । २ A समुखि । ३D त्वा । ४A छ । ५ । ६ A संत्र । ७A ष्वा । ८A न । ९A के । १० A तेषा । ११ A निक्षये । १२ Aध । १३ A त । १४ A सा । १६ A च । १७ A नि । १८ र १९A छ । २०D नः २१ A है । २२ Aश्व । २४ Aति । २५ Dषं । २६ A दि । २७ A धि । २८ द । २९ A तो । ३० A ताम् । ३२ A या । ३३ A प्र । ३४
।
२३ प्र ।
३१ A मा ।
प्र । ३५ A स्त्री । ३६ A रा । ३७ A ताब | ३८ हु । • A । ४१ A ति । ४२ A तू । ४३ A ये स्था । ४४ A णा । ४५A रूषां । ४६ A दि । ४८ A ण । ४९ A शेर्पा । ५० A । ५१ A तित्ति । ५२ A दं । ५३ A णि ।
३९A नैं । रुixs
४०
Aho! Shrutgyanam
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४]
मानसोल्लासः।
KAKKAM.CXYV१४
यथा विद्धं न पश्यन्ति मूकरास्तत्र संस्थिताः । अपरस्मि (स्मि)स्ततो वेद्याः पार्थ()स्थानं प्रकल्पयेत् ॥ ३१ ॥ ऊरुदन्ध (नं) कटच्छन्नं विद्धकरवारणम् । वेदिकायों प्रकुर्वीत नृपस्थानसमाश्रयम् ॥ ३२ ॥ हस्तमात्रान्तरं मा(स्था)नं महिषागमकारणम् । वेदिमारोहयेत्कोलान्प्रत्यहं चणकान्किरेंन् । ३३ ।। लोभैयेत्पायसै (सैः) पिष्टैसिकैश्च सुपिण्डितः । एवं सुशिक्षितान्कुर्याद्वदिकारोहणे किरी"[न] ॥ ३४ ॥ दिवा यामत्रयादूज़ चारयेत्सु(त्स्) करौन्क्रमात् । ज्येष्ठमासात्समारभ्य हेमन्तविधि पोषयेत् ॥ ३५ ॥ ततः पुंष्टा भवन्त्येते घृतीपण्डोपमा(मां गताः । नृपस्य पश्चात् कुर्वीत किञ्चिदूने निवर्तते(ने) ॥ ३६ ॥ मण्डपं सुविशालं च तृणभित्तिसमन्वितम् । तस्य पार्श्वद्वये कुर्याद्वृत्ति(ति) कण्टकनिर्मिताम् ॥ ३७ ॥ 4कुर्वीत तथा[रम्या] जनदर्शन(रू)पिणीम् । पटं नाम तदाख्यातं राजयोग्यं सकौतुकम् ॥ ३८ ॥ फंड(फड)मेवंविधं कुर्यान्मृगयुमंगमाहयेत् ।। ततश्चान्तःपुरैः पुत्रैः सामन्तैमण्डलेश्वरैः ॥ ३९ ॥ प्रसादपात्रैरन्यैश्च परमण्डलकैरपि। वृतो राजा विनोदार्थमागत्य कियदन्ततः ॥ १५४० ॥
४४
Aधं । २ A स्य । ३ A त । ४ A ता। ५ A स्मिश। ६A द्या। ७ A कु। ८ A छनं । ९ A सु। १.D याः। ११D वन्ते। १२ A याम् । १३ A भा । १४ का । १५ A । १६ A रे। १७ A त।१८ A _ । १९ A डि । २० सूक्षिता । २१ A कि D किरेत् । २२ A दुर्ध्व । २३ A रा क। २४ D षष्ठ । २५ A स । २६ A न्तो। २७ A पृ । २८ A तवेत्थे । २९ A घ्र । ३. A ता। ३१ A कुर्वि । ३२ A किवि। ३३ A सू। ३४ A वश्योतिति । ३५ A वृ। ३६ A त्तिकंकं। ३७ A तम् । ३८ D omits this line । ३९ A खा। ४०D फ। ४१ A र्यामृ । ४२ A र्यमा । ४ ३त्व । ४४ A त । ४५ A । ४६ A त्रै। ४७ A संयते । ४८ A न्ये । ४९ D लि। ५० A ते । ५ A ज । ५२-A त ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
मानसोल्लासः ।
विनिवार्येतरं लोकं पटं यायान्महीपतिः पूर्वाख्यात्म ( तान्प्र ) वेश्याथ स्वयं च प्रविशन्नृपैः ॥ ४१ ॥
मण्डपे च महादेवीं प्रेयसीजनसंवृतम् i ययोग्यासने सर्वां प्रवेश्य च महीपतिः ॥ ४२ ॥
१२
मृगयोचित नेपथ्य (ः) कल्पद्रुम इवापरः ।
म (ग)त्वा पूर्वदिन (ने) स्थानमात्मार्थ परिकल्पितम् ॥ ४३ ॥
दृढकोदण्डमादाय काण्डान्निशितलकानें । आतान्नमभिः" कोलामहिर्षोरूढ लुब्धकैः ॥ ४४ ॥ वेद्यामारोपितान्विध्येदाकर्णाकृष्टसायकैः ।
२७
३२
एकैकं क्रॅमशो विध्येत्कंक्षामर्माणि भूपतिः ॥ ४५ ॥ पैंतितानानयेच्छीघ्रं महादेव्याः पुरो न्यसेत् । एवं तु चौरजा प्रोक्ता मृगाणां पोत्रिणामपि || ४६ ॥
भूलोकमल्लदेवेन मृगयानन्ददायिनी । आढकीतिळ निष्पावगोधूमचणकादिभिः ॥ ४७ ॥
[ अध्यायः १५
पुष्पितैः फलितैः धूर्व(र्ण) क्षेत्रमयान्ति खादितुम् । मृग: सुबहवस्तस्मिन्कुर्यात्तोयवदम् ॥ ४८ ॥ गर्ते वा गृहे स्थित्वा मृगान्विध्यन्नराधिपः । मृगयाँ क्षेत्रजा प्रोक्ता बैहुसस्यप्रर्भेदैतः ।। ४९ ।। साम्प्रतं कथ्यते सम्यङ् मृगया मार्गसम्भवा ।
पानार्थे वा(खा)दनार्थं वा येनायान्ति पथा मृगाः ।। १५५० ।
६ A सं । ७A तम् । ८A घा । ९
१ A छोकें । २ D वा । १D ति । ४ Aप । ५वी । A गा । १० A नुवश्या । ११ A हि । १२ वि । १३ A ला
।
१४ A नू । १५ र
१६ Ag | १७ D नं । १८ A र्थ । १९ A निखि । २० Aत । २१ Aश | २२ A हु । २३ A न्मा । २४ A तिः । २५A लाम । २६ A स्वान्रुडुलक्ष । २७ A विध्य । २८ A कै । २९ A शतसो । ३० A क । ३१ A तू । ३२ A ति । ३३ A यदि । ३४ A छी । ३५A पु न्य । ३६ A नु । ३७ A वा । ३८ AF कादिति....... । ३९ Dadds this stanza । ४० A तै । ४१ A तै । ४२ A पुर्वते । ४३ A भायास्वादिनु । ४४ A गा । ४५ A तू । ४६ A न । ४८ A हस । ४९ A ते द ५० A न्तया । ५१ A र्थ ।
४७ A यो ।
Aho! Shrutgyanam
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिंशतिः।
मानसोल्लासः।
mmmmmmm.
पन्थानं तं समाश्रित्य गर्ने वा विटपेऽथवा । धृत्वा दीपमृगाराजा हरितांशुककञ्चुकः ॥ ५१ ॥ पैश्चकैलुब्धकैर्युक्तो विध्येद्रात्रौँ दिवाऽपि वा । दिवा चेत्प्रेयसीस्थानं किश्चिदूरे प्रकल्पयेत् ॥ ५२ ॥ गुल्मवर्टिपैश्छन्नं कुर्यात्स्थानमलक्षितम् । मार्गजैवं समाख्याता कथ्यते(त) ऊपरोद्भवा ॥ ५३ ॥ ऊपरं स्थानमागत्य ने(ले) हनाजाँतगर्तके। पर्वतस्य तटे कूले सरितः पचलस्य वा ।। ५४ ॥ मुँखं प्रवेश्य खादन्ती(न्ति) मृत्तिको लवणान्वितीम् । तत्र वायुगति ज्ञात्वा तिष्ठेचं विटपान्तरे ॥ ५५ ॥ मृत्तिकों लेलिहानांस्तानिम्नदेशे व्यवस्थितान् । पृष्ठवंशे दृढं विध्येद्यथा सो विभिद्यते ॥ ५६ ॥ उ(ऊ)षजा मृगया प्रोक्ता वैच्मि दीपमृगोद्भवौं । सारङ्गहरिणादीनां दीपानां वच्मि लक्षणम् ॥ ५७ ॥
पतो गुणतश्चैव वैयसश्च विभाँगतः । वर्णोद्धे (क्षि)ता महाकायाः सारङ्गास्तरुणीः श्रु(शु)भाः ॥ ५८ ॥ अभीखाः (वः) स्थिरा धीरास्तथा पासुसहिष्णवः । लोहं कुटिलपर्यन्तं मुखरज्वी समायुतम् ।। ५९ ॥ प्रान्तयोर्वक्रयो रवा दीर्घया मुंत(सुनियोजितम् ।
अन्तरे कोंकारं विभ्रमः कट(मत्कट)कं गले ॥ १५६० ॥ A यथा । २ A त्ये। ३ A ये च प्रैल छबुकैर्युक्तो । ४ A शे। ५ A सि । ६ A किचिदु ।
A RICA । ९ A स्था १० A नन । ११ A व । १२ A थयान्मू । १३ A वं । १४ A जात् । १५A को १६A र । १७ लवस्य । १८ A सु। १९ A क । २. A ता । २१ A ति । २२ A च । २३ A का । २४ A तास्तानिन्म । २५ A ता। ३६ A इप्रष्ठ । २७ A ध्योद्य याष्य। २८ Da | २९ A ति। ३.A ति। ३१ A सीदीय । ३२ D वाम् । २३ Aदि। ३४ A प्सल। ३५ A रुप । ३६A चैवं । ३७येवेसद्य। ३८ A ता। ३९ Aणताः । ४० A या । ४१ A स्त्र। ४२ A णा । ४३ A ता। ४४ A अति D आभी। ४५ A वा । ४६ A पाससहीष्णुव । ४७ A त । ४८D न्त । ४९ A द्वा। ५. Ad५१ A च्चा। ५२ A दि। ५३ D सुनिश्चितम् । ५४ A वा । ५५ A ततः । ५६A कंट ।
Aho! Shrutgyanam
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
मानसोल्लासः ।
सव्यापसव्ययोः कर्षे ग(ग) मैनागमयोरपि । शिक्षितास्ते वः प्रोक्ताः सारङ्गा दीपसंज्ञितः ।। ६१ ।।
मुक्तश्चाभीरवः शस्ता (:) पोषकस्यानुयायिनैः । चक ग्रासलोभेन ये न मुञ्चन्ति पोषकम् ।। ६२ ॥
वन्यैर्मृगैर्मिलित्वापि ये न गच्छन्ति ते न (व) : । हरिणी तरुणी रम्या शूरा धीरा सुशिक्षिता ॥ ६३ ॥ मुखरी रज्जुसन्धारको विदा सा प्रशस्यते । दलित शत (न) शृङ्गं तमेण ण्डकं विदुः ॥ ६४ ॥ हरिणीरूपसङ्काशं गौरवर्णं शुभं वदेत् । युवानमटवीमध्ये विधृतं पाशैरज्जुभिः ॥ ६५ ॥ मैंण्डुकस्वँसमायातमेषाम(णमा) टविक (का) विदुः । अयं स्वभवतो भीरुव काप्युपयुज्यते ॥ ६६ ॥
२६ २७
33
38
लावण्यमुपयोगोयै लुब्धकैरवधीरितः । मँण्डुको हरिणी वापि हरिणान्न विभेति चेत् ।' ६७ ॥
विटपादिविनोदेषु विनियोगस्तयोर्भवेत् ।
४६
४०
निर्मांसस्तु समुद्देशः पीनौ च मदकोशकौ ।। ६८ ।।
५१
स्कन्धादधस्तथा स्थूलत (स्त) शृङ्गे मनोहरे । अङ्गानि च विभक्तानि” रागस्योत्कटता तथा ॥ ६९ ॥ क्रोधो मँहीँश्च यस्यास्तिर्ह(ह)रिणं तं प्रशस्य ( चक्ष ) ते । रागवान् कोपयुक्तो यो दृशद्भूमौ च वर्तते ॥ १५७० ॥
[ अध्यायः १५
