Book Title: Anekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २५ : किरण १ अप्रेल १९७२ Jণকান समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र श्रावस्ती से प्राप्त १२वीं शताब्दो को कल.पूर्ण तीर्थङ्कर मूर्ति सं० ११७४ [वर्षे ] जेठ सुदी ३ पंडित सोमदेव तस्य शिष्य विमलदेव प्रतिमा प्रणम्य ......... Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन विषय-सूची अनेकान्त को सहायता विषय अनेकान्त को विवाह प्रादि से निम्न सहायता प्राप्त १. शम्भव-जिन स्तुति-प्राचार्य समन्तभद्र हुई है। पाठक नोट कर ले और विवाहादिक शुभ प्रत्र२. मुक्तक काव्य-पांडे रूपचन्द सरों पर अनेकान को दान देना न भूले । क्योंकि अने३. जैन दर्शन की अनेकान्त दष्टि कान्त जैन समाज का एक प्रतिष्ठिन और माहित्य इति. डा० दरबारीलाल जैन हास का एक शोध पत्र है। ४. भाषा की उत्पत्ति व विकास - गणेशप्रसाद जैन २१) रुपया प्रेमनाथ जन ज्वाइन्ट सेक्रेटरी मिनि५. वैशाली गणतत्र का अध्यक्ष राजा चेटक स्टरी पाफ फाईनेन्स नई दिल्ली ने पुत्र विवाह के उप. (ऐतिहासिक पाख्यान)-परमानन्द जैन शास्त्री ३५ लक्ष्य मे अनेकान्त को २१) रुपया पं० खेमचन्द की ६. विश्व संस्कृत सम्मेलन मे जैन विद्या का मार्फत सधन्यवाद प्राप्त हुए है। प्रतिनिधित्व-प्रो० प्रेम सुमन जैन ३५ २१) राय बहादुर सेठ हरखचन्द जी के अनुज श्री ७. उत्तर भारत में जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी की | ताराचन्द जी के सुपुत्र नरेन्द्र कुमार जी के विवाहोपलक्ष मूर्तिगत अवतारणा-मारुतिनदन प्रसाद ति० ६५ | मे निकाले हुए ११०१) के दान में से अनेकान्त को ८. बड़ा मन्दिर पनागर की प्राचीन जैन २१ ० मधन्यवाद प्राप्त हुए। शिल्पकला-स्तूरचन्द सुमन एम. ए .१. ११) रु. श्री रामस्वरूप नेमीचन्द जी जैन द्वारा ६. पं० बखतमम शाह-परमानन्द जैन शास्त्री ४५ | नेमिचन्द जी के सुपुत्र जनेशकुमार के पाणिग्रहण सस्कार १०. अपभ्रश की। अज्ञात कथा रचना के समय निकाले हुए दान मे से ग्यारह रुपया सधन्यवाद डा. देवेन्द्र कुमार जैन ४७ प्राप्त हुए। व्यवस्थापक अनेकान्त के ग्राहकों को सूचना वीर सेवामन्दिर, दरियागज अनेकान्त के जिन ग्राहकों ने अपना वार्षिक मूल्य | दिल्ली अभी तक नही भेजा। उन्हे चाहिए कि वे अक मिलते हो अपना वार्षिक मूल्य ६) रुपया मनी प्रार्डर से भेज दे । खेद प्रकाश अन्यथा अगला प्रक वी. पी. से भेजा जायगा। जिससे उन्हें वी. पी. खर्च का एक रुपया पच्चीस पैसे अधिक इस अक के प्रकाशन में बहुत अधिक बिलम्ब हो गया देने होगे। अतः छह रुपया शीघ्र भिजवा देवे । है। उसका कारण प्रेस वाले का अपनी पुत्री के विवाह व्यवस्थापक 'अनेका.त' में घर जाना है। और विवाहोपरान्त किसी इप्ट का घोर.सेवामन्दिर, २१ दरियागंज | वियोग हो जाने के कारण दो महीने का समय लग गया। दिल्ली इससे इस अंक की छपाई में अधिक विलम्ब हुआ और पाठकों को प्रतीक्षा जन्य कष्ट उठाना पड़ा, जिसका हमें सम्पादक-मण्डल अत्यधिक खेद है। प्रागे इस प्रकार का बिलम्ब न हो डा० प्रा० ने० उपाध्ये इसकी सावधानी रखने का प्रयत्न किया जा रहा है। डा. प्रेमसागर जैन व्यवस्थापक 'अनेकान्त' श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त | एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् अहम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यम्बसिन्धुरविषानम् । सकलनवविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष २५ किरण १ वर्ष २५ } मार्च । । बोरसेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-८ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ बीर निर्वाण संवत् २४६८, वि० सं० २०२८ प्रप्रल १६७२ शम्भव-जिन-स्तति न चेनो न च रागादि चेष्टा वा यस्य पापगा। नो वामः श्रीयतेऽपारा नयश्रीवि यस्य च ॥१८ प्रतस्वनमाचारं तन्वावातं भयाद रुचा । स्वया वामेश पायामा नतमेकाचं शंभव ॥१९ -प्राचार्य समन्तभद्र अर्थ-जिनके पाप बन्ध कराने वाली रागादि चेष्टाओं का सर्वथा अभाव हो गया है और जिनकी अपार नय लक्ष्मी को भूमितल पर मिथ्यादष्टि लोग प्राप्त नहीं हो सकते, ऐसे इन्द्र चक्रवर्ती प्रादि प्रधान पुरुषों के नायक ! अद्वितीय पूज्य ! हे शंभवनाथ जिनेन्द्र ! आप सबके स्वामी हैंरक्षक हैं, प्रतः अपने दिव्य तेज द्वारा मेरी भी रक्षा कीजिये। मेरा प्राचार पवित्र और उत्कृष्ट है। मैं संसार के दुखों से डर कर शरीर के साथ आपके समीप पाया है। भावार्थ-मैं किसी का भला या बुरा करूं इस तरह राग द्वेष से पूर्ण इच्छा और तदनुकूलक्रियाएं यद्यपि वीतराग के नहीं होतीं तथापि वीतराग देव की भक्ति से शुभकर्मों में अनुराग (रस) मधिक पड़ता है, फलतः पापकर्मों का रस घट जाता अथवा निर्बल पड़ जाता है और अन्तराय कर्म बाधक न रहकर इष्ट की सिद्धि सहज ही हो जाती है। इसी नय दष्टि को लेकर अलंकार की भाषा में माचार्य समन्तभद्र भगवान शंभवनाथ से प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं संसार से डरकर पापकी शरण में आया हूँ, मेरा माचार पवित्र है और मैं आपको नमस्कार कर रहा हूं। प्रतः पाप शीघ्र मेरी रक्षा कीबिये; क्योंकि पाप इस कार्य में समर्थ हैं-आपकी शरण में पहुंचने से रक्षाकार्य स्वतः ही बिना पापको इच्छा के बन जाता है ॥१८-१६।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तक-काव्य: (अध्यात्म दोहावलो) अध्यात्मी (पांडे रूपचन्द] अपनो पद न विचार हू अहो जगत के राय । विषयनिसौं दुख झरतु है, विषय नि [सौं] मनिरंगु । भव-वन छाइ कहा रहे, शिवपुर सुध विसराय ।।१ दीपक देखि सुहावनो, ज्यों हठि जगत पतंगु ॥१७ भव-वन वसत अहो तुम्हे, वीत्यौ काल अनादि । चेतन तुम जो परम दुग्बी तातै विषय सुहाहि । अब किन घरहि मम्हारड, कत मुग्व देखत वादि ॥२ भूख मरत ज्यों स्वादु के, मूढ करेला खाहि ॥१८ परम प्रतीन्द्रिय सुखमनो, तुमहि गयो सु-भुलाइ । विषयन मन मति राखिक, रहै प्रतीति जु मानि । किंचित् इदिय मुख लगे, विषयनि रहे लभाइ ।।३ घर भीतर जिम फनि वसं, जब तब पूरी हानि ॥१६ विषयान सेवत हो भले तृष्णा तो न बुझाइ । विषयऽभिलाषन छाड हू क्रिया करत हो वाइ । जिमि जलु खारी पीवतो, बाढ तिस अधिकाइ ॥४ घर महि या वटिया ? परै, बाहर गखहु काइ ॥२० तष्णा उपसम कारने, विषयनि सेवत जाइ। विषयनि की मनसा किये, हाथ पर कछु नाहि । मृगु वपुरो प्यासनि मर, ज्यौ जल धोखे धाइ ।।५ पंडित हुइ अबका मर, अनवाए गरडाहि ॥२१ तुम चेतन सुख के लिये, रहे विषय-सुख मानि । विषयनि की परतीति करि, सोवहु कहा निचीत । जिम कपि शीत विथा मरे, ताप गुजा पानि ॥६ घरु जो तिहारो मूमिए, जागहु काहि न मीत ।।२२ विषयनि सेवन दुख भले, सुख न तुम्हारे जानु । जैसी चेतन तुम करी, ऐमी करइ न कोइ। अस्थि चबत निजरुधिरत, यो सुवमानत श्वानु ॥७ विषय-सुखनि के कारण, सरवस बैठे खोइ ।।२३ जिनही विषयनि दुख दियो, तिनही लागत धाय । चेतन मरकट मूठि ज्यो, बाध्यो परसौ मोहु । माता मारिउ बाल जिम उठि पुनि पग लपटाइ । विषय गहनि छूट नही, मुनि कहा ते होह ॥२४ विषयनि सेवत् दुखु बढे, देखह किन जिम जोय । चेतन तुम जो पढे सुवा, रहे जनम-द्रुम-झूलि । खाज खुजावत ही भली, पुनि दुख दूनौ होय ॥ विषय करत किन छाडहू, कहा रहे भ्रमभूलि ॥२५ विषय जु सेवत ही भले,, अन्त कहिं अपकार । सुख लगि विषय भजहु भले, सुग्व की बात अगाध । दुर्जन जन की प्रीत ज्यों, जब तब जाइ विकार ।।१० कांजी पिए न पूजइ, सुरहि दूध को साध ॥२६ सेवत ही जे मधुर विषय, करुए होहि निदान | निजसुख छत सेवे विपै चेतन यहै सयानु । विष फल मीठे खातके, अन जु हरहि परान ॥११ घर पंचामृत छाडिक, माग भीखु अयानु ।।२७ सेय विषय तुम प्राप्त, लयो अनर्थ विसाहि । मुग्व स्वाधीन जु परिहग्यो, विषयनि पर अनुराग । पाहि प्रापून बधिरह्यो, ज्यो कमि कोवा माहिं ॥१२ कमल सरोवर छांडि ज्यौं, घट जल पीव कागु ॥२८ चेतन तुम किन मिख दई, विषय सु ग्वनि बौराइ। सेये विषय अनादित, तृप्ति न कहूं सिराइ । रतन लयो शिशु पास तं, ज्यों कछु करदै नाइ ॥११ ज्यौं जलकै सरिता पती, ई घन सिखि न अघाइ २६ लागत विषय सुहावने, करत जु तिन्ह सौ केलि । चेतन सहज सुखहि बिना, यह तृष्णा न बुझाइ । चाहत हो तुम कुशल ज्यौ, बालक फनिसौ खेलि ।।१४ सहज सलिल विनु कहहु क्यो, प्रोसनि प्यास बुझाइ ॥३० विषयनि सेवत सुख नही, कष्ट भले ही होइ । चेतन तुम्हे कहा भयो, घरु छोड बेहाल । चाहत हो कर चोकन, निरवगु सलिलु विलो३ ॥१५ सग पराये फिरत हो, विषय सुखनि के ख्याल ।।३१ देखि जो विषय सुहावन, चाहत है सुख सेइ । चेतन तुमहि न बझिए, जाके रतन भंडार । । ज्यौं बालक विष फलु भख, वर परिहंस लेइ ॥१६ बड़े करे तुम थापि यह, करत नोच के काम ॥३२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन की अनेकान्तवादी-दृष्टि टा० दरबारीलाल जैन प्रास्ताविक प्रास्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंभारत के प्राचीन दर्शनो मे जैन दर्शन एक प्रमुख का इस दर्शन मे प्रतिपादन है। दु.ख, स्थानीय बन्ध है, दर्शन है। इसका दार्शनिक और इतर ग्रथो तथा शिला- समुदयस्थानीय पात्र है, मार्गस्थानीय सबर और निजरा पटों मे 'पाहत मत' अथवा 'ग्राहंत दर्शन' नाम से निर्देश है। अागामी कम का अभाव जिन साधनो मोता मिलता है। इस दर्शन के प्राद्य प्रवत्तंक भगवान ऋषभ- साधन सवर है और सचित कर्म का प्रभाव जिससे होता देव हैं, जिनका उल्लेख विस्तारपूर्व भागवत में हुआ है है वह निर्जरा है। निगध स्थानीय मोक्ष है। मूल तत्त्व मौर जिन्हे पाहत मत का प्रवर्तक बताया गया है तथा जीव और अजीव ये दो ही है। इनके सयोग और वियोग हिन्दयों के चौबीस अवतारो में पाठवा अवतार माना से होने वाले अन्य पाँच उनके परिणाम है। जीव, मोक्ष गया है। तेईस सौ वर्ष पूर्व कलिङ्गाधिपति सम्राट् खार- और उसके साधन सवर तथा निर्जरा उपादेय तत्त्व है। वेल के राजघराने में प्रादि जिन ऋषभदेव को विश्रुत प्रजोव, बन्ध और प्रास्रव ये तीन तत्त्व हेय है । इस तरह एवं मनोज मूति की पूजा होती थी। यह मूनि कलिङ्ग मुक्ति को लक्ष्य मानकर मनुष्य प्राध्यात्मिक साधनो मे साम्राज्य की उत्कृष्ट कलाकृमि और सर्वोपास्य दवता के प्रवृत्त होता है। मनुष्य को क्या प्रत्येक जीवात्मा अपना रूप में मान्य थी। मगध सम्राट नन्दिवर्धन व लिङ्ग चरम विकास करके परमात्मा हो सकता है। इस दर्शन साम्राज्य के पूर्वजो से युद्ध करके इस मूर्ति को ले गया में प्रात्मा को न सर्वथा नित्य और न सर्वथा क्षणिक स्वीकार किया है। सत् का विनाश नही और असत् का था। किन्तु कुछ वर्षों बाद खारवल अपने राजघनन की उत्पाद नहीं' इस सिद्धान्त के अनुसार अन्वयी रूप (मध्य) पाराध्य इस मूर्ति को युद्ध करने वहाँ से ले पाया था। को अपेक्षा उसे नित्य और व्यतिरेकी रूप (पर्याय) की इस ऐतिहासिक घटना से अवगत होता है कि ऋषभदेव अपेक्षा से अनित्य माना गया है। अर्थात दोनों रूप हैं की मान्यता तो अत्यन्त प्राचीन है। ऋषभदेव के उपरान्त २३ तीर्थकर और हुए, जिन्होंने जैन दर्शन के सिद्धान्तो और यह उभय रूपता ही अनेकान्त है। का प्रकाशन किया इनमें बाईसर्व अरिष्टनेमि, जो श्रीकृष्ण प्रनेकांतवादी दृष्टि के समकालीन और उनके चचेरे भाई थे, तेईसवें नागवंशी इस ग्रने न्ति का दर्शन अथवा प्रतिपादन ही अनेक्षत्रिय पाश्वनाथ, जिन का जन्म इसी वाराणसी मेहमा कान्तवादी दृष्टि है। जैन दर्शन का मन्तव्य है कि विश्व था और अन्तिम चौवीसवें महावीर हैं जो बुद्ध के सम. को प्रत्येक वस्तु अनेकांताप है। बौद्धों के सर्व क्षणिकम्', कालीन हैं और २५०० वर्ष पूर्ववर्ती हैं। इन मभी तीर्थ सांख्यों के 'सर्व नित्यम', वेदान्तियों के 'सर्व सत्' और शून्यकरों का तत्वोपदेश पाहत मत या जैन दर्शन के रूप में वादियों के 'सर्वमसत' को तरह जैनो का सिद्धांत 'सर्वप्रसिद्ध है। मनेकांतात्मकम्' है। वस्तु केवल क्षणिक या केवल नित्य तस्व-विचारना या केवल सत या केवल प्रसत ही नहीं है। अपितु वह इस दर्शन का विचार केन्द्र प्रात्मा होते हुए भी अनात्मा क्षणिक और नित्य, सत् और असत् दोनों में विरोधी भी उतना ही विचारणीय है। बौद्धो के चतुर यसत्वों- धर्मों को लिए हुए है। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसमें समय मार्ग प्रौर निरोध की तरह जीव, अजीव अनेकांत न हो। उदाहरण के लिए अग्नि को लीजिए। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष २५, कि० १ अनेकान्त वह दाहक भी है. पनक भी है और प्रकाशक पादि भी। ही है कि जिसकी विवक्षा होती है वह मुख्य और जिसकी इस तरह प्रग्नि मे जहाँ दाहकण है वहाँ उसमे पाचकता, विवक्षा नही होती वह गौण हो जाता है। जैन दार्शनिक प्रकाशकता प्रादि अनेक स्वभाव (धर्म) विद्यमान है। या प्राचार्य समन्तभद्र' स्पष्ट कहते है कि विवक्षित मुख्य यो कहिए कि वह दाहकता प्रादि अनेक स्वभावा का कहा जाता है पौर जिनकी विवक्षा नहीं है वे गौण कहे यह समुच्चय नगशि क समान संयोगात्मक जाते है, उनका प्रभाव नही होता । परन्तु इससे वस्तु का नही है वह अविष्वग्भाव तादात्म्य रूप है और अग्नि की अनेकाम्न स्वरूप समाप्त नहीं होता। इसी से जैन दर्शन दाहकता उसके पाचकता प्रादि स्वभावो से न सर्वथा मे वस्तु के अभिघायक वचन को स्यावाद वचन या स्यावाद भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न । सभी स्वभाव उसमें वाणी कहा गया है। स्थाद्वाद वचन के द्वारा यह व्यक्त अपने-अपने रूप में मित्रतापूर्वक वर्तमान है और वे सभी किया जाता है कि अमुक वस्तु अपेक्षा से अमुक ही है, उसकी प्रात्मा (प्रपना स्वरूप) है। उनका यह सबंध अन्य अपेक्षामों से वह अन्य रूप ही है। स्याद्वाद वचन वस्तु कथं चित् भिन्नाभिन्न अथवा सह-अस्तित्वात्मक है। के न तो किसी धर्म का लोप होने देता है और न प्रव्य. एक उदाहरण और लीजिए । एक ही पुरुष एक साथ वस्था पैदा करता है । तत्तद् प्रपेक्षामो की विवक्षामों से वह भिन्न-भिन्न पुरुषों की अपेक्षा पिता, पुत्र, मामा, भानजा, उन सब धर्मों की यथा स्थान यथा समय और यथा विधि दादा नाती, बड़ा, छोटा प्रादि व्यवहृत होता है । पुत्री से व्यवस्था करता है। वह कहता है कि वस्तु अनेकान्त की अपेक्षा पिता, अपने पिता को अपेक्षा पुत्र, भानजे की है-तद् और प्रतद रूप विरोधी युगल धर्मो को वह मामा, अपने मामा की अपेक्षा भान जा, नाती की अपेक्षा अपने मे समाये हुए है । कोई वचन, चाहे विधिपरक हो दादा, दादा की अपेक्षा नाती, छोटे की अपेक्षा बडा और और चाहे निषेधपरक, वस्तु के अनेकान्तस्वरूप का लोप बड़े की अपेक्षा छोटा प्रादि कहा जाता है। इस तरह करके मनमानी नहीं कर सकता। यदि विधिपरक या उसमें पितृत्व-अपितृत्व, पुत्रत्व-मपुत्रत्व, मातुलत्व-प्रमातु- निषेधपरक वचन क्रमशः केवल विधि या केवल निषेध लत्व, भागिनेयत्व-प्रभागनेयत्व, पितामहत्व-प्रपितामहत्व, को ही कहे और विरोधी के अस्तित्व से इन्कार करें तो नप्तृत्व-अनप्तृत्व, ज्येष्ठत्व-अज्येष्ठत्व, कनिष्ठत्व-अकनि- उसके अविन। भावी प्रभिधेय धर्म का भी प्रभाव हो जायेगा ष्ठत्व प्रादि अनेक धर्मयुगल उस पुरुष मे उपलब्ध है या वह और तब वस्तु मे कोई भी धर्म न रहने से वह भी न उनका समुदाय है। ये सभी धर्म युगल इसमे स्वरूपतः है, रहेगी। अत: विधि वचन और प्रतिषेध वचन दोनों भनेकल्पित नहीं, क्योकि उनसे तद् तद् व्यवहार रूप क्रिया कान्त के प्रकाशन हैं । जैसे नौकर से कहा जाय कि 'दही होती है। लाना', दूध न लाना' इन विधायक और प्रतिषेधक वक्ता जब वचन द्वारा वस्तु के विवक्षित धर्म को वाक्यों मे क्रमशः दही का विधान और दूध का निषेध लेकर उसे कहता है तो वह वस्तु उस धर्म वाली ही नही मुख्यतया अभिप्रेत है तथा गौण रूप से उनमे क्रमशः दूध है, उसमे उस समय अन्य धर्म भी विद्यमान हैं, जिनको का निषेध और दही का विधान भी, जो अविवक्षित है। उसे उस समय विवक्षा नही है । 'अग्नि दाहक है' कहने अवबोधित हैं। पर अग्नि की पाचकता, प्रकाशकता मादि शक्तियों इस प्रकार जैन दर्शन में सभी वचन अनेकान्त के स्वभावो-का लोप नही होता, अपितु भविवक्षित होने से वे गौण हो जाते है । देवदत्त को उसका लडका 'पिताजी' * __ अवबोधक हैं। कहकर जब सम्बोधित करता है तो देवदत्त अपने पिता एक दृष्टांत अपेक्षा पुत्र, भानजे की अपेक्षा मामा आदि मिट नहीं वस्तु की इस अनेकान्तता को प्रकट करनेवाला यहाँ जाता। मात्र उनकी उस समय विवक्षा नही है । इतना २. विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरा. १. अपितानपित सिद्धः -त. सू. ५ । त्मकस्ते । -स्वयम्भू. ५३ । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन वर्शन को अनेकान्तवादी दृष्टि त क जगह छह प्राधों ने एक निरूपण करती है। इतना स्मरण रहे कि एक-एक प्रश कोपरकर प्रपने-अपने स्पर्शानुभव से उसके स्वरूप प्रश है अशी नही। अतः मब मिलकर ही पूर्ण सत्य कहे की अवधारणा की। जिगने हाथी के पैर पकड़े उसने जात है। कहा कि हाथी खम्भे जमा है। जिसने पूछ पकड़ो वह एक दृष्टान्त और दिया जाता है । एक सम्पन्न व्यक्ति चिल्लाकर कहने लगा कि हाथी रस्सा जैसा है। जिसने था उस के बहुत दिन बाद पहले-पहल पुत्री का जन्म हमा। उसकी छाती पकडी यह बोला कि हाथी तो दीवाल जैमा उस पर उसका है। चौथा बोला कि नही, हाथी तो खूटी जैसा है । इसने खेलने के लिए सोने का एक छोटा घडा बनवा दिया। हाथी के दांत पकडे थे। पांचवा कहने लगा कि हाथी मूसल लडकी उस घड़े से पानी भरती और रोज खेलती थी। की तरह है। इसने उसकी सढ ही पकड़ी थी। छठा कुछ वर्षों बाद उसके पुत्र का भी जन्म हो गया। खुब बोला. सब तम झठ बोलते हो, हाथी तो सूप जसा है। खुशी मनाई गई। जनसरका छ बहरहा तो लड़की इसने उसके कान पकड़े थे। इसी बीच एक प्रादमी प्राया, के उस घडे को तुडवा कर लड़के के लिए मुकूट बनवाने जिसने अपनी पाखो से हाथी को देखा था। बोला - को वह सुनार के यहा गया । लड़की घड को तुडते देखकर भाई ! तुम सब ठीक ही कहते हो, अपनी-अपनी अपेक्षा खिन्न होती है और लडका मुकुट बनते देखकर हर्षित तुम सब सही हो, पर इतर को गलत मत कहो, सबका होता है। परन्तु उस व्यक्ति को न विपाद होता है और मिलाने से ही हाथी बनता है । इतर का निराकरण करने न हर्ष । वह दोनो मे मध्यस्थ रहता है। यदि सोन मे पर तो हाथी का स्वरूप अपूर्ण रहेगा । स्याद्वाद कहता विनाश धर्म, उत्पादधर्म और स्थितिधर्म न हो तो उन तीनो है कि अनित्यवाद, नित्यवाद, सद्वाद और असद्वाद प्रादि को तीन प्रकार के भाव पैदा नही हो मते, इससे स्पष्ट वस्तु के एक-एक अंश के प्रकाशन है और यह तथ्य है कि है कि वस्तु उत्पन्न होती है, विनष्ट नहीं होती है और अनित्य-नित्य, सद्-असद् प्रादि युगल धर्मों का उसमें स्थिर भी रहती है। कि.मी अश से (पूर्व पर्याय से) सद्भाव है। विनाट होती है, किसी अश (उत्तर पर्यास ) से उत्पन्न एक फोटो ग्राफर ने एक भवन का पूर्व की अोर से, होती है और किसी प्रश (धाव्य) से स्थिर रहती है। दूसरे ने पश्चिम की भोर से, तीसरे ने दक्षिण की पोर से घटमौलिस्वर्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । और चौथे ने उत्तर की ओर से फोटो लिया। चारों के शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो यातिसहेतुकम् ।। फोटो एक ही भवन के है और चारो फोटो एक दूसरे से -ग्रा. मी. ५९ भिन्न है । बताइये इनमे कौन सत्य है मौर कौन प्रसत्य । मेरे हाथ मे एक ग्राम का फल है। अखिो से देखता स्पष्ट है कि चारो फोटो सत्य है, जो विभिन्न दिशामों से हूं तो वह पीला ज्ञात होता है । रसना इन्द्रिय से उसे लिए गये है। इतना ही है कि वे सत्य के एक-एक प्रश चखता हूँ तो मीठा लगता है। घ्राण म सूघता हूं है, प्रत्येक पूग सत्य नही है। सबको मिलने पर ही वे तो वह मादक (अच्छी गन्ध वाला) प्रतीत हाता और पूर्ण सत्य कहे जावेंगे और तभी पूरा भवन उनमे बोषित स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श करता हूँ तो वह कोमल प्रवगत होगा। यह बात दूसरी है कि एक अोर से लिए फोटो से होता है । यदि पाम मे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार भी उस पूरे भवन का बोध कराया जा सकता है किन्तु धर्म न हो तो वह विभिन्न इन्द्रियो से विभिन्न प्रतीत यह भी तथ्य है कि तब शेष का निषेध नही होता। यदि नही हो सकता। निबन्ध किया जायेगा तो परस्पर संघर्ष होगा और भवन ___ अनेकान्त दृष्टि किसी का भी विरोध नही करती। का सही बोध नही हो सकेगा। अनेकान्तवादी दृष्टि इस वह सबके अस्तित्व को स्वीकार करती है। मनुष्य पापी, संघर्ष को दूर करती है और उन सबके सत्य होने का चोर, डाकू और साधु सब हो सकता है। किन्तु पापी १. पुरुषा. सि. २। पाप करने से, चोर चोरी करने से, डाकू डाका डालने से Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ वर्ष २५, कि०१ अनेकान्त चिहाव, अपेक्षावाद, अनेकांतवाद प्रादि इसी के पर्याय टक स्यावाव और उसको सप्तभती प्रक्रिया पर विद्वानों नाम हैं। निष्कर्ष यह कि स्याद्वाद वक्ता का ऐसा वचन को गहराई से विचार करना चाहिए। मानव कल्याण में प्रयोग है जो अभिप्रेत का कथन करता हुमा अन्य अनभि- इस दृष्टि का महत्वपूर्ण योग हो सकता है और तात्त्विक, प्रेत अनन्त धर्मों का निषध नहीं करता। किन्तु उनका सामाजिक, राष्ट्रीय और विश्वीय अनेक समस्याएँ प्रनामौन अस्तित्व स्वीकार करके उन्हे मात्र गौण कर यास सुलझाई जा सकती हैं। देता है। अन्त मे इस गोष्ठी के आयोजको का धन्यवाद करता ध्यान रहे यह स्याद्वाद सात वाक्यों द्वारा वस्तु के ह जिन्होने प्रकृत विषय पर विचार प्रकट करने का प्रव. सप्तविध धर्मों के विषय में उठने वाले सन्वेहों का निरा- सर प्रदान किया। करण करता हुमा उसे अनेकांतात्मक प्रतिपादित करता ... है । उक्त सात वाक्यों को सप्तभङ्गी या सप्तभङ्ग योजना १. वाराणसेय सस्कृत-विश्वविद्यालयों में बौद्ध दर्शन के नाम से कहा गया है, जिसका विस्तृत विवेचन जैन पालि अन्तर्राष्ट्रीय परिषद् के तत्वावधान मे १३ दार्शनिक ग्रंथों मे उपलब्ध है। मार्च, १९७२ को प्रायोजित शास्त्र परिचय व्याख्यान जैन वर्शन की इस अनेकांतवादी दृष्टि, उसके उद्घा- माला में पढ़ा गया लेखक का महत्वपूर्ण निबन्ध । सदविचार "प्रारम्भ और परिग्रह का ज्यों-ज्यों मोह दूर होता जाता है ज्यों-ज्यों उनसे अपनेपन का अभिमान भी मन्द पड़ता जाता है । त्यों-त्यों मुमुक्षता बढ़ती जाती है, अनन्त काल से जिससे परिचय चला मा रहा है ऐसा यह अभिमान प्राय: एकदम निवृत्त नहीं हो जाता; इस कारण तन, मन, धन प्रादि जिनमें अपनापन आ गया है, उन सबको ज्ञानी के प्रति अर्पण किया जाता है, ज्ञानी प्रायः उन्हें कुछ ग्रहण नही करते; परन्तु उनमें से अपनेपन के दूर करने का उपदेश देते हैं और करने योग्य भी यही है कि प्रारम्भ. परिग्रह को बारम्बार के प्रसंग में विचार अपना होते हुए रोकना; तभी मुमुक्षुता निर्मल होती है।" _ "ज्ञानी पुरुष बहुत हो गये हैं, परन्तु उनमें हमारे जैसे उपाधि-प्रसग और उदासीन-अत्यन्त उदासीन चित्त-स्थिति वाले प्रायः थोडे ही हए हैं। उपाधि के प्रसंग के कारण प्रात्मा सम्बन्धी जो विचार हैं वे अखंड रूप से नही हो सकते, अथवा गौणता से हुआ करते है। ऐसा होने के कारण बहुत काल तक प्रपंच में रहना पड़ता है। और उसमें तो अत्यन्त उदास परिणाम हो जाने के कारण क्षणभर के लिये भी चित्त नहीं टिक सकता। इस कारण ज्ञानी सर्वसंध-परित्याग करके अप्रतिबद्ध रूप से विचरते हैं। सर्वसंग शब्द का लक्ष्यार्थ यह है कि संग जो अखंड रूप से प्रात्मध्यान अथवा बोध की मुख्यता से न रख सके।" "जिस ज्ञान से भव का अन्त होता है उस ज्ञान का प्राप्त होना जोव को बहुत दुर्लभ है तथापि वह ज्ञान, स्वरूप से तो अत्यन्त संगम है । ऐसा मानते हैं। उस ज्ञान के सुगमता से प्राप्त होने में जिस दशा को प्रावश्यकता है. वह दशा प्राप्त होनी भी बहत कठिन है, और उसके प्राप्त होने के जो कारण हैं उनके मिले बिना जीव को अनन्त काल भटकना पड़ता है। इन दो कारणों के मिल जाने पर मोक्ष होता है। -श्री मद्राजचन्द से Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा की उत्पत्ति व विकास गरणशप्रसाद जैन 'भाषा' की उत्पत्ति का इतिहास प्रत्यन्त रोचक है। लाते है । भाषा का प्रादुर्भाव कब, किस प्रकार और क्यो हुआ? इन पूर्वजो ने लिखित-भाषा के लिए प्रत्येक शब्द को सब बातों पर अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढग से विचार मूल-ध्वनियो के पृथक्-पृथक् चिन्ह नियुक्त कर किये है किया है। उनकी मीमासा के आधार पर सर्वमान्य जो कुछ जिन्हे-'वर्ण अथवा अक्षर' कहा जाता है। पूर्व-काल मे निष्कर्ष निकले है, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ भाषा में केवल कान का ही प्रयोग होता था, अब वर्णों मे मनुष्य के पास वाणी नही थी, वह सकेतों, अथवा की रचना के कारण प्रॉखों का उपयोग भी लगन भ्र -क्षेपो से काम चला रहा था । क्रम-क्रम से वह ध्वन्या- लगा है। त्मक शब्दों और पशुप्रो की बोली के समान 'शब्द' प्रगट अतीत केवल काल मे 'कथित भाषा' का प्रयोग होने करने लगा। सम्भवत: उसने प्रकृति की ध्वनियों का के कारण 'मावश्यक-विचारों को मेधावी व्यक्ति स्मरण अनुकरण किया हो। इस प्रकरण के अनुकरण के आधार रख परम्परा द्वारा शिष्यों को सौपा करते थे। अब अक्षपर उसके पास कुछ मूल-ध्वनियों का समूह इकट्ठा हो रलिपि के प्रादुर्भाव से वह असुविधा समाप्त हो गई है गया होगा। हो सकता है कि भावावेग के समय भी उसके अव विचार-श्रेणी' को 'स्थायी रूप' दिया जाने लगा है। मनोभावों की व्यञ्जक कुछ ध्वनियाँ सहसा निकल पड़ी इस आविष्कार के योग से ही हम प्राज, वेद, वेदाग, तथा हों, और इस प्रकार से क्रम-क्रम करके भाषा का निर्माण वाल्मीकि, व्यास, कालिदास आदि की कृतियो का उपसम्भव हुआ हो। यद्यपि विद्वान लोग इस सम्बन्ध मे योग कर पा रहे है। किसी एक अन्तिम निर्णय अथवा निष्कर्ष पर नही पहुँच भाषा-स्थिर नही रहती, उसमें परिवर्तन अनिवार्य सके है, तथापि यह तो मानना ही पड़ेगा कि भाषा मनुष्य है। आज हजारों वर्ष पूर्व जो भाषा बोली जाती वा कृत, और क्रमशः विकास का परिणाम है । लिखी जाती थी, उसका वह प्राचीनतम रूप पाज नही 'भाषा' विचारों का समूह है, उसका साकार रूप है। भाषा-विदों का 'मत' है कि "जब भाषा मे परिवर्तन है। इसके दो भेद किये जा सकते हैं, एक 'व्यक्त' और रुक जाता है, तब उसकी प्रगति भी रुक जाती है । दूसरा 'अव्यक्त' । विचारों को पूर्ण रूप मे प्रगट करने सभ्यता के साथ भाषा का घनिष्ठ सम्बन्ध है । सभ्यता वाली भाषा 'व्यक्त' है, और पश-पक्षियो की बोली की वृद्धि के साथ भाषा भी विकसित होती रहती है। 'अव्यक्त' । अव्यक्त-भाषी सुख, दुख और भय के सिवाय इसमें नये-नये विचार तथा उन विचारों के द्योतक नये और अन्य भावों को भाषा द्वारा प्रगट करने की सामथ्य नये शब्द मिलते रहते है । इस प्रकार से भाषा का भण्डार नहीं रखते। वृद्धि पाता रहता है । भाषा मे परिवर्तन माने का मुख्य 'व्यक्त-भाषा' दो भागों में विभाजित है, 'कथित कारण स्थान, जल, वायु और सभ्यता का प्रभाव उच्चारण और लिखित'। जब कोई सामने होता है तब हम अपने प्रादि भेद है। अनेक शब्दों को एक प्रान्त का वासी विचारों को 'कथित-भाषा' द्वारा प्रगट करते है । जब हमें एक ढग से तो दूसरे प्रान्त का वासी दूसरे ढंग से बोलता अपने से किसी दूर वाले व्यक्ति को अपने विचारों से है। शीत-प्रधान देशों की शब्दावली ऐसी है जिसमे मुंह अवगत करना होता है तब हम 'लिखित-भाषा' उपयोग में कम खोलना पड़ता है, किन्तु उष्ण-प्रधान देशों में अधिक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनेकाल १०. वर्ष २५, कि० १ मुंह खोलने वाले शब्दों का ही प्रयोग बहुलता से है । 'भारत देश' मे भी उत्तर प्रदेश वासी किसी 'शब्द' को अपने ढंग से कहेगा, तो पंजाब प्रदेश का व्यक्ति यदि उसी शब्द का उच्चारण करेगा तो भिन्नता होगी। बगाल निवासी 'संस्कृत शब्दों' का उच्चारण विकृत रूप में करते हैं। मरुस्थल के निवासी कण्ठ से बोले जाने वाले शब्दो का अधिक व्यवहार करते है ।" । कुछ विद्वानों का मत है कि "सृष्टि के प्रारम्भ में ( काल में ) सब मनुष्य एक ही स्थान मध्य एशिया मे ही रहते थे, उस समय उनकी भाषा एक थी। कुछ विद्वानों की धारणा है कि 'पार्थ' लोग पहले-पहल 'तिब्बत' से 'भारतवर्ष' में उतरे और वहीं से कालुक होकर पश्चिम की घोर फैलने लगे। जो हो, जीविका की लोज मे, या अन्य किसी कारण से भिन्न-भिन्न देशों मे लोग जा बसे । गंगा के किनारे से लेकर 'आइसलैंड' तक, स्वीडन से फोट तक घायों की शाखाए फैल गई। 'भारत' का अधिकांश भाग "अफगानिस्तान, ईरान मौर धार्मिनिया" ( इतना एशिया) और तीन-चौथाई भाग का "स्वीडन पोरखे का" अधिकांश हिस्सा तथा वास्क, हंगरी और तुकिस्तान के अतिरिक्त यूरोप के अधिकाश भागो में आर्यों की विभिन्न टोलियाँ जा वसी । जिन विद्वानों का मत है कि धार्य लोग मध्य एशिया' से भारत आये उनके कथनानुसार 'भार्यावर्त' में पहलेपहल धार्य लोग 'सिन्धु नदी के किनारे पर बसे धीरेधीरे ये सारे देश तथा 'लका, ब्रह्मा, कम्बोडिया और मलाया' तक फैल गये । आर्यों की विशिष्ट बस्ती होने के कारण 'विध्याचल और हिमालय के बीच के प्रदेश का नाम 'आर्यावर्त' पड गया । भिन्न-भिन्न प्रदेशों की जलवायु को भिन्नता के प्रभाव के कारण प्राय की 'आदिम 'भाषा' के उच्चारण मे अन्तर पडने लगा । नवीन देश में पाकर नवीन वस्तुओं के लिए, नवीन स्थिति अनुसार नवीन धारम्भ किये कार्यों के लिए उन्हें नवीन शब्दों की कल्पना करनी पड़ी जिससे उनकी भाषा नवीन शब्दों से अलंकृत हो नवीन रूप पहरण करती रही। नई प्रौर पुरानी भाषा के योग से यह भी हुमा कि उनकी प्रादिम-भाषा के मूल शब्द जो थे, वह भी नवीन देश में कुछ विकृति के साथ बोले जाने लगे । हमारे पूर्वज जब बढ़कर भिन्न-भिन्न प्रदेशों में जाकर बसे, तो उनमें से जो लोग 'पश्चिम' गये थे उनमें ग्रीक, लंटिन, श्रग्रेजी मादि भाषाएं बोलने वाली जातियों की उत्पत्ति हुई और जो लोग 'पूर्व' की घोर गये उनके दो दल हो गये, एक भाग 'फारस' को गया दूसरा काबुल होता हुमा भारतवर्ष पहुंचा। पहले दल ने ईरान में मोडी भाषा के द्वारा फारसी भाषा की सृष्टि की। दूसरे दल ने 'संस्कृत' का प्रचार किया। 'संस्कृत' से पूर्व बोली जाने वाली भाषा का नाम 'प्राकृत' था, वेदों में मंत्र'प्राकृत' में भी पाये जाते हैं। भाषा का वर्गीकरण : 2 विद्वानों का अनुमान है कि संसार में लगभग दो हजार प्रकार की भाषाए (उप-भाषाभों और बोलियों को छोड़कर) हैं । इन सबका वर्गीकरण चार खण्डों में हुआ है- १. फीका-खण्ड २. युरेशिया-खण्ड ३, प्रशांत महासागरीय लण्ड धौर ४. धमेरिका-मण्ड 'युरेशिया खण्ड' में सेमेटिक, काकेशस, यूराल, अल्टाइक, एकाक्षर, द्राविड़, घाग्नेय, अनिश्चित पोर भारोपीय (भारतयूरोपीय ( नाम की माठ शाखाओं का अन्तर्भाव होता है । भारतीय कुल की भाषाएं उत्तर भारत, मफगानिस्तान, ईरान तथा प्राय: सम्पूर्ण यूरोप मे बोली जाती हैं । ये भाषाएं "कट्ठेम् धौर शतम्" नाम के दो समूहों में विभक्त हैं। तम (एक सौ ) वर्ग में इमीरियन, वाल्टिक, स्लैबो निक, धार्मेनियन और पार्य भाषाओं का समावेश होता है। धार्य अथवा ईरानी उप-कुल की तीन मुख्य भाषाएं हैं—१. ईरानी, २. दरद भोर भारतीय-भायं भाषा । 'पुरानी ईरानी' के सर्वप्राचीन नमूने पारसियों के घमं ग्रंथ अवेस्ता में पाये जाते हैं। यह भाषा ऋग्वेद से मिलती-जुलती है। 'दरद' भाषा का क्षेत्र पामीर मौर पश्चिमोत्तर पंजाब के बीच का क्षेत्र है। संस्कृत-साहित्य में काश्मीर के पास के प्रदेश के लिए 'दरद' का प्रयोग' हा है। भारतीय पायं भाषाओंों को तीन युगों में विभक्त किया है- १: प्रथम युग, २. द्वितीय युग और ३. तृतीय ' Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , भाषा को उत्पत्ति व विकास युग-प्रथम युग, प्राचीन भारतीय भार्य-भाषा का है जो लगभग १५०० ई० पूर्व से लेकर ५०० ई० पूर्व तक चलता है। इस युग में वेदो की भाषा तथा परिष्कृत साहित्यिक संस्कृत का अन्तर्भाव होता है। दूसरा युग - भारतीय मायं भाषा का है जो ५०० ई० सन् पूर्व से ११०० ई० सन् तक है यह युग प्राकृत भाषाओं का है जिसमें पाली तथा प्राकृत (जिसमें वर्त मान युग की सभी जन-साधारण बोलियाँ प्रा जाती है) जो कि ध्वनि-तत्व के परिवर्तन और व्याकरण सम्बन्धी भिन्नताओं से प्राचीन भारतीय प्रार्य भाषाधों से ही एक नई भाषा का जन्म दे रही थी, का अन्तर्भाव प्राता है। तीसरा युग - श्राधुनिक भारतीय प्रायं भाषामों का युग है जो ११०० ई० सन् से लेकर आज तक चलता रहा है । इसमें अपभ्रंश और उसके दो उपभदों का समावेश होता है। मध्ययुगीन भारतीय ग्रायं भाषाएं : - मध्ययुगीन भारतीय धायं भाषायों को भी तीन भागों में विभक्त किया गया है। प्रथम में पाली. शिलालेवों की प्राकृत, प्राचीनतम अंन भागमों की प्रमागधी तथा अश्वघोष के नाटकों की प्राचीन प्राकृत का अन्तर्भाव होता है। दूसरे भाग मे जैनों का धार्मिक धौर लौकिक साहित्य, सास्कृतिक (क्लासिकल) संस्कृत नाटकों की प्राकृत, हाल की सतसई, गुणाढ्य की वृहत्कथा तथा प्राकृत के काव्य पोर व्याकरणों की मध्यकालीन प्राकृत घाती है। तीसरे भाग में प्रपत्र का समावेश है जो ईस्वी सन की पांचवीं छठी शताब्दी से प्रारम्भ होता है। 'पभ्रंश' विकास की चरमसीमा पर तभी पहुंच पाई, जबकि मध्ययुगीन प्राकृत को वैयाकरणों ने जटिस- नियमों मे बांधकर उसका विकास रोक दिया । प्राय द्वारा बोली जाने वाली सामान्य भाषा उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गई मोर साहित्यिक क्षेत्र में (भाषा में ) क्रमश: परिमार्जित होती रही वैदिक संहिताओंों के पश्चात् ब्राह्मण-ग्रन्थों की रचना हुई, पद-पाठ द्वारा वैदिक-सहिताओं को पद के रूप में उपस्थित किया गया तथा संधि और समासों के माधार पर वाक्य के शब्दों को पृथक-पृथक किया गया । ११ प्रति शाख्य द्वारा सहिताओं के परम्परागत उच्चारण को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया, तलश्चात् वैदिकभाषा से परिचित हो जाने पर निपट मे दब्दों का संग्रह किया गया है। 'यास्क' (ई० सन् 5वीं शती पूर्व) ने 'निषटु' की व्याख्या करते हुए नि के प्रत्येक शब्द को लेकर उनको पति घर घर्च पर विचार किया है। इस समय पाणिनि ने (५०० ई० सन् पूर्व ) वैदिक कालीन भाषाभो को व्याकरण के नियमों में बाँध कर सुसंस्कृत बनाया । प्राकृत का यह परिष्कृत सुसज्जित श्रीर सुगठित रूप संस्कृत' कहा जाने लगा। 'पतंजलि' (१५० ई० सन् पूर्व ) ने वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण का महत्व समझा, उसका अध्ययन प्रावश्यक बतलाया है । इससे यह निर्णय होता है कि व्याकरण का महत्व बढ़ रहा था । फलतः एक ओर संस्कृत शिष्ट जन समुदाय की भाषा हो रही थी तो दूसरी ओर पढ़ लोगों की सामान्य जन-समुदाय द्वारा बोली जाने वाली प्राकृत भाषा प्रसार पा रही थी। दोनों क्षेत्र पृथक-पृथक हो गये। स्वयं पाणिनि ने वाङ्मय की भाषा को 'छन्दस' प्रौर साधारणजनों की भाषा को भाषा कहकर उल्लेखित किया है । इससे यह सिद्ध किया है कि उस युग में साहित्यिक भाषा अथवा शिष्टजन की भाषा और जन साधारण की भाषा पृथक पृथक हो गई थी। "प्राकृतः " कुछ विद्वानों का मत था कि 'प्राकृत भाषा की उन्नति संस्कृत से हुई है, लेकिन यह धारणा श्रसत्य सिद्ध हुई। आर्य भाषा का प्राचीन रूप हमें 'ऋगवेद' की ऋचाओं मे मिलता है। प्रार्यों की बोल-चाल का ठंठ रूप जानने के लिये हमारे पास काई साधन नहीं है, लेकिन वैदिक प्रायों की यही सामान्य बोलचाल जो 'ऋग्वेद' की संहिताओं की साहित्यिक भाषा से भिन्न है, प्राकृत का मूल रूप है । 'प्राकृत' का अर्थ है स्वाभाविक प्रत्येक प्रचलितभाषा मे नवीन भावों के द्योतक नवीन शब्द तथा उसी भाषा के अपभ्रश शब्दो के सम्मिश्रण से लेकर नई भाषा अवतरित होती है, और वह अपनी उन्नति के लिये नवीन क्षेत्र प्रस्तुत कर लेती है । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष २५, कि. १ अनेकान्त क्रमश: 'प्राकृत' का परिष्कार हुमा और उसने भी भाषा अर्ध-मागधी-प्राकृत' है। सस्कृत-नाटकों में प्रयुक्त साहित्यिक-वेश-भूषा धारण की । प्राकृत भाषा में विविध रूप वाली प्राकृत मुक्तक-वादियो की महाराष्ट्री. साहित्यिवो की अभिरुचि होने से अभिवृद्धि होने के कारण प्राकृत है। शिलालेखों की प्राकृत अनेक रूपों में बिखरी संस्कृत की भाति प्राकृत को भी सुगठित बनाने के लिये हुई पड़ी है। इन ममी को सामान्य तथा प्राकृत के नाम वैयाकरणों ने व्याकरण के नियम बनाये । प्राकृतिक- से ही सम्बोधित किया जाता है। बोलियां अपने भनेक भिन्न-भिन्न रूपों मे लोक मे 'वररुचि' ने प्राकृत (महाराष्ट्री), पैशाची, मागधी प्रचलित थीं, जिस कारण से प्राकृत वैयाकरणों द्वारा और शौरसेनी ये चार प्राकृत भाषा के भेद माने हैं, किन्तु उसमें संस्कृत की भांति एकरूपता नही पा सकी। प्रनि- वररुचि के 'प्राकृत-प्रकाश' के पाठ परिच्छेदों में केवल वार्य कारण तो यह था कि प्राकृत-भाषाओं के प्रकार ही। प्राकृत-भाषा का ही विवेचन है। इससे यह सिद्ध होता भिन्न थे, एक भाषा के कारण दूसरी भाषा (प्राकृत) के हैं कि व्याकरण सामान्य रूप से प्राकृत भाषा को ही लक्षण से पृथक् थे-प्राकृत-भाषा की प्रवृत्ति ही बहुरगी मुख्य भाषा मानती है। है । समय के साथ बोलियो मे भी परिवर्तन प्राता रहा । ___'शूद्रक' के 'मृच्छकटक' के अनुसार सूत्रधार द्वारा बोली रचनायें भी भिन्न कालों (यगों) की थी। ये सभी ऐसी जाने वाली भाषा को ही प्राकृत कहा गया है। यद्यपि बाद अव्यवस्थाएं थी, कि वे उन्हें सुचारु रूप देन में असमर्थ के वैयाकरणों के शब्दों में यही भाषा शौरसेनी मानी गयी रहीं। है। 'रुद्रट' के 'काव्यालंकार' (१०६६ ई.) के टीका-कार इस प्रयास का इतना तो प्रतिफल अवश्य हुमा कि नमि' साधु ने लिखा है कि व्याकरण आदि के सस्कार से प्राकृत कुछ व्यवस्थित भाषा बन गयी, किन्तु इससे एक विहीन समस्त जगत के प्राणियो के स्वाभाविक-वचन व्यवबड़ी हानि भी हुई, जन साधारण से इसका नाता टूट हार को प्राकृत कहते है । प्राकृत भाषा मे उपदेश देने के लिये गया। लोक प्रचलित-जिन बोलियों के माघार पर जन-साध छोटे छोटे मुक्तक बड़े ही चुभते हुये कहते थे। 'प्राकृत' की रचना हुई थी, वे बोलियां भी नियमों में नहीं मानन्दवर्धन, धनंजय, भोजराज, रुय्यक, मम्मट, का घी जा सकी। इनका विकास निरन्तर प्रगति पर रहा। हेमचन्द्र, विश्वनाथ आदि काव्य-शास्त्र के दिग्गज विद्वानो 'प्राकृत' का सबसे प्राचीन व्याकरण 'वररुचि' का ने प्रतिपादित रस और अलंकार को स्पष्ट करने के है। 'कालिदास' ने शकुन्तला-नाटक में स्त्री ओर सेवक लिये प्राकृत-काव्य-ग्रन्थों से चुनचुन कर अनेक सरस के मह से प्रायः प्राकृत-भाषा का ही प्रयोग कराया है। उदाहरण प्रस्तुत किये है । यह प्राकृत साहित्य की इससे सहज अनुमान होता है कि 'कालीदास' के समय उत्कृष्टता का प्रमाण है। मे स्त्रियो और जन-साधारण की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत-साहित्य को तीर्थकर 'महावीर' के युग से लेकर ___ 'प्राकृत' के विकास होते-होते उसमे तीन शाखायें १८वी शताब्दि तक इन २५०० वर्षों के दीर्घकाल मे फट निकली :-१.मागधी, २-शौरसेनी और ३-महा- भनेक अवस्थामों से गुजरना पड़ा है । प्राज इन भाषामों राष्ट्री। मगध प्रदेश और बिहार की भाषा 'मागधी', के अनेक रूप पंशाची, मागधी, मागधी, शौरसेनी, शूरसेन-प्रदेश (मथुरा के पास पास) की भाषा 'शौरसेनी' महाराष्ट्री मादि जो विद्यमान है वे ही उसकी महत्ता के मौर महाराष्ट्र-प्रान्त की भाषा महाराष्ट्री कहलायी। बोधक हैं। मागधी और शौरसेनी मिश्रित भाषा को अर्घ-मागधी ईस्वी सन् के पूर्व ५वी शताब्दि से लेकर ईस्वी सन् कहा गया। इसी अर्धमागधी मे जैन धर्म के पुष्कल-ग्रन्थ की पांचवी शताब्दि तक इसमे जैन-प्रागम-साहित्य का उपलब्ध हैं। संकलन और संशोधन होता रहा । ईसा की दूसरी दिगम्बर-जनों के प्राचीन-शास्त्रों की भाषा (प्राय:) शताब्दि से १३वीं शताब्दि तक इस साहित्य पर नियुक्ति, 'शौरसेनी-प्राकृत' है। श्वेताम्बरों के जैन भागमों की भाष्य, चूर्णि, भौर टीकाये लिख कर ग्रन्थकारों ने इसे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा की उत्पत्ति व विकास समद्ध बनाया । अनेक लोकिक व धार्मिक कथाम्रो प्रादि ५०० ई० से १००० ई. तक माना जाता है। का इस व्याख्या-साहित्य में समावेश हुआ। ईस्वी सन् की प्रत्येक भाषा अपनी ही भाषा के अशुद्ध-शब्द सम्मिचौथी शताब्दि से १६वी तक कथा-साहित्य सम्बन्धी लित हो जाने के कारण नवीन-भाषा को जन्म देती है। अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थो की रचना हुई। प्राकृत भी जब अपने पूर्ण रूप में प्रसरित थी, उस समय ईस्वी सन की छठी शताब्दी से १८वी तक प्राकृत में इसमे जो परिवर्तित शब्द घुमे उससे वह अपभ्रश बनी। व्याकरण, छन्द प्रौर कोषों का निर्माण होता है । अनुमान 'प्राकृत भाषा के अन्तिम वैयाकरणी श्री 'हेमचंद्रसूरि' है कि वररुचि के पूर्व ही प्राकृत-व्याकरण की सजना ने १२वी शताब्दी में अपनी रचना "सिद्ध हेमशब्दानुशासन' रचना) हुई थी। ११वीं शताब्दी से १३वीं तक का काल के प्राठवे अध्याय मे अपभ्रंश-भाषा का उल्लेख किया है तो विशेष रूप में इस साहित्य का उन्नति-काल रहा है। और उसका व्याकरण भी लिखा है। सूरि ने उपलब्ध इस समय गुजरात मे 'चालुक्य' मालवा में 'परमार पोर ग्रथों में से चुन-चुनकर उदाहरणार्थ कितने ही पद्य लिखे राजस्थान में 'गहिलोत' तथा च उहाण राजानों का राज्य है। इनसे उस समय की प्रचलित अपभ्र श-भाषा का था । फलस्वरूप गुजरात में प्रणहिल्लपुर, पाटण, संभारा पर्याप्त ज्ञान मिलता है। और भड़ोंच राजस्थान मे चित्तौड़, मालवा, उज्जैन, ग्वालि- 'सूरि' जी को मृत्यु के कुछ ही वर्षों पश्चात भारत में यर प्रादि नगर मे जैन-श्रमणो की प्रवृत्तियों के केन्द्र थे। राज्य विप्लव हुमा और साम्राज्य के टुकड़े-ट कडे होकर इस भाषा मे धार्मिक-पाख्यान चरित, स्तुति, लोक- विखर गये। छोटे-बड़े सैकड़ों राज्य स्थापित हए । इस कथा, नाटक, काव्य, सट्टक, प्रहसन, व्याकरण, छन्द, राज्य-क्रान्ति का प्रभाव भाषा पर भी पडा। प्रत्येकका कोष, अर्थ-शास्त्र, सगीत-शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, राज- सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से उनमे व्यापक अपभ्रश भाषा नीति-शास्त्र, काम-शास्त्र निमित्त-शास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, भी प्रत्येक प्रान्त में भिन्न-भिन्न रूपो में विकसित और अंग-विद्या, रत्न-विद्या, (परीक्षा) आदि शास्त्रीय-साहित्य लगी। द्वारा इस भाषा ने मां भारती के भण्डार की जो वृद्धि भिन्न-भिन्न प्रान्तो की प्राकृत का अपभ्रंश रूप भी की वह भारतीय-भाषा को इसकी (प्राकृत) की अमर- भिन्न-भिन्न हमा, जैसे शौरसेनी का अपनश नागर अपभ्रश कहलाया (व्रज-भाषा शौरसेनी और प्राकृत का 'प्राकृत' यदि संस्कृत शैली से प्रभावित है तो उसी रूपान्तर मात्र है।) प्रकार सस्कृत को भी प्राकृत प्रभावित करती रही है। उपरोक्त परिस्थिति के कारण 'अपभ्रश-भाषा'वज 'प्राकृत' जन-साधारण की भाषा थी, बालक, वृद्ध, स्त्रियां अवधी, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी पजाबी पास तथा अपढ़ सभी लोग इसे समझते और बोलते थे। बोलियो के उद्भव का कारण बनी। 'संस्कत' तो केवल सुशिक्षितो की ही भाषा थी। काला- 'अपभ्रश' का प्रचलन ११वीं शती तक पर तर में प्राकृत-भाषा ने अपभ्रश का रूप धारण किया रूप में था, पश्चात् दूसरी भिन्न भिन्न शाखाए फटी और और अपभ्रंश व्रज, अवधी, मगही, भोजपुरी, मैथिली, १५वीं शती तक पहुँचते-पहुँचते वे भिन्न-भिन्न वातावरण पंजाबी मादि बोलियों के उद्गम का कारण ई। मे फलने-फूलने लगी। अपभ्रंश: __'अपभ्रश' प्राकृत और प्रान्तीय भाषाओं के मध्य की अपघ्रश का अर्थ है भ्रष्ट, च्युत अथवा बिगड़ा हुमा भाषा है। 'प्राकृत' के पश्चात् अपम्रश और अपनश के रूप । जनता की भाषा व्याकरण से व्यवस्थित न होने के पश्चात् प्रान्तीय भाषामों की सष्टि हुई है। अपभ्रशकारण भ्रष्ट मानी गई और उसे अपभ्रश की संज्ञा दी भाषा से पुरानी हिन्दी व्रजभाषा और गुजराती का बहुत गई । समय की गति के साथ-साथ अपभ्रंश में भी साहि- प्रधिक सम्बन्ध रहा है। भाषा की दृष्टि से मादि काल 'त्यक रचनायें होने लगी। अपभ्रंश-भाषा का काल में चार भाषामों की उत्पत्ति (सष्टि) मिलती है Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनेकान्त १४ व २५, कि० १ १.२.गल, २. मैथिली ४ बड़ी पोषी गिल को राजस्थानी भी कहते हैं। प्रारम्भ मे पश्चिमी हिन्दी का जो रूा था उस रूप से राजस्थानी और गुजराती की उत्पत्ति हुई है। डा० 'टोसटोरी' का मत है कि पन्द्रहवीं शताब्दी तक पश्चिमो राजपुताना और गुजरात में एक ही भाषा बोली जाती थी, इसे वे प्राचीन भाषा कहते है। यही भाषा गुजराती भोर मारवाड़ी का मूल रूप है । प्राधुनिक भार्य भाषाधों की उत्पत्ति प्रपभ्रंश भाषा से ही हुई है । जैसे : शौरसेनी से हिन्दी, गुजराती राजस्थानी पंजाबी और पहाड़ी भाषाएं मागधी अपनश भाषा से -विहारी बगला, घासामी, उड़िया । " " मागधी अपभ्रंश भाषा से पूर्वी हिन्दी । - महाराष्ट्री (मराठी) आदि महाराष्ट्री आधुनिक घार्य-भाषा का तेरहवी शताब्दी के ल भाग से साहित्य मे प्रयोग होने लगा था। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थो में इनका उल्लेख अपभ्रंश और अपभ्रंश के रूप मे किया गया है। अधिकांश संस्कृत विद्वानों ने 'प्रपभ्रंश' पशब्द का ही प्रयोग किया है। अपभ्रष्ट का उल्लेख प्रति म्यून रूप में है। विष्णुधर्मोत्तर पुराएको में ही 'अपभ्रष्ट' संज्ञा का व्यवहार किया गया है किन्तु 'शन्प्रन्थों में 'प्रवव्यंस, अवहंस, अवहत्थ, अवहट्ट वयादि नाम भी मिलते है। परवर्ती कवियों द्वारा इन शब्दों का प्रयोग अधिकतर किया गया है। 'प्रवहट्ट' का प्रथम प्रयोग ज्योतिशिखर ठाकुर के '' (१३२५ ई०) में वहाँ राज सभा में भार द्वारा षट् भाषाभों की गणना की जाती है। 'विद्यापति' ने कीर्तिलता को अपनी भाषा की प्रशंसा करते हुए उसे '' कहकर पुकारा है। प्राकृत 'पंगलम्' के टीकाकार श्री वंशीधर की सम्मति में प्राकृतको भाषा ही है ( पृ० ३) कुवलयमाला के रचनाकार उद्योतनसूरि ने 'प्रवहंस' शब्द का प्रयोग किया है 'सन्देश रासक' के रचयिता 'सम्दुल रहमान ने भी 1 अपने काव्य की भाषा को 'अ' कहा है 'हंस' शब्द का प्रयोग प्रवम्भ के रूप में भी हुआ है । 'पुष्पदन्त' 'संस्कृत और प्राकृत' के साथ 'प्रवहंस' की गणना करते है स्वयंभूदेव अपनी रामायण में इसे '' कह कर पुकारते हैं। 'भरतमुनि' ने तत्कालीन साठ भाषायों का निर्देश किया है "मागध्यवतापाच्या कौरसेपमधी बालीका, दक्षिणात्या च सप्त भाषा प्रकीर्तिताः ।” (१७-४२) अनेक भाषायें निम्नलिखित शमीर पांडाल सर मिला । "शवरों प्रभीरों चाण्डालों प द्राविड़ों श्रोहों प्रोर हीन जाति के वनचरो की बोलियाँ ( प्रथक् ) है ।" और "रावर तथा घनोसी जगली-भाषा का प्रयोग अंगारकारों कोयला बनाने वालों, शिकारियों प्रोर काष्ठ-यन्त्रों द्वारा जीविका उपार्जित करने वाले व्यक्तियों द्वारा तथा श्राभीरोक्ति और शावरी का उपयोग गो, अश्व, ऊंट प्रादि-पालक और घोष निवासी ग्वालों के गाँव में रहने वाले जनों द्वारा किया जाता है।" भरतमुनि के उपरोक्त लेख मे अपश का स्पष्ट नाम नहीं पाया है। ऐसा अनुमान होता है कि भरतमुनि के समय तक किसी भाषा को 'अपभ्रंश' की सजा नहीं दी गई थी। इससे अनुमान होता है कि अपभ्रंश का विकास उस कोटि तक नहीं हो पाया था कि जिसे भाषा की संज्ञा दी जा सके, किन्तु भविष्य में मभीरोक्ति को ही अपभ्रंश की संज्ञा प्राप्त हो गई । भरतमुनि ने नाटयकारों के लिए स्पष्ट लिखा है कि "विभिन्न प्रदेश निवासी पात्रों द्वारा किस प्रकार की बोली प्रयुक्त की जाय - गंगा और सागर के मध्य बोली ( भाषा 'ए'कार बहुल है। हिमालय और सिन्धु तथा सौबीर के तटीय प्रदेश की भाषा 'उ' कार बहुला है। विन्ध्याचल श्रोर सागर ( मोरल्लड नच्चन्तउ ) इत्यादि के मध्य की भाषा 'न' कार बहुला है। चर्मवती के उस पार तथा अर्बुद के तटीय प्रदेश की भाषा 'ट' कार बहुल है। सम्भवतः भरत की 'उ' कार बहुला ही 'प्रभोरोक्ति' अपभ्रंश रही होगी। भरतमुनि ने उदाहरण स्वरूप '४' बार बसा ही को प्रीति शाहे ि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा की उत्पत्ति विकास पोहउ मादि जो शब्द दिये हैं वे ठेठ अपभ्रश के है। ११वीं-१२वीं शती में-"कनकामर, जिनदत्तसूरि, वीर, इसमें अपनश के बीजों की झलक प्रवष्य मिलती है। श्रीचन्द्र, यश:कीति और नयनन्दि" के नाम उल्लेखनीय हैं । ८वी शानी से १२वीं शताब्दी तक अपनश भाषा "कन कामा ने 'कर कुण्डुचरिउ' । जिनदत्त सूरि ने 'चर्चरी', का समय माना जाता है। १३वीं से १४वो तक अपम्रश- उपदेश-रसायन रास और कालस्वरूप कुलक"। वीर ने मिभित हिन्दी का काल है। 'जम्बूस्वामी चरिउ' । नयनन्दि ने 'सुदंसणचरिउ । श्रीचंद्र ८वीं शती में 'स्वयम्भू' अपभ्रंश-भाषा के महाकवि ने 'रत्नकरण्ड-शास्त्र एवं कथाकोश' । श्रीधर ने पासणाह हुए, उन्होंने 'पउमचरिउ' (राम-कथा), रिट्ठणेमिचरिउ चरिउ, भविष्यदत्त चरिउ एवं सुकुमाल चरिउ' प्रादि । (श्रीकृष्ण-कथा), दो महाकाव्य तथा 'पचमी चरिउ' महाकवि 'धवल' भी इसी दाताब्दी की शोभा हैं। (पंचमीव्रतकथा' नामक प्रबन्ध-काव्य लिखा। १३वीं-१४वीं में-महाकवि अमरकीति ने 'छक्कम्मो. १०वीं में होने वाले कवि देवसेन, पुष्पदन्त, पप- वएस', पं० लाख –'जनदत्त चरिउ' हरिभद्र ने 'णेमिणाह कीति, रामसिंह, धनपाल प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं :- चरित', धाहिल ने 'पउमसिरिचरिउ', नरसेन ने 'वड्ढमाण'देवसेन' ने-'दर्शनसार', 'तत्त्वसार' और 'सावय कहा' और 'सिरिपाल चरिउ' तथा सिंह ने 'पज्जुण्ण-कहा' धम्म-दोहा' लिखा। ग्रन्थों की रचना की है। सभी उत्कृष्ट श्रेणी की रच. 'पुष्पदन्त' ने-'महापुराण', 'जसहर चरिउ' एवं नायें है। 'णायकुमार चरिउ' की रचना की। इसी काल में जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा में रचना 'पपकीति' ने-'पासणाह चरिउ' की रचना की। कार्य प्रारम्भ कर दिया था-श्रीधर्मसूरि का जम्बूस्वामी 'मुनि रामसिंह' ने-'दोहा-पाहुड' रचा। रास, विनयचन्द्रसूरि की नेमिनाथ चउपई, अम्बदेवकृत 'धनपाल' ने.---'भविसयत्त-कहा' काव्य रूप में अर्पित संघपति का समगरास और 'घेल्ह' कृत चउवीसी गीत किया। उल्लेखनीय हैं। प्रथम तीन रचनायें राजस्थानी भाषा में'पुष्पदन्त' इस युग के सर्वश्रेष्ठ कवि रहे । इनकी है । चउवीसी गीत की रचना सं० १३७१ में की है। रचनामों ने अपभ्रश-भाषा साहित्य को सम्मान दिया है। ब्राह्मण वर्ग ने संस्कृत देव-भाषा की मान्यता दे उस भाव, भाषा, शैली सभी दृष्टियों से मापका साहित्य में पर अपना प्राधिपत्य जमा रक्खा था। अन्य भाषा में उत्कृष्ट स्थान है। सूरदास जी 'के' कृष्ण बाल लीला में रचना करना हीनता मानते थे । 'अपम्रश' उस समय की प्रापकी रचना का अनुरूप मिलता है-उदाहरणस्वरूप- जन-भाषा थी। जन-भाषा में साहित्य रचना करना "रंगतेन रमंत रमते मचंउ, परिउ भमंतु प्रणते, पांडित्य में न्यूनता समझी जाती थी। उन लोगों ने मंदरित तोडिउमावट्टिउं, प्रड विरोलिउ बहिउ पलोहिउ । संस्कृत-भाषा के नाटकों में अपग्रंश-भाषा का प्रयोग नीच कवि गोवि गोविबह लग्गी, एणमहारी मंयणि मग्गी, जाति वाले पुरुषों प्रथवा नारियों से करवाया है। ब्राह्मणएयहि मोल्लु देउ अलिगणु, णं तो मा मेल्ला में पंगण ॥ समाज अपने को सिर मानता था, व्रजभाषा का उच्चाहिन्दी-चोरी करत काम्ह पर पाये। रण उसके गौरव के प्रतिकल था। ब्राह्मण-समाज के निसिवासर मोहि बहुत सतायो, अब हरि हायहि माये ॥ सिवाय अन्य किसी साहित्य को अपनश से द्वेष नही था। मालन-वधि मेरो सब खायो, बहुत प्रचगरी कोन्ही, मुस्लिम कवि-'प्रन्दुल रहमान' ने 'सन्देश-रासक' नामक अब तो देख परी हो ललना, तुम्हें भलं मैं चीन्हीं। प्रबन्ध-काव्य की जो श्रृंगार रम का प्रथम श्रेणी का काम्य रोड भूज परि कयौ कह हो, माखन लेउं मंगाई, माना गया है, रचना अपभ्रश में की है। यह भी कटु तेही सों मैं मेकुन खायो, सखा गये सब खाइ। सत्य है कि जनी अपनी रूढ़िवादी कट्टरता के वशीभूत हो मुहमचित विहसि हरि बीनों, रिस सब गईमाई, अपने साहित्य को प्रकाश में नहीं लाते थे। अधिकाधिक नयो श्याम र लाइग्वालिनी, 'सूरदास' बलि जाई॥ विद्वानों ने उपलब्ध सामग्री को अपनी रचनामों में समा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. वर्ष २५, कि० १ मोकान्त विष्ट किया। एक बार जिस तथ्य का प्रकार किसी पीठ है । 'पास्तिकता'। इस 'पास्तिकता' के प्राचुर्य ने . विशिष्ट पधिकारी द्वारा हो जाता है, उसके परिवर्तन के तस्कृत मे एक विशाल साहित्य को जन्म दिया है जो उससे भी विशिष्ट दृढ-व्यक्त्त्वि की प्रावश्यकता है। यह स्तोत्र-साहित्य के नाम से अभिहित किया जाता है। रूढ़िवादिता ने ही अपभ्रश का प्रहित किया है । संस्कृत-भाषा के श्लाघनीय स्तोत्र कोमल भावनामों की संस्कृत अभिव्यंजना मे अपनी समता नहीं रखते । सस्कृत-साहित्य संस्कृत-भाषा' को देववाणी अथवा सुरभारती भी गीत-काव्यों और प्रगति-मुक्तकों का जनक भी है। इस कहते है । 'संस्कृत' शब्द 'सम्' पूर्वक 'कृ' धातु से बना है, भाषा की मधुरता भी सस्कृत काव्यो की 'गेयरूपता' का जिसका अर्थ होता है-सस्कार की गई भाषा। 'सस्कृत' कारण है। विश्व मे 'कथा' के उद्गम का श्रेय भी इसके प्राचीन भारतीय पार्य भाषामों की विविध बोलियों द्वारा साहित्य को दिया जाता है । यद्यपि अब यह तथ्य स्वीकार समृद्ध हुई है। ये बोलियां ऋग्वेद-काल से लेकर पाणिनि किया जाने लगा है कि सरकृत साहित्य में हुमा कथाऔर पतंजलि के काल तक निरन्तर चलती रही। 'प्रति- साहित्य का प्रवेश प्राकृत-साहित्य से हुआ है। प्राकृत का शाख्य-काल' से ही इसका परिष्कार प्रारम्भ हो गया था। जन जीवन से सम्बन्ध होने के कारण कथा-साहित्य विपुल अन्त में यह 'अष्टाध्यायी' और 'महाभाष्य' के नाम मात्रा मे रचा गया है । यहाँ से 'कथानो ने पश्चिमी देशों निबद्ध होकर सीमित हो गई। की यात्रा की पोर उन्हें सुबोध दिया। धार्मिक व सामाप्राचीन प्रार्य-भाषा का काल १५०० ई० सन् से पूर्व जिक राजनीतिक आदि सभी नीतियो की सुलभ शिक्षा का तक माना जाता है। उस समय की भाषा का थोड़ा साधन 'कथा' द्वारा प्रभावकारी हुमा और होता है । यही बहुत रूप हमे 'ऋग्वेद' मे मिलता है, किन्तु 'ऋग्वेद' की कारण है कि ब्राह्मण (हिन्दी) जनों और बौद्धो ने समान भाषा साहित्यिक' है। प्रार्य लोग ठेठ (बोली) भी बोलते भाव से इस कथा-साहित्य के परिवर्तन में इलाघनीय रहे, जिसके उदाहरण ऋग्वेद में ही मिलते है। भाषा योग दिया है। कहानी कला और व्यापकता में तो जैनों कभी स्थिर नहीं रहती, उसमें परिवर्तन अवश्यमेव होता की तुलना की ही नही जा सकती। विशाल, भव्य और ही रहता है । भाषा-विज्ञान के इस सिद्धान्तानुसार पार्यो उत्कृष्ट साहित्य इनका उपलब्ध है। की साहित्यिक-भाषा में परिवर्तन होता रहा। इस परि- सस्कृत-साहित्य के इतिहास को तीन कालो मे विभक्त वर्तन का उदाहरण ब्राह्मण और सूत्र-ग्रन्थों में प्राप्त होता किया जाता है-श्रतिकाल, स्मृतिकाल और लौकिकहै । ३०० ई० सन् पूर्व 'पाणिनि' नामक प्रसिद्ध वैयाकरण काल । १. श्रुतिकाल मे 'सहिता, ब्राह्मण, पारण्यक, उपने 'सत्र-काल' के साहित्यिक रूप को व्याकरण के नियमों निषद्' प्रादि ग्रन्थ निर्मित हुए। २. स्मृति-काल में में बाँध दिया, जिससे उसके रूप में परिवर्तन होना बन्द रामायण, महाभारत, पुराण, और वेदाग प्रादि की हो गया। रचनाएं हुई। ३ लौकिक सस्कृत काल मे पाणिनि के पायों की इस व्याकरण से बंधे नियमों की भाषा नियमों द्वारा भाषा नितान्त संयत और सुव्यवस्थित 'संस्कृत' (भाषा) के नाम से प्रसिद्ध हई, जो अब तक की गई नव्य 'काव्य-नटको' की रचना हुई। प्रचलित है। नियमों में बांधने का अर्थ है संस्कार करना जैन साहित्यकारो ने भी प्राकृत और अपभ्रंश की . पौर संस्कार की हुई भाषा सस्कृत' के नाम से प्रसिद्ध हई। तरह संस्कृत में अपरिमित प्रथ-रचना की है । वे संस्कृत- . किन्तु मार्यों की बोलचाल वाली भाषा में बराबर परि- भाषा के मर्मज्ञ विद्वान थे । धर्म और दर्शन के अतिरिक्त वर्तन होता रहा भोर इस प्रकार प्रार्य-भाषानों का दूसरा काव्य महाकाव्य, कोष, छन्द अलंकार, गणित, ज्यतिष, काल प्रारम्भ हुमा जो ५०० ई० पूर्व से १००ई० पूर्व मायूर्वेद, मुद्राशास्त्र प्रभृति विषयों पर पहली शताब्दी से . तक माना गया हैं। १७वीं शताब्दी तक इस भाषा में विपुल जैन-साहित्य भारत धर्म-प्राण देश है। भारतीय-धर्म की प्राधार उपलब्ध होता है। यह जैन साहित्यकारों की संस्कृति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा की उत्पत्ति विकास भाषा विकास को महती देन है। मे कुछ के नामों व रचनामों की तालिका इस प्रकार हैं:जैन, क्षपण, श्रमण अर्थात् इत्यादि शब्द-सब संस्कृत व्याकरण ग्रंथ-'न्यास (प्रभाचन्द्र), 'कातंत्रव्या. मूलक है। दिगम्बर और श्वेताम्बर शब्द भी स्पष्टतया करण'-प्रपरनाम 'कौमार व्याकरण' (शर्ववर्म)-'शब्दासंस्कृत भाषा के ही है। जीव प्रजीव, मानव, बंध, नुगामन' (हेमचन्द्र), 'प्राकृत व्याकरण' (त्रिविक्रम), संवर, निर्जरा और मोक्ष ये जो सात पदार्थ जैनों के यहाँ रूपसिद्धि (दयापाल मुनि), शब्दार्णव (पूज्यपाद स्वामी) प्रमुख तत्त्व माने गये और इन्ही की विवेचना जैन दर्शन . इत्यादि....। का मुख्य अंग है यह भी संस्कृत शब्द संग्रह के ही हैं। कोश-पथ-त्रिकांडशेष, नाममाला (धनञ्जय), 'शाकटायन-व्याकरण' जैन विद्वान का रचा हुआ है। अभिधान चिन्तामणि, भनेकार्थ संग्रह, मादि (हेमचन्द).! 