Book Title: Jain Gyan Gun Sangraha
Author(s): Saubhagyavijay
Publisher: Kavishastra Sangraha Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनज्ञान-गुणसंग्रह मुनिसौभाग्यविजय. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथाय नमः। श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह। लेखक और संग्राहक मुनिश्रीसौभाग्यविजयजी महाराज गोलनगर के श्रीजैनसंघ की आर्थिकसहायतासे प्रकाशक. श्रीकविशास्त्रसंग्रह समिति, ... जालोर (मारवाड) -..--. वीरसंवत् 2462 विक्रमसंवत् 1993 ईस्वी न 1936 प्रथमावृत्ति .. मूल्य सवा रुपया। . KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदं पुस्तकं श्रीशारदामुद्रणालये तदधिपतिना श्रावकहर्षचंद्रात्मजेन पण्डितभगवानदासेन मुद्रितम् . जैनसोसाइटी नं० १५.-अमदावाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मारवाड के विहारसे अनुभव हुआ कि इस प्रदेशके निबासियोंके लिये ऐसी पुस्तकोंकी खास जरूरत है जिन्हें सामान्य मनुष्य भी पढ़ सके और श्रावकधर्म तथा उससे संबन्धित अन्य सामान्य बातें सुगमतासे जान सके। जो कि इस आवश्यकता को किसी अंशमें पूरा करने वाली गुजराती भाषाकी पुस्तकें मिल सकती हैं, परन्तु इस प्रदेशवासियों के लिये गु. जराती पुस्तक उतनी उपयोगी नहीं हो सकती, जितनी कि हिन्दी हो सकती है, यह सब विचार करने पर यही निश्चय हुआ कि यहां के जैनगृहस्थों के लिये एक ऐसे ग्रन्थकी योजना होनी आवश्यक है जो हर प्रकारसे उपयोगी हो सके, हमने इस कार्य के लिये मुनिवर्यश्री सौभाग्यविजयजी को सूचना की और उन्हों ने परिश्रमपूर्वक एक गद्यपद्य का संग्रह कर के हमारे सुपुर्द किया जो "जैनज्ञान-गुणसंग्रह" नामक पुस्तक के रूपमें पाठकगण के सामने है। "जनज्ञान-गुणसंग्रह" एक 'संग्रह' ग्रन्ध है / इस में दो 'खण्ड और उनमें अनेक प्रकरण हैं / ... ग्रन्थ का पहला खण्ड हिन्दीगद्य में है जो अन्य ग्रन्थों के आधारसे मुनि श्रीसौभाग्यविजयजीने लिखा है, सिर्फ "धाभणागति अथवा नामाजोडा" और "रोगिमृत्युज्ञान" नामक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो अप्रसिद्ध लेख इसमें हमारे भी शामिल किये गये हैं जो "विविधविचार" शीर्षक प्रकरणमें छपे हैं / . दूसरा खण्ड पद्यमय है, इसमें कुछ रचनायें मुनिश्रीसौभाग्यविजयजीकी खुद की हैं, और बाकी सब नवे पुराने अनेक कवियों की / इन की पसंदगी इस प्रदेश के श्रावक-श्राविकागण की रुचि के अनुसार की गई है। ____ इस प्रकार इस संदर्भ के दो खण्डोंमें क्रमशः जैनज्ञान और जैनगुणोंका संग्रह होने के कारण ही इसका सार्थक ना. म "जैनज्ञान-गुणसंग्रह" रक्खा गया है। "जैनज्ञानगुणसंग्रह" की भाषा सरल और सुबोध बना. नेका लक्ष्य रखा गया है, इसी कारण इसमें कहीं कहीं देशपसिद्ध शब्दों का प्रयोग किया गया है और कुछ हिन्दी शब्दों के उच्चारण देश्यभाषा के अनुसार लिखे गये हैं। दूसरे खण्ड में प्राचीन लेखकों के स्तुति, स्तवन, सज्झाय, पद आदि सब मुद्रित पुस्तकों में से लिये गये हैं परन्तु अ. वकाश न मिलने के कारण उनका हस्तलिखित-मूलपुस्तकों से मिलान नहीं हो सका, इस कारण क्वचित् अशुद्धि रह गई हो तो पाठकगण सुधार कर पढ़ें। ग्रन्थ के अन्तमें "गोलनगरीय पाश्वनाथप्रतिष्ठाप्रबन्ध" और "पोषधविधि" नामक दो परिशिष्ट जोडे गये हैं, जिनमें Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पोषधविधि" का तो ग्रन्थ के साथ खास संबन्ध है, क्यों कि 'पोषधवत' का ग्रन्थमें निरूपण है तो उस के लेने पारनेकी विधि भी बतानी चाहिये ही, अतः 'पोषधविधि' का इस के साथ जोडमा बिलकुल प्रासंगिक है परन्तु 'प्रतिष्ठाप्रबन्ध' का इस ग्रन्थ के साथ क्या संवन्ध है ? यह एक प्रश्न है और उ. त्तर इस का यह है कि प्रस्तुत "जैनज्ञानगुणसंग्रह" 'गोलनगरीयपार्श्वनाथप्रतिष्ठा' का स्मारक ग्रन्थ है, गोलनगर के श्री जैनसंघकी प्रार्थना और आर्थिक सहायता से ही यह ग्रन्थ प्रसिद्ध किया गया है, इस दशा में "गोलनगरीयपार्श्वनाथप्रतिष्ठाप्रबन्ध" का भी इस के साथ छपना अन्यन्त जरूरी था। 'प्रतिष्ठाप्रबन्ध' को इस स्थायीसाहित्य के साथ जोडने का एक और भी कारण है, वह यह कि मारवाडमें प्रतिवर्ष छोटी बडी अनेक प्रतिष्ठायें हुआ करती हैं, और उनमें हजारों रुपया खर्च होता है, परन्तु कई जगह पर प्रतिष्ठाकारकों को . अपने काम में 'यश' नहीं मिलता, इसका मुख्य कारण प्रति कार्य सम्बन्धी योग्य व्यवस्था की खामी होती है। प्रतिष्ठा में कार्यव्यवस्था कैसी होनी चाहिये और उसके व्यवस्थापकों को अपने कार्य में किस प्रकार तत्पर रहना चाहिये, यह जानने के लिये 'गोलनगरीयपार्श्वनाथप्रतिष्ठाप्रबन्ध' एक पठनीय निबन्ध है / कोई भी प्रतिष्ठाकर्ता साधु और श्रावकगण इसमें लिखे मुजब प्रतिष्ठाकार्य की व्यवस्था करेंगे तो उन्हें अपने Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य में कभी 'अपयश' नहीं मिलेगा। - अन्त में पाठकगण से निवेदन है कि वे इस पुस्तक को जिज्ञासावृत्ति से पढ़ें और इसमें लिखी हुई शिक्षाओं को अपने हृदय में स्थापित करें, निस्सन्देह इससे उनको अपने जीवन सुधार में मदद मिलेगी और ऐसा होने से ही इस पुस्तक के लेखक, प्रकाशक और सहायकों का परिश्रम भी सफल होगा। तथास्तु / - ता 26-5-36 ज्येष्ठशुदि 5 सं० 1993 ) मुनि कल्याणविजय Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह का विषयानुक्रम पृष्ठाङ्क 1-12 12-38 प्रथमखण्डेविषयनाम 2 देवदर्शनविधि सामान्य उपदेश 14 आशातना 40 मध्यम आशातना 10 जघन्य आशातना 2 जिनपूजाविधि सामान्य उपदेश भूर्तिपूजा की जरूरत प्राथमिक कर्तव्य पूजाभावना के दोहे जिनमन्दिर में प्रवेश और द्रव्यपूजा जलाभिषेक में भावना और जयणा नवअङ्गपूजा के दोहे पूजामें मुलनायकजी की मुख्यता पुष्पपूजा में विवेक अंग-अग्रपूजाविषयक भावना स्वस्तिक भावपूजा सतराभेदी पूजा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीस प्रकारी पूजा दर्शन और पूजनसम्बन्धी कुछ सूचनायें 3 श्रावक-द्वादशवत 38-95 सम्यक्त्व अथवा समकितस्वरूप स्थूलप्राणातिपातविरमण स्थूलमृषावादविरमण स्थूलअदत्तादानविरमण स्वदारसंतोष-परस्त्रीविरमण स्थूलपरिग्रहपरिमाण दिक्परिमाणवत भोगोपभोगपरिमाण (22 अभक्ष्य, ३२अनन्तकाय,१४नियम,वनस्पतिटीपसहित) अनर्थदण्डविरमण सामायिक क्रत. देशावकाशिक व्रत पोषधोपवास व्रत अतिथिसंविभाग व्रत 4. तपस्याविधि . 95-115 वीसस्थानक-तपविधि अष्टकर्मओली ( कर्मसूदनतप), . . रोहिणीतपविधि वर्धमानओली की विधि (वर्धमानआयंबिल तप) लघुपंचमी तप ज्ञानपंचमी तप 45 आगम तप पखवाडातपविधि . . . arma Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 108 178 पौषदशमीतप की विधि "पंचरंगीतप विधि 106 दशपञ्चक्खाण विधि 24 जिनकल्याणकतप विधि 5 विविधविचार 115-188 (1) वर्तमानजैनागमपरिचय 115 (2) 63 शलाकापुरुषविचार 228 (3) 52 बोलका नकशा 133 (4) धारणागति अथवा नामाजोड़ा 155 (5) घर कहां और कैसा बनाना चाहिये ? ... 166 (6) सूतकविचार 171 (7) रोगि-मृत्युज्ञान द्वितीयखण्डे१ चैत्यवन्दनसंग्रह 189-201 (24 जिनके 24 संस्कृतचैत्यवन्दन) / 2 स्तुतिसंग्रह 201-220 __ आदिजिनस्तुति ( शौरसेनी ) 201 शान्तिनाथजिनस्तुति (मागधी) 202 नेमिनाथजिनस्तुति ( पैशाची) पार्श्वनाथजिनस्तुति (चूलिका पैशाची) वर्धमानजिनस्तुति ( अपभ्रंश ) दीपमालास्तुति (संस्कृत) वीरजिनस्तुति (प्राकृत) ऋषभदेवस्तुति शान्तिनाथस्तुति गिरनारनेमिजिनस्तुति 2 208 208 209 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 213 - 294 __.. 214 214 215 217 218 219 219 ..पार्श्वनाथ जिनस्तुति (2) _अध्यात्मगर्भित महावीरजिनस्तुति सीमंधरजिनस्तुति सिद्धाचलस्तुति सीमन्धरजिनस्तुति बीजतिथि स्तुति (2) पंचमी की स्तुति मौन एकादशी की स्तुति रोहिणीतप की स्तुति पर्युषणापर्व की स्तुति स्तवनसंग्रहऋषभदेवस्तवन (11) अजितनाथस्तवन (2) . संभवजिनस्तवन (2) अभिनन्दन जनस्तवन (2) . सुमतिनाथस्तवन (2) पद्मप्रभजिनस्तवन (2) सुपार्श्वजिनस्तवन चन्द्रप्रभजिनस्तवन सुविधिनाथस्तवन शीतलनाथस्तवन श्रेयांसजिनस्तवन .. वासुपूज्यजिनस्तवन (2) विमलनाथस्तवन (2) अनन्तनाथजिनस्तवन धर्मनाथजिनस्तवन . 221-298 221-229 229-230 231-232 233-235 235-36 237-238 . : 239 239 .. 240 242 243-244 245-246 ': 246 ... 248 तवन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 249-254 254 255 256 . 257 258 259-263 264-270 270-275 275 276 277 278 शांन्तिनाथस्तवन (5) कुन्थुनाथस्तवन अरनाथजिनस्तवन मल्लिनाथस्तवन मुनिसुव्रतस्तवन नमिनाथस्तवन नेमिनाथस्तवन (6) पाननाथस्तवन (7) महावीरजिनस्तवन (6) चौवीसजिनस्तवन सोमंधरजिनस्तवन युगमंधरजिनस्तवन चन्द्राननजिनस्तवन आदि-शान्तिजिनस्तवन सामान्यजिनस्तवन (2) परमात्मस्तवन जिनस्तवन (2) जैनधर्मकी महत्ता पर स्तवन प्रभुपूजागायन प्रभुभक्ति-उपदेशपद प्रभुप्रार्थना पद प्रभुगुणगायन जिनप्रतिमास्थापनस्तवन दीवाली-वीरप्रभुस्तवन (2) पर्युषणास्तवन सिद्धाचल-शत्रुजयस्तवन (3) . पुंडरीकस्वामिस्तवन .281-282 283-284 285 286 288 288 : 289-291 293-295 296 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....297 298-354 298 303 304 306 308 س विजयसिद्धिसूरिगहुंली सज्झायसंग्रहधन्नाजी की सज्शाय सद्गुरु-सदुपदेशसज्झाय समकितमेदे भावनारूपसज्झाय मुनिगुणसज्झाय माया अथिर की सज्झाय : वैराग्य-उपदेशकसहाय एकादशी की सज्झाय मरुदेवी माता की सज्झाय रहनेमि की , अरणिकमुनि की , स्थूलभद्रजी की , आत्मप्रबोध मेतारजमुनि स्थूलभद्र , (2) मूर्खप्रतिबोध लोभ की देवानन्दा की जम्बूस्वामि का चौढालिआ आठमदकी सजझाय बाहुबली की , माया को वयरस्वामी की , नंदिषेणमुनि की , . प्रसन्नचंद्रमुनि , '. दशवैकालिकसूत्र " . س س 317-325 325 326 اسم 329-333 ام اس C WWW سر لس لسر لس Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 345 348 352 353 355-375 355 356 356 357 359 361 362 पंचमी की नागिला की सामायिकबत्तीसदोष ,, मनभमरा की , 5 पदसंग्रह लघुताभावनापद रहेणो-कहेणीस्वरूपपद भिन्नमिन्नमतस्वरूपपद जैनस्वरूपपद चैतन-उपदेशपद / उपशम पर पद शरीररथ परं पद कायामंदिर पर पद उपदेशपद समयकी दुर्लभता पर पद चैतन-उपदेश पद उपदेश पद आत्म-उपदेश पद आशा-त्याग पर पद गुरु-उपदेश पद प्राणिप्रार्थना. धमी और कर्मीका संवाद रावण के प्रति सीता का वाक्य श्रीगोलनगरीयपार्श्वनाथप्रतिष्ठाप्रबन्ध - धनको सफलता 2 पोषधविधि 362 363 364 365 367 368 370 372 . 374 377-458 459 461-503 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध / पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध 7 20 जुते जूते 195 . 5 भीनै . मीने 16 10 किसों किसी 195 15 हीन . हीनं 16 22 पहने पहनने 211 . 311 . 211 37 22 भेजे भेज 219 15 जिण जिम 39 3 रीकों को रीको 230 13 वांजित वांछित 61 11 डागें डालें 2397 प्रति प्राति 68 2 ऊपरऊपर ऊपर 262 . 10 पंचावन चौपन 69 20 बोर बेर / 2775 णइ . इण . 6 22 305 पावक 71 32 5. पावक 74 9 गितनी गिनती 306 11 रहां इहां 357 19 शुद्र 92 5 एकाद शुद्ध एकाध 399 1 किलानजीकिसन जी 95 16 का० का० का 404 13 घनकूट फूट 108 21 दूसरी दूसरी 409 5 / 18 घनफूट फूट 116 21 ताउपत्र ताडपत्र 4119 / 11 समितियों समितियां 125 10 संख्या सं० 461 7 नवकारका नवकार का' 150 2 ऋपभ ऋषभ ४६१७प्रकटलोगस्सप्र०लोगस्स 157 3 वृषे वृष 471. 6 पठ परठ 158 15 वधेगा बचेगा 474 5 करे' करे' 184 10 दीर्ध दीर्घ 476 17 पोषण पोषध བློ་ ཡྻ བླ ཙྪཱ ཉྙོ ཙྩཱ ཡྻོ ཙྩ ཟློ ཡྻ བྷཱུ བྷྱཱ ཙྩུ རྒྱུ རྒྱུ - ཎྞཾ , , , - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्धमान जैनविद्याभवन-जालोर ऊपर की संस्था संवत् 1992 ( मारवाडी 1991 ) के वैशाख शुदि 6 के दिन जालोर में स्थापित हुई और अच्छी उन्नति कर रही है। इस समय इसमें 100 जैन विद्यार्थी धार्मिक, महाजनी, हिन्दी और अंग्रेजी का अभ्यास कर ____कार्यवाहकों की लगन और श्री जैनसंघ की मदद से आज तक यह संस्था.३००००) का चन्दा और बिल्डिंग के वास्ते 60000 गज जमीन प्राप्त करने में समर्थ हुई है। चन्दा अभी चालू है, और पूर्ण आशा है कि सकल श्री जैनसंघ इसमें योग्य सहायता देकर इसकी नींव मजबूत करेंगे, ताकि भविष्य में यह विशेष कार्य कर सके। - कम से कम 250) रुपया मकानखाते में देनेवाले सजनों के नाम आरसपाषाण की तख्तियों पर खुदवा कर मकानों के द्वार पर लगवाये जाते हैं। - भोजनफण्ड, स्थायीफण्ड, आदि किसी भी खाते में का से कम 500) रुपया देने वाले सद्गृहस्थ इस संस्था के 'काय वाहक-सभासद बनाये जाते हैं और उनकी सलाह के अनुसार संस्था का कारोबार चलाया जाता है / Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्था को 20000 या 10000 अथवा तो 5000 की सहायता देने वाले व्यक्ति अथवा श्रीसंघ इसके क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे वर्ग के पेटून बनाये जाते हैं / . पेटूनों के बडे फोटू संस्था अपने खर्चे से बनवा कर मुख्य हॉल में स्थापित करेगी। .. पेट्रनों, मेम्बरों और अन्य खास सहायकों की शुभनामावली उनकी दी हुई सहायता के उल्लेख और संवत् मिति के साथ शिलाओं पर खुदवा कर वे शिलालेख हाल में लगवाये जायंगे। . किसी भी प्रकार की फुटकर मदद देनेवाले भाइयों को संस्था के नाम की पकी रसीदें दी जाती हैं। . विद्यार्थी भेजियेहमारी प्रार्थना केवल आर्थिक सहायता के लिये ही नहीं विद्यार्थी भेजने के सम्बन्ध में भी है / जिन मा बापों को अपने पुत्रों को धार्मिक के साथ 2 व्यावहारिक विद्या में प्रवीग बनाना हो वे उन्हें वर्धमान-जैन विद्याभवन में भर्ती करें / कम खर्च और कम समय में बच्चों को तैयार करनेवाली इसके सिवा दूसरी कोई संस्था नहीं है / . 7 साल से 14 साल तक के बालक इसमें भर्ती हो सकते हैं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 वर्ष की उमर तक विद्यार्थियों को मासिक रु० 3) और इसके ऊपर की उमर में मासिक रु. 4) भोजन खर्च के देने पड़ते हैं। खर्च देने में असमर्थ विद्यार्थियों को मुफ्त भी लिया जाता है। 11 रुपया डीपाझीट और तीन साल की गेरंटी ली जाती है / 3 साल पूरा करने पर डीपाझीट की रकम लौटा दी जाती है। विशेष जानकारी के लिये पत्रव्यवहार नीचे के पते से करें। शा० नवलमल मूलचन्द, मे० सेक्रेटरी श्रीवर्धमान जैन विद्याभवन-जालोर(मारवाड) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाहिर सूचनाइस पुस्तक के उपरान्त नीचे की पुस्तकें भी हमारे शास्त्रसंग्रहमें मिलती हैं१-वीरनिर्वाणसंवत् और जैनकालगणना। - इस पुस्तक की रायबहादुर म० म० पं० श्रीगौरीशङ्करजी ओझा आदि धुरन्धर विद्वानों ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। इतिहास के अभ्यासियों और जैन पाठकों के लिये बडे ही काम की चीज है। ... मूल्य 1) . २-चालु चर्चामां सत्यांश केटलो / (देवद्रव्यचर्चाविषयक निबन्ध ) करीब 17 वर्ष ऊपर जैनसंघ में एक सैद्धान्तिक चर्चा चल पडी थी जो 'देवद्रव्यचर्चा' के नाम से प्रसिद्ध है / उसी चर्चा का स्फोट करने वाला मुनिमहाराजश्रीकल्याणविजयजी द्वारा लिखा गया यह विद्वत्तापूर्ण निबन्ध है। मूल्य-) ३-जिनस्तुतिकुसुमाञ्जलि / मुनिमहाराज श्रीकल्याणविजयजी विरचित संस्कृत-प्राकृत स्तुति-स्तोत्र-चैत्यवन्दनों का संग्रह है। मूल्य भेंट / १ली पुस्तक मंगानेवालों को पिछली दोनों ही पुस्तकें भेंट भेजी जायंगी। पता-सेक्रेटरी श्रीकविशास्त्रसंग्रह-समिति, जालोर (मारवाड) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // श्रीजिनाय नमः // श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह। प्रथम-खण्ड / नमन करी जिनदेव को, वंदन करी गुरुराज / "जैन ज्ञान-गुण संग्रह" लिखू बाल हितकाज // 1 // दर्शनविधि 1 पूजाविधि 2, गृहिद्वादशव्रतसार 3 / तपविधि 4 विविधविचार 5 इति, प्रथम खंड अधिकार॥२॥ 1 देव-दर्शन विधि / सामान्य उपदेश प्रत्येक जैन श्रावक श्राविका का यह कर्तव्य है कि प्रतिदिन जैन मंदिरमें जा कर देव दर्शन करें। देवदर्शन जाते वक्त सब से पहले बाह्य शुद्धि रखनी चाहिये। कारण कि बाह्य शुद्धि अंतर शुद्धि में निमित्त कारण है। इसी लिये मंदिर जाते यदि स्नान न बने तो हाथ पांव आदि Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि तो अवश्य धोने चाहिये / फिर उत्तम कपडे पहिन कर दर्शन करने को जावे / मंदिर तरफ पवित्र भाव से एक एक कदम रखने वाला मनुष्य कितना फल प्राप्त करता है वह नीचे दिये हुए श्लोक में पढिये"यास्याम्यायतनं जिनस्य लभते ध्यायंश्चतुर्थ फलं, षष्ठं चोत्थित उद्यतोऽष्टममथो गन्तुं प्रवृत्तोऽध्वनि / श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात्प्राप्तस्ततो द्वादशं, मध्ये पाक्षिक मीक्षिते जिनपतौ मासोपवासं फलम् // 1 // तात्पर्य मंदिर में जाने का विचार करने पर 1 उपवास का फल, दर्शन के लिये खडा होते 2 उपवास का फल, चलने को तैयार हुआ कि 3 उपवास का फल, मंदिर तर्फ बिदा हुआ कि 4 उपवास का फल, मंदिर के पास पहुंचा कि 5 उपवास का फल, मंदिर में प्रवेश करते 6 उपवास का फल, मंदिर के मध्य भाग में जाते 15 उपवास का फल, और साक्षात् भगवान् को देखते तो 1 मासखमण का फल होता है। यहां ध्यान रहना चाहिये कि ऊपर मुजब फल तब ही होगा जब कि दर्शन करने वाला मन वचन और काया के अशुद्ध व्यापार को रोक कर मंदिर तर्फ पवित्र भावना से गमन करेगा। .. श्रीमान् आनन्दघनजी महाराज श्री सुविधिनाथ भगवान् के स्तवन में फर्माते हैं Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 3 "द्रव्य भाव शुचि भाव धरिने, हरखे देहरे जइये रे / दहतिक पण अहिगम साचवतां, एकमना धुरिथइये रे ? __ मन्दिर जाते रास्ते में दूसरी संसार की झंझटों में न पडकर सीधा मंदिर पहुंचना चाहिये। मंदिर में जाने के बाद सब जगह नजर डालते कहीं धूल कचरा या कोई भी अशुद्धि मालूम हो तो स्वयं दूर करें या मंदिर के पूजारी को कह कर दूर करावे / दर्शन करते भगवान के नजदीक न जाना बल्के अवग्रह के बाहर दूर खडे रह कर प्रार्थना करे / ___ पुरुष भगवान् के दाहिनी (जीमणी) तर्फ और स्त्री बायी (डाबी) तर्फ खडे रहकर दर्शन करे / उस वक्त यह भी ध्यान रहना चाहिये कि कोई दूसरा दर्शन करता हो उसको हरकत न पहुंचे वैसे खडे रहना चाहिये और कोई आगे चैत्यवंदन स्तवनादि बुलंद आवाज से बोलता हो तो खुद अपने दिल में ही पढे, कारण कि ऐसा न करने से गाने वाले की एकाग्रता में भंग पहुंचने का संभव है। ___ मंदिर में जहां तक हो सके शांति रहनी चाहिये / न किसी से संसारिक बात चीत करे और न मुख से गाली गलोज बोले / दर्शन करने वाले कई एक महाशय मंदिर में हा हू मचा देते हैं। एक कहता है मैं पहले पूजा करूंगा दूसरा कहता है मैं करूंगा, पालिताणा जैसे तीर्थ स्थानो में मंदिर में Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि दर्शन करते वक्त और पूजा के वक्त इतनी भीड और हल्ला मच जाता है कि उसमें पता नहीं लगता कि कौन क्या कहता है, वहां उस समय शांति भी नहीं देखी जाती। जब शांति के स्थान में आत्मा को शांति न मिली तो अन्यत्र कहां मिलेगी / दुनिया की झंझट को छोड कर घडी भर शांति प्राप्त करने को मंदिर में गया और वहां भी वही खटपट, तो कहिये वहां जाने में अपने आत्मा को क्या लाभ मिला / जिन मंदिर शांतिका स्थान है,वहां सब मनुष्य जा सकते हैं,किसी रईस या शेठ साहूकार के बंगले पर जाने में प्रतिबंध और रोक टोक हो सकती है, मगर भगवान के स्थान पर वैसा हिसाब नहीं है / राजा भर्तृहरि ने इस विषय पर क्या ही मनोरंजक श्लोक कहा है"नायं ते समयो रहस्यमधुना निद्राति नाथो यदि, स्थित्वा द्रक्ष्यसि कुप्यति प्रभुरिति द्वारेषु येषां वचः। चेतस्तानपहाय याहि भवनं देवस्य विश्वेशितुनिर्दोवारिकनिर्दयोक्त्यपरुषं निस्सीमशर्मप्रदम् // 1 // " तात्पर्य–'अरे अभी जाने का समय नहीं है। वहां खानगी बातें हो रही हैं / शेठ निंदमें हैं / अगर तू देखेगा तो शेठ कोपायमान होंगे। इस प्रकार के वचन जिनके दरवाजे पर सुने जाते हैं, अये दिल ! ऐसे स्थानों को छोड कर परमात्मा के उस सुखप्रद स्थान पर जा, जहां न द्वारपाल हैं, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह न कठोर वचन सुनाई देते हैं, और न किसी प्रकार की हरकतें हैं। . कहने का तात्पर्य कि ऐसे शांति के स्थान मंदिर में शांति रखना इसी में दर्शन की सफलता है, यूरोपीयन लोगों के चर्च (देवल ) में देखो कैसी शांति होती है ? सिर्फ एकही पादरी प्रार्थना बोलता है और दूसरे लोग खामोश रहकर सुनते हैं / जरा भी गडबड नहीं होने पाती। इस प्रकार की शांति जिनमंदिर में रखनी चाहिये जिससे दर्शन का यथार्थ लाभ प्राप्त हो। ___ मंदिर जाने वालों को 84 आशातना भी टालनी चाहिये जिनके नाम नीचे मुजब हैं 84 आशातना 1 मंदिर में थूकना। 2 जुआ शतरंज पत्ते आदिसे खेलना / .3 टंदा फिसाद करना। . 4 धनुर्विद्या सीखना (धनुष बाण चलाना)। * 5 जल से कुरले करना / 6 पान खाना। 7 पान खाकर थूकना। 8 गाली गलोज देना। 9 टट्टी या पैसाब करना। 10 हाथ पांव आदि धोना। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि 11 मस्तक के केश समारना / 12 नख समारना। 13 खून का गिरना। 14 सुकडी (मिठाई) आदि खाना / 15 फोडे आदिकी चमडी उखेड कर गिराना। 16 दवाई खाकर पित्त गिराना / 17 उलटी करना / . 18 मुखमें से हिलता दांत गिराना / 19 हाथ पांव के मालिश कराना। . 20 घोडा ऊंट आदि बांधना / 21 दांतों का मैल गिराना / 22 आंख का मैल गिराना। 23 नख का मैल निकालना / 24 गाल का मैल उतारना / 25 नाक का मैल निकालना / 26 मस्तक का मैल गिराना / 27 शरीर का मैल उतारना / 28 कान का मैल निकालना। 29 भूत जक्ष आदिकी साधना करना / 30 विवाह शादी की पंचायत करना / 31 व्यापार का लेखा हिसाब करना / Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 32 राज संबंधी काम करना अपने भाई विगेरह को माल मिलकत बांटने की व्यवस्था करना / 33 घर की मिलकत मंदिरमें रखना / 34 पांव पर पांव चढाकर बैठना। 35 मंदिर की दिवार पर गोवर थपाना या ढेर लगाना / 36 कपडे सुखाना / 37 दाल दलना। 38 पापड विगेरह सुखाना। 39 वडीयां बनाना केर आदि सुखाना। 40 पोलिस आदि.के भय से मंदिरमें छिप जाना। 41 पुत्र स्त्री आदि के निमित्त रोना / 42 राजकथा देशकथा भक्तकथा स्त्रीकथा करना / 43 बाण धनुष तलवार आदि शस्त्र तय्यार करना / 44 गाय भैस आदि बांधना। . 45 ठंडके मारे सीगडी लगा कर तापना / . 46 अनाज पकाना। 47 नाणे परखना। 48 विधि से निस्सिही न कहना / 49 छाता (छत्री) धारण करना / 50 जूत्ते बूट या स्लीपर पहनना / 51 शस्त्र धरना / Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि 52 चामर ढलवाना। 53 मन को एकाग्र न करना / 54 शरीर पर अत्तर सेंट आदि लगाना। 55 शरीर के सचित्त फुलमालादिका त्याग न करना। 56 हार कुंडल अंगूठी विगेरह जेवर उतारना / .. 57 भगवान को देख कर हाथ न जोडना / 58 उत्तरासन न रखना। 59 मस्तक पर मुकुट रखना। 60 मस्तकको रुमाल आदि से लपेटना 61 फूल का गजरा पास में रखना / 62 श्रीफल आदिका छिलका डालना / 63 दडे से खेलना। 64 पिता आदिको प्रणाम करना / 65 भांड भवाये की चेष्टा करना / 66 तूंकारा वचन बोलना।। 67 लेहेणे के लिये पिकेटिंग-धरना देना। 68 युद्ध करना / 69 मस्तक के बाल सुखाना / 70 पलथी लगाकर बैठना। 71 खडाउ पांव में रखना। 72 पांव लंबे कर बैठना / Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 73 पगचंपी कराना। 74 स्नान कर कीचड करना / 75 पांव के लगी हुई धूल झाडना / 76 मैथुन चेष्टा करना। 77 जूं निकालना। 78 भोजन करना। 79 शरीर के गुप्त भाग ढांक कर न बैठना / 80 वैदक का धंधा करना। 81 खरीदने और बेचने का कार्य करना / 82 बिस्तरा बिछाकर सोना। . 83 जल पीने की मटकी रखना / 84 स्नान करने के लीये स्थान बनाना / . ये चोरासी आशातना उत्कृष्ट कही जाती हैं और मध्यम आशातना 40 तथा जघन्य आशातना 10 हैं जिन के क्रम वार नाम नीचे मुजब हैं-. .. . 40 मध्यम आशातमा * 1 पैसाब करना। 2 जंगल जाना। 3 जूते पहनना। 4 जल पीना। 5 भोजन करना। 6 सोना / Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि 7 मैथुन क्रीडा करना। 8 पान खाना / 9 थूकना / 10 जुगार खेलना। 11 जुगार देखना। 12 विकथा करना। 13 पलथी लगा कर बैठना। 14 पांव अलग अलग लंबे करना / 15 टंटा फिसाद करना। 16 हांसी ठठे करना। 17 किसी पर ईर्ष्या करना। 18 ऊंचे आसन पर बैठना / 19 शरीर का शणगार बनाना / 20 मस्तक पर छाता रखना / 21 तलवार बंदूक आदि शस्त्र रखना। 22 मुकुट मस्तक में रखना। 23 चामर ढलवाना। 24 स्त्रियों के साथ मजाक करना / 25 धरणा लगाना / 26 खेल करना। 27 मुख कोश विना पूजा करना / Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 28 मलिन कपडों से पूजा करना / 29 पूजा करते मनको स्थिर न रखना / 30 शरीर पर सचित्त पुष्पमालादि पहन कर जाना / 31 गहने उतार कर जाना। 32 उत्तरासण न रखना। 33 भगवान् को देख कर नमस्कार न करना / 34 शक्ति होने पर भी पूजा न करना / 35 खराब फूलों से पूजा करना / 36 पूजा में आदर भाव न रखना। 37 प्रतिमा के निंदक को न दांटना / 38 मंदिर के द्रव्य की हिफाजत न रखना। 39 शक्ति होने पर भी सवारी पर चढ कर जाना / 40 बडे पुरुषका अपमान करना / 10 जघन्य आशातना 1 मंदिरमें पान सुपारी खाना। 2 जल पीना। 3 भोजन करना। 4 जूते पहिनना / 5 स्त्री क्रीडा करना। 6 सोना। 7 थूकना। 8 पैसाब करना। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 जिनपूजाविधि / . 9 टट्टी जाना। 1. जुगार चोपट पत्ते खेलना ऊपर लिखी हुई आशातना टालने में विनय धर्म प्रकट होता है और भक्ति भी विशुद्ध मानी जाती है / दरवार की इजलास में या कोर्ट कचहरियोंमें जाना पडता है तो वहांभी कितना अदब (विनय) रखना पडता है ? / कपडे अच्छे पह- . नते हैं, विचार कर बोलते हैं, गाली गलोज मुख से नहीं निकालते, हर तरह से सोच विचार कर चलते हैं तो भगवान् तो तीन जगत् के स्वामी ह, इन का अदब करें उतनाही थोडा हैं। भगवान् वीतराग हैं, इन को किसी प्रकारकी दरकार नहीं है, मगर भक्ति करने वाले का फर्ज है कि पूज्य पुरुष के प्रति अपना अंतःकरण से बहुमान दिखलावे और किसी प्रकार की आशातना न करे / 2 जिनपूजाविधि / सामान्य उपदेश / तीर्थंकर देव की पूजा करना यह भी हर एक जैन श्रावक का खास कर्तव्य है। शास्त्रकारों ने श्रावकों के जो षट्कर्म बतलाये हैं उनमें जिनपूजा को प्रथम नम्बर में रक्खा है, कारण कि एकनिष्ठा से की गई यह जिनपूजा समकितकी शुद्धि करने के साथ मोक्ष तक के उत्तम फल देने वाली है / कहा भी है Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह "जो पूएइ तिसंझं, जिणिंदरायं तहा विगयदोसं / सो तंइयभवे सिज्झइ, अहवा सत्तट्ठमे जम्मे // 1 // ___इसका तात्पर्य यह है-"जो मनुष्य शुद्ध अंतःकरण से जिनेश्वर देवकी त्रिकाल ( सुबह-दोपहर-शाम को) पूजा करता है वह तीसरे भव में या सातवे आठवे भव में मोक्षसुख को प्राप्त करता है / " देखिये कैसा उत्तम फल दिखलाया है ? मोक्षाभिलाषी गृहस्थ के लिये पूजाभक्ति सच मुचही मोक्ष का साधन है। मूर्ति पूजा की जरूरत इस साधन के द्वारा देवाधिदेव तीर्थंकरों की भक्ति करनी चाहिये / क्यों कि वे हमारे महान् उपकारी हैं। उन्होंने अपनी वाणी द्वारा तत्त्वज्ञान और मोक्ष का मार्ग बता कर हम पर बड़ा भारी उपकार किया है / इस उपकार को न भूलना इसी का नाम कृतज्ञता है / यह कृतज्ञता तब ही मानी जायगी जब कि हम भगवान् की पवित्र हृदय से भक्ति करेंगे। परंतु यहां पर एक सवाल उठता है, भगवान् यहां साक्षात् नहीं है, फिर हम किसकी भक्ति करें ? इसका जवाब यही है कि भगवान् की गैरहाजरी में उनकी मूर्ति ही हमारे लिये भगवान् हैं / जिनविरह में जिनमूर्ति ही जीवों के लिये पूर्ण आलंबन है। उसमें भगवान् का आरोप कर उसके सामने जो कुछ भक्तिभाव किया जायगा उससे जिन भक्ति का Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 2 जिनपूजाविधि / ही फल-लाभ होगा। क्रिश्चियन प्रजा मूर्ति पूजा को नहीं मानती फिरभी वह चर्च में (गिरिजाघर में) जेसस क्राइष्ट की मूर्ति रखती है / मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी हैं फिर भी वे मक्का की तर्फ मुंह करके निमाज पढते हैं जो कि एक तरह से मूर्ति पूजा का ही स्वीकार है / चीन जापान सीलोन आदि में बौद्ध लोक बुद्ध देव को पूजते हैं और भारत वर्ष में हिंदू लोग विष्णु शंकर आदि को / अतः तत्त्वदृष्टि से देखा तो जमाने हाल में मूर्तिपूजा एक व्यापक धार्मिक मार्ग है / किसी भी व्यक्ति के आध्यात्मिक गुण-दोषों की परीक्षा के लिये उसकी मूर्ति ही आदर्श भूत साधन है। तीथकर देव अन्य देवों से श्रेष्ठ थे यह बात भी हम उनकी मूर्ति से ही जान सकते हैं / तीर्थकरकी मूर्ति में जो शान्ति, क्षमा, वीतरागता आदि गुण झलकते हैं वे अन्य मूर्तियों में नहीं पाये जाते / इस विषय में पंडित धनपालका नीचे लिखा श्लोक पढने लायक है "प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं, वदनकमलमङ्कः कामिनीसंगशून्यः / करयुगमपि यत्ते शस्त्रसम्बन्धवन्ध्यं, तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव // 1 // " भावार्थ- "हे प्रभो ! तेरे दोनों नेत्र शांतरस से भरे हुए हैं, तेरा मुखकमल प्रसन्न है, तेरा अंकस्थान (गोद) स्त्री Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह संग से रहित है और तेरे दोनों हाथ शस्त्ररहित हैं इस लिये तू ही सत्य वीतराग देव है।" हरिभद्र सूरि का भी एक श्लोक यहां याद आ जाता है "मृर्तिरेव तवाचष्टे, भगवन् ! वीतरागताम् / नहि कोटरसंस्थेऽग्नौ, तरुर्भवति शाद्वलः / 1 // " "हे भगवन् ! आपकी मूर्ति ही वीतरागदशा को बता रही है। यदि आपमें राग-द्वेषादि दोष होते तो आपकी यह मूर्ति ऐसी शान्त कभी नहीं होती, क्यों कि मूल में अग्नि के रहते वृक्ष कभी हरा नहीं होता / " ___ ज्यादा क्या कहें, जैसी मूर्ति होती है वैसा ही प्रभाव देखने वालों पर पड़ता है / कोट पटलून बूट स्टोकिंग पहने हुए एक जेंटलमेन् का फोटो देखने पर शौकिनी का भाव पैदा होता है और ध्यान समाधि में बैठे हुए एक त्यागी महात्मा की तसवीर देख कर वैराग्य भाव पैदा होता है। इसी तरह सर्वथा राग-द्वेष रहित तीर्थंकर भगवान् की शांत मूर्ति देखकर हमें वैराग्यभाव पैदा हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? / इसी लिये कहा जाता है कि "वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमश्नुते / " . "योगी पुरुष वीतराग का स्मरण करते हुए वीतराग दशा - को प्राप्त होते हैं।” इस प्रकार जब मूर्ति प्रभाव वाली सिद्ध हुई तो उसके Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होचका। 16 2 जिनपूजाविधि / द्वारा तीर्थंकर भगवान् की पूजा भक्ति करना भी स्वतः सिद्ध होता है और इससे गृहस्थ धर्म में 'पूजा' विषय कितना जरूरी है यह अच्छी तरह सिद्ध हो चुका / प्राथमिक कर्तव्य- प्रातः काल में उठकर प्रथम पंचपरमेष्ठी मंत्र को ( नवकार को गिने और सामायिक का नियम हो अगर भाव हो तो वह भी कर लेवे, बाद जरूरी कामों से निवृत्त होकर जहां जीवजंतु न हो ऐसी शुद्ध जमीन पर बैठ कर गरम जलसे या छाने हुए जल से स्नान करे, (यहां ध्यान रहना चाहिये कि अगर किसी के शरीरके किसी भाग में कुछ भी जखम हो और उसमें से खून या पीप निकलता हो तो पूजा नहीं होसकती ) स्नान करते वक्त अगर नवकारसी का पच्चखाण आगया हो तो दांतून भी कर सकते हैं / स्नान करने के बाद रूमाल या दुवाल से अपने शरीर को अच्छी तरह पोंछ लेवे फिर अच्छी सफेद धोती जो फटी न हो संधावाली न हो जिससे पैसाब या टट्टी न गया हो बिलकुल अखंड हो पहिन लेवे / उत्तरासन भी वैसाही सफेद अखंड बायी तर्फ से तिरछा जनोई की तरह धारण कर ले / पूजा षोडशक ग्रंथ के अभिप्राय से पूजा के लिये रेशमीन कपडा भी चल सकता है। परंतु वह रेशमीन कपडा भी सिवाय पूजा के ओर किसी काम में नहीं पहिनना चाहिये, तथा इन पूजा के कपड़ों में हाथ नाक या मुख न पोंछना चाहिये, दूसरे पहने के कपड़ों के शामिल भी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजैनज्ञान-गुणसंग्रह न रक्खे / इस तरह जब पवित्र कपडे पहिन कर ठीक ठाक होजावे तब पूजा का सामान तय्यार करें। ___ शास्त्र में द्रव्य और भाव भेद से दो प्रकार की पूजा बताई है। द्रव्य पूजा 8 द्रव्य से की जाती है, अष्टद्रव्य के नाम ये हैं 1 जल, 2 चंदन, 3 पुष्प, 4 धूप, 5 दीप, 6 अक्षत (चावल), 7 नैवेद्य, 8 फल | इन आठ द्रव्यों को लेकर घर से जिनमंदिर की तर्फ चले, रास्ते में नीचे दिये हुए दोहे दिल में याद करता रहे। __ पूजाभावना के दोहे। प्रभुपूजन कुं मैं चला, घसि चंदन घनसार। नव अंगे पूजा करी, सफल करूं अवतार // 1 // पांच कोडी के फूल से, पाया देश अढार / कुमारपाल राजा हुआ, वरता जय जयकार // 2 // तीर्थंकर को पूजते, उत्कृष्ट परिणाम / पाया है कइ जोवने, स्वर्ग मोक्ष के धाम // 3 // समकित को अजुआलवा, उत्तम यही उपाय / पूजा से तुम जाणजो, मन वछित सुख भाय // 4 // पूजा कुगति की अर्गला, पुण्य सरोवर पाल / मोक्षगति की प्रियसखी, देवे मंगलमाल // 5 // जिन दर्शन पूजा विना, दिन जितने ही जाय / निष्फल वे सब जाणजो, अरु जन्म अकारथ जाय // 6 // Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 2 जिनपूजाविधि / जिनमंदिरमें प्रवेश और द्रव्यपूजा।... ____ इस तरह की भावना के साथ 5 'अभिगम (सन्मुख जाने के 5 नियम) और 10 'त्रिक का पालन करता हुआ जिनमंदिरमें प्रवेश करे / प्रवेश करते वक्त 'निसीही' बोल (1) पांच अभिगम-१ सचित्त वस्तुका त्याग (पास में फल फूल माला विगैरह हो तो छोड देना) 2 अचित्त वस्तुका अत्याग-अर्थात् पास में रहे हुए आभूषणादि को न छोडना / 3 खेश का उत्तरासन रखना 4 जिनप्रतिमा पर दृष्टि पडते ही दूरसे नमस्कार करना / 5 अपने मनको एकाग्र करना। (2)-10 त्रिक के नाम-अवग्रहत्रिक, आलंबनत्रिक, प्रदक्षिणात्रिक, क्षमाश्रमणत्रिक, प्रणिधानत्रिक, निस्सिहीत्रिक, अवस्थात्रिक, मुद्रात्रिक, दिशानिक, भूप्रर्माजनत्रिक / दशत्रिक का तात्पर्य है-अलग अलग तीन तीन वातों के दश नियम, जिन का क्रमवार वर्णन इस मुजब है / 1 अवग्रहत्रिक-अवग्रह भगवान के नजदीक के उस भूमि भागको कहते है जिसको छोड कर चैत्यवन्दन आदि करने के लिये बैठते हैं / यह अवग्रह उत्कृष्ट 60 हाथ,मध्यम 9 हाथ और जघन्य 3 हाथ का होता है, अर्थात् भगवानसे इतना दूर बैठना चाहिये / 2 आलंबनत्रिक-१ वर्णालम्बन 2 अर्थालंबन 3 प्रतिमालंबन / शुद्ध पद बोलने को वर्णालंबन कहते हैं, पदके अर्थ विचार को अर्थालंबन कहते हैं और प्रतिमा के सामने दृष्टि रखना इसे प्रतिमालंबन कहते हैं / ... Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह कर भीतर जावे और तीन वार प्रदक्षिणा देवे / पहेले अपने 3 प्रदक्षिणात्रिक-मंदिर की भमती में 3 वार परिक्रमा करना इसे प्रदक्षिणात्रिक कहते हैं। 4 क्षमाश्रमणत्रिक-भगवान् को तीन वार खमासमण देना। 5 प्रणिधानत्रिक-दोनों. जावंति और जयवीयराय का पाठ बोलना यह प्रणिधानत्रिक कहा जाता है / 6 निस्सीहीत्रिक-गृहव्यापारादि निषेध सूचक तीनवार 'निस्सीही' शब्द बोलना। 7 अवस्थात्रिक-भगवान् की छद्मस्थ अवस्था,केवली अवस्था, और सिद्ध अवस्था ये तीनों अवस्था विचारना इसको अवस्थात्रिक कहते हैं। . 8 मुद्रात्रिक-१ योगमुद्रा 2 जिनमुद्रा 3 मुक्ताशुक्ति मुद्रा। दोनों हाथ की 10 अंगुलियां परस्पर मिलाकर कमल के डोडे की शकल में दोनों हाथ जोड पेट पर कुंणी रख कर चैत्यवंदन करना यह 'योगमुद्रा' कही जाती है। दोनों पांव के अंगुठों के वीच 4 अंगुली का अन्तर और दोनों एडी के बीच 3 अंगुलीका अन्तर रखकर खडे खडे काउस्सग्ग करना यह 'जिनमुद्रा' कही जाती है। दोनों हाथ बराबर एकत्र कर ललाट के लगाकर जयवीयराय का पाठ बोलना यह 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' कही जाती है / 9 दिशात्रिक-आसपास की दो दिशाये तथा पिछली दिशा इन तीन दिशाओं से दृष्टिको हटाकर भगवान् के सामने देखना इसका नाम दिशात्रिक है। 10 भूप्रमार्जनत्रिक-चैत्यवंदन करते तीन वक्त खेश से भूमि पोंछना इस का नाम भूप्रमार्जनत्रिक है / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि ललाट में तिलक न किया हो तो तिलक करे फिर आठ पडका मुखकोश बांध कर दूसरी बार 'निसीही' कह कर गूढ मंडप में जा घुटने टेक कर तीनवार नमस्कार करे, फिर मूल गभारे में जावे, प्रथम मूलनायक भगवान् पर अगले दिन के चढे हुए पुष्पादि निर्माल्य मोरपीछ से प्रमार्जन करे, इसी तरह आसपास के बिंबों पर प्रमार्जन करे / बादमें पंचामृत से (दही दूध घी शक्कर और जल से) प्रक्षालन (पखाल) करने 1 यहांपर ललाट के सिवाय अपने शरीर के दूसरे अंगउपांग-मस्तक-कान-गला-हाथ आदि पर कितनेक लोग केशर का तिलक करते हैं लेकिन यह सिर्फ देखादेखी की रूढि है, पूजा की विधि में ऐसा लेख नहीं है, पूजा करने वालों को चाहिये के ऐसी रूढि पर ध्यान न देकर मूल बात पर खयाल रक्खे / ललाटमें जो केशर का तिलक किया जाता है उसके लिये केशर साधारण खाते का होना चाहिये, मंदिर का उपयोग में नहीं आ सकता / मंदिर खाते का केशर सिर्फ भगवान् की पूजा में ही काम आता है। कितनीक जगह देखा जाता है कि जो मंदिर खाते का केशर घीस कर भगवान् की पूजा के लिये तय्यार किया जाता है, उसीसे अपने ललाट में भी तिलक करते हैं, परंतु उस में देवद्रव्य का दोष लगता है। हां अगर पूजा करने वाले महाशय अपने घर का ही केशर पूजा के वास्ते ले जावे तो वह केशर अपने तिलक में और पूजा में दोनों जगह काम आ सकता है, वहां देवद्रव्य का दोष नहीं लगता / तिलक के लिये केशर दूसरी वाटकी में ले लेना चाहिये। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 21 के बाद शुद्ध जलसे अभिषेक करे उस वक्त दिल में जन्माभिषेक की भावना करे। जलाभिषेक में भावना और जयणाबालत्तणंनि सामिय, सुमेरुसिहरंमि कणयकलसेहिं। तियसासुरेहिं पहविओ, ते धन्ना जेहि दिट्ठोसि // 1 // ___“हे प्रभो ! बचपन में मेरुशिखर पर 64 इंद्रोंने सुवर्ण कलशोंसे आप का अभिषेक किया उस समय जिन्होंने आपका दर्शन किया वे धन्य हैं / " इस भावना से प्रक्षालन करे, यहां ध्यान रहना चाहिये कि भगवान् के शरीर पर कहीं केशर चिपक गया हो तो धीमे हाथ से या अंगलूणे से साफ करे वालाकुंची को अधिक न घिसे, कारण के उससे मूर्ति पर सदा घसारा लगने से किसी समय मूर्ति के खड्डे होने का संभव है, हां अगर किसी जगह हाथ या कपडे से भी केशर रह जाता हो तो उस जगह अवश्य वालाकुंचीका उपयोग कर सकते हैं / आज कल कई जगह देखा गया है कि मंदिर के भाडुती पूजारी पूजाविधिका पूरा रहस्य न समझने से वालाकुंची से भगवान पर टूट पडते हैं , जल छिडक कर खूब घिसने लग जाते हैं, कई जगह श्रावक लोग भी जानकारी न होने से इसी तरह वालाकुंची का उपयोग करते हैं यह सब अविवेक है। पूजा करने वालों को चाहिये कि ऊपर लिखे मुताबिक जहां जरूरत हो वहीं वालाकुंची का उपयोग करें, संक्षेप में कहना यही है कि बडी जयणा के साथ जल से भगवान् का प्रक्षा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 1 देवदर्शनविधि . . लन करे / इस के बाद स्वच्छ अंगलूणों से यथाक्रम सब मूर्तियों को पोंछ कर स्वच्छ कर लेवे / पीछे केशर चंदन से पहले मूलनायक की, बाद दूसरे भगवान की नव अंगे पूजा करे / पूजा करते समय नीचे मुजब भावना के साथ एक एक दुहा बोलता जावे। पूजा के दोहेजल भरी संपुट पत्रमां, युगलिक नर पूजंत / ऋषभ चरण अंगुठडो, दायक भवजल अंत // 1 // . इस तरह बोल कर भगवान के दाहिने और बाये अंगूठे पूजा करे। .. जानुबले काउस्सग्ग रह्या, विचर्या देश विदेश / .खडा खडा केवल लघु, पूजो जानु नरेश // 2 // ऐसा बोल दोनों घुटनों की (गोडों की) पूजा करे / लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसीदान / कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवि बहुमान // 3 // दोनों हाथों की पूजा करे। मान गयुं दोय अंसथी, देखी वीर्य अनंत / भुजा बले भव जल तर्या, पूजो खंध महंत // 4 // दोनों खंधो की पूजा करे।। सिद्धशिला गुण ऊजली, लोकांते भगवंत / वसिया तिण कारण भवि, शिरशिखा पूजंत // 5 // मस्तक पर पूजा करे। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 23 तीर्थकर पद पुण्य थी, त्रिभुवन जन सेवंत / . त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत // 6 // ललाट में पूजा करे। सोल पहर प्रभुदेशना, कंठ विवर वर्तुल / मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तेणे गले तिलक अमूल // 7 // कंठ भाग में पूजा करे / हृदय कमल उपशम बले, बाल्या रागने रोष / हिम दहे वन खंडने, हृदय तिलक संतोष // 8 // हृदय भाग में पूजा करे / रत्नत्रयी गुण ऊजली, सकल सुगुण विश्राम / नाभिकमलनी पूजना, करतां अविचल धाम // 9 // नाभिस्थान में पूजा करे। इस तरह मूलनायक की नव अंगे पूजा करने के बाद आस पास के बिंबोंकी तथा इनसे और अधिक बिंब हों तो उनकी भी पीछे ( उतावल न हों तो) पूजा कर लेवे / पूजा में मूलनायक की मुख्यता___ यहां पर शंका पैदा हो सकती है कि पहिले मूलनायक की पूजा और पीछे आसपास की पूजा करने पर स्वामी सेवक भाव (छोटे बडे का हिसाब) हो जाता है, एक तीर्थकर की विशेष पूजा करना और दूसरों की साधारण, यह भेद तीथंकरो में क्यों होना चाहिये ? / इसका समाधान यह है कि बेशक तीर्थंकर भगवान् सब समान हैं, उनमें स्वामी सेवक Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 1 देवदर्शनविधि भाव नहीं हो सकता,तो भी यह व्यवहार है कि जिस बिंबकी पहले स्थापना की गई हो वह मुख्य बिंब है इस लिये उसका पूजन पहले किया जाता है / ऐसा करने पर शेष तीर्थंकरों के नायकभाव में कमी नहीं होती। संघाचार भाष्य में भी मूलनायक की पूजा विशेष प्रकार से करने के लिये कहा है"उचिअत्तं पूआए, विसेसकरणं तु मूलबिंबस्स / जं पडइ तत्थ पढम, जणस्स दिट्ठी सह मणेणं // 1 // " अर्थात्-"उचित रीति से सर्व बिंबो की पूजा करनी चाहिये परंतु खास कर मूल बिंबकी, क्यों कि अंदर जाते ही लोगों की दृष्टि और मन पहले उसी पर ( मूल नायक पर) ठहरते हैं।" पुष्पपूजा में विवेक केशर चंदन से पूजा कर चुकने पर भगवान को पुष्प चढाये जाते हैं / पुष्प गुलाब, चंपेली, जाई, जुइ, मरुआ, मोगरा आदि के सुगंधी होने चाहिये / देखिये इस विषय में जिनहर्षसूरि अपने "विंशतिस्थानकविचारामृतसंग्रह' ग्रंथ में क्या फरमाते हैं "न शुष्कैः पूजयेद्देवं, कुसुमैन महीगतैः। न विशीर्णदलैः स्पृष्टै- शुभैर्नाऽविकाशिभिः // 1 // कीटकेनापविद्धानि, शीर्णपर्युषितानि च / वर्जयेदृर्णनाभेन, वासितं यदशोभनम् // 2 // . पूतिगन्धीन्यगन्धीनि, आम्लगन्धीनि वर्जयेत् / Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह मलमूत्रादिनिर्माणा-दुत्सृष्टानि कृतानि च // 3 // ग्रंथिमादिचतुर्भेदैः, पुष्पैः सद्यस्कसौरभैः। निजान्यहृदयानन्द-दाथिनी कुरुतेऽर्चनाम् // 4 // " तात्पर्य-"जो सूखे हों, जमीन पर गिरे हुए हों, जिनकी पंखडियां खंडित हों, खराब चीज के स्पर्शवाले हों, पूरे तौर से न खिले हों, कीडों से काटे हुए हों, छिले हुए हों, वासी हों, जिन पर मकडी का जाला लगा हो, खराब बास वाले हों, सुगंध रहित हों, खट्टी बास वाले हों, मलमूत्र करते समय पास रहने से छोड दिये गये हों ऐसे फूलों से देव की पूजा न करे। इनके विपरीत 1 ग्रंथिम ( गुंथे हुए माला आदि) 2 वेष्टिम (किसी आकार में वींटे हुए) 3 पूरिम (नकसी के रूप में बने हुए), 4 संघातिम (ढगले के रूप में बने हुए ) इन चार प्रकार में से किसी भी प्रकार के ताजे और खुशबूदार फूलों से पूजा करे। ये फूल सूर्य उदय होने के पहले नहीं लाने चाहिये / अंधेरे में जीवजंतु का उपयोग नहीं रहता / लाये हुए फूलों को सुई से छेदना नहीं चाहिये, और उनकी पांखडियां नहीं तोडना चाहिये / वे ज्यों के त्यों अखंड ही चढाने चाहिये जिससे जयणा धर्म का पालन होता रहे। अङ्ग-अग्रपूजा विषयक भावना इस तरह-जयणा और विवेकपूर्वक लाये हुए फूलों से पूजा कर इस मुजब भावना करे Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 जिनपूजाविधि / . "हे प्रभो ! ये उत्तम सुगंधी फूल जैसे सुगंध से भरे हुए हैं वैसेही मेरे विचार समकित रूप सुगंध से भरपूर हों" यहां पर ध्यान रहना चाहिये कि जल चंदन पुष्प और अंगी विगैरह की पूजा को अंगपूजा कहते है, कारण कि उक्त जलादि पदार्थ भगवान् के शरीर पर चढाये जाते हैं। . धूप दीप अक्षत नैवेद्य और फल पूजा अग्रपूजा कही जाती है। ...... इस अग्रपूजा में प्रथम धूप अगरबत्ती या दशांग धूप का करे, उस वक्त मन में भावना करे. "हे प्रभो ! इस धूपको अग्नि में डालने से जल कर इसका धुंआ ऊर्ध्व गमन करता है इसी तरह मेरी आत्मा के साथ लगे हुए कर्म जल कर मेरी आत्मा ऊर्ध्व गमन करो। अर्थात् मोक्षगति को प्राप्त हो".. धूप करने के बाद पवित्र घीका दीपक करे उस वक्त यह भावना होनी चाहिये- "हे त्रिलोकीनाथ ! यह दीपक जैसे अन्धकार को दूर कर प्रकाश करता है इसी तरह मेरी आत्मा में रहा हुआ अज्ञान रूप अंधकार दूर हो और आत्मा केवलज्ञान से प्रकाशमान हो" इसके बाद अक्षत (चावल) से बाजोठ पर अष्टमंगल (1 दर्पण 2 भद्रासन (सिंहासन) 3 वर्धमान 4 कलश 5 श्रीवत्स 6 मीनयुगल 7 स्वस्तिक 8 नंद्यावर्त) इनका आले Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 27 खन करे अथवा अकेला स्वस्तिक करे यहां पर ऐसी भावना होनी चाहिये___"हे नाथ चार गति के भ्रमण को हठा कर मुझे अखंडपद (मोक्षस्थान) दीजिये जिससे जन्म जरा मरण वाले संसार में मुझे फिर भ्रमण करना न पडे" इसके बाद शक्कर, ताजी मिठाई विगैरह नैवेद्य चढावे और मनमें भावना करे___"हे दीन दयाल ! जैसे इस आहार का त्याग कर आपने अणाहारी पद प्राप्त किया वैसे मुझे भी. यही पद प्राप्त हो" इसके बाद श्रीफल सुपारी विगैरह फल चढा कर ऐसी भावना करे "हे कृपालु स्वामिन् ! यह फल आपके चरणों में रखकर मैं यही चाहता हूं कि मुझे उत्तम मोक्ष रूपी फल जल्दही प्राप्त हो" इस तरह क्रमवार अष्टद्रव्य चढाने के बाद और भी बादाम, पिस्ता,इलायची,लवंग आदि मेवा चढाना,अशरफी रुपया पैसा चढाना, आरती और मंगलदीप करना, बाजे बजवाना इत्यादि सब अग्रपूजा में गिना जाता है। भाष्य में भी कहा है"गंधव्व-न-वाइय-लवणजलारत्तिआइदीवाई। जं किंचं सव्वंपि उ, ओअरई अग्गपूजाए / 1 // " ___अर्थात्-"गान, नाच, वादित्र, लवणजल, आरती और मङ्गलदीपक आदि जो कुछ पूजा कर्तव्य है उन सबका अग्रपू Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि जामें समावेश होता है।" स्वस्तिक द्रव्यपूजा कर रहे तब मंडपमें जाकर चोखा सुपारीकी डबिया खोल कर पाटले पर अक्षतका स्वस्तिक (साथिया) नीचे का दुहा बोलता हुआ करे / " अक्षतपूजा करतां थकां, सफल करुं अवतार / फल मागुं प्रभु आगले, तार तार मुझ तार // 1 // " उसके बाद"दर्शन ज्ञान चारित्रना, आराधनथी सार / सिद्धशिलानी उपरे, हो मुज वास श्रीकार // 2 // " इस तरह दुहा बोल कर चावलकी तीन ढगलियां तथा अर्ध चंद्राकार सिद्धशिलाका आकार बनावे / इनका भावार्थ भी पढिये ऊपर दिये गये साथिये के चार पांखडियां हैं जिनसे देव मनुष्य तिर्यश्च नरकरूप चार गतियों की सूचना होती है, साथिये के ऊपर चावल की तीन ढगलियां 1 ज्ञान 2 दर्शन और 3 चारित्र इन तीन रत्न की सूचना करती है, 3 ढगलि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 29 यों के ऊपर जो अर्ध चंद्राकार किया गया है वह सिद्धशिलाका सूचक है, इससे भावना यह होनी चाहिये हे त्रिलोकीनाथ ! चार गति के भ्रमण को हठा कर मुझे ज्ञान दर्शन और चारित्र दे कर मोक्षस्थान पहुंचनेको शक्तिमान कर। ऐसी भावना के साथ साथिया कर उसपर सुपारी विगैरह फल रक्खे। भावपूजा भगवान् की दाहिनी तर्फ (जीमणी तर्फ) बैठ कर चैत्यवंदन करना यह भावपूजा है। चैत्यवंदन के तीन भेद हैं-जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट / - जघन्य चैत्यवंदन वह है जिसमें सामान्य नमस्काररूप कोई एक श्लोक या दुहा बोला जाता है / ___ मध्यम वह है कि जिसमें चैत्यवंदन नमुत्थुणं दोनों जावंति स्तवन जयवीयराय तथा अरिहंत चेइयाणं बोलकर एक नवकार का काउस्सग्ग कर ऊपर एक स्तुति बोली जाती है / __उत्कृष्ट वह है कि जिसमें चार अथवा आठ स्तुतियोंसे चैत्यवंदन किया जाता है। इन तीनों भेदों के चैत्यवंदनमें स्तवन स्तुति आदि पाठ शुद्धं अर्थ विचारणापूर्वक बोलना चाहिये / अशुद्ध और उपयोग रहित बोलनेसे उसका यथार्थ फल नहीं मिलता। मिठाई बहुत मीठी होती है लेकिन उसमें कङ्कर या धूल पडी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि हुई हो अथवा खानेवाला खानेमें ध्यानहीन हो तो खाने का खाद बिगड जाता है अगर उसका पता ही नहीं लगता। इसी तरह अशुद्ध उच्चारणमें अथवा उपयोगशून्यतामें समझ लेना चाहिये। ____ अब चैत्यवंदन स्तवनादि मंदिरमें कैसे बोलने चाहिये यह बात भी समझने लायक है / चैत्यवंदन स्तवनादि कितनेक सर्वत्र (मंदिरमें पडिकमणा या पोसहमें) बोलने लायक होते हैं, कितनेक अमुक स्थानमें कहने लायक / कितनेक पुरुषके कहने लायक होते हैं और कितनेक स्त्रीके कहने लायक / जिस चैत्यवंदनमें स्तवनमें और स्तुतिमें सिर्फ भगवान् के गुणों का वर्णन हो अथवा अपनी आत्मनिन्दा हो वे मंदिर प्रति क्रमणादिमें सर्वत्र बोले जाते हैं, परंतु जिनमें आठम ग्यारस आदि तिथियोंका वर्णन हो या दान शील तपस्या ध्यान पूजा विगैरहका उपदेश हो ऐसे स्तवनादि प्रतिक्रमण सामायिक या पौषध में ही बोलने चाहिये मन्दिरमें नहीं बोलने चाहिये। __स्तुतियों के विषयमें भी यही बात है / पांचम आठम इ. ग्यारस आदि तिथियोंकी स्तुतियां प्रतिक्रमणादिमें बोल सकते हैं परंतु भगवान् के सामने तो भगवान के गुणवर्णनवाली स्तुति ही बोलनी चाहिये। चार स्तुतियोंमें पहली स्तुतिमें एक तीर्थङ्करका गुणवर्णन, दूसरीमें सब तीर्थङ्करोंका गुणवर्णन, तीसरीमें ज्ञान का Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 31 वर्णन और चौथीमें समकितदृष्टि शासन देवदेवियों की प्रशंसा आती है / ऐसे क्रमपूर्वक वर्णनवाली चारों स्तुतियां बोलनी चाहिये / कई ऐसी भी स्तुतियां होती हैं जिनमें उक्त क्रम नहीं पाया जाता, वे नहीं बोलनी चाहिये / ऊपरकी सूचना मुजब स्तुति स्तवनादि भावपूजामें पढने चाहिये और वह भी बहुत शांतिपूर्वक एकाग्रचित्तसे / क्योंकि लाभ स्थिरतामें है उतावलमें नहीं / स्थिरतासे की गई यह भावपूजा द्रव्यपूजासे अधिक श्रेष्ठ है / भावमें वृद्धि करानेवाली होनेसे उत्कृष्ट फल इसीसे प्राप्त होता है। भावपूजा के समय इतना एकाग्र हो जाना चाहिये कि आसपास क्या हो रहा है उस तर्फ जरा भी खयाल न जावे / एक यूरोपीयन् Astrologer ( खगोलशास्त्री) Sir Issac Newton सर आइजाक् न्युटन जो कि ई. सन् 1642 में जन्मा था, जिसकी कुल उम्मर 84 वर्षकी थी उसका मन इतना एकाग्र था कि जब कभी Philosophical (तत्त्वज्ञान ) और Arithmetical (गणित) विद्या संबन्धी विचारोमें मग्न होता था उस वक्त खाना पीना भी भूल जाता, यहां तक कि रात है या दिन है इसकी भी उसको खबर न रहती थी। - इसके सिवाय और भी एक आर्किमिडीज नामका मशहूर गणितशास्त्री अपना अभ्यास इतनी एकाग्रतासे करता था Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _2 जिनपूजाविधि / कि बाहर क्या हो रहा है उस तर्फ उसका तनिक भी ध्यान न जाता था। एक रोज किसी परदेशी दुश्मनने उसके गांवपर हमला किया और बंदूक तथा तोपों के धडाकोंसे वहांके मनुष्यों को भगाने लगा उस वक्त यह विद्वान् Geometry (भूमिति) संबन्धी जटिल प्रश्न के सुलझानेमें मशगुल था, फोज के सिपाइयोंने उस के बंद कमरे की दिवार तोडकर भीतर जाकर कहा--'हमारे ताबे हो जा अन्यथा तेरी जानको खतरा है' यह सुन न तो वह डरा और न गभराया, शांतिसे जवाब दिया "Please wait some time till I finish this my knotty ridle? " ___“कृपाकर थोडी देर ठहरिये मेरा यह कठिन कोयडा पूर्ण करने दीजिये / " अहा देखिये उसकी एकाग्रता और मन की स्थिरता ! यह तो आधुनिक दृष्टांत है परन्तु शास्त्र में भी सुना जाता है एक रोज लङ्कापति रावण अपनी रानी मन्दोदरी के साथ अष्टापद तीर्थ पर गया और चोईस भगवान् की प्रथम अष्ट द्रव्य से पूजा की बाद भावपूजामें लगा / जिस वक्त मंदोदरी नाच करती थी और रावण वीणा बजाते हुए गाते थे उस वक्त उनकी भावना इतनी बढ़ गई थी कि वहां उन्होंने तीर्थङ्कर गोत्र कर्म बांध लिया। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 33 देखिये कितना है भावपूजा का प्रभाव ? इसी लिये शास्त्रकारोने द्रव्यपूजाका उत्कृष्ट फळ बारवां अच्युत देवलोक तक गमन बताया है और भावपूजा का फल एक अन्तर्मुहूर्तमें मोक्षप्राप्ति तक बताया है। दोनों पूजाओंका लाभ श्रावक को उठाना चाहिये। उक्त अष्टप्रकारी पूजा के उपरांत सतराभेदी और इक्कीस प्रकारी पूजा भी शास्त्र में बताई हैं जिन का दिग्दर्शन नीचे मुजब है। सतरा भेदी पूजा 1 स्नात्र करना, विलेपन करना / 2 चक्षु चढाना / 3 सुगंधी फूल चढाना / 4 पुष्पमाला पहनाना / / 5 पंचरंगी फूल चढाना। . 6 बरास कपूर आदिका चूर्ण चढाना / 7 अलंकार (अंगी आदि) चढाना / 8 फूलों का घर बनाना / 9 फूलों का ढेर करना / 10. आरती तथा मंगलदीवा करना / / 11 बत्तियों का दीपक धरना। - 12 धूप करना। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देवदर्शनविधि 13 नैवेद्य चढाना। 14 उत्तम फल चढाना / 15 गीत गान करना। 16 नाटक करना। 17 बाजे बजवाना। इक्कीस प्रकारी पूजा 1 स्नात्र अभिषेक करना / 2 विलेपन करना। 3 अलंकार चढाना / 4 फूल चढाना। 5 वास खेप चढाना / 6 धूप करना। 7 दीपक धरना।। 8 फल चढाना / 9 अक्षत चढाना / 10 पत्र चढाना (नागर वेल के पान चढाना)। . 11 सुपारी बादाम चढाना। 12 नैवेद्य चढाना / 13 जलाभिषेक करना / 14 वस्त्र चढाना / 15 चामर वींजना। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 35 16 चांदी के छत्र बांधना। 17 बांजे बजवाना। 18 गीत गान करना। 19 नाटक करना / 20 स्तुति बोलना। 21 भंडार वृद्धि करना (चढावा बोल कर देवद्रव्य में वृद्धि करना)। . इस मुजब यथाशक्ति अष्टप्रकारी सतरा भेदी और इक्कीस प्रकारी पूजा कर श्रावक को भगवान् के आगे अपना भक्तिभाव प्रकट करना चाहिये। दर्शन और पूजन सबन्धी कुछ सूचनायें (1) जिनमंदिरमें दर्शन करने का टाइम सूर्य उदय होने के बाद समझना चाहिये अंधेरे में दर्शन करना नहीं कल्प सकता, कई जगह देखा जाता है कि पिछली रात करीब घडीभर रहती है तब जैन श्राविका दर्शन करने को चली जाती हैं, राजपूताना के कई बडे बडे शहरों में तो पर्दा वाली श्राविकायें हमेशा पिछली रात में ही दर्शन करने को जाती हैं, इस के सिवाय किसी जगह ऐसा भी देखा गया है कि पजूसण या नवपद ओली के पर्व दिनो में पिछली एक पहर जितनी रात रहती है उस वक्त दर्शनकी उतावल करने लग जाती हैं, मगर तत्त्वदृष्टि से देखा जाय तो यह प्रवृत्ति बगैर उपयोग की है, जय Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 2 जिनपूजाविधि। . . णा धर्म मानने वाले जैन गृहस्थों को ऐसी प्रवृत्ति बंद करने में ही लाभ है। (2) मंदिर में भगवान् का प्रक्षालन (पखाल) सूर्य उदय होने के बाद करना चाहिये जहां तक अंधेरा हो नहीं हो सकता, कारण कि अंधेरे में जीवजंतु का उपयोग नहीं रहता / प्रक्षालन के लिये जल अबोट सींच कर लाना चाहिये वह भी अंधेरे में नहीं बल्के प्रकाश होने पर लाना ठीक है / साथ में यह भी ध्यान रहना चाहिये कि जल का कलश लाने वाला पूजारी जहां तक बन सके खुद स्नान कर शुद्ध कपडे पहन कर जलका कलश लावे / (3) भगवान् के प्रक्षालन अंगलुणे करना तथा केशर पूजा करना इत्यादि सब अंगपूजा का कार्य स्वयं श्रावक ही करे, रावल सेवक आदि पूजारी के पास कराना ठीक नहीं, कारण वे नोकर हैं, उन में भक्तिभाव नहीं होता, पूजारी का काम तो जल का कलश लाना,केशर घोंटना, झाडू निकालना, मंदिर के बरतन साफ सूफ करना इत्यादि है, मगर आज कल श्रावको में प्रमाद बहुत बढ जाने से प्रक्षालन अंगलूगा आदि सब कारोबार पूजारी को सुपुर्द कर देते हैं, जिस से पूजारी जी चाहे जैसा कार्य करे, श्रावक लोग तो जब पूजारी प्रक्षालन विगैरा कुल कार्य कर चुके तब सिर्फ भगवान् के बिंदका लगाने को आ जाते हैं,मगर यह प्रवृत्ति अनुचित है,पूजाभक्ति करना श्रावक का ही फर्ज है, हां अगर कोइ श्रावक ही पूजारी के Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह अधिकार पर रखा हुआ हो तो बात ओर है, कारण कि वह जैन श्रावक होने से विवेक और भक्तिपूर्वक ही कार्य करेगा। ___यहां कोई सवाल करेगा कि श्रावक पगारदार पूजारी कैसे हो सके ?, इसका उत्तर यह है कि कोई श्रावक गरीब हालत में हो तो वह साधारण खाते से मासिक पगार ले कर पूजारी बन सकता है / साधारण खाते से पगार लेने पर देवद्रव्य का दोष नहीं लगता। मंदिर में चावल सुपारी फल नैवेद्य विगैरह जो पूजापा आवे वह देवका निर्माल्य होने से श्रावक पूजारी को न देकर मंदिर में झाडू निकालने वाला या कोई नोकर हो उसको दे दिया जावे और सिर्फ साधारण खाते से पगार देकर पूजारी रखा जाय तो श्रावक को कोई दोष नहीं। . (4) मंदिर में खुले दीवों की रोशनी न होनी चाहिये / कई जगह देखा है कि जिस दिन मंदिर में अंगी बनाई जाती है उस दिन शामको (संध्या समय में) खूब रोशनी करते हैं वहां खुले गिलासो में तैल भर कर बत्ती लगा देते हैं जिससे पतंगिया विगैरह अनेक जीवों का विनाश होता है। बताइये ऐसी रोशनी किस काम की / अगर रोशनी की इच्छा हो तो काच के बंद फाणस लगावे जिससे जीवों की हिंसा रुक जावे / दीवा रोशनी में पूरा विवेक रखना चाहिये। .. (5) अन्त में कहना यह है कि श्रावक लोग अगर बुद्धिमान हैं और उन में विचारशक्ति हैं तो अपने यहां प्रतिमाओं ' का संग्रह न करके जहां खास जरूरत हो वहां भेजे दें, और Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 383 श्रावक-द्वादश व्रत ले जाने वाले अपनी खुशी से जो नकरा दें. उसी से संतोष करें, क्यों कि मंदिर में ज्यों थोडी प्रतिमा रहेंगी त्यों उनकी पूजा भक्ति विशेष होगी और विशेष लाभ प्राप्त होगा। 3 श्रावक-द्वादशव्रत / सम्यक्त्व अथवा समकित स्वरूप निश्चय दृष्टि से वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धा होना उसका नाम 'सम्यक्त्व' है और व्यवहार से 1 सुदेव 2 सुगुरु और 3 सुधर्म इन तीन तच्चों पर श्रद्धा करना सो सम्यक्त्व अथवा समकित कहलाता है / (1) सुदेव-जो अठारा दोष रहित, बारह गुण सहित चौतीस अतिशय युक्त और पेंतीस गुणयुक्तवाणी से देशना देने वाले, जिनका ज्ञान सर्वव्यापक हैं, जिनको पुनर्जन्म लेना नहीं है और जो नाम स्थापना द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों से पूजनीय हैं ऐसे प्रभावशाली अरिहंत देव 'सुदेव' हैं। (2) सुगुरु-पंच महाव्रतधारी, सतरा भेद से संयम को पालने वाले, नवगुप्तिगुप्त ब्रह्मचर्य पालक, पांच समिति और तीन गुप्ति रूप आठ प्रवचन माता के आराधक, बयालीस दोष रहित शुद्ध अहार लेने वाले, तीर्थंकर भगवान् के आगमानुसार शुद्ध प्ररूपणा करने वाले ऐसे निस्पृही त्यागी मुनि 'सुगुरु हैं। - (3) सुधर्म-तीर्थंकर भगवान् ने समवसरण में बैठ कर बार पर्षदा के सामने द्वादशांगी की परूपणा कर उसमें शुद्ध Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह स्थाद्वादमय नय निक्षेपों सहित साधुधर्म और श्रावक धर्म का जो स्वरूप बताया वही 'सुधर्म' है / सम्यक्त्वधारीको को इनतीन तत्वों का श्रद्धापूर्वक आदर और इनसे विपरीत कुदेव कुगुरु और कुधर्म का त्याग करना चाहिये / प्रतिक्षा "मैं देवगुरु साक्षिक मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यक्त्व स्वीकार करता हूं / आज से जीवित पर्यन्त जिनदेव, महाव्रतधारी साधु और दयामय जैनधर्म पर ही श्रद्धाविश्वास रक्तूंगा" सम्यक्त्वधारी को निम्न लिखित सम्यक्त्व संबंधी पांच अतिचार, छः अपवाद और चार आगार ध्यान में रखना चाहियेअतिचार- .. . (1) शंका-तीर्थकर भगवान् के वचनों में संशय करना उसका नाम 'शंकातिचार' / ___ (2) कांक्षा-अन्य धर्म वालों में कुछ चमत्कार अथवा आडंबर देख कर उस तर्फ झुकने की इच्छा करना / (3) विचिकित्सा-यह धर्म क्रिया करता हूं परन्तु इसका फल मिलेगा या नहीं इस तरह शंकाशील होना / ___(4) मिथ्यात्विप्रशंसा–अज्ञान कष्ट करने वाले तापस - संन्यासियों की प्रशंसा करना उनके तप की महिमा करना / Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 3 श्रावक-द्वादश व्रत - (5) कुलिंगिसंस्तव-मिथ्यामतावलंबी साधु अथवा गुणहीन वेशधारी का परिचय करना / अपवाद (1) रायाभियोगेणं-राजा के हुकम से कभी समकितधारी को अपने नियमविरुद्ध कार्य करना पडे तो उसमें समकित का भंग नहीं होता। (2) गणाभियोगेणं-न्याति जाति के समुदाय के कहने से कोई कार्य करना पडे तो उस में समकित का भंग नहीं होता। (3) बलाभियोगेणं-बलवान् चोर म्लेच्छादिक के पंजे में फंसा हुआ नियमविरुद्ध कार्य करे तो सम्यक्त्व भंग नहीं होता। (4) देवाभियोगेणं-भूत प्रेतादिक की परवशता से वजित कार्य करे तो भंग नहीं होता। (5) गुरुनिग्गहेणं-माता पिता अथवा गुरु के कहने से वर्जित कार्य करना पड़े तो भंग नहीं होता। (6) वित्तिकंतारेणं-आजीविका के लिये कोई वर्जित काम धंधा करना पड़े तो भंग नहीं होता। आगार___ (1) अन्नत्थणामोगेगं-उपयोग विना कोई वर्जित कार्य हो जाय तो भंग नहीं। (2) सहसागारेणं-अकस्मात् यकायक वर्जित कार्य हो जाय तो भंग नहीं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह (3) महत्तंरागारेणं-घर के बडेरे पुरुष के कहने से मिथ्यात्व प्रवृत्ति करनी पडे तो भंग नहीं / (4) सव्यसमाहिवत्तियागारेणं-शरीर में सन्निपात अदि भयंकर रोग के आक्रमणसमय में कोई विरुद्ध आचरण हो जाय तो भंग नहीं होता। नियम१ प्रति दिनवार देवदर्शन करूंगा। 2 , नौकारसी या मास में करूंगा। 3 , नौकारमंत्र की माला-गिनूंगा। 4 महीने में-वार या-तिथि पूजा करूंगा। 5 प्रति वर्ष छोटी बडी तीर्थयात्रा करूंगा। 6 , सप्तक्षेत्र में खर्च करूंगा। 7 , साधारण में खर्च करूंगा। 8 , ज्ञान खाते में खर्च करूंगा। 9 , साधर्मिक की भक्ति - वार करूंगा। ___ ऊपर के नियम जीवन पर्यन्त पालूंगा। आगाढ कारण विशेष की जयणा है। मन शरीर अथवा आत्मा की परवश दशा में भी जयणा है। सम्यक्त्व सब व्रत और नियमों का मूल और आधार कहा गया है इस वास्ते पहले धर्मश्रद्धारूप सम्यक्त्व दृढ करना चाहिये फिर गृहस्थ योग्य दूसरे व्रत नियमों को अंगी कार करें। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 , 3 श्रावक-द्वादश व्रत जैन श्रावक के लेने योग्य अनेक नियम अभिग्रहों में स्थूल प्राणातिपातविरमण आदि बारह व्रत मुख्य हैं जिनका संक्षिप्त स्वरूप नीचे दिया जाता है / स्थूलप्राणातिपातविरमण / स्थूल यानी बेइंद्रिय आदि बड़े जीवों के प्राणों के अतिपात (विनाश ) से विरमण-रुकना उसका नाम 'स्थूल प्राणातिषात विरमण' है / अर्थात् जीव हिंसा न करने की प्रतिज्ञा। जीवहिंसा के विषय में द्रव्य और भाव आदि से चतुर्भगी बनती है जैसे(१) द्रव्य और भाव से हिंसा। (2) द्रव्य से हिंसा भाव से नहीं। (3) भाव से हिंसा द्रव्य से नहीं। (4) द्रव्य से नहीं और भाव से भी नहीं। . (1) पहेले भंग की द्रव्य और भावसे हिंसा, जैसे कोई शिकारी 'मैं मारूं ऐसा शोचता हुआ मारने के इरादे से तीर फेंक कर जंगल में हिरण आदि का शिकार करता है, यहां पर द्रव्य जीव मारा जाता है और भाव मारने का इरादा होता है। ___ (2) भंग में द्रव्य से हिंसा है लेकिन भाव से नहीं, जैसे ध्यान पूर्वक चलते हुए मुनि के पैर नीचे कोई कीडी मर गई, यहां पर द्रव्य-कीडी की हिंसा हुई, मगर भाव से नही, क्यों कि भाव मारने का नहीं था। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह - (3) भंग में भाव से हिंसा है, द्रव्य से नहीं, जीव मारने का उपाय किया मगर वह मरा नहीं, जैसे अंगारमर्दकाचार्य ने रात को जीव जान कर कोलसे पांवसे दबाये, यहां पर मारने का भाव था मगर द्रव्य से जीव नहीं मरा / (4) भंग में न द्रव्य से हिंसा है, न भाव से। जैसे मन वचन और काय इन तीन योगों को स्थिर कर काउस्सग्ग ध्यान में खडे मुनि में न द्रव्य से हिंसा है, न भावसे / बीस विश्वा और सवा विश्वा दया त्रस-चलते फिरते जीव और स्थावर-पृथिवी-जल-अग्निवायु और वनस्पति, ये पांच प्रकार के स्थिर जीव / इन त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग करने से वीस विश्वा दया होती है, ऐसी दया मुनि मार्ग में पाली जा सकती है। श्रावक सिर्फ सवा विश्वा ही दया पाल सकता है। यह हकीकत नीचे के विवेचन.से समझ में आयगी। "जीवा सुहुमा थूला, संकप्पारंभओ भवे दुविहा। सावराहनिरवराहा, साविक्खा चेव निरविक्खा // 1 // " ____ अर्थात्-जीव के दो भेद हैं-सूक्ष्म और स्थावर, अर्थात् स्थावर और त्रस इन दो भेदों में तमाम जीव आ जाते हैं,उन सत्र की रक्षा करना उस का नाम वीस विश्वा दया है। इस प्रकार की दया त्यागी मुनि रख सकते हैं, इस लिये मुनि की दया वीस विश्वा मानी जाती है। श्रावक थावर जीवों की Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ___3 श्रावक-द्वादश व्रत हिंसा का त्याग नहीं कर सकता, कारण कि सचित्त अनाज जल अग्नि आदि काम में लाता है इस वास्ते वीस विश्वा में से थावर संबन्धी दश विश्वा कम किये तब त्रस संबन्धी दश विश्वा शेष रहे। __ हिंसा दो तरह से होती है, संकल्प (इरादे) से और आरंभ से / गृहस्थ इरादे से त्रसहिंसा नहीं करेगा मगर आरंभ में अर्थात् घर बार संबन्धी कामों के करने में वह होही जायगी, इस कारण दश में से भी आरंभ के पांच विश्वा निकाल देने से शेष पांच विश्वा रहे। गृहस्थ संकल्प से भी निरपराध त्रसजीव की हिंसा टाल सकता है, अपराधी की नहीं, इस लिये सापराध के 2 // ढाई विश्वा कम करने पर शेष 2 // विश्वा रहे / निरपराध त्रस जीवों की संकल्प हिंसा भी अपेक्षा विशेष से हो जाती है इस वास्ते सापेक्षता का 11 सवा विश्वा कम करने पर शेष / विश्वा दया रहती है, बस इतनी ही दया वतधारी श्रावक से पल सकती है। उपयोग रखना चाहिये श्रावकों को अपने घर कामों में बहुत उपयोग रखना चाहिये जिस से कि निरर्थक किसी भी जीव की हिंसा न हो। उपले (छाणे) इंधन विगैरह जलाने को लेवे उन-को देख भाल कर लेवे ता कि उन में फिजूल जीव हिंसा न हो। घी, तैल, गुड, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह नमक, आटा विगैरह के बरतन खुले मुंह न रक्खें। चूले, पनेहरे पर, खाने तथा सोने की जगह पर, और घरटी तथा ऊखल पर कपडा कंतान या चंद्रोआ बांधना चाहिये जिस से किसी जीव का विनाश न हो। जीव जंतु की उत्पत्ति न हो वैसी हिफाजत से अनाज रक्खें / जल छानने के लिये उमदा खद्दर का गलना रक्खें और उस से जल छान कर जीवानी जैसा जल हो वैसे स्थान में डाले। अर्थात् मीठे जल का जीवानी मीठे जलाशय में और खारे का खारे में डाले, अन्यथा एक दूसरे में रद्दोबदल करने से उन जीवों का विनाश हो जाता है। सोने के मांचे पलंग या पाट में खटमल पैदा न होने देना चाहिये और किसी हालत में पैदा हो गये हों तो उन को धूप में न रखना चाहिये, क्यों कि ऐसा करने से जीव मर जाते है। भोजन या जल जूठा नहीं रखना चाहिये, क्यों कि उन में संमृच्छिम जीवों की उत्पत्ति और हिंसा होती है / मुख से लगा हुआ लोटा गिलास आदि मटकी में न डाले, क्यों कि ऐसा करने से मटकी का जल भी जूठा हो जाने के कारण वहां जीव उत्पन्न होते हैं। सूखे साक भाजी को देख भाल कर काम में लाना चाहिये। मीठाई पक्वान्न विगैरह सीआले (ठंडी) में एक महीना उन्हाले (गर्मी) में वीस दिन और चोमासे (वर्षाकाल) में 15 पंद्रह दिन के उपरांत न खाने चाहिये, क्यों कि उक्त काल Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 . 