१ A व्यास । २ A योक। ३ A । ४ Aभ । ५ Aसि । ६ Aस्त । ७ A रामो । ८ A तासा । ९ Aदि । १० A ता । ११ A स्तास्वाती । १२A न । १३ A ल । १४ Aरा । १५ A णि । १६ A सु । १७ A धि । १८ A सश्य । १९ A दंड । २० Dणी । २१ A तड । २२A दु । २३ A रुि । ४ A सं । २५ र्ण । २६ A तं । २७ A हे । २८ Aवि । २९A यसंतीड । ३० A तं । ३१ A च । ३२ A वै। ३३ A दु । ३४ A ता । ३५ Aति । ३६ A नैव । ३७ A ष्फ । ३८ A सा । ३९ A वा । ४० A तं । ४ १ A ते । ४२ A रणि । ४३ A विते । ४४ A स्तोत । ४५ A मनु । ४६ A दें । ४ A नामर्द । ४८ D नू । ४९ A •मानि । ५०
। ५१ Aति । ५२A हा । ५३ D न्यो । ५४ A भ्यौ ।
Aho! Shrutgyanam
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
लावयित्वा तुं तं शृङ्गे दीपार्थं धारयेत्सुधीः । धृतस्तु बध्यते शङ्गे रज्वाँसो (सौ) मेढके दृढम् ॥ ७१ ॥ प्रातच सौंयं च धृतशृङ्गने जनान्तिके । पञ्चाशे (ञ्चपै) दिवसैर्यातैर्मुखे रज्जुं निवेशयेत् ॥ ७२ ॥
धृतशृङ्गः प्रमुचेर्ते धृत्वा दोरं मुखे स्थितम् ।
98
तेनैव भ्रामयेन्नित्यं हरिणं जनसंसदि ॥ ७३ ॥ दशरात्रे व्यतीते तु भण्डुकं पुरतः क्षिपेत् । तत्पुच्छ्देशमाघ्राय पाँतयित्वा तु कर्णौ ॥ ७४ ॥ रोमाञ्चिताने रागन्धः पुच्छन्नम्य कार्मुकैः । आरुरुक्षुस्तदो पृष्ठ वारंवारं मुदान्वितः ।। ७५ ।। धावत्यनुसरन्वेगद् भण्डुकं हरिणस्ततः । ईžग्विधो वरैः प्रोक्तैः कृष्णसारैस्तु लुब्धकैः ।। ७६ ।।
3
कोपाधिकैद्युद्धार्थ योज्यते मृगया बुधैः ।
करतो हरिणा मुक्त मुक्तसारङ्गवद्वैरा (१) ॥ ७७ ॥
४०
दीपलक्षणमित्येवं कथितं सोमभूभुजा । वर्षाकाले तु सम्प्राप्ते हरिच्छदुलकानने ॥ ७८ ॥ पश्चिमे मरुते वाति निदाघे निर्गते नृपः । पॉपयै प्रातरुत्थाय पापर्धिकजनैर्वृतः ॥ ७९ ॥
४७
४९
५०
पापर्धि (धिं) दीपमृगज सेवते पृथिवीपतिः । सारङ्गान्वीक्षयेद्यत्नादैव्यां स्वेच्छया स्थितान् ॥ १५८० ।।
१ A नु । २ A द्वि । ३ A थे । ४ D यन् । ५A धी । ६ A ९ A त्वाम्या | १० A सीर्य व । ११ A र्वि । १२ Aख । १३ A ति ।
૨૮૦
ते सु । ७ Aज्ञा । ८ A ट
१४ A चैत्य । १५ A ला |
२१A कैं । २२ Aर्ग । २३
।
२९ A गातेड्डु । ३० A त।
३६ A वै । ३७D ताः ।
१६ A नितां । १७ A ति । १८A तेडु । १९ A न । २० A पतई त्यानु । A छ। २४ A कम्। २५ A क्ष | २६ A था । २७ । २८ A तम् ३१ A द्र । ३२ A र । ३३ A त । ३४ A वस्रुत्वं । ३५ A तेडुहार्थ । ३८ A क्त शा D क्ताः सा । ३९ A द्धरा । ४० A द्वि । ४१ A त्वां । ४२ तूतूडा । ४३ A छाड । ४४ A भार । ४५ Aप । ४६ A पाप । ४७ A दि । ४८ Aनां । ४९ A प्रथपि । ५० A ति । ५१ A नीं ५२ D द्याना । ५३ A दृढ । ५४ Aछ । ५५ A ता ।
३७
Aho! Shrutgyanam
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९०
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः १५ न पश्यन्ति यथा ते च वीक्षेरंल्लुब्धकास्तथा । समीराभिमुखं यत्र शाखाछन्नाङ्गयष्टयः ॥ ८१ ॥ अथवोक्षसि(ति)रोधाना(ना.)पश्येयुः पृश(प)तां छ(ताञ्श)नैः । आँसीवा(ना)नदेतो वापि प्रष्ठे(?)कमुपवेशयेत् ॥ ८२ ॥ अत्र स्थित्वा निरीक्षवं चलिता नुगच्छतान् । यथा त्वा ते न पश्यन्ति तथा गच्छे शनैः शनैः ॥ ८३ ॥ पत्राणि विकिरद(रन)ग्रे बुद्धिमान्त(भ)व लुब्धकैं।
(त)मेकं च समादिश्य सं(त)दन्यापमृत्य च ॥ ८४ ॥ दृष्टिमात्रान्तरे त्वेकं तं पश्येतति(श्यन्तन्नि)वेशयेत् । ततश्चैकं(कः) समागच्छेविटपौन्विकिरन्य(न)पि ॥ ८५ ॥ तृपान्तिक समागत्य दृष्टास्तिष्ठन्ति भूमिप । इति विज्ञापितो राजा निवार्य सहवर्तिनाम् (नः) ॥ ८६ ॥ द्वित्रैश्च लुब्धकयुक्तो दीपसारङ्गहस्तकैः। विकीर्णमृगमार्गे वै हयारूढो महीपतिः ॥ ८७ ॥ आगत्य च कियदूंरं तेनैं ख्याती (तो) नरेश्वरः। पाहादवतरेत्तत्र छ(स्थ)लं पैश्यन्मृगोचितम् ॥ ८८ ॥ कृत्वा तु जङ्घयोस्त्राणं कीटकण्टकवारणम् । चापमादाय हस्तेन काण्डपञ्चकसंयुतम् ॥ ८९ ॥ दीपमन्यन हस्तेन शिक्षितं पुंषता(त) वरम् ।
विज्ञौ विश्वाससंयुक्तौ "दीपसारङ्गहस्तकौ ॥ १५९० ॥ १A स्य । २ A विक्षरं । ३ D तः। ४ A मि । ५ A ति । ६ A शोषा। ७ A वाक्षि । ८ A नां । ९ A पाशे। १० A छनौ । ११ A सि । १२ A दृ । १३ A ना। १४ A प्रष्टेकम् । १५ A स्थः
.४०
तोच १९Dक्षेत । १७ A लीनिता । १८ Dन। १९ A चां। २० A यस्य । २१ A छ । २२ A नै। २३ A यन्त्रा । २४A करान्य । २५ D नि । २६A द्धी । २७ D कः। २८ A मेकं। २९ D शवत्या ।
"D य। ३१ A टम। ३२ A न । ३३ A पाविकरन्य । ३४ A क। ३५ A स्र। ३६ A तूमप भूमिपम् । ३७ A वतिनां D वर्तिना । ३८ A त्रिष्व । ३९D युक्त दी । ४०A के । ४१A क । ४२ A ढ। ४३ A हि । ४४ A दू। ४५ D ताना । ४६ D तान् । ४७ A र । ४८ D तत्र । ४९ A पश्य । ५. A गान्विते । ५१ A ऋवा । ५२ A नु । ५३ A स्तापा । ५४ A दि। ५५ A नो।५६ A सिक्षते । ५७ A प्रषर्त । ५८ A हो । ५९ A दि ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
1
लुब्धकावनुगच्छेतां सावधानौ नृपोरतो अन्तरस्थातिकं (निको) गत्वा पुरस्थमनुबोधयेत् ॥ ९१ ॥
"तेनाहूतास्ते गच्छेयुर्युवभिर्व्व( यवसै) तमूर्तयः । सारङ्गा दर्शितास्तेन स्वेच्छासंञ्चारवर्तिनः
९२॥
विघ्नन्तो "विटपान्केचित्केचिल्लीलादृतावहा(हवाः) । शयानाः कुत्रचित्केचित्केचिद्रोमंध ( मन्थ ) कारिणैः ॥ ९३ ॥ तृणग्रासरतीः केचित्केचित्कण्ड़्यनोद्यतः । एवंविधन्मृगान्दृष्ट्रा विविच्य "विटपावली में ॥ ९४ ॥
विशेयुर्मृगसार्थस्य दृष्टिं हित्वा शनैः शनैः ।
वीक्ष्यमाणेषु तिष्ठेयुः प्रविशेयुञ्चरत्सु च ।। ९५ ।।
30,
पुरो दीपमृगान्कृत्वा व्रजेयुर्जानुभिः शनैः । स्तब्धङ्गाः स्तब्धकर्णैश्च प्रसरितशिरोधरौँः ॥ ९६ ॥ वीक्ष्यन्ते भे(चे) दविश्वस्ता विश्वस्तः शिथिलाङ्गकः । चैरन्तो विलिहन्तोङ्गमासीना मिलितेक्षणः ॥ ९७ ॥ विश्वस्तास्ते मृगा ज्ञेया मृगचेष्टाविशारदैः । विश्वस्ताते समायान्ति मृगा दीपमृगान्तिकम् ॥ ९८ ॥ संयोगार्थी तो (ता)र्थ वा युद्धार्थं वा रुषान्वितः(ताः) । स्वल्पं विटपमासाद्य तिष्ठेत्स्वस्तिकदुर्दुरे ॥ ९९ ॥
૪૮
मध्ये विपके तिष्ठेदाली स्थानके नृपः ।
५५
उन्नत”“ तरुमाश्रित्य वैशाखं स्थानमाश्रयेत् || १६०० ॥
२९१
1
१ A छे । २ A घातौ । ३D र । ४ A तिगं । ५ D तत्पुच्छ । ६ A स्तेनाहृति व्रजस्तेयुवनैसंमुवर्त्तपूर्तय । ७ A शि । ८ A मं । ९ A न । १० A विर्यदपाते केपिलिलादृता । ११ A विक्तेविकेविद्रोमंच । १२ A णा । १३ A ता । १४ A वित्कं । १५A ण्डु । १६ A तां । १७ A धामृ । १८ चि १९ A लिम् । २० A मृ । २१ A र्द्ध । २२A नै । २३ A नै । २४ A वि । २५ A यु । २६ A स्रुव । २७ A रादि । २८ A गा । २९ A ३२ A त्वां ३३ A ब्रू । ३४ A र्ण । ३५ A शा । ३६ A रा । ३७ A वितांते ते । ३८ A स्था । ३९ A सि । ४० A क । ४१ A व । ४२ A न्ता । ४३ A मिता । ४४ ४८ A र्थ । ४९ D अपाना । ५० A धा ५५ A त । ५६ A षं । ५७ D चरे ।
। ३० A जांनुति । ३१ A नौ ।
।
Aणा । ४५ A वे । ४६ A सारदे
४७
दि ।
।
५१ A टेस्व । ५२ D देरे । ५३ 4 द । ५४ 4 १ ।
Aho! Shrutgyanam
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२
मानसोल्लासः ।
समपादेन वा तिष्ठेत्सन्धाय निशितं शरम् । गोपयित्वा तरौ गात्रं वञ्चयित्वा मृगेक्षणम् ॥ १ ॥ सारङ्गमागतं विध्येत् कर्णान्ताकृष्टसायकः । बेदी मृगैरेवं निहन्यात्पृषतान्बन् ॥ २ ॥
मुक्तसारङ्गवेल (घ) स्य विधिं वक्ष्यामि साम्प्रतम् । अनेनैव प्रकारेण मुक्तसारङ्गदीपकैः ॥ ३ ॥
99
प्रविश्यांश्रित्य विटपं तिष्ठेत्स्वयमकम्पितैः । ततस्ते मुक्तसारङ्गा गच्छन्ति पृषतान्तिकम् ॥ ४ ॥
१५
१६
मिलित्वा वन्ययूथेन क्रीडन्ति क्षालिताँङ्गकाः । अन्योन्यमुखमाघ्राय धौतगन्धलक्षितम् ॥ ५ ॥ परं विश्वासमागत्य विहरन्ति यथासुखम् । विकीर्य चणकानग्रे छोटिकादानसंज्ञया ॥ ६ ॥
ततः स्वपोषकाहूतः समायान्ति तदन्तिकम् । दीपैः सार्धं समायान्ति वन्यः सारङ्गन्कार्द्धं (द्रु)तम् || ७ || अयमेकप्रकारो द्वितीयोथ (पि) निगद्यते ।
२८.
