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________________ 182 5 विविध विचार नाडियों में लिख दिये जाते हैं। इस चक्र की विधान. गाथा नीचे मुजब है "आई अदा मिगं अंते, मज्झे मूलं पइट्टि / . रवींदुजम्मनक्खत्तं, तिविद्धो न हु जीवति॥"... - अर्थात् आदि में आर्द्रा अंत में मृगशिरा और मध्य में मूलको रखना, इनके अगले .पिछले नक्षत्र आगे पीछे तीनों नाडियों में लिखना, फिर रोगोत्पत्ति समय के सूर्य नक्षत्र की चंद्र नक्षत्र की और रोगी के जन्म नक्षत्र की तलाश करना, अगर तीनों नक्षत्र एक ही नाडी में पडे हों तो रोगी का जीना कठिन है। सूर्य नक्षत्र और रोगी नक्षत्र एक नाडी में हों तो अधिक कष्ट भोग कर रोगी अच्छा होगा, रोगी नक्षत्र और चंद्रनक्षत्र एक नाडी में हों अथवा तीनों नक्षत्र भिन्न भिन्न नाडियों में हों तो अल्प कष्ट भोगने के बाद रोगी अच्छा होगा। नाडी चक्रों के विषय में विशेष विधान ग्रंथान्तर में इन नाडीचक्रों में विशेष विधान भी है जो नीचे के श्लोकों से व्यक्त होगा "रोगिणो जन्मऋक्षस्य, एकनाड्यां यदा रविः / यावदृक्षं रवे ग्यं, तावत्कष्टपरम्परा // रोगिणो जन्मऋक्षस्य, एकनाड्यां यदा शशी / तदा पीडां विजानीया-दष्टप्राहरिकी ध्रुवम् // क्रूरग्रहास्तदन्ये तु, यदि तत्रैव संस्थिताः / तदा काले भवेन्मृत्युः, सत्यमीशानभाषितम् // "
SR No.004391
Book TitleJain Gyan Gun Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyavijay
PublisherKavishastra Sangraha Samiti
Publication Year1936
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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