________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 243 मन राखो तुमे सवि तणां, पण किहां एक मलि जाओ। ललचावो लख लोकने, साथे सहेज न थाओ। श्री श्रेयांस० // 2 // रागभरे जनमन रहो, पण तिहुंकाल वैराग / चित्त तुमारो रे समुद्रनो, कोय न पामे ताग। श्री श्रेयांस० // 3 // एहवासुं चित्त मेलव्युं, केलव्युं पहेलां न कांइ। सेवक निपट अबूझ छे, निर्वहेशो तुमे सांइ। श्री श्रेयांस० // 4 // नीरागीसुं रे किम मिले, पिण मिलवानो एकांत / वाचक जस कहे मुज मिल्यो, भक्ते कामण तंत / . श्री श्रेयांस० // 5 // मा वा श्री वासुपूज्यजिन स्तवन __ (साहेबा मोतीडो हमारो यह देशी) स्वामी तुमे कांइ कामण कीg, चित्तद्दु अमाझं चोरी लीधुं / साहेबा वासुपूज्य जिणंदा, मोहना वासुपूज्य // 0 // अमे पण तुमसुं कामण करशुं, भक्ति ग्रही मनघरमा धरशुं / साहेबा० // 1 // मनघरमां धरियां घर शोभा, देखत नित्य रहेशुं थिर थोभा। / मन वैकुंठ अकुंठित भक्ते, योगी भाखे अनुभव युक्ते / साहेबा० // 2 //