बलीवर्दं तिरोधाय परिभ्रम्यातिदूरतः ॥ ८ ॥
गच्छन्तमनुगच्छन्तो मुक्तौ सारड्रन्दीपकाः । सहसौंसन (न) मार्गेण पोषके दत्तचक्षुषः ॥ ९ ॥
३८
वैन्यैर्मृगैर्मिलन्त्येते मुक्तसारङ्गन्दीपकाः । पोषकैः पवनस्यार्षैः समागत्य मृगान्तिके ।। १६१० ॥
[ अध्यायः १५
११
।
१ A ष्ठ । २ A त । ३ A ध्ये । ४ A ष्ण मायकं । ५ Aव । ६ A दीय | ७ हु । ८ A वामुक्त । ९ A लेष । १० A त्पकै । १२A ष्ठेस्व । १३ A ता । १४ A न्त । १५A मी । १६ A त्रि । १७ A तागका । १८ A षां । १९ व २० A कि । २१A ता । २२ A ते । २३ A पै । २४ A र्ध । २५ A न्या । २६ A डु । २७ A रेण । २८ A दें । २९ A तृगात्वरत । ३० A छनु । ३१ D क्त्वा । ३२ A दिपका । ३३ A स्थान । ३४ A वहु । ३५A अ । ३६ A लि। ३७ A मू । ३८ A दिपकं । ३९ A क । ४० A च । ४१ A न्तकौ ।
Aho! Shrutgyanam
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
निविष्टो लक्षितो भूत्वा तिष्ठेद्दीपस्य पोषकः । बलीवर्दतिरोधनं (नाः)वेष्टयन्ति समन्ततः ॥ ११ ॥ ततो नृपं समाहूय कृत्वा शाखिनमाश्रयम् । निखाय विपान पृष्ठे पार्श्वे समन्ततः ॥ १२ ॥ देवींनामाश्रयैः स स्यान्नृपपाश्चात्य भगतः । लुब्धकानां पुरोभागे विटपान्तरितस्तथ ॥ १३ ॥ 'पूर्वं कल्पयेत्स्थानमानयेत्पोषर्कैस्ततः । पोषकस्य समायान्ति संज्ञया 'दीपका मृगः ॥ १४ ॥ वन्यास्तनिनुगच्छन्ति बलीवर्दतिरोहितः । ततैः समीपमायातान्सारङ्गथलनोतान् ॥ १५ ॥ विध्येत्कर्णान्तकृष्टेन बाणेन निशितेन च । रुरुमैनेन मार्गेण शम्बरान्हरिणानपि ॥ १६ ॥ मुक्तद्वी (दी) पमृगैर्युक्तान्विध्येद्विश्वम्भरापतिः । २९ पोतः षण्मासिकः प्रोक्तो वकैंडो हरिणो भवेत् ॥ १७ ॥ अत ऊर्ध्व तु वाघे वर्षमेकं निगद्यते ।
३२
लैको नामत्वत ऊर्ध्वं तत्रु
....
मसषङ्के ततो याते ममुळः परिकीर्त्यते ॥ १८ ॥ तत (तः) संवत्सरार्ध्वं कृष्णसारो भवेन्मृगः । गुल्ममार्गदरीगुल्मीं कृत्वा सीमां समन्ततः ।। १९ । स्वीकुर्वन्त्यैटवीं तत्र सहते नान्यमेणकम् । छैंया स्थितम्
आदाय हरिणदीपं गच्छेत्तस्यान्तिकं नृपः ।। १६२० ॥
300 ......
२९३
१ A ते तू चा । २A दी । ३ Aक । ४ A दा । ५ A याति । ६ A त । ७A हु । ८ A धाव ।
९ A ट। १० A वि । ११ A य । १२A तागत । १३ A त्वा । १४D एवं ।
१५A कल्पय । १६A कसूत ।
२२ A त । २३ A पयाता । ३०D कडा । ३१ A उर्द्ध वु
१७ A स । १८ A दि । १९ A गा । २० A स्तानग । २१ Aतः । २४ A य । २५ A द्ये । २६ A ता । २७ त । २८ Aति । २९ A यो । वाद्यै । ३२ A मै । ३३ D omits this line | ३४ A समास । ३५ A डु । ३६ A ता । ३७ A ते । ३८ A कि । ३९ A स । ४० A दु । ४१ A वे । ४२ A ग । ४३ A रि । ४४ A मा । ४५ A त । ४६ A न्यटवी । ४७ A क । ४८ Domits this line | ४९ A णिदि ।
1
Aho! Shrutgyanam
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९४
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः१५
आश्रित्य विटपं राजा चालयन्हरिणीं पुरैः । दर्शयेद्वी(द्दी)पमेणस्य निगृहितनिजाङ्गकम् ॥ २१ ॥ हरिणं भैण्डुकासक्तमारोहन्तं स्मरावरम् । आत्मनः पश्चिमे भागे दर्शयदूर्ध्वदेशर्ते : ॥ २२ ॥ कामासक्ता मृगौः प्रोक्तीः सवर्णा यान्ति सत्वरम् । तत्र वेध्यो मृगैः शीघ्रं सम्मुखोऽपि महीभुजा ॥ २३ ॥ आगत्य दूरतो स्थित्वा यदि नायाति कातरः । पाश्चात्यमानयेदेणं तथा भैण्डुकसंयुतमे ॥२४॥ हरिणं भैण्डुकासक्तं धृत्वैव पुरतो जेत् । हरिणो(ण) भण्डुको(क) वापि धृत्वान्यस्तमनुव्रजेत् ॥ २५ ॥ अन्यो धृत्वा बलीवर्दै तिष्ठन् गन्धवहादधः । वायोरधस्तीयान्तं प्रयत्नेन निवारयेत् ॥ २६ ॥ कृष्णसारं तिरस्कृत्य जानुभ्यों ते शनैः शनैः । गच्छेयुर्हरिणाभ्योशं प्रेरयन्तो मृगी पुरैः ॥ २७ ॥ ततस्त्वैरण्यहरिण(गः) कुण्डैलीकृतपुछकम् (कः) । श्रवसी संधैवयितुं सम्मुखं परिधावति ॥ २८ ॥ ग्रीवां प्रसार्य सारेण यदा वोढुं स गच्छति । मृगी तदा समात्किञ्चित्किञ्जित्पुनः पुनः ॥ २९ ॥ कामासक्तं भृशं ज्ञात्वा निजरूपं प्रदर्शयेत् । शब्दं च श्रावयेदेनं रोषमुत्पाद्य लुब्धकः॥ १६३०॥
१ A रणि । २ A रा । ३ A णणस्य । ४ A ही । ५ A ते । ६ D मरारु। ७ A दु। ८ A कम् । ९ A मशक्त्या । १० A गा । ११ A ता। १२ A ति । १३ A श्यो। १४ A गं । १५ A रे। १६ A ता दु। १७ A पश्चाताप्रामाणे । १८ A तेडु । १९ A तै । २० A ते । २१ A मृगैकं । २२ A वृजो । २३D omits this line । २४A न्यो मृ D न्यं । २५A लिवृदै । २६ A पायातां । २७A त्यां । २८ A छ । २९ A भास । ३० A गी । ३१ A र । ३२ A स्व । ३३ A लि क । ३४ A श । ३५A सि । ३६ A श्र। ३७ A नु। ३८ Aख । ३९ A ढं। ४० A छ । ४१ A गो। ४२ A वर्षे । ४३ A कि वि किवित् । ४४ A तृ। ४५ Aक।
Aho ! Shrutgyanam
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
बलीवईकरं पश्चादानयेत निजान्तिकम् । बलीवईतिरोधानानुत्यय (प्या) भ्रौम्य तत्व (त्व) तः ॥ ३१ ॥
ततस्त्वैरण्यहरिण इतैश्चेतश्च धावति । वायोरुँध्र्त्रमधो गत्वा ज्ञात्वा गन्धं तु मार्गजम् ॥ ३२ ॥
रूपम तथा गन्धमनुभूय स्मरातुरः । आयात्यसन्नमं (म) त्रस्तो रिरंसुह (ई) रिणो यदा ॥ ३३ ॥
१४
तदा क्षीवपदं गत्वा ज्ञात्वा वायुमधो वसनें । पूर्ववत्प्रेरयेदेणीमेणं निकटमानयेत् ॥ ३४ ॥ पापर्धिकाः समुत्थाय वैणी (ण) कृत्वा तमेणकम् । मुष (ख) मुष्टिसमायोगाद्वैवाशब्दं प्रकुर्वते ।। ३५ ।।
२३.