3 श्रावक-द्वादश व्रतः के उपरांत उन में जीव उत्पन्न हो जाने का अधिक संभव है। कहां तक लिखें, चूला जलाने में मवेशी को घास चारा डालने में दलने में खांडने में चीज वस्तु लेने रखने आदि हर एक काम में पूरा खयाल रख कर कार्य करे, ताकि जीवदया का निरंतर पालन होता रहे। प्रतिज्ञा "मैं देवगुरु साक्षिक स्थूल-हिंसा का त्याग करता हूँ। जीवन पर्यन्त निरपराध त्रस (स्थूल) जीवों की संकल्प हिंसा (सविचारहिंसा) न स्वयं करूंगा न दूसरे से कराऊंगा।" . अतिचार 1 वध-क्रोध या अभिमान के वंश हो कर मनुष्य अथवा गाय, भेंस, बैल, घोडा, ऊंट आदि पशु पक्षियों को निर्दयपनेसे मारे प्रहार करे इसका नाम 'वध' अतिचार है। ___(2) बन्ध–घोडा बैल गाय भेंस आदिको सख्त बंधन से बांधे अथवा गुन्हेगार मनुष्य को भी बुरी हालत से मजबूत बांधे जिस से उन का नाकों दम आ जावे इस को 'बन्ध अतिचार' कहते हैं। ___ (3) छविच्छेद-बैल ऊंट आदि का कान आदि शरीर के अवयव का छेद करना कराना सो 'छविच्छेद' नामा अतिचार है। (4) अतिभारारोपण-बैल ऊंट आदि के ऊपर उनकी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह शक्ति के अनुसार जितना भार बोझा लादना चाहिये उस से ज्यादह लादना उसका नाम 'अतिभारारोपण' अतिचार है। ___ (5) भक्तपान व्यवच्छेद-गाय भैस बैल ऊंट आदिको खुराक देना बंध कर दे अथवा खुराक में से कुछ निकाल ले या खाने का समय व्यतीत कर खिलावे तो अतिचार होता है, अपने नोकर दास दासी की रोजी में खलल पहुंचावे या बगैर कारण पगार में कमी करे तो भी दोष है। किसी पर कामण टूमण मारण मोहन उच्चाटण मूठ चलाना विगैरह भी इसी व्रत के अतिचारों में गिना जाता है। स्थूलमृषावादविरमण / स्वरूप___'स्थूल' का अर्थ है बडा, 'मुषावाद' का अर्थ है झूठ बोलना और 'विरमण' का अर्थ है रुकना, इस कारण 'स्थूलमृषावाद विरमण' का शब्दार्थ 'बडे झूठ बोलने से रुकना' यह होगा, गृहस्थसे छोटे झूठ वचन का तो त्याग नहीं हो सकता मगर बडे झूठ वचन का त्याग अवश्य करना चाहिये / - मृषावाद दो प्रकार का है-१ द्रव्य मृषावाद और 2 भाव मृषावाद / लेन देन में जो झूठ वचन बोला जाता है वह 'द्रव्य मृषावाद' है और शास्त्र विरुद्ध भाषण करना-उत्सूत्र वचन बोलना यह 'भाव मृषावाद'। द्रव्य मृषावाद में 1 कन्यालीक, 2 गवालीक, 3 भूम्य Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 3 श्रावक-द्वादश व्रत लिक, 4 स्थापनामृषा और 5 कूटसाक्षी, इन पांच बडे असत्यों का त्याग अवश्य करना चाहिये। .. __इन असत्योंका विवरण नीचे मुजब है। (1) कन्यालीक-कन्या संबंधी झूठ, कन्या के विषय में किसी के पूछने पर अथवा वगैर पूछे गुणवती को निर्गुणा बतावे और निर्गुणा को गुणवती अथवा उसकी उमर कमी बेशी बतावे, लक्षणों में विपरीत बात कहे उस का नाम 'कन्यालीक' है। ___ जहां तक हो सके कन्या के लेन देन की झंझट में व्रत- . धारी श्रावक को पड़ना ही ठीक नहीं, पर वैसी मध्यस्थ वृत्ति न रह सके और कन्या संबंधी व्यवहार में पड़ना ही पड़े तो जो सही हकीकत हो वही कहे, किसी तरह झूठ न बोले / कन्यालीक की ही तरह अन्य किसी भी मनुष्य संबन्धी असत्य नहीं बोलना चाहिये। (2) गवालीक-गाय भैस बैल हाथी घोडा विगैरह की उमर के बारे में उन के गुण दोष बताने में उन की कीमत करने में जैसा हो वैसा कहे कभी झूठ न बोले। ___(3) भूम्यलीक-जमीन संबंधी झूठ दूसरे की जमीन को अपनी कहना, थोडी जमीन हो और ज्यादह बताना, घर दुकान बंगला हवेली वाडी बाग विगैरह के बारें में झूठ बोलना, दूसरे के कबजे का मकान जूठी मवाही खडी कर राज के हुकम से अपने कबजे कर लेना इत्यादि असत्य का Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह नाम भूम्यलीक है / श्रावक को चाहिये कि ऐसे झूठ से दूर रहे। ___(4) स्थापना मृषा-विश्वास पात्र जान कर अपने घर विना साक्षी विना लिखत-दस्तावेज के रखी हुई अमानत को दवा लेने की नीयत से 'मेरे पास नहीं है, मैं इस विषय में कुछ भी नही जानता' इस प्रकार अपने यहां रखी हुई चीज के विषय में नाकबूल होना इसको 'थापणमोसा'-स्थापना मृषा कहते हैं। (5) कूट साक्ष्य-झूठी शहादत / दो आदमी आपस में झगडते हों उस वक्त पक्षपात से या लोभ के वश हो कर झूठी गवाही देना 'कूट साक्ष्य' कहलाता है। व्रतधारी को झूठी गवाही कभी नहीं देना चाहिये। प्रतिज्ञा-" मैं देवगुरु-साक्षिक स्थूल असत्य भाषणका त्याग करता हूं। आजीवन कन्यालीकादि पांच प्रकार का असत्य न स्वयं बोलूंगा न दूसरे से बोलाऊंगा।" ___ अतिचार-१ सहसाभ्याख्यान-विना विचारे किसी पर झूठा इलजाम लगाना, जैसे-'तू चौर है, तू लोफर है' इत्यादि / व्रतधारी ऐमा किसी पर दोष न लगावे, अगर किसी में अवगुण हो तो भी उस की निंदा करना तक मना है तो झूठा इलजाम लगाना तो बड़ा ही अपराध है। - (2) रहस्याभ्याख्यान-खानगी बात करनेवालों पर झूठा इलजाम लगा कर कहना 'तुम अमुक बात करते हो' Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___3 श्रावक-द्वादश व्रत इस का नाम 'रहस्याभ्याख्यान' है। .. (3) स्वदारमंत्रभेद-अपनी स्त्री की गुप्त वात किसी के आगे जाहिर करना, खानगी मर्म प्रकट करना इसका नाम 'स्वदार-मंत्र-भेद' अतिचार है। . (4) मृषा उपदेश-किसी को दुःख में डालने के लिये झूठी राय देवे, झूठी दलीलें सिखावे, टंटे फिसाद उत्पन्न करने वाली तरकीबें बतावे इस को मृषाउपदेशनामक अतिचार कहते हैं। (5) कूट लेख-किसी के नाम पर झूठा खतपत्र लिखना असल आंक को तोड कर दूसरा जाली अंक लिखना या अक्षर रद्दोबदल करना झूठी मुहर छाप लगाना ये सब काम 'कूटलेख' अतिचार में शामिल हैं। स्थूलअदत्तादानविरमण. स्वरूप जिस चोरी से राजदरबार में सजा मिले या दुनिया में बदनामी हो ऐसी बडी चोरी नहीं करनी चाहिये। अदत्तादान के दो भेद हैं 1 द्रव्य अदत्तादान 2 भाव अदत्तादान। किसी का घर फाडना जबरन किसी के पास से चीज छीन लेना किसी की रखी हुई चीज के देने में इनकार करना तथा हीरा मोती पन्ना विगैरह में झूठे सच्चेका अदल बदल करना यह तमाम द्रव्य अदत्तादान है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 2 भाव अदत्तादान-वर्ण गंध रस स्पर्श आदि तेईस विषय तथा आठ कर्म की वर्गणा यह आत्मा से पर वस्तु हैं इन को ग्रहण करना यह भाव अदत्तादान / / __ प्रकारान्तरसे अदत्तादान के 4 भेद ह-१ स्वामि अदत्त 2 जीव अदत्त 3 तीर्थकर अदत्त 4 गुरु अदत्त / ___ (1) किसी भी चीज को उस के मालिक की आज्ञा सिवाय लेना उस को 'स्वामि अदत्त' कहते हैं। ___ (2) अपने दास या दासी अथवा अन्य किसी भी जीव को उस की इच्छा बगैर दूसरे के सुपुर्द करना लेना 'जीव अदत्त' कहा जाता है, क्यों कि उस में उस के जीव की आज्ञा नहीं होती। ... (3) जिस चीज के लिये तीर्थकर भगवान्ने निषेध किया हो वह नही लेना चाहिये, लेवे तो तीर्थंकर अदत्तचोरी कही जाती है। जैसे मुनि के वास्ते भगवान् ने अशुद्ध आहार लेने का निषेध किया है तथा श्रावक के लिये अभक्ष्य वस्तुका निषेध किया है अगर मुनि और श्रावक इन निषिद्ध चीजों को ग्रहण करें तो 'तीर्थकर अदत्त' लगता है। (4) गुरु की आज्ञा सिवाय जो चीज ग्रहण करे उस को 'गुरु अदत्त' कहते हैं। इस के सिवाय किसी की कुछ भी चीज रास्ते में गिरी हुई मिले तो उस के मालिक का पता लगा कर उस के हवाले कर दे, यदि मालिक का पता न लगे तो उस को धर्मादे कर Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 श्रावक-द्वादश व्रत. दे, अगर वह चीज ज्यादह कीमती हो और सब धर्म मार्ग में खर्च करने को जी न चले तो जितना जी चले उतना तो अवश्य खर्च करे। ___अपनी जमीन में से धन निकला हो तो वह स्वयं रख सकता है, उस में चोरी नहीं लगती। - किसी दूसरे का मकान किराये लिया हो और उस में से कभी खोद काम करते धन निकले तो उस का हकदार मकान का मालिक होता है उस को वह धन दे देना चाहिये, अगर ऐसा करने में अपना दिल अनाकानी करता हो तो धन में से आधा हिस्सा खुद रक्खे और आधा धर्म मार्ग में खर्च करे। ___अपने पास किसी की रकम हो और उसका मालिक गुजर गया हो और उस का कोई वारस भी न हो तो वह रकम खुद न रख कर गांव के पंचों के सुपुर्द करे अथवा पंच कहे वहां खर्च कर दे। अपने घर की मिलकत के मालिक जब तक माता पिता या और कोई बडेरा हो तब तक व्रतधारी उन की आज्ञा ले कर चीज उठावे, हां, अगर माता पिता अपना पुत्र जान कर कोई एतराज न करें तो वह उनकी आज्ञा के सिवाय भी चीज उठा सकता है। प्रतिज्ञा "मैं देवगुरु साक्षिक स्थूल अदत्तादान का त्याग करता Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह हूँ। आजीवन. न स्वयं बड़ी चोरी करूंगा, न अन्य से कराऊंगा।" अतिचार-- (1) स्तेनाहृत-चोरी का माल खरीदना यह स्तेनाहत अतिचार है। चोरी का माल लेने वाला भी एक तरह का चोर ही है। हेमचंद्राचार्य ने योगशास्त्र में सात प्रकार के चोर बताये हैं देखो "चौरश्चौरापको मंत्री, भेदज्ञः काणकक्रयी। अन्नदः स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः // 1 // " तात्पर्य-चोरी करने वाला 1, चोरी कराने वाला 2, चोरी की राय देने वाला 3, चोरी का भेद जाननेवाला 4, चोरी का माल खरीदने वाला 5, चोर के खान पान की व्यवस्था करने वाला 6, तथा चोर को रहने की जगह देनेवाला 7, ये सात प्रकार के चोर होते हैं। : (2) स्तेनप्रयोग-चोरी करने वाले को चोरी की प्रेरणा करना 'तुम आजकल चुपचाप क्यों बैठे हो ?, तुम्हारे पास खर्चा न हो तो मैं दूं, तुम्हारी लाई हुई चीज मैं वेच डालूंगा' इस तरह प्रेरणा करना इसका नाम 'स्तेनप्रयोग' अतिचार है / ____ (3) तत्प्रतिरूपक व्यवहार-अच्छी चीज में खराब चीज मिला कर बेचे, जैसे दूध में जल, केशर में कसुंबा, घी में वेजिटेबल घी मिला कर वेचे / पुराने कपड़े को रंग कर नये कपडे के भाव में बेचे / यह तीसरा अतिचार है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 3 श्रावक-द्वादश व्रत ... (4) विरुद्ध गमन-अपने देश के राजाने जहां जाने को मना किया हो वहां जावे तो चोथा 'विरुद्ध गमन' नाम का अतिचार। __(5) कूटतुला कूटमान-खोटे तोल माप रक्खे, कमती तोल से देवे और अधिक तोल से लेवे यह पांचवाँ अतिचार। स्वदारसंतोष-परस्त्रीविरमण स्वरूप इस व्रत के दो भाग हैं-' स्वस्त्रीसंतोष' और 'परस्त्री विरमण / ' अपनी स्त्री से संतोष कर दूसरी स्त्री का त्याग करना इसका नाम है ' स्वदार संतोष' और दूसरे की स्त्री का त्याग करना उसका नाम 'परस्त्री विरमण' / ___मैथुन दो प्रकार का होता है, .1 द्रव्य मैथुन और 2 भाव मैथुन। द्रव्य मैथुन का अर्थ है स्त्री पुरुष का शारीरिक संबंध, और भाव मैथुन है शरीर से संबंध न होते हुए दिल में स्त्री विषयक ध्यान करना अर्थात् दिल में विषयों की चाहना करना। भाव मैथुन संसारी से कतई बंद होना कठिन है परंतु द्रव्य मैथुन में परस्त्री का त्याग कर अपनी स्त्री से संतुष्ट रहना गृहस्थ से हो सकता है। अपनी स्त्री से भी दिन को कभी संबंध न करना चाहिये, धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि वैद्यक दृष्टि से भी दिन में स्त्रीसंग का निषेध है, क्यों Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह कि वैसा करने से संतान कम जोर होती है और उस की उमर भी थोडी होती है। प्रतिज्ञा “मैं देवगुरु साक्षिक परस्त्री विषयक स्थूल मैथुन का त्याग करता हूँ। अपनी कायासे आजीवन परस्त्री गमन नहीं करूंगा।" अतिचार-- ___ (1) अपरिगृहीता गमन-जिस के स्वामी नहीं है ऐसी कुंवारी विधवा वैश्या आदि से 'यह दूसरे की स्त्री नहीं है। इस कल्पना से संबन्ध करे तो 'परस्त्री त्यागी' को अतिचार लगे और 'स्वस्त्री-संतोष-व्रतधारी' का व्रतभंग हो / ___ (2) इत्वरपरिगृहीता गमन-थोडे समय के लिये वेश्या आदि को अपनी कर रख ले और अपनी समझ उस से समागम करे तो 'स्वस्त्री संतोषबत' वाले को अतिचार लगे। ... (3) अनंगक्रीडा-काम वासना जगाने की चेष्टा को अनंगक्रीडा कहते हैं। चतुर्थव्रतधारी को जिनसे काम विकार हो ऐसे वचन नहीं बोलने चाहिये और कामोत्तेजक चेष्टा न करनी चाहिये, करे तो अतिचार लगे। (4) परविवाहकरण-अपने पुत्र पुत्री आदि के सिवाय बडाई के खातिर अथवा पुण्य मार्ग समझ कर दूसरों के विवाह शादी करावे तो अतिचार लगता है, जहां तक बन . सके व्रतधारी विवाह जैसे कार्यों में अगुआ न बने, कहीं Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश व्रत 3 श्रावक-द्वादश व्रत अपने बगैर न चले तो सांसारिक रूढि समझ कर वह कार्य करे, दिल में हर्ष या खुशी न मनावे / (5) तीव्र अनुराग-पुरुष का स्त्री पर और स्त्री का पुरुष पर हद से ज्यादह प्रेम 'तीव्रानुराग' कहलाता है। व्रतधारी को इस प्रकार के अमर्यादित विषय राग में लीन न होना चाहिये / क्यों कि इस प्रकार का विषयानुराग चोथे व्रत का पांचवाँ अतिचार है। व्रतधारी को विकारों को रोकना चाहिये / ऐसा न करने से इच्छा अत्यंत बढती जाती है और परिणाम स्वरूप अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार और अनाचार तक हो जाते हैं। अति स्त्री प्रसंग से धर्म हानि ही नहीं शरीर हानि भी होती है इस लिये उक्त अतिचार टाल कर श्रावक इस व्रत पर सावित कदम रहे। नियम कृष्णपक्षकी इन तिथिओं में ब्रह्मचर्य रक्तूंगा। शुक्लपक्षकी इन तिथिओं में ब्रह्मचर्य रक्खूगा / प्रतिमास दिन ब्रह्मचर्य पालूंगा। अथवा सर्वथा ब्रह्मचर्य पालूंगा। स्थूल परिग्रहपरिमाण स्वरूप अपनी हकदारी के माल मिलकतका परिमाण कर इच्छा को काबूमें लाना इसका नाम 'परिग्रहपरिमाण' है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह। यह जीव अनादि काल से परिग्रहमें आसक्त है / इसकी इच्छा. कभी पूरी नहीं होती, उत्तराध्ययन सूत्र में इच्छा को आकाश की उपमा दी है इसका भी यही कारण है कि जीव की 'इच्छा' का कहीं अंत ही नहीं आता। इस अमर्यादित इच्छा को मर्यादित करने के लिये इस को परिमित करना चाहिये। परिग्रह के दो भेद हैं-१ द्रव्यपरिग्रह और 2 भावपरिग्रह / धन धान्यादि नौ प्रकार के परिग्रह को 'द्रव्यपरिग्रह' कहते हैं और लोभ ममता मूर्छा को 'भावपरिग्रह' / द्रव्यपरिग्रह के 1 धन 2 धान्य 3 क्षेत्र 4 वास्तु 5 रुप्य 6 सुवर्ण 7 कुप्य 8 द्विपद और 9 चतुष्पद ये नव भेद हैं। (1) धन-दोआनी, पारली, धेली, रुपया, विगैरह रोकड और हुंडी, नोट विगेरह, अथवा गणिम-(नालियर विगैरह जो गिनती से बेचा जाय) धरिम-(गुड प्रमुख जो तोल कर बेचा जाय) परिच्छेद्य-(सोना चांदी रत्न जवाहरात आदि जो परीक्षा से बेचा जाय) मेय-(धी दूध आदि वस्तु जो माप कर बेची जाय) भेद से धन 4 प्रकार का है / इसका परिमाण करना इस को 'धन परिमाण' कहते हैं। - (2) धाग्य-१ चावल, 2 गेहूं, 3 जुआर, 4 बाजरी, 5 जव, 6 मुंग, 7 मोठ, 8 उडद, 9 डूंठ, 10 बोडा, 11 मटर, 12 तुअर, 13 किसारी, 14 कोद्रवा, 15 कंगणी, 16 चणा, 17 वाल, 18 मेथी, 19 कुलथ, 20 मसूर, 21 तिल, 22 मंडवा, 23 कूरी, 24 बरटी, 25 मक्की इन में से जिस Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 3 श्रावक-द्वादशव्रत धान की जितनी जरूरत हो उसका वर्षभर के लीये सेर या कलसी में परिमाण कर लेना / व्यापार के लिये अधिक रखना पडे उसकी जयणा रखना। (3) क्षेत्र-धान बोने के खेत तथा बाग बगीचे इनका परिमाण करना। (4) वास्तु-घर हवेली नोहरा तथा दूकान बिल्डींग विगैरह, इनका परिमाण करना / घर के दूसरी खिडकी खोलने तथा दूकान, तबेला, गोदाम, वखारी आदि किराये रखनेकी जयणा / किराये के मकानकी, अपने कुटुम्बी संबंधी और मित्र के मकानकी, मालिक के मकान की मरम्मत कराने अथवा कमठा करानेकी जयणा / (5) रुप्य-नाणे के रूप में 'चलते हुए सिक्कों को छोड कर चांदी, चांदी के गहने आदि, इनका तोल में परिमाण करना। (6) सुवर्ण-सिक्कों को छोड कर शेष सोना तथा भूषणगत सोना इस का परिमाण करना। (7) कुप्य-तांबा, पीतल, सीसा, लोह आदि धातु के बरतन आदिका नाम कुप्य है / इनकी संख्या कर अथवा मणों या सेरों में तोल कर कुल इतने या इतने मण धातु रखनेका नियम कर लेना / कारण वश दूसरों के वास्ते परिमाण के उपरान्त बरतन लाने पडे तो जयणा। . (8) द्विपद-द्विपद का अर्थ यहां मनुष्य है अपने आश्रित Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 59 दास दासी आदि रखने हों उन की गिनती कर नियम लेना। नोकर, चाकर, मजदूर आदि रखनेकी जयणा / __(9) चतुष्पद-गाय भैस घोडा ऊंट बैल आदि जानवर चतुष्पद कहलाते हैं, इन की आवश्यकतानुसार गिनती कर नियम लेना / कभी कारण वश किसी अन्य की मवेशी थोडे समय के लिये रखनी पडे अथवा आसीवाले घाली हुई मवेशी कभी आ जाय तो बेचे वहां तक रखनेकी जयणा / प्रतिज्ञा "मैं देवगुरु साक्षिक अपरिमित परिग्रह का त्याग करता हूं और जीवन पर्यन्त के लिये धन धान्यादि वस्तु विषयक इच्छाका परिमाण करता हूँ।" अतिचार (1) धन-धान्यपरिमाणातिक्रम-परिमाण से अधिक धनके बढ जाने पर लोभ के वश कुछ रकम पुत्र स्त्री आदि के नाम पर चढा दे तथा अनाज अपने नियम मुजब घर में रख कर चाकी दूसरे के घर पर रख छोडे और जब चाहे तब ले आवे, इस के सिवाय व्रत लेने के समय में कच्चे मण के हिसाब से अनाज रक्खा हो और परदेश जाने पर वहां पक्के मण का तोल जान कर पक्के मण के हिसाब से रक्खे, इत्यादि करतब करने वाले को पहला अतिचार लगता है। ___(2) क्षेत्र-वास्तुपरिमाणातिक्रम-घर, दूकान आदि के . परिमाण से अधिक हो जाने पर विचली दिवार तोड कर दो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 श्रावक-द्वादश व्रत का एक घर बना देवे, हद तोड कर दो तीन खेतों का एक खेत कर लेवे और दिलमें ख्याल करे 'नियम के उपरान्त मैं ने कुछ नहीं रक्खा, ऐसी करतूत करने वालों को दूसरा अतिचार लगता है। - (3) रूप्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम-अपने लिये या अपनी स्त्री आदि के लिये सोना चांदी के जेवर भारी तोल के बनवा कर संख्या कायम रख कर सोना चांदी अधिक प्रमाण में रखे तो तीसरा अतिचार लगता है। . . (4) कुप्यपरिमाणातिक्रम-तांबा पीतल आदि के बासणों बरतनों की संख्या करने के बाद संपत्ति बढ जाने पर वे वासण वजन में भारी तोल के बनवावे / मन में सोचे 'मैंने वासणों की जो गिनती की है वह टूटती तो नहीं है, फिर वजन में अधिक होने में क्या हर्ज है' इसी तरह पहले कच्चे 'तोल के परिमाण में रख कर फिर पक्के तोल के परिमाण से रख लेवे तो चोथा अतिचार लगता है। .. (5) द्विपद-चतुष्पदअतिक्रम-दास दासी गाय भैस परिमाण से अधिक हो जावें तब बेच कर फिर गर्भ धारण करावे, तथा अपने भाई बहनों के नाम के कर रख देवे तो पांचवा अतिचार लगता है। नियम१ रोकड धन रु. लाख या . हजार 2 कुल धान्य कलसी ... अथवा... मण Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताला - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 3 खेतीबारीकी जमीन एकड या रीघा 4 कुल मकानात 5 चांदी मण या सेर या तोला 6 सोना सेर अथवा 7 धातु के वर्तन नंग अथवा मण के 8 दास-दासियां कुल 9 चतुपष्द-जानवर कुल 10 सर्व परिग्रह मिल कर रु. लाख या हजार __ परिग्रह परिमाण व्रत धारियों को चाहिये कि अपने व्रत धन, धान्यादिका जो परिमाण किया हो उसके ऊपर परिग्रह बढ जाय तो उस को धर्म मार्ग में खर्च कर डागें। . व्यापार के निमित्त तेजी मंदी के समय में सोना, चांदी, धातु, धान्य आदि बेच खरीद कर परिग्रह की जातियोंमें कमी बेशी करना पडे उस की जयणा रखना चाहिये परन्तु कुल परिग्रह का अंक नियम के उपर जाते ही उसे धर्म मार्ग में खर्च कर देना चाहिये। ____ इस प्रकार पांच अणुव्रतोंका दिग्दर्शन कराया, अणुव्रतों के आगे तीन गुणव्रत आते हैं जिन के नाम नीचे मुजब है__.१ दिक्परिमाण गुणव्रत 2 भोगोपभोगपरिमाण गुणव्रत और 3 अनर्थदंडविरमण गुणवत। इन का गुणवत नाम पडने का कारण यह है कि इन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 , 3 श्रावक-द्वादश व्रत व्रतों के पालन से पूर्वोक्त पांच अणुव्रतों की पुष्टि अर्थात् उत्तरोत्तर गुणवृद्धि होती है जैसे दिशिपरिमाण व्रत धारण करने से परिमाण के ऊपर की तमाम दिशाओं के जीवों को अभयदान मिलता है और प्राणातिपातविरमण व्रत की पुष्टि होती है। बाहर के तमाम जीवों के साथ झूठ बोलना बंद होने से दूसरे व्रत की पुष्टि होती है। बाहर के क्षेत्र में रही हुई वस्तु की चोरी का त्याग होने से तीसरे व्रत की पुष्टि होती है। बाहरी क्षेत्र की सर्वस्त्रियों से मैथुन चेष्टा का त्याग होने से चोथे व्रत की पुष्टि होती है और बाहरी सभी चीज वस्तुओं का क्रय विक्रय बंद होने से पांचवें व्रत की पुष्टि होती है। दिक्परिमाण व्रत. स्वरूप__ पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण ये चार दिशा और आग्नेयी (अग्नि कोण) नैर्ऋत कोग, वायव्य कोण और ईशान कोण ये चार विदिशा कहलाती हैं। ऊर्च ( ऊपर) और अधो दिशा ( निचली दिशा ) मिलाने से कुल 10 दिशाएं होती हैं। इन दश दिशाओं में जाने आने का नियम करना 'दिपरिमाण व्रत' है। दिशाओं में जाना आना तीन तरह से होता है जलमार्ग से स्थलमार्ग से और आकाश मार्ग से। .. जलमार्गसे नाब, आगबोट, स्टीमर आदिमें, स्थलमार्ग से Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 63 गाडी, एका, रेलगाडी, मोटर, साईकल आदि पर और आकाशं मार्ग से विमान, हवाई जहाज एरोप्लेन विगैरह पर बैठ कर दशों दिशाओं में जाने आनेका योजनों में, कोशों में, मीलों में, गजों में अगर कदमों में नियम करना चाहिये। चार विदिशाओं का ठीक पता न रहने के कारण आज कल पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अधो इन छः दिशाओं का ही नियम किया जाता है। ___ कूप, बावडी, टांका, भूमिगृह सुरंग आदिमें उतरना अथवा पहाडसे नीचे उतरना 'अधो दिशा गमन' है और नीचेवालों को पहाड पर चढना 'उर्ध्व दिशागमन' / व्रत लेनेवालों को अपनी स्थिति का विचार कर के इस विषय में नियम करना चाहिये / नियम किये हुए क्षेत्र के बाहर सांसारिक कार्य के लिये अथवा मौज शोक और हवा खोरी के निमित्त नहीं जाना चाहिये, तीर्थयात्रा के निमित्त जाने की जयणा / पवन के तूफान से नाव आगबोट विगैरह घसीट कर हद के आगे ले जाय, भूल से हद के आगे चला जाय, चौर विगैरह पकड कर दूर ले जाय तो व्रत भंग नहीं होता। नियत क्षेत्र के बाहर कागज-पत्र तार टेलीफोन भेजने मंगाने की जयणा। प्रतिज्ञा- . .. "मैं देवगुरु साक्षिक दिशा गमन को नियमित करता हूं। भिन्न भिन्न दिशाओं में जाने के लिये रक्खे हुए अव Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 श्रावक-द्वादश व्रत . काश के उपरान्त न मैं स्वयं जाऊंगा न दूसरे को भेजूंगा।" अतिचार (1) ऊर्ध्वदिशातिक्रम-प्रमाद से या भूलसे ऊर्ध्व दिशा में परिमाण से अधिक ऊपर चढे तो 'ऊर्ध्वदिगतिक्रम' नामातिचार। (2) अधोदिशातिक्रम-भूल प्रमाद से परिमाण से ज्यादा नीचे जाने से 'अधोदिगतिक्रम' नामातिचार / ___ (3) तिर्यदिशाअतिक्रम-पूर्व पश्चिमादि तिरछी दिशा विदिशा में परिमाण से अधिक भूल से खुद जावे या अपने नौकर को भेजे तो तीसरा अतिचार / ___(4) परस्पर परिमाण परावर्तन-एक दिशा में कम कोश रक्खें है और दूसरी में अधिक, कालान्तर में कम परिमाण वाली दिशा में अधिक दूर जाने के संयोग उपस्थित हो जाय तब जिस दिशामें अधिक दूर जानेकी छूट है उस को कम कर दे और कम परिमाण को अधिक बढा दे, और यह सौचे कि मैं अपने नियमित योजनों से अधिक आगे नहीं गया। इस प्रकार. दिशाविपरिणाम करने से चौथा अतिचार लगता है। (4) स्मृतिअंतर्धान अपने नियम को भूल जावे, न मालूम पूर्व दिशा में 100 कोश रक्खे हैं या 50 / इस तरह संशय में पड़ा हुआ 100 कोश का परिमाण होते हुए भी 50 कोश से अधिक चला जाय तो पांचवाँ अतिचार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह लगता है। . नियम१ पूर्व में योजन जाऊंगा। 2 दक्षिण में योजन जाऊंगा। 3 पश्चिम में योजन जाऊंगा। 4 उत्तर में योजन जाऊंगा। 5 ऊंचा योजन चढूंगा। 6 नीचा योजन उतरूंगा। छोटे बड़े पहाडों के ऊपर चढना, टीलो-टेकरों वृक्षों मकानों पर चढना भी ऊर्ध्व दिशा गमन में शुमार है। इसी प्रकार ऊपरवालों को नीचे उतरना अधोदिशागमन में / भोगोपभोगपरिमाण. स्वरूप इस व्रत में खाने पीने की वस्तु का परिमाण होता है, ' तथा जिन में ज्यादह हिंसा होती है ऐसे व्यापार धंधों का त्याग किया जाता है, बाईस अभक्ष्य और बत्तीस अनंतकाय का त्याग किया जाता है। चौदह नियम भी इसी के अंतर्गत है। आहार, फल, पुष्प, तैल अत्तर विगैरह जो एक वार काम में आवे उस को 'भोग' और घर मकान कपडे जेवर स्त्री विगैरह जो वार वार उपयोग में आवे उस को ' उपभोग' कहते हैं, दोनों तरह की वस्तुओंका नियम करना सो 'भोगो Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 3 श्रावक-द्वादश व्रत पभोगपरिमाण' व्रत कहलाता है। ___ इस व्रत के अनुसार श्रावक को निर्दोष आहार और निर्दोष व्यवहार करना चाहिये / कमसे कम वह 22 अभक्ष्य और 32 अनंतकाय का त्याग तो अवश्य करे। 22 अभक्ष्य. 1 वड का फल 2 पीपले का फल .. 3 पिलखण (पार्श्व पीपले) का फल 4 कठंबर का फल 5 उदुंबर (गूलर) का फल / ये पांच फल अभक्ष्य याने खाने, लायक नहीं हैं, कारण कि इन में बहुत से सूक्ष्म जीव होते हैं। 6 मदिरा (दारु) 7 मांस 8 मधु (शहद) 9 मक्खन ये चार ' महाविगई' कहलाते हैं। इन में उसी वर्ण के सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं, वे तद्वर्णवाले और अतिसूक्ष्म होने से देखने में नहीं आते, ये महाविगइयां चारों अभक्ष्य गिनी जाती हैं। 10 हिम (बरफ) यह असंख्यात अपंकाय जीवों का बना हुआ पिंड है, इस के खाने से जल के जीवों की हिंसा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह के अतिरिक्त चेतना शक्ति कमजोर होती है, तत्काल शरदी करता है बल को क्षीण करता है इस लिये यह भी अभक्ष्य है। 11 सर्व प्रकार का जहर (विष)-अफीम विगैरह जहरी पदार्थ प्राणघातक होने से अभक्ष्य हैं / अफीम सोमल भांग गांजा चरस तमाखू विगैरह जहरी पदार्थों का सेवन करने वालों की जो दशा होती है उसका वर्णन करने की जरूरत नहीं। इन के खाने पीने की जिन को आदत पड जाती है उन की परवशता का क्या वर्णन किया जाय ?, भोजन के बगैर वे रह सकते हैं लेकिन इन पदार्थों के बगैर नहीं, उन की शारीरिक और मानसिक प्रकृति भी पराधीन बन जाती है। अभ्यस्त व्यसन की प्राप्ति होने पर ही उन का शरीर और मन किसी भी काम के योग्य हो सकता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार के बुरे परिणामों से बचने के लिये उक्त सभी प्रकार के विषों का त्याग करना चाहिये / 12 करहा-करहे जो आकाश से जल के साथ बर्फ के टुकडे गिरते हैं जिनको 'ओला' कहते हैं वे भी अभक्ष्य हैं। 13 कच्ची मिट्टी सर्व प्रकार की कच्ची मिट्टी अभक्ष्य है। कच्ची मिट्टी सचित्त है इस के खाने से दो तरह के नुकसान होते हैं। एक तो यह कि मिट्टी के भक्षण से पेट में कई एक जंतु उत्पन्न होते हैं और पांडुरोग आमवात पित्त पथरी आदि अनेक दर्द भी खड़े होते हैं। दूसरा-व्यर्थ एकेंद्रिय Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 3 श्रावक-द्वादशव्रत जीवों की हिंसा होती है / इस लिये इस को अभक्ष्य समझना चाहिये। 14 रात्रिभोजन-रात में खाना भी अभक्ष्य में गिना गया है। दिन का भोजन सात्विक है और रात्रिभोजन तामसिक-राक्षसी है। इस लिये यह छोडने लायक है। खास कर व्रतधारी को तो रात्रिभोजन का अवश्य त्याग करना चाहिये। 15 बहुबीजफल-जिस में गूदा (गिर) कम और बीज बहुत हों जैसे वेंगण (बुंताक) पंपोटा खसखस बिगैरह, फलों में जो बीज होते हैं वे सब सजीव होते हैं इस वास्ते इन के भक्षण में अधिक जीवों की हिंसा होने से ये 'बहुबीज फल' अभक्ष्य हैं। 16. संधान (अथाणा- अचार ) यह अथागा याने अचार केरी का नींबु का करमदे का आदे का इत्यादि कई किसम का होता है, यह खटाई वाला होने से तीन दिन तक खाने योग्य होता है / जिसमें खटाई न हो वह एक दिन के बाद ही अभक्ष्य हो जाता है, कारण कि उसमें सूक्ष्म त्रस जीव उत्पन्न होने का संभव है। गुजरात में नींबु अमचूर या नींबु मिली मिर्ची के अथाणे को तीन दिन के बाद सूरज के धूप में अच्छी तरह सुखा देते हैं फिर उसको गर्म किये तैल में डाल देते हैं। तेल अचार के ऊपर ऊपर 3-4 उङ्गल तक रहता है / इस हालत में वह अथाणा अभक्ष्य नहीं होता / म Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह साला डाल कर बोंही महीनों और वर्षों तक रखा हुआ अचार (अथाणा) अभक्ष्य होने से त्याज्य है / 17 द्विदल (कठोल)-जिन धान्यों की दो दाल (फाड) होती है और उनमें तेल की चिकनाहट न हो उनको द्विदल कहते हैं। मुंग चणा चौला उडद वटाना वाल मटर मेथी दाना आदि सब द्विदल हैं। कच्चे दूध दहीं या छास के साथ मिलने से द्विदल अभक्ष्य बन जाता है। क्योंकि उसमें तत्काल जीवोत्पत्ति होजाती है / परंतु गर्म किये हुए दूध दही विगैरह में द्विदल मिलने से वह अभक्ष्य नहीं होता, इस वास्ते खान पान के समय द्विदल का पूरा ख्याल रहना चाहिये / सुंग चणे जैसे द्विदल का शाक खाते समय अगर हाथ शाक में डाला हुआ हो तो धोकर तथा मुंह में कुल्ला कर फिर कच्चा दही या छास खाने का उपयोग रक्खे / इसके सिवाय वेसण गटा पतोल आदि कोई भी द्विदल का शाक छास या दही मिलाकर करना हो तो पहले दही छास को गरम कर ले पीछे उस में द्विदल का चून दाल आदि डालकर शाक बनावे ताकि उसमें अभक्ष्य का दोष प्राप्त न हो / 18 घोलवडा-दहिका घोल कर उसमें डाले गये बड़े / घोल को गर्म कर उसमें डाले गये बडे अभक्ष्य नहीं होते। 19 तुच्छफल-टींबरु, केरडा के पीचू, पीलु, बोर आदि फल जिसमें खाना थोडा और छोडना बहुत ये सब तुच्छ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 3 श्रावक-द्वादश व्रत फल हैं और ये अभक्ष्य माने जाते हैं व्रतधारी इनका त्याग करे। 20 अनजाना फल-जिस फल का नाम स्वभाव मालूम न हो वह भी अभक्ष्य है। 21 चलित रस-जिस भक्ष्य पदार्थ का वर्ण गंध रस स्पर्श बदल गया हो, सडने की वजह से जिसमें से खराब बृ आती हो, जिसमें से तार निकलते हों वह सब 'चलित रस नामक अभक्ष्य है / रोटी, शाक, खिचडी, वडा, नरम पूरी, लापसी, सीरा, मालपुआ विगैरह चार पहर के बाद प्रायः चलित रस हो अभक्ष्य हो जाते हैं। दाल के बडों भजियों में जल का भाग मिला हुआ होने से वे भी दूसरे दिन बासी गिने जाते हैं। दही में बना हुआ चावल का करंबा तथा छास में बनी हुई मक्का बाजरा आदि की पहले दिन की पेंस दूसरे दिन काम में आ सकती है। कई लोग दूध में आटा बांधकर पुडियां बनाते हैं परंतु दूध में जल का भाग अधिक और खटाई का भाग बहुत कम होने से वे पुडियां वासी-चलित रस हो जाती हैं इस लिये रात निकलने के बाद अभक्ष्य हैं / जो जो चीज घी में या तैल में बनाई जाती हैं वे अमुक काल तक वासी नहीं होती। शीयाले की मोसम में मिठाई का उत्कृष्ट काल एक महीने का, उन्हाले में 20 दिन का और चोमासे में 15 दिन का है। बाद में अभक्ष्य हो जाती है। मीठाई का Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 71 यह आखिरी समय है, अगर इस मुद्दत के भीतर खराब हो जावे तो उसी समय अभक्ष्य समझ कर नहीं खाना चाहिये / समझ कर सब चीजो में भक्ष्य अभक्ष्यपन का खयाल रखकर काम में ले / दहीं तथा छास 16 पहर के बाद अभक्ष्य समझनी चाहिये। 22 अनंतकाय-एक शरीर में अनंत जीव हो वह वनस्पति अनंतकाय कही जाती है। शास्त्र में बत्तीस प्रकार के अनन्तकाय अभक्ष्य कहे हैं, जो नीचे मुजब हैं(१) भूमिकंद (जमीन में जो कंद पैदा हों वे सब)। (2) सूरण कंद (3) वज्रकंद (4) लीली हलदी (हरी हल्दी) (5) आदा लीला (हरा अदरक) (6) हरिया कचुरा (हरा कचूरा) (7) वरीयाली की जड (दूसरा नाम बिराली कंद)। (8) शतावरी (शतावर) (9) कुंआर पाठा (घीग्वार) (10) थूअर (11) गिलोय (गुरच) (12) लहसून (लसण) (13) करेला वांस का (14) गाजर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 3 श्रावक-द्वादश व्रत . (15) लाणा (जिसकी सज्जी बनती है) ... (16) लोढा कंद . (17) गिरिकरणी (गिरमिर) कच्छ देश में प्रसिद्ध है। (18) कोमल पत्र (वनस्पति के नये उगते अंकुरे अनंतकाय होते हैं, बढने के बाद वेही प्रत्येक वनस्पति कहलाते हैं) (19) खरसूयाकंद (कसेरु) (20) थेग (जुवार के दाने की तरह का कन्द) (21) हरामोथ (नागर मोथा) (22) लूणी वृक्ष की छाल (23) खिलोडा (24) अमृतवेल (अमरवेल) . (25) मूला (मूली) (26) भूमिस्फोट-(जो सफेद छत्र के आकार में चोमासे में जमीन में से निकलते हैं) (27) बथुए की भाजी (प्रथम उगती हुई) (28) करुहार (29) सूवर वेल (30) पलंक की भाजी (31) कोमल इमली-(जहां तक बीज न पडे वहां तक अनंतकाय) (32) आलु रतालु पिंडालु। इसके सिवाय और भी हैं Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह यहां पर खास- खास नाम दिखलाये हैं। सब अनतकाय अभक्ष्य हैं। ___ अनंतकाय का लक्षण यह है कि पत्ते, फूल, फल आदि में नसो का गुप्त होना, सांधे गुप्त होना, तोडने से बराबर टूट जाना, और जड से काटे जाने पर भी अर्से तक हरा रहना और बोने पर फिर से लग जाना ये सब अनंतकाय के लक्षण हैं। . इन अभक्ष्य वस्तुओ में से भांग अफीण आदि जिनके खाने की आदत पहले पड गई हो और न छूटती हो तो उसके खाने की छूट रक्खे / तथा रात्रिभोजन में चउविहार तिविहार अथवा दुविहार जो भी बने पच्चक्खाण रखने का नियम करे / रोगादिक के कारण अभक्ष्य खानी पडे तो जयणा रक्खे / इसके सिवाय अनजान में किसी वस्तु में अभक्ष्य चीज खाने में आ जावे तो उसकी जयणा है / चौदह नियम"सचित्त-दव्व-विगइ-वाणह-तंबोल-वत्थ कुसुमेसु / वाहण-सयण-विलेवण-बंभ-दिसि-न्हाण-भत्तेसु॥" 1 सचित्त-सजीव पदार्थ सचित्त कहलाता है, अनाज जो बोने से उगता है, कच्चा पानी, हरा शाक, फल पान, कच्चा निमक विगैरह सब सचित्त हैं / इन सब में शस्त्र प्रयोग होने पर ये अचित्त हो जाते हैं। कितनीक चीजें ऐसी भी होती हैं Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 3 श्रावक-द्वादश व्रत जो बीज निकालने के बाद कच्ची दो घडी समय के उपरान्त अचित्त होती हैं, जैसे पके खरबूजे पके आम (केरी) इनमें से बीज निकालने पर दो घडी के बाद उसका गूदा रस या टुकडे अचित्त बनते हैं। खान पान में सचित्त का त्याग, संख्या या परिमाण किया जाता है। . 2 द्रव्य-जितने प्रकार की चीजें मुख में डालने की हों वे सब अलग अलग द्रव्य गिने जाते हैं, रोटी पूरी दाल चावल कढी शाक मिठाई पापड आदि, इनमें से जिन जिन द्रव्यों की दिन भर के लिये जरूरत समझे गितनी या वजन कायम कर रखना चाहिये। - 3 विगई—कुल विगई 10 हैं जिनमें 1 मधु (शहद) 2 मांस 3 मक्खन 4 मदिरा ये चार महाविगई अभक्ष्य हैं। श्रावक को इनका अवश्य त्याग करना चाहिये / भक्ष्य (खाने लायक) विगई 6 हैं-१ दूध, 2 दहि, 3 घी, 4 तेल, ५गुडखांड और 6 कडाह विगई (घी या तैल में बनाई जानेवाली मिठाई विगैरह ) / __हर एक विगई के निवियाते के पांच पांच भेद हैं जिनका विस्तार सहित वर्णन पच्चखाणभाष्य में दिया हुआ है, वहां से देख सकते हैं। छः विगई में से कम से कम एक एक विगई का त्याग सदा रखना चाहिये। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह विगई का त्याग तीन तरह से होता है. 1 कच्ची का त्याग (2) निवियाती का त्याग (3) मूल से त्याग। कच्ची दूध विगई का त्याग किया हो तो खीर, मावा (खौवा) विगैरह दूधकी बनी चीज अथवा दूध मिली चीज खाई पी जा सकती है, निवियाती का त्याग करने पर दूध विगई के खीर आदि निवियाते भी नहीं खा सकते और मूल से ही दूध का त्याग करने वाला तो जिसमें दूध का या उसके पदार्थों का थोडा भी भाग मिला हो उन चीजों को भी नहीं खा सकता / कच्ची दहि विगई का त्याग करने वाला दहि के बने रायता, मठा आदि का उपयोग कर सकता है परंतु निवियाते दहि का त्यागी उक्त पदार्थ नहीं खा सकता। मूल से दहि का त्यागी दहि जिसमें डाला गया हो एसा कोई भी पदार्थ नहीं खा सकता। कच्चे घी, तैल का त्याग करने वाला जला हुआ घी या तैल खा सकता है। निवियाते का त्यागी नहीं खा सकता और मूल से त्याग करने वाला जिनमें घी तेल पडे हों ऐसी कुछ भी चीज नहीं खा सकता। कच्ची कडाह विगई का त्याग हो तो तीन घाण के बाद बनी हुई चीज पूरी भजिया आदि खा सकते हैं। निवियाते का त्याग हो तो तीन घाण के बाद के घाण का भी नहीं खासकते / शीरा लापसी आदि कडाह विगई के निवियाते होने से Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 3 श्रावक-द्वादश व्रत वे भी नहीं खाये जा सकते / भूजे बघारे शाक आदि कडाह विगई नहीं हैं। 4 वाणह—(उपानह) जूता, बूट, चंपल, खडाउ, मोजा जोडी आदि की संख्या कर लेवे / भूल से पहनने में आ जाय तो उसकी जयणा / . 5 तंबोल-पान, सुपारी, इलायची, लोंग आदि मुखवास की चीजों का अंदाज करना (नवटांक पाव सेर आदि ) 6 वस्त्र-पगड़ी, टोपी, शाफा, अंगरखा, कुरता, कमीस, कोट, धोती, पायजामा, दुपट्टा, अंगोछा, रूमाल आदि मरदाना और जनाना कपडा जो ओढने पहिनने में आवें उनकी संख्या तथा गहने की संख्या कर लेना चाहिये। धर्मकार्य में जयणा / भूल से पहना जाय उसकी जयणा / 7 कुसुम-फूल, गजरा, तुर्रा, अत्तर, तमाखु, आदि जो सुंघने की चीजें हों उनका परिमाण करना। 8 वाहन सवारी का साधन-फिरता, चरता और तिरता यह तीन प्रकार का है। गाडी, मोटर, साइकल, ट्राम, रथ, पालखी, रेलवे, सिगराम, उडता एरोप्लाइन आदि फिरता, घोडा, ऊंट, हाथी, खच्चर, बैल आदि सवारी के वाहन पशु चरता, और नाव-आगबोट-स्टीमर आदि जल मार्ग के वाहन तिरता वाहन कहलाते हैं। अपने काम के लिये इनकी प्रतिदिन संख्या करनी चाहिये। 9 शयन-सोने बैठने का साधन कुरसी, टेबल, पट्टा, खच्चर, बल दि जल मालदिन Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 77 पलंग, चारपाई, (मांचा), कोच, गादी, तकिया, चटाई, दरी (सेत्रंजी), बिस्तरा आदि की संख्या करना / 10 विलेपन-शरीर में लगाने की चीज तेल, केशर, चंदन, सेंट, सुरमा, काजल, उबटना, साबुन, हजामत, बुरश, कंघा, काच, मलम पट्टी का लेप आदि / इनका वजन करलेना चाहिये। 11 ब्रह्मचर्य-परस्त्री का त्याग और स्वदार संतोष रक्खें। उसका भी रात्रि में परिमाण करें। काया से पालन करे / मन वचन की जयणा। . 12 दिशि-(१० दिशा) 4 दिशा 4 विदिशा ऊर्ध्व और अधो इन दश दिशाओं में जाने आने का (अमुक कोश तक का) नियम करना / धार्मिक कार्य की जयणा, तारचिट्ठी भेजना माल भेजना मंगवाना आदमी भेजना विगैरह इसी में समझना चाहिये। 13 स्नान-दिन में इतनी वार स्नान करना ऐसी धारणा करना / धार्मिक कार्य के लिये जयणा / ...14 भत्त-(भक्त) अशन-पान-खादिम-स्वादिम इन . चार प्रकार के आहारों में से, जितना खाने पीने में आवे उतने का सेरों में परिमाण रखना चाहिये / ___इन 14 नियम के उपरांत 6 काय और 3 कर्म की मर्यादा भी करनी चाहिये। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 3 श्रावक-द्वादश व्रत छः जीवनिकाय__ पृथिवीकाय-मिट्टी, निमक आदि (खाने में या उपभोग में आवे) उसका पावसेर, आधसेर, सेर मण आदि वजन कायम करना। __ 2 अपकाय-जो पानी पीने में वा दूसरे उपयोग में आवे उसको मग दोमण या चाहिये उतना नियत करना। __3 तेउकाय-चूल्हा, अंगीठी, भष्ठी, प्राइमस, दीवा विगैरह से तेउकाय का आरंभ होता है इस वास्ते इन की संख्या नियत करना, एक दो या तीन घर के चूल्हे रखे, हलवाई के चूल्हे की छूट रक्खी हो तो वहां की मिठाई खा सके अन्यथा नहीं। 4 वायुकाय-हिंडाले और पंखे (अपने हाथसे या हुकम से) जितने चलते हों उनकी संख्या नियत करना, रुमाल से वा कागज से हवा लेना यह भी पंखे में शामिल है उसकी जयगा। 5 वनस्पतिकाय-हरा शाक, फलादि इतनी जातके खाने, घर संबंधी मंगावे उसकी गिनती तथा दो सेर तीन सेर का वजन करना। 6 त्रसकाय-चलते फिरते तमाम त्रस जीवों को मारने की बुद्धि से मारूं नहीं ऐसा नियम करना हर एक प्रवृत्ति में उपयोग रखना कारण 'उपयोगे धर्म' है। तीन कर्म असि कर्म-तलवार, बंदूक, तमंचा, चाकू, छुरी, केंची, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह सूडी, सुई आदि जो उपयोग में आवे उसकी संख्या करना / ___2 मसिकर्म-लिखने के उपयोगी साधन स्याही, कलम, होल्डर, पेन्सील, दवात आदि की संख्या रखना। ____3 कसिकर्म-खेती के उपयोगी हल, कुदाला, हलवाणी, फावडा, (पावडा) आदि की संख्या करना / पंद्रह कर्मादान 1 इंगालकर्म-कोयले बनाकर बेचना इंटे बनाकर बेंचना लुहार का सुनार का कलाल का हलवाई का धंधा जो अग्नि आरंभ से होता है इसमें आरंभ ज्यादह है इस लिये जहां तक हो सके यह कर्म श्रावक न करे / लकडी के कोलसे बना कर बेचने का तो अवश्य ही त्याग करे / सूखी लकडी कटाने की जयणा। __ 2 वनकर्म-लीले लकडे कटाना, फल, फूल, कंदमूल हरि वनस्पति विगैरह बेचना इत्यादि काम श्रावक को न करना चाहिये, जंगल कटाने का तो अवश्य ही त्याग करे / सूखी लकडी कटाने की जयणा / ____3 साडीकर्म-गाडी रथ नाव हल चरखा धूसरा चक्की मूसल विगैरह बनाकर बेचना यह 'साडी कर्म' श्रावक को छोडने लायक है। * * 4 भाडीकर्म-ऊंट बैल खचर घोडा गाडा आदि किराये देकर गुजरान करना यह भाडीकर्म कहलाता है। फोडीकर्म-आजीविका के लिये कूआ तालाव खुदावे, हल Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 3 श्रावक-द्वादश व्रत चलावे, खान, खुदावे, सुरंग खुदावे यह 'फोडीकर्म' है। 6 दंतवाणिज्य-(दांतका व्यापार) हाथी का दांत, विगैरह बेचने का व्यापार 'दंतवाणिज्य' है। इसका ठेका लेना अत्यंत आरंभ-हिंसा का कारण है। श्रावक ऐसा व्यापार न करे। दांत की बनी बनाई चीजें ले कर तंग हालत में व्यापार करे उसकी जयणा है। ___7 लाखवाणिज्य (लाख आदि का व्यापार)-लाख, साजीखारा, साबुन, सुहागा, मनसील, हरताल विगैरह का व्यापार न करे / खास कर लाखका व्यापार अवश्य वर्जनीय है। 8 रसवाणिज्य-मदिरा मांस तथा घी तैल गुड खांड आदि में चोमासे के दिनो में मक्खी मंकोडा कीडी विगैरह जीवों की बहुत हिंसा होती है इस लिये रसव्यापार न करे / खास कर मद्य मांस का व्यापार श्रावक को वर्जित है। 9 केशवाणिज्य-घेटों बकरा की ऊन, जाट, पक्षियों के रोम, चंवरी गाय के बाल विगैर का बेचना 'केशवाणिज्य' है जो न करना चाहिये / 10 विषवाणिज्य-संखिया, वछनाग, अफीम आदि जहरिली चीजों का व्यापार न करना / 11 यंत्रपीलनकर्म-घाणी कोल्हू विगैरह चला कर तैल रस विगैरह निकालने का काम न करना / 12 निलांछनकर्म-बल, ऊंट विगैरह के नाक फडवाना वछडों को बधिया (खसी-सोई समार) करवाना या इन को Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह जलाना, कोटवाल की नोकरी, जेलखाने की नोकरी विगैरह निर्दयपने का काम करना यह सब निलांछनकर्म के शामिल है। - 13 दावाग्निकर्म-जंगल में आग लगा कर जलाना यह दावाग्निदान कर्म है। 14 शोषणकर्म-तालाव, बंधा, वाव आदि के जलको नहर द्वारा निकलवा कर खेत पिलाना, इस से जल खाली हो जाता है और लाखों जीव जल विना तडफ कर मरते हैं इस लिये यह 'जलशोषणकर्म' पाप का कारण है। 15 असतीपोषण-कुलटा-व्यभिचारिणी स्त्री का पोषण कर उससे धन पैदा करना या उस आशयसे उस का पालन करना, कुत्ता बिल्ली आदि शिकारी जानवरों का पालन करना यह सब 'असतीपोषण' कहा जाता है। ___यह 15 कर्मादान हैं, याने ज्यादह पापबन्ध के कारण हैं, व्रतधारी इन व्यापारो में न पडे / प्रतिज्ञा... "मैं देवगुरु साक्षिक उपभोग-परिभोग व्रत ग्रहण करता हूं। आजीवन अनन्तकाय बहुबीजादि भोजन और कर्मादानादि व्यापारों का यथाशक्ति त्याग करता हूं।" अतिचार..' (1) सचित्त आहार-सचित्त का त्याग कर बगैर उपयोग के सचित्त को अचित्त समझ कर खावे पीवे, जल पूरा गरम न हुआ हो और उस को पीवे तो यह पहला अतिचार लगता है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 श्रावक-द्वादश व्रत (2) सचित्तप्रतिबद्धाहार-जिस के सचित्त का नियम है बह बबूल (बाबलिये) पर लगा हुआ गोंद अथवा इसी प्रकार सचित्त के साथ लगे हुए अचित्त पदार्थ उखाड कर एक मुहूर्त समय होने के पहले खावे तो यह दूसरा अतिचार लगता है। - (3) अपक्वौषधिभक्षण-सचित्त का त्यागी फली पुंखडा भाजी विगैरह कच्चे खावे तो यह तीसरा अतिचार लगता है। 4 दुःपक्वौषधिभक्षण-गेहुं के होले मकाइ के मकिये चणों के सरपटिये विगैरह अध पके खावे तो चौथा अतिचार लगता है। (5) तुच्छौषधि भक्षण- जिस में खाना थोडा और फेंकना ज्यादह ऐसी बेर, सहजने की फली, विगैरह तुच्छ चीज का खाना यह तुच्छ औषधि भक्षण है / नियम-व्रत वाला खावे तो पांचवाँ अतिचार लगता है। नियम१ बाईस अभक्ष्यों में से नं. को छोड शेष अभक्ष्य भक्षण का त्याग। __ 2 बत्तीस अनन्तकायों में से नं. -को छोड शेष अनन्तकाय भक्षण का त्याग / 3 पंदरह कर्मादानों में से नं.- को छोड शेष कर्मादान करनेका त्याग / 4 महीने में वार रात्रिभोजनकी छूट कृष्णपक्ष Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह और शुक्ल पक्ष कीइन तिथियों में रात्रिभोजन का सर्वथा त्याग। ___ आगे दी हुई सूचीमें रक्खी हुई वनस्पतियों को छोड शेष हरि वनस्पति भक्षणका का त्याग / रोगादि कारण अथवा अनजानपन में कभी छोडी हुई चीज खाने में आ जाय उस की जयणा / बाह्य उपभोग में लेने की जयणा / हरि वनस्पति (लीलोतरी) की टीपअजमापत्र खरबूजा तुलसी बेरी (पंचाग) अडवीपत्र गलका . दूधिया भीडी अदरक गवारफली द्राख मकिया अननस गिलोय धनियां मतिरा अनार गुलाब नारंगी मिरची अंजीर गुंदा (छोटा) नालेर मिरच . आम (केरी) गुंदा (बडा) नीम मूला (भाजी) आलडी गूलर नीम (मीठा) मेथी(पंचांग) आंवला गोयली नीमू मोगरी इमली घीग्वार पपनस मोगरी (गुईख (शेलडी) चकी पपीता जराती) * उंबी चणा(पंचांग) (पोपैया) रजगा ककडी चवलेरी परवल रामफल कणजरा . चीकू रायडोडी FEEEEEEEEEEEEE पर्जण Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केर 3 श्रावक-द्वादश व्रत करेला चीभडा. पान रायण करेला (बडा) चीभडिया पीलु वटाणा करमदा चील (भाजी) पोंक वरियाली कंकोडा जंबीरी पोस्तडोंडा वालोल कालिंगा जामफल फणस . सफरजन कुंमटिया जामून पुदीना सरसव (भाजी) टमेटा बथुआ संतरा केला टींवरु बदाम सांगरी तडबूज . बावल . सीघोडा कोबी (पत्ता) तंदुलिया . बीजोरा सोआभाजी कोबी (फूल) तींडसी बेर (बडे) कोहला तुरई . बेर (पेमजी) ऊपर की वनस्पतियों में से जिन जिन का त्याग करना हो उन के नामके पहले 0 इस प्रकार शून्य लगा देना चाहिये। अनर्थदंडविरमण स्वरूप.. विना मतलब अपराध लेना उसका नाम 'अनर्थदंड' है, वह 4 प्रकारका है-१ अपध्यान, 2 पापोपदेश, 3 हिंस्रप्रदान, और 4 प्रमादाचरित / 1 अपध्यान-अपने सुख में विघ्नडालने वाले संयोग प्राप्त न हो इसके लिये फिकर करना अथवा इष्टवस्तु-स्त्री Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह पुत्र धन विगैरह का वियोग न हों ऐसी चिंता करना इस को 'अपध्यान' अनर्थदंड कहते हैं। ___ 2 पापोपदेश-पाप का उपदेश करे, जैसे खेती वाले को कहे 'तुम हल क्यों नही जोतते ? हलवाई की भठी ठंडी पडी देख कर कहे-' आज भठी क्यों नहीं जलाते ? इस प्रकार विना प्रयोजन पाप की राय देना इस को 'पापोपदेश' अनर्थदंड कहते हैं। 3 हिंस्रप्रदान-कुदाला, हलवाणी, कुल्हाडी, बंदूक विगैरह हिंसा के उपकरण किसी को मांगे बगैर मांगे दे उसका नाम 'हिंस्रप्रदान' हैं। ___4 प्रमादाचरित-विना मतलब कामशास्त्र सीखना, जुगार में पडना, दरखतों में हिंचोला बांधकर हींचना, कुत्ते बिल्ली घेटे असे विगैरह को आपस में लड.ना चार प्रकार की विकथा करना, मंदिर में हांसी ठठे करना इत्यादि सब 'प्रमादाचरित ' अनर्थदंड. कहा जाता हैं, इन चारोंका श्रावक त्याग करे। प्रतिज्ञा- "मैं देवगुरु साक्षिक हिंस्रप्रदानादि चतुर्विध अनर्थदण्ड का जीवनपर्यन्त के लिये यथाशक्ति त्याग करता हूं।" भतिचार- (1) कंदर्पचेष्टा-हाथ पांव, आंख आदि की चेष्टा से Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 - 3 श्रावक-द्वादशवत किसी को हसावे या किसी को क्रोध उत्पन्न करावे यह पहला अतिचार / - (2) असंबद्ध वचन-वाहियात वचन निकाले, दूसरों के मर्म खोले, वैर बढाने वाले चुगलीखोर वचन निकाल कर फिजूल बकवाट करे यह दूसरा अतिचार / / _ (3) भोगोपभोगातिरेक-अपने शरीर के लिये जितने की जरूरत हो उससे अधिक पदार्थ उपयोग में ले यह तीसरा अतिचार। - (4) कौकुच्य वा मर्म कथन-जिसके बोलने से दूसरों के दिल में काम या क्रोध का जोश उत्पन्न हो या वियोग की वार्तायुक्त कथा तथा शृंगार से भरी हुई कविता सुनाकर काम भाव जागृत करना यह चौथा अतिचार। (5) संयुक्ताधिकरण-ऊखल के साथ मुसल रखना, धनुष के साथ तीर रखना इत्यादि हिंसा के उपकरणों को तय्यार कर रखना यह पांचवा अतिचार है, कारण कि शस्त्र हाजर रखने से हर कोई इसका गेर उपयोग कर सकता है उस आरंभ का भागी शस्त्र रखने वाला श्रावक बनता है, वास्ते पापोपकरणों को जोड कर न रक्खे / सामायिकवत. स्वरूप रागद्वेषादि विषमताओं को दूर हटा कर दो घडी (48 मिनट) तक समभाव में रहना इसको सामायिक कहते हैं / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह सामायिक का अर्थ आवश्यक सूत्र में इस मुजब किया है . "समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणां आयः-समायः समाय एव सामायिकम् / " अर्थात्-सम याने ज्ञान दर्शन और चारित्र इनका जो 'आय' अर्थात् लाभ उसका नाम 'समाय' समाय ही सामायिक है। अनुयोगद्वारटीका में भी कहा है"सामायिकं गुणाना-माधारः खमिव सर्वभावानाम्। नहि सामायिकहीना-श्चरणादिगुणान्विता येन // 1 // " ... तात्पर्य-सामायिक तमाम गुणों का आधार है जैसा कि सर्व पदार्थों का आधार आकाश, सामायिक रहित मनुष्य चास्त्रिादि गुण युक्त नहीं होते। ___ यह सामायिक व्रत 32 दोष रहित होना चाहिये / 32 दोष नीचे लिखे मुजब हैं- . - मन के 10 दोष-१ अविवेक, 2 यश की इच्छा, 3 लाभ की इच्छा, 4 अहंकार, 5, भय, 6 नियाणा बांधना, 7 फल में संशय लाना, 8 क्रोध करना, 9 अविनय, 10 भक्तिशून्यता। वचन के 10 दोष-१ कुवचन बोले, 2 अविचारा बोले, 3 प्रतिघातवचन (अगले के दिल में प्रहार करे ऐसा वचन), 4 बडबड बोलना, 5 प्रशंसा वचन बोले, 6 कलह करे, 7 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 3 श्रावक-द्वादश व्रत विकथा करे, 8 हांसी करे, 9 गरम वाक्य निकाले, 10 किसी को 'आओ' 'जाओ' कहे / काया के 12 दोप-१ आलस (प्रमाद) रखना, 2 नींद लेना, 3 घुटने ओंधे करना, 4 अस्थिर आसन, 5 नजर फिराना, 6 अन्य कार्य में प्रवर्तन, 7 भीत का सहारा लेना, 8 शरीर के अवयव छिपाना, 9 मेल उतारना, 10 खाज खनना, 11 काटके पाडना और 12 लंबे पांव करना। ऊपर कहे 32 दोषों से रहित कम से कम एक सामायिक श्रावक हमेशा करे। शुद्ध सामायिक से ही आत्मा में गुण प्रकट होता है, पूर्व काल में केशरीचोर ने मन वचन और काया की एकाग्रता से शुद्ध सामायिक करने से केवल ज्ञान प्राप्त किया था यह बात शास्त्र में प्रसिद्ध है। शुद्ध सामायिक का फल उपदेशसप्तति ग्रंथ में यों बताया है- . "बाणवइ कोडीओ, लक्खा गुणसहि सहस पणवीसं। नवसय पणवीसाए, सतिहा अडभाग पलियस्स॥१॥" अर्थात्-९२ क्रोड 59 लाख 25 हजार 925 नौ सौ पच्चीस पल्योपम के ऊपर 1 पल्योपम के 8 भाग में से 3 भाग अधिक, इतने पल्योपम का स्वर्ग गतिका आयु बांधता है। प्रतिज्ञा "मैं देवगुरु साक्षिक सामायिक व्रत स्वीकार करता हूं। आजीवन धारणा मुजब यथाशक्ति सामायिक करूंगा।" Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह अतिचार-.. (1) काय दुष्प्रणिधान-शरीर को या उसके किसी अंश. को विना पूंजे इधर उधर हिलाना। (2) मनोदुष्प्रणिधान-दिल में खराब विचार करना / (3) वचन दुष्प्रणिधान-आरंभ के वचन बोलना या सामायिक सूत्र ज्यादा कमती बोलना। (4) अनवस्था--सामायिक का वक्त पर न करना, अथवा करके शांति न रखना / (5) स्मृतिविहीन-सामायिक सूत्र पाठ बोला या नहीं अथवा सामायिक का काल पूरा हुआ या नहीं इस प्रकार स्मृति विहीन होकर शंकाशील बनना। नियम प्रतिदिन सामायिक करूंगा। ___ अथवा महीने में---और वर्ष में सामायिक करूंगा। . देशावकाशिक व्रतस्वरूप. पहले के व्रतों में जो नियम किया है उनमें संक्षेप करना अथवा छठे व्रत में जाने आने का परिमाण किया है उसको उस दिन के लिये कम करके दो पांच कोश रखना, अथवा 'आज गांव के दरवाजे तक जाऊंगा; आगे नहीं' ऐसी धारणा करना उसको देशावकाशिक कहते हैं / यह देशावकाशिक 1 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 3 श्रावक-द्वादश व्रत दिन का 10 सामायिक का और 1 सामायिक का भी होता है, जैसा समय हो वैसा करे / प्रतिज्ञा___"मैं देवगुरु साक्षिक देशावकाशिक व्रत स्वीकार करता हूं। आजीवन धारणा मुजब यथाशक्ति देशावकाशिक व्रत करूंगा।" अतिचार- (1) आनयन प्रयोग–अपनी धारीहुई भूमिका से बाहर की किसी चीज की जरूरत पड़ने पर मन में खयाल करे कि मेरे तो बाहर जाने का नियम है, चीज मंगवाऊं तो क्या हर्ज है ऐसी कल्पना से नियत भूमि से बाहर से कोई चीज मंगवावे तो पहला अतिचार / (2) प्रेषण प्रयोग–अपनी नियमित (मुकरर की हुई) भूमि से कुछ चीज बाहर भेजे तो दूसरा अतिचार / ___(3) शब्दानुपाती-अपनी नियमित भूमि से बाहर कोई जाता हो उसको शब्द द्वारा अथवा खुंखार कर बुलावे और अपने लिये कोई चीज मंगवाने का हुक्म करे तो तीसरा अतिचार / (4) रूपानुपाती-नियम की भूमि से बाहर जाते किसी को देखकर हवेली विगैरह ऊंचे स्थान पर चढ कर अपना रूप बतावे, इस इरादे से कि वह मनुष्य अपने पास आ जाय, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह इस प्रकार बुलाये हुए मनुष्य को काम भलावे तो चोथा अतिचार / (5) पुद्गलप्रक्षेप-नियम की भूमि से कोई बाहर जाता हो उस पर कंकर विगैरह फेंक कर अपनी तर्फ बुलावे और उससे बात चीत करे तो पांचवाँ अतिचार लगता है / नियम- . ___ मैं प्रतिवर्ष देशावकाशिक व्रत -करूंगा। पौषधोपवास व्रतस्वरूप आत्मा के गुणों की अथवा धर्म की पुष्टि करने वालाजो उपवास युक्त व्रत हो उसको 'पौषधोपवास' कहते हैं। इसके 4 भेद हैं-१ आहार पौषध, 2 शरीरसत्कार पौषध, 3 ब्रह्मचर्य पौषध और 4 अव्यापार पौषध / ये प्रत्येक देश और सर्व भेद से दो दो प्रकार के होते हैं। ... - 1 तिविहार उपवास आयंबिल या एकासना करके जो पौषध किया जाता है उसको देश से आहार पौषध कहते हैं, और चउविहार उपवास के साथ किया जावे वह सर्व से आहार पौषध कहाता है। 2 हाथ पांव धोने की छूट रखना देश शरीर सत्कार पौपध और सर्वथा शरीर संबन्धी शणगार का त्याग करना सर्वशरीरसत्कार पौषध कहा जाता है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 श्रावक-द्वादश व्रत ..3 वचन या दृष्टिका दोष जिसमें न टले उसको देशब्रह्मचर्य पौषध कहते हैं और सर्वथा ब्रह्मचर्य रखना उसको सर्व ब्रह्मचर्य पौषध कहते हैं। 4 सर्वथा व्यापार का त्याग करना यह सर्वअव्यापार पौषध और एकाद व्यापार खुला रहे वह देश अव्यापार पौषध है। प्रतिज्ञा "मैं देवगुरुसाक्षिक पौषधोपवास व्रत स्वीकार करता हूं। धारणा मुजब यथाशक्ति पौषधोपवास करूंगा।" अतिचार---- (1) अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहिय-सिज्जासंथारक-जिस पर शयन करे उस पथारी की पडिलेहणा न करे तो पहला अतिचार। (2) अपमज्जियसंथारक-संथारा बराबर न पूंजे जीवजयणा न रक्खे तो दूसरा अतिचार / (3) अप्पडिलेहिय स्थंडिलभूमि-लधुनीति या बडी नीति की जगह बराबर दृष्टि से न देखे जीवरक्षा न करे तो तीसरा अतिचार। (4) अपमज्जियपासवणपत्त-लघुनीति का कुंडा या पाला ठीक न पूंजे तो चौथा अतिचार / . (5) पोसहविहिविवरीय-पोषध में भूख लगने पर खाने की चिंता करे याने पोसह पारने के बाद अमुक चीज तयार Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न श्रीजैनशान-गुणसंग्रह कर खाऊंगा, स्नान करूंगा, तैल लगाऊंगा ऐसी कल्पना करे, तथा पौषध में विकथा करे और दोष न टाले तो पांचवा अतिचार लगता है। नियम प्रतिवर्ष आठ पहर के पोसह करूंगा। प्रति वर्ष चार पहर के पोसह करूंगा। . अतिथि संविभागवतस्वरूप__ पौषधोपवासवत के पारणे साधु मुनिराज को दान दे कर पीछे खाना उसका नाम 'अतिथि संविभाग' व्रत है। पहले दिन जहां तक बन सके उपवास पूर्वक 8 पहर का पौषध करे, दूसरे दिन पारणा में एकासना कर मुनिराज को वहरावे और जितनी चीजें मुनि लेवे उतनी ही आप खावे यह अतिथिसंविभाग का तात्पर्य हुआ। . : दान देते वक्त दाता में 5 गुण होने चाहिये-१ हर्षाश्रुइष्ट मनुष्य के मिलने पर जैसा हर्ष होता है वैसा हर्ष दान देते वक्त श्रावक को होवे, हर्ष के आंसु आवें / 2 रोमांच-दान देते वक्त शरीर के रोम खडे हो जावें / 3 बहुमान-मुनि को देख कर उनका बहुमान करे। (4) प्रियवचन-दान देता हुआ मधुर और विनय युक्त वचन बोले और 5 अनुमोदनादान की वार वार प्रशंसा करे। 'फिर कब ऐसा दान दूंगा' ऐसी भावना रक्खे / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 3 श्रावक-द्वादश व्रत प्रतिज्ञा___ "मैं देव गुरु साक्षिक अतिथि संविभाग व्रत स्वीकार करता हूं। धारणा मुजब यथाशक्ति अतिथि संविभाग करूंगा।" अतिचार ___(1) सचित्तनिक्षेप-आहार. पर सचित्त वस्तु रख छोडे, मन में सोचे 'यह आहार मुनि लेवेंगे नहीं लेकिन निमंत्रण से मेरा व्रत पल जायगा, यह पहला अतिचार / (2) सचित्त पीहण-न देने की बुद्धि से आहार को सचित्त वस्तु से ढांक दे यह दूसरा अतिचार / (3) कालातिक्रम-गोचरी का समय टाल कर मुनि को आहार के लिये निमंत्रणा करे यह तीसरा अतिचार / (4) पर व्यपदेशमत्सर-दूसरा कोई निमित्त निकाल कर आहार जल्दी न देवे अथवा दूसरे की ईर्ष्या से दान देवे यह चोथा अतिचार (5) परवस्तुकथन-दान के वक्त अपनी वस्तु होने पर भी यह चीज दूसरे की है ऐसा कहकर न देवे यह पांचवां अतिचार है। नियम प्रतिवर्षअतिथि संविभाग करूंगा। इस तरह श्रावकों के सम्यक्त्वमूल बारह व्रतों का संक्षिप्त वर्णन ऊपर मुजब है / इसमें दिया हुआ व्रतों का स्वरूप समझ कर उस मुजब चलने की प्रतिज्ञा करनी चाहिये / प्रत्येक Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह व्रतके अतिचारों को समझ कर उनका त्याग करना चाहिये और धारण किये हुए नियमों को पालना चाहिये / ___ आशा है, इसे पढ कर श्रावकगण अपना कर्तव्य धर्म समझेंगे और उसे अंगीकार कर अपने मनुष्यजन्म की सफलता करेंगे। - 4 तपस्या विधि- . वीशथानक तप विधि 1 ॐ ह्री नमोअरिहंताणं / इस पद की नोकर वाली 20, खमासमण साथिया काउस्सग लोगस्स 12 / 2 ॐ ही नमो सिद्धाणं / नो० 20, ख० सा० का० लो० 8 / . . 3 ॐ ही नमो पवयणस्स / नो० 20, ख० सा० का० लो० 45 / .. ___ 4 ॐ ही नमो आयरियाणं। नो० 20, ख० सा० का० लो० 36 / 5 ॐ ही नमो थेराणं / नो० 20, ख० सा० का० लो० 10 / / 6 ॐ ही नमो उवज्झायाणं / नो० 20, ख० सा० का० लो० 25 / 7 ॐ ह्री नमो लोए सबसाहूणं / नो० 20, ख० सा० का० लो० 27 / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 4 तपस्या विधि 8 ॐ ही नमो नाणस्स / नो० 20, ख०. लो० 51 / / ____9 ॐ ह्रीं नमो दंसणस्स / नो० 20, लो०६७। 10 ॐ ही नमो विनयसंपन्नाणं / नो० 20, लो० 10 / 11 ॐ ह्रीं नमो चारित्तस्स / नो० 20, लो० 70 / _____12 ॐ ह्रीं नमो बंभवयधारीणं / नों० 20, लो० 9 / 13 ॐ ह्रीं नमो किरियाणं / नो० 20, लो० 25 / __14 ॐ ही नमो तवस्सीणं / नो० 20, ___15 ॐ ह्रीं नमो गोयमस्स। नो० 20, 28 / __ 16 ॐ ह्रीं नमो जिणाणं / नो० 20, ख० 10 / 17 ॐ ही नमो चरणस्स / नो० 20, ख० - 18 ॐ ह्रीं नमो अपुवनाणस्स / नो 20, ख० सा० लो०५। 50 / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ واج .. श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 19 ॐ ही नमो सुयनाणस्स / नो० 20, ख० सा० का० लो० 45 / __ 20 ॐ ही नमो तित्थस्स / नो० 20, ख० सा० का० लो० 5 / ___ यह तप वैशाख-आषाढ-मागसिर-फागुण इन चार मही नों में ग्रहण करना चाहिये, हर एक ओली दो महीने में और ज्यादा से ज्यादा 6 महीने में संपूर्ण करनी चाहिये, जिससे 10 वर्ष में यह वीश थानक तप समाप्त हो जावे / अष्टकर्म ओली विधि (कर्म सूदन तप) 1 ज्ञानावरणीय-उपवास / खमासमण, काउस्सग्ग लोगस्स 5, 'ॐ ह्री अनंतज्ञानगुणेभ्यो नमः' इसकी 20 नोकरवाली गिने। : 2 दर्शनावरणीय-एकासणा / खमासमण, काउस्सग्ग लोगस्स 9, ॐ ह्री अनंतदर्शनगुणेभ्यो नमः' नोकरवाली 20 / ___3 वेदनीय-एकलसिथु (एक दाणा खाना)। खमासमण, काउसग्ग लोगस्स 2, ॐ ही अव्यावाधगुणेभ्यो नमः' नोकरवाली 20 / . . 4 मोहनीय-एकलठाणुं (एकही साथ आहार और जल लेना)। खमासमण, काउसग्ग लोगस्स 28, 'ॐ ही यथाख्यातगुणेभ्यो नमः' नोकरवाली 20 / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4 तपस्या विधि 5 आयु-एकदत्ति (एक वार दिया हुआ खाना)। खमासमण काउसग्ग लोगस्स 4, ॐ ही अक्षयनिधिगुणेभ्यो नमः' नोकरवाली 20 / 6 नामकर्म-निवी / खमासमण काउसग्ग लोगस्स 103, 'ॐ ह्री अरूपिगुणेभ्यो नमः' नोकरवाली 20 / __7 गोत्रकर्म-आयंबिल। खमासमण काउसग्ग लोगस्स 2, ॐ ह्रीं अगुरुलघुगुणेभ्यो नमः' नोकरवाली 20 / 8 अंतराय-अष्ट कवल (सिर्फ आठ कवले खाने)। खमासमण, काउसग्ग लोगस्स 5, 'ॐ ह्री अनंतवीर्यगुणेभ्यो नमः' नोकरवाली 20 / - इसके उजमणे में चांदी का वृक्ष और सोने का कुठार (कुहाडा) भगवान् के आगे चढावे तथा पुस्तक पूजा कर मुनिराज को दान देवे / रोहिणी तप विधि सत्ताईस नक्षत्रों में चौथा नक्षत्र रोहिणी है। यह नक्षत्र जिस दिन हो उस दिन उपवास कर वासुपूज्य स्वामी की पूजा करे, तीनों वक्त प्रभात मध्यान्ह और संध्या समय देव वंदन करे, दोनों टंक प्रतिक्रमण करे, 'ॐ ह्री श्रीवासुपूज्यजिनाय नमः' इस प्रकार वासुपूज्य स्वामी के नाम की 20 नोकरवाली गिने। इस रीति से 7 वर्ष और 7 महीने तक Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह पह तप किया जाता है। अंत में उजमणे के समय अशोक वृक्ष युक्त श्रीवासुपूज्य स्वामी की प्रतिमा करा कर प्रतिष्ठापूर्वक मंदिर में स्थापन करावे, उसके आगे नैवेद्य १०८लड्डू चढावे / वर्धमान ओली की विधि . (वर्धमान आयंबिल तप) प्रथम 1 आयंबिल कर ऊपर 1 उपवास, पीछे 2 आयंबिल ऊपर 1 उपवास, फिर त्रण आयंबिल ऊपर एक उपवास, इस क्रम से बढते बढते 100 आयंबिल ऊपर 1 उपवास करने पर कुल तपस्या का हिसाब 100 उपवास और पांच हजार पच्चास आयंबिल होते हैं / पहली 5 ओलियाँ एक साथ की जाती हैं। इस तप की समाप्ति 14 वर्ष 3 महीने और 20 दिनों में होती है / इस तप में 'ॐ ही नमो जिणाणं / इस पद की 20 नोकरवाली गिने / साथिया, काउस्सग्ग लोगस्स 12 करे / .. लघुपंचमी तप पौष और चैत्रमास छोड कर अन्य किसी एक महीने में लघु पंचमी तप ग्रहण किया जाता है और शुदि तथा वदि पंचमी के दिन उपवास करते 1 वर्ष में 24 पंचमियां होती हैं, इनके ऊपर 1 पंचमी करने पर 25 पंचमियों का यह तप संपूर्ण होता है / अंत में उजमणा ज्ञानपंचमी के मुताबिक करें। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 तपस्या-विधि ज्ञानपंचमी तप कार्तिक शुदि पंचमी से यह तप शुरू किया जाता है। हर एक महीने की शुदि पंचमी को उपवास करते पांच वर्ष और पांच मास में 65 उपवास होते हैं और इस तप की स. माप्ति होती है। . इस तप में 'ॐ ही नमो नाणस्स' इस पद की 20 माला गिने तथा साथिया काउसंग्ग लोगस्स 51 का करे / तप सं. पूर्ण होने पर इसके उजमणे में ज्ञान दर्शन और चारित्र के सर्व 5-5 उपकरण लावे और पेंतालीस आगमकी पूजा पढावे / साथ में यथा शक्ति साहमीवच्छल भी करे। पेंतालीस आगम का तप यह तप 45 दिन का होता है। हमेशा एकासणा किया जाता है / तप संपूर्ण होने पर उजमणा वरघोडा तथा पूजाप्रभावनादिक करें और नंदीसूत्र तथा भगवती सूत्र का रुपये और सोना महोर से पूजन करे / दूसरे सूत्रों का पूजन वासखेप तथा पैसे से करे / इसकी विधि नीचे मुजब है 1 श्रीनंदीसूत्रायनमः / नोकरवाली 20, खमासमण सा. थिया काउस्सग्ग लोगस्स 51 / 2 श्रीअनुयोगद्वारसूत्राय नमः / नोकरवाली 20, ख. मासमण, साथिया, काउसग्ग लोगस्स 62 / 3 श्रीदशवैकालिकसूत्राय नमः / नोकरवाली 20, खमा समण, साथिया, काउसग्ग लोगस्स 14 / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 4 श्रीउत्तराध्ययनसूत्राय नमः / नोकरवाली 20, खमासमण, साथिया, काउसग्ग लोगस्स 36 / ___5 श्रीओपनियुक्तिसूत्राय नमः / नोकरवाली 20, खमासमण, साथिया, काउसग्ग लोगस्स 10 / 6 श्रीआवश्यकसूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो० 32. 7 श्रीनिशीथछेदसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 16 / 8 श्रीव्यवहारकल्पसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 20 / 9 श्रीदशाश्रुतस्कंधसूत्राय नमः / नो. लो० 19 / - 10 श्रीपंचकल्पछेदसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 19 / 11 श्रीजीतकल्पछेदसूत्राय नमः / नो० 20, लो० 35 / - 12 श्रीमहानिशीथछेदसूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो० 42 / 13 श्रीचउसरणपइन्नयसूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो० 10 / ...14 श्रीआउरपञ्चक्खाणसूत्राय नमः। नो० 20, ख. सा० लो०१०। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ___ तपस्या-विधि 15 श्रीभत्तपरिज्ञासूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो० 10 / 16 श्रीसंथारापइन्नयसूत्राय नमः / नो० 20, ख. सा० लो० 10 // 17 श्रीतंदुलवेयालियसूत्राय नमः / नो० 20, सा० लो० 10 / ____ 18 श्रीचंदाविजयपइन्नयसूत्राय नमः। नो. सा० लो० 10 // 19 श्रीदेविन्दथुइपइन्नयसूत्राय नमः / नो० 20, सा० लो० 10 / 20 श्रीमरणसमाधिसूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो०१०। 21 श्रीमहापचक्खाणसूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो० 10 // 22 श्रीगणिविज्जापइन्नयमत्राय नमः। नो० 20, सा० लो० 10 / 23 श्रीआचारांगसूत्राय नमः। नो० 20, ख० लो० 25 / 24 श्रीसूयगडांगसूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो० 23 / 25 श्रीठाणांगसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 10 // Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 103 26 श्रीसमवायांगसूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो० 104 / 27 श्रीभगवतीसूत्राय नमः। नो० 20, ख० सा० लो० 42 / 28 श्रीज्ञाताकथांगसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 19 / ___29 श्रीउपासकदशांगसूत्रायनमः / नो० 20, ख० सा० लो० 10 / . __30 श्रीअंतगडदशांगसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 19 / ___ 31 श्रीअणुत्तरोववाइयसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 33 / ___32 श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो०१०। 33 श्रीविपाकांगसूत्राय नमः / नो० 20, ख० लो० 20 / ___34 श्रीउववाइयसूत्राय नमः / नो० 20, ख० लो० 23 / 35 श्रीरायपसेणीयसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 42 / .36 श्रीजीकाभिगमसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो०१०।। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 104 4 तपस्या विधि ... 37 श्रीपन्नवणाउपांगसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 36 / 38 श्रीसूर्यपन्नत्तिसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 57 / . 39 श्रीजंबूद्वीपपन्नत्तिसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 50 / 40 श्रीचन्दपन्नत्तिसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 50 / __41 श्रीकप्पवडंसियासूत्राय नमः / नो० 20, लो० 10 / __ 42 श्रीनिरयावलीसूत्राय नमः / नो० 20, लो० 10 / 43 श्रीपुष्पचूलियासूत्राय नमः / नो० 20, ख० लो० 10 // 44 श्रीवन्हिदशोपांगसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा. लो० 10 / 45 श्रीपुफियाउपांगसूत्राय नमः / नो० 20, ख० सा० लो० 10 / पखवाडा तप विधि शुदि एकम से पूनम तक एक ही साथ 15 उपवास करे, अगर ऐसा न बन सके तो प्रथम शुक्ल पक्ष की एकम का, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 105 दूसरे शुक्ल पक्ष की दूज का तथा तीसरे शुक्ल पक्ष की तीज का एक एक उपवास कर अनुक्रम से पंद्रह शुक्ल पक्ष में तप संपूर्ण करे / त्रिकाल देववंदन करे / मुनिसुव्रत भगवान् का स्तवन कहे / 'श्री मुनिसुव्रतसर्वज्ञाय नमः' इस पद की 20 नोकरवाली गिने / तप की समाप्ति के दिन चांदी का पालणा सुवर्ण पुतली तथा लड्ड का थाल जिन मंदिर में चढावे स्नात्र पूजा भी पढावे / पौष दशमी तप की विधि ___ पौष दशमी के पहले दिन याने नवमी के दिन शक्कर के पानी का एकासणा करे, उस दिन सिर्फ गरम जल में शक्कर डाल कर पी लेवे, बाद दशमी को ठाण एकासणा याने भोजन और जल एक ही साथ लेवे, ऊपर चउविहार कर लेवे, तथा उस दिन जिनमंदिर में पंच कल्याणक की पूजा भणावे और 'पार्श्वनाथ अर्हते नमः' इस पद की वीस नवकरवाली गिने, फिर एकादशी को हमेशा के मुआफिक एकासणा करे। तीनों दिन सुबह शाम प्रतिक्रमण करे, तीनों टङ्क देव वंदन करे, " ब्रह्मचर्य पाले, जमीन पर सोवे / इस रीति से यह तप दशवर्ष में पूर्ण होता है / तप की समाप्ति में ज्ञान दर्शन और चारित्र के दश दश उपकरण चढा कर उजमणा करें, अठाई महोच्छव कर साधर्मी वात्सल्य भी करें। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 4 तपस्या विधि पंचरंगी तप विधि इस तप में 25 पुरुष अथवा 25 स्त्रियां होती हैं। पहले दिन-पांच जणा पांच उपवास करें, उस दिन 'मतिज्ञानाय नमः' इस पद की वीस नोकरवाली गिने और खमासमण साथिया काउस्सग्ग लोगस्स 28, तथा प्रदक्षिणा 28, और 28 श्रीफल चढावे / . दूसरे दिन-दूसरे पांच जणा चार उपवास का पञ्चक्खाण करे, उस दिन 'श्रुतज्ञानाय नमः' इस पद की 20 माला गिने, खमासमण साथिया काउसग्ग लो० 14 का करे / तथा प्रदक्षिणा 14 देवे, 14 श्रीफल चढावे / तीसरे दिन-पांच जणा तीन उपवासका पञ्चक्खाण करे, 'अवधिज्ञानाय नमः' इस पद की 20 नोकरवाली गिने, खमासमण साथिया काउसग्ग लोगस्स 6 करे तथा प्रदक्षिणा 6 देवे, श्रीफल 6 चढावे / चोथे दिन-पांच जणा दो उपवासका पञ्चक्खाण करे, 'मनःपर्यवज्ञानाय नमः' इस पद की 20 माला गिने खमासमण साथिया काउसग्ग लोगस्स 2 करे प्रदक्षिणा 2 तथा श्रीफल 2 चढावे / पांचवे दिन-पांच जणा एक उपवास करे, 'केवलज्ञानाय नमः' की 20 माला गिने, खमासमण साथिया लोगस्स 1 प्रदक्षिणा 1 श्रीफल 1 चढावे / इन पांचों दिनों में ज्ञानपद Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह की पूजा पढावे, रूपानाणे से पुस्तक की पूजा करे, पारणा के दिन 45 आगम की पूजा भणावे / दशपचक्खाण विधि 1 उपवास-'श्रीअक्षयसम्यक्त्वाय नमः' नोकरवाली 20, साथिया लोगस्स खमासमण 67 / 2 एकासणा-'श्रीसम्यक्त्वाय नमः' नो० 20, ख. सा० लो० 17 / 3 एकसिक्थ-(एक चावल खावे) 'श्रीकेवलनाणीनाथाय नमः' नो० 20, ख० सा० लो० 8 / / 4 नीवि-'श्री एकत्वगताय नमः' नो० 20, ख० सा० लो० 21 / . 5 एकदत्ती-(अनजान मनुष्य भोजन थाल में पीरस कर कपडे से ढक कर रक्खे उतना ही खावे) 'श्रीसर्वगताय नमः' नो० 20, ख० सा० लो० 31 / 6 परघरिया एकासणा। 'श्री गौतमस्वामिने नमः' नो. 20, ख० सा० लो० 45 / __7 एकलठाणा (हृदय पर्यंत थाली रखे सारा हाथ हिलाये विना भोजन करे) 'अक्षयस्थितये नमः' नो० 20, ख० सा० लो० 28 / 8 एकासणा (एक कवल खावे) 'श्रीप्रवताय नमः' नो० .20, ख० सा० लो० 90 / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . 108 4 तपस्या-विधि . 