________________ श्रीजैनज्ञान-गुणसंग्रह 241 धुरथी सकल संसार निवार्यो, किम करी देवद्रव्यादिक धार्यो, सा० / तजी संयम ने थाशो गृहवासी, कुण आशातना तजशे चोरासी, सा० // 3 // समकित मिथ्यामतिमें निरंतर, इम किम भाजशे प्रभुजी अंतर, सा० / लोक तो देखशे तेहQ कहेशे, इम जिनता तुम किण विध रहेशे, सा० // 4 // पण हवे शास्त्रगते मति पहोची, तेहथी जोयु में उंडं आलोची, सा० / इम कीधे तुम प्रभुताई न घटे, साहमो इम अनुभव गुण प्रकटे, सा० // 5 // हय गय यद्यपि तूं आरोपाए, तो पण सिद्धपणुं न लोपाए, सा० / जिम मुकुटादिक भूषण कहेवाए, पण कंचननी कंचनता न जाए, सा० // 6 // भक्तनी करणीये दोष न तुमने, अघटित कहेवू अजुक्त ते अमने, सा०। लोपाए नहीं तू कोइथी स्वामी, मोहनविजय कहे. शिर नामी, सा० // 7 //