शृङ्गं धृत्वा विमुञ्चन्ति वरं बध्नन्ति शृङ्गन्योः । एवं गैलतिकं ज्ञात्वा विज्ञपेयुर्महीभुजम् || ३६ ||
२६
ततो राजा प्रमोदेन प्रमदाजनसंयुतः । प्रसादचिन्तकैः सार्धं बलीवर्दतिरोहितः ॥ ३७ ॥
आगत्य हरिणस्थानं पाणवादाय कार्मुकम् । अर्धचन्द्रं" शरं मौन्य सन्धाय निशितं नृपः ॥ ३८ ॥
३७
विध्यत्तु कन्धरां तस्य यर्थौ राहोः शिरो हरिः" । तेनोत्कर्षमवाप्नोति चापकर्मणि पार्थिवः ॥ ३९ ॥
दीपजैवं समाख्याता मृगया चित्तहारिणी । भूलोकम देवेन भुवनख्यार्तकीर्तिना । १६४० ॥
२९५
१ A दा । २ A छा । ३ A त्वश्यतसून । ४ À स्वराणा । ५A र । ६ A ते । ७A रु।८ A न्धनु । SA जैकं । १० Aरु । ११ A तू । १२ पु । १३ A त्पाय । १४ A चं ह । १५ A सेत् । १६ A यने । १७ A ति । १८ A छायन् । १९ A वेणी । २० Aक । २१ A मू । २२ D दैवाच्छ । २३ A ये । २४ D लग । २५ A जये । २६ A हिभु । २७ A ता । २८ A गतकै । २९A तः । ३० A णां । ३१ A न्द्र । ३२ A व्या । ३३ A संजा । ३४ A पं । ३५ A धातु । ३६ A त्वा । ३७ A रि । ३८ A वा । ३९ A प्र । ४० A तू । ४१ A ल । ४२ A तू । ४३ A कि । ४४ A ता ।
Aho! Shrutgyanam
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसोल्लासः।
[अध्यायः १५
विधृत्य विटपं पाणी पत्रान्तरितविग्रहः। प्रभञ्जनगतेश्चौधः स्थित्वा गत्वा मृगान्तिकम् ।। ४१ ।। पश्चिमे मारुते वाति नानाविटपसञ्चये । कोमलैः पदसञ्चारैवने हरितशाद्वले ॥ ४२ ॥ अलक्ष्यो वृक्षवद्भूत्वा शनैर्गत्वा मृगान्तिकम् । विध्येन्निशितभल्लेन मृगान्ममणि पार्थिवः ॥ ४३ ॥ एवं विटपजा प्रोक्ता वधैजा कथ्यतेऽधुना । मृगत्तिकृता "दीर्घा तत्तनूरोमसंयुता ॥ ४४ ॥ मृगयूथं समावेक्ष्य तत्र वधीः प्रसारयेत् । उययुपरिपङ्क्तिस्थास्तिर्यग्वाति समीरणे ॥ ४५ ॥ वधोपान्तप्रदेशे तु विटपे निवसेन्नृपः । अन्यतो लुब्धकाः सर्वे बलीवर्दकरा अपि ॥ ४६॥ एकतो मृगयूथस्य शब्दैः कुर्वन्ति तर्जनम् । मृर्गौः पलायनपरा लक्यन्ति न वैधिकाः ॥ ४७ ॥ वधिकाभ्याँशमार्गेण समाान्ति पान्तिकम् । तत्र विध्येच्छरैस्तीक्ष्णैलाधवं दर्शयेन्नृपः ४८ ॥ एवं तु वजा प्रोक्ता मृगया कौतुकाश्रया । कथ्यते काण्डपटजा मृगयौँ राजसम्मता ॥ ४९ ॥ विदित्वा मृगसञ्चार गहनं वीक्ष्य काननन् ।
सावकाशे प्रदेशे च कुर्वीत विटपाश्रयम् ॥ १६५० ॥ A हा । २ A तेड । ३ A साधः । ४ A कां । ५ A कंपिते तरुसेवयेन् । ६ A लैप । ७ A रैव ।
TA नि। ९ A त । १० A गाम। ११ Aणी । १२ A व । १३ Aध । १४ Aक। १५A दिप्पा ।
A नन । १७ A नीः । १८ A स्नियावा । १९ A धो । २० A ति । २१ A न । २२ A कास। २३ A ब्दै कु । २४ A गाप । २५ A वं । २६ A yी। २७ A त्पा । २८ A याति । २९ A मृ । ३. A छरे । ३१ A छै। ३२ A प्प । ३३ A य । ३४ Aध । ३५A व्या । ३६ A रग । ३७ A विक्ष । ३८ A तु।
Aho ! Shrutgyanam
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
उन्नतं चं विशालं च परिकल्पये महीरुहम् । शाखां छिन् (त्वा) तरोस्तस्यै वायव्यासङ्गकारिणीम् ॥ ५१ ॥
पार्श्वयोश्च पुरो भित्तिं कुर्यार्द्धस्तद्वयान्तरम् (रे) । पञ्चहस्तप्रमाणेन पश्चाद्दीर्घं (घ) प्रकल्पयेत् ॥ ५२ ॥
छिन्नशाखद्रुमस्याधः पार्श्वयो[वि]टपान्न्यसेत् ।
११
१३
हरितैः पल्लवैर्युक्तांस्तंत्र संवर्धितानि च (नपि ) ॥ ५३ ॥
१५
नाभिर्देघ्ना (घ्नां)न्तु तां भित्तिं छादयेद्विटपत्रजैः " । तृणैरलक्षितां कुर्याद् व्याघ्रमुकरवारिणीम् ॥ ५४ ॥
दशहस्तान्तरे भित्तेः पार्श्वयोरुभयोरपि । आरभ्य काण्डपर्टकास ( (न्सा) रयेद्विस्ता पु (पु) ।। ५५ ।।
लुब्धकः शतसङ्ख्याकाँ गच्छन्ति नृपशासनात् ।
२८
बहिः” काण्डपटेभ्यैस्ते यावत्काण्ड पटावधि (धिम् ) ।। ५६ ॥
कोशमात्रावधिस्तत्र पटाना मैन्तयोर्भवेत । पूरयेयुरिति ज्ञात्वा भट पक्षद्वयस्थितीः ॥ ५७ ॥
राजा महीरुहं पृष्ठे कृत्वा पृच्छे (पश्ये) दतन्द्रितः । पश्चाद्भागे प्रियाः कान्ताः कान्तियुक्ता निवेशयेत् ॥ ५८ ॥
प्रसादचित (त्त) कांस्तज्ञै (ज्ज्ञा) शितशस्त्रधरान्नैयेत् ।
४३
योषितां पृष्ठभांगे तां(तान् ) भित्तिमध्ये निवेशयेत् ॥ ५९ ॥
ततः पङ्क्तिस्थिताः सर्वे लुब्ध कास्त्रों सहेतवे ।
ध्र्ध्वनिमुच्चैः प्रकुर्वन्ति प्र (प) लायन्ते यथा मृगः ॥ १६६० ॥
૨૨૭
१ Aव। २A ३ A हि । ४ A द्यस्त । ५ A स्यसावापव्या । ६ A णि । ७ A तिति । ८ A द्व। ९ A दिर्घा । १० A विटपान्य । ११ A तै । १२ A तत्र । १३ A धि । १४ A तिघ्नातुतातित्ति । १५ A जै । १६ A वॄ। १७ A ता । १८ A र्याव्याद् । १९ A णि । २० A त्तिते । २१ A यारुत्तरयो । २२ A ड । २३ A गु । २४ A युत । २५A का । २६ A सा । २७ Aछ । २८ A र्हि । २९ A त्य । ३० A ड । ३१ D धिः । ३२ Aधीत । ३३ A यन्तयोर्त । ३४ A पुरयेशमि । ३५ Aत । ३६ A ता । ३७ A वितका । ३८ A ज्ञशि । ३९ A न । ४० A तागेता । ४१ A तिति । ४२ A तत्पक्ति । ४३ A ता । ४४ A तुश्च । ४५ A शास्त्रहेतवो । ४६ A धनीमुच्चै । ४७ A गां ।
३८
Aho! Shrutgyanam
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९८
मानसोल्लासः ।
पृष्ठतचानुगच्छन्ति पङ्किस्थास्तु शनैः शनैः । ततो नृपान्तिकं यान्ति मृगः सर्वे भयातुराः ॥ ६१ ॥
वीर्थिर्द्वयेन धावन्ति रुरुसारङ्गसंवराः ।
हरिणः सूकरा व्याघ्रा को ऋक्षाच जम्बुकः ॥ ६२ ॥
99
१२
विध्येत्तांश्च महीपालो नाना मुखशिलीमुखैः" ।
3E
धावतो वीथियुग्मेन लक्ष्यलाघच (व) संयुतः ॥ ६३ ॥
प्रकारमन्यं वक्ष्यमि तथा काण्डपटाश्रयम् । बलीवर्दकरैः पुम्भिर्बहुभिर्मृगसञ्चयान् ॥ ६४ ॥ कृतानेकत्र मिलितान् विश्वैस्तान् स्वेच्छय स्थितान् । वायोरेधस्तनाद्देशात् शकटद्य हूँ (टाग्रह) तैः पदैः " ॥ ६५ ॥
३१
३०
वेष्टयेयुः समन्तात्ते बलीवर्दतिरोहिताः ।
दूरतो दृष्टिपात (:)स्या मा (मा) तस्य यथाप्यधैः ॥ ६६ ॥
३६ ३७.