'लह-शाकटायनस्यैव', 'व्योलंघु प्रयत्नतर:-शाकटायनस्य', 'पुराण'-महापुराण, पद्मपुराण, पाण्डवपुराण, हरिपाणिनि सूत्र है । इस सूत्र से सिद्ध है कि 'शाकटायन' की वंशपुगण, त्रिषष्ठि शलाका पुरुष महापुराण प्रादि प्रादि स्थिति पाणिनि के पूर्व थी। शाकटायन-व्याकरण के प्रय कर गद्य-ग्रंथ, गद्य चिन्तामणि, तिलकमंजरी इत्यादि । टीकाकार यक्षवर्माचार्य ने प्रन्थ की प्रस्तावना मे स्पष्ट पद्य-ग्रंथ-वराङ्ग चरित, पाश्र्वाभ्युदय, पार्श्वनाथ चरित, चन्द्रप्रभ चरित, धर्मशर्माभ्युदय, नेमिनिर्वाण काव्य, स्वीकार किया है कि -शाकटायन जैन थे: जयन्त चरित, राघवाण्डवीय (उप नाम द्विसमान काव्य), स्वस्ति श्रीसकलज्ञानसाम्राज्यपदमाप्तवान्, त्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित, यशोधर चरित, क्षत्र चूड़ामहाधमण सङ्घाधिपतियः शाकटायनः ॥१॥ एक: शब्दाम्बुषि बुद्धि मन्दरेण प्रायम्य य:, मणि, मुनिसुव्रत काव्य, बाल भारत, बाल रामायण, स यश: धियं समद्दधे विश्वं व्याकरणामृतम् ।।२।। नागकुमार काव्य और अन्य प्रथ ... स्वल्पमन्यं सुखोपायं सम्पूर्ण यदुपक्रमम्, _ 'चम्पू -- जीवन्धरचम्पू, यशस्तिलकचम्पू, पुरुदेव चम्पू ... शब्दानशासनं सार्वमहच्छासनवत्परम् ॥३॥ 'मलकार प्रथ'-वाग्भट्टालंकार, अलंकार चिन्तामणि, तस्यातिमहती वृत्ति सहृत्येयं लघीयसी, ग्रलकार निलक, काव्यानुशासन, इत्यादि इत्यादि ... सपूर्ण लक्षणा वृत्ति वक्यते यक्षवर्मणा ॥४॥ प्रर्थात्-सकलज्ञान-साम्राज्यपदभागी श्री शाकटायन 'नाटक'-विक्रान्तकौरव, अंजनापवनंजय, ज्ञान सूर्योदय मादि ... ने,-जो कि जैन-समुदाय के स्वामी थे-अपने ज्ञानरूपी "चिकित्सा अथ'-अष्टांगहृदय, मंद्राचल से (संस्कृत) शब्दरूपी सागर को मथ डाला गणित-(खगोल व फलित ज्योतिष ग्रन्थ) गणित और व्याकरणरूपी अमत को यशरूपी लक्ष्मी सहित प्राप्त किया। यह महाशास्त्र जो कि प्रर्हत् भगवान के शासन सारसंग्रह, त्रिलोकसार, भद्रबाहु संहिता, जम्बू द्वीप के समान है-सर्वसाधारण के लिए हितार्थ सम्पूर्ण सगम प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति इत्यादि इत्यादि पौर सक्षिप्त रीति से लिखा गया है। यह लघु एव सरल दर्शन-न्याय ग्रंथ-तत्त्वार्थवात्तिक, तत्त्वार्थ श्लोक टोका जो इस ग्रन्थ की (अमोघ वृत्ति नामक) वृहद टीका वात्तिक, प्रष्टसहस्री, प्रमाण परीक्षा, माप्त परीक्षा, पत्र है-के माघार पर रची गई है और व्याकरण के सर्व परीक्षा, परीक्षामुख, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायविनिश्चयागुणों से अलंकृत है । यक्षवर्माकृत है। लकार, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयरलमाला, स्यावाद रत्नाकर, देवनन्दि पूज्यपाद का जैनेन्द्र व्याकरण प्रति प्रसिद्ध न्यायदीपिका। हिन्दीममरकोश के रचयिता जैन कोशकार 'भमरसिंह' हमारी राष्ट्र-भाषा का प्रारम्भिक रूप कैसा था ? थे। यह महाविद्वान थे, संस्कृत-साहित्य के माठ जगद्वि- वह किन-किन सांचों में ढलकर पाज इस रूप में विद्यमान ख्यात वैयाकरणों मे से थे। जैनों द्वारा रचे प्राचीन ग्रंथों है, यह जानना प्रत्येक साहित्य-प्रेमी के लिए प्रति भाव. मन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वर्ष २५ कि. प्रनेकान्त श्यक है। वर्तमान हिन्दी साहित्यकारों ने प्रायः दसवीं हमारे समक्ष प्राई फिर इसी का परिवर्तित संस्करण शताब्दी के पूर्व के साहित्य का पालोड़न नहीं किया है, हिन्दी' नाम रूप में हुमा। इसी कारण पं० नाथूराम जी प्रेमी और पंडित राहुल माननीय विद्वान डा. वासुदेवशरण जी अग्रवाल सांकृत्यायन को हिन्दी भाषा के प्रादि कवि स्वयंभू और लिखते हैं कि-"यह तो सर्वमान्य बात है कि हिन्दीसरहप्पा का इन्हें परिचय देना पड़ा। भाषा को अपने वर्तमान रूप मे पाने से पूर्व अपभ्रंश युग सर्वमान्य तथ्य यह है कि हिन्दी भाषा का उद्भव सीधे को पार करना पड़ता हैं। वस्तुतः शब्द-शास्त्र और संस्कृत-भाषा से न होकर इसकी सर्जना में 'प्राकन' और साहित्य शैली दोनों को बहुत बड़ा वरदान प्रपद्मश-भाषा अपभ्रंश-भाषा का महत्वपूर्ण योग रहा है । वे लोक भाषाये से हिन्दी को प्राप्त हुमा है । 'तुकान्त-छन्द' और कविता थीं और इनका साहित्य भी गौरवपूर्ण तथा समृद्ध रहा की पद्धति अपभ्रश की ही देन है। हिन्दी काव्य-धाग है। साथ ही प्राचीन हिन्दी साहित्य पर इसकी गहरी मूल निवास अपभ्रंश-काव्य धारा मे ही अन्तनिहित है । और अमिट छाप है। इन भाषाम्रो का जैन और बौद्ध. भाषा, भाव, शैली तीनो ही दृष्टियो से अपभ्रश साहित्य साहित्य में प्रचुर रूप में प्रयोग है और इनसे हिन्दी भाषा की हिन्दी-भाषा प्राभारी है। का सीधा सम्बन्ध भी हैं। डा० रामचन्द्र शुक्ल ने १०वी शताब्दी से १४वी अधिक विद्वानों ने इन भाषामों का अध्ययन केवल शताब्दी तक के काल को हिन्दी-साहित्य का आदिकाल भाषा के विकास की दृष्टि से ही किया है, आवश्यकता माना है, परन्तु डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी 'शुक्ल' जी की इस बात की है कि इसके अन्वेषक यह शोध करें कि मान्यता का खण्डन करते हुए लिखते हैं कि-"हिन्दीइनका मानव जीवन से कितना और कैसा सम्बन्ध रहा भाषा दसवी शताब्दी के पूर्व भी प्रचलित थी और उसका था? सामाजिक जीवन पर सामान्य मनोवृत्ति प्रादि रूप अपभ्रश-भाषा का था। प्रापने तथा प. राहल जी इनका कितना मोर कैसा प्रकाश पड़ता रहा है ? उस ने उसे 'पुरानी हिन्दी' कह कर सम्बोधित किया है। युग के वर्धमान लोक जीवन की झांकी क्या भी? वह आप लोगो की मान्यतानुसार महाकवि स्वयभू जिन्होने कैसे विकसित होकर इस युग तक पहुँची है ? पाठवी शताब्दी में अपभ्रंश-भाषा मे पउमरिउ (रामइतिहास लिखने का प्रयास तो लगभग ईसा की १९वी कथा), रिट्ठणेमि चरिउ, (हरिवंश कथा) प्रादि काव्यों शताब्दी के मध्य से प्रारम्भ होता है, उस समय भी की रचना की है। यह हिन्दी भाषा के प्रादि कवि है। भारम्भ में कवियों की और कवि कृतियों की सूचियों ही मागे 'द्विवेदी' जी ने अपनी रचना "हिन्दी-साहित्य अधिक प्राप्त होती हैं । साहित्यिक-प्रवृत्तियों और विचार. का प्रादिकाल" में लिखा है कि-जैन अपभ्रश मे चरितधारामों का विवेचन उपलब्ध नहीं होता। काव्यो की जो विपुल सामग्री इधर उपलब्ध हुई है, वह प्राचीन युग के कुछ कवियो ने अपने सम्बन्ध में जा केवल धार्मिक सम्प्रदाय की मुहर लगने गात्र से अलग कुछ थोड़ा सा लिखा है और अपने पूर्ववर्ती अथवा सम- कर दी जाने योग्य नही है। स्वय भू, चतुर्मुख, पुष्पदन्त कालीन कवियों का भी साधारण रूप में उल्लेख किया है और धनपाल जैसे कवि केवल 'जन' होने के कारण ही तथा कुछ मक्तों की जीवनियां लिखी हैं। उनसे साहित्य काव्य क्षेत्र से बाहर नही चले जाते । धार्मिक-साहित्य की प्रगति या प्रवृत्ति तथा विचारों का परिचय नहीं होने के कारण मात्र से कोई रचना साहित्य की कोटि से मिलता है, कारण यह कार्य भी बहुत ही स्फुट रूप मे प्रयक नहीं की जा सकती है। यदि ऐसा माना जाने लग माय तो तुलसीदास का 'मानस' भी साहित्य-क्षेत्र में मवि'हिन्दी-भाषा' के जन्म-काल की भोर यदि हम दृष्टि वेच्य हो जायेगा तथा जायसी का 'पद्मावत' भी साहित्यडालें तो हमें पता चलेगा कि हिन्दी का जन्म ७वीं, ८वी सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा। केवल नैतिक और शताब्दी में ही हो गया था। यह पहले अपभ्रंश रूप में पार्मिक या अध्यात्मिक उपदेशो को देखकर ही यदि हम Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक के जैन मन्दिर पण्डित के० भुजबलो शास्त्रो नागर, द्राविड़ तथा वेसर इस तरह तीन प्रकार के है कि ई० पू० दूसरी या तीसरी शताब्दी के पूर्व मौर्य व मन्दिर होते हैं। विद्वानों का मत है कि उत्तर भारत के सातवाहन के समय में ही कुछ मन्दिर प्रसिद्ध थे। बादामी मन्दिर नागर शैली के तथा दक्षिण भारत के पल्लव व चालुक्यों ने ई० सन् छठी सदी से गुफाए व मन्दिर चोल मन्दिर द्राविड़ शैली के एवं कर्नाटक के मन्दिर निर्माण कर चालुक्य रीति का श्रीगणेण किया। वेसर शैली के हैं । कर्नाटक में चालुक्यों ने स्थापत्य कला शिलालेखो से ज्ञात होता है कि छठवीं शताब्दी के का प्रारम्भ किया जिसका होयसलों ने विकास किया। मध्य पुलिकेशि प्रथम ने जब बादामी के किले बनवाये वनवासी, तालगुंदा, मलवल्लि, बल्लिगावे प्रादि स्थलों तब तक वहाँ के गुफा मन्दिर निर्मित थे तथा मगलेश के के भग्नावशेष तथा साहित्य के प्राधार से कहा जा सकता पूर्व ही महाकटेश्वर मन्दिर बना था। प्रतः अनुमान प्रथों को साहित्य सीमा से बाहर निकालने लगेगे तो हमें किया जा सकता है कि चालुक्य वास्तुकला के अनुकरण मादि-काव्य से भी हाथ धोना पड़ेगा। कबीर की रच पर पल्लबो ने मन्दिर का निर्माण किया था। बादामी नामों को नमस्कार करना होगा । तुलसी-रामायण को भी के चालुक्यों के पश्चात् राष्ट्रकूटों ने एलोरा के मन्दिर छोड़ना होगा और जायसी की दूर से ही दण्डवत्।होगी। तथा बकापूर, श्रवणबेलगोल प्रादि स्थानों में जैन मन्दिर भी चालुक्य शैली में ही बनवाये । कल्याण के चालुक्यों के उपरोक्त तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि ८वी शती के सामन्त होसलो ने चालुक्य शैली को ही अपनाया। पर पूर्व से हिन्दी-भाषा विद्यमान थी और यह यहाँ के निवासियों की बोल-चाल की भाषा थी। तलविन्याश, शिल्प बाहुल्य प्रादि ग्रंशों में विशिष्टता को देशी भाषा में जैन कवियों ने अनेकों महाग्रंथो की देखते हुए तथा होयसल राज्य की परिधि में याने कावेरी रचना की हैं। अनेक महाकाव्य, खण्ड-काव्य और गीत से तुंगभद्रा नदी तक के प्रदेश ही में ऐसे मन्दिर दिखाई काव्य उपलब्ध हैं । संसार के किसी भी साहित्य के समक्ष देने ते होयसल शैली को पृथक् शैली कह सकते है । जैन साहित्य तुलना के लिए विश्वास के साथ प्रस्तुत विद्वानों ने इन दोनों शैलियों के सयुक्त रूप में कर्नाटक किया जा सकता है। जैन-साहित्य में मानवता को अनु रीति' भी कहा है। प्राणित करने वाली भाषामों की प्रचुरता है । शब्द मोर यह इतिहास प्रसिद्ध है कि होयसल वंशके मूलपुरुष सल ने मथं की नवीनता, शब्दों के सुन्दर विन्यास भावों का लगभग दसवीं सदी के अन्त मे मड़िगैरे तालुके के (अंगडी) समुचित निर्वाह कल्पना की ऊंची उड़ान मानव के अन्त शशाप्पुर मे एक जैन मुनि की सहायता से एक छोटा-सा रंग और बहिरग का सजीव विश्लेषण सर्वत्र व्याप्त है। राज्य स्थापित किया था। उसके पश्चात् ग्यारहवीं नवरसमयी दृश्य को प्रान्दोलित करने वाली पिच्छल शताब्दी में विनयादित्य ने द्वारसमुद्र (हलेवीड) तथा रसधारा इस (जैन) साहित्य में पूर्णरूपेण विद्यमान है। बेलर को अपनी राजधानी बनाई। मत्तावर, अगडी तथा जैन-साहित्य का केवल भाषा की दृष्टि से ही नहीं, चिक्कहनसांगे में इसी के समय में जैन मन्दिर बनवाये विचारों से भी महत्वपूर्ण स्थान है, जैन-धर्म की नीव ही गये । बल्लाक प्रथम (११०२-११०६) के समय में उसके विचार प्रधान है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चा- श्वसुर मरियाने दण्डनायक ने हल में जैन मन्दिर बनरित्र ही जैन धर्म की प्राधार शिला है। विशुद्ध-निष्ठा, वाया। श्रवणबेलगोल के गोमटेश्वर के चारों मोर का विशुद्ध-ज्ञान पौर विशुद्ध-चारित्र का समन्वय भी प्राणी मन्दिर, हलेबीडु का पार्श्वनाथ मन्दिर (ई.सन् ११३३) मात्र के विकास का उत्कृष्ट साधन है। श्रवणबेलगोल का सबतेगंधवारण मन्दिर, जिननाथपुर का Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष २५, कि.१ अनेकान्त मन्दिर विष्णुवर्धन के समय में निर्मित किये गए। सन् छठी सदी के निर्मित हैं। प्रथम तीन गुफा मन्दिर पाठवीं सदी तक वास्तु शैलियों ने एक निश्चित वैदिक मत से तथा चौथा मन्दिर जैन मत से सम्बन्धित माकार धारण कर लिया था। इसके पूर्व केवल गुफा है। इसके अगले भागों में एक-एक चबूतरा बना है। मन्दिरों में वास्तुकला प्रगट हुई थी। परन्तु वहां खोदने भूमि से पांच-छः फीट ऊंचाई पर गुफाएं खोदी गई हैं के अतिरिक्त अन्य कोई कौशल नहीं रहता है। ई० सन् तथा वहां पहुंचने के लिए सीढ़ियां हैं । चबूतरे से प्रागे पांचवीं शतान्दी में उत्तर भारत में मन्दिरों के निर्माण बढ़ने पर दालान, डयोढ़ी तथा गुफा की पिछली दीवार का प्रयोग प्रारम्भ हुमा जो छठी-सातवीं शदी मे दक्षिण में एक गर्भगृह है । दालान के अगले भाग मे ड्योढ़ी तथा भारत में दिखाई दिया। देवघर का जैन मन्दिर शिखर दालान के मध्य ड्योढी के अन्दर खम्भे है। ये खम्भे वाले मन्दिरों में प्रथम है जिसका निर्माण छठी शताब्दी मजबत हैं व इन पर चित्र अकित है। बाहर से देखने मे हुमा था। पर गुफाएं साधारण सी लगती है परन्तु अन्दर चित्रों से __ ऐहोले, पट्टदकल्लु, बादामी इन तीन स्थानों में ही दीवार से लगी देव-मतियो से बडी सुन्दर बनी हुई है। हम कर्नाटक वास्तुशैली का उद्गम पा सकते हैं । बीजापुर खम्भे विभिन्न प्रकार के हैं । मतियाँ भव्य हैं, जो सजीवजिले का छोटा-सा ऐहोले पूर्व में मार्यपुर था। यहा किले सी लगती हैं कि उठकर पा रही हों। चौथी जैन गुफा के अन्दर ३० तथा बाहर ४० मन्दिर हम देख सकते है। का ई० सन् ६५० में निर्मित होने का अनुमान है । ३१ इनमें कुछ जिनालय है। शेष सब देवालय है। ये सब फीट लम्बा, साढ़े छ: फीट चौहा दालान, उसके पीछे २५ छठी-सातवीं सदी के बनाए हुए हैं। गांव के पूर्व की ओर फीट लम्बी, छ: फीट चौडी ड्योढी तथा उसके पीछे चार थोड़े ऊंचे स्थान पर एक 'मेगुति' है। मेगुति का प्रथं है सीढ़ियों पर एक गर्भगृह है। इस गर्भगृह में महावीर को ऊपर का मन्दिर। यह देवालय ई० सन् ६३४ म रवि- मति है। दालान मे पार्श्वनाथ तथा गौतम की मूसिया कीर्ति द्वारा निर्मित किया गया है। इसका एक गर्भ गृह । और अन्दर खम्भे व दीवारों पर प्रन्य तीर्थहरों की मन्दर का घर व ड्योढ़ी है। गर्भगृह के चारों ओर परि.. मूर्तियां खुदी हुई हैं। क्रमा करने के लिए स्थान है। इसका शिखर द्राविड़ यद्यपि विश्व प्रसिद्ध प्रजन्ता स्था एलोरा क गुका शैली का बना है। गर्भगृह में तीर्थंकर की एक मूर्ति तथा मन्दिर मैसूर राज्य के बाहर हैं तथापि अनेक कारणों से दवा का मूात ह। काव रावकीति द्वारा उन्हे कर्नाटक के अन्तर्गत मानना असत नही होगा। संस्कृत भाषा में रचित यहाँ का शिलालेख बड़े महत्व क्योंकि उनमें से प्रधिकों का निर्माण कर्नाटक के राजामों का है। ने किया है तथा कर्नाटक के शिल्पियों ने ही उन्हें बनाया , गुफा मन्दिर ही भारत की वास्तुकला का प्रथम प्रयत्न है। चित्रकला के लिए जैसे प्रजता प्रसिद्ध है वस शिल्प है। मैसूर राज्य के ऐहोले तथा बादामी मे ऐपी गुफाएं हैं। कला के लिए एलोरा प्रसिद्ध है। एलोरा में कुल ३३ ऐहोले में एक वैदिक गुफा मन्दिर तथा एक जैन मन्दिर गफाएं हैं। इनमें ग्यारह बौद्धों के तथा सोलह ब्राह्मणा है। ये दोनों ई. सन् ५०० में बनाये गए। जैन मन्दिर के हैं। छ: गफा मन्दिर जैन मन्दिर है। इन सबका ३३ फीट लम्बा तथा ८ फीट चौड़ा है। उसके अग्र भाग निर्माण छठवीं सदी में हुआ था। ब्राह्मण गुफा मान्दरा में एक दालान, अन्दर एक ड्योढी तथा गर्भगृह है। से प्रागे बढ़ने पर छ: जैन गुफा मन्दिर हैं। इनमें इंद्र गुफा के मागे चार मोटे स्तम्भ हैं। गर्भगृह मे पार्श्वनाथ सभा, जगन्नाथ सभा तथा छोटा कैलास नामक मन्दिर तथा खड़ी हुई अन्य तीर्थकर मूर्तियां हैं। गर्भगृह के द्वार मुख्य है। इद्र सभा दो मंजिलों का गुफा मन्दिर है। एक के दोनों पायों में द्वारपालक हैं । ड्योढ़ी में महावीर की प्रांगण, उसके पीछे एक दालान, एक बड़ी ड्योढ़ी तथा मूर्ति है जो सिंहासन पर बैठी है। गर्भगृह है। वाहर दाहिनी मोर एक गुफा है। प्रांगण के बादामी में भी चार गूफा मन्दिर है। ये सब ई. बाई पोर दो तथा दाहिनी भोर एक एवं दालान के Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक म मन्दिर २१ दोनों मोर दो गुफाएं हैं। अन्दर के प्रांगण के मध्य एक पट्टदलक में दस मन्दिर हैं जो ध्यान देने योग्य हैं। मण्डप है । उसमें सिंहासन पर वृषभनाथ की मूर्ति शोभित परन्तु उनमे एक ही मन्दिर जैन मन्दिर है। वल्लिगाये है। अन्दर के प्रागण के मण्डप के एक पोर पार्श्वनाथ मे भी ऐठोले, पट्टदकल के समान ही प्रमुख है। यह शिवएक खम्भा खड़ा था जो अब नीचे गिर पडा है। ऊपरी मोग्गा जिला शिकाम्पूिर तालू का एक गांव है। प्राचीन मंजिल में बाहर दो छोटी गुफाए प्रामने सामने हैं । एक काल मे यह बडा नगर था । यहाँ पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव दालान, बड़ी ड्योढ़ी तथा गर्भगृह है। इन सभी गफामो तथा जैन एवं बौद्ध धर्मों से सम्बन्धित पांच मठ व तीन मे जैन मतिया खुदी हुई है। गर्भगृह के द्वार का प्रायुर्वेदाश्रम थे । अब यहाँ जैन मन्दिर नहीं दिखाई देते चौखटा नक्काशीदार है। उसके मागे दो छोटे खम्भे है। हैं । पर गांव के अन्दर व बाहर अनेक जैन-मूर्तियां पड़ी उन्हें बजाने पर प्रत्येक से भी अलग-अलग ध्वनियाँ निक- दिखाई देती है। यहा की इमारतें होयसल शैली की है। लती है जेसे हलेबीड़ के खम्भो के बजाने पर होता है। इस गाव को बेलगावे, बल्लिगावे, बेलिगावि, बेलिगावे, ऐसा लगता है मानो इसके प्रागे की ड्योड़ी किसी समय बल्लिग्राम, बल्लिपुर प्रादि नामों से पुकारा जाता था। वर्णचित्रो से अलंकृत थी। आज भी हम धुए से काले पृक्कोर्ट के समीप के पाठवी शताब्दी के जैन महाबने उन चित्रों को देख सकते है । लयो मे हम अभी भी सुन्दर भित्तिचित्रों को देख सकते जगन्नाथ सभ दो मजिल वाला गुफा मन्दिर है। है। वहाँ पर दीवारें. खम्भे व छतों पर हर जगह चित्र नीचे तीन गुफाए है तथा ऊपर एक बड़ी व छोटी गुफा हो चित्र है। उनमे कमल सरोवर, सोत्साह नाट्य करने है। इनमें भी जैन मतियां खुदी खुदी हुई है। प्राय. छत वाली ललनाए, ऋद्ध भैसे, हसो की पक्तियाँ, राजदम्पत्ति वर्णचित्रो से प्रल कृत रही होगी। छोटा कलाम, कलाम प्रादि के सन्दर चित्र है। यहाँ पर चित्रकारों ने हरा, की नकल पर बना है। गुफा में से १३० फीट लम्बा, पीना, लाल तथा नीले रग का प्रयोग किया है। परि. ८० फोट चौड़ा क.ट कर इम मन्दिर को बनाया गया शुद्ध व सुन्दर रेखा विन्यास इन चित्रों को सुन्दरता के है। १० वर्गफुट मूवमण्डा, ३६ वर्गफीट की गोढ़ो लिए मुख्य कारण है । विभिन्न रंगों के सयोजन की परितथा १२ वगफीट गर्भगृह इसमे खुदे है। परन्तु लगता है पक्व कला को हम यहाँ पा सकेंगे। इसका पूर्ण निर्माण नही हुपा है। नरसिंह प्रथम (ई० सन् ११४२-७३) के समय में शिल्पियो ने बेलगाव बकापुर व लवकडे के मन्दिगें (ई. सन् ११४५ मे) चोलसमुद्र की त्रिकूट वसदि के द्वारों पर अपनी कुशलता का सुन्दर परिचय दिया (बसदि-जैन मन्दिर) निर्मित की गई। द्वितीय बल्लाल है। कर्नाटक शैली के मन्दिर मूर्तियों के भण्डार ही हैं। के समय मे (ई. सन् १९७३-१२२०) श्रवण बेलगोल मे स्थापत्य कला के शिक्षार्थी के लिए ये मन्दिर प्रमूल्य अक्कन बमदि (बड़ी बहन का जैन मन्दिर) शान्तिनाथ सामग्री प्रदान करते है। इन मन्दिरों की छतें प्रेक्षकको बमदि, वदणि के स्थित शान्तिनाथ वसदि, प्रासोकरे की चकित कर देती हैं। द्राविड शैली में ऐसा नहीं है। सरसकट बसदि प्रादि का निर्माण किया गया। माना इनके विन्याम, प्राकार प्रादि मे बड़ी विविधता है। जा सकता है कि विजयनगर साम्राज्य के प्रारम्भ मे शिल्पी का मामध्यं यहाँ परिलक्षित है। दीवार के बाहरी द्राविड़ शैली का होयसल शैली में मेल हुमा तथा ई० सन् भाग मे छोटे-छोटे भागो मे भी अनेक देवी-देवतामों १३०० तक शुद्ध चालुक्य होयसल रीति समाप्त हो गई की मूर्तियां है जो वास्तुशास्त्र के बिलकुल अनुरूप हैं। थी। ई. सन् पांचवीं शताब्दी में कर्नाटक पर शासन एस रधाम ऐसे रघ्रों में जहाँ छोटी उगली तक डालना सम्भव नहीं करने वाले कदम्ब राजामों द्वारा निर्मित तालगुन्द का न १ है, सुन्दर कारीगरी को देखकर हम कल्पना तक नही प्रणवेश्वर मन्दिर, हलसी स्थित जैन बसदि प्रत्यन्त पुगने कर सकत । से कर सकते कि वे किन उपकरणों का प्रयोग करते थे। हैं। मूडिगर तालूके के अंगहि ग्राम की मल्लिनाथ बसदि हलेबुडी की एक बसदि तो वास्तुशिल्प की दृष्टि से विश्व बड़ी प्राचीन है। के प्रापचयों में गिना जाने योग्य है। वहां के काले खम्भो Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, वर्ष २५, कि. १ अनेकान्त मे मनष्य को चित्र-विचित्र प्रतिच्छाया का प्रकट होना मदिवादिता में सर चटाया। उस जमाने के शिल्प में मुख हमारे शिल्पज्ञो के लिए माज भी एक समस्या बनी चित्र तण नवकाशी की अधिकता थी। चित्रमख शीघ्र ही समाप्त हो गये। बेल गांव मे तीन प्राचीन मन्दिर हैं। उनमे एक राजा जनक चोल राजा कट्टर शैव थे। फिर भी उनके समय के वैष्णव मन्दिर है, शेष दोनो जैन बसादया है । जैनबसदियों सुन्दर वैष्णव जैन व बौद्ध विग्रह भी प्राप्त हैं । नक्काशी में एक उत्तराभिमुख है तो दूसरी दक्षिणाभिमुख है। में बेल-बूटे, पशु पक्षी, सगीतकार, नाट्य, कलाकार, सेना इनमे पहली बसदि मूख्य है। मुखमण्डल के खम्भे गोल व वनतंकों की मण्डली तथा पौराणिक दश्यावली दिखाई चिकने हैं। बंकापुर मे किले के दक्षिण में '६३ खम्भों देती हैं। परन्तु जैन मन्दिरों में पौराणिक दृश्य नहीं के का मन्दिर' नामक इमारत है। यह मूलतः जैन बसदि बराबर हैं । शिल्पियों का जैन पुराणों से अपरिचित होना है। प्राचार्य गुण भद्र यही पर अपना उत्तर पुराण लिख इसका कारण रहा होगा। कर्नाटक साहित्य के विकास चुके थे। किसी समय में यह जैनधम क। न्द्र था । यहाँ में भी ब्राह्मण, जैन तथा वीर शैव इन तीनों पन्थों के लोगों ने योगदान दिया है। पर पांच महाविद्यालय थे। तब यहाँ पर पाजतसन जैसे दिग्गज विद्वान रहते थे। महाकवि रन्न न प्रारम्भिक कर्नाटक मे जैनधर्म बहुत समय तक उन्नतावस्था में था। बादामी के चालुक्य तथा मलखेड के राष्ट्रकूटों के समय शिक्षा यही पर पाई थी। लोकादित्य ने अपन पिता मे जैनधर्म अत्यन्त प्रबल था। कर्नाटक के मोर भी व केय के नाम पर यह राजधानी बनाई थी। यह बड़ा अनेक राजानो ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया था। प्रतः हम सुन्दर नगर था। कर्नाटक के सभी भागों में जैन बसदियां पा सकते हैं। घारवाड जिले मे गदग से ७ मील दूर स्थित लक्कुड़ि श्रवणबेलगोल, मनेयूरु, होम्बुज, मुडुबिदरे, कार्कल, पहले 'लोक्किगुंडि' थी। यहाँ दो जैन वसदियों एवं काशी वेलुर प्रादि जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ स्थान हैं । कोप्पण अथवा विश्वेश्वर तथा नन्नेश्वर नामक दो मन्दिर है। यह __कोप्पल भी किसी समय में जैनो का पुण्य क्षेत्र था। होयसल राजा वीर बल्लाल की राजधानी थी। जैन श्रवणबेलगोल की चालुक्य बसदि मत्यन्त मुख्य है । बसदि पर गोपरमा है। बाकी मन्दिरों पर गोपुरम नहीं शिलालेखों से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण १०वीं है। दानचितामणि प्रतिमब्वे ने जैन बसदि बनाई थी। शताब्दी में हुमा है। यह भी द्राविड़ शैली की इमारत उन्होंने अनेक जिनालय भी निर्मित किये थे। यह जैन है। वहां की 'मक्कन वसदि' कर्नाटक शैली की बनी है। बसदि इस बात का दृष्टान्त है कि प्राचीन चालुक्य शिल्प ज्ञात होता है कि द्वितीय बल्लालराय के मन्त्री चन्द्रमौनी शैली होयसल के रूप में परिवर्तित हो गई थी। मन्दिर की पत्नी प्रचियक्का से इसका निर्माण हुअा था । श्रवणकी दीवारों के बाहरी भाग में, मण्डप के खम्भों पर बेलगोल में कर्नाटक शैली की यही एक इमारत है । अन्य प्रतिमा विधान की कारीगरी प्रत्यन्त सुन्दर बन पड़ी है। सब द्राविड़ शैली की हैं। गर्भगृह में पार्श्वनाथ की मूर्ति वहाँ पर चित्रित पशुभों की पंक्तियां, पकि संकुल, पेड़ है। ड्योढी में घरणेन्द्र व पपावती की मूर्तियां प्रामनेपौधे बड मच्छ बने हैं। ई० सन् ७०० में पत्थर की पूर्ण । सामने हैं। दालान के मध्य के चार खम्भे काले पत्थर से मतियां बनाने की पद्धति व मन्दिर निर्माण की वास्तु सुन्दर बने है। उनके ऊपर की छतें भी लगभग तीन शैली प्रयोग में लाई गई। इन इमारतों की दीवारों पर। फीट गहरी व सुन्दर हैं। अन्य छतें भी इसी प्रकार की हम बहुत से चित्र देख सकते हैं। ई. सन् ६-१०वी हैं। खम्भे चिकने हैं व हलेबीड़ के पार्श्वनाथ बसदि के पाने शताब्दी मे सम्पूर्ण दक्षिण भारत में यह पद्धति जारी थी। खम्भों के समान चमकते हैं। मुखमण्डल के बाहरी भाग ग्यारहवी बारहवी शताब्दियां दक्षिण भारत की वास्तु- मे चबूतरा व उसके पीछे रेलिंग है। मन्दिर की दीवार कला का स्वर्ण युग थी। प्रारम्भिक दिनो में शिल्प मे के बाहरी भाग में छोटे-छोटे गोमुख हैं। वसदि का गोपुकोमा व कान्ति की भरमार भी। पर जाते-जाते उसमें रम भी सुन्दर है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक के जन मन्दिर २३ प्रवणबेलगोल के उत्तर में एक मील पर जिननाथपुर भटकल किसी समय बड़ा नगर था। यह एक तीर्थ नामक ग्राम है। पता लगता है कि विष्णुवर्धन के सेना- स्थान भी रहा होगा । यहाँ पनेक मन्दिर हैं। मन्दिर के पति गंगराज ने ई. सन् १९१७ में इसको स्थापित किया बाहर के अन्दर नक्काशी का काम प्रशंसनीय है। यहा था। यहां कर्नाटक शैली की बसदि है जिसमे उसने पर जैन राणी चेन्न, चेन्नथेरादेवी राज करती थी। तब शान्तिनाथ की मर्ति स्थापित की थी। मति के दोनो यह एक जैन केन्द्र था। इस समय यहां जैनों की संख्या पाश्वों में चामर पारिणियां हैं। प्रक्कन बसदि के समान भी अधिक थी। प्राजकल नवायत कहलाने वाले मुसल. ही दालान के खम्भे बड़े सुन्दर बने है । मन्दिर के बाहरी मान पहले जैन थे। भटकल के अतिरिक्त हाडहल्लि दीवार पर जिन मूर्तियां, यक्ष-यक्षिणियां ब्रह्मा, सरस्वती, (संगीतपुर), सोदे (सुधापुर), गेरुसोप्पे (भल्लातकी. मन्यथ, मोहिनी, संगीतकार की मूर्तिया खदी हुई है। पुर), वनवासी (वनवास), बलिगी (श्वेतपुर) प्रादि भी कलचुर्यो के सेनापति बमुधक बान्धव रेचिय्यया ने इस एक जमाने में जैन केन्द्र थे । उपरोक्त जैन राणी गेरुसोप्पे बसदि का निर्माण किया था। यह द्वितीय बल्लाल के मे भी राज करती थी। उस समय यह दक्षिण कन्नड प्राश्रय मे भी था। विद्वानो का मत है कि ई० सन् १२०० याने तुलनाडु के अन्तर्गत था। हाडहल्लि तथा गेरुसोप्पे मे इस वसदि का निर्माण हुप्रा था। की शिल्पकला भी देखने योग्य है। वनवासी सातवाहनो कहा जाता है कि विष्णुवर्धन के जैनधर्म त्यागकर के समय में ही अर्थात् कदम्बो के पहले ही जैनधर्म का बनने के बात पता केन्द्र थी। जैनागम प्रथमतः यही पर ग्रन्थस्थ हुमा । निचले भागों में जा बसे । उसके बाद ही प्रति १२वी कन्नड के प्रादि कवि पम्प ने वनवासी की खुब प्रशसा सदी से शायद इस प्रदेश में पत्थर के मन्दिरो का निर्माण की है। प्रारम्भ हुमा। यहाँ की बसदिया बाहर से देखने पर एक जमाने मे तुलनाडु मे जैन धर्म अत्यधिक फैला प्रलकार हीन दिखाई देती है, पर अन्दरूनी भाग की शिल्प था। परिणामस्वरूप जैनो मे हमे चतुर्मख नामक नये सुन्दरता विविधतापूर्ण है तथा घाटी के ऊपर के भागो प्रकार के मन्दिर दिखाई देते है । इनमे गर्भगृह की लबाई, की शिल्पकला से पीछे नही है । वहा के तटीय प्रदेश भर चौड़ाई तथा ऊचाई समान होती है एव मन्दिर में जैनधर्म लम्बे अर्से तक उन्नतावस्था मे था। प्राकार का रहता है। इसके चारों और दरवाजे होते कार्कल, वेल्नगडि उडुपि तथा उप्पिनगडि तालुके मे है । ये मन्दिर हमे समवसरण की शोभा का स्मरण दिलाते अभी भी जैन वसदियाँ हैं। इनमें मूडूविदरे बड़ा प्रसिद्ध है। समवसरण केवल जैनो मे है। है। यहां १६ बसदिया है। इनमे चन्द्रनाथ' प्रथवा विजयनगर के समय मे मन्दिरो के अनेक मुन्दर त्रिभुवनतिलक चूडामणि बसदि प्रमुख है । बसदि मन्दर मण्डप बन गये। शिल्पियों ने उनमें अपनी कुशलता से बडी विस्तृत है। खम्भे प्रादि बडे सुन्दर व वैविध्य- दिखाई। मन्दिर के खम्भे अधिकाधिक प्रलंकारमय होने पूर्ण हैं। एक के पीछे एक तीन दालान हैं, उनके पीछे लगे । मविदरे की 'त्रिभुवन तिलक चढ़ामणि' बसदि के गर्भगृह भी है। भगृह मे तीथंकर की मूर्ति है । यहाँ के खम्भे इसके उदाहरण है। इसी प्रकार काल की चतुदालानों को तीर्थकर मण्डप, गहिगे मण्डप (सिंहासन मख बसदि की बाहरी दीवारो पर हम अनेक पशु-पक्षी, मण्डप) तथा चित्र मण्डप कहा जाता है। विजयनगर के बेल-बूटे व अनेक प्रकार के फल-फूलो की नक्काशी देख राजा देवराज प्रोडेय की माज्ञा से ई. सन् १४३० में सकते है। इस बसदि का निर्माण किया गया था। इसके अगले भाग खम्भे अनेक प्रकार के है। उदाहरण के लिए जैन में ५० फीट ऊँचा एक सुन्दर मानस्तम्भ है जिसे भैरव बसदियों के सामने के मानस्तम्भ व ब्रह्मस्तम्भ तथा राजाको राणी मागलदेवी ने बनवाया था। मटकल मे वैदिक मन्दिरों के सामने के गरुडस्तम्भ एवं ध्वजस्तम्भ भी ऐसी ही इमारत हैं। . . . है। इसी प्रकार, जयस्तम्भ अथवा दीपस्तम्भ है। जैन Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, वर्ष २५, कि.. भनेकान्त बसदियों के प्रागे मानस्तम्भों के ऊपरी छोर पर एक मन्दिर की दीवारों पर देवी-देवतामों, उनके परिवार के छोटे मण्डप मे जैन मूर्ति रहती है । ब्रह्मदेवस्तम्भ के छोर दास-दामियों अथवा नर्तकियों, गायकों व वादकों की पर ब्रह्मदेव की मूति होती है। श्रवणबेलगोल की पार्व. मूर्तिया बनी हैं। जैन बसदियों में भी वैदिक देवी-देवनाथ बसदि के सामने का तथा मूडुबिदरे के "त्रिभुवन तामों के विग्रह दशिन है । शिल्पियों का उस सम्प्रदाय से तिलक चडामणि' चैत्यालय के सामने का मानस्तम्भ सम्बन्धित होना इसका कारण है। अनेक स्थानों पर बहुत ही सुन्दर है। कार्कल के हिरियंगडि का मानस्तभ मन्दिरो में कामशास्त्र से सम्बन्धित विग्रह भी हैं। मौर्य, भी बड़ा सुन्दर है। श्रवणबेलगोल का चन्दगिरि तथा गांधार, कुशान तथा गुप्त कालीन भवनों में ऐसे मिथुन विष्यगिरि एवं नागमगल तालुके के कवदहल्लि स्थित समागम के चित्र बनाने की प्रथा थी तथा दसवी सदी से ब्रह्मदेवस्तम्भ उल्लेखनीय हैं। कवदहल्लि का स्तम्भ ५० यह पद्धति बढ़ने लगी। परन्तु कर्नाटक मे ऐसे विग्रह फुट ऊंचा है। बहुत कम है। खुजराहो, पुरी क मन्दिरो मे ऐसे विग्रह कर्नाटक के अनेक मन्दिरों में उनके शिल्पियो के प्राकार में बड़ है। पवित्र स्थानो में देव मूतियो के मध्य नाम अंकित हैं। दासोज ने श्रवणबेलगोल की चन्द्रगुप्त ऐसे विग्रह क्यो बनाये गये है, इसका समाधानकारक बसदि के पत्थर की जाली के पर्दे का निर्माण किया था। उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया है। सबसे बड़ी कौन ? व सागर की तरह है। क्या तू सामान भी हो सकता या तलवारों से मुनि श्री कन्हैयालाल अक्ल, शक्ल, दौलत और मौत की एक दिन सहज गोष्ठी हो गई। वार्तालाप में चारों ही अपनी-अपनी गुरुता व अन्य की लघुता प्रमाणित करने के लिए व्यग्र हो रही थी। मर्व प्रथम प्रक्ल ने अपनी विशेषतामों का ख्यापन करते हुए कहा-मैं दुनिया में सबसे बडी हूँ। मेरे बिना समार का कोई भी काम चल ही नही सकता। राज्य संचालन में, सामाजिक व्यवहार मे तथा परपराणों के संचालन व सगठन आदि में सर्वत्र मेरा प्राधान्य है। किसी को विजयी बनाना तो मेरे बाएं हाथ का खेल है। बड़े-बड़े न्यायाधीशो के समक्ष वकील और वैरिस्टरों के माध्यम से मैं ही तो बहस करती हूँ। शक्ल को यह सब सहन नही था । उसकी प्राखे खौलने लगीं। अघरावलि व दन्तावलि का कम्पन भूकम्प की तरह बढ़ने लगा और वह अक्ल की पोर घूरती हुई बोल पड़ी- क्या तू मुझे नहीं जानती? बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि भी मुझे देख कर खिल उठते है । और वर्षों की अपनी कठोर साधना को भी ताक पर रख देते है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पाश में प्राबद्ध करने का मेरे में अतुल सामर्थ्य है । तू व्यर्थ ही इतनी क्यों फूलती है। दौलत विद्युत की तरह चमकती हुई व सागर की तरह गर्जना करती हुई बोल उठी-शक्ल ! इतना अभिमान कसे? तेरे से भी अधिक गुण गरिष्ठ व्यक्ति ससार मे बहुत हैं। क्या तू यह नहीं जानती कि तेरी महत्ता का उपादान कौन है ? यदि मैं अपना हाथ खीच ल तो क्या तेरा कही यत् किंचित् सम्मान भी हो सकता है ? मेरे बिना तेरे सौन्दर्य मे स्थायित्व पायेगा कैसे! सारा ससार तो मेरे पीछे-पीछे दौड़ रहा है। चौबीसों घटे नगी तलवारों से मेरी रक्षा होती है । मेरे लिए बड़े-बड़े प्रक्लमन्द और सुन्दर-सुन्दर शक्ल वाले अपने प्राणों की पाहुति देने को तैयार रहते हैं । जहाँ मैं पहुँच जाती हूँ, वहाँ मेरा अपूर्व स्वागत होता है। फिर भी तू इतरा रही है । तनिक सा चिन्तन कर कि संसार में सबसे बड़ी कौन है ? मौत की ईर्षा का ठिकाना न रहा । तीनों ही को सम्बोधित करते हुए मौत ने कहा-तुम तीनों ही झूठी हो। अपनी-अपनी विशेषताए वधारने में तुम तीनों को ही तनिक भी संकोच नही होता? मेरे समक्ष तुम तीनों का क्श मस्तित्व है ? मेरा प्रागमन होते ही तुम तीनों को झुकना पड़ता है और मेरी दृष्टि पड़ते ही तुम तीनों का ही सर्वस्व नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। तुम तीनों ही मेरे तेज व प्रभाव से पाहत होकर मेरे चरण चूमने लग जाती हो। मेरे पीछेपीछे तुमको चलना पडता है । मैं जो चाहती हूँ, वही होता है। इसलिए संसार में सर्वत्र मेरा एक छत्र साम्राज्य है। सारा संसार मुझसे भयभीत है घबराता है, डरता है । शक्तिशाली भी मेरे सामने शक्तिहीन बन जाते हैं। मुझे मित्र बनाने के प्रयत्न चलते हैं, निमंत्रण मिलते हैं। फिर भी मैंने किसी के साथ मित्रता स्वीकार नहीं की। मैं अपने प्रण पर भडिग रही है। मैं किसी से डरती नहीं हूँ, घबराती नहीं है। विश्व में मेरा प्राधान्य होते हुए भी तुम तीनों झूठा महं. फार कर रही हो। यदि इस कथन में सन्देह हो तो क्या मैं अपनी तनिक-सी शक्ति का भी प्रदर्शन कर ? Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली गणतंत्र का अध्यक्ष राजा चेटक परमानन्द जन शास्त्री लिच्छवि बंश का राजा चेटक बात प्रसिद्ध था। ईस्वी मुः परपुर जिले का वसाह नामक ग्राम, जो गण्डक नदी पूर्व पांच सौ निन्यानवे वर्ष के प्रथित भारतीय गण-गज्यों के तट पर अवस्थित है, प्राचीन समय का वैभवशाली में वैशाली गण गज्य उस समय सबसे प्रमुख माना जाता मोर म्याति प्राप्त महानगर था। वह तीन भागो मे था। उसका मध्यक्ष राजा चेटक था। विभक्त था। वंशाली, वाणिय ग्राम भोर कुण्डग्राम । विदेह देश की राजधानी वैशाली थी। गण्डकी नदी इनमें कुण्डग्राम भगवान महावीर ब। जन्म स्थान था। से लेकर चम्पारन तक का प्रदेश विदेह अथवा तीरभुक उसमे णात, णात, नात, ज्ञात ण ह एव गाथ वशी (निरहन) नाम से ख्यात था। विदेहों और लिच्छवियों क्षत्रियों की प्रधानता थी। वैशाली नाम उसका विशा. के पृथक-पृथक राज्यो को मिलाकर एक ही संघ गण- मता के कारण हुपा था। राज्य बन गया था। उसका नाम वृजि या बजिनगण था। अंगुत्तर निकाय की ट्राथा में वैशाली की समृद्धि समूचे बजिन गण सघ की राजधानी वैशाली ही थी। का वर्णन करते हए लिखा है कि-'उम समय वैशाली उसके चारों पोर तिहरा परकोटा था जिसमें स्थान-स्थान ऋद्ध-स्फीत (समृद्धिशाली) बहुजन मनुष्यो से प्राकीर्ण, पर बडे-बई दरवाजे और गोपुर (पहरा देने के मीनार) सुभिक्षा (अन्न-पान-सम्पन्न) थी। उस में ७७७७ प्रामाद, बने हुए थे। वजिन देश मे पाजकल के चम्पारन, मुज- ७७७७ कटागार ७७७७ मागम और ७७७७ पुष्व - फरपुर जिला प्रौर दरभंगा का अधिकांश भाग तथा रिणी थी। छपरा जिले का मिर्जापुर. पग्मा, सोनपुर के थाने तथा तिम्वती प्रनश्रुति के अनुमार यह नगर तीन भागों अन्य कुछ भूभाग सम्मिलित थे', में विभक्न था- पहला जिसमे मोने के बज वाले प्रासादों वजित देश की शासक जाति का नाम लिच्छवि' की प्रधानता थो। दूसरे में चादी के बज थे। तीसरे मे था। लिच्छवि उच्चवशी त्री थे। उनका वश उस तांबे और पीतल के। ये विभाग उच्च, मध्यम तथा समय प्रत्यन्त प्रतिष्टित समझा जाता या यह जाति निम्न श्रेणी के लोगों के लिए थे। अपनी वीरता, धीरता, दृढता पौर पगकमादि के लिए चीनी यात्री हंनत्सांग ने वंशाली को २० मील की प्रसिद्ध थी। इनका परस्पर संगठन और रीति-रिवाज, सम्बाई चौडाई में बसा हुमा बतलाया है। उसके तीन धर्म और शासन-प्रणाली सभी उत्तम थे। इनका शरीर कोटों भागों का भी उल्लेख किया है। उसने सारे जि अत्यन्त कमनीय, पोज और तेज से सम्पन्न था। देश को ५... मील (करीब १६०० मील) की परिधि मलिनविस्तरा में वैशाली का वर्णन प्रत्यन्त ममृद्ध में फैला हुमा बतलाया है। उस समय यह देश बड़ा एवं सुन्दर नगरी के रूप में किया गया है। प्राधुनिक सरसम्ज था। प्राम, केले प्रादि मेवों के वृक्षो से भरपूर १. गणकीतीग्भारम्य चम्पारण्यान्तकं शिवे । था। यहाँ के मनुष्य ईमानदार, विद्या के पारगामी, शुभ विदेहभूः समास्याता तीरभक्ताभिधो मन। कार्यों के प्रेमी विश्वासपात्र एवं उदार थे। परस्पर में -शक्ति संगम तंत्र उनका वात्सल्य और सौहार्द अपूर्व था । वे एक-दूसरे के २. भारतीय इतिहास की रूपरेखा पृ० ३१३ । सुख-दुःख में साथी थे। सामाजिक और धार्मिक उत्सवों ३. पुरातत्व निबधावली पृ० १२। में सभी सम्मिलित होते थे। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. वर्ष २५, कि.१ भनेकाल वजिमंघ में लिच्छवियों को ही प्रधानता थी। यह का उसा पोखरनी के जल से अभिषेक होता था। प्रत्येक इक्ष्वापूवी और वशिष्ठ गोत्री थे। इनका 'लिच्छवि' राजा के अपने अपने उप-राजा, सेनापति और भाण्डागानाम क्यो पड़ा यह वृछ जान नही होता। ये पराक्रमी, क होते थे । वंशाली मे इनके पृथक-पृथक प्रासाद पौर परिश्रमी पोरममा सम्पन्न थे । दयालु पोर परोपकारी मागम प्रादि थे। ७७०७ जाम्रो की शासन सभा इनके शरीर की प्राकृति सुन्दर मोर मोहै सुडौन थी। 'सष सग' कहलाती थी और गणतन्त्र वज्जि सघ या ये लो। मनग-पलग रग के बहुमूल्य वस्त्र और माभूषण लिच्छवि संघ कहलाता था। लिच्छवि लोग परस्पर में पहनते पं । इनकी बोर्ड की गाडियां सोने को थीं। हाथी एक-दूसरे को छोटा या बड़ा नहीं मानते थे-वे सबको की अम्बा प्रौपालकी ये भी स्वर्ण-मित थीं। इनसे समान मानते थे। लिच्छवि राज्य के निवासी उच्चकोटि इनकी समद्धि का पता चलता है। बद्ध ने लिच्छवियो के का जीवन-यापन करनथे । उनके जीवन का उद्देश्य धन सम्बन्ध मे कहा था- जिन्होने तावनिस' (बायस्त्रिश) नही, किन्तु मर्यादा का संरक्षण था। उनमे जाति सगठन, देवता न देखे हों तो वे निच्छ वेयों को देख ले । लिग्छवियों शिक्षा, दीक्षा पोर धमिक कृत्यों प्रादि का प्रचलन था । का सष तानिश, देवतामो का सब है --।" मामाजिक उत्मवी एव संस्कारों में बड़े समारोह के साथ शाली गणतन्त्र कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता था। उनका प्राचार-विचार जि देश का र ज्य वंशाली गणतन्त्र के नाम से विशुद्ध था विशुद्ध था । वे परोपकार करना प्राना कर्तव्य प्रसिद्ध था। इसमे पाठ गण थं-विदेह, ज्ञात्रिक, मानते थे। लिच्छवि और बजि सम्मिलित थे। उग्र, भोग, इक्ष्वाकु वैशाली गणतत्र का अध्यक्ष राजा चेटक तथा कौरव भ्य चार गण । इनमे ज्ञात्रिक काश्यप वंशाली गणतन्त्र के अध्यक्ष राजा चेटक का उल्लेख गोत्र क्षत्रिय थे। मावन महावीर का जन्म इसी कुल बौद्ध त्रिपिटिक प्रथों में नहीं मिलता। वह पाश्र्वामें हुमा था। यह गणतन्त्र जिसका अध्यक्ष चेटक लिच्छवि पत्तीय परम्परा का अनुयायी श्रावक था। बौद्ध ग्रन्थों में था। उस समय के सभी गणन-त्रों में मुख्य था। लिच्छ वंशाली का उल्लेख तो अनेक प्रयो मे मिलता है। किन्तु वियों का शासन अत्यन्त व्यवस्थित था। जातक प्रकथा चेटक के सम्बन्ध मे नही मिलता। क्योंकि वह भगवान के अनुसार इस गणराज्य में ७७०७ राजा सदस्य थे। महावीर का अनन्य उपासक क्षत्रिय राजा था। उप-राजा, सेनापति और भण्डारिक थे। इनमें इतम्बरीय प्रागम ग्रंथों में चेटक का निग्रंथ उपा. राजा या प्रगजा का कोई भेद नहीं था। इनमे प्रत्येक सक होने का उल्लेख नहीं है। हां, पावश्यक चूर्णी प्रादि व्यक्ति भनेको राजमानता था। ये सब राजा सम्भ- उत्तर कालीन अथो मे उसे अवश्य श्रावक बतलाया गया बतः अपने-अपने क्षेत्र के अधिकारी थे। उनका सगठित हेमचन्द्र ने त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित मे चेटक का लिच्छ व गणराज्य था। पाणिनी के अनुसार इन को हैहय वश का बतलाया है। हैहय वश की उतात्ति राजापो का अभिषेक होता था। उनकी संज्ञा राजन्य' नर्मदा तट पर अवस्थित माहिष्मती के राजा कार्तवीर्य से पी। वैशाली में उनके प्रतिक मगल के लिए एक पोख- मानी जाती है। रनी थी, जिम पर कहा पहरा रहता था और कार भी श्वेताम्बरीय मावश्यक णि में लिखा है कि वशाली मोहे की जाली लगी रहती थी जिस से पक्षी भी उसके अन्दर - - षम नहीं पाते थे। वैशाली के सब राजा और रानियों ४. जातक ४ १४६ ५. सो चेडवो सावनो, मावश्यक चुणि उत्तरार्ध पत्र १६५ १. देखियं राधा कुमुद मुकर्जी, Hindu civilization ____P.2011 (4) चेटकस्तुश्रावको'-त्रि.०५० चरित्र पव २. महापरिनिब्वान सुत्त-बुद्धघोष की टीका। १०, सगं ६, पृ.१८८। ३. पाणिनी व्याकरण ६।२।३४॥ . ६. एपि प्राफिका इडिका भा॰ २, पृ.। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशालो गणतंत्र का अध्यक्ष राजा चेटक का राजा चेटक हैहय फूल में उत्पन्न हुमा'। उनकी साध्वी, पतिव्रता और विदूपी थी। उसमे दश पुत्र मोर भिन्न-भिन्न गनियो से सात पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। प्रभा- सात पुत्रिया उत्पन्न हुई थी। घनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, बनी, पावती, मुगावती, शिवा, प्ठा, सुज्येष्ठ पौर सुदत, सिंहभद्र, सुकम्भोज, प्रकम्पन पतगक, प्रभंजन चेनणा। इनमें से प्रभावती वीतभय के राजा 'उदायन और प्रभास नाम के दश पुत्र थे। प्रियकारिणी (त्रिको, पपावती चम्पा के राजा दधिवाहन को, मृगावती को- शिला) सुप्रभा, प्रभावती, मगावती, चेननी, ज्येष्ठा मोर शाम्बी के शासक राजा शतानीक को, शिवा उज्जैनी के चन्दना नाम की सात पुत्रियां उत्पन्न हुई थीं। जिनमे शासक प्रद्योत (महासेन) को मोर ज्येष्ठा कुण्ड ग्राम में प्रियकारिणी (त्रिशना) विदेह देशस्थ कुण्डपुर नगर के वर्षमान स्वामी के बड़े भाई नन्दिवन को विवाही गई। णात, नात, जात, णाह या नाथव शी राजा सिद्धार्थ को सुज्येष्ठा और चेलना तब तक कुमारी ही थी। विवाही थी, जिससे भगवान महावीर का जन्म हुमा था। दिगम्बर परम्परा में राजा चेटक वैशाली गणतन्त्र सुप्रभा दशाणं देशस्थ हेमकक्ष नगर के सर्यवंशी राजाका. का अध्यक्ष था। वह धर्मनिष्ठ, राजनीतिज्ञ, कर्तव्यनिष्ठ, रथ को विवाही थी। प्रभावती का विवाह कच्छ देशके वीर, पराक्रमी और उदार विचारो का व्यक्ति था। रोरुकनगर के राजा उदयन या उहायण से हपा था। जिनेन्द्रभक्त और प्रतिशय विनीत एवं श्रावकोचित षट- शीलवन का दृढ़ता से पालन करने के कारण प्रभावती कोका सम्पालक था। चेटक के पिता का नाम कोशिक का अपर नाम 'शीतवती' प्रसिद्ध हो गया था। मगावती और माता का नाम शोभनमति था। तथा धर्मपत्नी का का पाणिग्रहण संस्कार वत्म देश के सोमवंशी नाम सुभद्रा या भद्रा था। जो रूप लावण्यादि के साथ सती, शतानीक से हुप्रा था जिसका पुत्र उदयन वस देश का प्रसिद्ध शासक था । और वीणावादन मे वह प्रत्यधिक ७. वैशालीए पुरीएगिरि पास जिणेस सासण-सणाहो। चतुर था। हैहय कुल संभूपो चेडग नामा निवो प्रासि ॥ गन्धार देश के महीपुर नगर के राजा सत्यक ने राजा -उपदेशमाला पत्र २३८ । चेटक से ज्येष्ठा की याचना की थी। किन्तु राजा चेटक ८.तोय वेसालीए नगरीए चेडो राया, हैहय कुल ने उसे नहीं दी। तब उसने कुपित होकर युद्ध किया, संभूतो, तस्म णं अण्णमहण्णाणं सत्तधनायो पभावती, स किन्तु वह युद्ध में हार गया। प्रनएच मान भग होने के सावपो पर विवाह करणस्स---धनानो ण कारण लज्जावश वह दमभर मुनि के निकट दिगम्बर देत्ति कस्संति । ताम्रो भाति भिस्स गामो राय प्राप. मुनि हो गया। पोर चेना का विवाह निम्बस : च्छिता अण्णसि इच्छित काण सरिसंगाणं चेति ।” न के साथ सम्पन्न हुपा"। ज्येष्ठा पौर चन्दना माजम्म कुमारी ही रहीं और ये महावीर के संघ मे दीक्षित .. पभावती वीतभए उदायणस्स दिण्णा, पउमा. । उनमें चन्दना महावीर के संघ में प्रायिकानों में सबसे वती चराए दहिवाहणस्स, मिगावतो कोसाम्बीए सनाणियस्स, सिवा उन्जेणीएपउनोतस्म, जेट कृण्ड. प्रमुख थीं। वह संघ की गणिनी थी। चेटक के दश पुत्रों में से सिंहभद्र बज्जिय गणतन्त्र ग्रामे बद्धमाण सामिणो जेट्टस्स णदिबद्धणस्स दिग्णा। सुजेटा चेल्लणाए दो कण्णाम्रो प्रच्छति । १०. देखो, उत्तर पुराण ७५ श्लोक ५ से १२ पृ. ४५२ । -पावश्यक चूणि उत्तरा, १६४ -हरिषण कथाकोश '.. ए वहि वि सिंघु देसे जणंति, ११. गधार विषये ख्यातो महीपालो महीपरे । नामेण विसाली उरि महति । याचित्वा सत्यकी ज्येष्ठा मलब्ध्वा कुदवान विधिः।। कोसिय निवेण जसमइहे जाउ, युद्धवा रणाङ्गणे प्राप्त ममभङ्गः सत्रयः । - सोहणमा चेडय नामुराउ ।। सद्यो इप्रवर प्राप्य तरः संयम मग्रहीत:। -श्रीचंद कथाकोस १२-१६ ., - उत्तर पुराण पु० ७५ श्लोक १३,१४ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वर्ष २५, कि.१ प्रनकान्त का प्रसिद्ध सेनापति था। अन्य पुत्र भी यथायोग्य पदों के भाग्यविधाता होने के कारण उनका उत्तरदायित्व भी पर प्रतिष्ठिन थे। इस तरह चेटक वैशाली गणतन्त्र का अत्यधिक था। इस कारण वे अपने पद के लिये सदैव प्रसिद्ध राजा था। उसका कुटुम्ब अत्यन्त सम्पन्न था, सजग रहते थे । लिच्छवि राज्य के समस्त रानातक एवं प्रौर पुत्रियों के विवाह सम्बन्ध के कारण अनेक देशों के विवाद में अग्रणी थे। राजाप्रो के साथ उसका सम्बन्ध था। वह स्वयं बड़ा बुद्ध घोष की टीका में बताया गया है कि वज्जियों पराक्रमी था। उसे अपने जीवन मे अनेक युद्ध करने पड़े। में एक अपराधी को तभी दण्डित किया जाता था, जब उसका निशाना खाली नहीं जाता था। उसका यह नियम उसका अपगध सिद्ध हो जाता था। माठ न्यायाधिकरणों था कि वह शत्रु पर एक दिन में एक ही बाण चलाता था मे प्रत्येक न्यायाधिकरण को मह अविकार पा कि वह और वह अमोघ होता था। अहिंसक होने के कारण वह दोषी को मुक्त कर सके । न्यायालय के अधिकारियों के विरोध को अनेकान्त दृष्टि के समन्वय दृष्टिकोण से नाम इस प्रकार हैं-विनिच्छय, महामात्त, वोहारिक, मिटाता था। यदि प्रयत्न करने पर भी वह नहीं मिटता सूत्रधार, प्रकुलिक, भाण्डागारिक, सेनापति, उपराजा था, तभी वह अपने शस्त्र बल का उपयोग करता था। तथा राजा। इस तरह लच्छवियों या वज्जियो की न्याय वह प्रतिदिन जिन पूजा करता था और अन्य प्रावश्यक व्यवस्था बडी सुन्दर और कुशलता लोक प्रसिद्ध थी। कर्मों का पालन करता था। उसकी धर्म निण्ठता का यह यद्यपि लिच्छवि राज्य में कई सामाजिक वर्गों के प्रबल प्रमाण है कि प्रजातशत् (कुणिक) द्वारा वैशाली लोग रहते थे. जैसे ब्राह्मण, व्यापारी कृषक, कलाकार, पर पाक्रमण होने पर भी चेटक ने कभी धार्मिक मर्यादा दास एवं सेवक । लेकिन केन्द्रीय सभा के सदस्य तो का उल्लंघन नहीं किया; किन्तु अजातशत्रु ने अनेक लिच्छवि होते थे, (अर्थात क्षत्रिय ?) बौद्ध ग्रन्थों में जहाँ कूटनीतियों का अवलम्बन किया और छल छिद्र किये । हमें राजापो का उल्लेख मिलता है लिच्छवियों में वहाँ तभी वह वैशाली पर अधिकार करने में सफल हो सका। हम राजकुमारों का भी निर्देश पाते है। इस निर्देश से __ इसी कारण वैशाली गणतन्त्र उस समय के सभी गण. हम वंशगत कुलीन तत्त्व का ग्राभास पाते हैं। इस तरह तन्त्रो मे प्रधान था। चेटक का वश लिच्छवि था। प्राचीन गणतन्त्र पूर्णतया जनतांत्रिक नहीं थे परन्तु कुछ लिच्छवि व्रात्य कहलाते थे और महंतों के उपासक थे । बात ऐसी भी थीं जो जनतन्त्र की ओर से उन्हें उन्मुख कर वे वेदविहित क्रियानों को नही मानते थे । यद्यपि मल्ल भी रही थी । इससे लगता है कि प्राचीन गणतन्त्रों मे कुलीन व्रात्य थे। उनका भी गणराज्य था । मल्ल जनपद वज्जिय तन्त्रात्मक व्यवस्था भी रही हो । पर जब हम लिच्छवियों जनपद के ठीक पश्चिम तथा कोशल के पूरब सटा हुपा के मानवीय व्यवहारों का अध्ययन करते हैं तब उनके प्राधुनिक गोरखपुर जिले मे था। पावा और कुसावती प्रौदार्य और सौजन्यात्मक व्यवहारों से इतर वर्षों से भेद या कुमीनाग (माधुनिक कसिया, गोरखपुर के नजदीक की रेखा का माभास नही पाते। यही इस गणतन्त्र की पूरब) उनके यस्बे थे। विशेषता यो। दूसरे लोग भले ही केन्द्रीय सभा के सदस्य शासन व्यवस्था-लिच्छवियो में कार्यकारिणी या न रहे हों; परन्तु फिर भी उनमे किसी तरह का कोई मन्त्रिमडल की भी व्यवस्था थी । इसके सदस्य होते थे। विभेद नही था। वैशाली गणतन्त्र की एकता, महत्ता जो राज्य सचालन की व्यवस्था पर या शासन के सम्बन्ध मौर समन्वयात्मक नीति से उसकी प्रतिष्ठा गौरव की मे विचार करते थे। कार्यपालिका का प्रधान राजा समान चरमसीमा को पहुँच चुकी थी । उसको वैभवपूर्ण प्रतिष्ठा श्रेणी व लो मे उच्चतर होता था। सभी प्रकार के मामले, कुणिक (पत्रातुशत्रु को खलती थी, क्योकि वह महत्वा. देश की शान्ति, युद्ध, नागरिकता प्रादि का बहुपत स कांक्षी था। प्रजातशत् (कुणिक)का खलने के दो कारण निर्णय मभी को मन्य होता था। महत्वपूर्ण समस्यापो 8. State and Government in Ancient India १. भारता इतिहास की रूप-रेखा पृ० ३१४ । By Altekar. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली गणतंत्र का अध्यक्ष राजा पेटक थे । एक कारण सो यह था कि राजा बिम्बसार (श्रेणिक) ने को राज्य दे दिया मोर हल्ल वेहल्ल को प्रजानशत्रु रश्नहार पोर सचेतनक हाथो । ये दोनों चीजें उसके राज्य के मूल्य के बराबर थी। बिम्बसार के मरने पर अजातशत्रु के भय से हल्ल बेहल्ल प्रपने नाना चेटक के पास चले गये थे। अजातशत्रु को जब यह मालूम धा तब उसने चेटक के पास दूर भेजा घौर कहलाया कि रवहार और संचननक हाथी सहित हल बेहाल को मेरे पास वापस भेज दो। चेटक ने कहा यदि मेरा नप्ता कुणिक इनको (हस्य को भाषा राज्य दे तो मैं हार और हाथी बास दिलवाऊँ क्योकि तुम तोनो मेरे लिए समान हो । वे मेरी शरण मे पाये हैं, मैं उन्हें वापस नहीं लोटाता । चेटक ने शरणागतो की रक्षा करना अपना कर्तव्य मानते हुए उन्हें नहीं लौटाया। कार बनाया जा चुका है कि कुणिक को धामी की सम्पन्नता खटकती थी सीमा विस्तार की इच्छा मौर वैशाली का वैभव उसके आकर्षण तो थे ही साथ ही वैशाली गणतंत्र के लोगों में उच्च कुलीन होने का भी तथा मगधराज कुल के प्रति घृणा का भाव था। वह भी कुणिक को प्राक्रमण करने के लिए उकसाना रहता था। वैशाली गणतंत्र की प्रोर मगध की सीमाएं मिलती थी । चेटक ने मगध को छोड़कर प्रत्य सीमा स्थित सभी राजाधों से मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। इस लिए यह संभव हो सकता है कि चेटक के मन मे प्रतिरोध की भावना रही हो । कुणिक के मन में भी राजा बेटक को भावनाओं को नीचा दिखाने की भावना हो सकती है। बौद्ध साहित्य से यह स्पष्ट है कि कुणिक झलकता वैशाली को नष्ट करने के लिए बहुत समय से तैयारी कर रहा था। इसमें तो सन्देह नहीं कुणिक (प्रजातशत्रु) प्रकृति से दृष्ट मौर क्रूर था. उसने षड़यंत्र कर अपने पिता को कैद कर उसे बड़ा कष्ट दिया था। इसी तरह उसने अपने नाना चेटक को भी कष्ट देने का उपक्रम किया। दूसरा कारण यह बतलाया जाता है कि गंगा के पास पतन मे एक रन खान थी। उस पर प्रजातशत्रु मोर लिच्छवि दोनों का अधिकार था धौर दोनों में परस्पर यह समझौता सम्पन्न था कि दोनों प्राघे मावे रत्न द्यापस મ मे बाँट लें। परन्तु अजातशत्रु वही न पहुंचता, प्राजकल करके रह जाता, किन्तु लिच्छवि सभी रत्न ले जाते थे । इन कारणों से प्रजातशत्रु के मन में लिच्छवियों के प्रति घोर प्रसन्तोष था । वह यह भी जानता था कि लिच्छ वियों से युद्ध करना कठिन है। उनका तीर निष्फल नहीं जाता। फिर भी उन्हें उच्छिन्न करना चाहता था । को राजगृह से गंगा पार कर लिच्छवियों से प्रजातशत्रु युद्ध करना सम्भव नहीं था। इसीसे उसने पाटलि ग्राम म एक किला बनवाया था । महात्मा बुद्ध को भी वैशाली की महत्ता सहा नहीं थी क्योंकि वहाँ जैनधर्म की महता भी यद्यपि बुड । वंशाली अनेक बार गये, पर वहाँ महावीर की मान्यता अधिक थी, वैसी मान्यता बुद्ध की नहीं थी । क्योकि राजा चेटक भगवान महावीर का अनुयायी भोर व्रती श्रावक या और जिनेन्द्र की पूजा करता था और जैन धर्म का प्रबल समर्थक था। चेटक कभी बुद्ध की सभा मे नहीं गया, धनुयायी होना तो दूर की बात है। बौद्धों के महापरिनिवाण सुत्त में (दो० नि० पृ० ११७) में लिखा है कि एक समय भगवान बुद्ध राजगृह मे विहार कर रहे थे। उस समय मगधर ज, भजातशत्रु, वैदेहो पुत्र वज्जि पर चढ़ाई करना चाहता था । वह ऐसा कहना था। मैं ऐसे महद्धिक (वैभव.सी) महानुभाव वज्जियों को उच्छिन्न करूंगा । वज्जियों का विनाश करूंगा- उन पर ग्राफत डाऊँगा । प्रजातशत्रु ने वस्सकार बुद्ध की सलाह लेने के लिए सपने मम्मी कार को युद्ध के पास भेजा था तब बुद्ध ने वैशाली शक्ति के सम्बन्ध मे वस्सकार को गृष्ट्रकूट पर्वत पर सात अपरिहानीय बातें बताई थी की प्रजेव १ जण जब तक सात बहुत है उनको प्रधिवेशनों में पूर्ण उपस्थिति रहती है । २ बज्जियों में जब तक एकता है-वे एकमत होकर कार्य करते हैं, सन्निपात भेरी के बजते हीं खातेबीते वस्त्र पहनते हुए भी क्यों के त्यों एकत्रित हो जाते हैं । १. ०४८४ मंसि Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान् १५२५०१ ३- वेधानिक को नहीं मानते मोर वैधानिक का उच्छेद भी नहीं करते। ४ - वज्जि लोग जब तक गुरुजनों, वृद्धों का प्रादर सरकार करते रहेंगे । उन्हें मानते पूजते रहेंगे । ५- वज्जिगण कुलस्त्रियों, कुलकुमारियों के साथ बलात् विवाह नहीं करते । ६ - वज्जीगण अपने नगर के बाहर भीतर चंस्यों का बादर करते हैं उनकी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते । त्रिों की धार्मिक सुरक्षा करते हैं। प्रतएव वे उनके यहाँ सुख से विहार करते रहे तब तक उनकी वृद्धि ही रहेगी, हानि नहीं हो सकती। वस्सकार ने अजात शत्रु को बतलाया कि के बुद्ध अनुसार यद्यपि वजि भजेय है फिर भी उपलान ( रिश्वत ) और भेद से उन्हें जीना जा सकतता है । भेद कैसे डालें, तब वस्सकार ने कहा प्रजातशत्रु ने पूछा कि आप राजसभा में वज्जियों की चर्चा करे, मैं उनके पक्ष में बोलूंगा । उस दोषारोपण मे मेरा सिर मुंडवा कर नगर से निकाल देना। मै कहता जाऊँगा - कि मैंने तेरे प्राकार परिखा श्रादि बनवाए हैं, मैं उन दुर्लभ स्थानों को जानता हूँ | मैं तुम्हें शीघ्र ही सीधा न कर दूं तो मेरा नाम वस्वकार नही । 1 इस कूटनीतिक घटना की खबर यद्यपि वज्जियों तक भी पहुँच गई और कुछ लोगों ने कहा यह ठंगी है उसे * गंगा पार मत धाने दो। यदि इस पर अमल किया जाता तो वैशाली का विनाश ही न होता। पर धन्य लोगों ने कहा यह घटना अपने ही पक्ष मे घटित हुई है । वस्सकार बुद्धिवान हैं, उसका उपयोग प्रजात शत्रु करता था, हम उसका उपयोग क्यों न करें। यह शत्रु का शत्रु हैं इस लिए समादरणीय है। किन्तु इस कूट कपट नीति के अान्तरिक व रूप पर गहरा विचार किए बिना ही वस्सकार को रख लिया । उसने थोड़े ही दिनों में वहाँ अपना प्रभाव अंकित कर लिग पर कूटनीति से जियों में भेद डालना शुरू कर दिया। भोर उसने लिच्छवियों में परस्पर विश्वास मोर मनोमालिन्य उत्पन्न कर दिया। जब वस्सकार का इस बात का निश्चय हो गया कि वज्जियो में परस्पर मे मनोमालिन्य और अविश्वास घर कर गया है और अब वज्जियों को जीतना आसान हो गया है तब उसने प्रजातशत्रु को प्राक्रमण करने के लिए कहना दिया। , प्रजातशत्रु ने तत्काल चेटक के पास पुनः दून भेजा पोर लिखित पत्र दिया, जिसमे लिखा था 'हार हाथी वापिस करो या युद्ध के लिए सन्न हो जो मौर चेटक की राजसभा में जाकर सिहासन पर लात मारो, दून ने वैशाली जाकर सा ही दिया। चेटक ने युद्ध करना स्वीकार कर लिया। दोनों ओर की मेनाथों में परस्पर युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध को प्रथो में 'महाशिलाकंटक' और 'रथ मूसल' नाम दिया गया है। दोनों भोर के लाखों योद्धा इस युद्ध मे काम पाए । कहा जाता है कि यह युद्ध १२ वर्ष तक चला। अजात शत्रु ( कुणिक) ने युद्ध मे विजय प्राप्त करने के लिए अनेक कूटनीतिक कार्य किये छल और विश्वासघात भी किया। वैशाली का अपार वैभव विनष्ट हो गया और वह खण्डहरों में परिणत हो गई। अजात शत्रु का वैशाली पर अधिकार हो गया। परन्तु हार और सचेतनक हाथी कुणिक के हाथ नही लगे । सचेतनक हाथी तो किले की खाईं की भाग में जल मरा और हार देव उठा ले गए । हल्ल बेहस्व भगवान महावीर के समवसरण मे दीक्षित हो गए। चेटक और उसके परिवार के सम्बन्ध में कुछ ज्ञाते नहीं होता । किन्तु यह बहुत संभव है कि व्रतिश्रावक था, घतएव उसने अनसनांदि द्वारा या दीक्षित होकर अपना शरीर विसर्जित कर दिया हो । क्योकि उसके लिए धन्य कोई मार्ग अवशिष्ट नहीं था पर परिवार के सम्बन्ध में कोई जानकारी नही मिलती । + I प्रजातशत्रु ने वैशाली पर अधिकार कर उसे अपने राज्य में मिला लिया । वैशाली की वह श्री सम्पन्नता समाप्त हो गई । यद्यपि वैशाली का बहुत कुछ विनाश हो चुका था, किन्तु उसका प्रस्तिस्व बहुत समय तक बना रहा | वंशाली के खण्डहर प्राज भी अपनी अवनति पर सू बहा रहे हैं। प्रोर जगत प्रसारता का प्रदर्शन कर रहे हैं । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैशाली गणपत्र का अध्यक्ष राजा बेटक लिच्छवि गणराज में जैनधर्म उत्पन्न हुमा । वे उसका पालन करने के लिए तत्पर हुए। भनेकों ने श्रावक के द्वादश व्रतों का अनुष्ठान किया। "विच्छनि गणराज में लिच्छवियों का धज्जियों का और.