________________ 367 श्रीजैनशान-गुणसंग्रह आत्म उपदेश पद ( अवधू ऐसा ज्ञान विचारी-यह देशी) अवधू आतमरूप पिछानो, जामें तीनजगतसुख मानो। अवधू आतम०॥ पुद्गल के संग पडके चेतन, दुख अनन्ते पाया। तृष्णा पिशाचिन के वश पडके, चार बार अथडाया। अवधू आतम० // 1 // सुमति सुहागण छोडके प्यारे, कुमतिसे प्रेम लगाया। दास चना कर अपना तुजको, बहुत ही नाच नचाया / - अवधू आतम० // 2 // परवशता दुःख है अतिभारी, चेतन उसको निवारो। दीपकपरवश देखो पतङ्गा, छिनमें प्राण विडारो / अ० // 3 // आशापासमें जकडा चेतन, सर्वदिशामें. फिरायो / काजसिद्धि कछु नाही पावत, निष्फल जन्म गुमायो। अवधू आतम० // 4 // शुद्धस्वरूपी तूं है सदा का, गुण अनन्ते धारी। पर परभावदशा को धरके, करि निज ऋद्धि खुवारी / अ०॥५॥ बाह्य वस्तु सत्र नेह निवारी, हो निजभावविलासी / सौभाग्यविजय कहे सुनो मेरे सन्तो, छिनमें शिवपुरवासी। अवधू आतम० // 6 //