वायोरधस्तथा पार्श्वे वेष्टयित्वा पदैः सितैः । वेष्टयेयुतं पार्श्वभागं न (गम )शेषितम् ॥६७॥
(प)टनाक्रम्य तिष्ठन्ति समन्तालुब्धका दृढम् । यथा समीरणस्यापि निष्कासो दुर्लभो भवेत् ॥ ६८ ॥ एवं कृत्वा ज (न) येयुस्ते नृपैः(पं) प्रियजनैर्वृतः तम् ) । ततः प्रविश्य भूपालः पूर्ववद्विपार्थः ॥ ६९ ॥
बलीवर्दकरैस्तज्ज्ञैर्विधृतान्मृ(मृ)गयूथकान (काः) । समन्तात्परिधावन्त यान्ति नृपसम्मुखम् || १६७० ॥
[ अध्यायः १५
१ A पङ्क्तीस्थासु । २ A नै । ३ A नै । ४ A गा । ५ A तयातुर । ६ Aवी । ७ A रंससंवरा ।
८ AS A करु । १० A का । ११ Aता । १२A हि । १३ Aसु । १४ A सीलि । १५A खे । १६ A विवि । १७ Aक्ष । १८ Aक्षा । १९ A लिवर्छ । २० A रै पुं । २१ A बहु । २२ A मृ । २३ A श्वास्ता । २४ A या... । २५ A रयोष । २६ A देशा । २७ D व्याहृतै । २८ A दै । २९ Aष्ट । ३० A ते । ३१ A लिव६ । ३२ A ता । ३३ A दु । ३४ A या । ३५ Aथद । ३६ A दै। ३७ A शितै । ३८ A द्रु । ३९ A त्पुर्व । ४० A गां । ४१ A ते । ४२ A म । ४३ A लु । ४४ A मि । ४५ A थे । ४६ प ४७ A भृ । ४८ A त । ४९ A श्रीत । ५० A लि । ५१ Aरि । ५२ A वि । ५३ A मृगयुथकम् । ५४ A पं । ५५ A अयोति ।
Aho! Shrutgyanam
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९९
विंशतिः४]
मानसोल्लासः। तत्र श्रान्तीस्तृषाक्रान्ताञ्वसन्तः(तः) परिधावतः । शरैर्नानाविधैर्विध्येद्धरिणान् धरणीश्वरः ॥ ७१ ॥ एवं काण्डपटोद्भूता मृगया परिकीर्तिता । सोमेश्वरनरेन्द्रेण वाहजा कथ्यतेऽधुना ॥ ७२ ॥ जात्यमश्वं समारुह्य शिक्षितं जविनं नृपः। सितैः सेल्लैस्तथापासहन्यात्तु हरिणादिकान् ।। ७३ ।। अश्वजा मृगया प्रोक्ता ताडिका कथ्यतेऽधुना । ऐकस्पेति(नि)ले वाँति पश्चिमाशीसमुद्भवे" ।। ७४ ।। कोमले शाहले स्थाने समे मत्त(पत्र)विवर्जिते । रुरु हरिणमेकं वा निरीक्ष्याक्ष(क्ष्य श)रवर्जितम् ॥ ७५ ॥ . निवार्य सेवकान्सवास्ताडकेन समन्वितः । सशरश्चापमादाय वसुधाधिपतिव्रनेत् ॥ ७६ ॥ वायोरधस्तने स्थित्वा ताके (क) प्रेरयेत्ततः । दूरतस्ताडको गत्वा भ्रमिता ममवत्तंगै (काभ्रमवर्तन:) ॥ ७७ ॥ विकीर्य मूर्द्धजान पश्चात्कुर्वाणैः करतालिकाः। विकँतानिनदौन कुर्याद्यथा पैश्येदसौ मृगः ॥ ७८ ॥ मृगो भ्रान्तमनाः पश्चात्ताडके दत्तलोचनः । निश्चलीकृतसर्वाङ्गो वीक्षते नान्यतः कचित् ॥ ७९ ॥ ततो राजा समुत्याय कोमलैश्चरणक्रमैः । प्रधावतु तमायातु मृग(गं पृष्ठप्रदेशतः ॥ १६८० ॥ A ता । २ A न्त । ३ A ना। ४ A विध्वैध । ५ A रिणश्वराः । ६ A ण्ट । ५.A भू ।
८A खेद्र । ९ A चा । १. A तामश्व । ११ Aप । १२ A शितेशेले । १३ A प्रोशेहन्या तु । १४ A नाडी। १५ A ऐ । १६ A रु । १७ A वापिति । १८ A सा। १९A वेत् । २० A त । २१ A रुरुहं हरिणे । २२ Aक्षा । २३ A तिनम् । २४ A यें । २५ A सर्वा । २६ A ता। २७ A धी। २८ A कृ। २९ A ट । ३. A त । ३१ A तु । ३२ A ग । ३३ A कि । ३४ A मुद्धेनान्यश्वा । ३५ Aण। ३६ A का। ३७ A कि। ३८ A निन। ३९ A दाकु । ४० A वश्ये दृशो मृग। ४१ A श्रा। ४२ A ना । ४३ A गो। ४४ A वि। ४५ A थ । ४६ A का । ४. A मौ । ४८A नु।
Aho! Shrutgyanam
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
३००
मानसोल्लासः ।
पुच्छेदेश समुद्वीक्ष्य विकृष्य सशरं धनुः अनुचित्तं मृगं विध्येद्यथा वक्षसि भज्यते ॥ ८१ ॥
ताडिता (का) मृगया प्रोक्ता वायुजा मर्त्यतेऽधुना । प्रचण्डमारुते वाति मिलिते मृगयूथके ।। ८२ ।
३०
वायोरूर्ध्वं नृपो गच्छेल्लुब्धकैश्च दशाष्टकैः । यत्र गन्धवहो याति मृगाणां सम्मुखं ततः ।। ८३ ॥
आश्रयेच्छाखिनं तत्र विटपं वावा दरीम् । पाणावाधाय कोदण्डं विविधव शिलीमुखान् ॥ ८४ ॥
गात्रं " निगूह्य बाढं च मृगाणां सम्मुखं नृपः । सन्धाय सायकं तिष्ठेन्मृगयाकेलि कौतुकी ॥ ८५ ॥ गच्छन्ति लुब्धकः पश्चाज्जल्पन्तो मार्गणीं इव । मृगयूथपरिभ्रान्त्या (न्त्यै) कुर्युस्ते नादमुच्चकैः ॥ ८६ ॥ ततो सुगः परिभ्रष्टा वायोः " सम्मुखगामिनैः । त्वरया परिधावन्ति यत्र राजा व्यवस्थितैः ॥ ८७ ॥
पुरोगामिनमुत्सृज्य शेषान्विध्येन्मृगान्नृपैः । एवं तु वायुजा प्रोक्ता दामिनी कथ्यतेऽधुना ॥ ८८ ॥
39
विधृत्यै बलिवर्द" यद् दिवात[प] विवर्जितः । मृगाननुसरेरात्प्रत्यहं मृगयुर्वने ।। ८९ ।।
[ अध्यायः १५
न लभन्ते मृगा घाँस पानीयं नाप्नुवन्ति च । क्षुत्पिपासासमाक्रान्ताः श्रान्ता मृष्यन्ति लुब्धकम् ।। १६९० ॥
१ Aछ। २A शे । ३ A द्वे । ४ A नु । ५ A चिन्त्य । ६ A न्थे । ७ A मता । ८ A रुद्रे
मृगो । ९A छेलु । १० A के । ११A छा । १२A थदशी । १३ A दां । १४ A शिमुख । १५ A त्रातिगुल्हाबाटं । १६ A खो । १७ A कि । १८ A छ । १९ का २० A णो । २१ Aला। २२ A पुछकै । २३ A गा । २४ A तृ । २५ A यो । २६ A नं। २७ Aता । २८ Aप । २९A म । ३० A ता । ३१ A यदि । ३२ A हू । ३३ A पूर्वत । ३४ A तं ते । ३५ A श्वा । ३६ A. नि । ३७ A क्षपियासासमांकीता मृष्यन्नि लुब्धकं ।
Aho! Shrutgyanam
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः ४ ]
मानसोल्लासः ।
ततः क्रमेण निकटं समागच्छति लुब्धकः । घासव्यग्राः क्षुधाक्रान्ताः सन्ते लुब्धकध्वनिम् ॥ ९१ ॥
एवं दमनजा प्रोक्ता कोपजा कथ्यतेऽधुना । लोकमल्लदेवेन मृगयातत्ववेदिना ॥ ९२ ॥ म्यर्थं स्त्रीनिमित्तं वा युध्मानामर्पिता (तम्) | वृक्षान्तरितगात्रस्तु विध्येत्तंत्र मृगं नृपैः ॥ ९३ ॥ कोपजा मृगया प्रोक्ता साम्प्रतं कामजोच्यते । रममाणौ मृगौ कामद्धन्याद्यत्र नराधिपः ॥ ९४ ॥
कामजा सा मृगव्या स्यादिदानीं " ध्वनिजोच्यते ।
३१.
२२.
आश्रित्य भूरुहं राजा मृगभक्ष्यैः फलैर्युतम् ॥ ९५ ॥
दीपसारङ्गकाये विधार्थी धरणीपतिः " । सारङ्गन्वदर्भिज्ञात्वा (य) मृगयैः कारयेद् ध्वनिम् ॥ ९६ ॥
ध्वनि श्रुत्वा समायान्ति सारङ्गा ध्वनिसाम्यतः । सायंकाले तथा रात्रौ प्रातर्वा पृथिवीपतिः ॥ ९७ ॥
३२ 33
निशितैर्विशिखैर्विध्येदधिज्य।कृष्ट कार्मुकः । ध्वनिजैवं समाख्याता व मदविकारजा ॥ ९८ ॥ तगरस्य फलं दद्यात्सारङ्गाय विचक्षणः । पलाशपुष्पं रुरवे मीनानामिङुदीत्वचः ॥ ९९ ॥
३५
ततैः प्रमत्तः सारङ्गस्ततो विध्येन्नराधिपः । मत्स्यश्च मलिनोत्तानान्मत्तीन्विध्येोर्च्छिलीमुखे (खैः) ॥
१ A त्र। २A छ । ३ A न्ता । ४ A देते लुष्चरध्वनि । ५ ७ A तूं । ८ A न। ९ A तू । १० D द्ध । ११ A ववर्षितौ । १२ A सु।
१७०० ॥
Aho! Shrutgyanam
३०१
A ये । ६A मदनजा ।
१३ A त । १४ Aप।
१५. A व्य । १६ A मांद । १७Aप १८ A सा । १९ A नि । २० A तू । २१ A क्ष्यै । २२ A लै यु । २३ A दि । २४ A यं । २५ Aति । २६ Aति । २७ A युक्त्वारयेध्वनि । २८ A नि । २९ A ति । ३० A त । ३१ Aति । ३२ A ते । ३३ A विशिष्यै । ३४ A वृ । ३५A क ३६ D ये दानीं । ३७ A णे । ३८ A ष । ३९ मि । ४० A सिगुदीत्वच । ४१ A त । ४२ A ता । ४३ A गाः नृपुविध्यै । ४४ A श्याश्च । ४५ A टावि । ४६ Aछि ।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
मानसोल्लासः।
[अध्यायः१५
एवं मदविकारोत्था मृगया परिकीर्तिता । तुषारजा मृगव्या तु साम्पतं कयंते मया ॥ १ ॥ प्राट्काले वसाने (सन्ते) तु शरदागमने तथा । तुषारमलिनस्प(स्य)न्दच्छन्नासु मृगभूमिषु ॥ २ ॥ तुर्षारसीकरत्रस्ताँ गुल्मान्ता(न्ते) निवसन्ति ते । प्रत्यूषात्पूर्वमुत्थाय कृत्वा देवार्चनादिकम् ॥ ३॥ आरुह्य तुरगं शीघ्रं शिक्षितं बलसंयुतम् । गच्छेदनुदिते भानौ राजा श्यामलकञ्चकैः ॥ ४॥ ततः पुरः प्रधावन्ति महिषारूढलुब्धकाः । बलीर्दादिरूढाश्च पैश्यन्तो गुल्मकान्तरम् ॥ ५॥ सङ्कचितसमस्ताङ्गोंञ् शीतार्तान् मीलितेक्षणात् (न)। सारङ्गादीन् मृगान्दृष्टा कथयेयुर्महीभुजे ॥ ६ ॥ ततश्चापं समादाय इस्वं शैङ्गविनिर्मितम् । वैर्णवं दारुजं वापि तद्योगैः(ग्यः) सायकैर्युतम् ७ ॥ मृगयोमहिषस्थस्य पाश्चात्य भागमाश्रिताः(तः) । तावत्र्नुषारजा पोक्ता मृगया शीघ्रकारिणी ॥ ८॥ ये (ए) वं तुषारजा प्रोक्ता मृगया शीघ्रकारिणी । पाशजा कथ्यते सम्यङ् मृगयाँ तत्क्षयावहा ॥९॥ स्थूलान्दीर्घान्कृशान् कुब्जान्मृगाँञ् जात्यनुरु(रू)पतः। शङ्खसंयोजितान्पाशाँन्नानासूत्रविनिर्मितान् ॥ १७१० ॥
१A छा। २ A थी । ३ A स्थानासु । ४ A भु । ५A खा । ६Aषेर । ७A स्था। CA ल्मता । ९ A षुषापु । १० A विरं । ११ A छे । १२ A स्या। १३ A का। १४ A लि। १५ A यस्यतो। १६ A कासीतार्थोमि । १७ A दिमृगादृष्टा । १८ A हि । १९ A स। २. A रिणं । २१ A गै। २२ A यु । २३ A योगर्म । २४ A प। २५ A श्रीत । २६ A तु । २७ A सेव्या । २८ A बहुकौतुकं । २९ A शि । ३० A व्य । ३१ A व्यातक । ३२ A नि । ३३ A गजा। ३४ A संकुसां । ३५ A जी। ३६ A शान् कुश्पायुर्विनिमितान् ।
Aho ! Shrutgyanam
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
विंशतिः४j
मानसोल्लासः । मृदुले भूप्रदेशे तु तृणमध्ये त्वलक्षितान् । पाशयुक्तान्बहून शङ्कन रोपयेत्पतिभित्तिभिः ॥ ११ ॥ प्रसार्य वध्रमेकत्र परतोऽनुव्रजेन्नॅपः । शिक्षितं जवहीनञ्च सारमेयं विमोचयेत् ॥ १२ ॥ ततो जाल्पा(ला)त्पलायन्ते विहायोप्लविकां ततः। पश्चात्पीशैर्निबध्यन्ते मृगा व्याकुलचेतसः ॥ १३॥ ताड्यन्ते लगुडैः पश्चान्मोड्यन्ते कण्ठदेशतः । ऐवं तु पाशजा प्रोक्तों जालजाप्येवमेव हि ॥ १४ ॥ जालैबस्तिथा व्यालान् रज्जुभ्यां पक्षयोयोः । यन्त्रितान् कण्ठदेशे तु भ्रामयेत्पुरमध्यतः ॥१५॥ देशरात्रे गते पश्चाद्रज्जुमेकां विमोचयेत् । हरिणं भग्नपादन्तु कृत्वा तस्य पुरोन्यसेत् ॥ १६ ॥ तदु(द)रुस्थितमांसेन चित्रकं द(त)पैयेत्सुधीः । मुंखं प्रमृज्या स्तेन सर्वाङ्गे लोडयेदपि ॥ १७ ॥ आभग्नपादं हरिणं दीर्घरजु(ज्जु)नियन्त्रितम् । “मोचयेत्पुरतस्तस्य विचित्रमनुधावति ॥ १८॥ व्याघ्रोऽपि रजु (ज्जु) संयुक्तो जवेन हरिणं बली। आक्रम्य पातयन्नयाँ चयग्रीवां पिबत्यसँक् ॥ १९ ॥ ततो रजुः (ज्जुः) प्रमोक्तव्या व्याघ्रकण्ठनिवेशितौं । पश्चादिनत्रयेऽतीते मृगं मुश्चेदरज्जुकम् ॥ १७२० ॥
