________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 223 रोग उरग तुज-नवि नडे, अमृत जे आस्वाद / तेहथी प्रतिहत तेह मार्नु कोइ नविकरे, जगमां तुमशुं रे वाद / / वगर धोइ तुज निर्मली काया कंचनवान / नही प्रस्वेद लगार तारे तुं तेहने, जे धरे ताहरूं ध्यान // 3 // राग गयो तुज मन थकी, तेहमां चित्र न कोय / रुधिर आमिषथी राग गयो तुज जन्मथी, दूध सहोदर होय॥४॥ श्वासोश्वास कमल समो, तुज लोकोत्तर वात / देखेन आहार नीहार चर्मचक्षु धणी, एहवा तुज अवदात // 5 // चार अतिशय मूलथी, ओगणीस देवना कीध / कर्म खप्यांथी अग्यार चोत्रीस इम अतिशया, समवायांगे प्रसिद्ध // 6 // जिन उत्तम गुण गावतां, गुण आवे निज अंग। पद्मविजय कहे एह समय प्रभु पालजो, जिम थाउं अखय अभंग // 7 // श्री आदिजिनस्तवन आज आनंद अपार, हमारे आज आनंद अपार / मरुदेवीनंदन कर्म निकंदन, निरख्या नाभिकुमार, हमारे॥१॥ अजर अमर अकलंक जिनेश्वर, रूपस्वरूप भंडार हमारे० // 2 // अशरण शरण करण जगनायक,