अनेकदीक्षित होकर प्रात्म साधना का कठोरता से बहुमत था। वे पार्श्वनाथ की परम्पग के श्रावक घे। पालन । पालन करने लगे। महावीर ने अपनी देशना मे धर्म का किन्तु महावीर के सर्वज्ञ सर्वदर्शी होने पर सभी. महावीर ___ स्वरूप विस्तार से बतलाया। और कहा कि जीवन को के अनन्य उपासक हो गए थे। राजा चेटक तो महावार arati बनाने का प्रावण बरना नितान्त का नाना था । और सिद्धार्थ भी वैशाली गणतंत्र का एक मारक है। बांग Hिam मनी है। हम राजा था। इस कारण वैशाली का सम्बन्ध महावीर से मा बलि सिम है। माम कति के घनिष्ठ था । महावीर वैशाली में अनेक बार पधारे, वहाँ निमल हुए बिना धर्म कैसे हो सकता है ? महावीर की की जनमा ने उनका प्रभूतपूर्व स्वागत पिया। उनके दिव्यवाणी सुनकर जनसाधारण की मांखे खुली; मौर वे दिव्य उपदेश से वहां जैनधर्म की बड़ी प्रभावना हुई। धर्म का स्वरूप और उसकी महत्ता को जानकर उसके उनकी इस महत्ता के दो कारण ये-एक तो वे वेशाला प्रवधारण करने के लिJ तत्पर हए। यद्यपि महावार के राजकुमार थे दूसरे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे। वे हिसा का उपदेश अर्धमागधी भाषा मे हुमा था, किन्तु जनता को पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त हो चुके थे। उनके समक्ष जाति उसे अपनी भाषा मे समझने में समर्थ हो सकी। विरोधी जीव भी अपना घर छोड़ देते थे । महावीर को वह यह उनकी दिव्य वाणी का ही प्रभाव है । यद्यपि बुद्ध प्रशान्त मुद्रा देखन ही जाति विरोधी जीवों का वैर अपने भी वैशाली अनेक बार गए और वही उनका भी स्वागत प्राप शान हो जाता था। यह उनकी अहिमा की प्रतिष्ठा सत्कार हुमा । अम्बपाली या ने उन्हें दान भी दिया। का महत्व था। उनके दिव्य जीवन का प्रभाव अमिट बुद्ध ने वैशाली में मास भक्षण भी किया। जिसका उल्लेख होता था। उनका उपदेश भी जीवमात्र की रक्षा से भरे । स भी देखने में प्राता है। परन्तु चेटक बुद्ध के पास न तो मम्बन्धित था। उनके सिद्धान्तो मे पहिसा की प्रधानता उपदेश सनने गये. और न कभी दर्शक रूप में ही गये । थी। वैशालो में उनके कई महत्वपूर्ण उपदेश हुए, जिनका इससे जहा चेटक को मं निष्टता का पता चलता है वहां सम्बन्ध जनकल्याण की भावना से प्रोत-प्रोत था । उनका उसकी महावीर के प्रति मनन्य भक्ति का भी पाभास श्रोतामों पर विशेष प्रभाव पडा। उससे वैशाली के मिलता है। इन सब कारणो से वैशाली मे जनधर्म की निवासियो का वीर शामन के प्रति विशेष अनुराग निष्ठा या महत्ता का सहज ही माभास मिल जाता है। भगवंत भजन क्यों भूला रे । यह संसार रन का सुपना तन धन वारि बबूला रे ॥१॥ इस जीवन का कौन भरोसा पासक में तण पूला रे। काल कुदार लिये सिर ठांडा, क्या समझ मन फुला रे । २॥ स्वारथ साथ पांच पांव तू, परमारथ को लला रे। कह कैसे सुख है प्राणी, काम करें दुख मूला रे ॥३॥ मोह पिशाच छल्यो मति भार, निजकर कंध वसूला है। भजपी राजमतीवर 'भूधर,शेदुरमति सिरयूला रे ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व संस्कृत सम्मेलन में जैन विद्या का प्रतिनिधित्व प्रेमसुमन जैन भारत की राजधानी दिल्ली मे (पहली बार) कुमार, बलवन्त सिंह महता, म. अजित सुकदेव, डा. यूनेस्को एवं भारत सरकार के सम्मिलित सहयोग से एन. एन. उपाध्ये, पं० दलसुम्व मालवणिया, डा.यू. पी. अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत सम्मेलन का प्रायोजन किया गया। शाह, डा. प्रबोध पण्डित, डा. नेमिचन्द्र शास्त्री डा. पंच दिवसीय इस सम्मेलन में ४२ देशों के शताधिक दयानन्द भार्गव, डा० राजाराम जैन, डा. गोकुलचन्द्र संस्कृत के विद्वानों एवं लगभग पांच सौ भारतीय विद्वानों जैन, पं० परमानन्द शास्त्री, डा. हरीन्द्र भूषण जैन, पं. ने अपने गवेषणा पूर्ण निबन्ध पढ़े तथा विचार विमर्श में गोपीलाल 'अमर' मादि विद्वानों के साथ इन पक्तियों का भाग लिया। सस्कृत भाषा, साहित्य एवं दर्शन यादि के लेखक भी सम्मेलन के प्रतिनिधियों में सम्मिलित था। परिप्रेक्ष्य में प्राधुनिक विश्व जन अनेक समस्यानों के जैन विद्या के मध्ययन अनुसन्धान की उपयोगिता समाधान खोजने का प्रयल भी इस सम्मेलन में हुमा। पर देशी विदेशी विद्वानों के समक्ष प्रकाश डालने का यह सम्मेलन के अन्तर्गत मायुर्वेद सेमिनार एवं जैनविद्या सम्मेलन उपयुक्त स्थान था। किन्तु निम्न सात निबन्ध सगोष्ठी का प्रायोजन तथा विभिन्न सास्कृतिक कार्यक्रम ही इसमें पढ़े गये जो प्रमुख रूप से भारतीय वाङ्मय को विशेष प्राकर्षण के केन्द्र रहे हैं। व्यवस्था सम्बन्धी अनेक जैनाचार्यों के योगदान पर प्रकाश डालते हैं।। त्रुटियों के बावजूद इस प्रथम विश्व संस्कृत सम्मेलन को १ मैसूर विश्वविद्यालय मे जन विद्या विभाग के सफल ही कहा जायेगा। अध्यक्ष डा. एन. एन. उपाध्ये ने अपने निबन्ध संस्कृत, इस सम्मेलन मे जो निबन्ध पढ़े गये उन्हें संस्कृत प्राकृत एवं अपभ्रंश द्वारा इन तीनों भाषाओं में जैनासाहित्य का व्यापकता के कारण पांच भागो में विभक्त चायाँ हारा रचित प्रमुख ग्रन्थों पर प्रकाश डाला। किया गया था। यथा (4) संस्कृत एवं विश्व की भाषाएं २. विश्वधर्म सम्मेलन के प्रेरक मुनि सुशील कुमार (ब) संस्कृत एवं विश्व का साहित्य, (स) संस्कृत एवं ने न केवल अपना 'प्राचीन जैनाचार्यों का सस्कृत साहित्य विश्व चिन्तन, (ब) सस्कृत एवं विश्व संस्कृति भौर को योगदान' नामक योगदान पढ़ा, अपितु उमकी प्रका(इ) विभिन्न देशों व प्रान्तों का सस्कृत भाषा के विकास शित प्रतियां भी सम्मेलन के प्रतिनिधियों को समीक्षार्थ में योगदान । तदनुसार ही उनके वाचन एवं विचार- वितरित की, जिसमे प्रथम शताब्दी से १५वीं सदी तक विमर्श की अलग-अलग व्यवस्था थी। यद्यपि विद्वानों के जैन माचार्यों की सस्कृत रचनामों का विवरण दिया एवं प्रेक्षकों का जमघट विभागीय कक्ष 'स' में ही लगा गया है। रहता था। १. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. दया. संस्कृत साहित्य एवं भाषा के विकास में जैन नन्द भार्गव ने अपने 'जनानां संस्कृत काव्ये योगदानम्' प्राचार्यों का योगदान भारतीय एवं विदेशी विद्वान सभी नामक सम्मेलन की स्मारिका में प्रकाशित निबन्ध में स्वीकार करते हैं, किन्तु इस सम्मेलन में जैन संस्कृत अनेक जैन सस्कृत काव्यों के वैशिष्ट्य पर प्रकाश डाला साहित्य का वह प्रतिनिधित्व नहीं हो सका, जो पपेक्षित है। जैन सस्कृत साहित्य के प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में था। यद्यपि अन्यान्य कारणों से अच्छी सख्या में न भी पापने अपने भाषण में विद्वानों का ध्यान प्राषित विद्वान इस समय दिल्ली में उपस्थित थे। मुनि सुशीम किया। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व संस्कृत सम्मेलन में जैन विद्या का प्रतिनिधित्व ४. प्राच्य शोध संस्थान बडौदा के निदेशक प्रो. एव पजाबी की तरह डोगरी का विकास भी बी० जे० सांडेसरा यद्यपि सम्मेलन में उपस्थित नहीं हो शौरसेनी प्राकृन से हुमा है इसकी पुष्टि की है। हा. सके। किन्तु प्रापके द्वारा प्रेषित 'जैनधर्म का सस्कृत मार. एन. डांडेकर ने अपने निबन्ध-'महाराष्ट्र का साहित्य को योगदान' नामक निबन्ध से जैन प्राचार्यों ने सम्कृत साहित्य को योगदान' में, डा. वी. राघवन ने कब से संस्कृत को साहित्य और शास्त्रार्थ की भाषा के अपने निबन्ध तमिलनाडु का संस्कृत साहित्य को योगरूप में अपनाया कैसे उसके प्रचार प्रसार में योगदान दान' में, प्रो० के. टी. पाडुरंगी ने अपने निबन्ध 'कर्नाटक दिया प्रादि के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। का सस्कृत साहित्य को योगदान' तथा श्री बी. एल. शर्मा मापने अपने दूसरे निबन्ध 'गुजरात का सस्कृत साहित्य पिलानी ने अपने निबन्ध 'राजस्थान का संस्कृत साहित्य को योगदान' मे भी अनेक जैन प्राचार्यों के साहित्य का को योगदान' में कुछ प्रमुख जैनाचार्यों एवं उनके ग्रन्थों परिचय दिया है। का उल्लेख किया है। ५. इसी सस्थान के दूसरे विद्वान डा. उमाकान्त उपयुक्त निबन्धों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि शाह ने 'सस्कृति और विश्व संस्कृति विभाग के अन्तर्गत इस सम्मेलन मे जैन विद्या के सम्बन्ध में जो सामग्री अपना 'अनेकान्तवाद और आधुनिक जगत्' नामक निबन्ध प्रस्तुत की गई है, उससे जैन साहित्य का पूर्ण प्रतिनिधित्व पढा, जिसमे युद्ध की कगार पर बैठे हुए विश्व के लिए नही हो सका है। केवल गुजरात और राजस्थान के जैन अनेकान्तवाद जैसे सहिष्णु सिद्धान्त की उपयोगिता पर सस्कृत साहित्य के सम्बन्ध में सम्मेलन में निबन्ध पढ़े प्रकाश डाला गया है। गये । जब कि भारत के अन्य प्रान्तों से भी इस प्रकार के ६. डा. इन्द्र चन्द्र शास्त्री दिल्ली का निबन्ध निबन्ध भेजे जा सकते थे। इसमें अधिक प्रमाद उन जैन 'प्रतिक्रमण : जनों की प्राचार सहिता' भी सम्मेलन के विद्वानों का है जो अपने सामाजिक दायरे से चिपके हुए अन्य निबन्धो मे सम्मिलित था। विश्व मैत्री के विस्तार है अथवा उन संस्थानों का, जो ऐसे सम्मेलनों मे विद्वानों में इसकी उपयोगिता पर बल दिया गया है। के भेजने के खर्च को अपव्यय समझती हैं। दोनों स्थितियां ७. उदयपुर विश्वविद्यालय मे प्राकृत के प्रवक्ता शुभ नही है। मेरे विचार से जैन संस्कृत साहित्य के प्रेम सुमन जैन (लेखक) ने पश्चिमी भारत का जन सम्बन्ध में इस सम्मेलन में इन प्रमुख दो विषयों पर और सस्कृत साहित्य' विषय पर अपना निबन्ध पढ़ा जिसम निबन्ध पढ़े जा सकते थे-(१) जैन ग्रन्थ भण्डारों मे जैन संस्कृत साहित्य के निर्माण की पृष्ठभूमि, प्रचार उपलब्ध संस्कृत ग्रन्थों का विवरण तथा (२) जैन सस्कृत प्रसार के साधन, राजस्थान का जैन सस्कृत साहित्य, साहित्य का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, जब कि इन पर गुजरात का जैन संस्कृत साहित्य, इस साहित्य की प्रमुख कोई प्रकाश नही डाला गया। विधाएं, जैन सन्तों की संस्कृत सेवा, जैनेतर संस्कृत ग्रन्थों इस सम्मेलन मे जैन विद्या के परिप्रेक्ष्य में प्रखरने पर टीका जैन संस्कृत अभिलेख, ग्रन्थ भण्डारो में संस्कृत वाली बात यह थी कि किसी भी विदेशी विद्वान ने अपने साहित्य, जैन सस्कृत साहित्य की विशिष्ट भाषा तथा निबन्ध या भाषण में जैन सस्कृत ग्रन्थों का उल्लेख नहीं वर्तमान में अध्ययन-अनुसन्धान की स्थिति प्रादि के किया। इससे स्पष्ट है कि विदेशों में, जहां संस्कृत का सम्बन्ध में संक्षेप में जानकारी दी गई है। जैन विद्या अध्ययन प्रचुरता से होता है, जैन संस्कृत ग्रन्थों पर कही से सम्बन्धित इन प्रमुख निबन्धों के अतिरिक्त इस सम्मे- कार्य नहीं हो रहा है। लेखक ने जब कुछ विदेशी विद्वानो लन में कुछ विद्वानों द्वारा ऐसे निबन्ध भी पढ़े गये से इस सम्बन्ध में जिज्ञासा की तो गोटिनगेन विश्वविद्याहैं जिनमें प्रसंगवश जैन संस्कृत साहित्य के सम्बन्ध लय जर्मनी के प्रो० रोथ एवं जेना विश्वविद्यालय के प्रा० में चर्चा की गई है। यथा-डा. वेद कुमारी घड स्पिटव ने कुछ ग्रन्थों के नाम गिनाये, जिन पर उधर। ने अपने निबन्ध-'संस्कृत भौर होगरी' में हिन्दी क हो रहा है, किन्तु उनमें से अधिकांश प्राकृत के हैं Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ वर्ष २५, कि०१ अनेकान्त यपि साप्ताहिक हिन्दुस्तान (२ अप्रैल ४२) में धी ऍगर है ? समाज के श्रेष्ठिजन एवं विद्वानों दोनों के लिए ही ने इस सम्मेलन में अमेरिका के प्रो० बाल्टर मारर द्वारा यह विचारणीय प्रश्न है। 'जैन संस्कृत-एक अध्ययन' विषय पर निबन्ध पढ़े जाने इस विश्व संस्कृत सम्मेलन में जैन विद्या के क्षेत्र में की सूचना दी है। किन्तु लेखक को सम्मेलन मे न तो यह महत्वपूर्ण कार्य हमा है कि जैनालाजिकल रिसर्च प्रो० मारर से भेंट हो सकी और न ही सम्मेलन के प्रका. सोसायटी दिल्ली द्वारा प्रायोजित सेमिनार में लगभग सौ शित निबन्ध सार में कही उनके लेख का उल्लेख ही विद्वान एक साथ मिल-बैठ कर जैन विद्या के प्रचारमिला। विदेशों में जैन संस्कृत साहित्य की इस स्थिति प्रसार के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर सके। यह उनके के लिए उन जैन विद्वानों का प्रमाद ही कारण है, जो सामूहिक चितन का ही फल है कि सेमिनार ने निम्न दो अपने लेखन में अभी तक अंग्रेजी के माध्यम को नहीं महत्वपूर्ण निर्णय लिएअपना पाये हैं। उनका प्रध्ययन अनुसन्धान देश के किसी १. भगवान महावीर के पच्चीस सौ निर्वाण महोएक कोने तक ही सीमित है। स्सव के अवसर पर 'अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्या सम्मेलन' का जैन विद्या का विदेशों में प्रचार-प्रसार शायद इस- पायोजन किया जाय। तथालिए भी कम है कि विदेशों में स्थित भारतीय विद्या के २. एक ऐसे केन्द्रीय संस्थान की स्थापना की जाय अन्य विद्वानों से जैन विद्या में रुचि रखने वाले विद्वानों जो जैन विद्या के अध्ययन-अनुसंधान एवं प्रचार-प्रसार में का सम्पर्क नहीं हो पाता। दो वर्ष पूर्व भास्ट्रेलिया पूर्ण सहयोग प्रदान करे। (केनबरा) में प्रायोजित अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य विद्या इन सकल्पो को कार्यरूप प्रदान करने का कार्य उस सम्मेलन में सम्मिलित भारतीय विद्वानों के साथ शायद प्रत्येक व्यक्ति का है, जो महावीर के सिद्धान्तो मे पास्था ही कोई जैन विद्या का विद्वान वहाँ गया हो। जैन विद्या रखता है तथा जिसे जैन विद्या के मध्य यन-अनुसन्धान में का एक भी निबन्ध वहां नहीं पढ़ा गया। अब भागामी मभिरुचि है । इस प्रकार यह विश्व संस्कृत सम्मेलन जैन बुलाई ७३ में पेरिस में वही सम्मेलन प्रायोजित है । पता विद्या के प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में कार्य करने के लिए नहीं जैन विद्या का इसमें कितना प्रतिनिधित्व हो पाता कई मायाम उद्घाटित करता है। विनम्रता जो नमता है वह मरता है घड़ा अगर अपने मुख को ऊपर रखेगा तो वह कभी भी पानी से भर नहीं सकेगा। विकास को वही देख सकता है, जिसमें नम्रता सिमटी हुई होती है। ऊपर वही जा सकता है, जिसने झुकना सीखा है। इसी के बल से रज कण प्राकाश को माच्छादित कर दिनकर को भी निस्तेज बना देते हैं। पत्थर में कठोरता होने के कारण ही तो ऊँचा नहीं उठ सकता। मित्रवर! वेववती नदी में जब भयंकर बाढ़ पाती है, तव बड़े-बड़े वृक्ष अपनी प्रकर के कारण अपने प्राणों की रक्षा करने में असमर्थ होकर उसके प्रवल प्रवाह में वह जाते हैं। लेकिन वेत्र के वृक्ष उसके क्रूर जाल में नहीं फंसते । जब पानी का पाबेग बढ़ने लगता है, तब वे वृक्ष उस पानी के मागे नम्र बन जाते हैं-नीचे झुक जाते हैं, अतएव उन्हें अपने जीवन की रक्षा में पाशातीत सफलता मिलती है। प्रतएव मित्र ! तुम नम्र बने रहो, जीवन में कभी भी अहंकार को स्थान न दो। नम्रता से वर्षों का वैर भाव भी प्रेम में परिणत हो जायेगा विष पर्वत से भी सुधा के निझर वहने लग जाएंगे। पत्थर भी पिघलकर नवनीत बन जाएंगे। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारत में जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्तिगत अवतारणा मारुति नदन प्रसाद तिवारी जैन देव समुदाय में देवता के तुल्य माने जाने वाले अपने मायुधों और पम्य वि . विष्णु की शक्ति या यक्षिणियों को शासन देवताओं (रक्षक देवता) के चकेश्वरी से तुलनीय है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों रूप में स्वीकार किया गया है। सहायक देवतामों के रूप ही प्रतिमा शास्त्रीय ग्रन्थों में गरुड़ पर मासीन बकेश्वरी में पूजित यक्ष-यक्षिणी का उल्लेख जैन ग्रन्थों में जिन- या अप्रति-चका को मुजामों में चक्र, शंख पोर गदा शासन रक्षाकार-काप', अर्थात जैन धर्म के रक्षक के रूप प्रतिपादित किया गया है। जैन मूर्ति विज्ञान सम्बन्धी में हुपा है। जैन मान्यतामों के अनुसार इन्द्र ने प्रत्येक ग्रंथों में चक्रेश्वरी के द्विभुज, चतुर्भुज, अष्टभुज, द्वादशतीर्थर के लिए एक यक्ष-यक्षिणी को नियुक्त किया था, भुज और षोडश-भुज स्वरूपों के उल्लेख प्राप्त होते हैं, जो तीर्थङ्करों के उपासक देव माने जाते थे। प्रारम्भ में जिनका अध्ययन हमारा प्रभीष्ट नहीं है (१५)। इस जंन शिल्प में तीर्थङ्करों के दोनों पाश्वों में उनके यक्ष- लेख में हम मात्र उत्तर भारत से प्राप्त होने वाली पके यक्षिणियों की छोटी भाकृतियाँ उत्कीर्ण की जाती थीं, श्वरी की स्वतन्त्र मूर्तियों का अध्ययन करेंगे। जिनका भाकार समय के साथ-साथ बढ़ता गया। हवी. चतुर्भज चक्रेश्वरीके उत्कीर्ण किये जाने का विधान १०वीं शती तक यक्ष-यक्षिणियों की स्वतन्त्र मूर्तियो यद्यपि केवल दिगम्बर ग्रन्थों में ही वणित है, तथापि निर्मित होने लगीं, जिनमें उनके तीर्थकरों की सक्षिप्त जन शिरूप में चक्रेश्वरी की चतुर्भुज मूर्तियां श्वेताम्बर भाकृति शीर्ष भाग में चित्रित होने लगी। तीर्थहरों दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से प्रचलित थीं। पतिरिक्त अन्य देवों के स्वतन्त्र महत्व स्थापित कर उनके यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जैन यक्षी चकेश्वरी की पूजन की मावश्यकता जैनियों को मात्र इसलिये पड़ी चतुर्भज मतियां ही सर्वाधिक उत्कीर्ण की गई। क्योंकि अपने भौतिक सुख के वीतराग तीर्थङ्करो से कुछ चक्रेश्वरी की एक चतुर्भुज मूर्ति मध्य प्रदेश के भी नहीं प्राप्त कर सकते थे। फलतः उपासकों में भौतिक घबेला राज्य संग्रहालय, नौगांव मे संगृहीत है,(१ ब) सुख की इच्छा की वृद्धि के साथ-साथ इन उपासक देवों जिसमें देवी के शीर्ष भाग में तीर्थकर की एक छोटी (यक्ष-यक्षिणी) का भी महत्त्व बढ़ता गया, जो ग्रन्थों मोर मासीन मति उत्कीर्ण है। देवी के ऊपर की दोनों भुजानों प्रतिमाओं दोनों ही में प्रतिबिम्बित होता है। में चक्र प्रदर्शित है पौर निचले दाहिने व बायें मे क्रमशः यह तथ्य सर्वथा स्वीकार्य है कि जैनियों ने अपने देव वरदमुद्रा और शंख धारण किया हुमा है। ललितासन समुदाय के अनेक ब्राह्मण व कुछ बौद्ध देवी-देवतानों को मुद्रा में प्रासीन देवी के वाम पाद को मानव रूप में स्थान दिया, पर साथ ही यह भ 'निविवाद है कि उन १. (4) देखें शाह, य० पी०, "माइकोनोग्राफी प्रॉफ सबकी स्थिति या महत्व उनके अपने तीर्थङ्करों के साथ चक्रेश्वरी, दे यक्षी पॉफ ऋषममाय", अनल पॉफ मंकित किये जाने में ही होती थी। इस तथ्य के बावजूद प्रोरियण्टल इन्सटीट्यूट, बड़ोदा, वा० २०, नं. ३ बकेश्वरी, पम्बिका, सरस्वती, कुबेर प्रादि कुछ ऐसे मार्च १९७१, पृ० २८०-३११। देव हैं, जिनको जैन शिल्प में काफी महत्व प्रदान किया १. (ब) दीक्षित, एस.के., ए गाइड टू दि स्टेट गया है। जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी, जो प्रन्थों में प्रथम म्यूजियम घुबेला, नौगांव (बुन्देलखंड), विध्य प्रदेश, तीर्थकर मादिनाथ के शासन देवी के रूप में वर्णित है, नौगांव, १९६६, पृ० १६-१७ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६, वर्ष २५, कि.. मत उत्कीणं गरुड़ भाकृति सहारा दे रही है। गरुड की देवी के वाम पार्श्व में पंख युक्त एक पुरुष प्राकृति क्षहिनी भुजा और शरीर का काफी भाग सम्प्रति भग्न उत्कीर्ण है जो देवी को वाहन गरुड़ का चित्रण करती हो चुका है । देवी के चरणों के समीप दोनों पाश्वो में दो है। चक्रेश्वरी अलंकृत शिरोभूषा, दुपट्टा, हार, धम्मिल,' काफी भग्न उपासक प्राकृतियों को नमस्कार मुद्रा में मेखला, घोती प्रादि सामान्य भाभूषणों से सुसज्जित है । मतिगत किया गया है। चक्रेश्वरी के मस्तक के ऊपर खजराहो के जैन मन्दिरों और संग्रहालयों मे भी प्रत्येक पाश्व मे एक मालाधारी उड्डायमान गधर्व का प्रकन चक्रेश्वरी की कई स्वतन्त्र भौर ललाट बिम्बों पर उत्कीर्ण प्रशंसनीय है। देवी मस्तक पर पलकृत मुकुट, ग्रीवा मे चतुर्भज प्राकृतियां देखी जा सकती है ।(४) खजगहो हार, कगन, कुण्डल प्रादि मामूषणों में सुशोभित है। की प्रधिकतर चक्रेश्वरी प्रतिमानों में मानव रूप मे इस चित्रण को शैली के प्राधार पर वी-१०वी शती के उत्कीर्ण गरुड पर ललितासन मुद्रा में प्रासीन देवी की मध्य तिथ्यांकित किया जा सकता है। चतुर्भुज चक्रे- ऊपरी दाहिनी और बायी भुजानों में क्रमशः गदा और श्वरी का एक अन्य अंकन देवगढ के मन्दिर न० १२ की चक्र प्रदर्शित है, और निचले दो हाथों मे अभय या बरद भित्ति पर देखा जा सकता है ।(२) देवगढ मे समस्त मुद्रा पोर शख चित्रित है। प्रादिनाथ मन्दिर के उत्तर पक्षिणियों को नवीन प्रायुधों व वाहनों के साथ व्यक्त की दीवार के अधिष्ठान पर उत्कीर्ण चक्रेश्वरी की किया गया है पर चक्रेश्वरी के साथ ऐसी स्थिति न होने निचली वाम भजा में शख के स्थान पर मातृलिंग (फल) के कारण इस सम्भावना को बल मिलता है कि जैन स्थित है। जैन धर्मशाला में कुये के समीप रखे ललाट अक्षिणी चक्रेश्वरी के निश्चित स्वरूप का निर्धारण अन्य बिम्ब के मध्य मे उत्कीर्ण चतुर्भुज चक्रेश्वरी के दोनों मक्षिणियों के पूर्व ही हो चुका था। समभग मुद्रा में खड़ी भजायो मे शख प्रदर्शित है। सभी चित्रणो मे चक्रेश्वरी देवी के चारों हाथों में चक्र प्रदर्शित है। देवी के दाहिने अल कृत मुकुट, हार, कुण्डल, कगन, नूपुर, बाजूबन्द, घोती पाश्र्व में एक लम्बी पुरुष प्राकृति खड़ी है, जिसकी भुजाएं प्रादि सुसज्जित है।। माराधना मुद्रा में मुढ़ी है। इस पुरुष भाकृति के पृष्ठ मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले के बिलहरी नामक भाग में प्रदर्शित चक्र के प्राधार पर प्रो. ब्रन ने इसके स्थल से प्राप्त १०वीं शती की चतुभुज चक्रेश्वरी चक्र पुरुष होने की सम्भावना व्यक्त की है। चक्रेश्वरी मूर्ति मे देवी को ललितासन मुद्रा मे गरुड (मानवरूप मे) के वाम पार्श्व में खड़ी एक अन्य प्राकृति के साथ मे पर आसीन प्रदर्शित किया गया है । देवी की ऊपरी दोनो चामर व पद्म प्रदर्शित है, जबकि दूसरी भुजा कटि पर भुजानो मे चक्र स्थित है, जबकि निचली दाहिनी व स्थित है। देवी के मस्तक के ऊपर तीर्थदर की प्रासीन बायी मे क्रमशः वरदमुद्रा और चक्र प्रदर्शित है। देवी के प्रतिमा अवस्थित है। नवी शती में निर्मित इस मूर्ति में शीर्ष भाग के ऊपर दो सेवको से वेष्टित तीर्थकर की देवी का वाहन गरुड़ मप्राप्य है। देवकुलिका मे स्थापित प्रासीन मूर्ति उत्कीर्ण है। मूर्ति के प्रत्येक ऊपरी बोनो चतुर्भुज चक्रेश्वरी का एक अन्य चित्रण जोधपुर के पर एक मालाधारी गन्धर्व युगल और निचले भाग मे समीप स्थित प्रोसिया जैन मन्दिर (६६०-८२० शती) दो हाथ जोड़े उपासक प्राकृतियों को मूर्तिगत किया की पश्चिमी भित्ति पर उत्कीर्ण है,(३) जिसमे देवी के गया है। चारों भुजामों में चक्र प्रदर्शित है। त्रिभग मुद्रा मे खड़ी अपने शोधकार्य के सबंध मे हाल में राजस्थान व गुजरात के कई जैन मन्दिरो की मतियों के अध्ययन के २. ब्रुन, क्लाज, दि जिन हमेजेज प्रॉफ देवगढ़, सिडेन, __ दौरान मैने उन मन्दिरों पर जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी की १९६६, पृ० १०५। अनेक मूर्तियां देखीं, जिन सब का विवरण प्रस्तुत लेख में ३. शर्मा, बी० एन०, "सम इन्टरेस्टिग टेम्पिल स्कल्प चरस एट प्रोसिया", रूपलेखा, नई दिल्ली, ४. खजुराहो के जैन शिल्प के स्वयं मेरे मध्ययन. पर वाल्यूम ३६। माधारित । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारत में जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्तिगत अवतारणा दे पाना संभव न होने के कारण कुछ प्रमुख भूतियों मात्र हरण में देवी की निचली भुजाएं लटक रही हैं। राजस्थान का ही उल्लेख नीचे कर रहा हूँ। यह ज्ञातव्य है कि नीचे के पाली जिले में सादडी स्थित पार्श्वनाथ मन्दिर (११वी की सभी मतियाँ अप्रकाशित है। चक्रेश्वरी की तीन शती) की गूढ मडप की पश्चिमी दीवार पर चतुर्भज मूर्तियाँ राजस्थान के जालोर जिले की पहाडी (गिरिस्थ चक्रेश्वरी की त्रिभग मुद्रा में खड़ी मति उत्कीर्ण है, कुमार विहार) पर स्थित महावीर मन्दिर (१२वी शती) जिसमे देवी की चारों भुजामों में चक्र स्थित है। चारों की भित्तियो पर उत्कीर्ण है। चार भुजानो से युक्त भुजामों मे चक्र के प्रदर्शन के आधार पर इसे यक्षी तीनों खडी मतियोमे देवी ने समान प्रायूध धारण किये चश्वरी से अधिक विद्यादेवी अप्रति चक्रा के रूप में है। देवी की ऊपरी भजायो में चक्र स्थित है, जब कि स्वीकार करना उचित है। पर देवी के वाहन का पखनिचली दाहिनी व बायी में क्रमश: वरद व अक्षमाला युक्त होना प्रतिमाशास्त्रीय विवरणों के विपरीत है, और कमण्डलु प्रदर्शित है । देवी का वाहन गरुड (मानव जिसमे बिद्यादेवी का वाहन पुरुष बतलाया गया है जब रूप मे) समीप ही हाथ जोडे उत्कीर्ण किया गया है। कि प्राकृति का पंख युक्त होना उसके गरुड होने की राजस्थान के पाली जिले के नाडोल ग्राम मे स्थित पुष्टि करता है। पंखयुक्त मानव प्राकृति को हाथ जोडे जैन मन्दिरों (११वी शती) पर भी चक्रेश्वरी की कई प्रदर्शित किया गया है। राजस्थान के पाली जिले के मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। नेमिनाथ मन्दिर की दक्षिणी भित्ति घणेरा स्थित महावीर मन्दिर (१०वी शती) के मूलपर उत्कीर्ण चतुर्भज चक्रेश्वरी की भदामन पर ग्रामीन प्रासाद के पश्चिमी भित्ति पर उत्कीर्ण चक्रेश्वरी के मति मे देवी की कार भजामों मे चक्र व निचली दाहिनी ग्रामीन चित्रण मे देवी ने ऊपरी भ जाग्रो में चक्र धारण व बायी भुजायो म वरदमुद्रा और कमण्डलु चित्रित है। किया है, और निचली दाहिनी व बायो भुजायो मे वरद दोनो पार दो स्त्री सेवक प्राकृतियो से वेष्टित चकश्वरी व अक्षमाला और फल चित्रित है। इस मति से मिलनी. के वाहन को यहाँ नही उत्कीर्ण किया गया है। इसी जुलती एक अन्य मूर्ति मन्दिर के पूर्वी दीवार पर उत्कोर्ण मन्दिर के गूढ मण्डप की पश्चिमी भित्ति पर चक्रेश्वरी है, जिसमे उपयुक्त मूर्ति के विपरीत देवी के प्रासन की एक अन्य खड़ी मुक्ति उत्कीर्ण है, जिसमे देवी ने ऊपरी के समक्ष एक हाथ जोडे आकृति को उड्डायमान दाहिनी व बायी भजामो में गदा और चक्र धारण किया मुद्रा में उत्कीर्ण किया गया है, जो वस्तुत: गरुड का है और देवी के निचले दोनों हाथ नीचे लटक रहे है। चित्रण है। देवी का वाहन यहा भी अनुपस्थित है। इस मूर्ति की गुजरात के बनासकाठा जिले के कुमारिया स्थित विशिष्टता देवी के मस्तक पर किरीट मकूट का होना जैन मन्दिरों मे चक्रेश्वरी की कई मतियां उत्कीर्ण है, है । नाडोल के ही अपेक्षाकृत एक छोटे मन्दिर (अनन्त- जिनमे से कुछ का उल्लेख नीचे किया जा रहा है। नाथ मन्दिर) की दक्षिणी दीवार पर भी चक्रेश्वरी की सभवनाथ मन्दिर (१२वी शती) की दक्षिणी दीवार पर एक प्रासीन मूर्ति उत्कीर्ण है जिसमें देवी की ऊपरी चक्रेश्वरी की खडी मूति उत्कीर्ण है, जिसमे देवी के दोनों भुजाओं में दो चक्र स्थित हैं, जब कि निचला दाहिना पाश्वों में दो स्त्री चमर पारी प्राकृतियों को मूर्तिगत हाथ लटक रहा है । देवी की निचली वाम भुजा भग्न है, किया गया है। देवी की दोनों ऊपरी भुजामों मे चक्र और वाहन का चित्रण अनुपलब्ध है। नाडोल के ही पद्म. स्थित है और निचली दाहिनी से वरदमुद्रा प्रदर्शित हैं । प्रभ मन्दिर की जगती पर चक्रेश्वरी की तीन प्राप्तीन निचली वाम भुजा की वस्तु अस्पष्ट है। देवी के वाम मूर्तियां देखी जा सकती हैं जिन सभी मे देवी की ऊपरी पावं में गरुड (मानव रूप) की हाथ जोडे प्राकृति दो भुजानो मे दो चक्र प्रदर्शित हैं, और निचली दाहिनी उत्कीर्ण है । देवी सिर पर किरीट मुकुट से अलंकृत है। व बायीं भुजामों में कमशः वरद मोर फल (कमण्डलु ?); इसी मन्दिर की एक अन्य मति में देवी को गरुड पर अभय और कमण्डलु चित्रित है, जब कि एक अन्य उदा- मासीन प्रदर्शित विया गया है। देष विवरण पूर्ववत है Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८, वर्ष २५, कि.१ अनेकान्त पर यहाँ देवी की निचली वाम भुजा भग्न है। यह चित्रण प्रदक्षित है और बायीं भुजापों में चक्र, कमल पौर ममय मन्दिर के पश्चिमी जगती पर देखा जा सकता है। मुद्रा चित्रित है। पीले वलुये प्रस्तर में उत्कीर्ण मूर्ति की शांतिनाथ मन्दिर (११वी शती) की पूर्वी दीवार पर निर्मिती के प्राधार पर ११वीं शती में तिय्यांकित किया उत्कीर्ण देवी की पासीन मूर्ति मे चक्रेश्वरी की ऊपरी जा सकता है। भुजामों में चक मौर निचली दाहिनी व बायीं में क्रमश: १०वी शती में निर्मित प्रष्ठभुजी चक्रेश्वरी की एक वरद और फल प्रदर्शित है। दोनों भोर दो चामरधारी कांस्य प्रतिमा (१७.६ से. मी.x.५ से. मी.) सेवकों से वेष्टित चक्रेश्वरी का वाहन अनुपस्थित है। राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में शोभा पा रही है (नं०६७ ऋषभनाथ के जीवन की पांच घटनाओं (पांच कल्याणको) १५२)1(५) ललितासन मुद्रा में कमल पर मासीन का चित्रण करने वाली छत (सभासण्डप के पश्चिम भोर देवी के ऊपरी छह हाथों में चक्र स्थित है पोर निचली की छत) के मध्य में ऋषभनाथ के यक्ष-यक्षी, गोमुख व दाहिनी भुजा में वरद मुद्रा व्यक्त है, जबकि निचली वाम चक्रेश्वरी को मूर्तिगत किया गया है । चक्रेश्वरी ललिता. भुजा मे मातुलिंग (फल) प्रदर्शित हैं : देवी के मस्तक के मन मुद्रा मे भद्रासन पर बैठी है, जिसके समक्ष ही गर ऊपर बिछत्र से युक्त तीर्थहर की ध्यान निमग्न मति (मानव रूप) की प्राकृति उत्कीर्ण है। देवी की ऊपरी को उत्कोणं किया गया है। देवी के वाहन गरुड़ को अजामों में चक्र स्थित है, पोर निचलो दाहिनी व बायीं भासन के समक्ष मुर्तिगत किया गया है। अष्टभुजी चक्रे. मजामों में क्रमशः वरद व पंख प्रदर्शित है। देवी दोनों श्वरी का एक अन्य चित्रण खजुराहो के घण्टई मन्दिर पावों में दो चामरषारी स्त्री पाकृतियों से वेष्टित है। के ललाट बिम्ब पर उत्कीर्ण है। देवी मानव रूप मे प्रद गुजरात के मेहसाना जिले के तारंगा हिल स्थित शित गरड़ के ऊपर ललितासन मुद्रा में पासीन है। अजितनाथ मन्दिर (११वीं-१२वीं शती) की दक्षिणी चक्रश्वरी ने ऊपर की दो मजामों में चक धारण जगती पर उत्कीर्ण प्रासीन मति में किरीट मुकुट से कर रखा है और निचली दो दाहिनी सुजानों में घण्टा सुशोभित देवी की ऊपरी दाहिनी व वाम मुजामों में गदा और फल (?) चित्रित है। देवी की दो निचली बायी व चक्र प्रदर्शित है, जबकि निचली दाहिनी व बायीं में भुजामों में एक लम्बी वस्तु (1) पम्भवतः पाश पौर वरदमुद्रा और शंख । देवी का वाहन अनुपस्थित है। कलश या फल (?) मकित है। बिल्कुल समान विवरणों वाला एक अन्य चित्रण दक्षिणी प्रतिमा शास्त्रीय प्रन्थों में दस मुजामों से युक्त बगती पर ही देखा जा सकता है, किन्तु देवी के मस्तक चक्रेश्वरी के उस्लेख के प्रभाव के बावजूद ऐसी तीन पर किरीट मुकुट नहीं उत्कीर्ण है। इसी मोर की एक प्रतिमाएं प्राप्त हुई है। पहली मूति (२४"४५३") जगती की एक अन्य मति में देवी की ऊपरी भुजामों में मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त होती है, जो सम्प्रति वरदमुद्रा व फल प्रदर्शित है। देवी के मस्तक पर किरीट मथुरा संग्रहालय (नं. टी-६) की निषि है।(६) इस मुकुट उत्कीर्ण है। मूर्ति में देवी समभग मुद्रा में एक पीठिका पर खड़ी है। प्रतिमा निरूपण सम्बन्धी ग्रंथों के निर्देश के प्रभाव देवो के पासन के नीचे गरुड़ की एक छोटी प्राकृति में भी चक्रेश्वरी की छह भजामों से युक्त मूर्तियां उत्तर उत्कीर्ण है। कमल के मलकरणों वाले मंडल से यक्त भारत में उत्कीर्ण की गई, इसकी पुष्टि खुजराहो के .शर्मा, बी० एन०, "मम्पमिशन प्राजिज इन दि मन्दिर नं. २७ के अन्दर स्थित मूर्ति से होती है। यह नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली" जर्नल दि मोरि. प्रतिमा (२२"४१५") वास्तव में बावली से लगे खुले पन्टल इन्सटिट्यूट, वा० १६, न. ३ मार्च १९७०, संग्रहालय की मूर्ति (के० २७-५०) है। ललितासन मुद्रा पृ.२७६। में गरुड़ पर पासीन षष्ठभजी चक्रेश्वरी की दाहिनी ६. वासुदेव शरण, अप्रवाल, मयुरा म्यूजियम केटमाग, मुजामों में (ऊपर से नीचे) चक्र, गदा पौर अभय मुद्रा ३, पृ. ३१। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारत में जन यक्षिणी बकेश्वरी की मतिपत अवतारणा देवी के दसों हाथों में चक प्रदर्शित है। देवी दोनों होने वाले एक मम्य उदाहरण में(१०) देवी का वाहन पावों में चामर पौर मालाधारी सेविकानों द्वारा वेष्टित गरुड़ तीथंकर पादिनाथ के नीचे उत्कीर्ण है। देवी की है। मति के ऊपरी भाग में एक मासीन तीर्थङ्कर को दाहिनी छह भुजामों में वरद मुद्रा, बज, दो चक्र, प्रक्षचित्रित किया गया है। तीर्थङ्कर प्राकृति के दोनों भोर माला मोर खड्ग स्थित है, पौर बायें हाथों में तीन मे मालाधारी उड्डायमान गन्धर्व प्राकृतियां उत्कीर्ण है। ढाल मोर सनाल कमल प्रदर्शित है। शेष वक्षस्थल पौर १०वीं शती की एक अन्य मति खजुराहो के पार्श्वनाथ घुटनों पर स्थित मुजायं काफी भग्न है। इसी चित्र को मन्दिर के मण्डप के ललाट बिम्ब के मध्य में उत्कीर्ण है, ११वीं-१२वीं शती मे तिथ्यांकित किया गया है। द्वादका (७) जिनमें चक्रेश्वरी मानव रूप में प्रवशित गरुड़ पर भुजाभों से युक्त पश्वरी की एक अन्य मूर्ति एलोरा के ललितासन मुद्रा में मासीन हैं। चक्रेश्वरी की दाहिनी गुफा नं. ३० में देखी जा सकती है । (११) पयासम भुजामों के (ऊपर से नीचे) में कमल । ?), चक्र, गदा, मद्रा मे पासीन चक्रेश्वरी की मात्र पाच दाहिनी भुजा ही खड्ग पोर वरद मुद्रा प्रदर्शित हैं पोर बायीं भजामो मे शेष बची हैं, जिनमें (ऊपर से नीचे) कमल, चक्र, शख, चक, धनुष, खेटक, गदा भोर शख चित्रित है। पन्तिम चक्र और गदा प्रदर्शित है। देवी की छह दाहिनी भुजामों उदाहरण उडीसा स्थित उदयगिरि हिल के नवमूनि गुफा में से खड्ग धारण किये एक हाथ ही शेष वषा है। देवी से प्राप्त होता है,(6) जिसमें तीर्थकर मादिनाथ के नीचे के कमलासन के नीचे मानव रूप मे गरुड़ को चित्रित पक्रेश्वरी को एक पीठिका पर ध्यान मुद्रा में पासीन किया गया है। देवी के मस्तक पर एक पासीन तीर्थर व्यक्त किया गया है। पीठिका के समक्ष वाहन गा को मूतिगत किया गया है। चश्वरी के वाम पावं में उत्कीर्ण है । देवी की छह भुजाम्रो में पुष्प के समान चक्र एक चामरधारी स्त्री प्राकृति उत्कीर्ण है और दाहिने भोर सातवी में छिद्रयुक्त चक्र प्रदर्शित है। शेष तीन पाश्व मे दो स्त्री प्राकृतियां अवस्थित हैं, जिनमें से एक मुजामा म ढाल, प्रक्षमाला और योगममा प्रदशित की भुजा मे चामर स्थित है। मध्य प्रदेश के गोलकट नामक स्थल से प्राप्त होने उड़ीसा की खडगिरि को वारामजी गुफा के बरामदे वाली एक मध्ययुगीन मूर्ति मे कमलासीन देवी को सोलह में उत्कीर्ण मूर्ति में द्वादश भुजामों में युक्त चक्रेश्वरी को भुजायों से युक्त प्रदर्शित किया गया है ।(१२) देवी पूर्व दो कमलों पर ललितासन मुदा में पासीन प्रदर्शित किया प्रतिमामों के सदृश हो मानव कप में उत्कीर्ण गरुड़ पर गया है।(6) पीठिका के नीचे वाहन गरुड़ को चित्रित ललितासन मुद्रा में पासीन है। देवगढ़ पर बन द्वारा किया गया है। देवी के तीन दाहिने हाथों मे वरद मुद्रा, दा, लिखित पुस्तक में दिये चित्र में देवी की दो दाहिनी खढ्ग भौर चक्र स्थित है पौर चार बायीं भुजायो मे भजामों में अक्षमाला-पोर-प्रभय मुद्रा और खड्ग चित्रित एक वक्षस्थल के समीप स्थित है भोर शेष तीन में ढाल, म ढाल, है। शेष देवी की तीन वाम भूजामों में तीन चक्र और घण्टा और चक्र उत्कीर्ण है । देवी की मम्य भुजायें खडित शेष में शंख पौर कमल प्रदर्शित है। शेष भृजामों की हो चुकी हैं। शीर्ष भाग पर वृषभ चिन्ह से युक्त तीर्य सामग्री चित्र में स्पष्ट नहीं दिख रही है। देवी के पृष्ठ हर की पासीन मूर्ति चित्रित है। इसी गुफा से प्राप्त भाग में उत्कीर्ण भामंडल पुष्प, गुलाब पोर मोतियों के ७.बुन, क्लाज, "दि फिगर मॉफ दि लोवर रिलीफ्स वृत्तों से अलंकृत है। समस्त सामान्य भलकरणों से युक्त बॉन दिपाश्र्वनाय टेम्पिल एट खजुराहो", पाचार्य १०.वही, पृ. १३०। श्री विजयवल्लभ सूरि स्मृति ग्रंथ, १९५६, अग्रेजी ११. गुप्ता, भार० एस० और महाजन, बी० डी०, विभाग, पृ०२४ । प्रजन्ता, एलोरा भौर पौरंगाबाद केवस, बम्बई, .मित्र, देवल, "शासनदेविज इन दिखडगिरि केवस" १९६२, पृ. २१६ । जर्नल पॉफ एशियाटिक सोसायटी, बा.नं. २, १२.अन क्लाज, दि जिन हमेजेज माफ देवगढ़, चित्र १९५६ पृ. १२८ । सं० २२७ विवरण मात्र चित्र पर प्राधारित हैं १. वही, पृ. १३३ । क्योंकि मेखक ने मात्र चित्रही प्रकाशित किया है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०, वर्ष २५, कि.. अनेकान्त देवी के वाहनं गरुड को सर्प यज्ञोपवीत से युक्त प्रकित क्रमशः वरदमुद्रा और कमण्डलु उत्कीर्ण है। दाहिने पावं किया गया है। देवी पावं स्थित दो स्त्री चामरधारियों में स्थित चतुर्भुज सरस्वती की ऊपरी दाहिनी व बायीं द्वारा सेवित हो रही है। इनक समीप दो उपासक प्राकृ• मुजानो मे क्रमशः कमल और पुस्तक प्रदर्शित हैं । और तियाँ उत्कीर्ण हैं। पीठिका के ऊपरी भाग मे तीर्थकर निचली दोनो भुजाये वीणा वादन मे व्यस्त है। ऊपरी भाकृति से वेष्टित है। इस चित्र के ऊपरी भाग में भाग में विभिन्न वाद्य वादन करती प्राकृतियो को चित्रित चामरधारी स्त्री प्राकृतिया मोर मालाधारी उडायमान किया गया है। देवी प्रत्येक पावं में तीन सेवक प्राकृतियों विद्याधरों का प्रकन भी ध्यानाकर्षक है । द्वार वेष्टित हैं, जिनमें से दो अतिम सेवकों के अतिरिक्त बीस भुजामों से युक्त चक्रेश्वरी का प्रकन करने सभी स्त्री प्राकतिया है । सभी प्राकृतियों की बाहरी भुजा वाली एक प्रतिमा मध्य प्रदेश के गंधावल नामक स्थान कटि पर स्थित है व अंदर की भुजा में कमल प्रदर्शित है। से प्राप्त होती है, (१३) जिसमे देवी की अधिकतर पृष्ठभाग मे अलंकृत कान्तिमण्डल से युक्त चक्रेश्वरी भुजायें सम्प्रति खडित हो चुकी है। शेष भुजानो मे अन्य दुपट्टा, मुकुट व अन्य सामान्य प्राभूषणो से सुसज्जित है। मायुधों के साथ चत्रो का प्रदर्शन ध्यातव्य है। मूनि के जैनधर्म व शिल्प में सरस्वती व प्रबिका के बाद ऊपरी भाग मे पांच पासीन तीर्थरो के साथ ही दो सबसे ज्यादा लोकप्रियता चक्रेश्वरी को प्राप्त हुई यह उडायमान गन्धवों को भी मूर्तिगत किया गया है । देवी निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा चुका है। चक्रेश्वरी के दाहिने चरण के समीप गरुड़ उत्कोण है, जिसकी वाम की स्वतत्र मूर्तिया दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत भुजा मे सर्प प्रदर्शित है। चक्रवरा का बास भुजामो से से अधिक प्राप्त होती हैं, यह तथ्य चक्रेश्वरी के उत्तर युक्त ११वी शती की एक अन्य विशिष्ट भावात दवगढ़ भारत में विशेष लोकप्रिय रहे होने की पोर सकेत करता के मन्दिर नं. १६ से प्राप्त होती है, जो सम्प्रति घम- है। चक्रेश्वरी की उत्तर भारत से प्राप्त होने वाली शाला में स्थित है ।(१४) चक्रेश्वरी ललितासन मुद्रा में मूर्तियो के अध्ययन के उपरान्त यह प्रतिपादित किया जा गरुड़ पर पासीन थी, जिसके भग्न दाहिने हाथ में देवी सकता है। कि इस क्षेत्र के कलाकारों ने प्रतिमाशास्त्रीय का दाहिना चरण स्थित था । देवी की ऊपर तीन दाहिनी निर्देशो के विपरीत चक्रेश्वरी को कई नवीन स्वरूपों मे भुजामो मे चक्र और निचली में वरद और अक्षमाला मूतिगत किया और साथ ही प्रथो मे बणित स्वरूपों के प्रदर्शित है । एक अन्य भग्न दाहिनी भुजा मे गदा, जिसका निमितो मे भी नवीनताम्रो का समावेश किया। चक्रेश्वरी ऊपरी भाग ही शेष बचा है, स्थित था, शेष दाहिनी की उपासना जैनधर्म की १६ विद्या देवियों में से पांचवी' भजाएँ भग्न है। चक्रेश्वरी ने अपनी ऊपरी दो बायी किसानीतरी तिचाप में भी प्रत्यात भजामों मे चक्र और तीसरे मे ढाल धारण कर रखा है। प्रचलित थी। विद्यादेवी के रूप में भी देवी के साथ देवी की निचली भुजा में प्रदर्शित शख के अतिरिक्त सभी गरुड और चक्र को सदैव उत्कीर्ण किया गया है। विद्या भुजायें खण्डित हो चुकी है । मूर्ति के ऊपरी भाग मे तीर्थ- देवी के रूप में उत्कीर्ण किये जाने पर चतुर्भुज प्रप्रति कर के पासीन चित्रण के दोनो पावों में क्रमशः लक्ष्मी चक्रा के चारों भुजामो में चक्र प्रदर्शित किए जाने का (बायें) पौर सरस्वती (दाए) को मूर्तिगत किया गया विधान है, जिसका निर्वाह कुछ एक उदाहरणों को छोड़है। चतुर्भज लक्ष्मी की दोनो ऊपरी मुजामों में कमल कर कलाकारों ने नहीं किया है। फलत: यक्षो चकेश्वरी पखड़ियाँ अकित है मौर निचले दाहिने व बायें हाथों मे भौर विद्यादेवी अप्रतिचका में भेदकर पाना कभी कभी मसंभव सा हो जाता है। १३. गुप्ता, एस० पी और शर्मा, बी० एन०, "गंधावल की जैन मूर्तियों", अनेकान्त, वर्ष १६, नं० १.२, १५. देखें, शाह, यू०पी०, "प्राइकोनोग्राफी मॉफ दि अप्रैल-जून १६७६, पृ० १३० । सिक्सटीन जैन महाविद्याज", जर्नल इण्डियन सोसा। १४.बुन, क्लाज, दि जिन इमेजेज पॉफ देवगढ़, यटी मॉफ मोरियन्टल मार्ट, वा० १५, १६४७, पृ०१६-१७२। पृ० १३२-३७ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा मन्दिर पनागर की प्राचीन जैन शिल्पकला कस्तूरचन्द सुमन एम. ए. मध्यप्रदेश के जबलपूर शहर से ५० मील दूर जबल कोई लेख उपलब्ध नहीं हमा है जिससे उक्त संभावना पुर कटनी रोड पर स्थित पनागर एक ऐतिहासिक स्थल सत्य प्रतीत होती है। है। यहाँ प्रधानतः गोलापूर्व और परवार जनों का प्रतिमा का बायाँ हाथ टेहुनी से भग्नावस्था में दिखाई निवास है। देता है। काले-भूरे देशी पत्थर से निर्मित इस प्रतिमा की उपलब्ध प्राचीन जैन प्रतिमानों से ऐसा प्रतिभास केश-राशि कधो पर लहराती हुई दर्शाई गयी है। श्री वत्स होता है कि १२वीं सदी के पास-पास कलचरि नरेश चिह्न यथा स्थान प्रकित है। गयाकर्ण देव के शासनकाल मे यह क्षेत्र भी जैन संस्कृति केश-राशि की रचना से प्रतिमा प्रथम तीर्थकर से प्रभावित रहा है। जैनों द्वारा प्रतिष्ठापित तत्कालीन मादिनाथ की जात होती है। ऐसी ही केशराशि से युक्त जन प्रतिमाएं प्राज अपनी मक वाणी से नगर के वैभव एक प्रतिमा नबलपुर हनुमान ताल बड़े मन्दिर में, तथा को प्रकट करती है। इन तथ्यो के परिज्ञान के लिए एक प्रतिमा कुण्डलपुर दमोह के 'बडे बाबा' के मन्दिर प्राइए-पनागर स्थित बटरिया में निर्मित बड़े मन्दिर मे में विराजमान है। देवगढ़ में भी ऐसी ही एक प्रतिमा विराजमान प्राचीन प्रतिमाओं का अध्ययन करें- माज भी विराजमान हैं, जिसका उल्लेख डा. मागचन्द्र ने अपने शोध प्रबन्ध में किया है । शान्तिनाथ प्रतिमा यह प्रतिमा जिस शिलाखण्ड पर अंकित उपलब्ध बड़े मन्दिर के (नीचे) प्रथम प्रश में दो स्थल हैं हुई है वह लगभग ५ हाथ उचा मोर २ हाथ घोड़ा है। जहाँ प्रतिमाए विराजमान है । इनमें एक कमरे मे कायो- प्रतिमा के पीछे भग्न भामण्डल हैं । चरणों के पास सेवकों त्सर्ग मुद्रा में मनोहारी एक भव्य जैन शिल्ल विराजमान है की मानवाकृतियां भी अकित रही है। सेवकों के भग्नायह प्रतिमा एक ही विशाल शिलाखण्ड पर प्रकित की वस्था में प्रवशिष्ट चरण प्रलकृत दिखाई देते हैं। प्रल. गयी ज्ञात होती है। प्रतिमा परिकर विहीन है। भग्न कारो से कलाकारो की सूक्ष्म छेनी प्रयोग का माभास परिकर के प्रवशिष्टांशों से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतिमा होता है। प्रतिमा का यदि सम्पूर्ण परिकर उपलब्ध होता के दायें वायें दोनों पोर देव मंकित रहे हैं। चरणों के तो निःसन्देह ही यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा मे महाकोशल पास उनके सेवक भी मंकित रहे ज्ञात होते हैं। प्रतिमा में एक अनूठी उपलब्धि होती। के दर्शन करने से प्रहार जैन क्षेत्र की शान्तिनाथ प्रतिमा प्राप्तिः-यह प्रतिमा कछयाने से उपलब्ध हुई बताई की प्राकृति का प्रतिभास होता है। परिकर का ऊपरी जाती हैं। इस उपलब्धि के सम्बन्ध में यह किंवदंति भी प्रश टूट गया है। प्रतिमा का प्रासन भी भग्नावस्था मे यहां प्रचलित है कि प्राचीन काल में एक व्यापारी ही है। प्रासन का वह भाग संभवतः टूट कर अलग हो कछयाने से होकर नित्य व्यापार हेतु चादर जाया करता गया है जिस पर लेख अंकित रहा होगा। यह भी सभा. था। उसे पति-जाते समय एक निश्चित स्थान पर पहुँचते वना इस प्रतिमा से अभिव्यक्त होती है कि प्रतिमा लेख हो एक पत्थर से चोट लग जाया करती थी। एक दिन विहीन ही रही होगी। कलचुरि कालीन जबलपुर हनुमान उसने उस पत्थर को निकालने का निश्चय किया। उसे तास बडे मन्दिर में स्थित प्रतिमा पर भी इसी प्रकार रात्रि मे स्वप्न पाया कि धीरे-धीरे खोदना । तसरे दिम Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२, वर्ष २५, कि.१ अनेकान्त उसने खोदना प्रारम्भ किया और उसे यह प्रतिमा उपलब्ध प्रतिमा का वर्णन भी मैंने प्रकाशित करा देना ठीक ____ समझा है। इस प्रतिमा के सम्बन्ध में श्री सिंघई मिठूलाल जी मभिलेख पनागर निवासी से यह किंवदंति भी ज्ञात हुई कि प्राप्ति लेख दो पंक्तियों में संस्कृत भाषा में नागरी लिपि के उपरान्त जब प्रतिमा को उठाने की चली तो स्वप्न में अंकित है। माया और स्वप्न के अनुसार उक्त प्रतिमा को कच्चे धागे (१)। संवत् १८५८ मीती (मिती) वसाष (वैशाख) से बांधकर छत्तरपुर की टोरिया की भोर भरत बढ़ा। सूदि १३ श्री मलसघे सरस्वनी गच्छे बलात्कार (गणे) मक्त इस स्थल तक मा पाया था कि उसका धैर्य टूट कुंदकंदाचार्यान्वये श्री भट्टारक नरेन्द्र भूषण जी पट्ट पुवाले गरा। प्रतिमा पा रही है कि नहीं इस चाह ने उस पीछे (?) रतनतउ पट्ट सात सिंघई कासीराम पुत्र सुखलाल देखने के लिए बाध्य कर दिया। कहते हैं जैसे ही भक्त ने तालौटकर देखा कि फिर प्रतिमा मागे नहीं बढ़ी। तत्पश्चात् (२) श्री-व-सवसु बाजण (जिण) मंदिर प्रतिष्ठा उसी स्थल पर प्रतिमा को विराजमान करना पड़ा। एक __ कारापिता ॥ गो उल्वद्रे से मध्ये पनागर नगरी मध्ये तिण पतिशय यह भी हमा कि एक हाथ टेहुनी से टूटकर (जिण) मंदिर गजरथ प्रतिष्ठा कारापिता। प्रतिमा का पपने पाप गिर गया। चिलिन भक्त को पुनः अतिशय स्वप्न माया कि हाथ सीरे से जोड दो"। भम ने वैसा श्री रतनचन्द्र जी गोदिया द्वारा लिखित "जैन ही किया। वह जोड़ माज भी दिखाई देता है । समाज पनागर का क्रमिक विकास" नामक कषि में पूर्व (२) निर्देशित किवदन्ति दूसरे रूप में निर्देशन की गयी हैमन्दिर के इसी प्राङ्गण मे एक पृथक् अलकृत वेदी कि जबलपूर समाज इस प्रतिमा को ले जाना चाहती पर पाश्वनाथ प्रतिमा भी विराजमान है। प्रतिमा के शिर थी। प्रयत्न किये, किन्त प्रतिमा-पचासों व्यक्तियों द्वारा पर ग्यारह फणावली से युक्त अकन है। यह पा. मागे ले जाए जाने का प्रयास किए जाने पर भी, वर्तमान सनस्थ प्रतिमा प्रतिशय पूर्ण बनाई गई है। ग्राम पंचायत कार्यालय से मागे न ले जायी जा सकी। अतिशय प्राश्चर्य कारक यह बात रही कि प्रतिमा को पीछे लौटाने इस प्रतिमा के सम्बन्ध में बताया जाता है कि किसी पर वह दो व्यक्तियों द्वारा ही पासानी से ले जायी जाने बाहरी जैनी ने इसे प्रतिष्ठित कराया था। वह इस प्रतिमा लगी। को अन्यत्र ले जाना चाहता था किन्त गाडी के बार-बार एक प्रतिशय यह भी बताया गया है कि इस प्रतिमा टूटने पर ऐसा निश्चय किया गया कि गाड़ी पर प्रतिमा को पीछे वेदी बनाकर उस पर प्रतिष्ठित किया गया किन्तु को विराजमान कर दिया जावे मोर बलों को छोड़ दिया प्रतिमा एक बार नहीं अपितु द्वितीय प्रयास में भी अपने जावे। प्रतिमा जहां जाना चाहेगी चली जावेगी। ऐसा यथा स्थान पर पाकर विराजमान होती रही। किए जाने पर बैल प्रतिमा को लेकर इस मन्दिर को भोर तृतीय अतिशय उस समय घटित हुमा जब किसी रजचल दिए फलस्वरूप प्रतिमा तत्पश्चात् इसीमन्दिर मे स्वला स्त्री का प्रतिमा से स्पर्श हुमा स्पर्श होते ही प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी। से इतना स्वेद निकला कि पच्चीसों घोतियां जल में भीग यह प्रतिमा प्राचीन नहीं है। इस पर अंकित लेख गयीं। इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी प्रेम माली था माज धूमिल सा हो गया है पढ़ने में कठिनाई होती है। मन्दिर के प्रथम प्रांगण के प्रवेश द्वार की बायीं मोर यदि यही व्यवस्था रही तो भविष्य मे यह लेख मपठनीय पार्श्वनाथ प्रतिमा के समीप विराजमान एक कलाकृति हो जावेगा। प्रतः लेख सुरक्षित हो सके इसलिए इस बहुत ही भव्य अवस्था में विराजमान है। लगभग एक Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरा मन्दिर पनागर की प्राचीन जैन शिल्पकला हाथ लम्बे चौड़े देशी पत्थर पर अंकित यह शिल्प जवल- इस मन्दिर के निचले द्वितीय अंश में एक वेदी पर: पुर हनुमानताल बड़े मन्दिर में विराजमान कलचुरि तीन प्राचीन जैन प्रतिमाएं विराजमान हैं। कालीन प्रतिमा के समान है। इस अंकन में मूलनायक पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ है । केश गुच्छक रूप में पघासन मुद्रा में ध्यानस्थ यह प्रतिमा नब फणावली दर्शाये गये हैं। विज्ञाल नेत्र, कर्ण प्रतिमा की भव्यता प्रकट से गले में कण्डनपर के 'बडे बाबा' की प्रतिमा करते हैं । गले मे त्रि रेखायें उनके रलत्रयमय उपदेश एवं समान तीन रेखायें दिखाई देती हैं। प्रतिमा के भासन धारण की प्रतीक ज्ञात होती है। प्रतिमा का परिकर कलाकृति का उत्कृष्ट रूप है। पर नवग्रह प्रतिमाएँ अंकित है। दोनो पोर चंवरधारी दो देव खड़े दिखाए गये हैं। बीच में फण फैलाए हए दो सर्व प्रथम सर्वोपरि अलंकृत दोनों पोर हाथी प्रकित है सभी प्रकित है। ये सर्प चिह स्वरूप अंकित किए गये जिनकी सूड छत्र के ऊपरी मंश का स्पर्श कर रही है। हाथियों के मध्य पिछत्र अलकत रूप में चित्रित किए ज्ञात होते है । प्रतिमा देशी पत्थर से निर्मित है। गए हैं। छत्र के सबसे ऊपर एक मानवाकृति भी अकित द्वितीय प्रतिमा दिखाई देती है जो कोलक जैसे वाद्य के बजाने में रत है। प्रतिमा तीन छत्र से सुशोमित है। दोनो मोर दो हाथा पुष्पाकृतियों पर आधारित है। पुष्पारियो के नीचे हाबी हाथियों के नीचे दो चवरषारी देव भंकित हैं। मलकृत दोनों मोर दो उडडायमान देवाकृतियां तथा उनके दोनो पोर पद्मासन तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में एक-एक नीच दो चंबरधारी देव प्रकित हैं। प्रासन पर पथमनो प्रतिमा भी प्रकित है। चिह्न विहीन मासन, जबलपुर अलंकरण के रूप में तीन कमल पुष्प की पालियां हनुमाननाल बड़े मन्दिर में विराजमान प्रतिमा के पासन उनके नीचे दोनों पोर दो सिंहाकृतियों का अंकन है। से मिलता जुलता है। कलाकृति से प्रतिमा कलधार सिंहाकृतियों के मध्य एक पुष्पाकृति भी है जिसे चिह्न नहीं कालीन ज्ञात होती हैं । प्रासन पर प्रकित दोनों पोर सिंहाकहा जा सकता है। कृतियां केवल प्रलकरण मात्र है। मूलनायक प्रतिमा के दायें-बायें कायोत्सर्ग मुद्रा में दो तृतीय मानस्तम्भ प्रतिमाएं अकित है। प्रतिमानों का प्रकन मूलनायक काले पाषाण से निर्मित यह स्तम्भ अवलोकनीय है। प्रतिमा के समान है। शिरोपरि सर्व प्रथम तीन छत्रों का इस स्तम्भ के चारों पोर १३.१३ प्रतिमाएं प्रकित की अंकन है। छत्र के नीचे सप्त फणावली से युक्त रचना गयी हैं। ऐसा ज्ञात होता है मानो नंदीश्वर द्वीप के ५२ की गई है। फणावली भग्न हो जाने पर भी उनका सप्त प्रकृतिम चैत्यालयों का दिग्दर्शन कराने के लिए ही इस संख्यक होना ज्ञात होता है। फणावली से ये प्रतिमाए स्तम्भ की रचना की गयी थी। स्तम्भ पर प्रकित प्रति. सुपाश्र्व नाथ तीर्थङ्कर की ज्ञात होती हैं । पासन पर कोई माएं तीन भागों में विभाजित है। प्रथम अंश में तीन-तीन लेख नहीं है । कलाकृति से प्रतिमा कलचुरि कालीन ज्ञात प्रतिमाएं हैं । इनमें मध्य में एक प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा में होती है। तथा उस प्रतिमा के दोनों भोर कायोत्सर्ग मुद्रा में एक-एक बहुत कुछ ऐसे ही अंकन से युक्त काले पाषाण से प्रतिमा दर्शाई गयी है। निर्मित कायोत्सर्ग मुद्रा में दो प्रतिमाएं बड़े मन्दिर के समीप मध्यवर्ती तथा निचले अंक के मध्य में एक-एक ही निर्मित एक पृथक् मन्दिर की एक वेदी पर भी विराज- ध्यानस्थ मुद्रा में तथा उसके दोनों मोर दो-दो कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमाएं विराजमान है । मासन पर दोनो भोर ये प्रतिमाएं प्रथम तीर्थकर मादिनाथ को ज्ञात होती सिंहाकृतियां है । इन प्राकृतियों के मध्य एक पुष्पाकृति है। ऐसी प्रतिमाएँ कछयाने में भी संग्रहीत हैं जिनमे यह भी मंकित की गई है। तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है। मन्दिर के द्वितीय अंश से भीतर की पोरवायत Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष २५. कि अनेकान्त गया है। पर ऊपर की वेदी में विराजमान प्रतिमाएँ : प्रकित है । परिकर का ऊपरी प्रश टूट गया है। ऊपर प्रथम चौबीसी उड्डायमान दो देवाकृतियां रही ज्ञात होती हैं। नीचे दोनो मोर दो देवाकृतियां हैं तथा उनके भी नीचे दो इस चौबीसी में मूलनायक प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य भोर २४ प्रतिमाएं अंकित की गई हैं। सभी प्रतिमाए। अलंकृत मानवाकृतियां दिखाई देती है। प्रासन टूट कायोत्सर्ग मुद्रा में काले पाषाण से निर्मित है। मूलनायक प्रतिमा के शिर पर तीन छत्र तथा पीछे भामण्डल प्रकित :: मूलनायक प्रतिमा शान्तिनाथ को नहीं : है। चिह्न के प्राभाव में मूलनायक प्रतिमा का प्रति बोध शान्तिनाथ प्रतिमा के सम्बन्ध में हम पहले ही बता नहीं होता है। माए हैं कि कंधो पर लहराती हुई केशराशि इस बात की द्वितीय पारिनाथ प्रतिमा प्रतीक है कि प्रतिमा शान्तिनाथ तीर्थङ्कर की नही है वह काले पाषाण से निर्मित यह प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा मे नोडा विनाश की। यदि शान्तिनाथ की विराजमान है। श्रीवत्स चिह्न स्पष्ट दिखाई देता है। तीनो ताह' होती तो चिह्न भी अंकित मिलता। इस प्रतिमा का परिकर किञ्चित् परिवर्तन के साथ पनागर के ही कछयाने मे स्थित संग्रहालय में समहनुमानताल बड़े मन्दिर में विराजमान प्रतिमा के समान , हीत जैन मूर्तियों को देखने से भी यह बात और स्पष्ट है। शिरोपरि मलकत तीन छत्र अकित है । छत्र के दोनो हो जाती है । उक्त सम्रहालय मे भग्नावस्था में प्राज भी मोर भलंकृत हो हाथी सवारों से युक्त मूर्तिगत किए गए मोदो मतियां उपलजिनके कंधो पर न केवल केश है। हाथियों के नीचे दोनों ओर अपने-अपने हाथों में राशि ही है, अपितु उनके पासनों पर उनका चिह्न वृषभ मालाएँ धारण किए हुए दो उड्डायमान देवाकृतियां हैं। भो अंकित है। शासन देवतामों का प्रकन भी दिखाई ये प्राकृतियां विभिन्न अलंकारो से युक्त हैं । इन देवों के देता है नीचे दोनो भोर मन्य देवाकृतियाँ अंकित है। जिनके एक यदि इस प्रतिमा का परिकर भग्नावस्था मे न होता तो एक हाथ में चंवर दिखाई देता है। इन प्राकृतियो के प्रतिमा का चिह्न तथा शासन देवताओं का अंकन भी अंगावयव अलंकारों से सुसज्जित हैं। इनके नीचे दोनो वास्तविकता को प्रकट करता। इस भाति एक ही क्षेत्र मोर दो भग्न मुद्रा में पुरुष मोर नारी को प्राकृतियां विशेष की एक सी कलाकृति की उपलब्धियों से भ. दिखाई देती है, जो सभवतः यक्ष-यक्षिणी है। शान्तिनाथ की प्रतिमा यथार्थ में भ. प्रादिनाथ की ही मासन पर दोनों मोर दो सिंहाकृतियां है। सिंहा ज्ञात होती है। कृतियों के मध्य एक पुष्पाकृति है जिसके अन्तर्गत एक वृषभाकृति अंकित दिखाई देती है। इस प्राकृति से प्रतिमा मन्दिर का नाम बड़ा मन्दिर क्यो ? प्रथम तीर्थकर मादिनाथ की ज्ञात होती है। प्रासन के . मन्दिर के नामकरण से भी यही ज्ञात होता है कि यह नीचे एक पंक्ति में लेख भी अंकित है किन्तु लेख का कुछ सर्व तीर्थङ्करों में बड़े तीर्थकर मादिनाथ के लिए निमित मंश वेदी में दब गया है । प्रक्षर भी इतने अस्पष्ट हो गए कराया गया होगा। प्रतएव इसे बड़ा "बड़ा मन्दिर' हैं कि उनका पड़ा जा सकना कठिन है। लेख में “षष्ठी सज्ञा से सम्बोषित किया जाने लगा कुण्डलपुर (दामोह) प्रतिष्ठापितं" किसी तरह पढ़ा जा सकता है। इससे प्रतिमा को बड़े बाबा की प्रतिमा भी इसी प्रकार प्रथम तीर्थकर उक्त तिथि में प्रतिष्ठापित की गई ज्ञात होती है । मादिनाथ की है। और यही कारण है कि उक्त प्रतिमा तृतीय प्रतिमा को माज बड़े बाबा' के नाम से जाना जाता है। काले पाषाण से निर्मित कायोत्सर्ग मुद्रा में यह प्रतिमा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० बखतराम शाह परमानन्द जैन शास्त्री पं० बखतराम प्रेमराज के पुत्र थे। यह चाटसू (राज- कीय घटनाए, और इनसे पूर्ववर्ती घटनाए जो सुनी-सुनाई स्थान) के निवासी थे। इनकी जाति खण्डेलवाल और थी उन्हें भी लिख दिया है, पर उनके सम्बन्ध में कोई गोत्र शाह था और धर्म था दि० जन । चाटसू से वे विचार व्यक्त नहीं किया कि ये ठीक हैं या नहीं। कारणवश सवाई जयपुर में रहने लगे थे। जयपुर मे वे यहा पर पन्थ की एक-दो घटनामो का दिग्दर्शन लश्करी मन्दिर में विराजमान ने मिप्रभु की भव्य मूर्ति का कर देना उचित समझता है। जो ऐतिहासिक दृष्टि स दर्शन किया करते थे। शाह बखतावर के ४ पुत्र थे- विरुद्ध पड़ती हैं। सेवाराम, जीवन शाह, खुशालचद और गुमानीराम । काहू समये संघ चल्यो गिरनारिकों। इनमें सेवाराम का परिचय प्रलग लिखा गया है। जीवन कुंद कुंद मुनि बहुरि श्वेत पट लारकों ॥५७३ शाह भक्ति के प्रेमी थे उन्होंने अनेक भक्ति पद बनाये साथि वुहू मतके ही पंच भये घने । हैं। जीवन शाह ने स० १८६३ मे 'बुद्धिविलास' की प्रति पहुंचे गिर तरि जाय सर्व ऐसे भने, लिखवाई थी। पहले बरसन करन तनो मगरो परचो शाह बखतराम भट्टारकीय विद्वान थे और वीस पथ मापस माझि वहन हो क प्रति रिस भरपो।।५७४ के अनुयायी थे। इन्होंने मिथ्यात्वखडन नाम का ग्रन्थ सं० १८२१ में बनाकर समाप्त किया था। इसमें तेरा वे तो कहें हमारो हो मत प्रावि है। पंथ का खंडन किया गया है । दूजे कहँ अनादि हम प्रावि है। ___ इनकी दूसरी रचना 'बुद्धिविलास' हैं जिसमें १५२६ तव प्रकास तं भई देव बानी यही। टोहा, चौपई, कवित्त छप्पय, कुंडलियां, सोरठा, पद्धड़ी, सगरत काहे मावि दिगंबर है सही ॥