A त् । २ A ता । ३ A हुक्तन् रोपयेपंक्तिति । ४ A इयरतो । ५A नृ। ६ A हि । ७A शो। ८ A जजा । ९ A लवीकायवि । १० A त्पाशेविवव्येते । ११ A स । १२ A ढै । १३ A त । १४ A ये । १५ A तालजा । १६ A धाव्याघ्रान् रज्जुत्यां । १७ A यो। १८ A यांत्रिता । १९ A स्वा। २० A पु। २१ A त । २२ Aदे। २३ A त्र। २४ A कृतस्य । २५A सु। २६ A मषं । २७ AT। २४ A गोवयेषु । २९ A लि । ३० A म। ३१ A पुा । ३२ A वें । ३३ A वा । ३४ A त्यसिसुक । ३५Aत्रो। ३६A दी। ३७ A ति। ३८ Aचे। ३९ A ज।
Aho! Shrutgyanam
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
मानसोल्लासः।
[ अध्यायः१५
शिक्षितव्यं ( व्यो ) क्रमेणैव(वं) कृष्णसारवधं प्रति ।। चित्रको व्याघजातीयस्तमरण्यमृगे क्षिपेत् ॥ २१ ॥
आरोप्य शकटे व्याघ्रमश्वपृष्ठेऽथवा पुनः । मोचयेद्धरिणान् हन्तुं गत्वाऽरण्यं नरेश्वरः॥ २२ ॥ सावकाशे वनोद्देशे मोचयेदेणवृन्दके । अनुसृत्य ततो वेगोंद् मृगाद्विगुणवेगवान् ।। २३ ॥ विहाय हरिणीचन्दं कृष्णसारं जिघांसति । एवं तु व्यापँजा प्रोक्ता मृगया विस्मयावहा ॥ २४ ॥ एकविंशतिभेदोऽयं विनोदो मृगयोद्भवः । मृगेन्द्रावधिकः प्रा(कप्राणः कथितः सोमभूभुजा ।। इति प्रोक्तः कर्षेण विनोदो मृगयोद्भः ॥२५॥ ॥१७२५॥
॥ इति चतुर्थविंशतः पञ्चदशोऽध्यायः॥
Haasaamaaaaaaaaaaaa on द्वितीयो भागः समाप्तः। REEEEEEEEEEEEEEEEEEEER
१A छश । २ A ति। ३ Aणा । ४ A धस । ५A णांहंतु । ६A त्वाचार । ७A र । ८ A नादे । ९ A गाम् । १० A गाद्वि। ११ A णि । १२ A त । १३ A Mपो । १४ A ण । १५ A त। १६ Aक्त । १७ A कारे। १८ A gives the following two lines in addition:
मृगेन्द्रावधिकः प्राणं कथिता सोमभूभुजा ॥ इति प्रोक्तप्रकारेण विनोदो मृगयोद्भवः ॥
Aho ! Shrutgyanam
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
Gaekwad's Oriental Series
) CATALOGUE OF BOOKS
1939
ORIENTAL INSTITUTE, BARODA
Aho ! Shrutgyanam
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
SELECT OPINIONS
Sylvain Levi : The Gaekwad's Series is standing at the head of the many collections now published in India.
Asiatic Review, London: It is one of the best series issued in the East as regards the get up of the individual volumes as well as the able editorship of the series and separate works. Presidential Address, Patna Session of the Oriental Conference: Work of the same class is being done in Mysore, Travancore, Kashmir, Benares, and elsewhere, but the organisation at Baroda appears to lead.
Indian Art and Letters, London: The scientific publications known as the "Oriental Series of the Maharaja Gaekwar are known to and highly valued by scholars in all parts of the world.
99
Journal of the Royal Asiatic Society, London: Thanks to enlightened patronage and vigorous management the "Gaekwad's Oriental Series" is going from strength to strength.
Sir Jadunath Sarkar, Kt.: The valuable Indian histories included in the "Gaekwad's Oriental Series " will stand as an enduring monument to the enlightened liberality of the Ruler of Baroda and the wisdom of his advisers.
The Times Literary Supplement, London: These studies are a valuable addition to Western learning and reflect great credit on the editor and His Highness.
Aho! Shrutgyanam
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
Critical editions of unprinted and original works of Oriental Literature, edited by competent scholars, and published at the Oriental Institute, Baroda
I. BOOKS PUBLISHED.
1.
GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES
Kāvyamīmāṁsa: a work on poetics, by Rajasekhara (880-920 A.D.): edited by C. D. Dalal and R. Anantakrishna Sastry, 1916. Reissued, 1924. Third edition revised and enlarged by Pandit K. S. Ramaswami Shastri of the Oriental Institute, Baroda, 1934
2. Naranārāyaṇānanda: a poem on the Pauranic story of Arjuna and Krsna's rambles on Mount Girnar, by Vastupala, Minister of King Viradhavala of Dholka, composed between Samvat 1277 and 1287, i.e., A.D. 1221 and 1231 edited by C. D. Dalal and R. Anantakrishna Sastry, 1916
This book has been set as a text-book by several Universities including Benares, Bombay, and Patna.
4. Pärthaparakrama: a drama describing Arjuna's recovery of the cows of King Virata, by Prahladanadeva, the founder of Palanpur and the younger brother of the Paramāra king of Chandravati (a state in Marwar), and a feudatory of the kings of Guzerat, who was a Yuvaraja in Samvat 1220 or A.D. 1164: edited by C. D. Dalal, 1917
Out of print.
3. Tarkasangraha: a work on Philosophy (refutation of Vaisesika theory of atomic creation) by Anandajñāna or Anandagiri, the famous commentators on Sankaracarya's Bhasyas, who flourished in the latter half of the 13th century: edited by T. M. Tripathi, 1917. Out of print.
7.
Rs. A.
6. Lingānuśāsana: on Grammar, by Vamana, who lived between the last quarter of the 8th century and the first quarter of the 9th century: edited by C. D. Dalal, 1918
2-0
5. Rastrauḍhavaṁśa: an historical poem (Mahakavya) describing the history of the Bagulas of Mayuragiri, from Rästraudha, king of Kanauj and the originator of the dynasty, to Narayana Shah of Mayuragiri, by Rudra Kavi, composed in Saka 1518 or A.D. 1596: edited by Pandit Embar Krishnamacharya with Introduction by C. D. Dalal, 1917 Out of print.
Out of print.
Vasantavilāsa: an historical poem (Mahākavya) describing the life of Vastupala and the history of
Aho! Shrutgyanam
0-8
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
Rs. A. Guzerat, by Bālachandrasūri (from Modheraka or Modhera in Kadi Prant, Baroda State), contemporary of Vastupāla, composed after his death for his son in
Samvat 1296 (A.D. 1240): edited by C. D. Dalal, 1917 1-8 8. Rūpakaşatkam: six dramas by Vatsarāja, minister of
Paramardideva of Kalinjara, who lived between the 2nd half of the 12th and the 1st quarter of 13th century: edited by C. D. Dalal, 1918
Out of print. 9. Mohaparājaya : an allegorical drama describing the
overcoming of King Moha (Temptation), or the conversion of Kumārapāla, the Chalukya King of Guzerat, to Jainism, by Yaśaḥpāla, an officer of King Ajayadeva, son of Kumärapāla, who reigned from A.D. 1229 to 1232: edited by Muni Chaturvijayaji with Introduction and Appendices by C. D. Dalal, 1918
2-0 10. Hammiramadamardana : a drama glorifying the two
brothers, Vastupāla and Tejahpāla, and their King Viradhavala of Dholka, by Jayasimhasūri, pupil of Virasūri, and an Ācārya of the temple of Munisuvrata at Broach, composed between Samvat 1276 and 1286
or A.D. 1220 and 1239 : edited by C. D. Dalal, 1920 .. 2-0 11. Udayasundarīkathā: a romance (Campū, in prose and
poetry) by Soddhala, a contemporary of and patronised by the three brothers, Chchittarāja, Nāgārjuna, and Mummunirāja, successive rulers of Konkan, composed between A.D. 1026 and 1050 : edited by C. D. Dalal and Pandit Embar Krishnamacharya, 1920
2-4 12. Mahāvidyāvidambana : a work on Nyāya Philosophy,
by Bhatta Vädindra who lived about A.D. 1210 to 1274: edited by M. R. Telang, 1920 ..
.. 2-8 13. Prācīnagurjarakāvysangraha : a collection of old
Guzerati poems dating from 12th to 15th centuries A.D.: edited by C. D. Dalal, 1920
2-4 14. Kumārapālapratibodha: a biographical work in
Prākrta, by Somaprabhācharya, composed in Samvat
1241 or A.D. 1195 : edited by Muni Jinavijayaji, 1920 Gaņakārikā: a work on Philosophy (Pāśupata School), by Bhāsarvajña who lived in the 2nd half of the 10th century : edited by C. D. Dalal, 1921 ..
.. 1-4 16. Sangītamakaranda: a work on Music, by Nārada :
edited by M. R. Telang, 1920 .. .. 17. Kavindrācārya List: list of Sanskrit works in the
collection of Kavindrācārya, a Benares Pandit (1656 A.D.): edited by R. Anantakrishna Shastry, with a foreword by Dr. Ganganatha Jha, 1921 ..
.. 0-12 18. Vārāhagrhyasūtra : Vedic ritual (domestic) of the
Yajurveda: edited by Dr. R. Shamasastry, 1920 . 0-10 19. Lekhapaddhati : a collection of models of state and pri.
vate documents, dating from 8th to 15th centuries A.D.:
..