9 एक घीका दूसरा जलका दो बरतन कपडे से ढंक कर बालक के पास कपडा दूर करवावे, याने दो बरतनों में से एक बरतन खुला करवावे, घी आवे तो एकासणा और जल आवे तो आंबिल करे / 'श्रीमुनीश्वराय नमः' नो०, 20, ख० सा० लो० 13 / 10 आंबिल' (सिर्फ खाखरे खाना) 'श्रीअक्षयनिधिनाथाय नमः' नो० 20, ख० सा० लो० 12 / चोईस तीर्थंकरों के कल्याणक देखने का कोष्ठक कार्तिक वदि शुदि तीर्थंकर तिथि कल्याणक * मतान्तरेण तिथि वदि 5 केवलज्ञान 22 वदि 12 च्यवन 6 , 12 जन्म , 13 . दीक्षा (12) w मोक्ष (2) शुदि 3 केवल , 12 केवल मगसिर वदि शुदि तीर्थकर कल्याणक वदि 5 जन्म 1 दसरी विधिमें ५वां एक कवल, ६ठा एकलठाणा ७वां एकदत्ती, ८वां आयंबिल, ९वां एकघरा और १०वां लूखीनिवी, इस प्रकारसे तप लिखे हैं। तिथि Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह वदि६ ,, 10 दीक्षा दीक्षा मोक्ष " 11 जन्म शुदि 10 शुदि 10 मोक्ष दीक्षा जन्म दीक्षा केवल केवल जन्म दीक्षा तीर्थकर 23 कल्याणक जन्म दीक्षा .. पौष वदि शुदि तिथि वदि 10 वदि 11 वदि 12 वदि 13 वदि 14 शुदि 6 शुदि 9 शुदि 11 जन्म दीक्षा 2M केवल केवल केवल केवल Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 4 केवल तीर्थकर 22.20 मोक्ष ___ 4 तपस्या-विधि शुदि 14 ... शुदि 15 केवल माघ वदि शुदि तिथि कल्याणक वदि 6 च्यवन वदि 12 जन्म वदि 12 दीक्षा वदि 13 , वदि 30 . . केवल शुदि 2 शुदि 2 , शुदि 3 जन्म शुदि 3 जन्म शुदि 4 दीक्षा शुदि 8 जन्म शुदि 9 . दीक्षा शुदि 12 दीक्षा शुदि 13 फागुण वदि शुदि तिथि कल्याणक मतान्तरेण वदि 6 केवल वदि 7 . मोक्ष जन्म केवल MM 1 2 दीक्षा तीर्थकर * Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 * * * * जन्म .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह वदि 7 केवल 9 वदि 9 च्यवन केवल वदि 12 केवल वदि 12 जन्म वदि 13 दीक्षा वदि 14 12 . वदि 30 दीक्षा 18 च्यवन शुदि 4 च्यवन च्यवन 20. शुदि 12 दीक्षा शुदि 12 . मोक्ष चैत्र वदि शुदि तीर्थकर तिथि : कल्याणक . 23. वदि 4 च्यवन . 23 वदि 4 वदि 5 च्यवन वदि 8 1 . वदि 8 दीक्षा शुदि 8 केवल जन्म M022 शु केवल शुदि 5 मोक्ष Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल 58 ur जन्म तीर्थंकर मोक्ष मोक्ष 4 तपस्या-विधि शुदि 5 . मोक्ष / शुदि 5 मोक्ष ___ शुदि 9 मोक्ष शुदि 11 - शुदि 13 शुदि 15: . केवल .. वैशाख वदि शुदि . तिथि , कल्याणक वदि 1 . वदि 2 वदि 5 दीक्षा वदि 6 च्यवन वदि 10 मोक्ष वदि 13 जन्म वदि 14 वदि 14 केवल. वदि 14 जन्म शुदि 4 च्यवन शुदि 7 च्यवन शुदि 8 शुदि 8 . जन्म. शुदि 9 दीक्षा 22.4222222rr FFERENEEEEEEEEEEEEEEE दीक्षा मोक्ष Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 24 - तीर्थकर 20 20 16 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह शुदि 10 . केवल शुदि 12 च्यवन शुदि 13 च्यवन जेठ वदि शुदि तिथि कल्याणक वदि 6 च्यवन वदि 8 . जन्म वदि 9 मोक्ष बदि 13 जन्म वदि 13 . मोक्ष वदि 14 दीक्षा मोक्ष . शुदि 9 . च्यवन .. शुदि 12 जन्म शुदि 13. . दीक्षा आषाढ़ वदि शुदि तिथि कल्याणक वदि 4 च्यवन यदि 7 मोक्ष . . दीक्षा च्यवन शुदि 8 शुदि 14 15 शुदि 5 तीर्थकर 13 21 * 24 वदि 9 शुदि 6 मोक्ष मोक्ष Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 . तीर्थकर 14 . 22 22 20 4 तपस्या विधि श्रावण वदि शुदि. तिथि कल्याणक वदि 3 मोक्ष वदि 7 च्यवन वदि 8 . जन्म वदि 9 : च्यवन शुदि 2 च्यवन शुदि 5 , जन्म शुदि 6 . दीक्षा शुदि 8 मोक्ष शुदि 15 च्यवन भाद्रवा वदि शुदि . तिथि . कल्याणक वदि 7. च्यवन वदि 7 मोक्ष वदि 8 च्यवन शुदि 9 मोक्ष आसोज वदि शुदि तिथि कल्याणक वदि 30 .. - केवल. शुदि 15 च्यवन तीर्थकर तीर्थकर 22 21 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 115 ऊपर दिये हुए कल्याणको में जाप नीचे मुजब करना चाहिये। ' च्यवन कल्याणक के दिन कल्याणक वाले तीर्थंकर के नाम के साथ 'परमेष्ठिने नमः' जपना चाहिये / जन्म कल्याण के दिन 'अर्हते नमः' दीक्षा कल्याणक के दिन 'नाथाय नमः' केवलज्ञान के दिन 'सर्वज्ञाय नमः' और मोक्षकल्याणक के दिन 'पारंगताय नमः' का जाप करना चाहिये। 5 विविध विचार (1) वर्तमान जैनागम-परिचय विद्यमान पैंतालीस सूत्रों के नाम तथा उनकी मूल श्लोकसंख्या और हरएक सूत्र पर भिन्न भिन्न आचार्यों की बनाई हुई बृहद्वृत्ति, लघुवृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति और भाष्य विगैरह के श्लोकों की संख्या का प्रमाण नीचे मुजब दिया जाता है। 11 ग्यारह अंग सूत्र 1 आचारांग सूत्र-इस में साधुओं के आचार का वर्णन है / इस के अध्ययन 25, मूलश्लोक 2500, शीलांगाचार्य की टीका 12000, चूर्णि 8300 तथा भद्रबाहु स्वामिकृत नियुक्ति की गाथा 368, श्लोक 450, भाष्य तथा लघुवृत्ति नहीं है, सर्वसंख्या 23250 है। 2 सूयगडांग सूत्र-इस में पाखंडियों का वर्णन जुदे जुदे सांख्य बौद्ध आदि दर्शनों की चर्चा और उपदेश है / इस के Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 5 विविधि विचार अध्ययन 23, मूलश्लोक 2100, शीलांगाचार्यकृत टीका 12850 तथा चूर्णि 10000 श्लोक हैं, भद्रबाहुकृत नियुक्ति की गाथा 208 श्लोक 250 / इस पर भाष्य नहीं है, सर्वश्लोक 25200 हैं। - 3 ठाणांगसूत्र-इस में अनेक तात्त्विक बातों की गिनती और उनकी व्याख्या दी है। - इस के अध्ययन.१० हैं, मूलश्लोक 3770 हैं, सं 1120 में अभयदेवसरि की बनाई हुई टीका 15250 श्लोक प्रमाण है / सर्वश्लोक 19020 हैं। 4 समवायांग सूत्र-इस में भी ठाणांग का सा ही वर्णन है, परंतु इसमें दश के ऊपरकी संख्यावाली बातोंका भी वर्णन है। इस के मूलश्लोक 1667, टीका अभयदेवसूरि की श्लोक 3776 प्रमाण है / चूर्णि पूर्वाचार्य की 400 श्लोक प्रमाण / सर्वश्लोक 5843 हैं। 5 विवाहपन्नत्ति (भगवती)-इसमें गौतमस्वामी के भिन 2 विषयक 36000 प्रश्न और महावीर के दिये हुए उत्तरों का वर्णन है। इसके 41 शतक हैं। मूल श्लोक 15752, टीका सं० 1128 में अभयदेवसरि की की हुई द्रोणाचार्य संशोधित 18616 श्लोक की है। चूर्णि 4000 श्लोक की पूर्वाचार्यकृत है। कुल संख्या 38368 है / तथा इसकी 1 ताउपत्रकी प्राचीन सूचीमें टीका का प्रमाण 15240 और सर्वसंख्या 19010 श्लोक बतायी है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 117 लघुवृत्ति सं० 1568 में उपाध्याय दानशेखर की की हुई 12000 श्लोक प्रमाण है। 6 ज्ञाता धर्मकथांग-इसमें जुदे जुदे पुरुषों और स्त्रियों की कथायें हैं / इसके अध्ययन 19, श्लोक 5500, टीका अभयदेवसरि की श्लोक 4252 प्रमाण है / सर्व संख्या इस की 9752 श्लोक हैं। - 7 उपासकदशांग-इसमें आनन्द कामदेव आदि 10 श्रावकों के चरित्र हैं / अध्ययन 10, मूल श्लोक 812, टीका अभयदेवसूरि की 900 श्लोक प्रमाण, और कुल संख्या 1712 है। 8 अंतगडदशांग-इसमें महावीर भगवान् के जो खास खास मुनि मोक्ष गये हैं उनका वर्णन है। इसके अध्ययन९०, मूल श्लोक' 900, टीका अभयदेवमरि की श्लोक 300 की है। कुल श्लोक 1200 / 9 अणुत्तरोक्वाई-इसमें जो मुनि अनुत्तर विमान में गये हैं उनका वर्णन है / इसके अध्ययन 33, श्लोक 192, टीका अभयदेव सूरि की श्लोक 100 / कुल श्लोक 292 / . 10 प्रश्न व्याकरण-इसमें आश्रव और संवर का वर्णन है। अध्ययन 10, श्लोक 1250, टीका अभयदेवकी श्लोक 4600 / कुल संख्या 5850 / 1 ताडपत्रीय सूची में मूल श्लोक 790 बताये हैं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 5 विविधि विचार 11 विपाकसूत्र-इसमें सुख दुःख या कर्मफल भुगतने संबंधी अधिकार है, इसके अध्ययन 20, श्लोक 1216, अभयदेवसूरिटीका श्लोक 900, सर्व श्लोक 2116, हैं। कुल ग्यारह अंग की मूल संख्या 35659 तथा टीका 73544, चूर्णि 22700, नियुक्ति 700, मिल कर 132603 श्लोक हैं', इसमें आचारांग और सुयगडांग की टीका शीलांगाचार्य कृत है, बाकी नव अंग की टीकायें अभयदेवसूरि कृत हैं / इसी लिये इनका नाम 'नवांगवृत्तिकार अभयदेवसूरि' जैनसंघ में मशहूर है। 12 बारह उपांग सूत्र. 1 उववाइ सूत्र-इसमें कोणिक राजा महावीर स्वामी के दर्शनार्थ गया उसका वर्णन है, तथा स्वर्ग में कौन कहां उत्पन्न हो सकता है उसका निरूपण है। यह आचारांग प्रतिबद्ध उपांग है / मूल संख्या 1200, अभयदेव टीका श्लोक 3125, और कुल संख्या 4325 श्लोक हैं। 2 रायप्पसेणीय-पार्श्वनाथ संतानीय केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी राजा को नास्तिक मत छुडाकर आस्तिक धर्म में लाया उसका तथा वही प्रदेशी गुजर कर सूर्याभ देव होकर वापस 1 ताडपत्रीय सूची में अंगों की श्लोक संख्या 132486 लिखी है। 2 ताडपत्रीय सूची में सूत्र श्लोक संख्या 1167 और सर्व संख्या 4292 लिखी है / Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 119 महावीर प्रभु के पास वंदन को आया उसका वर्णन है / यह सुयगडांगप्रतिबद्ध है। मूल श्लोक 2078, मलयगिरि टीका श्लोक 3700 कुल संख्या 5778 है। ___3 जीवाभिगम-इसमें जीव अजीव संबंधी वर्णन है। यह ठाणांगप्रतिबद्ध है। मूल श्लोक 4700, मलयगिरि टीका 14000, लघुवृत्ति 11000, चूर्णि 1500 और सर्व संख्या 31200 है। ___4 पन्नवणा-इसमें जैन मान्य अनेक विषयों का वर्णन है। यह समवायांगप्रतिबद्ध है। मूल श्लोक' 7787, मलयगिरिटीका 16000, हरिभद्रकृत लघुवृत्ति 3728 और सर्व संख्या 27515 / 5 जंबूद्वीप पन्नत्ति-इसमें जंबूद्वीप का भूगोल वर्णन है। यह भगवतीप्रतिबद्ध है। मूल श्लोक 4146, मलयगिरिटीका 12000, चूर्णि 1860, कुल संख्या 18006 / ताडपत्रीय सूची में टीका का उल्लेख नहीं है। - 6 चंदपन्नत्ति-इसमें चंद्र की गति तथा ग्रह नक्षत्रों का वर्णन है, यह ज्ञाताप्रतिबद्ध है। मूल श्लोक 2200, मलयगिरि टीका 9411, लघुवृत्ति 1000, कुल संख्या 12611 / 7 सूर्य पन्नर्ति-इसमें सूर्य आदि ग्रहों का ही वर्णन है। 1 ताडपत्रीय सूचीमें मूल 7000 और वृत्ति (टीका) 15000 श्लोकप्रमाण लिखी है / सर्व संख्या 25728 लिखी है। ___2 ताडपत्रीय सूची में चंद्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति का मूल 4400, वृत्ति 9000 और सर्व संख्या 13400 श्लोक बताया है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1205 विविध विचार यह भी ज्ञाताप्रतिबद्ध है। मूल श्लोक 2200, मलयगिरिटीका 9000, चूर्णि 1000, कुल संख्या 12200 / '' 8 कप्पिया-इसमें 10 राजकुमार अपने ओरमान भाई राजा कोणिक के साथ मिलकर अपने नाना वैशाली नगरी के राजा चेटक (चेडा) के सामने युद्ध में उतरे, वहां दशों मारे गये, मर कर नरक में गये इत्यादि वर्णन है / इसके अध्ययन ___9 कप्पवडंसिया-इसमें राजा श्रेणिक के पोते राजकुमारों ने दीक्षा ली और जुदे जुदे स्वर्गों में गये उसका वर्णन है। इसके अध्ययन 12 हैं। 10 पुफिया-इसमें जिन देवताओं ने महावीर की पूजा की उनके पूर्व जन्म का वर्णन है / इसके अध्ययन 10 हैं। 11 पुप्फचूलिया-इसमें भी ऊपर जैसी ही कथायें हैं। इसके अध्ययन 10 हैं। 12 वन्हिदसा-इसमें नेमिनाथ ने 10 यदुवंशी राजाओं को प्रतिबोध देकर जैन बनाया उसका वर्णन है। इसके अ. ध्ययन 10 हैं। ___ उपर्युक्त पांचों उपांगों का समुदित नाम 'निरयावली' है। इनकी अध्ययन संख्या 52 है / वे यथाक्रम उपासकदशां. गादिक पांच अंगप्रतिबद्ध हैं। इन पांचों की मिल कर श्लोक संख्या 1109 है इन पांचों की वृत्ति चंद्रहरि कृत 700 श्लोक कुल संख्या 1809 है। इन 12 उपांगों की मूल सं Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह ख्या 25420; टीका 67936, लघुटीका 6828, चूर्णि 3361 कुल संख्या 103544 है। 10 पयन्ना 1 चउसरण पयन्नो-अरिहंत, सिद्ध, साधु, केवली भाषित धर्म, इन चार शरणों का अधिकार है। गाथा 63 हैं। 2 आउरपच्चक्खाण-अंत समय में अभिग्रह पञ्चक्वाण आदि कराने का अधिकार है / गाथा 84 / 3 भक्तपरिज्ञा-इसमें आहार पानी त्याग करने संबंधी अभिग्रह की विधि है / गाथा 172 हैं। 4 संथारगपयन्नो-इसमें अंत समये संथारा लेने का अधिकार या जिन्होंने संथारा लिया है उनका वर्णन है / गाथा 122 हैं। 5 तंदुलवेयाली पयन्नो-गाथा 400, इसमें गर्भ में जीवकी उत्पत्ति कैसे होती है इत्यादि वर्णन है। . 6 चंदाविज्जगपइन्नो-गाथा 310, इसमें गुरुशिष्य के गुण प्रयत्न विगैरह का वर्णन है / 7 देविंदत्थओ पइन्नय—इस में स्वर्ग के इंद्रों की गिनती है। गाथा 200 हैं। 1 ताडपत्रीय सूची में बारह उपांगों की सर्व श्लोक संख्या केवल 90013 निनानवे हजार तेरह लिखी है। - 2 ताडपत्रीय सूची में गाथा 170 बताई है। 3 ताडपत्रीय सूची में गाथा 120 बताई है / Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 5 विविध विचार 8 गणिविज्जा पइन्नय-इस में ज्योतिष की चर्चा है। गाथा 100 हैं। 9 महापच्चक्खाण--इस में आराधना का अधिकार है। गाथा 134 / . 10 मरणसमाधि--अंत समय में शांतिपूर्वक मरण होना चाहिये, उस का वर्णन है / गाथा 720 / इन 10 पइन्नों की गाथायें 2305 हुई हर एक को एक एक अध्ययन समझना चाहिये। 6 छेद सूत्र 'छेद सूत्रों' का मतलब है 'दंडनीति शास्त्र' / जैसे राज्य व्यवस्था के लिये कानून ग्रंथ होते हैं उसी तरह साधुओं को कोई दोष अपराध लगे उस का दंड प्रायश्चित्त विधान करने वाले 'छेदसूत्र' हैं / साधु समाज की व्यवस्था के लिये ये ही धर्मकानून ग्रंथ हैं / इन के मुताबिक चलने से साधुओं का संघ शासन व्यवस्थित रीति से चलता रहता है। 1 निशीथ-~-उद्देशक 20,. मूल पुरानी सूची में 815 श्लोक हैं / इस का लघुभाष्य 7400 श्लोक, चूर्णि 28000 श्लोक और बड़ा भाष्य 12000 श्लोक हैं / कुल संख्या 48215 है। 2 महानिशीथ--अध्ययन 13, मूल श्लोक 4500 हैं मतांतरे इस की तीन वाचनायें हैं--१ लघुवाचना श्लोक 1 ताडपत्रीय सूची में इस भाष्य का उल्लेख नहीं है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 123 4200, 2 मध्यम वाचना श्लोक 4500, 3 बडी वाचना श्लोक.११८०० है'। ___3 बृहत्कल्प--उद्देशक 24, मूल श्लोक 473, इस की वृत्ति संख्या 1332 की साल में बृहच्छाखीय श्रीक्षेमकीर्ति सूरिकृत 42000 श्लोक हैं, भाष्य१२०००, लघुभाष्य 8000, चूर्णि 14325, कुल संख्या 76798 है। 4 व्यवहार--उद्देशक 10, मूल श्लोक 600, मलयगिरि टीका श्लोक 33625, चूर्णि 10361, भाष्य 6000, कुल संख्या 50586 है। पंचकल्प-अधिकार 16, मूल श्लोक 1133, चूर्णि 2130, भाष्य 3125, कुल 6388 और इस में गाथा संग्रह 1 ताडपत्रीय सूची में महानिशीथ की तीन वाचनाओं के श्लोक क्रमशः 3400, 4200 और 4500 लिखे हैं। . 2 ताडपत्रीय सूची में मूल 473, भाष्य 8000, सामान्य चूणि 14000, विशेष चूर्णि 10000, बृहदभाष्य 13000 और सर्वसंख्या 45473 श्लोक की लिखी है। . . 3 ताडपत्रीय सूची में सूत्र 373, भाष्य 6000, चूर्णि 10361, वृत्ति 33000 और सर्वसंख्या 49734 श्लोक लिखा है। . 4 ताडपत्रीय सूची में मूल के स्थान नियुक्ति शब्द है। चूणि की 3131, भाप्यकी 3130 और सर्व संख्या 7394 - श्लोक प्रमाण लिखी है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 5 विविध विचार ___5 दशाश्रुतस्कंध-जिस का 8 वां अध्ययन कल्पसूत्र है, मूल श्लोक 1835, चूणि 2245, नियुक्ति 168 श्लोक, कुल 4248 / 6 जीतकल्प (१)-मूल 108, टीका 12000, तथा सेनकृत चूर्णि 1000 श्लोक, भाष्य 3124, कुल 16232 श्लोक हैं / इस की चूर्णि का व्याख्यान 1120 है। लघु वृत्ति श्री साधुरत्नकृत श्लोक 5700, तथा तिलकाचार्यकृत वृत्ति 1500 श्लोक हैं। 6 साधु जीतकल्प (२)-मूल श्लोक 375, वृत्ति धर्मघोषसूरि कृत 2650 / 4 मूल सूत्र 1 आवश्यक सूत्र (१)-मूल 125 गाथा, टीका हरिभद्रसूरि कृत 22000, नियुक्ति भद्रबाहुकृत 3100, चूर्णि 18000, तथा दूसरी आवश्यकवृत्ति(चतुर्विंशति स्तव)२२००० है, इस की लघुवृत्ति तिलकाचार्य कृत 12321 श्लोक, अञ्चलगच्छाचार्य कृत दीपिका 12000, भाष्य 4000, आवश्यक टिप्पण मलधारी हेमचंद्रसूरि कृत 4600, सर्व मिलाते 98146 2 ताडपत्रीय सूची में मूल 1830 चूणि 2225 और सर्वसंख्या 4223 श्लोक लिखी है। 3 ताडपत्रीय सूची में जीतकल्प मूल के 108 श्लोकों का उल्लेख नहीं है। वहां सर्व संख्या 16124 है। 3 ताडपत्रीय सूची में मूल के 100 एक सौ श्लोक कहे है / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 125 श्लोक, तथा नियुक्ति की टीका 22500 हरिभद्रकृत है। ताडपत्रीय सूची में विशेषावश्यकभाष्य पाक्षिक सूत्र और इन की टीका आदि मिला कर आवश्यकसूत्र का श्लोक प्रमाण 128650 लिखा है। विशेषावश्यक भाष्य (२)-यह सूत्र आवश्यक का विशेष भाष्य है / मूल भाष्य 5000 जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणकृत है / लघुवृत्ति 14000 श्लोक की ग्रंथ के अंत में कोटयाचार्यकृत लिखी है और सूची में द्रोणाचार्य का नाम लिखा है। बडी वृत्ति मल्लधारी हेमचंद्र कृत 28000 श्लोक प्रमाण है। पक्खीसूत्र (३)-मूल श्लोक 360, टीका संख्या 1180 में यशोदेवमूरिने की है जिस के श्लोक 2700 हैं, चूर्णि 400 श्लोक हैं। ___ यतिप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति (४)--श्लोक 600 है। : 2 दशवैकालिक-इस में साधु जीवन के नियम लिखे हैं। यह शय्यंभवसरिकृत है। मूल श्लोक 700 (750) / अध्ययन 10 / वृत्ति तिलकाचार्यकृत श्लोक 7000 / दूसरी वृत्ति हरिभद्रसरिकृत श्लोक 6810, तथा मलयगिरिकृत वृत्ति श्लोक 7700 / चूर्णि 7500 / लघुवृत्ति 3700 / नियुक्ति गाथा 450 / लघुटीका सोमसुंदरसूरि कृत 4200 / दूसरी टीका उपाध्याय 1 ताडपत्रीय सूची में पाक्षिक सूत्र श्लोक 300 और बृत्ति 3000 श्लोक की लिखी है / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 5 विविध विचार समयसुंदरकृत श्लोक 2600 / ' 3 पिंडनियुक्ति (१)-भद्रबाहुकृत / इस में साधुओं के लिये शुद्ध आहार पानी लेने का अधिकार बताया हैं। मूल श्लोक 700, टीका मलयगिरिकृत श्लोक 7000, किसी जगह 6600 भी है, टीका सं. 1160 वीरगणिकृत श्लोक 7500, लघुवृत्ति महासूरिकृत श्लोक 400, कुल संख्या 15600 है।' 3 ओपनियुक्ति (२)-इस में साधुसंबन्धी उपकरणोंका परिमाण विगैरहका अधिकार है / यह भद्रबाहुकृत है / मूल गाथा 1170, श्लोक 1450, टीका द्रोणाचार्यकृत श्लोक 7000, भाष्य श्लोक 300 चूर्णि 7000, कुल 18450 है। 4 उत्तराध्ययन-अध्ययन 36 / इस में साधुओं को संयम मार्ग में दृढ रखने के लिये उपदेश के रूप में अनेक दृष्टांत संवाद आदि दिये गये हैं। मूल 2000, बडी वृत्ति वादिवेताल शांतिसूरिकृतं 18000 तथा अन्यत्र 17645 भी है / लघुवृत्ति सं. 1129 में श्रीनेमिचंद्रसूरि कृत श्लोक 1 ताडपत्रीय सूची में दशवैकालिक मूल 700 नियुक्ति 400 लघुवृत्ति 2500 बृहद्वृत्ति 7000 चूर्णि 7000 और सर्व संख्या 17600 श्लोकप्रमाण लिखी है। 2 ताडपत्रीय सूचीमें पिंडनियुक्ति मूल 700, लघुवृत्ति 2800, बृहदवृत्ति 7000, मलयगिरिवृत्ति 7000 और सर्व संख्या 17500 श्लोक लिखा है। 3 ताडपत्रीय सूचीमें ओघनियुक्ति मूल 1000, वृत्ति 7000, चूणि 7000 श्लोक प्रमाण लिखा है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 127 13600, नियुक्ति भद्रबाहुकृत गाथा 607 श्लोक 700 चूर्णि-६०००, कुल 40300 है।' 2 चूलिकासूत्र 1 नंदीसूत्र-इस में पंचज्ञानका पूरे तौर से वर्णन किया है। देवर्धिगणिक्षमाश्रमणकृत है। मूल श्लोक 700, वृत्ति मलयगिरिकृत श्लोक 7735, चूर्णि. सं. 733 में की हुई 2000 श्लोक, लघुटीका हरिभद्रकी श्लोक 2312, कुल 12747 / तथा टिप्पण श्रीचंद्रसूरिकृत 3000 श्लोक प्रमाण है। 2 अनुयोगद्वार-इस में नय निक्षेपोंकी चर्चा और सिद्धि की गई है। यह द्रव्यानुयोग का ही ग्रंथ है। मूलगाथा 1600 श्लोक 1800, वृत्ति मलधारी हेमचंद्रसूरिकृत 6000 है / चूर्णि जिनदासगणि महत्तर की श्लोक 3000, हरिभद्रकृत लघुवृत्ति 3500, कुल संख्या 14300 है।' ___ इस मुजब 11 अंग, 12 उपांग, 10 पइन्ना, 6 छेदसूत्र 4 मूलग्रन्थ, 1 नंदी और 2 अनुयोगद्वार ये सब मिलकर 45 आगम सूत्र हाल में मौजूद हैं। 1 ताडपत्रीय सूचीमें उत्तराध्ययनसूत्र 2000, नियुक्ति 500, चर्णि 6000, लघवृत्ति 6000, द्वितीयलघवृत्ति 12000 बृहद्वृत्ति 17645 सर्वसंख्या 44145 श्लोक बताये है / ___2 ताडपत्रीय सूचीमें नंदीसूत्र 700, चूणि 2042, लघुवृत्ति 2312, बृहद्वृत्ति 7000 सर्व 12054 श्लोक कहे हैं / . 3 ताडपत्रीय सूची में अनुयोगद्वार सूत्र 1899, चूर्णि 6000, लघुवृत्ति 3005, बृहदुवृत्ति 7000 श्लोक प्रमाण लिखा है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 5 विविध विचार . इन में आवश्यक, आचारांग, सुयगडांग, दशवैकालिक उत्तराध्ययन तथा कल्पसूत्र इन छ की नियुक्ति भद्रबाहु की बनाई हुई मिलती हैं / निशीथभाष्य, बृहत्कल्पका लघुभाष्य तथा बडाभाष्य, व्यवहारभाष्य, जीतकल्पभाष्य, पंचकल्पभाष्य और ओपनियुक्तिभाष्य ये 7 भाष्य पुराने आचार्यों के बनाये हुए हैं। ____ आचारांग, सुयगडांग, भगवती, जंबूद्वीपपन्नत्ति, आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, पक्खीसूत्र, अनुयोगद्वार, नंदी, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध, पंचकल्प और जीतकल्प इन 13 सूत्रों की चूर्णियां प्राचीन आचार्योंने बनाई हैं। (2) 63 शलाका पुरुष विचार 24 तीर्थकर तीर्थकरनाम शरीरमान . आयुर्मान 1 ऋषभदेव 500 धनुष 84 लाख पूर्व 2 अजितनाथ 450 धनुष 72 लाख पूर्व 3 संभवनाथ 400 धनुष 60 लाख पूर्व 4 अभिनंदन 350 धनुष 50 लाख पूर्व 5 सुमतिनाथ 300 धनुष 40 लाख पूर्व 6 पद्मप्रभ 250 धनुष 30 लाख पूर्व 7 सुपार्श्वनाथ 200 धनुष 20 लाख पूर्व 8 चंद्रप्रभ 150 धनुष 10 लाख पूर्व Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 129 9 सुविधिनाथ 100 धनुष 2 लाख पूर्व 10 शीतलनाथ 90 धनुष 1 लाख पूर्व 11 श्रेयांसनाथ 8. धनुष 84 लाख वर्ष 12 वासुपूज्य 70 धनुष 72 लाख वर्ष 13 विमलनाथ 60 धनुष 60 लाख वर्ष 14 अनंतनाथ 50 धनुष 30 लाख वर्ष 15 धर्मनाथ 45 धनुष 10 लाख वर्ष 16 शांतिनाथ 40 धनुष 1 लाख वर्ष 17 कुंथुनाथ 35 धनुष 95 हजार वर्ष 18 अरनाथ * 30 धनुष 84 हजार वर्ष 19 मल्लिनाथ 25 धनुष 55 हजार वर्ष 20 मुनिसुव्रत 20 धनुष 30 हजार वर्ष 21 नमिनाथ , 15 धनुष 10 हजार वर्ष 22 नेमिनाथ 10 धनुष 1 हजार वर्ष .: 23 पार्श्वनाथ . 9 हाथ 100 वर्ष 24 महावीर 7 हाथ . 72 वर्ष 12 चक्रवर्ती नाम गति होने का समय / 1 भरतचक्रवर्ती मोक्ष ऋषभदेव के समय में। 2 सगर - मोक्ष अजितनाथ के समय में / 3 मघवा तीसरा स्वर्ग 15 वां जिनके पीछे / 4 सनत्कुमार , स्वर्ग 16 वा जिन के आगे। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 130 5 विविध विचार ... 5 शांतिनाथ मोक्ष 16 वां खुद तीर्थकर ही चक्री 6 कुंथुनाथ मोक्ष 17 वां जिन खुद चक्री 7 अरनाथ मोक्ष 18 वां जिन खुद ,, 8 सुभूम नरक 18 वां जिन पीछे 19 के पहले 9 महापद्म मोक्ष 20 वां जिन के समय में / 10 हरिषेण मोक्ष नमिनाथ के समय में / 11 जयनामा मोक्ष. 21 के और 22 के बीच में। 12 ब्रह्मदत्त नरक 22 पीछे 23 के पहले। 9 वासुदेव नाम गति होने का समय / 1 त्रिपृष्ठवासुदेव नरक 11 वां जिन के समय में। 2 द्विपृष्ठवासुदेव नरक 12 वां जिनके समय में / 3 स्वयंभू नरक 13 वां जिन के समय में / 4 पुरुषोत्तम नरक 14 वां जिन के समय में / 5 पुरुषसिंह नरक 15 वां जिन के समय में / 6 पुरुषपुंडरीक नरक 18 पीछे 19 के पहले। 7 दत्त नरक 18 पीछे 19 पहले। 8 लक्ष्मण नरक 20 पीछे 21 के पहले / 9 कृष्ण नरक 22 वां के समय में / 9 प्रतिवासुदेव 1 अश्वग्रीव / 2 तारक / 3 मोरक / 4. मधु / 5 निशुंभ 6 बली / 7 प्रल्हाद / 8 रावण और 9 जरासंध / क्रमशः Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 131 ये नव प्रतिवासुदेव पूर्वोक्त नव वासुदेवों के समकालीन हैं। इन सी की भी गति नरक है। 9 बलदेव गति मोक्ष नाम 1 अचल 2 विजय 3 भद्र 4 सुप्रभ 5 सुदर्शन 6 आनंद मोक्ष 7 नंदन 8 रामचंद्र 9 बलराम स्वर्ग ये नव ही बलदेव नव वासुदेवों के भाई होने से वासुदेवों का समय ही इनका यथा क्रम समय है / . इन 63 पुरुषों के पिता 51 माता 61 और जीव 59 होते हैं इसका समन्वय यह है कि 9 वासुदेव और 9 बलदेव के पिता जुदे नहीं बल्के एक हैं जिस से 9 कम हुए, तथा शांतिनाथ कुंथुनाथ और अरनाथ ये तीनों तीर्थंकर हैं और पक्रवर्ती भी हैं इस से भी तीन कम हुए / पूर्वोक्त 9 और 3 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 5 विविध विचार मिलाने पर 12 हुए, 63 में से 12 कम किये तो शेष 51 पिता रहते हैं। माता के विषय में भी शांति कुंथु अर ये तीनों भगवान् हैं और चक्रवर्ती भी हैं जिससे इन की माता 3 हुई तथा महावीर स्वामी की माता देवानंदा और त्रिशला दो हैं बाकी सब पुरुषों की मातायें भिन्न भिन्न हैं इस लिये सब को मिलाने पर मातायें 61 होती हैं। इसी तरह जीव के विषय में भी शांति कुंथु अर ये तीनों तीर्थंकर और चक्रवर्ती भी हैं इस लिये इन में से तीन जीव कम हुए, त्रिपृष्ट वासुदेव का और महावीर स्वामी का जीव एक है शेष सब पुरुषों के जीव भिन्न हैं उक्त 4 जीव 63 में से कम करने पर जीव संख्या 59 होती है। 1 यहां पर महावीर स्वामी के दो पिता (ऋषभदत्त और सिद्धार्थ) गिनने से पिताकी संख्या 52 भी होती है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 133 52 बोल का नकशा. खुलासा. जो कि 24 तीर्थकर विषयक 52 बोल का नकशा समझना कुछ भी मुश्किल नहीं है, तो भी बिलकुल अनजान मनुष्यों के लिये कुछ खुलासा लिख देना जरूरी है। ५२बोलका अर्थ है तीर्थकरके साथ संबन्ध रखनेवाली५२बातें कोई जानना चाहे कि कौन तीर्थकर किस तिथि में किस स्वर्ग से च्युत हो कर माता की कुख में आये ? किस नगरी में किस दिन उनका जन्म हुआ ? उनके पिता और माता के नाम क्या थे? उनका जन्म नक्षत्र और जन्मराशि क्या है ? उनकी जांघ में चिह्न क्या था ? उनके शरीर की उंचाइ कितनी थी ? आयुष्य कितना था ? शरीर का वर्ण कैसा था ? गृहस्थाश्रम में किस पद पर थे? विवाह किया था या नहीं ? कितने पुरुषों के साथ गृहत्याग किया ? किस नगरी में दीक्षा ली थी ? इत्यादि कुल 52 बातों का खुलासा उनके नामके आगे के 52 कोठों में देखने से मिलेगा / जिस तीर्थंकर के विषय में उक्त बातों का खुलासा देखना हो उसके आगे के कोठे देखने चाहिये / उदाहरण-कोई यह जानना चाहे कि भगवान ऋषभदेवके 'गणधर' कितने थे? तो उसे ऋषभदेव के नाम के आगे का २७वा कोठा देखना चाहिये, ताकि ज्ञात हो जायगा कि ऋषभदेव के 'गणधर' 84 थे। इसी तरह सब बातें देखनी चाहिये। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 तीर्थकर 1 ऋषभदेव 2 अजितनाथ 3 संभवनाथ 4 अभिनंदन .5 सुमतिनाथ 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15 धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 17 कुंथुनाथ 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुव्रत 21 नमिनाथ 22 नेमिनाथ 23 पाश्वनाथ 24 महावीर 5 विविध विचार 1 च्यवनतिथि 2 विमान आषाढ वदि 4 सर्वार्थ सिद्ध वैशाख सुदि 13 . विजय विमान फागुण सुदि 8 सातवां ग्रैवेयक वैशाख शु. 4. जयंत विमान श्रावण शु. 2 माघवदि 6 9 वां ग्रैवेयक भाद्रवा वदि 8 छट्ठा ग्रैवेयक चैत्र वदि 5 विजयंत फागुण वदि 9. आनत देवलोक वैशाख व. 6 . . प्राणत देवलोक जेठ व. 6 अच्युत जेठ शु. 1 प्राणत वैशाख शु. 12 सहस्रार देवलोक श्रावण व. 7 प्राणत देवलोक वैशाख शु. 7 विजयविमान भाद्रवा व. 7 सर्वार्थसिद्ध श्रावण व.९ फागुण शु. 2 फागुण शु. 4 श्रावण शु. 15 अपराजित आसोज शु. 15 प्राणत स्वर्ग कार्तिक व. 12 अपराजित चैत्र व.४ प्राणत स्वर्ग आषाढ शु. 6 प्राणत स्वर्ग जयंत Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 4 जन्मतिथि 3 जन्मनगरी 5 पिता इक्ष्वाकुभूमि अयोध्या सावत्थी अयोध्या कौशांबी बनारस चंद्रपुरी काकंदी भदिलपुर सिंहपुरी चंपापुरी काम्पिल्यपुर अयोध्या रत्नपुरी गजपुर विष्णु चैत्र वदि 8 नाभिकुलकर माघ सुदि 8 जितशत्रु मृगसिर शु. 14 जितारि माघ शु. 2 संवर राजा चैशाख शु. 8 मेघराजा कार्तिक वदि 12 घर राजा जेठ शु. 12 प्रतिष्ट राजा पोष वदि 12 . . महासेन मृगशिर वदि 5 सुग्रीव माघ व. 12 . दृढरथ 'फागुण व. 12 फागुण व. 14 चसुपूज्य माघ शु. 3 कृतवर्मा वैशाख व.३ सिंहसेन माघ शु. 3 . भानुराजा जेठ व. 13 / विश्वसेन वैशाख व.१४ शूरराजा मृगशिर शु० 10 सुदर्शन . मृगशिर शु. 11. कुंभराजा जेठ व. 8 सुमित्र श्रावण व. 8 विजय राजा श्रावण शु.५ समुद्रविजय पोष व. 10 अश्वसेन चैत्र शु.१३ सिद्धार्थराजा मिथिला राजगृह मिथिला सौरिपुर बनारस क्षत्रियकुंड Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -- 5 विविध विचार . 6 माता 7 जन्मनक्षत्र मरुदेवी विजया सेना . सिद्धार्था मंगला सुसीमा : पृथिबी लक्ष्मणा रामाराणी 136 .. तीर्थकर / 1 ऋषभदेव : 2 अजितनाथ . 3 संभवनाथ 4 अभिनंदन 5 सुमतिनाथ, 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15 धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 17 कुंथुनाथ.. 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुव्रत 21 नमिनाथ 22 नेमिनाथ : 23 पार्श्वनाथ . 24 महावीर उत्तराषांढा रोहिणी मृगशिरा पुनर्वसु. मघा . चित्रा विशाखा अनुराधा मूल पूर्वाषाढा श्रवण शतभिषा उत्तराभाद्रपद रेवती पुष्य नंदा विष्णु जया श्यामा सुयशा सुव्रता अचिरा श्रीराणी देवी प्रभावती पद्मावती भरणी कृत्तिका रेवती अश्विनी श्रवण अश्विनी चित्रा विशाखा उत्तराषाढा विप्रा शिवादेवी वामा त्रिशला Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह '8 जन्मराशि .. 9 लांछन 10 शरीरमान धन . 500 धनुष वृष 450 , मिथुन 400 मिथुन 350 सिंह वृषभ (बैल) हाथी घोडा मर्कट (वानर) क्रौंच (कुंकडा) कमल स्वस्तिक चंद्रमा मगरमच्छ श्रीवत्स 300 ع م 150 कन्या तुला वृश्चिक धन धन मकर कुंभ गेंडा भंसा. वराह (सूअर) सिंचाणा (बाज) वज्र हिरण बकरा . नंद्यावर्त कलश काचबा (कच्छप) नीलकमल शंख 392MME429 मकर मेष कन्या सर्प कन्या सिंह Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 तीर्थकर 5 विविध विचार 11 आयुर्मान 84 लाख पूर्व 12 शरीरवर्ण पीलावर्ण पीला 72 60 " " 20 " लाल पीला सफेद 84 लाख वर्ष 1 ऋषभदेव 2 अजितनाथ 3 संभवनाथ 4 अभिनंदन 5 सुमतिनाथ 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15 धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 17 कुंथुनाथ 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुव्रत 21 नमिनाथ 22 नेमिनाथ 23 पार्श्वनाथ 24 महावीर 3 3 3 3 . . . . . . . . . . . . . 3 वर्ष . 95000 84000 वर्ष 55000 30000 वर्ष 10000 वर्ष 1000 नीला श्याम पीला 100 श्याम नीला पीला क Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 139 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 14 विवाह १५साथ दीक्षा 13 पदवी. राजपदवी परणे 4000 साथ 1000 " राजा : " . ". " कुमार राजा चक्रवर्ती :::::: कुमार राजा नहीं परणे परणे नहीं परणे कुमार पदवी - कुमार पदवी 300 अकेला, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 . तीर्थकर . 5 विविध विचार - . 16 दीक्षानगरी अयोध्या 17 दीक्षातप 2. उपवास " " सावत्थी अयोध्या एकाशन 2 उपवास ". ".. . 1 ऋषभदेव 2 अजितनाथ 3 संभवनाथ 4 अभिनंदन 5 सुमतिनाथ 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15 धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 17 कुंथुनाथ 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुव्रत 21 नमिनाथ 22 नेमिनाथ 23 पार्श्वनाथ 24 महावीर कौशांबी बनारस चंद्रपुरी काकंदी भदिलपुर सिंहपुरी चंपापुरी कंपिलपुर अयोध्या रत्नपुरी गजपुर " ". . 3 उपवास 2 उपवास मिथिला राजगृह मिथिला द्वारिका बनारस क्षत्रियकुंड " " 3 उपवास 2 उपवास Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 141 18 प्रथमआहार 19 पारणा स्थान २०कितने दिनका पारणा सेलडीरस खीर 1 वर्ष बाद 2 दिन बाद श्रेयांस के घर ब्रह्मदत्त के घर सुरेन्द्रदत्त के घर इन्द्रदत्त के घर पद्म के घर सोमदेव के घर माहेन्द्र के घर . सोमदत्त के घर पुष्य के घर पुनर्वसु के घर नंद के.घर सुनंद के घर * जय राजा के घर विजयराजा के घर धर्मसिंह के घर सुमित्र के घर व्याघ्रसिंह के घर अपराजित के घर विश्वसेन के घर ब्रह्मदत्त के घर दिन्नकुमार के घर वरदिन्न के घर धन्य के घर बहुल ब्राह्मण के घर - , Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 तीर्थकर 5 विविध विचार 21 दीक्षातिथि 22 छद्मस्थकाल 1 ऋषभदेव 2 अजितनाथ 3 संभवनाथ 4 अभिनंदन 5 सुमतिनाथ 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15 धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 17 कुंथुनाथ 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुव्रत 21 नमिनाथ 22 नेमिनाथ 23 पार्श्वनाथ 24 महावीर चैत्र वदि 8. 1000 वर्ष माघ सुदि 9 . 12 वर्षे मृगशिर शु. 15 14 वर्ष माघ शु. 12 18 वर्ष वैशाख शु. 9 20 वर्ष कार्तिक वदि 13 6 मास जेठ शु. 13 . 9 मास पोष वदि 13 - 3 मास मृगशिर वदि 6 4 मास माघ व. 12 3 मास माघ व, अमावस 2 मास फा. व. अमावस' 1 मास माघ शु. 4 2 मास वैशाख व. 14 3 वर्ष मा. शु. 13 .2 वर्ष जेठ व. 14 . 1 वर्ष वैशाख व. 5 16 वर्ष मृगशिर शु. 11 3 वर्ष ,, , 11 1 अहोरात्र फागुण शु. 12 11 मास आषाढ व. 9 9 मास श्रावण शु. 6 54 दिन . पोष व.११ 84 दिन मृगशिर व. 10 12 // वर्ष 15 दिन Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 143 23 केवलज्ञाननंगरी 24 केवलज्ञानतप 25 दीक्षावृक्ष प्रियंगु तंदुक पुरिमताल 3 उपवास वट अयोध्या 2 उपवास साल सावत्थी प्रियाल अयोध्या प्रियंगु साल कौशांबी छत्र बनारस शिरीष चंद्रपुरी नाग काकंदी साल भद्दिलपुर सिंहपुरी चंपानगरी 1 उपवास पाडल कंपिलपुर 2 उपवास जंबू अयोध्या अशोक रत्नपुरी दधिपर्ण गजपुर भीलक आम्र मिथिला 3 उपवास अशोक राजगृह 2 उपवास चंपक मिथिला . गिरिनार 3 उपवास वेतस बनारस धातकी जुवालिका नदी 2 उपवास साल 1 कहीं अशोकवृक्ष लिखा है, और 'सप्ततिशत स्थानक' " नंदी बकुल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 5 विविध विचार 26 ज्ञानतिथि ..... 27 गणधर तीर्थकर 1 ऋषभदेव फागुण वदि 11 - 84 गणधर 2 अजितनाथ पौष शु. 11. 3 संभवनाथ कार्तिक वदि 5 4 अभिनंदन पोष शु. 14 5 सुमतिनाथ चैत्र शु..११ 100 , 6 पद्मप्रभ चैत्र शु. 15 7 सुपार्श्वनाथ * फागुण वदि 6 8 चंद्रप्रभ फागुण व. 7.. 9 सुविधिनाथ कार्तिक शु. 3 . 10 शीतलनाथ पो. व. 14 11 श्रेयांसनाथ माघ व. 30 12 वासुपूज्य माघ शु. 2, 13 विमलनाथ - पो० शु. 6 14 अनंतनाथ वैशाख व. 14 15 धर्मनाथ पोष शु. 15 16 शांतिनाथ पोष शु. 9 17 कुंथुनाथ चैत्र शु. 3 . 18 अरनाम कार्तिक शु. 12 19 मल्लिनाथ मृगशिर शु. 11 20 मुनिसुव्रत फागुण व. 12 21 नमिनाथ मृगशिर शु. 11 22 नेमिनाथ आसोज व.३० 11 . ,, 23 पार्श्वनाथ चैत्र व. 4 24 महावीर वैशाख शु. 10 .. 11 , ग्रन्थ में तो 24 तीर्थकरों का ही दीक्षावृक्ष अशोक लिखा है. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 29 साध्वी 28 साधु 30 वैक्रिय लब्धि 20600 20400 84000 300000 100000 330000 200000 336000 300000 630000 320000 .. 530000 330000 420000 300000 430000 .. . .. 250000 380000 200000 120000 म० 380000 100000 100006 म० 380000 / 84000 103000 म० 120000 72000 100000 म० 106000 68000 . 100800 म० 103000 66000 .62000 म० 100800 : 64000 62400 .. 62000 61600 . 60000 60600 50000 60000 40000 55000 30000 50000. 41000 18001 40000 16000 38000 14000 36000 ।१-'म' का तात्पर्य मतान्तर से है, 29000 18400 96000 15300 14000 13000 12000 11000 10000 9000 .8000 7000 6000 5100 7300 2900 2000 5000 20000 1500 700 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 विविध विचार 31 वादि तीर्थकर .. 32 अवधिज्ञानी 1 ऋषभदेव 2 अजितनाथ 3 संभवनाथ 4 अभिनंदन 5 सुमतिनाथ 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15 धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 27 कुंथुनाथ 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुव्रत 21 नमिनाथ 22 नेमिनाथ 23 पार्श्वनाथ 24 महावीर . 12650 म० 12250 . 12400 12000 11000 10450 म० 10650 9600 8400 7600 6000 5800 5000 4700 म०४२००' 3600 3200 2800 2400 2000 1600 1400 1200 1000 800 600 400 .9000 9400 9600 9800 11000 10000 9000 8000 8400. 7200 6000 5400 4800 4300 3600 3000 2500 2600 2200 1800 1600 1500 1400 700 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 34 मनःपर्यवक्षानी 33 केवली 35 चौदहपूर्वी 3720 20000 22000 (1) 15000 14000 13000 . 12000 11000 10000 7500 7000 6500 6000 5500 5000 4500 4300 3200 म० 2200 2800 2200 1800 1600 12750 म० 12650 4750 12550 (2) 12150 2150 11650 20450 2400 10300 2300 9150 2030 8000 2000 7500 1500 7500 6000 1300 6500 स० श०(३) 6000 1200 5500 1100 5000 . .4500 4000 800 3340 2551 1400 1000 900 670 1500 1250 म० 1260 500 450 400 1500 : 350 1000 700 750 500 . ... 300 / (1) 'सप्ततिशतस्थानक' ग्रन्थ में मूलसंख्या 20000 मतांतरे 22000 / (2) 'सप्ततिशत' में मूल संख्या 12500 मतांतरे 12550 / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1485 विविध विचार तीर्थकर .. 36 श्रावक . '37 श्राविका 257000 1 ऋषभदेव 305000 554000 2 अजितनाथ 298000 545000 3 संभवनाथ 293000 636000 4 अभिनंदन 288000 527000 5 सुमतिनाथ 281000 516000 6 पद्मप्रभ 271010 505000 7 सुपार्श्वनाथ 493000 8 चंद्रप्रभ 250000 491000 9 सुविधिनाथ 229000 471000 10 शीतलनाथ 289000 458000 11 श्रेयांसनाथ 279000 448000 12 वासुपूज्य 215000 436000 13 विमलनाथ 208000 424000 14 अनंतनाथ 206000. 414000 15 धर्मनाथ 413000 म० 240000 413000 16 शांतिनाथ 290000 393000 17 कुंथुनाथ 179000 381000 18 अरनाथ 184000 372000 19 मल्लिनाथ 183000 370000 20 मुनिसुव्रत 172000 350000 21 नमिनाथ . 170000 348000 22 नेमिनाथ 169000 336000 23 पार्श्वनाथ 164000 339000 24 महावीर 159000 318000 (3) स० श० का अर्थ सप्ततिशतस्थानप्रकरण है. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिमुख तुंबुरु बिदर्भ नंद श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 149 38 यक्ष .. 39 यक्षिणी 40 प्रथमगणधर गोमुख चक्केसरी 'पुंडरीक महायक्ष अजिता सिंहसेन दुरितारि चारु यक्षेश कालिका चजनाभ महाकाली चरम कुसुमयक्ष. अच्युता सुद्योत मातंग शांता विजय ज्वाला अजित सुतारका वराहक ब्रह्मयक्ष अशोका मनुजेश्वर श्रीवत्सा कौस्तुभ कुमारयक्ष चंडा' सुभूम षण्मुखयक्ष विजया मंदर पातालयक्ष अंकुशा किन्नरयक्ष प्रज्ञप्ति अरिष्ट गरुड निर्वाणी चक्रायुध गंधर्व अच्युता . शांब धरणी वैरुटया वरुण .. दत्ता मल्ली भृकुटी गांधारी शुभ गोमेध अंबिका वरदत्त पार्श्वयक्ष पद्मावती आर्यदिन्न मातंगयक्ष ... सिध्धायिका . इंद्रभूति 1 शप्तति शतस्थानकमें 'प्रवरा' नाम है. यक्षेन्द्र कुंभ भिषज Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 मोक्षस्थान 5 विविध विचार 41 प्रथमसाध्वी ब्राह्मी फल्गुनी श्यामा अजिता काश्यपी अष्टापद .. समेतशिखर रति सोमा 150 तीर्थकर 1 ऋपभदेव 2. अजितनाथ 3 संभवनाथ 4. अभिनंदन 5 सुमतिनाथ 6 पद्मप्रम 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15. धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 17 कुंथुनाथ 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुव्रत 21 नमिनाथ 22. नेमिनाथ 23 पार्श्वनाथ 24 महावीर चंपापुरी समेतशिखर वारुणी सुयशा धारणी धरणी . धरा .पद्मा शिवा * शुचि .. दामिनी श्रुति बंधुमती पुष्पवती अनिला यक्षदिन्ना पुष्पचूडा चंदनबाला :: :: :: :: गिरनार समेतशिखर. पावापुरी Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 मोक्षासन श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 43 मोक्षतिथि .. 44 मोक्षसंलेखना माघ वदि 13 6 उपवास चैत्र शु. 5 पद्मासन काउस्सग्ग 1 मासक्षपण " . " वैशाख शु. 8 चैत्र शु. 9 मगसिर वदि 11 फागुण वदि 7 भाद्रवा , , भाद्रवा शु. 9 वैशाख वदि 2 श्रावण वदि 3 आषाढ शु. 14 आषाढ वदि 7 चैत्र शु. 5 जेठ शु. 5 जेठ वदि 13 . वैशाख वदि 1 मृगशिर शु..१ फागुण शु. 12 जेठ वदि 9 वैशाख वदि 10 आषाढ शु. 8 श्रावण शु. 8 कार्तिकवदि 30... पद्मासन काउस्सग्य पद्मासन 2 उपवास Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 तीर्थकर . 5 विविध विचार 46 अंतरमान 50 लाखक्रोड सागर 30 " " " ৪ও যায় मानव राक्षस 90 हजार , 9000 , 900 . , , देव राक्षस * मानव 7373900 सागर, . 54 सागर देव 1 ऋषभदेव 2 अजितनाथ 3 संभवनाथ 4 अभिनंदन 5 सुमतिनाथ 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15. धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 17 कुंथुनाथ 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुतव्रत 21 नमिनाथ 22 नेमिनाथ 23. पार्श्वनाथ 24 महावीर राक्षस मानव देव पोनपल्योपमन्यून 3 सागर 'अर्ध , मानव कोडसहस्रवर्षन्यून पाव पल्यो. राक्षस 1000 क्रोड वर्ष 5400000 वर्ष 600000 वर्ष 500000 वर्ष 83750 राक्षस 250 .... .. मानव Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसग्रह 49 मोक्षपरिवार 153 50 भवसंख्या 48 योनि .. नकुल 10000 साथ 1000 सर्प बिल्ली उंदर व्याघ्र : 308 500 1000 हिरण ध्वान वानर नकुल घोडा बकरा हाथी बकरा 600 साथ , 600 600 700 108 . , 900 हाथी बकरा 1000 ,,, हाथी 500 1000 साथ अश्व वानर अश्व महिष हिरण वृषभ . ... काकी Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 तीर्थकर 5 विविध विचार 51 वंशनाम 52 गर्भस्थितिकाल इक्ष्वाकु ___vivo : 9 मास 4 दिन ,, 25 दिन , 6 दिन 8 , 28 .. * * इक्ष्वाकु इक्ष्वाकु 1 ऋषभदेव 2 अजितनाथ 3 संभवनाथ 4 अभिनंदन 5 सुमतिनाथ 6 पद्मप्रभ 7 सुपार्श्वनाथ 8 चंद्रप्रभ 9 सुविधिनाथ 10 शीतलनाथ . 11 श्रेयांसनाथ 12 वासुपूज्य 13 विमलनाथ 14 अनंतनाथ 15 धर्मनाथ 16 शांतिनाथ 17 कुंथुनाथ 18 अरनाथ 19 मल्लिनाथ 20 मुनिसुव्रत 21 नमिनाथ 22 नेमिनाथ 23 पार्श्वनाथ 24 महावीर r vdvo a + + + + * * * * * * * 8 9 9 9 : : 4 5 हरिवंश इक्ष्वाकु हरिवंश इक्ष्वाकु " " " " " , , " , Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह (4) धारणागति अथवा नामा जोडा ज्योतिष शास्त्र के नियमानुसार हर एक नामधारी पदार्थ का हर एक के साथ एक प्रकार का आभिधानिक संबंध रहता है / वह संबन्ध अनुकूल और प्रतिकूल दो प्रकार का होता है। यह अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों चीजों के नाम, नक्षत्र की योनि, गण, राशि और नाडीवेध तथा नामाक्षर से जानने योग्य वर्ग और लभ्य-देय (लेना देनी) इन छः बातों को देख कर निश्चित की जाती है। 1 योनि भिन्न भिन्न नक्षत्रों की भिन्न भिन्न योनियां होती हैं, जैसे अश्विनी की 'घोडा' भरणी की 'हाथी' इत्यादि, इन में जिन दो व्यक्तियों के नक्षत्र विरुद्धयोनि वाले होते हैं वहां 'योनिवैर' कहलाता है, जैसे किसी एक का जन्म नक्षत्र 'अश्विनी' है जिस की योनि 'घोडा' है और दूसरे का जन्म नक्षत्र 'हस्त' है जिस की योनि 'भैंसा' है तो इन दो नक्षत्रवाली व्यक्तियों में योनिवैर होने की वजह से योनि की अपेक्षा से संबन्ध अनुकूल नहीं कहलायेगा / 2 गण-. 'नक्षत्रों के गण अर्थात् विभाग 3 हैं-देवगण, मानवगण और राक्षसगण। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 5 विविध विचार अश्विनी, मृगसिर, पुनर्वसु आदि 9 नक्षत्रों का समुदाय, देवगण, भरणी आदि 9 नव का मानवगण और कृत्तिका आदि नव का राक्षसगण / दोनों व्यक्तियों के नक्षत्रों का एक गण होना अच्छा है, एक का देव दूसरे का मानवगण हो वहां तक भी साधारणतया ठीक है, परन्तु एक का देव दूसरे का राक्षस होना कलहकारी है और एक का मानव दूसरे का राक्षस गण मृत्युकारी होता है / जैसे अश्विनी नक्षत्र घाले का देवगण है और कृत्तिका नक्षत्रवाले का राक्षस जो कलहकारी है। इस लिये इन में गणमेल नहीं कहा जायगा / इस कारण अश्विनी और कृत्तिका नक्षत्रवालों का संबन्ध गण की अपेक्षा से अच्छा नहीं है। 3 राशि राशि का तात्पर्य नक्षत्रों के समुदाय से है। कुल 27 नक्षत्र हैं और 12 राशि, अत एव 2 / सवा दो नक्षत्रों का 1 एक राशि होगा / जैसे 1 अश्विनी 2 भरणी और कृत्तिका का प्रथम एक चरण मिलकर पहला मेष राशि होता है, इसी प्रकार सवा दो दो नक्षत्रों का एक एक राशि गिनने से 27 नक्षत्रों के 12 राशि होते हैं। ____ इन राशियों में से एक व्यक्ति के राशि से दूसरे व्यक्ति का राशि दूसरा या बारहवाँ नौवां या पांचवाँ छठा या आठवाँ हो तो वह शुभ नहीं गिना जाता, इन को क्रमशः दूआ बारह Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 157 नव पंचम और षडष्टक राशि कूट कहते हैं। जैसे एक व्यक्ति का राशि मेष है और दूसरे का वृष तो यह 'दुआ बारह' हुआ, क्योंकि मेष से वृषे दूसरा है और वृष से मेष बारहवां / इसी प्रकार नव पंचम और षडष्टक के उदाहरण स्वयं समझ लेना चाहिये। 4 नाडीवेध सर्पाकार चक्र बना कर ऊपर बीच में नीचे, नीचे बीच में ऊपर, ऊपर बीच में नीचे इस क्रम से अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र लिखे जाते हैं जिन में से 9 ऊपर 9 बीच में और 9 ही नीचे आते हैं इन्हीं उपरली विचली और निचली लाइनों का नाम क्रमशः आद्य मध्य और अन्त्यनाडी है। इन में ऊपर बीचे या नीचे की एक ही लाइन में दोनों नक्षत्रों का आना नाडीवेध कहलाता है / वधू और वर जिनबिम्ब और बिम्बकारक आदि का नाडीवेध वर्जित किया है, तब कहीं कहीं नाडीवेध को उत्तम भी माना है / 5 वर्ग .. वर्ग का तात्पर्य वर्णमाला के वर्णवर्गों से है, अर्थात् 1 अवर्ग 2 कवर्ग.३ चवर्ग 4 टवर्ग 5 तवर्ग 6 पवर्ग 7 यवर्ग और 8 शवर्ग ये आठ वर्ग हैं / इन में से किसी भी वर्ग से पांचवां वर्ग शत्रु कहलाता है। जैसे एक व्यक्ति का वर्ग 'अ' Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 5 विविध विचार है और दूसरे का 'त' तो इन दोनों में वर्गसंवन्धी वैर कहलायेगा जो वर्जना चाहिये। 6 लभ्य-देयलभ्य-देय को लोक प्रसिद्धि में लेना देनी भी कहते हैं। दो व्यक्तियों में से कौन किस का लेनदार है और कौन देनदार यह देखने की प्राचीन रीति यह है-दोनों व्यक्तियों के नाम के पहले अक्षरों के वर्ग के अंक निश्चित कर दोनों अंक आगे पीछे लिखना और जो संख्या बने उस को 8 का भाग देना, शेष बचे उसका आधा करना, जो संख्या आवे उतने विश्वा आगे के वर्गवाला पिछले वर्गवाले का देनदार है। __उन्हीं दो वगोंकों को दूसरी बार पहले से विपरीत लिखना और उसी तरह भाग दे कर शेष का आधा कर देखना दोनों में से एक दूसरे का एक दूसरे से क्या लेना है और क्या देना सो मालूम हो जायगा / दोनों का लेन देन चुकने के बाद जिस का विश्वा वधेगा वह दूसरे से उतने का लेन दार है। अगर दोनों व्यक्तियों का वर्णांक एक हो तो उस वर्ग के वर्गों का अंक ले कर ऊपर मुजब लेन देन देखना चाहिये। उदाहरण के तौर पर ईश्वरलाल और चंपालाल के आपस में लेन देन क्या है ? यह प्रश्न है। उत्तर-ईश्वरलाल का वर्गाक 1 है, क्योंकि 'ई' अवर्गका अक्षर है और चम्पालाल का वांक 3 है। इन दोनों अंकोंको आगे पीछे लिखने से क्रमशः Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 159 13 और 31 की संख्या होगी / 13 को 8 का भाग देने पर शेष 5 बचे, इन का आधा 2 // हुए / इस से ज्ञात हुआ कि चम्पालाल इश्वरलाल से 2 // विश्वा मांगता है / विपरीत अंक जोडने पर 31 की संख्या हुई इसको 8 का भाग देने शेष 7 बचे इनका आधा 3 // साढे तीन हुए इन में से 2 // विश्वा चम्पालाल के लेने में गये शेष 1 विश्वा ईश्वरलाल का चम्पालाल में लेना रहा, इसलिये चम्पालाल ईश्वरलाल का ऋणी कहा जायगा और ईश्वरलाल चम्पालाल का धनी / दूसरा उदाहरण-राम और लक्ष्मण में कौन ऋणी धनी है ? उत्तरराम लक्ष्मण का वर्ग एक ही है इस वास्ते इन के वां का अंक लिया जायगा 'राम' का नामाक्षर 'यवर्ग' का द्वितीय वर्ण है इसलिये अंक 2 आया और लक्ष्मण का 'ल' उसी वर्ग का तृतीय वर्ण होने से 3 अंक लिया / साथ लिखने पर 23 की संख्या हुई इस को 8 का भाग देने पर शेष 7 बचे इस का आधा // साढे तीन विश्वा राम में लक्ष्मण के लेने हैं। अब वही अंक विपरीत क्रमसे लिखा तो 32 हुए, इस संख्याको 8 का भाग देने पर शेष कुछ नहीं बचा / इस से सिद्ध हुआ कि लक्ष्मण के पास राम कुछ भी नहीं मांगते पर लक्ष्मण राम से साढे तीन विश्वा मांगते हैं। उपर्युक्त योनि, गण, राशि और नाडीवेध ये चार बातें तो जन्म नक्षत्र के ऊपर से देखी जाती हैं परन्तु वर्गमेल और लेन देन प्रसिद्ध नामके प्रथम अक्षर के ऊपर से देखा जाता Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 . 5 विविध विचार है। यदि किसीका जन्म नक्षत्र मालूम न हो तो सभी बातें उस के प्रसिद्ध नाम से देखी जाती हैं। - तीर्थंकर भगवान् की नवीन मूर्ति बनवा कर अंजनशलाका प्रतिष्ठा करने में भी उपयुक्त छः ही बातों का विचार किया जाता है। ___यदि कोई व्यक्ति अपनी तरफ से मूर्ति बनबा कर प्रतिष्ठित कराता है तो उस के नाम और तीर्थकर भगवान के नाम से उक्त छः बातें देखी जाती हैं और संघ की तरफ से मूर्ति की प्रतिष्ठा होती है तो उस गांव के नाम से उक्त बातों का मेल जोल देखा जाता है। ऊपर हमने जिन छः बातों की शुद्धि होने की बात कही है उन में से योनि, गण, राशि और वर्ग इन चार बातों में कुछ अपवाद भी कहे हुए हैं, जो अवश्य जानने और ध्यान में 1 “तत्र यस्य धनिकस्य जिनस्येव जन्मनक्षत्रं ज्ञायते तस्य जन्मनक्षत्रेण योनिगणराशय एवं नाडिवेधश्च विलोक्यो न तु वर्गलभ्ये / वर्गयोरितरेतरपंचमत्वं मिथो लभ्यं देयं च जिनस्येव तस्यापि प्रसिध्धेनैव नाम्ना विलोक्यम् / जन्मनक्षत्राऽ परिशाने तु तस्य योन्याद्यपि सर्व प्रसिध्धेनैव नाम्ना विलोक्यम् / " . ( धारणागतियन्त्राम्नाये.) 2 “योनिगण-राशिभेदा लभ्य वर्गश्च नाडिवेधश्च / नूतनबिम्बविधाने, षड्विधमेतद्विलोक्यं जैः // 1 // " . (धारणागतियंत्राम्नाये) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह रखने योग्य हैं। वे अपवाद नीचे मुजब हैं जिन से योनि चैरादि होते हुए भी नामाजोडा निर्दोष माना जाता है। योनिवैर में अपवाद धनिक (मूर्ति कराने वाला) और देव (जिस तीर्थकर की मूर्ति है) के नक्षत्रों की योनि में परस्पर वैरभाव होने पर भी अगर धनिक नक्षत्र की योनि से जिन नक्षत्र की योनि कमजोर हो तो वहां नामाजोडा शुद्ध माना जाता है। जैसे केवलचंद के जन्म नक्षत्र 'पुनर्वसु' की योनि बिल्ली (मार्जार) है और सुमतिनाथ के जन्म नक्षत्र 'मघा' की योनि मूषक (उंदर), यहां यद्यपि बिल्ली और उंदर के आपस में वैर होने से केवलचंद और सुमतिनाथ के नामाजोडा में योनिवैर है, परन्तु यह योनिवर दोषरूप नहीं। क्योंकि धनिक केवलचंद जो सुमतिनाथ से कमजोर है उसकी योनि बलवान है और देव सुमतिनाथ जो बलवान् है उन की योनि केवलचंद की योनि से निर्बल है, इस कारण यहां योनिवैर का कुछ असर नहीं होता। इसी प्रकार सर्वत्र धनिक की योनि देव की योनिसे बलवान् होने पर योनिवैर का दोष नहीं माना जाता। 1 "बयो-बग-बवाः-धनिकस्य योनिगणवर्गा बलिष्ठाः सन्तीति, अयं भावः--अल्पबलेन बलिष्ठो न पराभूयते इत्यभिप्रायेण धनिकस्य मार्जारादिर्बलिष्ठो देवस्य चोन्दुरादिरबलः क्वचिद् गृहीतोऽस्तीति"। (धारणागतियन्त्राम्नाये) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 5 विविध विचार ___यदि देव और धनिक में योनिवैर हो और देव की योनि भी बलवान् हो तथापि वहां जातिवैर न हो तो वह वैर भी अवश्य वर्जनीय नहीं है, क्योंकि योनिवैर जातिवैर रूप होने पर ही अवश्य वर्जनीय है। गणवैर में अपवाद . . - इसी प्रकार धनिक और देव के नक्षत्रों में गणवैर होने पर भी धनिक का गण बलवान् और 'देव' का गण निर्बल होने पर गणवैर का असर नहीं रहता। उदाहरण-सुरत का गण 'राक्षस' है और आदिनाथ तथा अजितनाथ का गण 'मानव' / यद्यपि मानव राक्षस का भक्ष्य है तथापि मानवगण वाले राक्षसगण वाले से बलवान हैं इस कारण यहां गणविरोध हानिकारक नहीं हो सकता। राशिवैर में अपवाद राशिकूट में हम लिख आये हैं कि देव धनिक के अन्योन्य नव पंचम, षडष्टक और दूसरा बारहवां राशि हो तो वर्जनीय हैं, परन्तु इन दोनों राशियों के स्वामियों में परस्पर मित्रभाव हो तो ये राशिकूट दूषित नहीं हैं। 1 "धनिकस्य योनिवर्गों अबलौ परं नायं विशिष्य दोषः, जातिवैराभावात् / शास्त्रेषु च योनिसत्कस्य जातिवैरस्यैव xxxवर्जनात्"। (धारणागतियन्त्र आम्नाये)। 2 देखो पूर्वके पृष्ठमें टिप्पण नंबर 1 / . 3 “यत्र तु षडष्टक-द्विादश-नवपञ्चमेषु न राशिमैत्री तानि स्वामिमैत्रगं ग्राह्याणीति / " (धारणा ग. यं. आम्नाये ) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 163 उदाहरण-सुरत के साथ सुपार्श्वनाथ का नामाजोडा मिलता है या नहीं इस की जांच करने पर मालूम हुआ कि सुरंत का राशि कुंभ है और सुपार्श्वनाथ का तुला / कुंभराशि से तुलाराशि नौवां है और तुला से कुंभ पांचवा इस लिये सुरत और सुपार्श्वनाथ के परस्पर नवपंचम राशिकूट है, परन्तु यह नवपंचम दूषित नहीं है, क्योंकि कुंभराशि-स्वामी शनि और तुलाराशि-पति शुक्र के आपस में मैत्री है। इस राशिस्वामि-मैत्री से राशिकूट नव पंचम का कुछ दोष नहीं। सुरत सुराणा या अन्य किसी भी ऐसे गाम या व्यक्ति के साथ कि जिसके नाम का प्रथम अक्षर 'स, सि, सु' इनमें से कोई भी अक्षर हो सुपार्श्वनाथ का नामाजोडा शुद्ध मिलता है यही कहना चाहिये। - वर्गवैर में अपवाद ऊपर कहा गया है कि वर्गवैर वर्जना चाहिये परन्तु वैर अन्योन्य पंचमवर्ग संबन्धी हो तभी वर्जित है' सामान्य नहीं। अन्योन्य पंचमवर्ग विषयक वैर होने पर भी यदि धनिक का वर्ग बलवान हो और देवका निर्बल तो वहां वर्गवैर आपत्तिजनक नहीं है। उदाहरण-गोल का वर्ग बिल्ली है और पार्श्व१ "वर्गवैरस्येतरेतरपञ्चमत्वरूपस्यैव वर्जनात्"। (धारणागतियन्त्राम्नाये) 2 "धनिकजिननामवर्गयोरितरेतरपञ्चमत्वं त्याज्यं, परं Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 5 विविध विचार नाथ का वर्ग उंदर / बिल्ली उंदर में यद्यपि वैर है परन्तु यहां निर्बल का वर्ग सबल और सबल का वर्ग निर्बल होने से वर्ग वैर संबन्धी कुछ भी दोषापत्ति नहीं है। . ऊपर लिखे मुजब योनि, गण, राशि और वर्ग विषयक दोषों का तो परिहार है परंतु नाडीवेध और लेनादेनी के विषय में कुछ भी अपवाद नहीं है इसलिये नाडीवेध अवश्य वर्जना चाहिये और लेना देनी के विचार में थोडा बहुत भी देव का धनिक लेनदार होना चाहिये न कि देनदार। _____ऊपर नामा जोडा देखने संवन्धी छः बातों और उन के अपवादों का जो दिग्दर्शन कराया है उसको समझ कर ध्यान में रखना चाहिये / और इन सभी बातों को दृष्टि में रख कर किसी भी गाम नगर या व्यक्ति के साथ जिन बिंब का नामा जोडा देखना चाहिये / ऐसा करने वाले कभी धोखा नहीं खायेंगे। आज कल श्रावक लोगों में जान अनजान की परीक्षा न होने से अथवा दृष्टिराग के कारण वे हर किसी को ये बातें पूछ बैठते हैं और अर्धदग्ध मिथ्याभिमानी साधु और यति यदि धनिको मार्जारः स्याजिनस्योन्दुरः स्यात्तदा न दोषो, विपर्यये तु दोषः / एवमन्यत्रापि भाव्यम् / " _ (धारणागतियन्त्रआम्नाये) 1 "नाडिवेधश्चात्र सर्वत्र टालित एव / " (धारणा ग. यं. आम्नाये ) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 165 लोग विषय के जानकार न होते हुए भी अभिमान के वश अज्ञता छिपाने के लिये कुछ न कुछ अंडबंड उत्तर दे ही देते हैं, वे यह तो जानते ही नहीं कि इस विषय में कई अपवाद और परिहार भी होते हैं, सिर्फ राशि या वर्ग आदि गिन कर कह देते हैं कि तुम्हारे लिये अमुक अमुक भगवान की मूर्ति अनुकूल हैं और वे पूछने वाले दृष्टि राग से या तो खोटी प्रसिद्धि के वश अंधे हो कर उस असत्य बात को भी सत्य मान लेते हैं / यदि पूछने वाले किसी धारणागतियंत्र-वेत्ता विद्वान् के पास पूछ कर आये हैं और कहते हैं कि अमुक महा राज ने तो ये ये नाम अनुकूल बताये हैं तो वे अर्धदग्ध तुरंत पंचांग टटोलने लगते हैं और बताये हुए नामों के साथ कहीं प्रीतिनवपंचम, प्रीतिषडष्टक या प्रीति दुआबारह जैसा होता है तो कह बैठते हैं-देखो इस में फलां फलां दोष है / बस उस अर्धदग्ध की बात से लोगों के दिल में शंका उत्पन्न हो जाती है और यदि मूर्ति ले आये हैं तब तो वे निरर्थक पश्चात्ताप करते हैं और मूर्ति लानी होती है तो वे अनेकों के पास खाक छानते फिरते हैं और तरह तरह की बातें सुन कर संशयाकुल होते हैं। बस इन खराबियों को दूर करने और अर्धदग्धों को सबक देने के लिये ही यह लेख लिखना पड़ा है। मुः लेटा, (मारवाड). ता. 16-10-34. / मुनि कल्याणविजय , Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ___5 विविध विचार (5) घर कहां और कैसा बनाना चाहिये ? जैन श्रावकों को किस जगह कैसी जमीन में और कैसा घर बनाना चाहिये इसका कुछ विवरण नीचे दिया जाता है। गृहस्थ को चाहिये कि अपने रहने का घर ऐसी जगह बनावे जहां धर्म अर्थ और काम इन तीनों की साधना होती रहे, जहां जैनमंदिर का योग हो, जहां मुनि महाराजों के दर्शन का और व्याख्यान सुनने का लाभ प्राप्त होता हो, जहां धर्मचुस्त श्रावकों की वसती भरपूर हो, आसपास के पडौसी लोग सदाचारी हों और जहां की आवहवा अच्छी हो। __ अच्छे गांव में रहने से दिन बदिन घर की और कुटुंब की आबादी और उन्नति बढती रहती है। कुग्राम में निवास करने से धर्मी मनुष्य की जींदगी खराब हालत को पहूंच जाती है, बुद्धि और विचार भी मलिन बन जाते हैं, इस दशा में न इस लोक का साधन होता है न परलोक का / व्यर्थ गृहस्थ जीवन नष्ट हो जाता है। एक नीतिकारने कहा है कि "यदि वांछसि मूर्खत्वं, ग्रामे वस दिनत्रयम् / अपूर्वस्यागमो नास्ति, पूर्वाधीतं च नश्यति // 1 // " हे विचारशील सज्जन ! अगर तू मूर्ख होना चाहता है तो अविवेकी गांव में तीन दिन निवास कर, कारण के उस गांव में नवीन ज्ञान की प्राप्ति नहीं है और पहले का पढ़ा हुआ नष्ट हो जाता है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 167 इस लिये अच्छे गांव में धर्मप्रेमी श्रावकों के नजदीक में घर बनाना श्रावक के लिये लाभकारी है। योग्य जमीन की परीक्षा. जिस जमीन पर इमारत स्वडी करनी हो वहां पहले खुदवाना चाहिये, वैसा करने से वहां से खराब अपमांगलिक चीजें निकल जाती हैं। जिस जमीन में हड्डी न हो, राख न हो, जहां डाभ उगता हो, वर्ण और गंध मिट्टी का अच्छा हो, जहां से मीठा जल निकलता हो वह जमीन अच्छी है। ____जो भूमि शीतकाल (सीआला) में उष्णस्पर्श वाली हो याने छूने से गरमी मालूम देती हो और ग्रीष्म ऋतु (उन्हाला) में शीतस्पर्श वाली. याने छूने से ठंडक मालूम देती हो वह बहुत ही उत्तम जमीच है। तथा एक हाथ प्रमाण जमीन खोद कर फिर उसी मिट्टी से खड्डा भर देवे, भरने पर अगर मिट्टी अधिक रहे तो वह जमीन श्रेष्ठ है, अगर मिट्टी बराबर रहे तो मध्यम भूमि समझना और मिट्टी कम मालूम देवे याने उस से गड्डा न भरे तो वह जमीन अशुभ है। अथवा हाथ प्रमाण समचोरस और गहरा गड्डा खोद कर जल से भर दे अगर सौ कदम तक चले उतने समय में एक अंगुल जल सूखे तो वह जमीन शुभ. जानना, दो अंगुल जितना जल सूख जाय तो मध्यम और तीन अंगुल जल सूख जाय तो वह भूमि अधम अर्थात् अशुभ है ऐसा समझना चाहिये / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 5 विविध विचार जिस भूमि में व्रीहि (चावल) बोया गया तीन दिन के बाद उगे उसको उत्तम, पांच दिन के बाद उगे उसको मध्यम और सात दिन पीछे उगे उसको हीन याने बिलकुल खराब समझो। - पोली जमीन पर घर बनावे तो निर्धन (कंगाल) बन जाता है और मनुष्य की हड्डी या केशवाली जमीन पर घर बनावे तो वहां मनुष्य की आबादी घटती जाती है / जमीन में गधे की हड्डी या ओर कोई अवयव हो तो राजा की तर्फ से भय होता है, कुत्ते की हड्डी हो तो बालक मर जाता है, बालक की हड्डी हो तो घर का मालिक विदेश में ही गुजर जाता है, गाय की हड्डी हो तो उस घर में गाय का विनाश हो, मनुष्य की खोपरी केश या भस्म हो तो मरण होता है। . ऐसे दोष रहित जमीन देख कर घर-मकान बनावे / / - घर ऐसे स्थान में बनाना चाहिये कि जहां दिन के दूसरे और तीसरे पहर में किसी वृक्ष की या मंदिर के ध्वज (धजा) की छाया न पडती हो। दूसरे तीसरे पहर में मंदिर की ध्वजा की छाया का घर पर पडना अच्छा नहीं, वैसे मंदिरके शिखर की छाया भी घर पर न पडनी चाहिये। जैन मंदिर के पीछे, सूर्य तथा शिवमंदिर के सामने और विष्णुमंदिर के बाये भाग में (डावे भाग में) घर बनाना अच्छा नहीं। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 169 ब्रह्मा का मंदिर चारों दिशा में और चंडिका का मंदिर सर्व दिशाओं में छोडना चाहिये। जिन मंदिर के सामने और दाहिनी (जीमणी) तर्फ और शिवमंदिर के पीछे या बाये भाग में रहना कल्याणकारी है। .. गांव के ईशान कोने में घर बनाना अच्छा नहीं, बनावे तो गृहस्थ को बड़ी मुसीबतें उठानी पडती हैं। ___घर बनाते या लेते वक्त वहां के पडौसी से किसी तरह का टंटा या तकरार करना न चाहिये / ___ जिनमंदिर की ईट पत्थर विगैरह कुछ भी चीज घर में न डालनी चाहिये, तथा दूसरे भी किसी देवस्थान की, कूए की, वाव की, मठ की, स्मशान की और राजमंदिर की इंट पत्थर या लकडी कोई भी चीज घर में न डाले, कारण वे चीजें घर में विरोध उत्पन्न करती हैं। पत्थर के घर में लकडे का थंभा और लकडे के घर में पत्थर का थंभा लगाना अच्छा नहीं। ... बिलकुल हलका लकडा, कोल्हु का (घाणीका) लकडा, गाडीका, अरहटका, चरखे का, कांटेवाले वृक्ष का, पांच उदुंबर (उमरा)का और थोहर का लकडा घर में न लगावे। ___ घर में बीजोरा, केला, दाडिम, बोरडी, जंबीरी, हलइ, इमली और धत्तूरा न होना चाहिये, ये ही वृक्ष पडोस में लगेहों और उन की जड अपने घर नीचे आवे तो भी अशुभ समझनी चाहिये / तथा इन वृक्षों की छाया भी पडे तो कुल का नाश करे। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 5 विविध विचार - पूर्व दिशा में घर ऊंचा हो तो धनका नाश करता है, दक्षिण में या पश्चिम में घर ऊंचा हो तो धन की वृद्धि करता है और उत्तर में ऊंचा हो तो घर उजाड हो जाता है। __घर की शकल गोल हो, वह एक कोने वाला, दो कोने वाला, तीन कोने वाला अथवा अनेक कोने वाला हो और दक्षिण में या बायीं तर्फ लंबा हो ऐसा घर अशुभ है। उस में रहना ठीक नहीं। जिस घर के किवाड अपने आप खुलें या बंद हो जावें वह घर भी अशुभ है। . .. - घर के द्वार पर कलस स्वस्तिक आदि चित्र हों तो शुभ हैं, परंतु घर के भीतर या बाहर नाच, खेल, महाभारत और रामायण के युद्ध के, राजाओं के युद्ध के, साधु संन्यासी के या देवता के चित्र हों तो अशुभ हैं। ___फलता हुआ वृक्ष (दरखत), फुली हुई वेल, सरस्वती देवी, लक्ष्मी देवी, नवनिधान, यज्ञ का थंभ, वर्धमान, 14 स्वप्न ये चित्र कराना शुभ है। घर में खजूर, दाडिम, केला, कोहला, बीजोरा ये वृक्ष नहीं लगाना, कारण उन से घर का विनाश होता है, मनुष्य का घाटा आ जाता है। वड वृक्ष घर में उगे तो लक्ष्मी का नाश करता है, कांटों वाला वृक्ष हो तो दुश्मन का भय रहता है, बडे फल वाला वृक्ष उगे तो संतान का नाश करता है, ऐसे वृक्ष का काष्ट भी छोड देना चाहिये / कितनेक कहते हैं कि घर के पूर्व दिशाभाग Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 171 मैं वडवृक्ष हो तो अच्छा है, दक्षिण तर्फ उदुंबर (उंबरा) वृक्ष शुभ है, पश्चिम भाग में पीपला और उत्तर में प्लक्ष (पारस पीपला) वृक्ष अच्छा है। घर में पूर्व दिशा में लक्ष्मी का स्थान, पश्चिम में भोजन का स्थान, उत्तर में जल रखने का पनिहारा, दक्षिण में सोने की जगह, अग्नि कोन में रसोडा, नैर्फत में शस्त्रशाला (शस्त्र रखने का स्थान), वायु कोन में अनाज की वखार और ईशान कोण में देवमंदिर बनवावे / . ____ यहां पर पूर्वादि दिशाओं का हिसाब घरके दरवजे की अपेक्षासे समझना चाहिये सूर्य की अपेक्षासे नहीं / घर के अनेक खिडकियां नहीं होनी चाहिये, खिडकी के किवाड मजबूत और आसानी से खोले जावे वैसे बनवाने चाहिये। इस के सिवाय ओर भी अच्छे अच्छे लक्षण हों वे शिल्प शास्त्र के जानने वाले से पूछ कर कराने चाहिये, जिस से भविष्य में हर तरह से वह घर हरा भरा रहे और दिन दिन उस की तरक्की होती रहे। (6) सूतक विचार. ... जन्म संबन्धी सूतक .... पुत्र का जन्म हो तो दश दिन का और पुत्री का जन्म हो तो ग्यारह दिन का सूतक लगता है। बारहवें दिन न्हाने धोने के बाद वह घर शुद्ध हो जाता है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 5 विविध विचार शास्त्रानुसार बारहवें दिन घर के अन्य मनुष्य भगवान् की पूजा कर सकते हैं। सूतक वाले घर से अलग रह कर भोजन करते हों तो दूसरे के घर से जल लाकर उस से स्नान कर सदा पूजा हो सकती है, कारण कि सूतक जहां जन्म हुआ है वहां गिना जाता है अन्यत्र नहीं / हां इस में इतना जरूर है कि जन्मे हुए बालक का पिता अगर अलग रसोई जीमता हो तो भी उस को पांच दिन का सूतक अवश्य पालना पडता है और शामिल रहे तो ग्यारह दिन का सूतक है ही। जन्म देने वाली स्त्री 1 महीना तक जिनमंदिरका दर्शन नहीं कर सकती, तथा 40 दिन तक भगवान् की पूजा नहीं करती / तथा 40 दिन तक उस के हाथ का बना हुआ भोजन मुनि को लेना न कल्पे गोत्री के लिये जो पांच दिन का सूतक कहा जाता है उस का मतलब यह है कि पुराने जमाने में एक कंपाउंड वाले घर में एक पछीत वाले भिन्न भिन्न कमरो में सारा कुटुंब रहता था, निकलने का दरवाजा एक ही होता था जिस से वहां गोत्रीजनों को पांच दिन का सूतक पालना पड़ता था। आज .कल सब कुटुंबी लोग अलग घरों में रहते हैं, एक कंपाउंड वाला घर नजर नहीं आता इस लिये गोत्री के वास्ते पांच दिन का हिसाब नहीं गिना जाता / अगर कहीं पर आज भी वैसे घर Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 173 हों तो वहां रहने वालों को पांच दिन का सूतक पालना चाहिये / सूतक वाले घर से मिला हुआ आस पास किसी का घर हो, सिर्फ बीच में आडी दिवार (भीत) हो परंतु सूतक वाले घर में जाना आना न होता हो तो उस पडोसी को सूतक नहीं लगता / वह दर्शन पूजा विगेरह कर सकता है / उस के घर का आहार मुनिराज ले सकते हैं। प्रसूति वाली के खान पान रसोई आदि की सरभरा करने वाली स्त्री के सिर्फ ग्यारह दिन का ही सूतक है, इतने दिन तक सामायिक प्रतिक्रमण देवदर्शन आदि नहीं कर सकती। कितनेक लोग उस के लिये सत्ताईस दिन का पर हेज करना कहते हैं सो व्यावहारिक रूढि है, इस रूढि को मान कर ही कितनीक जगह मुनिराज सूतक वाले के घर से सत्ताईस दिन तक आहार पानी नहीं लेते हैं, इस का भी कारण देखा जाय तो यही है कि विशेष सफाई नहीं रहती इस लिये 27 दिन की रूढि चलाते हैं, जहां स्त्रियां सफाई अच्छी रखती हों वहां 12 दिन के बाद आहार पानी लेने में कुछ दोष नहीं है / गुजरात में कहीं कहीं ऐसा रिवाज भी है / मगर उस में देखना यह चाहिये कि बारह दिन के बाद भी जन्म देने वाली स्त्री पनेहरे को छूती न हो अथवा रसोई बनाती न हो / तात्पर्य यह है कि रसोई दूसरी स्त्री करती हो और प्रसूती वाली स्त्री जल तथा रसोई घर में न जाती हो तो बारहदिन के बाद आहार लेना कल्पे, अन्यथा 27 दिन के बाद / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 174 5 विविध विचार . . यहां पर कितनेक लोगों का खयाल है कि सुआवड वाली स्त्री को रसोई कर खिलाने वाली पर तेले (अट्ठम) का दंड आता है वह ठीक नहीं है, यह जो तेले का दंड शास्त्र में लिखा है वह नाल छेदना स्नान कराना. आदि दाई का काम करने वाली के लिये है। कितनेक यह भी कहते हैं कि जिस घर में जन्म हुआ हो उस के आस पास के तीन तीन घर छोड कर साधु को आहार पानी लेना चाहिये, मगर यह भी गलत है। तीन तीन घर छोडने का मूल तात्पर्य यह है कि किसी घर में कोई मर गया हो और जब तक मुडदा वहां पड़ा हो तब तक दोनों तर्फ के तीन तीन घरो में पठन पाठन नहीं हो सकता। व्यवहार नामक छेद सूत्र की टीका में दश दिन के सिवाय अधिक सूतक नहीं बतलाया, लेकिन लोगो में बराबर आचार विचार शुद्ध न रहने लगा तब पिछले पुरुषों ने समय देख कर सूतक में कमी बेशी की है, उस मुताबिक विवेकी पुरुष पालन करते रहें। ___अपने घर में दास दासी जो अपने आधार पर रहे हुए हों तो उन का सूतक सिर्फ चोईस पहर का है। चोईस पहर के बाद देव दर्शन पूजा सामायिक आदि हो सकता है। गाय, भेंस, ऊंटनी, घोडी घर में प्रसवे तो दो दिन का सूतक और बाहर प्रसवे तो दिन 1 का सूतक होता है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह .. भैंस का द्ध दही घी 15 दिन के बाद, गाय का दूध दही घी विगैरह तथा ऊंटणी का दूध प्रसव से दश दिन के बाद काम आता है और बकरी घेटी का 8 दिन के बाद / अर्थात् प्रसव से इतने दिनों के बाद दूध घी विगेरह खाने लायक होते हैं, पहले नहीं। पहले खाय तो पूजा प्रतिक्रमणादि नहीं कर सकते, सिर्फ बाहर से दर्शन में विशेष प्रतिबन्ध (हर्ज) नहीं है। रजस्वला (कारणवाली) स्त्री का सूतक कारण वाली स्त्री तीन दिन तक घर में बरतन आदिको नहीं छू सकती, दर्शन सामायिक, प्रतिक्रमण नहीं कर सकती, लेकिन तपस्या करे वह गिनती में आ सकती है। दिन 4 के बाद जिन पूजा कर सकती है, रोग के कारण कपडे धोने के बाद अशुद्धि नजर आवे उस का हर्ज नहीं, शुद्धि पूर्वक दर्शन हो सकता है / मुनिराज को दान दे सकती है, मगर भगवान् की अंगपूजा न कर सके। . कारण वाली स्त्री को चाहिये कि तीन दिन तक इलाहिदे कमरे में बैठे, घर में पनेहरा रसोडा या जहां घर के दूसरे मनुष्यों के सोने बैठने की जगह हो वहांसे दूर रहे। कई जगह देखा जाता है कि ऋतुवती स्त्रियां पूरा खयाल नहीं रखतीं, सारे घर में इधर उधर फिरने लग जाती हैं, यहां . तक कि रसोडे का भी पूरा परहेज नहीं रखतीं, यह कितनी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 - 5 विविध विचार अज्ञानता है ? / कई जगह ऐसा भी अकसर देखा गया है कि कारण वाली स्त्री गोबर ला कर घर में लीपणे का काम करती है अगर बुद्धि से विचार किया जाय तो घर में लीपना शुद्धि के वास्ते है और जब वह स्त्री तो खुद अशुद्ध हालत में है तो फिर उसके हाथ का लीपना किस काम का ?, यह तो उल्टा ज्यादा अशुद्ध हुआ / इस लिये इस विषय में कारणवाली स्त्रियों को बहुत सोच विचार कर चलना चाहिये / . मरण संबंधी सूतक घर का कोई मनुष्य गुजर जाय तो 12 दिन का सूतक होता है, 12 दिन तक उस के घर से मुनिराज आहार पानी नहीं ले सकते, उसके घर के जल से जिनपूजा नहीं हो सकती ऐसा निशीथचूर्णि में कहा है / तथा 12 दिन तक उस घर वाला पूजा सामायिक प्रतिक्रमण नहीं कर सकता, पुस्तक और माला के हाथ नहीं लगा सकता, माला गिनने का नियम हो तो होठ हिलाये विना मन में नवकार मंत्र गिने और मंदिर दर्शन भी बाहर से ही करे। . निशीथ सूत्र के सोलहवें उद्देशे में जन्म और मरण का घर दुगंछनिक (अशुद्ध) कहा है। मृत्यु वाले के पास सुवेतो दिन 3 पूजा नहीं हो सकती। खांधिया या मुडदे को छूने वाला दिन 3 पूजा पडिकमणादि नहीं कर सकता मगर मन में नवकार गिने तो कोई हर्ज नहीं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 177 मुडदे को स्पर्श न किया हो और बिलकुल निराला रहा हो.