५७५ भुजगप्रयात, परिल्ल, गीता, सवैया प्रादि छन्दों मे पहिले वंदन करी नेमि जिनचंद की। विविध विषयों का कथन किया गया है, अथ में जयपुर जबते प्रामनाय ठहरी मुनि कुंद कोना मामेर का वर्णन राजानों का समुल्लेख, भट्टारक पट्टावलि यह घटना प्राचार्य कुन्दकुन्द के ममय की नहीं है, सघोम्पत्ति चद्रगुप्त के सोलह स्वप्न देवसेन के दर्शनसार किन्तु विक्रम की १५वीं शताब्दी के पद्यतन्दि भट्टारक के का पद्यानुवाद, हेमराज के अनुसार चौरासी बोल, खडे समय की है उम समय दिल्ली वालों का संघ मेठ पूर्णचन्द लवालो के गोत्र मादि सं० १७१७ तथा १८१८ की राज की प्रधानता में म०पयनन्दि के सानिध्य में गिरनार की १. ग्रन्थ अनेक रहस्य लखि जो कुछ पायो थाह । यात्रा को गया था, उसी समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय का बखतराम वर्णन कियो प्रेमराज सुत साह ।। संघ भी उक्त तीर्थ की यात्रार्थ प्राया हुपा था। उस समय मादि चाटसू नगर के वासी तिनको जानि । दोनों संघों में यह विवाद छिड गया कि पहले कौन बंदना हाल सवाई जै नगर माहिं बसे है प्रानि ।। करे, जब विवाद ने अधिक तुल पकड लिया, तब उसके तहाँ लश्करी देहरं राजत श्री प्रभु नेम । शमनार्थ यह 'युक्ति सोची गई कि जो सच सरस्वती से तिनको दरसण करत ही उपजत है प्रति प्रेम । अपने को 'प्राध' कहला देगा वही संघ पहले यात्रा को -मिथ्यात्वखंडन नाटक जा सकेगा। प्रतः भट्रारक पदमनन्दि ने पाषाणको सर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२५० १ स्वती देवी के मुख से 'पाय दिगम्बर' शब्द कहला दिया, परिणामस्वरूप दिगम्बरों ने पहले यात्रा की और भगवान नेमिनाथकी भक्ति पूर्वक वदना पूजा की। उसके बाद श्वेतांबर सम्प्रदाय ने की। पट्टावलि के वे पद्य इस प्रकार हैं : "पद्मनन्दि गुरु जातो बलात्कार गणाग्रणी । पाषाण घटिता येन वादिता श्री सरस्वती ।। अनेकान्त पन्त गिरीतेन गच्छः सारस्वतोऽभवत् । प्रतस्तस्वं मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनन्दिने ।" इस घटना का सम्बन्ध कुन्दकुन्दाचार्य से कतई नही क्योंकि इस घटना का समय वि० की १५वीं शताब्दी है तो इनसे कई शताब्दियों पहले हो गये हैं । इसका सम्बन्ध पद्मनन्दि नाम साम्य के कारण कुन्दकुन्द जोड़ना, निराधार है। दूसरी घटना अलाउद्दीन खिलजी के समय की है, जिसे फिरोजशाह तुगलक के समय की बतलाई गई है। जबकि सं० १३७५ में भट्टारक प्रभाचन्द हुए जब दिल्ली के पातशाह पेरोजशाह हुए थे तब चादाशाह हुए, तब भ० प्रभाचन्द्र दिल्ली पाए प्रोर उन्होंने विद्यावल से बाद जीत लिये, मोर शाह ने रोककर लंगोट लगाकर अन्तःपुर के दर्शन की बात कही धौर सब बायको ने ऐसी प्रतिज्ञा की कि हम प्रापको वस्त्रयुक्त यती मानेंगे। प्रभाचन्द्र से राघो चेतन ने वाद किया और वे उसमे पराजित हुए' पालिको बन्द कर दी, तब उन्होंने उसे बिना कहारों के चलाई । १. संवत् तेरह से पिचिहतरथो जानिये, भए भट्टारक प्रभाचन्द्र गुनवानि वै ।। - बुद्धिविलास पृ० ७८ २. दिल्ली के पातिसाहि, पेरोजसाहि जब । चांदोशाह प्रधान भट्टारक प्रभाषन्द्र तब भाए दिल्ली माझि बाद जीते विद्यार साहि रीझि के कही, करं दरसनपुर तिहि सम संगोट शिवाय फुनि चाँद विनती उच्चरी । मानि जती जुत वस्त्र हम सब भावग सौगंद करो || याही गछ मैं भट्टारक जब बहुभए, बश्य कितेक विती है गछ निकसे नये । तिनमें चलत वचन को भेद न जानियों निकसन की विधियां लिपीतो मानियों ॥ ६१॥ कविका यह सब कथन ठीक ठीक नहीं जान पड़ता, क्योंकि राघो चेतन ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। वे प्रलाउद्दीन खिलजी के समय हुए हैं। उनका वाद महासेन से हुआ था। राघो चेतन का अस्तित्व फीरोजशाह तुगलक के समय नहीं था। फीरोजशाह तुगलक का समय वि० स० १४०० से १४४५ है। हाँ, प्रभाष फीरोजशाह तुगलक के समय मौजूद थे, वे वस्त्र धारण करके भन्तःपुर मे भी गए । राघो चेतन का सम्बन्ध प्रभाचन्द्र के साथ नही था और न उनके समय राघो चेतन हुए। यह घटना महासेन के साथ घटी थी, जो पलाउद्दीन खिलजी के समय दिल्ली भाए थे । इसी तरह ग्रन्थ में जहाँ तहाँ कथन में विरुद्धता दिखलाई पडती है । ग्रन्थों में इन्द्रनन्दिके नीतिसार का भाषा पद्यानुवाद भी दिया हुआ है। उसके सम्बन्ध में कवि ने स्वयं लिखा है कि इन्द्रनन्दि का नीतिसार ग्रंथ संस्कृत पद्यों में है। मेरे अनुरोध करने पर पं० कल्यान ने, जो संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान और तर्क वाले थे। इतिहास सम्बन्धि कुछ बातों का ज्ञान रखते थे । उनका प्रथं बतलाया, तब मैंने उसका अनुवाद किया । ग्रन्थ निर्माण के सम्बन्ध में कवि ने लिखा है कि उस समय जयपुर में गुणकीर्ति नाम के एक मुनि थे, जो तप का अनुष्ठान करते थे । उन्होंने मुझसे कहा कि तुम एक ग्रन्थ बनाओ, जिसमें जैन पन्थ का संघ गण गच्छादि की उत्पत्ति भोर उनके भेदों का वर्णन हो, महावीर से लेकर अब तक की पट्टावली, आवकों के साँप गोत्र वगैरह धौर धन्य मनेक घटनाओं का वर्णन समाविष्ट करो। साथ ही पांवाड, संतोषराम, भांवसा रूढामल प्रादि अनेक श्रावकों ने भी ग्रंथ बनाने की प्रेरणा की। तब मैंने इस ग्रन्थ को बनाने का उद्यम किया है। ग्रंथ में अनेक ऐतिहासिक घटनाएं लिखने का ३. प्रावतपुर में मनिर्धारि विषाद राघो चेतन प्रति किय विवाद पालिकी बंद कर दी लवार दही चलाय मुनि बिन कहार ।। ६०२ ।। राघो चेतन ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, जो मन्त्र-तन्त्रवादी थे । मोर मलाउद्दीन खिजली के समय दिल्ली प्राये थे । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश की एक अज्ञात कथा-रचना डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री भारतीय साहित्य में प्राकृत और अपभ्रश कथा- सामाजिक परिवेश में चित्रित की गई है। घटनाएं साहित्य प्रत्यन्न समृद्ध है। यह कथा-साहित्य जन-मानस मामान्य होने पर भी लोक सांस्कृनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मे शत-सहस्राब्दियो से प्रचलित रहा है। इसमे न केवल है। कथा रचना-पाकार में सांस्कृतिक विवरण को समेट धार्मिक और सामाजिक जीवन का वरन् लोक-सस्कृति नहीं पाई है, किन्तु सकेत प्रवश्य मिलते हैं । जैन साहित्य का परिवेश भी चित्रित किया गया है। अधिकतर कथाए में इस प्रकार की अनेक कथाएं मिलती हैं जो मल में लोक-जीवन से ली गई हैं। कथावस्तु और भाषा दोनों ही लोक कथाएं थी और जिनमे कथानक रूढ़ियाँ तथा कथालोक-जीवन की स्वाभाविकता को सहेजे हुए हैं। लोक-भिप्राय सहज रूप में निबद्ध है। भारतवर्ष में ही नही, जीवन के चित्रण में स्थानीय रग-रूपो की झलक भी सभी देशो मे कथा-साहित्य मौखिक रूप में प्रचलित रहा मिलती है। इन कथानो मे नायक व चरित्र सामान्य है, जिम उसके विभिन्न रूपान्तरण प्राप्त होते है। जीवन के हैं। यर्याप निम्न वगं के जीवन से उनमे कुछ प्रादित्यवर कथा का पाठ निम्नलिखित है :विशिष्ट पौर असाधारण कार्य भी लक्षित होते है, किन्तु पासाजणह पय पणविवि सरसह चित्त परि । वे इतने असाधारण नही है जो सामान्य जीवन में न मिल सुह वयहफल प्रक्खमि णिसुण भाव करि ।। सकते हों। मध्ययुगीन भारतीय साहित्य में सामन्त वर्ग भरह खित्ति महिमंडल वाणारसि जु पुरी। का चित्रण करना एक सामान्य प्रवृत्ति थी, जिसकी विशेष जीवदयावय पारउ सेटिवि तहि गयरी ।। ताएं अपभ्रंश-साहित्य में भी मिलती है। गुणवय कतहि रत्तउ रेसि गंवण जणिया । प्रस्तुत 'प्रादित्यवार कथा' एक ऐसी ही कथा-रचना वाण पूय सुपयासिवि विवहे तणु गणिया ।। है, जो भाषा काव्यों के लिए एक प्रादर्श (मॉडल) रही एकहि दिणि सा सेठणि चेईहर गया। है और जिसमें जन सामान्य की घटनाएं एक धार्मिक व ___ण्हवण पूजहि प्रवलोय वि संठिनबह सहिया । उपक्रम किया गया है। परन्तु लेखक ने लिखते समय मणि सिखंत पढतहि रविवउ बजरिउ । उनकी जांच नहीं की। इस कारण कुछ सुनी सुनाई जो किज्ज नवरसहि हियए तं परिउ ।। बातो का भी समावेश हो गया है फिर भी कवि का प्रयत्न धम्मसवणु बहु णिसुणिवि चेए धरि गइया । सराहनीय है। अन्य में जयपुर नगर का अच्छा वर्णन पुण्णक्खय वउ णिविवि उग्गदुग्गणि भइया ।। किया है। किन्तु कविता सरस नहीं है साधारण कोटि की महणिसि महि विसूरह किम कीयो वइया । है। कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० स०१८२७ मार्ग- घर परियण सबु छंडिवि पुत्त वि पहि चलिया ।। शिर शुक्ला द्वादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में समाप्त प्रवधि हि ते वि पहत्ते बहु दिणि गमण करे। को है जैसा कि उसके पद्यों से स्पष्ट है : सुयण वितरि णालोपहि समरिउ चित्त घरे ॥ संवत् पठारह शतक ऊपर सत्ताईस । तह जिणभसउ वणिवरु बहुलच्छो सहिया । मास मांगसिर पखि सुकल तिथि द्वादशी लहोश । सूरो गमि ते दुग्गइ तह मंदिर गया ।। नखित पश्विनी बार गुरु सुभ महाख के मदि। अणकंपा सहि सेठहि णा प्रबहेरि किया। पंथ अनूप रच्यो पद ह ताक संबसिदि॥* साहमी जाणेप्पिणु मंदिर सठ किया। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ वर्ष २५, कि० १ तिण लक्कउ ते प्राणहि उपरवि गवि भरहि । जगतमिति दहिसर । मुनिबर एक पर भोषण देखि पुच्छिउ पनि परवि सिंह संच मुनिवर संपद्दहि दुखर भ्रागमण ।। जिसुनिवि मुणि जयद वियि परिवि म विवर णं तुम्मि निदिउ तं रोक वि भयो । मुर्णाह वयणु प्रहारिवि सुणहु वि वउगहिउ । पासमा पित हि वीरह पहवण करे | पव पत्र प्रबविजौरा ठविहत भाव परे । मासाहि प्रारंभ व एक बरि किपट || एव भक्ति सह सोले रोड वि सह गयो पुणवरि एउ कहाणउ णयरहि अवहि गयो || गुणधर भागन पासह भोजन बगिय तिमहि भार से भावहिन माह तह ॥ 1 रत्तणयण जब जंपिउ सप्पधाण गयउ घास । पिट से आप दांत विखंडित विवरय हुतउ ।। उगंच दिसि बेडियर परि भाव बने भंछियो । बुटु बि पिसुन खल अंकुराजेय प्राणहि ग्रहमर पावखल || एम वचन सुरिया तहि गयो । कालय विसायण फणिवर निहि पिट | महरवयण बोलेfप्पणु नाम वि लेणिथियो । तहि भवसरि पायाले घरणिहि चित्त ठिउ || पासह सूजा समरवि रयण वि पंच तह । उज्जल मोतीहार वि वि वि दिष्ण लहू ।। लेवि सोवि घर प्रायो बंधव उरय मण | पण विनर कहि जहि देव जिगु ॥ णयरि मज्झ सुणि वत्त वि राइ बोलविया । तुम्म बालिही प्राये लच्छी कहि लहिया || पुष्पाहि फल तहि पक्कि राव विहरसियत । गुणधर मुंह भवलोय वि कष्ण समहियउ || यो हो राय विविनथियो । तहि अवसर ते बाल वि बाणारसि गइया | " बहु दिण मंदिर व सेठि विविध विक्ति पहिया । पंचमहन्वय पालिदि मुसि-रमणि लहिया || कष्णहीण दोष कृष्णा बासी पहि अनेकान्त पोमनंदि उबएस धजण इम कहिये || जो इह पढेर पढाइ शिवपुर सो लहिये ॥ १॥ इतिषी भावित्यवार कथा समाप्त ॥ उक्त रचना के लेखक अर्जुन कवि हैं । कवि ने भट्टारक पद्मनन्दि के उपदेश से यह कथा रची थी । कवि के ही शब्दों में : पोमनदि उसे सजण इम कहिये । 14 अपभ्रंश की रचनाओं में मुनि पद्मनन्दि के नाम से जो उल्लेख मिलते है वे अधिकतर चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दी के मुनिराज पद्मनन्दिके है कवि हरिचंद ने स्पष्ट रूप से उनका नाम निर्देश किया है :पण मुणिह गणबहु, चरणसरणु गुरु कह हरिइंबहु ( वर्द्धमान चरित) पडित परमानन्द जी जैन शास्त्री ने उनके समय का विचार करते हुए लिखा है कि वि० सं० १४७४ में पचनन्दि द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति लेख उपलब्ध है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पचनन्दि ने वि० स० १४७४ के याद और वि० सं० १४७९ से पूर्व किसी समय शुभचंद को पट्ट पर प्रतिष्ठित किया था' मूर्ति लेखों में मी १४०५-०६ के कई उल्लेख मिलते हैं, जिनके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में मुनिश्री पचनन्दि जीवित थे। लगभग उसी समय में प्रर्जुन कवि ने उक्त प्रादित्यवार कथा लिखी होगी। यह वही समय है, जब धाधुनिक भारतीय पायें भाषामों में खड़ी बोली मपना रूप ग्रहण कर रही थी। इसके पूर्व खड़ी बोली के निदर्शन रूप में इतने स्पष्ट ध्वनि-रूप परिलक्षित नहीं होते। मतएव भाषा की दृष्टि से यह रचना उन भाषिक रूपों को द्योतित करती है, जिनसे स्पष्ट ही खड़ी बोली और वर्तमान हिन्दी का विकास हुधा । इस प्रकार रचना छोटी होने पर भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। १. पं० परमानन्द जी शास्त्री : राजस्थान के जैन सन्त मुनि पचनम्दी, अनेकान्त वर्ष २२, किरण ६ पृष्ठ २६४ । , Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर का नया प्रकाशन : जैन-लक्षणावलो (पारिभाषिक शब्द-कोश) प्रत्येक व्यक्ति के पढने तथा मनन करने योग्य जैन पारिभाषिक शब्दकोप बहत परिश्रम से तैयार किया गया यह शब्द कोश स्वाध्याय प्रेमियो के लिए अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तकालयो और ग्रथालयों के लिए प्रत्यावश्यक है। इसका स्वरान्त (असे प्रौ तक) प्रथम भाग छप कर तैयार हो चका है। इसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के लगभग ४०० ग्रन्थों से पारिभाषिक शब्दों को संकलित किया गया है। इन ग्रन्थों से जो उसमें लक्षण संगहीत है उन्हें यथासम्भव कालक्रम से रखा गया है। यह गोध-खोज करने वाले विद्वानों के लिए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ समझा जायगा । साथ ही वह तन्व जिज्ञासूत्रों के लिए भी उपयोगी है। विवक्षित विविध लक्षणों में से १-२ ग्रन्थों के प्राश्रय से प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद भो प्रत्येक नाक्षणिक शब्द के नीचे दे दिया गया है। प्रस्तावना में १०२ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो का परिचय करा दिया है तथा परिशिष्ट में ग्रन्थकारों के काल का भी निर्देश कर दिया गया है। छपाई उत्तम और पूर्णरूप से कपड़े की सुन्दर व टिकाऊ जिल्द है। बड़े आकार में पृष्ट मख्या ४४० है । लागत मूल्य रु० २५-०० रखा गया है। वीर सेवामन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली-६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 0591/82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन ६ पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्यो मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों का सूची । सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. आध्ये एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, मजिल्द । १५.०० माप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० स्वयम्भस्तोत्र . समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवपणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २-०० स्तुतिविद्या ' स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पौर श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-महित । १-५० मध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित युक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हया था। मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । शासनचस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ' जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्यो की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलकृत, सजिल्द । ... समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दोसीक सहित ४.०० मनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तारश्री के ही पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तत्त्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद तथा बास्या स युक्त । श्रवणबलगोल और दक्षिण के प्रन्य जैन तीर्थ। ... १-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक का मूल्य .२५ अध्यात्मरहस्य : पं० प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० मैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२.०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द कसायपाहुडसुत्त: मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठो में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । Reality : मा. पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में पनुवाद बड़े माकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया प्रकाशक-वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित । २५ २० Page #52 --------------------------------------------------------------------------  Page #53 --------------------------------------------------------------------------  Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २५ : किरण २ अकात समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख्-पत्र भगवान पार्श्वनाथ, राम ज जून १६७२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋ० । जैन-लक्षणावली (पारिभाषिक शब्द-कोश) ७१ विषय-सूची | वीर-सेवा-मन्दिर का नया प्रकाशन : विषय १. वर्धमान जिन सवन-समन्तभद्राचार्य २. मुक्तक काव्य दोहा-पांडे रूपचन्द ३. सल्लेखना या समाधिमरण - परमानन्द जन शास्त्री ५१ । प्रत्येक व्यक्ति के पढने तथा मनन करने योग्य ४. राजस्थान के जैन कवि और उनकी रचनाए- जैन पारिभाषिक शब्दकोप बहत परिश्रम में तैयार डा० गजानन मिश्र एम. ए. पी, एच. डी ६२ / किया गया यह शब्द कोश स्वाध्याय प्रेमियों के ५. कलचुरि कला में शासन देवियाँ -शिवकुमार । लिए अत्यन्त उपयोगी है । पुस्तकालयों और ग्रथा. नामदेव (शोध छात्र) ६६ | लयों के लिए प्रत्यावश्यक है। ६. कालकोट के दुर्ग से प्राप्त एक जन प्रतिमा-- इसका स्वरान्त (ग्र से नौ तक) प्रथम भाग डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री छर कर तैयार हो चका है। इसमें दिगम्बर और ७. गोलापूर्व जाति पर विचार -- यशवनकुमार श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के लगभग ८०० ग्रन्थों मलया से पारिभाषिक शब्दों को संकलित किया गया है। ८. गुप्तकालीन ताम्रशासन इन ग्रन्थों से जो उममें लक्षण मंगहीत है उन्हे परमानन्द जैन शास्त्री यथासम्भव कालक्रम में रखा गया है। यह गोध खोज करने वाले विद्वानो के लिए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ६. पोदनपुर-१० बलभद्र जैन न्यायतीर्थ १०. ० शीतलप्रसाद और उनकी साहित्य माधना समझा जायगा। साथ ही वह तत्व जिज्ञामुग्रो के श्री पन्नालाल जैन अग्रवाल लिए भी उपयोगी है। विवक्षित विविध लक्षणों में से १-२ ग्रन्थों के प्राश्रय में प्रामाणिक हिन्दी ११. सम्पादकीय नोट-परमानन्द शास्त्री १२. साहित्य-ममीक्षा-परमानन्द शास्त्री टा. पृ. ३ अनुवाद भी प्रत्येक लाक्षणिकशब्द के नीचे दे दिया गया है। प्रस्तावना में १०२ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का परिचय करा दिया है तथा परिशिष्ट में ग्रन्थकारी अनेकान्त के ग्राहकों से के काल का भी निदंग कर दिया गया है। छपाई प्रशान्त के सभी ग्राहकों का मूल्य गत किरण एक उत्तम और पूर्णरूप मे कपडे की सुन्दर व टिकाऊ के साथ समाप्त हो गया है। २५वे वर्ष की दूसरी जिल्द है। बड़े आकार में पृष्ठ मख्या ४४० है। किरण भेजी जा रही है। अतः ग्राहको से सानुरोध लागत मूल्य रु०२५-०० रखा गया है। निवेदन है कि वे अनेकान्त के २५वे वर्ष के ६) रुपया वीर सेवामन्दिर मनी बार्डर से भिजवा कर अनुगृहीत कर। जिन्होने २१, दरियागंज, दिल्ली ६ प्रभी वार्षिक मूल्य के ६) रुपया नहीं भिजवाए है वे शीघ्र ही भिजवाने को कृपा करे । अन्यथा अगला प्रक ७-५० की वी. पी. से भेजा जावेगा। सम्पादक-मण्डल व्यवस्थापक 'प्रनेका त' डा० प्रा० ने० उपाध्ये वोर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज डा० प्रेमसागर जैन दिल्ली श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री अनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम्पादक अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक अनेकारस एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् महम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २५ किरण २ बोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६८, वि० स० २०२६ 6 मई-जून १९७२ वर्धमान-जिन-स्तवन __(मुरजबन्धः) धीमत्सुवन्धमान्याय कामो द्वाषित वित्तषे । श्रीमते वर्धमानाय नमो नमित विद्विषे ॥ नामदेव क्षमाजेय धायोद्यमित विज्जुषे । श्रीमते वर्धमानाय नमोन मित विद्विषे ॥ -प्राचार्य समन्तभद्र अर्थ-हे वर्धमान स्वामिन ! आप अत्यन्त बुद्धिमानों-चार ज्ञान के धारी गणधरादिकोंके द्वारा वन्दनीय और पूज्य है। आपने ज्ञान की तृष्णा को बिल्कुल नष्ट कर दिया है-आपको सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त हो ग है जिससे आपकी ज्ञान विषयक समस्त तृष्णाएं नष्ट हो चुकी हैं, माप अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग लक्ष्मी से युक्त हैं और आपके शत्र भी आपको नमस्कार करते हैं-पापकी अलोकिक शान्ति तथा लोकोत्तर प्रभाव को देखकर आपके विरोधी वैरी भी आपको नमस्कार करने लग जाते हैं। अतः हे प्रभो! आपको मेरा नमस्कार हो ।।१०२ अर्थ-हे भगवन ! आप इन्द्र चक्रवर्ती अादि प्रधान पुरुषों के भी देव-इन्द्र हैं. आपका क्षमा गुण सर्वथा अजेय है पाप तेज से प्रकाशमान केवलज्ञान को प्राप्त हए हैं, आपकी मति-ज्ञान सम्पत्ति समवसरणादि लक्ष्मी से उपलक्षित है। आपके द्वारा प्रचलित मोक्षमार्ग हमेशा बढता रहता है अथवा प्रापका पुण्य उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, आप लक्ष्मी से परिपूर्ण है। तथा मतिभूत आदि क्षायोशमिक-अल्प ज्ञानों को दूर करने वाले हैं। अतः आपके लिए नमस्कार हो ॥१०३ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तक काव्य दोहा अध्यात्मी पांडे रूपचन्द बकरे तुम चापि यह करत नीच के काम । पर घर फिरत जु लघु भए, बहुत धराए नाम ॥३३ अपने ही घर सब बड़े पर घर महिमा नाहि । सिव के मरु भव के रहें, फेरु कितो इहि मांहि ॥३४ सिव छांई भव हाडहू, यह व तिहारो जान । राजतने भिक्षा भमै, सो ते किया कहानु ॥३५ चेतन तुम प्रभु जगत के, रंक भए बिललात । बंठे चौक जू चाट हू, चू न सक्यो लजात ।३६ वेतन तुमहि कहा सदी, रतनत्रय निधि दावि । रहे दोन हुइ कृपण ज्यों, कहा वहै फलु भावि ॥३७ प्रथम प्रचेतन मनु प्रसुचि, करइ मिल महि हानि । चेतन तन मो वसत हो, कहा भलाई जानि ॥३८ तनकी सगति जरत हो, चेतन दुख मरु ढाप । भाजन संग सलिल तप, ज्यों पावक माताप ॥३६ क्षीर नीर ज्यों मिल रहपो, कौन कहै तनु प्रौर। तुम चेतन समझत नहीं, होत मिले महि चोर ॥४० भिन्नु भयो भीतर रहै, वाहिर मिल्यो न काउ । पर परतीत न मानिए, शत्र न चूको दाउ ॥४१ पर की संगति तुम गए, खोई अपनी जाति । पापा. पर न पिछान हू, रहे प्रमादनि माति ।।४२ सहज प्रकृति तुम परिहरी, पकरी पर की वानि । प्रकृति फिर.ज्यौं पुरुष को, होइ सरवथा हानि ॥४३ जो कछुकर सुपर करं, करंज तुम्हरी छांहि । दोष तिहारे सिर चढ़े, तुम कछु समुझत नांहि ।।४४ पर सौ खंग कहा कियो, पर ते मानव होय । सवर परके परिहर, विरला बूझ कोय ॥४५ पर संजोग ते बंध है, पर वियोग ते मोख। चेतन.परहि मिले तुम्हें, लागतु हैं सब वोषु ॥४६ चेतन तुम तो सुजान हो, जड़ सौ कहा सनेह । जड़ ज्ञानहिं क्यों बनत है, मेरे मन संवेहु ॥४७ अपनों ई अपनी भलौ, अपने मोर न कोय । कोकिल कागु जु पोषियो, सो कागनि कुल होय ॥४८ स्व-पर-विवेक तुम्हें नहीं, परसों कहत जु प्रापु। चेतन मति-विभ्रम भयो, र विर्ष ज्यों मांपु ।।४६ चेतन तुम बेसुध भए, गए प्रपनपो भूलि । काहू तुम्हरे सिर मनों भेली मोहन पू॥५० मोह मते तुम प्रापको, जानत हो पर दव्य । ज्यों जन्मा त्यों कनक को, कनकुइ देखद सम्वु ॥५१ भ्रमत भुल्यो अपनपो, खोजत किन घट मांहि । विसरी बस्तु न कर चड़े, जो पेखहु पर चाहि ।।५२ घट भीतर सो मापु है, तुमहि नहीं कछु यादि । वस्तु मूठि भ्रम भूलिके, इत उत ढूढत वादि ॥५३ पाहन माहि सुबर्ण ज्यों, दारु विर्ष हुत-भोज। तिम तुम व्यापक घट विष, देखह किनकरि खोजु ॥५४ पचपन' विष सुवास ज्यौं, लिन विर्ष ज्यों तेल । तिम तुप घट महि रहत हो, जिनु जान यह खेलु ॥५५ वर्धन जान चरित्र में, बस्तु वसं घट मांहि । मरख मरमु न जान ही, बाहिर खोजन जाहि ॥५६ वर्शन ज्ञान चरित्र बे, बचनहि मात्र विशेष । बहन पचन अरु तपन ज्यों, प्रगनि ए पाहि मशेष ॥५७ दर्शन ज्ञान चरित्र कों, गहिये वस्तु पमाणि । पारो भार चीकनो, ज्यों कंचन पहिचानि ॥५८ दर्शन वस्तु जो देखिए, अरु जानिये सुज्ञानु । चरन सुरह निजतिहिविर्ष, तीन्ह मिले निरवान ॥५९ रत्नत्रय समुदाय विनु, साध्य सिद्धि कछु नाहि । प्रध-पंग अरु पालसी, जुदे जरहिं वव मांहि ॥६० एक जु ज्ञायक वस्तु है, साध्यनु साषकु सोय । मिरविकरूप हुइ लेइए, सिद्धि सरवथा होय ॥६१ वर्शन ज्ञान चरित्र जे, तीनिउ सापक रूप । ज्ञायक मात्र जु वस्तु है, ताहो के ति-स्वरूप ॥६२ कास रहित रस रहित है, गंध रहित जू अनूप । मह प्रतीति प्रमामिए वस्तु सुशायक रूप ॥६३ विषय नियत प्रति मन विष, प्रतिभासं जु कोय । अपने रस जो लवण ज्यों, विश्व विर्ष चिद्रूप ॥६४ १. अग्नि, २. पुष्प। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना या समाधिमरण परमानन्द जैन शास्त्री जो मानव प्रात्म-कल्याण की भावना से गृह कार्यों में मूल कारण है। कषाय की कृशता का अर्थ स्वरूप की सदा उदासीन रहता है, देह भोगों से वैराग्य द्वारा उसे सावधानी अथवा चिद्रूप की तन्मयता है प्रौदयिक भावों बराबर पुष्ट करता रहता है, व्रताचरण में अनुराग रखता का रुकना अपने भाधीन नहीं है, किन्तु उन मौदयिक है । कषाय शत्रुषों के फदे से अपने को बचाना चाहता है, भावों को मनात्मीय समझ उन मे हर्ष-विषाद रूप प्रवृत्ति न अथवा राग-द्वेष के परित्याग के लिए चारित्र. धर्म का करना प्रात्मीय पुरुषार्थ है । सल्लेखना मे प्रात्म पुरुषार्थ पाचरण करना अपना कर्तव्य मानता है। देव शास्त्र । की प्रधानता है, क्योकि कल्याण का मार्ग प्रात्मा है, बाह्य पौर गुरु की श्रद्धा के साथ तत्त्वज्ञान का अभ्यास कर क्षेत्र नहीं । अनादिकाल से प्रात्मा को बाह्य साधनों की वस्तु स्वरूप को जानने का निरन्तर प्रयास करता है। भोर रहने से वह अपने स्वात्म-सूख से वंचित रहता है। जो श्रावक के द्वादश व्रतों का तत्परता से अनुष्ठान करता प्रतः उसे कषाय कृशता-रस शोषण-द्वारा स्वात्म-सुख है, अथवा अन्तर्बाह्य ग्रन्थि (परिग्रह) को छोड़कर दिगम्बर की ओर प्रवृत्त करना ही कषाय सल्लेखना का प्रयोजन बनकर तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन का अनुष्ठान करना है। इसी से कषाय सस्लेखना को महत्व दिया गया है। है तथा अन्तर विवेक द्वारा वस्तु तत्व का विचार करता शरीर की कृषता बाह्य सल्लेखना है। पर मध्यात्म हुमा अपनी इच्छाओं को सीमित बनाता जाता है, इन्द्रिय दृष्टि से शरीर को कृशता और पुष्टि अपने भाधीन नहीं विषयों का कठोरता से दमन करता है और निदोष व्रता- है। कर्मोदय उसमे मूल कारण है, शरीर पर है, पुद्गल चरण करते हुए जीवन की अन्तिम दशा मे 'मारणान्तिकी. का परिणाम है, ऐसा होते हुए भी मोहवश हमारी प्रवृत्ति संल्लेखनां जोषिता' वाक्य का स्मरण कर सल्लेखना या शरीर की पोर ही रही है। हम उसे अपना मानकर समाधिमरण की निरन्तर भावना करता है और अन्त उसमे राग करते पाये हैं। प्रतः अन्त समय पाने पर समय पाने पर या उपसर्ग, दुभिक्ष तथा मृत्यु के अनिवार्य उसका राग परिणाम विकृति का कारण हो सकता है। कारण रोगादिक उपस्थित होने पर शरीरादि से मोह का इसी से महापुरुषों ने उससे स्नेह का त्याग करना बतपरित्याग करता है और समता भाव से शरीर का परि लाया है। त्याग कर व्रतादिक की सफलता चाहता है। और उसके १ का सफलता चाहता है। और उसके सल्लेखना का प्रयोजन लिए प्रयास करता है। सल्लेखना का प्रयोजन उपसर्ग, दुभिक्ष, जरा (बुढ़ापा) सहलेखना और रोग की प्रतिकार रहित अवस्था मे, अथवा अन्य ___ सम्यक प्रकार से काय और कषाय को कृश करना कोई भीषण विपदा पाने पर अपने रत्नत्रय रूप धर्म की सल्लेखना है। सल्लेखना दो प्रकार की है। काय सल्ले रक्षा के लिए विधिवत् शरीर का परित्याग करना सल्ले. खना भौर कषाय सल्लेखना। इन दोनों में कषाय सल्ले- खना है। अन्त समय मे-शरीर का परित्याग करते खना का महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि उसका सम्बन्ध उन समय-स्वरूप में प्रायः सावधानी नहीं रहती, अनेक बाह्य कषायात्मक विभाव परिणामों से है जो प्रान्तरिक ज्ञान १. उपसर्गे दुर्भिक्ष जरसि रुजायां च निष्प्रतिकारे । दर्शन शक्ति का घात करते हैं। उसी से प्रात्मा मे इष्ट धर्माय तनुविमोचनमाहु सल्लेखना मार्या ।। मनिष्ट की कल्पना होती है। यह कल्पना ही दुःख का -रत्नकरन्ड श्रावकाचार . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२, वर्ष २५, कि० २ भनेकान्त कारणों से चित्त विक्षिप्त हो जाता है। कषाय भाव रखता है और समाधि मरण की भावना रखता है। जब जागृत हो जाते हैं । उससे जीवन भर जो कुछ अच्छे कर्म शरीर स्वस्थ न रहे. रोगादि होने पर उसका प्रोषधादि द्वारा सम्पन्न किये है-धार्मिक अनुष्ठान किये हैं-उन सब रोग का प्रतिकार न हो सके और वह बढ़ता ही रहे, ऐसी पर पानी फिर जाता है । इसी से महापुरुषों ने शरीर का स्थिति में साधक को उसका परित्याग करना ही श्रेयस्कर परित्याग करते समय पूर्ण सावधानी रखने का निर्देश है। इतना तो सुनिश्चित है कि सम्यग्दर्शन, सम्यक् ग्यान, किया है । स्वरूप की सावधानी बनाये रखने के लिए मम्यक चारित्र और सम्यक् तप इन चार प्राराधनामों का सल्लेखना का उपक्रम किया गया है और उसका एक मात्र निर्दोष पालन करते हुए शरीर छोड़ने पर जो उत्तम प्रयोजन मानव जीवन की सफलता है। उसके बिना यह लाभ मिल सकता उसके प्रति प्रयत्न करना जरूरी है। जीव अनन्त बार मरण कर अनेक कुगतियों में जन्म लेकर सांसारिक दुःखों को सहता है। उनसे बचने पोर जीवन प्राचार्य ममन्तभद्र (विक्रमी दूसरी-तीसरी शताब्दी) ने भी जीवन में अनुष्ठित तपों का फल अन्त मे पुर्ण शक्ति में किये गये व्रत, उपवास, संयम और इच्छा निरोध रूप के साथ सल्लेविना करना बतलाया है। तप, दान, पूजा पादि शुभ कर्मों द्वारा होने वाले पुण्य फल के माथ समता भाव की वृद्धि के लिए समाधि मरण प्राचार्य पूज्यपाद ने भी सल्लेखना के महत्व और करना प्रावश्यक है। वैसे तो प्रायु मे से जितना समय पावश्यकता पर जोर दिया है। और लिखा है कि 'मरना रोजीना व्यतीत होता है वह नित्य मरण है, परन्तु उस किसी को इष्ट नहीं है जिस तरह सोना, चाँदी, रत्न, जवाहिरात और बहुमल्य वस्त्र आदि का व्यापार करने नित्य मरण के होते हुए जीवात्मा यह भावना करता वाले किसी व्यापारी को अपने उस घर का विनाश इष्ट रहता है कि-'मे समाहि मरणं होउ, सुगइ गमणं होउ, नही है । जिसमे बहुमूल्य वेश कीमती चीजे भरी हुई हैं। दुक्खखय होउ' अथवा अरिहंतादि परमेष्ठियो ने जो यदि किसी कारणवश कोई विनाश का कारण उपस्थित हो शाश्वती गति प्राप्त की है वह गति मुझे प्राप्त हो, यह जाय, तो भी वह उसकी पूरी रक्षा करने का प्रयत्न करता भावना कितनी महत्वपूर्ण है जिसे वह निरन्तर भाता है। है और यदि कारणवश रक्षा का उपाय सफल नहीं होता सल्लेखना की महत्ता तो उसके घर मे रखे हुए बहुमूल्य पदार्थों के सरक्षण सल्लेखम की महत्ता का प्रमाण यह है कि महापुरुषों करने का पूरा प्रयत्न करता है और घर को विनष्ट होने को कायक्लेशादि तपश्चरणो, अहिंसादि व्रतो के निर्दोष से बचाता है उसी तरह व्रत शीलादि सद्गुणों का भाचरण अनुष्ठानादि द्वारा जो फल प्राप्त होता है वह फल जीवन और संचय करने वाला व्रती श्रावक अथवा साधु भी उन के अन्तिम समय में सावधानी से किये गए समाघि मरण व्रतादि गुणो के आधारभूत शरीर का पौष्टिक आहार से जीवों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। और सारा प्रौषधादि द्वारा रक्षा करता है । उसका विनाश उसे इष्ट जीवन वतादि के पालन में लगा देने पर भी यदि अन्तिम नहीं है। यदि व्रत विनाश के कारण असाध्य रोगादि जीवन मे समता भाव पूर्वक मरण न किया और न कषायों के रस सुखाने का यत्न किया और वैसे ही शरीर छोड उत्पन्न हो जायं तो भो उनको यथासाध्य दूर करने का दिया तो उससे जो लाभ मिलने वाला था वह उससे प्रयत्न करता है। पर जब वह देखता या अनुभव वचित हो जाता है। अतः साधक हर समय सावधानी करता है कि उनका दूर करना अशक्य है और शरीर की रक्षा भी अब सम्भव नही है, तब वह प्रात्मा के अमूल्य १. यत्फल प्राप्यत सद्भिज्ञतायास विडम्बनात् । गुणों की रक्षा सल्लेखना द्वारा करता है और शरीर को तत्फल सुख साध्य स्यान्मृत्युकाले समाधिना ।। तप्तस्त तपश्चापि पालितस्य व्रतस्य च । १. अन्त: क्रियाधिकरण तपः फल सफलदशिनः स्तुवते । पठितस्य श्रुतस्यापि फल मृत्युः समाधिना ॥ तस्माद्याद्विभवं समाधिकरणे प्रयतितव्यम् ।। -मृत्युमहोत्सव श्लोक २१-२३ -रत्नकरण्ड ५२ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना या समाधिमरण ५३ नष्ट होने देता है। अन्न-पान को धीरे-धीरे कम करते हुए छोड़ा जाता सल्लेखना के भेद है उसे भक्त प्रत्याख्यान या सल्लेखना कहते हैं। इसका जैन ग्रन्थों में शरीर का त्याग तीन प्रकार से बत- उत्कृष्ट काल बारह वर्ष और मध्य काल अन्तमुहर्त से लाण है । च्युत, च्यावित और त्यक्त । लेकर बारह वर्ष के भीतर का काल है। और जघन्य आयुष्य के पूर्ण होने पर शरीर का स्वतः छूटना काल मन्तमहतं है। इसमें साधक प्रात्मस्वरूप के भति. ध्यूत है। च्यावित-विषय भक्षण, रक्त-क्षय, शस्त्र-घात, रिक्त समस्त पर वस्तुमों से राग-द्वेषादि का परित्याग संक्लेश अग्निदाह, जल प्रवेश, गिरि पतन घात क्षय करता है और अपने शरीर की सेवा स्वयं करता है और पादि मिमित्तों से शरीर छोड़ना च्यावित है। दूसरों से भी कराता है। त्यक्त शरीर में रोगादि हो जाने और प्रसाध्यता तथा भक्त प्रत्याख्यान के दो भेद है, सविचार भक्त प्रत्यामरण की प्रसन्नता होने पर विवेक सहित संन्यास रूप ख्यान और अविचार भक्त प्रत्याख्यान । परिणामों से शरीर छोडा जाता है वह त्यक्त है। इसी इगिनी मरण करने वाला क्षपक अपने शरीर की को समाधि मरण, वीर मरण, पडित मरण या सहले खना परिचर्या एवं वैयावृत्य स्वय तो करता ही है किन्तु साधु मरण कहा गया है। दूसरो से नही कराता। वह स्वयं ही उठता, बैठना, लेटता शरीर का परित्याग कराने वाले इन तीन कारणों मे मादि सभी क्रियाए एव परिचर्या-पाप सम्पक करता है, त्यक्त सबसे अच्छा है, क्योंकि त्यक्त अवस्था मे वह पूर्ण रूप से स्वावलम्बन का प्राश्रय लेता है। मात्मा पूर्णतया जागृत एव सावधान रहता है । उस समय जिस शरीर त्याग मे क्षपक न अपनी सहायता लेता कोई संक्लेश परिणाम नही होता है। शान्ति बनी है और न दूसरे की, उसे प्रायोपगमन कहत है। इस रहती है। सल्लेखना को क्षपक तब धारण करता है। जब मन्तिम यह त्यक्त मरण (मल्लेखना मरण) तीन प्रकार का अवस्था में पहुँच जाता है। उसका शारीरिक बल मौर है । भक्त प्रत्याख्यान, इगिनी और प्रायोपगमन । मात्म सामर्थ्य प्रबल होती है । वह गमनागमनादि समस्त क्रियानो का त्याग कर शरीर छोड़ता है। १. मरणस्यानिष्टत्वत । यथा वणिजो विविधपण्य दानादान संचयपरस्य स्वगृह विनाशोऽनिष्टः । तद्विनाश वास्तव में उक्त तोनों भेद (भक्त प्रत्याख्यान, इगिनी कारणे च कुतश्चिदुपस्थिते यथा शक्ति परिहरति । और प्रायोपगमन) पण्डित मरण के ही भेद है। यह दुः पनिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते । तीनो प्रकार का समाधिमरण सकल चारित्र धारक एव गृहस्थोऽपि व्रतशील पण्यसचये प्रवर्तमानस्तदा मुनियो के होता है। श्रयस्य न पातमभिवाञ्छति । तदुपप्लवकारणे मरण का स्वरूप चोपस्थिते स्वगुणा विरोधेन परिहरति । दु: परिहारे मायु कर्म के निषेक पूर्ण हो जाने पर मनुष्यादि च यथा स्वगुण विनाशो न भवति तथा प्रयतते ॥ पर्याय का वियोग होना मरण है और प्रायु के सद्भाव मे .. सर्वार्थ सि०७-२२ मानवादि पयाय का बना रहना जीवन है। हम २. विस वेयण रचक्खय सत्थग्रहण सकिलेसेहिं ।। काय कुटी मे निवास करते है, उसके बने रहने अथवा उस्सासाहाराणं णिरोहदो छिज्जदे पाऊ ।। ५७।। वियोग होने पर हमे कोई लाभ या हानि नहीं होती। कदली घादसमेदं चागविहीणं तु चइदमिदि होदि । ३. भत्त पइण्णाइविही जहण्णमंतो महत्तयं होदि । घादेण प्रधादेण व पडिद चागेण चत्तमिदि ॥५॥ बारसवरिसा जेट्टा तम्मज्झे मज्झिमया ॥ भत्तपइण्णा इगिणि पाउग्गविधीहिं चमिदि तिविहं । प्रणोवयारवेवख परोवयारूणमिगिणीमरण । भत्तपदण्णा तिविहा जहण्णमझिमवरा य तहा ॥५६ सपरोवयारहीणं मरणं पापोवगमणमिदि ॥११॥ -गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा०५६-५६ -गो.क.६० Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४, वर्ष २५, कि० २ अनेकान्त जिस तरह जीर्ण-शोर्ण मलिन और काम न दे सकने वाले यह देह सदा बनी रहे। किन्तु वह अपनी नियत स्थिति वस्त्र को छोड़ने और नूतन वस्त्र के ग्रहण करने मे प्रस- तक ही रह सकती है। उसके बाद उसका स्वयं वियोग ग्नता होती है वैसे ही रुग्ण, अशक्त, जर्जरित एवं कुछ हो जाता है। लोक में शरीर के इस वियोग को मरण क्षणों में वियुक्त होने वाले तथा विपद-ग्रस्त जीर्ण शरीर कहा जाता है। शरीर विनष्ट हो जाता है भोर मात्मा को छोड़कर नये शरीर को ग्रहण करने मे उत्कण्ठा एव वर्तमान शरीर का परित्याग कर नूतन शरीर धारण प्रसन्नता होती है, उसके त्याग में जरा भी कष्ट का अनु- करने के लिए चला जाता है। अतः मानवादि पर्याय भब नही होता। गीता में भी यही भाव अंकित किया सम्बन्धी शरीर का वियोग ही मरण है। प्रात्मा का गया है। अपने परिणामों के अनुसार प्राप्त प्रायु इन्द्रिय नही; क्योंकि प्रात्मा अपने ज्ञान स्वभाव में सदा स्थित पौर मन, वचन, काय इन तीन बलो के वियोग का नाम रहता है। उसका कभी मरण नही होता, वह सदा अमर मरण है। शरीर का परित्याग करते समय हर्ष-विषाद रहता है। रूप परिणामों के द्वारा निर्मल ज्ञान को मलिन बनाना वह मरण दो प्रकार का है एक नित्य मरण और खचित नहीं है, इसी भाव को प्राचार्य प्रभृतचन्द्र व्यक्त दूसरा तद्भव मरण, प्रति क्षण प्रायु प्रादि प्राणो के ह्रास करते हुए कहते हैं। का नाम नित्य मरण है और उत्तर पर्याय की प्राप्ति के "प्राणोच्छेद मुवाहरन्ति मरणं प्राणः किलस्यात्मनो। साथ पूर्व पर्याय का विनाश तद्भव मरण है। तभव जानं तत्स्वयमेव शाश्वततया वोच्छिद्यते जातु चित् ।। मरण का कषायो पौर विषय-वासनामों की तरतमता तस्यातो मरणं किंचन भवेतदभीः कुतो शामिनो? के कारण प्रात्म परिणामो पर अच्छा या बुरा असर पड़े निश्शंकः सततं स्वयं स सहजंशानं सदा विन्दति । बिना नही रहता । प्रतएव तद्भव मरण को सुधारने के प्राणों के नाश को मरण कहते हैं और प्राण इस लिए मानव पर्याय के अन्त मे सल्लेखना का प्रथल करना मात्मा के ज्ञान हैं, वह ज्ञान स्वयं सदा शाश्वत है। मावश्यक है। क्योंकि सल्लेखना से कषायों का उपशम शाश्वत होने से वह कभी नष्ट नहीं होता। इसी कारण या क्षपण होकर हरा कषाय वृक्ष सूखने लगता है। कषाय मात्मा का मरण नहीं होता, फिर ज्ञानी को मरण का रस के शोषण या क्षीण होने पर प्रात्म-रस से प्रात्मा भय कैसे हो सकता है ? ज्ञानी स्वयं निश्शक होकर निर. विभोर हो जाता है। नित्य मरण का जीवन पर कोई तर अपने स्वाभाविक ज्ञान का अनुभव करता है। जिस खास प्रभाव नहीं पड़ता; किन्तु तदभव मरण का कषायों तरह सर्प काचुली का परित्याग कर देता है उससे उसकी और विषय-वासनामों की न्यूनाधिकता के कारण मात्मकुछ हानि नहीं होती। उसी तरह से पुरातन शरीर को परिणामों पर अच्छा या बुरा प्रभाव अवश्य पड़ता है। छोड़ कर नया शरीर धारण करने मे कोई हानि नहीं प्रतएव उसे सुधारने अथवा कषाय रस की तीव्रता को कम होती। ऊपर के कथन से यह बात स्वय निश्चित हो करने या परिणामों में समता लाने के लिए पर्याय के अन्त जाती है कि प्रात्मा के ज्ञानादि प्राणों का कभी नाश नहीं मे सल्लेखना का प्रयत्न किया जाता है। प्राचार्य शिवार्य होता, वह सदा अमर रहता है। तब यह प्रश्न सहज ही ने तो सल्लेखना पर बल देते हुए कहा है कि जो भद्र एक उत्पन्न होता है कि प्रात्मा मरने से क्यो डरता है ? २. स्वायुरिन्द्रिय बल संक्षयो मरणम् । स्वपरिणामो पात्तउसके भय का कारण उसका तत्पर्याय सम्बन्धि मोह है, स्यायुषः इन्द्रियाणां बलानां च कारणवशात् संक्षयो वह प्रजानवश उसे अपनी मानता है और चाहता है कि मरणमिति मन्यन्ते मनीषिणः । मरणं द्विविधम्१. वासांसि जीर्णानि यथा बिहाय, मित्य मरणं सदभषभरणं चेति । तत्र नित्य मरणं नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । समये-समये स्वायुरादीनां निवृत्तिः। तद्भव मरणं तथा शरीराणि विहाय जी , -भवान्तर प्रात्यनन्तरोपश्लिष्टं पूर्वभव विगमनम् । न्यान्यानि संयाति नवीन देही ॥ -गीता २-६२ -तत्त्वा० रा.वा०७-२२ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना या समाधिमरण पर्याय में समाधि मरण पूर्वक मरण करता है वह संसार मात्मा का प्रमरत्व में सात-पाठ पर्याय से अधिक भ्रमण नही करता उसके गुण कभी विनष्ट नहीं होते । प्रात्मा उन गुणों से बाद वह अवश्य मुक्ति पा लेता है। सदा भरपूर रहता है। प्रास्मा एक है, शाश्वत है, प्रखंड एपम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेन जो मदो जीवो। है, अविनाशी है और ज्ञान दर्शन लक्षण वाला है। शेष णहुसो हिदि बहुसो सत्तट्ठभवे पमोतूण ॥ सभी पदार्थ प्रात्मतत्त्व से बाह्य और संयोग लक्षण वाले सल्लेखना की महत्ता का उल्लेख करते हुए कहा है है। जैसा कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के निम्न पद्य से प्रकट कि सल्लेखना घारक (क्षपक का) भक्ति पूर्वक दर्शन- है :वन्दन और वयावृत्य प्रादि करने वाला व्यक्ति भी देव एगो मे सहसदो मादा णाणसणलक्षणो। गति के सुखों का उपभोग कर उत्तम स्थान को प्राप्त सेसा मे बाहिरा भावा सम्वे संजोगलक्षणो॥ करता है। प्रतः शरीरादि पर द्रव्यों से मोह छोड़कर प्रात्मत्व जैनागम मे मरण के सत्रह प्रकार बतलाए गये हैं। बुद्धि का परित्याग करना श्रेयस्कर है। चिदानन्दस्वरूप उनके नाम इस प्रकार है : एक ज्ञायक भाव ही मेरा स्वरूप है। उस विमल प्रास्म१प्रावीचि मरण, २ तदभव मरण, ३ अवधि मरण, भाव को प्राप्त करना ही मेरा लक्ष्य है । अतः भय परि. ४ मादि मन्ताय मरण, ५ बाल मरण, ६ पंडित मरण, णाम मेरा स्वरूप नही है। भय तो चारित्र मोह का ७पासन्न मरण, बाल पडित मरण, ६ ससल्ल मरण, परिणाम है। प्रतएव उपाधिक भाव है । सम्यग्दृष्टि सप्त १० बल मरण, ११ वोमट्ट मरण १२ विप्पाणस मरण, भयो से रहित निर्भय होता है। वह निशंक रहता है। १३ गिद्ध पृट्टमरण, १४ भत्तपच्चक्खाण मरण, १५ परउप- उसे ससार की कोई शक्ति पात्मा के अमरत्व से विचसग्ग मरण, १६ इगिणी मरण और १७ केवलि मरण। लित नही कर सकती। ज्ञानी इसी भाव में सुदढ रहकर वामांग और अपने जीवन को भौतिक उलझनों से दूर रखता है, यही उत्तराध्ययन नियुक्ति मे भी पाये जाते है। जिनमे कुछ उसके विवेक की महत्ता है। यदि साधक का प्रात्मा के नामो का शाब्दिक अन्तर भी पाया जाता है जो प्रायः । Him अमरत्व में विश्वास न हो, तो उसका उक्त परिश्रम निष्फल नगण्य-सा है। इन मरणो का विस्तृत विवेचन भगवती हा है। पाराधना और विजयोदया और मूलाराधना टीकामो में शरीर को नश्वरता : भी पाया जाता है। मरणों के इन १७ भेदों में तीन मरण शरीर नाशवान है । वह पुदगल के परमाणु-पुंजों से ही प्रशसा के योग्य बतलाये हैं। पंडित पडित मरण, पडित निर्मित हुमा है। वे सब परमाणु जड़ रूप है। इसी से मरण प्रौर बाल पडित मरण । इनमे चौदहवें गुणस्थान- शरीर गल-सड़ जाता है और कभी पूरण हो जाता है । वर्ती प्रयोग केवली का निर्वाण पंडित पडित मरण है। जब तक शरीरादि परपदार्थों मे राग की एक कणि का त्रयोदश प्रकार चारित्र के धारक मुनियों का मरण पंडित भी मौजूद रहती है तब तक ही उससे ममता रहती है। मरण है और देशव्रती श्रावक का मरण बाल पडित मरण प्रौर जब नारीर को और जब शरीर को जड़ स्वभाव, विनश्वर और प्रनात्मीय है । अविरत सम्यग्दृष्टि का मरण बाल मरण और मिथ्या- जान लिया जाता है जान लिया जाता है, उस समय उसमे से अपनत्व बुद्धि दृष्टि का मरण बाल-बाल मरण है। विनष्ट हो जाती है। उसके दूर होते ही प्रात्मा की १. सल्लेहणाए मूल जो बच्चइ तिब्व-भत्ति राएण। स्थिति बाह्य पदार्थों से हटकर अन्तर की पोर चली भोत्तूण य देव-सुख सो पावदि उत्तम ठाणं ।। जाती है, उस समय बड़ पदार्थों की विनाशक्रिया से -भगवती मा. गाथा ६८१ पडिद पाद मरण खीण कसाया मरति केबलिणा। २. पब्दि-पंडित मरण च पडिद बालपडिद चेव । विरवा विरदा जीवा परप्ति तदियेण मरणेण ।। एदाणि तिण्णि मरणाणि जिणा णिच्च पस सति । -भग०मा० गा०२७, २८ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६, वय २५, कि०३ प्रेनेकान्त मात्मा खेदित नहीं होता । क्योंकि वह मात्मीय-मनात्मीय केवल तेजस कार्माण शरीर है, उत्तरकालीन शरीर की अथवा जड़ और चेतन की परिणति से परिचित हो जाता पूर्णता भी नहीं है। है। शरीर की निष्पत्ति माता-पिता के रज और वीर्य से वहां भी माहारादि के अभाव में सम्यग्दर्शन का हुई है। इस शरीर के अन्दर भी मल-मूत्र, कफ प्रादि सद्भाव रहता है। अतः समाधिस्थ साधक को रंचमात्र प्रशचि पदार्थ भरे हुए हैं। ऊपर से चमड़े की चद्दर मढ़ी भी माकुलता करने की आवश्यकता नहीं है कि हमारा हो इसलिए खन-मास-पीव प्रादि से लिप्त अस्थि शरीर प्रतिटिन क्षीण हो रहा है। क्योकि पंजर दिखाई नहीं देता। किन्तु जब शरीर का कोई अंग द्रव्य है। उसके निमित्त से कोई कार्य बने या न बने, विकृत या गल-सड़ जाता है। और उसमें से दुर्गन्ध पाने इसकी चिन्ता करना निरर्थक है। पर यह ध्यान रखने लगती है। तब हमें उसके प्रति उतना रागभाव नही की प्रावश्यकता है कि प्रात्मा से सम्बन्धित वस्तु का कभी रहता । इस शरीर को सुगन्धित द्रव्यों से सज्जित करने विनाश नही हो सकता। यदि प्रात्सा प्रात्मीय भावो की और सेवा-सुश्रूषा करने पर भी वह विनष्ट होने से नही रक्षा कर लेता है, तो फिर उसका ससार तट समीप ही बचता। ज्यों-ज्यो हम उसकी रक्षा और सवर्धन का समझना चाहिए । परमार्थदृष्टि से विचार किया जाय तो प्रयत्न करत है, त्यों-त्यों वह प्ररक्षित और दुबल बनता श्रद्धान की बलवत्ता ही इस मे कार्यकारी है। अतः प्रान्तजाता है तथा उचित समय पर विनष्ट हो जाता है । अतः रिक श्रद्धा में कमजोरी न पाये ऐसा प्रयत्न करना प्रावशरीर में रागभाव करना उचित नही है । श्यक है। मै एक चिदानन्द ज्ञायकस्वरूप है। रागादि समाधिस्थ गृहस्थ या मुनि तथा श्रावक के शरीर की उपाधि भावों से रहित हूँ । इन चर्मचक्षुषो से जो सामग्री सात भावों : अवस्था प्रतिदिन क्षीण हो रही है, क्षीण होना इसका देख रहा है, वह परजन्य है, हेय है, उपादेय तो निज स्वभाव है, परन्तु शरीर के ह्रास से हमारा कोई घात प्रात्मा ही है। यह भी विचारणीय है कि केवल परमात्मा या हानि नही होती। यह ज्ञानी स्वय जानता है । शारी- के गुणगान से परमात्मपद नही मिलता, किन्तु परमात्मा रिक शिथिलता से उसके इन्दियादिक प्रग भी शिथिल हो द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अवलम्बन करने से परमात्मपद जाते है किन्तु द्रव्येन्द्रिय के विकृत होने से स्वकीय भाव का लाभ मिल जाता है। अत: अन्य सकल्प-विकल्पो को इन्द्रियां भी कार्य करने में समर्थ नही हो पातीं। किन्तु ज्जत्तकाले भवति।" मोहनीय कर्म के उपशम से सम्यक्त्व की क्या विराधना चारित्रमोह का उपशम करने वाले जीव मरकर होती है ? मनुष्य जिस समय सोता है उस समय जाग्रत देवो मे उत्पन्न होते है। उनकी अपेक्ष। अपर्याप्त. प्रवस्था के समान ज्ञान नही होता; किन्तु वहां भी काल मे उपशम सम्यक्त्व पाया जाता है । वेदक सम्यसंसारोच्छेदक सम्यक्त्व गुण का माशिक भी घात नही क्त्व तो देव और मनुष्यों के अपर्याप्त काल मे ही होता। इसी से जैनाचार्यों ने अपर्याप्त अवस्था में भी पाया जाता है; क्योकि वदक सम्यक्त्व के साथ सम्यक्त्व के अस्तित्व को स्वीकार किया है। जहां पर मरण को प्राप्त हुए देव और मनुष्यों के परस्पर १. "चारित्तमोह उवसामगा मदा देवेसु उववज्जति ते गमनागमन में कोई विरोध नही पाया जाता है। मस्सिदूण अपज्जत्तकाले उवसम सम्मत्तं लम्भदि । कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा तो वेदक सम्यक्त्व तियंच वेदगसम्मत्त पुण देव-मणुस्सेसु प्रप्पज्जतकाले लभदि और नार की जीवों के अपर्याप्त काल मे भी पाया वेदग सम्मत्तेण सह गद-देव-मणुस्साणमण्णोण्ण-गमणा- जाता है। क्षायिक सम्यक्स्व भी सम्यग्दर्शन के पहले गमण-विरोहाभावादो। कदकरणिज्जं पडच्च वेदग बांधी गई प्रायुके बंध की अपेक्षा से चागे ही गतियों सम्मत्तं तिरिक्ख-णे रइयाणमपज्जत्तकाले लम्भदि । के अपर्याप्त काल में पाया जाता है इसलिए प्रसंयत खाइय सम्मत्तं पि चदुसुवि । गदीसु पुवायुबषं पड्डच्च सम्यग्दृष्टि जीवके अपर्याप्त काल में तीनों ही सम्यभपज्जत्तकाले लभवि-तण तिण्णि सम्मत्ताणि अप- पत्व होते है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना या समाधिमरण छोड़कर केवल एक वीतराग भाव ही मेरे द्वारा उपादेय तो अपना फल देकर नष्ट हो जायगी। तेरा मात्मा तो है और उसी पर मेरा प्रारूढ़ होना श्रेयस्कर है। सदा शाश्वत रहने वाला है। मानव पर्याय का यदि रही बाह्य त्याग की बात, सो उसकी मर्यादा वहीं विनाश हो गया तो उससे तेरा कुछ नहीं बिगड़ता। फिर तक है जहां तक निज परिणामों में क्षति नहीं होती। ऐसे भय से इतना पाकुलित क्यों हो रहा है? प्रतः पीड़ा शुभ अवसर बार-बार नहीं मिलते । प्रतः चित्त में धैर्य प्रादि से होने वाली चंचलता को छोड, और अपने स्वरूप रखते हुए दुर्बलता को स्थान न दें; क्योकि उससे अन्तरग मे सावधान हो तुझे कितनी सी पीड़ा है। दूसरों की गुणों की क्षति होना संभव है। शरीर की नश्वरता भव- वज्र के समान होने वाली भयंकर पीड़ा जब उन्हें स्वरूप श्यंभावी है। प्रयत्न करके भी उसे रक्षित रखना कठिन से विचलित नहीं कर सकी, वे धीर-वीर महामुनि समता है। फिर मोह किसका है । जब शरीर ही अपना नहीं है, रस मे निमग्न रहे, शिर पर अंगोठी जलती रही फिर भी तब धन, दौलत, मकान और स्त्री-पुत्रादि अपने कैसे हो उनका चित्त चलायमान नही हमा। तपे हुए लोहे के सकते हैं ? ये न कभी किसी के हुए है और न होगे। माभूषण पहनाये गये, परन्तु तज्जन्य वेदना के होते हुए मात्मा राग भाव से इन्हें मानता पाया है। यह राग भी उससे रंचमात्र भी नही डिगे। इतना ही नही; किन्तु भाव ही बन्ध का कारण है। उसका परित्याग करना ही व्याघ्री और उसके बच्चे शरीर का भक्षण करते रहे, फिर इष्ट है। इस तरह विचार कर नाशवान शरीर से ममता भी उस प्रसह्य वंदना से विचलित नही हुए। किन्तु का परित्याग करना आवश्यक है। अमित धीरता और विवेक से स्वरूप में सावधान हो वेदना का भय प्रशान्ति का कारण है। असाता कर्म उत्तमार्थ को प्राप्त हुए। हे साधक ! फिर उसके सामने के उदय से शरीर में जो पीड़ा या कष्ट हो रहा है हे तो तेरी पीड़ा कुछ भी नहीं है, तेरे हाथ में तो सम्यग्दप्रात्मन् ! वह तेरे ही अप्रशस्त कर्मों का परिणाम है। निरूपी वह तलवार है। जो कर्मों का निपात करने में इष्ट अनिष्ट पदार्थों का समागम कर्मोदय से होता है, समर्थ है । किन्तु अभी उसकी धार मौथिली है। अतः प्रशस्त कर्मोदय से सुख-सामग्री मिलती है और अप्रशस्त उसे सम्यक प्रात्म-विश्वास द्वारा पैनी करने का प्रयत्न कर्मोदय से दुख-सामग्री का समागम होता है । अतः कर्मो- कर। निर्दोष सम्यक् दर्शन को जागृत कर । तेरा दय से जितनी भी अनिष्ट सामग्री मिले उसके प्रति प्रादर- प्रात्मा तो सच्चिदानन्द है और ऐसा ही तूने अपनी दृष्टि भाव रखते हुए ऋण मोचन पुरुष की तरह व्यवहार करना से निश्चित किया है। फिर यह देह कही जामो, इसके उचित है । प्रथवा शमवर्ती उस साधु को तरह प्रवृत्ति विचार से क्या लाभ । किन्तु वर्तमान परिणति में समता करनी चाहिए, जो दूसरेके द्वारा किये जाने वाले उपसर्ग को भाव ही श्रेयस्कर है। अत: अन्य विकल्पों को छोड़। साम्यभाव से सहता है पर उपसर्ग करने वाले पर रंचमात्र चोर की सजा देख साधु को भयभीत होने को प्रावश्यकता भी रोष नहीं करता। वह सोचता है कि उपाजित कर्म फल नहीं। तू अपनी ज्ञानादि सम्पत्तियों की ओर देख, और देकर चला गया, यह अच्छा ही हुआ, उससे भार हलका जो विचार स्वरूप की प्राप्ति मे बाधक हैं, उन्हें दूर हो गया। शरीर से रोग का निकलना ही अच्छा है, यदि करना ही तेरा पुरुषार्थ है। फिर देख तेरी यह वेदना वह संचित रहता तो अन्य विकार पैदा करता । और कैसे दूर नही होती? अब अपने में सावधान हो और उससे अनन्त दुःखो का पात्र बनना पड़ता। ठीक इसी सच्चिदानन्द रूप ज्ञायक भाव का आश्रय ले । तू तो तरह यदि मसाता शरीर की जीर्ण-शीर्ण अवस्था द्वारा मनन्त ज्ञान की शक्ति का पिन्ड है। फिर अपनी ठकुराई निकल रही है तो तुझे हर्ष ही होना चाहिए। को क्यों भूल गया ? धर्म का फल तो मात्म-शान्ति है, क्योंकि वेदना तो कर्मोदय का विपाक है, वह सदा पर जब तुम अपने स्वरूप को भूल कर प्रशान्त होगे, तब नहीं रहती, और तू अनन्त गुणों का पिण्ड है, चिदानन्द उस धर्म फल को कैसे पा सकोगे? इसका विचार कर । है, टंकोत्कीर्ण है, ज्ञायक स्वरूप है. धीर है, वीर है। यह मौर निर्भय होकर एक वीर की तरह इस नश्वर शरीर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८, वर्ष २५, कि०२ अनकान्त का परित्याग कर । जो तू इसे नहीं छोड़ेगा, तो यह और भूख लगती है कि समुद्र का सब पानी और तीन निश्चित है कि यह तेरे से स्वयं अपना सम्बन्ध विच्छेद लोक का मब अनाज खा जाय तो भी प्यास और भख न कर लेगा। अतएव इस नश्वर पर्याय मे प्रास्था करना मिटे । तब भी वहाँ एक बूंद पानी और अनाज का एक उचित नही है । कण भी नहीं मिलता। ऐसे दुःख इस जीव को सागरों जिस तरह चन्द्रमा की कला शुक्ल पक्ष में वृद्धि को । पर्यन्त सहन करने पड़ते है । तब हे साधक ! तुम्हें तो प्राप्त होती है और कृष्ण पक्ष में उसकी कलाए क्रम से यहा कुछ भी वेदना नहीं है। और जो कुछ हो रही है घटती रहती हैं। फिर भी उनसे चन्द्रमा का कुछ नहीं वह मब तेरे ही उपाजित कर्म का फन है। उसे तुम्हे विगडता। और पूर्णिमा के दिन वह षोडश कलामो से भोगना ही पड़ेगा। तुम्हारे पास तो ज्ञान रूप सघारस परिपूर्ण रहता है। इसी तरह जीव जब उत्पन्न होता है माजूद है, उसका उपयोग क्यों नहीं करते। तम्हारे तब उसके शरीर की प्रतिदिन वद्धि होती रहती है, वह चतन्य पन में जो समनारस भरा हमा है उससे अपनी क्रम से युवा और प्रौढावस्था को पा लेता है। किन्तु वृद्ध प्यास क्यो नहीं बुझान ? वेदना तो पल्पकालिक है, और अवस्था पाते ही वह जवानी धीरे-धीरे ढलती जाती है तुम्हारा चैतन्य तो हमेशा रहने वाला है। अनन्त शक्ति पौर मास मे शरीर प्रत्यन्त क्षीणकाय दुर्बल और कार्य का पुंज है, तुम स्वयं ज्ञानी और साहसी हो, अपने परिकरने के अयोग्य बन जाता है। इससे शरीर की अस्थिरमा णामो की पोर तो देखो; जिन्दगी भर जो तुमने व्रतादि निश्चित है। अथवा जिस तरह पानी का बुदबुदा क्षण- के अनुष्ठान द्वारा पुण्य बीज बोया है अब उसका मधुर स्थायी होता है वैसे जीवन भी अपनी स्थिति पर्यन्त रहता फल मिलने वाला है। इतने मातुर क्यो हो रहे हो? है। उससे अधिक रखने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है। ज्ञानी के कोई वेदना नहीं होती, तुम तो सच्चिदानन्द ऐसी स्थिति मे शरीरादि पर वस्तुनों से ममता का त्याग हो, कर्म का उदय तो क्षणिक है, उस जड़ कर्म की क्या करना ही कल्याणकारी है। शक्ति है जो तुम्हें दुखी बना सके । तुम्हारी तो वह शक्ति तृषा को बंदना के जीतने का उपाय : है जो मन वचन काय की दृढता रूप त्रियोग से कोटि जब साधक का शरीर क्षीण हो जाता है और पाहा- जन्म के पाप भी क्षणमात्र में विनष्ट हो सकते है। तब रादि तथा पेयपदार्थों का परित्याग होने स प्यास की कायर क्यों होते हो, तुम धीर वीर ज्ञानी हो, अपनी वाघा और प्रसातोदय जन्य पीड़ा अपना प्रभाव प्रकित शक्ति की ओर देखो, और दृढता से कर्मपज को जलाने करती है। तब साधक उष्णता की वाघा होने अथवा का पुरुषार्थ करो, तब शीघ्र ही अनत सुख के भोक्ता बन कण्ठ शक होन से पानी की इच्छा करने लगता है। सकते हो। इसी तरह अन्य वेदनाग्रो के सम्बन्ध में विचार वेदना के कारण हेयोपादेय का विवेक जब कुछ शिथिल करना चाहिए और साधक के परिणामो की सम्हाल का हो जाता है, उसी समय उसे वाधक कारण सताने मे यत्न करना चाहिए। उद्यत हो जाते है । उस समय हमे साधक की अवस्था को सल्लेखना का ऐतिहासिक महत्व : देख कर उसे समझा देना चाहिए। उसके हृदय मे प्यास भारतीय क्षितिज पर जैन श्रमण और उनके उपाकी वाधा को दूर कर देना बड़ी सावधानी और पुरुषार्थ सक श्रावक जन प्राचीन काल से ही तपश्चरण करते हुए का कार्य है। हमे साधक की प्यास को बुझाने के लिए अन्त समय में या उपसर्ग, भिक्ष तथा प्रसाध्य रोगादिक समता रस की पोर उसका ध्यान प्राकृष्ट करना चाहिए, के होने पर संयम की रक्षार्थ समता भावो से शरीर का भोर बतलाना चाहिए कि हे भाई ! भाप तो ज्ञानी है, परित्याग करते थे। वे भीषण उपसर्ग परीपहादिक से वस्तु स्वरूप को समझते है। नरकघरा में कितनी अधिक आतंकित होने पर भी कर्मोदय के फल मे राग-द्वेष नही वेदना होती है, जरा उसका ख्याल तो करो। यहां तो करते थे; किन्तु समता भाव से शरीर का परित्याग करना उसका एक अंश भी नही है। वहाँ इतनी अधिक प्यास ही अपना कर्तव्य मानते थे। जैन श्रमणों और श्रावक Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना या समाधिमरण ५९ श्राविकानों द्वारा समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर उत्तमार्थ जीवन की सफलता का मापदण्ड है । कष्ट सहिष्णुता और की प्राप्ति करने के अनेक उदाहरण कथा ग्रंथो. पुराणो धीरता की कसौटी है। और चरितग्रथों एव सैकड़ों शिलालेखों में उत्कीर्ण किये पाराधकों के कुछ पुराने उद्धरण हुए मिलते है। भगवती प्रागधना जैसे प्राचीन ग्रथो शिवार्य की भगवती प्राराघना नामक प्राचीन ग्रन्थों मे सल्लेखना का और उसके विधि विधान का और मे अनेक जैन श्रमणों के उपसर्गादि जन्य कष्ट परम्परा विस्तृत स्वरूप दिया हुआ है, जिसे यहाँ लेख वृद्धि को समभाव से सहते हए समाधि पूर्वक शरीर का परि के भय से छोड़ा जाता है। सल्लेखना में सम्यग्दर्शन, त्याग कर उत्तमार्थ की प्राप्ति करने वाले श्रमणों के नामों ज्ञान, चारित्र और तपरूप पाराधना चतुष्टय के अनुष्ठान का उल्लेख किया गया है। जिन्होंने दूसरों के द्वारा कष्ट द्वारा समता भाव को स्थिर करने का प्रयत्न किया दिये जाने पर भी अपने सगना भाव का परित्याग नहीं जाता है। किया, किन्तु अपनी वीतराग परिणति द्वारा उदयागत सल्लेखना प्रात्म-घात का कारण नहीं : कर्म विपाक (फल) में इष्ट अनिष्ट कल्पनामो को भी सल्लेखना से प्रात्मघात नही होता; क्योकि प्रात्म उत्पन्न नहीं होने दिया है, अधीरता मे धीरता को नही घात का कारण कषाय भाव है । किसी से विरोध हो जाने छोडा है, उन श्रमणों का जीवन धन्य है। वे ही अशुभ पर रोष के तीव्र उदय को न सह मकने के कारण, विष कर्म कुंज को ध्यानाग्नि द्वारा जलाकर स्वात्मा.