2-0
Aho ! Shrutgyanam
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
2-0
Rs. A. edited by C. D. Dalal and G. K. Shrigondekar,
1925 .. " 20. Bhavişayattakahā or Pancamikahā: a romance in
Apabhramśa language, by Dhanapāla (circa 12th cen
tury): edited by C. D. Dalal and Dr. P. D. Gune, 1923 21. A Descriptive Catalogue of the Palm-leaf and Im
portant Paper MSS. in the Bhandars at Jessalmere, compiled by C. D. Dalal and edited by Pandit L. B. Gandhi, 1923
3-4 22. Paraśurāmakalpasūtra : a work on Tantra, with com
mentary by Rāmeśvara : edited by A. Mahadeva Sastry, B.A., 1923
Out of print. 23. Nityotsava: a supplement to the Paraśurāmakalpasūtra
by Umānandanätha : edited by A. Mahadeva Sastry, B.A., 1923. Second revised edition by Swami Tirvik
rama Tirtha, 1930 24. Tantrarahasya : a work on the Prābhākara School
of Pūrvamimamsā, by Rāmānujācārya : edited by Dr. R. Shamasastry, 1923
Out of print. 25, 32. Samarāngaņa: a work on architecture, town
planning, and engineering, by king Bhoja of Dhara (11th century): edited by Mahamahopadhyaya T.
Ganapati Shastri, Ph.D. Illustrated. 2 vols., 1924-1925 10-0 26, 41, Sadhanamālā : a Buddhist Tântric text of rituals,
dated 1165 A.D., consisting of 312 small works, composed by distinguished writers: edited by Benoytosh Bhattacharyya, M.A., Ph.D. Illustrated. 2 vols., 19251928
14-0 27. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Central
Library, Baroda : compiled by G. K. Shrigondekar, M.A., and K. S. Ramaswāmi Shastri, with a Preface by B. Bhattacharyya, Ph.D., in 12 vols., vol. I (Veda, Vedalakşaņa, and Upanişads), 1925 ..
6-0 28, 84. Mānasollāsa or Abhilaşitārthacintāmaņi : an
encyclopædic work treating of one hundred different topics connected with the Royal household and the Royal court, by Somesvaradeva, a Chalukya king of the 12th century: edited by G. K. Shrigondekar, M.A.,
3 vols., vol. I, 1925, vol. II, 1939 29. Nalavilāsa: - a drama by Rāmachandrasūri, pupil of
Hemachandrasūri, describing the Paurāņika story of Nala and Damayanti : edited by G. K. Shrigondekar, M.A., and L. B. Gandhi, 1926
2-4 30, 31. Tattvasangraha: a Buddhist philosophical work
of the 8th century, by Sāntarakṣita, a Professor at Nālandā with Pañjikā (commentary) by his disciple Kamalasila, also a Professor at Nalanda : edited by Pandit Embar Krishnamachārya with a Foreword by B. Bhattacharyya, M.A., Ph.D., 2 vols., 1926 .. 24-0
..
7-12
Aho ! Shrutgyanam
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
Rs. A. 33, 34. Mirat-i-Ahmadi: by Ali Mahammad Khan, the
last Moghul Dewan of Gujarat: edited in the original Persian by Syed Nawab Ali, M.A., Professor of Persian,
Baroda College, 2 vols., illustrated, 1926–1928 .. 19 35. Mänavagrhyasūtra: a work on Vedic ritual (domestic)
of the Yajurveda with the Bhāsya of Astāvakra: edited with an introduction in Sanskrit by Pandit Rāmakrishna Harshaji Śāstri, with a Preface by Prof. B. C. Lele, 1926 ..
5-0 36, 68. Nātyaśāstra : of Bharata with the commentary of
Abhinavagupta of Kashmir: edited by M. Ramakrishna Kavi, M.A., 4 vols., vol. I, illustrated, 1926 (out of print), vol. II, 1934
.
5-0 37. Apabhramśakāvyatrayi : consisting of three works,
the Carcari, Upadeśarasāyana, and Kalasvarūpakulaka, by Jinadatta Sūri (12th century) with commentaries : edited with an elaborate introduction in Sanskrit by
L. B. Gandhi, 1927 38. Nyāyapraveśa, Part I (Sanskrit Text): on Buddhist
Logic of Dinnāga, with commentaries of Haribhadra Sūri and Pārsvadeva: edited by Principal A.B. Dhruva, M.A., LL.B., Pro-Vice-Chancellor, Hindu University, Benares, 1930 ..
4-0 39. Nyāyapraveśa, Part II (Tibetan Text): edited with
introduction, notes, appendices, etc., by Pandit Vidhusekhara Bhattacharyya, Principal, Vidyabhavana, Visvabharati, 1927 ..
1-8 40. Advayavajrasangraha : consisting of twenty short
works on Buddhist philosophy by Advayavajra, a Buddhist savant belonging to the 11th century A.D., edited by Mahāmahopadhyāya Dr. Haraprasad Sastri, M.A., C.I.E., Hon. D.Litt., 1927
2-0 42, 60. Kalpadrukosa : standard work on Sanskrit Lexico.
graphy, by Keśava : edited with an elaborate introduction by the late Pandit Ramavatara Sharma, Sahityacharya, M.A., of Patna and index by Pandit Shrikant Sharma, 2 vols., vol. I (text), vol. II (index), 1928-1932
14-0 43. Mirat-i-Ahmadi Supplement : by Ali Muhammad
Khan. Translated into English from the original Persian by Mr. C: N. Seddon, I.C.S. (retired), and Prof. Syed Nawab Ali, M.A. Illustrated. Corrected reissue, 1928 .. ..
.. 6-8 44. Two Vajrayāna Works : comprising Prajñopāyavinis
cayasiddhi of Anangavajra and Jñānasiddhi of Indrabhūti-two important works belonging to the little known Tantra school of Buddhism (8th century
A.D.): edited by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1929 .. 45. Bhāvaprakāśana : of Sáradātanaya, a comprehensive
work on Dramaturgy and Rasa, belonging to A.D. 1175-1250; edited by His Holiness Yadugiri Yatiraja Swami, Melkot, and K. S. Ramaswami Sastri, Oriental Institute, Baroda, 1929
.. 7-0
3-0
Aho! Shrutgyanam
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
46.
5
Rāmacarita: of Abhinanda, Court poet of Haravarṣa probably the same as Devapala of the Pala Dynasty of Bengal (cir. 9th century A.D.): edited by K. S. Ramaswami Sastri, 1929
47. Nañjarajayaśobhūṣaṇa; by Nrsimhakavi alias Abhinava Kalidasa, a work on Sanskrit Poetics and relates to the glorification of Nañjaraja, son of Virabhupa of Mysore edited by Pandit E. Krishnamacharya, 1930 48. Natyadarpaņa: on dramaturgy, by Ramacandra Sūri with his own commentary: edited by Pandit L. B. Gandhi and G. K. Shrigondekar, M.A. 2 vols., vol. I, 1929
49. Pre-Dinnaga Buddhist Texts on Logic from Chinese Sources: containing the English translation of Satáśästra of Aryadeva, Tibetan text and English translation of Vigraha-vyavartani of Nagarjuna and the re-translation into Sanskrit from Chinese of Upayahṛdaya and Tarkasästra: edited by Prof. Giuseppe Tucci, 1930
50. Mirat-i-Ahmadi Supplement: Persian text giving an account of Guzerat, by Ali Muhammad Khan: edited by Syed Nawab Ali, M.A., Principal, Bahauddin College, Junagadh, 1930
51,77. Triṣaṣṭiśalakāpuruṣacaritra: of Hemacandra, translated into English with copious notes by Dr. Helen M. Johnson of Osceola, Missouri, U.S.A. 4 vols., vol. I (Adiśvaracaritra), illustrated, 1931; vol. II, 1937
52. Dandaviveka: a comprehensive Penal Code of the ancient Hindus by Vardhamana of the 15th century A.D. edited by Mahamahopadhyaya Kamala Krsna Smṛtitirtha, 1931 ..
53. Tathāgataguhyaka or Guhyasamāja: the earliest and the most authoritative work of the Tantra School of the Buddhists (3rd century A.D.): edited by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1931
54. Jayakhyasamhita: an authoritative Pañcaratra work of the 5th century A.D., highly respected by the South Indian Vaisnavas: edited by Pandit E. Krishnamacharyya of Vadtal, with one illustration in nine colours and a Foreword by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1931
55. Kävyālankārasārasaṁgraha: of Udbhata with the commentary, probably the same as Udbhataviveka of Rajanaka Tilaka (11th century A.D.): edited by K. S. Ramaswami Sastri, 1931
56. Pārānanda Sutra: an ancient Tantric work of the Hindus in Sutra form giving details of many practices and rites of a new School of Tantra: edited by Swami Trivikrama Tirtha with a Foreword by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1931
Aho! Shrutgyanam
Rs. A.
7-8
5-0
4-8
9-0
6-0
26-0
8-8
4-4
12-0
2-0
3-0
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
crit Patanjore : ecompiled by lexicon of ti
Rs. A. 57, 69. Ahsan-ut-Tawarikh: history of the Safawi Period of
Persian History, 15th and 16th centuries, by Hasani-Rumlu: edited by C. N. Seddon, I.C.S. (retired), Reader in Persian and Marathi, University of Oxford. 2 vols. (Persian text and translation in English), 1932-34
. 19-8 58. Padmānanda Mahākāvya : giving the life history of
Rsabhadeva, the first Tirthankara of the Jainas, by Amarachandra Kavi of the 13th century: edited by H. R. Kapadia, M.A., 1932 ..
14-0 59. Sabdaratnasamanvaya : an interesting lexicon of the
Nánártha class in Sanskrit compiled by the Maratha King Sahaji of Tanjore: edited by Pandit Vitthala Šāstri, Sanskrit Pathaśāla, Baroda, with a Foreword by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1932
..
11-0 61. Saktisangama Tantra : a voluminous compendium of
the Hindu Tantra comprising four books on Kāli, Tārā, Sundari and Chhinnamastā: edited by B. Bhatta
charyya, M.A., Ph.D., 4 vols., vol. I, Kālikhanda, 1932 2-8 62. Prajñāpāramitas : commentaries on the Prajñāpāra
mitā, a Buddhist philosophical work: edited by Giuseppe Tucci, Member, Italian Academy, 2 vols., vol. I, 1932 ..
12-0 63. Tarikh-i-Mubarakhshahi : an authentic and contem
porary account of the kings of the Saiyyid Dynasty of Delhi: translated into English from original Persian by Kamal Krishna Basu, M.A., Professor, T.N.J. College, Bhagalpur, with a Foreword by Sir Jadunath Sarkar, Kt., 1932
7-8 64. Siddhāntabindu : on Vedānta philosophy, by Madhusū.
dana Sarasvati with commentary of Puruşottama : edited by P. C. Divanji, M.A., LL.M., 1933
.. 11-0 65. Iştasiddhi : on Vedānta philosophy, by Vimuktātmā,
disciple of Avyayātmā, with the author's own commentary: edited by M. Hiriyanna, M.A., Retired Professor
of Sanskrit, Maharaja's College, Mysore, 1933 . 14-0 66, 70, 73. Shabara-Bhāsya : on the Mimāṁsā Sūtras of
Jaimini : Translated into English by Mahāmahopädhyāya Dr. Ganganath Jha, M.A., D.Litt., etc., ViceChancellor, University of Allahabad, in 3 vols., 19331936 ..
.. ..
.. 67. Sanskrit Texts from Bali: comprising a large num.
ber of Hindu and Buddhist ritualistic, religious and other texts recovered from the islands of Java and Bali with comparisons : edited by Professor Sylvain Levi, 1933 .. ..
