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________________ 258 3 स्तवनसंग्रह . अणप्रार्थता उद्धर्या रे, आपे करिय उपाय / प्रारथता रहे विलवतारे, ए कुण कहिये न्याय, जिनेसर० // 4 // . . संबंध पण तुज मुज विचे रे, स्वामी-सेवकभाव / मान कहे हवे महेरनो रे, न रह्यो अजर प्रस्ताव, जिनेसर० // 5 // - श्री नमिनाथजिन स्तवन (आसणारा जोगी यह देशी) आज नमिजिन राजने कहिये, मीठे वचने प्रभुमन लहिये रे। सुखकारी साहिबजी। प्रभु छे निपट निसनेही नगीना, अमे छु सेवक आधीना रे, सुख० // 1 // सुनजर करशो तो वरशो वडाई, सुकहिशे प्रभुने लडाइ रे, सुख० / तुमे अमने करशो महोटो, कुण कहेशे तुने प्रभु खोटो रे, सुख० // 2 // ____ निःशंक थइ शुभ वचन कहेशो, जगशोभा अधिकी लेशो रे, सुख० / अमे तो रह्या छु तुमने राची, रखे आप रहो मन खांची रे, सुख० // 3 // अमे तो किस्युं अंतर नवि राखं, जे होवे हृदय कही दाखं रे, सु० गुणियल आगल गुण कहेवाए, ज्यारे प्रीत प्रमाणे थाये रे, - सु०॥४॥ विषधर ईश हृदय लपटाणो, तेहवो अमने मिल्यो छेटाणो रे, सु. निरवहेशो जो प्रीत हमारी, कलि कीरत थाशे तुमारी रे, सु०॥५॥
SR No.004391
Book TitleJain Gyan Gun Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyavijay
PublisherKavishastra Sangraha Samiti
Publication Year1936
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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