ब्ध भक्षण करना अग्नि मे जल जाना, कुएं या तालाब आदि के स्वामी बने है। उदाहरण मे देखो मुनि पुंगव यशाबर मे गिरकर मर जाना, पर्वत से गिर जाना, रेल की पटरी के गले मे श्रेणिक (बिम्बसार) ने मरा हुमा सप डाला के नीचे दबकर अपने प्रस्तित्व को खो देना, फांसी लगा था । पर समभावी मुनि ने उसके ऊपर जरा भी कोप नही कर मरना अथवा शस्त्रादि के द्वारा अपना घात कर किया और न उसका अनिष्ट ही चिन्तन किया है। मुनि लेना या द्रव्य-भाव प्राणो का विनाश करना प्रात्म-घात ने उस पर करुणा बुद्धि रखी है और उसे अपना अनिष्ट या कषाय मरण कहलाता है। किन्तु जहाँ पर अनेक करने से भी रोका है। चेतना द्वारा उपसर्ग दूर होने पर वाधक कारण-कलापो के उपस्थित होने पर उनसे अपने मनिगज ने श्रेणिक और चेलना दोनों को समान प्राशीसयमधर्म की रक्षार्थ काग और कपायो को कृश किया बर्वाद दिया है कि तुम दोनो के धर्म की वृद्धि हो । श्रेणिक जाता है। कषायों के उदय से होने वाले विभाव भावो ने उस कुकर्म मे मानवे नर्क की वायु का बंध किया था। का शमन किया जाता है, अथवा समता गे शरीर त्यागा यहाँ उन दो-चार माधुषों का सक्षिप्त परिचय दिया जाता है वहां प्रात्मघात का कोई दोष नहीं लगता । जैसे जा रहा है जिन्होने भयानक उपमर्ग जीतकर उत्तपार्थ की कोई डाक्टर करुणाबुद्धि पूर्वक नीरोग बनाने की दृष्टि से प्राप्ति की है। किसी मनुष्य का मापरेशन करता है और किमी वजह से बहुत सावधानी रखने पर भी चीरा अधिक ला जाने पर पाँनों पाण्डव मुनि जब ध्यानस्थ अवस्था मे त पश्च. रण कर रहे थे, तब उन से विरोध रखने वाले ईर्षालु पों यदि रोगी की मृत्यु हो जाती है तो भी डाक्टर हिंसक ने तप से भ्रष्ट करने के लिए उन्हे लोहे के प्राभूषण नही कहलाता और न वह दड का भागी ही होता है। बनवा कर और उन्हे गरम करके पहराये । उनी वेदना उसी प्रकार जीवन भर की प्रात्म-साधना को सफल बनाने महते हुए भी पाण्डव अपने स्वरूप से जग भी विचचित के लिए निकषाय भाव से समाधिपूर्वक देह का त्याग ___ नही हुए, किन्तु समाधि मे निष्ठ रहे। करता है नो उसे भी हिमा का पाप नहीं लगता और न वह दण्ड का भागी ही होता है। इससे स्पष्ट है कि १. लोहमयी प्राभूषण गड के ताते कर पहराये । सल्लेखना समाधि मरण से प्रात्मघात नहीं होता; किन्तु पाँचों पाण्डव मुनि के तन में तो भी नाहिं चिगाये ।। समाधिमरण की क्रिया प्रात्मोत्कर्ष का प्रतीक है। मानव --समाधि मरण पाठ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.,बर्ष २५, कि०२ प्रवन्ति देश के महामुनि सुकमाल जब ध्यान द्वारा 'मोग्गलगिरिम्मि य सुकोसलो बि सिबत्थ बाय भयवंतो। कर्मरूपी ईधन को जलाने का प्रयत्न कर रहे थे, तब वग्घीण वि खजंतो पडिवण्णो उत्तमं अटुं॥१५४ उनके पूर्व वैरानुबन्ध से एक स्यालनी अपने बच्चों के साथ कुम्भकार नगर मे अभिनंदनादि पांच सौ मुनियों तीन दिन तक उनके शरीर को खाती रही। उन मुनि- को मंत्री की दुष्टता से राजा ने रोष वश घानी में पिलवा राज ने प्रपार वेदना सहते हुए भी समता का परित्याग दिया । तो भी मुनियों ने समता का ही पाराधन किया । नहीं किया, प्रत्युत समता एवं विवेक द्वारा वस्तु स्वरूप प्रभिणंदणादिगा पंचसया णयम्मि कुंभकारकडे । का विचार करते हुए समाधि से शरीर का परित्याग पाराषणं पवण्णा पीलिज्जंता वि जंतेण ॥१५५५ किया । जैसा कि हरिषेण कथा कोष के निम्न पद्यों से ___ महामुनि विद्युच्चर जब अपने पांच सौ शिष्यों के स्पष्ट है : साथ ताम्रलिप्तिनगरी के बाह्य उद्यान मे ध्यान मे स्थित 'पूर्व वैरानुबंधेन तत्पादं रुधिरं तदा । थे । तब रात्रि मे चामुंडा देवी के सेवक यक्षों द्वारा की सा शिवा पातु मारब्धा सुकमाल मनेरियम् ॥२४६ जाने वाली दशमशकादिक की भयकर शारीरिक वेदना खावयन्त्या तरां पावं तन्मनेः शिवया तया । को साम्यभावसे सहन की और उत्तमार्थ की प्राप्ति की। समाधिमरणेनायं चके कालं विनत्रये । २५० -हरिषेण कथाकोश इसी तरह मुनिवर चाणक्य ने, जो चन्द्रगुप्त मौर्य मुनि सुकौशल और इनके पिता सिद्धार्थ सुनि का का प्रधानमंत्री था। उसने अपने अन्तिम जीवन में शरीर व्याघ्री ने भक्षण किया था। परन्तु श्री मुनि तिर्यच दिगम्बर दीक्षा ले ली थी और वह अपने शिष्यों के साथ कृत घोर उपसर्गजन्य वेदना सह कर अपने ज्ञान स्वभाव गोधर के समीप ध्यान मे स्थित थे, तब सुबधु के द्वारा प्राग लगा दिये जाने पर धीर वीर मुनि चाणक्य समभाव से जरा भी च्युत नहीं हुए। किन्तु तपश्चरण मे निष्ठ से उस अग्नि में जल गये किन्तु धीरता का परित्याग नही रहने से उन्होंने महमिन्द्र पद प्राप्त किया। जैसा कि किया। कष्ट सहिष्णु बन कर और उत्तमार्थ की प्राप्ति भगवती पाराधना की निम्नगाथा से प्रकट है : की। १. भल्लंकीए तिरत्तं खज्जतो घोर वेदणट्टो वि । भद्रबाहु अन्तिम श्रुतके वली ने भी अपनी प्रायु को पाराधणं पवण्णो पडिवण्णो उत्तम अट्ठ ।। अल्प जानकर सघ का सब भार विशाखाचार्य को सौपकर -भगवती माराधना १५३६ अनशन द्वारा-भूख-प्यास की वेदना को-समभावसे सह २. अथ तत्र्वने साधू चातुर्मासोपवासिनी। कर उत्तमार्थ की प्राप्ति की। तस्थतुर्वक्षमूले तो पिता पुत्रौ घनागमे ।।२६८ इनके सिवाय समतारस के रागी अनेक योगी साधु ततो धनागमातीते पारणार्थ महामुनी। प्रवृत्ती नगरं गन्तुं तो सिद्धार्थ सुकौशलो ॥२६६ हुए हैं जिन्होंने समाधि द्वारा शरीर का परित्याग करते हए भी धीरता का परित्याग नही किया है। और जो दृष्ट्वा तौ योगिनो तत्र कोपारुणनिरीक्षणा। चुकोप सहसा व्याघ्री स तदा परुषस्वना ॥२७० ३. दसेहिय मसएहिं य खज्जतो वेदण परं घोर । प्रादाय तो निरालम्प प्रत्याख्यान महामुनी। विज्जुचरोऽधियासिय पडिवष्णो उत्तम प्रट्ट ॥१५५१ ध्यायन्तो परम तत्त्व कायोत्सर्गेण तस्थतुः ।।२७१ -भ.पाराधना सिद्धार्थ प्रथम व्याघ्री विपाद्य नख कोटिभिः । ४. गो? पायोयवादो सुबंधुणा गोचरे पलिवदम्मि । ममार चरम कोपात् तनयं च सुकोशलम् ॥२७२ झंतो चाणक्को पडिवण्णो उत्तम प्र? ॥१५५६ पिता पुत्रौ तदा साघू कालं कृत्वा समाधिना । -~-भ० माराधना दिवि सिद्धार्थ सिद्धौ तावहमिन्द्रत्वमापतुः ।।२३३ ५. प्रोमोदरिए तिगिच्छाए पडिवण्णो उत्तमं ठाणं ॥१५४४ -हरिषेण कथाकोष पृ. ३१३ -भ०मा० Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना या समाधिमरण जन सम्पर्क से दूर रहे हैं और जिनका उपलब्ध साहित्य में उल्लेख भी नहीं मिलता । जैन साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि अनेक तपस्वी साधु ने अपने अन्तिम जीवन में जीवन की सफलता के लिए समाधिपूर्वक प्राण छोड़ा है। प्रवण बेलगोल के अनेक शिलालेखों में सल्लेखना या समाधिपूर्वक शरीर का परिश्याग करने वाले अनेक साधुओं और धावक श्राविकाओं के नामों का उल्लेख किया गया है जिनमें से अनेक साधुम्रों ने एक-एक महीने तक के उपवासों द्वारा समभावों से प्राणों का विसर्जन किया है और दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपरूप प्राराधना चतुष्टय द्वारा श्रात्मसमाधि में निष्ठ रहकर मानव जीवन को सफल बनाया है । यहाँ उदाहरण के तौर पर सिर्फ दो साधों का उल्लेख किया जाता है जिन्होने एक मास के उपवास पूर्वक समता से जीर्ण शरीर का परित्याग कर देव लोक प्राप्त किया है। १. मलनूर के पट्टनिगुरु के शिष्य उग्रसेन गुरु ने एक मास तक सन्यास व्रत का पालन कर शरीर का परित्याग किया था। यह शिलालेख शक संवत् ६२२ (वि० सं० ७५७) का है। २. कुन्दकुन्दाग्यय देशी गण के चारुकीति पति देव के शिष्य अजितकीर्ति देव ने एक मास के उपवास के पश्चात् शक संवत् १७३१ (वि०स० १०६३) में भाद्रपद वदी चतुर्थी बुधवार को स्वर्ग प्राप्त किया। जैन लेख संग्रह में ऐसे अनेक लेख है जिनमें एक महीने से भी कम समय में सन्यास व्रत का अनुष्ठान करते हुए शरीर का परित्याग कर मानव जीवन को सफल बनाया था। ; जैन लेख स० भा० १ लेख नं० ८ । २. जैन लेख संग्रह भा० १, लेख नं० ७२ । ६१ इनके अतिरिक्त अनेक श्रावक श्राविकाओंों ने भी समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया है। उनमें से यहाँ दो धाविकाओं का परिचय दिया जा रहा है श्रेष्ठराज चामुण्ड की पत्नी देमियक्क, जो मूल संघ, देशीगण और पुस्तक गच्छ के विद्वान मुनि शुभचन्द्र सिद्धान्त देव की शिष्या थी और दूषण की ज्येष्ठ भगिनी थी । बडी विदुषी, पति परायणा, जिन चणाराधिका और माहारादि चारों दान दात्री यो बढी विष्ठा थी, 1 उसने शक सं० ६५० के लगभग घवला की प्रति लिखवाई थी और बूमिराज के स्वर्गवास के पश्चात् क सं० १०३७ और १०४२ के मध्यवर्ती किसी समय मे शुभचन्द्र भट्टारक को प्रदान की थी। इस देमियक्क या देमति ने शक सं० १०४२ में फाल्गुन वदी ११ बृहस्पतिवार को सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया था । दण्डनायक गंगराज की धर्मपत्नी लक्ष्मीमति ने जो जिन धर्मपरायणा साध्वी महिला थी, मन्दिर निर्माण पादि कार्यों में सहयोग देती थी। और दानधर्म में जिसकी अभिरुचि थी । उसने भी शक सं० १०४४ मे सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया था उसकी पावन स्मृति मे उसके पति दण्डनायक गंगराज ने एक निषद्या बनवाई। सल्लेखना या समाधिमरण का सक्षिप्त परिचय पाठकों के समक्ष उपस्थित है। पाया है वह पाठकों को रुचिकर और उपयोगी होगा । ३. श्री मूलसंघद देशिगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्र सिद्धान्त देवर गुद्धि सक वर्ष १०४२ नय विकारी सवत्स रद फाल्गुण व ११ वृहवार दन्दु सन्यासन विधियि देमियक्क युडिपिदलु । - जैन लेख सं० भा० १, लेख नं० ४६, पृ० ७० । ४. जैन लेख सं० भा० १, पृ० ६८ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन कवि और उनकी रचनाएं डा० गजानन मिश्र एम. ए. पी-एच. डी. (१) जोषराज गोदीका ज्ञान-पिपासा बुझाने लगे। अद्यावधि उनकी निम्नलिखित जोधराज गोदीका सागानेर के निवासी थे। इनके रचनाएं उपलब्ध हैपिता का नाम अमरचन्द था। ये खण्डेलवाल जैन थे। १. प्रीतंकर चरित्र (स. १७२१)। जोधराज के नाना कल्याणदास थे। कहा जाता है कि २. ज्ञान ममुद्र (स० १७२२) । इनके पिता अमरचन्द गोदीका के पास करोडों की सम्पत्ति ३. धर्म सरोवर (स. १७२४)। थी। दूर-दूर तक उनका व्यापार फैला हा था। गज- ४. सम्यक्त्व कौमुदी भाषा (सं० १७२४)। महलों की तरह उनके महलों पर भी ध्वजाए फहराया ५. प्रवचनसार भाषा (१७२६) । करती है। ६. जिन स्तुति (१७२६)। जोधराज के जन्म की निश्चित तिथि अभी ज्ञात नही ७. कथाकोष भाषा (१७२६) । हो सकी है, लेकिन उनके ग्रन्थो मे दिये हुये रचनाकाल के ८. चौमाराधना उद्योत कथा । प्राधार पर इनका जन्म सं० १६७५ के प्रासपास होना ६. गोडी पार्श्वनाथ स्तवन । संभव है । इनका लालन-पालन लाड प्यार में हुआ। बड़े १०. नेमिजिन स्तुति । होने पर जोवराज ने पं० हग्निाथ मिश्र को अपना मित्र ११. भावदीपिका वचनिका। बनाकर उनकी संगति से शास्त्र-ज्ञान उपलब्ध किया १२. समन्तभद्र कथा । तथा उनसे अपने पढ़ने के लिए कई हस्तलिखित ग्रन्थो प्रीतंकर चरित्र एक प्रबन्ध काव्य है जो सम्भवतः की प्रतिलिपियां भी करवाई। प्रारंभिक शिक्षा के पश्चात् इनकी प्रथम रचना हो सकती है। इसमें प्रीतकर मुनि इन्हें व्याकरण, छंद एव ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों का भी का जीवन चित्रित किया गया है। यह ग्रंथ पाटोदी के अध्ययन कराया गया। जोषराज गोदीका अनेक शास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान मन्दिर में वेष्टन सख्या ६८२ पर उपलब्ध है। सम्यक्त्व कौमुदी मे कवि द्वारा रचित अनेक लघु थे। सस्कृत, प्राकृत एव व्रज एव राजस्थानी भाषा पर कथाएं सग्रहीत है। यद्यपि मूल रूप में यह सस्कृत का उनका पूरा अधिकार था। प्राध्यात्मिक शास्त्रों में उनकी विशेष रुचि थी। अपनी इसी रुचि के कारण उन्होने अथ ग्रंथ है लेकिन कवि ने अपनी प्रतिभा से इसमें मौलिकता सांगानेर को साहित्य का केन्द्र बना दिया और जनता की लाने का प्रयास किया है। जिसे पढकर प्रत्येक पाठक को प्रात्मदर्शन होते है। इसीलिए प्रारंभ मे कवि ने कहा है१. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास । मूल ग्रंथ में ज्यों सुनी, कथा कहै कवि जोष । - कामता प्रसाद जैन पृ० १५५ २. जोध कवी सुर होय, वासी सागानेर को। सोई ए भाषा सही, वायक दरसन बोष ।। प्रमरपूत जग सोय, वणिक जात जिनवर भगत ।। सम्यक्त्व कौमुदी की रचना कवि ने संवत् १७२४ में --धर्मसरोवर छद स०६७३ । फाल्गुन वदा जयादशा शुक्रवार का सागानरम बन ३. प्रवचन सार भाषा छद २७-२८ । समाप्त की थी, जैसा कि उसके प्रशस्ति पद्य से स्पष्ट है४. वीरवाणी वर्ष १, पृ०७०। संवत सत्रास चौबीस, फागुन वुदि तेरस शुभ दीस । ५. वही। ६. वही। सुकरवार सो पूरन भई, यह कथा समकित गुन ई॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जन कवि और उनकी रचनाएँ यह रचना भी शास्त्र भंडार जैन मन्दिर पाटोदी मे अन्तिम दिनो में ये कामां चले गये थे। प्रथम हेमराज के सुरक्षित है। 'प्रवचनसार भाषा' कवि की प्राध्यात्मिक नाम से निम्नलिखित रचनाए मिलती हैरचना है। इसमें कवि ने अपने प्राध्यात्मिक भावों को १. प्रवचन सार भाषा' (माघ शुक्ला ५ स. १७०६) प्रवचनसार के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया २. चौरासीबोल है। सर्वप्रथम पाण्डे हेमराज ने इसकी वचनिका की थी। ३. नय चक्र भाषा' (फाल्गुन शु. १० सं. १७२६) उसी के प्राधार पर कवि ने साहित्य जगत् को एक पद्य ४. गोम्मटसार कर्मप्रकृति (१७२०) मय रचना और भेट कर दी। इसका पूरा इतिहास कवि ५. द्रव्य संग्रह भाषा (माघ शु. १० सं. १७३१) ने स्वयं ही लिख दिया है। ६. भक्तामर स्तोत्र भाषा __ जोधराज की 'ज्ञानसमुद्र' तथा धर्मसरोवर नामक ७ परमात्म प्रकाश। दोनों कृतियां मौलिक है और दोनों ही नीति प्रधान है। ८. गणितसार। इनको छद सख्या क्रमश: १४७ और ३८७ है । धर्म सगे. ६. दोहाशतक। १०. हितोपदेश बावनो। वर की रचना स० १७२४ के प्राषाढ़ माह की है। यह ग्रंथ बाबा दुलीचन्द्र के शास्त्र भडार में उपलब्ध है । इस ११. साधु की प्रारती । पाण्डे हेमराज उत्कृष्ट कोटि के कवि थे। इनका ग्रंथ में नामबद्ध, धनुषबद्ध, तथा चक्रबद्ध कवितापो के 'चौगसीवोल' छंदोबद्ध काव्य है। इन्होने शार्दूल विक्रो चित्र भी है। इन दोनों ग्रन्थो मे दोहा, सोरठा, चौपाई, डित, छापय और सर्वया छदों में सुन्दर भावो को अभिसर्वया, गाहा, छप्पय कवित्त आदि छदो का बाहुल्य है। व्यक्त किया है। इन का दोहा शतक भी श्रेष्ठ काव्य है । (२) हेमराज इसमे अधिकाशतः नीतिपरक दोहे है। इसकी समाप्ति हेमराज नाम के दो जैन विद्वान हुए है। एक पाडे कार्तिक सुदि ५ सवत् १७२५ मे हुई। इनकी कविता हेमराज जो संस्कृत प्राकृत के अच्छे विद्वान और कवि थे। १. यह कृति शास्त्र भंडार, जैन मन्दिर पाटोदी मे उपपौर दूसरे हेमराज गोदिका, इनका जन्म सत्रहवी शताब्दी र लब्ध है। में सांगानेर (जयपुर) मे हुअा था। अपने जीवन के . २. हिन्दी जैन माहित्य परिशीलन-नेमिचन्द जैन पृ० १. मूल ग्रंथ करता भये, कुंद कुंद मुनिराय । २२३ । ३. बाबा दुलीचन्द शास्त्र भंडार, वै० सह १३४ पर तिन प्राकृत गाथा करी, प्रथम महासुख पाय ।। उपलब्ध है। तिन ऊपर टीका करी, अमृत चन्द्र सुखरूप। ४. जैन मन्दिर पाटोदी के वे० स०१३ पर उपलब्ध है। ससकृत प्रति सुगम, पडित पूज्य अनूप ॥ ५. शास्त्र भंडार, गोधो का मन्दिर के वै० सं० ७३३ ता टीका कौं देखिक, हेमराज सुखधाम । पर उपलब्ध है। करी वर्गानका अति सुगम, तत्वदीपिका नाम ।। ६. भामेर शास्त्र भडार के वे०स० १५५० पर है। देख वनिका हरिषियो. जोधराज कवि नाम । ७. शास्त्र भडार जैन मन्दिर पाटोदी के वे० सं०१०५ तब मन मे इह धारि के, किये कवित्त सुखधाम ।। पर है। -प्रवचनसार प्रशस्ति ८. प्रामेर शास्त्र भडार मे है। २. संवत सत्रह से अधिक, है चोईस सुजानि । ६. दोहाशतक दोहा सख्या १०२ । सुदि पून्यो प्राषाढ़ की, कियो प्रथ सुखदानि ।।३८५॥ यह प्रथम हेमराज अग्रवाल की रचना नहीं है, -धर्म सरोवर किन्तु द्वितीय हेमराज गोदिका की रचना है। इसी ३. राजस्थान के जैन भडारो की सूची-डा. कासलीवाल तरह गणितसार द्रव्यसग्रह भाषा, हितोपदेश बावनी, ४. दोहा शतक-दोहा संख्या ६८, ९६ (हेमराज) साधु की प्रारती तथा नयचक भाषा भी इनकी कृति ५. वही, दोहा संख्या १००। नही है। -सम्पादक Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४, वर्ष २५, कि० २ का नमूना दृष्टव्य है १५. चतुर्विशति तीर्थस्थर पूजा प्रलय पवन करि उठी पागि जो तास पटतर । १६. प्रादिनाथ पूजा बमै फुलिंग शिखा उतंग पर जल निरतर ।। १७. ओंकार सिद्धा जगत समस्त निगल्ल भस्म करहैगी मानो। १८. पंचमेरु पूजा तडतडात बव मनल, जोर चढ़ दिशा उठामो ॥ १६. नन्दीश्वर पूजा सोइक छिन मैं उपशमें, नाम नीर तुम लेत। ६०. चारमित्रो की कथा होइ सरोवर परिन में, विकसित कमल समेत ।। २१. जिन गीत दूसरे हेमराज की रचना प्रवचनसार पद्यानुवाद है (1) नेमिनाथ चरित्रजिस उन्होंने सं० १७२६ मे बना कर समाप्त किया है। इसको रचना प्राषाढ कृष्णा १३ सं० १७६३ को हुई दूसरी रचना दोहा शतक है, जिसे उन्होने कामा (भरत थी। इस काव्य मे कवि ने अपने पाराध्य के गुणों का पुर) मे बनाकर समाप्त की थी। बखान किया है और कहा है कि इस मूर्ति की वन्दना ३) प्रजयराज पाटणी करने से यह जीव इस समुद्र से पार हो सकता है। मामेर अजयराज का जन्म सांगानेर मे हुमा था। बड़े होने के मध्य एक जिन मन्दिर है, उसके चारों ओर प्राकृतिक पर इन्होने भट्टारक देवेन्द्रकीति के शिष्य महेन्द्रकीति के वातावरण का मनमोहक चित्रण दृष्टव्य है--- पास ज्ञान ग्रहण किया और अधिकांशत: पामेर मे रहने अजयराज यह कीयो बखाण, राज सवाई जयसिंह जाण। लगे। इसीलिए डा०प्रेमसागर जैन ने इन्हें प्रामेर का अंबावती सहर सुभ थान, जिन मंदिर जिनदेव विमाण ।। निवासी बताया है। ये मामेर के प्रसिद्ध सांवला जी के वीर निवाण सोहै वनराई, वेलि गुलाब चमेली जाई। मन्दिर में नित्य पूजा वन्दना करते थे। वहां के नेमिनाथ चम्पो मरबो परे सेवति, पो हो ज्ञाति नाना विषि कीती।। भगवान को चमत्कारिक मूर्ति से प्रेरणा पाकर उन्होने बह मेवा विधिसार, वरणत मोहि लागे बार। 'नेमिनाथ चरित्र, लिखा। इनकी अधिकाश कृतिया गढ़ मदिर कछु कहो न जाई, सुखिया लोग बसे अधिकाई भक्ति और अध्यात्म से सबंधित है। अजयगज की प्रमुख तामे जिन मंदिर इकसार, तहाँ विराज श्री नेमिकुमार । रचनाएं निम्न प्रकार है श्याम मूति सोभा प्रति घणी, ताकी उपमा जाहन गणी ।। १. यशोधर चौपाई (कार्तिक कृष्णा २ स. १६७२) (२) शिव रमणी का विवाह२. नेमिनाथ चरित्र (प्रासाढ कृष्णा १३ सं. १७९३) १७ छन्दों को यह एक मौलिक रचना है जिसमे ३. जिनजी की रसोई (जेष्ठ शु. १५ सं. १७६३) मात्मा का परमात्मा के साथ विवाह वणित किया गया ४. पार्श्वनाथ जी का सोलहा (१७६३) है। यह एक रूपक काव्य है। इसमे दूल्हा तीर्थङ्कर को ५. प्रादिपुराण भाषा (१७६७) बताया गया है । भक्तजनो की बरात बनाई गई है। दूल्हा ६. चरखा चउपई। व बरात पचमगतिरूपी ससुराल में पहुँचते हैं और वहाँ ७. शिवरमणी का विवाह । से मुक्ति रूपी रमणी से विवाह करते हैं। शिव रमणी ८. विनती। मात्मा का मन मोह लेती है। उस समय उसके मानन्द ६. वसन्त पूजा । का पारावार ही नहीं रहता। वर-वधू ज्ञान सरोवर में १०. कक्काबत्तीसी। १. संवत सतरास तिगणवे, मास प्रसाढ़ पाई वर्णयो । ११. शांतिनाथ जयमाल । तिथि तेरस अधेरी पाख, शुक्रवार शुभ उत्तिमदास ॥ १२. पद संग्रह। -शास्त्र भण्डार, ठोलियों के मन्दिर में स्थित हस्त १३. बाल्यवर्णन । लिखित प्रति (नेमिनाथ चरित्र) १४. सिखस्तुति २. उत्तरपुराण भाषा के अन्त में परिचय । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलकर तृप्त हो जाने है राजस्थान के जैन कवि और उनकी रचनायें शिव रमणी मन मोहोयोजी, रहे जो भाव ज्ञान सरोवर में छकि गये जी, आवागमण निवारि ।। १५ ।। आठ गुणां मडित हुवा जी, सुख को तहां नहीं छोर । प्रभु गुणा गाया तुम तणांजी, श्रजराज करि जोडि ॥ १६ ॥ (३) जिनजी की रसोई -- ५३ छन्दों की यह बहुत सुन्दर बना है। जिसमें वात्सल्य रस का चित्रण हुआ है। इसमे जिनको माता द्वारा परोसे गये विभिन्न खाद्य पदार्थो के नाम गिनाये गये है। भोजन के पश्चात् न-विहार का भी वर्णन है। इस कृति का एक छन्द दृष्टव्य है जिसमे वात्सल्य भाव का चित्रण है 1 यह जिन जी की कहूँ रसोई ताको सुत बहुत सुख होई तुम रूसो मत मेर चमना। खेलो बहु विधि घर के प्रगना । देव अनेक बहुत खिलाब। माता देखि बहुत सुख भासे ॥१॥ (४) बरखा च उपईयह भी एक रूपक काव्य है जिसमे ११ छद है । प्रथम तीन छदो मे जिनेन्द्र की वन्दना, सात पद्योमं चरखे का रूपक और अन्त मे उसकी उपयोगिता का वर्णन है । ६५ चरने का रूपक बापते हुए कवि ने कहा है कि ऐसा चरखा चलाना चाहिए जिसमे खूटे-शील और संयम, लाड़ियां शुभ ध्यान पाया कलध्यान, दामन सेवा, माल दश-धर्म, हामी चारदान, ताकू-पारमासार, सूत-सम्यक्त तथा कूकडी बारह व्रत हो। इस प्रकार यह कृति बहुत ही रुचिकर है और साथ ही रसयुक्त भी। इसके प्रारम्भ की दृष्ट है श्री जिनवर बटू गुणगाय, चतुर नारि वर्षेलाय । रागदोष विगता परिहरं चतुर नारि चरचित परं । प्रथम मूल चरखा को जाणि, देव धर्म गुरु निश्चे आाणि । दोष घठारा रहत सुदेव, गुरु निश्च तिणकरि सेव ।। धर्म जिनेसुर भाषितसार, जयत तत हिरवं धार(?) ज्यौ समकित उपजं सुषकार, ता विन भ्रम्यो भव तू निस्सार ।। (५) का बत्तीसी- इसकी रचना वैसाख सुदि १३ सोमवार सं० १७८३ मे हुई थी। इसमें ४० छद है। नमूने के लिए दो छद दुष्टव्य है नजां निपट नजीक है, निज पद निज घट मांही। जल बीचि मोबनी, त्यो चेतन जड पाही ।। ३४ ।। ससां सो अब पाइयो सो कबहु नहीं जाय । धनि जनेसर धनि गुरु, तिन प्रसाद इन्हें पाय ।। ३६ ।। १. सत्रास तीयासीय रिति ग्रीषम वंशाप | सोमवार तेरसि भली, श्रवर उजालो पाष || - कक्का बत्तीसी अनेकान्त के ग्राहक बनें की 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है । अनेक विद्वानो और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-सस्थाओं, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रुत प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बने घर दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। इतनी महगाई में भी उसके मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई, मूल्य वही ६) रुपया है । व्यस्थापक अनेकान्त Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलचुरि कला में शासन देवियां शिवकुमार नामदेव (शोधछात्र) भारतीय इतिहास मे कलचुरि नरेशों का काल प्रवि- हो रहे है। यक्षी के दोनो पार्श्व पर एक-एक परिचा. स्मरणीय रहेगा। दीर्घकाल के शासनावधि में कलचुरि रिका खडी हई है। दाहिने मोर की परिचारिका अपने नरेशो ने अन्य की भांति कला की भी चहुमुखी उन्नति हस्त से अधोवस्त्र पकड़े हुए है, उसके दक्षिण हस्त मे की । शैव धर्मावलम्बी होते हुए भी इन कलचुरि नरेशो सभवतः पद्म है। ने अन्य धर्मों के प्रति द्वेष भाव नही रखा, परिणाम स्वरूप कलचुरि कालीन जैन चश्वरी की प्रतिमा तेवर सभी धर्म एक स्वच्छंद वातावरण मे फले फले। इस (जबलपुर,म०प्र०) बालसरोवर के शैव देवालय की बाह्य काल मे हिन्दू एव बौद्ध मूर्तियो की ही तरह जैन मूर्तियों पट्टी पर उत्कीर्ण है। उसी देवालय की बाह्य पट्टी पर की बहुलता है। जैन तीर्थकर प्रादिनाथ की अनेकों मूर्तियां है। कलचुरि कला में प्राप्त शासन देवियों की प्रतिमानो पनागर (जबलपुर, म०प्र०) से अम्बिका देवी की को दो भागो में विभक्त किया जा सकता है-स्थानक एक २॥' ऊँची सुन्दर प्रतिमा प्राप्त हुई है । स्थानीय लोग एव प्रासन प्रतिमाएं। इस 'खेरदाई' या 'खे रदैय्या' नाम से पूजित करते है । प्रासन मूर्तियां अम्बिका देवी की यह बैठी हई प्रतिमा को अम्बिका ही कलचुरि क लीन शासन देवी की प्रासन प्रतिमाए, मानने के प्रमुख कारण ये है कि देवी के प्रतीक पाम्रकारीतलाई, तेवर, पनागर (जबलपुर जिले में) तथा लुम्ब एव बालक प्रादि प्रमुख लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर सोहागपुर (शहडोल जिले मे) प्रादि स्थलो से प्राप्त हुई होते हैं ।देवी के मस्तक पर भगवान नेमिनाथ की पद्माहै। इन मूर्तियो मे अबिका, चक्रेश्वरी की प्रतिमाए सनस्थ व पार्श्व में अन्य खड्गासनस्थ जिन मूर्तियाँ है । मुख्य है। पृष्ठभाग मे विस्तृत प्राम्रवृक्ष उत्कीर्ण है। देवी के मस्तक कारीतलाई ने पाम्रादेवी की एक मूर्ति प्राप्त हुई है पर क्रमशः नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ एवं चन्द्रप्रभु की प्रतिमाएं जो माजकल रायपुर (म० प्र०) सग्रहालय मे सरक्षित उत्कीर्ण है। है । सफेद छीटेदार लाल बलुवा पत्थर से निर्मित इस सोहागपुर (शहडोल म०प्र०) से एक और प्रतिमा प्रतिमा में बाइसबे जैन तीर्थकर नेमिनाथ को शासन देवी प्राप्त हुई है जिसका समीकरण अथवा पहचान प्रभी अबिका ललितासन मे सिंह के ऊपर बैठी हुई है, जो संभव नही हो पाई है । देवी के मस्तक के ऊपर बैठी हुई उसका वाहन है । द्विमजी यक्षी अपने दाये हाथ मे पाम्र- जिन प्रतिमा के मस्तक के ऊपर सर्प के छत्रों का वितान लुबि लिए है और बाम हस्त से गोद में बैठे हुए अपने है। देवी के मस्तक के ऊपर भी सर्प छत्रों का वितान है। कनिष्ठ पुत्र प्रियशकर को सम्हाले हुए है। अबिका का इससे यह संभव प्रतीत होता है कि देवी सुपार्श्व प्रथवा ज्येष्ठ पुत्र शुभंकर अपनी मा के दक्षिण पाद के निकट पार्श्वनाथ (कालिका या पद्मावती) से सबंधित है। एक बैठा हुप्रा है । प्रबिका का चेहरा मुस्कराता हुमा दिख- मुखी एवं द्वादशभुजी देवी के वाम हस्तों में चक्र, वण, लाया गया है । मस्तक के ऊपर स्थित प्राम्रवृक्ष बाला परशु, प्रसि, शर तथा एक वरद मुद्रा मे है। दक्षिण भाग खडित हो गया है । अबिका का केश विन्यास मनो- हस्तों मे धनु, अंकुश, पाश, दण्ड, पप, तथा एक हाथ हर है। उसके प्रग-पग पर यथोचित माभूषण शोभित खण्डित है। देवी के दोनों पाव एवं पादपीठ पर उसके Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकोट के दुर्ग से प्राप्त एक जैन प्रतिमा डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री मध्यप्रदेश साहित्य व सस्कृति की दृष्टि से ही नही, तक भट्टारको की गद्दी रही है। प्रामपास पहाडी स्थान वरन् इतिहास तथा पुरातत्व की दृष्टि से भी अत्यन्त हैं और छोटी-मोटी कई गुफाए है, जिनमे जैन सांस्कृतिक समृद्ध है । मध्यप्रदेश मे भी मालवा एव पार्ववर्ती क्षेत्रों इतिहास और प्राचीन गरिमा की भ.लक ग्राज भी दिख नाई मे अनेक स्थानों पर जैन इतिहास तथा पुरातत्व व्याप्त पड़ती है। मिलता लगभग डेढ़ माह पूर्व ही भानपुरा से दक्षिण की चित्तौड़ के दुर्ग की भौति कालाकोट के दुर्ग से अनेक पोर लगभग १५-२० किलोमीटर की दूरी पर कालाकोट दि० जैन प्रतिमाए कई वर्षों से प्राप्त हो रही है। जन नामक दुर्ग से भगवान् पार्श्वनाथ की एक दि० जैन प्रतिमा सामान्य आवश्यकता पड़ने पर किले से पत्थर लाते रहते उपलब्ध हुई है। है और किसी न किसी भीत के ढहने पर कोई न कोई भानपुरा झालरापाटन और नीमच के बीच एक जन प्रतिमा निकाल पड़ती है। तीर्थपुर पार्श्वनाथ की प्राचीन नगरी के रूप में अवस्थित है। यह कम्बा मध्य यह प्रतिमा रलेटी रंग की पद्मासन मूर्ति है। इसकी प्रदेश और राजस्थान की सीमा के निकट है । झालावाड़ ऊचाई लगभग ५ फुट और चौडाई लगभग तीन फुट है। रोड से लगभग २० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्रतिमा अच्छी हालत में है और मनोज्ञ है। नासिका, वक्ष पहले यह होलकर स्टेट के अन्तर्गत था। इस पुर में वर्षों । पौर हस्तागुलियो के कुछ प्रश भग्न हो गये है। यह प्रतिमा इस समय भानपुग के एक उद्यान में एक कमरे सेविकाओं का अंकन है। दाहिनी ओर नाग एव वाम पावं मे विराजमान है। भक्त लोग इसको बन्दना करने जाते में तीन घुटने टेकी हुई प्राकृतियां है। रहते है। कुछ लोगो के अनुमार इसमें कुछ प्रतिशय भी इसी स्थल से एक और जैन देवी की प्रतिमा प्राप्त है। एक बार जब प्रतिमा लेने के लिए कुछ लोग पहुने हुई है । देवी के ऊपर एक वृहद् जिन की ध्यानस्थ प्रतिमा तो निराश लौटना पडा। क्योंकि प्रतिमा किसी से उठती है, जिसके दोनों पार्श्व पर परिचारक चंवर लिए हाए ही नही थी। जब दूसरी बार कुछ अन्य भक्त लोग खड़े है। परिचारकों के दोनों पार्श्व पर एक-एक जिन ___ संकल्प लेकर पहुँचे तो प्रतिमा सरलता से उठकर भान. प्रतिमा की खडी हुई मूर्तियाँ हैं । जिन प्रतिमा के पादपीठ पुरा तक ग्रा गयी। कालाकोट भानपुग से मन्दसौर की पर जिस पर वे बैठी हुई है, दो सिंह उत्कीर्ण है। जिन प्रोर मार्ग मे अवस्थित है। प्रतिमा का लांछन खण्डित है। जिसके नीचे शासन देवी प्रतिमा-लेय इस प्रकार हैकी बैठी हुई मूर्ति है । इनके नीचे शासन देवी की बैठी हुई सवत् १३०२ वर्षे पो० १५ गम् लाडवागडा पोरमूर्ति है। देवी के प्रासन के नीचे दबका मिह उत्कीर्ण है। पाटान्वये माहुशहन “सा ...""तेद...""प्रतिष्ठिता देवी के मस्तक के ऊपर पाम्र गुच्छ का छत्र है । द्विभुजी प्रतिमा-लेख की लिपि में खड़ी पाई मिलती है। देवी के वांये हाथ में पाम्र गुच्छ तथा दाहिने में वे एक भानपुग के श्रावक बन्धुनों से निवेदन है कि वे इस बच्चे को लिए हुए हैं। बच्चे के हाथ में भी प्राम्र गृच्छ चमत्कारी प्रतिमा को बड़े मन्दिर में विराजमान कर है। दोनों पाव पर एक एक बैठी एवं एक-एक खडी पुण्य-सचय करने का लाभ प्राप्त करें। प्राचीन प्रतिमा परिचारिकाएं हैं । देवी ललितासन मुद्रा में बैठी है।. सदा पूज्य होती है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोलापूर्व जाति पर विचार यशवंत कुमार मलैया, दमोह भारत में निःसन्देह जाति-व्यवस्था का बड़ा महत्व प्रावा माना गया है) [देखिये (१) वर्धमान-पुराण-नवलहै। हर सामान्य भारतीय का खान-पान, रीति-रिवाज साह च देरिया, (२) परवार मूर-गोत्रावलो, (३) अनेप्रादि जाति-व्यवस्था के अनुसार ही शासित होते हैं। कान्त दिम० '७१, पृ० २१८] । यह उल्लेखनीय है कि भारतीय नरेशों का पतन, मुसलमानो का उत्थान व पतन, इन सब मे तारणपंथियों का (समैया' व 'चन्नागरे') ब्रिटिश राज और फिर स्वराज्य, इन सबने जाति-व्यवस्था उल्लेख नहीं है। [१३वीं शताब्दी से पूर्व इन का इतिहास पर अपना प्रभाव छोडा है। वस्तुतः जाति व्यवस्था एक नही है । अद्भुद "जीवन्त अवशेष" है - इसका इतिहास वास्तव मे नाम विचार --गोलापूर्व शब्द मे न तो समय के साथ बहुसंख्यक भारतीय समाज का इतिहास है। परिवर्तन हुग्रा है और न ही इसका "सस्कृतीकरण" का जाति की एक कामचलाउ परिभाषा इस तरह दे प्रयास हुप्रा है। सस्कृतीकरण' के कारण मूल नाम के सकते हैं यह वह समूह है जिसके सदस्य आपस में ही विवाह निश्चय मे बहुधा नम हो जाता है। [सस्कृतीकरण के सम्बन्ध करते है। सैद्धान्तिक रूप मे अलग अलग जाति के उदाहरण देखिये : बघेरवाल का पारबाल, पुरवाड लोग अलग-अलग नस्ल (Roce) के होना चाहिए - (पुरवार) का पौरपट्ट, कछवाहा (राजपूत ) का 'कच्छपलावन यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। [इस विषय पर घट , 'कुशवाहा' ग्रादि] । "Costs System of Northern India"--- Blant 'गोला' किसी स्थान को सूचित करता है। इसी 1931" में ऊहापोह किया गया है । स्थान पर इन जातियों का नाम पडा है-गोलापूर्व, जाति को अन्वय 'कुल', वश', 'जाति' या कई बार गोलालारे (गोलाराडे) गोलसिंघारे और वणवधर्मी गोलाभूल से 'गोत्र' भी कहा गया हैं । अग्रेजों ने इसे 'Caste' पूर्व ब्राह्मण व गोलापूर्व क्षत्रिय । जैन-धातु-प्रतिमा लेख कहा है। जाति या उप-जाति शब्द का प्रयोग नया । सग्रह" में एक प्रतिमा स्थापक को 'गोलावास्तव्य' लिखा ___ गया है । [श्री अ. भा० गोलापूर्व डायरेक्टरी] | श्रवणजनों में चौरासी जाति है । "फलमाल पच्चीसी" बेगोला के एक लेख (शक सं० १०३७) मे गोला देश से में चौरासी नाम गिनाये गये है। लगभग प्राधी पहिचान प्राये गोल्लाचार्य का उल्लेख है। ["दिगम्ब रत्व और में प्राती है-दोष के बारे में उल्लेख सुनने में नही पाये। दिगम्बर मुनि" पृ० २६०']। यह वही गोला स्थान हो इन ८४ नामों का सकलन '८४' के मोह से किया गया सकता है। वर्षान पुराणकार ने 'गोयलगढ़' की कल्पना लगता है। राजस्थान मे ८४ वैश्य (जैन-अजैन दोनों) की थी-जिसे पाछ विद्वानों ने ग्वालियर माना था। जारियां मानी गई है। [वर्नल टाड] । एक अर्वाचीन परमानन्द शास्त्री का मत गोलाकोट का है। पर इन रचना "अथ श्रावकोत्पत्ति वर्णनम्" में खण्डेला (शेखा. स्यानो के आस-पास गोलापूओं के प्राचीन शिलालेख नहीं वाटी) के राजा गिरखण्डेल के अधीनस्थ ८४ शासकों मिलते । गोलापूर्व अन्वय के उल्लेख वाले प्राचीनतम द्वारा ८४ जाति के श्रावको की उत्पत्ति कही गई है। शिलालेख पुराने मोरछा व पन्ना स्टेट में व महोबा में [जैन सन्देश शोधांक-१७] । एक अन्य परम्परा माढ़े मिले है। अन्य स्थानो पर गोलापूर्वान्वय के स० १३०० बारह जातियों के नाम गिनाने की है (अग्रवालो को से पूर्व के लेख बिरसे ही हैं। जब भी पोरछा व पन्ना Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोलापूर्व माति पर विचार स्टेट में तथा इनके पास गोलापूर्व की विशेष प्राबादी है। का नामकरण कर लिया और इस प्रकार जातियों का यहाँ से ही गोलापूर्व अन्य स्थानों को जा-जाकर बसे है। जन्म हुप्रा । "मादि-पुरुष" मादि की कल्पना (जैसे अग्रवर्तमान में जो गोलापूर्व बुन्देलखड के दक्षिण में (सागर, वालों के राजा अग्रसेन प्रादि) बाद में मोड़ी गई है। दमोह व जबलपुर जिला) बसे हुए है, वे सब उत्तर से हो, पलग-अलग जातियों में प्रमग शारीरिक विशे(बन्देलखड के प्रान्तरिक भागों से ) प्राकर बसे हैं । उदा- षता हूंतने का प्रयास मुश्किल ही होगा। एक ही जाति हरण देखिये -पाटन के राधेले सिंघई प्रहारक्षेत्र से प्राकर में गोरे से गोरे या काले से काले लोग मिल सकते हैं। बसे थे। सागर के फूस केले सिंघई मदनपुर (जि० झांसी) ऊँची प्रार्य-नाडिक नाक वाले या प्रकीकियों जैसी नाक से पाकर बसे है (लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व प्राकर बसे वाले मिल सकते हैं । जातियों का अध्ययन कृतत्व-गास्त्री हैं। हटा के टैटवार सिंघई बमानी (छतरपुर) से दो सौ (anthropoiogtt) के लिए सिर दर्द ही साबित होगा। वर्ष पूर्व प्राकर बसे है । रोठी (जि. जबलपुर) के पड़ेले गोलापूर्व ब्राह्मणो व गोलापूर्व क्षत्रियों के बारे में सवा सौ वर्ष पूर्व पता (जि. टीकमगढ) से पाये थे। विचार पावश्यक है। वर्तमान मे इनमे व जैन मोलापकों कटनको के पटवारी कोठिया लगभन ८० वर्ष पूर्व गोरख- में कोई सम्बन्ध नहीं है, न ही किसी सम्बन्ध की स्मति पूरा से पाये थे। दमोह गजेटियर (१९०१) लिखता है है। गोलापूर्व ब्राह्मण जिला प्रागरा, मथरा. बदायं. एटा कि दमोह के परवार टीकमगढ-टेहरी से माये थे और रियासत घोलपुर, ग्वालियर, भोपाल, इंदौर, दतिया. गोलापूर्व भी उसी ओर से आये थे। कोटा, जयपुर, जोधपुर व जिला होशंगाबाद तथा खंडवा अतः पुराना ओरछा व पन्ना स्टेटों के (पाप-पास में बसे है । सन् १९४० मे ये अपनी जनसख्या ३-४ लाख जिले टीकमगढ, छतरपुर, पन्ना) ही 'गोला' स्थान होना ___ बताते थे। [श्री म. भा. दिगम्बर जैन गोलापूर्व चाहिए। डायरेक्टरी] | इनके इतिहास के बारे में कुछ ज्ञात नहीं। महोबा में कुपा खोदते समय एक बार २४ जेन गोलापूर्व क्षत्रियो के बारे में कुछ जानकारी 'Caste प्रतिमाये प्राप्त हुई थी। इनमें से तीन पर के लेखों मे Eystern of northern India.' में मिलती है। इनके (सं० १२१६, १२४३, य२४३) गोलापूर्यान्वय का इतिहास के बारे मे कोई उल्लेख नहीं। इन्हें एक कप उल्लेख है । शेष पर के लेखो में (इन सं० ८३१, ८२२, जाति कहा गया है। ये (और दांगी क्षत्रिय) मोम ११४४ व १२०६ के लेख भी है) किसी जाति नाम का करते है। इनके गोत्र प्रामो के नाम पर से हैं। ये कच्च उल्लेख नहीं है। सम्भव है सभी गोलापूओं (या उनके भोजन सजातीयों व ब्राह्मणों का बना व पक्का मजातीय पूर्वजों) द्वारा स्थापित हों। ब्राह्मणों, राजपूतों व बराबर की जातियों का बहण कर __ऐसा प्रतीत होता है कि सभी प्राचीनतर जैन जातियां हैं। मोला (tPboo) के अनुसार वर्गीकरण में इस लगभम एक ही समय बनी थी। दसवीं शताब्दी के पूर्व अग्रवालों मादि के साथ रखा गया है। जातियों के उल्लेख नहीं मिलते । वास्तव में इससे पूर्व ध्यान देने की बात है कि अधिकतर जातिय प्रात की एक-दो शताब्दियों के भारतीय इतिहास में एक घुघ- अवस्था में कृषक-क्षत्रिय ही होती है (जैसे प्रादिवा लका सा छाया हुआ है। जातिया) । मतः अधिकतर वैश्य जातियों का दावा है। अधिकतर जातिया एक ही स्थान पर निवास करने वे क्षत्रिय थे, मनुचित नहीं कहा जा सकता। बुन्देन वाले जन-समुदाय से बनी हैं। देशव्यापी उथल-पुथल के 'असाटी' वैश्य, कृषक थे यह पब भी मान्यता होने से लोग अपने पूर्वजों का स्थान छोड़-छोड़कर अन्यत्र [(१) दमोह डिस्ट्रिक्ट गजेटियर १९०२ (२). बसने लगे लेकिन प्राचीन रीति-रिवाजो मे बंधे होने से सिस्टम भावद नार्दर्न इडिया]। अपने पुराने बघुषों में ही विवाह मादि सम्बन्ध करते लगता है पहले गोलापूर्व वैश्य (जैन) गोला रहे। अपने मूल स्थान प्रादि के नाम पर अपने समुदाय कृषक-क्षत्रिय एक ही रहे होगे और जैन धर्म मानते ।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०, वर्ष २५, कि०२ अनेकान्त गोलापूर्व क्षत्रिय कृषि करते रहे व अन्य जातियों के के नागकुमार चरित में गोलाराडान्वय को 'इक्ष्वाकुवंश सम्पर्क में प्राकर वैष्णव-धर्म में शोषित हो गये। [ऐसा संभूत' [अनेकान्त दिसम्बर '७१] एवं सं० १७२२ के ही अन्य उदाहरण है 'गृहपति' अन्वय का, जो वर्तमान में नया मन्दिर लश्कर के यत्र लेख में 'इक्ष्वाकुवशे गोलसिवष्णव 'गहोई' वश्य है] । अन्य जैन बने रहे व वैश्य घारान्वये' लिखित है। [अनेकान्त जून '६६] । यह इस कर्म करने लगे। गोलापूर्व ब्राह्मण भी 'गोला' स्थान के बात को सिद्ध करने के लिए तो पर्याप्त नहीं है कि वे वासी थे, पर उनका अन्य गोलापूर्वो से जातीय सम्बन्ध वास्तव में इक्ष्वाकुवंशी है, पर इससे तीनों के एक ही है या नही, कहा नही जा सकता। होने के पक्ष मे प्रमाण मिलता है। 'गोलापूर्व' में 'पूर्व' का अर्थ क्या है ? 'पूर्व' दिशा भेद विचार-वर्षमान पुराण में गोलापूर्वो के तीन में रहने वाले यह अर्थ कम सम्भावित प्रतीत होता है। भेद कहे गये है बिसविसे, दसविसे और पचविसे । वर्तकारण अन्य दिशा सम्बन्धित जातियां (जैसे गोला-उत्तर मान मे केवल विसविसे व पचविसे ही हैं । पचविसे अल्प मादि) नहीं है। 'पूर्व' का अर्थ 'पहले' (अर्थात काल ही है। इनकी लगभग सम्पूर्ण प्राबादी रहली (जि. सम्बन्धी) रहा होगा या कोई अन्य लक्षणार्थ रहा होगा। मागर) हटा (जि० दमोह) व जबलपुर जिले मे है । गोलालारे (गोलाराड) व गोलसिंगारे जातियां बाद ये यहाँ बहुसंख्यक विसविसों के पाने के बहुत समय पूर्व में उत्पन्न लगती है। प्रतीत होता है कि ये गोलापूर्व से प्राबाद है। जाति की ही शाखाएँ रही हैं। हमें गोलाराडान्वय का जिस तरह अन्य जातियों में दसा भेद उत्पन्न हुमा प्राचीनतम ज्ञात उल्लेख स० १४७४ व गोलासिंगारों का होगा उसी तरह दसविसे ब पचविसे भेद उत्पन्न हुए प्राचीनतम ज्ञात उल्लेख सं० १६८८ का है [अनेकान होगे। कुछ विद्वानों का मत है कि किसी समय किसी जून '६६] । विवाद में २०४२०-४०० घर 'एक पोर' १०x२०= बुन्देलखंड के शिलालेखों के तिथि-क्रम के अध्ययन से २०० घर एक और ५४२०=१०० घर एक पोर थे पह स्पष्ट है कि दो कालों में बड़ी संख्या में मूर्ति-प्रतिष्ठा जिनसे क्रमशः बिसबिसे, दस बिसे व पचबिसे भेद उत्पन्न हुए । पर यह कल्पना कृत्रिम प्रतीत होती है । मध्यप्रदेश इई है एक लगभग सं० ११४० से सं० १२३७ तक व फर बीच में बहुत कम प्रतिष्ठाये हुई थीं। इस काल मे । की ही वैष्णव नेमा जाति मे बीसा, दसा व पचा भेद सलमानों के प्राक्रमण के कारण अव्यवस्था रही है व । वर्तमान है जिनमे उपरोक्त गणित लगाना असम्भव है । माजिक गतिविधि क्षीण रही है। इसी काल मे गोला हाँ, बिसबिसे-पचबिसे भेद तीव्र कभी नहीं रहा । डे अलग हुए होगे। कम सामाजिक गतिविधि का स० १९७८ से, एक कमेटी के निर्णय के बाद परस्पर रा काल स०१५४८ के बाद से स. १८०० तक रहा विवाह सम्बन्ध हान लगे है। । इस समय गोलसिंगारे जाति बनी होगी। सं० १८०० दसविसों का या तो नाश हो गया या वे मन्य दो भेदो मे मिल गये। पुनः व्यापक रूप से प्रतिष्ठायें होना प्रारम्भ हुआ था गोत्र व पद विचार-वर्षमान पुराण में ५० गोत्र र यह अब भी चल रहा है। [सं०१५४८ में स्थापित गिनाये गये । अन्य गोत्रावलियों में प्राप्य कुछ अन्य गोत्र नयों को सख्या पाश्चर्यजनक रूप से अधिक है।] मिलाकर ७६ गोत्र होते है। वर्तमान में केवल ३३ गोत्र गोलालारों की संख्या गोलापूर्वो से कम है, गोलसि पाये जाते हैं। की पौर भी कम, यह बात भी उपरोक्त कथन का गोत्रों का अध्ययन करने में कुछ कठिनाइयाँ हैं । र्थन करती है। कुछ गोत्र प्राचीन है तो कुछ समय पर निर्मित होते रहे इन तीन जातियों के मूल रूप में एक ही होने के हैं। कुछ गोत्रों के लोग अन्य जातियों में प्रवेश कर गये । नि मे एक अन्य तथ्य भी है । द्रोणागिर के सं. १९०७ कुछ अपनी किसी पदवी को ही गोत्र रूप में प्रयुक्त करने ति लेख में "इक्ष्वाकुवंशे गोलापू" है । सं० १५११ [शेष पृष्ठ ७२ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अाजको समय MULIJ कीय : सामान का सार पहाड़पुर का गुप्त-कालीन जैन ताम्र-पत्र (पंचम-शतान्दी) अग्र-भाग । भारतीय पुरातत्त्व विभाग के सौजन्य से। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ENERAT 151 गुना 1/2 STI 16,5 पु ~IT म कविअंग रानीप 7847 W Tim पर $ 54. Jy गांधार अनमना স चित्राभ्यन T ANG +5 भNে अनुभूती म ॐ भगः चम ত पहाड़पुर का गुप्त-कालीन जैन ताम्र पत्र ( पंचम-शताब्दी ) पृष्ठ-भाग । भारतीय पुरातत्त्व विभाग के सौजन्य से । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुप्तकालीन जैन ताम्र शासन परमानन्द जैन शास्त्री बंगाल के राजशाही जिले में बदलगाछी थाने के इस प्रान्त की राजधानी पुण्ड्रवर्धन थी । अाजकल यह अन्तर्गत और कलकत्ता से १८६ मील उत्तर की ओर स्थान महास्थान के नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में जमालगंज स्टेशन से ३ मील पश्चिम की ओर पहाड़पुर उसे ही पौण्ड्रवर्धन कहा जाता था। जो पहाड़पर महाहै। इस प्राचीन मन्दिर के ध्वसावशेष ८१ बीघो मे है। स्थान से उत्तर पश्चिम की ओर २६ मील पर, वानगढ़ उनके चारो ओर इष्ट का निर्मित प्राचीर है। इनके मध्य (प्राचीन कोटि वर्ष) से दक्षिण-पूर्व को मोर ३० मील में एक बहुत बड़ा टीला है, इसी कारण उसे पहाड़पुर पर अवस्थित है। इन दोनो प्रधान नगरो के समीप इस कहा जाने लगा। मन्दिर को स्थापित करने का यह प्राशय था कि त्यागी इस टीले मे सबसे प्राचीन ध्व सावशेष गुप्ताब्द १५६ गण नगरो से बाहर एकान्त मे रहकर शान्ति से धर्मलाभ का एक ताम्र पत्र प्राप्त हुआ है। यहाँ की उपलब्ध के साथ विद्याध्ययन करे और नगर-निवासियों को भी धर्मोपदेश का लाभ मिलता रहे। उस समय पौण्ड्रवर्घन सामग्री की जांच-पड़ताल करने से यह ज्ञात होता है कि और कोटि वर्ष जैनाचार्यों के प्रधान पट्ट स्थान भी थे । यह पहाड़पुर जैन, ब्राह्मण और बौद्ध इन तीन महान धर्मों का उच्च विवर्धक केन्द्र रहा है । अतएव विभिन्न स्थानो इस कारण वहाँ जैनियो का पूर्ण प्राधान्य था। वह एक से यात्रियों का दल पाकर अपनी भक्ति प्रदर्शित करता तरह से जैन केन्द्र बना हुपा था । भद्रबाहु श्रुतकेवली और था। और भारत के विभिन्न स्थानो से अनेक छात्र अहंदवली प्राचार्य पौण्ड्रवर्धन के ही निवासी थे। मुनि विद्याध्ययन करने के लिए पाते थे। जान पड़ता है यह यह सघ का वहां पर बराबर आवागमन होता रहता था। स्थान बहुत पुराना है किन्तु पाँचवी शताब्दी के पूर्वार्ध से गुप्त साम्राज्य के समय यद्यपि जनो की प्रधानता दशवी शताब्दी तक इसकी विशेष ख्याति रही है। रही, किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मणों का प्रभाव भी बढता रहा । हाँ, वौद्धो का प्रभाव वहा उस समय बहुत ही कम था। इस गुप्ताब्द १५६ (सन् ४७८-७६) के इस ताम्र इसका अनुमान चीनी यात्री के कथन से स्पष्ट हो जाता शासन में बटगोहाली ग्रामस्थ श्री गुहनन्दी के एक जैन है। उस समय यहाँ का वातावरण पूर्णतः सहिष्णुता का विहार का उल्लेख है । इसमें पूवर्धन के विभिन्न ग्रामों था, क्योकि यहाँ जैन बोद्ध और हिन्दू तीनों ही सम्प्रदायों में भूमि क्रय कर एक ब्राह्यण दम्पति द्वारा वटगोहाली के की प्राचीन सामग्री उपलब्ध हुई है। जैन विहार के लिए दान दिया जाना लिपिबद्ध किया गया छठबी शताब्दी में किसी समय इस मन्दिर के बढ़ाने है। लेख उल्लिखित वटगोहाली का जैन विहार निश्चय की योजना की गई और अट्टालिकाओं की ऊंचाई से पहाड़पुर के इस मूल स्थान पर अवस्थित था। को बढ़ाया गया, जिससे सम्भवतः प्राचीन अट्टालिका सन् १९०७ में डाक्टर बुकानन हैमिलटन को यह पाच्छादित हो गई। छठी शताब्दी से गुप्तों का प्रभाव टीला गोपाल भीटा का पहाड़ के नाम से बतलाया गया क्षीण होता गया और सातवी शताब्दी के प्रारम्भ में बंगाल था, जिसके अन्दर से यह मन्दिर निकला है। में महाराजा शशांक का प्राधिपत्य हो गया । शशांक शेव ईस्वी पूर्व तृतीय शताब्दी मे उत्तर बंग मौर्यों के धर्मावलम्बी था, उसने जैन और बौद्धों को बहुत ही शासनाधिकार में था। और पुण्डवर्धन नगर में उनका सताया था। तो भी जैनों के पांव यहाँ से नहीं उखड़े। प्रान्तीय शासक रहता था। गुप्त काल में भी बगाल के इस शताब्दी में ही जव बंगाल मे अराजकता का विस्तार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२, १२५, कि० २ भनेकान्त हन, तब धीरे-धीरे जैन धर्म लुप्त हो गया। ईसा की ऊपर महाविहार का निर्माण किया था, उस समय से यह सातवी शताब्दी मे चीनी परिव्राजक हुएनत्साग जब 'सोमपुर महाबौद्ध विहार' के नाम से इसकी प्रसिद्धि हो बगाल में पाया तब उसने पुण्ड्वर्षन में २. सधारामों गई थी। यहीं पर 'दीपंकर' नाम के बौद्धाचार्य ने भव. और प्रसंख्य जन नियंन्थियों के अस्तित्व का उल्लेख किया विवेक के माध्यमिक रत्नद्वीप का अनुवाद किया था। ससे उस समय मे पुण्ड्वधन में जन प्रभाव के प्राकत गुप्त वर्ष १५९ (सन् ४७८ ७६) मे एक ब्राह्मण नाथ होने का प्रमाण मिलता है। और बटगोहाली का यह शर्मा और उसकी भार्या राम्नी ने बटगोहाली ग्राम मे गुहन्दी का जैन विहार भी पौण्ड्रवर्धन और कोटिवष के पंचस्तूपान्वय निकाय के निर्ग्रन्थ (धमण) प्राचार्य गुह जैन संस्थानों की तरह अति ग्रस्त हो गया। सातवीं नदी के नन्दी के शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अधिष्ठित बिहार में भग प्रतियोगी शताब्दी तक जैनियों का प्रभुत्व रहा और पाठवीं शताब्दी वामपनों (जो वान महंतों (जैन तीर्थङ्कगें) की पूजा सामग्री (गन्ध धूप में कल समय ब्राह्मणों का भी अधिकार रहा है। जब आदि) निर्वाहार्थ तथा निग्रंथाचा गृहनन्दि के विहार वहाँ पुनः शान्ति हुई और पाल राज्य प्राठवीं शताब्दी मे मे एक विधाम स्थान निर्माण करने के लिए यह भूमि - स्थित हपा उस समय यह स्थान सोमपुर' के नाम से सदा के लिए इस विहार के अधिष्ठाता बनारस के पंचप्रसिद्ध हो चुका था। स्तूप निकाय संघ के प्राचार्य गुहनन्दि के शिष्य प्रशिष्यो पाल राजामों का अधिकार यहाँ साढ़े तीन सौ वर्षों को प्रदान की गई। तक रहा, पाल नरेश बौद्ध धर्मावलम्बी थे। उनके समय प्रस्तुत गुहनन्दि पवस्तूपान्वय के प्रसिद्ध विद्वान थे। जैनियों की प्रधानता विनष्ट हो गई। जैन विहार पर पचरतुपान्वय की स्थापना पदबली ने की थी। जो उनका अधिकार हो गया, नवमी शताब्दी के प्रारम्भ में पौण्डवर्धन के निवासी थे। पण्डवर्धन जैन परम्परा का पाल वंश के दूसरे सम्राट् धर्मपाल ने इसी विहार के केन्द्र रहा है। अतः गुहनन्दि का समय इस ताम्र शासन १. पहाड़पुर से दक्षिण की भोर एक मील पर अब सोम के काल से पूर्ववर्ती है। सम्भवतः वे दूसरी या तीसरी ग्राम है। वही सोमपुर है। शताब्दी के प्राचार्य होना चाहिए। ★ [पृष्ठ ७० का शेषांस] लगे । कुछ गोत्रों के नाम कालान्तर मे भ्रश हा गये छोटे व्यापारी मोदी कहलाते है। इसी तरह राज्यइस तरह एक ही गोत्र नाम के कई स्वरूप हो गये । बहुत मान्यता के कारण पटवारी होते है। देखिये दुगैले(ज० स० से लोगों को गोत्र नाम का स्मरण ही नही रहा। प्रादि केवल एक) साह हैं । छोड़कटे (ज० स० १६) साह व इनके लिए विशेष अध्ययन को अावश्यकता है। पटवारी हैं। पंचरत्न (ज० सं० १३) पटवारी है। अन्य ___एक विशेष बातका पता चलता है । जो सपन्न रहे है कम जन-संख्या वाले गोत्रों में भी अधिकतर साह या उनकी वंशवृद्धि अधिक हुई है। सिंघई, सवाई सिंघई, मोदी ही कहलाते हैं। [पाकड़े म० भा० दि० गो० सेठ व सबाई सेठ पद क्रमशः एक, दो, तीन व चार गज. डायरेक्टरी के प्राधार पर है] रव-प्रतिष्ठा के बाद प्राप्त होते है ये पद पूर्वजों की साह (या साधु) कहलाने की परपरा तो प्राचीन ही समृद्धि के सूचक है। गोलापूबों में मबसे अधिक फुसकेले है। गोलपूर्व सिंघई का प्राचीनतम उल्लेख धुवारा के स० गोत्र के हैं (जनसंख्या १६८७, सभी प्रांकड़े सन् १९४० १२७२ के लेख में है। [५० भा० दि० गो० डायरेक्टरी] है। सिघई, सवाई सिंघई व सेठ पदों के धारक है। पटवारी व चौधरी के उस्लेख गजबासौदा के १५२४ व बाग (ज० सं० १५०५) सिं० स० सि०, सेट व सवाई स० १५४१ के लेख में है। [भनेकान्त जुलाई '७१] निठहैं। चदेरिया (१२३५) सि० पोर स० सि. है। नोट :-१.कट मे फुटनोट है। डेले (ज. स. १२०४) अधिकलर सि० व सेठ है। २. जहां पर रिफरेश नही दिये मये है वह स्वय उपर सामान्य श्रावक साह (साधु) कहलाते है। को जानकारी के माधार पर लिखा गया है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदनपुर पं० बलभद्र जैन क्षेत्र मगल जीत लिया। उन्होंने अपने भाइयों को भी प्राधीनता निर्वाण भक्ति (संस्कृत) मे पोदनपुर को निर्वाण स्वीकार करने के लिए पत्र लिखे। १८ भाइयों ने मापस क्षेत्र स्वीकार किया है, जो इस प्रकार है मे परामर्श किया और सब मिलकर भगवान् के पास 'द्रोणीमतिप्रबलकुण्डलमेढ़ के च, पहुँचे । भगवान ने उन्हे उपदेश दिया, जिससे उनके मन वैभार पर्वततले वरसिद्धकटे । मे वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे भगवान् के पास ही ऋष्याद्रिके च विपुलादिबलाहके च, मुनि बन गये। विन्ध्ये च पोवनपुरे वृषदीपके च ॥२६॥ दिग्विजय के बाद जब भरत ने अयोध्या में प्रवेश ये साधवो हतमला: सुगति प्रयाताः ॥३०॥ किया तो उन्हें यह देखकर पाश्चर्य हुमा कि चक्र नगर इस मे पोदनपुर को निर्वाण भूमि माना है। के भीतर प्रवेश नही कर रहा । उन्होने सन्देहयुक्त प्रसिद्धि होकर बुद्धिसागर पुरोहित से इसका कारण पूछा । पुरोपोदनपुर की प्रसिद्धि भरत-बाहुबली-युद्ध के कारण हित ने विचार करके उत्तर दिया-'पापके भाई बाहविशेष रूप से हुई है । जब भगवान् ऋषभदेव को नीला. बली प्रापकी प्राज्ञा नही मानते ।" जना ग्रास रा को प्राकस्मिक मृत्यु को देखकर ससार से भरत ने परामर्श करके एक चतुर दूत को बाहु. वैराग्य हो गया और वे दोक्षा के लिए तत्पर हुए, तब बली के पास भेजा। द्रत ने बाहुबली की सेवा में उन्होने अपने सौ पुत्रों को विभिन्न देशो के राज्य बाट पहुँच कर अपना परिचय दिया और अपने प्राने क' दिए। उन्होने अयोध्या को राजगद्दी पर अपने पुत्र उद्देश्य भी बताया। बाहुबली ने भरत की प्राधीनता भगत का राज्याभिषेक किया तथा दूसरे पुत्र बाहुबली स्वीकार करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। जब को युवराज पद देकर उन्हे पोदनपुर का राज्य दे सम्राट् भरत को यह खबर पहुँची तो वे विशाल सेना दिया। लेकर पोदनपुर के मैदान मे जा डटं। बाहुबली भी एक मोर भगवान् के दीक्षा कल्याणक महोत्सव की अपनी सेना सजाकर नगर से निकले और उन्होंने भी तैयारियां हो रही थी, और दुमरी पोर भरत का राज. भरत की सेना के समक्ष अपनी सेना जमा दी। दोनो सिंहासन महोत्सव मनाया जा रहा था। भगवान ने सेनानी मे भयानक मुठभेड़ हुई, जिसमे दोनोपोर के अपने हाथों से भारत के सिर पर रानम् कूट पहनाया और प्रनेको व्यक्ति हताहत हए। तब दोनो राजामों के दीक्षा लेने चल दिए । अपार जन मेदिनी, इन्द्रों पौर देवों मत्रियों ने परस्पर परामर्श करके निश्चय किया कि देशने भगवान् का दीक्षा-महोत्सव मनाया। वासियो का व्यर्थ नगश न हो, प्रत. दोनो राजापो मे धर्ममहाराज भरत और उसके सभी भाई अपने अपने युद्ध होना चाहिए। दोनो भाइयो ने मंत्रियों के इस परा. देश मे शातिपूर्वक राज्य करने लगे। कुछ समय बाद मर्श को स्वीकार किया और दोनो मे दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध महाराम भरत की प्रायुधशाला में चकरन उत्पन्न और मल्ल युद्ध करने का निश्चय हुप्रा । बाहुबली सवा हुप्रा । भरत विशाल सैन्य को लेकर दिग्विजय के लिए १. पयपुराण ४१६६। पउमचरिउ स्वयंभू कृत सन्धि निकले । उन्होंने कुछ ही वर्षों में सम्पूर्ण भरत क्षेत्र को ४।१०। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४, वर्ष २५, कि०२ प्रकान्त पांच सौ धनुष के थे और भरत पांच सौ धनुष के थे। दुर्धर ता है। इस ऊचाई का लाभ बाहुबली को मिला। वे दृष्टि युद्ध में किन्तु बाहुबली के मन में एक विकला था कि मेरे जीत गये । फिर जलयुद्ध हुप्रा । उसमें भी बाहुबली की कारण भरत को क्लेश पहुँचा है। जब एक वर्ष समाप्त विजय हई । अन्त में मल्लयुद्ध हुप्रा। दोनो ही अप्रतिम हुमा तो चक्रवर्ती भरत ने पाकर उन्हें प्रणाम किया। वीर थे। किन्तु बाहुबली शारीरिक बल में भी भरत से तभी बाहुबली को केवलज्ञान होगया। चक्रवर्ती ने बढ़ चढ़ कर थे। उन्होने क्षण मात्र मे भरत को हाथों में केवल ज्ञान उत्पन्न होने से पूर्व भी मुनिराज बाहुबली की कार उठा दिया। बाहुबली ने राजापो मे श्रेष्ठ, बड़े पूजा की और केवलज्ञान होने के अनन्त र अर्हन्त भगभाई तथा भरत क्षेत्र को जीतने वाले भरत को जीतकर वान् बाहुबली की पूजा की। इन्द्रो और देवो ने भी प्राकर भी 'ये बड़े है' इस गौरव से उन्हे पृथ्वी पर नही पटका, उनकी पूजा की। बल्कि उन्हें अपने कन्धे पर बैठा लिया। भगवान् बाहुबली केवलज्ञान के बाद पृथ्वी पर बाइबली की तीनो ही युद्धों में निर्णायक विजय हो विहार करते रहे और फिर भगवान् ऋषभदेव क सभाचुकी थी। सब लोग उनकी जय-जयकार कर रहे थ। सद हो गये, तथा कैलाश पर्वत पर जाकर मुक्त हुए । इस अपमान से क्षुब्ध होकर भरत ने बाहुबली के आर पोदनपुर को अवस्थिति - न चला दिया। किन्तु चक्र बाहुबली को प्रदक्षिणा पोदनपुर क्षेत्र कहां धा, वर्तमान मे उसकी क्या स्थिति देकर वापस लौट प्राया । बाहुबलो भरत के भाई थ है, अयवा क्या नाम है, इस बात को जनता प्रायः भूल तथा चरमशरीरी थे, इसलिए चक्र उनके ऊपर कुछ भी चुकी है। कथाकोषों और पुराणों में पोदनपुर में घटित प्रभाव नही डाल सका । ये मन में विचार करने लगे- कई घटना प्रो का उल्लेख मिलता है, किन्तु उनसे पादन'बडे भाई ने इस नश्वर राज्य के लिए यह कैसा लज्जा- पर की भौगोलिक स्थिति पर विशेष प्रकाश नही पड़ता। जनक कार्य किया है। यह राज्य व्यक्ति को छोड़ देता है फिर भी दिगम्बर पुराणों, कथाकोपों और चरित्रग्रंथो किन्त व्यक्ति राज्य को नही छोड़ना चाहता । धिक्कार आदि मे इधर-उधर बिखरे हुए पुष्पो को यदि एकत्र है इस क्षणिक राज्य और राज्य की लिसा को।' यह करके उन्हें एक सूत्र में पिराया जाय तो उनसे सुन्दर विचार कर प्राहिस्ते से उन्होने भरत को एक ऊंचे स्थान माला बनाई जा सकती है। पर उतार दिया और भरत से अपने अविनय को क्षमा पोदनपर के लिए प्राचीन ग्रथो में कई नामो का मांग कर और अपने पुत्र महाबली' को राज्य सौपकर गुरू प्रयोग मिलता है। जैसे पाटन. पो प्रयोग मिलता है । जैसे पोदन, पोतन, पोदनपुर । प्राकृत के निकट मुनि' दीक्षा ले ली। उन्होने गुरू की प्राज्ञा मे । और अपभ्रश मे इसे हो पोयणपुर कहा गया है। रहकर शास्त्रो का अध्ययन किया तथा गुरू की पाज्ञा से समाज मे पोदनपुर के सम्बन्ध मे एक धारणा व्यावे एकल बिहारी रहे। फिर कैलाश पर्वत पर जाकर प्त है कि यह दक्षिण में कही था । भगवान् ऋषभदेव ने एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण करने का नियम लकर पत्रो को राज्य देते समय भरत को अपने स्थान पर घोर तप किया । एक वर्ष तक उसी स्थान पर खड़े रहने अयोध्या का राजा बनाया और अन्य ६६ पुत्रों को के कारण दीमकों ने उनके चारों ओर वामी बना ली। विभिन्न देशों या नगरों के राज्य सौप दिये । बाहुबली ने वामियों मे सपं आकर रहने लगे। वामियों मे लताये अपनी राजधानी पोदनपुर बनाई। उग प्राई। चिड़ियो ने उनमे घोसले बना लिए। एक हरिषेण कथाकोप कथा २३ मे पोदनपुर के संबन्ध स्थान पर निराहार खड़े रहकर ध्यान लगाना किराना, ४. स्वयम्भू कृत पउम चरिउ के अनुसार उनके मन में १. पउमचरिउ, स्वयंभू के अनुसार सोमप्रभ । यह कषाय थी कि मै भरत की धरती पर खड़ा हुँ । २. प्रादि पुगण ३६।