.. 3-8 71. Nārāyaṇa Sataka : a devotional poem of high literary
merit by Vidyākara with the commentary of Pitambara : edited by Pandit Shrikant Sharma, 1935 ..
2-0
.
48-0
Aho ! Shrutgyanam
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
4-8
Rs. A. 72. Rājadharma-Kaustubha: an elaborate Smrti work on
Rājadharma, Rājaniti and the requirements of kings, by Anantadeva: edited by the late Mahamahopadhyaya Kamala Krishna Smrtitirtha, 1935
. 10-0 74. Portuguese Vocables in Asiatic Languages : trang
lated into English from Portuguese by Prof. A. X.
Soares, M.A., LL.B., Baroda College, Baroda, 1936 .. 12-0 75. Nāyakaratna: a commentary on the Nyāyaratnamālā
of Pārthasārathi Misra by Rāmānuja of the Prābhākara School: edited by K. S. Ramaswami Sastri of the
Oriental Institute, Baroda, 1937 76. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Jain Bhan
dars at Pattan : edited from the notes of the late Mr.
C. D. Dalal, M.A., by L. B. Gandhi, 2 vols., vol. I, 1937 78. Ganitatilaka : of Sripati with the commentary of
Simhatilaka, a non-Jain work on Arithmetic with & Jain commentary: edited by H. R. Kapadia, M.A.,
1937 79. The Foreign Vocabulary of the Quran : showing the
extent of borrowed words in the sacred text : compiled by Professor Arthur Jeffery of the School of Oriental Studies, Cairo, 1938
.. 12-0 80, 83. Tattvasangraha : of śāntarakṣita with the commen
tary of Kamalasila: translated into English by Maha
mahopadhyaya Dr. Ganganath Jha, 2 vols., 1937-39.. 81. Harnsa-vilāsa: of Hamsa Mitthu : forms an elaborate
defence of the various mystic practices and worship: edited by Swami Trivikrama Tirtha and Mahamahopadhyaya Hathibhai Shastri, 1937
5-8 82. Sūktimuktāvali: a well-known Sanskrit work on
Anthology, of Jalhana, a contemporary of King Krsna of the Northern Yādava Dynasty (A.D. 1247) : edited by Pandit E. Krishnamacharya, Sanskrit Pāthaśālā, Vadtal, 1938
.
11-0
II. BOOKS IN THE PRESS.
1. Nāțyaśāstra: edited by M. Ramakrishna Kavi, 4 vols.,
vol. III. 2. Mānasollāsa or Abhilaşitārthacintā mani, edited by G.K.
Shrigondekar, M.A., 3 vols., vol. III. 3. Alamkāramahodadhi: a famous work on Sanskrit
Poetics composed by Narendraprabha Sūri at the request of Minister Vastupāla in 1226 A.D.: edited by
Lalchandra B. Gandhi of the Oriental Institute, Baroda. 4. Dvādaśāranayacakra : an ancient polemical treatise
giving a résumé of the different philosophical systems with a refutation of the same from the Jain stand
Aho ! Shrutgyanam
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
Rs. A. point by Mallavādi Suri with a commentary by
Simhasuri Gani: edited by Muni Caturvijayaji. 5. Kștyakalpataru : of Lakşmidhara, minister of King
Govindachandra of Kanauj: edited by Principal K. V.
Rangaswami Aiyangar, Hindu University, Benares. 6. Bșhaspati Smsti, being a reconstructed text of the
now lost work of Bphaspati: edited by Principal K. V.
Rangaswami Aiyangar, Hindu University, Benares. 7. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Oriental
Institute, Baroda : compiled by K. S. Ramaswami Sastri, Srauta, Pandit, Oriental Institute Baroda, 12
vols., vol. II (Srauta, Dharma, and Gșhya Sūtras). 8. Madhavānala-Kāmakandalā: a romance in old Western
Rajasthani by Ganapati, a Kāyastha from Amod :
edited by M. R. Majumdar, M.A., LL.B. 9. Tattvopaplava : a masterly criticism of the opinions of
the prevailing Philosophical Schools by Jayarāśi : edited by Pandit Sukhalalji of the Benares Hindu
University. 10. Anekāntajayapatākā : of Haribhadra Suri (c. 1120 A.D.)
with his own commentary and Tippanaka by Muni. chandra the Guru of Vādideva Sūri : edited by H. R.
Kapadia, M.A. 11. Parama-Samhita : an authoritative work on the
Pāñcharätra system : edited by Dewan Bahadur S. Krishnaswami Aiyangar, of Madras.
III. BOOKS UNDER PREPARATION. 1. Prajñāpāramitās : commentaries on the Prajñā pāra
mitā, a Buddhist philosophical work : edited by Prof.
Giuseppe Tucci, 2 vols., vol. II. 2. Saktisangama Tantra : comprising four books on Kāli,
Tārā, Sundari, and Chhinnamastá : edited by B.
Bhattacharyya, Ph.D., 4 vols., vols. II-IV. 3. Nāļyadarpaņa: introduction in Sanskrit giving an
account of the antiquity and usefulness of the Indian drama, the different theories on Rasa, and an examination of the problems raised by the text, by
L. B. Gandhi, 2 vols., vol. II. 4. Gurjararāsāvali : a collection of several old Gujarati
Rāsas : edited by Messrs. B. K. Thakore, M. D. Desai,
and M. C. Modi. 5. Tarkabhāşā: a work on Buddhist Logic, by Mokşākara
Gupta of the Jagaddala monastery: edited with a Sanskrit commentary by Pandit Embar Krishnama.
charya of Vadtal. 6. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Oriental
Institute, Baroda : compiled by the Library staff, 12 vols., vol. III (Smrti MSS.).
Ahol Shrutgyanam
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
Rs. A. 7. An Alphabetical List of MSS. in the Oriental Insti
tute, Baroda : compiled from the existing card cata
logue by the Library Staff. 8. Nitikalpataru : the famous Niti work of Kşemendra:
edited by Sardar K. M. Panikkar, M.A., of Patiala. 9. Chhakkammuvaeso : an Apabhramsa work of the Jains
containing didactic religious teachings : edited by
L. B. Gandhi, Jain Pandit. 10. Sarnrät Siddhānta : the well-known work on Astro
nomy of Jagannatha Pandit: critically edited with numerous diagrams by Pandit Kedar Nath, Rajjyotisi,
Jaipur. 11. Vimalaprabhā: the famous commentary on the Kāla
cakra Tantra and the most important work of the Kālacakra School of the Buddhists: edited with comparisons of the Tibetan and Chinese versions by Giuseppe
Tucci of the Italian Academy. 12. Nişpannayogāmbara Tantra: describing a large
number of mandalas or magic circles and numerous
deities : edited by B. Bhattacharyya. 13. Basatin-i-Salatin : a contemporary account of the
Sultans of Bijapur: translated into English by M. A.
Kazi of the Baroda College and B. Bhattacharyya. 14. Madana Mahārņava : a Smrti work principally dealing
with the doctrine of Karmavipāka composed during the reign of Māndhātā son of Madanapāla : edited by
Embar Krishnamacharya. 15. Trişastiśalākāpuruşacaritra : of Hemacandra: trans
lated into English by Dr. Helen Johnson, 4 vols.,
vols. III-IV. 16. Vivāda Cintämaņi: of Vāchaspati Miéra : an authorita
tive Smrti work on the Hindu Law of Inheritance : translated into English by Mahamahopadhyaya Dr.
Ganganatha Jha. 17. Bệhaspatitattva : a Saiva treatise belonging to an early
stratum of the Agamic literature written in old Javanese with Sanskrit ślokas interspread in the text : edited by
Dr. A. Zeiseniss of Leiden. 18. Aņu Bhāşya : a standard work of the Suddhādvaita
School : translated into English by Prof. G. H. Bhatt,
M.A. of the Baroda College. 19. Aparajitaprcchā: a voluminous work on architecture
and fine-arts: edited by Mr. P. A. Mankad, L.C.E. 20. Hetubindu: the famous work of Dharmakirti on Buddhist
logic : edited from a single MS. discovered at Pattan, by Pandit Sukhalalji of the Benares Hindu University.
Aho ! Shrutgyanam
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
Rs. A. 21. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Jain Bhan
dars at Pattan : edited from the notes of the late Mr. C. D. Dalal, M.A., by L. B. Gandhi, 2 vols., vol. II.
For further particulars please communicate with
THE DIRECTOR, Oriental Institute, Baroda.
Aho ! Shrutgyanam
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
11
THE GAEKWAD'S STUDIES IN RELIGION AND PHILOSOPHY.
Rs. A. 1. The Comparative Study of Religions : [Contents :
I, the sources and nature of religious truth. II, supernatural beings, good and bad. III, the soul, its nature, origin, and destiny. IV, sin and suffering, salvation and redemption. V, religious practices. VI, the emotional attitude and religious ideals] : by Alban G. Widgery, M.A., 1922
.. 15-0 2. Goods and Bads: being the substance of a series of
talks and discussions with H.H. the Maharaja Gaekwad of Baroda. [Contents : introduction. I, physical values. II, intellectual values. III, æsthetic values. IV, moral value. V, religious value. VI, the good life, its unity and attainment) : by Alban G. Widgery, M.A., 1920. (Library edition Rs. 5)
3-0 Immortality and other Essays : [Contents: I, philosophy and life. II, immortality. III, morality and religion. IV, Jesus and modern culture, V, the psychology of Christian motive. VI, free Catholicism and non-Christian Religions. VII, Nietzsche and Tolstoi on Morality and Religion. VIII, Sir Oliver Lodge on science and religion. IX, the value of confessions of faith. X, the idea of resurrection. XI, religion and beauty. XII, religion and history. XIII, principles of reform in religion]: by Alban G. Widgery, M.A., 1919. (Cloth Rs. 3)
2-0 Confutation of Atheism : a translation of the Hadis-;
Halila or the tradition of the Myrobalan Fruit: translated by Vali Mohammad Chhanganbhai Momin, 1918 .. 0-14
Conduct of Royal Servants : being a collection of verses
from the Viramitrodaya with their translations in English, Gujarati, and Marathi: by B. Bhattacharyya, M.A., Ph.D.
..
0-6
Aho ! Shrutgyanam
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________ SELLING AGENTS OF THE GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES England Messrs. Luzac & Co., 46, Great Russell Street, London, W.C. 1. Messrs. Arthur Probsthain, 41, Great Russell Street, London, W.C.1. Messrs. Deighton Bell & Co., 13 & 30, Trinity Street, Cambridge. Germany Messrs. Otto Harrassowitz, Buchhandlung und Anti quariat, Querstrasse 14, Leipzig, C. 1. Austria Messrs. Gerold & Co., Stefansplatz 8, Vienne. Calcutta Messrs. The Book Co., Ltd., 4/3, College Square. Messrs. Thacker Spink & Co., 3, Esplanade East. Benares City Messrs. Braj Bhusan Das & Co., 40/5, Thathari Bazar. Lahore Messrs. Mehrchand Lachmandass, Sanskrit Book Depot, Said Mitha Street, Messrs. Motilal Banarsidass, Punjab Sanskrit Book Depot, Said Mitha Street. * Bombay Messrs. Taraporevala & Sons, Kitab Mahal, Hornby Road. Messrs. Gopal Narayan & Co., Kalbadevi Road. Messrs. N. M. Tripathi & Co., Kalbadevi Road. Poona Oriental Book Supply Agency, 15, Shukrawar Peth. Aho! Shrutgyanam