यहां तक कि श्मशान का धुंआ तक न लगा हो तो स्नान करने पर शुद्ध है। खांधिये के सिवा दूसरा कोई मुर्दे का स्पर्श करे तो सोलह पहर पूजा पडिकमणादि नहीं कर सकता। जिस के घर जन्म या मरण हुआ हो वहां भोजन करने वाले दिन 12 तक पूजा नहीं कर सकते। वेष बदलने वाले याने मरने की खबर सुन स्नान कर के कपडे बदलने वालों को 8 पहर का सूतक लगता है। ... बच्चा जन्मे उसी दिन मर जाय अथवा विदेश में मरण हो तो दिन 1 का सूतक, तथा साधु यति मरे तो भी दिन 1 का सूतक है। 8 वर्ष तक की उमर का बालक मरे तो दिन 8 का सूतक है, परंतु जो बच्चा दूधमुंहा हो अनाज न खाता हो तो सिर्फ 3 दिन का सूतक है / 8 वर्ष के ऊपर हो तो दिन 12 गिने जाते हैं। . . . - गाय भैस आदि मर जाय तो उनका कलेवर घर से बाहर ले जाने के बाद 1 दिन का सूतक और किसी दूसरे पशु पंखी का कलेवर पडा हो तो वह जब तक न हटाया जाय तब तक सूतक लगता है वहां से बाहर ले जाने के बाद नहीं। - कोई दास दासी अपने घर में गुजर जाय तो सिर्फ तीन दिन का सूतक माना गया है। ... Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 5 विविध विचार जितने महीने का गर्भ गिरे उतने दिन का सूतक समझना, परदेश में गये हुए का मरण समाचार सुने तो 1 अथवा 2 दिनका सूतक लगे ऐसा कल्पभाष्य का लेख है। . गोमूत्र में 24 पहर के बाद संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं / भेंस के मूत्र में 16 पहर बाद जीव उत्पत्ति, गाडर गधी तथा घोडी के मूत्र में 8 पहर बाद जीव उत्पत्ति और मनुष्य के मूत्र में 4 पहर बाद संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। (7) रोगी-मृत्युज्ञान / रोगीमृत्युज्ञापक त्रिनाडीचक्र पहला / इस चक्रका नाम 'त्रिनाडीचक्र' है। इसका दूसरा नाम 'भुजंग चक्र' भी है / इसके बनाने का विधान नीचे के प्राचीन पद्य में दिया है"आइच्चाइ धरेवि भुअंगह, पनरस माहि ठवेविणु अंगह / बारस बाहिरि तस्स य दिजइ, जीविय-मरण फुडं जाणिज्जइ॥" __ अर्थात् प्रथम आदिनाडी में रवि नक्षत्र लिखना फिर मध्य और अंत्य नाडी में अनुक्रम से उसके बाद का एक एक नक्षत्र लिखना उसके बाद तीन नक्षत्र अंत्यनाडी के ऊपर बाहर लिख कर फिर अंत्यनाडी से शुरू करके आदिनाडी तक तीन नक्षत्र लिखे, बादमें आगे तीन नक्षत्र आदि नाडी के नीचे बाहर लिखे और फिर आदि मध्य अंत्य नाडियों में क्रमशः तीन नक्षत्र लिख कर अंत्यनाडी के ऊपर तीन नक्षत्र लि Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसग्रह 179 खे, बाद में अंत्य मध्य आदि नाडियों में तीन नक्षत्र लिखकर आदि नाडी के नीचे बाहर तीन नक्षत्र लिखे और फिर आदि नाडी से लेकर अंत्यनाडी तक में तीन नक्षत्र लिख दे। इस प्रकार एक एक नाडी के ५-५-नक्षत्र मिलकर कुल 15 नक्षत्र तीन नाडियों में आयेंगे, अंत्य नाडी के ऊपर दो जगह लिखे हुए ३-३-नक्षत्र और आदिनाडी के नीचे बाहर दो जगह लिखे हुए ३-३-नक्षत्र मिलकर कुल 12 नक्षत्र नाडियों के बाहर आयेंगे। चक्र की स्थापना - रो. आ. . वि. ज्ये. 3 कृ. पु. स्वा. मू. 2. भ. पु. चि. पू. 1 अ. अ. ह. उ. पू. म. उ. . श्र. श. ध. ___ इस चक्र में रवि नक्षत्र से लिखने का प्रारंभ करना चाहिये / यहां पर अश्विनी से प्रारंभ करके कुल नक्षत्र लिखे हैं, क्योंकि अश्विनी को ही यहां कल्पना से रवि नक्षत्र मान लिया है। देखने के समय रोगी जिस समय बीमार पडा उस समय सूर्य किस नक्षत्र पर था इस बात का निश्चय पंचांग में देखकर कर लेना चाहिये और फिर उस नक्षत्र को आदि ना Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 5 विविध विचार डी में प्रथम लिख कर फिर ऊपर लिखे क्रम से बाकी के तमाम नक्षत्र लिख लेना चाहिये / इस प्रकार तत्कालीन चक्र तैयार होजाने के बाद उसमें रोगी के जन्म नक्षत्र को देखे कि वह किस नाडी में पड़ा है, अगर आदि नाडी में रोगी का जन्मनक्षत्र पडा हो तो रोगी की मृत्य होने का संभव जानना चाहिये। रोगी का जन्म नेक्षत्र मध्य नाडी में पडा हो तो दीर्घपीडा कहना और रोगी का नक्षत्र अंत्यनाडी में आया हो तो अल्प कष्ट कहना / रोगी का जन्म नक्षत्र जो नाडी चक्र के बाहर के नक्षत्रों में पडा हो तो समझना चाहिये कि नाम मात्र का कष्ट देखकर रोगी अच्छा हो जायगा। रोगि मृत्युज्ञानार्थ त्रिनाडी चक्र दूसरा श्र. & 3 पु. उ. पू. श. म. वि. 1 आ. . . चि... ज्ये. उ. कृ. स्वा. अ. रे. भ. . अ. - इस चक्र के लिखने की रीति भी पूर्वोक्त पहले चक्र के जैसी ही है, फरक मात्र इतनाही है कि पहले चक्रमें रवि नक्षत्र से नक्षत्र लिखने की शुरुआत होती है और इसमें आर्द्रा नक्षत्र से। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 त्रा श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह "आद्यैः पञ्चदशभिस्त्रीणि त्रीण्यन्तरा त्यजन् / . त्रिनाडीचक्र चन्द्रार्क-जन्मवेधे न जीवति // " . अर्थात् बीच में तीन तीन नक्षत्रों को छोडते हुए आर्द्रादि पंद्रह नक्षत्रों से त्रिनाडीचक्र बनाना। इसमें चन्द्रनक्षत्र सूर्यनक्षत्र और रोगीका जन्म नक्षत्र ये तीनों नक्षत्र एक नाडी में हों उस समय बीमार पड़ने वाला रोगी मर जाता है। .. ____ सूर्य नक्षत्र और रोगिनक्षत्र एक नाडी में हों तो अधिक कष्ट और सूर्य नक्षत्र रोगीनक्षत्र चंद्र नक्षत्र ये तीनों भिन्न भिन्न नाडियों में हों तो स्वल्प कष्ट भोग कर अच्छा हो जाता है। रोगिमृत्युज्ञानार्थ त्रिनाडी चक्र तीसरा३ पु. अ. चि. स्वा. पू. उ. उ. रे. मृ. 2 पु. म. ह. वि. मू. श्र. पू. अ. रो. 1 आ पू. उ. . अ. 'ज्ये... ध. श. भ. कृ. . इस तीसरे नाडीचक्र में भी आर्द्रा से ही नक्षत्र लिखे जाते हैं, परंतु ऊपर के दो चक्रों में तीन तीन के बाद तीन तीन नक्षत्र ऊपर नीचे बाहर लिखे जाते हैं वैसे इसमें नहीं लिखे जाते, इसमें तो आर्द्रा पुनर्वसु और पुष्य आदि मध्य और अंत्यनाडी में लिखकर फिर आश्लेषा मघा और पूर्वाफाल्गुनी अंत्य मध्य और आदि नाडी में लिखना, इसी प्रकार नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे लिखते हुए 27 नक्षत्र तीन Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 5 विविध विचार नाडियों में लिख दिये जाते हैं। इस चक्र की विधान. गाथा नीचे मुजब है "आई अदा मिगं अंते, मज्झे मूलं पइट्टि / . रवींदुजम्मनक्खत्तं, तिविद्धो न हु जीवति॥"... - अर्थात् आदि में आर्द्रा अंत में मृगशिरा और मध्य में मूलको रखना, इनके अगले .पिछले नक्षत्र आगे पीछे तीनों नाडियों में लिखना, फिर रोगोत्पत्ति समय के सूर्य नक्षत्र की चंद्र नक्षत्र की और रोगी के जन्म नक्षत्र की तलाश करना, अगर तीनों नक्षत्र एक ही नाडी में पडे हों तो रोगी का जीना कठिन है। सूर्य नक्षत्र और रोगी नक्षत्र एक नाडी में हों तो अधिक कष्ट भोग कर रोगी अच्छा होगा, रोगी नक्षत्र और चंद्रनक्षत्र एक नाडी में हों अथवा तीनों नक्षत्र भिन्न भिन्न नाडियों में हों तो अल्प कष्ट भोगने के बाद रोगी अच्छा होगा। नाडी चक्रों के विषय में विशेष विधान ग्रंथान्तर में इन नाडीचक्रों में विशेष विधान भी है जो नीचे के श्लोकों से व्यक्त होगा "रोगिणो जन्मऋक्षस्य, एकनाड्यां यदा रविः / यावदृक्षं रवे ग्यं, तावत्कष्टपरम्परा // रोगिणो जन्मऋक्षस्य, एकनाड्यां यदा शशी / तदा पीडां विजानीया-दष्टप्राहरिकी ध्रुवम् // क्रूरग्रहास्तदन्ये तु, यदि तत्रैव संस्थिताः / तदा काले भवेन्मृत्युः, सत्यमीशानभाषितम् // " Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 183 अर्थात् रोगी का जन्म नक्षत्र और सूर्य नक्षत्र एकनाडी में हो तो जब तक सूर्य उस नक्षत्र पर रहेगा तब तक रोगी को कष्ट भोगना पडेगा। ___ रोगी का जन्म नक्षत्र और चंद्र नक्षत्र एक नाडी में हों तो रोगी को आठ पहर याने एक दिन-रात्रि का कष्ट कहना चाहिये। ___ अगर सूर्य अथवा चंद्र के अतिरिक्त दूसरे भी कर ग्रह उस वक्त उस नाडी पर बैठे हों तो रोगी का मरण हो। तात्पर्य यह है कि रोगी नक्षत्र और सूर्य नक्षत्र दोनों एक नाडी में हों और दूसरे भी करग्रह उस नाडी में हों तो रोगी का बचना कठिन है। ऊपर का विशेष विधान तीनों नाडी चक्रों के लिये समान है। खुलासा - त्रिनाडी चक्र देखना कुछ भी मुश्किल नहीं है, इसके लिये 27 नक्षत्रों के नाम जान लेना जरूरी है। सूर्य जिस नक्षत्र पर होता है वह रवि नक्षत्र अथवा 'रविया नक्षत्र' कहलाता है / सूर्य प्रायः १३-१४-दिन एक नक्षत्र पर रहता है / किस समय सूर्य किस नक्षत्र पर है यह पंचांगों में लिखा रहता है। चंद्रमा जिस नक्षत्र पर हो वह चंद्रनक्षत्र है इसी को दिन नक्षत्र भी कहते हैं, क्यों कि साधारण रीति से इस का भोग Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 5 विविध विचार काल 60 घडी का होता है। पंचांगों में वार के बाद जो नक्षत्र लिखा रहता है वही चंद्रनक्षत्र है। रोगी मनुष्य का जिस चंद्रनक्षत्र में जन्म हुआ हो वह उस का जन्म नक्षत्र है / अगर रोगी का जन्म नक्षत्र न मालूम हो तो उस के प्रसिद्ध नाम से जो नक्षत्र बनता हो वही उस का जन्मनक्षत्र मान लेना चाहिये। ऊपर जो तीन त्रिनाडी चक्र लिखे हैं उन में जो कि अधिक जगह विरोध नहीं आता, तथापि कहीं कहीं ऐसा भी प्रसंग आ जाता है कि एक चक्र के अनुसार मृत्युयोग मालूम होता है तब दूसरे के विधानानुसार दीर्धपीडा और तीसरे के विधान से स्वल्पकष्ट / ऐसे स्थानों में परीक्षकों को बहुत सोच विचारके भविष्य कहना चाहिये, अन्यथा वे झूठे पडेंगे, सिर्फ एक ही चक्र के अनुसार मृत्युयोग बनता हो लेकिन रोगोत्पत्ति यदि शुक्ल पक्ष में हुई हो और उस समय रोगी का जन्म चंद्र हो अथवा आठमा चंद्र हो और अन्य भी एक दो क्रूर ग्रह उस नाडी में पडे हों तो रोगी का बचना कठिन ही समझना चाहिये / इसी प्रकार रोगोत्पत्ति कृष्ण पक्ष में हुई हो और उस समय-३-५--७-वीं तारा में से कोई एक तारा हो और सूर्य और रोगि के नक्षत्र वाली नाडी में अन्य भी करग्रह वर्तमान हों तो भी रोगी का बचना कठिन है, इस के विपरीत त्रिवेध होने पर भी रोगोत्पत्ति के समय तारा अनुकूल होगी और अन्य Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 185 रग्रह उस नाडी पर नहीं होगा तो रोगी के जीने की कुछ आशा की जा सकती है। . इन नाडीचक्रों के अवलोकन के साथ ही रोगी को किस नक्षत्र तिथि और वार में रोग उत्पन्न हुआ है यह भी देखना जरूरी है। नाडीचक्र और नक्षत्र-तिथि-वार योग इन दोनों के कम से यदि रोगी का मृत्युयोग बनता हो तो वह रोगी कभी नहीं बचेगा यह निश्चय कर लेना। ... जैसे नाडीचक्रों से मृत्युज्ञान का विधान ज्योतिष ग्रन्थकारों ने किया है वैसे नक्षत्र-तिथि-चार संबन्धी योग से भी रोगी के मरण-जीवन का ज्ञान उन्होंने बताया है, और यह विधान उक्त नाडीचक्रों में भी बहुत सुगम है / जिज्ञासुओं के अवलोकनार्थ हम वह योग नीचे देते हैं- नक्षत्र-तिथि-चार का मृत्युकारी योग..भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, अश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढा, धनिष्ठा, शतभिषक् और पूर्वाभाद्रपद इन नक्षत्रों में से कोई भी एक नक्षत्र हो, चतुर्थी षष्ठी नवमी द्वादशी और चतुर्दशी इन तिथियों में से कोई भी एक तिथि हो और रवि मंगल और शनि इन वारों में से कोई भी एक वार हो तो रोगिमृत्युयोग बनता है / उस समय में जिस को रोगोत्पत्ति हुई हो वह प्रायःकरके मृत्यु पाता है / इस योग में भी चंद्र था तारा की अनुकूलता हो तो कुछ बचने की आशा की जा Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 5 विविध विचार सकती है, इस के विपरीत जो चंद्र और तारा प्रतिकूल हों तो रोगी के बचने की आशा छोड देनी चाहिये / ऊपर के मृत्युयोग के समय यदि चंद्र रोगी की जन्म राशिका वा जन्मराशि से आठवीं राशि का हो, अथवा जन्म लग्न की राशिका हो, अथवा किसी भी राशिका होते हुए भी रोगोत्पत्ति की लग्रकुंडली में वह-२-८-१२ वें भुवन में बैठा हो तो रोगी की अवश्य मृत्यु कहनी चाहिये / . ऊपर त्रिक योग दिया है उस में नक्षत्र 11 लिये गये हैं, परंतु नीचे लिखे 7 नक्षत्र अकेले ही मृत्युदायक कहे गये हैं / यदि इन नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र में मनुष्य बीमार पडा हो और उस समय चंद्र अथवा तारा प्रतिकूल हो तो रोगी का बचना कठिन हो जाता है। वे सात मृत्युकारक नक्षत्र नीचे मुजब हैं- . ___आर्द्रा, अश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाति, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढा और पूर्वाभाद्रपद ये सात नक्षत्र रोगी के प्राणघातक हैं / इन में जिस को रोग उत्पन्न होता है वह बडा कष्ट पाता है और चंद्रादि की प्रतिकूलता में प्राणमुक्त ही हो जाता है। नक्षत्रों से रोगी का कष्टकाल प्रमाण- . ___ कष्ट से रोगनिवृत्तिअनुराधा और रेवती इन नक्षत्रों में रोगोत्पत्ति हुई हो Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह . 187 तो बहुत समय तक रोग बना रहता है और बड़े कष्ट से रोग की निवृत्ति होती है। 1 मास पीछे रोग निवृत्तिमृगशिरा और उत्तराषाढा में रोग उत्पन्न हुआ हो तो 1 मास में रोगी नीरोग हो। 20 दिन के बाद रोग निवृत्ति___यदि रोग मघा नक्षत्र में उत्पन्न हुआ हो तो वीस दिन के बाद मिटे / 15 दिन के बाद रोग निवृत्ति- हस्त, विशाखा, धनिष्ठा इन नक्षत्रों में उत्पन्न हुआ रोग 15 दिने के बाद मिटता है। . 11 दिन पीछे रोग निवृत्तिभरणी, चित्रा, श्रवण और शततारका इन नक्षत्रों में उत्पन्न हुआ रोग 11 दिन के बाद मिटता है / 9 दिन के बाद रोगनिवृत्तिअश्विनी, कृत्तिका और मूल में रोग उत्पन्न हुआ हो तो 9 दिन पीछे मिटे / 7 दिन में रोग निवृत्तिरोहिणी, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपद इन नक्षत्रों में होने वाला रोग 7 दिन में अच्छा होता है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 . 5 विविध विचार विशेष खुलासा ऊपर जो नक्षत्रों के आधार से कष्ट का कालमान बतलाया है वह चंद्र और तारा अनुकूल प्रतिकूल न होने की दशा में समझना चाहिये। यदि चंद्र अथवा तारा अनुकूल हो तो इस काल से कुछ पहले भी रोगनिवृत्ति हो सकती है, इसी तरह चंद्र तारा के प्रतिकूल होने पर लिखे हुए मान से कुछ अधिक दिन तक भी कष्ट भोगना पडता है। मुनि कल्याणविजय इति श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह प्रथम खण्ड समाप्त / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह द्वितीय खण्ड चैत्यवंदन 1 स्तुति संग्रह 2, स्तवन 3 और स्वाध्याय 4 / पद 5 ये द्वितीयखण्डमें, कहे पंच अध्याय // 1 // 1 चैत्यवंदनसंग्रह मुनिश्रीकल्याणविजयविरचिता चैत्यवन्दनचतुर्विंशतिका श्री ऋषभदेवजिनचैत्यवन्दनम् / (वसन्ततिलकाऽपरनामकं उद्धर्षिणी वृत्तम् ) श्रीनाभिराजकुलनन्दनकल्पवृक्षः, संप्राप्तसर्वसुरपूज्यतमत्वपक्षः / उल्लासयन् रविरिवाङ्गिसरोजखण्ड, दिश्यात्स शर्म वृषभो भवतामखण्डम् // 1 // Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चैत्यवन्दनसंग्रह त्रैलोक्यलोकचलनेत्रचकोरचन्द्र, वैराग्यरङ्गरसभङ्गभयास्ततन्द्रम् / संसारसिंधुतरणाय सुयानपात्रं, . देवं नमामि ऋषभं अपवित्रगात्रम् // 2 // येन प्रदर्शितमशेषकलाकलापं, दुर्बोधजातदुरितौषकृतापलापम् / स्मृत्वाऽधुनापि जनता निजकार्यजन्मादुद्धर्षिणीतिहरणोऽस्तु स नाभिजन्मा // 3 // श्रीअजितनाथजिनचैत्यवंन्दनम् / . (तोटक वृत्तम् ) - अजितं विदिताखिलवस्तुगणं, सगुणं वरमुक्तिवधूरमणम् / रमणीरजनीचरिकावियुतं, प्रणुत प्रणताखिल सिद्धिकृतम् // 1 // प्रपतन्तमवित्तिभरे मनुज, मनुजन्म करन्तमदृष्टरुजम् / जनमानसमानसहंससमं, समदृष्टितमं प्रणमाम्यसमम् // 2 // विहितामरदानवसेवनक, कनकोज्ज्वलनिर्मलविग्रहकम् / भवतोटक ! तोटय मे दुरितं, समयोदितकर्मरजोमिलितम् // 3 // श्रीसंभवजिनचैत्यवन्दनम् / . (उपजातिवृत्तम् ) श्रीसंभवो निर्दलितारिसंभवो, विसंभवः प्रास्तविकारसंभवः / सशंभवश्रीद्धजितारिसंभवः, क्षिणोतु तं योऽस्ति गदोरिसंभवः / / पृथैव मन्ये विदुषां नु भारती, यया न ते प्रक्रियते बुधैः स्तुतिः। किं कल्पवृक्षोऽपि फलादिवर्जितः,फलैषिभिनों विबुधैर्वितर्जितः।२। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 191 न स्रग्धरावृत्तमुखरपि स्वयं, सदैव सावधविवर्णकः कविः / लभेत सत्कीर्तिभरं यथा स्तुवन् , भवन्तमल्पैरुपजातिवृत्तकैः / / 3 / / श्रीअभिनन्दनजिनचैत्यवन्दनम् / ___ (रथोद्धता वृत्तम् ) संवराख्यनरराजनन्दनं, देवराजविहिताभिनन्दनम् / धर्मदानजनताभिनन्दनं, भक्तितोऽस्मि विनतोऽभिनन्दनम् // 1 // भो जना! विषयलुप्तचेतन,-भॊजनादिसुखमिष्यते जनैः / तद्वदेव भवतापपीडिते,-निसाधनमसौ निषेव्यते // 2 // सेवनेन सततं जिनेशितु,-र्मोहराजमदनौ प्रणेशतुः / सन्नृणां भवतु वोऽपि तद्गता, तद्भटालिरनुगैरथोद्धता // 3 // ___ श्रीसुमतिनाथजिनचैत्यवन्दनम् / (द्रुतविलम्बितवृत्तम् ) सुकृतवल्लरिवर्धनवारिद,-प्रभमनल्पगुणस्य तवारिद ! / वचनमर्तिहरं भवितारकं, भवतु मेऽघहरं विगतारकम् // 1 // सुमतिमेघनरेन्द्रसमुद्भव !, विहितसर्वसुरासुरमुद्भव ! / अथ भवेद्धि भवान्मम तारणः, सजति चेद्भगवन् ! ममतारणः।२। द्रुतविलम्बितसंसरणक्रम,-मविरतं विदधे सगुणक्रम ! / . यदि रतिहिं भवेद्भवदाश्रये, ध्रुवगतिं भगवन् ! नु तदाश्रये // 3 // श्रीपद्मप्रभजिनचैत्यवन्दनम् / . . (इन्द्रवज्रावृत्तम् ) पद्मप्रभेऽम्भोजविशालनेत्रे, पद्मप्रभे भो दधतां सुभक्तिम् / ये न प्रकृष्टत्वमुचः कदापि, येन प्रनष्टा ननु तेऽपि दोषाः // 1 // Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 1 चैत्यवन्दनसंग्रह . नाथ ! त्वया चेत्क्रियते जनोऽन्यो, धर्मोपदेशैननु मुक्तरागः। त्वं रागयुक्तोऽसि कथं नु यद्वा, माहात्म्यमेतत्खलु सर्ववित्वे / / एकाकिनापि प्रहतास्त्वयेद्धा, मोहादयः कर्मबलिष्ठयोधाः / स्यादिन्द्रवजाहतिरेकिकापि, नाशाय मौलेः कुलपर्वतादेः // 3 // ___ श्रीसुपार्श्वजिनचैत्यवन्दनम् / (प्रहर्षिणीवृत्तम् ) पृथ्वीजं शिवपुरसार्थवाहनाथं, चक्राणं प्रबलमनोभवप्रमाथम् / कुर्वाणः स्तुतिलवगोचरे सुनाथं, कुर्वे स्वं निजगुणलालसासनाथम् / देवेन्द्रैः प्रकटितभक्तिरागसारैः, संसारे पुरुषवरं हि मन्यमानैः। यो नेमे विरतगणैश्च बद्धरागै,-योनेर्मेऽविरतगतं स संरुणधु / / संप्राप्ते पुरमपुनर्भवाख्यमीशे, निर्नाथा विरहविषार्दिता प्रकामम् / नो चेत्तेऽमृतसमदर्शनं प्रबिम्ब, नो नूनं भुवि जनता प्रहर्षि __णीयम् // 3 // श्रीचन्द्रप्रभजिनचैत्यवन्दनम् / (ललितावृत्तम् ) . चन्द्रप्रभ जनिविपूतसज्जनं, चन्द्रप्रभं जनितहष्टिमजनम् / देवाधिदेवविनतं स्वशक्तितो, देवाधिदेवमभिनौमि भक्तितः / / तेजःप्रपन्नरविरूपरोचन, श्वेतःसरोजदलने विरोचनः / देयान्मतिं जिनपतिः स तामरं, यस्या जनुर्विभवनिर्जितामरम् / 2 / लोको जहर्ष तव दर्शनागमाज, ज्ञानप्रकर्षललिताजिनागमात् / किंवा धुजातमहसे न नन्दन,-मीश ! क्षमेशमहसेननन्दन ! // 3 // Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रा श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 193 श्रीसुविधिनाथचैत्यवन्दनम् / ___ (सुमुखी वृत्तम् ) कुतुकमिदं ननु पश्यत भो, भुवि जनचित्तसरोजमिदम् / सुविधिजिनस्य मुखेन्दुरयं, कुवलयवद् विशदीकुरुते // 1 // भवति न यस्य मनो रमते, भवति नरस्य न तस्य रतिः। किमु सुरपादपपादभिदि, शमुदयमेति कदाप्यविदि // 2 // तव चरणाम्बुजवद्धरति,-गणधरवन्मनुजः सुमतिः / भुवि जनतासु-मुखी भवति, भवभयतश्च जनानवति // 3 // श्रीशीतलजिनचैत्यवन्दनम् / . (चन्द्रवर्त्मवृत्तम् ) शीतलं जिनपतिं नम जनते !, संगृहाण वरपुण्यमजनतेः। एतदर्थममरा अपि सततं, पूजनं विदधते दिवि सततम् // 1 // पूजयन्ति जिनदैवतचरणा,-नार्यलोकपथनिर्मितचरणाः। प्राणिनो विधिवदादरसहितं, मन्वते च भुवि तत्खलु सहितम् // 2 // चन्द्रकान्तसमशीततनुजिन, चन्द्र ! वर्त्म सुगतेर्दददमलम् / मामनल्पमतिरहितमशरणं, नाथ ! रक्ष दुरितादनिशरणम् // 3 // . श्रीश्रेयांसजिनचैत्यवन्दनम्। . ... (शालिनीवृत्तम् ) स्फूर्जकान्तिर्ध्वस्तसंसारतान्ति, . चंचच्छीलः प्रोज्झिताऽशस्तलीलः / श्रीश्रेयांसः संचितान्तश्शमायः, कुर्यात्सौख्यं देववन्धोऽस्तमायः // 1 // की Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 1 चैत्यवन्दनसंग्रह विद्यावल्लीवर्धने वारिवाहः, कैवल्याध्वपापणे शस्तवाहः / स श्रेयांसः श्रेयसां यः सुखानिः, सश्रेयान् वः संविधत्तां सुखानि // 2 // प्रत्यादर्श श्रेयसो दैवतस्य, वधं चित्तं येन . पापं न तस्य / प्रत्याघातं संविधत्ते नरस्य, . यस्मात् श्रेयःशालिनी भक्तिरस्य // 3 // श्रीवासुपूज्यजिनचैत्यवन्दनम् / (स्वागतावृत्तम् ) वासुपूज्य ! कृतपुण्यकृतान्त, हेलया विजितरागकृतान्त ! / योगिनोऽपि विनमन्ति भवन्तं, के त्यजेयुरथवा शुभवन्तम् // 1 // या चचाल निजनिश्चलभावात् , योगिनाथततिरप्यविभावात् / यदशा विजयिनं हरिसूनुं; तं जघान वसुपूज्यसुसूनुः // 2 // स्वागताप्रभृतिबद्धनिबन्धै,-स्त्वां स्तुवन्ति कवयः शुचिबन्धैः। नो तथापि गुणवर्णनकृत्ये, पारयन्ति तव वर्णनकृत्ये / // 3 // ___ श्रीविमलजिनचैत्यवन्दनम् / (मन्दाक्रान्तावृत्तम् ) श्यामासूनो ! तव वरवचःश्रेणिपीयूषधारा,तृप्तात्मानः प्रकृतिसुभगा मानवा मानधाराः / उत्पद्यन्ते विबुधभुवनेषूत्तमेघूत्तमास्ते, यत्रानन्दप्रबललहरीप्रोल्लसत्सौख्यमास्ते // 1 // . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह हेयाहेयरकटनविधौ बद्धलक्ष्यो नितान्तं, ज्ञानोद्योतैर्भुवि भविजनं बोधयन् योनितान्तम् / निर्मुक्तात्मा शिवसुखरतिः कर्मरोगैरपीडयः, सर्वज्ञोऽसौ जयतु विमलः सर्वदेवेरपीडयः // 2 // संसाराम्भोनिधिनवतरी दुष्टभीनरभक्ष्याs,मन्दाक्रान्ता शमरसभरैर्दुमैतागैरलक्ष्या / दत्तानन्दा भुवि जययशोविस्फुरद्वैजयन्ती, सौख्यं मूर्तिः सुभग! भवतो यच्छताद्वै जयन्ती // 3 // श्रीअनन्तजिनचैत्यवन्दनम् / (भुजंगप्रयातवृत्तम् ) अनन्तं जिनं पुण्यवन्तं ससन्तं, क्षिपन्तं कुकर्मोघमति हरन्तम् / जनान् रञ्जयन्तं रिपून् सञ्जयन्तं,नमामीश्वरं तं वरं मुक्तिकान्तम् 1 सदा सिद्धिसौख्यप्रियध्येयरूपं, जितानङ्गरूपं श्रिया जातरूपम् / मुनिव्रातभूपं शमापारकूपं, नमस्याम्यनन्तं जिनं योगिरूपम् / 2 / भुजंगप्रयाताऽध्वमुक्तं सुसूक्तं, जराजन्महीन महानन्दलीनम् / हतप्रीतिनाथं कृताध्यप्रमाणे, श्रयेऽनन्तदेवं सुपुण्याप्यसेवम् / 3 / श्रीधर्मनाथजिनचैत्यवन्दनम् / (स्रग्विणीवृत्तम् ) धर्मनाथं स्तुत प्रौढबुध्ध्यन्वित,-देवराजाचितं यस्य पादद्वयम् / भव्यहंसैः श्रितं पुण्यगन्धाश्रितं, राजते पद्मशोभा परिदासयत् / / धर्मनाथ ! त्वयोद्दिष्टधर्मे कृत,-वर्तनाः कर्तनायोत्कटद्वेषिणाम् / / स्युर्जनाः सेव्यसे त्वं ततःस्वार्थिभि, देवराजासुरैः केवलस्वार्थिभिः Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चैत्यवन्दनसंग्रह स्रग्विणी भक्तचेतस्तमश्चूरिका, पूरिका स्वर्गनिःश्रेयसां सम्पदाम् / मूर्तिरेवंविधा ते यशःसाधिका, दीयतां भद्रमानन्दवासाधिका 3 श्रीशांतिनाथजिनचैत्यवन्दनम् / ____ (मालिनीवृत्तम् ) शिवपदसुखकारी कर्मविद्वेषिवारी, मदनमदविभेदी विश्ववस्त्वेकवेदी / भवजलधिविशोषी पापवारप्रमोषी, दिशतु कुशलमीशः शान्तिनाथो मुनीशः॥१॥ स्वहृदि धृतभवन्तः प्रास्तरागा भवन्तः, तव नतिशुभवन्तस्ते नराः पुण्यवन्तः / अतिशयसुखसारं केवलालोकसारं, परमपदमुदारं यान्ति भव्या मुदाऽरम् // 2 // प्रशमरसविपुष्टा नाशिताशेषदुष्टा, जगति जनितचित्रा पुण्यपोषैः पवित्रा / महिमजितसमुद्रा मालिनी यस्य मुद्रा, स जयति जिनशान्तिर्निर्जितस्वर्णकान्तिः॥३॥ श्रीकुन्थुनाथजिनचैत्यवन्दनम् / (कामक्रीडावृत्तम् ) संसृत्तारं विध्वस्तारं श्रीदातारं धातारं, चश्चच्छोभारम्यं गम्यं योगीशानामीशानाम् / ' संसाराम्भोराशिं तीर्ण सौख्याकीर्ण विस्तीर्ण, वन्दे देवं कृत्यासेवं कुन्थु सावं सर्वज्ञम् // 1 // Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह त्यक्तासारं ज्ञानोदारं विश्वोद्धारं विद्यारं, स्फूर्जद्योगं मुक्तोद्योगं भासा चन्द्रं निस्तन्द्रम् / संख्यावन्तं पुण्योदन्तं कीा कान्तं संशान्तं, वन्दे दे दत्तासेवं सौधर्मेशे धर्मेशे // 2 // आयुर्विद्युयोताभं वर्लीलां कीलाभामन्ते, विज्ञा विज्ञायाशु ब्रीडां कामक्रीडां संप्रोज्झ्य / दुःखोद्रेकच्छेदच्छेकं भक्त्युद्रेकं बिभ्राणा, देवाः सेवां यस्याऽकुर्वन् कुन्थुः कुर्यात्कल्याणम् // 2 // - श्रीअरनाथजिनचैत्यवन्दनम् / . . ( हरिणीवृत्तम् ) जनितजनतानन्दं कन्दं महोदयवीरुधा,मविरतिरतिप्रीतिप्रौढिप्रमुक्तमगुर्बुधाः / यकमशरणा लब्धोत्कर्णाः शरण्यमनिन्दितं, स दिशतु शिवं देवीसूनुर्भवान्तमनिन्दितम् // 1 // अतुलजवना बद्धस्पद्धाः सुरासुरनायका, यदभिगमने लब्ध्वोत्कण्ठा भवन्त्यविनायकाः। अरजिनपतेः पादद्वन्द्वं सरोजविकस्वरं, दलयतुतरां पापद्वन्द्वं प्रभाजितभास्वरम् // 2 // शुभमतिजनस्वान्तध्वान्तप्रणाशनभास्कर, विदलितदरद्वेषाऽज्ञानं विरागसमादरम् हृदयहरणैर्हावैः क्षुब्धेतरं हरिणीदृशां, हृदयममलं देवीसूनोस्तनोतु सुखं विशाम् // 3 // Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 1 चैत्यवन्दनसंग्रह श्रीमल्लिनाथजिनचैत्यवन्दनम् / (वरतनुवृत्तम् ) . अयि हितकारक ! मल्लिनाथ ! ते, चरणयुगं सुरपोऽपि नाथते / भवजलतारणशक्तिमत्परं, द्रुतमभितारय मामतःपरम् - // 1 // अयि नतवत्सल ! नापदां पदं, भवति जनो भवतां श्रितः पदम्। किमु कृतकल्पमहीरुहार्चनः, समजनि दुर्गतकः कदाचन // 2 // भवदभिधाजपबद्धमानसे, ननु भुवि भव्यजने समानसे / वर! तनुतापूरमर्तिनाशनं, पदमितवन्नु विवर्तनाशनम् // 3 // श्रीमुनिसुव्रतजिनचैत्यवन्दनम् / (कनकप्रभावृत्तम् ). मुनिसुव्रतस्य भववारिधेः परं, तटमागतस्य तरसा विधेःपरम् / स्तवनां करोतु जनता शुभाशया, शिवसाधनाप्तिरसिका शुभाशया 1 प्रवरप्रतापपरभावभावितं, भविनं करोति परभावभावितम् / विमलं यदीयचरणद्वयं स तां, विमलां ददातु परमां रमां सताम् / / 2 / / कनकप्रभाव ! भवदागमागम !, सुकृतोदयेन भवदागमागमः। समपद्यतात्महितकारणं मम, भवनाशनं भततु तेन निर्मम ! // 3 // श्रीनमिनाथ जिनचैत्यवन्दनम् / (प्रमाणिकावृत्तम् ) सकर्णकर्णतोषिणी, हिताऽऽहिताधिसंस्कृतिः। .. सदा सदानवैः सुरै,-र्नुता नु तायिनी नृणाम् // 1 // Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह नयानयादिराजिता, ऽगमैर्गमैगरीयसी / प्रमाप्रमाणपूरिता, महर्षिहर्षिणी सदा // 2 // दयोदयोज्ज्वला सदा,-ऽक्षयाऽक्षयामिनी विशाम् / धियोऽधियोगकारिणी, भियोऽभियोगनाशिनी // 3 // यदीदृशी सरस्वती, न रोचते सरस्वती / जनाय ते सुवर्णिका, जगदशासुवर्णिका // 4 // नमे ! नमे प्रमाणिका, नरस्य धीस्तदीदृशः। मतं मतं विपर्यय-प्रसाधनं नु धीदृशः // 5 // श्रीनेमिनाथजिनचैत्यवन्दनम् / . . ( पञ्चचामरवृत्तम् ) क्षणं निरीक्ष्य वीक्षणैः प्रतिक्षणं क्षयान्वितं, क्षणं यदप्रतीक्षितं क्षमेशमण्डलैः क्षितौ / असारसंमृदुद्भवातिभीतिभागजनो यमा,श्रयेद्धिताय भक्तितस्तमानतोऽस्मि नेमिनम् // 1 // कुरङ्गरङ्गभङ्गभीरुताभरावभारित !, निदर्शनीभवन् दयालुताजुषां विशां धुरि / विवाहवाहवाहनावरुद्धराज्यहायक !, भवन्तमीदृशं दयालुमाश्रितोऽस्मि रक्ष माम् // 2 // जयाभिलाषिवाजिराजिराजिराजराजिताs. प्रपञ्च ! चामरालिशोभिपार्श्व ! पार्श्वगावन ! / यदूज्ज्वलान्वयाम्बुराशिभासनाऽब्जभासुर!, विधेहि मां भवाम्बुधेस्तटानुयायिनं विभो ! // 3 // Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 .. 1 चैत्यवन्दनसंग्रह श्रीपार्श्वनाथजिनचैत्यवन्दनम्। . (शिखरिणीवृत्तम् ) सदा शुद्धा मूर्तिर्मदनमदमोहादिविकला, कलाऽपूर्वा वाक्ये सुतनुमदविद्यान्तकरणे / रणे रङ्गो नित्यं विततभवभावारिनिधने, धने मूर्छात्यागः वरतरसुवर्णादिनिकरे // 1 // करे शस्त्राभावो जनितजनसंतापशमनो, मनोऽपूर्वध्यानस्थगितनिखिलाऽवद्यविवरम् / वरं धर्मस्थैर्य भुवनविदिता कापि समता, मता मह्या मैत्री तनुमदधिवात्सल्यसहिता // 2 // हिताधाना एतेऽतुलसुकृतसंभारजनिता, . नितान्तं राजन्ते भवति सुगुणाः पार्श्व! सुतपः। : तपत्रस्यच्छैत्यं किरणविसराऽस्तान्धतमसं, मसं मोघीकुर्वन्नवरविरिख प्राशिखरिणि / / 3 // श्रीमहावीरजिनचैत्यवन्दनम् / (शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) वीरः सर्वहितः सदोदितसुखं वीरं जनालिः श्रिता, . वीरेण प्रविताडिता रिपुततिवीराय धत्ते नतिम् / वीराद्विश्वमहोदयो धृतजयो वीरस्य वीर्य महत् , वीरे विस्तृततां गता गुणलता वीर ! प्रदेयाः शिवम् // 1 // यो मुक्तिश्रियमातनोति सुदृशां यं स्वर्गनाथा नता, येनाऽभेद्यविभेद्यकर्मनिकरो यस्मै जनः श्लाघते / Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह यस्मादुर्गुणसंततिर्गतवती यस्य प्रपूतं वचो, यस्मिन् पङ्कजकोमले जनमनो भृङ्गोपमं लीयते // 2 // स श्रीवीरविभुभंवत्वसुखहत्तं दैवतं संश्रये, तेनाऽस्मि प्रभुणा सनाथगणनस्तस्मै नतिं संदधे / तस्मान्नास्ति परः प्रभादिनकरस्तस्याङ्घ्रियुग्मं स्तुवे, तस्मिन्नेव च कर्मदन्तिदलने शार्दूलविक्रीडितम् // 3 // अङ्गर्षिनवभूवर्षे, पादलिप्तपुरे वरे। कल्याणविजयेनेयं, चतुर्विंशतिका कृता // 1 // इति मुनिवर्यश्रीकल्याणविजयविरचिता चैत्यवन्दनचतुविंशतिका समाप्ता / : . 2 स्तुति-संग्रहः . मुनिराजश्रीकल्याणविजयादिविरचितः / श्रीआदिजिनस्तुतिः (शौरसेन्याम् ) . . द्रुतविलम्बितवृत्तम् पुरवपुण्णभरादुः समजिय, नरभवं विभवंचिदमंदिरं / निजहिदं जदि इच्छध माणवा, नमध नाभिसुदं जिणनायगं॥१॥ 1 छाया-पूर्वपुण्यभरात् समये, नरभवं विभवाञ्चितमन्दिरम् / निजहितं यदि इच्छथ मानवा !, नमत नाभिसुतं जिननायकम् // Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 2022 स्तुतिसंग्रहः . दलिददुक्खभरा समदादरा, विरदिधम्मपसाहणतप्परा / . जिणवरा जणपंकजभक्खरा, सुगदिदा मम होन्तु सदक्खरा / / गमगहीरतलो नयसोहिदो, विविहभंगवियारविराइदो / चदुरबुद्धिविगाहिदमज्झगो, सुमदिदो मम भोदु जिणागमो / 3 / कड्डय घोरउवदवणासणं, जणमणं करिदूण विकस्सरं / कुणदि जो जिणणाधमदुन्नदि, हरदु सो दुरिदं मम गोमुहो // 4 // श्री शान्तिनाथजिनस्तुतिः (मागध्याम् ) ___ मालिनीवृत्तम् दुलिदयणिदकटं दुस्तिदिं दुक्खवेय्यं, कुणदि गलिदसत्तं ये नलाणं वलाणं / यणिदभुवणशंती कुस्टिदाशेशभंती, दिशदु यणदिदं शे शंतिनाघे अणाधे // 1 // दलितदुःखभराः समतादरा, विरतिधर्मप्रसाधनतत्पराः // जिनवरा जनपंकजभास्कराः, सुमतिदा मम भवन्तु सदक्षराः॥ गमगभीरतलो नयशोभितो, विविधभङ्गविचारविराजितः। चतुरबुद्धिविगाहितमध्यकः, सुमतिदो मम भवतु जिनागमः // कृत्वा घोरोपवद्रवनाशनं, जनमनः कृत्वा विकस्वरम् / करोति यो जिननाथमतोन्नति, हरतु स दुरितं मम गोमुखः // 1 छाया-दुरितजनितकष्टं दुःस्थितिं दुःखवेद्यां, करोति गलितसत्त्वां यो नराणां वराणाम् / जनितभुवनशान्तिः कुट्टिताशेषभ्रान्तिः, दिशतु जनहितं स शान्तिनाथोऽनाथः // Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह शददकमलंबाशुबिग्गचेदा लमा शा, अवलविमलवाशाभावमावोहमाणी / चलणकमलमालं येसिमाणन्दशालं, शलणमधिगदा ते दिन्तु मुक्खं यिणिंदा // 2 // पलिमिदनियतेया जाहणंतं पयाशं, पलिकलिय तदस्तं पस्तिदा शोमशूला / अणहिगदतदस्ता अन्तलि के भमंति, दिशदु विमलविय्यं आगमो शे यिणाणं // 3 // कदयिणमदशाले शंतिभत्तेगपाले, गयवलगदिशाले धस्तविग्यप्पयाले / यिणचलणशलोये भिंगभावं भयंते, हलदु विमलकंती पावगं बंभसंती // 4 // 1 छाया-सततकमलवासोद्विग्नचेता रमा सा, अपरविमलवासाभावमाबोधमाना / चरणकमलमालां येषामानन्दशालां, शरणमधिगता ते ददतां मोक्षं जिनेन्द्राः // परिमितनिजतेजसौ यस्याऽनन्तं प्रकाश, परिकलय्य तदर्थ प्रस्थितौ सोमसूरौ / अनधिगततदर्थो अन्तरिक्षे भ्रमतः दिशतु विमलविद्यामागमः स जिनानाम् / / कृतजिनमतसारः शान्तिभक्तैकपालः, Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 ____ 2 स्तुति-संग्रह . श्री नेमिनाथजिनस्तुतिः (पैशाच्याम् ) . उपजातिवृत्तम् तूरातु तत्थून पसुप्पकारं, तयालतापोसनबद्धचित्तो। गेन्हीअ यो तिक्खमभग्गशीलो, सुखाय सो नेमिजिनो जनानं, अञानअंधीकतलोचनानं, विवेकहीनान सता जनानं / भवन्नवे ये वरयानतुल्ला, छितंतु ते तुक्खभरं जिनिंता // 2 // संसारगेहे वरतीपकाभो, महेसिनं झत्ति वितिण्णलाभो। अपुव्वतत्तोषविसालतेहो, जिनागमो सव्वहितो जयेजा // 3 // नेमीसझानातु सुपत्ततेव-भवा भवारनविलंघनत्थं / जिनिंततेवं परिसेवमानी, विवेकिनं होतु सुखाय अंबा // 4 // गजवरगतिसारो ध्वस्तविघ्नप्रचारः / . जिनचरणसरोजे भंगभावं भजन , हरतु विमलकान्तिः पापकं ब्रह्मशान्तिः // 1 छाया-दूरात् दृष्ट्वा पशुप्रकारं, दयालतापोषणबद्धचित्तः / अग्रहीत् यो दीक्षामभग्नशीलः, सुखाय स नेमिजिनो जनानाम् // अज्ञानान्धीकृतलोचनानां, विवेकहीनानां सदा जनानाम् / भवार्णवे ये घरयानतुल्याः, छिन्दन्तु ते दुःखभरं जिनेन्द्राः // संसारगेहे वरदीपकाभो, महर्षीणां झगिति वितीर्णलाभः / अपूर्वतत्त्वौघविशालदेहो, जिनागमः सर्वहितो जयतात् // नेमीशध्यानात् सुप्राप्तदेवभवा, . भवारण्यविलंघनार्थम् / जिनेन्द्रदेवं परिसेवमाना, विवेकिनां भवतु सुखाय अंबा // Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह श्री पार्श्वनाथजिनस्तुतिः / ( चूलिकापैशाच्याम् ) वसन्ततिलकावृत्तम् नाकाथिराचथरनिंतविसालचित्तफूमिप्परूठवरफत्तिलतानिकुंचे / काहीअ नो चलनपत्थमनोमरालो, यस्साफिलासमपि सो विचयाय पासो॥१॥ तारित्ततावपरितसरीरलोकं, संपूरितासखनवुष्टिविफिन्नतापं / संपातितून समथम्मसमातरा ये, तिक्खं फचन्ति सिवता मम ते चिनिंता // 2 // सुत्थोतनस्स तनयस्स मतं नरम्म, एकंतनासविसयो नहु वत्थु लोके / 1 छाया-नागाधिराजधरणेन्द्रविशालचित्त भूमिप्ररूढवरभक्तिलतानिकुञ्ज / अकार्षीत् नो चरणबद्धमनोमरालो, .. यस्याभिलाषमपि स विजयाय पार्श्वः // दारिद्रयदावपरिदग्धशरीरलोकं, संपूरिताशघनवृष्टिविभिन्नतापं, / संपाद्य शमधर्मसमादरा ये, ... दीक्षां भजन्ति शिवदा मम ते जिनेन्द्राः॥ शुद्धोदनस्य तनयस्य मतं न रम्यं, एकान्तनाशविषयो न खलु वस्तु लोके। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 स्तुति-संग्रह एकंतथुव्वविसयोपि न साथुवातो, तम्हा नमामि सियवातमतं चिनानं // 3 // हुंकारनातपरिफापिततुकृतेवो, .. हत्थत्थसध्पपरितासितविक्खमूसो। पासप्पसाततरुलत्थसतानिवासो, सुक्खाय भोतु सततं मम पासयक्खो // 4 // श्रीवर्धमानजिनस्तुतिः (अपभ्रंशभाषायाम् ) पञ्चचामरवृत्तम् . . कसोवले अभव्वसंगमस्सु भाविसामले, सुपत्तु जस्सु धीरदासुवण्णु जाउ, उज्जलु / सुरिंदचक्कवागवासराहिणाधु सो जिणु, सभत्तिहं मणुस्सहं सुहाय णादनंदणु // 1 // एकान्तध्रौव्यविषयोऽपि न साधुवादः, .. तस्मान्नमामि स्याद्वादमतं जिनानाम् // हुंकारनादपरिभापितदुष्टदेवो, हस्तस्थसर्पपरित्रासितविघ्नमूषकः / पार्श्वप्रसादतरुलब्धसदानिवासः, . सौख्याय भवतु सततं मम पार्श्वयक्षः / / 1 छाया- कषोपले अभव्यसंगमकस्य भाविश्यामले, सुप्राप्तं यस्य धीरता सुवर्ण जातमुज्ज्वलम् / सुरेन्द्रचक्रवाकवासराधिनाथः स.. जिनः, सभक्तिकानां मनुष्याणां सुखाय ज्ञातनन्दनः // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 207 सकम्मरोगहिं पपीलिया पवढ्डवेयणा,' मलीणवासणागुला अपत्थसेवणायरा / कहं नु हुंत माणवा न हुंत भूतले जइ, परोवगारलद्धजम्मधम्मविजगा जिणा॥२॥ विमुत्तिमग्गदसणग्गवारु विग्धवजिउ, दुरन्तदुग्गदिप्पवेसरोहलोहअग्गलु / जयप्पयासु सामि जोगखेमकारगुत्तमु, करेउ नदुक्खजालु सो मई जिणागमु // 3 // सुवण्णवण्णदेहकंतिभारभासिअंबरा, पकामकामियत्थसत्थदाणि अप्पतारणी। जिणस्सु वीरहो सुभत्तिसत्तितत्तिवजिआ, सिरिद्ध सिद्धदेवि देउ भन्वहं सुमंगलु // 4 // स्वफर्मरोगैः प्रपीडिताः प्रवृद्धवेदनाः, मलिनवासनाकुला अपथ्यसेवनादराः / कथं न्वभविष्यन् मानवा नाऽभविष्यन् भूतले यदि, परोपकारलब्धजन्मधर्मवैद्यका जिनाः॥ विमुक्तिमार्गदर्शनाप्रद्वारं विघ्नवर्जितं, दुरन्तदुर्गतिप्रवेशरोधलोहार्गला। जगत्प्रकाशःस्वामी योगक्षेमकारकोत्तमः, करोतु नष्टदुःखजालं स मां जिनागमः // सुवर्णवर्णदेहकान्तिभारभासिताम्बरा, प्रकामकामितार्थसार्थदाने अप्रतारणी। जिनस्य वीरस्य सुभक्तिसक्तितप्तिवर्जिता, श्रीद्धा सिद्धादेवी ददातु भव्यानां सुमंगलम् // Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 2 स्तुति-संग्रह श्रीदीपमालास्तुतिः (शिखरिणीवृत्तम् ) - गतो भावोद्योतः परमविमलज्योतिरधुना, ततो द्रव्योद्योतं भुवि वितनुमस्तस्य विरहे / इति प्राज्ञैरष्टादशभिरजनीजानिभिरहो, . . कृता दीपालीयं जयति जयदा. वीरजपतः // 1 // न मे कामैरर्थः परमसुलभैरर्थनिकरैः, कृतं राज्येनाऽलं सृतममरलोकधिविभकैः / अनाप्तां संसारभ्रमणमतिभिर्मानवगणे,लभेयं दुष्पापां जिनपपदपद्धेषु वसतिम् // 2 // श्रुते श्रोत्रानन्दः परममनुभूतेऽघविलयो, मनःशुद्धिाते विमलवचनो यत्र पठिते। भवेत्सेवायोग्यो विहितवरसेवे च मनुज,स्तमानन्दोबोधं जिनपतिकृतान्तं प्रणमत // 3 // धृतश्रद्धा संघे विहितविनया वीरविभवे, भवे सौख्यं दात्री जिनवरवचोबद्धमनसाम् / परा सम्यग्दृष्टिः सुमतिजनसंतापशमनी, सदा सिद्धादेवी भवतु भविनां दुःखदमनी // 4 // श्री वीरजिनस्तुतिः (आर्या छंदः) सो जयउ जगाणंदो, वीरजिणो सयलगुणगणालीढो / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 7 // श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 209 जस्स विलीणा सव्वे, रागद्दोसादओ दोसा // 1 // अन्नाणतमविणासण,-रविकप्पे कप्परुक्खतुल्लकरे / अज्झप्पधम्मकुसले, जिणचन्दे वंदिमो सिरसा.॥२॥ तिहुअणगिहगयवत्थु,-प्पयासपवणो कुमारुआगम्मो / एगंतसलहदाहो, जिणागमो दीवओ जयउ // 3 // सिरिवीरभत्तिभावा, गयपावा दलियविग्यसब्भावा / कल्लाणमग्गलाभ, जणस्स सिद्धाइआ कुणउ // 4 // इति मुनिवर्यश्रीकल्याणविजयविरचितः स्तुतिसंग्रहः समाप्तः। विविधस्तुतियाँ श्री ऋषभदेव जिन स्तुति . . प्रह उठी. बंदु ऋषभदेव गुणवंत, प्रभु बेठा सोहे समवसरण भगवंत / / त्रण छत्र बिराजे चामर ढाले इंद, जिनना गुण गावे सुरनरनारीना वृंद // 1 // बार परखदा बेसे इंद्र इंद्राणी राय, . . . . नव कमल रचे सुर जिहां ठविया प्रभु पाय / देव दुंदुभि वाजे कुसुम वृष्टि बहु हुंत, एवा जिन चोवीसे पूजो भवि एक चित्त // 2 // जिण जोजन भूमि वाणीनो विस्तार, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रस 2 स्तुति-संग्रह प्रभु अस्थ प्रकाशे रचना गणधर सार / सो आगम सुणतां छेदीजे गति चार, जिन वचन वखाणी लहिये भवनो पार // 3 // यक्ष गोमुख गिरुओ जिननी भक्ति करेव, तिहां देवी चकेसरी विधन कोड हरेव / .. : . श्री तपगच्छ नायक विजयसेनसरिराय, .तस केरो श्रावक ऋषभदास गुण गाय // 4 // श्री शांतिनाथ जिन स्तुति शांति जिनेसर समरिये जेनी अचिरा माय, विश्वसेन कुल उपन्या मृगलंछन पाय / गजपुर नयरीना धणी कंचन वरणी छे काय, धनुष चालीसनी देहडी लाख वरसर्नु आय // 1 // शांति जिनेसर सोलमा चक्री.पंचम जाणु, कुंथुनाथ चक्री छट्टा अरनाथ वखाणुं / ए त्रणे चक्री सही देखी आणंदूं, संजम लइ मुगते गया नित्य उठीने वंदु // 2 // शांति जिनेसर केवली बेसी धर्म प्रकाशे, दान शीयल तप भावना नर सोय अभ्यासे / एह वचन जिनजी तणा जेणे हियडे धरिया, सुणतां समकित निर्मला निश्चय केवल वरिया // 3 // समेत शिखर गिरि उपरे जेणे अणसण कीधा, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह काउस्सम्ग ध्यानमुद्रा रही जेणे मोक्ष ज सीध्या। जक्ष गरुड समरूं सदा देवी निर्वाणी, भविक जीव तमे सांभलो ऋषभदासनी वाणी // 4 // गिरनार नेमिजिनस्तुति सुर असुर वंदित पायपंकज मयणमल्ल अक्षोभितं, घन सघन श्यामशरीरसुंदर शंख लंछन शोभितम् / शिवादेवि नंदन त्रिजगवंदन भविक कमल दिनेश्वरं, गिरनार गिरिवर शिखर वंदं नेमिनाथ जिनेश्वरम् // 1 // अष्टापदे श्री आदिजिनवर वीर पावा पुरिवरं, चंपापुरी श्रीवासुपूज्यजी नेमि रेवयगिरिवरम् / सम्मेत शिखरे वीस जिनवर मुक्ति पहोता मुनिवरं, चोवीस जिनवर तेह वंदू सयल संघ सुहंकरम् // 2 // अग्यार अंग उपांग बारे दश पयन्ना जाणिये, छ छेद ग्रंथ पसत्थअत्था चार मूल वखाणिये / अनुयोगद्वार उदार नंदीसूत्र जिनमत गाइये, वृत्ति चूरणि सूत्र आगम पंच चालीश ध्याइये // 3 // बिहुं दिशि वालक दोय जेहने सदा भवियण सुखकरं, दुख हरे अंबालुंबि सुंदर दुरिय दोहग अपहरं / गिरनारमंडण नेमिजिनवर चरणपंकज भयहरं, श्रीसंघ मंगल करे अंबादेवी देवे शुभ वरम् // 4 // Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 2 स्तुति-संग्रह श्रीपार्श्वनाथजिनस्तुति पास जिणंदा वामानंदा जब गरमे फली, सुपना देखे अर्थ विशेषे कहे मघवा मली। .. जिनवर जाया सुर हुलराया हुआ रमणीप्रिये, नेमिराजी चित्त विराजी विलोकित व्रत लिये // 1 // वीर एकाकी चार हजारे दीक्षा धुर जिनपति, पास ने मल्लि त्रयसत साये बीजा सहसे व्रती। षट्शत साथे संजम धरता वासुपूज्य जगधणी, अनुपम लीला ज्ञानरसीला देजो मुजने घणी // 2 // जिनमुख दीठी वाणी मीठी सुरतरु वेलडी, द्राख विहासे गइ वनवासे पीले रस सेलडी।' साकर सेती तरणा लेती मुखे पशु चावती, अमृत मीठं स्वर्गे दीर्छ सुरवधू गावती // 3 // गजमुखदक्षो वामन जक्षो मस्तके फणावली, चार ते बांही कच्छपवाही काया जस शामली। . चउकर प्रौढा नागारूढा देवी पदमावती, सोवन कांति प्रभुगुण गाती वीर घरे आवती // 4 // श्रीपार्श्वनाथजिनस्तुति दें दें कि धप मप धु धु मि धो धो धसकि धर धप धोरवं, दों दों कि दो दो द्रागदि द्रागड्दिकि द्रमकि द्रण रण द्रेणवम् / झझि झेंकि झें झें झणण रण रण निजकि निज जनरंजनं, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह सुरशैलशिखरे भवतु सुखदं पार्श्वजिनपतिमञ्जनम् // 1 // कट रेगिनि थोगिनि कटिति गिगद्दा धुधु कि धुट नट पाटवं, गुण गुणण गुण गण रणकि णे णे गुणण गुण गण गौरवम् / झझि झें कि झें झं झणण रण रण निजकि निज जन सज्जनाः, कलयंति कमला कलित कलिमलमकलमीशमहे जनाः // 2 // कि ट्रेंकि - - ठर्हि ठर्हिति ठहि पट्टा ताडयते, तल लोंकि लों लों खि खिनि डेंखि डेंखिनि वाद्यते / ॐ ॐ कि ॐॐ कथुगि कथुगिनि धोंगि धोंगिनि कलरवे, जिनमतमनंतं महिमतनुता नमत सुरनतमुत्सवे // 3 // खुं दांखि खुंदां खुखुड्दि खुंदां खुखुड्दि दो दो अंबरे, चाचपट चच पट रणकि णे में डणण . . डंबरे / तिहां सरगमपधुनि-निधपमगरस ससससस सुर सेवता, जिननाट्यरंगे कुशलमनिशं दिशतु शासन देवता // 4 // . अध्यात्मभित महावीरजिनस्तुति उठि सवेरे सामायिक लीधुं पिण बार[ नवि दीधुंजी, कालो कूतरो घरमांहे पेठो घी सघळु तेणे पीधुंजी। उठो ने वहूअर आलस मूकी ए घर आप संभालोजी, निजपति ने कहो वीरजिन पूजी समकित ने अजुआलोजी // 1 // बले बिलाडे झडप झंपावी उत्रेवडि सवि फोडीजी, चंचल छैयां वार्या न रहे त्राग भागी माल त्रोडीजी। तेह विणा रेटियो नवि चाले मौनभलं कोने कहियेजी Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 . 2 स्तुति-संग्रह ऋषभादिक चउवीस तीर्थकर जपिये तो सुख लहियजी // 2 // घर वासी, करोने वहुअर टालो ओजीसालुंजी, चोरटो एक करे छे हेरो ओरडे द्योने तालुंजी / लबक्या पाहुणा चार आवे छे ते ऊभा नवि राखोजी; शिवपद सुख अनंतुं लहिये जो जिन वाणी चाखोजी // 3 // घरनो खुणो कोल खणे छे वहु तुमे मनमां लावोजी, पोटें पलंगे प्रीतम पोढयो प्रेम धरीने जगावोजी। भावप्रभ सूरि कहे नहीं ए कथलो अध्यातम उपयोगीजी, सिद्धायिका देवी सानिध्ये थइये ते शिवपद भोगीजी // 4 // सीमंधरजिनस्तुति सीमंधर जिन वर आतमना आधार, प्रभु त्रिगडे बेठा भाखे अर्थ विचार / कइ भव्यजनोने तार्या दीन दयाल, सौभाग्यविजयनी दूर करो जंजाल // 1 // . श्रीसिद्धाचलस्तुति शत्रुजय गिरि तीरथ मोटुं आदीश्वर जिहां सोहेजी, देहरां उंचां गगने अडियां योगीश्वर मन मोहेजी / भव जल तरवा मानुं प्रवहण भाख्यु ग्रन्थ मझाराजी, प्रात उठीने वंदन करीये सौभाग्यविजय सुख साराजी // 2 // __ सीमंधरजिन स्तुति . श्रीसीमंधर मुजने वाला आज भलं सुविहाणुजी, .. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह त्रिगडे तेजे तपता जिनवर मुज बेट्या हुं जाणुंजी / केवल कमला केलि करंतां कुलमंडण कुलदीवोजी, लाख चोराशी पूरव आयु रुकमिणी वर घणुं जीवोजी // 1 // संप्रति काले वीश तीर्थकर उदया अभिनव चंदाजी, केइ केवली केइ बालक परण्या केइ महीपति सुखकंदाजी / श्रीसीमंधर आदि अनोपम महाविदेहे जिणंदाजी, सुर नर कोडाकोडी मिली तिहां जोवे मुख अरविंदाजी // 2 // श्रीसीमंधर त्रिगडो जोवा हु अलजायो वाणी जी, आडा डुंगर आवी न शकुं वाट विषम अरु पाणी जी / इण क्षेत्र रही पाय हुं लागुं सूत्र अर्थ मन आणीजी, अमृत रसथी अधिक वखाणी जीवदया पटराणीजी // 3 // पंचांगुली में प्रत्यक्ष दीठी जाणुं हुं जगमाताजी, पहेरण चरणा चोली-पटोली अधर अनोपम राताजी / स्वर्गभुवन सिंहासण बेठी तूंहीज़ देवी विख्याताजी, सीमंधरशासनरखवाली शांतिकुशलसुखदाताजी // 4 // बीज की स्तुति महीमंडणं पुण्णसोवण्णदेहं, जणाणंदणं केवलनाणगेहं। महानंदलच्छी-बहुबुद्धिरायं, सुसेवामि सीमंधरं तित्थरायं // 1 // पुरा तारगा जे य जीवाण जाया, Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 स्तुति-संग्रह भविस्संति जे सव्वभव्वाण ताया। तहा संपयं जे जिणा वट्टमाणा, सुहं दितु मे ते तिलोयप्पहाणा // 2 // दुरुत्तारसंसारकुव्वारपोयं, कलंकावलीपंकपक्खालतोयं / मणो वंछियत्थेसु मंदारकप्पं, जिणिंदागमं वंदिमो सुमहप्पं // 3 // विकोसे जिणिंदाणणंभोजलीणा, कलारूव--लावण्ण-सोहग्गपीणा / वहंतस्स चित्तमि निचंपि झाणं, सिरी भारई देहि मे सुद्धनाणं,॥४॥ - बीज की स्तुति जंबूद्वीपे अहोनिश दीपें दोय सूर्य दोय चंदा जी, तास विमाने श्रीऋषभादिक शाश्वत नाम जिणंदा जी / तेह भणी उगते शशी निरखी प्रणमे भविजनवृंदा जी, बीज आरोपो धर्ममुं बीजे पूजी शांति जिणंदा जी // 1 // द्रव्य भाव दोय भेदे पूजो चोवीसे जिनचंदा जी, बंधन दोय दूर करीने पाम्या परमाणंदा जी। दुष्ट ध्यान दोय मत्त मतंगज भेदन मत्तमयंदा जी, बीजतणे दिन में आराधे ते जगमां चिरनंदा जी // 2 // द्विविध धर्म जिनराज प्रकाशे समवसरण मंडाणे जी, Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह निश्चय ने व्यवहार बेहुसुं आगम मधुरी वाणे जी। नरक तिर्यच गति दोय न होवे बीजने जे आराधे जी, द्विविध दया त्रस थावर केरी करतां शिवसुख साधे जी // 3 // बीज चंद परे भूषण भूषित दीपे निलक्ट चंदा जी, गरुड यक्ष नारी सुखकारी निर्वाणी सुखकंदा जी। बीज तणो तप करतां भविने समकित सानिध्यकारी जी, धीरविमल शिष्य कहे नय संघना विघ्न निवारी जी // 4 // पंचमी की स्तुति पांचमने दिन चोसठ इंद्रे नेमिजिन महोत्सव कीधो जी, रूपे रंभा राजीमतीने छंडी चारित्र लीधो जी। अंजनरत्नसम काया दीपे शंख लंछन सुप्रसिद्ध जी, केवल पामी मुक्ति पहोता सघला कारज सिद्ध जी // 1 // आबु अष्टाद ने तारंगा शत्रुजय गिरि सोहे जी, राणकपुरने पार्श्व शंखेश्वर गिरनारे मन मोहे जी / सम्मेतशिखर ने वली वैभारगिरि गोडी थंभण वंदो जी, पंचमीने दिन पूजा करतां अशुभ कर्म निकंदो जी // 2 // नेमि जिनेश्वर त्रिगडे बेठा पंचमी महिमा बोले जी, बीजा तप जप छ अति बहोला नही कोइ पंचमी तोले जी / पाटी पोथी ठवणी कवली नोकरवाली सारी जी, पंचमी- उजमणुं करता. लहिये शिववधू प्यारी जी // 3 // Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 , 2 स्तुति-संग्रह शासनदेवी सानिध्यकारी आराधे अति दीपे जी, काने कुंडल सुवर्ण चूडी रूपे रमझम दीपे जी। अंबिका देवी विघ्न हरेवी शासन सानिध्यकारी जी, पंडित हेतविजय जयकारी जिन जंपे जयकारी जी // 4 // मौन एकादशी की स्तुति मृगशिर शुद एकादशी ए भाखी नेमिजिणंद तो, ... मुक्ति वधूनो मांडवो ए आदरे कृष्ण नरिंद तो। वर्ष अग्यार आराधिये ए एकादश वली मास तो, जावजीव लगि जे करे ए पामे शिवपुर वास तो // 1 // कल्याणक कह्या एह तिथि ए नेउजिनना जाण तो, त्रीश चोविसी तिहां थकी ए पंच पंच गिणती आण तो। भरतादिक दश क्षेत्रना ए जिनवर सघला जाण तो, त्रणे काल मिली ध्यावतां ए पामे पद कल्याण तो // 2 // अंग अग्यारे जे भणे ए पडिमा तप अग्यार तो, सुव्रत शेठ तणी परे ए सुर पदवी लहे सार तो। अग्यार अग्यार प्रकारनी ए पामे परिगल ऋद्ध तो, आगमने आराधतां ए भवियण पामे सिद्ध तो // 3 // नेमिनाथ जिनवर कहे ए एकादशी अधिकार तो, पूछे कृष्ण नरेशरु ए निशुणे परषदा बार तो। शुणी अनुमोदे आदरे ए माधव परे जग सार तो,. शासन देवी सुखकरु ए कीर्तिचंद्र हितकार तो॥ 4 // Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 219 रोहिणी तप की स्तुति रोहिणी तप रंगे करो प्राणी, सकल सुमंग ल कारण जाणी, लाभ लहो गुणखाणी / अजित जिणंद नो जन्म ते जाणी, आवे __इंद्र अने इंद्राणी, भाव अधिक मन आणी // 1 // अतीत अनागत ने वर्तमान, च्यवन जन्म __ दीक्षा गुणखाण, केवल मुक्ति कल्याण / दश क्षेत्रे दाख्या जिन भाण, नक्षत्र रोहि__णी छे गुणखाण, आदरो भवि शुभजाण // 2 // पद्मप्रभुनी एहज वाणी, सुगंधकुमारे __साची जाणी, पर्षदा हर्ष भराणी / तप करी काया निर्मल कीधी, अजरामर पदवी जेणे लीधी, शिवरमणी वश कीधी // 3 // . शासन देवी सोले वखाण, जग उद्योत करे जिण भाण, आपे बुद्धि विनाण / रोहिणी राणी ए तप कीधो, भव त्रीजे सवि कारज सीधो, कीर्तिचन्द्र जस लीधो // 4 // श्री पर्युषणापर्व की स्तुति सत्तर भेदी जिन पूजा रचीने स्नात्र महोच्छव कीजे जी, ढोल ददामा भेरी नफेरी झल्लरी नाद सुणीजे जी। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 . 2 स्तुतिसंग्रहः वीरजिन आगल भावना भावी मानवभव फल लीजे जी, पर्वपजूसण पूरव पुण्ये आव्या एम जाणीजे जी // 1 // मास पास वली दशम दुवालस चत्तारि अट्ट कीजे जी, उपर वली दश दोय करीने जिन चोवीस पूजीजे जी। वडा कल्पनो छठ करीने वीर चरित्र सुणीजे जी, पडवे ने दिन जन्म महोच्छव धवल मंगल वरतीजे जी // 2 // आठ दिवस लगे अमर पलावी अट्ठमनो तप कीजे जी, नागकेतुनी परे केवल लहिये जो शुभ भावे रहिये जी। तेलाधर दिन त्रण कल्याणक गणधर वाद वदीजे जी, पास नेमीसर अंतर त्रीजे ऋषभ चरित्र सुणीजे जी // 3 // बारसे सूत्र ने सामाचारी संवच्छरी पडिकमिये जी, चैत्य प्रवाडी विधिसुं कीजे सकल जन्तुने खमीजे जी / पारणाने दिन साहमीवच्छल कीजे अधिक वडाई जी, मानविजय कहे संकल मनोरथ पूरे देवी सिद्धाई जी॥४॥ इति स्तुति-संग्रहः। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 3 अथ स्तवनसंग्रह श्री ऋषभदेवजिनस्तवन बालपणे आपण ससनेही, रमता नव नव वेशे। आज तमे पाम्या प्रभुताई, अमे तो संसारनिवेशे हो प्रभुजी ओलंभडे मत खीजो // 1 // जो तुम ध्यातां शिवसुख लहीये, तो तुमने केइ ध्यावे / पण भवस्थिति परिपाक थया विण, कोइ न मुक्ति जावे हो प्रभुजी ओलंभडे० // 2 // सिद्ध निवास लहे भवसिद्धि, तेमां शो पाड तुमारो / तो उपगार तुमारो वहिये, अभवसिद्धिने तारो हो प्रभुजी ओलंभडे० // 3 // . . ज्ञानरतन पामी एकांते, थइ वेठा मेवासी / ते मांहेलो एक अंश जो आपो, ते वाते शाबासी हो प्रभुजी ओलंभडे० // 4 // ____ अक्षय पद देतां भविजनने, संकीर्णता नवि थाय / शिवपद देवा जो समरथ छो, तो जश लेता शुं जाय हो प्रभुजी ओलंभडे० // 5 // ___ सेवागुण रंज्या भविजनने, जो तुमे करो वडभागी। तो तुमे स्वामी केम कहेवाओ, निर्मम ने नीरागी हो प्रभुजी ओलंभडे० // 6 // Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 3 स्तवनसंग्रह नाभिनंदन जगवंदन प्यारो, जगगुरु जग जयकारी / रूपविबुधनो मोहन पभणे, वृषभलंछन बलिहारी हो प्रभुजी ओलंभडे० // 7 // श्रीआदिजिनस्तवन ___आदि जिणंद प्रभु अरजी लीजे, शिवरमणी सुख दीजे रे। शुभ नजरे करी साहिब मुजने, दरिसन वेल्हा दीजे रे // साहिब प्यारो रे, साहिब प्यारो मुजने तारो, भवोदधिपार उतारो रे / साहिब प्यारो रे // आंकणी // 1 // ___पांचे आठे मुजने पीडयो, नर्क निगोद नचायो रे। काल अनादि कुमति संगे, जन्म मरण दुख पायो रे। साहिब० // 2 // - मोहराजानो मत्री मलियो सोल' संगाते भलीयो रे / तृष्णा तरुणी आणी मेली, काम कीचडमें कलीयोरे॥साहिव॥३॥ तेरे बावीस तेतीस टाली, सत्तावन छटकायारे / दश चोरासी दूर करीने, नाभिनंदन ध्यायारे // साहिब० // 4 // पावटापुरमें ऋषभ जिनेश्वर, भेट्या मन शुद्ध भावे रे / आदिजिननुं समरण करतां, कीर्तिचंद्र सुख पावे रे // साहिब० // 5 // .. श्री आदिजिनस्तवन . प्रथम जिनेश्वर प्रणमिये, जास सुगंधी रे काय / कल्पवृक्ष परे तास इंद्राणी नयन जे, भुंग परे लपटाय / / 1 / / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 223 रोग उरग तुज-नवि नडे, अमृत जे आस्वाद / तेहथी प्रतिहत तेह मार्नु कोइ नविकरे, जगमां तुमशुं रे वाद / / वगर धोइ तुज निर्मली काया कंचनवान / नही प्रस्वेद लगार तारे तुं तेहने, जे धरे ताहरूं ध्यान // 3 // राग गयो तुज मन थकी, तेहमां चित्र न कोय / रुधिर आमिषथी राग गयो तुज जन्मथी, दूध सहोदर होय॥४॥ श्वासोश्वास कमल समो, तुज लोकोत्तर वात / देखेन आहार नीहार चर्मचक्षु धणी, एहवा तुज अवदात // 5 // चार अतिशय मूलथी, ओगणीस देवना कीध / कर्म खप्यांथी अग्यार चोत्रीस इम अतिशया, समवायांगे प्रसिद्ध // 6 // जिन उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज अंग। पद्मविजय कहे एह समय प्रभु पालजो, जिम थाउं अखय अभंग // 7 // श्री आदिजिनस्तवन आज आनंद अपार, हमारे आज आनंद अपार / मरुदेवीनंदन कर्म निकंदन, निरख्या नाभिकुमार, हमारे॥१॥ अजर अमर अकलंक जिनेश्वर, रूपस्वरूप भंडार हमारे० // 2 // अशरण शरण करण जगनायक, Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 3 स्तवनसंग्रह दायक शिवसुख सार हमारे० // 3 // तुम सेवा शुभभावे करता, पावे भक्नो पार हमारे० // 4 // कहे जिनदास प्रभु दर्शनथी, सफल थयो अवतार हमारे // 5 // श्रीआदिजिनस्तवन आदिनाथ अनादि काले रे, मिल गया मुझे मंदिर / / मैं ढूंढ फिरा जग सारा, तूं ना मिला प्रभुप्यारा / तव कतारगाम दिल धारा रे मिल गया० // 1 // तूं कहां से चल कर आया, इतने दिन क्यों न दिखाया। तुजको किसने भरमायारे / मिलगया० // 2 // मैं नरक निगोदसे आया, वहां काल अनंत गमाया। कोंने मुझे भरमाया रे / मिल गया० // 3 // कर्मों को क्यों न हटाया, तप जप संजम सुखदाया। इस का है यही उपाया रे / मिल गया // 4 // मैं क्या करूं सुण स्वामी, तूं तो है अंतरजामी / मोहने न करी खामी रे। मिल० // 5 // सुण हंस कहे पाडोसी, मिल पङा तुझे मैं जोशी / तेरी भी मुक्ति होसी रे, मिलगया मुझे मंदिर। आदिना०॥६॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह केशरीयाजी का स्तवन (केशरीया थाशुं प्रीत. यह राग) केशरिया प्यारा मनडुं मोयुं रे तारा रूप में, सांवरीया मारा दिल लोभाणुं रे तारा रूपमें / नगर धुलेवा शोभतो रे, मंदिर है गुलजार बावन जिनालय मांहे बिराजे, केशरिया. सरकार रे . केशरीया प्यारा. // 1 // शाम वरण तूं मोहनगारो, करुगा रस भंडार, संघ सकल दर्शन कुं आवे, करे पूजन सुखकार रे केश. // 2 // परिकर सारा है रुपेरी, अंगीयां झाकझमाल / काने कुंडल शिर पर सोहे, मुगट ने फूलमाल रे केश. // 3 // रंग रूपालो है लटकालो, मुख सुंदर है भारी / नरनारी सब मोहि रह्यारे, जाउं तुज बलिहारी रे केश. // 4 // उगणीसे बीआसी वर्षे, वदि चौदस पोष मास / तखतगढ के संघ साथे, यात्रा करी तुम खास रे केश. // 5 // कल्पवृक्ष चिंतामणि प्यारो, केशरीया महाराज / सौभाग्यविजय से नेण मिलावो, करो सकल मुजकाज रे केशरीया० // 6 // Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 - 3 स्तवनसंग्रह श्रीऋषभदेव जिन स्तवन (राग माढ) प्रभु छो अविकारा, भुवन आधारा, ऋषभ प्रभु भगवान / दिल हरनारा, मोहनगारा, लागो छोप्यारा ऋषभ प्रभु भगवान ॥आं. अति उपगारी नाथ हमारा, भव भय भंजनहार / हाथ जोडी तुम पायमां रे, पडीयें स्वामी निहार रे, प्रभु दिल हरनारा // 1 // आदि पिता नृप आदि छो रे, आदि गुरु आदिदेव / सकल कला तुमने दर्शाई, नमिये देवाधिदेव रे, प्रभु० // 2 // केवल ज्ञान जे ताहरूं रे, चमके तेज़ अनंत / विश्व मांहि ते सघळे छवायु, नाथ नमो गुणवंत रे, प्रभु० // 3 // देव देवी मली अप्सरा रे, ठम ठम ठमके पाय / आनंद रस भर नाच करंती, तुम गुण रंगे गाय रे, प्रभु०।४। स्मरण मधुरं आपनुं रे, कष्ट सहु हरनार / एम जाणी तुम पाय पडे छे, हरखे सकल संसार रे, प्रभु०॥५॥ सर्व गुणी अरिहंत छो रे, वांछित फल दातार / विजयसौभाग्यना कष्ट निवारी, आपो शांति अपार रे। . प्रभु दिल हरनारा० // 6 // Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह ऋषभदेव स्तवन (दास परे दया लावो रे यह राग) आदि प्रभु मने तारो रे, दयाल स्वामी आदि प्रभु मने तारोआं०। इन्द्रादि पूजंत पाया, इन्द्रनार मन में ध्याया। आशा प्रभु मारी पूरो पूरो रे, दयाल खामी० // 1 // मिथ्यात्व अंधारं माझं, आज भाग्युं मननुं सारं / देखी छबी तारी रूडी रूडी रे, दयाल० // 2 // संसारजाल भारी, नाथ वार पल में मारी। जावे भव भव ना फेरा फेरा रे, दयाल० // 3 // संभाल ले नाथ मारी, स्नेह शुद्ध दिल में धारी / वीनति करुं शिर नामी रे, दयाल० // 4 // सौभाग्य वांछित पूरो, कर्म फंद सघळा चूरो। आपो शिवरमणी प्यारी प्यारी रे, दयाल // 5 // आहोर ऋषभदेव स्तवन .. (जै जै सुख कर दुःख हर० यह चाल) . ॐॐ जगपति अशरण शरण नाथ प्रभु जाउं बलिहारी ॐ। मुरति कैसी मोहनगारी, नाथ तुमारी अति सुखकारी। देखत हम मन लग रही प्यारी, ॐॐ // 1 // काने कुंडल शिर पर सोहे, ताज सोनेरी अति मन मोहे / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 3 स्तवनसंग्रह कंठे नवसर हार ही सोहे, ॐॐ० // 2 // सुंदर तेरा अचरिज कारी, रूप दिखाता है अविकारी / मैं नहीं समजत ना मति मेरी, ॐॐ० // 3 // हे जगनायक दीन दयालो, भव्य जनों के दुख सब टालो / अंतर हम कर दो उजियालो, ॐॐ० // 4 // आहोर नगरे आदि जिनंदा, भेट लिया है परमानंदा / विजय सौभाग्य के मिट गया फंदा ॐॐ० // 5 // आदि प्रभु गायन - भर लावो रे चंगेरी फूलन की, आंगी रचावो नाभिनंदन की, भर लावो रे० // 1 // चंपो चंबेली मरवो मोगरो, ' बीच में कलियां गुलाबन की, भर० // 2 // चुन चुन कलियां अंगियां बनावो, खूब छबी खुली हारन की, भर० // 3 // गेंद गुलाबको हीवडे बिराजे, चंद्रमुखी मूर्ति मोहन की, भर० // 4 // सुर सुरियामे जिनवर पूज्या, साख सुणो रायपसेणी की, भर० // 5 // द्रव्य भाव से पूजा रे करतां, निर्मल ज्योत समकित की। भर लावो रे चंगेरी० // 6 // Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 श्रीजेनशान-गुणसंग्रह . श्री आदिनाथ गायन आओजी आओ, आदिनाथ के गुण गाने वाले / चरनन के चाहने वाले, दरिसन के पानेवाले, तान मान ताल से जिन मंदिर को गजाने वाले / आओ जी० // 1 // समकित को धारन वाले, त्रिपदी पद पालन वाले, चउ गुन के जान, आतम ज्ञान के बढाने वाले / आओजी० // 2 // पर जीव के जानन वाले, रक्षा के मानन वाले, भक्षाभक्ष दिल में लक्ष के लगाने वाले / आओजी० // 3 // श्रावक व्रत धरने वाले, एक अठ से डरने वाले, तरने भव पार सुकृत नाव के चलाने बाले / आओजी // 4 // जिन वच रस पीने वाले, धन धन जग जीने वाले, गिरते भव कूप में निज प्राण के बचाने वाले / आओजी० // 5 // श्री अजितनाथं जिन स्तवन प्रीतलडी बंधाणी रे अजित जिणंदमुं, कांइ प्रभु पाखे क्षण एक मन न सुहाय जो / ध्यान नी ताली रे लागी नेहशु, जलदघटा जिम शिवसुतवाहन दाय जो, प्रीत० // 1 // नेहघेलं मन माहरुं रे, प्रभु अलजे रहे, तन धन मन ए कारणथी प्रभु मुझ जो / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 3 स्तवनसंग्र . मारे तो आधार रे साहिब रावलो, ... अंतर्गत नुं प्रभु आगल कहुं गुझ जो, प्री० // 2 // साहेब ते साचो रे जगमा जाणिये, सेवकनां जे सहेजे सुधारे काज जो। एहवे रे आचरणे केम करीने रहुं, .. बिरुद तमारू तरण तारण जहाज जो / प्री० // 3 // तारकता तुज माहे रे श्रवणे सांभली, ते भणी हुं आव्यो छु दीनदयाल जो / तुज करुणानी लहेरे रे मुज कारज सरे, शुं घणुं कहीये जाण आगल कृपाल जो, प्री० // 4 // करुणादिक कीधी रे सेवक ऊपरे, भवभय भावठ भांगी भक्ति प्रसन्न जो। मन वांजित फलियारे जिन आलंबने, , कर जोडीने मोहन कहे मन रंग जो, प्री० // 5 // श्री अजितनाथ जिन स्तवन अजित जिणंदशं प्रीतडी, मुज न गमे हो बीजानो संग के। मालती फूले मोहीयो, किम बेसे हो बावल तरु भंग के, अ०॥१॥ गंगा जल मां जे रम्या, किम छिल्लर हो रति पामे मराल के। सरोवर जलधर जल विना, नवि चाहे हो जल चातक बाल के, अ० // 2 // Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 231 कोकिल कल कूजित करे, पामी मंजरी हो पंजरी सहकार के। ओछा तरुवर नविगमे, गिरुआशुं हो होय गुणनो प्यार के, अ०॥३॥ कमलिनी दिनकर कर ग्रहे, वली कुमुदिनी हो धरे चंदसुं प्रीतके / गौरी गिरिश गिरधर विना, नवि चाहे हो कमला निज चित्त के अ० // 4 // तिम प्रभुसुं मुज मन रम्युं, बीजासुं हो नवि आवे दाय के / श्रीनयविजयविबुधतणो, वाचकजस हो नित नित गुण गाय के, अ० // 5 // श्री संभव जिन स्तवन संभव जिनवर वीनति, अवधारो गुण ज्ञाता रे। खामी नही मुज खिजमते, कदीय होशो फल दाता रे, संभव० // 1 // कर जोडी ऊभो रहुं, रात दिवस तुम ध्याने रे / जो मन मां आणो नही, तो शुं कहिये छाने रे, संभव० // 2 // खोट खजाने को नही, दीजिये वांछित दानोरे / करुणा नजर प्रभुजी तणी, वाधे सेवक वानो रे, संभव० // 3 // Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 3 स्तवनसंग्रह . काल लब्धि नही मति गणो, भाव लब्धि तुम हाथे रे / लडथडतुं पण गयबचुं, गाजे गयवर साथे रे, संभव० // 4 // देशो तो तुमहीज भलं, बीजा तो नवि जाचुं रे। वाचकजस कहे सांइशु, फलशे एह मुज साचुं रे, संभव० // 5 // श्री संभव जिन स्तवन (अंतरजामी सुण अलवेसर यह चाल) समकित दाता समकित आपो, मन मागे थइ धीहुँ / छति वस्तु देतां शुं शोचो, मीठं छे सहुए दीहूं। प्यारा प्राणथकी छो राज, संभव जिनवर मुजने / आं० // 1 इम जाणो जे आपे लहिये, ते लाधुं शुं लेवें / पण परमारथ प्रीछी आपे, तेहज कहिये देवू, प्यारा० // 2 // अर्थी हुँ तूं अर्थ समर्पक, इम मत करजो हांसुं / प्रकट न हतुं तुमने पण पहिलां, ए हांसानुं पासुं, प्यारा०॥३॥ परम पुरुष तुमें प्रथम भजीने, पाम्या ए प्रभुताई। तिण रूपें तुमने इम भजिये, तिणें तुम हाथ वडाई, प्या०॥४॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 233 तुमे स्वामी हुँ सेवाकामी, मुजरे स्वामी निवाजे / नहीं तो हठ मांडी मागतां, किण विध सेवक लाजे प्या०॥५।। ज्योते ज्योति मिले मत प्रीछो, कुण लहेशे कुण भजशे / साची भक्ति ते हंस तणी परे, खीर नीर मय करशे, प्या०॥६॥ उलग कीधी जे लेखे आवी, चरण भेट प्रभु दीधी। रूपविबुधनो मोहन पभणे, रसना पावन कीधी प्या० // 7 // श्री अभिनन्दनजिन स्तवन दीठी हो प्रभु दीठी जग गुरु तुझ, मूरति हो प्रभु मूरति मोहन वेलडी जी / मीठी हो प्रभु मीठी ताहरी वाणी, लागे हो प्रभु लागे जेसी सेलडी जी // 1 // जाणुं हो प्रभु जाणुं जन्म क़यत्थ, जो हुं हो प्रभु जो हुं तुम साथे मिल्यो जी / सुरमणि हो प्रभु सुरमणि पाम्यो हथ्थ, आंगणे हो प्रभु आंगणे मुझ सुरतरु फल्यो जी // 2 // जाग्या हो प्रभु जाग्या पुण्य अंकूर, मांग्या हो प्रभु मुह मांग्या पाशा ढल्या जी / वूठा हो प्रभु वूठा अमीरस मेह, नाठा हो प्रभु नाठा अशुभ शुभ दिन वल्या जी॥३॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 3 स्तवनसंग्रह भूख्यां हो प्रभु भूख्यां मल्यां घृतपूर, . . तरश्यां हो प्रभु तरश्यां दिव्य उदक मल्यां जी। थाक्यां हो प्रभु थाक्यां मिल्यां सुखपाल, चाहतां हो प्रभु चाहतां सज्जन हेते मल्या जी // 4 // दीवो हो प्रभु दीवो निशा वन गेह, साथी हो प्रभु साथी थले जले नौका मिली जी। कलिजुगे हो प्रभु कलिजुगे दुल्लहो तुझ, दरिसन हो प्रभु दरिसन लह्यो आशा फली जी // 5 // वाचक हो प्रभु वाचक जस तुम दास, वीनवे हो प्रभु वीनवे अभिनन्दन सुणो जी। कहिये हो प्रभु कहियें म देजो छेह, देजो हो प्रभु देजो सुख दरिसणतणो जी // 6 // श्री अभिनन्दनजिन-वाणी महिमा स्तवन तुमे जोजो जोजो रे वाणीनो प्रकाश तुमे जोजो जोजोरे। उठे छे अखंड ध्वनि जोजने संभलाय / नर तिरय देव आपणी, सहु भाषाये समजाय, तुमे०॥१॥ द्रव्यादिक देखी करीने, नयनिक्षेपे जुत्त / भंग तणी रचना घणी काइ, जाणे सहु अद्भुत, तुमे०॥ पय सुधा ने इक्षुवारि हारी जाये सर्व। .. पाखंडी जन सांभलीने मूकी दिये गर्व, तुमे // 3 // Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 232 गुण पांत्रीसे अलंकरी कांइ, अभिनन्दनजिनवाण / संशय छेदे मनतणा प्रभु, केवल ज्ञाने जाण, तुमे० // 4 // चाणी जे जन सांभले ते, जाणे द्रव्य ने भाव / / निश्चय ने व्यवहार जाणे, जाणे निज पर भाव, तुमे // 5 // साध्य साधन भेद जाणे, ज्ञान ने आचार / हेय ज्ञेय उपादेय जाणे, तत्त्वातत्व विचार, तुमे० // 6 // नरक स्वर्ग अपवर्ग जाणे, थिर व्ययने उत्पाद / / राग द्वेष अनुबंध जाणे, उत्सर्ग ने अपवाद, तुमे० // 7 // निज स्वरूपने ओलखीने, अवलंबे स्वरूप / चिदानन्दघन आतमा ते, थाये निजगुणभूप, तुमे० // 8 // वाणीथी जिन उत्तम केरा, अवलंबे पदपद्म / नियमा ते परभाव तजीने, पामे शिवपुर सद्म, तुमे० // 9 // श्री सुमतिनाथ स्तवन सुमतिनाथ गुणशुं मिली जी, वाधे मुज मन प्रीति / तेल बिंदु जिम विस्तरे जी, जलमांहे भली रीति / सोभागी जिनशुं लागो अविहड रंग, आं० // 1 // सज्जनशुं जे प्रीतडी जी, छांनी ते न रखाय / परिमल कस्तूरीतणो जी, महिमांहे महकाय, सोभागी०॥२॥ आंगलिये नवि मेरु ढंकाये छाबडिये रवि तेज। अंजलिमां जिम गंग न माये, मुज मन तिम प्रभु हेज सो०॥३॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 3 स्तवनसंग्रह हुओ छिपे नहीं अधर अरुण, जिम खातां पान सुरंग / . पीवत भर भर प्रभु गुण प्याला, तिम मुज प्रेम अभंग, सो० // 4 // ढांकी इक्षु पलालशुं जी, न रहे लही विस्तार / वाचक जस कहे प्रभुतणो जी, तिम मुज प्रेम प्रकार, सो०॥५॥ सीनोर गाम सुमति जिन स्तवन (राग बलिहारी की) सुखकारी सुखकारी सुखकारी कृपानाथ हो जाउं वारी सुमति जिन सुमति सेवक दीजीये जी। दरिसन देव दीजे, कुमति को दूर कीजे / यही मागुं हुं हे दातारी, कृपानाथ हो० // 1 // कुमति ने कामण किया, मुझ को भरमाय दिया / इन से छुडा दो हे सरदारी कृपानाथ हो० // 2 // पंचम अवतार लिया, दुनिया को तार दिया। आशा पूरो कहुं हुं पुकारी, कृपानाथ हो० // 3 // निरादर नाही कीजे, बिरुद संभाल लीजे / तरण तारण हो हे अधिकारी, कृपानाथ हो० // 4 // सीनोरमंडण नामी, सुमति जिनेश्वर स्वामी / बेडी उतारो प्रभुजी हमारी, कृपानाथ हो० // 5 // निधि रस निधि चंदा, संवत् है सुखकंदा / . वीरविजयकुं आनंदकारी, कृपानाथ हो० // 6 // . Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह श्री पद्मप्रभ जिन स्तवन (देशी झुंचखडे की) श्री पद्मप्रभजिन सेविये रे, शिवसुंदरीभरतार कमल दल आंखडियां / मोहनशुं मन मोही रह्यं रे, रूपतणो नही पार भमुहधनु वांकडियां // 1 // अरुणकमलसम देहडी रे, जगजीवन जिनराय, वयण रस सेलडियां / त्रीस पूरव लख आउखु रे सारे वांछित काज मोहन सुरवेलडियां // 2 // सहियरो सवि टोले मिली रे, शोले सजी शणगार मिली सखि शेरडीयां / गुण गाती घुमरी दिये रे, करी चूडी खलकार, कमलमुख गोरडीयां // 3 // .. - मात सुसीमा उरे धर्यो रे, मुज दिलडामांहे देव, वस्यो दिन रातडीयां / कोसंबी नयरीतणो रे नाथ नमो नित्यमेव, सुणो सखि वातडीयां // 4 // ___ धनुष अढीशय शोभती रे, उंचपणे जगदीश, नमो साहेलडियां / रामविजय प्रभु सेवता रे, लहिये सयल जगीश वधे सुखवेलडियां // 5 // Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . 238 3 स्तवनसंग्रह श्री पद्मप्रभ स्तवन (रेखता या कवाली) पदम प्रभु प्राण से प्यारा, छुडावो कर्म की धारा / कर्मफंद तोडवा धोरी, प्रभुजी से अर्ज है मोरी, ... . पदम प्रभु० // 1 // लघुवय एक थे जीया, मुक्ति में वास तुम किया। न जानी पीड थे मोरी, प्रभु अब खेंच ले दोरी। . पदम प्रभु० // विषय सुख मानी मो मन में, गया सब काल गफलत में। नरक दुख वेदना भारी, निकलवा ना रही बारी। पदम प्रभु० // 3 // परवश दीनता कीनी, पापकी पोट सिर लीनी। . भक्ति नहीं जाणी तुम केरी, रहा निश दिन दुख घेरी / पदम प्रभु० // 4 // इण विध वीनती तोरी, करूं मैं दोय कर जोरी। आतम आनंद मुज दीजो, वीर का काम सब कीजो / पदम प्रभु० // 5 // Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह श्री सुपार्श्वजिन स्तवन ( देशी आछेलाल) श्रीसुपास जिनराज, तूं त्रिभुवन शिरताज / आज हो छाजे रे ठकुराई प्रभु तुज पदतणी जी // 1 // अतिशय सहजना च्यार, कर्म खप्यांथी अग्यार। आज हो कीधा रे ओगणीस सुरगण भासुरें जी // 2 // वाणी गुण पांत्रीस, प्रतिहारज जगदीश / आज हो राजे रे दीवाजे छाजे आठशुं जी // 3 // दिव्यध्वनि सुरफूल, चामर छत्र अमूल / आज हो राजे रे भामंडल गाजे दुंदुभि जी // 4 // सिंहासन अशोक, बेठा मोहे लोक / आज हो स्वामी रे शिवगामी वाचकजस थुण्यो जी // 5 // श्री चंद्रप्रभजिन स्तवन - श्री चंद्रप्रभ जिन साहिबा रे, तुमे छो चतुर सुजाण, मनना मान्या। सेवा जाणो दासनी रे, देशो पद निर्वाण, मनना मान्या / आवो आवो रे चतुर सुख भोगी, कीजे वात एकांत अभोगी गुण गोठे प्रगटे प्रेम, मनना० // 1 // - ओछु अधिकुं पण कहे रे, आसंगायत जेह, मनना मान्या। आपे फल जे अणकहे रे, गिरुओ साहिब तेह, मनना मान्या॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 - 3 स्तवनसंग्रह . .. दीन कह्या विण दानथी रे, दातानी वाधे माम, मनना मान्या। जल दिये चातक खीजवी रे, मेघ हुआ तिणे श्याम, मनना मान्या // 3 // __ पियु पियु करी तुमने जपुं रे, हुं चातक तुमे मेह, मनना मान्या / एक लहेरमां दुख हरो रे, वाधे बमणो नेह, मनना मान्या // 4 // मोडं वहेलुं आपq रे, तो शी ढील कराय, मनना मान्या। वाचक जस कहे जगधणी रे, तुम तूठे सुख थाय, मनना मान्या // 5 // श्री सुविधिनाथ स्तवन ( साहिबा मोतीडो हमारो यह देशी) अरज सुणो एक सुविधि जिनेसर, परम कृपानिधि तुमें परमेसर / माहिबा सुज्ञानी जोवो तो वात छे मान्यानी / आं० / कहेवाओ पंचम चरणना धारी, किम आदरी अश्वनी असवारी / सा० // 1 // छो त्यागी शिव वास वसो छो, दृढरथसुत रथे केम बेसो छो सा०॥ आंगी प्रमुख परिग्रहमां जो पडशो, हरिहरादिकने किण विध नडशो, सा० // 2 // Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 241 धुरथी सकल संसार निवार्यो, किम करी देवद्रव्यादिक धार्यो, सा० / तजी संयम ने थाशो गृहवासी, कुण आशातना तजशे चोरासी, सा० // 3 // समकित मिथ्यामतिमें निरंतर, इम किम भाजशे प्रभुजी अंतर, सा० / लोक तो देखशे तेहQ कहेशे, इम जिनता तुम किण विध रहेशे, सा० // 4 // पण हवे शास्त्रगते मति पहोची, तेहथी जोयु में उंडं आलोची, सा० / इम कीधे तुम प्रभुताई न घटे, साहमो इम अनुभव गुण प्रकटे, सा० // 5 // हय गय यद्यपि तूं आरोपाए, तो पण सिद्धपणुं न लोपाए, सा० / जिम मुकुटादिक भूषण कहेवाए, पण कंचननी कंचनता न जाए, सा० // 6 // भक्तनी करणीये दोष न तुमने, अघटित कहेवू अजुक्त ते अमने, सा०। लोपाए नहीं तू कोइथी स्वामी, मोहनविजय कहे. शिर नामी, सा० // 7 // Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 3 स्तवनसंग्रह श्री शीतल जिन स्तवन श्री शीतलजिन भेटिये, करी चोखं भक्तं चित्त हो। तेहथी कहो छानुं किस्युं, जेहने सोंप्या तन मन वित्त हो / श्री शीतल० // 1 // दायक नामे छ घणा, पण तूं सायर ते कूप हो / ते बहु खजुवा तग तगे, तूं दिनकर तेजसरूप हो / श्री शी० // 2 // मोहोटो जाणी आदर्यो, दारिद्र भांजो जगतात हो / तूं करुणावंतशिरोमणि, हुं करुणापात्र विख्यात हो। श्री शी० // 3 // अंतरजामी सवि लहो, अम मननी जे छ वात हो / मा आगल मोशालना, शा वरणववा,अवदात हो / श्री शी० // 4 // जाणो तो ताणो किस्युं, सेवा. फल दीजें देव हो / वाचक जस कहे ढीलनी, ए न गमे मुज मन टेव हो / . श्री शी० // 5 // श्री श्रेयांसजिन स्तवन (कर्म न छूटे रे प्राणिया यह चाल) तुमे बहु मैत्री रे साहिबा, मारे तो मन एक / तुम विण बीजो रे नवि गमे, ए मुज मोटीरे टेक।। श्री श्रेयांस कृपा करो // 1 // Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 243 मन राखो तुमे सवि तणां, पण किहां एक मलि जाओ। ललचावो लख लोकने, साथे सहेज न थाओ। श्री श्रेयांस० // 2 // रागभरे जनमन रहो, पण तिहुंकाल वैराग / चित्त तुमारो रे समुद्रनो, कोय न पामे ताग। श्री श्रेयांस० // 3 // एहवासुं चित्त मेलव्युं, केलव्युं पहेलां न कांइ। सेवक निपट अबूझ छे, निर्वहेशो तुमे सांइ। श्री श्रेयांस० // 4 // नीरागीसुं रे किम मिले, पिण मिलवानो एकांत / वाचक जस कहे मुज मिल्यो, भक्ते कामण तंत / . श्री श्रेयांस० // 5 // मा वा श्री वासुपूज्यजिन स्तवन __ (साहेबा मोतीडो हमारो यह देशी) स्वामी तुमे कांइ कामण कीg, चित्तद्दु अमाझं चोरी लीधुं / साहेबा वासुपूज्य जिणंदा, मोहना वासुपूज्य // 0 // अमे पण तुमसुं कामण करशुं, भक्ति ग्रही मनघरमा धरशुं / साहेबा० // 1 // मनघरमां धरियां घर शोभा, देखत नित्य रहेशुं थिर थोभा। / मन वैकुंठ अकुंठित भक्ते, योगी भाखे अनुभव युक्ते / साहेबा० // 2 // Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .244 3 स्तवनसंग्रह क्लेशे वासित मन संसार, क्लेश रहित मन ते भव पार / जो विशुद्ध मनघर तुमे आव्या, प्रभु तो अमे नवनिधि ऋद्धि पाव्या / सा० // 3 // सात राज अलगा जइ बेठा, पण भगते अम मनमा पेठा। अलगा ने वलगा जे रहेवु, ते भाणाखडखड दुख सहेवु / सा० // 4 // ध्यायक ध्येय ध्यान गुण एके, भेद छेद करशुं हवे टेके / खीर नीर परे तुमसुं मलशु, वाचक जस कहे हेजे हलशुं / , सा० // 5 // श्री वासुपूज्य गायन . (राग माढ) वासुपूज्य विलासी, चंपाना वासी, पूरो हमारी आश / करं पूजा हूं खासी, केसर घासी, पुष्प सुवासी, पूरो हमारी . आश०॥ चैत्यवंदन करुं चित्तथी प्रभुजी, गावं गीत रसाल। एम पूजा करी विनति करुं छु, आपो मोक्ष बिशाल / दीयो कर्मने फांसी, काढो कुवासी, जेम जाय नाशी, पूरो हमारी आश / वासु० // 1 // आ संसार धोरमहोदधिथी, काढो अमने बहार / स्वास्थना सहु कोइ सगा छे, मात पिता परिवार रे। . चालमित्र उलासी, विजयविलासी, अरजी खासी, पूरो हमारी आश / वासुपूज्य विलासी० // 2 // Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह श्री विमलनाथ स्तवन (नमो रे नमो श्री शत्रुजय गिरिवर यह देशी) सेवो भविया विमल जिनेसर, दुलहा सजनसंगा जी। . एहवा प्रभुनुं दरिसण लेबु, ते आलसमांहे गंगा जी। सेवो० // 1 // अवसर पामी आलस करशे, ते मूरखमां पहेलो जी। भूख्याने जेम घेवर देतां, हाथ न मांडे घेलोजी। सेवो० // 2 // भव अनंतमां दर्शन दीठं, प्रभु एहवा देखाडे जी / विकटग्रंथि जे पोलि पोलियो, कर्मविवर उघाडे जी / सेवो० // 3 // तत्त्वप्रीति करी पाणी पाए, विमलालोके आंजी जी। लोयण गुरु परमान्न दिये तव, भर्म नाखे सवि भांजी जी। सेवो० // 4 // भर्म भागो तव प्रभुसुं प्रेमे, वात करुं मन खोली जी। सरल तणे जे हइडे आवे, तेह जणावे बोली जी।सेवो० // 5 // श्री नयविजयविबुधपयसेवक, वाचकजस कहे साचं जी। कोडि कपट जो कोइ दिखावे, तो प्रभु विण नहीं राचुं जी। सेवो० // 6 // Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 ___ 3 स्तवनसंग्रह श्री विमलनाथ जिन स्तवन. (गजल कवाली) विना दर्शन किये तेरा, नहीं दिल को करारी है / चुरा कर ले गई मन को, प्रभु सूरत तुम्हारी है / विना० // 1 // न कलपाओ दया लाओ, हमें निज पास बुलवाओ। सहा जाता नहीं अब तो, विरह का बोझ भारी है। विना // 2 // ज्ञान से ध्यान से तेरा, न सोनी रूप दुनिया में / फिदा हो प्रेममें तेरे, उमर सारी गुजारी है / विना० // 3 // दया पूरन कष्ट चूरन, करो अब आश मम पूरन / मेहेर की एक ही दृष्टि, हमें दृष्टि तुम्हारी है // विना० // 4 // विमल है नाम प्रभु तेरा, विमल कर नाथ 'मन मेरा / चरण में आप के डेरा, तिलक भवभव स्विकारी है / विना०॥५॥ श्री अनंतनाथ जिन स्तवन (देशी कडखे की) धार तरवारनी सोहिली दोहिली, चउदमा जिनतणी चरण सेवा / धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवना धार पर रहे न देवा / धार० // 1 // एक कहे सेविये विविध किरिया करी, फल अनेकांत लोचन न देखे / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 . श्रीजैनशान-गुणसंग्रह फल अनेकांत किरिया करी बापडा, - रडवडे चार गतिमांहि लेखे / धार० // 2 // गच्छना भेद बहु नयण निहालतां, तत्त्वनी वात करतां न लाजे / उदरभरणादि निजकाज करतां थकां, मोहनडिया कलिकाल राजें / धार० // 2 // वचननिरपेक्ष व्यवहार झूठो कह्यो, वचनसापेक्ष व्यवहार साचो। . वचननिरपेक्ष व्यवहार संसारफल, सांभली आदरी कांइ राचो / धार० // 4 // देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो केम रहे, केम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो / शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया करी, छार पर लीपणुं तेह जाणो / धार० // 5 // पाप नही कोइ उत्सूत्र भाषण जिस्युं, धर्म नही कोइ जग सूत्र सरिखो। सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहy शुद्ध चारित्र परखो / धार० // 6 // एह उपदेशनो सार संक्षेपथी, . जे नरा चित्तमें नित्य ध्यावे / ते नरा दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी, नियत आनंदघनराज पावे / धार० // 7 // Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૪૮ . . 3 स्तवनसंग्रह . . श्री धर्मनाथ जिन स्तवन . धर्म जिनेसर गाउं रंगसुं, . भंग म पडशो हो प्रीत जिनेसर / बीजो मनमंदिर आणुं नही, ए अम कुलवट रीत जिनेसर / धर्म० // 1 // धरम धरम करतो जग सहु फिरे, धर्म न जाणे हो मर्म जिनेसर / धर्म जिनेसर चरण ग्रह्या पछी, कोइ न बांधे हो कर्म जिनेसर / धर्म० // 2 // प्रवचनअंजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान जिनेसर / ' हृदयनयण निहाले जग धणी, महिमामेरुसमान जिनेसर / धर्म० // 3 // दोडत दोडत दोडत दोडियो, . जेती मननी रे दोड जिनेसर। प्रेम प्रतीत विचारो इकडी, गुरुगम लेजो रे जोड जिनेसर / धर्म० // 4 // एक परखी किम प्रीति परवडे, उभय मिल्यां होय संधि जिनेसर / हुं रागी हुं मोहे फंदियो, तूं नीरागी निरबंध जिनेसर / धर्म० // 5 // Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 249 . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह परममिधान प्रगट मुख आगले, जगत उलंधी हो जाय जिनेसर / जोति विना जुओ जगदीसनी, अंधो अंध पलाय जिनेसर / धर्म० // 6 // निर्मलगुणमणिरोहणभूधरा,.. मुनिजनमानसहंस जिनेसर। धन ते नगरी धन वेला घडी, मात पिता कुल वंश जिनेसर / धर्म० // 7 // मनमधुकर वर कर जोडी कहे, पदकजनिकट निवास जिनेसर / घननामी आनंदघन सांभलो, ए सेवक अरदास जिनेसर / धर्म // 8 // श्री शांतिनाथस्तवन ___ सुंदर शांतिजिणंदनी, छबी छाजे छ। . प्रभु गंगाजलगंभीर, कीर्ति गाजे छे // 1 // गजपुर नयर सोहामणु, घणुं दीपे छ / विश्वसेननरिंदनो नंद, कंदर्प जीपे छे // 2 // अचिरामाताए उर धर्यो, मन रंजे छ / मृगलांछन कांचनवान, भावठ भंजे छे // 3 // Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 3 स्तवनसंग्रह प्रभु लाख वरस चोथे भागे, व्रत लीधुं छे / प्रभु पाम्या केवल ज्ञान, कारज सीधुं छे // 4 // धनुष चालीसवें ईशनु, तनु सोहे छे, प्रभु देशना ध्वनि वरसंत, भवि पडिबोहे छे // 5 // भक्तवत्सल महिमानिधि, जन तारे छ / बुडतां भवजलमाहे, पार उतारे छे // 6 // सुमतिविजय गुरु नामथी, दुख नाशे छ / कहे रामविजय जिनध्यान, नवषिधि पासे छे // 7 // श्री शांतिनाथ स्तवन - सुणो शांतिजिणंद सोभागी, हुं तो थयो छु तुम गुणरागी। तुमे नीरागी भगवंत, जोतां किम मलशे तंत। सुणो०॥१॥ हुं तो क्रोध कषायनो भरियो, तुं तो उपशम रसनो दरियो। हुं तो अज्ञाने आवरियो, तुं तो केवल कमला. वरियो। सु० // 2 // हुं तो विषयारसनो आशी, तें तो विषया कीधी निराशी। हुं तो कर्मने भारे भार्यो, तें तो प्रभु भार उतार्यो / सु० // 3 // हुं तो मोहतणे वश पडियो, तुं तो सघला मोहने नडियो / हुं तो भवसमुद्रमा खुतो, तुं तो शिवमंदिरमा पहोतो। सु० // 4 // Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 251 मारे जन्म-मरणनो जोरो, तें तो तोडयो तेहनो दोरो / मारो पासो न मेले राग, तुमे प्रभुजी थया वीतराग / सु०॥५॥ ____मने मायाए मूक्यो पाशी, तुं तो निरबंधन अविनाशी / हुं तो समकितथी अधूरो, तुं तो सकल पदारथे पूरो / सु०॥६॥ म्हारे छो तूं ही प्रभु एक, त्हारे मुज सरिखा छे अनेक / हुं तो मनथी न मूकुं मान, तुं तो मानरहित भगवान / सु० // 7 // ___मारुं कीधुं ते शुं थाय, तुं तो रंकने करे राय / एक करो मुज महेरबानी, म्हारो मुजरो लेजो मानी / सु० // 8 // एक वार जो नजरे निरखो, तो करो मुजने तुम सरिखो। जो सेवक तुम सरिखों थाशे, तो गुण तुमारा गाशे। सु० // 9 // भवोभव तुज चरणनी सेवा, हुं तो मागुं देवाधिदेवा / सामु जुओने सेवक जाणी, एहवी उदयरत्ननी वाणी // सु०॥११॥ श्री.शांतिनाथं स्तवन क्षण क्षण सांभरो शांति सलूणा, ध्यान भुवन जिनराज परंणा, क्षण आं। शांतिजिणंद के नाम अमीसे, उलसित होत हम रोम वपुना, क्षण / भव चोगानमें फिरते पायो, छोडत मैं नहीं चरण प्रभुना / क्षण // 1 // Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 3 स्तवनसंग्रह छिल्लरमें रति कबहुं न पावे, जे झीले जल गंगा यमुना / तुम सम हम शिर नाथ न थाशे, कर्म अधुना दूना धूना / क्षण // 2 // मोहलडाईमें तेरी सहाई, तो खिणमें छिन्न छिन्न कटुना। नाही घटे प्रभु आना कुंना, अचिरासुत पति मोक्षवधूना / क्षण० // 3 // ओरकी पासमें आश न करते, चार अनंत पसाय करुंना।। क्यों कर मागत पास धतूरे, युगलिक याचक कल्पतरुना / क्षण // 4 // ध्यान खडग वर तेरे आसंगे; मोह डरे सारी भीक भरूंना। ध्यान अरूपी तो सोई अरूपी, भक्ते ध्यावत ताना तूना / क्षण० // 5 // अनुभव रंग वध्यो उपयोगे, ध्यानसुपान में काथा चूना / चिदानंद झकझोल घटासे, श्री शुभवीरविजय पडिपुन्ना / क्षण // 6 // Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 253 श्री शांतिनाथस्तवन (गजल कवाली) अजब है शांतिजिन दर्शन, हमारा होत मन परसन / आंकणी। मूरत क्या मोहनी प्यारी, भरी समतारसे भारी / जिगर में प्रेमरस भरती, हमारे पाप मल हरती / - अजब है० // 1 // पडा संसारबंधन में, गई थी सूध बुध मेरी / सूरत तेरी निहाली मैं, छूटा हूं ना लगी देरी / . अजब है० // 2 // कमल पर ज्युं लगा भमरा; लुभाया तेरी सूरत में। बिठा ले चरण में अपने, सुनी ले अर्ज भी दिल में। . अजब है० // 3 // कृपादृष्टि अहा कीनी, कबूतरपे दयाभीनी। विजय सोभाग्य को तारो, दुखों के फंद सब टारो / ____ अजब है // 4 // Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 3 स्तवनसंग्रह . श्री शांतिनाथ गायन (वीरा वेश्याना यारी यह देशी) श्री शांति तुमारी, छे बलिहारी, जग विषे जिनराज / पूरो आशा अमारी, दइ सुखकारी, छे बलिहारी जग विषे जिनराज // 0 // ___कुसुमवासित आसन सुंदर, धूपधूमादिनी धूम / उडी रहीं अलबेला स्वामी, नाचु छनक छुम / भाव अंतर धारी, ज्ञान सुधारी, छे बलिहारी, जगविषे जिनराज / श्री शांति० // 1 // रोग शोक वियोग विदारी देजो दर्शन दान / गाजता गंभीर मृदंग साथे, नित्य लगावू तान / प्रभु भक्ति वधारी, जय जय कारी, छे बलिहारी जग विषे० // 2 // मुकुट मंडल काने कुंडल, चमके झाक झमाल / शांति संघमां शांति फेलावी, करजो मंगलमाल / मागे 'नान' विचारी, विनयधारी, छे बलिहारी, जगविषे जिनराज / श्री शांति० // 3 // श्री कुंथुनाथ स्तवन (आशक तो हो चुका हूं यह चाल) कुंथुजिनंद प्यारा, नमता हूं नाथ तुम को / आं०.। शक्ति अनंत भरिया, समतासुधा का दरिया / मुक्तिवधू को वरिया, नमता हूं नाथ तुम को। कुंथु०॥१॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह नृप सूरजी के नंदा, टालो जी कर्मफंदा / देवो विशुद्धानंदा, नमता हूं० // 2 // चारों गति का फेरा, वारो जी नाथ मेरा / कर लो पदाति तेरा, नमता हूं // 3 // ममता गई है मेरी, मूर्ति निहाल तेरी / छटकी. भवों की फेरी, नमता हूं० // 4 // जपते ही नाम तेरा, विनसा है मोह मेरा / मिलिया विवेक डेरा, नमता हूं० // 5 // करुणा से दास तारो, कुगंति के द्वार ठारो। कर्मन् के बंध वारो, नमता हूं० // 6 // मन की उपाधि चूरो, सिद्धि सुखों को पूरो / कर लो सोभाग शूरो, नमता हूं० // 7 // श्री अरनाथजिनस्तवन . (आसणरा जोगी यह देशी) श्री अरजिन भवजलनो तारु, मुज मन लागे वार रे, मनमोहन स्वामी / बांह. ग्रहीए भविजन तारे, आणे शिवपुर आरे रे, मनमोहन स्वामी // 1 // ___ तप जप मोह महातोफाने, नाव न चाले माने रे, मनमो० / पण नवि भय मुज हाथो हाथे, तारे ते छ साथे रे, मनमो० // 2 // Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 3 स्तवनसंग्रह . भगतने स्वर्ग स्वर्गथी अधिकुं, ज्ञानीने फल जोइ रे, मन / काया कष्ट विना फल लहिये, मनमां ध्यान धरेइ रे, मन० // 3 // जे उपाय बहुविधनी रचना, योगमाया ते जाणो रे, मन। शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय ध्याने, शिव दिये प्रभु सपराणो रे, मन०॥४॥ . प्रभुपद वलग्या ते रह्या- ताजा, अलगा अंग न साजा रे, मन. / वाचक जस कहे अवर न भ्याउं, ए प्रभुना गुण गाउं रे, मन० // 5 // श्री मल्लिनाथजिनस्तवन मनमोहन मल्लिनाथ को जस बोलेंगे, शिवरमणी को रंग घुघट पट खोलेंगे, आं. / मोह्यो मन धन मोरज्युं जस बोलेंगे, .. अब ओर न चाहुं संग, घुघट पट० // 1 // . चिंतामणि को पाय के जस०, कोण राचे काचे काच, धुंघट / को चाहे खरकेलिकुं जस०, , . तजी सुरकुमरीको नाच, धुंघट० म० // 2 // बावलकुं सेवे नहीं जस०, तजी मधुकर मालतीफूल, धुंघट / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 257 . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 257 कोमल शय्या छोड के जस०, . कुण बेठे धरिके शूल, धुंघट० / म० // 3 // प्रभुकी मूरति मेरे मन वसी जस०, सो तो विपराई विसरे न, घुघट० / दर्शन प्रभुमुख देख के जस०, हम पावन कीने नेन, धुंघट० / मनमोहन० // 4 // जन्म कृतारथ मैं कर्यो जस०, जब पायो ऐसो ईश धुंघट० / . विमलविजय उवझाय को जस०, एम राम कहे शुभ शीस धुंधटपट खोलेंगे, मनमोहन मल्लिनाथ को जस बोलेंगे. // 5 // श्री मुनिसुव्रतजिनस्तवन (इडर आंबा आंबली रे यह देशी) मुनिसुव्रत कीजे. मया रे, मनमाने धरी महेर / महेर विहूणा मानवी रे, कठिन जणाये कहेर जिनेसर तुं जगनायक देव, तुज जगहित करवा टेव, जिने // . ____अरहट क्षेत्रनी भूमिकारे, सिंची. कृतारथ होय / धाराधर सघली धरा रे, उद्धरवा सज जोय, जिनेसर० // 2 // ते माटे अश्व उपरे रे, आणी मनमां महेर / आपे आव्या आफणी रे, बोधवा भरुअच्छ शहेर, जिनेसर० // 3 // Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 3 स्तवनसंग्रह . अणप्रार्थता उद्धर्या रे, आपे करिय उपाय / प्रारथता रहे विलवतारे, ए कुण कहिये न्याय, जिनेसर० // 4 // . . संबंध पण तुज मुज विचे रे, स्वामी-सेवकभाव / मान कहे हवे महेरनो रे, न रह्यो अजर प्रस्ताव, जिनेसर० // 5 // - श्री नमिनाथजिन स्तवन (आसणारा जोगी यह देशी) आज नमिजिन राजने कहिये, मीठे वचने प्रभुमन लहिये रे। सुखकारी साहिबजी। प्रभु छे निपट निसनेही नगीना, अमे छु सेवक आधीना रे, सुख० // 1 // सुनजर करशो तो वरशो वडाई, सुकहिशे प्रभुने लडाइ रे, सुख० / तुमे अमने करशो महोटो, कुण कहेशे तुने प्रभु खोटो रे, सुख० // 2 // ____ निःशंक थइ शुभ वचन कहेशो, जगशोभा अधिकी लेशो रे, सुख० / अमे तो रह्या छु तुमने राची, रखे आप रहो मन खांची रे, सुख० // 3 // अमे तो किस्युं अंतर नवि राखं, जे होवे हृदय कही दाखं रे, सु० गुणियल आगल गुण कहेवाए, ज्यारे प्रीत प्रमाणे थाये रे, - सु०॥४॥ विषधर ईश हृदय लपटाणो, तेहवो अमने मिल्यो छेटाणो रे, सु. निरवहेशो जो प्रीत हमारी, कलि कीरत थाशे तुमारी रे, सु०॥५॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह .259 धूर्ताई चित्तडे नवि धरशो, कांइ अवलो विचार न करशोरे, सु. जिम तिम जाणी सेवक जाणेजो, अवसर लही सुधी लेजोरे, . सु. // 6 // आसंगे कहिये ते तुमने, प्रभु दीजे दिलासो अमने रे, सु. मोहनविजय सदा मन रंगे, चित्त लाग्युं प्रभुने संगे रे, सु. // 7 // - श्री नेमिनाथ स्तवन (अजित जिणंदसुं प्रीतडी. यह चाल) परमातम पूरण कला, पूरण गुण हो पूरण जन आश / पूरण दृष्टि निहालिये, चित्त धरिये हो अमची अरदास, पर॥१॥ सर्व देश घाती सहु, अघाती हो करी घात दयाल / वास कियो शिवमंदिरे, मोहे विसरी हो भमतो जगजाल, पर॥२॥ जगतारक पदवी लही; तार्या सही हो अपराधी अपार / तात कहो मोहे तारतां, किम कीनी हो इण अवसर वार, पर॥३॥ मोह महामद छाकथी, हुं छकियो हो नहीं शुद्धि लगार / उचित सही इण अवसरे, सेवकनी हो करवी संभाल, पर // 4 // मोह गया जो तारशो, तिण वेला हो किहां तुम उपगार। सुखवेला सज्जन घणा, दुःखवेला हो विरला संसार, पर॥५॥ पण तुम दरिसणजोगथी, थयो हृदये हो अनुभवप्रकाश / अनुभव अभ्यासी करे, दुखदायी हो सहु कर्मविनाश, पर // 6 // कर्मकलंक निवारी ने, निजरूपे हो रमे रमता राम / Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 . 3 स्तवनसंग्रह लहत अपूरव भावथी, इण रीते हो तुम पद विशराम, पर // 4 // त्रिकरण जोगे वीन, सुखदायी हो शिवादेवीनंद / चिदानंद मनमें सदा, तुमे आवो हो प्रभु नाणदिणंद, पर०॥५॥ श्री नेमिनाथ स्तवन (तर्ज जिनमत का डंका०) आनंद का डंका दुनिया में, बजवा दिया नेमि लालेने / ब्रह्मचर्य पराक्रम यादव में, बतला दिया नेमि लाले ने // प्रभु आयुधशाला में जा करके, पंचायन शंख को पूर दिया / सुनते ही गिरधर आन खडे, बजवा दिया नेमि०॥आ०॥१॥ श्री नेमिके बलको देखन को, श्रीकृष्णने लंबा हाथ किया। गोपीयन के सन्मुख गिरिधर को, शर्मा दिया नेमि० आ०२॥ फिर जान चढी आडंबर से, तोरण से स्थको फेर दिया / पशुअन के कारण राजुल को, छटका दिया नेमि०। आ०॥३॥ दीक्षा का अवसर जान प्रभु, निज मात पितादिक को समझाया / एक वर्ष लगे दान कांचन का, दिलवा दिया नेमि० आ०॥४॥ एक सहस्र पुरुष संग संजमले, सर्वज्ञ पद को प्राप्त किया। कर्मों का लश्कर जीत लिया, शिवपद का नेमि आ० // 5 // पृथ्वी तल को पावन कर प्रभु, शाश्वत सुख को प्राप्त किया। पर तिरिया परधन नहीं लेना, फर्मा दिया नेमि०॥ ...... . आनंद का॥६॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____261 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह श्रीनेमिनाथस्तवन हां नेम मने लागे प्यारो, शाम वरण मोहनगारो रे नेम मने० आंकणी / समुद्रविजय शिवादेवी को जायो, नगरी द्वारिका जनम लहायो। ... तीन लोक में हुओ उजियारो रे, नेम मने० // 1 // .. जान लइ प्रभु परणवा जावे, उग्रसेन के घर जब आवे / सुणी पुकार पशु रथ पाछो फिरावे रे, नेम० // 2 // बालपने से हुए ब्रह्मचारी, तजी रूपाली राजुल नारी / / संसार मोहनी दूर निवारी रे, नेम० // 3 // भरी जुवानी संजम लीनो, शुक्ल ध्यान सहसावन कीनो। केवलज्ञान जहां प्रभु लीनो रे, नेम० // 4 // मोक्ष गये गिरनारे स्वामी, जन्म मरण से हुए विसरामी। नमे सौभाग्यविजय शिरनामी रे, नेम० // 5 // Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 3 स्तवनसंग्रह श्री नेमिनाथस्तवन (धन धन वो जग में नरनार यह चाल) ____नमुं नेमनाथ महाराज, सांवरीया प्रीत लगाने वाले, आंकणी। तेरी मूरत मोहनगार, मेरी अखियनको सुखकार / तुम दर्श कियां आनंद अपार, प्रभु मोसे प्रीत लगाने वाले, .. न नेमनाथ० // 1 // किया पशुअनका उपकार, मुज पर क्युं न लगार / तुम दास करो उद्धार, प्रभु भवपार कराने वाले, नमुं० // 2 // कर सहसावनमें ध्यान, दिन पंचावन परमाण / लियो केवल शुभ ज्ञान, नाथ गिरनार दिपाने वाले, नमु०॥३॥ बावीसमा जिनचंद, प्रभु. शिवादेवी के है नंद, सौभाग्यविजय सब फंद हरो, हम नाथ कहाने वाले, नमुं नेमनाथ० // 4 // नेमि राजुल पद .. राजुल पुकारे नेम, पिया ऐसी क्या करी / मुझे छोडके चले, चूक हम से क्या परी // राजुल पुकार० // 1 // हुई आश की निरास, उदासीनता धरी / / Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 263 प्यारा बस नहीं हमेरा, प्रीतम पीडमें परी // राजुल पुकारे० // 2 // हम से रह्यो न जाय, प्रीतम तुम बिना घरी / संग लीजिये दयाल, दया दिल में धरी // राजुल पुकारे० // 3 // निशदिन तुमारा नाम, लेते ज्ञान की झरी // राजुल पुकारे० // 4 // श्री नेमिनाथ गायन मुझे चपलासी चमक बताय गयो रे, मुझे / महेल चढी जोइ हियो हरखायो, नैना को नेह लगाय गयो रे, मुझे // 1 // कोड छप्पन जादव संग लायो, नहीं पूरी खातो खताय गयो रे, मुझे चपला०॥२॥ समुद्रविजय शिवादेवीनंदन, निरखी पशु पछताय गयो रे / मुझे चपला० // 3 // तोरणसे फिर गिरनारी गयो, संजम दिलमें रचाय गयो रे / मुझे चपला० // 4 // नेम राजुल मिली कर्म खपायो, अचल अखंड पताय गयो रे / मुझे चपलासी० // 5 // Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. 3 स्तवनसंग्रह . श्री पार्श्वनाथ जिनस्तवन. राता जेवा फूलडांने शामल जेवो रंग। आज तारी आंगी नो काइ रूडो बन्यो छे रंग, प्यारा पासजी हो लाल, दीनदयाल मुने नयणे निहाल // जोगी बाडे जागतो ने मातो धिंगणमल्ल / शामलो सोहामणो काइ, जीत्या आठे मल्ल / प्या० // 2 // तूं छे मारो साहिबो ने, हुं छु तारो दास / आश पूरो दासनी कांइ सांभली अरदास / प्या० // 3 // देव सघला दीठा तेमां, एक तूं अवल्ल।। लाखेणो छे लटको ताहरो देखी रीझे दिल्ल / प्या०॥४॥ कोई नमे पीरने ने, कोइ नमे राम / उदयरत्न कहे प्रभु, मारे तुमसुं काम / प्या० // 5 // .. श्री पार्श्वनाथस्तवन ... - पारस तोरी निरखण दो असवारी, अरजी सुणा प्रभु म्हारी // पारस ॥आं०॥ 'काशी देश वाणारसी नयरी, दिन दशमी जयकारी / वामाराणी कूखथी प्रभुजी, जन्म लियो सुखकारी / पारस 01 // - छप्पन दिक्कुमरी हुलराया, हिये हर्ष अतिभारी। चोसठ इंद्र करे वली महोच्छव, करवा भवजल पारी / / Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 265 .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह एक कोड साठ लाख सोहे छे, कलस महामनुहारी / बारे जोजन पहोला पेटे, पचीस जोजन उंचा धारी // पारस० // 3 // नीचा उंचा जोजन पहोला, निर्मल भरीयो वारी / फूल चंगेरी बावना चंदन, केशर ने घनसारी ॥पारस० // 4 // इणि परे ओछव सुरपति कीनो, जोइजो सूत्र संभारी / सुरगिरि ऊपर पांडुकवन में, पांडुशिला अतिप्यारी // - पारस०॥५॥ अश्वसेनराय ओछव कीना, दान दिया दिल धारी / शहेरनी श्रेष्ठता जोवे जुक्ते, बेठा गोखमझारी // पा० // 6 // ___ लोक सहु पूजापो लइने, कमठकुं पूजनकारी / . प्रभुजी पधार्या देखण काजे, नाग जले तिण वारीपा०॥७॥ काष्ठ फडावी नाग निकाल्यो, संभलाग्यो मंत्र भारी / समकित लेइने सुरपति हुवा, धरणेन्द्र एकावतारी। पा० // 8 // उगणीसे इगतालीस वर्षे, पोष दशम रदीयाली। आहोर नगरमें ओछव कीनो, संघ सकल बलिहारी ॥पा० // 9 // - सुंदरमूर्ति प्रभुनी बिराजे, भविजनकुं सुखकारी। कीर्तिचंद्रसम शोभे जगमें केशरविजय जयकारी // पा० // 10 // Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 266 सग्रह 3 स्तवनसंग्रह पंचासरा पार्श्वनाथ स्तवन (प्रथम जिनेश्वर प्रणमिये-यह चाल) परमातम परमेश्वर जगदीश्वर जिनराज।। जगबंधव जगभाण बलिहारी तुमतणी,। ... भवजलधिमां रे जहाज // परमा० // 1 // तारक वारक मोहनो, धारक निजगुण ऋद्धि / अतिशयवंत भदंत रुपाली शिववधू, . परणी लही निजसिद्धि ॥परमा० // 2 // ज्ञान दर्शन अनंत छे, वली तुज चरण अनंत। एम दानादि अनंत क्षायिक भावे श्रया, गुण ते अनंता अनंत ॥परमा० // 3 // बत्तीस वरण समाय छे, एकज श्लोकमझार / एक वर्ण प्रभु तुज न माये जगतमां, केम करी थुणिये उदार परमा // 4 // तुज गुण कोण गणी शके जो पण केवल होय / आविर्भाव तुज सयल गुण माहरे, प्रच्छन्नभावथी जोय // परमा० // 5 // श्री पंचासरा पासजी, अरज करुं एक तुज / आविर्भावथी थाय दयाल कृपानिधि, .. करुणा कीजे जी मुज ॥परमा० // 6 // Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह श्री जिन उत्तम ताहरी, आशा अधिक महाराज / पद्मविजय कहे एम लहुं शिवनगरीनु, अक्षय अविचलराज ॥परमा० // 7 // पार्श्वनाथजिनस्तवन (राग काफी) जिनराज नाम तेरा, राखुं हमारे घटमें / जागे प्रभाव मेरा, अज्ञान का अंधेरा / भाग्या भया उजारा, राखुं हमारे० // 1 // मुद्रा प्रमोद कारी, प्रभु पासजी तिहारी / मोहे लगत है प्यारी, राखुं हमारे० // 2 // सूरत तेरी रागे, देख्यां विभाव त्यागे / अध्यात्म रूप जागे, राखुं हमारे० // 3 // त्रिलोकी नाथ तुम ही, मैं हूं अनाथ गुनहीं / करिये सनाथ हम ही, राखुं हमारे० // 4 // जिनजी तिहारी साखे, जिनहर्षसूरि भाखे / दिलमें हि याही राखे, राखुं हमारे घट में। जिनराज० // 5 // Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 3 स्तदनसंग्रह नवकोडा पार्श्वनाथ स्तवन (माढ राग) नवकोडा स्वामी अंतरजामी तारो दीनदयाल // .. अश्वसेन जी के लाडला रे, वामादेवी माय / / नगर बनारसी जन्म लियो प्रभु, नील वरण छे कायरे // : . नवकोडा० // 1 // पार्श्वनाथप्रभाव जगतमें, पूजे सुर नर इन्द। श्याम मूरत सुंदर जिनजी को, मुखडो छ पूनमचंद रे॥ . नवकोडा० // 2 // अरज सुणीजो दर्शन दीजो, मुजरो लीजो मान / जन्म मरण दुःख टालों जिनजी, अरज करे छ कान रे / / . नवकोडा० // 3 // श्री पार्श्वनाथ स्तवन (नाथ कैसे गजको बंध छुडायो-यह चाल) नाथ मेरी वीनतडी अवधारो, मोए जैसे बने ऐसे तारो, नाथ मेरी० / आं। अश्वसेन वामाजीको नंदन, नागकुं तारणहारो। केवल ज्ञान लही जगभूषण, शिखर समेत शणगारो, नाथ मेरी० // 1 // सुर नर नरक निगोद तणा दुख, कहेतां न आवे पारो / Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 269 अनंतकाल मोहे भटकत वीत्यो, तुमसे आन पुकारो नाथ० // 2 // ऐसा कोण दयाल जगतमें, जासे कहिये तारो। अनेक जीव भवजलसे तारे, मुजकुं क्युं न संभारो / नाथ० // 3 // मिथ्यामत तम दूर करन कुं, सहस्रकिरण अवतारो / समकित शुद्ध ज्ञान निज दे के भवजल पार उतारो / नाथ० // 4 // वीस अधिक ओगणीस सातमें, माघ शुकल सोमवारो। बनारसीमें ओछच होवे, श्री संघ जयजयकारो। नाथ० // 5 // रामघाट प्रभु पास विराजे, समवसरण मनोहारो। हाथ जोड के अरज करत है, मोहन दास तुमारो // नाथ मेरी वीनतडी अवधारो० // 6 // ... श्री पार्श्वनाथ स्तवन (ढुंढ फिरा जग सारा० यह चाल) पार्श्वनाथ सुखकारा सुखकारा, जिनपति पूजो प्रेमसे / आं०। ज्ञान अनंतके है प्रभु धारी, कर्म रोग सब दूर निवारी, . सूरज परे तेज धारा तेज धारा, जिनपति० // 1 // भवसमुद्र में पडते बचावे, मोक्षमारग प्रभुजी दिखलावे, करे जगत उपगारा उपगारा, जिनपति० // 2 // कमठ हठीको दूर निवारा, जलती आगसे सर्प उगारा अहो दयाके प्रभु धारा प्रभु धारा, जिनपति० // 3 // Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 3 स्तवनसंग्रह . . पार्श्वयक्षसे पूजित पाया, पद्मावती-धरणेद्रको भाया। वंदो ऐसे प्रभु प्यारा प्रभु प्यारा, जिनपति० // 4 // एक ही चित्ते नाथ पूजनसे, वार वार फिर ध्यान करनसे, होवे करम छुटकारा छुटकारा, जिनपति० // 5 // महाप्रभावी है इस जुगमें, पूरे मनोरथ सारे छिनमें, वंदे सौभाग्य दिल धारा दिल धारा, जि० // 6 // श्रीमहावीर जिन स्तवन . (राग कडखेकी) / तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी, जगतमा एटलुं सुजस लीजे / ' दास अवगुण भर्यों जाणी पोता तणो, दयानिधि दीन पर दया कीजे / तारहो० // 1 // राग-द्वेषे भयों मोह वैरी नडयो, लोकनी रीतिमां घणुये रातो। क्रोधवश धमधम्यो शुद्ध गुण नवि रम्यो, भम्यो भवमांहि हुँ विषयमातो। तार० // 2 // आदर्यु आचरण लोकउपचारथी, शास्त्र अभ्यास पण काइ कीघो। शुद्ध श्रद्धान वली आत्म अवलंबन विनु, तेहको कार्य तिणे को न सीधो। तार० // 3 // Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह स्वामीदरिसण समो निमित्त लही निर्मलो, जो उपादान ए शुचि न था। दोष को वस्तुनो अथवा उद्यम तणो,. स्वामीसेवा सही निकट लाशे / तार० // 4 // स्वामीगुण ओलखी स्वामिने जे भजे, दरिसणशुद्धता तेह पामे / ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, . कर्म झीपी वसे मुक्ति धामे / तार हो० // 5 // जगतवत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभुचरणने शरण वासो। तारजो बापजी बिरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो / तार० // 6 // चीनती मानजो शक्ति ए आपजो, भावस्याद्वादता शुद्ध भासे / साध्य साधक दशा सिद्धता अनुभवी, देवचंद्र विमल प्रभुता प्रकाशे / तार० // 7 // . श्रीमहावीरस्तवन __(आवो आवो पासजी० यह देशी) चाला प्रभु वीरजी सुखकारा रे, मारा प्राणथकी छो प्यारा / वाला० आं०। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 3 स्तवनसंग्रह . तात सिद्धारथ राया रे, माता त्रिशलाना प्रभु जाया रे।। कांचनवरणी छे जस काया। वाला० // 1 // . . बालपणाथी छो बलधारी रे, परण्या यशोदा नारी रे। रह्या तीस वरस घरबारी / वाला // 2 // लेइ संजम वनमां वसिया रे, बार वरस लगे तप रसियारे, पाम्या केवल भवदुख खसिया / वाला०॥ प्रभु०॥३॥ प्रभु तार्या मेघकुमारा रे, का चंडकोशिक उद्धारा रे। तारो मुजने प्रभु हितकारी / वाला० // 4 // शरणे आव्यो प्रभु ताहरे रे, चरणकमल वंदू तुमारे रे, सौभाग्यविजय दिल प्यारे। वाला० // प्रभु० // 5 // श्रीमहावीरस्तवन मने तो मलियो मारो नाथ, पूरवना पुण्य प्रभावे रे / ___ मने तो मलियो० // प्रीति अनादिनी, भूली गया छो स्वामी। . हवे नहीं छोड़ें तारो साथ, नही छोडु कदापि रे। मने तो मलियो० // 1 // काल अनादिनो, हुं रखडं छु प्रभु जी, भ्रमण करु छु गति चार, दुख बहु तेथी पासु रे / . मने तो मलियो० // 2 // हवे तुमे मलिया स्वामी, दुःख अमारं कापो। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 273 आपो ने शिवरमणीनो साथ, आपो प्रीत करीने रे / - मने तो मलियो० // 3 // सुलसादिक नवने आपे, जिनपद दीधुं व्हाला / चंदनवालानु काप्यु दुख, तेम अमारु कापो रे। . मने तो मलियो० // 4 // त्रिशलाना नंदन जिनजी, वीनति अवधारो व्हाला / प्रीतेथी खेंची ल्योने हाथ, नाथ मैं तमने धार्या रे / _ मने तो मलियो० // 5 // शामजी कहे छे व्हाला, वीर प्रभुना गुणनी राशि / गावाथी तरिये आ संसार, वात छे तेहज साची रे / . मने तो मलियो० // 6 // * श्रीमहावीरस्तवन वाला वीर जिनेश्वर जन्म-जरा निवारजो रे, प्यारा प्रभुजी प्रीते मुज शिर पर कर थापजो रे वा० // तीन रतन आपो प्रभु मुजने, खोट खजाने को नहीं तुजने / अरजी उर धरी कर्मकटक संहारजो रे। वाला० // 1 // कुमति डाकण वलगी मुजने, नमी नमी वीनQ हे प्रभु तुजने / ए दुखथी दूर करवा व्हेला आवजो रे / वाला० // 2 // Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 3 स्तवनसंग्रह . आ अटवीमां भूलो पडियो, .. तूं साहिब साचो मने मलियो। सेवकने शिवपुरनी सडक देखाडजो रे / वाला० // 3 // अरजी उचरीने जिन आगे, महावीरमंडल प्रभुपद मागे / महेर करी महाराज प्राण ने तारजो रे / . वाला वीरजिनेश्वर० // 4 // श्रीमहावीरस्तवन (राग-इंद्रसभाका) महावीर महावीर मैं जपुं, और नित्य करूं प्रणाम / प्रभुजी तुमारं मुखड़े देखी, सफल हुआ सब काम // 1 // तेरे अंग पर पुष्प चढावू, भात भात के जात / गुलाब चंपेली जासुद डमरो, मालती मोगर साथ // 2 // हीरे जडेलो मस्तके मुगट, कानमें कुंडल सार / बांहे बाजुबंद बेरखा, ओर गले मोतिनको हार // 3 // ऐसी अंगी महावीर प्रभुकी, दर्शन करे नरनार / प्रभु तोरा चरणकमल पसायसे, भविजन पामे भवपार / महावीर० // 4 // श्री लघुआदिजैनगोष्ठी, गावे गीत रसाल / सेवक पर करुणा करी, प्रभु देजो सुख विशाल / . महावीर० // 5 // Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 275 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह * श्रीमहावीरजिनस्तवन (राग-कानूडा तारी कामण०) वीरजी तारी पावनकरनारी, मनमां आंखलडी लागी। मीठी वली सेवकमनवशकरनारी, मनमां० // भवभय हरनारी तुम सुणवा, वाणी सुखकारी / हूं चाहूं हूं चाहूं जिनवर थइने हुंसियारी, मनमां // 1 // दर्शन नर नारी तुम करवा, आवे दिल धारी / तूं दाता तूं दाता शिवसुख थइने शिवचारी, मनमां०॥२॥ अघहर उपकारी प्रभु तुम छो, आतमहितकारी / हूं मागु हूं माणू सुखकर वल्लभ भव पारी, मनमां आंखलडी लागी० // 3 // श्री.चौवीसजिनस्तवन - ऊठ प्रभाते आदिजिननु, चेतन समरण कीजे रे। दिन दिन आनंद मंगल वाधे, जगमां जस बहु लीजे रे ।।ऊठ०॥१॥ ____ ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमतिनी सेवा कीजे रे। पद्म सुपार्श्व प्रभुता आपो, चंद्रप्रभु सुख दीजे रे // ऊठ० // 2 // . सुविधि शीतल श्रेयांस ध्याचो, वासुपूज्य विख्याता रे। विमल अनंत धर्मजिन शांति, अनुभव सुखना दाता रे // ऊठ० // 3 // Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 __ 3 स्तवनसंग्रह __कुंथु अर मल्लि मुनिसुव्रत, नमि नेमि जयकारी रे। पार्श्व वीरप्रभु समरण करतां, आपो शिववधू सारी रें। ऊठ० // 4 // ___पुंडरीक पमुहा मुनिवर वंदूं, गुणवंता ऋषिराज रे / सोल सतीनां समरण करतां, सीझे वंछित काज रे // ऊठ० // 5 // थावर जंगम तीरथ जगमें, जे वंदे नरनारी रे। कीर्तिकमला ते भवि पामे, मोक्षतणा अधिकारी रे ऊठ० // 6 // , श्री सीमंधरजिनस्तवन श्रीसीमंधर साहिबा, हुं किम आएँ तुम पास हो मुणिंद / दूर विचे अंतर घणो, मुने मिलवानी घणी आश हो मुणिंद // श्रीसीमंधर० // 1 // हुं इण भरतने छेहडे, तुमे प्रभु विदेहमझार हो मुणिंद / डुंगर वली नदियांधणी, तिहां कोश तो केइ हजार हो मुगिंद। श्रीसी० // 2 // .. ......... , - प्रभुजी देता होशो देशना; कांड सांभले जिहांना लोग हो मुणिंद / धन्य ते गाम नगर पुरी, ज्यां पर्ते पुन्यसंयोग हो मुणिंद / श्रीसी० // ... ... .... धन्य ते श्रावक श्राविका, कांइ निरखे प्रभु मुखचंद हो मुजिंद / मुज़ मनोरथ मनतणा, कांइ फलशे भाग्य अमंद हो मुणिंद / श्रीसी० // 4 // Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __.. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 277 वरतारो वरती रह्यो, कांइ जोशी मांडयुं लगन्न हो मुर्णिद। कहे सीमंधर कद भेटशुं, मुज मन लागी लगन हो मुणींद / श्रीसी० // 5 // पिण जोशी नहीं एहवो, कांइ भांजे मननी भ्रांत हो मुणींद। णइ भव तात कृपा करी, मुज आण मिलावो एकांत हो मुणींद। श्रीसी० // 6 // . वीतराग भावे सदा तुमे, वो छो जगनाथ हो मुणींद / मैं जाण्यु तुम केडथी, हवे हुँ थयो स्वामी सनाथ हो मुणींद श्रीसी० // 7 // पुक्खलवइ विजया वसे, कांइ नयरी पुंडरिगिणी स्वाम हो मुणींद / सत्यकीनंदन वंदना, काइ अवधारो गुणना धाम हो मुणींद / श्रीसी० // 8 // राय श्रेयांसकुलचंदलो, राणी रुकमणीकेरो कंत हो मुणींद / वाचक रामविजय कहे , तुम ध्याने हुवो मुज चित्त हो मुणींद / श्रीसी० // 9 // .. श्रीयुगमंधर जिनस्तवन काया पामी अतिकूडी, पांख नहीं आq ऊडी, लब्धि नही कोय रूडी रे / श्रीयुगमंधरने कहेजो, दधिसुत वीनतडी सुणजो रे / श्री युग० // 1 // तुम सेवामांहे सुरकोडी, ते इहां आवे इक दोडी, आश फले पातक मोडी रे / श्री० // 2 // Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 - 3 स्तवनसंग्रह - दुष्षम समयमां इण भरते, अतिशयनाणी कोइ नवि वरते, कहीये कहो कोण सांभलते रे / श्री० // 3 // श्रवणो सुखिया तुम नामे, नयणा दर्शन नबि पामे, एतो झगडाने ठामे रे / श्री० // 4 // * चार आंगल अंतर रहेg, शोकलडीनी परे दुख सहे, प्रभु विना कोण आगल कहेवु रे / श्री० // 5 // . __महोटा महेर करी आपे, बेहुनो तोल करी थापे, सज्जन जस जगमां व्यापे रे / श्री० // 6 // , बेहुनो एकमतो थावे, केवल नाणजुगल पावे, तो सवि वात बनी आवे रे / श्री० // 7 // गजलांछन गजगतिगामी, विचरे विप्राविजय स्वामी, नयरी विजया गुणधामी रे / श्री० // 8 // ___मात सुताराये जायो, दृढरथनरपतिकुल आयो, पंडित जिनविजये गायो रे / श्री० // 9 // श्री चंद्राननजिनस्तवन चंद्रानन जिन, सांभलीये अरदास रे। मुज सेवक भणी, छे प्रभुनो विसासो रे / चंद्रा० // 1 // भरत क्षेत्र मानवपणो रे, लाधो दुष्पमकाल / जिन पूरवधर विरहथी रे, दुलहो साधन चालो रे / चंद्रानन० // 2 // Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 279 द्रव्यक्रियारुचि जीवडा रे, भावधरमरुचिहीन / उपदेशक पण तेहवा रे, शुं करे जीव नवीन रे। चं // 3 // तत्वागम जाणग तजी रे, बहु जन सम्मत जेह / मूढ हठी जन आदर्यो रे, सुगुरु कहावे तेह रे / चं० // 4 // आणा साध्य विना क्रिया रे, लोके मान्यो रे धर्म / दंसण नाण चारित्रनो रे, मूल न जाण्यो मर्म रे। चं० // 5 // गच्छकदाग्रह साचवे रे, माने धर्म प्रसिद्ध / आतमगुण अकषायता रे, धर्म न जाणे शुद्ध रे। चं० // 6 // तत्त्वरसिक जन थोडला रे, चहुलो जनसंवाद / जाणो छो जिनराजजी रे, सघलो एह विनोद रे / चं० // 7 // नाथचरणवंदनतणो रे, मनमा घणो उमंग / पुण्य विना केम पामिये रे, प्रभु सेवननो संग रे। चं० // 8 // जगतारक प्रभु वंदिये रे, महाविदेहमझार / वस्तुधर्म स्याद्वादता रे, सुणि करिये निरधार रे / चं० // 9 // तुज करुणा सहु उपरे रे, सरखी छे महाराय / / पण अविराधक जीवने रे, कारण सफलो पाय रे।चं० // 10 // एहवा पण जग जीवने रे, देव भगति आधार / प्रभु समरण थी पामिये रे, देवचंद्र पद सार रे। चं० // 11 // Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 3 स्तवनसंग्रह श्री आदिशांतिनाथजिनस्तवन मैं अरज करूं शिरनामी, प्रभु कर जोड जोड जोड // . मैं भववन में जा फसिया, वहां काल अनंता वसिया / मुझे लोभ सर्प आ डसिया, अखियां खोल खोल खोल / . . मैं अरज० // 1 // क्रोधानलने अतिबाला, मेरा अंग पड़ गया काला। मुझे पिला दे प्रेमरस प्याला, अमृत घोल घोल घोल / . . मैं अरज 0 // 2 // मान अजगर मुझ को खावे, मेरा प्राग पलक में जावे / जडी जीवन कौन पिलावे, वनमें घोल घोल घोल। .. मैं अरज० // 3 // तुम नाम मंत्र से साजा, कछु हो गया प्रभुं ताजा / कठोरगाम महाराजा, आया डोल डोल डोल। ....... मैं अरज० // 4 // श्री आदि शांतिजिन स्वामी, हंसो मागे शिरनामी / गुण मुक्ताफल दो धामी, प्रभु विन मोल मोल मोल / मैं अरज० // 5 // Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 281 सामान्य जिन स्तवन (राग कवाली) गतास्ते दुःखमयदिवसा, गता सा दीनता कष्टा / समाप्ताऽनादिभवयात्रा, गतोऽस्मि स्वं पदं कुशली॥१॥ अहो संसारकान्तारे, मयाऽद्य भ्राम्यताऽदर्शि / जगन्धितकारिसबुध्धि,-र्जिनाख्यः सार्थपतिरेषः // 2 // अलोक्याऽऽलोकनाऽपूतं, मदं दृष्टियुगमद्य / पवित्रीभावमापन्नं, जिनेश्वर दर्शनाद् भवतः॥३॥ त्वदीया भक्तिरल्पापि, विधत्ते पातकं विफलम् / यथा क्लवो दारू,-चयं क्षणमात्रतो दहति // 4 // भव दाताऽथवा कृपण,-स्तथापि मे त्वमेवासि / तवाग्रे सत्यमिति भाषे, कदाचिन्नैव याचेऽन्यम् // 5 // न मेऽर्थो वैबुधैर्लाभ, न वा भूपालभोगाद्यैः / इदं तु याच्यते भगवन् ! वसेर्मम मानसे सततम् // 6 // यदि त्वन्नामदीपोऽयं, मदीयं द्योतयेद् हृदयम् / तदा निजरूपसंसिध्धे,-भवेत्कल्याणपदगमनम् // 7 // सामान्य जिन स्तवन . . अब तो प्रभुजी का लेलो शरन, लेलो शरन प्यारे लेलो शरन / अबतो // आरज देश उत्तम कुल जाति, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 3 स्तवनसंग्रह मानव भव अब पायो रतन / अवतो. 0 // 1 // द्रव्य भाव से पूजा प्रभुकी, महानिशीथे जिनवरवचन / अवतो // 2 // गृही को पूजा दोनों ही सुंदर, भाव पूजासे साधु लगन / अबतो 0 // 3 // अष्ट द्रव्य से द्रव्य पूजा है, भाव पूजा करो प्रभु नमन / अब तो 0 // 4 // जिनप्रतिमा जिन सरखी मानो, आतम वल्लभ तारन तरन / अब तो प्रभुजी का // 5 // श्री परमात्मस्तवन सकल समता सुरलतानो, तूंही अनोपम कंद रे। तूंही कृपारस कनक कुंभो, तूंही जिणंद मुणिंद रे // 1 // प्रभु तूंही तूंही तूंही तूंही तूंही करता ध्यान रे / तुज स्वरूपी जे थया, तेणे ला ताहरु तान रे। प्रभु०॥२॥ तूंही अलगो भव थकी पण, भविक ताहरे नाम रे / पार भवनो तेह पामे, एह अचरिज ठाम रे / प्रभु० // 3 // जन्म पावन आज माहरो, निरखियो तुज नूर रे / भवो भव अनुमोदना जी हुओ आप हजूर रे / प्रभु०॥४॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्राप श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह एह माहरे अखयं आतम असंख्यात प्रदेश रे।। ताहरा गुण जे अनंता किम करुं तास निवेश रे। प्रभु० // 5 // एक एक प्रदेश ताहरे गुण अनंतनो वास रे। एम करी तुज सहज मीलत हुए ज्ञान प्रकाश रे / प्रभु // 6 // ध्यान ध्याता ध्येय एके एकीभाव होय एम रे / एम करतां सेव्य सेवक भाव होए क्षेम रे / प्रभु०॥७॥ शुध्ध सेवा ताहरी जे होय अचल स्वभाव रे / ज्ञानविमल सुरींद प्रभुता, होय सुजस जमाव रे / प्रभु० // 8 // जिन-स्तवन (तर्ज-हे प्रभु आनंद दाता०) छोड जिनवर को, दुनीसे दिल लगा कर क्या करूं / हाथ हीरा मिल गया, कंकर को ले कर क्या करूं // 0 // भवार्णव के ताप से, जलता फिरूं कइ कालसे / कल्पछाया मिल गइ, छाते को सिर पर क्या धरूं // 1 // मोह अंधेरी रैन में, चलते ही खाई ठोकरें। ज्ञान दिनकर देख फिर, बत्ती जलाकर क्या करूं // 2 // काल अनादि कर्म के हूं, रोग से पीडित हुआ। धर्म बूंटी मिल गई, वैद्यों से मिल कर क्या करूं // 3 // देव देवी सेव से, जलता रहा संसार में। मोक्ष दाता अब मिला, पर की पूजा कर क्या करूं // 4 // Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 3 स्तवनसंग्रह गा रहा हूं प्रेम से, प्रभु गुण प्रभु के सामने / 'प्राण' ही होवे खुशी, ओरों को रिझा कर क्या करूं // 5 // छोड जिनवर को०॥ जिन-स्तवन है जगत में नाम ये रोशन, सदा तेरा प्रभु / तारते उसको सदा जो, ले शरण तेरा प्रभु // लाख चोरासी में घेरा, कर्मोने मारा मुझे। ले बचा अब तो सहारा, है मुझे तेरा प्रभु / है० // 1 // सेंकडों को तारते हो, मेहेर की करके नजर / क्यों नहीं तारा मुझे है, क्या गुना मेरा प्रभु // है जगत में // 2 // हाल जो तन का हुआ है, आप विन किसको कहूं / मोहराजाने मुझे, चारों तरफ घेरा प्रभु॥ . है जगत में० // 3 // आप से हरदम तिलक की, तो यही अरदास है। . आप चरणों में रहे, मेरा सदा डेरा प्रभु॥ . है जगत में // 4 // Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह जैनधर्मकी महत्ता पर स्तवन (तर्ज-कमली वाले ने) सप धर्मों में यह आला है, आला है जैन निराला है। सब चुन चुन कर लेय रहे, तत्त्वों का यहीं मसाला है // 0 // ऐसे हैं जिनवर देव जिन्हें, नहीं पक्षपात से चारा है। आठों कर्मों को दूर किया, शिवपुर में घर कर डाला है ।सब० // 1 // गुरु जैनी हैं सत्यवादी ये, नहीं पाप पथिक यारागी है। कंचन कामिनी को त्याग सदा, महा पांच व्रतों को पाला है ।।सव०॥२॥ नहीं दुर्गति में गिरने देवे, सद् रस्ता धर्म बताता यह / सम्यक् दर्शन और ज्ञान क्रिया से, 'धीरज' जैन उजाला है ।सब०॥शा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 3 स्तवनसंग्रह प्रभु पूजा गायन भर लावो रे कटोरा केसर का, नव अंग पूजो परमेश्वर का / भरा . असल कस्मीरी केसर मंगाया, कीच बनाया कीस्तूरी का / भर० // 1 // सती द्रौपदी चंदण चयों, ज्ञान सुणो सूत्र ज्ञाता का / भर० // 2 // नर नारी मिल मिल के पूजो, ज्युं सुख पावो मुक्ति का / भर० // 3 // आज आनंद मोए हर्ष वधावो, ज्ञान चाकर प्रभु चरणों का। भर लावो रे कटोरा केसर का // 4 // प्रभु भक्ति उपदेश पद ध्यान में जिन के सदा, लयलीन होना चाहिये / ज्ञान गुन ज्ञान शैली, परवीन होना चाहिये / ध्यान॥ राह संयम की पकड, कल्याण की सूरत मिले। काल गफलत में सज्जन, नाहक न खोना चाहिये। ध्यान में० // 1 // धर्म खेती किया चाहे, जमीन कुं साफ रख / . Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह चीज समकित्त का हृदय में, रुचि से वोना चाहिये / ध्यान में // 2 // कामना मन की सफल, आनंद से पूरन भई / अब तो समतासेज ऊपर, सुख से सोना चाहिये। ___ ध्यान में // 3 // दास चूनी अपने घर, आनंद से फुलेगा कल्प। भवस्थिति पकने से, मुगताफल सही लेना चाहिये / ध्यान में० // 4 // प्रभु प्रार्थना पद साहेब तेरी बंदगी मैं भूलता नहीं, भूलता नहीं मैं विसरता नहीं / साहेब०॥ अष्टादश दोष रहित देव है सही, अन्य देव शंकरादि मानता नहीं। साहेब० // 1 // मुनि है निग्रंथ सद्गुरु है सही,, अन्य गुरु वेशधारी मानता नहीं / साहेब० // 2 // दान शीयल तप भाव धरम है सही, . . अन्य धर्म विषय को मैं मानता नहीं / साहेब० // 3 // मुक्ति रूप सिद्धि सुख वांछता सही, संसार दुख जाल रूप जाचता नहीं / सा० // 4 // कहे मुनि कीर्तिवान तारिये सही, आवागमन भवभ्रमण का मेटिये सही / साहेब० // 5 // Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .288 3 स्तवनसंग्रह प्रभु गुण गायन सुसंगी सुसंगी सुसंगी प्रभु मिल गये, सफल भये मोरे नैन। सुसंगी० // 1 // एक तो मैं दरिसन, मैं दरिसन, मैं दरिसन प्यासी, दरिसन विना नही चेन / सुसंगी प्रभु० // 2 // एक तो मैं पापी, मैं पापी, मैं पापी हूं प्राणी / तारण वाले भगवान् / सुसंगी० // 3 // एक तो मैं माया, मैं माया, मैं माया का लोभी, झूठी माया मेरी जान / सुसंगी प्रभु०॥४॥ एक तो मैं आया, मैं आया, मैं आया तोरे चरणे, जैनमंडली गुण गाय / सुसंमी प्रभु मिल गये // 5 // जिनप्रतिमास्थापनास्तवन . श्री जिनप्रतिमा हो जिनसरखी कही, दीठा आणंद अंग / समकित बिगडे हो शंका कीजंता, जिम अमृत विष संग श्री० // 1 // आज नहीं कोई तीर्थकर इहां, नहीं कोई अतिशयर्वत / जिनप्रतिमानो हो एक आधार छे, आपे मुक्ति एकत। श्री० // 2 // सूत्र सिद्धांत हो तर्क व्याकरण भण्या, पंडित पण कहे लोक / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह जिनप्रतिमाने हो जे माने नहीं, तेहनो सघलो फोक / श्री० // 3 // प्रतिमाने आगे हो नमुत्थुणं कहे, पूजा सत्तर प्रकार। फल पिण बोल्यां हो हित सुख मोक्षनां, द्रौपदीने अधिकार / श्री० // 4 // रायपसेणी हो ज्ञाता भगवती, जीवाभिगमादिमांझ / ए सूत्र माने हो प्रतिमा माने नही, माहरी माय ने वांझ / श्री० // 5 // साधुने बोल्यो हो भावस्तव भलो, श्रावक ने द्रव्य भाव / ए बेहु करणी हो करतां निस्तरे, श्रीजिनप्रतिमा प्रभाव / . . . श्री० // 6 // पारसनाथ हो तुज प्रसादथी, सद्दहणा मुज एह / भव भव हो जो हो समयसुंदर कहे, श्रीजिनप्रतिमासु नेह / / श्री० // 7 // दीवाली बीरप्रभु स्तवन मारग देशक मोक्षनो रे, केवल ज्ञान निधान / भाव दया सागर प्रभु रे, पर उपगारी प्रधानो रे / धीर प्रभु सिद्ध थया, संघ सकल आधारो रे, हवे इण भरतमां, कोण करशे उपगारो रे / वीर० // 1 // Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 3 स्तवनसंग्रह नाथविहुणुं सैन्य ज्यु रे, वीरविहुणो रे संघ / साधे कोण आधारथी रे, परमानंद अभंगोरे / वीर० // 2 // मातविहुणो बाल ज्यु रे, अरहो परहो अथडाय / वीरविहुणा जीवडा रे, आकुल व्याकुल थाय रे / वीर० // 3 // संशयछेदक वीरनो रे, विरहो केम खमाय / जे दीठे सुख उपजे रे, ते विण केम रहेवाय रे। .. वीर० // 4 // निर्यामक भवसमुद्रनो रे, भव-अडवी-सथ्थवाह / . ते परमेश्वर विण मले रे, केम.वाधे उत्साहो रे / , वीर० // 5 // वीर थकां पण श्रुततणो रे, हतो परम आधार / हवे इहां श्रुत आधार छ रे, अहो जिनमुद्रा सार रे। वीर० // 6 // त्रण काले सवि जीवने रे, आगमथी आणंद / सेवो ध्यावो भविजना रे, जिनपडिमा सुखकंदो रे।। वीर० // 7 // गणधर आचारज मुनि रे, सहुने इणि परे सिद्ध / . भव भव आगम संगथी रे, देवचंद्र पद लीध रे वीर० // 8 // Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 291 दीवाली महावीरजिन स्तवन म्हारे दीवाली थइ आज, जिनमुख जोवाने ॥आं०। महावीर स्वामी मुगते पहोता, गौतम केरल ज्ञान रे / धन अमावस दीवाली म्हारे, वीर प्रभु निर्वाण / जिनमुख० // 1 // चारित्र पाली निरमलं ने, टाली विषय कषाय रे / एहवा मुनिने वांदिये तो, उतारे भवपार। जिन // 2 // बाकुला वहोराव्या वीरजीने, तारी चंदन बाला रे / केवल लहीने मुगते पहोता, पाम्या भवनो पार। जिन० // 3 // एहवा मुनिने वांदिये, जे पंचम ज्ञानने धरता रे / समवसरण दइ देशना, प्रभु तार्या नर ने नार। जिन // 4 // चोवीसमा जिनेश्वर ने, मुक्ति तणा दातार रे। कर जोडी कवि इम भणे, प्रभु भवनो फेरो टाल / जिन // 5 // - श्री पर्युषणा स्तवन (आंखडीये में आज शेत्रुजो दीठो रे यह चाल ) सुणजो साजन संत पजूसण आव्यां रे / तुसे पुण्य करो पुण्यवंत, भविक मन भाव्यां रे / / वीर जिणेसर अति अलवेसर, वाला मोरा परमेश्वर एम बोले रे। पर्व मांहे पजूसण मोटा, अवर न आवे तोले रे / पजू० // 1 // Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 3 स्तवनसंग्रह चोपगमांहे जेम केशरी मोटो, वाला मोराखगमांगरुड ते कहिये रे। नदीमाहे जेम गंगा मोटी, नगमां मेरु लहिये रे। पजू० // 2 // भूपतिमां भरतेश्वर भाख्यो, वा० देव मांहे सुर इंद्र रे / सकल तीरथ मांहे शेजो दाख्यो, ग्रहगणमां जेम चंद्र रे पजू० // 3 // दशरा दीवाली ने वली होली, वा० आखातीज दिवासो रे / बलेव प्रमुख बहुला छे बीजां, पण ए मुक्तिनो वासो रे। . . पजू० // 4 // ते माटे अमार पलावो, अट्ठाइ महोच्छव कीजे रे। अट्ठम तप अधिकाइये करीने, नर भव लाहो लीजे रे। पजू० // 5 // ढोल दुंदुभि भेरी नफेरी, वा० कल्पसूत्र जगावे रे / झांझरनो झमकार करीने, गोरीनी टोली मली आवे रे / . पजू० // 6 // सोना रूपाने फूलडे वधावी, वा० कल्पसूत्र ने पूजे रे / नव वखाण विधिए सांभलतां, पाप मेवासी धूजे रे। पजू० // 7 // ए अट्टाहिनो महोच्छव करतां, वा० बहु जगजन उद्धर्या रे.। विबुध विनीत वरसेवक एहथी, नवनिधि ऋद्धि सिद्धि वर्या रे। पजू० // 8 // Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 293 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह श्री सिद्धाचल स्तवन (तीरथनी आशातना नवि० यह देशी) विमल गिरिने भेटतां सुख पायो, हारे सुख पायो रे सुख पायो, हारे आनंद घणो दिल छायो, हारे नमतां गिरिराज / विमल / / मूल मंदिर प्रभु ऋषभनी अतिप्यारी, हारे सोहे मूरत मोहनगारी / हारे जस महिमा छे अतिभारी, होरे मार्नु मोहनवेल / विमल० // 1 // आस पास जिन बिंबने दिल धरिये, हारे रायण पगलां न विसरिये / हारे पुंडरीक गणधर गुण वरिये, करिये जन्म पवित्र / विमल० // 2 // ऋषभ प्रभुजी आविया दिल धारी, हारे इहां पूर्व नवाणुं वारी / हारे मुनि ध्यान कयु अतिभारी, तीर्थ नमुं गुणखाण / विमल० // 3 // पुंडरीकाचल नामथी ओलखायो, हारे ज्ञातासूत्रमें तीर्थ बतायो / सीमंधरजिन मुख से गवायो, नाम लियां दुख जाय / विमल० // 4 // तीर्थ प्रतापी भेटीयो मनुहारो, होरे रूडो देश सोरठ शणगारो / सौभाग्यविजय दिल प्यारो, नमिये वारं वार / विमल० // 5 // Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 3 स्तवनसंग्रह श्री सिद्धाचल स्तवन . जिनंदा तोरे चरण कमलकी रे, हु चाहुं सेवा प्यारी, तो नाशे कर्म कठारी, भव भ्रांति मिट गइ सारी / जिनंदा० // 1 // विमलगिरि राजे रे, महिमा अति गाजे रे। वाजे जग डंका तेरा, तूं सच्चा साहिब मेरा / बालक चेरा तेरा / जिनंदा० // 2 // करुणा कर स्वामी रे, तूं अंतरजामी रे / नाभि जग पूनमचंदा, तूं अजर अमर सुखकंदा। . तूं नाभिरायकुल नंदा / जिनंदा० // 3 // इणगिरि सिद्धा रे मुनि अनंत प्रसिद्धा रे / श्री पुंडरीक गणधारी, पुंडरीकगिरि कहारी, ए सहु महिमा तारी। जिनंदा // 4 // तारक जग दीठा रे, पाप पंक सह निठा रे / इच्छा मो मन में भारी, में कीधी सेवा तारी / हुं मास रही शुभ चारी / जि० // 5 // बिरुद निहारो रे, अब मोहे तारो रे। तीर्थ जिनवर तो भेटी, जन्म जरा दुःख.मेटी / . हुं पायो गुणनी पेटी। जिनंदा० // 6 // Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .श्रीजैनशान-गुणसंग्रह द्राविडं वारिखिल्ला रे, दश क्रोडि मुनि मिल्ला रे / ' हुआ भक्ति रमणी भरतारा, कार्तिक पूनम दिन सारा। जिनशासन जग जयकारा / जि० // 7 // संवत शशि चारा रे, निधि इंदु उदारा रे / आतम को आनंदकारी, जिनशासन की बलिहारी। पाम्या भवजल पारी। जिनदा० // 8 // श्री शत्रुजय स्तवन शेजानो वासी प्यारो लागे मोरा राजिंदा, लागे मोरा राजिंदा जी लागे मोरा० // इण डुंगरीयारी जीणी जीणी कोरणी, उपर शिखर विराजे मोरा राजिंदा / शेत्रु० // 1 // चोमुख बिंब अनुपम विराजे, अद्भुत दीठां दुख भागे मोरा राजिंदा। शे० // 2 // चुवा चंदन ओर अरघजा, केशर तिलक बिराजे मोरा राजिंदा० / शे० // 3 // मस्तके मुकट कान में कुंडल, . बांहे बाजुबंद छाजे मोरा राजिंदा० / शे० // 4 // ज्ञान विमल प्रभु इणि परे बोले, आभव पार उतारो मोरा राजिंदा० शे० // 5 // Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 3 स्तवनसंग्रह श्रीपुंडरीकस्वामिस्तवन / (राग वणजारा की) पुंडरीक गणधर स्वामी, पूछे आदिजिनंद सिरनामी / आंकणी। संसार समुद्र है भारी, प्रभु कैसे हुवे झट पारी। कर्म कटे कब मेरा, मिटे जन्म मरण का फेरा / पुंडरी० // 1 // कहे प्रभु सिद्ध गिरि जाना, जहां मोक्षगति तुम पाना / अजर अमर होइ जावे, निज कर्म पटल टल जावे / पुं० // 2 // सुण कर के तिहां जावे, किया ध्यान करम गल जावे / पांच क्रोड मुनिवर साथे, लिया मुक्ति वधू.सुख हाथे। पुं० // 3 // चैत्री पूनम दिन पूजा, करतां नर भव हो दूजा। ध्यान धरो दिल रंगे, गुणगान करो उछरंगे / पुंड० // 4 // तीन भुवन में यह भारी, नामे सिद्धगिरि सुखकारी / सौभाग्यविजय दिल ध्यावे, भवसागर पार लहावे / . पुंडरीक० // 5 // Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 297 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह गहुंली आज हमारे रे मंगल रंग वधाई, जय जय श्रीमहावीर जिनेश्वर जगगुरु जगहितकारी, तुम शासन जगमां जयवंतुं चरते मंगलकारी / आज हमारे रे मंगल रंग वधाई // 1 // स्वामि सुधर्म गणीश-परंपर-नंदनवन सुरशाखी। जगचंद्रसूरीश्वरराजे, तपगच्छ कीर्ति दाखी / आ० // 2 // हीरविजयमूरि जगहीरो, जेणे अवपथ प्रतिरोध्यो / अद्भुतशक्ति-कलापरिचयथी, अकबर भूपति बोध्यो / आ० // 3 // तास परंपर गुणमणिरोहण, मणिविजय गुरुराया / शमदम त्यागवृत्तिधरी दुष्कर, संघ सकल मनभाया। आ०॥४॥ तास शिष्य श्रीसिद्धिविजयगणि, शिष्यगणे परिवरिया / संघतणा शुभ आग्रहवशथी, महेशाणे पाउधरिया। आ० // 5 // अद्भुत तपगुण अद्भुत जपगुण, अद्भुत शमगुण परख्यो / शास्त्रचोध पण अद्भुत निरखी, संघ सकल बहु हरख्यो। आ० // 6 // देशदेशांतर कुंकुमपत्री, मोकली संघ तेडावे सूरिपद देवाने कारण, होंश घणी मन लावे / आ० // 7 // देशदेशांतरथी आवीने, संघ चतुर्विध मलियो। शासनशोभा अंग विचारी, जिनसम गुणमणिकलियो। आ०॥८॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 4 सज्झायसंग्रह विजयकमलसूरीश्वरराजा, तपगच्छधोरी कहाया। मोकले वास देइ गण साथे, दानविजयगणिराया / आ० // 9 // ओगणीस सो पंचोत्तेर माघनी, शुदि पंचमी बुधवारे / / गच्छपतिपद पाम्या गुरुवरजी, संघना जय जयकारे / आ० // 10 // गुरु घणुं जीवो वली जसदीवो, प्रगटावो जगमांहे / करी कल्याण संघ, निशदिन, पर उपकार उच्छाहे / आ० // 11 // 4 सज्झाय-संग्रह श्री धन्नाजी की सज्झाय धन्ना मुनि धन मानव भव पायो, श्रीमुख इम फरमायो हो / धन्ना० आंकणी // श्रेणिक पूछे वीरजिन भाषे, उत्तम मुनीश्वर सारा। रज मांहे तज तरतम योगे, धन धन्नो अणगारा हो ॥धन्ना०॥१॥ नारी बत्तीस तजी अपछरसी, धन बत्तीसय कोड / यह संसार असार जाणीने, शिवपुरी साहामा दोड हो॥धना०॥२॥ निरन्तर तप बेले बेले, आंबिल उचित आहार / जेह मुख काग श्वान नवि चाहे, किम तमे कंठे उतारो हो ॥धन्ना०॥३॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 299 वार इकवीश धोइ जलमांहे, तेह पिंड खाइ जल पीवो। एहवो तप सुणतां जीव कंपे, धन धन थांरो जीवो हो ॥धना० // 4 // चउद सहस मुनीश्वर मांहे, आपने वीरजी वखाण्या। दरिशन नितपते पुण्यवंत पावे, अमे पण आज पिछाण्या हो धना० // 5 // नव मास लगे संजम पाली, सर्वार्थसिद्धिमें जाय / राम कहे ऐसे मुनीश्वर, निश्चे मुक्ति पद पाय हो।धन्ना० // 6 // सद्गुरुसदुपदेशसज्झाय ... इम सद्गुरु जीवने समझावे, नरभव अथिर देखावे रे / सो तो साचा सेंण कहावे; जे जिनधर्म शुगावे रे।। इम० // 1 // ___हुंती ते कुंकुमवरणी देही, उपमा दीजे केही रे। व्हाला मिलिया संगा स्नेही, बाले घोचा देइ रे // इम० // 2 // - केना काका ने केनी काकी, कांइ म जाणे बाकी रे। स्वास्थ विण सहु जावे थाकी, भगवन् इण परे भाखी रे // इम० // 3 // पहेरण मलिया कडा ने मोती, वाग वेस ने धोती रे। घणी ज मेली आथी ने पोथी, धर्म विना सहु थोथी रे // इम० // 4 // Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 4 सज्झायसंग्रह ___ आवे काल फिरे यम दोला, हुवे सितांगा खोला रे / नाडयां तूटे काढे यम डोला, जीवडो खाय हिलोला रे॥ इम० // 5 // सहु मिलि अपणो रोणो रोवे, तेहनी गति कुण जोवे रे। जो स्वारथ पूग्यो नवि होवे, तो पूठे ही विगोवे रे / / इम०॥६॥ - म्हारो म्हारो करी रह्यो घेलों, जग स्वारथनो मेलो रे। ऊठी चलेगो हंस अकेलो, विछडयां मिलयो दोहेलो रे // इम० // 7 // धन संपद वादल जिम छाया, चंदने चरची काया रे / एह संसारनी काची माया, छोडीने शिवपद पाया रे // इम० // 8 // धर्म तणो शरणो ले मोटो, छोड दे मारग खोटो रे। दया धर्मनो ले तूं ओठो, कदी न आवे त्रोटो रे ॥इम०॥९॥ राजा चक्रवर्ती महाबलिया, काले अनंता गलिया रे। कर्मज तूटे शिवसुख मलिया, अवर संसार में कलिया रे॥ इम० // 10 // रात दिवस जिनजी सम ध्यावे, मन वांछित फल पावे रे। प्रेम ने राज सदा सुख पावे, विजयरत्न गुण गावे रे॥ इम० // 11 // Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह समकितभेदे भावनारूप सज्झाय .... चाखो नर समकित सूरखडली, दुःख भूखडली भाजे रे। चार सदहणा सवैया लाडु, तीन लिंग फीणा छाजे रे // चारखो० // 1 // दशविध विनय दोठा मीठा, त्रण शुद्धि सखर सुहाली रे। भाठ प्रभावक जनने रागी, वली दोषे करी टाली रे // चालो० // 2 // भूषण पांच जलेची कूली, छविह जयणा खाजारे / लक्षण पांच मनोहर घेवर, छठाण गुंदवडा ताजा रे // चाखो० // 3 // ___ छ आगार नागोरी पंडा, छ भावना पण पूडी रे / सत सठ भेद ए नव नवी वाणी, समकित मूखडी रूडी रे / / चाखो० // 4 // श्री जिनशासन चोक्टे मांडी, सिद्धांत थाली सारी रे। ए चाखे अजरामर थावे, शिष्य सुदर्शन प्यारी रे। चाखो० // 5 // मुनिगुणसज्झाय ऐसे मुनिजन देखे वनमें, ए तो समतारस लीननमें / ऐसे मुनिजन० // 1 // - भूप सहे शिखरन के ऊपर, मगन रहे.ज्ञानन में। ऐसे० // 2 // Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 4 सज्झायसंग्रह पावस ऋतु वरसत रहे टाढे, बुंद सहे छिन छिनमें / / ऐसे० // 3 // ___ शीत सहे दरियावकिनारे, धीरज धरे ध्याननमें // ऐसे० // 4 // _ 'राम' मनावत ऐसे मुनिको, राग द्वेष नही मनमें / ऐसे० // 5 // माया अथिर की सज्झाय काया माया दोनुं कारमी परदेशी रे, कबहु अपनी न होय, मित्र परदेशी रे / इनको गर्व न कीजिये परदेशी रे, छिनमें देखावे छेह, मित्र परदेशी रे // 1 // जैसो रंग पतंगको परदेशी रे, छिनमें फीको होय, मित्र परदेशी रे। . मणि माणक मोती हीरला परदेशी रे, तास शरण नही कोय, मित्र परदेशी रे // 2 // जिस घर हय गय घूमते परदेशी रे, होता छत्तीस राग, मित्र परदेशी रे, सो मंदिर सूना पडया परदेशी रे, बेसण लागा काग, मित्र परदेशी रे ॥शा . Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 ... श्रीजैनशान-गुणसंग्रह . मणि माणिक मोती पूरती परदेशी रे, राजा हरिश्चन्द्र घर नार, मित्र परदेशी रे। एक दिन ऐसा हो गया परदेशी रे, परघर की पनीहार, मित्र परदेशी रे॥४॥ हाथे पर्वत तोलते परदेशी रे, करते नरपति सेव, मित्र परदेशी रे। सो भी नर सब गल गये परदेशी रे, तेरी क्या गिनती होय, मित्र परदेशी रे // 5 // छोडके मंदिर मालिया परदेशी रे, करले जिनसुं राग, मित्र परदेशी रे / चादिनकी कर शोचना परदेशी रे, लगसी इन तन आग, मित्र परदेशी रे॥६॥ झूठो सब संसार है परदेशी रे, सुपना का सौ खेल, मित्र परदेशी रे / नग कहे तास समझ के परदेशी रे, करले प्रभुसुं मेल, मित्र परदेशी रे // 7 // - वैराग्यउपदेशक सज्झाय . हक मरना हक जाना, यारो हक० / को मत करना गुमाना, यारो हक० / आंकणी / ओढण माटी पेरण माटी, माटी का है सराना / Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 4 सज्झायसंग्रह वसतिमें से बार निकाला, जंगल किया ठिकाना। - यारो हक मरना० // 1 // हाथी चढते घोडे चढते, और आगें निशाना। नीली पीली बेरख चलती, उत्तर किया पयाना। यारो हक मरना० // 2 // नरपति हो के तखतपर बैठे, मरिया भारी खजाना। सांझ सवेरे मुजरा लेते, उपर हाथ बेकाना। - यारोहक मरना० // 3 // पोथी पढकर हिंदु भूले, मुसलमीन कुराना / रूपचंद कहे सुनो भाइ संतो, हरदम प्रभु गुण गाना। यारो हक मरना०॥४॥ एकादशी की सज्झाय आज म्हारे एकादशी रे, नणदल मौन करी मुख रहिये / पूछयानो पडुत्तर पाछो, केहने काइ न कहिये / आज म्हारे० // 1 // महारो नणदोई तुजने वाहलो, मुजने ताहरो वीरो / धूआडाना बाचका भरतां, हाथ न आवे हीरो। आज म्हारे॥२॥ परनी धन्धो घणो कयौँ पण, एक न आवे आडो। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 305 परभव जातां पल्लव झाले, ते मुजने देखाडो / आ० // 3 // मगसिरं शुद इग्यारस महोटी, नेउ जिनने निरखो / दोढसो कल्याणक म्होटा, पोथी जोइने हरखो / आ.॥४॥ सुव्रत शेठ थयो शुध्ध श्रावक, मौन करी मुख रहिओ। पावक पुर सघलो परजाल्यो, तेहनो कोइ न दहिओ। आ०॥५॥ आठ पहोर पोसो ते करिये, ध्यान प्रभुनु धरिये / मन वच काया जो वश करिये, तो भवसायर तरिये / आ०॥६॥ ईर्यासमिति भाषा न बोले, आई अवलं पेखे। पडिकमणासुं प्रेम न राखे, कहो केम लागे लेखे / आ० // 7 // कर ऊपर तो माला फरती, जीभ फरे मुखमाही / चित्तडं तो चिहुं दिसि डोले, इण भजने सुख नाही / आ०॥८॥ पौषध शाला भेगां थइने, चार कथा वली सांधे / कांइक पाप मिटावण आवे, बारगणुं वली बांधे / आ० // 9 // एक उठती आलस मोडे, बीजी उघे बेठी। नदियां मांहेथी कंइक निसरती, जइ दरियामां पेठी। आ०॥१०॥ आई बाई नणंद भोजाइ, नानी मोटी वहूने। सासु ससरो मा ने मासी, शीखामण छ सहुने / आ० // 11 // उदयरतन याचक उपदेशे, जे नर नारी रहेशे / पोसा साथे प्रेम धरीने, अविचल लीला लहेशे। आज म्हारे० // 12 // Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3064 सज्झायसंग्रह मरुदेवी माता की सज्झाय : तुज साथे नहीं बोलु ऋषभ जी, तें मुजने विसारी जी। अनन्तज्ञाननी तुं ऋधि पाम्यो, तो जननी न संभारी जी। तुज // 1 // मुजने मोह हतो तुज ऊपर, ऋषभ ऋषभ करी जपती जी अन्न उदक मुजने नवि रुचतु, तुज मुख जोवाने तपति जी। तुज०॥२॥ तुं बेठो शिर छत्र धरावे, सेवे सुर नर नारी जी। तो जननी ने केम संभारे, जाणी जाणी प्रीति ताहरी जी। तुज // 3 // तुं केहनो ने हुं वली केहनी, नथी रहां कोइ केहy जी। ममता मोह धरे जे मनमां, मूर्ख पणुं सहि तेहर्नु जी / तुज० // 4 // ___अनित्य भावनाए चढ्या मरुदेवा, बेठां गयवर खंधो जी / अन्तगड केवली थइ गया मुक्ते, ऋषभने मन आणंदो जी / तुज० // 5 // रहनेमि की सज्झाय .. काउसग्ग ध्याने मुनि रहनेमि नामे, .. रह्या छ गुफामां शुभपरिणाम रे। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 307 देवरिया मुनिवर ध्यानमा रहेजो, ध्यानथकी होय भवनो पार रे, देवरिया० / आं०॥ वरसादे भीनां चीवर मोकलां करवा, राजुल आव्या तेणे ठाम रे, देवरिया० // 1 // रूपे.रति रे वस्त्रे वरजित बाला, देखी खोभाणो तेणे काम रे, देवरिया० / दिलहुं क्षोभाणुं जाणी. राजुल भाषे, राखो थिर मन गुगना धाम रे, देवरिया० // 2 // जादवकुलमां जिनजी नेम नगीना, वमन करी छे मुजने तेण रे, देवरिया० / बंधव तेहना तुमे शिवादेवी जाया, . एवडो पटन्तर कारण केण रे, देवरिया० // 3 // परदारा सेवी प्राणी नरकमां जावे, दुर्लभ बोधि प्राय होय रे, देवरिया० / साधवी साथे जे पाप ज बांधे, तेहनो छुटकारो कदीय न थाय रे, देव० // 4 // अशुचि काया रे मलमूत्रनी क्यारी, * तमने केम लागी एवडी प्यारी रे, देव० / हुँ रे संयती तमे महाव्रत धारी, कामे महाव्रत जाशो हारी रे, देव० // 5 / / Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 .4 सज्झायसंग्रह भोग वम्या रे मुनि मनथी न इच्छे, नाग अगंधन कुलना जेम रे, देव० / धिक कुल नीचा थइ नेहथी निहाले, न रहे संजम शोभा एम रे, देवरिया० // 6 // एवा रसीला राजुल बयण सुणीने, बुझ्या रहनेमि प्रभुजीपास रे, देव०। पाप आलोइ फरी संजम लीधुं, अनुक्रमे पाम्या शिववास रे, देवरि // 7 // धन्य धन्य जे नर नारी शीयलने पाले, समुद्रतर्यासम व्रत छ एह रे, देव० / रूप कहे तेहना नामथी होवे, ' अम मन निर्मल सुन्दर देह रे, देव० // 8 // अरणिक मुनि सज्झाय अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी, तडके दाझे सीसोजी / पाय अलवाणो रे बेलु परजले, तनसुकुमाल मुनीशो जी। अर० // 1 // - मुख कमला| रे मालती फूल ज्यु, उभा गोखनी हेठो जी / खरी बपोरे रे दीठा एकला, मोही मानिनी ठेठो जी। अर० // 2 // Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 309 वयणरंगीली रे नयणे वींधीया, मुनि थंभ्या तेणे ठाणो जी / दासीने कहे जा रे उतावली, मुनि तेडी घर आणो जी। अर० // 3 // पावन कीजे रे मुज घर आंगणुं, वहोरो मोदक सारो जी। नवयौवनरस काया क्यु दहो, सफल करो अवतारो जी। अर० // 4 // चन्द्रवदनीए चारित्र चूकव्यु, सुख विलसे दिन रातो जी / एक दिन रमतां रे गोखे सोगठे, तव दीठी निज मातो जी / अर० // 5 // ___अरणिक अरणिक करती मा फिरे, गलिए गलिए मझारो जी / कहो कोणे दीठो रे मारो अरणिलो, पूछे लोक हजारो जी। अर० // 6 // हुं कायर छु रे. मारी मावडी, चारित्र खांडानी धारो जी। धिक धिक विषया रे मारा जीवने, में कीधो अविचारो जी। अर० // 7 // गोखथी उतरी रे जननीपाय पडयो, मनसु लाज्यो अपारो जी / वछ तुज न घटे रे चारित्र चूकवू, जेहथी शिवसुख सारो जी / अर० // 8 // ... एम समजावी रे पाछो वालिओ, आण्यो गुरुनी पासो जी / सद्गुरु दिये रे शीख भली परे, वैरागे मन वासो जी। अर० // 9 // Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 4 सज्झायसंग्रह . अग्नि धखन्ती रे शिला उपरे, अरणिके अणसण कीधो जी / रूपविजय कहे धन्य ते मुनिवरु, जेणे मनवांछित फल लीधो जी / अर० // 10 // श्री स्थूलभद्र सज्झाय श्रीस्थूलभद्र मुनिगणमां शिरदार जो, चोमासुं आव्या कोशा आगार जो / , चित्रामणशालाए तप जप आदयां जो // 1 // आदरियां व्रत आव्या छो अम गेह जो, सुन्दरी सुन्दर चंपकवरणी देह जो। हम तुम सरिखो मेलो आ संसारमा जो // 2 // संसारे में जोयुं सकल स्वरूप जो, दर्पणनी छायामां जेहवु रूप जो / स्वपनानी सुखडली भूख भागे नहीं जो // 3 // ना कहेशो तो नाटक करशुं आज जो, . बार वरसनी माया छे मुनिराज जो। ते छोडी हुं जाउं केम आशाभरी जो // 4 // आशा भरिओ चेतन काल अनादि जो, भम्यो धर्मने हीग थयो परमादी जो / न जाणी में सुखनी करणी जोगनी जो // 5 // . Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 311 . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह जोगी तो जङ्गलमा वासो वसिया जो, वेश्याने मंदिरिय भोजनरसिया जो। तुमने दीठा एहवा संयम साधता जो / // 6 // साधशुं संयम इच्छारोध विचारी जो, . कूर्मापुत्र थया नाणी घरबारी जो / पांणीमाहे कोरं पङ्कज जाणिये जो // 7 // जाणिये तो सघळी तमारी वात जो, मेवा मीठाइ रसवंता बहुभात जो। अंबर भूषण नव नवली भाते लावता जो // 8 // लावता तो तुं देती आदरमान जो, काया जाणुं पतंगरंग समान जो / ठालीने शी करवी एहवी प्रीतडी जो // 9 // प्रीतलडी करता ते रंगभर सेज जो, रमता ने देखाडता घणुं हेज जो। रीसाणी मनावी मुजने सांभरे जो // 10 // सांभरे तो मुनिवर मनडुं वाले जो, ढांक्यो अग्नि उघाडयो परजाले जो। संजममाहे ए छे दूषण मोटकुं जो // 11 // मोटकुं तो आव्युं तुं नन्दनुं तेथें जो, जातां न वहे कांइ तमारं मनडुं जो / मैं तमने त्यां कोल करीने मोकल्या जो // 12 // Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 4 सज्ज्ञायसंग्रह मोकल्या तो मारगमाहे मलिया जो, संभूति आचारज ज्ञाने बलिया जो। संयम दीधुं समकित तेणे शीखव्यु जो // 13 // शीखव्यु तो कही देखाडो अमने जो, धर्म करन्तां पुण्य वडेरुं तमने जो। समताने घर आवी वेश्या इम कहेजो // 14 // कहे मुनीश्वर शंकाने परिहार जो समकित मूले श्रावकनां व्रत बार जो / प्राणातिपातादिक स्थूलथी उच्चरे जो // 15 // उच्चरे तो वीत्युं छे चोमास जो, आणा लइने आव्या गुरुनी पास 'जो। श्रुतनाणी कहेवाणा चौदे पूरवी जो // 16 // पूरवी थइने तार्या प्राणी थोक जो, . उज्ज्वलध्याने ते गया देवलोक जो ऋषभ कहे नित्य तेहने करिये वंदना जो // 17 // आत्मप्रबोध-सज्झाय पूरव पुण्यसंयोग पामी, नरभव उत्तम जात / शुद्ध देव गुरु धर्म लहीने, म करो प्रमादनी बात रे प्राणी, आतम साधन कीजे // 1 // Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 313 एह संसार असार दुखागर, श्री जिनधर्म भजीजे रे प्राणी, आतमसाधन कीजे / तन यौवन आउखो दिन दिन, अंजलि जल जिम छीजे / तूं निश्चिंत थइ रह्यो भोला, तुज ऊपर जम खीजे रे, / प्राणी। आतम० // 2 // मात पिता सुत भाइ भगिनी, कांतादिक परिवार / आप स्वारथ खावाने कारण, मलियो छ निरधार रे प्राणी। आ०॥३॥ पाप करी बहु धन तूं मेले, खासी सघलोइ साथ / पाप तणा फल तूं भोगवशे, दुर्गति एकलो अनाथ रेप्राणी। आ०॥४॥ ___क्रोध मान मद मत्सर मातो, जातो काल न जाणे / संत साधुनी निंदा करतां, हियंडे शंका न आणे रे प्राणी / आ० // 5 // - इंद्र धनुष जिम जलपरपोटो, जेहवो संध्यानो राग / जिम चंचल सौदामिनी झवको, तिम धन यौवन लाग रे / पाणी / आ० // 6 // म्हारं म्हारं तुं करी रह्यो भोला, ताहरूं शरीर न होइ / आव्यो एकिलो ने जाशे एकिलो, ज्ञान दृष्टि करी जोइ रे प्राणी। आ० // 7 // थोडिसी ऋद्धि मुख आगल देखी, झूठो करे अभिमान / जे सुरपति ज्यां जेहने हुंता, बत्तीस लाख विमान रे प्राणी / 'आ० // 8 // Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 4 सज्झायसंग्रह . . .. लाख चोरासी हय गय स्थ जस, सहस चोसठ तस राणी। नव निधि चौद रयण जस मंदिर, लोपे न को तस वाणी रे प्राणी / आ० // 9 // सहस बत्तीस नृप सेवा करता, पायक छिन्नु कोड / ते चक्रवर्ती इण भूमि समाणा, आ जग महोटी खोड रे प्राणी / आ० // 10 // त्रण से साठ संग्रामे शूरा, पूरा जस घरे भोग / ते वासु. देव दैवगति हुआ, मूकी वर सुख जोग रे प्राणी / आ० // 11 // तीन भुवनमांहे कंटकी हुँतो, नामथी डरता देवा / ते रावण राजाने पूठे, कोइ न रह्यो जल देवा रे प्राणी / आ० // 12 // किहां ते राम किहां बलदेवा, पांच पांडव किहां देख / किहां ते नल कौरव कर्णादिक, ए सहु हुवा कथाशेष रे प्राणी / आ० // 13 // जिण घर कनक तोलाता बहुला, कनक तरु तिहां वास / जिण घर रमणी रमती हरिणाक्षी, हरिण चरे तिहां घास रे प्राणी / आ० // 14 // जिण घर मणि माणक मुकवानो, तिल भर न होतो माग। ते घर हुवा रान बरोबर, बेसे घुहड काग रे प्राणी। आ०॥१५॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह एह संसार स्वरूप विचारी, सारी अकल करीजे / जेणे प्राणी थावे सुखियो, सो विधि मनमें धरीजे रे प्राणी / आ० // 16 // _ जो वांछो सुख कीर्ति इण भव, पर भव शिवपुर वास / दान शीयल तप भावना भेदे, करो जिनधर्म उल्लास रे प्राणी। आ० // 17 // वाचकवर श्री सुमति विजय गुरु, नेमविजय शिशु भाखे। सो जिनधर्म करो मन शुद्धे, दुर्गति पडतां राखे रे प्राणी / आ० // 18 // श्रीमेतारज मुनि सज्झाय (सोना रूपा के सोगठे यह देशी) धन धन मेतारज मुनि, जेणे संयम लीधो / जीवदयाने कारणे, तेणे कोप न कीधो / धन० // 1 // मासखमणने पारणे, गोचरीये जाय / सोवनकार तणे घरे, पहोता मुनिराय / धन० // 2 // सोवन जव श्रेणिकना, ऋषि पासे मुकी / घर भीतर ते नर गयो, एक वात न चुकी। धन // 3 // जव सघला पंखी गले, मुनिवर ते देखे / तव सोनी घर आवियो, जब तिहां नहीं देखे / धन०॥४॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सज्झायल 316 4 सज्झायसंग्रह कहो मुनिवर जव क्यां गया, कहो ने. केणे लीधा / मुनि उत्तर आपे नही, तव चपेटा दीधा / धन० // 5 // मुनिवर उपशमरसभर्या, पंखी नाम न भाषे / कोप करीने इम कहे, जब छे तुम पासे / धन० // 6 // जव चोर्या राजातणा, तूं तो मोटो चोर। . आला चर्मतणो करी, बांध्यो मस्तक दोर / धन० // 7 // नेत्रयुगलतणी वेदना, निकलीया ततकाल / केवलज्ञान ते निर्मलं, पामी कीधो काल / धन० // 8 // शिव नगरी ते जइ चढयो, एहवो साधु सुजाण / गुणवंतना गुण जे जपे, तस घर कोड कल्याण / धन०॥९॥ नव कन्या तेणे तजी, तजी कंचन कोडी / नव पूरवधर वीरना, प्रणमुं कर जोडी। धन० // 10 // सिंहतणी परे आदरी, सिंहनी परे शूरो / संयम पाली शिव लही, जस जगमें पूरो। धन० // 11 // भारी काटतणी तिहां, उंचेथी नाखे / धडकी पंखी जव वम्या, ते देखी आंखे / धन० // 12 // तव सोनी मन चिंतवे, की, खोटुं काम / वात राजा जो जाणशे, तो टालशे ठाम / धन० // 13 // तव ते मनमां चिंतवे, भयथी निजहाथे / सोवनकार दीक्षा लिये, निज कुटुंब संघाते। धन // 14 // श्रीकनकविजय वाचकवरु, शिष्य बोले राम / साधुतणा गुण गावतां, लहिये उत्तम ठाम / धन० // 15 // Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह श्री स्थूलिभद्र सज्झाय 1 (देशी आछेलाल) घोली गयो मुख घोल, चार घडीनो कोल, आछेलाल हजीय न आव्यो वालहो जी। देइ गयो दुखदाह, पाछो नान्यो नाह, आछेलाल के सही केणे भोलन्यो जी // 1 // रहे तो नही क्षण एक, रे दासी सुविवेक, आछेलाल जाइ जुओ दशे दिशाजी / एम घोलंती बाल, एहनी उत्तम चाल, आछेलाल छेल गयो मुज छेतरी जी // 2 // उलस वालस थाय, अंग उकालो थाय, आछेलाल नयणे नावे नींदडी जी। चोखा चंपकशरीर, नणदलना हो वीर, आछेलाल नयणे में दीठा नही जी // 3 // जेम चपैया मेह, मच्छने जलसं नेह, आछेलाल भमराने मन केतकी जी। चकवो चाहे चंद, इंद्राणी मन इंद, आछेलाल अहनिश तमने ओलगुं जी // 4 // Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सज्झायसंग्रह तुम विण घडीए. छ मास, ते मुज नारखी पास / आछेलाल निठुरपणुं नर तें कयु जी। भाखो कोइक दोष, मुकी मननो रोष, आछेलाल कांइक तो करुणा करो. जी !.5 // हुं निराधार नार, सेली गयो भरतार आछेलाल उभी करूं आलोचना जी / एम वलवलती कोश, देती करमनो दोष, आछेलाल दासी आवी रे दोडती जी // 6 // सांभल स्वामीनी वात, लाछिलदेनो जात, आछेलाल स्थूलिभद्र आव्यो रे आंगणे जी। वनिता सांभली वात, हियडे हरक नमात / आछेलाल प्रीति पावन प्रभु ते करी जी // 7 // पधारो घर मुज, मुनि भाख्यो सवि गुज, .. आछेलाल उठ हाथ अलगी रहे जी। माता आगे मुसाल, तिम मुज आगल ख्याल / चित्रशाली चोमास, निहाली मुख तास, आछेलाल वनिता विधिसुं आलोचवे जी। मादल ताल केसाल, मुंगल मेरी स्साल, आछेलाल मावे नव नव रागसुं जी // 9 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 319 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह पाले विधिसुं अंग, फरती फुदडी चंग, आलेलाल हाव भाव बहु हेतसुं जी / सांभल स्वामीनी वात, सिंहने घाले घात, आछेलाल राइनो पाड राते गयो जी // 10 // सो घालक साथे रोइ, पावइयाने पानी न होय, आछेलाल पथ्थर फाटयो ते किम मलेजी / समुद्र मीठो न थाय, पृथ्वी रसातल जाय, आछेलाल सूर्य उगे पश्चिमदिशे जी // 11 // तिबोधी इम कोश, छोडी रागने रोप, आछेलाल द्वादश व्रतने उचरे जी। पूरण कीधो चोमास, आध्या श्री गुरुपास, आछेलाल दुक्कर दुक्कर तूं सही जी // 12 // चीस वरस घर वास, पुरी सहुनी आश, आछेलाल पञ्च महावत पालता जी / धन्य मात धन्य तात, नागर न्याति कहात, आछेलाल वारु वंश दिपावियो जी // 13 // जे नर नारी गाय, तस घर लच्छी सवाय, आछेलाल पभणे शांति मयाथकी जी // 14 // Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सज्झायसंग्रह श्रीस्थूलभद्र सज्झाय 2 ( देशी-भेष रे उतारो राजा० .) वेष स्वामी जोइ आपनो, लागी मारा तनडामां लाय जी। अणघायु रे स्वामी आ शुं कयु, लाजे सुन्दर काय जी। कोणे रे धुतारे तमने भोलव्या // 1 // आवी खबर जो होत तो, जावा देत नही नाथ जी। छेतरी छेह दीधो मने, पण छोडूं नही साथ जी। - कोणे रे धुतारे० // 2 // बोध सुणी सुगुरु तणो, लीधो संजमभार जी। मात पिता परिवार सहु, झूठो आल पंपाल जी। नथी रे धुतारे मने भोलव्यो / / 3 / / एह जाणी कोश्या सुन्दरी, धर्यो साधु नो वेष जी। . आव्यो गुरुनी आज्ञा लई, देवा तने उपदेश जी। नथी रे धुतारे० // 4 // काले सवारे भेगा रही, लीधां सुख अपार जी। ते मने बोध देवा आविया, जोग धरीने आ वार जी। जोग रे स्वामी जी अहीं नही रहे // 5 // कपट करीने मने छोडवा, आव्या तमे निरधार जी। . पण छोडूं नही कदी नाथ जी, नथी नारी गमार जी। जो रे० // 6 // Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 321 छोड्यां मात पिता वली, छोड्यो सहु परिवार जी। ऋद्धि सिद्धि रे मैं तो तजी दीधी, मानी सघलु असार जी। छेटी रही रे कर वात तूं // 7 // जोग धर्यो रे अमे साधुनो, छोडयो सघलानो प्यार जी। मात समान गणुं तने, सत्य कहुं निरधार जी। __ छेटी रही० // 8 // चार बरसनी प्रीतडी, पलमां तूटी जाय जी। पस्तावो पाछलथी थशे, कहुं लागीने पाय जी / ___जोग रे० // 9 // नारीचरित्र जोइ नाथ जी, तुरत छोडशो जोग जी। माटे चेतो प्रथम तमे, पछी हसशे लोक जी। .. जोग रे० // 10 // चाला जोइ तारा सुन्दरी, डगुं नही हुं लगार जी। काम शत्रु कबजे कर्यो, जाणी पाप अपार जी। . छेटी रही रे गमे ते करो // 1 // छेटी रही रे गमे ते करो, मारा माटे उपाय जी। पण तारा सामुं हुं जोउं नही, शाने करे छे हाय जी / छेटी रही रे // 12 // Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 4 सज्ज्ञायसंग्रह माछी पकडे छै जालमां, जलमाथी जेम मीन जी। तेम मारा नेत्रना बाणथी, करीश हुँ तमने आधीन जी। जोग रे० // 13 // ढोंग करवा तजी दइ, प्रीते ग्रहो मुज हाथ जी। .. कालजु कपाय छे माहरूं, वचनो सुणीने नाथ जी। . . जोग रे० // 14 // बार बरस तुज आगले, रह्यो तुज आवास जी / विध विध सुख मैं भोगव्यां, कीधा भोगविलास जी / . आशा रे तज हवे माहरी // 15 // त्यारे हतो अज्ञान हुँ, हतो कामथी अन्ध जी / पण हवे ते रस मैं तज्यो, सुणी शास्त्रना बन्ध जी। आशा रे० // 16 // ज्ञानी ऋषि ने मुनियो, मोटा विद्वान भूप जी। . ते पण दास बनी गया, जोई नारीनुं रूप जी। जोग रे० // 17 // साधुपणुं रे स्वामी नहीं रहे, मिथ्या कहुँ नही लेश जी। देखी रे नाटारम्भ माहरो, तजशो साधुनो बेष जी। जोग रे० // 18 // Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 323 विध विध भूषणो धारीने, सजी रूडा शणगार जी। पाण काढी नाखे ताहरो, कुदी कुदी आ वार जी / जोग रे० // 19 // तो पण सामं जोवू नही, गणुं विष समान जी। सूर्य उगे पश्चिम कदी, तो पण छोडुं न मान जी / आशा रे० // 20 // भिन्न भिन्न नाटक मैं कर्या, स्वामी आपनी पास जी / तो पण सामु जोइ तमे, पूरी नहीं मन आश जी। - हाथ रे ग्रहो हवे माहरो // 21 // हाथ जोडी रे हवे वीन, प्यारा प्राणजीवन जी। चार वरसनी प्रीतडी, याद करो तुम मन जी। . हाथ रे० // 22 // चेत चेत रे कोश्या सुन्दरी, शुं कई वारंवार जी / आ संसार असार छे, नथी सार लगार जी / . सार्थक करो हवे देहy // 23 // जन्म धरी आ संसारमा, नहीं ओलख्यो धर्म जी / विध विध वैभव भोगव्या, कीधां घणां कुकर्म जी / सार्थक० // 24 // Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 4 संज्झायसंग्रह ते सहु भोगवq पडे, मुआ पछी तमाम जी / . अधर्मी प्राणीने मले नही, शरणुं कोई ठाम जी / सार्थक० // 25 // सिंधुरूपी आ संसारमां, मानव मीनरूपधार जी। जञ्जाल जालरूपी गणो, कालरूपी मच्छीमार जी। . सार्थक करो० // 26 // विषय रस वाहालो गणी, कीधा भोगविलास जी। धर्मनां कार्य करू नहीं, राखी भोगनी आश जी / उद्धार करो मुनि माहरो // 27 // व्रत चुकाववा आपनु, कीधा नाच ने गान जी। छेड करी रे मुनि आपनी, बनी छेक अज्ञान जी। . . उद्धार करो० // 28 // श्रेय करो रे मुनिवर मुजने, बतावीने शुभज्ञान जी। धन्य धन्य छे आपने, दीसो मेरुसमान जी। उद्धा० // 29 // घार वरस सुख भोगव्यु, खरची खूब दीनार जी। तो हुं तृप्त थई नही, धिक धिक मुज विकार जी। उद्धा० // 30 // छोडी मोह संसारनो, रूडो शीयल व्रत धार जी। . तो सुख शांति सदा मले, पामो भवजल पार जी / सार्थक करो० // 31 // Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 325 धन्य छे मुनिवर आपने, धन्य शकडालतात जी। धन्य संभूतिविजय मुनि, धन्य लाछलदे मात जी / मुक्त करी रे मोहजालथी // 32 // आज्ञा दियो रे हवे मुजने, जाउं मुज गुरुपास जी / चोमासु पूरुं थया पछी, साधु छण्डे आवास जी / - रुडी रीते शीयल व्रत पालजो // 33 // दर्शन आपजो मुजने, करवा अमृतपान जी। सूर इन्दु कहे स्थूलभद्रजी, बन्या सिंह समान जी / - धन्य छे मुनिवर आपने // 34 // मूर्ख प्रतिबोध सज्झाय ज्ञान कदी नवि थाय मूरखने, ज्ञान कदी नवि थाय, कहेता पोतार्नु पण जाय, मूरखने // 1 // श्वान होय ते गङ्गाजलमां, सो वेला जो न्हाय / अडसठ तीर्थ फरी आवे पण, श्वानपणुं नवि जाय / मू० // 2 // कर सर्प पयपान करन्तां, शान्तपणुं नवि थाय / कस्तूरी, खातर जो कीजे, वास लसण नवि जाय।मू० // 3 // वर्षाकाले सुग्री ते पक्षी, कपि उपदेश कराय / ते कपिने उपदेश न लाग्यो, सुग्री घर विखराय / मू० // 4 // Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 4 सम्झायसंग्रह नदीमांहे निश दिन रहे पण, पाषाणपणुं नवि जाय / .. लोहधातु टंकण जो लागे, अग्नि तुरत झराय / मू०॥५॥ कागकण्ठमां मुक्ताफलनी, माला ते न धराय / चन्दन चर्चित अंग करीजे, गर्दभ गाय न थाय / मू० // 6 // सिंह चरम कोइ सियालसुतने, धारे वेष बनाय / सियालसुत पण सिंह न होवे, सियालपणुं नही जाय। मू० // 7 // ते माटे मूरखथी अलगा, रहे ते सुखीया थाय / उखर भूमि बीज न होवे, उलटुं बीज ते जाय / मूरखने० // 8 // समकितधारीसंग करीजे, भवभयभ्रांति मिटाय / मयाविजय सद्गुरु सेवाथी, बोधिबीज सुख पाय / मूर० // 9 // लोभ की सज्झाय लोभ न करिये प्राणीया रे, लोभ बूरो संसार / लोभ समो जगमा नही रे, दुर्गतिनो दातार भविकजन, लोभ बूरो संसार / करजो तुमे निरधार भवि० जिम पामो भवपार / भवि० // 1 // .. अतिलोभे लक्ष्मीपति रे, सागर नामे शेठ / पूरपयोनिधिमां पडयो रे, जइ बेठो तस हेठ / भविक० // 2 // सोवनमृगना लोभथी रे, दशरथ सुत श्रीराम / ' Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 327 सीता नारी गमावीने रे, भमियो ठामो ठाम / भविक० // 3 // दशमा गुणठाणा लगे रे, लोभतणुं छे जोर / शिवपुर जातां जीवने रे, एहज महोटो चोर / भविक० // 4|| क्रोध मान माया लोभथी रे, दुर्गति पामे जीव / परवश पडियो बापडो रे, अहोनिश पाडे रीव / भविक०।५। परिग्रहना परिहारथी रे, लहिये शिवसुख सार / देव दानव नरपति थइ रे, जाशे मुक्ति मझार। भविक० // 6 // भावसागर पंडित भणे रे, वीरसागरबुध शिष्य / लोभतणे त्यागे करी रे, पहोचे सयल जगीश / भविकजन० // 7 // देवानन्दा की सज्झाय / जिनवररूप देखी मन हरखी, स्तनमें दूध झराया। तव गौतमकुं भया रे अचंभा, प्रश्न करनकुं आया हो गौतम ! वो तो हमेरी अम्मा // 1 // तस कूखे तुम काहुं न वसिया, कवण किया इणे कम्मा। वव श्री वीर जिणंद इम बोले, एह किया इणे कम्मा, हो गौतम०॥ त्रिशलादे देराणी हुंती, देवानंदा जेठाणी / विषयलोभ करी कांइ न जाण्यो, कपट वात मन आणी हो, गौतम० // 3 // Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 4 सज्झायसंग्रह देराणीकी रतनडाबडी, बहुलां रतन चुरायां / झगडो करंतां न्याय हुओ जब, तब कछु नाणा पाया, हो गौतम०।४। ऐसा शराप दिया देराणी, तुम संतान न होजो। कर्म आगल कोइर्नु नवि चाले, इंद्र चक्रवर्ती जोजो, हो गौतम०।५। भरतराय जब ऋषभने पूछे, एहमां कोइ जिणंदा। मरीचि पुत्र त्रिदण्डी तेरो, चोवीसमो जिनचंदा हो, गौतम० // 6 // __कुलनो गर्व कियो मैं गौतम, भरतराय जब वांद्या / मन वचन कायाए करीने, हरख्यो अति आणंदा, हो गौतम० // 7 // कर्मसंयोगे भिक्षुककुल पाम्यो, जन्म न होवे कबहु / इंद्रे अवधे जोतां अपहरियो, देव भुजंगमबाहु, हो गौतम०।८। ___ब्यासी दिन हुँ तिहां कणे वसीयो, हरिणिगमैषी जब आया / सिद्धारथ त्रिशलादेराणी, तस कूखे छटकाया, हो गौतम० // 9 // ऋषभदत्त ने देवानंदा, लेशे संयम भारा / तब गौतम ए मुक्त जाशे, भगवती सूत्र विचारा, हो गौतम० // 10 // सिद्धारथ त्रिशलादे राणी, अच्युत देवलोक जाशे / बीजे खंधे आचारांगे, एह बात कहेवाशे, हो गौतम० // 11 / / तपगच्छ श्री हीरविजयसूरि, दियो मनोरथ वाणी / सकलचंद प्रभु गौतम पूछे, उलट मनमा आणी, हो गौतम०।१२। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह जम्बूस्वामी का चोढालिया दुहासरस्वती पदपङ्कज नमी, पामी सुगुरुपसाय / मुण गातां जम्बूस्वामीना, मुज मन हर्ष न माय // 1 // यौवनवय व्रत आदरी, पाले निरतिचार / मन बच काया शुद्धसुं, जाउं तस बलिहार // 2 // ढाल पहलीराजगृही नगरी भली रे लाल, बार जोजन विस्तार रे भविकजन / श्रेणिक नामे नरेसरु रे लाल, मन्त्री अभयकुमार रे भविकजन, भाव धरी नित्य सांभलो रे लाल // 1 // - ऋषभदत्त व्यवहारियो रे लाल, वसे तिहां धनवन्त रे भविकजन / धारणी तेहनी भारिया रे लाल, शीलादिक गुणवन्त रे भविकजन / भाव धरी० // 2 // सुख संसारनां विलसतां रे लाल, गर्भ रह्यो शुभ दिन रे भवि० / सुपन लही. जम्बूवृक्षतुं रे लाल, जन्म्यो पुत्र रतन रे भविकजन, भाव० // 3 // जम्बूकुमर नाम थापियुं रे लाल, सुपनतणे अनुसार रे भवि० / अनुक्रमे यौवन पामियो रे लाल, हुओ गुणभण्डार रे भविक०, भाव० // 4 // Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 4 सज्झायसंग्रह .. ग्रामानुग्रामे विचरता रे लाल, आव्या. सोहमस्वाम रे भवि० / पुरजन वांदण आविया रे लाल, साथे जम्बू गुणधाम रे, भविक०, भाव० // 5 // भविकजनना हित भणी रे लाल, दिये देशना गणधार रे भवि० / चारित्र चिंतामणिसारिखं रे लाल, भवदुखभञ्जणहार रे भविक०, भा० // 6 // देशना सुणी जम्बू रीझिया रे लाल, गुरुने कहे कर जोड रे भवि० / अनुमति लेइ मात तातनी रे लाल, संयम लेउं मन कोड रे भवि०, भा०॥७॥ दाल दूसरी-, गुरु वांदी घर आविया रे, पामी मन वैराग / मात पिता प्रते वीनवे रे, करसुं संसारनो त्याग माताजी अनुमति द्यो मुज आज, जिम सीझे वंछित काज माताजी। अनुमति० // 1 // चारित्र पन्थ छे दोहिलो रे, व्रत छे खांडानी धार / लघु वय छे वत्स तुम तणुं रे, किम पले पश्चाचार कुमरजी, व्रतनी म करो वात, तुं मुज एक अंगजात कुमरजी, व्रतनी म करो वात // 2 // - एकलविहारे विचर, रे, रहेQ वन उद्यान / भूमि संथारे पोढवु रे, धरवु धर्मनुं ध्यान / कुमरजी, व्रत नी० // 3 // Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 331 पाय अलवाणे चालवु रे, फरवू देश विदेश / नीरस आहार लेवो सदा रे, परीसह केम सहीश, कुमरजी, व्रतनी० // 4 // कुमर कहे माता प्रते रे, ए संसार असार / तन धन यौवन कारिमा रे, जातां न लागेवार, माताजी, अनुमति० // 5 // माता कहे आल्हादथी रे, वत्स परणो शुभ नार / जोवन चय सुख भोगवी रे, पछे लेजो संजमभार, कुमरजी, व्रतनी० // 6 // ___मात पिताए आग्रह करी रे, परणावी आठे नार / जलथी कमल जिम भिन्न रहे रे, तिम रहे जम्बूकुमार, कुमरजी व्रतनी० // 7 // ढाल तीसरीप्रीतमने कहे कामिनी कामिनी, सुणो स्वामी अरदास सुगुणिजन सांभलो। सनेही अमृतस्वाद मूकी करी मूकी करी, कहो कोण पीवे छास, सुगु० // 1 // ___सनेही कामकलारस केलवो केलवो, मूको जी व्रतनो धन्ध, सुगु० / सनेही परणीने शु परिहरी परिहरो, हाथ मेस्यानो संबन्ध, सुगु० // 2 // ___ सनेही चारित्र वेलुकवल जिस्यु कवल जिस्युं, तेमां किस्यो छे सवाद, सुगु० / सनेही भोग सामग्री पामी करी पामी करी, भोगवो भोग आल्हाद, सुगुणि० // 3 // Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 ४सज्ज्ञायसंग्रह . सनेही भोग ते रोग अनादिनो अनादिनो, पीडे छे आतम अङ्ग, सु०। सनेही ते रोगने शमाक्वा शमाववा, चारित्र छ रे रसांग, सु० // 4 // सनेही किंपाकफल अति फूटरां फूटरां, खातां लागे मिष्ट सु०। सनेही विष पसरे ज्यारे अङ्गमां अङ्गमां, त्यारे होवे अनिष्ट, सु० // 5 // सनेही दीपग्रही निज हाथमां हाथमां, कोण झंपावे कूप सु० / सनेही नारी ते विषवेलडी वेलडी, विषफल विषय विरूप, सु० // 6 // सनेही जो मुजसुं तुम स्नेह छे स्नेह छे, तो व्रत ल्यो थइ उजमाल, सु० / सनेही एहQ जाणीने परिहरो परिहरो, संसार मायाजाल, सु० // 7 // ढाल चोथी साया मा नादच्यानी वीच्या विचार एहवे प्रभवो आवियो, पांचसे चोरनी साथ रे। विद्याए ताला उघाडियां, धन लेवाने उमङ्ग रे, नमो नमो श्री जम्बूस्वामीने // 1 // जम्बूए नवपदध्यानथी, थंभ्या ते सवि चोर रे / थंभ तणी परे थिर रह्या, प्रभवो पाम्यो अचम्ब रे। नमो नमो० // 2 // Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह प्रभवो कहे जम्बू प्रते, दो विद्या मुज एह रे / कुमर कहे ए गुरुकने, छे विद्यानुं गेह रे / नमो नमो० // 3 // पांच से चोर ते बुझवी, घुझव्या माय ने ताय रे / सासु ससरा नारी बूझवी, संजम लेवाने जाय रे, नमो नमो० // 4 // - पांच से सत्तावीसवें, परिवयों जम्बूकुमार रे सोहम गणधरने कने, लीये चारित्र उदार रे, नमो० // 5 // वीरथी वीसमें वर्षे, थया युगप्रधान रे। चौद पूरव अवगाहीने, पाम्या केवलज्ञान रे, नमो० // 6 // वरस चोसठ पदवी भोगवी, थापी प्रभव स्वामी रे 1 अष्ट करमनो क्षय करी, थया शिवगति गामी रे, नमो नमो० // 7 // वरस अढार तेरोत्तरे, रह्या पाटण चोमास रे / चरमकेवली ने गावतां, होय लील विलास रे, नमो नमो० // 8 // महिमासागर सद्गुरु, तास तणे सुपसाय रे / जम्बू स्वामी गुण गाइया, सौभाग्ये धरिय उच्छाह रे, नमो नमो० // 9 // आठ मद की सज्झाय मद आठ महामुनि वारिये, जे दुर्गतिना दातासे रे। भी वीर जिप्सर उपदिशे, भाखे सोहम गणधारो रे / मद आठ० // 1 // Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 4 सज्झायसंग्रह हांजी जातिनो मद पहेलो कह्यो, पूर्वे हरिकेशीए कीधो रे। .. चण्डालतणे कुल उपन्यो, तपथी सवि कारज सीधो रे / मद० // 2 // ___ हांजी कुलमद बीजो दाखियो, मरीचिभवे कीधो प्राणी रे / कोडाकोडीसागर भव भम्यो, मद म करो एम मन जाणी रे / मद० // 3 // . . ____ हांजी बलमदथी दुख पामिया, श्रेणिक वसुभूति जीवो रे / जइ भोगव्यां दुख नरकतणां, मुख पाडंता नित रीवो रे / मद० // 4 // - हांजी सनतकुमार नरेसरु, सुर आगल रूप वखाण्युं रे। रोम रोम काया बिगडी गई, मद चोथा- ए टाणुं रे। मद० // 5 // ___ हांजी मुनिवर संयम पालतां, तपनो मद मनमाहि आयो रे / थया कूरगड्डु ऋषि राजिया, पाम्या तपनो अंतरायो रे। मद० // 6 // हांजी देश दशारणनो धणी, राय दशार्णभद्र अभिमानी रे / इन्द्रनी ऋद्धि देखी बूझीयो, संसार तजी थयो ज्ञानी रे। मद० // 7 // ___ हांजी स्थूलिभद्रे विद्यानो कर्यो, मद सातमो जे दुखदायी रे। श्रुत पूरण अर्थ न पामिया, जुओ मानतणी अधिकाई रे / मद० // 8 // Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 335 - राय सुभूम पखंडनो धणी, लाभनो मद कीधो अपारो रे। हय गय रथ सवि सायर गयुं, गयो सातमी नरक मझारो रे। मद० // 9 // इम तन धन जोवन राजनो, म धरो मनमा अहंकारो रे / एह अथिर असत्य सवि कारमुं, विणसे क्षणमां बहुवारो रे / मद० // 10 // मद आठ निवारो व्रतधारी, पालो संयम सुखकारी रे। कहे मानविजय ते पामशे, अविचल पदवी नरनारी रे। मद० // 11 // पाहुबली की सज्झाय राजतणा अतिलोभिया, भरत बाहुबली जूझे रे। मुठी उपाडी मारवा, पाहुबली प्रतिबूझे रे // 1 // वीरा मोरा गजथकी उतरो, गज चढे केवल न होय रे। ऋषभ जिनेसर मोकली, बाहुबलीनी पासे रे। बीस मोरा गजथकी उतरो ब्राह्मी सुन्दरी इम भाषे रे / वीरा० // 2 // . __लोच करी चारित्र लियो, वली आयो अभिमानो रे। लघु बन्धव वांदुं नहीं, काउस्सग्ग रह्या शुभ ध्यानो रे / वीरा // 3 // वरस दिवस काउस्सग्ग रह्या, वेलडीये वीटाणारे। पंखीये माला घालिया, तापशीते सूकाणा रे / वीरा // 4 // Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सज्झायसंग्रह .... साधवी वचन सुणी करी, चमक्या चित्त मझारो रे / हय गय स्थ सहु परिहर्या, बली आव्यो अहंकारो रे / वीरा // 5 // वैरागे चित्त वालियो, मूकी निज अभिमान रे / पग उपाडयो वांदवा, उपन्यु केवलज्ञान रे, वीरा मोरा० // 6 // .. पहोता केवली परखदा, बाहवली ऋषिरायो रे। अजरामर पदवी लही, समयसुन्दर वन्दे पायो रे / वीरा // 7 // मायासज्झाय , माया कारमी रे, माया म करो चतुर सुजाण / आंकणी। , माया वाह्यो जगत् विलुद्धो, दुखीयो थाय अजाण / जे नर मायाए मोही रह्यो तेणे, स्वप्ने नहीं सुख ठाण / माया कारमी रे० // 1 // नाना मोटा नरने माया, नारीने अधिकरी। वली विशेष अतिघणी व्यापे, घरडाने झाझेरी / माया कार० // 2 // जोगी जती तपसी संन्यासी, नग्न थइ परिवरिया। . उंधे मस्तक अग्नि धखन्ती, मायाथी न उगरिया / माया कार० // 3 // Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 337 माया मेली करी बहु भेली, लोभे लक्षण जाय / भयथी धन धरतीमा गाडे, उपर विषधर थाय / मा० // 4 // माया कारण दूर देशांतर, अटवी बनमा जाय / .. जाझ बेसीने द्वीप द्वीपान्तर, जइ सायर झंपलाय / मा० // 5 // शिवभूति सरखो सत्यवादी, सत्यघोष कहेवाय / रतन देखी तेह-मन चलियुं, मरीने दुर्गति जाय / मा०॥६॥ लब्धिदत्त मायाए नडियो, पडियो समुद्र मझार / मुख मारवणीयो थइने मरियो, पडियो ते नरक दुवार / मा०॥७॥ इंद्रे तो सिंहासन थापी, संभृये माया राखी / नेमीसर तो माया मेली, मुक्तिमा थया साखी / मा० // 8 // मन वचन कायाए माया, मेली वनमा जाय / धन्य धन्य तेह मुनीश्वर जेहना, तीन भुवन गुण गाय / माया०॥९॥ एहवू जाणी ने भवि प्राणी, माया मूको अलगी। समयसुन्दर कहे सार छ जगमां, धर्म रंगसुं लगी। माया कारमी रे० // 10 // Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 4 सज्झायसंग्रह वयरस्वामी सज्झाय सांभलजो तुमे अद्भुत वातो, वयरकुमर मुनिवरनी रे // 0 // . षमहिनाना शुरुझोलीमां, आवे केली करन्ता रे / तीन वरसना साधवी मुखथी अङ्ग अग्यार भणंता रे। सां० // 1 // राजसभामां नहीं क्षोभाणा, मातसुखडली देखी रे / गुरुए दीधो ओघो मुहपत्ति, लीधो सर्व उवेखी रे। सां०॥२॥ ___ गुरु संघाते विहार करे मुनि, पाले शुद्ध आचार रे / बालपणाथी महाउपयोगी, संवेगी शिरदार रे / सां० // 3 // कोलापाक ने घेवर भिक्षा, दोय ठामे नवि लीधी रे / गगनगामिनी वैक्रिय लब्धि, देवे जेहने दीधी रे। . सांभलजो०॥४॥ दश पूरव भणीया जे मुनिवर, भद्रगुप्तगुरुपासे रे / क्षीराश्रवप्रमुख जे लब्धि, परगट जास प्रकाशे रे / सां० // 5 // कोडी सेंकडा धनने संचये, कन्या रुक्मिणी नामे रे / शेठ धनावह दिये पण न लिए, वधते शुभपरिणामे रे / सांभ० // 6 // Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह दइ उपदेश ने रुक्मिणी नारी, तारी दीक्षा आपी रे। युगप्रधान जे विचरे जगमां, सूरजतेजप्रतापी रे। सां० // 7 // ___ समकित शीयल तुम्ब धरी करमां, मोहसागर कयों छोटो रे। ते केम बूडे नारीनदीमां, एतो मुनिवर महोटो रे। सां० // 8 // . जेणे दुर्भिक्षे संघ लइ ने, मूक्यो नगर सुकाल रे / शासन शोभा उन्नति कारण, पुप्फपद्म विशाल रे / सां० // 9 // बौद्धरायने पण प्रतिबोध्यो, कीधो शासनरागी रे / शासन शोभा जयपताका, अंबर जइने लागी रे / सां० // 10 // विसर्यो शुंठ गांठिओ काने, आवश्यकवेला जाण्यो रे। विसरे नही पण एह विसरीयो, आयु अल्प पिछान्यो रे / सां० // 11 // लाख सोनये हांडी चढे जेने, बीजे दिन सुकाल रे / इम संभलावी वनसेनने, जाणी अणसण-काल रे। सां० // 12 // ___स्थावर्त गिरि जइ अणसण कीर्छ, सोहम हरि तिहां आवे रे / प्रदक्षिणा पर्वतने दइने, मुनिवर वन्दे भावे रे / सां० // 13 // .धन सिंहगिरि सूरि उत्तम, तेहना ए पटधारी रे / पद्म विजय कहे मुनिपदपङ्कज, नित नमीये नरनारी रे / सां०॥१४॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 4 सज्झायसंग्रह नन्दिषेण मुनिसज्झाय ढाल पहली राजगृही नगरीनो वासी, . श्रेणिकनो सुत सुविलासी हो, मुनिवर वैरागी / नन्दीषेण देशना सुणी भीनो, ना ना कहेता व्रत लीनो हो, मुनिवर० // 1 // चारित्र नित्य चोखं पाले, संजम-रमणीसुं महाले हो, मुनिवर० / एक दिन जिनपाय लागी, गोचरीनी आज्ञा मांगी हो, मुनिवर० // 2 // पांगरियो मुनि वेरवा, क्षुधा वेदनी कर्म हरेवा हो, मुनिवर० / उंच नीच मध्यम कुल महोटा, . अटतो सञ्जमरस लोटा हो, मुनिवर० // 3 // एक उंचो धवल घर देखी, मुनिवर पेठो शुद्धगवेषी हो, मुनिवर० / तिहां जइ दीधो धर्मलाभ, बेश्या कहे यहां अर्थलाभ हो, मुनिवर // 4 // Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 341 मुनि मन अभिमान आणी, खंड करी नाख्यो तरणुं ताणी हो, मुनिवर० / सोवन वृष्टि हुइ बार कोडी, वेश्या वनिता कहे कर जोडी हो, मुनिवर० // 5 // ढाल दूसरी थे तो उभा रहीने अरज, अमारी सांभलो साधुजी / थे तो म्होटा कुलना जाणी, मूकी द्यो आंमलो साधुजी // 1 // थे तो लइ जाओ सोवन कोड, गाडां उंटे भरी साधुजी, थां रे केसरीये कसबीने कपडे, मोही रही साधु जी / थारी मूर्ति मोहनगारी, जगतमा सोही रही सा०, थांरी आखंडीयारो नीको, पाणी लागणो सा० // 2 // थारो नवलो जोवन वेष, विरहदुखभाजणो सा०, ए तो जंत्र जटित कपाट, कुची मैं कर रही सा० / मुनि वलवा लागो जाम, के आडी उभी रही सा०, में तो ओछी स्त्रीनी जात, मति कही पाछली सा०, थे तो सुगुणा चतुर सुजाण, विचारो आगली / सा० // 3 // थे तो भोगपुरंदर, हुं पण सुंदरी / सा०, थे तो पहेरो नवला वेष, घरेणा जरतरी / सा० / Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 4 सज्झायसंग्रह मणि मुक्ताफल मुगट, विराजे हेमना / सा०, अमे सजीये सोल शणगार, के पिउरस अङ्गना / सा० // 4 // जे होय चतुर सुजाण के, कदीय न चूकशे सा०, एहवो अवसर साहिब, कदीय न आवशे सा० / इम चिंते चित्त मझार, नन्दीषेण वाहलो सा०, रहेवा गणिकाने धाम के, थइने नाहलो सा० // 5 // ढाल तीसरी भोगकरम उदय तस आव्यो, शासन देवीये संभलाग्यो, हो मुनिवर वैरागी / ' रह्यो बार बरस तस आवासे, वेष मेल्यो एकणपासे, हो मुनिवर० // 1 // दश नर प्रतिदिन प्रतिबूझे, दिन एक मूरख नवि बूझे, हो मुनि / बूझवतां हुई बहु वेला, भोजन नी थइ अवेला हो मुनिवर० // 2 // कहे वेश्या उठो स्वामी, एह दशमो न बूझे कामी, हो मुनिवर० / वेश्या वनिता कहे धसमसती, आज दशमा तुम ही ज हसती, हो मुनि० // 3 // Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 343 __.. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह ___ एह वयण सुणीने चाल्यो, फरी संजममुं मन वाल्यो, हो मुनि / फरी संजम लियो उल्लासे, वेष लेइ गयो जिनपासे, हो मुनि० // 4 // चारित्र नित चोखु पाली, देवलोक गयो देइ ताली, हो मुनिः / तप जप संयम किरिया साधी, घणा जीवने प्रतिबोधी, हो मुनिवर० // 5 // जयविजयगुरुसीस, तस हरख नमे निशदीस, हो मुनिः / - मेरुविजय इम बोले, एहवा गुरुने कुण तोले, हो मुनिवर० // 6 // प्रसन्नचन्द्र मुनिसज्झाय प्रणमुं तुमारा पायं प्रसन्नचन्द प्रणमुं तुमारा रे पाय / आं० / राज छोडी रलीयामणुं रे, जाणी अथिर संसार / वैरागें मन वालीयु रे, लीधो संजमभार प्रसन्न // 1 // शमसाने काउस्सग्ग रही रे, पग उपर पग चढाय / बाहु बेउ उंचा करी रे, सूरजसामी दृष्टि लगाय प्रस० // 2 // Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 4 सज्झायसंग्रह दुर्मुखदूत वचन सुणी रे, कोप चढयो ततकाल / मनसु संग्राम मांडीयो रे, जीव पडयो जंजाल / प्र० // 3 // श्रेणिक प्रश्न पूछ तिहां रे, एहनी कुण गति थाय / भगवन्त कहे हमणां चवे तो, सातमी नरके जाय / प्र० // 4 // क्षण एक अन्तरे पूछियु रे, सर्वार्थसिद्ध विमान / वाजी देवनी दुन्दुभिरे, मुनि पाम्या केवलज्ञान / प्र० // 5 // प्रसन्नचन्द मुनि मुगते गया रे, श्री महावीरना शिष्य / रूपविजय कहे धन्य धन्य छे एहने, मैं तो जोया सूत्र प्रत्यक्ष प्रसन्न // 6 // श्री दशवैकालिक संज्झाय धम्मो मङ्गल महिमानिलो, धर्मसमो नहीं कोय / धर्मे सानिध देवता, धर्मे शिवसुख होय / धम्मो० // 1 // जीवदया नित पालिये, संजम सत्तरप्रकार। बारे भेदे तप तपों, धर्मतणो ए सार / धम्मो० // 2 // जिम तरुवरने फूलडे, भमरो रस ले जाय / तिम संतोषे आतमा, जिम फूल पीडा न थाय / धम्मो०।३।। इण विधि विचरे गोचरी, लेवे शुद्ध आहार / . ऊंच नीच मध्यम कुले, धन धन ते अणगार / धम्मो० // 4 // Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह मुनिवर मधुकर सम कह्या, नहीं निश्रा नहीं दोष। लाधे भाडो देहने, अणलाधे सन्तोष / धम्मो० // 5 // अध्ययन पहिले दुमपुप्फे, सखरा अर्थ विचार / पुण्यकलशशिष्य जेतसी, धरमे जय जयकार / धम्मो० // 6 // .. पश्चमी की सज्झाय __ ढाल पहली श्री वासुपूज्यजिनेश्वरवयणथी रे, रूपकुम्भ कश्चन कुंभ मुनि दोय / रोहिणीमन्दिरसुन्दर आविया रे, नमी भव पूछे दम्पती सोय, चउनाणी वयणे रे दम्पती मोहिया रे // 1 // राजा राणी निज सुत आठनो रे, तप फल निजभव. धारी सम्बन्ध / विनय करी पूछे महाराजने रे, चार सुताना भवप्रबन्ध / चउ० // 2 // रूपवती शीलवती ने गुणवती रे, सरस्वती ज्ञानकला भण्डार / जन्मथी रोग शोग दीठो नही रे, कुण पुण्ये लीधो एह अवतार / चउ० // 3 // ___ ढाल दूसरी गुरु कहे वैताढय गिरिवरू रे. पुत्री विद्याधरी चार / निज आयु ज्ञानीने पूछियो रे, करवा सफल अवतार, अवधारो अम वीनती रे // 1 // Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 '4 सज्झायसंग्रह ___ गुरु कहे ज्ञान उपयोगथी रे, एक दिवसर्नु आय / एहवा वचन श्रवण सुण्या रे, मनमां विमासण थाय / अव० // 2 // थोडामां कार्य धर्मनां रे, किम करिये मुनिराज / गुरुकहे जोग असंख्य छ रे, ज्ञानपंचमी तुज काज / अब० // 3 // .. क्षण आराधे सवि अघ टले रे, सूत्र परिणामे साध्य / कल्याणक नव जिनतणां रे, पंचमीदिवसे आराध / अव०॥४॥ ढाल तीसरी, चैत्रवदि पंचमी दिने, सुण प्राणिजी रे। चविया चंद्रप्रभ स्वाम, लहे सुखठाम / सुण प्रा० / आं०। . अजित संभव अनंतजी, सुण प्राणिजी रे, पंचमी शुदि शिवधाम शुभपरिणाम / सुण // 1 // वैशाखसुदि पंचमी दिने, सुण०, संजम लिये कुंथुनाथ बहुनर साथ, सुण / जेठसुदि पंचमीदिने, सुग०, सुगति पाम्या धर्मनाथ, शिवपुरीसाथ, सुण प्राणि // 2 // श्रावण सुदि पंचमी दिने सुण०, जन्म्या नेमि सुरंग अतिउछरंग, सु० / मगसरवदि पंचमी दिने, सु०, सुविधिजन्म शुभसंग पुण्य अभंग / सु० // 3 // ___ कार्तिकवदि पंचमी तिथि सु०, संभवकेवलज्ञान करो बहुमान, सु० / दशक्षेत्रे नेउजिणंदना सु०,. पंचमीदिनना कल्याण सुखना निधान / सुण प्राणिजी रे // 4 // . Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 347 * श्रीजैनशान-गुणसंग्रह ढाल चोथी हारे मारे ज्ञानीगुरुना वयण सुणी हितकार जो, चार विद्याधरी पंचमी विधिसुं आदरे रे लो। आं।॥१॥ हारे मारे शासनदेव पंचज्ञानमनोहार जो, टाली रे आशातना देववंदन सदा रे लो // 2 // हारे मारे तप पूरणथी उजमणानो भाव जो, एहवे विद्युत् योगे सुरपदवी वयाँ रे लो // 3 // हारे मारे धर्म मनोरथ आलस तजतां होय जो, धन्य ते आतम अवलंबी कारज कर्यां रे लो // 4 // हां रे मारे देवथकी तुम कूखे लियो अवतार जो, सांभल रोहिणी ज्ञान आराधन फल घणां रे लो // 5 // हारे मारे चारे चतुरा विनय विवेक विचार जो, गुण केता आलखिये तुम पुत्री तणारे लो॥६॥ ढाल पांचमी ज्ञानीना वयणथी चारों बहेनी, जातिस्मरण पामी रे / ज्ञानी गुणवंता / त्रीजा भवमां धारण कीधी, सीध्यां मननां कामो रे / ज्ञानी गुणवंता // 1 // Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 4 सज्झायसंग्रह श्री जिनमंदिर पंच मनोहर, पंचवर्ण जिनपडिमा रे / ज्ञानी। जिनवर आगमना अनुसारे, . करिये उजमणानो महिमा रे / ज्ञानी० // 2 // पंचमी आराधनथी पंचम, केवलज्ञान ते थाय रे / ज्ञानी / विजयलक्ष्मीसरि अनुभव नाणे, संघ सकल सुखदाय रे / ज्ञानी० // 3 // नागिला की सज्झाय भवदेव भाइ घरे आविया रे, प्रतिबोधवा मुनिराज रे। हाथमां ते दीधुं घृतनुं पातरं रे, भाइ मने आघेरो वलाव रे, नवी रे परणी ते गोरी नागिला रे // 1 // इम करी गुरुजी पासे आविया रे, गुरुजी पूले दीक्षानो कांइ भाव रे / लाजे नाकारो तेणे नवि कर्यो रे, .. . दीक्षा लीधी भाइनी पास रे, नवी रे० // 2 // Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 349 चार वरस संजममा रह्या रे, . हैये धरता नागिलातुं ध्यान रे / ..... हुं मूरख में आ शुं कयु रे, नागिला तजी जीवनप्राण रे, नवी रे० // 3 // मात पिता एने नही रे, एकली अबला नार रे। तास उपर करुणा करी रे, हवे तेनी करवी संभाल रे, नवी रे // 4 // शशिवयणी मृगलोयणी रे, . चलवलती मेली घरनी नार रे / सोल वरसनी सा सुंदरी रे, सुंदरतनु सुकुमार रे, नवी रे० // 5 // उमर पाकेलं व्रत जे करे रे, हरखे ग्रही करमांहि रे। पाम्या ते शुभमति जेहनी रे, हुं तो पडीयो दुख जंजाल रे, नवी रे० // 6 // भवदेव भांगे चित्ते आवियो रे, अणओलखी पूछे घरनी नार रे / कोइए दीठी ते गोस नामिला रे, अमे छीये व्रत छोडणहार रे, नवी रे० // 7 // Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सज्ज्ञायसंग्रह नारी कहे सुणो साधुजी रे, वम्यो न लीए कोइ आहार रे। हस्ती चढीने खर पर कोण चढे रे, तमे छो कांइ ज्ञानना भंडार रे, नवी रे० // 8 // एडकीए वम्यो आहार जे करे रे, . ते नवि मानव आचार रे, जे तमे घर घरणी तज्या रे, . हवे तेनी करो शी संभाल रे, नवी रे० // 9 // धन्य बाहुबली शालिभद्रजी रे, धन्य धन्य मेघकुमार रे। . ...... स्त्री तजीने संजम जिणे लियो रे, .' धन्य धन्य तेह अणगार रे, नवी रे० // 10 // देवकी सुलसा सुत सागरूरे, नेमतणी सुणी वाणि रे। बत्तीस बत्तीस प्रिया तणारे, परिहर्या भोगविलास रे, नवी रे० // 11 // अंकुशवश गज आणीयो रे, राजुलमति रहनेम रे। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह वचन अंकुशे तिहां वारियो रे, . - नागिला भवदेव तेम रे, नवी रे० // 12 // नारी ते नरकनी खाण छे रे, नरकनी देवणहार रे। ते तमे तजो मुनिराजजी रे, जिम पामो भवजल पार रे, नवी रे० // 1 // नागिलाए नाथने समजावियारे, पछी लीधो संजम भार रे। . कर्म खपावी मुगते गया रे, हुवा हुवा शिव भरतार रे, नवी रे // 14 // पांचमे भवे जंबू स्वामी जी रे, परण्या पदमिणी नार रे। कोड नवाणुं कंचन लाविया रे, कल्पसूत्र मांहि अधिकार रे, नवी रे० // 15 // प्रभव साथे चोर पांचसे रे, पदमणी आठे नार रे। कर्म खपावी मुगति गया रे, समय सुंदर सुखकार रे, नवी रे० // 16 // Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 . 4 सज्झायसंग्रह . सामायिक के बत्तीस दोष की सज्झाय चोपाई शुभ गुरु चरणे नामी सीस, सामायिकना दोष बत्तीस / कहीसुं त्यां मना दश दोष, दुश्मन देखी धरतो रोष // 1 // ___ सामायिक अविवेके करे, अर्थ विचार न हइडे धरे / मन उद्वेग इच्छे यश घणो, न करे विनय वडेरा तणो // 2 // भय आणे चिंते व्यापार, फल संशय नियाणा सार / हवे वचनना दोष निवार, कुवचन बोले करे तूंकार // 3 // लइ कुंची जा घर उघाड, मुखे लवी करतो वढवाड / आवो आवो बोले गाल, मोह करी हुलरावे बाल // 4 // __करे विकथाने हास्य अपार, ए दश दोष वचनना वार / काया केरा दूषण बार, चपलासन जोवे दिशि चार // 5 // सावध काम करे संघात, आलस मोडे उंचे हाथ / पग लांबे बेसे अविनीत, ओठिंगण ले थांभो भीत // 6 // मेल उतारेखरज खणाय, पग उपर चढावे पाय। अति उघार्यु मेले अंग, ढांके तेम वली अंग उपांग // 7 // निद्राए रस फल निर्गमे, करहा कंटक तरुये भमे / ए बत्तीसे दोष निवार, सामायिक करजो नर नार // 8 // . समता ध्यान घटा उजली, केशरी चोर हुओ केवली। श्रीशुभवीर वचन पालती, स्वर्गे गई सुलसा रेवती // 9 // Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 353 श्रीजैनझना-गुणसंग्रह मन ममरा की सज्झाय भूल्यो मन भमरा तूं क्यां भम्यो, भम्यो दिवस ने रात / मायानो बांध्यो प्राणियो, भमे परिमल जात / / भूल्यो०॥१॥ कुम्भ काचो रे काया कारमी, तेनो करो रे जतन / विणसतां चार लागे नहीं, निर्मल राखो रे मन्न / भू० // 2 // केना छोरु ने केना वाछरु, केना माय ने बाप / अन्त समय जासी एकलो, साथे पुण्य ने पाप // भू० // 3 // आशा तो डुंगर जेवडी, मरवु पगलारे हेठ / / धन संची संची कांइ करो, करो देवनी वेठ // भू०॥४॥ धन्धो करी धन जोडियो, लाखां उपर क्रोड / मरतांनी वेला मानवी, लीधो कन्दोरो छोड ॥भूल्यो० // 5 // मरख कहे धन माहरो, धोके धान न खाय / वस्त्र विना जई पोढवू, लखपति लाकडा मांय // भू० // 6 // भवसागर दुःखजले भर्यो, तरवो छ रे तेह। वचमां भय सबलो थयो, कर्म वायरो ने मेह // भू० // 7 // लखपति छत्रपति सब गया, गया लाख बे लाख / गर्व करी गोखे बेसता, सर्व थया बली राख / भू० // 8 // धमण धखन्ती रही गई, बूझ गई लाल अङ्गार। . एरण को ठपको मटयो, उठ चल्यो रे लुहार // भू० // 9 // Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 4 सज्झायसंग्रह उवट मारग चालतां, जावू पेले रे पार / आगल हाट न वाणीयो, शंबल लेजो रे सार // भू० // 10 // परदेशी परदेशमें, कुणसुं करो रे सनेह। आया कागल उठ चल्यो, न गणे आंधी ने मेह ॥भू० // 11 // केइ चाल्या ने चालशे, केइ चालणहार / ... केइ बेठा रे बुढा बापडा, जाये नरकमझार ॥भू० // 12 // जिणघर नोबत बाजती, थाता छत्तीस राग / खण्डेर थइ खाली पडया, बेठण लागा छे काग ।।भू० // 13 // भमरो आव्यो रे कमलमां, लेवा कमलनुं नूर। . . कमलनी वांछाए माहे रह्यो, जिम आथमते सूर ॥भू०॥१४॥ सद्गुरु कहे वस्तु वहोरिये, जे कोइ आबे रे साथ / आपणो लाभ उगारिये, लेखु साहिब हाथ // भू० // 15 // Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 5 पद-संग्रह लघुता भावना पद गय बिचार। लघुता मेरे मन मानी, लही गुरुगमः ज्ञान निशानी। मद आठ जिन्होने धारे, ते दुर्गति गये बिचारे / देखो जगत में प्राणी, दुख लहत अधिक अभिमानी // लघुता मेरे // 1 // शशी सूरज बडे कहावे, ते राहु के वश आवे / तारागण लघुताधारी, स्वर्भानुभीति निवारी / लघुता० // 2 // छोटी अति जोजनगन्धी, लहे षट्रसस्वाद सुगन्धि / करटी मोटाई धारे, ते छार शीश निज डारे // लघु० // 3 // जब बालचन्द होइ आवे, तब सहु जन देखण धावे / पूनम दिन बडा कहावे, तब क्षीणकला होइ जावे / लघु०॥४॥ गुरुवाइ मनमें वेदे, नृप श्रवण नासिका छेदे / अङ्गमांहे लघु कहावे, ते कारण चरण पूजावे / लघु०॥५॥ शिशु राजधाममें जावे, सखि हिल मिल गोद खिलावे / बडा होय जाण नवि पावे, जावे तो सीस कटावे / लघु० // 6 // अन्तर मदभाव वहावे, तब त्रिभुवननाथ कहावे / इह चिदानन्द यह गावे, रहणी विरला कोउ पावे / लघु०॥७॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 पदसंग्रह / रहेणी कहेणी स्वरूप पद कथनी कथे सब कोइ, रहणी अति दुर्लभ होइ। . शुक रामको नाम वरखाणे, नवि परमारथ तस जाणे / या विध भणी वेद सुणावे, पण अकल कला नवि पावे / क०॥१॥ छत्तीस प्रकारे रसोइ, मुख गिणतां तृप्ति न होई / शिशु नाम नहीं तस लेवे, रस स्वादत सुख अति लेवे।क० // 2 // बन्दी जन कडखा गावे, सुणी सूरा सीस कटावे / जब रूण्ड मुण्डता भासे, सहु आगल चारण नाशे।क०॥३॥ कहणी तो जगत मजूरी, रहणी है बन्दी हजूरी। कथनी साकर सम मीठी, रहणी अति लागे अनीठी।क०॥४॥ जब रहणीका घर पावे, तब कथनी गिनती आवे / चिदानन्द इम जोइ, रहणी की सेज रहे सोइ / कथ० // 5 // - भिन्न भिन्न मत स्वरूप पद मारग साचा को न बतावे / जासु जाय पूछिये ते तो, अपनी अपनी गावे / मारग / मंतवारा मतवाद वाद धर, थापत निज मत नीका। . स्यादवाद अनुभव बिन ताका, कथन लगत मोहे फीका / ... मारग साचा० // 1 // Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनशान-गुणसंग्रह मत वेदांत ब्रह्मपद ध्यावत, निश्चय पख उर धारी / मीमांसक तो कर्म वदे ते, उदय भाव अनुसारी / मारग साचा० // 2 // कहत बौद्ध ते बुद्ध देव मम, क्षणिक रूप दरसावे / नैयायिक नयवाद ग्रही ते, करता कोउ ठेरावे / मारग साचा० // 3 // चारवाक निज मनःकल्पना, शून्यवाद कोउ ठाणे / तिनमें भये अनेक भेद ते, अपनी अपनी ताणे / मारग साचा० // 4 // नय सरवंग साधना जामें, ते सरवंग कहावे / चिदानंद ऐसा जिन मारग, खोजी होय सो पावे / मारग साचा० // 5 // जैनस्वरूप पद . (राग धन्याश्री) परमगुरु जैन कहो क्युं होवे, गुरुउपदेश विना जन मूढा, दर्शन जैन विगोवे / परमगुरु० // 1 // कहत कृपानिधि शमरस झीले, कर्म मेल जे धोवे / बहुलपापमल अंग न धोवे, शुद्र रूप निज जोवे / परमगुरु० // 2 // Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 . 5 पदसंग्रह स्याद्वाद पूरन जो जाणे, नयगभिंत जस वाचा / गुण पर्याय द्रव्य जो बूझे, सोइ जैन है साचा / परमगुरु० // 3 // क्रियामूढमति जो अज्ञानी, चालत चाल अपूठी / जैन दशा उनमें ही नाही, कहे सो सब ही झूठी ।परम०॥४॥ परपरणति अपनी कर माने, किरियाग। पहिलो / उनकुं जैन कहो क्युं कहिये, सो मूरखमें पहिलो। परमगुरु० // 5 // ज्ञान भावज्ञान सबमांही, शिव साधन सदहिये / नाम भेषसे काम न सीझे, भाव उदासे रहिये / परमगुरु०॥६॥ ज्ञान सकलनयसाधन साधो, क्रिया ज्ञानकी दासी। क्रिया करत धरत है ममता, याही गले में फांसी / .. परमगुरु० // 7 // क्रिया विना ज्ञान नहीं कबहुं, क्रिया ज्ञान विना नाही / क्रिया ज्ञान दोउ मिलत रहत है, ज्यों जलरस जलमांहि / परमगुरु० // 8 // क्रिया-मगनता बाहिर दीसत, ज्ञानशक्ति जस भांजे / सद्गुरु शीख सुने नहीं कबहु, सो जन जनतें लाजे / परमगुरु०॥९॥ तत्वबुद्धि जिनकी परिणति है, सकलसूत्रकी कुंची। जग जसवाद वदे उन ही को, जैन दशा जस उंची / परमगुरु०॥१०॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 359 चेतन उपदेश पद ( राग धन्याश्री) चेतन जो तूं ज्ञान अभ्यासी, आप ही बांधे आप ही छोडे, निजमति शक्ति विकासी / चेतन० // 1 // जो तूं आप स्वभावे खेले, आशा छोडी उदासी। सुर-नर-किन्नर-नायकसंपत्ति, तो तुज घरकी दासी / - चेतन० // 2 // मोहचोर जनगुण धन लूटे, देत आस गल फांसी / आशा छोड उदास रहे जो, सो उत्तम संन्यासी / चेतन०॥३॥ जोग लइ पर आश धरत है, याही जगमें हांसी / तू जाने मैं गुणकुं संचुं, गुण तो जावे नाशी / चेतन० // 4 // पुद्गल की तूं आश धरत है, सो तो सब ही विनाशी / तूं तो भिन्न रूप है उन से, चिदानंद अविनाशी / चेतन० // 5 // धन खरचे नर बहुत गुमाने, करवत लेवे कासी। तो भी दुःख को अंत न आवे, जो आशा नहीं घासी। चेतन०॥६॥ सुख जल विषमविषय तृष्णा, होत मूढमति प्यासी / विभ्रम-भूमि भई पर-आसी, तूं तो सहज विलासी / चेतन० // 7 // याको पिता मोह दुःख भ्राता, होत विषयरति मासी / भव सुत भरता अविरत पानी, मिथ्यामति है हांसी / चेतन०॥८॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 5 पदसंग्रह . .. आशा छोड रहे जो जोगी, सो होवे शिववासी। उनको सुजस वखाने ज्ञाता, अंतरदृष्टि प्रकासी / चेतन० // 9 // उपशम पर पद (राग धन्याश्री) जब लगे उपशम नाही रति, तब लगे जोग धरे क्या होवे, नाम धरावे जति / जब लगे० // 1 // , कपट करे तूं बहुविध भाते, क्रोधे जले छति / ताको . फल तू क्या पावेगो, ग्यान विना नाही बति / जब लगे०॥२॥ भूख तरस और धूप सहतु है, कहे तूं ब्रह्मवती / कपट केलवे माया मंडे, मनमें धरे कती / जब लगे // 3 // ___ भस्म लगावत ठाडो रहेवत, कहत है हूं वसती / जंत्र मंत्र जडी बूटी भेषज, लोभवश मूढमति / जब लगे // 4 // बडे बडे बहु पूर्वधारी, जिनमें शक्ति हती / सो भी उपशम छोडी बिचारे, पाये नरक गति / जब लगे // 5 // कोउ गृहस्थ कोउ वैरागी, जोगी जगत जति, अध्यातम भावे उदासी रहेगो, पावेगो तबही मुगति / जब लगे० // 6 // श्री नयविजय विबुधवर राजे, जाने जगको रति / श्री जसविजय उवज्ज्ञायपसाये, हेमप्रभु सुख संतति / जबलगे० // 7 // Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह शरीररथपर पद ( राग आशावरी) पांचो घोडे एक रथ जूता, साहिब उसका भीतर सूता। खेडू उसका मदमनकारा, घोडेकुंदोरावनहारा ।पांचो घोडे // 1 // . घोडे झूठे ओर ओर चाहे, रथकुं फिरि फिरि उबर वाहे / विषम पन्थ चिहुं ओर अंधियारा, तो भी न जागे साहिब प्यारा। पांचो घो० // 2 // _ खेडू रथकुं दूर दोरावे, बेखबर साहिब दुख पावे / रथ जङ्गलमा जाप असझे, साहिब सोचा कछुअ न बूझे। पांचो घोडे० // 3 // चोर ठगोरे वहाँ मली आये, दोनुकु मद प्याला पाये / रथ जङ्गलमें जीरण कीना, मालधनीका उदारी लीना / पांचो० ॥क्षा ___धनी जग्या तब खेडू बांध्या, रासी परांना ले सिर सौ. ध्या / चोर भगें रंथ मारग लाया, अपना राज विनय जिउ पाया / पांचो घोडे // 5 // Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 पदसंग्रह कायामन्दिर पर पद ( राग ठुमरी) मंदिर एक बनाया हमने / मंदिर० // 1 // जिस मंदिरके दश दरवाजा, एक बुन्दकी माया रे / नानो पंखी जाके अन्दर, राज करे चित्त लाया रे / मन्दिर एक० // 1 // ' हाड मांस जाके नहीं दीसे, रूप रङ्ग नही जाया रे। पङ्ख न दीसे कैसे पिछार्नु, षट्रस भोगी भाया रे / मन्दिर एक० // 2 // जातो आतो नही कोइ देखे, नहीं कोई रूप बतावे रे / सब जग खाया तो पण भूखो, तृप्ति कबही न पावे रे / मन्दिर एक० // 3 // __ जालम पंखी तालम मंदिर, पाछी कोन बतावे रे। उस पंखी को जो कोइ जाने, सो ज्ञानानन्दनिधि पावे रे / मंदिर एक० // 4 // उपदेश पद ( काम छे दुष्ट विकारी० यह राग) . मस्त भयो तन धनमें / मुसाफिर मस्त भयो तन धन में / उठ जाना एक छिनमें / मुसाफर / आं० // Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह इस तन डेरा छोड चलेगा, हंसा परभववनमें / मुसा / मट्टीका मठ फुक दियेगा, मनकी रहेगी मनमें // मु० // 1 // अक्कड फक्कड मूछ मरोडत, त्रास पडावत जनमें / मु० / पर्णकुटी जालवतां आखर, गिर पडेगी पवनमें / मु० // 2 // तन धन वैभव सुपना जैसा, संध्या रंग गगन में / मु० / पल की खबर नहीं प्राणीने, राव रंक होय छिन में // मु०॥३॥ क्या अभिमान करे मन मर्कट, सांकलचन्द स्वजन में। तन धन अर्पण कर परमारथ, मन धर प्रभु के भजन में / / मुसाफर० // 4 // समय की दुर्लभता पर पद ( राग-नाथ कैसे गज को बन्ध० ) कदी नहीं समय गयो फरि मलशे, भव भ्रमण कर्ये शुं वलशे, कदी नहीं० आं० // आ काया छे काचनो कूपो, तटक दइने तटके / पाणीना परपोटा सरखी, फटक दइने फटके / कदी० // 1 // क्रूर कषाय क्रूरताधारी, पाप कूपमें पटके / आ भवसागर पार उतरतां, अधवच जातां अटके // कदी नहीं // 2 // Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 : 5 पदसंग्रह मारुं तारुं करी शुं मोह पामे, क्षणमां मरी जवु मटके। . चर्म चुंथे शुं चतुर बनीने, चतुरा केरे चटके / . कदी नहीं // 3 // आ मानवतन चिंतामणि सम, ते क्यम व्यर्थ गुमावे / कालं अचानक आवी लेशे, तो पछी नहीं कांइ फावे // .. कदी नहीं // 4 // समकित सुन्दर धारी धरामां, धर्मनुं साधन करजे। जिनवर नाम जपी समतामां, सहज गुणे तूं ठरजे // कदी नहीं // 5 // करी निर्जरा तपथी सारी, कर्म जालने हरजे। आश्रय दूर करी अंतरथी, शिवपद सहेजे वरजे // कदी नहीं // 6 // चेतन उपदेश पद (गाफिल तूं शोच दिल में) . चेतन तूं चेत जलदी, कर ले सुधार अपना / दिखता नहीं है तुज को, इस जींदगी का घटना // चेतन तूं० // 1 // माता पिता वो भाई, निजस्वार्थ के हैं सारे / . छिनमें विछोड तुजको, होते हैं सर्व न्यारे। चेतन० // 2 // Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 365 लक्ष्मी है वीजचपला, यौवन भी दिन चारा। क्षणनाशी जिंदगानी, कर देह का सुधारा / चेतन० // 3 // सुंदर महेल वाडी, माडी तुरंग हाथी / आखिर ये छोड जाना, नहीं होय कोई साथी / चेतन० // 4 // मोटर घोडेकी गाडी, लाडी बहोत प्यारी / सब शौक की ये चीजें, छिनमें विनाशहारी। चे० // 5 // पलवन्त चक्रवर्ती, राजे प्रसिद्ध नामी / सब राज पाट छोडी, परलोक पंथ गामी / चे०॥६॥ दुनिया का मोह छोडो, लेबो प्रभु का शरणा / विनशे ज्युं कर्म फंदा, पावो सौभाग्य झरणा / . . चेतन तूं चेत० // 7 // उपदेश पद ( देशी भर्तृहरि की) सार नही है संसारमो, करो मनमा विचार जी। . नेत्र उघाडी जोइये, करिये आत्मसुधार जी / . सार नहीं है० // 1 // जाग जाग भवि प्राणिया, आयु झटपट जाय जी। चखत मये फरी नावशे, कारज कंइय न थाय जी। सार नही है // 2 // Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 पदसंग्रह दश दृष्टान्ते दोहिलो, पामी नर अवतार जी। देव गुरु जोग पामी ने, करिये जन्मसुधार जी। सार नही है० // 3 // मारु मारुं करी जीव तूं, फरियो सघले ठाण जी। आश फली नहीं क्यांइये, पाम्यो दुखनी खाण जी। ... ... सार नहीं है. // 4 // मात पिता सुत बांधवा, चढती समे आवे पास जी / पडती समे कोइ नकि रहे, देखो स्वार्थ विकास जी। . . सार नही है. // 5 // रावण सरखो रे राजवी, लंकापति जे कहाय जी / तीन जगत में गाजतो, मन अभिमान धराय जी / सार नही है० // 6 // अन्त समये गयो एकलो, नहीं गयुं कोइ तस साथ जी। एम जाणी धर्म सेवीये, रहेशे परभव साथ जी। . सार नही है० // 7 // मोहनिद्राथी जागीने, करो धर्मसु प्रेम जी / . विजयसौभाग्यनी वाणीने, धारो मन धरि प्रेम जी / सार नहीं है. // 8 // Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 367 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह आत्म उपदेश पद ( अवधू ऐसा ज्ञान विचारी-यह देशी) अवधू आतमरूप पिछानो, जामें तीनजगतसुख मानो। अवधू आतम०॥ पुद्गल के संग पडके चेतन, दुख अनन्ते पाया। तृष्णा पिशाचिन के वश पडके, चार बार अथडाया। अवधू आतम० // 1 // सुमति सुहागण छोडके प्यारे, कुमतिसे प्रेम लगाया। दास चना कर अपना तुजको, बहुत ही नाच नचाया / - अवधू आतम० // 2 // परवशता दुःख है अतिभारी, चेतन उसको निवारो। दीपकपरवश देखो पतङ्गा, छिनमें प्राण विडारो / अ० // 3 // आशापासमें जकडा चेतन, सर्वदिशामें. फिरायो / काजसिद्धि कछु नाही पावत, निष्फल जन्म गुमायो। अवधू आतम० // 4 // शुद्धस्वरूपी तूं है सदा का, गुण अनन्ते धारी। पर परभावदशा को धरके, करि निज ऋद्धि खुवारी / अ०॥५॥ बाह्य वस्तु सत्र नेह निवारी, हो निजभावविलासी / सौभाग्यविजय कहे सुनो मेरे सन्तो, छिनमें शिवपुरवासी। अवधू आतम० // 6 // Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 5 पदसंग्रह आशात्याग पर पद (देशी-मान मायाना करनारा रे०) दुखकारी सतत दुरस्कारी रे, चित्त ! आशा तजो दुखकासे, सर्वज्ञानतणी हरनारी / चित्त०॥ आशावशे परघरमा रहीने, काम कयुं बहुवारा / मान रहित त्यां भोजन कीधु, काक परे शक धास रे / चित्त आशा ॥शा द्रव्यनी आशा दिलमाहिं धारी, नित्य सुणी. शठकाणी। जी जी करीने आजीजी कीधी, अन्ते हुई मानहाणी रे / चित्त अ० // 2 // श्रीमन्तपासे नित्य रहीने . सेवा करी कर जोडी / शेठ शेठ कहीं कंठ सुकायों, पाई नही एक कोडी रे। चित्त आशा० // 3 // . तीनजगतना स्वामी बिसारी, कोटिपति मन ध्यावे / Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 369 जास अगल देखो वानर ज्युं नाचे, आशातणे परभावे रे / चित्त आशा० // 4 // बाहिरमाया छण्डी ने केई, योगीतणा व्रत धारा / शंकर ! शंकर ! शब्द को ध्याया, आशा नहीं पण टारा रे / चित्त आशा० // 5 // कलमां कुराननी भणीने सारी, सांइ बन्या केइ भारी / अल्ला अल्ला करी काल गुमायो, आशा नहीं पण वारी रे / चित्त आशा० // 6 // वेद पुराण ने आगम जाणी, त्यागी बन्या जग नामी / ते पण आश तजी न मनथी, अन्ते रही तस खामी रे / चित्त आशा० // 7 // आशा तजे जे सर्वप्रकारे, ईश सदा मन धारा। पूज्य थई ते जगमाहे गाजे, पावे सौभाग्य अपारा रे / चित्त आशा० // 8 // Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 5 पदसंग्रह . गुरु उपदेश पद सद्गुरु ने मोए भांग पिलाई, मोरी अखियोंमें आगई लाली, सद्गुरु०॥ भाव की भांग मरम की मिरची, शीयल की साफी बनाई / सद्गुरु ने० // 1 // क्रिया की कुण्डी ज्ञान का घोटा, घुटनवाला मेरा सांई। सद्गुरु ने० // 2 // ऐसी भांग पीवत सुघर नर, अजर अमर होइ जाई / सद्गुरु० // 3 // सद्गुरु कहत मेल मन ममता, मोक्ष महा निधि पाई / सद्गुरु ने // 4 // प्राणिप्रार्थना गौ-रोगनिकंदनकरनेहारा दूध अनोपम मैं देती, पछडे बछडी संतति मेरी जिसपर निर्भर है खेती / मरने पर भी चमड़ा मेरा तुम चरणोंका है प्राता, फिर मुझगोजातिका रक्षण क्यों नहीं करते हे भ्राता!॥१॥ चजवासी वह कानकनैया था प्यारा हम पालनहार, माणोंसे भी गौका त्राता था दिलीपक्षेत्रिय सरदार / Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 371 . श्रीजैनशान-गुणसंग्रह उनको पुरखा कहनेवाले वृथा तुम्हारा दोर दमाम, . क्षय जाता है वंश हमारा तुम करते एशोआराम // 2 // बकरी-नदीनालोंका पानी पीकर छूटी हम चरती जंगल, दूध बाल बच्चे देकर हम सबका करती हैं मंगल / फिर भी प्यारे पुत्र हमारे हाथ कसाइयों के जाते, तनिक लोभ के खातिर देखो रंक मौतका दुख पाते // 3 // बकरा-माता है जब जगदंबा तब हम भी इसके पूत हुए, मामा है सबका वह तब हम बंकरेभी भानजे हुए। ये कैसे खावेंगे हमको लोगो! तुम कुछ गौर करो, वामपंथियों की भ्रमणा से तुम हमको क्यों ख्वार करो // 4 // मुर्गा-कुक्कुट नाम जगतमें मेरा कालज्ञानी कहलाता हूं, अंधेरी बादलियों में भी ठीक समय बतलाता हूं। कुदरतकी मैं घडी बना हूं मुझ जीवनकी कदर करो, पैसेकी बरबादी जिनसे उन घड़ियों को दूर धरो // 5 // समसाथ-सतजुगमें राजा थे रक्षक अब ये भक्षक हुए करूर, इनसे नहीं जीवनकी आशा ये तो हैं हमही पर शूर / तुम अर्जी हम पशुपक्षीकी सुनकर हे लक्ष्मी के पूत !, दया धर्मका ज्ञान जगतको देवोज्यों भागे जमदूत // 6 // Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 5 पदसंग्रह जीवदयाका ज्ञानप्रसारक मंडल जग चिरकाल रहो, हम जैसे रंकोंको जीवनप्राणदान कर पुण्य लहो / दया धर्मका मूल जानकर सबजनता सहकार करो, ऐ धनवंत सज्जनो! इनमें धन दे तुम कल्याण वरो // 7 // धर्मी और.कर्मीका संवाद धर्मी-चालो बंधु जाइये, जिनवरजी के गुण गाइये / आनंद पाइए, भवदुःख से बेडा पार है ॥आ.॥ फर्मी-बात तुम्हारी सच्ची, पिणं कई कई बातें कच्ची। हम को जची, दमडा बडा कलदार है // 1 // धर्मी दमडा देखो नयन परेखो, नरकमांहि ले जावे / प्रभु भक्ति विना यह जीव कछु, शुभगति नहिं पावे / मेरे बंधु प्रभुपूजा परमाधार है // 2 // १०-विना द्रव्य दुनिया में देखो, कछु काम ना होवे / धर्मकर्म करके सहु जग में, अपनी मिल्कत खोवे / मेरे बंधु दमडा बडा कलदार है // 3 // प०-दमडा दमडा करे दिवाना, फिरे जगत में ज्यादा / दमडे कारण करे जो अनस्थ, तजे धर्ममर्यादा / मेरे बंधु प्रभुपूजा परमाधार है // 4 // Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 373 - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह क०-प्रभुपूजा करने जावे तो, व्यापार सब ही खोवे / फुरसत नहीं पलभर मरने की, धर्मकर्म कुण जोवे / मेरे बंधु दमडा बडा कलदार है // 5 // ध०-पुन्य कमाई करी पूर्व में, इस भव पाया दमडा / इस भव में कछु नहीं करेगा, जवाब लेगा जमडा / मेरे बंधु प्रभुपूजा परमाधार है // 6 // कर्मी-लाडी वाडी गाडी दमडा, मोटर मौज मनावे / खान पान गुलतान ऐश हो, ऐसी इच्छा होवे / मेरे बंधु दमडा बडा कलदार है // 7 // धर्मी-दास बनो नहीं दमडा के भाई, लो लक्ष्मी को ल्हावो। दश दृष्टांते दुर्लभ नरभव, निष्फल मत गुमावो / मेरे बंधु प्रभुपूजा परमाधार है // 8 // धर्मी-समझ आई सब सत्य बातकी, जग जंजाल है कच्ची। 'नागर' भव तरवा दीपक ज्युं, प्रभुपूजा है सच्ची / मेरे बंधु प्रभु पूजा परमाधार है // 9 // दोनों-सब मिल आवो जिनगुण गावो, लो नरभव को ल्हावो / ओसियां-वीरमंडली प्रभु ध्यावो, अजरामर पद पावो / मेरे बंधु प्रभुपूजा परमाधार है // 10 // Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 5 पदसंग्रह रावण के प्रति सीता का वाक्य अरे रावण तूं धमकी दिखाता किसे. मुझे मरने का खोफ खतर ही नहीं। मुझे मारेगा क्या अपनी खेर मना, ... तुझे होने की अपने खबर ही नहीं // 0 // क्या तूं सोने की लंका का मान करे, मेरे आगे यह मिट्टी का घर ही नहीं / मेरे मन का सुमेरु हिलेगा नहीं, मेरे मन में किसी.का भी डर ही नहीं ॥अरे०॥१॥ तूने सहस अठारा जो रानी वरी, हाय उन पे भी तुज को सबर ही नहीं। परतिरिया पे तूने जो ध्यान दिया, क्या निगोदो नरक का खतर ही नहीं / अरे० // 2 // आवे इंद्र नरेंद्र जो मिलके सभी, क्या मजाल जो शीलको मेरे हरे। तेरी हस्ती है क्या शिव राम पिया, .. मेरी नजरों में कोइ बशर ही नहीं। अरे० // 3 // Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 375 क्यों ना जीत स्वयंवर तूं लाया मुझे, मेरी चाह थी मनमें जो तेरे वसी / था तूं कौन शहेर मुझे दे तो बता, क्या स्वयंवर की पहोची खबर ही नहीं / अ० // 4 // हुवा सो तो हुआ अब मान कहा, मुझे समपे जलदीसे दे तूं पठा। कहे न्यामत वगर न तूं देखेंगा वह, तेरे सर की कसम तेरा सिर ही नहीं // . अरे रावण तूं० // 5 // Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनज्ञान-गुणसंग्रह परिशिष्ट 1 श्रीगोलनगरीय-पार्श्वनाथ प्रतिष्ठा-प्रबन्ध। लेखक श्री रेवतीराम जैन 1 स्थान-परिचय मारवाड-जोधपुर राज्य में एरनपुरा स्टेशन से पश्चिम की ओर जालोर से 14 मील के फासले पर सुकडी नदी के किनारे 'गोलनगर' बसा हुआ है / पंडित सर सुखदेवप्रसादजी की अमलदारी का यह गांव है। गांव के चारों तरफ विविधपक्षों की घटा होने से बहुत ही सुहावना और हराभरा दीखता Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध है / जल यहां का मीठा और तंदुरस्ती को बढानेवाला है। गांव के आसपास कूँए, वाव, रहटों की. बहुतायत होने से यहां जल की कमी किसी समय नहीं मालूम होती। .. यहां पर गांव में वीसा ओसवालों के दो सौ घर हैं। वे सब संपप्रिय और समानधर्मी हैं / सब मूर्तिपूजक शुद्धसनातन चार थुई मानने वाले.जैन हैं। उन का रहन सहन रीत रसम बिलकुल सादा है। मनुष्यों की वेश-भूषा भी ज्यादहतर स्वदेशी खादीमय है / फेशन को वे अपने पास तक नहीं फटकने देते / बिलकुल प्राचीन पद्धति को मान देने में ही वे अपनी इजत समझते हैं / धंधा रोजगार अधिकांश में यहां पर ही लेन देन (धीर धार) का है, परन्तु अभी अभी उनमें से कुछ भाग परदेशों में मद्रास तक पहुंच गया है और अच्छा द्रव्योपार्जन कर रहा है। बाललग्न, वृद्धविवाह और कन्याविक्रय का प्रचार यहां बहुत ही कम नजर आता है जिस से इन लोगों की शारीरिक संपत्ति सदा उत्तम बनी रहती है। हर प्रकार से इन का जीवन सदाचारी और निर्दोष है। यहां पर दो जिन मंदिर हैं / एक पुराना ऋषभदेव भगवान का और दूसरा पार्श्वनाथ का, जो नवीन है। दो जैन श्वेताम्बर धर्मशालायें हैं जिनमें एक हाल ही में बनी है। पुराना एक उपाश्रय भी है जो दोनों जैनमंदिरों के बीच में आया हुआ है। यहां पहले अच्छे अच्छे प्रतिष्ठित तपागच्छ के यति हो Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 379 गये हैं। पं० यति श्री भक्तिसोमजी भी जो अभी थोडे ही समय पर स्वर्गवासी हो गये हैं अच्छे तपस्वी यति थे। इस समय यहां भक्तिसोमजी के शिष्य सुमतिसोमजी यति रहते हैं। 2 पार्श्वनाथ का मंदिर यों तो गोल में भगवान् ऋषभदेव का मंदिर भी बड़ा है परन्तु पार्श्वनाथ का मंदिर जो ‘नया मन्दिर' के नाम से प्रसिद्ध है बडा आलीशान है / द्वार पर झरोखा, भीतर मण्डप, दूसरे खण्ड पर चौमुखजी और चारों तरफ विशाल जगती की वजह से मन्दिर की शोभा अधिक बढ़ गयी है। .. इस मंदिर की नींव विक्रम संवत् 1953 की साल में पड़ी थी और संवत् 1975 में यह संपूर्ण भी हो गया था, परन्तु प्रतिष्ठा जल्दी कराने का विचार होते हुए भी अनुकूल संयोग न मिलने से बातें करते करते 15 वर्ष व्यतीत हो गये। सच कहा है __ "वृक्षः फलति कालेन, काले धान्यं च जायते” अर्थात् 'समय आने पर वृक्ष फलता है और समय पर ही धान्य होता है / आखिर गोल के मंदिर की प्रतिष्ठा का समय भी आ पहुंचा। भांडुआ महावीरजी यात्रा जाते हुए पंन्यास श्री हिम्मतविमलजी गणि गोल पहुंचे और असेंसे तैयार हुए Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध मंदिर की प्रतिष्ठा करा देने की श्रावकों को प्रेरणा की / प्रतिष्ठा कराना निश्चित हुआ और इस कार्य के लिये मुहूर्त और विज्ञप्ति करने को मुनि महाराज श्रीकल्याणविजयजी सौभाग्यविजयजी के पास लुणावे जाने के लिये पंच मुकरिर हुए / 3 लुणावा के लिये पंचों का प्रयाण सं० 1990 का महाराज साहब का वर्षा चौमासा लुणावा (मारवाड) में था, जो गोलसे करीब बत्तीस कोस दूर था। महाराज अभी वहीं विराजते थे। पंच गोलसे रवाने हो कर मिगसर शुदि 13 को लुणावा पहुंचे और सब वृत्तान्त निवेदन पूर्वक विनति की कि 'आप हमें मंदिरजी की प्रतिष्ठा का मुहूर्त निश्चित कर फरमायें और गोल पधारने की विनति स्वीकार कर उधर विहार करने की कृपा करें।' महाराज साहब ने कहा-'क्या यह निश्चय कर लिया है कि प्रतिष्ठा अवश्य ही करायंगे ? / पंचों ने उत्तर दिया-'अब हमारा दृढ निश्चय है कि प्रतिष्ठा अवश्य करानी। इस के बाद महाराजश्रीने पंचाङ्ग देखकर सं. 1991 के द्वितीय वैशाख शुदि 5 का शुभ मुहूर्त बताया। . इस के बाद पंचों ने अर्ज की कि 'गुरुदेव! हमलोगों की इच्छा अंजनशलाका कराने की है सो आज्ञा फरमाइये और Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 381 किन किन भगवान की किस प्रमाण की मूर्तियों की हमारे जरूरत है सो भी बतावें ता कि उन के बनाने का ऑर्डर दे दिया जाय !' इस पर महाराजश्रीने कहा-'आप लोगों की भावना अच्छी है परन्तु मेरी रायमें तो प्राचीन मूर्तियों को कहीं से प्राप्त कर प्रतिष्ठा कराना ही अच्छा है। क्यों कि नवीन मूर्तियों की अपेक्षा प्राचीन मूर्तियां कई कारणों से अच्छी हैं।' उत्तर में पंचों ने कहा-'हम को कुल 11 मूर्तियों की जरूरत है जो मनपसंद मिलनी कठिन हैं, इसलिये हमारी इच्छा तो नवीन बिंब मंगवा कर अंजनशलाका कराने की ही है फिर तो जैसी आप की आज्ञा / ' ... महाराज ने कहा-'ठीक है, एक वार आप मूर्तियों की तलाश में कहीं बाहर तो जायं / इस पर भी पता न लगेगा तो फिर देखा जायगा।' __पंचों ने महाराज साहब की सलाह मंजूर की और गोल की तरफ जल्दी विहार करने की प्रार्थना की। महाराज ने फर्माया-'आगामी माघ शुदि 5 से यहां पर उपधान होने वाले हैं और यह काम भी हमारे आधार पर उठाया गया है इसवास्ते उपधान की समाप्ति तक उधर विहार नहीं हो सकेगा। इस कार्य को समाप्त होते करीब आधा Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध चैत्र यहां पूरा हो जायगा, फिर यहां से गोल की तरफ विहार करेंगे।' मिगसिर शुदि 15 पूर्णिमा के प्रभात समय में पंच वापस गोल के लिये रवाने हुए और पौष वदि 6 के दिन मुनिमहाराज भी कुछ समय के लिये लुगावा से बाली की तरफ विहार कर गये / बाली में करीब 17 वर्ष से जैनसंघ में बड़ा भारी क्लेश चल रहा था सो महाराज साहब के पुण्य प्रभाव से तीन ही दिन में उस का अंत आ गया और संप हो गया। वहां से आप खुडाला, सांडेराव, दूजाना, बलाना होते हुए तखतगढ पधारे। 4 अंजनशलाका का निश्चय जो कि मुनिमहाराजने पंचों को प्राचीन मूर्तियों की तलाश करने के लिये कहा था परंतु गोल के श्रीसंघने तो दृढनिश्चय कर लिया था कि गोल में अंजनशलाका ही करायेंगे। महाराज तखतगढ पधारे उस वक्त फिर गोल के पंच सूत्रधार सोमपुरा थानजी कबीरजी हरजीवाले को साथ में लेकर तखतगढ गये और मूर्तियों के नाम और परिमाण देने की प्रार्थना की। महाराज साहबने इस वक्त भी प्राचीन मूर्तियोंकी खोज में जाने को कहा परन्तु आये हुए सज्जनोंने कहा कि हमारे गांववालों का निश्चय अंजनशलाका कराने का ही है Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह .. . 