________________ __.. श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 277 वरतारो वरती रह्यो, कांइ जोशी मांडयुं लगन्न हो मुर्णिद। कहे सीमंधर कद भेटशुं, मुज मन लागी लगन हो मुणींद / श्रीसी० // 5 // पिण जोशी नहीं एहवो, कांइ भांजे मननी भ्रांत हो मुणींद। णइ भव तात कृपा करी, मुज आण मिलावो एकांत हो मुणींद। श्रीसी० // 6 // . वीतराग भावे सदा तुमे, वो छो जगनाथ हो मुणींद / मैं जाण्यु तुम केडथी, हवे हुँ थयो स्वामी सनाथ हो मुणींद श्रीसी० // 7 // पुक्खलवइ विजया वसे, कांइ नयरी पुंडरिगिणी स्वाम हो मुणींद / सत्यकीनंदन वंदना, काइ अवधारो गुणना धाम हो मुणींद / श्रीसी० // 8 // राय श्रेयांसकुलचंदलो, राणी रुकमणीकेरो कंत हो मुणींद / वाचक रामविजय कहे , तुम ध्याने हुवो मुज चित्त हो मुणींद / श्रीसी० // 9 // .. श्रीयुगमंधर जिनस्तवन काया पामी अतिकूडी, पांख नहीं आq ऊडी, लब्धि नही कोय रूडी रे / श्रीयुगमंधरने कहेजो, दधिसुत वीनतडी सुणजो रे / श्री युग० // 1 // तुम सेवामांहे सुरकोडी, ते इहां आवे इक दोडी, आश फले पातक मोडी रे / श्री० // 2 //