१०४ ५. प्रादि पुराण ३६२०२ ३. हरिवश पुराण १९६८ ६. हरिवंश पुराण ११।१०२ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदनपुर ७५ में साधारण सा संकेत इस प्रकार दिया गया है- मूर्ति का मुख प्रगट हमा। तब उन्होंने ५०० कारीगर प्रथोत्तरापथे देशे पुरे पोवननामनि । लगाकर गोम्मटेश्वर बाहुबली की उस अद्भत मूर्ति का राजा सिंहरथो नाम सिंहसेनास्य सुन्दरी ॥३॥ निर्माण कगया। चामुण्ड राय ने अपने गुरु श्री अजितसेन अर्थात् पोदनपुर नामक नगर उत्तरापथ देश में था। की प्राज्ञा से ग्रानी माता को समझाया कि पोदनपर इसी प्रकार कथा २५ मे 'तयोत्तगपये देशे पोदनारूये जाना हो नहीं सकता, तुम्हारी प्रतिमा यही पूर्ण हो पुरे ऽभवत्' यह पाठ है। इससे तो लगता है कि पोदनपुर गई। दक्षिणा पथ में नहीं, उत्तरापथ मे अवस्थित था। किन्तु इम कथा का समर्थन कई शिलालेखों और चन्द्रगिरि अन्य पृष्ट प्रमाण इसके विरुद्ध है और उनसे पोदनपुर पर स्थित एक अभिलिखित पाषाण से-जो चामुण्ड गप दक्षिण मे था, ऐसा निश्विन होता है। जनता की पर- चट्टान के नाम से प्रसिद्ध है-भी होता है। सम्भवतः म्प गगत धारणा का अवश्य कोई मबन प्राधा रहा है। दक्षिण मे बाहुबली को विशाल प्रतिमाएं इसी कारण दक्षिणापथ मे होने की इस धारणा को वीर मार्तण्ड बनी। चामुण्डाय के चरित रो अधिक बल मिला है। राजाबली कथे और मुनिवंशाभ्युदय काव्य में बताया श्रवणबेलगोन के शिलालेख न० २५० (८०) म है कि बाहुबनी की मूर्ति की पूजा श्री राम वन्द्र, रावण श्रवणबेलगोल की बाह नाली प्रतिमा और प्रतिष्ठा श्री सम्बन्धी एक कहानी दी गई है, जो वह प्रचलित हो इन उल्लेग्वों को पढ़कर मन में यह बात जमती है चुकी है। कि पोदनपुर कही दक्षिण में रहा होगा। भरत चक्रवर्ती ने पोदनपूर मे ५२५ धनुप ऊंची इग मम्बन्ध मे यहा मदनकीर्ति विरचित शासन स्वर्णमय बाहुबली प्रतिमा बनवाई थी। कहते है, इस चतुस्विंशिका के दो श्लोक उल्लेखनीय है - पद्य नं. २ भूति को कुक्कूट-मर्प चारो पोर मे घेरे रहते थे, इसलिए पोर ७ । पद्य सम्पा २ में ऋषि-मुनि और देवताओं द्वारा यादमी उगके पाग नहीं जा सकता था। वदनीय पोदनगर के बाहुबली स्वामी के अतिशय का एक जैनाचार्य जिनमत थे । वे दक्षिण मथुग गये। वर्णन है। तथा पद्य मख्या ७ मे जनबद्री में देवो द्वारा उन्होंने पांदनपर को इस मूर्ति का वर्णन चामुण्डराय की पूजित दक्षिण गोम्मटदेव की स्तुति की गई है। माता कालनदेवी में किया । उसने यह नियम ले लिया भग्त बाहबानी का युद्ध कहाँ हुप्रा था ? इम प्रश्न कि जब तक मुझे इम मुनि का दर्शन नहीं होगा, मैं दूध का उत्तर पनप गण और हरिवंश पुराण में मिलता है। नही पीऊँगी। इस नियम का समाचार गगवंशी महाराज पद्मपुराण ४।६७.८ में बताया है कि चक्रवर्ती भरत अपनी राचमल्ल के मन्त्री नामुण्डराय को उनकी स्त्री अजितादेवी चतुरग सेना के द्वारा पृथ्वीतल को नाच्छादित करता हुमा ने बता दिया । तब चामुण्ड राय ने उम मूनि की तलाश युद्ध करने के लिए पोदनपुर गया । हरिवा पुगण में के लिए चारो पोर अपन सैनिक भेजे और स्वयं अपनी इस प्रश्न का गौर भी अधिक स्पष्ट उत्तर दिया है। वह माता को लेकर चल दिये । मार्ग में 'चन्द्रगिरि' (श्रवण- उहनेम्व इस प्रकार है - वेल गोल) मे ठहरे। रात्रि को पद्मावती देवी ने चामुण्ड. पोवनान्निर्ययौ योद्धगय को स्वप्न दिया कि सामने दोहवेट (विन्ध्यगिरि मक्षौहिण्या यतो व्रतम् ॥१११७८।। अथवा इ. द्रगिरि) पर्वत पर श्री गोम्मट स्वामी की मूर्ति चक्रवर्त्यपि सम्प्राप्तः झाडी जंगल के भीतर छिपी हुई है । यदि तू यहाँ से खड़े सैन्यसागररुद्धविक् । होकर सामने पर्वत पर तीर मारेगा तो मनि प्रगट होगी। विलतापरदिग्भागे चामुण्डराय ने ऐसा ही किया। सुबह उठकर जमाकार चम्दो: स्पर्शस्तयोरभूत ।.११७।। मन्त्र पढ़कर सामने पर्वत पर तीर मारा। तीर लगते ही अर्थात् वे (बाहुवली) शीघ्र ही प्रक्षौहिणी सेना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ बर्ष २५, कि. २ अनेकान्त साथ युद्ध के लिए पोदनपुर से निकल पड़े। इधर सेना है। अर्थात् उसमें भी पोदनपुर को सुरम्य देश में रूपी सागर से दिशामों को व्याप्त करते हुए चक्रवर्ती माना है। भरत भी प्रा पहुँचे, जिससे वितता नदी के पश्चिम भाग बौद्ध ग्रन्थ चुल्ल कलिंग और प्रस्सक जातक मे में दोनों सेनामों की मुठभेड़ हुई। पोटलि (पोतलि) को अस्मक जनपद की राजधानी इस समस्या का स्पष्ट समाधान प्राचार्य गुणभद्र ने बताया है और प्रस्सक देश को गोदावरी नदी के निकट 'उत्तरपुराण' मे किया है सक्य पर्वत पश्चिमी घाट और दण्डकारण्य के मध्य अव. जम्बूविशेषणे दोपे स्थित लिखा है। सुत्तनिपात ६७७ में प्रस्सक को गोदाभरते दक्षिणे महान् । बरी के निकट बताया है। पाणिनि ११३७३ अश्मक को सुरम्यो विषयस्तत्र दक्षिण प्रान्त मे बताते है । महाभारत (द्रोणपर्व) मे प्रश्मक विस्तीर्ण पोदन पुरम् ॥७३॥६॥ पुत्र का वर्णन है। उसकी राजधानी पोतन या पातलि पर्यात् जम्बू द्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र मे एक थी। इसमें पोदन्य नाम भी दिया है। सुरम्य नाम का बड़ा भारी देश है और बड़ा विस्तृत हेमचन्दराय चौधरी ने पोदन्य और बौद्ध ग्रन्थों के पोदनपुर नगर है। पोत्तन को एक मान कर उसकी पहचान प्राधुनिक बोधन श्री वादिराजसूरि ने भी पार्श्वनाथ चरित सगं १, से की है। यह प्रान्ध्र प्रदेश के मजिरा और गोदावरी श्लोक ३७.३८ पौर सगं २, श्लोक ६५ मे पोदनपुर को नदियो के सगम से दक्षिण में स्थित है। इस मान्यता का मुरम्य देश में बताया है। समर्थन 'वसुदेव हिण्डि' के निम्नलिखित उद्धरण से होता कभी-कभी ग्रन्थों की साधारण लगने वाली बातें हैशोध-खोज के सन्दर्भ मे बड़ी महत्वपूर्ण बन जाती है। ___ "उत्तिष्णामो गोयावरि नदि । पार्श्वनाथ चरित में सुरम्य देश को शालि चावलों के खेतो तत्य बहामा कयहिगा सीहवाहीहि से भरा हुप्रा बताया है। यह कथन पोदनपुर को चावल तुरएहि पत्ता मो पोयणपुरं ।" बहुल प्रदेश में होने का संकेत करता है। प्रर्थात गोदावरी नदी को पार कर पोदनपुर पहुँच प्रादिपुराण में कथन है कि जब भरत का दूत पोदन- गया । पुर पहुंचा तब वहां नगर के बाहर खेतों मे पके हुए धान उपर्युक्त प्रमाणों से पोदनपुर प्रश्मक, सुरम्य अथवा खड़े थे रम्यक देश मे गोदावरी के निकट था । जो माधुनिक बहिःपुरमयासाद्य प्रान्ध्र प्रदेश का वोधन मालूम पड़ता है। रम्याः सस्यवती भुवः । श्वेताम्बर परम्परापक्वशालिवनोद्देशान् हमे माश्चर्य होता है कि इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर सपश्यन् प्राप नन्दयुम् ॥२५॥२८॥ और दिगम्बर परम्परा म नामों में एकरूपता नहीं है। सोमव विरचित उपासकाध्ययन (यशस्तिलक चम) महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण इन सबमे मे लिखा है बाहुबली के नगर का नाम पोदनपुर मिलता है। श्वेता. रम्पकवेशनिवेशोपेपोवनपुरनिवेशिनो। म्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराम्रो के मध्यमार्गी अथवा अर्थात रम्यक देश में विस्तृत पोदनपुर के निवासी। यापनीय सघ के प्राचार्य विमल सूरि ने 'पउम चरिउ' में यहा भी पोदनपुर को रम्यक देश में बताया है। कई स्थानो पर बाहबली की नगरी का नाम तखसिला पुण्यात्रा कथाकोष कथा-२ में सुरम्यवेशस्य पोदनेश' वाक्य (तक्षशिला) दिया है। यथा१. उपासकाध्ययन कल्प २८, पृ. १७७ में प्रसत्य- २. वसुदेव हिण्डी २५वा पावती लम्ब पृ० ३५४।२४०, फल की कथा । पचम सोम श्री लम्ब पृ० १८७४२४१ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोवनपुर "तक्खसिलाए महप्पा सहित बहली देश की सीमा पर पाया। बाहुबली तस्स निच्त्रपडिकूलो। नतो भरतेन बहुविलापदुःखितेन बाहुवलिपुत्राय सोमभरहनरिंदस्स सया पशसे तक्षशिलाराज्यं दत्त्वा अयोध्यानगर्या समागतम् । न कुणइ प्राणा-पणामं सो॥४३८॥ -कल्पसूत्र पृ. २११, कल्पलता व्याख्या तक्षशिला मे महान बाहुबली रहता था। वह सदा __अति विलाप से दुखी भरत तब बाहुबली के पुत्र सोमभरत राजा का विरोधो था और उनकी प्राज्ञा का पालन यग को तक्षशिला का राज्य देकर अयोध्या नगरी मे वापस नही करता था। श्रा गया। पत्तो तसिलपुरं जयसब्दुग्घटु कलयलारावो । ___ "तक्खसिला-बहलीदेशे बाहुबले गर्याम् ।" जुज्झस्प कारणत्य सन्नद्धो तक्वणं भरहो ॥४॥४०॥ -अभिधान राजेन्द्र कोश भरत नक्षशिला पहुँने और तत्क्षण यद्ध करने के लिए - तक्षशिला बहली देश में बाहुबली की नगरी । तैयार हो गपे। उस समय जय शब्द के उदघोष का कल- 'तक्खसिलाइपुरीए वहलीविसयावयंसभूयाए।" कल शब्द सर्वत्र फैल गया। -कुमारपाल प्रतिबोध २१२ बाहुबली वि महप्पा तक्षशिला बहली देश का एक अंगभूत । भरहनरिन्द समागमं साउं । "स्वामिशिक्षा दौत्यदीक्षामिवादाप स सौष्ठवाम् । भडचडयरेग महया सुवेगो रथमारुह्याचलत्तक्षशिलां प्रति ।।१।५।२५।। तक्खसिलामो विणिज्जाम्रो ॥४४१।। -त्रि.श. पु. च. महागा बाहुबली भी भरत राजा का प्रागमन सुन स्वामी की शिक्षा को दौत्य की दीक्षा के समान कर सुभटो की महनी सेना के साथ तक्षशिला में से बाहर स्वीकार करके वह मुन्दर मुवेग रथ पर चढ़कर तक्षशिला निकला। के लिए चला। विमलमूरि मानते है कि दोनो मे दृष्टि और मुष्टि ‘षड्भ्यो भरतखण्डेभ्यः युद्ध हुआ। खण्डान्तरमिव स्थितम् । विमलसूरि ने कई कथानको मे पोदनपुर का उल्लेख भरताज्ञानाभिज्ञं स किया है। वे कथानक दिगम्बर पुराणो में भी उपलब्ध वहलीदेशमासदत् ।।" होते है-जैसे मधुपिंगल और कुण्डलमण्डित, गजकुमार --त्रि. श. पृ. च. ११५:४६ प्रादि । किन्तु यह पाश्चर्यजनक है कि बाहुबली के चरित्र वह भरत के अज्ञान को समझने वाले बहनी देश में मे उन्होने पोदनपुर का उल्न ब नहीं किया । वहां उन्होने पहुंचा जो छह भरत खण्डो से पृथक् खण्ड की तरह पोदनपुर के स्थान पर तक्षशिला का ही उल्लेख किया है। स्थित था। श्वेताम्बर ग्रन्थो मे जहाँ पर भी बाहुवली का चरित्र- "भरतावरजोत्कर्षाकर्णनाद विस्मतं महः । चित्रण किया है, वहाँ सर्वत्र बहली (वाल्होक) देश और अनुस्मरन् वाचिकं स प्राप तक्षशिलापुरीम् ।। तक्षशिला नगर का उल्लेख मिलता है। एक प्रकार से --त्रि. श. पु. च. पर्व १६५।५३ श्वेताम्बर साहित्य मे पउमचरिउ की ही परम्परा का वह भरत के लघु भ्राता बाहुबली के उत्कर्ष की बातें अनुसरण मिलता है। यहाँ इस प्रकार के कुछ उद्धरण मुनकर बराबर भरत के दिये हुए प्रादेशों को भूल जाता देना समुचित होगा था और बराबर वह उन्हे याद करता था। इस प्रकार "बहुलीदेशसोम्नि गतः संन्य च तत्र स्थापितवान् ।" वह तक्षशिला पुरी पहुंचा। -कल्पसूत्र, कल्पलता व्याख्या पृ. २०६ । "दिने दिने नरपतिअर्थात् बाहुबली भी भरत को भाया जानकर सेना गच्छंश्चक्रपदानुगः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८, वर्ष २५, कि०२ अनेकान्त राश्यंतरवियावित्यो बसाई थी। वह पंजाव से काश्मीर तथा पंजाब से कपिश बहलोदेशमासवत् ।" देश जाने वाले मार्ग पर नियन्त्रण रखती थी। पुष्करा-त्रि.श. पु. च. १।५।२८३ वती नगरी कुभा (काबुल) पौर सुवास्तु (स्वात) नदी सम्राट भरत दिन-रात चलता हुमा बहली देश के संगम पर थी। उत्तर भारत के मैदान से कपिश और पहुंचा, मानो सूर्य एक राशि से चक्कर लगाना हुया दूसरी उड्डीयान (स्वात को उत्तरी दून) जाने वाला रास्ता राशि मे पहुँचा हो। पुष्करावती होकर जाता था। "बाहुवलिणो तक्षसिला विण्णा।" इस विवरण से स्पष्ट है कि तक्षशिला की स्थापना -विविध तीर्थ कल्प, पृ. २७ श्री रामचन्द्र के काल में या उनके कुछ समय पश्चात् हुई बाहुबलो को तक्षशिला दी। थी । ऋपभदेव के काल मे तक्षशिला नाम की कोई नगरी "तक्षशिनायां बाहुबली विनिर्मितं धर्मचक्र ।" नही थी। ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर ग्रन्थों में बाह बली -विविध तीर्य कल्प, पृ० ८५ की नगरी का नाम तक्षशिला किस कारण दिया, यह बाहुबली ने तक्षशिला में धर्मोपदेश दिया । अवश्य विचारणीय है । ऐसा प्रतीत होता है कि जिस काल उपयुक्त उल्लेखो से यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर ग्रंथो में प्रागम ग्रन्थ लिखे गये, उस समय उन पागम ग्रन्थों के के अनुसार बाहुबली को तक्षशिला का राज्य मिला था। कर्ता प्राचार्यों के सामने तक्षशिला की अत्यधिक प्रमिद्धि तक्षशिला वहली देश में स्थित थी। अति उस प्रदेश को रही थी। उसकी ख्याति से प्रभावित होकर ही उन वहली अथवा वाल्हीक कहा जाता था और तक्षमिला प्राचार्यों ने तक्षशिला नाम का प्रयोग करना उचित उसकी राजधानी थी। समझा। फिर उस परम्परा के परवर्ती ग्रंथकारों ने इस तक्षशिला का स्थापना काल नाम को ही अपना लिया। इसमें सन्देह नहीं है कि तक्षशिला वहली देश मे थी। पोदनपुर को ही तक्षशिला कहा जाने लगा, यह सभा. किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि ऋषभदेव के काल मे वनामूलक कल्पना है। उसके लिए कोई ठोस प्राधार तक्षशिला नाम की कोई नगरी थी भी या नहीं। नही है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री रामचन्द्र ने भरत विमलमूरि कृत प उमचरिउ' के अनुसार पोतन नगर को उसके ननिहाल केकय देश का राज्य दिया था। (पोदनपुर) श्री रामचन्द्र जी के काल मे अत्यन्त समृद्ध रघुवंश के अनुमार उसे केकय के साथ सिन्धु देश भी था । जब रामचन्द्र लंका विजय करके अयोध्या लौटे, तब मिला था। वे वय पीर सिन्धु दोनो देश मिले हए थे। एक दिन उन्होने लघु भ्राता शत्रुघ्न से कहा---इस पृथ्वी प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता कनिंघम' याधुनिक पश्चिमी पर तुम्हें जो प्रिय नगर हो, वह मांगो। मै वह दूगा। पाकिस्तान स्थित गुजगत, साहपुर और जेहलम जिलो इस साकेतपुरी को ग्रहण करो अथवा पोदनपुर, पण्ड को प्राचीन वेकय देश मानते है । केकय देश की राजधानी वर्धन या अन्य कोई प्रभीष्ट देश । उन दिनों राजगृह या गिरिव्रज थी, जिसकी पहचान जेह- उपर्युक्त कथन से ऐमा लगता है कि श्री रामचन्द्र लम नदो के किनारे पर बसे हुए प्राधुनिक गिरजाक के काल में भी पोदनपर विख्यात और समृद्ध नगर था। (जलालपुर) वस्ती से की गई है। तक्षशिला इससे भिन्न थी, जिसे भरत के पुत्र तक्ष ने । भरत के पुत्र (रामायण के अनुसार) तक्ष और बसाया और अपनी राजधानी बनाया। पकर थे। उन दोनों ने गान्धार देश को जीता और नवीन कल्पना - दोनों ने अपने नाम पर तक्षशिला और पुष्करावती नामक एक मधुर कल्पना यह भी की गई है कि बाहबली नगरियां बमाई। तक्षशिला नगरी बड़े महत्वपूर्ण स्थान पर २. भारतीय इतिहास की रूपरेखा, भाग १, पृ. १५६ । १. Archeological Survey Report. ३. पउमचरिउ ८६।२। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदनपुर ७६ को उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों तरफ राज्य दिया कुछ पौराणिक घटनायें-- गया था। उन्होंने उत्तरापथ के अरने राज्य की राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म और सुरम्य देश के तक्षशिला बनाई और दक्षिणापथ की राजधानी पोदनपुर पोदनपुर के राजा मिहनाद में बहुत समय से शत्रुता चली बनाई । जब भरत ने आक्रमण किया तो उन्होंने तक्षशिना पा रही थी। अवमर पाकर महापद्म ने पोदनपुर के ऊपर पर याक्रमण किया पोदनपुर के ऊपर नहीं किया । अाक्रमण कर दिया। पोदनपुर मे सहस्रकूट नामक एक क्योकि बाहुबली प्रायः तक्षशिला में ही रहते थे। चैत्यालय था, जिसमें एक हजार स्तम्भ लगे हुए थे । इस कल्पना का प्राधार कुछ भी नहीं है। 'विविध महापद्म चैत्यालय को देखकर बड़ा प्रसन्न हुमा । उसके तीर्थकल्प' हस्तिनापुर कल्पके अनुसार भगवान् ऋषभदेव मन में भी यह भावना जागृत हुई कि मै भी अपने नगर ने बाहुबली को तक्षशिला प्रौर हस्तिनापुर का राज्य दिया मे इसी प्रकार का सहस्र स्तम्भ वाला चैत्यालय बनवाथा। इससे इस कल्पना का खण्डन हो जाता है कि बाहुः ऊगा। उसने एक पत्र अपने अमात्य को लिखा- 'महा. बनी ने अपने दक्षिण राज्य की राजधानी पोदनपुर स्तम्भसहस्रस्य कर्तव्यः स ग्रहो ध्रुवम्' अर्थात् तुम एक बनाई थी। हजार स्तम्भ अवश्य संग्रह कर लो। प्रादिपुराण' में भगवज्जिनसेन ने बताया है कि भग पत्रवाचक ने स्तम्भ के स्थान पर स्तभ पढ़ा और वान् ऋषभदेव ने राज्य व्यवस्था के लिए चार व्यक्तियों उसका प्रथं हुप्रा कि तुम हजार बकरे इकट्ठ कर लेना । को दण्डधर (राजा) नियुक्त किया-हरि, प्रकम्पन, कश्यप तदनुसार उन्होने एक हजार बकरे इकट्ठ कर लिए। जब पौर सोमप्रभ । सोमप्रभ भगवान से कुरुराज नाम पाकर महाराज पाये और उन्हे पत्र वाचक की इस भूल का पता कुरुदेश का राजा हवा पोर कुरुवश का शिखामणि चला तो बड़े क्रुद्ध हुए और वाचक को कठोर दण्ड दिया। कहलाया। एक अनुस्वार की भूल का कैसा परिणाम निकला । हरिवंशपुराण' में सोमप्रभ का नाम सोमयश दिया पाटलिपत्र नरेश गन्धर्वदत्त की पुत्री गन्धर्वदत्ता है और उन्हे बाहुबली का पुत्र तथा सोमवंश (चन्द्रवश) अत्यन्त रूपवती थी। उसने प्रतिज्ञा की थी कि जो मुझे का कर्ता बताया है। गन्धर्व विद्या में पराजित कर देगा, उसे ही वरण करूगी। उक्त पुराणो के अनुसार हस्तिनापर का राज्य मोम- अनेकों कलाकार आये और पराजित होकर लौट गये । प्रभ को दिया था, न कि बाहुबली को। बाहुबली को तो एक दिन विजयाधं पर्वत के निकटवर्ती पोदनपुर के निवासी पोदनपुर का ही राज्य दिया था। सोमप्रभ और बाहुबली पचाल उपाध्याय ने गन्धर्वदना की प्रतिज्ञा सुनी। वह को भगवान् द्वारा राज्य देने का काल भी भिन्न-भिन्न अपने पांच सौ शिष्यों को लेकर पाटलिपुत्र पहुँचा और है । जिस काल मे भगवान् समाज व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, वहाँ राजकन्या को पराजित करके उसके संग विवाह विवाह व्यवस्था में लगे हुए थे, उस समय दण्ड नीति को किया। व्यवस्था के लिए अन्य तीन व्यक्तियो के साथ सोमप्रभ इम कथा मे पोदनपुर को विजया पर्वत के निकट को भी राजा बनाया था और उसे कुरु जांगल देश का बताया है । राज्य दिया था। किन्तु दीक्षा लेने से पूर्व भगवान ने द्वारका नगरी मे वासुदेव कृष्ण की महारानी अपने सौ पुत्रों को राज्य दिया। उनमे बाहबली को गन्धर्षदत्ता का पुत्र गजकुमार था । पोदनपुर नरेषा अपरा. पोदनपुर का राज्य दिया। जित को पराजित करने के लिए श्रीकृष्ण ने कई बार इन प्रमाणों से बाहबली को तक्षशिला पोर पोदनपुर : १. आराधना कथाकोप, कथा ६५ । हरिषेण कथाकोष, मिलने की कल्पना का निरसन हो जाता है। कथा २५ में पोदनपुर को उत्तरापथ में बताया है, १. प्रादिपुराण १६।२५५.८ । जबकि प्राराधना कथाकोष मे उसे सुरम्य देश मे २. हरिबशपुराण बताया है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०, वर्ष २५, कि० २ अनेकान्त प्रयत्न किया, किन्तु वह अपराजित हो रहा । तब गज-1 तक्षशिलाकुमार सेना लेकर अपराजित के नगर तक पहुंचा । दोनो। तक्षशिला पाकिस्तान मे वर्तमान रावलपिंडी जिले मे सेनामों में भयानक युद्ध हपा प्रौर गजकुमार ने अपरा- था। जनरल कनिधम के मतानुसार यह कला का सराय जित को पराजित कर दिया । नारायण श्रीकृष्ण ने इसका से एक मील, कटक और रावलपिंडी के बीच में और समुचित सम्मान किया। शाहरी के निकट था। आजकल यहाँ इस प्राचीन नगरी किन्तु विजय पाकर गजकुमार उच्छङ्कल हो गया। के खण्डहर पड़े हुए है। इन खडहरो मे जो भी गाव के वह स्त्रियों का शीलभग करने लगा। एक दिन भगवान् नीचे है, वे तक्षशिला की सबसे परानी बस्ती के है। नेमिनाथ का समवसरण द्वारका नगरी में प्राया। भगवान् सेण्ट माटिन इसे हमन अस्दल, जो शाहघेरी से पाठ सासनकर गजकुमार को बराप हो गया। उसने मोल दूर है, के उत्तर-पश्चिम में पाठ मीन दर भगवान के निकट मुनि-दीक्षा ले ली। फिर विहार करते बताना है। हुए गजकुमार मुनि गिरनार पर्वत पर पहुंचे। वहाँ वे इस नगर की स्थापना जैसा कि पहले बताया जा ध्यान लगाकर खड़े हो गये। वहाँ पामुल नामक व्यक्ति चुका है, श्री रामचन्द्र के भ्राता भरत ने अपने पत्र तक्ष नाघोर उपसर्ग किये । सधियों में कील ठोक दी। के नाम पर की थी। तक्ष यहाँ का राजा' बनाया किन्तु फिर भी मुनिराज ध्यान से विचलित नहीं हुए। गया था। उन्होने समाधिमरण द्वारा शरीर का त्यागकर स्वर्ग प्राप्त कथा सरित्सागर के अनुमार तक्षशिला वितस्ता किया । (झेलम) के तट पर अवस्थित थी। -प्रागधना कथाकोष, कथा ५६ यह नगर कुछ समय तक गान्धार देश को भी राज धानी रहा। उस समय गान्धार मे पूर्वी अफगानिस्तान अयोध्या नरेश त्रिदश जय नरेश के पुत्र जितशत्रु का और उत्तर-पश्चिमी पजाब था । विवाह पोदनपुर नरेश व्यानन्द की पुत्री विजया के साथ हमा। जिनकी पवित्र कुक्षि से द्वितीय तीर्थ दूर भगवान इस नगर पर सूर्यवंशी राजानों का बहुत समय तक अजितनाथ का जन्म हुआ। अधिकार रहा । किन्तु तक्ष के वश में कौन-कौन राजा हए, इसका कोई व्यवस्थित और प्रामाणिक इतिहास नही भगवान पाश्वनाथ अपने पूर्वभव में पोदनपुर के मिलता। महाभारत युद्ध ने समूचे प्रार्यावर्त और विशेषराजा अरविन्द के पुरोहित विश्वभूति के पुत्र मरुभूति थे । कर पजाब के राज्यो को कमजोर कर दिया था। अत: उनका भाई कमठ था जो दुष्ट प्रकृति का था। मरुभूति की अनुपस्थिति में उसने मरुभूति की स्त्री के साथ दुरा कही-कही उत्पात होने लगे थे। गान्धार देश के नागो ने चार किया। ज्ञात होते ही राजा ने कमठ को कठोर तक्षशिला पर अधिकार कर लिया। कहा जाता है, जिस दिन महाभारत युद्ध समाप्त हुमा दण्ड दिया मोर नगर से निकाल दिया। तब कमठ पोदन. उसी दिन अभिमन्यु की स्त्री उत्तरा के गर्भ से परीक्षित पुर से चलकर भूताचल पर पहुँचा । वहा एक तापसाश्रम का जन्म हुआ था। पाण्डवों के पीछे हस्तिनापुर की गद्दी में कुतप करने लगा। पर परीक्षित बैठा। इस प्रकार अनेक पौराणिक घटनामो का सम्बन्ध तक्षशिला के नाग धीरे-धीरे अपनी शक्ति बढ़ा रहे पोदनपर के साथ रहा है। किन्तु इतने प्रसिद्ध पार समृद्ध उन्होंने पजाब पर अधिकार कर लिया। फिर नगर का विनाश किन कारणों से और किस काल मे हो पंजाब, लापकर, हस्तिनापुर पर भी उन्होने पाक्रमण गया पथवा प्रकृति के प्रकोप से नष्ट हो गया, इस संबध कर दिया । अव कुरु राज्य इतना नि:शक्त था कि राजा में कोई स्पष्ट उल्लेख प्राचीन साहित्य में प्रथवा इतिहास थों में कही भी देखने में नहीं पाया। १. रामायण, उत्तरकाण्ड, ११४.२०१ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदनपुर परीक्षित को नागों ने मार डाला। इस समय तक्षशिला इसके पश्चात् जब प्रशोक राजगद्दी पर बैठा, तब के नागों का राजा तक्षक था'। उसने अपने पुत्र कुणाल को तक्षशिला का उपरिक (गव. परीक्षित का पुत्र जनमेजय प्रतापी राजा था। उसने । नर) बनाया। कुणाल जन्म से ही सुरूप और सुकुमार अपनी शक्ति खूब बढाई और अपने पिता की मृत्यु का था। उसकी प्रॉखे बड़ी सुन्दर थी। अशोक ने वृद्धावस्था बदला लेने के लिए नागवश को निमूल करने का सकल्प में तिष्यरक्षिता नामक एक युवती से विवाह किया था। कर लिया। वासुकी, कुलज, नीलरक्त, कोणप, पिच्छल, एक बार एकान्त पाकर तिष्य रक्षिता कुणाल की पाखों शल, चक्रपाल, हलोमक, कालवेग, प्रकालग्न, सुशरण, को देखकर उस पर मुग्ध हो गई । विमाता के इस घृणित हिरण्यवाहु, कक्षक, कालदन्तक, तक्षकत्र, शिशुरोम, प्रस्ताव को कुणाल ने अस्वीकृत कर दिया। इससे तिष्यमहाहनु प्रादि अनेक नाग सरदारों को सम्राट जनमजय रक्षिता उसकी शत्रु बन गई। एक बार अवसर पाकर ने जीता जला दिया था। पीछे नागराज वासुकी के भागि- उराने तक्षशिला के परिजनो को एक कपट लेख भेजकर नेय प्रास्तीक ने बड़े अनुनय विनय से नागो की सधि प्रशाक के नाम से यह प्रादेश दिया कि कुमार को अन्धा कराई । इन नागो ने अपना प्रभाव-विस्तार खुब किया। कर दिया जाय । इस प्रादेश को पाकर पौर जन भयभीत मथुरा पर नागो की सात पीढियो ने राज्य किया। हा गये। तब कुणाल ने इस प्रादेश को राजा और काश्मीर में भी उनका गज्य था। ईसा पूर्व छठवी पिना का आदेश मानकर उनकी आज्ञा को पालना अपना शताब्दी में विदिशा मे नागराज शेप, पर जय भागी. कर्तव्य समझा और खुशी से अपनी प्रांख निकलवा दीं । रामचन्द्र, चन्द्राशु, घनधर्मण, नगर और भूतनाद प्रसिद्ध जब कुणाल अपनी स्त्रो काचनमाला के साथ पाटलिपुत्र नाग राजा हुए। प्राया और अशोक को इस भयानक पड्यन्त्र का पता जब सिकन्दर ने भारत पर अाक्रमण किया, उस चला तो उसने तिप्य रक्षिता को जिन्दा जलवा दिया। समय तक्षशिला का राजा अम्भि था। उसने सिकन्दर से तथा तक्षशिला में जिस स्थान पर कूणाल ने अपनी प्रॉखें बिना लड़े ही उसकी प्राधीनता स्वीकार कर ली थी। निकलवाई थी, वहाँ स्तूप खडा करवा दिया, जो चीनी उसकी सहायता से सिकन्दर की सेना ने सिन्धु पार की यात्री ह्वान च्याग के समय तक वहाँ मौजद था। इस और तक्षशिला पहुँचकर अपनी थकान उतारी। स्तूर क खडहर रिकाय के डेढ मील पूर्व में वरपल मौर्य सम्राट विन्सार के काल में तक्षशिला ने दो नामक गाव मे पड़े हए है। ये खडहर रावलपिडी से बार विद्रोह किया और एक बार अशोक को और दूसरी उत्तर-पश्चिम में २६ मील पर है और कलाकार बार कुणाल को वहाँ विद्रोह दबाने को जाना पडा। विद्रोह सराय रेलवे स्टेशन से २ मील है। इस नगर की भूमि दबाने के लिए किसी शक्ति का प्रयोग नहीं करना पड़ा, पर प्रब हाहधेरी, सिरकाय, सिरमुख, कच्छाकोट गाव बस गये है। बल्कि बड़े रोचक और नाटकीय ढग से स्वयं शान्त हो ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में वैक्टिया से निकाले जाने गया । जब कुमार अशोक तक्षशिला के निकट पहुँचा तो पर कुशाणो ने इसे अपनी राजधानी बनाया था सिकन्दर तक्षशिला के पोर नगरी से साढ़े तीन योजन आगे तक ने इसको ईसा पूर्व ३२६ मे जीता था। उसके चार वर्ष बाद सारे रास्ते को सजाकर मंगल घट लिए हुए उसकी सेवा मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने इसे अपने राज्य में मिला लिया। में उपस्थित हए और कहने लगे-"न हम कुमार के ईसा पूर्व १६० मे डंमिट्रियम ने इसे जीत लिया और यह विरुद्ध है, न राजा बिन्दुसार के। किन्तु दुष्ट अमात्य ग्रीक गजानों की भारतीय राजधानी बन गया। उसके हमारा पराभव करते है।" बाद यह शक, पल्लव और कूपाण राजापो के प्राधिपत्य १. महाभारत । में रहा। २. वायु पोर ब्रह्माण्ड पुराण । विख्यात विश्वविद्यालय३ . । दिव्यावदान यहाँ ईसा की प्रथम शताब्दी तक पश्चिम के बल मी, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष २५, कि० २ भनेकान्त पूर्व के नालन्दा, दक्षिण में कांचीपुरम् और मध्य भारत लिये निरर्थक हैं। मैं तो घास पर सोता हूँ । ऐसी कोई के धन कटक के समान उत्तरापथ का प्रसिद्ध विश्वविद्या. वस्तु अपने पास नहीं रखता, जिसकी रक्षा की मुझे लय पा पाणिनि जैसा वैयाकरण, विख्यात वैद्य जीवक चिन्ता करनी पड़े, जिसके कारण अपनी शान्ति की नीद यही पढ़े थे । संभवतः चाणक्य ने भी यही शिक्षा प्राप्त की भग करनी पड़े। यदि मेरे पास सुवर्ण या अन्य कोई थी। इस विश्वविद्यालय में शस्त्र और शास्त्र दोनो प्रकार सम्पत्ति होती तो मै ऐसी निश्चित नीद न ले पाता। की शिक्षा की व्यवस्था थी। दूर दूर से लोग यहाँ पढने पृथ्वी मुझे सभी आवश्यक पदार्थ प्रदान करती है, जैसे भाते थे। सिरकाय से चार मील पर विशाल भवनों के बच्चे को उसकी माता सुख देती है। मैं जहाँ कहीं जाता भग्नावशेष पड़े हुए है। यही पर यह विश्वविद्यालय हूँ, वहां मुझे अपनी उदर पूर्ति के लिए कमी नही, पाव. था। इसकी ख्याति सुदूर देशो तक थी। श्यकतानुसार सब कुछ (भोजन) मुझे मिल ही जाता जैन धर्म का केन्द्र है । कभी नही भी मिलता तो मै उसकी कुछ चिन्ता नहीं सिकन्दर ईसा पूर्व ३२६ मे अटक के निकट सिन्धु करता। यदि सिकन्दर मेरा सिर काट डालेगा तो वह मेरी प्रात्मा को तो नष्ट नही कर सकता। सिकन्दर नदी को पार करके तदाशिला में प्राकर ठहरा उसने दिगम्बर जैन मुनियो के उच्च चरित्र, उन्नत ज्ञान और अपनी धमकी से उन लोगो को भयभीत करे जिन्हे सुवर्ण, कठोर साधना के सम्बन्ध में अनेक लोगो से प्रशंसा सुनी धन प्रादि की इच्छा हो या जो मृत्यु से डरते हो। सिकन्दर के ये दोनो अस्त्र हमारे लिए शक्तिहीन है, व्यर्थ थी। इससे उसके मन मे दिगम्बर जैन मुनियो के दर्शन करने की प्रबल आकांक्षा थी। जब उसे यह ज्ञात हुमा है । क्योकि न हम स्वर्ण चाहते है, न मृत्यु से डरते है। कि नगर के बाहर अनेक नग्न जैन मुनि एकान्त मे तप इसलिए जा पो, सिकन्दर से कहदो कि दोलामस को स्या कर रहे है तो उसने अपने माय नेम तुम्हारी किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। अतः वह को मादेश दिया-तुम जानो और एक जिम्नोसाफिस्ट तुम्हारे पास नही पावेगा। यदि सिकन्दर मुझसे कोई (दिगम्बर जैन मुनि) को प्रादर सहित लिवा लामो वस्तु चाहता है तो वह हमारे समान बन जावे। पोनेसीक्रेटस वहां गया, जहाँ जगलमे जैन मुनि तपस्या पस्या मोनेसीक्रेटस ने सारी बाते सम्राट से कही। सिकंदर कर रहे थे। वह जैन संघ के प्राचार्य के पास पहुँचा पोर न साचा जा सिकन्दर से भा नहा डरता, वह महान है । कहा-प्राचार्य ! आपको बधाई है। प्रापको परमेश्वर का उसके मन में प्राचार्य दोलामस के दर्शनो को उत्सुकता पुत्र सम्राट सिकन्दर, जो सब मनुष्यो का राजा है, अपने __ जाग्रत हुई। उसने जाकर प्राचार्य महाराज के दर्शन पास बुलाता है। यदि आप उसका निमत्रण स्वीकार करके। किये। जैन मुनियो के प्राचार-विचार, ज्ञान और तपस्या उसके पास चलेगे तो वह प्रापको बहत पारितोषिक देगा। से वह बडा प्रभावित हमा। उसने अपने देश में ऐसे यदि माप निमंत्रण अस्वीकार करके उसके पास नही किसी साधु को ले जाकर ज्ञान प्रचार करने का निश्चय जायेगे तो सिर काट लेगा। किया। वह कल्याण मुनि से मिला और उनसे यूनान श्रमण साधु संघ के प्राचार्य दोलामस (सभवतः पतिसेन) चलने की प्रार्थना की। मुनि ने उसकी प्रार्थना स्वीकार सूखी घास पर लेटे हुए थे। उन्होंने लेटे हुए ही सिकन्दर कर लो यद्यपि प्राचार्य किसी मुनि के यूनान जाने की के अमात्य की बात सुनी और मुस्कराते हए बोले- बात से सहमत नहीं थे। सबसे श्रेष्ठ राजा बलात् किसी की हानि नही करता, न जब सिकन्दर तक्षशिला से अपनी सेना के साथ वह प्रकाश, जीवन, जल, मानव शरीर और प्रात्मा का यूनान को लोटा, तब कल्याण मुनि भी उसके साथ-साथ बनाने वाला है, न इनका संहारक है। सिकन्दर देवता विहार कर रहे थे। मुनि कल्याण ने एक दिन मार्ग में नहीं है क्योकि उसकी एक दिन मृत्यु अवश्य होगी। ही सिकन्दर की मृत्यु की भविष्यवाणी की। मुनि के वह जो पारितोषिक देना चाहता है, वे सभी पदार्थ मेरे वचनों के अनुसार ही वैवीलोन पहुँचने पर ई०पू० ३२३ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोवनपुर में अपराण्ह बेला मे सिकन्दर की मृत्यु हो गई। मृत्यु से जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिम्नोसोपहले सिकन्दर ने मुनि महाराज के दर्शन किये और फिस्ट' जिनको यूनानियों ने पश्चिमी भारत में देखा उनसे उपदेश सुना। सम्राट् की इच्छानुसार यूनानी था, वे जैन मनि थे, वे ब्राह्मण या बौद्ध नहीं थे। कल्याण मुनि को प्रादर के साथ यूनान' ले गये। कुछ सिकन्दर ने दिगम्बर मुनियों का समुदाय तक्षशिला में वर्षों तक उन्होने यूनानियों को उपदेश देकर धर्म प्रचार देखा था। उनमे से कल्याण नामक मुनि फारस तक किया। मन में उन्होंने समाधिमरण किया। उनका शव उसके माथ गये थे। इस गुग मे इस धर्म का उपदेश राजकीय सम्मान के साथ चिता पर रखकर जलाया चौबीस तीर्थकरों ने दिया है। और महावीर उनमें गया। कहते है, उनके पापाण-चरण एथेन्स मे किसी अन्तिम तीर्थकर है।' प्रसिद्ध स्थान पर बने हुए है। -ई० पाई-थामस बुद्ध का जीवन तक्षशिला में उस समय दिगम्बर मुनि रहते थे, इसी पस्तक मे एक स्थान पर लिखा है कि सिकन्दर इस बात की पुष्टि अनेक इतिहास ग्रन्थों से होती है। के प्राइमियो ने जैन-बौद्ध धर्म को वैविश्या, प्रोक्सियाना 'एलेक्जेण्डर (मिकन्दर) ने उन दिगम्बर मुनियों के पास तथा अफगानिम्नान-भारत के बीच की घाटियों में योनेसीक्रेटम को भेजा। उसका कहना है कि उसने तक्ष. उन्नत रुप से फैला हग्रा पाया था। शिला से २० स्टेडीज दूर १५ व्यक्तियों को विभिन्न मेजर जनरल जे० स० फलांग ने अपनी पुस्तक मुद्रात्रों में खडे हुए, बैठे हुए या लेटे हुए देखा, जो बिल तुलनात्मक धर्म -विज्ञान ( कुल नग्न थे । वे शाम तक इन ग्रासनो से नहीं हिलते ) मे तक्षशिला मे दिगम्बर जैन मुनियो के थे। शाम के समय शहर में आ जाते थे। सूर्य का होने की बात का सर्मथन किया है। ताप सहना सबसे कठिन काम थ।।' इन प्रमाणो से यह सिद्ध होता है कि सिकन्दर के -प्लूटार्च, ऐशियण्ट इंडिया, पृ०७१ अाक्रमण के समय तक्षशिला जैन धर्म का केन्द्र था पोर 'दिगम्बर जैन धर्म प्राचीन काल से अब तक पाया यहा अनेक दिगम्बर मुनि रहते थे । ब्र० शीतलप्रसाद और उनकी साहित्य-साधना श्री पन्नालाल जैन अग्रवाल ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद लचनऊ के निवासी थे। सम्कारो को ग्रादर्श बनाया था। सन् १९०४ में महा. इनके पिता का नाम मवखन लाल और माता का नाम मारी से १३ फर्य को प्रापकी पत्नी का वियोग हो श्रीमती नरायणी देवी था। प्रापका जन्म सन् १८५६ गया । और हम चं को जननी तथा अनुज पन्नालाल का । मे काला महल में हुआ था। पापने मैट्रिकुलेशन परीक्षा भी देशान्त हो गण। दुर्दैव के इस घटनाक्रम से शीतल१८ वर्ष की उम्र में प्रथम श्रेणी मे पास की थी। और प्रमाद जी के चित्त को बडा ग्राघात पहुँचा । उस समय ४ वर्ष बाद रुड़ की इंजीनियरिंग कालेज से अकान्टशिप की महामारी से देश में तहलका मचा हुआ था। परीक्षा पास की थी। परीक्षा पास करने के बाद उन्हें अग्नि परीक्षा - स्नेही जनो के पाकस्मिक वियोग गवर्नमेट सविस मिल गई। यह स्वाभाव से ही चचल, का उनके जीवन पर बडा प्रभाव पडा । यद्यपि वे निरन्तर कार्य करने में पट, उदीयमान विचारक और लेखक थे। स्वाध्याय और मामयिक सेवायो के कारण पर्याप्त बल आपका विवाह कलकत्ता के वैष्णव अग्रवाल छेदीलाल जी पा चुके थे। एक ओर सरकारी नौकरी का प्रलोभन पदो. की मुहमी से हुआ था । प्रार। पानी पत्नी के धार्मिक नति, वेतन वृद्धि । और प्रौढ़ावस्था की उमड़ती Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४, वर्ष २५, कि० २ अनेकान्त हिलोरें । कौटुम्बिक सहयोगियों का पुन: गृहस्थी बसाने ६.पात्मध्यान का उपाय-संपा० ० शीतलप्रसाद, का प्राग्रह, कन्याओं का सौन्दर्य और योग्यता, उनके प्रका० सवाई सेठ खुशालचन्द जैन चौरई (छिदवाड़ा) अभिभावकों द्वारा सम्बन्ध स्वीकार करने की प्रार्थना पृ० ५६, प्रका० १६२८ । और दूसरी पोर समाज सेवा की उत्कट लगन, और स्वा. ७. अात्म धर्म-लेखक ब्र० शीतलप्रसाद, प्र० मूलचन्द ध्याय द्वारा प्रात्म स्वरूप को प्राप्त करने, तथा समझाने किशनदास कापडिया सूरत, पृ० १५६ प्रका० सन् का यत्न । इस अग्नि परीक्षा में शीतल प्रसाद जी १६१६। ८. प्राध्यात्मिक चौबीस ठाणा-टीका० ब्र. शीतलखरे उतरे। उन्हें सांसारिक भोगा काक्षा अपने लक्ष्य से प्रसाद लेखक तारण स्वामी, प्र० सेठ मन्नूलाल जैन विचलित न कर सकी। अत: ब्रह्मचारी रहकर समाज अागामौद पृ. १२४ प्रका० १६३६ । सेवा में संलग्न कर जीवन बिताना अच्छा समभा। ६. प्राध्यात्मिक सोपान- ले० ब्र. शीतलप्रसाद, प्र० इसी से सन् १९०५ मे सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत, पृ० ३२५ दिया। और समाज सेवा के कार्य मे योग देने लगे। प्रका० सन् १९३१। सन १९०२ में महासभा के मुख पत्र हिन्दी जैन गजट १०. प्रात्मानंद का सोपान-ले० ब्र० शीतलप्रसाद, प्र० का सम्पादन किया। जिससे उसकी वाया पलट गई। मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत, पृ० २० प्रका० और सन् १९०६ मे वे जैन मित्र के सम्पादक नियुक्त सन् १९२३ । हए और उन्होंने उसका सम्पादन सन् १६२६ तक २० ११. इप्टोपदेश टीका श्री पूज्यपाद स्वामी-टीका ब्र० वर्ष किया। इसके अतिरिक्त समाज सगठन, जैन प्रचार, शीतलप्रसाद, प्र० मूलचन्द किशनदास कापडिया शिक्षाप्रसार, समाज-सुधार, ऐतिहासिक खोज तथा अनेक मूरत, पृ० २५६ प्रका० १९२३ । घामिक ट्रैक्टो के अतिरिक्त स्वाध्यायोपयोगी ग्रंथो का १२. उपदेश शुद्ध सार-ले० तारणतण स्वमी, अनु० हिन्दी अनुवाद कर ग्रथ प्रकाशित कराये । प्रत्येक वर्ष में ब्र० शीतल प्रसाद, प्र० सेठ मन्नूलाल धागासौद, पृ० एक ग्रथ जैन मित्र के उपहार में नया लिख कर प्रकाशित ३२३ प्रका० १०३६ । करने थे । अापके द्वारा लिमित, सम्पादित, अनुवादित १३. गृहस्थ धर्म-ले० ब्र० शीतल प्रसाद, प्र० मूलचन्द पुस्तको की संख्या ७५ के लगभग है। जिनका परिचय किशनदास कापडिया सूरत, पृ० ३१४, प्रका० सन् नीचे दिया जाता है १६२३ (कई संस्करण छपे)। १ अध्यात्मिक निवेदन- निखक व. शीतलप्रसाद, १४. छह ढाला-ले० कविवर दौलतराम, टीका ७० प्रकाशक मूलचन्द्र किशनदास कापडिया सूरत, पृष्ठ शीतलप्रसाद, प्र० सेठ माणिकचन्द हीराचन्द जे. पी. १६ प्रका० १६२५ । बम्बई, पृ. ५८ प्रका० १६१२ (कई यरकरण छपे)। २. अध्यात्मज्ञान-सपा० प्र० शीतल प्रसाद, प्र० मूल- १५. जिनेन्द्र गत दर्पण (प्रथम भाग)-ले. बाबू बना चन्द किशनदास कापडिया, सूरत, पृ० १२८, प्रका० रसीदास, सपा० ब्र० शीतलप्रमाद, प्र० जैन मित्र सन् १९३१। मडल देहली, पृ० ३२ प्रकाशन सन् १९२६ (कई ३. अनुभवानद-संपा० ब्र० शीतलप्रमाद, प्र० जनमित्र संस्करण छपे)। कार्यालय, बम्बई, पृ० १२८, प्रका० सन् १९१२ । १६. जैन धर्म की विशेषताए-ले० ब्र० शीतलप्रसाद, ४ महिना-लेखक ब्र० शीतलप्रसाद, प्रका० जनमित्र प्रका० जैन मित्र मंडल देहली, पृ० २० प्रका० सन् मडल देहली, पृ० २०, प्रका० सन् १९३२ (कई मस्करण छप)। १६३६)। ५ प्रात्मोन्नति या खुद की तरक्की-ल. ब्र० शीतल- १७. जैनधर्म क्या है-ले०७० शीतलप्रसाद प्रका. जैन प्रसाद, प्रका० जैन मित्र मडल देहली, पृ० २४, प्रवा. मित्र मडल देहली, पृ० १८ । सन् १९३६ । १८. जैनधर्म प्रकाश-ले. ब्र० शीतलप्रसाद, प्रका० परि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब. शीतलप्रसाद और उनकी साहित्य-साधना ५ षद पब्लिशिंग हाउस विजनौर, पृ० २६५, प्रका० ३१. नियमसार-ले० कुन्दकुन्दाचार्य, सं० टी० पपप्रभ सन् १९३६ (कई संस्करण छपे)। मलघारिदेव, हिन्दी अनु०७० शीतलप्रसाद, प्रका० १६. जैनधर्म में अहिंसा-ले०७० शीतलप्रसाद प्र० मूल. जैन ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई, पु० २२३, प्रका० चन्द किशनदास कापडिया सूरत, पृ० १४३, प्रका० सन् १९१६ (कई सस्करण छषे)। सन् १६३६ । ३२. निश्चय धर्म का मनन-सपा० प्र० शीतलप्रसाद, २०. जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ-ले० ब्र० शीतलप्रसाद प्र० दि० जैन पुस्तकालय सूरत, पृ० ३६७, प्रका० प्रका० दि० जैन पुस्तकालय सूरत, पृ० १६७, प्रका० सन् १भ२६ । सन् १९४१ (कई सस्करण छपे)। ३३. पंचास्तिकाय टीका (प्रथम भाग)-ले० कुन्दाकुन्दा२१. जैन नियम पोथी–सन० ब० शीतलप्रसाद, प्रका. चार्या, अनु० टी० ब्र० शीतलप्रसाद, प्र० दि० जैन मुंशीलाल एण्ड सस देहली, पृ० ३० प्रका० सन् पुस्तकालय सूरत, पृ० ४२४ प्रका० सन् १९३७ । १९४२ (कई सस्करण छपे)। ३४. पंचास्तिकाय टीका (दूसरा भाग)-ले० कुन्दकुन्दा२२. जैन बौद्ध तत्त्व ज्ञान-ले० सं० ब्र० शीतलप्रसाद, चार्य, अनुकटीका० ब्र० शीतलप्रसाद, प्र. दि. जैन प्रका० स्वय पृ० ३५२ प्रकाशन सम् १९३४ । पुस्तकालय सूरत, पृ० २४५, प्रका० सन् १६२८ । २३. जैन बौद्ध तत्त्व ज्ञान-(दूसरा भाग) ले० सपा० ब्र० ३५. प्रतिष्ठामार सग्रह-सपा० ब्र० शीतलप्रसाद, प्र० शीतलप्रसाद, प्रका० दि० जैन पुस्तकालय सूरत, पृ० दि० जन पुस्तकालय सूरत, पृ० २२३, प्रकाशन सन् २६४, प्रका० १९३७ । १६२६। २४. जम्बू स्वामी चरित्र--ले० पाडे रायमल्ल, अनु०७० ३६. प्रवचन सार टीका (प्रथम खंड)-ले० कुन्दकुन्दाशीतलप्रसाद, प्र. मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत, चार्या, टीका अनु० ० शीतलप्रसाद, प्र०.दि. जैन पृ० २१३ प्रदा० सन् १९३६ (कई सस्करण छपे)। पुस्तकालय सूरत, पृ० ३७३ प्रका० सन् १९२४ । २५. तत्त्व भावना (वृहत्सामायिक पाठ)-ले० अमितगति ३७. प्रवचन सार टीका (द्वितीय खंड)-ले० कुन्दाकुन्दाप्राचार्य, टीका ब्र० शीतलप्रसाद, प्र. दिगम्बर जैन । चार्ग, टीका अनु० ब्र० शीतलप्रसाद, प्र. दि. जैन पुस्तकालय सूरत, पृ० ३४४ प्रका० सन् १९६० । पुस्तकालय सूरत, पृ. ३६६ प्रकाशन सन् १९२५ । २६. तत्त्व माला-ले० ब्र० शीतलप्रसाद, प्र० भारत जैन ३८. प्रवचन सार टीका (नृतीय खड)-ले० कुन्दकुन्दामहामंडल, पृ० १०४, प्रका० सन् १९११ (कई संस्करण निकले)। चार्य, अनु० ब्र. शीतलप्रसाद, प्र. दि. जैन २७. तत्त्व सार टीका-ले. देवसेनाचार्य, टीका ब्र० पुस्तकालय मूरत, पृ. ३६२, प्रकाशन सन् १९२थ । शीतलप्रसाद, प्र० दि० जन पुस्तकालय सूरत, पृ० ३६. परमार्थ वचनिका तथा उपादान निमिसकी चिट्ठी ले० कविवर बनारसीदास, टीका व. शीतलप्रसाद, १६२ प्रका० सन् १९३८ ।। प्र. दि. जैन पुस्तकालय सूरत, पृ० ७६, प्रकाशन २८. तारणतरण श्रावकाचार-ले० तारणतरण स्वामी, सन १६५६. टीका व्र० शीतलप्रसाद, प्र० मथुराप्रसाद बजाज , मान ४०. बंगाल विहार उड़ीसा के प्राचीन जैन स्मारकसागर, पृ० ४३६, प्रकाशन सन् १६३३ । संपा० ० शीतलप्रसाद, प्र. दि. जैव पुस्तकालय २६. दानवीर सेठ माणिकचन्द्र-ले. ब्र. शीतलप्रसाद, सूरत, पृ० १३२ प्रकाशन सन् १९५४ (कई संस्कर प्र. दिगम्बर जैन पुस्तकालय सूरत, पृ० ९२० प्रका० मन् १९१६। ४१. बम्बई प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक-संग्र. संपा. ३०. दीप मालिका विधान-संग्र० ब्र० शीतलप्रसाद, प्र० ब्र. शीतलप्रसाद, प्र. सेठ माणिकचन्न पानाचन्द दि० जैन पुस्तकालय सूरत, पृ० २४, प्रका० सन् जौहरी बम्बई, पृ. २३१, प्रकाशन सन् १९२५ । १९५१ (कई सस्करण छपे)। ४२. भगवान महावीर और उनका सन्देश-ले० ७. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वर्ष २५, कि. २ अनेकान्त शीतलप्रसाद, प्र. जैन मित्रमंडल देहली, पृ. ४२, शीतलप्रसाद, प्र. जैन बाल विधवा सहायक सभा प्रका० सन् १६४२ । देहली, पृ. १६, प्रका. सन् १९२८ ।। ४३. भगवान महावीर की शिक्षाएं-लेखक व. शीतल ५७. बृहज्जन शब्दार्णव (द्वितीय खड)-संग्र. मा. बिहारी प्रसाद, प्र. दि. जैन भ्रातृसघ मागरा, पृ. ११ सन् लाल, संपा. व. शीतलप्रसाद, प्र. दि. जैन पुस्तकालय १६२५। सूरत, पृ. ३६१, प्रका. सन् १९३४। । ४४. मद्रास-मैसूर प्रान्त के जन स्मारक-संग्र० संपादक ५८. वृहत्स्वयंभू स्तोत्र-ले. समस्तभद्राचार्य, टी. ब्र. ब. शीतलप्रसाद, प्र० मूलचन्द किशनदास कापडिया शीतलप्रसाद, प्र. दि. जैन पुस्तकालय सूरत, पृष्ठ सूरत, पृ. ३३४, प्रकाशन सन् १९२८ । ६१६, प्रकाशन सन् १६३२ । ४५. मध्य प्रान्त, मध्य भारत व राजपूताने के स्मारक- ५६. सच्चे सुख का उपाय-ले. प्र.शीतलप्रसाद,प्र. दि. संग्र० संपा०७० शीतलप्रसाद, प्र० मूलचन्द किशन- जैन मालवा प्रान्तिक सभा बड़नगर, पृ. २६, प्रका. दास कापडिया सूरत, पृ २०४, प्रका० सन् १९२६ । सन् १९३२ । ६०. सनातन जैनमत-ले. ब्र. शीतलप्रसाद, प्र. प्रेमचन्द ४६. ममल पाहुड (प्रथम भाग)-ले० तारणतरण स्वामी, जैन देहली, पृ. ७४ प्रकाशन सन् १९२७ । अनु. ब. शीतलप्रसाद, प्र. मथुराप्रसाद बजाज सागर, ६१. समाधिशतक टीका-ले. पूज्यपादाचार्ग, टीका ब्र. पु. ४२०, प्रका. सन् १९३७ । शीतलप्रसाद, प्र. ५. फतहचन्द देहली, पृ. १७५, ४७. ममल पाहुड (द्वितीय भाग)-ले. तारणतरण स्वामी प्रका. सन् १९२२।। अनु.अ. शीतलप्रसाद, प्र. मथुराप्रसाद बजाज सागर, ६२. सामयिक पाठ-ले. अमितगति प्राचार्य, अनु. व. पृ. ४५०, प्रका. सन् १९३८ । शीतलप्रसाद, प्रका. मूलचन्द किशनदास कापडिया ४६. ममल पाहुड (तृतीय भाग)-ले. तरणतारण स्वामी सूरत, पृ. २४, प्रका. सन् १९२३ (कई सस्करण छपे)। अनु. ब. शीतलप्रसाद, प्र. मथुराप्रसाद बजाज सागर, ६३. सुखसागर भजनावली- ले. व. शीतलप्रसाद, प्रका. पृ. ३१८, प्रका. सन १६६६ । मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत, पृ. ४ण२, प्रका. ४६. महिला रत्न मगनवाई–ले. ब्र. शीतलप्रसाद, प्र. दि. सन् १९१६ (कई संस्करण छपे)। जैन पुस्तकालय सूरत, पृ. २०२, प्रकाशन सन् १९३३ ६४. सुलोचना चरित्र-ले. व. शीतलप्रसाद, प्र. दि. जैन ५०. मानव धर्म-ले. ब. शीतलप्रसाद, प्र. हिन्दी ग्रन्थ पुस्तकालय सूरत, पृ. ११५, प्रकाशन सन् १९२४ । रत्नाकर कार्यालय वम्बई, पृ. १६८, प्रका. सन् '३०।। ६५. समयसार-ले. कुदकुन्दाचार्य, टीका व्र. शीतल५१. मिथ्यात्व निषेध-ले. व. शीतलप्रसाद, प्र. जैन मित्र प्रसाद, प्र. मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत, पृ. मंडल देहली, पृ. २४, प्रका. सन् १९३३ । ३४२, प्रकाशन सन् १९१८ । ५२. मुक्ति और उसका साधन-ले.ब. शीतलप्रसाद, प्र. ६६. समयसार कलशा-ले. अमृत चन्द्राचार्ग, हिन्दी टीका जैन मित्र मंडल देहली, पृ. २८। प्रका. सन् १९२६ । पांडे रायमल्ल, अनु. सपा. व. शीतलप्रसाद, प्र. दि. ५३. मोक्षमार्ग प्रकाशक (द्वितीय भाग)-ले. ब. शीतल जैन पुस्तकालय सूरत, पृ. ३६६, प्रका. सन् १९३१ । प्रसाद. प्र. दि. जैन पुस्तकालय सूरत, पृ. ४४, ६७. स्वतंत्रता का सोपान-ले.व. शीतलप्रसाद, प्र. मूलप्रका. सन् १८३३. चन्द किशनदास कापडिया सूरत पृ. ४१५, प्रका. ५४. योगसार-ले. योगीन्द्रदेव टी. ब्र. शीतलप्रसाद, प्र. सन् १६४४ । मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत, पृ. ६६४, प्रका. ६८. स्वसमरानंद अथवा चेतन कर्मयुद्ध-संपा.व. शीतलसन् १८४१ । प्रसाद, प्र. मूलचन्द किशनदास कापडिया सूरत, प. ६५. विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा-ले. ब. शीतलप्रसाद, प्र. ८१, प्रकाशन सन् १९२३ । जैन पुस्तकाल सूरत, पृ. २१६, प्रकाशन सन् १९५२ ६६. सहज सुख साधन-ले. व. शीतलप्रसाद,प्र. मूलचन्द (कई सस्करण छपे)। किशनदास कापडिया सूरत, पु. ३९२, प्रका. सन् ५६. विधवाओं और उनके संरक्षकों से अपील-ले. ब्र. १९३३ (कई संस्करण छपे)। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब. शीतलप्रसाद और उनकी साहित्य-साधना ८७ ७०. सहजानंद सोपान-ले. व. शोतलप्रसाद, प्रका. दि. शीतलप्रसाद प्रकाशक सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस जैन पुस्तकालय सूरत, पृ. २७४, प्रका. सन् १९३७ ।। लखनऊ पृष्ठ ८८ प्रकाशन सन् १८३१ । ७१. संयुक्त प्रान्त प्राचीन जैन स्मारक-संग्र. व. ५. तस्वार्थाधिगमसूत्र-लेखक प्राचार्य उमास्वामी, मनुशीतलप्रसाद, प्र. हीरालाल जैन एम. ए. प्रयाग, पृ. वादक क. जुगमन्दर लाल जैनी, सहायक प्र. १११, प्रकाशन सन् १९२३ । शीतल प्रसाद पृष्ठ २४० प्रकाशन सन् १९३० ७२. सारसमुच्चय सार टीका-ले. कुलभद्राचार्य, टीका प्रकाशक कुमार देवेन्द्र प्रसाद मारा। व. शीतलप्रसाद, प्र. दि. जैन पुस्तकालय मूरत, पृ. ६. समयसार-लेखक कुन्दकुन्दनाचार्य, अनुवादक २३२, प्रका. सन् १९३७ (कई संस्करण छपे)। रा० ब० जुगमन्दर लाल जैनी एम० ए० सहायक व्र० ७३. त्रिभंगी सार-ले. तारणतरण स्वामी टीका व्र. शीतल प्रसाद प्र. पंडित अजित प्रसाद एम. ए. एल. शीतलप्रसाद, प्र. सेट मन्नूलाल जैन मागासौद पृष्ठ एल. बी. लखनऊ,पृष्ठ २१४ प्रकाशन सन् १९६० । १३५, प्रका. सन् १९३६ । ७.मात्मानुशासन-लेखक गुणभद्राचार्य अनुवादक ७४. ज्ञान समुच्चयसार-ले. तारणतरण स्वामी, टीका रा० ब० जुगमन्दर लाल जैनी एम. ए. वार एटला, व्र. शीतलप्रसाद, प्र. सेठ मन्नूलाला जैन अागासोद सहायक व. शीतल प्रसाद, प्रकाशक प० प्रजितप.५०४, प्रकासन सन १९३५ । प्रसाद, एम. ए. एल. एल. बी. लखनऊ पृष्ठ ७५ ७५. भूला पथिक-ले. स्व. ब्र. सीतलप्रसाद, प्र. अखिल प्रकाशन सन् १६२८ । भारतीय दि० जैन परिषद बडौत, पृ. २४, प्रकाशन ८. गोमटसार (जीवकांड) लेखक नेमिचन्द्र सिद्धान्तसन् १६६६ । चक्रवर्ती अनु. रा. व. जुगमन्दरलाल जैन, सहायक व. नोट :-जो पुस्तके देहली की लायबेरियों, भडारो मे नहीं शीतल प्रसाद प्रकाशक अजित प्रसाद एम. ए. एल. मिली परन्तु व. जी द्वारा लिखी बताई जाती एल. बी. लखनऊ पृष्ठ ६४७ प्रकाशन सन् १९२७ । है उनके नाम इस प्रकार है। ६. गोमट सार (कर्मकांड)-भाग १ लेखक नेमीचन्द्र १. जैन धर्म दर्पण। २. दश लक्षण धर्म । सिद्धान्त चक्रवर्ती, अनु. रा. ब. जुगमन्दर लाल जैनी ३. सच्चे सुख की कुंजी। (सुख शाति की सच्ची कुजी)- एम. ए. सहायक व. शीतलप्रसाद, प्रकाशक मजित. ले. व. शीतलप्रसाद, प्रका. प्रात्मधर्म सम्मेलन सूरन, प्रसाद एल.एल.वी. लखनऊ पृ. २५५ प्र. सन् १९२७ । पृ. ३२, प्रकाशन सन् १९१७ । अनुवादित हुए ४. सच्चे सुख की सच्ची कुंजी। १०. प्रात्मधर्म-ले. व. शीतलप्रसाद, मनुवादक चम्पत____ अग्रेजी मे ७० जी का साहित्य राय जैन प्रकाशक अनुवादक स्वयं पृष्ठ ६७ प्रकाशन 8. Acomparative study of Jainism and १९३७ (कई सस्करण छपे)। Budhism ले०७० शीतल प्रसाद,प्र०दी जैनामिशन ११. इष्टोपदेश-ले. पूज्यपादाचार्य, अनुवादक चम्मतराय सोसाइटी मदरास, पृ. २०४, प्रकाशन सन् १९३४ । जैन Discourse Divine प्रस्तावना में व्र. शीतल8. Jainism A Key true Happiness प्रसाद के नाम का उल्लेख किया है हिन्दी टीका का लेखक व. शीतल प्रसाद, प्रकाशन दि. जैन भति प्रकाशक स्वयं पृष्ठ ४८ प्रकाशन १९२५ । शय क्षेत्र कमेटी महावीर जी जयपुर, पृष्ठ १३३ जो पुस्तके लिखी गई परन्तु हमें नहीं प्राप्त हुई प्रकाशन सन् १९६१। ३. गोमट सार (कर्मकांड भाग २)-ले. नेमिचन्द्र सिवा. १२. What is Jainism. न्तचक्रवर्ती अनुवादक, वैरिस्टर जुगमन्दरदास सहा- १७. २३ तीर्थङ्करों का चरित्र अंग्रेजी में लिखकर वैरिस्टर क. शीतल प्रसाद प्रकाशक सेन्टल जैन पब्लिशिंग चम्पतराय को भेजा परन्तु छपा नही। हाउस लखनऊ पृष्ठ ४२३ प्रकाशन सन् १८३८ । १४. वारह भावना का अंग्रेजी अनुवाद । सहायता दो इस तरह ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने साहित्य की ४. नियमसार-लेखक कुन्दकुन्दाचार्य, अनुवादक उग्र- बड़ी भारी सेवा की है। जैन समाज को उनकी सेन जैन एम० ए० एल० एल० बी० सहायक प्र० ममूल्य सेवा का मूल्यांकन करना चाहिए। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय नोट 'गोमापूर्व जाति पर विचार' नाम के लेख में श्री नगरों और कार्यादि पर से किया गया है। उनमें अनेकों 'यशवन्तकुमार जी मलैया ने कुछ बातें ऐसी लिखी है का उल्लेख मिलता है, वे जाति अब नही मिलतीं। पर जिनसे दूसरों को मतभेद हो सकता है। फिर प्रमाण न । किसी समय वे महत्व की रही हैं, सहल बाल जाति के देने से वह प्रामाणिक नहीं बन सका । प्रतः उस पर यहाँ अनेक मूर्ति लेख मिलते है। पर मुझे उनके अस्तित्व का कुछ विचार किया जाता है। पता ज्ञात नहीं है। धर्कट जाति बड़ी धर्मात्मा रही है, अग्रोहा से अग्रवालों का निकास हुआ है। अग्रसेन पर आज कोई धर्कट जाति का व्यक्ति दिखाई नही देता, अग्रोहा के राजा थे, उनके १८ पुत्रों के नाम से १८ गोत्र इसी तरह अन्य अनेक रप जातिया है, जिनका अस्तित्व होते बतलाये जाते है। वे लोहाचार्य के उपदेश से जैनधर्म मानने हुए भी उनका इतिवृत्त नहीं मिलता। लगे थे। ये काष्ठा संघ के अनुयायी थे । उन्होने राजा का उप जातियाँ कैसे बनी? यह विचारणीय है। नाम बाद में कल्पित नहीं किया। किन्तु अग्रोहा उनका अधिकतर उप जातियों का निकास भट्टारकों, साधुओं या निकास स्थान था। उसे कल्पित नही कहा जा सकता। महापुरुषो के निमित्त से उपदेशादि द्वारा धर्म परिवर्तन गोलापूर्वो की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे विचार वारते हुए, तथा बिना किसी परिवर्तनादि के द्वारा ग्रामों, नगरो व जो यह कल्पना की है कि इक्ष्वाकु वशी होने से गोलापूर्व, कार्यों आदि पर से हुआ है। जैसा कि कविवर बनारसीमोलालारे और गोल सिंघारे तीनों एक है। गोलालारे दास के अवं कथानक से स्पष्ट है :पौर गोलसिंधारे दोनों गोला पूर्वो की शाखा है याही भरत सुखेत मैं मध्यवेश शुभ ठॉब । उचित नहीं कहा जा सकता, यदि इक्ष्वाकुवंश को बस नगर रोहतगपुर निकट विहोली गांउ ।। उपजातियों ने अपनी प्रतिष्ठा एवं गौरव के लिए अपना गांउ विहोली में बस, राजवंश रजपूत । लिया हो, तो इक्ष्वाकुवंशी मात्र कहने से उनका एकत्व ते गुरुमुख जैनी भए, त्यागि करम अपभूत ।। सिद्ध नहीं होता और न वे गोलापूों से कभी मिले वा पहिरी माला मंत्र को पायो कुल श्रीमाल । अलग ही हुए हैं। वे तीनों उपजातिया स्वतन्त्र है। कोई थाप्यो गोत्र विहोलिया, बीहोली रखपाल ॥ किसी का अंश नही है, ऐसा उपलब्ध सामग्री के प्राधार -अर्घ कथानक पृ० २ से कहा जा सकता है। बिना किसी पुष्ट प्रमाण के यह रोहतक के निकट विहोली नामक एक गांव था, कल्पना निराधार जान पड़ती है। किसी उपजाति का उसमे राजवशी राजपूत रहते थे। वे गुरु के उपदेश से संख्या कम होना भी इस बात का द्योतक नहीं हो सकता प्रघभूत कर्म छोड़कर जैनी हो गये और नमोकार मन्त्र कि अमुक बड़ी जाति का भेद है, या उससे वह की माला पहिन कर उन्होने श्रीमाल कुल और वोहोलिया पृथक हुई है। दूसरे गोलालारे, गोलसिंघारो की संख्या गोत्र प्राप्त किया। का कोई निर्धारण नहीं किया गया जिससे उनकी अल्पता प्रतः हमें उप जातियों के सम्बन्ध मे विस्तृत अध्ययन का प्रामाणिक चित्र खीचा जा सके । उनके मरूप होने कर उनके सम्बन्ध मे प्रामाणिक माघार देकर विचार की कल्पना प्रानुमानिक है। दूसरे गोलापूर्वादि किसी करना चाहिए। प्राशा है मलया जी इस सम्बन्ध में अनुजाति में ऐसी कोई शक्ति भी नहीं दिखाई देती, जिससे सन्धान करेगे और उस पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार वह किसी दूसरी उप जाति को अन्तभक्त कर सके। कर लिखेगे। लिखने से पहले अपने विचारों के अनुकूल देश में अनेक उप जातियां रही हैं, जिनके निकास प्रमाणों का संकलन प्रामाणिक रूप से करना उचित होगा, का इतिवृत्त भी अनुपलब्ध है। उनका पठन भनेक ग्रामो, झट-पट कल्पना करने से उनकी प्रामाणिकता नहीं रहती। -परमानन्द शास्त्री Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. जैन धर्म में अहिंसा-लेखा डा० वशिष्ट नारा हालन मे स्वय किसी पशु का वध करके उमका मांस यण मिन्हा सोहनलाल जैनधर्म प्रचारक समिति अमृत भक्षण करे ताकि पशु की हत्या करते समय उसके मन मे भर । पृष्ठ सः ३१२ प्राप्ति स्थान पाश्वनाथ विद्या- दया भाव जग सके । गुरु ग्रंथ साहब में कहा गया हैश्रम शोध सस्थान, हिन्दू यूनिवमिटी, वाराणमी । मूल्य जो रत लोग कपडे जाया होए पलीत । बीस रुपया। जो रत पीवे मासा तिन क्यों निर्मलचीत । प्रस्तुत पुस्तक एक शोध प्रबन्ध है, जो बनारस हिन्दू प्रति जो रक्त या खुन लग जाने से वस्त्र गन्दा हो यनिवसिटी से पी. एच. डी. के लिये स्वीकृत हो चुका है। जाता है. तब रक्त से सना मास खाने से चित्त निर्मल कसे पुस्तक पाच प्रध्यायो में विभक्त है। १ जेनेनर परम्पायो हो सकता है? यह कथन अहिंसा का पोषक है। मे अहिमा, २ अहिमा सम्बन्धी जैन साहित्य, ३ जैन दृष्टि इस अधिकार में लेखक ने निष्पक्ष भाव से सभी धमों मे दिमा, ४ जैनाचार और हिमा, ५ गाधीवादी हिसा का विश्पण किया है। जैन दृष्टि से हिसा के विवेचन और जैन धर्म प्रतिपादित अहिमा । मे लेखक ने अनुकम्पा दान के सम्बन्ध म तेरा पथी श्वेतालेखक ने प्रथम अध्याय में जनेतर परम्पगो में हिमा म्बरो के मत का निर्देश किया है। कि वे अनुकम्पा दान का विवेचन किया है। इसमें महाभारत ग्रथ की महत्ता में एकान पाप मानते है । किन्तु जवाहरलाल जी महाराज ज्ञान होनी है । लेखक ने लिखा है कि शाति पर्व में एक ने उसका खडन किया है और बतलाया है कि अनुकम्पा जगह का है कि क्षत्रिय को: गृहस्थ हिमा का त्याग कर दान एकान्त पाप का मावन नहीं है किन्तु पुण्य का साधन है। ही नही मकता। मुखशान्ति प्राप्त करने के अर्थ यह महावीर के उत्तर कालीन अहिंसा का विवेचन करते ग्रावश्यक है कि दूसरे को कष्ट दिया ही जाय, किन्तु इसी हातखक ने कहा है कि महावीर के बाद अहिमा में बहुत पर्व म अन्यत्र अहिमा के सिद्धान्त की पुष्टि की है । लेखक अपवाद पा गए । निशीथ भाष्य या चणि मे कहा है कि ने यह भी लिखा है कि शान्ति पर्व उस हालत में मास कोई मात्र प्राचार्य का वध या साध्वी के साथ बलाभक्षण की अनुमति देता है जब प्राण सकट में हो । किन्तु कार करना चाहे तो उसकी हत्या करके प्राचार्य की रक्षा किमी भी हालत में धर्म के नाम पर यज्ञ मे पशु बलि करना चाहिये । का विधान शान्ति पर्व मे नही है। गाधीवादी अहिंसा का विश्लेषण करते हुए लेखक ने लेखक ने यह भी लिखा है कि यद्यपि सभी वैदिक गाधी जी के वचनों को उद्धत करते हुए दया और अहिंसा दर्शनी ने वैदिकी हिंसा हिसा न भवति, इस सिद्धान्त को के सम्बन्ध में लिखा है कि गाँधी जी ने दया और अहिंसा अपनाया है। परन्तु माख्य ने इसकी कड़ी मालोचना की है उतना ही अन्तर बतलाया है जितना सोने और उससे है। वैष्णव परमरा के रामानुजाचार्य बल्लभाचा प्राद बने गहनो मे या बीज पोर वृक्ष में है। दया के बिना ने भी वैदिक यज्ञो को शुद्ध माना है क्योकि टन मे मारा अहिंसा नहीं हो सकती। या पशु स्वर्ग जाता है लेखक ने सभी धर्मों की अहिंसा पर मध्यस्थ दृष्टि सिक्खो में भी महाप्रसाद में माम चलता है । लेखक कोण से विचार किया है। विषय की दृष्टि से पुस्तक का मतव्य है कि माँस लोलुप सिक्खो ने गुरु साहव का पठनीय है अभिनन्दनीय है पाठको को मगाकर अवश्य प्राशय ठीक नही समझा। गुरु माहब का अभिप्राय था पढना चाहिये। कि यदि कोई मास खाये बिना नहीं रह सकता तो ऐसी -परमानादशास्त्र Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___R.N_0591/82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन ८-१० . . पुरातन जनवाक्य-सूची : पाकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्यो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टाकादि ग्रन्यो । उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो का सूची । सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कयन (Foreword) और डा. एन. आध्ये एम.ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, मजिल्द । १५.०० पाप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २.०० स्तुतिविद्या : स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, मानुवाद पौर श्री जुगल किगोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि में अलकृत गुन्दर जिल्द-महित । मध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की मुन्दर ग्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित यक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिगका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुअा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद पौर प्रस्तावनादि में अलकृत, मजिल्द । ... १२५ श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र . प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । .... ३-०० जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा०१: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मगलाचरण महित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और प० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, सजिल्द । ... ४.०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्म कृति परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका महित ४-०० अनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ तत्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)--मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा स्या से पृक्त । ___२५ श्रवणबलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । १-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्य, समन्तभद्र विचार-दीपिका महावीर पूजा प्रत्येक का मूल्य .२५ प्रध्यात्मरहस्य . प. प्राशाधर की मुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद पहित । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह । पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टो महित । म. पं० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२.०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पष्ठ मख्या ७४० सजिल्द ५.०० कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृपभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिमूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धात शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों मे। पृष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... ... २०.०० Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द ६ .०० जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया प्रकाशक-वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित । Page #100 --------------------------------------------------------------------------  Page #101 --------------------------------------------------------------------------  Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 521 द्वे मासिक वर्ष २५: किरण ३ अगस्त १९७२ समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र देवगढ़ को तीर्थकर मूर्तियां Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विषय-सूची अनेकान्त के ग्राहकों से विषय । अनेकान्त के सभी ग्राहकों का मूल्य गत किरण ६ १. महंत-परमेष्ठी-स्तवन - पद्मनन्द्याचार्य ८६] के साथ समाप्त हो गया है। २५वे वर्ष की तीसरी २. मुक्तक काव्य (अध्यात्म दोहावली) किरण भेजी जा रही है। अत: ग्राहकों से सानुगेष पांडे रूपचन्द ६० निवेदन है कि वे अनेकान्त के २५वें वर्ष के ६) रुपया ३. विक्रम विश्व विद्यालव उज्जैन के पुरातत्त्व मनी प्रार्डर से भिजवा कर अनुगृहीत करे। जिन्होंने संग्रहालय की अप्रकाशित जन प्रतिमाएँ प्रभी वार्षिक मूल्य के ६) रुपया नही भिजवाए है वे शीघ्र डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य एम. ए. पी. च. डी. ६१ ही भिजवाने की कृपा करे । अन्यथा अगला प्रक ७-५० ४. कलचुरि काल में जैनधर्म -शिवकुमार नामदेव की बी. पी से भेजा जावेगा। शोधछात्र व्यवस्थापक 'अनेकान्त' ५. माहड़ के जैन मन्दिर का अप्रकाशित शिला वोर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज लेख-रामवल्लभ सोमाणी दिल्ली ६. पनागर के भग्नावशेष-कस्तूरचन्द एम. ए. ९८ ७. प्रज्ञात कवि हरिचन्द्र का काव्यत्व - अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जन परिषद् डा. गंगाराम गर्ग ८. कुंभारिया के संभवनाथ मन्दिर की जैन स्वर्ण जयन्ती समारोह देवियां-मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी शनिवार, रविवार दिनांक ६ व ७ जनवरी ७३ को कोटा शोषछात्र १०१ (राजस्थान) में होना निश्चित हुअा है। ६. जैन दृष्टि में अचलपुर-चन्द्रशेग्वर गुप्त | जैसा कि पापको विदिन ही है कि यह ममारोह १ व (शोधछात्र) 1 २ अक्टूबर को हो रहे थे। छात्रो द्वारा हिमक उपद्रवो के १०. कामघट (कहानी)-मुनि श्री महेन्द्र कुमार कारण स्थगित करने पड़े। प्रथम १०६ ११. प्राकृत भाषा और नीति-डा० बालकृष्ण जैन समाज की सभी सस्थानों, अादरणीय गहानुभाव अकिचन एम. ए. पी. एच. डी. विद्वान, एवं कार्यकर्ताओं से प्रार्थना है कि वह अपने कार्य१२. सामान्य रूप से जैनधर्म क्या है ? क्रमों से इन तिथियों को बचाकर रखे, जिससे कि आप -लाला महेन्द्रसेन जैन इस समारोह में सुगमता से भाग ले सके । १३. नयनार मन्दिर-ले. टी. एस श्रीपाल, निमत्रणादि यथा समय प्रेषित किये जायेगे। अनुवायक प० बलभद्र जैन -प्रार्थीजम्बू कुमार जैन सुकुमार चन्द्र जैन १४.५० दौलतराम-कासलीवाल स्वागताध्यक्ष प्रधानमन्त्री परमानन्द जैन शास्त्री १२२ स्वागत समिति जैन भवन अ०भा० जन परिषद १५. राजस्थान के जन कवि और उनकी कृतियाँ स्टेशन रोड, कोटा (राज.) २०४, दरीबाकला, दिल्ली -डा. गजानन मिश्र एम. ए. प्राध्यापक दुरभाष : ४०२७,८१६ दूरभाद:२७७९४७ राजकीय महाविद्यालय वारा (कोटा) १३० दिनाक: २६.१०.७२ १६. कर्नाटक की गोम्मट मतियां सम्पादक-मण्डल प. के. भुजबली शास्त्री प्राचार्य डा० प्रा० ने० उपाध्ये १७. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द जैन शास्त्री १३५ डा० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा १०४ ११८ १२० १३४ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् प्रहम अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिम्पुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषनयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २५ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६८, वि० सं० २०२९ जुलाई-अगस्त १९७२ अर्हत-परमेष्ठी-स्तवन रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहातप्रस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधद्वेषोऽपि संभाव्यते। तस्मात्साम्य मथात्मबोधनमनोजातः क्षयः कर्मणामानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥३ -पग्रनन्धाचार्य अर्थ-जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रहरूपो पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय में राग नहीं है, त्रिशूल प्रादि प्रायुधों से रहित होने के कारण उक्त प्ररहंत परमेष्ठी के विद्वानों द्वारा द्वेष की संभावना भी नहीं की जा सकती है। इसीलिए रागद्वेष रहित हो जाने के कारण उनके समता भाव आविर्भूत हुआ है । अतएव कर्मों के क्षय से बहत्तरमेष्ठी अनन्त सुख प्रादि गुणों के पाश्रय को प्राप्त हुए हैं। वे अहत्परमेष्ठी सर्वदा पाप लोगों की रक्षा करें। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तक काव्य (अध्यात्म दोहावली) अध्यात्मी पांडे रूपचन्व (गत किरण २ से मागे) अपने रस जो (में) लवण ज्यो, विश्व विर्षे चिद्रूप। शुद्ध निरन्जन ज्ञानमय, निहचै नय जो कोय । शुद्ध बुद्ध मानन्द मैं, जानहुँ वस्तु स्वरूप ॥ ६५ प्रकृति मिले व्यवहार के, मगन रूप है सोय ॥ ८० मैन गयो गलि मूसि मैं, वारिषु अंबर होय । निहर्च नय न प्रमत्तजो, अरु अप्रमत्त न होय । पुरुषा कार जु ज्ञान में, वस्तु सुजाने कोय ॥ ६६ गुण संज्ञा व्यवहार सो, पावं जानक सोय ।। ८१ वस्तुत्व-मिव चैतन्य मैं, लिये छिप जो नांहि । निहचं मुकत स्वभाव ते, बन्ध कहयो व्यवहार । जदपि सु नव तत्वनि मिल्यो, मिले न काहू मांहि ।। ६७ एव मादि नय जुगति के, जानह वस्तु विचार ।। ८२ तनु-मन-वचन प्रगम्य है, इन्द्रियनि ते पुनि दूरि । नय-प्रमाण निक्षेप के, परखि गहह निज वस्तु । वस्तु सु अनुभव ज्ञान के, गम्य कहे निज सूरि ।। ६८ चिन्तामणि ज्यों कर चढ़े, त्यो कर चढ़यो समस्त ॥८३ वस्तु सुजानहु जिहि विष, गुन-परजय सहवासु । जिहि देखें सब देखिए, जाये सब जिहि जानि । मरु जिहिं संतत ही घटे, पिति उत्पत्ति विनासु ।। ६६ जिहिं पाये सद पाइये, लेह न तबहि पिछानि ।। ८४ सहभावी गुन जानिए, वस्तु विषानु जु काय। चेतन चित परचय बिना, जप तप सबै निरत्यु। क्रमवर्ती परजय कहपो, वस्तु विकार जो सोय ॥ ७० कण बिनु तुष जिमि फटक रौं, मावै कछु न हत्थु ॥ ८५ उपजे बिनु जो ऊपज, नाशे विनु जु नशाय । चेतन सो परच्यो नही, कहा भर व्रत धारि । जैसो को तैसो रहे, वस्तु सु प्रति परजाय ॥ ७१ सालि विहून खेत की, वृथा बनावत बारि ॥ ८६ नित्या नित्यादिक विविध ! धर्ममय जु नरु पाहि। तो लगि सब रुचत हैं, मरु सब विषय कहानि । झगरत विमल जि रूप के, मंष दन्ति विधि ताहि ॥ ७२ ज्यों लगि चेतन तत्व सौ, नहीं कहूँ वच हानि ॥८७ नय विभाग विनु अन्ध ते, कल्पित जुगति बनाय। बिना तत्त्व परिचै लगत, अपरभाव अभिराम । वस्त स्वरूप न जानहीं, मरत बहिर मुख धाय ।। ७३ ताम मोर रस रुचत हैं, अमृत न चाख्यो ताम || भनेकान्त मत वादिनी, जिन वानी जु रमाय । सुने परिचये अनुभवे, वार-वार परभाव । मित्या नित्यादिक घटा, ताकेबय समाय ॥ ७४ कबहुँ भूलिन परिचये, शायक शुद्ध स्वभाव ||EE जिन वाणी तप भेद के, या दो पक्ष । कहा कहा न भई, तुम्हें, सुर नर पद की रिद्धि । ता बिनु मुनि बित मोह क्यों, लखते बस्तु मलक्ष ॥ ७५ पर कबहूँ भूलि न भई, चेतन के वल सिद्धि ॥६० व्यंजन पर्यय मित्य जो, मिहचं नय समवाय . मनादि दर्शन मोह तै, रही न सम्यक् दृष्टि । भ्यवहार सु वस्तु है, क्षणिक अर्थ परजाय॥ ७६ तात' चेतन तत्व सों, भई न कबहूँ वृष्टि ।। ६१ निहर्ष तप जो वस्तु है, शायक रूप एकु। जो लगि मोह न उपश मैं, सति जति का ले पाय । दर्शन ज्ञान चरित्र के व्यवहारे सु भनेक ।। ७७ तो लगि निर्मल दृष्टि बिनु, तत्त्व न जान्यो जाय ।। ६२ ममूरतीक स्वभाव के, निहंच के यु विचारु। प्रन्थ पढ़े मरु तप तपै, सई परीषह मांहि । मूरतीकु सो बापते, बस्तु कहपो विवहार ।। ७८ केवल तत्व पिछानि बिनु, कह नही निरवाहि ।। ९३ निहचं तप परमाव के, करता भुक्ता नाहिं। चेतन तुम जु मनादि ते' कर्म कर्म यहि फेरि । + METर ज्यौं. सकर भगत नाहिं ।। ७६ समल ममल जल ज्यों भरे, सहत स्वभावहि मेटि ।। ६४ (शेष पृ० ६३ के नीचे) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के पुरातत्त्व संग्रहालय की अप्रकाशित जैन प्रतिमाएँ डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य एम. ए. पी-एच. डी. प्राचीन भारतीय मूर्ति कला के क्षेत्र में मालव भूमि गभ, वाकाट, सोम प्रादि शक नरेश उज्जयिनी में प्रारका विशिष्ट महत्व है। सांची, घार, दशपुर (मंदसौर), म्भिक शक शासक थे जिन्हें कालकाचार्य नामक जैन मुनि बदनावर, कानवन, बड़नगर, उज्जैन, मक्सी, नागदा, ने गर्द भिल्ल नामक इन्द्रियासक्त शासक से अपनी बहन भौंरासा, देवास, आष्टा, कायथा, सीहोर, सोनकच्छ, सरस्वती को बचाने हेतु शक स्थान से निमंत्रण देकर गंधावल, नेवरी कन्नौद, सुन्दरसी' बागली, जावरा, नीम- बुलाया था।' इन्हीं शकों का उच्छेदन विक्रमादित्य नामयूर, बड़वानी, झारड़ा, करेडी, जामनेर, गोंदलमऊ, घारी व्यक्ति ने ५७ ई. पू. में किया था जिसे जैन मागम भागर, नलखेडा, महीदपुर, बिलयांक प्रादि ऐसे कला केन्द्र ग्रन्थों में जैन धर्मानुयायी कहा गया है। हैं जहां ब्राह्मण धर्म की प्रतिमानों के साथ जैन धर्म की सिद्धसेन दिवाकर के विषय में कहा जाता है कि मूर्तियां मिलती हैं। साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर तो इन्होंने उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर की शिव प्रतिमा चंडप्रद्योत ने स्वयं जैनधर्म में दीक्षित होकर महावीर को जिन प्रतिमा में परिवर्तित कर दिया था। क्षपणक की चन्दन निर्मित मूर्तियों को उज्जयिनी, दशपुर एवं को कुछ विद्वानों ने सिखसेन दिवाकर से तदात्म्य किया विदिशा में स्थापित किया था। उज्जैन के गढ़ उत्खनन है। विक्रम नामधारी गुप्त शासकों के ९ रत्नों में ये (१९५३-५४) से प्रद्योत निर्मित काष्ठ प्राचीर के अवशेष प्रसिद्ध थे। परन्तु उज्जैन के जैनावशेषों में १०वीं शताब्दी तो मिले हैं, परन्तु ईसापूर्व की शताब्दियों से सम्बन्धित के पूर्व के किसी भी प्रतिमावशेष के प्रमाण नहीं मिले हैं । किसी जैन प्रतिमा के पुरातात्विक प्रमाण नही मिले। साहित्यिक प्रमाणों मे उज्जैन में जैनधर्म के पर्याप्त सा की प्रथम शताब्दी में मौर्य वंश के कुणाल व विकास के अनेक उल्लेख प्राप्य हैं जिनसे प्राचीन भारत संप्रति नामक शासकों का उज्जयिनी पर माधिपत्य ग्रहण की प्रमख नारियों की भांति उज्जयिनी में भी यह धर्म व तत्पश्चात् यहीं से जैनधर्म के प्रचार को सूचनाएं जन पूर्ण रूपेण प्रचलित था। मागम प्रन्थ देते हैं। डा० देव का कहना है कि जो कार्य परन्तु प्रस्तुत विवरण में उज्जैन के विश्वविलयाय में व श्रम प्रशोक ने बौद्ध धर्म के विस्तार के लिए किया था नवनिर्मित पुरातत्व संग्रहालय की 'तीर्थकर दीर्घा' में वही जैन धर्म के प्रचारार्थ उज्जयिनी के संप्रति ने किया विद्यमान प्राचीन तीर्थकर प्रतिमानों का वर्णन लिया गया या देखें-जैन मोनाकिज्म, पृष्ठ १४) संपति ने उज्ज- है। प्रतः उसी तक सीमित रखा गया है। निमी में अनेक जिन मंदिरों का निर्माण करवाया व विक्रम विश्वविद्यालय का पुरातत्व संग्रहालय प्राचीन मूर्तियों की स्थापना की। जैन पागम ग्रन्थ संपत्ति को मालवा व उज्जयिनी के अवशेषों से सम्पन्न है । नगर के , 'जैन धर्म कुसुम, कहते थे। शकों के साथ कालकाचार्य प्रमुख जनावशेष सुरक्षा प्रेमी व जैन संग्रहालय के उत्साही का प्रसिद्ध कथानक जुड़ा हुआ है, और अब इधर के कार्यकर्ता श्री सत्यंधर कुमार जी सेठी के भाग्रह से संग्रसिक्कों की प्राप्ति से यह प्रमाणित हो चुका है कि हमु- हालय में एक 'तीर्थकर दीर्षा' का निर्माण किया गया १.त्रिषष्ठि शलाका, पुरुष चरित, पर्व १०, सगं २, २. जर्नल मॉफ इण्डियन न्यूमेस्मेटिक सोसाइटी, १९७१, पृ० १५७ । के. डी. वाजपेयी का लेख। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, पर्व २५, कि०३ अनेकान्त जिसमें प्राचीन उज्जयिनी से प्राप्त ६७ तीर्थङ्कर प्रति- पद्म का है व पुष्प प्रलंकरण है । संग्रहालय मू. क्र. २०७ मानों को काल क्रमानुसार रखा गया। संग्रहाध्यक्ष श्री में जेरपर (Jarper) निमित मुनि सुव्रतनाथ की प्रतिमा विष्णु श्रीपद नाकणकर ने इनको एकत्रित करने में पर्याप्त है। वाहन या पादस्थल पर कच्छप उत्कीर्ण है। प्रतिमा बम किया। श्री भाटी जी ने माखनवर नामक स्थान में पद्मासन व ध्यान मुद्रा है। प्रभा मडप मे चपक वृक्ष से, जो शिप्रा तट पर कालियादह नामक स्थान के क्षत्र. है व दोनो और वरुण यक्ष व नरदत्ता यक्षिणी है जो फल मे हैं, एक विशाल जैन तीर्थ र प्रतिमा को नदी के ललितासन मे है । इस प्रस्तर फलक का प्राकार अथाह जल मे निकाल कर विश्वविद्यालय के परमान EX २२४१० से० मी० का है। प्रतिभा प्राप्ति का हालय की प्रदान की। धान कठाल है जिसे मेडम क्राउझे ने 'कान्तारवन' कहा उज्जैन में एक अन्य वृहद् जैन मूनि संग्रहालय है जो है, (देखे विक्रम स्मृति ग्रन्थ में लेख-उज्जैन में जैन धर्म) "जयमिह पुग जैन मूनि मग्रहालय' के नाम से प्रसिद्ध प्रतिमा के पाद स्थल पर दो पक्ति का अभिलेख है-कुछ है। वह संग्रहालय जैन पुरातत्व को दृष्टि से पात्यन्त ग्रम्पान रूप से 'ग्राचार्य श्री विजयराज सूरि विराजिता', महत्वपूर्ण है और यहाँ प्रतिवर्ष अनेक शोधकर्ता जैन प्रति अकित है । लिपि पूर्णतया परमार काल के अन्तिम समय मानों का अध्ययन करने आते है। इस संग्रहालय में की है अर्थात् १.१५ ई० के पास-पास मे स्थापित की प्राचीन मालवा-प्रदेश की एकत्रित जिन मूर्तियाँ है । ज्ञान गई। पीठ के सौजन्य से इस संग्रहालय को व्यवस्थित करने का ____ अाठवे (तीर्थक र चन्द्रप्रभ की प्रतिमा विशेष कलाकार्य लगभग डेढ वर्ष पूर्व प्रारम्भ किया गया। ज्ञानपीठ मक है। पद्मासन में ध्यान मुद्रा मे यह सगमरमर की के प्रमुख लक्ष्मीचन्द्र जी जैन व कार्यकर्ता श्री गोपीलाल जी 'प्रमर' ने इस दिशा में विशेष रुचि लेकर पूर्ण प्रतिमा है, नीचे चिन्ह चन्द्रमा उत्कीर्ण है। प्राकार संग्रहालय की जैन प्रतिमानो को ऐतिहासिक काल क्रम २५४१८४ ११ से. मी० है व उज्जैन के हासामपुरा में रखने, उन पर क्रमाकीकरण करने और यहाँ की लग से उपलब्ध हुई है। श्री वत्स लांछन है व ध्यानमग्नता भग ५१३ प्रस्तर एव कास्य प्रतिमानों का 'केटलाग' लाग का भाव अंकित है । इसका क्रमांक २०८ है। बनाने का कार्य मुझे सौ।। 'केट लाग' ज्ञानपीठ की भोर तत्पश्चात् मूर्ति क्रमांक २०६ व २१० में पाश्वनाथ भेजा जा रहा है जो महावीर भगवान के ढाई हजार वर्ष व ऋषभनाथ अकित है । सप्तफण छाया व अन्य पर के समारोह पर प्रकाशित किया जायेगा। इस प्रकार वृपभाकृति से यह पहचानी जाती है। दोनों काले सलेटी सम्पूर्ण मालव प्रदेश की जन प्रतिमानों का विवरण, कला पत्थर से निर्मित है। प्राकार २६४२४४१० से० मी० सौन्दर्य व उनकी जैन प्रतिमा विज्ञान के ग्रन्थो पर पह- है। दोनों ही प्रवति सुकुमाल का जैन मन्दिर (खारा चान, नाप, अभिलेख प्रादि विवरण रखा गया और यह कुग्रा-उज्जैन) जहाँ स्थित है उसके पीछे के खण्डहर में जैन शोधकर्ताओं के लिए प्रमुख क्षेत्र बना। नवनिर्मित मकान की नींव खुदाई के समय उपलब्ध हुई। विश्वविद्यालय मे स्थित तीर्थङ्कर प्रतिमानों का विव- अब ये विश्वविद्यालय के संग्रहालय में 'तीर्थ धर दीर्षा' रण इस प्रकार है : मे प्रतिष्ठित है। मूर्ति क्रमांक २०६ में प्रादिनाथ का अकन है। इस अगली तीर्थङ्कर प्रतिमा है ४४४३३४२० से. सर्वतोभद्र प्रतिमा में जटाए कन्धों तक है जिन्हें कर्ण भी मी० के प्राकार की पार्श्वनाथ मूर्ति जिस पर अभिलेख कहा जा सकता है । पपासन में ध्यानस्थ प्रादिनाथ दोनों अकित है। पद्मासन मे ध्यानस्थ मुद्रा में प्रतिमा सुन्दर हाथ गोदी में रखे हुए है । प्राकार २६४२०x१० से० मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। प्रतिमा संगमरमर मी. व प्रतिमा संगमरमर की है। १२वीं शताब्दी की की है और लिपि के अनुसार १५वी शताब्दी के प्रतिम जैन प्रतिमा पारदर्शी झीने वस्त्र पहने है । पाद स्थल पर शतक में निर्मित है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के पुरातत्व संग्रहालय को प्रकाशित जैन प्रतिमाएँ " धनी १० प्रतिमाएं सर्वतोभद्र महावीर की मूर्तियां हैं जिन पर पारदर्शी वस्त्र है अतः श्वेताम्बर धर्म की प्रतिमा है । सभी प्रतिमा में महावीर पद्मासन में ध्यानमग्न मुद्रा मे प्रकित हैं । प्राप्ति स्थल उज्जैन की नयापुरा बस्ती है जहाँ बाज भी घनेक जैन मन्दिर स्थित है। मूर्ति क्र. २२७ मे प्रस्तर फलक का ऊपरी भाग है और शेष भग्न है। ऊपर तीर्थदूरी पर पूर्ण पट लिए अभिषेक रत हाथी, किन्नर, वादक मंडल, व दोनो कोनो में पद्मासन में अन्य दो तीर्थङ्कर प्रकित हैं। इसका प्राकार २३x२४x२३ से० मी० का है । एक अन्य भव्य तीथंङ्कर प्रतिमा ८५ X ६६ ३३ से० मी० के प्राकार की है। सीवत्स लांछन व संगमरमर का बारीक कार्यदृष्टव्य है। क्र० २२८ में पद्मप्रभु की ध्यानमग्न तीर्थंङ्कर प्रतिमा है प्राकार ७३ X ५७ X ३२ से० मी० है । यह जवास नामक स्थान से मिली है। काले पत्थर मे यहाँ प्रतिमा है व दो पक्तियों का अभिलेख है जिससे १३वीं शताब्दी में निर्मित होना स्पष्ट होता है । इस प्रतिमा के नीचे निम्न लिखित अभिलेख अकित है : - "संवत १२२३ वर्ष माघ सुदी ७ भौने श्री मुलघ... श्री विशालकीर्तिदेव तस्य ९३ शिष्य रस्नकीर्ति श्री मेहतवालान्वये नये सा मोगा भार्या सावित्री पुत्र मखिल भार्या विल्हन पुत्र परम भार्या पचावती व्याप्त विणि पुत्र प्रणमति नित्यम् || प्रतिमा के वक्ष पर श्री वत्स चिह्न उत्कीर्ण है । गुरु जो " अगली तीर्थङ्कर प्रतिमा में महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा मे हैं व खड्गासन में अकित हैं। लाकार है ७२X ६εX ३० से० मी० । संग्रहालय में चक्रेश्वरी देवी की ३ प्रतिमाए हैं। एक अन्य प्रस्तर फलक पर केवल पाद स्थल ही शेष है ऊपर प्रतिमा का भाग भग्न है। नीचे स्वास्तिक उत्कीर्ण है अतः सुपार्श्वनाथ ( सातवें तीर्थङ्कर ) को प्रतिमा है यह पहचान होती है। शिरीषवृक्ष की छाया व सर्प फण सुस्पष्ट हैं । (पृष्ठ १० का शेषांश) भेद ज्ञान अरु कतक फल, सद्गुरु दियो बताइ । चेतन निर्मल तत्त्व यहु, सम तब केतिकु पाई ।। ६५ गुरु बिन भेदन पाइये को पर को निज वस्तु बिन भवसागर विर्ष, परत गहै को तत्थु ॥ ६६ गुन भोजे गुरुन के, तो जन होवे सिद्ध लोहा कंचन हेमज्यों, कचन रस के विद्ध ॥२७ गुरु माता श्ररु गुरु पिता, गुरु बन्धव गुरु मित्त । हित उपवेद कमल ज्यो, विकसावं जिन पित्त ॥१६ गुरु न लखायो मैं न लख्यो, वस्तु रम्य पर दूरि । मानस सरम के नाल है, सून रह्यो भरपूरि ॥ रूपचन्द सद् गुरुनि को, अनि बलिहारी बा प्रापनु जे शिवपुर गए, मध्यनि पथ लगाइ ॥ १०० * इस प्रकार संग्रहालय की जैन तीर्थंङ्कर प्रतिमानों से जैन धर्म का व्यापक विस्तार ज्ञात होता है । कला की दृष्टि से इन पर चदेल शैली व परमार शैली का मिश्रण है। परमार कला में निर्मित गोलाकार मुख व सुचिक्कणता विशेषकर रही और यही इन प्रतिमानों पर अंकित है । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलचुरि काल में जैन धर्म शिवकुमार नामदेव (शोधछात्र) भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास में कलचुरि नरेशों कलचुरि नरेश प्रारम्भ में जैन धर्म के पोषक थे। का महत्वपूर्ण स्थान है। ६वीं शताब्दी में कृष्णराज ने ५वीं ६वीं शताब्दी के अनेक पल्लव प्रौर पाण्डय लेखों में माहिष्मती' में इस वंश की नीव डाली। तत्पश्चात् वणित है कि 'कलभ्र लोगों ने तामिल देश पर प्राक्रमण ७वीं शताब्दी के अन्तिम काल में वामराल देव ने त्रिपुरी' कर चोल, चेर एवं पाण्डवों को परास्त कर अपना राज्य में इस वंश की स्थापना की जो त्रिपुरी के नाम से विख्यात स्थापित किया। प्रोफेसर रामस्वामी प्रायगर ने वेल्विकुडी हुए। इस वंश में अनेक ऐसे प्रतापी नरेश हो गये हैं के ताम्र पत्र तथा तामिल भाषा के पेरियपुराणम से यह जिन्होंने अपने शौर्य में प्रग्य भूभागों को विजित कर अपने सिद्ध किया है कि कलभ्र प्रतापी राजा जैनधर्म के पक्के वंश के गोरव को बढ़ाया । इनकी अन्य शाखाएं सरयू पार अनुयायी थे। इनके तामिल देश में पहुंचने से जन धर्म कलचुरि दक्षिण कौशल के कलचुरि एवं कल्याण के कल की वहां बहुत उन्नति हुई। श्री प्रायंगर का अनुमान है चुरियों के नाम से इतिहास में विख्यात हैं। कि कलभ्र कलचुरि नरेश जैन धर्म के पोषक थे। इसका पुरातात्विक एवं साहित्यक परिशीलन से कलचुरि एक प्रमाण यह भी है कि उनका राष्टकूटों से घनिष्ट काल में जैनधर्म की अवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है। सम्बन्ध था।ये राष्टकट नरेशों की जैन धर्मावलम्बी थे। यद्यपि कलचुरि नरेश शैव धर्मावलम्बी थे किन्तु उनकी धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरूप अन्य धर्म भी इस काल त्रिपुरी के कलचरि एवं जैन धर्म-त्रिपुरी के कलमें खूब फले फूले। चुरि नरेशों के काल में जैन धर्म का प्रसार था। बहुरी कलचुरियों के काल में बौद्ध धर्म की भांति जैन बंद (जबलपुर) से एक विशाल जैन तीर्थङ्कर शांतिनाथ धर्म का भी प्रचार था। जैनधर्म की अपेक्षा अधिक की अभिलेख युक्त मूर्ति प्राप्त हुई। जिससे ज्ञात होता है समृद्ध था। स्व० पूज्य शीतलप्रसाद जी ने 'कलचरि' कि 'साधु सर्वहार के पुत्र महाभोज ने शांतिनाथ का नाम का अन्वयार्थ उनके जैनत्व का द्योतक बताया है। मंदिर का निर्माण करवाया था। तथा उस पर सूत्रधार उनका मत है कि कलचुरि नरेश जैन मुनिव्रत धारण ने श्वेतक्षत्र का निर्माण कराया। करते और कर्मों को नष्ट करके शरीर बन्धन से मुक्त इसके अतिरिक्त त्रिपुरी से प्राप्त ऋषभदेव की मूर्ति होते थे इसलिए वे कलचुरि कहलाते थे। 'कल' का अर्थ जबलपुर के हनुमान ताल जैन मन्दिर की ऋषभनाथ शरीर है जिसे वे चूर मूर (चूरी) कर देते थे। निःसंदेह प्रतिमा, पनागर एवं सोहागपुर से प्राप्त अंबिका की प्रतिकलचुरि वश जैन धर्म का पोषक रहा था। उसके प्रादि माएं एवं त्रिपुरी से प्राप्त चक्रेश्वरी मूर्ति के अतिरिक्त पुरुष सहस्ररश्मि कार्तवीर्य ने मुनि होकर कर्म को नष्ट इस क्षेत्र से प्राप्त जैन मूर्तियों की बहुलता से जैन धर्म करने का उद्योग किया था।' का व्यापक प्रभाव सिद्ध होता है। १. माधुनिक महेश्वर-खरगांव जिला (म.प्र.) माचार्य मिराशी का अनुमान है कि सोहागपुर में २. जबलपुर से ६ मील माधुनिक तेवर ग्राम । जैन मन्दिर थे। सोहागपुर में ठाकुर के महल में अनेक ३. संक्षिप्त जन इतिहास भाग ३ खण्ड ४ (दक्षिण भारत जैन मूर्तियां हैं। इससे स्पष्ट रूपेण कहा जा सकता है कि का मध्यकालीन मंतिम पाद का इतिहास) कामता। त्रिपुरी के कलचुरि नरेशों के काल में जैन धर्म बौद्ध की प्रसाद जैन पृ०६। अपेक्षा अधिक समृद्ध था। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलपरि काल में जन धर्म ५ दक्षिण कौशल के कलचुरि एवं जनधर्म-दक्षिण भी सहन कर जीवित रहा, यह उसके सिद्धान्त की कौशल के कलचुरियों के अभिलेखों में जैनधर्म का विशेषता थी। उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । परन्तु उस क्षेत्र के अनेकों विज्जल देव के राजस्व काल में जैनधर्म उन्नत रहा। स्थल से प्राप्त जैन मूर्तियो से उस क्षेत्र में जैनधर्म के सम्राट् स्वयं धर्म की प्रभावना के लिए अग्रसर रहते थे। प्रसार एवं पस्तित्व का बोध होता है। जैन मूर्तियां, उन्होंने स्वय कई जैन मन्दिरों का निर्माण कराया । उनका रतनपुर, मल्लार एवं पारंग स्थलों से प्राप्त हुई हैं। अनुकरण उनके सामंतों और प्रजा जनो ने किया था। वि. कल्याण के कलचुरि एवं जैन धर्म-कल्याण के कल सवत १०५३ मे माणिक्य भट्रारक के निमित्त से कन्नडिगे चुरि नरेशो के काल में भी जैनधर्म का अस्तित्व प्रमा- मे एक जिन मंदिर बना था। सं० १०८४ में कीर्ति सेट्टि णित होता है। इस वंश के प्रमुख नरेश विज्जल एवं ने योन्नवति वेल हुगे पौर वेण्णे चूर में श्री पार्श्वनाथ के उनके अनेक राज कर्मचारी जैन धर्म के पोषक थे। सन् मदिर बनवाये थे। कलचुरियों के शिलालेखों में जिन १२०० में कलचुरि राजमत्री रे चन्मय ने श्रवण बेल- भगवान की मूर्ति यक्ष-यक्षणियों सहित अंकित रहने का गोला में शांतिनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी वर्णन है। थी। विज्जल के काल मे जैन धर्म का अस्तित्व घट गया लिंगायतों के वासव पुराण में लिखा है कि विज्जल एवं लिंगायत संप्रदाय का प्राबल्य हमा। 'वासव-पुराण' के प्रधान बालदेव जैन धर्मानुयायी थे। उनकी मृत्यु के एवं विज्जल वीर चरित' मे जैन एवं शैव धर्माव- पश्चात् उनके भाजे वसव की प्रसिद्धि एव सद्गुणों से लम्बियो के मध्य हुए सघर्ष का वर्णन है । प्रभावित हो विज्जल ने उसे अपना सेनापति एव कोषा ध्यक्ष नियुक्त किया। बासव ने अवसर का लाभ उठकार हॉवों ने धर्म प्रचार हेतू हठयोग का प्राश्रय लिया। अपने धर्म प्रचार हेत राजकोष का खूब रुपया खच वे चमत्कारिक कृत्यों द्वारा जनता को मुग्ध करने लगे। किया। इस प्रकार विज्जल एवं वसव मे मनोमालिन्य उनमें एकांत रामय्य मुख्य था। उस समय अम्बलूर जैन बढ़ गया। विज्जल ने हल्लेइज एवं मधु वेय्य नामक दो धर्म का केन्द्र था। रामय्य ने जैनियों को सताया एवं जंगमो की प्रांख निकलवा ली। यह सुन वरूव कल्याणी उनकी मूर्तियों को तोड़ना प्रारम्भ किया। जैनियों द्वारा से भाग गया परन्तु उसके द्वारा भेजे गये जगदेव नामक विज्जल से शिकायत की गई। विज्जल ने रामग्य को व्यक्ति ने विजल का अंत कर दिया। समझा कर एवं उसके सोमनाथ के मंदिर को कुछ भेट कर विदा किया। इस मन्दिर में जनो पर अत्याचार के ५. विज्जल के समय जैन धर्म एक प्रमुख धर्म थाचित्र भी उत्कीर्ण है। किन्तु जैन धर्म इन अत्याचारों को फ्लोट डाइनेस्टीज माफ कनारीज डिस्ट्रिक्ट्स पृ० ६०. ४. मोरिवल जैनिज्म-श्री भास्कर मानंद पृ० २६१, ६. मीडिवल जैनिज्म-बी भास्कर मानन्द पृ० २८१, जैनिज्म एन्ड कर्नाटक कल्चर-शर्मा १९४० पृ० जैनिज्म एण कर्नाटक कल्चर शर्मा पृ० ३५-३८ । ३५ से ३८ । ७. जैन ऐण्टीक्वेरी ६, पृ०६७-६८ । PAY Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहड़ के जैन मन्दिर का अप्रकाशित शिलालेख श्री रामवल्लभ सोमाणी श्राह उदयपुर नगर के समीप स्थित है । यह प्राचीन नगर किसी समय बड़ा उन्नत था । जैन संस्कृति का यह केन्द्र रहा है । आज भी यहां ६ बड़े मध्यकालीन जैन मंदिर हैं । यहाँ खुदाई में 5वीं शताब्दी की जैन प्रतिमा भी मिली है जो इस समय राष्ट्रीय संग्रहालय में केमिकल ट्रीटमेंट के लिये गई हुई है । यहां दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के मंदिर हैं प्रस्तुत लेख को सर्व प्रथम गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा ने देखा था और इसका संक्षिप्त अंश इन्होंने राजपूताना म्यूजियम रिपोर्ट में छपाया भी है। पूरा भाग अब तक प्रकाशित है । लेख में केवल ५ पक्तियां ही मिली है । ऊपर का भाग भी कुछ टूटा हुआ है । लेख के प्रारम्भ में सम्भवतः अल्लट का वर्णन है । इसमें "देवपाल" को मारने का वर्णन है। यह प्रतिहार राजा देवपाल' था । प्रतापगढ़' का वि. स. ६६६ के शिलालेख में मेवाड़ के शासक भर्तृ पट्टकों "महाराजाधिराज" लिखा है और इसमे प्रतिहार राजा का नाम स्वेच्छा से छोड़ दिया है। जब कि इसी लेख के आगे के भाग प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल एवं उसके तंत्रपाल माघव द्वारा दान देने का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि प्रतिहारों और मेवाड़ के शासकों के मध्य अच्छे सम्बन्ध नही थे । राष्ट्रकूट राजा कृष्ण के करहाड़ और देवली के लेखों में उल्लेखित किया है कि जब उसके दक्षिण के १. प्रोझा उदयपुर राज्य का इतिहास : पृ० १२४ का फुटनोट प्रल्लट के शासन काल मे श्वेताम्बरों मौर दिगम्बरों में शास्त्रार्थ होने के वर्णन मिलते हैं । २. एपिग्राफिया इण्डिका भाग १४ पृ० १७६-८६ । ३. उक्त भाग ५ पृ० १५४ । भाग ४ पृ० २८४ । महत्वपूर्ण दुर्गों पर विजय प्राप्त कर ली तो प्रतिहार राजाश्रों के दिल में चित्तौड़ को वापस हस्तगत करने की इच्छा समाप्त हो गई इससे प्रतीत होता है कि मेवाड़ के शासकों को राष्ट्रकूट राजानों ने प्रतिहारों के विरुद्ध सहायता दी थी । इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि अल्लट राजा की मां, और भर्तृपट्ट की रानी राष्ट्रकूट वंश की थी । आहड़ के विसं ० १००८ और १०१० के शिलालेख में वहां कर्नाट प्रदेश के व्यापारियों के निवास का भी उल्लेख किया गया है । देवपाल का शासन काल बहुत ही अल्पकालीन रहा था । प्रतापगढ़ के वि सं० १००३ के लेख में महेन्द्रपाल का शासक के रूप में उल्लेख है । इसके वि सं ० १००५के सियोडोनी के लेख में देवपाल के उत्तराधिकारी का इस प्रकार देवपाल सं० १००४ में राज्यगद्दी पर बैठा और मेवाड़ के शासक अल्लट से युद्ध करते हुये यह वीरगति को प्राप्त हुआ । अल्लट के सारणेश्वर के मंदिर आहड़ के वि सं० २००८-१०० के लेख में उसके अक्षपट्ट लिक का उल्लेख है । इसी अक्षपट्टलिक' मयूर के वशकों का यह प्रस्तुत लेख है। इसकी स्वामी शक्ति की प्रशंसा की गई है। इसका पुत्र श्री पतिहुआ जो राजा नर वाहन के समय अक्ष पट्टलिक था । नर वाइन के शासनकाल का वि. सं. १०२८ ४. उक्त भाग १ पृ० १६२-१७६ । ५. "अक्षपट्टलिक एवं उच्च राजकीय अधिकारी था । यह उच्च रेवेन्यू रेकार्डस एवं लेखा विभाग से सम्बन्धित था। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहड़ के जैन मन्दिर का प्रप्रकाशित शिलालेख ९७ का एक शिलालेख एक लिंग मंदिर से मिला है। (२) ये। कर्म सकलं धमाय शांतात्मनः प्रज्ञा श्रीपति के २ पुत्र मत्तट और गुन्दल हुये। ये दोनों शास्त्रविवेचनाय जनता त्राणाय शस्त्रग्रहः राजा शक्तिकूमार' के समय उच्च पदों पर थे। कायो यस्य परोपकारविधये सत्याय गी. केवशक्तिकुमार का शासनकाल का वि सं १०३४ का लम् ।। गभीरान्महत: श्रियोऽधिवसतेरतः शिलालेख मिला है। स्फुरतेजस: । सत्वाधाद्विबुधापभुक्तविभवा लेख पागे से भी कुछ खंडित है। ३ पंक्ति का स्वच्छन्दमुक्तस्थितेः। प्रारम्भ का कुछ भाग और अन्त का पद श्लोक में (३) म वपुस्तापाति भत्त्राणिनां क्षीराब्धेरिवशीठीक नहीं बैठते हैं। इससे प्रतीत होता है कि सम्भवत: प्रागे का भी कुछ खंडित हो। तदीधितिर भूत्तस्मात्युत: श्रीपतिः। श्रीमदल्लट नराधिपात्मजो यो बभूव नर वाहनाह्वयः । लेख पढ़ने में सुन्दर खुदा हुअा है । लिपि बहुत सोध्यतिष्ठत पितुः पद सुधीश्चंतमक्षपट ले ही सुन्दर है लेख पढ़ने में डा. दशरथ शर्मा और रत्नचन्द्र अग्रवाल से सहायता ली है अतएव न्यवेशयत् । दृष्टस्तेनात्मना तुल्य: स प्रकृत्या मैं कृतज्ञ हूं। समाश्रितः कर (रु) णा निधि गुंजाने . . . . लख का मूल अश (४) विप्रेभ्यो विधिवद्वितीर्ण विभवाद्वैकुण्ठनि(खंडित) प्ठात्मनः शांताद्वाक्यपदप्रमाणविदुष (:) (१) [दु] उर्द्धरमरि यो देवपाल बलात। चचच्चंड तस्मादभून्मत्तटः । सत्यत्यागपरोपकार करुणा गदाभिघात विदलद्वक्षस्थलं संयुगे। निस्त्रिश सौ (शो) जिने (वै)क स्थितिः श्री क्षत कंधरोदरसिराबंधं कबंधं व्यधात् । मान्गुन्दल इत्य xxxहिमाभ्राता नुजोस्याअस्याक्षपटलाधीशो मयूरोमघरध्वनिः । प्रभूद- भवत् । तौ गुणातिशय शालिनावुभौ राजनीतिभ्युद्धतः स्वामी सत्पक्षः प्रभुशम्निभृत् । निपुणौ महो [जसौ] . . . . . उत्पत्तिः कुल भूषणाय विभवो दोनात (त्ति) (५) मत्रिस्वपि पदमावापूतः (पतूः) क्रमेण] । विच्छि [त्त] सर्व व्यापारकर्तारौ तौ द्वौ कटक भूषणौ राज्ञा नरवाहन के शासन काल मे शवों जैनों और बौद्धो शक्तिकुमारेण कल्पितौ स्वौ भुजाविव । एतमे शास्त्रार्थ हुमा था। दिगम्बर प्राचार्य समरचन्द्र स्मिन्प्रणत क्षितोश्वर शिरश्चूडामणिxxx ने जो षष्ठि शलाका पुरुष चरित ग्रथ के कर्ता थे xxत पाद पंकजयुगे मन्वादि मार्गानुगे चद्राइसमे भाग लिया था। ७. राजा शक्तिकुमार के राज्य में प्रसिद्ध ग्रंथ "जम्बू दित्यमरुत्कुबेरमघवद्वैवस्वता गि . . . . . . . . दीवपण्णत्ति" लिखी गई थी। xxx कार्य तीन परिणाम एक कुम्भकार जंगल मे गया और मिट्टी खोदने लगा। मिट्टी ने सवेदना भरे शब्दों में कहा-भाई कुम्भकार ! तू निर्दय होकर मेरे पर तीक्ष्ण प्रहार कर्ता हुमा मेरे अस्तित्व को ही कुरेद रहा है, पर सावधान रहना, एक दिन तुझे भी मेरे साथ मिलना पड़ेगा। लकड़ियों का गदर लाने के लिए एक लकड़हारे ने घर से प्रस्थान किया। यही उसकी प्राजीविकाका मख्य साधन था। सघन निर्जन वन में जाकर तीक्ष्णतम कुल्हाड़े से वृक्ष काटने लगा। तीखे प्रहार लगते ही पेड़ कराह उठा और रुदन के साथ पुकार उठा-लकड़हारे ! अभी तो तू मुझे काट कर मेरे स्वणिम जीवन को समाप्त कर रहा है, पर याद रखना एक दिन तुम भी मेरे साथ जलना पडंगा। माली उद्यान में गया और सुकोमल कलियों को तोड़ने लगा। कलियों को यह सब कैसे सह्म हो सकता था। माली से तर्जना की भाषा में कलियाँ बोल पड़ीं-मालाकार! हमारे जीवन के साथ यह खिलवाड़ क्यों हो रहा है? क्या हमारे जीवन का कोई मूल्य नहीं है। माली का नहीं, कलियों ने उष्ण नि.श्वास छोड़ते हुए कहा-माली ! वह दिन भी दूर नहीं है, जब एक दिन तुझे भी हमारी तरह मुरझाना पड़ेगा। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनागर के भग्नावशेष कस्तूरचन्द जैन एम.ए. मध्यप्रदेश में जबलपुर शहर से ११ मील दूर एक एक प्रतिमा का प्रासन मात्र शेष है । इस अवशेष से नगर अाज भी प्राचीन वैभव के प्रतीक कतिपय अवशेषों प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा मे अकित रही ज्ञात होती है । को लिए हुए स्थित है । यहाँ मधू काछी के मकान के ठीक प्रासन पर त्रि-पुष्पाकृतिया है। उनके नीचे दोनों ओर पीछे एक धेरे में कतिपय शिल्पावशेष विद्यमान है, जिनकी मिद्धाकृतियाँ तथा उनके मध्य में एक पूरपाकृति के रूप मे जैनेतर समाज द्वारा प्रतिदिन पूजा-अर्चा सम्पादित होती अलंकरण है। इसके एक ध्यानस्थ मुद्रा मे छोटी प्रतिमा है । इस संग्रहालय में जैन अवशेषो की बहुलता है, जिनका का अंकन है जिसके नीचे एक वृषभाकृति का प्रकन भी प्रकन निम्न रूपेण प्राप्त होता है : है। इससे प्रतिमा प्रादिनाथ की अकित रही ज्ञात देशी पत्थर पर अकित शिरविहीन पद्मासन मुद्रा मे होती है । एक प्रतिमा के गले की तीन रेखाए स्पष्ट दिखाई देती एक अवशेष इस संग्रहालय मे ऐसा भी है जिसको हैं । कन्धों पर केशराशि का अंकन है। प्रतिमा का प्रासन एक ओर एक अलकृन देवी का प्रकन है। यह देवी अपने जबलपुर हनुमान ताल बड़े मन्दिर में विराजमान प्राचीन बाये हाथ से एक बालक को सम्भाले हुए है। इसी प्रतिमा के समान त्रिपुष्पाकृतियो से अल कृत है। पुप्पा- प्रतिमा के समीप कायोत्सर्ग मुद्रा मे दो तीर्थकरों का कृतियों के नीचे दो सिद्धाकृतिया दोनो ओर अकित है, अकन भी दृष्टव्य है। जिनके मध्य एक वृषभाकृति भी दिखाई देती है । प्राचीन कालीन एक मानस्तम्भ का शीर्ष भाग भी प्रतिमा के दायें-बाये शासन देवतामो का अकन अवशेषों में विद्यमान है। अवशेषो के चारो ओर छोटी दिखाई देता है। एक ओर अलंकृत वेशभूषा में एक नारी प्राकृति में प्रतिमाओं का प्रकन आज भी स्पष्ट है । प्रवका अंकन है । दूसरी ओर भग्नावस्था में एक मानवाकृति शेष का कुछ प्रश भूमि मे दबा हुपा है। प्रकित है। केश राशि एव अंकित वृषभाकात स यह एक शासन देवी का अंकन भी सग्रहीत है। देवी का प्रतिमा प्रादिनाथ की रही ज्ञात होती है। ऐसा प्रतिमाएँ वाहन सिंह रहा दिखाई देता है। वाहन मुख विहीन बहुत कम देखने मे माई है जिनमे ऐसी दोन विशषताएं अवस्था मे है । देवी के शीर्ष भाग पर तीर्थकर प्रतिमा का उपलब्ध होती हैं। अंकन है। देवी की प्राकृति सुन्दर है । उसके एक हाथ द्वितीय प्रतिमा का केवल शिर ही शेष है । ।क अव. में बालक है । गले में हार और पीछे भामण्डल भी है। शेष भामण्डल, शिरोपरि त्रि-छत्र, एव उद्घोषक से युक्त प्रकन से प्रतिमा अम्बिका देवी की रही ज्ञात होती है। है। एक मोर सवार से युक्त गजाकृति का प्रकन भी है। परिकर के ऊपरी अश में उड्डायमान सपत्नीक देवों प्रथम मूर्ति के समान ही प्रलकृत शिरविहीन एक को दोनों ओर निर्मित किया गया है। उनक नाच ऐसी प्रतिमा है जिसके पासन मे चिन्ह स्थल पर एक और सिद्धाकृतिया तथा उनक नारी प्राकृति सी प्रकित दिखाई देती है। इस प्रतिमा भट्टारक गद्दी के परिकर मे अकित देवो के प्रकन से ऐसा ज्ञात होता है भ० शान्तिनाथ मन्दिर के समीप बलेहा तालाब के मानो उक्त प्राकृति नीलांजना की अंकित की गई हो किनारे छह और प्रष्ट स्तम्भों पर आधारित तीन मड़ियाँ मौर ऐसा दिखाकर मानो मादिनाथ की अविचल ध्यानस्थ । विद्यमान हैं जिनमें चरण रखे हुए हैं। मन्दिर मे जती मुद्रा को प्रकित किया गया हो । बाबा की गद्दी आज भी बताई जाती है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनागर के भग्नावशेष te नन्दीश्वर द्वीप मन्दिर में तथा हरिसिंग सिंघई के चाहते है। अच्छा होगा कि समस्त जैन अवशेषों को मन्दिर में प्रतिमानों पर क्रमशः देवेन्द्र भूषण तथा नरेन्द्र- समाज अपने अधिकार मे लेकर उन्हें सुरक्षित स्थानों में भूषण के नाम मिलते हैं जिन्हें क्रमशः सम्बत् १८५३ और रखे जिससे कि उन्हें कोई क्षति न पहुँचे। १८७५ से सम्बद्ध बताया गया है। तालाब पर निर्मित मन्दिरों का जीर्णोद्धार हो और प्रतिमाओं पर अकित भट्टारकों के नामो से ऐसा ज्ञात वर्ष में सामूहिक रूप से एक-दो बार वहाँ समाज अवश्य होता है कि ये चरण उन्ही भट्टारको के है जिन्हें उनकी जाकर पूजनादि करे। मन्दिरो को कॅटीले तार से घेर भक्ति से प्रेरित होकर उनके श्रद्धालुप्रों ने निर्मित कराया देना भी आवश्यक है ताकि मन्दिरो के निकट कोई होगा। शौचादि न करे और स्वच्छता बनी रहे । भ० महावीर नगर की प्राचीनता की २५००वी जयन्ती की स्मृति में इन कार्यों को कराने प्राप्त अवशेषों से ऐसा ज्ञात होता है कि १२वीं के लिए समाज प्रार्थनीय है। १३वी शती के पास-पास यह स्थान जैन सस्कृति का केन्द्र रहा है। यहाँ के जैन वंभव सम्पन्न, धर्म प्रेमी रहे नगर मे सचालित जैन पत्रीशाला मे प्रजन प्राचार्य ज्ञात होते है। का रहना, सस्था की प्रगति तथा जैनाचार व्यवस्था के वर्तमान में क्या हो ? लिए अवरोध प्रतीत होता है। प्राशा है कि अविलम्ब वर्तमान मे समाज की धार्मिक प्रवृत्तियाँ उनकी समाज इम और भी अपना ध्यानाकर्षित कर अधिक से प्राचीनता की परिचायक है। ये अवशेष अपनी मूक अधिक जन पाठिकानो को सेवा करने का अवसर प्रदान वाणी से समाज का ध्यान अपनी प्रोर केन्द्रित करना करेगी। अज्ञात कवि हरिचंद का काव्यत्व डा. गंगाराम गर्ग मध्य युग में अनेक जैन कवियो ने चरितग्रन्थो के गिरनार पंपाज मची होरी ॥टेर अतिरिक्त पर्याप्त पद, सवैये और दोहे लिखे है; किन्तु नेम जिन द अनुभव जल माही, तप सुरंग केसर घोरी। इनके फुटकर रूप में मिलने से यह निश्चित कर सकना पंच समति पिचकारी भरि, निज हित कारण सिव पं छोरी। अभी कठिन है कि किस कवि की छद सख्या कितनी है ? पंच महावत गुपति प्ररगजा, ज्ञान गलाल भरी झोरी। अज्ञात कवि हरिचंद के २० पद और २८ सर्वये ही प्राप्त वंश वृष सोलह कारण मेवा, तीहू जग मांहि बढ़ायो री। हुए है। किन्तु उनकी काव्य-गरिमा मोर भाषा-प्रवाह से प्रेसी होरी मचाय जिनेश्वर, 'चंद' अर्ष निषि पायोरी। उनकी रचनाएं अधिक होने के सकेत मिलते है । 'जिन चौवीसी की स्तुति' में सवैया, अडिल्ल, दोहा रचनायें-हरिचंद की रचनाए पडित भवरलाल जी अादि ३० छद है। प्रमुख छद सवैया ही है। चौवीसों पोल्याका के सौजन्य से पाटोदी मन्दिर जयपुर में प्राप्त तीर्थड्गे की सविनय स्तुति करते समय भक्त हरिचद हुई। पाटोदी मन्दिर में प्राप्त एक गुटके में इनकी तीन का ध्यान तीर्थड्रों का गुण-वर्णन मे अधिक रमा है। रचनाएं संगृहीत हैं-१. पद, २. जिन चौवीसी की स्तुति, अनन्त गुण-धारी भगवान महावीर के प्रति कवि की ३. वीनती। हरिचद की प्रथम रचना 'पद' में भक्ति- वदना' दृष्टव्य हैपरक, विरहात्मक, नीतिपरक तथा प्राध्यात्मिक चारों ही थी जिन वीर नमो महाधीर, तू ही महावीर सदा सुखदाई। प्रकार के पद मिलते है। धानतराय, बुधजन, पार्वदास वद्धमान सुसन्मति नाम कह, सुभ पच सुरासुर ध्याई । मादि प्रमुख जैन कवियों के समान हरिचंद की भी राजित हो गुण अनंत घरे, तुम ही जिन केवलज्ञान उपाई। माध्यात्मिक होली बड़ी काव्यात्मक है : नासि प्रघाति भये सिव रूप, नमैं पद 'चंद' सबै तुष जाई। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००, वर्ष २५, कि०३ अनेकान्त 'वीनती' रचना में कवि का उद्देश्य चौवीसों तीर्थ- पाय पडूं मैं करूं जी वीनती, दूरों की विनय-भाव से वीनती करना है। हरिचद की। तुमरी सरण हू नाहिं मान के । 'विनतियो' में अपने पाराध्य के प्रति विनम्र याचना सर्वत्र हो जिन स्वामी चंद' नमामी, दृष्टिगोचर होती है : यो सिव वसुविधि नाश ठानि के। अभिनंदन परज सुणो मेरीटेक। ___ जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित 'दशधा भक्ति' मे से तुम करमन को नाश कीयो है, मोकू नहीं छोरे बेरो। तीर्थकर भक्ति के अतिरिक्त श्रत भक्ति', 'तीर्थ भक्ति' आठौं मिलि मोय घेरि लियो है,ज्यौं रवि प्रभ्र पटल घरी। na | एव प्राचार्य भक्ति' का स्वरूप भी हरिचद के पदों मे चह गति मैं या बसि दुष पायो, ज्यौं पावक लोहा संग केरी। विद्यमान है । उन्होने कई पदो में जिनवाणी को निर्विकार प्रथम उपारण विरद निहारी तारचौ 'चंद' सरण तोरी। अनक्ष', सुग्यकारी, सर टहरण तथा स्व-पर-तत्व का ज्ञान भक्ति :-हरिचंद की सभी रचनापो का मूल स्वर कराने वाली कह कर उसके प्रति श्रद्धा व्यक्त की हैभक्ति है । अपनी रचनाओं में सभी तीर्थडुरों का स्मरण नमन करूं में श्री जिनवाणी, स्व पर तत्त्व दरसावण जानी। करने पर भी कवि का भक्तिभाव तीर्थकर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के प्रति अधिक है। प्रभु का श्री जिन मुष अंबज त निकसो, निविकार अनप्रक्षर जानी। गुणगान, स्वदोषों का निरूपण, अनन्यता मादि दास्यभावी सप्त धातुमल रहित अनौपम, भक्त की विशेषताएं हरिचद मे विद्यमान है। आराध्य श्री गणराज हिये निज प्राणी। का गुणगान करते समय वह उनके पठारह दोषो व राग संसै तिमर हरण सुषकारी, गुण अनत की बानि बषाणी। द्वेप के प्रभाव के अतिरिक्त उनकी दयालुना और उ.द्वार सुरपति निज थल माहि उचार । प्रवृत्ति का स्मरण भी करते है : ध्यान कर श्री मनियर ज्ञानी । वीर सिनेश्वर पाय मक्त के कारण । जन्म मरण प्राताप हरण घन, दोष अठारह रहित हो जी, प्रभु छियालीस गुण धार । भवि जन मन पंकज रवि ध्यानी । चौतीसौ प्रतिसं धणी सजि, जै जै भव दुष हार । मात तुही बहु जीव उघारे, चद नमैं दीज्यों सिवर्गणी। समव सरण जत तूमल सौजि प्रभु, नख दुति भान लजाय । हरिचद ने भक्त के पवित्र प्राचरण पर बडा बल प्रथम उधारण विरद तिहारो, नम सीस निज नाय । दिया है। वह क्रोध को इतना भयक र मानते है कि तीन लोक फिर मैं लजि प्रभु, तुम सम वेव न कोय । उसकी विद्यमानता मे साधक का तप, जप, सयम, ध्यान राग द्वेष कर सहित सवै है, या ते पूजू तोप । ज्ञान, पूजा और सामायिक सभी निष्फल हो जाता हैतुम ही तारण तिरण हो जि प्रभू, जगपति दीनदयाल । तप जप सजम ध्यान ज्ञान अरु पूजा दान सामाई । भव प्राताप मिटाय जिनेश्वर 'चंद' नम निज भाल।। जार्क हिरवं क्रोधानल है करणी निरफल जाई । हरिचद जिनेन्द्र के अनन्य भक्त है । वह ३ वल उन्ही हरिचद की दृष्टि में किसी के मन को दुःख पहुचाने के चरणों की सेवा करते है तथा प्रष्ट द्रव्य से उन्ही का वाले वचन न कहना मोक्ष प्राप्त कराने का महत्वपूर्ण पूजन करते हैं। जिनेन्द्र की शरण प्राप्त कर उन्ही से। साधन हैमोक्ष की याचना भी करते है। जो बच सुणि निज मन दुष पावै सो पर कू ने कहानी। तुम प्रभु दोनदयाल कहावो, कोज्यो कृपा मोपं दीन जानि काटेर।। कोटि बात की बात यही है चंद' प्रर्ष निधि पानी। पुण्य उदै श्रावग कुल पाया, उक्न विवेचन के प्राघार पर हरिचद जैन भक्ति कोन्हीं सेव तुम चरण प्रानि के। काव्य परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी प्रतीत होते हैं। उन प्रष्ट दरव ले पूर्जी निस दिन, जैसे प्रज्ञात कवियों की रचनामों के शीघ्र प्रकाशन की देहू सुमति प्रभु कुमति हानि के । मोर ध्यान दिया जाना प्रावश्यक है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुभारिया के संभवनाथ मंदिर को जैन देवियां मारुतिनंदन प्रसाद तिवारी शोधछात्र उत्तरी गुजरात के वनासकांठा जिले में कुभारिया के रूपमे पैल का प्रदर्शन) का चित्रण भनेकशः प्राप्त होता स्थित सभी पांच जैन मंदिर, जो क्रमशः सम्भवनाथ, है। देवतापों में प्रष्ट-दिग्पालों और गणेश (नेमिनाथ शांतिनाथ, नेमिनाथ और महावीर को समर्पित और भंदिर के पश्चिमी अधिष्ठान पर उत्कीर्ण चतुर्भुज, श्वेताम्बर सम्प्रदाय से संबंधित है, ११वी शती ईसवी से गज मस्तक युक्त नागयज्ञोपत्रीत, प्रासन के समक्ष मूषकः १३वीं शती ईमबी के मध्य निमित हए हैं। कुम्भारिया भुजानो मे निचले दाहिने से घडी के क्रम में हाथीदांत स्थित समस्त जैन मंदिरों का स्थापत्य गत विशेषतानो व (tusk), परश, सनालपदम, मोदक पात्र) का चित्रण भित्तियों, स्तम्भों, छतों पर उत्कीर्ण अलंकरणो, देव उल्लेखनीय है । अन्य प्रमुख चित्रणों में ऋपभनाथ, चित्रणों व तीर्थकरों के जीवन काल से सबंधित कुछ शांतिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ व महावीर प्रादि तीर्थ कगे प्रमुख दृश्यों के प्राधार पर जैन शिल्प व स्थापत्य के के जीवनकाल की प्रमुख घटनापों (केवल शातिनाथ मोर मध्ययन में विशिष्ट स्थान होने के संदर्भ मे भी महत्वपुर्ण महावीर मदिरों की छतो पर) व २४ तीर्थ करों के मातास्थान है। १३वी शती मे निमित सम्भवनाथ मदिर चा पिता का कही सिर्फ मातायों का) का पैनेल में प्रकन मोर दीवार से घिरा है और कुम्भारिया के अन्य चार पाता है। जैन देवी-देवतापो के प्रकन में प्रतिमाशास्त्री मदिरों के विपरीत इसमे देवकुलिकाग्रो का प्रभाव है। प्रथों के निर्देशों का निर्वाह सबघिन देवों के कारी हाथों उत्तर की तरफ भव किये सम्भवनाथ मंदिर गर्भगृह, के प्रमुख प्रायवों व बाहन तक ही सीमिन, और निचली दो अन्तराल, दो और प्रोगागे (Porcher) से युक्त गूढ मडा भुनानों मे कलाकार ने इच्छानुगार मुद्रा (वरद या अभय) व सामने प्रोसारे से युक्त सभामंडप से युक्त है। प्रस्तुत पोर फल (मालिग) या कलश पशित किया है। लेख मे हम मंदिर को बाह्य भित्ति पौर द्वारो पर उत्कीर्ण सम्भवनाथ मन्दिर के गढ मण्डप और मूल प्रासाद मतियो का अध्ययन करेंगे। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत की बाह्य भित्तियाँ रथिनामो से स्थापित तीर्थ दुरो और लेख की सामग्री मेरे शोध कार्य के सदर्भ में गुजरात और देवियों का चित्रण करती है। यह प्राकृतियाँ मन्दिर के राजस्थान के देखे गये कुछ प्रमुख जैन मंदिरों की मूतियों जंघा व अधिष्ठान (कुम्भी) दोनो पर ही उत्कीर्ण है। के विस्तृत अध्ययन पर पाघारित है। मूल प्रासाद के तीन पोर की दीवारों के मध्य की रथियहां इस बात का उल्लेख करना अप्रासगिक न होगा कानों में स्थापित तीर्थदर प्रतिमायो का सम्प्रति केवल कि कुम्भारिया के जैन शिल्प मे देवियो मे १६ विद्या. सिंहासन व परिकर ही प्रवशिष्ट प्रोर मलनाया की देवियों, उनमे भी रोहिणी, चक्रेश्वरी (प्रप्रति चेक्रा), प्राकृति सभी में गायब है। विवरण मे समान तीनो महाकाली, काली पुरुषदत्ता वैगेटया अच्छुप्ता, सर्वास्त्र मतियों मे सिंहासन के मध्य मे चतुज देवी को प्रासीन महाज्वाला मोर महामानसी, को विशेष लोकप्रियता प्राप्त प्रदर्शित किया गया है (शान्ति देवं). जिनकी ऊपरी थी। जैन शासन देवतामो मे यथा सर्वानुभूति और यक्षी दोनों भुजामों में पप और निचली दाहिनी व बायी में मम्बिका को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी पोर इन्हे ही क्रमशः वरद व फल प्रदर्शित है। मध्यवर्ती देवी क्रमशः लगलग सभी तीर्थकरो के यक्ष-यक्षी के अतिरिक्त गोमुख, दोनों मोर दो गज और सिंह (सिंहासन का प्रतीक) ब्रह्मशांति मोर घरणेन्द्र यक्षों, और चक्रेश्वरी निर्वाणी प्राकृतियों से वेष्टित है। देवी के नीचे उत्कीर्ण धर्मचक्र व पद्मावती यक्षियो का भी प्रकन प्राप्त होता है। अन्य के दोनों पाश्वों मे दो मग प्राकृतियाँ अवस्थित है। यक्षदेवियों मे लक्ष्मी, सरस्वती व एक ऐसी देवी जिनका यक्षी के रूप में चतुर्भुज सर्वानुभति (वरद, प्रकुश, पाश, उल्लेख प्रतिमानिरूपण संबन्धी ग्रंथो मे अप्राप्य है (ऊपरी धन का थैला (रुपया) पौर निर्वाण (वरद, पद्म, फल) भुजानों में त्रिशूल व सर्प धारण किये व कभी-कभी वाहन को सिहासन के दोनो कोनो पर प्रासीन प्रदर्शित किया Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२२५०३ गया है। दो नामरधारी सेवकों से वेष्टित मध्यवर्ती जिन प्राकृति के शीर्ष भाग में कलश व हाथ जोड़े एक मानव भाकृति से युक्त त्रिछत्र उत्कीर्ण है । ऊपरी परिकर के प्रत्येक भाग में एक उड्डायमान मालाघर, नृत्यरत प्राकृति ओर (सूंड में कलश लिए राजको मूर्तिगत किया गया है । त्रिछत्र के दोनों पात्रों में नगाड़ा लिए देवी सगीतज्ञो को प्रदर्शित किया गया है। अनेकान्त त्रिशूल की भाँति निर्मित है) चित्रित है और निपली भुजाओं में उसी क्रम में वरद और प्रभय मुद्रा प्रदर्शित है । सभी सामान्य श्रलकरणों से युक्त देवी के वाहन का अकन यहाँ अनुपलब्ध है । महाकाली के समीप ही चतुर्भुज रोहिणी ( पहली विद्या देवी) की प्रतिभग मुद्रा में खड़ी प्राकृति उत्कीर्ण है देवी की ऊपरी दाहिनी व वाम भुजाओं में क्रमशः बाण और धनुष स्थित है; जबकि निचली भुजानों में उसी क्रम में वरद मुद्रा और कमण्डलु प्रदर्शित । दाहिनी पार्श्व में उत्कीर्ण देवी के वाहन का स्वरूप काफी अस्पष्ट है, फिर भी ग्रयो के निर्देशों के अनुरूप उसे गाय का चित्रण होना चाहिए । | गूढ़ मण्डप की पूर्वी भित्ति की जघा पर प्रतिभग मुद्रा में खड़ी चतुर्भुज वज्राकुश (चौथी विद्या देवी ) की मूर्ति उत्कीर्ण है । पद्मामन पर स्थित देवी की ऊपरी दाहिनी व बायी भुजाग्री मे क्रमशः प्रकुश व वज्र प्रद शित है; जबकि निचनं । भुजाम्रो में क्रमशः वरद मुद्रा और कलश देवी के वाम पाश्व में उसके वाहन गज को उत्कीर्ण किया गया है। देवी रीवा मे हारों, स्तनहार, चोली, पैरो तक प्रसारित घांनी, घुटनो तक प्रसा रित माला, कर्णफूल, पायजेब, बाजूबन्द श्रादि श्राभूषणों से सुसज्जित है। देवी के दोनों पाइयों में दो सेविकाएं अवस्थित है, जिनको एक भुजा में स्कन्ध के ऊपर स्थित चामर प्रदर्शित है और दूमरी भुजा कटि पर आराम कर रही है। विवरणों मे समान बचाया की एक अन्य खड़ी मूर्ति मूल प्रासाद के पश्चिमी भित्ति की जा पर उत्कीर्ण है, जिसमे देवी ने उपर्युक्त मृर्ति के विपरीत अपनी वाम भुजा में कलश के स्थान पर फल धारण किया है। उल्लेखनीय है कि पाश्चन वामपारी वि कामो को इस उदाहरण मे नही उत्कीर्ण किया गया है। वज्रांकुशा का एक अन्य चित्रण मन्दिर के पूर्वी अधिष्ठान पर देखा जा सकता है, जिसमे चतुर्भुज देवी ललितासन मुद्रा में रही है। देवी ने उपर्युक्त मूर्तियों के विपरीत वज्र व अकुश क्रमशः दाहिनी व बायी भुजाओ मे धारण किया है और निपली दाहिनी व बाबी भुजाओं में क्रमशः वरद मुद्रा और फल प्रदर्शित है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अधिष्ठान की छोटी माकृतियों (१५-३X६-४" में देवियों को अधिकाशतः उत्कीर्ण नहीं किया गया है। मूल प्रासाद के पूर्वी भित्ति की जंघा पर महाकाली (घाटवी महाविद्या) की प्रति भंग मुद्रा में खड़ी चतुर्भुज श्राकृति उत्कीर्ण है। देवी की ऊपरी दाहिनी व वायी भुजामों में क्रमशः वज्र और घण्ट (जिसका ऊपरी भाग मूल प्रसाद के दक्षिणी भित्ति की जंघा पर उत्कीर्ण चतुर्भुज चक्रेश्वरी (पांचवी विद्या देवी) की प्रतिभङ्ग मुद्रा मे खड़ी मूर्ति की विशेषता अन्य प्राभूषणों के साथ किरीट मुकुट से सुशोभित होना है। देवो ने ऊपरी दोनों भुजाओं में चक्र धारण किया है, और सरस्वती निचली दाहिनी भुजा से वरद मुद्रा प्रदर्शित करती है. किन्तु वाम भुजा की वस्तु प्रस्पष्ट है। दोनों ओर दो स्त्री चामरधारी सेविकाओं से वेष्टित देवी के वाम पार्श्व मे मानव रूप में हाथ जोड़े गरुड़ की प्राकृति उत्कीर्ण है । समान विवरणों वाला चक्रेश्वरी का एक अंकन पश्चिमी भित्ति की जंघा पर देखा जा सकता है। इसमे देवी की निचली वाम भुजा में शख चित्रित है। गरुड़ का प्रकन पूर्ववत् है पर चामरधारी सेविकाओं का नहीं उत्कीर्ण किया गया है । एक अन्य समान विवरणों वाली मूर्ति जिसमें देवी की निचली वाम भुजा खण्डित है । पश्चिमी अधिष्ठान पर देखी जा सकती है। किरीट मुकुट से प्रलंकृत देवी को मानव रूप मे प्रदर्शित गरुड़ पर ललितासन मुद्रा में प्रासीन प्रदर्शित किया गया है । यहां यह उल्लेखनीय है कि चक्रेश्वरी या प्रतिषका विद्या देवी, जिसे कि प्रतिमा लाक्षणिक ग्रन्थों मे चारों भुजानों में चक्र धारण किए उत्कीर्ण किए जाने का विधान है, को जैन शिल्प में मात्र राजस्थान के प्रोसिया और धणेरा स्थित महावीर मंदिरों व कुछ अन्य उदाहरणों को छोड़ कर (जिनमें अप्रति चत्रा की चारों भुजाओंों में चक्र स्थित Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंभारिया के संभवनाथ मंदिर की अनदेवियां है) सर्वव केवल ऊपरी दोनो भुजामों में ही चक्र धारण दक्षिणी अधिष्ठान पर चतुर्भुज सर्वास्त्र-महाज्वाला किये प्रदर्शित किया गया है । विमलवसही मोर लूणवसही (ग्यारहवी विद्या देवी)की ललितासन मुद्रामे उत्कीर्ण मूर्ति मन्दिरों (दिलवाड़ा : राजस्थान) पौर शांतिनाथ मंदिर में देवी को दो ऊध्वं भुजाम्रो मे दो ज्वाला पात्र स्थित (कंभारिया: उत्तरी गुजरात) के छतों पर उस्कोणं १६ है, और निचली दाहिनी मे वरद मुद्रा प्रदर्शित है। देवी देवियों के साम हिक अंकन में भी अप्रति चक्रा को केवल की निचली वाम भुजा की वस्तु भग्न है । देवी के चरणों ऊवं दो भजामों में चक्र धारण किये प्रदर्शित किया गया के समीप वाहन मेष को उत्तीर्ण किया गया है, जब कि ह। फलतः सम्भवनाथ मादर का उपयुक्त समा आ ग्रन्थों में देवी का वाहन शकर बताया गया है। तियों को नि:सन्देह विद्या देवी प्रप्रतिचक्रा का चित्रण पश्चिमी अधिष्ठान पर उत्कीर्ण चतुर्भुज देवी को स्वीकार किया जा सकता है। वैसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभ- ललितासन मुद्रा मे भद्रासन पर प्रासीन मूति मे देवी की नाथ की यक्षी चक्रेश्वरी भी शिल्प मे प्रचलित विद्या देवी । ऊपरी दाहिनी बायी भुजानों मे क्रमशः धन का थैला व अप्रतिचका के स्वरूप की तरह ऊपरी दोनो हाथो मे चक्र अकुश अकिन है; जबकि निचली दाहिनी भुजा से वरदधारण करतो है पर चूकि कुभारिया मदिरों की भित्तियों मुद्रा प्रदर्शित है और समक्ष की वाम भुजा भग्न है । पर यक्ष-यक्षियों का चित्रण लगभग प्रप्राप्य है, मत: दोनो। ऊपरी भुजामों में स्थित धन के थैले और अंकुश के आधार भुजामों मे चक्र से युक्त देवी की विद्यादेवी प्रप्रतिचका पर इस देवी की निश्चित पहचान सर्वानभति (कबेर के से पहचान ही उचित व तर्क संगत है। समान) यक्ष की शक्ति से की जा सकती है, जिसका ____ मूल प्रसाद के दक्षिणी भित्ति पर उत्कीर्ण एक चतु. उल्लेख प्रतिमाशास्त्रीय ग्रथों मे सर्वथा अप्राप्य है। भुज देवी प्रतिभग मुद्रा में खडी है। देवी के ऊपरी मन्दिर के पूर्वी व पश्चिमी प्रवेश द्वारो के उघोढी दाहिनी व वाम भजाम्रो मे क्रमशः गदा (सुक ?) व वज (door sill) पर द्विभुज प्रबिक) का चित्रण देखा जा स्थित है, जब कि निचली दाहिनी व वाम भुजायों मे सकता है, जिसमे दाहिनी भुजा मे पाम्रनुबि से युक्त देवी वरद मुद्रा और फल चित्रित है। देवी के दाहिने पार्श्व मे वाम भुजा से गोद में बैठे बालक को सहारा दे रही है। उसका वाहन भैस (?) उत्कीर्ण है। वाहन के कारण गूढमण्डप के द्वार की प्राकृतियां काफी भग्न हैं पर द्वार देवी की निश्चित पहचान सन्देहास्पद हो गई है। क्योंकि शाखा के नीचे (dor frame) चतुर्भुज चक्रेश्वरी की जहाँ प्रायुधो के प्राचार पर देवी की निश्चित पहचान प्राकृति उत्कीर्ण है, जिसकी प्रवशिष्ट दो ऊपरी भुजामों सातवीं विद्या देवी काली से की जानी चाहिए, वहीं वाहन में चक्र प्रदर्शित है । सोहवती (door lintel) पर उत्कीर्ण उसे छठी विद्या देवी पुरुषदत्ता का चित्रण प्रतिपादित लक्ष्मी की ६ प्राकृतियों में समान रूप से देवी की ऊपरी करता है। जो भी हो पायुधों के माघार पर देवी की दोनों भुजाओं मे पचित्रित है। और निचली दाहिनी व पहचान काली से करके गलत वाहन का चित्रण कलाकार बायीं भुजामों में क्रमशः वरदमुद्रा प्रौर फल प्रदर्शित है। की भूल मानी जा सकती है। सप्त सर्पफणों के घटाटोपो से शीर्ष भाग में प्राच्छामूल प्रसाद को पश्चिमी भित्ति की जंघा पर चतुर्भुज दित पार्श्वनाथ की १५वी शती को दो सपरिकर प्रति. सरस्वती की त्रिभंग मुद्रा में खड़ी) मूर्ति उत्कीर्ण है। दो माएं गूढमण्डप में स्थापित है। दोनों ही मूर्तियो मे मूलपाववर्ती चामरधारी सेविकामों से वेष्टित सरस्वती की नायक की प्राकृति गायब है। गर्भगृह मे स्थापित संभवऊपरी दाहिनी व बायीं भुजामों में क्रमशः सनाल कमल नाथ की प्रतिमा भी १५वीं शती से पूर्व को नही प्रतीत (long salk spiral lotus) व पुस्तक चित्रित है; जब होती है। कि निचली दाहिनी व बायी भुजामों में क्रमश: वरदाक्ष संभवनाथ मन्दिर की मूर्तियों के अध्ययन के प्राधार मौर कमंडलु प्रदर्शित है। देवी के बायी मोर वाहन हस पर यह स्पष्ट है कि अप्रतिचक्रा व वाकुशा को इस उत्कीर्ण है। मन्दिर में सर्वाधिक महत्व दिया गया है। * Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि में अचलपुर चन्द्रशेखर गुप्त (शोध छात्र) विदर्भ के प्रमरावती जिले में स्थित प्रचलपुर का ब्राह्मण को प्रचलपुर में ५० निवर्तन भूमि दान में देने मध्य काल में धार्मिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान का उल्लेख पाया जाता है। इस ताम्रपत्र में यद्यपि था। वैसे तो इसकी तिथि प्राचीन भोजकट राज्य मे है उत्कीर्णक की असावधानी के कारण प्रचलपुर के स्थान तथापि यह उनना प्रचीन है यह कहना कठिन है। भोज. पर प्रचलपक उत्तीर्ण हो गया है नयपि उसे यहां प्रभिकट का उल्लेव महाभारतादि' ग्रन्थो में ही नहीं वरन् लिषित शब्द अचलपूर ही है इसमे सन्देह नही। इसके ईस्वी पहली और दूसरी शती पूर्व तथा वाकाटक अभि- सम्पादक ने इस अचलपुर की पहचान अमरावती जिले के लेखों में भी प्राप्त होता है । प्रचलपुर जैन धर्म का केन्द्र प्रचलपुर से की है। किन्तु यह ठीक नही है क्योंकि इसी ग्यारहवीं शती में ही बन चुका था, किन्तु यह कब बसा ताम्रपत्र के अनुसार प्रचलपुर कृष्णालेशालि नामक कटक इस पर कुछ प्रकाश डालना उचित होगा। में समाविष्ट था जबकि अमरावती वाले प्रचलपुर का इस प्रदेश में (विदर्भ) दो अचलपुर नामक नगरो समावेश इसी वाकाटक राजा के चम्पक ताम्रपत्र में का उल्लेख प्राप्त होता है । दोनों नगरों का जैन साहित्य (चम्मक से प्रचलपूर ४ मील पर स्थित है) वणित भोजमे उल्लेख पाया है। कुछ विद्वानों के अनुसार ये दोनों कट (वर्तमान भातकुली, जिला प्रमरावती) में होता अभिन्न थे किन्तु जैसा कि हम देखेंगे यह तथ्य नही है। था। दोनों अभिलेख एक ही काल के होने के कारण यह दोनों अलग-अलग स्थानों पर बसे थे और दोनो की नीव अभिन्नता उपयूक्त सिद्ध नहीं होती। विभिन्न कालों में पड़ी। इस प्रचलपुर का उल्लेख जैन प्रागम साहित्य में वाकाटक महाराज द्वितीय प्रवरसेन के ३८वें वर्ष में होता है। होता है। पिण्डनिज्जुत्ति (५०३), पावश्यक टीका (पृ. प्रवरपुर से दिये गये ताम्रपत्र मे, जो पवनी (जिला । ५१४) तथा देववाचक क्षमाश्रमण (पृ. ५० प्र.) आदि भण्डारा, विदर्भ) से प्राप्त हुप्रा है, दुग्यं नामक एक ही एक जैन ग्रन्थों में कहा गया है कि प्रचलपुर भाभीर देश में १. भोजकट विदर्भ की प्राचीन राजधानी थी जिसे कृष्ण स्थित था । इस अहिट्ठाण के समीप कण्हा और वेण्णा से हारने पर रुक्मी ने बसाया था। इसके पूर्व नदियां बहती थी। इन नदियों के दोनाब को बम्भदीव कुण्डिनपुर राजषानी थी। जैन साहित्य में भी यह कहते थे तथा यहाँ ५०० तावस रहते थे। कहत थ तथा यहा ५०० उल्लेख प्राप्त होता है। महाभारत (गीता प्रेस डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने इसे एलिचपुर (अचलपुर सस्क०), सभापर्व, ३१।