383 इसवास्ते आप आज्ञा फरमावें / तब महाराजश्रीने धारणागतियंत्रानुसार गोल के लिये मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान् तथा अन्य मूर्तियों के नामों का लिस्ट करके दिया। वहांसे दो जने गजधर सोमपुरा के साथ जयपुर मूर्तियों का ओर्डर देने गये और दो जने गांव चांदराईवाले मिस्त्री दानाजी लोहार को साथ ले सुमेरपुर दंड कलशों का सामान लेने गये / महाराज साहब तखतगढ में कुछ समय तक ठहर कर फिर वहां से विहार कर पौष शुदि 4 लुणावे पधारे / 5 महाराज साहब का लुणावा से गोल के लिये विहार चैत्रवदि में उपधान की माला के उत्सव पर फिर गोल के पञ्च लुणावे गये और वहां से जल्दी विहार कर पञ्चों के साथ पधारने की प्रार्थना की, जिसके उत्तर में महाराजश्री ने फरमाया कि 'हमारे साथ किसी के रहने की जरूरत नहीं है। हम चैत्रवदि अमावस्या तक यहां से विहार नहीं करेंगे। चैत्रशुदि 1 के दिन यहां से विहार होगा और चैत्रशुदि 10 को गोल पहुंचेंगे और उसी दिन नोकारसियों के चढावे बोले जायंगे।' __शांतिपूर्वक उपधान की समाप्ति चैत्रवदि में हो गयी। चैत्रशुदि 1 के दिन दोनों मुनिमहाराजों ने लुणावा से विहार किया और वीसलपुर, सुमेरपुर, वांकली, पावटा, अगवरी, आहोर, लेटा, जालोर और पिंजोपुरा इन गांवों में एक एक Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 384 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध दिन की स्थिरता की / चैत्रशुदि 9 मी से गोल में महाराज साहब की अगवानी की तैयारियां हो रही थीं / चैत्रशुदि 10 के प्रातःसमय महाराज साहब ने पिंजोपुरा से गोल के लिये विहार किया। ___. जालोर से पिंजोपुरा तक जालोर का श्रावकसमुदाय और पिंजोपुरा से केसवणा तक पिंजोपुरा तथा केसवणा के श्रावक तो साथ में थे ही परन्तु केसवणा के नजदीक पहुंचते पहुंचते गोल के भी बहुत से श्रावक सामने आ.मिले थे। केसवणा के मन्दिरजी में दर्शन कर श्रावकों को माङ्गलिक सुना महाराज ने आगे विहार किया / अब तक सेंकडों मनुष्यों का मेला जम चुका था और केसवणा तथा गोल के बीच भाविक मनुप्यों का खासा तांता सा लग गया था। लगभग आठ बजे मुनिमहाराज गोल पहुंचे / जैनसंघ तो क्या सारा गांव ही महाराजसाहबों के दर्शनार्थ बाहर निकल आया था। बडे ठाठ और उत्सवपूर्वक नगरप्रवेश हुआ। नवीनधर्मशाला में मुकाम किया और माङ्गलिक सुन कर सभा विसर्जन हुई। 6 मुहूर्त विषयक शंका-निराकरण . जब गोल के पंच लुणावा से मुहूर्त पूछ कर अपने स्थान गोल आये और आगामी द्वितीयवैशाखशुक्ल 5 मी का मुहूर्त Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 385 जाहिर किया तो सारा गांव आनंदित हुआ, परन्तु यह धार्मिक कार्य भी कतिपय ईर्षालुओं को पसंद नहीं आया। गोल के चोमासी पं० भक्तिसोमजी प्रतिष्ठा कराने का निश्चय हुआ उस समय पालिताणे में थे, पंचों ने चिट्ठी देकर उन को भी गोल बुलाया। परन्तु विघ्नसंतोषी ईर्षालु लोगोंने उन को भी बहकाया कि द्वितीय वैशाखशुदि 5 का मुहूर्त अच्छा नहीं है / यतिजी सरलस्वभावी थे, उन में स्वयं सच झूठ की परीक्षा करने का सामर्थ्य नहीं था अतएव लोगों की बातें सुन कर शंकाकुल हो गये, मुहूर्तविषयक अपना अभिप्राय उन्होंने गोल के श्रावकों को भी दर्शाया, परन्तु श्रावक महाराज पर बडे श्रद्धालु और विश्वासी थे, उन्होंने उत्तर दिया 'मुनिमहाराज कल्याणविजयजीने अगर काली अमावस्या का दिन भी बताया होता तो हमको मंजूर था।' श्रावकों की यह दृढता देख बातें बनानेवाले चुप हो जाते थे। . महाराज गोल पहुंचे उसी दिन दो पहर को पं. भक्तिसोमजी को अपने पास बुलवाया और पूछा कि क्या मुहूर्त के विषय में आप को कुछ शंका है ? / भक्तिसोमजी-हां मेरे विचार में वैशाख शुदि 3 अथवा 6 के दिन ठीक जंचते हैं। ___ महाराज-शुदि 5 मैं क्या कमी है और 3 तथा 6 में विशेषता सो बताइये। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध . भक्तिसोमजी-आप की आज्ञा हो तो पं. गौरीशंकरजी को बुलवा लूं ? __महाराज-खुशी से बुलवाइये और किसी अन्य विद्वान् पर श्रद्धा हो तो आप उस को भी बुला सकते हैं। इस पर. पंडित गौरीशंकरजी श्रीमाली बुलाये गये जो 10 मिनट में ही आ गये / जोषीजी कुछ ज्योतिष की पुस्तकें भी साथ ले आये थे। . महाराजश्रीने पूछा-कहिये पंडितजी! प्रतिष्ठासंबन्धी मुहूर्त के विषय में आप का क्या मत है ? / पंडितजी-पंचमी से षष्ठी का दिन मुझे ठीक जंचता है, क्योंकि उस दिन रवियोग' है और वास्तुचक्र (कलश. चक्र) भी मिलता है। ___ महाराज-प्रतिष्ठा के मुहूर्तमें रवियोग अवश्य होना ही चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है। कलशचक्र के संबन्धमें भी एकान्त नहीं है कि उसके सिवा प्रतिष्ठा हो ही न सके। कलशचक्र एक नक्षत्रयोग है, और केवल नक्षत्रबल पर ही प्रवेशादिकार्य करते समय इस का होना जरूरी माना गया है। जहां पंचांगशुद्धि की गवेषणा की जाती है, वहां कलशचक्र पर आधार नहीं रहता / इसी कारण प्राचीन ज्योतिषशास्त्रों में कलशचक्र की चर्चा ही नहीं है / Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 387 पंडितजी-'अच्छा, इस में क्या लिखा है पढ़िये तो' यह कहते हुए उन्होंने पुस्तकमें से नोट किये हुए एक दो श्लोक महाराज के हाथ में दिये / महाराज-इस में पंचम रवियोगात्मक उपग्रह का फल लिखा है और यह ठीक भी है, परंतु यह दोष सर्वत्र वर्जना ही चाहिये ऐसा एकान्त नियम नहीं है। पंडितजी-आप इस का परिहार बतायंगे तो मेरी शंका दूर हो जायगी। इस पर महाराजने आरंभसिद्धिवार्तिक और मुहूर्तचिन्तामणि की पीयूषधारा टीका में से श्लोक बता कर कहा देखो इस में स्पष्ट लिखा है कि 'उपग्रह' का दूषण 'कुरु' और 'बाल्हीक' देश में ही माना है (उपग्रहः स्यात्कुरुबाल्हिकेषु) अन्यत्र उपग्रह शुभ है (अन्यत्र शुभमेव) ऊपर का खुलासा सुन कर पंडितजी बोले-अब मेरे मन में कोई शंका नहीं रही / अब मैं निस्सकोचभाव से स्वीकार करता हूँ कि पंचमी का दिन श्रेष्ठ है / उस में दोष की मुझे जो शंका थी वह निकल गयी। इस प्रकार पं. भक्तिसोमजी और पंडित गौरीशंकरजी जो कि मुहूर्त विषयमें शंकाशील थे, दो ही घंटों में निशंक हो गये, इस घटना से श्रावकसंघ भी आश्चर्यचकित हुआ कि दो ही घडी में महाराजने क्या जादू कर दिया कि मुहूर्त के संब Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध न्धमें विरुद्ध बातें करने वाले भी सहमत और अनुकूल हो गये / 7 अंजनशलाका कौन करा सकता है ? - मुहूर्तकी ही तरह ईर्षालु लोगोंने यह भी शंका खडी कर रक्खी थी कि 'अंजनशलाका आचार्य ही कर सकते हैं, तो मुनि कल्याणविजयजी यह कार्य कैसे करेंगे। गोल के श्रावकों से इस बात का कोई जिकर करता तो वे तो यही उत्तर देते कि 'यह बात महाराज को पूछो, हम को तो इस में कुछ शंका ही नहीं है, क्योंकि उनको करने का अधिकार होगा तभी वे अंजनशलाका का कार्य करना स्वीकार करते हैं। ईर्षालु लोग इस विषय में तरह तरह की गप्पें हांकते थे, परन्तु पूज्य मुनिमहाराज के सामने आकर पूछने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी। और तो क्या, सुनने मुजब तपगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्रीविजयनेमिसूरिजी तक यह कहते थे कि आचार्य के सिवा दूसरा अंजनशलाका नहीं कर सकता, परन्तु मुनिराज की विद्वत्ता और बहुश्रुतता सभी को मालूम थी, इस से उन को पूछने का किसी को साहस नहीं होता था। - गुगं साहब पं. भक्तिसोमजी के दिल में भी यह * शंका हो रही थी कि महाराज स्वयं आचार्य न होते हुए अंजनशलाका करने की जबाबदारी अपने ऊपर कैसे लेते हैं, परंतु Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 389 उनका भी महाराज के सामने पूछने का साहस नहीं होता था, परन्तु इस लोकचर्चा से महाराज भी अनजान नहीं थे, इस संबन्ध में आप कहा करते थे कि 'क्या ही अच्छा हो कि लोग हम से रूबरू मिल कर इस विषय की शंका दूर कर दें।' परंतु जब इस विषय में आप को कोई पूछने वाला नहीं मिला तब आपने स्वयं पं. भक्तिसोमजी के पास यह चर्चा छेडी कि क्या अंजनशलाका करने के अधिकारी के विषयमें भी आप को कुछ शंका है ? / इस पर यतिजीने कहा-हां लोगों की बातें सुनने से मैं इस विषयमें संशयग्रस्त हूं और आप से पूछना चाहता था परंतु पूछने का साहस नहीं हुआ, आज आपही ने प्रसंग छेडा है तब मैं भी आप से इस विषय का खुलासा चाहता हूं कि जो यह बात कही जाती है कि आचार्य के विना अंजनशलाका हो नहीं सकती सो इस मैं कुछ शास्त्र का आधार भी है या केवल दन्तकथा मात्र है ? / इस प्रश्न के उत्तरमें आपने फरमाया कि इस कथन में कुछ भी सत्यता नहीं है कि 'आचार्य के सिवा दूसरा कोई अंजनशलाका कर नहीं सकता।' प्रमाण देते हुए आपने कहा-आचारदिनकर ग्रन्थान्तर्गत अंजनशलाका-प्रतिष्ठाविधि में 1 आचार्य, 2 उपाध्याय, 3 साधु, 4 जैन ब्राह्मण और 5 क्षुल्लक ये पांच अंजनशलाकाप्रतिष्ठा करने के अधिकारी बताये हैं।' 1 आचार्यः पाठकैश्चैव, साधुभिनिसक्रियैः / जैनविप्रैः क्षुल्लकैश्च, प्रतिष्ठा क्रियतेऽर्हतः // " (आचारदिनकर) Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध - आगे आपने फर्माया कि 'आचार्य विना प्रतिष्ठा नहीं हो सकती' यह मान्यता खरतरगच्छवालों की होना संभव है, क्योंकि तपागच्छीय उपाध्याय धर्मसागरजीने 'औष्ट्रिकमतोसूत्रदीपिका' नामक अपने ग्रन्थमें खरतरगच्छ की मान्यताओं का खण्डन करते हुए लिखा है कि 'आचार्य विना प्रतिष्ठा का निषेध करना न्यूनप्ररूपणात्मक मिथ्यात्व है।' इस के समर्थन में वे कहते हैं ' यह कथन प्रतिष्ठाकल्पादिग्रन्थों से विरुद्ध है। क्योंकि वहां उपाध्याय आदिको भी प्रतिष्ठा-अंजनशलाका करने की आज्ञा दी गई है, और श्रीशत्रुजय माहा. त्म्यमें सामान्य साधु भी प्रतिष्ठा-अंजनशलाका कर सकता है ऐसा प्रतिपादन है।'' 8 अंजनशलाका ही प्रतिष्ठा है आज काल मारवाड में एक रूढि सी हो गई है कि पुरानी मूर्तियां मन्दिरजी में स्थापन करने के विधिविधान को तो प्रतिष्ठा कहते हैं और नवीन मूर्तियों पर संस्कार कर पूज नीय बनाने के विधान को 'अञ्जनशलाका / ' परन्तु असल 1 "आचार्य विना प्रतिष्टानिषेधः प्रतिष्ठाकल्पादिना विरुद्धः / तत्रोपाध्यायादीनामन्यनुज्ञातत्वात् / श्रीशचुंजयमाहा. त्म्ये सामान्यसाधुरपि प्रतिष्ठाकर्तेति / " . . .. (औट्रिकमतोत्सूत्रदीपिका पत्र 5) Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 391 बात तो यह है कि जिससे नयी मूर्तियां पूजनीय बनती हैं उसी विधान का नाम 'प्रतिष्ठा' है, और प्राचीन मूर्तियों को मन्दिर में पधराने और स्थापन करने के विधान का नाम 'बिंबप्रवेशविधि', यही कारण है कि नवीनबिंबों को अञ्जनशलाकापूर्वक पूजनीय करने के विधान करने वाले ग्रन्थों का नाम 'प्रतिष्ठाकल्प' पड़ा और प्राचीनबिंबों को स्थापन करने संबन्धी विधि के ग्रन्थ 'बिंबप्रवेशविधि' इस नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। 9 कार्यारंभ-नोकारसियों के चढावे लोगों के मन की शंकाओ का समाधान करने के बाद महाराजसाहब ने संघ को धर्मशाला में इकट्ठा होने की सूचना की और संघ इकट्ठा हुआ, तब आपने फर्माया कि 'आज का दिन श्रेष्ठ है, इस वास्ते काम की शुरुआत आज ही हो जानी चाहिये / गोधूलिक का समय अच्छा है, उस समय जाजम विछा कर चढावा बोलना शुरू करना चाहिये / ' महाराजसाहब की आज्ञा संघ ने मस्तक पर चढाई और कहे हुए समय में जाजम का मुहूर्त किया और अञ्जनशलाका के दस दिन और शान्तिस्नात्र का एक दिन मिलकर कुल 11 दिन की ग्यारह नोकारसियों के चढावे बोले गये जो नीचे लिखे जाते हैं। 3001) अक्षरे रुपया तीन हजार एक का चढावा सं० 1991 द्वितीय वैशाख वदि 11 की नोकारसी का Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 श्री गोलनगरीय पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध मुंहता छोगालालजी मुलताणमलजी कपूरचन्दजी के बेटों पोतों की तरफ से हुआ। 2201) अक्षरे रुपया बाईस सौ एक का चढावा द्वितीय वैशाख वदि 12 की नोकारसी का सा० साहेब चन्दजी कुनणमलजी की तरफ से हुआ। 2201) अक्षरे रुपया बाईस सौ एक का चढावा द्वितीय वैशाख वदि 13 की नोकारसी का सा० चुनीलाल जी कस्तूरजी की तरफ से हुआ। . 2501) अक्षरे रुपया पच्चीस सौ एक का चढावा द्वि० वै० वदि 14 की नोकारसी का मुंहता चुनीलालजी ओकचन्दजी फुसाजी के बेटों पोतों की तरफ से हुआ। . 2501) अक्षरे रुपया पच्चीस सौ एक का चढावा द्वि० वै० वदि०)) की नोकारसी का मुंहता जेसाजी धुडाजी की तरफ से हुआ / 2401) अक्षरे रुपया चोईस सौ एक का चढावा द्वि० वै० शुदि 1 की नोकारसी का सा० गणेशमलजी हरकचन्दजी भीमराज सुरताजी के बेटों पोतों की तरफ से हुआ। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 393 - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 2301) अक्षरे रुपया तेईस सौ एक का चढावा द्वि० वै० शुदि 2 की नोकारसी का सा० कालुजी माणकजी की तरफ से हुआ। 3501) अक्षरे रुपया पेंतीस सौ एक का चढाया द्वि० वै० शुदि 3 की नोकारसी का सा० भेराजी राजमल गणेशमल की तरफ से हुआ। 4001) अक्षरे रुपया चार हजार एक का चढावा द्वि० वै० शुदि 4 की नोकारसी का मुंहता फोजमलजी हजारी मलजी की तरफ से हुआ। 13001) अक्षरे रुपया तेरह हजार एक का चढावा द्वि० वै० शुदि 5 अञ्जनशलाका की नोकारसी का सा० दीपचन्दजी सागरमल सदाजी की तरफ से हुआ। 5001) अक्षरे रुपया पांच हजार एक का चढावा द्वि० वै० शुदि 6 की नोकारसी का मुंहता भलेचन्दजी पुकराजजी की तरफ से हुआ। ऊपर मुजब ग्यारह नोकारसियों के चढावों की कुलं रकम 42611) अक्षरे बयालीस हमार छ: सौ और ग्यारह रुपया हो गई जिससे सकल संघ को अतीव हर्ष प्राप्त हुआ, इतमा Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध चढावा एक ही जाजम पर होना यह उक्त महाराजश्रीका अतिशय और उस दिन के पुष्याकयोग का प्रबल प्रभाव समझा गया। 10 कुंकुम पत्रिका ___ नौकारसियाँ निश्चित हो जाने के बाद महाराजसाहब के द्वारा क्रियाविधान के दिन मुकरर होकर आपही के तत्वावधान में श्री सकल जैन संघ को निमन्त्रित करने के लिये कुंकुमपत्रिका का मसोदा तैयार हो गया जो अक्षरशः नीचे मुजब है। // श्रीजिनाय नमः // // अनन्तलब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने नमः // अब // परमसुविहितशिरोमणितपागच्छाचार्य श्री 1008 श्री विजयसिद्धिसूरी श्वरपरमगुरुभ्यो नमः // Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 395 श्रीपार्श्वनाथंजिन अंजनशलाका-प्रतिष्ठामहोत्सव श्री गोलनगरे श्रीगोलनाम्नि नगरे, जयति जिनो नाभिराजकुलतिलकः / यो मङ्गलमयमूर्ति-वृषभ इति प्रोच्यते विबुधैः // 1 // चैत्ये नवे युगलभूमिवरे द्वितीय, ऽपूर्वोत्सवेन विधिना च प्रतिष्ठयमानः / नानाभिधानविदितोर्जितसत्प्रभावः, पार्थो ददातु भविनां हृदयेप्सितानि // 2 // आनन्दाद्वयपूर्णमङ्गलघटं मार्तण्डमुख्यग्रहैः, संसेव्यं दिगधीशदेवनिकरैराराधितांहिद्वयम् / संघोल्लाससमुद्रशीतकिरणं सत्यप्रतिष्ठास्पदं, लोकालोकविदं सुशान्तिनिलयं वन्दे जिनाधीश्वरम् // 3 // गच्छे श्रीविजयादिसिद्धिसुगुरोः प्राप्तः प्रतिष्ठां परां, सच्चारित्रिसमाजलब्धसुयशा वैदुष्यमुख्यैर्गुणैः / कल्याणो विजयान्तशब्दविदितः सौभाग्यनामेत्यमू, भूयास्तां मुनिसत्तमौ सकुशलौ भव्यात्मचेतोमुदे // 4 // Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध गोलनगर रलियामणो, नदी सूखडी तीर / विविधवृक्ष सोहे जिहां, अमृतमीठां नीर॥१॥ पार्श्वनाथ आदि बहु, जिनवरबिंब सनूर / अञ्जनशलाका कारणे, प्रगुणित गुण भरपूर // 2 // तत्कारण उत्सव तणी, रचना माधव मास / अवधारी अम वीनति, संघ पधारो खास // 3 // स्वस्ति श्री पार्श्वजिनं प्रणम्य तत्र श्री....'नगरे महाशुभस्थाने विराजमान पंचपरमेष्ठिमहामन्त्रस्मारक देवगुरुभक्तिकारक सम्यक्त्वमूलद्वादशव्रतधारी जिनशासनशोभाकारी चतुरसुजान परमबुद्धिनिधान इत्यादि अनेकशुभोपमालंकृत परमपूज्य श्रीसकलसंघसमस्त योग्य.................... ...............एतान् श्रीगोलनगरसे लि० संघसमस्त का श्री जयजिनेन्द्र वांचना जी। यहां पर श्री देवगुरु के प्रतापसे आनन्द मङ्गल वर्त रहा है, आप साहिबों का सदा आनन्द मङ्गल चाहते हैं / विशेष नम्र विनति यह है कि हमारे यहां पर श्रीदेवगुरु और आप श्री संघ के प्रताप से द्विभूमिक शिखरबन्ध जिनमंदिर बन कर तैयार हुआ है जिस में विराजमान करने के लिये श्रीपार्श्वनाथ आदि अनेक जिनबिंबों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा और भगवत्स्थापना का शुभ मुहूर्त मुनिमहाराज श्री 1008 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 397 . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह श्रीकल्याणविजयजी के सदुपदेश से विक्रमसंवत् 1991 (मारवाड की गणना मुजब 1990) के द्वितीयवैशाख शुदि 5 वार शुक्र ता० 18 मई ईसवी सन् 1934 के दिन करना निश्चित किया है / यह अंजनशलाका-प्रतिष्ठा परमपूज्य प्रातः स्मरणीय सुविहितसूरिशिरोमणि तपागच्छाचार्य श्री१००८ श्रीविजयसिद्धिसूरीश्वरजी महाराज की आज्ञानुसार उन्ही के सूरिमंत्रोपमंत्रितवासक्षेप से पुरातत्ववेत्ता मुनिश्रीकल्याणविजयजी तथा मुनि सौभाग्यविजयजी के शुभहस्त से होगी और इसका क्रियाविधान महाराज साहिब की आज्ञानुसार गुरां साहिब श्रीभक्तिसोमजी करावेंगे। इस महोत्सवसंबन्धी शुभकार्य करने के लिये नीचे - मुजब दिन मुकरर किये गये है (1) वैशाख वदि 11 बुध-जलयात्रा का वरघोडा, वेदि. कापूजन, मंडपमें प्रतिमास्थापन, तथा कुंभस्थापन होगा और चंदा मुंहता छोगालाल मुलतानमल धींगडमल बेटा पोता कपुरचंदजी की तरफ से नवपदजी की पूजा तथा नोकारसी होगी। (2) वदि 12 गुरु-नंद्यावर्त तथा अष्टमंगल पूजन-स्थापन होगा और सा० साहेबचंद, कुनणमल, रिखबदास, हमीरमल मुनीलाल गेवरचंद, रूपराज, विजेराज, बेटा पोता ताराचंदजी की तरफ से नंदीश्वरद्वीप की पूजा तथा नोकारसी होगी Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध .. (3) वदि 13 शुक्र-दश दिक्पाल तथा नवग्रह का पूजन स्थापन होगा और लुणिया मुंहता जुहारमल, चुनीलाल, धर्मचंद, वीरमचंद, नेणमल, गेवरचंद, रिखबचंद, बेटा पोता पीथाजी की तरफ से अष्टप्रकारी पूजा तथा नोकारसी होगी। __(4) वदि 14 शनि-सिद्धचक्र का पूजन होगा और कागरेसा सा० चूनीलाल, अखेराज, गणेशमल, बेटा पोता फूसाजी की तरफ से नवपदजी की पूजा तथा नोकारसी होगी। (5) वदि 30 रवि-चीसस्थानक का पूजन होगा और बंदा मुंहता जसराज, जीतमल, बेटा पोता धृडाजी की तरफ से वीसस्थानक की पूजा तथा नोकारसी होगी। . (6) वैशाख शुदि 1 सोम-च्यवनकल्याणकमहोत्सव होगा और भणशाली मुंहता गणेशमल, हरखचंद, भीमराज, जोइतमल, गेवरचंद, मीठालाल, रूपराज, भूरमल, बेटा पोता सुरताजी की तरफ से बारह व्रत की पूजा तथा नोकारसी होगी। (7) शुदि 2 मंगल-जन्मकल्याणकमहोत्सव होगा और आफणा सा० रामाजी, कालुराम माणकजी की तरफ से ज्ञानावरणीय कर्म की पूजा तथा नोकारसी होगी। . ... (8) शुदि 3 बुध-प्रतिमा, दंड, कलश आदि के अष्टादश अभिषेक होंगे और भणशाली मुंहता भेराजी, राजमल, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह हरखचंद, मांगीलाल बेटा पोता किसानजी की तरफ से निनाणु प्रकार की पूजा तथा नोकारसी होगी। (9) शुदि 4 गुरु-दीक्षा कल्याणकमहोत्सव तथा अधिवासना विधान होगा और बंदा मुंहता फोजमल, जुहारमल, हंजारीमल, कुनणमल, देवराज, शुकराज, नथमल, रिखबचंद, हस्तीमल, बेटा पोता केरींगजी की तरफ से अंतरायकर्म की पूजा तथा नोकारसी होगी। ___ (10) शुदि 5 शुक्र-केवलज्ञानकल्याणकविधिपूर्वक शुभलग्न-नवांशक में जिनबिंबों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा होगी सिद्धिकल्याणकविधि होगी और शुभलग्न-नवांशक में श्री पार्श्वनाथ आदि 7 जिन भगवान नवीनप्रासाद में तथा पमप्रभ आदि 2 जिन भगवान प्राचीनचैत्य में तख्तनशीन किये जायंगे और अधिष्ठायक यक्ष यक्षिणी यथास्थान प्रतिष्ठित किये जायंगे, दोनों जिनमंदिरों पर सुवर्णकलश ध्वजा दंड आरोपण होंगे और भणशाली सा० दीपचंद, सागरमल, हस्तीमल, वस्तीचंद वेटा पोता सदाजी की तरफ से सतरह भेदी पूजा तथा बडी नोकारसी होगी। (11) शुदि 6 शनि-प्रातःसमय द्वारोद्घाटन विधि होगी और भणशाली मुंहता जोधाजी, भलेचंद, पुखराज बेटा पोता गुलबाजी की तरफ से बृहत्शांतिस्नात्र पूजा और नोकारसी होगी। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 श्री गोलनगरीय पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध होनेवाले महोत्सव की रूपरेखा मनोहर और विशाल प्रतिष्ठामंडप में महातीर्थ श्रीशत्रुजय और गिरनारगिरि की सुंदर रचना के उपरांत समवसरण की रचना होगी, पूजा पढाने के लिये प्रसिद्ध गये और भक्तिभावना के लिये जैनगायनमंडली आयगी, उत्सव के दिनों में हमेशा नयी नयी अंगियां और रोशनी होगी, सोना चांदी के रथ, पालखी, हाथी, घोडे और अंग्रेजी बेंड आदि सामग्री के साथ नित्य वरघोडे निकलेंगे, टकारखाना और किटसन लाइट आदि साधन भी महोत्सव की शोभा में वृद्धि करेंगे। .... इस महामांगलिक धार्मिक कार्यप्रसंग पर आप श्रीसंघ अपने अपने मित्रमंडल और कुटुंब परिवार सहित पधारने की अवश्य कृपा करेंगे, क्योंकि श्रीसंघ के पधारने से श्री जिनशासन की विशेष उन्नति होगी, यही अर्ज / . वीर संवत् 2460, विक्रम संवत् 1990 का प्रथम वैशाख वदि 11, ता. 10-4 ईसवीसन् 1934 . . .. श्रीसकलसंघ-गोल की तरफ से सा० दीपचंद सदाजी का जयजिनेंद्र पांचना जी। नोट-रेलमार्ग से गोल आने बालों को विसनगढ़ और बाकरारोड उतरना चाहिये, दोनों स्थानों से गोल 5 कोस के फासले पर है / मोटर, बैलगाडी, ऊंट विगैरह वाहन मिलते हैं। एरनपुरा रोड से आने वाले मोटर से आ सकते हैं। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 401 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 11 पंदरह सौ कुंकुमपत्रियाँ लिखीं अहमदाबाद से कुंकुमपत्रियां समितिने रेल्वे पार्सल कर पहले ही भेज दी थी, इस कारण गोल के संघने धर्मशालामें एकत्र हो प्रथम वैशाख वदि 11 के दिन कुंकुमपत्रियां लिखना शुरू किया और गांवों नगरों और व्यक्तियों के नाम से करीब 1500 कुंकुमपत्रियां लिखीं और आदमियों की मारफत तथा डाकद्वारा सर्वजगह पहुंचायी गयीं। 12 कामों का बंटवारा यों तो गांव के 8 पंच इस प्रतिष्ठासंबन्धी काम के लिये मुकरर थे ही तथापि सुगमता के लीये भिन्न भिन्न समितियों में इस काम का बंटवारा कर दिया गया था। (1) सामान-समिति- . कुंकुमपत्री का मसोदा पूर्ण होने पर संघ इकट्ठा कर वह सुनाया गया और सब को पसंद आने से उस की पक्की प्रेस कोपी की गयी। ___ अंजनशलाकामहोत्सव के विधिविधान में, शान्तिस्ना. प्रमें और प्रतिष्ठामंडप के लिये जिन जिन चीज सामानों की जरूरत थी महाराजसाहबने उन के लिस्ट बनाकर अहमदावाद Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध जानेवाली सामानसमिति के सुपुर्द किये / कुंकुमपत्री छपवाना और मंदिरजी के कलशों पर सोना चढवाना आदि काम भी इसी समिति के हवाले किये गये / चैत्र शुदि 15 मा के दिन यह 4 सभ्यों की समिति अहमदाबाद के लिये रवाना हुई और 10 दिन के अंदर अपना कार्य समाप्त कर वापस आ गयी। (2) प्रतिष्ठामंडप-समिति- . . प्रतिष्ठामंडप के काम पर देख भाल रखने और उस के उपयुक्त सामान जुडाने के लिये भी एक 4 सभ्यों की समिति कायम की गयी थी। कणी, यांस, पाटिये आदि लकडी का सामान, टीन के पतरे, पट्टियां, कील आदि लोह का सामान और रंगीन तथा सादा कपडा, रंग-रोगान मंगवा कर हाजिर करना और मंडप पनाने वाले कारीगर मजदूरों पर निगरानी रखना आदि तमाम काम इस समिति के हवाले किये हुए थे। (3) खाद्यसामग्री-समिति नोकारसियों के लिये जरूरी स्वदेशी चीनी-खांड, गुड, ताजा तैयार किया हुआ स्वदेशी मैदा, चावल, दाल, चणा, Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 403 चवला, अमचूर, कोकम आदि खाद्यसामग्री एकत्र करने के लिये दो मेम्बरों की एक समिति नियत की थी जिसने बरेली से देशी चीनी, भटिण्डा से ताजा मेदा, ब्यावर से गुड और अन्यान्यस्थानों से अन्य चीजें एकत्र की। (4) भोजनमण्डप-समिति भोजनमण्डप (परठा) के लिये गांव से सटा हुआ एक रहट का जाव ( अरहट की भूमि ) पसंद किया गया था, क्योंकि वह नजदीक भी था और जल तथा छाया का भी यहां सुख था। - इस काम के लिये 4 सभ्यों की एक समिति मुकरर थी जिसने सब से पहले रहट पर जल की कुण्डी ( टांकी) बंधा कर वहां से रसोईघर तक एक बन्द नीक पक्की बंधा दी। नीक के मुंहाने पर एक बड़ा टांका (होद ) बंधा लिया ताकि नीक द्वारा लाया गया जल सीधा टांका में ही गिरे / टांका के पास कोठियां रख कर छान कर कोठिओं में भरने और कोठिओं से बाल्टियों द्वारा मिट्टी के मटके भर कर परठे में जगह जगह रखने और उनमें से बाल्टियों में ले गिलासों से सर्वत्र पहुंचाने की व्यवस्था ध्यान में रख कर उपर्युक्त जल की व्यवस्था की गयी। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध जल के टांके (होद) के पास कुछ फासले पर रसोई के लिये छोटी बडी करीब 20 भट्टियां खोदा कर उन पर चांदनी बंधाई गयी / इसी रसोई स्थान के निकट एक बडा होल बना दिया था जहां पर रसोई के बर्तन, थालियां, रसोई का अन्यान्य सामान और तैयार हुई रसोई लापसी, सीरा वगैरह रखने के लिये बडे 2 कडावे रक्खे गये थे। . ___ इस होल के पिछले भाग में एक बडा नौहरा खोलाया गया था जिसमें घी, गुड, चावल मेदा, चीनी, गेहूं का दलिया वगैरह सामान रखा गया था। जहां जल का टांका बांधा गया था वहां एक बड़ा भारी बड का दख्त था जिसकी छाया टांके के ऊपर और आस पास दूर दूर तक पहुंचती थी, परन्तु यह छाया भी सब के लिये पर्याप्त नहीं थी इस कारण उसके सामने करीब 30000 तीस हजार घनफूट जमीन पर साइबानों, चांदनियों और खादियों से छाया की गयी थी। इसके उपरान्त इस जगह से कुछ ही दूर उसी खेत में अन्य वर्ण के लोगों के जीमने बैठने के लिये जमीन ठीक करायी गयी थी। (5) घृत-समिति. ओडर से अगर वगैर ओर्डर से आने वाले धी के व्यापारियों से परीक्षापूर्वक घी खरीदने, उसको गर्म कर छानने और डिब्बों में बन्द कर गोदाम में रखने का कार्य इस घृतसमिति Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 405 के सुपुर्द था / इसके 4 सभ्य थे और घृतसंबन्धी कुल कार्य इनके स्वाधीन किया गया था। इस समिति ने करीब 700 मन ( बङ्गाली 80 रुपया भर के पक्के मन के हिसाब से 311 मन से कुछ अधिक घृत खरीदा और गर्म कर छान कर पीपों में भर रसोइ के गोदाम में रख दिया। (6) मसाला-समिति प्रतिष्ठा के मौके पर शाक तरकारियों में डालने के लिये मिर्च, हल्दी, धनियां, जीरा, नमक आदि जरूरी मसाले कुटवा पिसवा कर तैयार करने के लिये भी दो सभ्यों की एक समिति नियत की गयी थी, जिसने पक्की 10 मन मिर्च और इसके अनुसार ही जरूरी मसाला कुटवा पिसवा के तैयार करवाया। (7) घास चारा-समिति- . प्रतिष्ठा पर आने वाली बैलगाडियों के बैलों, घोडों, ऊटों और हाथियों के लिये जरूरी घास चारा इकट्ठा करने के लिये भी दो सभ्यों की एक समिति नियत की गयी थी। कुछ तो घास पञ्चों ने पहले खरीद लिया था तो भी वह कम मालूम होने से फिर घास खरीद कर करीब 500 सौ गाडियां घास और 1000 मन गुवारतरी (गुवार की भूसी ) और इससे Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध भी अधिक प्रमाण में गेहूं का पुलाव ( खाकला ) खरीद कर एकत्र किया था। (8) वरघोडासाज-समिति - वरघोडे का साज-सामग्री इकट्ठी करने के लिये भी 4 सभ्यों की एक समिति नियत की गयी थी / इस समिति ने उदयपुर जाकर पण्डित सुखदेवप्रसाद जी के पास उदयपुर के हाथियों की मांगनी की, परन्तु गैररियासत का मामला बता कर पण्डित साहब ने हाथियों के भेजने में कठिनायी बतायी, इससे समिति के सभ्यों ने एक हाथी घानेराव ठिकाने से और एक हाथी खेरवा ठिकाने से लाना वहां जाकर तय किया / उसी दौरे में जोधपुर जाकर वहां का बेंड बाजा मंगवाना निश्चित किया। इसके अतिरिक्त आहोर से सोना चांदी के रथ पालकी आदि और अन्य स्थानों से अन्यान्यसामान लाना निश्चित कर दिया / (9) मन्दिर कमठा-समिति उस समय दोनों मन्दिर जी के रिपेर काम और जरूरी कार्य पूरा करने के लिए कमठा चल रहा था। करीब 25 कारीगर और 50 मजदूर हमेशा काम कर रहे थे, इन सब पर निगरानी रखने, जरूरी सामान तैयार रखने, हाजरी पास Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह देने लेने और पगार चुकवाने का कार्य इस समिति के सुपुर्द था। . (10) प्रकीर्णप्रबन्धक - ऊपर लिखे मुजब भिन्न भिन्न कार्य भिन्न भिन्न समितियों में बांट दिये गये थे फिर भी छोटे बडे अनेक कार्य थे, जैसे पुलिस पार्टी का इन्तजाम, चौकी पहरे का बन्दोबस्त, स्वयंसेवक मण्डलों के बुलाने का प्रबन्ध, इलेक्टरी और गैस की दीवा बत्तियों के मंगवाने का बन्दोबस्त, नगर में योग्यस्थानों में और प्रवेशमार्गों पर दरवाजे खडे करवाना आदि / ये सब कार्य पञ्चोंने और अन्यान्य सजनों ने किये / 13 प्रतिष्ठामण्डप सब समितियों में भोजनमण्डप-समिति और प्रतिष्ठामण्डप-समिति का कार्य सबसे अधिक जवाबदारी का था। सारे उत्सव का मुख ये दो ही कार्य थे जो उक्त समितियों के सुपुर्द थे / भोजनमण्डप-समिति के कार्य की रूपरेखा ऊपर दी जा चुकी है / अब हम प्रतिष्ठामण्डप का दिग्दर्शन करायेंगे। - प्रतिष्ठामण्डपसम्बन्धी सबसे टेढा मामला उसके योग्य जमीन की पसन्दगी का था। गांव वालों के इसमें तीन मत Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध थे / अधिक भाग की इच्छा प्राचीन मन्दिर के पास गुरां साहब भक्तिसोमजी के नौहरे में यह मण्डप बनवाने की थी। कितनेक श्रावक कहते थे कि यहां जमीन कम है, भोजन मण्डप के निकट उत्तरी दरवाजे के बाहर मण्डप बनवाना अच्छा है, तब कतिपय सजनों की इच्छा महन्त साहब के मठ में मण्डप बनवाने की थी। आखिर यह सवाल महाराज साहब पर छोडा गया / आपने तीनों स्थानों को नजर में निकाला और मठ के बाहर का बाड़ा और उसके सामने वाली जमीन पसन्द की / यहां के मठपति महन्त श्री अजितभा. रतीजी बड़े ही गुणी और मिलनसार सञ्जन हैं। आप शैवधर्म के आचार्य होते हुए भी जैनधर्म के प्रशंसक और संघ के प्रति सद्भाव रखने वाले विद्वान् संन्यासी हैं / प्रतिष्ठा कराना निश्चित हुआ तभी से आपने यहां के संघ को अपनी तरफ से सभी तरह की मदद देने की सहानुभूति दर्शित की थी। महाराज साहब की पसन्दगी की जमीन पर प्रतिष्ठा मण्डप बनवाने के लिये आप की तरफ से तुरन्त आज्ञा मिल गयी / पूर्व तरफ की बाडे की भींत तुडवा कर जमीन बाहर के मैदान के साथ मिला दी गयी / वहां से कूडा कर्कट दूर करवा दिया गया। ऊपर ऊपर की मुर्दा धूली खुदवा कर बाहर फेंकवा दी गयी और उस जमीन पर सेंकडो गाडी ताजी शुद्ध मिट्टी और नदी की चालू डलवा कर मण्डप भूमि का तल भाग ऊंचा लिया गया। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __.. श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 402 महाराज साहब की सलाह मुजब मण्डप का प्लान बनाया गया था और उसी मुजब शुभमुहूर्त में मण्डप स्तम्भारोपण कर कार्य आगे चलाया गया, और करीब एक महीने के अन्दर देवविमान तुल्य सुन्दर भण्डप बन कर तैयार हो गया। मण्डप के नीचे करीब 3268 बत्तीस सौ अडसठ घनफूट जमीन थी। मण्डप तीन भागों में बंटा हुआ था। सबसे पिछले भाग में बायी तरफ शत्रुजय तीर्थ, दाहिनी तरफ गिरनार और मध्यभाग में तीन गढयुक्त समवसरण की रचना की गयी थी। ये तीर्थ इतने तादृश बने थे कि मानों साक्षात् अपने मूलरूप में ही आकर खडे हो गये हों / एक एक टोंक, एक एक देवल और एक एक गढ किले का आकार इस ढङ्ग से बना था कि जानकार प्रेक्षक देखते ही कह देते थे कि यह शत्रुजय है और वह गिरनार / . - पहाडों पर चढने के मार्ग, वृक्षलताओं के दृश्य, जंगली जानवरों के हूबहू चेहरे, बहते हुए झरनों और नदियों के दृश्य, जलकुंड और चलते हुए फुवारे देखने वालों को आश्चर्य चकित और आनंद मग्न बना देते थे। . मंडप के मध्यभाग में करीब 665 घनफूट भूमिभाग पर नवीन मूर्तियां स्थापित करने और उन का विधि विधान करने के लिये वेदिकायें बनी थीं। यह मध्यवेदिकामण्डप Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध मिहराबदार 12 दरवाजों से सुशोभित था / इस के चारों ओर 7-7 फूट चौडी परिक्रमा रक्खी गयी थी। - वेदिका मंडप और पंच पोलिया के बीच सिंहासन पर प्रतिष्ठित प्रतिमा स्थापन करने का स्थान और पंचपोलिया के सामने बाहर के भाग में करीब 1426 घनफूट जमीन पर आलीशान सभामण्डप बना था। जहां पर गवैये पूजा पढाते, गायनमंडली गाती नाचतीं और दर्शकगण जिनभक्तिरसामृत का पान करते थे। __मंडप के तीनों भागों में कुल मिलाकर 23 बंगडीदार मिहराब वाले दरवाजे थे और 8 सादे / सारा मंडप ऊपर से सादे और नीचे से विविध रंगदार वस्त्रों से सजाया गया था। छोटे बडे कांच के तख्तों, हांडियों, गोलों, झुमर, मीना. कारी पट्टियों और रंगीन पुष्पमालाओं से मंडप देवविमान की तरह जगमगा रहा था / भीतर जाते ही प्रेक्षकों की आंखे चाँधिया जातीं और चित्त प्रसन्न हो जाते थे। प्रतिष्ठामंडप के सामने एक छायादार मैदान लगा हुआ था, जहां बड, नीम, इमली आदि के बडे बडे वृक्ष लहरा रहे थे मानों कुदरत ने ही यात्रिकों के लिये घनी छाया कर रक्खी थी / करीब 10000 दश हजार मनुष्य. -इस छाया में सुखपूर्वक बैठ सकते थे / मैदान के पूर्व भाग में एक मीठे Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 411 ... श्रीजनज्ञान-गुणसंग्रह पानी की बाव थी और उत्तरभाग में गोल का प्रसिद्ध मठ, उसका बाग और कुंआ। इन सब कारणों से प्रतिष्ठामण्डप और उसके आस पास का दृश्य अतिशय मनोहर लगता था और दिन रात वहां मनुष्यों की भीड लगी रहती थी। 14 समितियों की पुना युक्ति भिन्न भिन्न कार्य भिन्न भिन्न समितियों के सुपुर्द करने की बात हम ऊपर लिख आए हैं / उन कामों में से बहुत से काम प्रतिष्ठा के पहले करने के थे, अत एव वे कार्य प्रतिष्ठा के पहले ही समाप्त करके समितियों निवृत्त हो चुकी थीं / इधर महोत्सव निकट आने पर बहुत से अन्य कार्य उपस्थित हुए थे, इसलिए उन निवृत्त समितियों के सभ्यों से नयी समितियों नियुक्त की गयीं। (1) मुकाम-डेरा-समिति- इस समिति में 4 सभ्य थे। आगन्तुक महमानों के उहरने के लिये महाजनों और अन्य लोगों के मकानात खोल. वाना, उनको झडवा झुडवा के ठीक करना और आने वाले महमानों का वहां मुकाम करवाना इत्यादि इस समिति का कार्य था / Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध (2) मार्गसफाई-समिति इस समिति में दो सभ्य थे / गांव भरके मार्गों को ठीक ठाक कराना, मार्ग में पडे हुए पत्थर, लकडी, सामान को उठवा कर मार्ग खुला करवाना, पडे हुए कूडे करकट दूर फेंकवा कर मार्ग की सफाई करवाना और उत्सव दर्मियान दोनों टाइम वहां पानी छिडकवाना इस समिति का कार्य था। (3) जलप्रबन्ध-समिति इस समिति में 4 सभ्य थे। जहां जहां महमान ठहरे हों उन तमाम घरों में जल भराना, मार्ग में जगह जगह छाया करवाके जल के प्याउ विठवाना, जल की कहीं कमी तो नहीं है इत्यादि बातों पर ध्यान रखना इस समिति का मुख्य कार्य था / (4) मंगलघर-समिति ... इस समिति में 4 सभ्य थे / प्रतिष्ठा के विधि-विधान में उपयोगी फल, मेवा, पूजासामग्री आदि चीजों को संभाल कर मङ्गलघर में रखना और जरूरी समय पर निकाल कर देना, औषधियां मंगवा कर एकत्र करना और समय पर हाजर करना इस समिति का कर्तव्य था। . Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान गुणसंग्रह 413 (5) पास-प्रदान-समिति___ इस समिति में दो सभ्य थे / ठंडाई के मसाले, गर्म चाह घृत, दूध, गुड, शक्कर, आटा, दाल, चावल, मसाला आदि कुल भोजन सामग्री और घास, गुवारतरी, पुलाव आदि चारे का पास काट देना इस समिति का काम था / (6) सीधासामान-समिति___ इस समिति में भी दो सभ्य थे। आटा, दाल, घी, गुड, शक्कर, ठंडे और गर्म मसाले आदि कुल मोदीखाने का सामान इस समिति के हवाले था। सेवासमितियों, पूजा-भक्तिसमितियों और गुजराती महमानों को ही नहीं बल्कि सर्चसंघ को ही आम तौर से अर्ज कर दी गई थी कि जिनको सार्वजनिक भोजन पसंद न हो वे महाशय यथेष्ट सीधा मंगवा लिया करें / यद्यपि इस समिति का काम चीढीमुजब सीधा देने का था, तथापि इसको हिदायत की गई थी कि जैन यात्रिक के लिए वह चिट्ठी पास के ऊपर ही निर्भर न रहे, इस कारण से बगैर पास के भी जैन यात्रिक को उसकी इच्छामुजब यह सीधा तोल देती थी / (7) चारादान-समिति. इस समिति में दो सभ्य थे। इस समिति का कार्य घास Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 श्री गोलनगरीय पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध की गञ्जी पर निगरानी रखना और पास लेकर आने वालों को नोकरों द्वारा घास चारा दिलवाना था। हाथी, घोडे, बैल, ऊंट, वगैरह को इस समिति के द्वारा ही घास चारा प्राप्त होता था। (8) रसोईघरनिरीक्षण-समिति-.. ___इस समिति में पांच सभ्य थे / रसोई घर की निगरानी, रसोई के लिये जरूरी सामान और बर्तन हाजर रखना, बची खुची रसोई को ठिकाने लगाना, रसोई के लिए इंधन, मजदूर हाजर करना इत्यादि काम इस समिति के सुपुर्द था। (9) विवनिर्मापक- समिति- , ___ इस समिति में दो सभ्य थे / जयपुर जाकर नये जिनबिंब बनवाने का आर्डर देना, बिम्बों की तैयारी के लिये ताकीद देना और तैयार होने पर बिम्ब लेने जाना इस समिति का कार्य था। इस समिति की मार्फत करीब 2500) पच्चीस सौ रुपयों के जिनबिम्ब नये बनवाये गये थे। (10) पूजाभक्ति-समिति--- इस समिति में 4 सभ्य थे / उत्सव के दमियान पूजा पढाने की तैयारी करना, स्नात्रियों को तैयार करना आदि काम इस समिति के सुपुर्द था। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 15 बिम्बों का आगमन गोलनगर के दोनों जिन मन्दिरों के लिए कुल 11 जिन बिम्बों और 4 यक्ष यक्षिणियों की मूर्तियो की जरूरत थी और प्रारम्भ में इनके लिये ही कारीगरों को खास ओर्डर दिये थे / परन्तु बाद में दूसरे भी अनेक गांव नगरो के जैनसंघों की जिनबिम्बों के लिए मांग होने के कारण अधिक बिम्बों के लिए ओर्डर दिये गये थे / बिम्ब तैयार होने की खबर मिलते ही बिम्बनिर्मापक समिति के दो सभ्य उन्हें लेने के लिए जयपुर गये और चिम्बो को रेल्वे पार्सलों में ले आये / कुछ बिम्बों का पालिस होना बाकी होने से दो दिन के बाद उन्हें कारीगर खुद पहुंचाने आये थे। ___ आर्डर के बिम्बों के उपरान्त भी जयपुर से कुछ विम्ब आये थे जो सभी खरीद लिये गये और भिन्न भिन्न गांवों के संघो की प्रार्थना से उनके गांव के नाम के अनुकूल लेख और लांछन खुदवा कर प्रतिष्ठा में रख दिए गये थे। जयपुर के अतिरिक्त सीरोही, मेहसाना, सिनोर (गुजरात), अजमेर, वालेसर आदि दूसरे भी अनेक स्थानों से जैनबिम्ब प्रतिष्ठा अंजनशलाका के लिये आए थे। सिरोही से 25, मेहसाना से १३.पाषाण के चिम्ब आए थे / सिनोर से आये हुए बिम्बों में एक विम्ब स्फटिकरत्न का था। इसके सिवा चांदी की अनेक चौवीसियां, पञ्चतीर्थियां, एकतीर्थयां, सिद्धचक्र, अष्टमङ्गल Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 श्री गोलनगरीय पाश्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध और सर्वधातु के छोटे बडे अनेक जिन बिम्ब भाविक श्रावकसंघाँ की तरफ से नजदीक दूर से आये थे / पाषाण और धातु के मिलकर 200 दो सौ के ऊपर बिम्बसंग्ख्या हो चली थी। - जयपुर से आए हुए सभी बिम्ब प्राचीन शैली के और पक्के श्वेत पाषाण के होने से देखते ही दर्शकों के चित्त प्रसन्न हो जाते थे। 16 स्वयंसेवक मण्डल . प्रतिष्ठामहोत्सव पर एकत्र होने वाले संघ की भक्ति, वरघोडों की व्यवस्था और अन्य कामों की उचित व्यवस्था के लिये स्वयंसेवकमंडलों को बुलाने का महाराज साहबने उपदेश दे कर योग्य सेवामंडलों को आमंत्रित करवाया था जिस से निम्न लिखित 3 सेवामंडलोंने आ कर कुल व्यवस्था अपने ऊपर ले ली थी। (1) श्री आदिजिन सेवा मंडल-तखतगढ़. . सेवा मंडलों में प्रमुख उपर्युक्त तखतगढ का मंडल था। इस में मयवर्दी के 80 स्वयंसेवक (वालंटियर्स) थे। दो सेक्रेटरी, केप्टन, खजानची आदि अधिकारी भी मण्डल के साथ ही थे। ये सभी अपना अपना खास डेस पहिने और सजे हुए थे। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 417 - इस मंडल के लिये गोल के श्रीसंघने 25 बैलगाडियाँ दो दिन पहले ही तखतगढ भेज दी थीं, इस से मंडल द्वितीय वैशाख शुदि 10 के प्रभात समय में ही गोल आ गया और संघ के आग्रह से मयवर्दी और गाने के जुलूस के आकार में नगर में चक्कर लगाया, जिस से नगरनिवासियों पर अपूर्व प्रभाव पडा. और सामान्य जनता तो इस मंडल को पुलिस से भी अधिक समझने लगी। (2) दूसरा मंडल जालोर का "श्री ओसवाल नवयुवक सेवामंडल" था / इस मंडल में कुल 25 स्वयंसेवक थे / यह मंडल वैशाख शुदि 13 को गोल आया और इसने भी प्रथमागत तखतगढ के मंडल के साथ हिलमिल कर संघ की सेवा बजाई। (3) तीसरा मंडल गोल का "श्रीपार्श्वनाथ सेवा मंडल" था। यह मंडल यद्यपि नया था फिर भी पूर्वोक्त मण्डलों के साथ मिल कर इसने भी अपनी सेवा अर्पण की। . 17 मंडलों की कार्यव्यवस्था - इन मंडलोंने उत्सव पर जो सराहनीय कार्यव्यवस्था द्वारा संघसेवा की है उसका संपूर्ण वर्णन करना इस लेखिनी की शक्ति के बाहर की बात है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध . मंडल के सभी सभासद प्रातःकाल 4 // साढे चार बजे उठ जाते और जरूरी कामों से निवृत्त हो 5 // साढे पांच से छः बजे तक प्रतिष्ठामण्डप, दोनों मंदिर और भोजनमंडप विगैरह में चौकी पहरे की डयुटी भरने लगते थे, नौ बजने पर उन की जगह नये वालंटियर आते और वे अपने अपने केम्पों में जाते / जलपान करके फिर वे अपनी अपनी ड्युटी पर चले आते थे / इस प्रकार बारी बारी से सभी वालंटियरों को जुदे जुदे स्थानों पर पहरा भरना पडता और यह क्रम हमेशा रात के 11 बजे तक रहता। प्रातःकाल 7 से 9 तक और दो पहर को 2 // से 4 // तक वरघोडे के चढावे बोले जाते थे, यह भी सर्व कार्य सेवामंडल के अधिकार में था। चढावे पूरे होते ही प्रतिष्ठामंडप के मैदान से दोनों समय वरघोडे चढते और नगर के मुख्य मार्गों में चक्कर काट कर फिर प्रतिष्ठामंडप के निकट आकर विसर्जन होते / वरघोडे विसर्जन होते ही खास खास स्थानों के पहरेदार वालंटियरों को छोड शेष सभी स्वयंसेवक भोजनमंडप में जाते और भोजन की पांत शुरू कराते। सब कामों में सेवामंडलों के लिये यह काम एक कसौटी रूप था / एक साथ हजारों मनुष्यों की पांतें कर जीमने बैठाना और उन को थालियां, गिलास, जीमन, शाक तर्कारियां, चावल, दाल और पानी Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह आदि सब सामान पहुंचाना और वह भी वगैर विलंब के, इन सेवामडलों के सिवा अन्य किसी से नहीं बन सकता। महोत्सव के आखिरी दिनों में जब कि महमानों की संख्या 15000 से 20000 तक पहुंच चुकी थी, इन मंडलों ने जो तत्परता पूर्वक सेवा उठायी, इतनी विशाल जनसंख्या होने पर भी किसी चीज की कमी न आने दी, यह एक चिरस्मरणीय प्रसंग है और विविध प्रान्तों के श्रीसंघ जो वहां पधारे हुए थे इस प्रसंग को कभी नहीं भूलेंगे। 18 वरघोडा (जुलुस) हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं कि दोनों समय वरघोडे. निकलते और उन की व्यवस्था स्वयंसेवक करते, परंतु इतने ही से वरघोडों की वास्तविकता का अंदाजा नहीं हो सकता, इस लिये यहां वरघोडे के संबन्ध में कुछ लिखेंगे। वरघोडा निकलने के समय जनसमुदाय इतना इकट्ठा हो जाता कि देखने वालों को पता तक नहीं चलता कि इस भीड का कहीं छोर भी है या नहीं, इतने पर भी सेवामंडलों की व्यवस्था इतनी उत्तम थी कि किसी को कुछ तकलीफ नहीं होने पाती। वरघोडे में सब से आगे नगारा निशान चलता और अपनी प्रचंड ध्वनि से भीड को हटाता हुआ मार्ग करता जाता। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध . निशानडंके के पीछे चलती हुई विविधवेश-भूषाभूषित घोडेस्वरों की दुकडी प्रेक्षकों का ध्यान अपनी तरफ खींचती। घोडेस्व.रों के पीछे रथ, रेकले, सहजगाडी, सोनाचांदी का रथ आदि की कतार चलती हुई वरघोडे की भव्यता प्रदर्शित करती। रथगाडियों की कतार के पीछे ढोल, थाली, तुरही, आदि देशी बाजा चलता और अपनी ध्वनि से प्रेक्षकों के हृदयों को हर्षमग्न बनाता। देशी बाजे के पीछे अंग्रेजी बैंड बाजे वालों की दुकडी मयवर्दी के चलती। इस के बाद दोनों हाथी अपने अपने साज शणगार के साथ 10-10-12-12 सवारियां लिये मंदगति से चलते हुए वरघोडे की शोभा को बढाते थे। इस के बाद भगवान की पालकी और पुरुषवर्ग ताल, दोलक के साथ भक्तिमय गाने गाता चलता था / पुरुषों के बाद सोना चांदी के मेरु, कल्पवृक्ष, पारणा, सुपन आदि विविध साज उपाडे हुए मधुर गीत गाता- स्त्री मंडल चलता / इस मंडल के चारों तरफ स्वयंसेवक रस्सियों से कोर्डन बना कर बडी मुस्तेदी के साथ चलते थे। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह स्त्रीमंडल के पीछे सामान्य जन गण चलता था। इस प्रकार की व्यवस्था के साथ वरघोडा निकलता तब दर्शकगण की इतनी भीड होती थी कि इधर से उधर जाना मुश्किल हो जाता, फिर भी स्वयंसेवकों की तत्परता से उस में किसी तरह का कष्ट या नुकसान नहीं होने पाता था। . 19 पुलिसपार्टी का इन्तजाम यद्यपि सभी स्थानों में सेवामंडल अपनी तत्परता से चौकी पहरे भरते रहते थे, फिर भी बाहर और खास करके रात्रि के समय पुलिस भी अपनी डयुटी बजाती रहती, पुलिस सुप्रिन्टेंडेंट, पुलिस सबइन्सपेक्टर और कान्स्टेबल मिल कर करीव 35 पुलिसमैन तो स्टेट के और उतने ही चौकी पहरेदार ठिकाने गोल के तथा 10-12 खानगी आदमी मिल कर 10-80 आदमी दिन रात चौकी पहरे का काम करते थे। इस के अतिरिक्त गोल के चारों और मार्गों में भी चौकियाँ बिठा दी थीं, जिस से दिन-रात किसी भी समय कहीं भी आने जाने वालों को चोर लुटेरों का भय न हो। इतना होने पर भी पुलिस के सवार दिन रात गांव में और जंगलों में गस्त लगाते रहते थे / इस उत्तम प्रबन्ध का ही परिणाम था कि सेंकडों गांवों से हजारों मनुष्यों के इकट्ठे होने पर भी कहीं भी लूट खोस या चोरी का नाम तक सुनने में - नहीं आया। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध 20 जागीरदारों की सहानुभूति पुलिसपार्टी के उपरांत उत्सव के दिनो में आस पास के जागीरदार साहबों की भी पूरी सहायता और सहानुभूति थी, वे अपनी अपनी हदमें तो चौकी पहरे का इन्तजाम करते ही थे, परंतु अनेक ठाकुर साहब तो गोल के श्रीसंघ के आमंत्रण को मान दे उत्सव में भाग लेने गोल भी पधार गये थे, जिन में कई ताजिमी ठिकाणों के सोनानवीस थे, इन में बाकरा ठाकुरसाहब की महरबानी विशेष उल्लेखनीय है, आप अपने ठिकाने के करीब सब घोडे लेकर गोल पधारे थे और इन्हीं घोडों से प्रतिष्ठा के वरघोडे की शोभा अधिक बढती थी। 21 स्वदेशी-दवाखाना उत्सव की तैयारी मुजब पहले ही आगाही मिल चुकी थी कि गोल में एक बड़ा भारी मैला होनेवाला है / इस मैले में पधारने वाले महमानों में से किन्ही को कुछ भी शारीरिक तकलीफ हो जाय तो उन की सेवा चिकित्सा के लिये गोल में एक छोटासा स्वदेशी दवाखाना भी खोल दिया था, जिस में जरूरी दवाइयां तैयार रक्खी थीं। इस दवाखाने में डाक्टर श्रीयुत लाभशंकरजी आचार्य बुलाये गये थे जो 'आयुर्वैदिक' और 'एलोपेथिक इन दोनों पद्धतियों के एक अनुभवी चिकित्सक हैं। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 423 देवगुरू की कृपा और श्रीपार्श्वनाथ भगवान् के अतिशय से उत्सव के दिनों में ऋतु इतनी अनुकूल और सुखदायक रही कि उक्त दवाखाने का शोभा बढाने के अतिरिक्त कोई उपयोग नहीं हुआ / यद्यपि दवाखाना जाहिर रास्ते पर था और उस के द्वार पर “स्वदेशी-औषधालय" इस प्रकारका बोर्ड लगा दिया था तथापि उत्सव के दर्मियान किसी के माथा तक नहीं दुखा और दवाखाने की जरूरत ही नहीं पडी। ___22 ऋतु की अनुकूलता गर्मी का समय मारवाड के लिये अतिशय प्रतिकूल ऋतु है / इस मौसम में सख्त ताप और प्रचण्ड आंधियों से मनुष्य प्रायः बेचैन रहा करते हैं, और इस वर्ष तो वर्तमान पत्रों में कई भविष्यवाणियाँ भी छप चुकी थीं कि द्वितीयवैशाखशुदि 6 के दिन बडा भारी भूकम्प और आंधियाँ आने के योग हैं / इन उडती बातों से मनुष्य और भी चौकन्ने हो गये थे कि प्रतिष्ठा के दिनों में क्या होगा और क्या नहीं। द्वितीयवैशाखवदि ७-और 8 मी के दो दिन हवा इतने जोरों की चली कि लोग और भी सशंक हो गये, आ आ कर महाराज से पूछते-'गुरुमहाराज ? अगर इसी प्रकार हवा चलती रही तो संघ कैसे इकट्ठा हो सकेगा?' भोले भाविक मनुष्यों की इस बेचैनी पर महाराज साहब फरमाते-'गभराओ मत, गुरुदेव की कृपा से सब ठीक होगा।' और सचमुच सब ठीक Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध ही हुआ, नवमी से हवा कम होने लगी और दशमी तक बहुत ही कम हो गयी। एकादशी के प्रभानसमय में हवा उस प्रमाण पर आ गयी जितनी कि उस ऋतु के लिये जरूरी थी। इस हवा के चलने से ऋतु में खासा परिवर्तन हो गया। पहले लू और सख्त ताप से जो घबराहट होती थी वह बिल्कुल मिट गयी / वातावरण इतना ठंडा हो गया कि रात के समय अक्सर ओढ कर सोना पडता था और यह ऋतु की अनुकूलता प्रतिष्ठामहोत्सव समाप्त हुआ और संघ अपने अपने स्थान पहुंचा तब तक रही। 23 कार्यों का प्रोग्राम यद्यपि उत्सव में होनेवाले कार्यों का प्रोग्राम पहले ही निश्चित कर के कुंकुमपत्री में छपवा दिया था और हमेशा उसी मुजब कार्य होते रहते थे, फिर भी उन कार्यों के निमित्त जो जो चीज सामग्री जरूरी होती उन की सूचियां बना कर पहले ही दिन महाराज साहब अधिकारी समितियों को सुपुर्द कर देते थे, जिस से योग्य सामग्री पहले ही तैयार करके रख दी जाती थी / इन्द्र इन्द्राणियों का प्रोग्राम भी इन्हीं सूचियों में लिख दिया जाता था। नवीन बिम्बों पर वैशाखशुदि 1 के दिन.से संस्कार होने लगे थे परंतु कुछ मूर्तियां शुदि 2 के शाम को आयी थीं इस Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह कारण लेख लांछन खुदवाने के बाद वे शुदि 3 के दिन विधि में शामिल की गयीं और उसी दिन प्रथम च्यवन और जन्म कल्याणक के संस्कार करके फिर सब पर तीसरे दिन का विधान किया गया था। इस के सिवा सभी कार्य कुंकुमपत्री में लिखे मुजब ही किये गये थे। 24 क्रिया-विधान प्रतिष्ठा-अंजनशलाका संबन्धी जो जो क्रिया--विधान साधु से हो सकता था वह तो महाराज श्रीकल्याणविजयजी तथा मुनिश्रीसौभाग्यविजयजी के ही हाथ से होता था, परन्तु जो कार्य गृहस्थोचित होते वे शेठ नगीनभाई और उन के सहकारियों के हाथ से होते थे। - यद्यपि कुंकुमपत्री में महाराज साहब के हाथ नीचे क्रियाकारक के तौर पर गुरां साहब श्रीभक्तिसोमजी का नाम छपवाया था, परंतु पं० भक्तिसोमजी कई महीनों से बीमार होने से क्रियाविधान करने के लिये छाणी (बड़ोदा) से शेठ नगीन: भाई को बुलाने का प्रबन्ध महाराजसाहब ने पहले ही कर लिया था और नगीनभाई द्वितीयवैशाखशुदि 11 के रोज अपनी सहकारीमंडली के साथ वहां पधार गये थे। चैत्यवं. दन, मंत्रन्यास, मुद्रा, जिनाह्वान, वासक्षेप, नेत्रोन्मीलन आदि जो जो कर्तव्य गुरुमहाराज के करने योग्य होते वे सब Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध महाराजसाहब स्वयं कर लेते थे और बलिखेप, नैवेद्य दौकन, पुष्पांजलि, अंगचर्चा, पूजा आदि जो जो कृत्य श्रावक के करने योग्य होते वे सभी शेठ नगीनभाई और उन के सहकारी करते थे / गुरु और श्राद्ध दोनों क्रियाकारक अपने अपने कार्यों में कुशल होने से विधि-विधान बहुत ही शान्ति और निर्विप्रतापूर्वक हुआ करता था। 25 पूजा-भक्ति . द्वितीय वैशाखवदि 11 के दिन शुभमुहूर्त में प्रतिष्ठामंडप में सिंहासन स्थापित किया गया था और उस में पूर्वप्रतिष्ठित जिनप्रतिमा पधरा कर उसी दिन से कुंकुमपत्री में लिखे मुजब भिन्न भिन्न पूजायें पढा कर भगवान की भक्ति की जाने लगी थी। .. यों तो गोल में तथा बाहर से आये हुए संघ में पूजा पढाने वाले बहुतसे गवैये थे, तथापि पूजाभक्ति को अधिक रोचक बनाने के लिये पूजा पढाने के लिये पालिताणा के प्रसिद्ध गवैये श्रीयुत नंदलालजी बुलाये गये थे। इन गवैयाजी को जिन्होंने पूजा पढाते सुना है वे ही इन के गाने की खूबियाँ जानते हैं। इस रसात्मक विषय का कलम से लिखना असंभव है। जब ये हारमोनियम के साथ पूजाओं की ढालें गाने लगते थे हजारों आदमियों की सभा स्तब्ध सी हो कर चुपचाप सुनने Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 427 - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह लगती थी। अच्छे अच्छे गाने वाले भी इन के सामने गाने का साहस नहीं करने पाते थे, फिर भी ये स्वयं अन्य गवैयों को भी गाने के लिये समय देते थे। ___पूजा हारमोनियम, दुकडे, खंजरी, ढोलक, ताल आदि सव साज के साथ पढाई जाती थी। . 26 रोशनी यो तो रात्रि के समय सारे नगर में गैस की किट्सन चत्तियां लगतीं और सर्वत्र चकाचौंध प्रकाश हो जाता था, परंतु प्रतिष्ठामण्डप की रोशनी की तो छटा ही ओर होती थी। बाहर का मैदान और सभामण्डप तो किट्सन लाइटों से चकाचौंध हो जाता था और मध्यमण्डप रंगबेरंगी काच की हांडियों और झुमर में जो बत्तियाँ लगतीं उन से देदीप्यमान हो जाता। वेदिकाओं की मिनाकारी-जडित मण्डपिकाओं पर जो सेंकडों बीजली के ग्लोब लगते उन के प्रकाश से तो मानों सूर्योदयका सा दृश्य उपस्थित हो जाता था। बीजली की बत्तियों के उज्ज्वल प्रकाश में हांडी, झुमरों के तैल के दीपक चंद्रयुक्त आकाश में तारों के से शोभते थे। उन के प्रतिबिम्ब जो कांच के तख्तों पर पडते उन से लोगों को भ्रान्तिसी हो जाति कि असली दीपक कौन हैं और प्रति Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा प्रबन्ध बिम्ब कौन ?, इस दृश्य को देख कर दर्शक स्वर्गविमानों की कल्पना करते और उन के अस्तित्व का अनुमान लगाने लगते थे। 27 भावना-बैठक दिन के समय जिस प्रकार पूजाभक्ति का ठाठ जमता उसी प्रकार रात्रि के समय करीब पहर रात तक सभामण्डप में भावना की बैठक होती थी। इसके लिए पालिताणा से श्रीजिनदत्तमरि-ब्रह्मचर्याश्रम की संगीतमण्डली बुलाई गयी थी, जो सर्वसाज के साथ द्वितीय वैशाखबदि 11 को ही वहां पहुंच गयी थी। मंडली में 8 तो समवयस्क ( समान अवस्था के) विद्यार्थी थे और बाकी मैनेजर, मास्टर, वजैये वगैरह, कुल 12 आदमी थे / यों तो मंडली वाले दिन के समय भी पूजा में अक्सर आया करते थे, परन्तु रात्रि के समय जरी के ट्रेस के साथ जब वे सभामंडप में आते लोग नृत्य (नाच) देखने और संगीत सुनने के लिए अधीर हो जाते और सभामंडप के उपरान्त बाहर का मैदान भी दर्शकों से ठसाठस भर जाता। करीब 2 // -3 घंटों तक मण्डली अपनी कला के साथ भक्तिभाव करती / रासक्रीडा, डंडीखेल, स्थालीभ्रमग, रस्सी. गुंथन आदि अपनी कुशलतासूचक कलाओं के प्रदर्शन के साथ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 429 वह जो नाचती, गाती और संवाद करती उस से सभा चित्र लिखित सी हो जाती और वहां से उठने का मन नहीं करती। द्वितीय-वैशाखवदि 14 के दिन श्रीपाश्वनाथ विद्याभवन -तीखी (मारवाड) की संगीतमण्डली भी वहां आ पहुंची और तीन दिन तक अपने नृत्य, गान और विविधकलापदर्शन पूर्वक भगवान की भक्ति करती रही। तीखीमंडली तीन दिन के उपरान्त दूसरे गांव चली गयी थी परन्तु पालीताणामण्डली तो आखिर तक वहां रह कर भगवान की भक्तिद्वारा मनुष्यों का मनोरंजन करती रही। 28 श्रीपुज्यधरणीन्द्रसूरिजी का आगमन उत्सव के दिनों में जयपुर की खरतरगच्छीयगादी के युवाचार्य श्री धरणीन्द्रसूरिजी गोल से ४-५-कोश पर ही थे, परन्तु इस बात की महाराजसाहब को या गोल के श्रीसंघ को खबर नहीं थी, इस कारण उन्हें आमंत्रण नहीं दिया जा सका, सूरिजी बाकरा से रेवतडा पधारे और वहां से उन के कोटवालजी और एक अन्य यतिजी महाराजसाहब के पास आये और.श्रीपूज्यजी के समाचार और उन की गोल पधारने की इच्छा प्रदर्शित की / महाराज साहबने उसी समय गांव के४ पंचो को बुलाया और श्री पूज्यजी को कुंकुमपत्री देने का Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 श्री गोलनगरोय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध उपदेश किया, पंचों ने महाराज का उपदेश शिरोधार्य किया . और दूसरे दिन प्रभातसमय कुंकुमपत्री लिख कर कोटवालंजी को दे दी, शाम को श्रीधरणीन्द्रसूरिजी भी सह परिवार गोल पधार गये और श्रावक संघने सत्कारपूर्वक नगर में ले जा कर तपागच्छ के उपाश्रय में मुकाम करवाया। श्रीपूज्य महोदय नवयुवान होते हुए भी शिक्षित और शान्तप्रकृति के सज्जन हैं। आपं प्रतिष्ठा-संबन्धी क्रियाविधान देखने और भगवद्भक्ति में भाग लेने को प्रतिष्ठामंडप में धारा करते थे। 29 महारात्रि के चढावे मारवाड में विवाह या प्रतिष्ठा के लग्न दिन से पूर्वदिन की रात 'महारात' (महारात्रि) कहलाती है, क्योंकि प्रकृत उत्सव की अन्तिम रात्रि होने से उस में अधिक धामधूम और जागरण होने की वजह से वह लंबी चौडी हो जाती है। प्रस्तुत अंजनशलाका-महोत्सव की महारात भी उत्कृष्ट धूम धाम और विविधप्रकार के चढावे बोलने के कारण सचमुच 'महारात हो गयी। दोनों मंदिरों में मूर्तियां विराजमान करने, ध्वज दंड कलश चढाने, तोरण वांदने आदि के कुल पदावे इसी रात्रि में कोले गये / इस रातमें भाग्यशालि श्रावकों Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह ने चढावे बोल कर अपनी लक्ष्मी का जो सदुपयोग किया उस का विवरण नीचे मुजष है / (1) श्रीपार्श्वनाथजी के मंदिर के चढावों के आदेश 3801) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर ऊपर ध्वजा चढाने का आदेश मुंहता नेणमल, मिश्रीमल, गणेशमल, मुंहता कपूरजी के बेटों पोतोंने लिया / 3401) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर के शिखर पर सुवर्ण कलश (इंडा) चढाने का आदेश सा० गोमाजी, चूनीलाल, वनराज, सोनमल, दानमल, सा० आशाजी के बेटों पोतों ने लिया। 301) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर के मंडप पर कलश (इंडा) चहाने का आदेश मुंहता भीमाजी, खेतमल, जांवतराज, केवलचंद, मुंहता देवाजी के बेटों पोतों ने लिया। 401) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर के दूसरे मंडप पर 'कलश (इंडा) चढाने का आदेश मुंहता हरकचंद, इंदरमल, चुनीलाल, मुंहत्ता भूताजी के बेटों पोतों ने लिया। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध 1001) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर ऊपर चोमुखजी की देहरी पर कलश (इंडा) चढाने का आदेश भणशाली मुंहता जुहारमल, पीरचंद, पुखराज, मु० करताजी के बेटों पोतोंने लिया। 1201) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर पर दंड चढाने का आदेश बुद्धि० सा० भीमराज, रिखबदास, सा० जुहारमलजी के बेटों पोतोंने लिया। 3451) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर में मूलनायकजी श्री पार्श्वनाथ भगवान् विराजमान करने का आदेश मुंहता मेघराज, भगाजी, अनाजी, हजारीमल, माणेकचंद, मिश्रीमल, कुंदनमल, घेवरचंद, गांधी मुंहता मोतीजी के बेटों पोतों ने लिया / 1301) रुपया में पार्श्वनाथजी की दाहिनी (जीमणी) तरफ. श्री शान्तिनाथ भगवान विराजमान करने का आदेश बुद्धि० सा० जवानमल, अखयराज, भूरमल, सुख राज सा० ताराजी के बेटों पोतों ने लिया। 1125) रुपया में पार्श्वनाथजी की बायी (डाबी) तरफ चंद्र प्रभस्वामी विराजमान करने का आदेश मुंहता भलाजी, पुखराज, मुंहता गुलबाजी के बेटों पोतों ने लिया। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह रुपया में चौमुखजी में पहला बिंब स्थापित करने का आदेश मुंहता हीराजी, सिरेमल, रिखबदास, सुखराज, आईदानमल मिश्रीमल, फूलचंद,पारसमल, मुंहता जसाजी के बेटों पोतों ने लिया / 751) रुपया में चौमुखजी में दूसरा बिंब स्थापित करने का आदेश लूणिया मुंहता भूताजी दानाजी ने लिया / 551) रुपया में चौमुखजी में तीसरा बिंब स्थापित करने का आदेश सूजाणी सा० उमाजी प्रेमचंद हुनरमल सूजाणी प्रतापजी के बेटों पोतों ने लिया / 551) रुपया में चौमुखजी में चतुर्थ बिंब स्थापन करने का आदेश जीरावला सा० तिलोकचंद, मिश्रीमल, देवीचंद सा० किसनाजी के बेटों पोतोंने लिया। 825) रुपया में गभारे के अंदर खत्तक (आले) में बिम्ब स्थापन करने का आदेश मुंहता अनाजी, मेघाजी, देवाजी, गणेशमल, हरखचंद, मिश्रीमल, सुखराज, सिरदारमल, वस्तीचंद- सांकलचंद, मुंहता हिन्दुजी के बेटों पोतोंने लिया। 651) रुपया में गभारे के अंदर दूसरे खत्तक (आले) में बिम्ब स्थापन करने का आदेश सा० मगाजी, सेदाजी, Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 श्री गोलनगरीय-पार्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध सांकलचंद सा० अगराजी के बेटों पोतों ने लिया। 125) रुपया में श्री पार्श्वनाथजी के मंदिर में अधिष्ठायक श्रीपार्श्वयक्ष स्थापन करने का आदेश सा० वीरमजी दानाजी ने लिया। 101) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर में अधिष्ठायिका श्री पद्मावती देवी स्थापन करने का आदेश सा० भगाजी लखमाजी ने लिया। , 1501) रुपया में पार्श्वनाथजी के मंदिर तोरण वांदने का आदेश श्रीसांथुनिवासी लूणिया मुंहता वेलाजी, नेणमल मुंहता वजींगजी के बेटों पोतों ने लिया। 252 // ) रुपया में पाश्वनाथजी के मंदिर का द्वार खोलने का आदेश मुंहता पूनमचंद, भीमराज, सुखराज, केवल चंद, मुंहता रेखचंदजी के बेटों पोतों ने लिया। (2) श्री ऋषभदेवजी के मंदिर के चढावों के आदेश 3201) रुपया में श्रीऋषभदेवजी के मंदिर पर ध्वजा चढाने का आदेश सा० दीपचंद, नेणमल, भूरमल, सूजा णी मूलाजी के बेटों पोतों ने लिया। 1001) रुपया में (इंडा) चढाने का आदेश सोलंकी प्रागजी, Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 435 जीतमल, सुरतानमल, पुखराज, पारसमल, सरूपजी . के बेटों पोतों ने लिया / 3601) रुपया में मण्डप पर कलश (इंडा) चढाने का आदेश सा० गणेशमल, हरखचंद, भीमराज, जोइतमल, घेवरचंद, मीठालाल, भणशाली सुरताजी के बेटों पोतों ने लिया। 1201) रुपया में दंड चढाने का आदेश मुंहता मिश्रीमल, शिवराज, फूलचंद, नेणमल, बंदा मुंहता मेघाजी के बेटों पोतोंने लिया / . 801) रुपया में श्रीऋषभदेवजी की दाहिनी (जीमणी) सरफ जिनबिम्ब स्थापन करने का आदेश सा० हिम्मतमल, हजारीमल, भानमल, लक्ष्मीचंद, घेव रचंद, सा० रायचंदजी के बेटों पोतेोंने लिया। 951) रुपया में श्रीऋषभदेवजी की बायी (डावी) तरफ जिनविम्ब स्थापन करने का आदेश मुंहता तिलोकचंद, लखमीचंद, मुंहता जुहारमलजी के बेटों पोतों ने लिया। 825) एक अधिक जिनबिम्ब स्थापन करने का आदेश श्री रेषतडानिवासी सा० सरूपजी, रिखबदास, सा० परखाजी के बेटों पोतों ने लिया। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ध . 4.6 श्री गोलनगरीय-पावना प्रतिष्टा-प्रबन्ध 1151) रुपया में श्रीऋषभदेवजी के मंदिर तोरण बांदने का आदेश श्री सांथु निवासी मुंहता बीठाजी, सोन. मल, सागरमल, मुंहता परखाजी के बेटों पोतों ने लिया। 201) रुपया में श्री ऋषभदेवजी के मंदिर में श्री गोमुख यक्ष स्थापन करने का आदेश लूणिया मुंहता त्रीकमजी, चूनीलाल, भानमल, जवानमल, दीपचंद, मुंहता मूलाजी के बेटों पोतों ने लिया। 171) रुपया में श्रीऋषभदेवजी के मंदिर में श्री चक्रेश्वरी देवी स्थापन करने का आदेश सा० छोगाजी वच्छा जी ने लिया। ऊपर के दोनों मंदिरों संबन्धी कुल चढावे द्वितीय वैशाखशुदि 4 की रात में बोले गये थे, और उसी समय सेंकडों गाम नगरों के श्रीसंघ की सभामें इन चढावों के आदेश अंतिम बोली बोलने वालों को दिये गये थे। वह समय ही अपूर्वउत्साहजनक था। भाग्यशाली श्रावक अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करने के लिये एक एक से आगे बढते थे और जब किसी भी चढावे का आदेश उन को मिलता तब वे इतने आनंदित होते थे मानों उन्हें . किसी अपूर्व पदार्थ की प्राप्ति हुई हो। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह . 437 ... रात को करीब तीन बजे के समय महारात्री की वह संघसभा विसर्जन हुई थी और गोल श्रीसंघ के आगेवान उसी समय से द्वितीय दिन के कार्यों में प्रवृत्त हुए थे। 30 पंचमी का मंगल-प्रभात ___ संवत् 1991 के द्वितीयवैशाखशुक्लपंचमी का प्रभात अपूर्व मंगलसमय था / जैन संघ के ही नहीं मनुष्यमात्र के मुख पर उस समय एक प्रकार की प्रसन्नता छायी हुई थी। जिन जिन भाग्यवानों ने रात्रि के समय चढावे बोले थे वे सब स्नानमन्जनपूर्वक शुद्धवस्त्र पहन कर तैयार हो रहे थे। महाराजसाहब भी आज बहुत जल्दी से अपने आवश्यककार्यों से निवृत्त हो कर प्रतिष्ठामंडप में पधार गये थे / जिन बिम्बों के अधिवासनापर्यंत के संस्कार पहले हो चुके थे, आज अंजनशलाकाद्वारा नेत्रोन्मीलन कर केवलज्ञान और निर्वाणकल्याणक की विधि करना शेष था। इन कामों के उपयुक्त सब सामग्री पहले ही से तैयार करवा रक्खी थी। शेष विधान पूरा करने के उपरान्त अंजनशलाका का लग्न और नवांश आते ही मुनिमहाराजश्रीकल्याणविजयजीने सुवर्णशलाका से श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की अंजनशलाका की। बाद में शेष सभी जिनबिम्बों के भी अंजन कर नेत्रोन्मीलन किया। यह कार्य बडी शान्ति और शुभ निमित्तों में हुआ। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध महाराजसाहब को इस विधान के मंत्रादि कण्ठस्थ थे, इस कारण कार्य शीघ्रतासे समाप्त हो गया / तुरन्त ही निर्वाणकल्याणक की विधि करके आपने मंगलगाथापाठ किया और बाद में स्थापनीय-बिम्बों को पालकियों में विराजमान कर मंदिर की तरफ रवाना किया। 31 बिम्ब-प्रवेश और स्थापन बिम्बस्थापन के, ध्वजा दंड कलश चढाने के और तोरण वांदने आदि के चढावे जिन्हों ने बोले थे, उन्हें पहले ही हिदायत कर दी थी कि वे सूर्योदय होते ही तैयार रहें / चढावा बोलने वाले समय पर आ पहुंचे थे। शेष संघ और सामान्य जनसमुदाय इस मंगल कार्य के दर्शन के लिये पहले ही उत्कण्ठित हो रहा था। प्रतिष्ठामण्डप और मंदिरों तक इतनी भीड जमा थी कि तिल रखने की जगह नहीं, तथापि स्वयंसेवको की कुशलता से जुलूस चलने का रास्ता हो जाता था। प्रतिष्ठामंडप से स्थापनीय बिम्बों के लिये महाराज साहब के साथ वरघोडा मंदिरजी पहुंचा / वहां से मुनिमहाराज श्री कल्याणविजयजी श्रीपार्श्वनाथजी के मंदिर में पधारे और मुनिश्रीसौभाग्यविजयजी ऋषभदेवजी के मंदिर में। बिम्बों का सामेला वधावा होने के बाद तोरण बांदा गया और द्वार Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजैनशान-गुणसंग्रह 439 पर पुखणे की विधि के बाद बिम्ब मंडप में ले जाये गये / स्थापना की जगह पर सब कुछ कार्य पहले ठीक कर दिया गया था और तात्कालिक विधि उस वक्त्त कर करवा के शुभ - लग्न-नवांशक का समय आते ही दोनों मंदिरों में चढावे बोल कर आदेश लेने वालों के हाथों से जिनबिम्ब विराजमान कराये गये, ध्वजा, दंड, कलश चढवाये गये / यक्ष यक्षिणी स्थापित कराये गये / स्थापित जिनबिम्बादि पर मुनिमहाराज श्रीकल्याणविजयजी तथा सौभाग्यविजयजी के शुभ हस्तों से वासक्षेप हुआ / याचकों को विपुल दान दिया गया, तब गगनभेदी जयनाद करती हुई लोगों की भीड वहां से कुछ हटने लगी। * 32 याचकदान प्रतिष्ठा जैसे उत्सवों में 'याचकंदान' भी अपना खास स्थान रखता है। जब से अंजनशलाका-महोत्सव शुरू हुआ तभी से याचकदान भी जारी था। मंगलकलशस्थापना पर, ग्रहदिपालादिपूजन पर, अभिषेक पर, दीक्षामहोत्सव विधि आदि के प्रसंगों पर याचकदान करने की प्रवृत्ति परम्परा से चली आती है। इन प्रसंगों पर तो भोजक, ब्राह्मण और पूजक आदि को दान दिया जाता ही है, पर इस का खास प्रसंग तो प्रतिष्ठा Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440. श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध है, उस समय उपयुक्त जातियों के अतिरिक्त शिल्पि को भी पारितोषिक दान (इनाम) दिया जाता है। अंजनशलाका जैसे महोत्सवों में इस प्रसंग पर सेंकडों रुपया का दान देना पडता है, गोलनगर में भी श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिष्ठा और स्थापना के समय वैसा ही हुआ, सब याचक दान से संतुष्ट किये गये। इस के बाद सब से माके का दान मुंडका दान है / अर्थात् प्रतिष्ठा होने के बाद प्रतियाचक कुछ दान दिया जाता है जो 'मुंडका' कहलाता है। खास तो मुंडका दान देने की रीति सेवकों के लिये ही प्रचलित है, परन्तु आज कल यति लोग भी मुंडका लेते हैं और उन के मुंडके की रकम सेवकों के मुंडके की रकम से दुगुनी होती है। अर्थात् सेवकों को प्रतिमनुष्य एक रुपया दिया जाता है तो यतियों को दो, सेवकों को दो तो यतियों को चार / मारवाड में याचकों में सब से अधिक संख्या सेवकों की, उन के बाद यतियों की, फिर श्रीमाली ब्राह्मण, भट्ट ब्राह्मण, भोजक, रावल आदि जातियों के नम्बर होते हैं। ____ गोल के महोत्सव पर सेवकों की संख्या 500 पांच सौ के लगभग थी / यतियों की 100 एक सौ की। श्रीमाली, भट्ट, रावल, भोजक आदि प्रत्येक की संख्या सौ के अंदर थी। गोल के संघने सेवकों को प्रति मनुष्य 3 रुपया मुंडका Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राजन श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 441 दिया यतियों को प्रतिमनुष्य-६-६रुपये दिये / ब्राह्मण, रावल आदि को प्रतिमनुष्य 1-1 रुपया दिया और भोजकों को एक मुस्त दान दिया। इन याचकों के उपरान्त मारवाड में हिंडोला, नानकशाही, ओघड आदि अनेकप्रकार के मनुष्य आते हैं जो कुछ न कुछ ले ही जाते हैं। ___ गोल के श्रीसंघने प्रतिष्ठामहोत्सव पर कुल 3000) तीन हजार से अधिक रूपया का याचक दान दिया। 33 इन्द्र महाराज का आगमन दश दिन पूरी शान्ति में बीते, न ज्यादा हवा चली, न गर्मी पडी और न वृष्टि हुई। इस पर लोग कहने लगे-'सब कुछ ठीक रहा, पर इस मौके पर इन्द्र महाराज का पधारना जरूरी था।' अर्थात् मारवाडवासियों की कुछ ऐसी मान्यता है कि प्रतिष्ठा-अञ्जनशलाका के प्रसंग पर थोडी बहुत वृष्टि होना शुभ शकुन है। ऐसा होने से प्रतिष्ठा विधिपूर्वक हुई यह समझा जाता है। द्वितीयवैशाखशुदि 5 मी को रात्रि के करीब दश बजे थे। प्रतिष्ठामण्डप के सभामण्डप में गायन मण्डली नाचगान कर रही थी। हजारों मनुष्यों की सभा भगवद्भक्तिमय दृश्य Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध एकतान से देख-सुन रही थी। हजारों की मानवसंख्या होने पर भी सिवा गाने के और कोई आवाज वहां नहीं थी। ठीक उसी समय पश्चिम दिशा में एकायक मेघगर्जना सुनाई दी। थोडी सी आंधी के साथ बादलों की घटा भी ऊपर चढती हुई देखने में आयी और बिजली ने भी अपनी चमक से लोगों को चमका दिया। शान्त सभा एकदम क्षुब्ध हो गयी। उत्पातों की भविष्य वाणी के स्मरण से लोगों में भगदड मच गयी / परन्तु कुदरत की भी बलिहारी है ! लोग सभा से पूरे उठने भी न पाये थे कि वर्षाद की घटा दो दो चार चार छींटे डालती हुई ऊपर होकर चली गयी। यद्यपि वहां से दश पंदरह कोश पर इस मेघराज ने काफी जल वर्षाया और वायु देव ने भी अपना अच्छा बल आजमाया, परन्तु गोलनगर में कहने मात्र को छींटे डालने के उपरान्त कुछ भी उत्पात नहीं किया और आंधी तो आकाश में ही देखी गयी सो सही, जमीन पर उसकी खबर तक नहीं पडी। यह गड़बड करीब 8-10 मिनटों में ही बन्द हो गयी और लोगों ने कहा कि 'लो इन्द्र महाराज भी पधार गये।' 