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________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 23 तीर्थकर पद पुण्य थी, त्रिभुवन जन सेवंत / . त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत // 6 // ललाट में पूजा करे। सोल पहर प्रभुदेशना, कंठ विवर वर्तुल / मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तेणे गले तिलक अमूल // 7 // कंठ भाग में पूजा करे / हृदय कमल उपशम बले, बाल्या रागने रोष / हिम दहे वन खंडने, हृदय तिलक संतोष // 8 // हृदय भाग में पूजा करे / रत्नत्रयी गुण ऊजली, सकल सुगुण विश्राम / नाभिकमलनी पूजना, करतां अविचल धाम // 9 // नाभिस्थान में पूजा करे। इस तरह मूलनायक की नव अंगे पूजा करने के बाद आस पास के बिंबोंकी तथा इनसे और अधिक बिंब हों तो उनकी भी पीछे ( उतावल न हों तो) पूजा कर लेवे / पूजा में मूलनायक की मुख्यता___ यहां पर शंका पैदा हो सकती है कि पहिले मूलनायक की पूजा और पीछे आसपास की पूजा करने पर स्वामी सेवक भाव (छोटे बडे का हिसाब) हो जाता है, एक तीर्थकर की विशेष पूजा करना और दूसरों की साधारण, यह भेद तीथंकरो में क्यों होना चाहिये ? / इसका समाधान यह है कि बेशक तीर्थंकर भगवान् सब समान हैं, उनमें स्वामी सेवक
SR No.004391
Book TitleJain Gyan Gun Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyavijay
PublisherKavishastra Sangraha Samiti
Publication Year1936
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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