________________ - श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह कर भीतर जावे और तीन वार प्रदक्षिणा देवे / पहेले अपने 3 प्रदक्षिणात्रिक-मंदिर की भमती में 3 वार परिक्रमा करना इसे प्रदक्षिणात्रिक कहते हैं। 4 क्षमाश्रमणत्रिक-भगवान् को तीन वार खमासमण देना। 5 प्रणिधानत्रिक-दोनों. जावंति और जयवीयराय का पाठ बोलना यह प्रणिधानत्रिक कहा जाता है / 6 निस्सीहीत्रिक-गृहव्यापारादि निषेध सूचक तीनवार 'निस्सीही' शब्द बोलना। 7 अवस्थात्रिक-भगवान् की छद्मस्थ अवस्था,केवली अवस्था, और सिद्ध अवस्था ये तीनों अवस्था विचारना इसको अवस्थात्रिक कहते हैं। . 8 मुद्रात्रिक-१ योगमुद्रा 2 जिनमुद्रा 3 मुक्ताशुक्ति मुद्रा। दोनों हाथ की 10 अंगुलियां परस्पर मिलाकर कमल के डोडे की शकल में दोनों हाथ जोड पेट पर कुंणी रख कर चैत्यवंदन करना यह 'योगमुद्रा' कही जाती है। दोनों पांव के अंगुठों के वीच 4 अंगुली का अन्तर और दोनों एडी के बीच 3 अंगुलीका अन्तर रखकर खडे खडे काउस्सग्ग करना यह 'जिनमुद्रा' कही जाती है। दोनों हाथ बराबर एकत्र कर ललाट के लगाकर जयवीयराय का पाठ बोलना यह 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' कही जाती है / 9 दिशात्रिक-आसपास की दो दिशाये तथा पिछली दिशा इन तीन दिशाओं से दृष्टिको हटाकर भगवान् के सामने देखना इसका नाम दिशात्रिक है। 10 भूप्रमार्जनत्रिक-चैत्यवंदन करते तीन वक्त खेश से भूमि पोंछना इस का नाम भूप्रमार्जनत्रिक है /