34 प्रतिष्ठा के दिन की जनसंख्या दश दिनों से गोलनगर में हजारों मनुष्यों का खासा मैला लगा हुआ था और वह दिन दिन वृद्धिंगत होता जाता Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 443 था। यह वृद्धि पञ्चमी के दिन अन्तिम सीमा को पहुंच गयी थी, क्योंकि महोत्सव का आखिरी दिन यही था। द्वितीय वैशाखशुदि 4 के शामको गोल में कम से कम 20000 वीस हजार मनुष्यों की संख्या थी और यह संख्या प्रायः जैन महमानों की थी। नगर भर के घर, मकान, चोकी, चबूतरा सब मनुष्यों से ठसाठस भरे हुए थे। इनके उपरान्त सेवक, भोजक, जति आदि याचकों ने अपने डेरे सूकडी नदी के तट पर और उसके भीतर जमाये थे। सेंकडों व्यापारी अपनी अपनी दुकानें चौकमैदानों में लगा कर जमे हुये थे / पंचमी के दिन चतुर्थी की जनसंख्या में पर्याप्त (काफी) वृद्धि हुई / इसमें मुख्य संख्या अन्य वर्ण के मनुष्यों की थी और वह बारह तेरह हजार से कम न होगी / जैनों की संख्या में आज दो तीन हजार की और वृद्धि हुई होगी। जैन और जैनेतर मिलकर आज की जनसंख्या 35000 पेंतीस हजार के आस पास थी। आज गोलनगर में तो क्या उस के बाहर भाग में भी मनुष्यों की इतनी भीड थी कि चलने को मार्ग नहीं मिलता। यद्यपि इस मनुष्य संघ की संख्या निश्चित रूप से नहीं की गयी थी, तथापि उस दिन के भोजन के उठाव के ऊपर जनसंख्या कूती गई थी जो पेंतीस हजार के लगभग होना पाया गया था / उस दिन गोल की पन्द्रह 15 (जालोर की 18 // ) कलसी की लापसी पकायी गयी थी। महाजनों का खुराक अन्य लोगों से कम होता है और वे 1 कलसी की लापसी में Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध 2000 दो हजार मनुष्य जीमते हैं, सम्भव तो इससे भी अधिक संख्या में जीमने का है, क्योंकि इनमें का अधिक भाग कई दिनों से इसी भोजन पर होने से वह बहुत कम खाता है, फिर भी हम फी कलसी लापसी 2000 मनुष्य मान लें तो 11 कलसी में 22000 बाईस हजार और अन्य कौम के मनुष्य की कलसी 1500 मान लें तो 8 कलसी की लापसी में 12000 मनुष्य जीम सकते हैं, इस हिसाब से. 19 कलसी की लापसी के उठाव से 34000 चोतीस हजार मनुष्यों की संख्या निश्चित मान सकते हैं, उस समय का मानव समुद्र देखते यह संख्या कुछ अधिक भी नहीं है। 35 वैशाख शुक्ल षष्ठी पंचमी का दिन यद्यपि उत्सव का आखिरी दिन था, तथापि मेला षष्ठी तक बना रहा। कारण यह था कि षष्ठी को दोनों टाइम नोकारसी थी और शान्तिस्नात्र पढानी थी इस लिये संघ की आण देकर इस दिन भी श्रीसंघ को ठहरा लिया था। इस दिन क्रियाविधान में शान्तिस्नात्र पढाने का प्रोग्राम था, परन्तु भाव और संयोग अधिक भक्तिजनक होने से अष्टोत्तरी वृहच्छान्तिस्नात्र पढाई गई। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _____ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 445 यह पूजा श्रीपार्श्वनाथजी के मन्दिर में महाराज साहिब श्रीकल्याणविजयजी की आज्ञानुसार मुनिमहाराज श्री सौभाग्यविजयजी और शेठ नगीनदासभाई के द्वारा पढाई गयी थी और गम के फिरती स्नात्रजल की जलधारा दी गयी थी। इसके अतिरिक्त टीका मांडने का कार्य भी आज ही हुआ / प्रतिष्ठा होने के बाद उस गांव के मन्दिरजी में चाहर गांवों के श्रीसंघ जो भंडार में अमुक रकम देते हैं उस को इस प्रदेश में 'टीका मांडना' अथवा 'टीका देना' कहते हैं, इसी रस्म को कहीं 'केसर मांडना' और कहीं 'भंडार मांडना' भी कहते हैं। बहुत जगह टीका प्रतिष्ठा के ही दिन ले लिया जाता है परन्तु गोल में प्रतिष्ठा के दूसरे दिन टीका लिया गया / क्योंकि यह रस्म अदा होने के बाद बाहर का संघ प्रायः चला जाता है, परन्तु यहां संघ को रोकना था अतएव यह रस्म दूसरे दिन अदा किया गया। टीका मांडने में भी मारवाड में पहले पीछे का रिवाज हुआ करता है यहां भी इस विषय में खासी चर्चा विचार के बाद टीका मांडना शुरू हुआ / गांव नगरों के संघों और व्यक्तियों की मिलकर टीके की कुल रकम 9000) नौ हजार हुई / ___ इस दिन प्रभात समय करीब 11000-18000 सतरह अठारह हजार मनुष्य गोल में थे और यह संख्या प्रायः Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 श्री गोलनगरीय पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध जैनों की थी। अन्य वर्ण के लोग आज बहुत कम रह गए थे। टीका मण्डने के बाद शाम को जीम कर यह मेला भी विसर्जन होने लगा और रात पडते पडते बहुत लोग बिखर गये, दूसरे दिन मुश्किल से बाहर के पन्द्रह सौ मनुष्य वहां रहे होंगे। ___36 सेवा का सम्मान सेवा करना एक अति कठिन कार्य है, परन्तु सेवा का सम्मान करना भी कम कठिन नहीं। प्रायः देखा जाता है कि जब तक मनुष्यों को गर्ज होती है तब तक वे सहायता करने वालों की खुशामद किया करते हैं, परन्तु काम निकलने के बाद वे अपने सहायकों को भूल जाते हैं, आनन्द का विषय है कि गोल के श्रीसंघ के संबन्ध में ऐसा नहीं हुआ। प्रतिष्ठा के काम में जिन जिन की सहायता मिली थी गोल के श्रीसंघ ने उन सबकी उचित कदर की। दृष्टान्त के तौर पर हम स्वयं सेवक मण्डलों के सम्मान का यहां उल्लेख करेंगे। . श्री आदिजिन-सेवामण्डल-तखतगढ और श्री ओसवाल नवयुवक सेवामण्डल जालोर ने गोल के श्री संघ को होने बाली अपूर्व यशःप्राप्ति में अपनी अपूर्व सेवा द्वारा जो सहायता प्रदान की थी वह श्रीसंघ के ध्यान के बाहर नहीं थी। सेवामण्डलों की इस सेवा के सम्मानार्थ गोल के श्रीसंघ ने वैशाख शुदि 7 के दोपहर को तीन बजे प्रतिष्ठा-मण्डप के Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रोजैनशान-गुणसंग्रह 447 सभामण्डप में श्री सकलजनसंघ की सभा होने संबन्धी नोटिसं निकाल दिये थे जिस से समय होते ही सभामण्डप सभासदों से भर गया था। पूर्वोक्त दोनों सेवामण्डल भी अपनी अपनी वर्दी पहने हुए सभा में हाजर थे / गोल का श्रीसंघ भी समय होते ही वहां उपस्थित हो गया था। __सभा का प्रमुखपद खरतरगच्छ के आचार्य श्रीमान् धरणीन्द्रसूरिजी को दिया गया। मंगलाचरणादि होने के बाद श्री गोल के संघ की तरफ से जालोर-दरबारस्कूल के तत्कालीन हेडमास्टर साहब मुंहता किसनराजजी ने सभा बुलाने का उद्देश प्रकट किया। ___ श्री जालोरवासी कानूंगा कानमलजी रामलालजी ने प्रतिष्ठासंबन्धी कार्य का दिग्दर्शन कराने के साथ अन्य स्थानों में होने वाली प्रतिष्ठा-अंजनशलाकाओं से इस अंजनशलाका की विशिष्टता समझाई और ऐसे भारी कार्य की इस प्रकार निर्विघ्न समाप्ति होने में महाराज साहबका पुण्यप्रभाव और स्वयंसेवकों की अपूर्व संघसेवा को कारण बताया। इसके बाद गोल के संघ की तरफ से मुंहता भेरुमलजी चकील जालोरवालोंने अभिनन्दन पत्र (मानपत्र) सभा में पढ कर दोनों मण्डलों को अर्पण किये और प्रसंगोचित व्याख्यान दिया / पाठकगण के अबलोकनार्थ हम उनमें से एक अभि नन्दनपत्र को नीचे उधृत करते हैं / Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध "अभिनन्दन पत्र'. श्री आदिजिन सेवामंडल-तखतगढ-मारवाड भाइयो / - आप सज्जनों ने हमारे यहां अजनशलाका के शुभ प्रसंग पर पधार कर रात-दिन तन-मन से जो सच्ची सेवा की है उसकी प्रशंसा करना हमारी शक्ति के बाहर है। हमारे पास एक भी ऐसा शब्द नहीं है कि जिससे हम आपके इस कार्य की किंचिन्मात्र भी प्रशंसा कर सकें, हजारों मनुष्यों के रोजाना खान-पान और वरघोडे आदि की प्रशंसनीय व्यवस्था करके आपने हमारे ही नहीं बल्कि सेंकडों गांवों के जैनसंघ के हृदयपट पर अपूर्व प्रभाव डाला है। आपकी इस निःस्वार्थ संघसेवा और कार्यक्षमता का हम हार्दिक सम्मान करते हैं, और शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपका सेवामण्डल इसी प्रकार के सेवाभाव से यशस्वी बने। __यद्यपि आपकी इस संघसेवा का बदला देना हमारी शक्ति के बाहर है फिर भी हमारा संघ आपके कार्य से खुश होकर सुवर्ण चांदी के 'सम्मान पदक' और 'अभिनन्दन पत्र' अर्पण करता है जिन्हें आप स्वीकार कर हमें आमारी करेंगे / Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 449 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह ता. 20-5-34 ई० आपका शुभचिंतक दा० दीपचंद मुलाजी जैन संघ-गोल दानमल सायबजी द।। रखबचंद साहेबजी ,, मेरा कसनाजी मुता मेघराज मोतीचंदजी। , ताराचंदरा छे, अभिनन्दन पत्र की नकल उस पर हस्ताक्षर करने वाले गोल के पंचों के नाम के साथ ऊपर मुजब है। जालोर के ओसवाल नवयुवक सेवामंडल को दिया हुआ अभिनन्दन पत्र भी अक्षरशः ऊपर मुजब ही है। ____ अभिनन्दन पत्र अर्पण करने के बाद भी कई सज्जनों ने प्रासंगिक विवेचन किये / और मुनिमहाराज श्रीकल्याणविजयजी का 'सेवाधर्मः परमगहनो.योगिनामप्यगम्यः' इस पोइंट पर सारगर्भित व्याख्यान हुआ। अन्त में प्रमुख महोदय ने बड़ा ही आकर्षक और रोचक व्याख्यान और इस अंजनशलाका जैसे महान कार्य को निर्विघ्नतापूर्वक पार पहुंचाने के बदले में पूज्य मुनिमहाराज साहबों को बधाई दी और इस प्रकार के धर्मकार्य में लक्ष्मी का व्यय करके धर्म और संघमक्ति का लाभ उठाने वाले गोलनगर के जैनसंघ को हार्दिक धन्यवाद दिया / Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध ___अंत में दोनों सेवा मंडलों ने अपने कसरत के प्रयोगों से सभाजनों का मनोरंजन किया और जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। 37 आय-व्यय मारवाड की प्रतिष्ठा-अंजनशलाकाओं में आय-व्यय अर्थात् उपज और खर्च भी अपना खास स्थान रखते हैं / अन्य देशों में जैन प्रतिष्ठाओं में न ज्यादा खर्च होता है, न पैदायश, परन्तु छोटी मारवाड के लिये ये दोनों बातें बडे महत्त्व की होती हैं। यहां के जैनों के लिये मंदिर की प्रतिष्ठा कराना बड़े से बड़ा कार्य होता है। वे अपनी शक्ति भर खर्च करके प्रतिष्ठा-महोत्सव करते हैं / इस प्रसंग पर उन्हें कम खर्च करने के लिए कहा भी जाय तो नहीं मानते / कहते हैं, खर्च नहीं करेंगे तो उपज कैसे होगी ? / कुछ अंश में यह बात है भी सही। प्रतिष्ठा पर जैसा खर्च किया जाता है वैसी ही उपज भी होती है। प्रतिष्ठा-अंजनशलाकाओं में उपज के 4 चार मंद होते हैं-१ नोकारसियों के चढावे, 2 वरघोडे के चढावे, 3 धजा, दंड, कलश, बिम्बस्थापन आदि के चढावे और 4 टीका अथवा भंडार मांडना। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 451 इसी प्रकार प्रतिष्ठाओं में खर्च के भी अनेक मद्द होते हैं जैसे 1 भोजन, 2 सामग्री जुडाना, 3 पूजापा, 4 प्रतिष्ठा मंडप, 5 भोजनमंडप, 6 कीर्तिदान आदि। इन सब में भोजन खर्च सब से आगे निकलता है। शेष उक्त और अनुक्त अनेक कामों में हजारों रुपया खर्च होता है। पिछले पच्चास वर्ष के अंदर होने वाली मारवाड की अंजनशलाकाओं में गोल की अंजनशलाका जैसे अपना अग्रस्थान रखती है वैसे ही इस के आय व्यय भी अपना खास स्थान रखते हैं / गोल की अंजनशलाका में कुल उपज चारों मद्दों से नीचे लिखे मुजब हुई। 42611) बयालीस हजार छः सौ ग्यारह रुपया चैत्रशुदि 10 के दिन बोले गये 11 नौकारसियों के चढावों के हुए। . 21945) इक्कीस हजार नौ सौ पैंतालीस रुपया ग्यारह दिन के वरघोडों (जुलूमों) में बोले गये चढावों के हुए। 36187) छत्तीस हजार एक सौ सत्तासी रुपया वैशाख शुदि ... 4 को रातसमय में बोले गये धजा, दंड, कलश, बिम्बस्थापनादि के चढावों के हुए। 9000) नौ हजार रुपया टीका के मंडे / Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध कुल जोड 109743) एक लाख नौ हजार सात सौ तयालीस रुपया। गोल की अंजनशलाका में भोजन, साधनसामग्री भेंट और दान आदि भिन्न भिन्न विषय में कुल 50000 पच्चास हजार रुपया के लगभग खर्च हुआ। 38 उत्सव की परिसमाप्ति उत्सव के और पर्व के दिन आते मालूम होते ह जाते मालूम नहीं होते / अंजनशलाका-महोत्सव जब तक दूर था लोग दिन गिनते और तरह तरह के मनोरथ मंसूबे बांधते थे परंतु उत्सव आया और गया इस का मानों पता ही न लगा। लगभग तमाम अन्य वर्ण के लोग और तीन चार हजार के आसरे जैन महमान तो पंचमी के शाम को ही रवाने हो गये थे / शेष संघजन वैशाख-शुक्लषष्ठी के शाम को जीम कर रखाने होने लगे थे सो खासी रात आयी वहां तक जाते ही रहे / इस दिन रात तक लगभग सारा जैन संघ विदा हो चुका था, फकत दोनों सेवामंडल, गायनमंडली, खास खास महमान और गांववालों के सगे संबन्धी विगैरह मिल कर करीब 1500 पंदरह सौ मनुष्य पीछे रहने पाये होंगे। पंचमी के शाम से सप्तमी के शाम तक गोल की चारों Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 453 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह तरफ के तमाम मार्ग चलते रहे / चोकी पहरे का बंदोबस्त होने से लोग दिन और रात चलते ही रहते थे। सप्तमी को नगर में मनुष्य बहुत कम दिखते थे। यद्यपि तब तक बाहर के बहुत आदमी थे और नगर मनुष्यों से भरा हुआ था तथापि 30000-35000 हजार मनुष्य का मेला देखे हुए मनुष्यों को सप्तमी का दिन जन शून्यसा दिखता था और अष्टमी के रोज तो वहां ओर भी अधिक निर्जनता मालूम होती थी। ___इस प्रकार गोल का चिरस्मरणीय अंजनशलाका-महोत्सव बडी सजधज के साथ आया और शान शौकत के साथ बीता, परंतु हजारों मुखों में ये शब्द छोडता गया 'धन्य अंजनशलाका ! धन्य गोल !' / .39 परिशिष्ट श्री गोलनगर अंजनशलाका उत्सव पर गायनमंडली के गाए हुए गायन 1 गायन (राग-केशरीया थासुं.) भयो ओच्छव भारी, पार्श्वप्रतिष्ठा गोलनयर में ।आंकणी॥ सुखडी सरिता सुंदरतट पर, श्री गोलनगर उद्दाम / जैन जगतज्योति झलकावत,अंजनशलाका शुभ काम रे भयो०॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 श्री गोलनगरीय पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध पार्श्वप्रभु श्री तख्त विराजित, अवरबिंब शुभ साथ / दीपचंद शेठ श्री संघनायक, करे गोलसंघ साथ रे॥भयो०॥२॥ मुनिप्रवर श्रीकल्याणविजयजी, सौभाग्यविजयजी संगे / गुरां साहेब श्री भक्तिसोमजी, करे क्रिया शुभरंगे रे // भयो०॥३॥ रंग बेरंगी धजा वावटा, मंडप रचना भारी। विविधवाजिंत्रमधुरध्वनि से, सोहत प्रभु अस्वारी रे॥भयो०॥४॥ ब्रह्मचर्याश्रम-संगीतमंडल, सिद्धक्षेत्रथी आवे / गीत-नृत्य-वाजिंत्रलयोथी, नागर' प्रभुगुण गावे रे॥भयो०॥५॥ 2 गायन (राग-बीरा वेश्याना यारी०) धन्य ओच्छव आजे, प्रभुजी बिगजे, आनंद मंगल आज, / प्रभु पार्श्व विराजे, शिवसुखकाजे, आनंद-मंगल आज, // 0 // सरिता सुखडी तीर मनोहर, गोलनगर सुस्थान। . जैनप्रभाकर पार्श्वप्रभुजी, कीधी करुणा महान रे ।।धन्य० // 1 // नायक संघतणा दीपचंदजी, शेठ शूरा गुणवान / निःस्वार्थ भावे प्रेमभक्ति थी, कार्य बजावे सुजान रे ॥धन्य 0 / 2 / मुनिप्रवर श्री कल्याणविजयजी, सौभाग्यविजयजी साथ / गुरां साहेब श्री भक्तिसोमजी, करे क्रिया भलिभात रे।धन्य०।३। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह शोभा मंडपनी भासे भलेरी, कहेतां न आवे पार / नौतम अनुपम रचना रुपाली, जन-मन-रंजनहार रे॥धन्य०।४। भविकजन नर नारी केरा, हैये हरख न माय / थाय कृतार्थ प्रीतेथी पधारी, निरखीने जिनराय रे ॥धन्य०।५। धन्य भूमि मरुधर केरी, धन्य नगर ते वास / धन्य सुभग जन वासी अहीं, ज्या पार्श्वप्रभुना वास रे॥धन्य०।६। श्री सिद्धक्षेत्र सुतीर्थभूमिना, ब्रह्मचर्याश्रम-बाल / प्रीते प्रमुगुणगाय सदा ने, इच्छे सकल जयकार रे ।धन्य०७ 3 गायन (राग-प्रभु भजन कर प्रभु भजन०) गोलनगर धन्य गोल नगर......॥०॥ शोहामणुं पुर शोभे मनोहर, रम्य रसाल भूमि मरुधर // गोल० // 1 // पुनीत सरिता सुखडी केरा, वहे सदाए ज्यां निर्मल जल // गोल० // 2 // पाचप्रभुजीना दरबार दीपे, ज्योति जेनी जगमगे झलहल // गोल० // 3 // श्रीदीपचंदजीसम श्रीमंतो, वसे सेवाभावी स्वार्थ वगर // गोल० // 4 // Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्ठा-प्रबन्ध मुनिप्रवर श्री कल्याणविजयजी, सौभाग्यविजयजी श्रेष्ठ छत्तर // गोल // 5 // गुरां साहेब भक्तिसोमसमा ज्यां, मुनिगुणज्ञ शोहे शुभ कर // गोल० // 6 // धन्य दिवस शुभ आनंदकारी, पार्श्वप्रतिष्ठा सुकार्य मंगल // गोल० // 7 // शोभा अनुपम उर हरखावे, आनंद आनंद छायां सकल // गोल० // 8 // श्रीसिद्धक्षेत्रब्रह्मचर्याश्रम,केरां शिशु गुण गावे जिनवर // गोल० // 9 // 4 श्री गोलनगरमण्डनपार्श्वनाथस्तवन (राग-समुद्र के लाला.) पासप्रभु की मोहनी मूरत, देखत दिल को मोह लिया॥०॥ गोलनगर में आप बिराजो, तेवीसमा जिनचंद / दर्शन तेरा आज ही पाया, मिट गया कर्म का फंद पासप्रभु० // 1 // Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4R श्रोजैनज्ञान-गुणसंग्रह अंगी बनी क्या आनंदकारी, सूरत तेरी है अतिप्यारी / आलम सारी तुम मुण गावे, नाचत वंदत सीस नमावे // पास० // 2 // उन्नीसे एकाणुं द्वितीय वैशाखे, शुदिपंचमी सब संघ की साखे / नूतनमंदिर तख्त विराजे, जयजयनाद से मंदिर गाजे // पास० // 3 // विश्वपति प्रभु मोहनगास, गोलप्रजा के हो सुखकारा / आश पूरो सब संकट चूरो, दिन दिन संपत हो भरपूरो // पास० // 4 // चामाराणी के नंदन प्यारे, प्रभावती के आप दुल्हारे। .. सौभाग्यविजय की अर्ज सुणीजो, दास की खबरां नित नित लीजो // पासप्रभु की० // 5 // . 5 लावणी आनन्द छ आजे गोलनगरनी माहि, शोभा छ अपरंपार मणा नथी कांइ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 श्री गोलनगरीय-पार्श्वनाथप्रतिष्टा-प्रबन्ध मणिमय मण्डप रचियो छे अति उत्साहे, ... वारे वारे जोवाने मन ललचाये |आनन्द छे०॥१॥ वाजिब बहु विध विध परकारना वागे, थता श्रवण कानने अति मधुरा लागे / हस्ती घोडा रथ मनुष्यनो नहीं पार वली जमवा माटे उत्तम भोजन सार ॥आनन्द० // 2 // इन्द्रापुरी सम गोलनगर तो शोभे. जोवाने माटे देवसभा पण थोभे / ' मुनि कल्याणविजयजी महाराज भले पधार्या, मुनि सौभाग्यविजयजी महाराज़ हमोने भाव्या ॥आनन्द०३॥ संवत् उगणीसे नेउआ (1990) मास वैशाख, शुक्लपक्षने उत्तम शुकरवार / प्रभु पारसनाथ शुभपंचमीदिने पधराशे, ए शुभ दिवसे आनन्द अति वरताशे ॥आनन्द० // 4 // गुण गावे भोजक कर जोडी बहुभावे, प्रभु पाश्वनाथना दर्शनथी दुख जावे // आनन्द छ आजे गोलनगरनी मांहि, शोभा छे अपरंपार मणा नथी कांइ // 5 // // इति समाप्त // Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 459 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह परिशिष्ट 2 पोषधविधि। दिवस-पोषध 1 पोषध . "पोषं दधाति इति पोषधः" अर्थात धर्म की पुष्टि करे उसे 'पोषध' कहते हैं। पोषध जैन-श्रावक के पालने योग्य बारह व्रतों में से 'ग्यारहवां' व्रत है / सामान्यतया यह अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्वदिनों में और विशेषप्रसंगों में किसी भी दिन किया जाता है। ____ मुख्यवृत्त्या पोषध आठ पहर का करना चाहिये, परंतु जिनकी भावना आठ पहरका करने की नहीं होती वे दिन को अथवा रात्रि को चार पहर का भी पोषध करते हैं। . ___ पोषध के मुख्य भेद चार होते हैं-१ आहारपोषध, 2 शरीरसत्कारपोषघ, 3 ब्रह्मचर्यपोषध और 4 अव्यापारपोषध / १-उपवास आदि तप करना उसका नाम 'आहारपोषध।' . २-स्नान-विलेपनादि शरीरविभूषा का त्याग करना सो 'शरीरसत्कारपोषध / ' Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषधविधि।.. ३-विषयवासना का त्याग कर ब्रह्मचर्य पालन करना उसे 'ब्रह्मचर्यपोषध' कहते हैं / ४-सांसारिकप्रवृत्तियों का त्याग कर धर्मध्यानमें प्रवृत्ति करना उसका नाम 'अव्यापारपोषध / ' ____ उक्त चारों भेदों को देश और सर्वसे गिनने से आठ भेद होते हैं और उनके संयोगी भेद 80 होते हैं, परन्तु पूर्वाचार्यों की परंपरानुसार आज कल केवल आहारयोषध देश और सर्व भेद से किया जाता है, शेष तीन प्रकार के पोषध सर्व से किये जाते हैं, देश से नहीं / आहारपोषध में सर्व प्रकार के आहारों का त्याग कर 'चउविहार' उपवास करना उसको 'सर्व से आहारपोषध' और तिविहार उपवास, आ बिल, नीवि, एकाशन करना उसको 'देश से आहारपोषध' कहते हैं। 2 पोषध लेने का समय मुख्यवृत्त्या रात्रिप्रतिक्रमण करने के पहले पोषध लेना चाहिये, फिर रात्रिप्रतिक्रमण कर के प्रतिलेखना करनी चाहिये, परन्तु आजकल पहले रात्रिपतिक्रमण कर लेते हैं, फिर शरीरचिन्ता आदि से निवृत्त हो जिनमंदिर का योग हो तो जिन पूजा कर के बाद में पोषध ग्रहण करते हैं। कुछ भी हो परंतु जहां तक हो सके पोषध जल्दी लेना चाहिये, समय हो तो पूजा Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह कर केपोषध लेना अच्छा है, परन्तु पूजा के आग्रह से पोषध लेने में अधिक विलंब करना भी अच्छा नहीं है। 3 पोषघलेने की विधि प्रथम खमासमण देकर "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् इरियावहियं पडिकमामि" 'इच्छं' कह कर 'इरियावही' 'तस्स उत्तरी' 'अन्नत्थ' बोलकर एक 'लोगस्स' अथवा चार नवकार का काउस्सग्ग करे, पार कर ऊपर प्रकट लोगस्स चोल, फिर खमा०, इच्छा• 'पोसहमुहपत्ति पडिले हुँ' इच्छं कह कर १-यह 'इच्छं' 'इच्छामि' क्रियापद का रूप है, इसका अर्थ 'चाहता हूँ' यह होता है / यह पद आदेशस्वीकारात्मक होने से गुरु का आदेश प्राप्त होने पर बोलना चाहिये, परन्तु गुरु के अभाव में स्थापनाचार्य को गुरु मान कर उनके आगे क्रिया करते समय भी प्रत्येक आदेश के अन्त में यह पद अवश्य बोलना चाहिये। ... २-जहां जहां लोगस्स' का काउस्सग्ग लिखा हो वहाँ 'लोगस्स' ही गिनना चाहिये, परन्तु जिसको लोगस्स याद न हो यह एक लोगस्स के बदले में चार नवकार गिने / ३-जहां केवल 'इरियावही' करने का लिखा हो वहां भी इसी प्रकार खमासमणपूर्वक आदेश मांग कर इरियावही, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ आदि सूत्र बोलकर एक लोगस्स का काउस्संग करना चाहिये और ऊपर प्रकट लोगस्स कहना चाहिये। . ४-जहां जहां 'खमा०' लिखा हो वहां 'इच्छामि खमास Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 पोषधविधि। मुहपत्ति की पडिलेहणा कर खमा० इच्छा० पोसह संदिसाई 'इच्छ' खमा० इच्छा० 'पोसह ठाउं' 'इच्छं' कह के दोनों हाथ जोड एक नवकार पढकर खडा हो "इच्छकारि भगवन् ! पसाय करी पोसहदंडक उच्चरावोजी" इस प्रकार बोलकर गुरुमुख से पोसह उच्चरे, गुरु का योग न हो तो स्वयं अपने मुखसे नीचे का पाठ पढकर पोषध उच्चरे "करेमि भन्ते पोसहं, आहारपोसहं देसओ सबओ, सरीर सक्कारपोसहं सव्वओ, बम्भचेपोसह सव्वओ, अव्यावारपोसहं सबओ / चउबिहे पोसहे ठामि / जावदिवसं पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं-मणेणं वायाए काएणं, न करेमि मणो वंदिउं जावणिजाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि' इस प्रकार यह संपूर्ण सूत्र बोलना / १-जहां इच्छा० लिखा है वहां "इच्छाकारेण संदिसह भगवन्” इतना वाक्यं बोलना चाहिये / . २-गुरु के अभाव में पोषध लिया हुआ कोई जानकार श्रावक वहां हाजर हो तो उसके मुखसे भी पोषध लिया जा सकता है। ३-आठ पहर का पोषध उच्चरते समय "जावदिवसं" के स्थान में “जाव अहोरत्तं” और रात्रि के चार पहर का पोषध उच्चरते समय "जाव सेसदिवसं रत्तं” ऐसा पाठ बोलना चाहिये / यदि चार पहरका और आठ पहर का साथ उच्चरना हो तो "जाव दिवसं अहोरत्तं".ऐसे बोलना चाहिये / प्रातःकाल चार पहर का पोषध उच्चरनेवाला Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 463 न कारवेमि, तस्स भन्ते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि / " खमा० इच्छा० 'सामायिकमुहपत्ति पडिलेहुं ?' 'इच्छं' कह बैठकर मुहपत्ति पडिलेहण करे और खमा० इच्छा० 'सामायिक संदिसाई' 'इच्छं' खमा० इच्छा० 'सामायिक ठाउं' 'इच्छं' कह एक नवकार गिन "इच्छकारि भगवन् पसाय करी सामायिक दंडक उच्चरावोजी" यह बोल कर गुरुमुखसे अथवा स्वयं नीचे का पाठ बोलकर सामायिक व्रत उच्चरे____ "करेमि भन्ते सामाइयं, सावज जोगं पञ्चस्वामि, जाव पोसहं पज्जुवासामि, दुविहं. तिविहेणं-मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि, तस्स भन्ते पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि / " बाद में खमा० इच्छा. 'वेसणे संदिसाहुँ' 'इच्छं' खमा० इच्छा० 'बेसणे ठाउं' 'इच्छं' खमा० इच्छा० 'सज्झाय संदियदि रातपोषध भी करना चाहे तो दिन के रहते हुए फिर पोषध उच्चरे और पाठ "जाव अहोरत्तं" बोले / १-पोषध के विना सामायिक करना हो उसकी भी यही विधि है / इरियावही करके सीधा सामायिक मुहपत्ति पडिलेहण करे और तीन नवकार गिनने पर्यन्त तमाम विधि यहां लिखे मजव करे, सिर्फ 'जावपोसहं' के स्थान 'जाव नियम' ऐसा पाठ बोले / Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 पोषधविधि। साहुँ' 'इच्छं' खमा० इच्छा० सज्झाय करूं 'इच्छं कहकर तीन नवकार गिनना। फिर खमा० इच्छा० 'बहुवेल संदिसाई 'इच्छं खमा० इच्छा० 'बहुवेल करशु' 'इच्छं / ' प्रतिलेखनाविधि खमा० इच्छा० 'पडिलेहण करुं 'इच्छं' कहकर मुहपत्ति चरवला, कटासन (बैठका), कन्दोरा,और पहिरी हुई धोती, इन पांच उपकरणों की पडिलेहणा करना। बाद में खमा० देकर इरियावही का काउसग्ग करना, ऊपर प्रकट लोगस्स कहना / फिर खमा० 'इच्छकारी भगक्न पसाय करी पडिलेहणा पडिलेहावोजी' 'इच्छं' कह कर स्थापनाचार्य की पडि. लेहणा करे, स्थापनाचार्य की पडिलेहणा दूसरे ने कर ली हो अथवा गुरुमहाराज के स्थापनाचार्य के सामने क्रिया की जाती हो तो एक बडेरे श्रावक के अप्रतिलेखित उत्तरासन की पडिलेहणा करना / बाद में खमा० इच्छा० "उपधिमुहपत्ति पडिलेहुँ' 'इच्छं' कह मुहपत्ति की पडिलेहणा करे, फिर खमा० इच्छा० 'उपधि संदिसाहुं' 'इच्छं' खमा० इच्छा० 'उपधि पडिलेहुँ' 'इच्छं' कह कर बाकी के पास में रखे हुए तमाम बस्त्रों की 'पडिलेहणा' करे। पडिलेहणा करने के बाद इरियावही कर एक पौषधिक Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह काजा लेवे और दूसरी बार इरियावही करके "अणुजाणह जस्सुरगहो" ये शब्द बोल कर उसे परठे देवे, परठने के बाद 'वोसिरे' यह पद तीन बार बोले, फिर सब अविधि आशातना का 'मिच्छामि दुक्कडं' देकर देववन्दन करें। 5 पोषध लेने के पहले पडिलेहणा करने की विधि इरियावही करके खमा० इच्छा० 'पडिलेहणा करूं ?' 'इच्छं' कह कर मुहपत्ति, कटासन, चरवला, और दूसरे तमाम वस्त्रों की पडिलेहणा एक साथ कर लेनी चाहिये, फिर इरियावही कर काजा लेना और दूसरी इरियावही कर विधिपूर्वक परठना चाहिये। जिसने पोसह लेने के पहले पडिलेहणा कर ली हो उस को पोसह लेने के बाद सिर्फ पडिलेहना के आदेश लेने चाहिए और जहां 'मुहपत्ति पडिलेहण' का आदेश हो वहां मुहपत्ति की पडिलेहणा करनी चाहिए, दूसरे उपकरणों की फिर पडिलेहणा करने की जरूरत नहीं है, और न काजा लेने परठने की ही जरूरत है। मात्र अविधि आशातना का 'मिच्छामि दुक्कडं' देकर देववन्दन करना चाहिये / .१-ऊनी झाडू से जमीन झाडने से जो कूडा कर्कट इकठा होता है उसे 'काजा' कहते हैं। . २-'परठने' का तात्पर्य त्यागने छोडने से है / Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 पोषधविधि। 6 पोषध लेने के बाद 'राइय' प्रतिक्रमण जिसे पोषध करना हो उसे पहले रात्रिकप्रतिक्रमण अवश्य कर लेना चाहिये, परन्तु किसीने कारणविशेषसे प्रतिक्रमण न किया हो तो उसे पोसह लेने के बाद भी पडिलेहणा करके देववन्दन करने के पहले नीचे लिखे मुजब राइयप्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। . इरियावही कर खमासमण दे आदेशपूर्वक कुसुमिणी दुसुमिगी का काउस्सग्ग करना, आगे की विधि नित्य मुजब करनी, मात्र सात लाख के स्थान इच्छा० 'गमणागमणे आलोउं' 'इच्छं' कह कर नीचे लिखा हुआ गमणागमणे का पाठ बोलना गमणागमणे "ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभंड. निक्खेवगासमिति, पारिट्ठावणियासमिति, मनगुप्ति, वचनगुप्ति कायगुप्ति ए पांच समिति त्रणगुप्ति आठ प्रवचनमाता श्रावकतणे धर्म सामायिक पोसह लीधे रूडी रीते पाली नहीं, खंडना विराधना थइ होय ते सविहुं मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं / " . अन्तमें 'भगवानह' आदि कहने के पहले खमा० इ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैगज्ञान-गुणसंग्रह च्छा० 'बहुवेलं संदिसाहुँ' 'इच्छं' खमा० इच्छा० 'बहुवेल करशुं 'इच्छं' कह कर फिर 'भगवानह' आदि कहके 'अड्डाइज्जेसु' कहना और बाद में सब के साथ देववन्दन करना / 7 देववंदन विधि__ प्रथम खमासमणपूर्वक इरियावही करना, 'लोगस्स' कह के उत्तरासन कर खमा० इच्छा० 'चैत्यवन्दन करूं ?' 'इच्छं' कह कर चैत्यवन्दन, नमुत्थुणं और 'जय वीयराय' (आभवमखंडा) तक कहना, फिर खमा० इच्छा० 'चैत्यवन्दन करूं?' 'इच्छं' कह कर चैत्यवन्दन, नमुत्थुणं, अरिहंतचेइयाणं, अन्नत्थ, 1 नवकार का काउसग्ग और 1 स्तुति, इसी प्रकार लोगस्स, पुक्खरवरदीवड्ढे और सिद्धाणं बुद्धाणं के अंत में एक एक नवकार का काउस्सग्ग और एक एक स्तुति कहनी। चतुर्थ स्तुति कहने के बाद बैठ कर नमुत्थुणं कहना और फिर पहले ही की तरह 'अरिहंतचेइयाणं' आदिसे लेकर 'सिद्धाण बुद्धाणं' और वेयावच्चगराणं' तक के सूत्र और चार स्तुतियां कहनी। ___ दूसरी बार चतुर्थ स्तुति कहने के बाद फिर नमुत्थुणं दोनों जावंति और स्तवन कह के 'आभवमखंडा' तक 'जयवीयराय' कहना / फिर खमा० इछा० 'चैत्यवंदन करूं' 'इच्छं' कह कर चैत्यवंदन और नमुत्थुणं कह कर 'जयवीयराय' संपूर्ण कहना और अविधि आशातना का मिच्छामि दुक्कडं देकर सज्झाय करना। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 पोषधविधि। 8 सज्झायविधि खमा० इच्छा० 'सज्झाय करूं' 'इच्छं' कह कर उकडु पगो पर बैठ नवकार गिन के एक जन 'मन्नहजिगाण' सज्झाय कहे और दूसरे सब सुने / सज्झाय के अंत में फिर नवकार गिनने की जरूरत नहीं है। "मन्नह जिणाण" सज्झाय मन्नह जिणाणमाणं, मिच्छं परिहरह धरह सम्मत्तं / छब्धिह आवस्सयम्मि, उज्जुता होह पइदिवसं // 1 // पव्वेसु पोसहवयं, दाणं शीलं तवो अभावो अ। सज्झायनमुक्कारो, परोवयारो अजयणा य // 2 // जिणपूआ जिणथुगणं, गुरुथु साहम्मिआण वच्छल्लं / घवहारस्स य सुद्धी, रहजत्ता तित्थजत्ता य // 3 // उवसम-विवेग-संवर, भासासमिई छजीवकरुणा य / धम्मिअजणसंसग्गो, करणदमो चरणपरिणामो // 4 // संघोवरि बहुमाणो, पुत्थयलिहणं पभावणा तित्थे / सड्डाण किच्चमेअं, निच्चं सुगुरूवएसेणं // 5 // Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 9 पोरिसी पढाने की विधिपोसवालों को कच्ची 6 घडी दिन चढने के बाद पोरिसी पढानी होती है जिसकी विधि इस प्रकार है खमा० इच्छा० 'बहुपडिपुन्ना पोरिसी' दूसरा खमा० इच्छा० 'इरियावहियं पडिक्कमामि' 'इच्छं' कह इरियावाही कर 1 लोगस्स का काउस्सग करना, ऊपर प्रगट 'लोगस्स' बोल खमा० इच्छा० 'पडिलेहण करूं ?' 'इच्छं' कह कर मुहपत्ति की पडिलेहण करनी। 10 राइमुहपत्ति पडिलेहण विधिगुरुमहाराज का योग होने पर भी राइप्रतिक्रमण उनके समक्ष आदेशग्रहणपूर्वक न किया हो तो पोसहवालों को गुरुमहाराज के समक्ष राइमुहपत्ति पडिलेहनी चाहिये, जिसकी विधि इस प्रकार है प्रथम खमासमग दे इरियावही करना, फिर खमा० इच्छा० राइमुहपत्ति पडिलेहुं ?' 'इच्छं' कह मुहपत्ति पडिलेहनी फिर दो वंदन देकर इच्छा० राइयं आलोउं इच्छं 'आलोएमि जो १-जहां जहां दो वंदन' देने का लिखा हो वहां सर्वत्र "इच्छामि खमासमणो बंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीह" इत्यादि संपूर्ण सूत्र दो बार बोल कर द्वादशावर्त वंदन करना चाहिये। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 पोषधविधि। मे राइओ०' इत्यादि पाठ बोल के 'सव्यस्स वि राइअ' इत्यादि कहना, बाद में गुरु पदस्थ हों तो दो वंदन देकर और सामान्य हों तो एक 'खमासमण' देकर 'इच्छकार' और 'अब्भुट्टिओहं' के पाठसे खमाना / अंत में फिर दो वन्दन देकर 'इच्छकारी भगवन् पसाय करी पच्च्चक्खाण का आदेश दीजोजी' कह कर पच्चक्खाण लेना। इसके बाद दो दो खमासमण, इच्छकार, और अन्भुट्टिओहं' के पाठ से बाकी के सर्व मुनिराजों को वंदन करना / 11 जिनदर्शन विधि पोषध लेने के बाद जिनमंदिर दर्शनार्थ अवश्य जाना चाहिये / उत्तरासन कर, कटासन कंधे पर, चरवला बायी बगल में और मुहपत्ति दाहिने (जीमणे ) हाथ में रख कर जीवजयणा पालते हुए अभिगम, निसीहि आदि विधिपालनपूर्वक मंदिर में प्रवेश करना और मंडप में जा दर्शन, स्तुति कर ईर्यावहीप्रतिक्रमणपूर्वक चैत्यवंदनविधि करना, बाद में 'निसीहि' कह कर मंदिर से पीछा पोषधशाला आना। मंदिर पोषधशाला से 100 कदम से अधिक दूर हो तो आकर इरियावही करना और 'गमणा गमणे' कहना, अन्यथा जरूरत नहीं। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 471 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 12 दूसरी बार काजा लेने की विधि अगर वर्षाऋतु का समय हो तो पौषधिक को पोरिसी पढाने के बाद और दो पहर का देववंदन करने के पहिले पौषधशाला में दूसरी बार काजा (पूजा) निकालना चाहिये / ___ इसकी विधि इतनी ही है कि एक जन इरियावही करके मकान में काजा निकाल कर यों ही बाहर पठ देवे, फिर इरियावही करने की जरूरत नहीं है। 13 पच्चक्खाण पारने की विधि चौविहार उपवासवालों को तो पच्चक्खाण पारने की जरूरत नहीं है, परंतु जिनको तिविहार उपवास, आयंबिल, निवी अथवा एकाशन हो उनको पूर्वोक्त विधिसे दोपहर का देववंदन करने के बाद नीचे लिली विधि से पच्चक्खाण पारना चाहिये। प्रथम इरियावही करके खमा० इच्छा० 'चैत्यवन्दन करूं' 'इच्छं' कहके 'जगचिन्तामगि' का चैत्यवन्दन, नमुत्थुणं, दोनों जावन्ति, उपसग्गहर और सम्पूर्ण जयवीयराय कहना / __ -वर्षाऋतु श्रावणवदि 1 से कार्तिक शुदि 15 तक गिनी जाती है, परंतु वर्तमान परम्परा मुजब आषाढ शुदि 15 से कात्तिक शुदि 14 तक दूसरी वार काजा लिया जाता है। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 पोषधविधि। बाद में स्वमा० इच्छा० 'सज्झाय करूं' 'इच्छं' कह के एक नवकार गिन 'मन्नह जिणाण' सज्झाय करना। फिर खमा० इच्छा 'मुहपत्ति पडिले हुं ?' 'इच्छं' कह मुहपत्ति पडिलेहणा करनी और खमा० इच्छा० पच्चक्रवाण पारुं ?' 'यथाशक्ति' फिर खमा० इच्छा ‘पञ्चक्खाण पायु' 'तहत्ति' कह के दाहिना (जीमना) हाथ मुठिवाल कर चरखला के ऊपर स्थापना और एक नवकार गिनके जो पञ्चखाण किया हो उस का नाम ले कर नीचे का पाठ बोलना "उग्गए सूरे नमुक्कारसहि पोरिसी साढपोरिसी सूरे उग्गए पुरिमड्डमुट्ठिसहिअं पच्चखाण कयु चउविहार आयंबिल, नीवि, एकाशन कयु तिविहार पञ्चक्खाण फासिअं. पालिअं सोहिअं, तीरिअं, किट्टिअं, आराहिअं, जं च न आराहि तस्स मिच्छामि दुक्कडं / " उपर का पाठ बोलने के बाद एक नवकार गिनना। पोरिसी, साढपोरिसी, पुरिमढ अथवा इनके साथ आयंबिल, निवी, या एकाशन का पञ्चक्खाण किया हो वे ऊपर के पाठ से अपने पञ्चक्खाण पारें, परंतु जिनके तिविहार उपवास हो वे नीचे के पाठ से अपना पच्चक्खाण पारें- . "सूरे उग्गए उपवास कों तिविहार, -पोरिसी-साढ पोरिसी पुरिमड्ढ मुट्टिसहिअं पच्चक्खाण कयु पाणाहार, पञ्च Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 473 क्खाण फासिअं, पालिअं, सोहिअं, तीरिअं, किट्टि, आराहिअं जं च न आराहि तस्स मिच्छामि दुक्कडं / " प्रत्येक पच्चक्खाण पारनेवालों को अंत में एक एक नवकार गिनना चाहिये। 14 पानी पीने और भोजन करने की विधि पौषधिक को तिविहार उपवास हो और पानी पीना हो तब ऊपर की विधि से पच्चक्खाण पार के आसन पर बैठ याचित अचित्त जल पीना चाहिये और जिस बर्तन से जल पिया हो उसे शुद्धवस्त्र से पोंछ लेना चाहिये और जल के बर्तन को ढंक कर रखना चाहिये / ___ जिसके आंचिल, निवी या एकाशन हो और अपने घर भोजन करने जाना हो उसको ईर्यासमिति पालते हुए जाना और घरमें प्रवेश करके "जयणा मंगल" ये शब्द बोल कर बैठने की जगह कटासन बीछा के बैठना, स्थापना स्थाप कर के इरियावही करना और खमासमण देकर 'गमणा गमणे' कहना चाहिये / फिर पाटला, थाली आदि भाजन देख साफ कर स्थिर आसन बैठ भोजन करे। उस समय मुनिराज का योग हो तो उनको दान देकर भोजन करे / आहार उतना ही ले जितना सुखपूर्वक खाया जा सके, क्योंकि भोजन उच्छिष्ट Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 __पोषधविधि। (जूठा) छोडने पर पौषधिक को प्रायश्चित्त लेना पडता है। भोजन करते समय बोलना नहीं चाहिये, कोई चीज लेनी हो तो इशारे से मांगे अथवा पानी से कुल्ला करके बोले / जिसको घर न जाना हो वह पौषधशाला में ही पुत्रादिद्वारा लाया आहार करें / घर जाकर स्थापना स्थापने, इरियावही करने आदि की जो विधि कही है वह पोषधशाला में भोजन करने वालों को करने की जरूरत नहीं। बाकी सब बातें दोनों जगह समान भावसे करनी चाहिये। भोजन के बाद मुख शुद्ध करके 'दिवसचरिमं तिवि. हार' का पच्चक्खाण कर लेना चाहिये और जहां बैठ कर आहार किया हो वहां काजा निकाल लेना चाहिये / भोजन के लिये. घर जाने वालों को भोजन करके तुरंत पोषधशाला आ जाना चाहिये और सबको आहार करने के बाद इरियावाही कर 'जगचिन्तामणि' से लेकर 'जयवीयराय' पर्यन्त चैत्यवन्दन करना चाहिये / १-आज कल यही प्रवृत्ति अधिक चल रही है इस लिये विधि में लिखना पडा है, वास्तव में पौषधिक को दूसरे का लायो हुआ आहार पानी ग्रहण करना ठीक नहीं, स्वयं लाना चाहिये अथवा अन्य पौषधिक से मंगवाना चाहिये, क्योंकि दूसरे अव्रती का लाया हुआ आहार पानी ग्रहण करना पोषध का दोष माना गया है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 15 मल-मूत्र की शंका दूर करने की रीति औदारिक शरीर मल मूत्र का स्थान है इस कारण पोष. हवालों को भी इन शरीर शंकाओं को दूर करना पडता है, परंतु पोषध में यह काम जयणापूर्वक करना चाहिये, इस लिये पौषधिक को अचित्त (गर्म किया हुआ) जल, छोटी कुंडिया और पोंछनी आदि चीजें पहले से ही याच कर रख लेना चाहिये / ___ जब शंका निवृत्ति के लिये जाना हो, पहले पहनने का वस्त्र बदल देना चाहिये, मुहपत्ति कमर में-कंदोरे में भरा देनी चाहिये और चरवले को बायी (डाबी) बगल में रख, कंबल काल में कंबल ओढ़ कर, अन्यथा वगैर कंबल के एकान्त में जहां बैठने की जगह हो कुंडिया को पोंछनी से पोंछ कर उसमें लघुशंका (पैशाब) करे और बाहर. अथवा जहां खुली जगह हो उसको परठ (फेंक) दे / / परठने की जगह जाकर पहले कुंडि को जमीन पर रख मन में "अणुजाणह जस्सुग्गहो" ये शब्द बोले, बाद में परठे और परठने के बाद फिर कुंडी को नीचे रख कर मन में तीन बार 'वोसिरे' यह शब्द बोले / बादमें कुंडि को स्थान पर रख दे। ___बाडा अथवा खुला बडा मैदान हो और मनुष्यों की दृष्टि अधिक न पडती हो तो विना कुंडि के भी लघुशंका निजीव भूमि में की जा सकती है। . Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 पोषधविधि। __शंका निवृत्ति करने के बाद हाथ धो डालना चाहिये / बडी शंका (टट्टी) भी इसी विधिसे जाना चाहिये / यहां कुंडि के स्थान जल का लोटा लेकर जहां टट्टी जाने की जगह हो, जाना और बैठने के पहले “अणुजाणह जस्सुग्गहो" तथा उठने के बाद तीन बार 'वोसिरे' शब्द पूर्ववत् बोलना चाहिये / शंकानिवृत्ति कर स्थान पर आ के हाथ पग शुद्ध करना और पहरने का वस्त्रं बदलना चाहिये / बाद में स्थापनाचार्य के संमुख इरियावही कर 'गमगा गमणे' कहना। 16 चौथे पहर की प्रतिलेखनाविधि पौषधिक उक्त जरूरी कामों से निवृत्त होने के बाद स्वाध्याय-ध्यान या धर्म चर्चा में समय बीतावे और दिन के तीन पहर वीतने के बाद दूसरी बार पडिलेहणा करे जिसकी विधि नीचे मुजब है। खमा० इच्छा० 'बहुपडिपुन्ना पोरिसी' फिर खमा० इच्छा० 'इरियावहि पडिक्कमामि' 'इच्छं' कह कर इरियावही करना, बाद में खमा० इच्छा० 'पडिलेहण करूं ?' 'इच्छं' फिर खमा० इच्छा० 'पोषणशाला प्रमाणु' 'इच्छं' कह के उपवासवाला मुहपत्ति, कटासन और चरवला की. पडिलेहण करे और जिसने आयंबिल, एकाशन आदि किया हो वह उपर्युक्त Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह . 477 सीन चीजों के उपरान्त कंदोरे और धौती की भी इसी समय पहिलेहग करे। बादमें पांच उपकरणों की पडिलेहणा करनेवाले इरियाचही करके और तीन उपकरण पडिलेहने वाले विना इरियावही किये ही 'खमासमण' देकर 'इच्छकारी भगवन ! पसाय करी पडिलेहणा पडिलेहावो जी' इस प्रकार आदेश मांग के मुनिराज का योग हो और स्थापनाचार्य की पडिलेहणा उन्होंने कर दी हो तो बड़ेरे श्रावक के उत्तरासन की पडिलेहणा करे, अगर स्थापनाचार्य की पडिलेहणा न हुई हो तो होने तक ठहर जाय, बाद में उत्तरासन पडिलेहे, अगर गुरुमहराज का योग न हो और स्थापनाचार्य के आगे पोसह किया हो तो यहां स्वयं स्थापनाचार्य की पडिलेहण करे, फिर खमा०इच्छा० 'उपधिमुहपत्ति पडिलेहुँ' 'इच्छं' कह मुहपत्ति पडिलेहण करे, बाद में खमा० इच्छा०"सज्झाय करूं' 'इच्छं' कह एक नवकार गिन उकडु बैठ कर 'मन्नह जिणाण सज्झाय कहे / बाद में खाने चाले दो वंदन देकर पानी न पीना हो तो पाणाहार का और पानी पीना हो तो मुट्टिसहियं का पच्चक्खाण करे / तिविहार उपवासवालों को वंदन देने की जरूरत नहीं, वे खमासमण दे के 'इच्छकारी भगवन् पसाय करी पच्चक्खाण का आदेश दीजो जी' कह कर पाणाहार का पच्चक्खाण करे। चउविहार उपवासचालों को यहां पच्चक्खाण करने की जरूरत नहीं है / जिसने प्रातःकाल तिबिहार उपवास का पच्चक्खाण किया हो परंतु Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 पोषधविधि। पानी न पिया हो और पीना भी न हो तो यहां पर चउविहार उपवास का पच्चक्खाण कर ले। फिर खमा० इच्छा० 'उपधि संदिसाहुं 'इच्छं' खमा० इच्छा० 'उपधि पडिलेहुँ' 'इच्छं' कह कर बाकी सर्व वस्त्रों की पडिलेहण करे। पडिलेहण करके सब अपने अपने वस्त्रादि उपकरण उठा कर खडे हो जायें और उनमें से एक जन इरियावही करके काजा ले शुद्ध कर दूसरी बार इरियावही कर विधिपूर्वक्र परठ देवे और अन्त में सर्व अविधि आशातना का मिच्छामि दुक्कडं दें। 17 मुट्ठिसहिअ पच्चक्खाण पारने की विधि पडिलेहण में जिसने मुट्ठिसहिअं का पञ्चक्खाण किया हो और पानी पीना हो वह पडिलेहण करके पहले मुट्ठिसहि का पच्चक्खाण पारे। . मुट्ठिसहिअं का पच्चक्खाण पारने में विशेष विधि नहीं है, कटासनपर बैठ दाहिने (जीमने) हाथ की मुहि वाल कर चरवले पर रखे और एक नक्कार गिन कर "मुट्ठिसहि पञ्चक्खाण फ.सिअं, पालिअं, सोहिअं, तीरिअं, किट्टिअं, आराहियं, जं च न आराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं" यह पाठ बोल पच्चक्वाण पारे और यह भी न बने अथवा याद न हो तो मुढिवाल के तीन नवकार गिनने से भी चल सकता है। पीछे देववन्दन के पहले पहले पानी पी लेवे, क्यों कि देववन्दन करने के बाद Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजैनज्ञान-गुणसंग्रह 479 पानी नहीं पियां जाता। बाद में सब मिलकर तीसरी बार का देववन्दन करे। 18 देवसिक प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण पोसहवालों और दूसरों के लिये एक ही है, परन्तु उसमें जहां जो फरक आता है वह यहां बताया जाता है। ___ पौषधिक श्रावक को प्रतिक्रमण के समय सामायिक लेने की, पच्चक्खाणमुहपत्ति पडिलेहणे की और पच्चक्खाण लेने के लिये दो वन्दन देने की जरूरत नहीं है, क्यों कि उनके सामायिक ली हुई है और पच्चक्खाण की क्रिया पडिलेहण के समय की हुई है / हां, पाणाहार का पच्चक्खाण पहले न किया हो तो उस समय कर ले / बाकी पौषधिक को इरियावही करके प्रतिक्रमण का चैत्यवन्दन शुरू करना चाहिये और दैवसिक या पाक्षिक जो प्रतिक्रमण हो विधिमुजब करना चाहिये। उसमें सात लाख और अठारह पापस्थान की जगह पौषधिक "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् गमणागमणे आलोउं?" 'इच्छं' कह कर "इरिया समिति, भाषासमिति०" इत्यादि 'गमणागमणे' का पाठ बोले और 'करेमि भन्ते' के पाठ में 'जाव नियम के स्थान में 'जाव पोसह शब्द चोले / Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 480 पोषधविधि। 19 पोषध पारने की विधि प्रतिक्रमण समाप्त होने के बाद पोसह पारने के पहले दंडासन, कुण्डिया, पानी विगैरह चीजें जिसके पोषध न हो उस गृहस्थ को सुपुर्द कर दे और फिर इस विधि से पोसह पार। . पहले खमासमणपूर्वक इरियावही करे और चउक्कसाय से ले जयवीयरायपर्यन्त चैत्यवन्दनसूत्र वोले। फिर खमा० इच्छा० 'मुहपत्ति पडिलेहुं?' 'इच्छं' कह मुहपत्ति पडिलेहे, बाद में खमा० इच्छा० 'पोसह पारुं ?, यथाशक्ति, खमा० इच्छा० 'पोसह पार्यो ?, तहत्ति कहके एक नवकार गिन दाहिना (जीमना) हाथ चरवला के ऊपर स्थापन कर नीचे लिखा हुआ 'सागरचन्दो' का पाठ कहे सागरचन्दो "सागरचन्दो कामो, चन्दवडिसो सुदंसणो धन्नो / जेसिं पोसहपडिमा, अखंडिआ जीविअंते वि // 1 // धन्ना सलाहणिज्जा, सुलसा आणंदकामदेवा य / जास पसंसइ भयवं, दढव्ययत्तं महावीरो // 2 // " पोसह विधिए लीधो, विधिए पार्यो, विधि करतां जे कंई Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 481 अविधि हुओ होय ते सविहुं मन वचन कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं / फिर खमा० इच्छा० मुहपत्ति पडिले हुं ? 'इच्छं' कह कर मुहपत्ति पडिलेहण करे और खमा० इच्छा० 'सामायिक पारुं?' यथाशक्ति, खमा० इच्छा० 'सामायिक पायु' 'तहत्ति' कहके चरवले पर हाथ स्थापन कर नवकार गिन नीचे लिखा सामायिक पारने का पाठ वोले "सामाइअवयजुत्तो, जाव मणे होइ नियमसंजुत्तो।। छिन्नइ असुहं कम्म, सामाइअअत्तिआवारा // 1 // . सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुजा // 2 // " सामायिक विधे लीधुं, विधे पायु, विधि करता जे कंह अविधि हुओ होय ते सविहुं मने वचने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं / " Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 रात्रिपोषध रात्रिपोषध 1 पौषधिक प्रकार ' रात्रिपोषधवाले दो प्रकार के होते हैं- एक तो आठ पहर का पोषध लेने वाले और दूसरे शामको रत्रियोषध लेने वाले / आठ पहर का पोषध लेने वालों को फिर रात्रिपोषध उच्चरने की जरूरत नहीं है। शाम को रात्रिपोषध लेने वाले भी दो तरह के होते हैंकोई प्रातः चार पहर का पोषध लेकर शामको रात्रिपोषध उच्चरते हैं और कोई केवल शाम को ही रात्रिपोषध लेते हैं। इनमें जो दिनके पौषधिक शामको रात्रिपोषध उच्चरते हैं उन को शाम की पडिलेहण के समय इरियावही से लेकर 'बहुवेल करशुं' तक की तमाम विधि दिवसपोषध की विधि मुजब ही करनी चाहिये, सिर्फ 'वेसणे संदिसाई' 'बेसणे ठाउं' ये दो आदेश लेने के बाद एक खमासमण दे के 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सज्झायमा छु इस प्रकार का एक ही आदेश लेना और एक नवकार गिनना चाहिये, तीन नहीं। परन्तु जिनके दिवसपोषध नहीं है वे रात्रिपोषध लेते समय भी 'बहुवेल कर\' पर्यंत की तमाम विधि दिवसपोषधविधि के अनुसार करें। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 483 शामकी पडिलेहण और देववन्दन सब पोषधिक एक साथ समान-रीति से करें। 2 स्थंडिलपडिलेहणा सभी प्रकार के रात्रिपौषधिकों को जल, पथारी के लिए संथारिया-उत्तरपट्टा, कानों में डालने के लिये कुण्डल और दंडासन आदि जरूरी उपकरण पास में रख लेना चाहिये / इतना ही नहीं किंतु रात्रि में मात्रा परठने और स्थंडिल जाने योग्य नजदीक, मध्यम और दूर ऐसे तीन स्थानो को देख रखना चाहिये / आधुनिक प्रवृत्ति मुजब संथारा करने की जगह, पोषधशाला के द्वार के आस पास की भूमि और पोषधशाला से 100 हाथ तक के प्रदेश को अनुक्रम से नजदीक मध्यम और दूर का स्थान माना जाता है। इन स्थानों की प्रतिलेखना आज कल नीचे मुजब 24 मण्डलों द्वारा की जाती है। प्रथम इरियावही करके खमा० इच्छा० 'स्थंडिल पडिलेहुं?' 'इच्छं' कह कर चरवला दाहिने हाथमें ले उपर्युक्त स्थानों की तरफ फिराता हुआ नीचे का पाठ बोले . (1) 1 आगाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अणहियासे / 2 आगाढे आसन्ने पासवणे अणहियासे / Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 रात्रिपोषध 3 आगाढे मज्ज्ञे उच्चारे पासवणे अणहियासे / 4 आगाढे मज्झे पासवणे अणहियासे / . 5 आगाढे दूरे उच्चारे पासवणे अणहियासे। 6 आगाढे दूरे पासवणे अणहियासे / (2) हवास / 1 आगाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अहियासे / . 2 आगाढे आसन्ने पासवणे अहियासे / 3 आगाढे मज्झे उच्चारे पासवणे अहियासे / 4 आगाढे मज्झे पासवणे अहियासे / 5 आगाढे दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे / 6 आगाढे दूरे पासवणे अहियासे / (3) 1 अणागाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अणहियासे / 2 अणागाढे आसन्ने पासवणे अणहियासे / 3 अणागाढे मज्झे उच्चारे पासवणे अणहियासे / 4 अणागाढे मज्झे पासवणे अगहियासे / 5 अणागाढे दूरे उच्चारे पासवणे अणहियासे / 6 अणागाढे दूरे पासवणे अणहियासे / / Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 485 / 1 अणागाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अहियासे / 2 अणागाढे आसन्ने पासवणे अहियासे / 3 अणागाढे मज्झे उच्चारे पासवणे अहियासे / 4 अणागाढे मज्झे पासवणे अहियासे / 5 अणागाढे दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे / 6 अणागाढे दूरे पासवणे अहियासे / ऊपर जो 6-6 मण्डलों के 4 पाठ दिये गये हैं उन प्रत्येक में पहला दूसरा तीसरा चौथा और पांचवां छठा ये दो दो वाक्य अनुक्रम से निकट, मध्यम और दूर के स्थण्डिलों की प्रतिलखना के प्रतिपादक हैं इस वास्ते प्रत्येक पटक में इन दो दो वाक्यों को बोलते समय नजदीक मध्यम और दूर के स्थंडिल की प्रतिलेखना की भावना से उस तरफ चरवला फिराना चाहिये। आज कल की प्रवृत्ति में पहले छः मण्डल करते समय चरवला पथारी के स्थान की तरफ फिराते हैं, दूसरे छः मण्डलों में पोषधशाला के भीतर द्वार के पास, तीसरे छः में द्वार के बाहर और चौथे छः मण्डल करते समय पोषधशाला के बाहर सौ हाथ के अन्दर चरवला फिरा कर प्रतिलेखना की भावना * की जाती है। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिपोषध - 3 दैवसिक प्रतिक्रमण देवसिकप्रतिक्रमण सभी पौषधिकों के लिये समान है इस वास्ते 'दिवसपोषध' के अधिकार में कहे मुजब ही रात्रिपोषधवालों को भी दैवसिकप्रतिक्रमण कर लेना चाहिये / हां, इतना जरूर है कि रात्रिपोषधवालों को प्रतिक्रमण के पूर्ण होने पर इरियावही या चउकसायादिविधि करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह विधि उनको संथारापोरिसी पढाते समय करने की है। 4 संथारा पोरिसी पढाने की विधि लगभग एक पहर रात तक का समय पौषधिक को स. ज्झाय-ध्यान या धर्मचर्चा में बीताना चाहिये, और बाद में पूर्वप्रतिलेखित स्थान में दण्डासन या चरवले से प्रमार्जन कर संथारा करे / पूर्वकाल में संथारा दर्भ का किया जाता था परन्तु आज कल ऊनी संथारिया या कम्बल बीछा कर उस पर एक सूती कपडा (उत्तरपट्टा) बीछा लेते हैं। __ संथारा बीछा कर नीचे लिखी विधि से संथारा पोरिसी पढाई जाती है। ___ खमा० इच्छा० 'बहुपडिपुन्ना पोरिसी' फिर खमासमणपूर्वक इरियावही करे / बाद में खमा० इच्छा० 'बहुपडिपुन्ना Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिमा और नमुत्भारपोरिसी .. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 487 पोरिसी राइयसंथारए ठामि' 'इच्छं' कह चउक्कसाय का चैत्यवन्दन और नमुत्थुणं से जयवीयरायपर्यन्त विधि करे, फिर खमा० इच्छा० 'संथारापोरिसी विधि भणाववा मुहपत्ति पडिलेहुं ?' 'इच्छं' कह मुहपत्ति पडिलेहण करे, पीछे "निसीहि निसीहि निसीहि नमो खमासमणाणं गोयमाईणं महामुणीणं" यह पाठ, एक नवकार और करेमि भन्ते बोले, इस प्रकार इस पाठ को एक नवकार, तथा करेमिभन्ते के साथ तीन वार वोलकर फिर नीचे का पोरिसी पाठ पढे "अणुजाणह जिट्ठजा-अणुजाणहं परमगुरू, गुरुगुणरयणेहि मण्डियसरीरा / बहुपडिपुना पोरिसी, राइअसंथारए ठामि // 1 // अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेण, वामपासेणं / कुक्कुडिपायपसारण, अतरंत पमज्जए भूमि // 2 // संकोइअसंडासा, उव्वदृते य कायपडिलेहा / दव्वाइउवओगं, ऊसासनिरुम्भणालोए // 3 // जइ मे हुज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए / आहारमुवहिदेहं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं // 4 // चत्तारि मंगलं-अरिहन्ता मङ्गलं, सिद्धा मङ्गलं, . साहू मङ्गलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मङ्गलम् // 5 // चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहन्ता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो // 6 // Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 रात्रिपोषध चत्तारि सरणं पवजामि, अरिहन्ते सरणं. पवजामि, सिद्धे सरणं पवजामि, साहू सरणं पवजामि, केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवजामि // 7 // पाणाइवायमलिअं, चोरिक्क मेहुणं दविणमुच्छं। कोहं, माणं, मायं, लोमं पिज तहा दोसं // 8 // कलहं अब्भक्रवाणं, पेसुन्नं रइ-अरइसमाउत्तं / परपरिवायं माया-मोसं मिच्छत्तसल्लं च // 9 // वोसिरिंसु इमाई, मुक्खमग्गसंसग्गविग्धभूआई / दुग्गइनिबन्धणाई, अट्ठारस पावठाणाई // 10 // एगोहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ / एवं अदीणमणसो अप्पाणमणुसासइ // 11 // एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भाषा, सव्वे संयोगलक्खणा // 12 // संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा / . तम्हा संयोगसम्बन्धं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं॥१३।। अरिहन्तो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो! जिगपन्नत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहिअं // 14 // (यह १४वीं गाथा तीन बार बोल के सब 7 नवकार गिने, फिर आगे की गाथायें बोलें)। खमिअ खमाविअ मइ खमिअ, सबह जीवनिकाय / सिद्धह साख आलोयणह, मुज्झह न वइर-भाव / / 15 / / Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 489 सव्वे जीवा कम्मवस, चउदहराज भमन्त / ... ते मे सब खमाविआ, मुज्झवि तेह खमन्त // 16 // जं जं मणेण बद्धं, जं जं वायाइ भासि पावं / जं जं काएण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स // 17 // " समाप्ति में अविधि आशातना का मिच्छामि दुक्कडं - देना / मुहपत्ति कन्दोरे में भरा, कटासन तथा चरवला पथारी के पास एक तरफ रख पहिरने का वस्त्र बदल कर सो जाय। सोने के बाद बातचीत या किसी भी प्रकार की गडबड न करे / अगर नींद न आती हो तो मन में नवकारमन्त्र का ध्यान करे। शरीर-बाधा दूर करने के लिये अथवा अन्य किसी भी कारण से रात को उठना पडे तो दण्डासन से जमीन प्रमार्जन करते हुए चलना चाहिये। ... 5 निद्रात्याग और प्राभातिक प्रतिक्रमण जितना भी हो सके पौषधिक को प्रमाद का सेवन कम करना चाहिये / कम से कम दो मुहूर्त (कच्ची 4 घडी) पिछली रात रहते उठ जाना चाहिये / उठते ही नवकार स्मरण कर धार्मिक भावका पोषक शुभचिन्तन तथा ध्यान करके रात्रिकप्रतिक्रमण करे। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 पोषधविधि। . पौषधिक के रात्रिकप्रतिक्रमण में जो फेरफार है वह "पोषध लेने के बाद राइयप्रतिक्रमण" नामक 'दिवसपोषध' के छठे प्रकरण में बता दिया है। 6 प्राभातिक प्रतिलेखना. रात्रिपौषधिकों को प्राभातिक प्रतिक्रमण करके सूर्योदय होने के लगभग समय में प्रतिलेखना करनी चाहिये / / इस प्राभातिक प्रतिलेखना की विधि अक्षरशः "प्रतिलेखना विधि- नामक 'दिवसपोषध' के 4 थे प्रकरण में लिखे मुजब है / भेदमात्र इतना ही है कि वहां पोषध उच्चरने के अनन्तर होने से 'इरियावही' किये बिना ही पडिलेहण शुरू की जाती है और यहां खमासमणपूर्वक इरियावही करने के बाद खमा० इच्छा० 'पडिलेहण करूं ?' इत्यादि आदेश मांगे जाते हैं, बाकी तमाम विधि एक ही है। 7 देववन्दन तथा सज्झायप्रतिलेखना के बाद रात्रिपौषधिक को "देववन्दन विधि" नामक 7 वें प्रकरण में लिखित विधि मुजब देववन्दन और "सज्झायविधि" नामक 8 वें प्रकरण में लिखित विधि मुजब सज्झाय करना चाहिये / बाद में दण्डासन, कुण्डी, पानी, कुण्डल, कम्बल, आदि जो चीजें याच कर ली हों वे सब पोषधरहित-गृहस्थ को सौंप दे / बाद में पोषध पारे / Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 8 रात्रिपोषध पारने की विधि रात्रिपोषध और दिवसपोषध के पारने की विधि में कुछ भी अन्तर नहीं है / भेदमात्र इतना ही है कि दिवसपोषध पारते समय इरियावही करके 'चउक्कसाय' से ले 'जयवीयराय" पर्यन्त चैत्यवन्दन कर बाद में खमासमणपूर्वक पोषध पारने की मुहपत्ति पडिलेहते हैं / इसके आगे दोनों प्रकार के पोषध पारने की विधि “पोषध पारने की. विधि" नामक 19 वें प्रकरण में लिखे मुजब है। ' प्रकीर्णक 1 पोषध व्रत के पांच अतिचार(१) शय्या-संथारे की भूमि की पडिलेहणा न करे,अथवा अविधि से पडिलेहण करे। (2) शय्या-संथारे की भूमि की प्रमार्जना न करे, अथवा अविधि से प्रमाजन करे। (3) स्थण्डिलभूमि ( लघुनीति-बडी नीति जाने की जगह) की प्रतिलेखना न करे, अथवा अविधि से प्रतिलेखना करे। (4) स्थंडिलभूमि की प्रमार्जना न करे, अथवा अविधि से - करे। . Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 पोषधविधि। (5) पोषध विधिपूर्वक पूरा न करे, पारणा की चिन्ता करे, घर के कामों की चिन्ता करे, पोषध के 18 दोष न टाले / सर्व पौषधिकों को पोषधत्रत के उपर्युक्त पांच अतिचार टालने का प्रयत्न करना चाहिये / 2 पोषधव्रत के 18 दोष (1) अवती गृहस्थ का लाया हुआ आहार पानी ग्रहण करे। (2) सरस आहार के लोभ से पोषध करे / (3) पोषध के निमित्त पहले सरस आहार करे। (4) पोषध में अथवा. पोषध के लिये पहले शरीर विभूषा करे। (5) पोषध के निमित्त वस्त्र धुलावे। . (6) पोषध के निमित्त आभूषण घडावे अथवा पहिरे। (7) पोषध के निमित्त वस्त्र रंगावे / (8) शरीर पर से मेल उतारे। (9) अकालशयन करे-निद्रा करे / (10) स्त्रीकथा करे। (11) आहारकथा करे / (12) राजकथा करे। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 493 (13) देशकथा करे। (14) प्रतिलेखन-प्रमार्जन किये विना मल मूत्र परठे / (15) किसी की शिन्दा करे / (16) मातापिता पुत्र भाई आदि से सांसारिक बातें करे / (17) चौरसम्बन्धी वार्तालाप करे / (18) स्त्रियों के अङ्गोपाङ्ग सरागदृष्टि से देखे / ____ ऊपर लिखी हुई 18 बातें पोषध में करे तो पौषधिक को दोष लगता है इसलिये इनका त्याग करना चाहिये / 3 सामायिक के 32 दोष (मन के 10) (1) विधि समझे बगैर सामायिक करे / (2) यश-कीर्तिकी आशा से सामायिक करे / (3) धन की इच्छा से सामायिक करे / (4) सामायिक करने का गर्व करे। (5) लोकनिन्दा के भय से सामायिक करे / (6) सामायिक करके पौद्गलिक सुखप्राप्ति का निदान करे। (7) सामायिक के फल में संशय करे। (8) कषाययुक्त चित्त से सामायिक करे / (9) गुरु का अथवा स्थापनाचार्य का विनय न करे / (10) भक्तिभाव से सामायिक न करे। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 पोषधविधि (वचन के 10) (1) कुवचन बोले। (2) उपयोगशून्य अविचारित भाषण करे। (3) किसी के ऊपर असत्य कलङ्क लगावे / (4) शास्त्रविरुद्ध बोले-उत्सूत्र भाषण करे / (5) सूत्रपाठ पूरा न बोले। (6) किसी के साथ कलह करे / (7) राजकथादि चार विकथा करे / (8) किसी की ठट्ठा मश्खरी करे / (9) सूत्रपाठ अशुद्ध बोले। . (10) सूत्रपाठ का उच्चारण जल्दी जल्दी करे / ( काया के 12) (1) पग ऊपर पग चढा कर बैठे या ऊंचे आसन बैठे। (2) चपलता से बार बार आसन बदले / (3) हिरन की तरह चपलदृष्टि से चारों ओर देखा करे। (4) सावध कार्य करने का संकेत करे / (5) स्तम्भ आदि का अवष्टंभ (ओठा) लेकर बैठे / (6) विना कारण हाथ पग पसारे और संकोचे / (7) अगडाई ले (आलस मरडे) (8) अंगुली आदि को मरोड कर काटके पाडे / . Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 495 (9) खाज खिने / (10) हाथ पग टेक कर बैठे। (11) निद्रा ले। (12) ठण्डी या मच्छरों के भय से सारा शरीर ढक कर बैठे। ऊपर लिखे 10 मनसम्बन्धी, 10 वचनसम्बन्धी और 12 कायसम्बन्धी सामायिक के दोष हैं, इनको सामायिक करने वालों को अवश्य वर्जेने का प्रयत्न करना चाहिये / 4 मुहपत्ति के 50 बोल (1) सूत्र अर्थ तय करी सद्दहुं ( दृष्टिपडिलेहणा) (3) समकिामोहनी, मिश्रमोहनी, मिथ्यात्वमोहनी परिहरूं। (3) कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग परिहरु / (3) सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरूं। .. (3) कुदेव, कुगुरु, कुधर्म परिहरु।। (3) ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरं / (3) ज्ञानविराधना, दर्शनविराधना, चरित्रविराधना परिहरूं। (3) मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति आदरूं / (3) मनदण्ड, वचनदण्ड, कायदण्ड परिहरूं। (3) हास्य, रति, अरति परिहरु (बायी भुजा पर मुहपत्ति फ़िरानी) (3) भय, शोक, दुर्गच्छा परिहरु ( दाहिनी भुजा पर) Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषधविधि। (3) कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या परिहरु (मस्तके) (3) रसगारव, ऋद्धि गारव, सातागारव परिहरु ( मुखे ) (3) मायाशल्य, नियागशल्प, मिथ्यात्वशल्य परिहरु (हृदये) (2) क्रोध, मान परिहरु ( बायी भुजा के पीछे ) (2) माया, लोभ, परिहरूं ( दाहिनी भुजा के पीछे ) (3) पृथ्वी काय, अकाय, तेउकायनी जयणा करूं ( बाये पग पर ) . (3) वाउकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकायनी रक्षा करूं ( दाहि ने पग पर) इन बोलों को बोलने के साथ किस प्रकार पडिलेहणा करनी इसका यथार्थ अनुभव इसके जानकार से हो सकता है तो भी थोडा सा खुलासा यहां देना उचित समझा जाता है / ____ आरम्भ के 7 बोल मुहपत्ति को खोल किनारी वाले दो कोनों से पकड कर प्रदक्षिणारूप में तीन बार फिराते हुए बोलना चाहिये / आगे के 'सुदेव' से 'कायदण्ड परिहरु पर्यन्त के 18 बोल मुहपति को दाहिने हाथ की अंगुलियों के अन्तरों में पकड कर बाये हाथ की हथेली में फिराते हुए बोले जाते हैं / 'आदर वाले बोल बोलते समय मुहपत्ति को हथेली में ऊपर की तरफ चढाया जाता है, और 'परिहरुं वाले बोलते समय अंगुलियों की तरफ नीचे उतारा जाता है / यहां तक के 25 बोल मुहपत्तिपडिलेहणासम्बन्धी हैं। 'हास्य' से Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनशान-गुणसंग्रह 497 'सकायनी रक्षा करूं' तक के 25 बोल शरीरपडिलेहणा के हैं, इसलिये इनको बोलते समय इनके आगे () ऐसे कोष्ठक में लिखित अङ्ग-विभाग में मुहपत्ति को फिरा कर उसकी पडिलेहणा की जाती है / पडिलेहण में बोलों का उपयोग ऊपर जो मुइपत्तिपडिलेहणा के बोल कहे हैं वे पुरुषों की अपेक्षासे समझना चाहिये / स्त्रियां अंगपडिलेहणा के बोलों में से मस्तक के 3, हृदय के 3 और दो भुजाओं के 4 इन 10 बोलों को छोड कर शेष 40 बोलती हैं। _ धौती, उत्तरासन, कम्बल आदि वस्त्रों की पडिलेहणा करते समय भी मुहपत्तिक 25 बोल कहने चाहिये / कटासन चरवला और सूती कन्दोरा इन्हीं 25 बोलों में से शुरू के क्रमशः पन्द्रह, दश और दश बोलों से पडिलेहने चाहिये / 5 पोषध में जरूरी उपकरण दिवस-पोषध करने वाले को 1 मुहपत्ति, 1 चरवला, 1 कटासन, 1 धोती, 1 सूती कन्दोरा, 1 उत्तरासन, 1 लघुनीति तथा बड़ीनीति जाते समय पहिरने योग्य धोती और 1 नाक साफ करने के लिये वस्त्र का टुकडा, इतने उपकरण पास में रख कर पोषध लेना चाहिये / Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 पोषधविधि रात्रिपोषध करने वाले को उक्त 8 उपकरणों के उपरांत नीचे लिखे हुए उपकरण भी लेने चाहिये-१ ऊनी कम्बल, (ठण्डी की मौसम हो तो 2 भी रख सकते हैं) 1 उत्तरपट्टक सूती, 1 कुण्डल जोडी, 1 दण्डासन, 1 चूनाडाला हुआ पानी, 1 लोटा / इससे भी ज्यादा किसी उपकरण की जरूरत हो तो रख लेना चाहिये / 6 कम्बल-काल __ आषाढ शुदि 15 से कार्तिक शुदि 14 तक 6 घडी, कार्तिक शुदि 15 से फागुन शुदि 14 तक 4 घडी और फागुन शुदि 15 से आपाढ शुदि 14 तक 2 घडी का कम्बलकाल है, इसलिये प्रातः इतनी कच्ची घडी दिन चढने के पहले और सायं इतनी घडी दिन शेष रहे उसके बाद पौषधिक को कम्बल ओढे बगैर खुले आकाश में न जाना चाहिये / 7 अचित्त-जल काल __ आषाढ सुदि 15 से कार्तिक शुदि 14 तक 3 पहर, कार्तिक शुदि 15 से फागुन शुदि 14 तक 4 पहर और फागुन शुदि 15 से आषाढ शुदि 14 तक 5 पहर पर्यन्त अग्नि से 'अचित्त' किया हुआ जल 'अचित्त' रहता है / उक्त कॉल के बाद वह फिर पूर्ववत् 'सचित्त' हो जाता है, इस वास्ते समय पूरा होने के पहले ही उसमें थोडा सा कली का चूना-जिससे Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 499 पानी का रंग छाछ की आछ जैसा हो जाय-डाल देना चाहिये ताकि वह 24 पहर तक 'अचित्त' ही रहे / 8 जानने योग्य बातें(१) चार अथवा आठ पहर का पोषध करने वाले को उस दिन कम से कम एकाशन का तप तो अवश्य करना चाहिये। . (2) गुरु के योग में पोषध गुरुमुख से ही लेना चाहिये / - यदि देर होने के भय से स्वयं उच्चर ले तो भी बाद में राइमुहपत्तिपडिलेहणा के पूर्व फिर गुरुमुख से उच्चरना चाहिये। (3) पडिलेहणा उकडु पगों पर बैठ कर करनी चाहिये, उस समय बोलना न चाहिये, उत्तरासन रखना न चाहिये, जीवजन्तु की जयणा करनी चाहिये। (4) मुहपत्ति आदि पांच उपकरणों की पडिलेहणा स्थापना. चार्य की पडिलेहणा के पहले भी हो सकती है, परन्तु ___ "इच्छकारी भगवन् पसायकरी पडिलेहणा पडिलेहावो जी" इसके आगे की पडिहणाविधि स्थापनाचार्य की - प्रतिलेखना होने के वाद ही की जा सकती है। (5) पोषध में मध्याह्न का देववन्दन किये बगैर पच्चक्खान नहीं पारते / Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 पोषधविधि (6) पौषधिक और अपौषधिक सभी को एकाशन निवी या आयंबिल करने के बाद 'दिवसचरिमं तिविहार' का पच्चक्खाण करना चाहिये। (7) दूसरी बार की पडिलेहणा में उपवास आदि तपवालों .. को कन्दोरा और पहरने की धोती सबके पीछे पडिले हनी चाहिये। (8) मुख्यवृत्या पौषधिक की रात्रि में स्थण्डिल जाने का निषेध है, परंतु कारणविशेष से जाना पडे तो पोषध शाला से सौ कदम के अन्दर जाना चाहिये। (9) कंबलकाल में कंबल ओढे बिना खुली जगह में जाने बैठने, सोने का पौषधिक को निषेध है। (10) पौषधिक को मुहपत्ति और चरवला हर समय अपने पास रखना चाहिये और सौ हाथ के उपरान्त कहीं भी जाना हो तो कटासन साथमें रख कर जाना चाहिये। // इति // Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पोषधविधि'का परिशिष्ट देशावकाशिक व्रत लेने और पारनेकी विधि श्रावक के बारह व्रतोंमें 5 अणुव्रत और 3 गुणव्रत बार बार लिये नहीं जाते, परन्तु 4 शिक्षाव्रत अभ्यासरूप होने से बार बार लिये और पारे जाते हैं। सामायिक और पोषधवत के लेने तथा पारने की विधि 'पोषधविधि' में लिखी जा चुकी है, और 'अतिथिसंविभागवत' किस प्रकार किया जाय इसकी रीति भी उसके वर्णनमें बता दी गई है। अब रहा 'देशावकाशिकवत' सो इस के लेने तथा पारनेकी विधि यहां पर लिखी जाती है। देशावकाशिकवत लेने की विधि में देशभेदसे कुछ अंतर है / गुजरात में यह व्रत लेने के पहले द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सांसारिक प्रवत्तियों का मनमें नियम करने के बाद गुरुमुखसे अथवा स्वमुखसे "देसावगासिय उवभोगं परिभोगं पच्चक्खाई अन्नत्था 1. गुरु या अन्य उच्चराने वाले पच्चक्खाइ' बोले, और उच्चरनेवाला 'पच्चक्खामि बोले, स्वमुखसे उच्चरने वाला केवल 'पच्चक्खामि' ही बोले। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 पोषधविधि भोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरई" ___ यह आलावा बोल कर देशावकाशिक उच्चरते हैं और बादमें तत्काल अथवा समयान्तरमें सामायिक करते हैं / कुल 10 सामायिक करके देशावकाशिक पूरा करते हैं / मारवाड में कहीं कहीं तो ऊपर मुजब ही देशावकाशिक किया जाता है, परन्तु कई स्थानों में 'पोषध' की ही तरह यह व्रत भी इरियावहीप्रतिक्रमणपूर्वक मुहपत्तिपडिलेहणा कर के खमा० इच्छा० 'देसावगासिक संदिसाउं', खमा० इच्छा० 'देसावगासिक ठाउं ' 'इच्छं' कह नवकार गिन के नीचेका आलावा बोल कर उच्चरते हैं 'अहं नं भंते तुम्हाणं समीवे देसावगासिय उवभोगं परिभोगं पञ्चक्खामि, दुविहं तिविहेणं-मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि, तं देसावगासियं चउब्धिहं पनत्तंदव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं देसावगासियं सम्बदव्याई अहिगिच, खित्तओ णं जाव पोसहसालाए वा, कालओ णं जाव नियमं वा दिवसं, भावओ णं जाव एस परिणामो न परिवडइ, तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि // " 1 उच्चरनेवाला 'वोसिरामि' बोले, जो स्वमुखसे उच्च. रता हो तो केवल 'वोसिरामि' ही बोले। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 503 श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह इस के बाद सामायिकविधिसे सामायिक उच्चरते हैं और शाम को जब देशावकाशिक पारते हैं उसी समय सामायिक भी पारते हैं। देशावकाशिक पारते समय इरियावही, मुहपत्तिपडिलेहणा और आदेश लेना आदि विधि पोषध की तरह की जाती है और चरवले पर हाथ स्थापन कर नवकार गिन के 'सागरचंदो' की जगह नीचे की गाथा बोली जाती है "जं जं मणेण बद्धं, जं जं वायाए भासिय पावं / जं जं काएण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स // " इस के बाद सामायिक पारते हैं / इति / ज Page #523 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- _