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________________ 302 4 सज्झायसंग्रह पावस ऋतु वरसत रहे टाढे, बुंद सहे छिन छिनमें / / ऐसे० // 3 // ___ शीत सहे दरियावकिनारे, धीरज धरे ध्याननमें // ऐसे० // 4 // _ 'राम' मनावत ऐसे मुनिको, राग द्वेष नही मनमें / ऐसे० // 5 // माया अथिर की सज्झाय काया माया दोनुं कारमी परदेशी रे, कबहु अपनी न होय, मित्र परदेशी रे / इनको गर्व न कीजिये परदेशी रे, छिनमें देखावे छेह, मित्र परदेशी रे // 1 // जैसो रंग पतंगको परदेशी रे, छिनमें फीको होय, मित्र परदेशी रे। . मणि माणक मोती हीरला परदेशी रे, तास शरण नही कोय, मित्र परदेशी रे // 2 // जिस घर हय गय घूमते परदेशी रे, होता छत्तीस राग, मित्र परदेशी रे, सो मंदिर सूना पडया परदेशी रे, बेसण लागा काग, मित्र परदेशी रे ॥शा .
SR No.004391
Book TitleJain Gyan Gun Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyavijay
PublisherKavishastra Sangraha Samiti
Publication Year1936
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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