११-१२; उद्योगपर्व १५८१. अमरावती जिला) से पभिन्न माना है। किन्तु यह भी १४-१५ । डा. जगदीशचद्र जैन प्रागम साहित्य मे ३. डा. वि. भि. कोलते, द्वितीय प्रवरसेन का पवनी वणित भारतीय समाज, पृ. २७४ । ताम्रपट, विदर्भ सशोधन मण्डल वार्षिक १०६७, २, भरहुत अभिलेख क्र. ए. २३, २४ कार्पस इन्स्क्रिप. पृ. २०-३०। शनम् इण्डि के रम् खं. २, भाग २, पृ. २२, पूर्वोक्त ४. पूर्वोक्त, पृ. २६ । ख. ३, पृ. २३५ ई. वा. वि. मिराशी, वाकाटक ५. वाकाटक राजवश का इतिहास, पृ. १५५ ई० । राजवंश का इतिहास पौर प्रभिलेख (डा. अनयमित्र ६. लाइफ इन एंशिएण्ट इण्डिया एज डिपेक्टेड इन जैन शास्त्रीद्वारा अनूदित), पृ.१५५.१६१ । कैनन्स, पृ. २६३। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्टि मेंप्रचलपुर उपयुक्त नहीं है क्योंकि इस अचलपुर की स्थिति उपरोक्त जैन साहित्य में जैसा कि ऊपर कहा जा पुका है वणित कण्हा और वेण्णा नदियो के समीप नहीं है। कहा इसकी स्थिति पाभीर देश में बताई गई है। यह कुछ नदी वर्तमान कन्हान नदी है जो नागपुर जिले के रामटेक विचित्र सी बात है; क्योंकि यह प्रदेश प्राचीनकाल से ही तहसील से बहती हुई भण्डारा जिले में वैनगंगा को मिलाती विदर्भ कहलाता रहा है। हो सकता है ग्रामीरों के इस है। वेण्णा वर्तमान वैनगंगा ही है। पुराणों में इसे इसी स्थान पर कुछ काल प्रभुत्व के कारण इस प्रदेश को नाम से उल्लिखित किया गया है। प्राभीर देश कहा गया हो। इस उल्लेख की पुष्टि रामटेक तहसील में ही नगर. धन (प्रचीन मन्दिवर्धन) ग्राम से प्राप्त एक ताम्रपत्र से । ___उल्लेख एक राष्ट्रकूटवशी राना नन्तराज के तिबरखेड होती है जिसे स्वामिराज नामक राजा के अनुज नन्नराज तथा मुलताई ताम्रपत्रो मे पाया गया है"। इमी राना ने कलचुरि संवत् ३२२ में दिया था। इसमें एक प्रचल. का एक ताम्रपत्र विदर्भ के प्रकोला जिले के सागलद ग्राम पुर अग्रहार का उल्लेख सीमा बताने के प्रसंग में पाया से भी पाया गया था। इन ताम्रपत्रो के अध्ययन से है । प्रतीत होता है यह अचलपुर अग्रहार वाकाटक प्रवर.. ज्ञात होता है कि ये राष्ट्रकूट मान्यखेट के राष्टकूटो मे सेन द्वितीय द्वारा पवनी ताम्रपत्र में दिये गये दान के भिन्न थे। तिवरखेड ताम्रपत्र जाली है। क्योंकि उसमे शक प्रचलपुर ग्राम से भिन्न है। यह वाकाटक ताम्रपत्र संवत् ५५३ (ई० ६३१) दिया गया है जबकि शेष दो में नगरपन ताम्रपत्र के थोडे समय पूर्व ही दिया गया था क्रमश: शक ६३१ (ई०७०६.१०)मौर ६१५ (ई. ६६३) और दोनों के प्राप्ति स्थान की स्थिति अधिक दरी पर पाया जाता है। इन प्रभिलेखों मे नन्न राज की वंशावली निम्न दी गई हैनहीं है। यद्यपि इस अचनपुर की पहचान सम्पादकों ने दुर्गराज नही की है तथापि उमकी ताम्रपत्र मे वर्णित स्थिति को देखते हए मुझे प्रतीत होता है कि यह अचलपुर रामटेक गोविंदराज तहसील (जिला नागपुर) में स्थित प्रडेगाव से सम्भवतः स्वामिकराज अभिन्न होगा जो रामटेक से करीव १० मील पश्चिम मे स्थित है। नम्नराज पुडासुर ७. मार्कण्डेय तथा वायु पुराणों मे से इसे वेण्या तथा --- १०. विदर्भ के विषय में लोगों में परम्परा है यहाँ प्रारम्भ मत्स्य और ब्रह्माण्ड पुराणों मे वेणा कहा गया है - में गवली (पहीर) राज्य करते थे। एक सिमान्ता. एस. एम. अली, ज्योग्राफी प्रॉफ दि पुराणास, नुसार प्राभीर जाति उत्तर-पश्चिम भारत से क्रमशः प.१२०। ८. वा. वि. मिराशी, कलचुरि नपति प्राणि त्यांचा स्थानान्तरित हो दक्षिण में बस गई। मान्ध्र प्रदेशकाल, पृ० १२८.६; कार्पस इस्क्रि . इण्डि०, ख. । महाराष्ट्र के भाभीर नरेश सम्भवतः इसी जाति के ४, पृ०६१२ इ०। थे। अत: यह सम्भव है कि ये जाति विदर्भ में बसी ६. नगरधन ताम्रपत्र में प्रकोल्लिका नामक गांव दान हो जिसकी स्मृति जैन प्रागमों में सुरक्षित रही। में दिया गया। इसके क्रमशः पूर्व, पश्चिम तथा ११. एपि ग्राफिया इण्डिका, ख० ११, पृ० २७६६; दक्षिण में अचलपुर अग्रहार, श्रीपणिका ग्राम तथा इण्डियन ऐण्टिक्वेरी, स० १८, पृ०२३०; बगाल शूल नदी थी। मिराशी जी ने केवल शूल नदी पौर एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका, ख.६, पृ. अंकोल्लिका की पहचान सूर नदी और मरोली गांव ८६६। रायबहादुर हीरालाल, इन्स्क्रिपशन्स इन सी० पी० एण्ड वरार, क्र. १६१.२, पृ००८-१० । मे की है। हमारे अनुसार श्री पष्णिका सिरपुर, १२.५० खु. देसपाण्डे, परास, वर्ष २, मं. प्रकोल्लिका मसोली तथा मचलपुर मडेगांव से मो० मं० दीक्षित. मध्य प्रदेश के पुरातरष की रूपअभिन्न हैं और इनकी स्थिति वर्णनानुसार है। रेखा, पृ.१९६१ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१, २५, कि.. अनेकान्त - प्रथम दो ताम्रपत्र अचलपुर से पौर तीसरा पानगर कोकला के दामाद द्वितीय कृष्ण अकालवर्ष को पूर्वी से जारी किया गया था। ये प्रचलपुर निश्चित रूप से चालुक्य राजा तृतीय विजयादित्य के विरुद्ध युद्ध में अमरावती जिले में स्थित अचलपुर ही है । इस शहर को त्रिपुरी नरेश ने सहायता की थी।" विजयादित्य के सेना. रावधानी बना राज्य करने वाले ये राष्ट्रकूट सम्भवतः पति पाण्डुरंग ने चक्रकूट (बस्तर जिला मध्य प्रदेश) पौर मुख्य शाखा के अधीनस्थ और सम्बन्धी ही थे। कुछ किरणपर (बाला घाट जिला, मध्य प्रदेश) को लूटा और पिवान म्ह पूवाल्लिाखत नगरधन ताम्रपत्र वाल राजा जलाया तथा प्रचलपर तक पहेच उसे नष्ट भ्रष्ट कर दिया से सम्बधित मानते हैं। इनके अनुसार ये बरार के राष्ट्र- था।" कूट प्रारम्भ में नगरधन प्रदेश पर राज्य करते थे। मोर . इसी काल में प्रचलपुर जन धर्म वा एक प्रमुख केन्द्र पाच कलचुरियों के माण्डलिक थे। बाद में बादामी बन गया, दृष्टिगत होता है। इसका परिसरवर्ती प्रदेश भी के चालुक्यों के सामन्त बने प्रोर मचलपुर से राज्य करने जैनधर्म की दृष्टि से काफी समद्ध था। इसके परिसरलगे। किन्तु यह उपयुक्त नहीं है। नगरधन ताम्रपत्र वर्ती प्रदेश से जैनधर्म सम्बन्धी पुरातत्त्व की उपलब्धि कलचुरि वंश के शासक का है । इनके पश्चात् इन राष्ट्र- एक स्वतन्त्र लेख का विषय है। इस काल मैं रचित कूटों ने विदर्भ पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। प्रथम तीर्थमालानों तथा अन्य ग्रन्थों में जैन मुनियों एवं प्राचार्यों शासक यही नन्नराज युखासुर था, क्योंकि इसके पूर्वजों के ने प्रचलपूर का कई स्थानों पर उल्लेख किया है । नामोल्लेख होने पर भी स्वतन्त्र लेखादि प्राप्त नहीं विक्रम सं० ११५ (ई० ८५८) में जन प्राचार्य होते।" इसके बाद राष्ट्रकूटों की मुख्य शाखा के ईसवी जयसिंह ने अपना धर्मोपवेशमाला नामक ग्रंथ लिखा जो ७७२ से ईसवी ९४० तक के पभिलेख प्राप्त होते हैं।" वृत्ति-परक है। इसमें प्रचलपुर का प्रयलपुर कहकर कलचुरियों की त्रिपुरी शाखा से इस वंश के वैवाहिक उत्लेख किया गया है।" इस ग्रंथ में एक परिकेसरी सम्बन्ध थे प्रतः कलचुरि एवं शिलाहार राजापों के लेखों राजा का उल्लेख पाया है जिसने एक महाप्रासाद बनवा. में प्रसंग वश इस प्रदेश का उल्लेख प्राप्त होता है। कर तीर्थ कर प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी। शिलाहार राजा अपराजित के मुरूड ताम्रपत्र से प्रयलपुरे दिगम्बर भत्तो परिकेसरी राया। जात होता है कि तुतीय अमोघवर्ष ने कर्कर नामक राष्ट्र- तेणय काराविमो महापासाम्रो, फूट की राजधानी पर माक्रमण कर उसे जीत लिया। पराठ्ठावियाणि तित्थयर-बिम्बाणि॥ यह कर्कर प्रचलपुर पर राज्य करने वाले राष्ट्रकूट सामंत (अचलपुर में एक प्ररिकेसरी नामक दिगम्बर राजा कर्कर से भिन्न प्रतीत होता है। इसकी पुष्टि कुछ अन्य प्रमा। उसने महाप्रसाद बनवाकर तीर्थ कर निम्ब की पभिलेखों से प्राप्त होती है।" , कलचुरि नरेश प्रथम प्रतिष्ठा की।) १३. वा. वि. मिराशी, विदर्भाचे राष्ट्रकूट, संशोधन १६. कलचुरि नपति प्राणि त्यांचा काळ, पृ. १४-१५ । मुक्तावलि, सर २, पृ. १११, युगवाणीनगपुर, १७. डा. प्रजयमित्र शास्त्री, त्रिपुर, भोपाल २६७१, १९५०, (दिवाली अंक), पृ. ४१६-४२० । का.ई.ई. प्र.४६, साउथ इण्डियन इन्स्क्रिपशन्स, ल. १, पृ. ख.४, पृ. १३३ (भूमिका)। '.' ३६.४०; मिराशी का. इ.इं.ख. ४, भूमिका पृ. १४. द्रष्टव्य-हीरालाल , पूर्वोद्भुत, क्र. ६, १५; एपि. इण्डि., ख. ५, पृ. १८८; ख. १४, पृ. १२१, ख. १८. चन्द्रशेखर गुप्त, विदर्भ का जैन पुरातत्त्व, जैन २३. पृ. ८, २०४, २१४ ई.।। मिलन, नागपुर, (डा. हीरालाल जैन विशेषांक) १५. बद्दिग प्रमोघवर्ष के दामाद द्वितीय बतुग सूदी ताम्र- वर्ष २, सं. २, पृ. ४६.६८ । पत्र, एपि. इण्डि.स. ३, पृ. १७६; इडियन हिस्टा. १६. मुनि कान्तिसागर, खण्डहरो का वैभव, वाराणसी, क्वा., ख. २५, पृ. ६१२, कुवलूर ताम्रपत्र, पूर्वोक्त। १९५६, पृ. १५६-१५७ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन वृष्टि में प्रचलपुर प्ररिकेसरी राजा कौन था? कहा नहीं जा सकता। का विपर्यय बताते हुए वे प्रचलपूर का उदाहरण देते चालय वंश में हुए प्रथम और द्वितीय प्ररिकसरा म स है।"अचलपुर से प्रचलपूर हपा, फिर एलपूर, एलिच. यह एक होगा। मुनि श्री कांतिसागर जी के अनुसार पुर, एलिजपुर प्रादि विभिन्न रूपों में प्रचलित रहा। यह नाम न होकर विशेषण मात्र है। और यह राजा महानुभाव साहित्य मे प्रलजपुर रूप मिलता है। पौराणिक नही हो सकता, क्योंकि यदि ऐसा होता है तो भोसलों के काल में प्रचलपुर एक सूबा बनाया गया था। सम्प्रदाय सूचक विशेषण मिलता। तत्कालीन कागज पत्रों में इसके प्रालजपुर पोर मलजधनपाल ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ धम्मपरिक्खा यहीं पर पुर रूप मिलते है।" वि० सं० १.४४ में पूर्ण की थी।" प्रचलपुर ईल या अचलपुर के पाठ मोल उत्तर-पश्चिम में स्थित एल नामक राजा द्वारा बसाया गया ऐसा उल्लेख किब- मुक्तागिरि तीर्थ की महत्ता से समीपवर्ती प्रचलपुर भी दन्तियो में प्राप्त होता है । यह राजा जैन धर्मावलम्बी प्रभावित हुपा । एक गाथा मे कहा गया है।" था । इसने पूजार्थ श्री पुर-सिरपुर गांव चढ़ाया था। अचलपुर बरणिय । इसने मुक्तागिरि तीर्थ पर भी प्रभयदेव सूरि द्वारा पावं. साने मेघ गिरि सिहरे॥ नाथ स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवायी थी। शील- भट्ठय कोडियो निवाण । विजय जी ने इस तीर्थ की यात्रा की थी। ये प्रभयदेव गया नमों तेसि ॥ सूरि रवांगी वृत्तिकार अभयदेव से भिन्न थे, तथा मल- मयलपुरे दिगम्बर भत्तो प्ररिकेसरी राया। धारी थे। इन्होंने सिरपुर के अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ की तेणय काराविमो महापासामो, प्रतिष्ठा वि० सं० ११४२ माघ सुदी ५, रविवार को की परट्ठावियाणि तित्थयर-बिम्बाणि ।। थी।२२ . __श्वेताम्बर तीर्थमालामों में प्रचलपुर का एलजपुरि । २४. पचपुरे चलोः प्रचलपुरे चकारलकारयोग्यं स्ययो रूप प्राप्त होता है । यथा-" भवति प्रचलपुरम् ॥२।११८ शब्दानुशासन । --मुनि कान्तिसागर, पूर्वोद त पृ.१५६ पर उल्लिखित। एलजपुरि कारंजा नयर......... ........२१ ॥ २५. श्री गोविंदप्रभु चरित्र (वि. भि. कोलते द्वारा सम्पा.) प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण में प्रस्तावना पृ. १२; पू. ४४, ४५, ६६, ७३, १३, अचलपुर की प्रासंगिक चर्चा की है। च और ल वर्णों २२०, ३१८ ई.; लीलाचरित्र-एकांक (गो. नेने २०. पूर्वोक्त, पृ. १५७। द्वारा सम्पा.) पृ. १२, २७।। २१. पूर्वोक्त, पृ. १५६ । २६. नागपुरफर भोंसल्याची बखर, काशीराव राजेश्वर २२. पूर्वोक्त, पृ. १५६ । लिखित, (या. मा. काळे सम्पा.), नागपुर १९३६, २३. प्राचीन तीर्थ माला संग्रह, भा. १, पृ. ११४ । मुनि पृ. ३६, ११५, १३६, १४० । कान्तिसागर, पूर्वोद्धृत, पृ. १६०-१६१ । २७. इण्डि. ऐण्टि., ख. ४२, पृ. २२० । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम घट मुनि श्री महेन्द्रकुमार प्रथम प्रकल्पित प्रसंग को देखकर प्रत्येक व्यक्ति के मानस करते हुए कहा-"काम घट मेरे पास नहीं ठहर सका, में जिज्ञासा उभरती है। राजा के मन में भी प्रश्न था । प्रत्युत् मेरा अनर्थ हो गया। सैनिकों की दुरवस्था को उसने मत्री से पूछा-"तूने हमारा इतना सत्कार किस देखकर मेरा कलेजा मुंह की भोर पाता है। तू उन सब बल पर किया ? क्या तेरे पास कोई प्रमोघ शक्ति है ?" को स्वस्थ कर।" __ मंत्री ने श्रद्धावनत होकर निवेदन किया-राजन् ! मन्त्री ने अपनी भद्रता का परिचय दिया। उसने यह सब तो धर्म का प्रभाव है। जब मापने साधन विहीन चमर को सैनिकों पर बीज कर उन्हे स्वस्थ किया और करके देशान्तर भेजा था, उस समय मुझे काम घट की राजा से कहा-"धर्म के प्रत्यक्ष प्रभाव के प्रति प्रब तो प्राप्ति हुई थी। वह महाप्रभावक। यह जो कुछ भी पाप नतमस्तक हैं।" राजा मन्त्री के कथन का प्रतिवाद प्राप देख रहे हैं, वह सब मेरा नही; उसी का है।" न कर सका । न केवल राजा ने ही, अपितु समस्त नाग राजा ने कहा--"ऐसी दिव्य वस्तु तो राजभण्डार में रिकों ने भी धर्म के माहात्म्य को स्वीकार किया। । शत्रुमों का पराभव करने में यह विशेष उपयोगी दबी हुई भावनाए समय पाकर उभर भी जाती हैं । होगी ।" राजा कुछ दिनों तक धर्म-परायण रहा। फिर क्रमशः मंत्री ने कहा-"प्रधार्मिक व्यक्ति के पास ऐसी वस्तु घामिकता का प्रभाव क्षीण होता गया और नास्तिकता का नही ठहर सकती। भाप इसकी इच्छा न करें।" नशा उस पर छाने लगा। एक दिन उसने मन्त्री से कहा सबा ने मंत्री के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा -"विगत में जो कुछ भी तूने बतलाया था, वह तो -"यह मेरे पास ठहर जायेगी। एक बार तू मुझे इसे दे धुणाक्षर न्याय से फलित हो गया होगा। उसमें धर्म का दे। यदि नहीं देगा तो मैं बलात् इसे ले लूंगा और तुझे क्या लेना-देना है ? पापी व्यक्ति भी ऐसा करके दिखला कषित भी करूंगा।" सकता है । मैं तब इसे स्वीकार कर सकता हूँ, जब कि तू ___मंत्री अपने में सावधान था। उसने काम घट राजा काम घट, दन्ड, चमर, युगल मादि मुझे सोंपकर पत्नी के को समर्पित कर दिया। राजा ने उसे राजभण्डार में साथ खाली हाथ पुनः देशान्तर जाए और समद्धि-सम्पन्न स्थापित कर उसकी सुरक्षा मे एक हजार सैनिकों को कर दिया। उन्हे तीन दिन तक पूर्ण सजग रहने धार्मिक व्यक्ति सरलाशय होते है। वे छल प्रपंचों से के लिए निर्देश प्रदान किये। दूर रहते है, अतः बहुधा उन्हें समझ भी नहीं पाते । मन्त्री हसरा दिन हमा। मंत्री ने दण्ड को निर्देश दिया, ने राजा के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। घर की सारकाम घट लामो। दण्ड पूर्णतः माज्ञाकारा था। वह सम्भाल राजा को सौंपकर उसने पत्नी के साथ प्रस्थान तत्काल राज-भण्डार में पहुँचा। सैनिकों को मार-पीट कर दिया । अनवरत चलता हुया वह समुद्र के तटवर्ती कर उसने भाहत किया । उसमें से बहुत सारे मूच्छित नगपुर में पहुँचा । नगर की निकटवर्ती वाटिका मे विश्राम होकर गिर पड़े तथा बहुत सारे मुंह से खून उगलने लगे। किया। जनता से इसने मुना, सागरदत्त व्यापार के लिए दण्ड ने काम घट को लिया और मत्री के पास पहुंच जा रहा है । वह जनता को मुक्तहस्त से दान दे रहा है। गया। राजा को जब यह ज्ञात हमा, वह खिन्नमना मत्री मन्त्री के पास कुछ भी धन नही था। वह पत्नी को चा। उसने अपनी भषार्मिकता को स्वीकार वाटिका में छोड़कर सागरदत्त के पास पहुँचा। याचकों Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम घट को वह बहत भीड थी। मन्त्री सबसे पीछे था। दान देते. पर छोड दिया। स्वय मानन्द-मग्न शहर में घमता रहता। देते ही जहाज चल पडा। मन्त्री खाली हाथ था। वह देव-योग से वहां की वेश्या के साथ उसकी प्रीति हो गई। किसी प्रकार जहाज पर चढ़ गया । कुछ दूर जाने उसने अपने स्थान पर रहना छोड़कर वेश्या के घर पर ही पर उसने सेठ से याचना की। सेठ ने उसे दान रहना प्रारम्भ कर दिया। कुछ दिन बीत गये, सेठ दिया । मन्त्री वापस पाने के लिए ज्यो ही मुड़ा, उसने पास वही घन पहुँच जाता । वेश्या ने एक दिन सोचा, जो देखा जहाज तो प्रथाह जल में प्रवेश कर चुका है। हाथा व्यक्ति सेठ का व्यागाराधिकारी है. वह अवश्य ही बरत से तैर कर तट तक नहीं पहुँचा जा सकता। वह जहाज कुशल होना चाहिए । यदि उसके साथ प्रीति हो जाए तो मे ही रहा। सयोगवश सेठ मोर मन्त्री का वातीलाप धन का स्रोत फूट पड़ेगा। उसने प्रयत्न प्रारम्भ किया प्रा । मन्त्री बहत चतुर था, उसने वातो प्रसग में सठस पर कोई सफलता नहीं मिली। वह स्वय' मन्त्री के पास प्रत्यधिक निकटता बढ़ा ली। पारस्परिक मित्रता ने एक प्राई और उसे विचलित करने के लिए प्रयत्नशील हुई। दसरे में प्रात्मीयता को भी बढ़ाया। सेठ ने मन्त्री का मन्त्री स्वदार-सन्तोष व्रती था। उस पर उसका कोई योग्य समझ कर बही-खातों का काम सौंप दिया। प्रभाव नहीं पड़ा। वह अपने प्रयत्न मे निष्फल होकर मन्त्री की पत्नी विनयसुन्दरी वाटिका में अकेलो लौट आई। बैठी प्रतीक्षा करती रही। बहुत समय तक भी जब वह मन्त्री व्यवसाय-कुलता तथा सदाचारता से सारे लौट कर नहीं पाया तो वह उसकी खोज में निकली, शहर में प्रख्यात हो गया। किन्त सब प्रयत्न बेकार रहे। वहाँ उसका कोई परिचित एक बार राजा ने एक तालाब खुदवाया। वहाँ नहीं था। सौभाग्यवश वह एक कुम्भकार के घर पहुँच कुछेक ताम्रपत्र निकले । मजदूरो ने उन्हे राजा तक पहैं गई। माखे मिलते ही प्रात्मीयता बढ़ी । वह कुम्भकार ही चाया। राजा के मन मे उनमे लिखित विवरण को जानने उसका प्राश्रय-स्थल बन गया। वह वहाँ निःस कोच रहने की उत्कण्ठा हुई, पर वहां उस लिपि का विशेषज्ञ उसे कोई सही जब तक मन्त्री से पूनः मिलन न हो, तब तक के नही मिला । राजा ने उद्घोषणा करवाई, जो व्यक्ति इसे पर लिए उसने प्रतिज्ञाये की-"भूमि-शयन करूंगी। स्नान सकेगा, उसे प्राधा राज्य तथा राजकन्या दी जायगी। सहस्रों नही करूंगी। लाल कपड़े नही पहनूंगी । पुष्प धारण नही व्यक्तियों ने उसे पढ़ने का उपक्रम किया, किन्त मम करूंगी। विलेपन का प्रयोग नहीं करूंगी। पान नहीं नहीं मिली। मन्त्री को जब यह सूचना मिली, वह राज. खाऊंगी। लवग,इलायची आदि का व्यवहार नही करूंगी। सभा में उपस्थित हुअा। उसने उसे पढ़ा। उसमे लिखा दही, दूध, खीर, पकवान, मिठाई मादि सरस माहार का था-"जहाँ यह ताम्र-पत्र प्राप्त हो, वहाँ से पूर्व दिशा में वर्जन करूंगी । सदैव एकासन करूंगी। किसी विशेष प्रयो. सात हाथ की दूरी पर कटि-प्रमाण भूमि खोदने पर एक बिना घर से बाहर नही जाऊंगी। छज्जों में नहीं बड़ी शिला निकलेगी। उसके नीचे दस लाख स्वर्ण-REIn बैतुंगो तथा विवाह प्रादि उत्सवो मे भी सम्मिलित नहीं मिलेगी।" होऊंगी। मालाप-संलाप मे भी विवेक को प्रधानता त म्र-पत्र मे उल्लिखित रहस्य को जानने की उत्तम दंगी।" अध्यात्म-परायण होकर वह अपने समय का कता सभी के मन मे थी राजा को सबसे अधिक थी। उसी निर्गमन करने लगी। समय पूरे परिवार के साथ राजा वहाँ प्राया। उल्लेख के सेठ सागरदत्त के साथ मन्त्री रत्नदीप पहुंचा। वहाँ अनुसार उत्खनन किए जाने पर सब कुछ वैसे ही मिला। सरपुर नगर में शकपुरन्दर राजा का राज्य था। सेठ ने अप्रत्याशित दस लाख मुद्राएँ पाकर राजा हर्ष-विभोर सारा सामान जहाज से उतारा मोर गोदामों में भर हो गया। मत्री के बौद्धिक सामर्थ्य से राजा तथा जनता दिया। मन्त्री की विश्वसनीयता तथा चतुरता से सेठ दोनोंही बहुत चमत्कृत हुए। राजा ने सौभान्यसुन्दरी कन्या इतना प्रभावितहमा कि व्यवस्था का सारा दायित्व उस का मन्त्री के साथ विवाह किया तथा मापा राज्य देख Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०, वर्ष २५, कि०३ अनेकान्त दान किया। उसके साथ हाथी, घोड़े तथा मणिमाणिक्य चर्चा में खोये हुए थे। अवसर पाकर सेठ ने मन्त्री को मादि से भरे हुए बत्तीस जहाज भी अर्पित किये। धक्का दे दिया। मंत्री समुद्र के गहरे पानी में समा गया। साथी की प्रगति को देखकर उस पर प्रसन्न होने कष्ट के समय भी उसने णमोक्कार' महामंत्र का स्मरण बालेविरल होते हैं। मध्यस्थ रहने वाले भी विरल होत किया। एक काष्ठ फलक उसके हाथ लगा। वह उसके है किन्त उस पर जलने वालों की सख्या अत्यधिक होती सहारे तैरने लगा। जहाज मागे निकल गये। है। सेठ सागरदत्त तृतीय श्रेणी का व्यक्ति था। मंत्री की योजना के सफल हो जाने पर सेठ की बाछे खिल राज-मान्यता तथा अपार समृद्धि उसके चुभन पैदा करने उठी। उसने बनावटी शोक व्यक्त करते हुए सौभाग्यलगी। किन्तु उसका उपचार भी क्या था? सागरदत्त ने सुन्दरी के प्रति महानुभूति व्यक्त की। सौभाग्यसुन्दरी निश्चय कर लिया, अब यहां नही रहना है। अपना प्रव बड़ी चतुर थी। उसने सारी परिस्थिति को तत्काल भॉप शिष्ट माल उसने बेच दिया और वहाँ से अनेक प्रकार लिया। सेठ की दुश्चेप्टाएँ बढ़ती जा रही थी। उसकी का माल खरीद कर जहाज भर लिया। मन्त्री को प्रस्थान पोर से उसके पास नाना प्रस्ताव पाए। उन्हें निष्फल के अभिप्राय से सूचित कर दिया । मन्त्री को भी अपने करने के अभिप्राय से उसने समय पर सोचने का सकेत घर की याद सताने लगी। उसने भी राजा से अनुमति दिया। कुछ ही दिनों में सारे जहाज गम्भीरपुर नगर के लो और तैयारी करने लगा। राजा ने प्राधे राज्य के बन्दरगाह पर पहुँचे। सौभाग्य सुन्दरी ने स्फूति से काम अनुपात से धन-धान्य दिया। उससे पाठ जहाज भर गये । लिया । वह तत्काल वहाँ से चली और भगवान ऋषभदेव राजकीय सम्मान के साथ उन्हें विदा किया गया। के मन्दिर में पहुँच गई। कपाट बन्द किए और बोलीमन्त्री के पास कुल चालीस जहाज थे। एक जहाज यदि मेरे शोल का प्रभाव हो, तो मेरे द्वारा बिना खोले सागरदत्त का था। मन्त्री को प्रचुर सम्पदा तथा सौभाग्य कपाट न खुले ।" वह वही धर्माराधना में लीन हो गई। सुन्दरी रानी को देखकर सेठ का मन ललचा गया। उन्हे अपने अधीन करने के लिए उसने एक षड्यन्त्र रचा । मन्त्री भी तट पर पहुँचा। पास में ही एक नगर था। एक दिन उसने मन्त्री से कहा- 'पृथक-पृथक जहाज में पर वही निर्जनता प्रतीत हो र बहकर हम एक दुमरे के साथ मंत्री नहीं निभा सकते। बढ़ा । बड़ा नगर, भव्य सजावट, बाजार मे नाना प्रकार अच्छा हो. तुम मेरे जहाज मे चले पायो। पहले की तरह की सामग्री से सज्जित बड़ी-बड़ी दुकाने थी। किन्त सहभोजन, सहकीडा तथा हास्य-विनोद करते हुए समय पूर्णतः शून्यता थी। किसी मानव के वहाँ दर्शन नही हो का निर्गमन करेंगे।" रहे थे। मन्त्री नगर के अनेक राजमार्गों में घूमता हुमा सज्जन अपने विचारों के अनुरूप ही दूसरे को दूसरे राजमहल की सातवीं मजिल पर पहुंचा। एक पल्यंक का प्रकन करता है। उसके मन मे पाप नही होता । मंत्री बिछा हुमा था। उस पर एक ऊंटनी बैठी थी। कुछ ही सागरदत्त के जहाज में आ गया। कुछ समय तक दोनो में दूरी पर कृष्ण और श्वेत, दो प्रकार के प्रजन तथा दो मुक्त चर्चाएं होती रही । सध्या का समय हुमा। सेठ ने अंजन शलाकाएँ वहाँ पडी थीं। मन्त्री का प्राश्चर्य और कहा-"सूर्य के पश्चिम में चले जाने पर कितना रमणीय बढा । उसने प्रतिभाबल से काम लिया । श्वेत अंजन को दृश्य हो जाता है। प्रायो, जहाज के छोर पर बैठ कर शलाका में भर कर ऊँटनी की आँखों मे डाला। ऊंटनी समद्रीय लहरो को देखने का प्रानन्द लें।" दोनों वहाँ दिव्य कन्या के रूप में बदल गई। उसने मन्त्रीका पहुँच गये। अपार जल-राशि को पार करते हुए जहाज वादन करते हुए भव्य प्रासन की ओर संकेत किया। प्रागे बढे जा रहे थे। सूर्य अस्त हो चुका था। अन्धर ने आश्चर्य ने और अधिक प्राश्चर्य को उत्पन्न किया। मारे समद को लील लिया था। केवल प्राकाश मे कुछेक मंत्री ने एक ही साथ कन्या से बहुत सारे प्रश्न पूछ डाले तारे टिमटिमा रहे थे। दोनों मित्र वहीं किसी अज्ञात --"तुम कौन हो? किसकी कन्या हो? तुम्हारी ऐसी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम घट स्थिति क्यों है ? यह कौन-सा नगर है ? जन-शन्य क्यों वर की खोज मे हूँ। मिलते ही तेरा विवाह उसके साथ कर द्गो । सम्भव है, पापको देखते ही वह मुझे प्रापको कन्या के नेत्रों से अश्रु टपकने लगे। उसने केवल समर्पित कर दे । यदि ऐसा हो गया, तो मै तो निहाल हो इतना ही कहा-"महाभाग ! पाप शीघ्रता से यहाँ से जाऊँगी।" कन्या की प्राखें झुक गई। अगले ही मण चले जाएं। आपका यहाँ रहना विपदा पो से भरा है। उसने कहा- “यदि मेरा भाग्य चमक जाए, तो प्राप मैं नही चाहती, पाप किसी अनालोचित पकट से घिर राक्षसी से प्राकाशगामिनी विद्या, महाप्रभावक खड्ग जाएँ।" बह मूल्य रत्न-मजषा, प्रति प्रभावक रक्त व श्वेत कनेर की ___ मंत्री अविचलित रहा। उसने निर्भयतापूर्वक कहा- दो छडिया तथा दिव्य रत्नो की दो मालाएं अवश्य मांग "यहाँ भय ? स्पष्ट करें, किसका भय है ? पराक्रमी के ले।" लिए कोई भय नहीं है।" मन्त्री वही छुप गया। कुछ ही समय मे राक्षसी वहाँ कन्या ने विनम्रता से कहा-"यहां एक राक्षसी भाई। कन्या के साथ प्रामोद की बातें करने लगी। रहती है। वह बहुत क्रूर है। उसके पाने का समय हो उचित अवसर देखकर कन्या ने वर की याचना की। रहा है, इसलिए निवेदन है, पाप प्रस्थान की शीघ्रता राक्षसी ने कहा--"मैं तो चाहती हैं, पर कोई योग्य वर करे।" अब तक भी मेरी नजर में नही पाया।" मंत्री ने कहा-"मैं तो उससे साक्षात्कार के लिए कन्या ने कहा-"एक वर तो मैं बता सकती हूँ उत्सुक हूँ। यदि उसके इतिहास की तुझे कोई जानकारी यदि आपको पसन्द हो तो।" । हो, तो मुझे बतला।" "क्यों नहीं ? बतानो तो सही।" राक्षसी ने वत्सकन्या ने कहना प्रारम्भ किया--"इस नगर के राजा लता से कहा। भीम मेरे पिता थे। वे तापस-भक्त थे । एक दिन एक मन्त्री तत्काल गक्षसी के समक्ष उपस्थित हुा । मास की तपस्या कर पारणा करने के लिए एक तापस राक्षसी उसके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई। उसने यहां पाए । राजा ने उन्हें राजमहलों मे निमंत्रित किया। दोनों को उसी समय प्रणय सूत्र में प्राबद्ध कर दिया। भोजन परोसने का दायित्व मुझे सौपा गया। तापस मेरे कर-मोचन के अवसर पर मत्री द्वारा अभियाचित सारा सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया। रात्रि में वह मेरे महलो की ह मेरे महलो की वस्तुएँ राक्षसी ने उन्हे प्रदान कर दी। राक्षसी क्रीड़ा के पोर पा रहा था । द्वारपालो ने उसे गिरफ्तार कर लिया। लिए अन्यत्र चली गई। प्रातः राजा ने उसे शूली पर चढ़ा दिया। मार्तध्यान मे मन्त्री और कन्या हाम्य-विनोद कर रहे थे। सहसा मर कर वह राक्षसा हुा । उसन प्रातशाष का भावना स कन्या ने कहा--"यहाँ रहते हुए मेरा मन ऊब चुका है। राजा को मार डाला। भयभीत नागरिक सम्पत्ति को यहां से मुझे अपने घर ले चलो।" ज्यों-त्यो छोड़कर चले गये। नगर शून्य हो गया। मेरे मन्त्री ने उत्तर दिया-"किन्तु मार्ग को अनभिज्ञता प्रति उसको पासक्ति थी, अत: उसने मुझे नहीं मारा। से हम अपनी मंजिल तक कैसे पहुँच पायेगे, यह एक ऊँटनी के रूप मे वह मुझे यहां रखती है तथा प्रतिदिन जटिल पहेली है।" यहां प्राकर मेरी सार-सभाल भी करती है। अब वह कन्या ने कहा-"इसका समाधान तो मेरे पास है। माने ही वाली है, अतः महाभाग ! पाप छुप जाएँ।" हम दोनों प्रभावक खटवा पर बैठ जाएँ। दिव्य रत्नो की ___ कन्या ने स्मित हास्य के साथ भागे कहा-"एक दोनों मालानों को साथ ले ले । श्वेत कनेर की छड़ी से दिन मैंने उस राक्षसी से कहा-मैं अकेली यहाँ क्या प्राप खटवा को पीटे । यह हमको तत्काल ले उड़ेगी और कर्स ? तुम मुझे भी मार हालो । मेरा सारा जीवन नष्ट इच्छित नगर में उतार देगी। किन्तु इसमें एक कटिनता हो रहा है । राक्षसी ने तब मुझे कहा था, किसी योग्य है और वह है राक्षसी की। उसे ज्ञात होते ही वह हमारा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ वर्ष २५, कि०३ अनेकान्त पीछा करेगी और आगे बढ़ने नही देगी। उसका भी विनय-सुन्दरी कुम्भकार के घर रह रही थी। एक प्रतिकार है। जब वह राक्षसी हमारे निकट पाए, रक्त दिन एक कामुक राजकुमार ने उसे बहुत क्षुभित किया। कनेर की छडी से पाप उसे पीट । उस पर स्नेह न दिखाएं, वह स्थिर रही। राजकुमार की एक न चली। जब वह निष्प्रभ होकर लौट जायगी।" उसने उसका पीछा नहीं छोड़ा, तो वह भी अपने कमरे इच्छित मार्ग के मिल जाने से मन्त्री ने कन्या के के दरवाजे बन्द कर धर्म जागरण मे लीन हो गई। साथ वहाँ से प्रस्थान किया। कुछ ही क्षणों में राक्षसी नगर मे सर्वत्र यह चर्चा होने लगी, तीन कन्याएं महलों में लौटी। कन्या और मन्त्री दोनो ही वहां नहीं द्वार बंद कर अनशन मे बैठी है। कोई भी शक्ति उसके थे। वह समझ गई, धोखा देकर दोनों ही यहां से चले द्वार को नहीं खोल सकता । गजा के कानो तक भी यह गये है । उसने उनका पीछा किया । मन्त्री सावधान था। बात पहुँची। उसने उद्घोषणा करवायी-- “जो व्यक्ति ज्यों ही राक्षसी निकट आई, रक्त कनेर की छडी से मंत्री इनके द्वार खुलवा देगा और तीनों कन्यानों का मौन ने उसको पीटा। कुछ समय तक तो वह मार खाती हुई समाप्त करवा देगा, उसे प्राधा राज्य तथा राजकुमारी दी उनके साथ चलती रही, पर अन्यतः हतप्रभ होकर लौट जायेगी। प्राई। मन्त्री निवास के लिए मकान खोज कर तथा भोजन खट्वा गम्भीरपुर के उद्यान में जाकर रुकी । मन्त्री सामग्री लेकर उद्यान में पहुँचा। वहाँ उसे पत्नी नही ने कन्या को वहां छोडा और प्रावास के लिए मकान का मिली। दिग्भ्रमित-सा नगर में घूमने लगा। उसने भी शोध करने हेतु स्वय शहर की पोर चल पडा । उद्यान राजा की उदघोषणा को सुना। सोचा, यह तो मेरे ही घर मे उस समय एक वेश्या पाई। कन्या के सौन्दर्य पर वह बीती है। उसने तत्काल उदघोषणा का स्पर्श किया और मुग्ध हो गई। उसने उसे अपने जाल में फंसाने का प्रयत्न सैकडों व्यक्तियों से घिरा हा पहले पहल वह कुम्भकार प्रारम्भ किया। पास मे जाकर प्रात्मीयता से कहने के घर पहुँचा। नगर-प्रस्थान से विनय सुन्दरी को लगी-"बेटी! तुम कौन हो? कहाँ से पायी हो? वाटिका मे छोड़े जाने तक की मारी घटना उसने सुनाई। तुम्हाग पनि कहाँ है ? यहाँ अकेले कैसे हो?" विनय सुन्दरी ने तत्काल कपाट खोले और बोल उठी___कन्या ने सहजता मे अपना पूरा परिचय दिया। 'मागे क्या हमा?, वेच्या ने अपनी बात को मोड देते हुए कहा-"बहुत जन-समुदाय के साथ मन्त्री श्री ऋषभदेव के मंदिर प्रसन्नता की बात है । तुम तो मेरी भाभी हो । मन्त्री तो मे प्राया। वहां उसने सेठ सागरदत्त के साथ व्यवसाय मेरा भाई है। और वह तो मेरे घर पहुँच गया है। उसने प्रादि से लेकर स्वय के समुद्र में गिरने तक की घटना पर तुम्हें मेरे घर बुलाने के लिए भेजा है। चलो अपने घर।' प्रकाश डाला। सौभाग्य-सुन्दरी ने स्वर से मन्त्री को पहवेश्या के कपट को कन्या नहीं समझ पाई। वह ___चान लिया और दरवाजे खोल दिये । जन-समुदाय चकित उसके घर पहुँच गई । किन्तु वहाँ के वातावरण को देख था। कर उसको सन्देह हुआ। उसने पूछा-'मेरे पतिदेव कहाँ तीसरी कन्या किस घटना पर बोलेगी, यह भी प्रश्न "यहा प्रतिदिन बहुत पति पायेंगे। तुम निश्चित रह-रहकर सभी के मस्तिष्क मे उभर रहा था। सहस्रों रहो और जीवन का प्रानन्द लुटो।" वेश्या ने व्यग्य व्यक्तियों के साथ मन्त्री वेश्या के घर पहुँचा। वहाँ भी कसते हुए कहा। उसने अपने इतिवत का पूरा ब्योरा कुशलता से सुनाया। कन्या के पैरो के नीचे स धरती खिसक गई। उसने । तीसरी कन्या ने भी मन्त्री को पहचान लिया और कपाट अपनी सुरक्षा के लिए एक कमरे मे प्रविष्ट होकर कपाट खोल दिये । तीनो पत्नियों को पाकर मन्त्री अतिशय प्रमु बन्द कर लिया। वेश्या ने उन्हें खोलने का अथक प्रयत्न दित हो रहा था। राजा ने प्राधा राज्य मन्त्री को दिया किया, किन्तु वे खुल न पाये । तथा राजकुमारी का विवाह भी उसके साथ कर दिया। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और नीति डा. बालकृष्ण अकिंचन एम. ए. पो-एच. डी. धार्मिक विश्व में जैन ग्रन्थों और उन जैन ग्रन्थों में "गाहा मत्तमई (गाथा सप्तशती)" जैसा कि ग्रन्थ प्राकृत भाषा का महत्त्व असंदिग्ध है। भारत के प्राचीन के नाम से ही स्पष्ट है। लगभग सात सौ गापामों का भाषा-परिवार में भी प्राकृत का अपना स्थान है। इसके संग्रह है। ये गाथाएं किसी एक कवि की न होकर, केसव, महत्व से न केवल भारतीय अपितु विटरनिट्स तथा पिर्शल गुणाढ्य, मकरन्द, कुमारिल, अवन्तिवम्म, भोज और जैसे विदेशी विद्वान भी प्राकषित हुए हैं। गाथा सप्तशती मल्नमेण प्रादि प्राकृत काव्य के सर्वश्रेष्ठ एवं सफल कवियों तथा वज्जालग्ग जैसे ग्रन्थ विश्व-काव्य माने जाते है। की रचनाएं हैं। कहते है कि प्रारम्भ में इसका नाम सागरदत्त और वेश्या का उदन्त जब राजा को ज्ञात । । जब राजा को जात ‘ग हा कोस' था, इस सग्रह के संकलनकर्ता प्रांध्र प्रदेशीय हुमा, तो वह बहुत क्रुद्ध हुमा । उसने सागरदत्त से सारा सातवाहन राजा हाल थे। वे स्वय भी कवि थे और धन मन्त्री को दिलाया और उसे दण्डित किया। वेश्या को उन्होंने अपनी कुछ गाथाएं इस संग्रह में दी भी है । कहते भी देश से निर्वासित कर दिया गया। है कि उन्होंने 'एक करोड़ प्राकृत पद्यों में से केवल ७०० चारों पत्नियों के साथ मन्त्री मानन्दपूर्वक रह रहा पद्या को चुन कर रख पद्यों को चुन कर रखा था।' ये पर अपनी काव्यमयता था। एक दिन पिछली रात्रि में वह जाग रहा था। सहसा में बेजोड हैं। यदि समूचा प्राकृत काव्य नष्ट हो जाय उसके मध्यवसाय उभरा-पापबुद्धि राजा को शिक्षा देनी और हाल की सतसई बची रहे तो भी प्राकृत भाषा के " चाहिए। तत्काल निर्णय लिया और सदल-बल अपने नगर काव्य सौष्ठव, सम्पन्नता एवं सम्मान पर, कोई अघि को पोर चला। पापबुद्धि राजा असावधान था। बड़ी नहीं पा सकती। जिस प्रकार उपनिषदों के दार्शनिक सना को देखकर उसका साहस टूट गया। नगर-द्वार बंद ज्ञान, अभिज्ञान शाकुन्तल के, काव्योत्कर्ष, हिमालय की कर वह बठ गया। मन्त्री ने दूत को भेज कर कहल. उत्तुंगता, गगा की पावनता तथा ताजमहल की कलात्मवाया-"सोने का समय नहीं है। युद्ध के लिए सन्नद्ध कता पर संसार के सभी विद्वान एकमत है, उमी प्रकार होकर पात्रो। यदि ऐसा साहस न हो, तो मुंह में तृण गाथा सप्तशती के काव्य वैभव की महत्ता पर पौर्वात्य लेकर मेरे सामने प्रायो।' एवं पाश्चात्य सभी विपश्चितों में मतैक्य है। स. जगदीशचन्द्र जैन ने इसे 'पारलौकिकता की पापबद्धि राजा के स्वाभिमान पर ठेस लगी। उसने चिन्ता से मुक्त, संसार के साहित्य की बेजोड़ एवं अनज्यों-त्यों साहस को बटोरा और रण भूमि मे भाया। मत्री ने अपना पौरस दिखलाया और राजा को बांध मोल रचना कहा है'। ५० भगवत् शरण उपाध्याय ने लिया । मन्त्री ने राजा से कहा-"पहचानों, मैं कौन हूँ। इसे 'संसार के जन-साहित्य में प्रणय-संवाद की प्राचीनक्या धर्म का प्रत्यक्ष फल दिखाने के लिए और भी किसी तम और अनुपम' कृति बताया है। वैसे तो यह शृंगार प्रमाण की अपेक्षा है ?" रस की कृति है। किन्तु जीवन के प्रवृत्ति मार्ग में प्रानन्द अनुभव करने वाले ऊंचे कवियों की वाणी से मानव__ राजा अपने ही मन्त्री को समृद्धि-सम्पन्न देखकर व्यवहार-सम्बन्धी सरस उक्तियां न निकलें यह असम्भव बहुत प्रभावित हुआ। उसने अपने दुराग्रह को छोड़ा पोर है। यही कारण है कि गाथा सप्तशती में नीति काम्य भी धर्म के प्रति श्रद्धाशील हुअा। राजा और मंत्री को मात्मी. - यता से नागरिक भी धर्म प्रवण हुए। १.बाकृत साहित्य का इतिहास, पृ.५६६ । (जैन भारती से साभार) २. विश्व साहित्य की रूपरेखा, पृ०५०७ । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४, वर्ष २५, कि.३ अनेकान्त मा सहज ही प्राप्त हो जाता है । 'नर्मदेश्वर चतुर्वेदी का हैं, सरलता की दृष्टि से गाथा सप्तशती की अपेक्षा कथन है-"विषय वस्तु की दृष्टि से 'गाथा सप्तशती' वज्जालग्ग की उपयोगिता अधिक जान पडती है । प्रत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है । इस ग्रन्थ में कृषिजीवी भार- श्वेताम्बर जैन मुनि जयवल्लभ द्वाग सकलित तीय जीवन का चित्र अंकित है। इस मे मानवीय प्रवृत्तियों 'वज्जालग्ग' संग्रह प्राकृत नीति-काव्य की दृष्टि से सर्वाएवं चरित्रो का निदर्शन है। यह एक प्रकार से तत्कालीन धिक उपयोगी है। इस सग्रह मे धर्म, अर्थ तथा काम रीति-नीति तथा प्राचार-विचार का कोश ग्रन्थ है, जहाँ सम्बन्धी तीन प्रसंगों पर काव्य संकलन हुमा है। विभिन्न अधिकतर जन-साधारण का ही जीवन मुखर है' । विषय प्रतियो मे पार्यायो की संख्या भिन्न होते हुए भी यह को अधिक न बढ़ाते हुए हम नीतिसम्बन्धी कुछ गाथाए प्रधानतः एक सप्तशती हो है । मानव जीवन की सफलता प्रस्तुत करने हैं : का क्रियात्मक रहस्य खोलने वाला यह नीति-निदर्शन उत्तर धारिणी पिनसणा प्रसरणी पउत्थ पइन । देखिए :प्रसई सज्जिमा दुग्गा प्रण खण्डि सीलम् ॥१॥३६ प्रप्पहियं कायध्वं जइ सक्क परिहिय च कायग्वं । अर्थात् चौराहे पर जिसका घर हो, रि भी स्त्री अप्पहिय परहियाणं अपहिय चेव कायव्वं ।। प्रिय दर्शना हो, जो स्त्री स्वय तरुणी हो, फिर भी जिसका अर्थात् पहले अपना हित करना चाहिए, सम्भव हो पति प्रवासी हो; एवं सती कामिनी स्वयं कामिनी पड़ो. तो दूसरे का। अपने और दूसरे के हित में अपना हित सिन होकर भी जो दरिद्रा हो, इस प्रकार की नारियों ही मुख्य है। समथं पुरुष यदि अवसर निकल जाने पर का चरित्र खंडित होता ही है। दान दें तो क्या लाभ-वारिद के सम्बन्ध में एक अन्योक्ति प्रहसणेण महिला अणस्स प्रहवसंण णीअस्स । उपस्थित है-यह गाथा दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ मुक्खस्स पिसुणपण जम्पिएण एमेन वि खलस्स ।।१।८२ की है जिनका समय प्रथम शताब्दी माना जाता है गाथा अर्थात् महिलाओं का प्रेम बिना देखे, नीचों का प्रेम का भाव महत्त्वपूर्ण हैअधिक देखे जाने पर, मुखों का प्रेम दुष्टों के वाक्य से वरिसिहिसि तुम जलहर ! भरिहिसि भुवणन्तराद नीसेसं । एवं खल का प्रेम प्रकारण ही दूर हो जाता है । तहासुसियसरीरे मयभिम वप्पी हयकुडुबे । पउरजवाणी गामो महमासो जो अणं पइठेरो। अर्थात् हे जलघर ! तुम बरसोगे और समस्त भुवअण्णसुरा साहीणा प्रसई मा होउ कि मरउ ।।२।६७ नांतकों को जल से भर दोगे, लेकिन कब ? जबकि चातक अर्थात् गाव मे अनेक युवक रहते है, मास भी मधु. का कूटब तृष्णा से शोषित होकर परलोक पहुँच जायेगा। मास है, नायिका पूर्ण युवती है, किन्तु उसका पति स्थविर व्यग्यार्थ है कि दानियों को दोनों की सहायता समय रहते है, सुरा भी पुरानी है, जिसको इतनी स्वाधीनता है, वह ही करनी चाहिए। गृहणी-परिवार मे किस प्रकार प्राच. युवती असती नही होगी तो क्या मरेगी। रण करे कि वह लक्ष्मी कहला सके :हसिनं अदिठिवन्तं भमि प्रमणि कन्त देहली वेसम् । भुजह भुंजियसेसं सुप्पइ सुप्पम्मि परियणं सयले । विट्ठमणक्खित्त मुंह एसो मग्गो कुलवहूणं । ६।२५ पढमं चेय विबुज्झइ घरस्स लच्छी न मा धरिणी।। अर्थात् कुल वधुप्रो की यह रीति है कि उन्हे बिना अर्थात् जो परिवार के जनों से बाकी बचा भोजन दांत दिखाये हंसना चाहिए, देहली के आगे बढ़े विना करती है, सब परिजनो के सो जाने पर स्वय सोतो है, घूमना चाहिए एव मुंह ऊपर उठाये बिना देखना चाहिए। सबसे पहले उठती है, वह गृहणी नही लक्ष्मी है। मांगना इसी प्रकार के अनेक कथन सरलता पूर्वक देखे जा सकते मरण के समान है, इसलिए सज्जन कष्ट भोगना उचित १. हिन्दी गाथा सप्तशती' नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, चौखम्भा १: तुलनीय-तषित वारि विनु जो तन त्यागा। विद्या-भवन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, वि० सं० मुमा करिय का सुधा तड़ागा ॥ २०१७, पृ० २२। --रा० च० मानस (भयो. काण्ड) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और नीति ११५ समझता है, पर मांगता नही : करते है । नीतिवान को यह भी जानना प्रावश्यक हैमीण विहयो वि सुयणो, सेवइ रण न पत्थर अन्न । 'जो स्त्रियां विलास भावना से विदग्ध होती है, वे मकमरणं वि प्राइमहग्घ, न, विक्कणइ माण माणिवकं ।। स्मात् पाये प्रिय को देख कर च चल तो नही हो उठती है । अर्थात सज्जन क्षीण विभव हो जाने पर वन को हों उस समय वे कभी अपने केशों का स्पर्श करती हैं, तो स्थान कर देगा. पर मांगेगा नही। मरने पर भी वह कभी कड़ों को ऊपर-नीचे करती हैं तथा कभी वस्त्रों को मान रूपिणी बहमल्य मणि को बेचना पसन्द नहीं करता। ठीक-ठाक करती हई सखी से झठमठ का वातालाप धनवानों के कजस, शोषक तथा स्वार्थी स्वभाव पर करने लगती है और ये सब उनकी व्यग्रता पूर्ण उत्सूकता कितना जबरदस्त व्यग्य इस प्रार्या मे है : के ही प्रतीक है' । नवोढायो मे तो ये चिह्न भी स्पष्ट नहीं जम्म विणे थणनिवडण भएण दिज्जन्ति धाइउच्छड़गे। होते । उनको प्रेम क्रीडापो के लिए बड़ी कोमलता से तैयार पहणो जनीयरया मन्ने तं खीरमाहप्पं ॥ करना चाहिए। प्रथम समागम के समय-"नवौढ़ा स्त्री प्रर्थात स्तनों के निचुड़ जाने के भय से बच्चे का प्रिय द्वारा उपस्थित किये हए मुख का पान नहीं करती, उसके जन्मदिन पर ही धाय के सुपूर्द कर दिया जाता है। प्रिय द्वारा याचित किये हुए प्रघर को नहीं झुकाती, प्रिय यदि पैसे वाले नीचगामी हों तो, मैं इसे दूध का हा द्वारा जबरदस्तीमाकृत प्रघरो को छुडाना चाहती है । इस मादाय मानता है। व्यग्यार्थ है कि कमीनापन धनवाना प्रकार प्रथम समागम मे युवतियां बड़ी कठिनता से रति को विरासत में मिलता है। स्वार्थ उनकी फितरत में सम्पन्न कराती है।" समागम अवसरो पर मदिरापान शामिल रहता है। करके पुरुष प्रपनी कोमल चित्ता प्रेमिकाग्रो के कोपभाजन मक्तक ही नही, महाकाव्य भी अपनी महानतम सज- बनते हैं । अतः मदिग की बडी तीव्र अवमानना है । कुछ घज के साथ प्राकृत मे विद्यमान है। इन महाकाव्यों मे कवियों ने मदिरा के नशे से भी अधिक विनाशक मद, सेत बन्ध, गउडवहो और लीलावई आदि प्रमुख है। धन को माना है। इस सम्बन्ध मे वाक्पति के कथन ये महाकाव्य विदग्घता में अपना सानी नहीं रखते। बहुत अनठे हैं। इनमे तत्कालीन जन-जीवन और रीति-नीति का जैसा वापति राज का लगभग ७५० ई० मे रचित वर्णन हुआ है वैसा इतिहास-ग्रथो मे भी नही है। इस (सम्भवतः अपूर्ण) काव्य 'गउडवहो' (गोडवघ) महाराष्ट्री दष्टि से 'सेतुबंध' बहुत उपयोगी है। बानर वाहिनी के प्राकृत की सुप्रसिद्ध रचना है। यह प्रबन्ध काव्य १२०९ प्रस्थान से लेकर रावण-वध के अन्त तक होने वाली कथा- गाथाम्रो मे प्राप्त है। इसमे कवि ने अपने प्राश्रयदाता वस्तु में बिखरे नीति-कथन बहुत ही उपयोगी है। सत्पुस्पो कन्नौज के महाराज यशोवर्मा की प्रशस्ति की है। नीति की विरक्तता पर एक कथन इस प्रकार है। "बिना कुछ सम्बन्धी गाथाएं भी प्रसग वशात् पाई है-लक्ष्मी पौर कहे हो कार्य (दूसरों का) सम्पन्न कर डालने वाले सत्पु- मदिरा के नश का यह विरोधाभास कितना सुन्दर वन रुव विरले ही होते है। बिना पुष्पों के ही फल प्रदान पडा है : पेच्छह विवरीयमिम बहया, महरा मएइण : पोवा। करने वाले वृक्ष उगते ही कितने हैं। अर्थात् थोड़े ही है। समर्थ एवं सक्षम व्यक्तियों का लक्षण देते हुए कहा लच्छो उण थोवा जह, मएइ ण तहा इर बह्मा। अर्थात् देखो कितनी विपरीत बात है। बहुत मदिरा गया है-सामर्थवान सत्पुरुष संशय की समुपस्थिति मे पान करने से नशा चढता है, थोड़ी पीने से नहीं। परन्तु धैर्य तथा संग्राम के समय मे वीरता अपनाते हैं । सुख, थोडी लक्ष्मी मनुष्य को जितना मत्त बना देती है, उतना दुख दोनों की स्थिति में वे अग सम्मान से रहते है और अधिक लक्ष्मी नही। यह एक अनुभव सिद्ध तथ्य है और जब सकट का समय होता है तब विचार पूर्वक कार्य २. वही १०७०। १. सेतु बंध ३।२० । ३. वही १०७८ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११, वर्ष २५, कि.. भनेकान्त कवियों ने परिस्थितियों का ताना-बाना बुनकर इनको करते। भोर भी सटीक बना दिया है। कथा के प्रवाह के मध्य से प्राकृत भाषा मे श्रव्य काव्यों के दृश्य काव्य भी नीति कथन मे प्रकृत कवि बहुत ही कुशल है। प्राकृत में हैं । सस्कृत के दृश्य काव्यों में भी प्राकृत भाषा देव मोर मानव लोक के पात्रों से सवलित 'लीलावई' का प्रचुर प्रयोग हुमा है। वहाँ साधारण विदूषक तथा दिव्य मानुषी प्रबन्ध काव्य, 'कोहल' नामक ब्राह्मण की भत्यादि के द्वारा प्राकृत ही बुलवाने का प्रादेश है' । इन रचना है। इसमे सिंहल देश की राजकुमारी लीलावती स्थानों पर भी प्रसंगवश नीति कथन प्राप्त होते हैं । उदा. और प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन की प्रेम कथा का, हरण-मच्छकटिक मे धन को हरने वाली कुलनाशिनी प्रायः मनुष्टुभ् छन्दों में वर्णन किया गया है। प्रसगवश वश्याओं तथा मुद्राराक्षस मे मोहादि के प्रसंग थे। नीति परक कथन भी आ गये हैं-यथा भाग्यानुसार ही प्रकारान्तर से नैतिक प्रशिक्षण की योजना की गई है। सुख-दुख मिलता है, इस सम्बन्ध में एक उक्ति इस पाखड पर मच्छकटिक के भिक्षु की करारी चोट प्रकार है : देखिए :तह विमा तम्म तुम मा सुरस मा विमुच प्रत्ताणं । "सिर और गाल तो मुंडित कर लिए हैं, परन्तु को देह हरहको वा सुहासुहं जस्स जं विहियं ।। ५७३ इससे होता क्या है। मुंडवाने की वस्तु तो मन है । अर्थात् (मनुष्य को) किसी भी अवस्था में दुखी नही जिसके मन मुंड गया, उसे सिर तथा गाल तो अपने प्राप होना चाहिए, मापने धंयं का परित्याग नही करना चाहिए, हो मुड समझो। क्योंकि जितना सुख-दुख विहित है, उससे अधिक न कोई काव्य के अतिरिक्त व्याकरण, ज्योतिष, रसायन दे सकता है, न छीन सकता है। कवि ने निष्कर्ष निकाला शास्त्र, छन्द शास्त्र, राजनीति तथा अर्थ शास्त्रादि अन्य है कि शक्तिभर प्रयत्न करना मनुष्य का काम है, शेष विद्याए भा प्राकृत में है। इनमे भी प्रसग उपस्थित होने देवाधीन है। इसलिए बहुत दुखी नही होना चाहिए। पर व्यवहार भोर नीति सम्बन्धी कथन प्राये है। उदा. क्योकि ये दुख भी जीवन के अनिवार्य प्रग हैं। कवि ने हरणार्थ-'प्रस्थसत्य' (अर्थ शास्त्र) की गाथा उपस्थित कन्या का उदाहरण दिया है। उनका कथन है कि, 'इस की जा सकती है :संसार मे लोगो को अपनी कन्या जैसी और कोई वस्तु विसेसेणमायाए सत्येण य हंतव्यो। मन को कष्टदायी नही होती। कन्या के लिए मनचाहा मप्पणो विवड्डमाणो सत्तत्ति ।। वर तीन लोक में भी मिलना दुर्लभ है।' कोहल के अर्थात् प्रपने बढ़ते हुए शत्रु का विशेष माया से या समान ही अन्य प्राकृत कवियों ने कन्या-सम्बन्धित मार्मिक शस्त्र से (जसे भी बने) संहार करना चाहिए । शास्त्रों उल्लेख किये हैं। हेमचन्द्र ने तो उन्हें दुष्ट पितामों से में इस प्रकार के कथन खोजने पर मिल जाते है। किन्त भी सावधान रहने का सकेत किया है। हेमचन्द्र अपने इनका प्राचुर्य काव्यों में ही है भोर विशेषतः ऐसे काव्यों समय के स्वनामधन्य भाचार्य कवि, वैयाकरण, विद्वान मे जिनका प्राधार धर्म है, धर्म में प्रमुख श्रेय जैन कृत सभी कुछ एक साथ थे। उन्होंने कई चरित काव्यों का धर्मानुयायी कवियों को है। उदाहरण के लिए हम विमल प्रणयन किया था। इनके काव्यों मे नीति कथन पर्याप्त सूरि कृत पउमचरिउ प्राकृत (रामायण) को ले सकते मात्रा में विद्यमान है। उक्त प्रसंग के संदर्भ में 'कुमार हैं। महर्षि वाल्मीकि के कुछ असंगत प्रसंग योजनायों से पाल चरित' का एक कथन उद्धरणीय है : क्षब्ध हो सूरि ने यह रचना महावीर निर्वाण के ५३० वर्ष जीणन्ति मित्त मज्ज रम्मन्ति सुग्रं बहुं पदमन्ति। पश्चात्-६० ई० के लगभग महाराष्ट्री प्राकृत के प्रार्या णीलुक्कान्त च गुरु गहिणी पि काम-वक्ष-परि लिया। wिणी पिकाम-व-परिपलिया। छन्द मे की थी। मानवीय जीवन मल्यों की स्थापना अर्थात् कामांध, मित्र-वधू, स्वपुषी (यहाँ तक कि) १. कु. पा. चरित (सं० १९३६, बम्बई) सप्तम सगं Tपहिणी से मी रमण करने में सकोच अनुभव नहीं २. भरत मुनि नाट्य शास्त्र, ११,३१,४३ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और नीति दृष्टि से इस ग्रंथ की जितनी भी प्रशंसा की जाय थोडी अच्छा है, कुरूप होना अच्छा है, निर्गुण रहना श्रेयस्कर है । जैन मुनियों को दूर तक यह श्रेय प्राप्त है। गुणपाल है, लूला-लगडा हो जाये तो भी कोई बात नहीं, मिक्षा मुनि के प्रसिद्ध 'जबु चरियं (जंबू चरित)' से एक उदा- मांग कर खाना उत्तम है, लेकिन कभी अपने पति को हरण प्रस्तुत है : मपत्नियो के साथ-साथ देखना अच्छा नहीं।" इस दुःख जंकल्ले काव्यं यज्ज चियत करेह तुरमाण । से नारी का उद्धार करने वाला अर्थात् गृहस्थियों को पर बहुविग्यो या महत्तो मा प्रवरण्हं पडिक्खेह । नारी ससर्ग के पाप को समझाने वाला व्यक्ति निश्चित अर्थात जो कल करना है उसे प्राज ही जल्दी से कर ही लोकोपकारी है । गुप्त चन्द्रमणि की रचना 'महावीर डालो। प्रत्येक महत्तं बहुविघ्नकारी हैं, अतएव अपहरान्ह चारत। न चरित' में ऐसे लोकोपकारियों को मित्र की सज्ञा दी की प्रतीक्षा मत करो। साधनेश्वर की 'सुरसुन्दरी चरिय' गई है :में अनेक नीति परक गाथाएं है। राजरोष से कौन बच भवगिह मज्झम्मिचमाय, जलणजलियम्मि मोह निछाए। सकता है। एक सुन्दर उदाहरण देकर यह तथ्य इस जो जग्गवह स मित्तं, वारंतो सो पृण प्रमित्त ।। प्रकार कहा गया है : अर्थात् ससार रूपी घर के प्रमाद रूपी अग्नि से जलने पर मोह रूपी निद्रा मे सोते हुए पुरुष को जो जगाता है, काराय विरुवं नासतो कत्थ छुट्टसे पाव । वह मित्र है और जो उसे जगाने से रोकता है वह पमित्र सूयार साल वडियो ससउव्व विणस्ससे इण्डिं ॥ है। इस प्रकार के असंख्य मार्मिक कथन भारतीय नीति अर्थात हे पापी! राजा के विरुद्ध कार्य करने से काव्य को, प्राकृत कवियों ने प्रदान किये हैं। इसमे भी भाग कर तू कहाँ जायेगा? रसोइये की पाकशाला मे प्राकृत के जैन कवियों का योगदान तो अत्यधिक सराहप्राया हुमा खरगोश भला कहीं वचकर घर जा सकता नीय है। कुछ कवि ऐसे भी हैं जिन्होने अपने नीति पूर्ण है ? नारी हृदय की एक टोस, एक खीज की सजीव ग्रंथों में प्राकृत के साथ अन्य भाषाम्रो का भी प्रयोग प्रतिध्वनि, प्राचार्य प्रवर नेमिनाथ के 'रयणचूडरायचरिय' किया है । जगच्चन्द्र सूरि के शिष्य देवेन्द्र सूरि (मृत्यु सं० (रत्नचुडराज चरित) में से दो सखियों के वार्तालाप मे १८७० ई०) के 'सुदसणाचरिउ' (सुदर्शन चरित) प्राकृत सुनिए : पद्य, जिसमे यत्र-तत्र सस्कृत तथा अपभ्रश का भी प्रयोग "मर जाना अच्छा है, गर्भ में नष्ट हो जाना श्रेय- हुआ है, नीति वचनों से पूर्ण ऐसा ही ग्रन्थ है : इस स्कर है, बछियों द्वारा घायल हो जाना उत्तम है, प्रज्व- प्रकार के मिश्रित एवं विशुद्ध प्राकृत प्रथों का न जाने लित दावानल मे फेक दिया जाना ठीक है, हाथी से कितना भण्डार काल के कराल गाल मे चला गया। जो भक्षण किया जाना श्रेयस्कर है, दोनों आँखों का फूट शेष है उनका भी न जाने कितना भाग जैन मन्दिरों तथा जाना उत्तम है, निर्धनता श्रेयस्कर है, प्रनाथ रहना अन्य स्थानों पर प्रकाशित पड़ा है। अनेकान्त के ग्राहक बनें अनेकान्त' पूराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित. व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रुत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करे। इतनी महगाई में भी उसके मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई, मूल्य वही ६) रुपया है। -व्यस्थापक 'भनेकास्तका Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य रूप से जैनधर्म क्या है ? लाला महेन्द्र सेन जैन कुछ ऐसे पाधारभूत (fundamental) सिद्धांत हैं जो इसी जगह का नाम "माकाश द्रव्य है। न धर्मको समय बमों से भिन्नता अथवा विशिष्ठता (च) काल-तव्य: या जिसको अंग्रेजी मे time दर्शाते हैं : कहते हैं । यह भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान R) एक वाक्य में : प्रात्मा का शुस होना ही कराता है । और वह हरेक द्रव्य के परिणमन में उदासीन परमात्मपद है पौर प्रात्मा को शुद्ध कराने के विज्ञान रूप से सहायक है। का ही नाम “जैन धर्म ,, है। (ग) धर्म-द्रव्य (Ether): यह वह चीज है जो 12) अन्य धर्म बहुधा एक परमात्मा को सृष्टा वस्तुओं को चलने में उदासीन रूप से (indirectly) मानते हैं । जैन धर्म हर प्रात्मा को परमात्मपद का सहायक होता है। यानी कोई वस्तु चलना चाहे तो इसकी अधिकारी मानता है। जैनधर्म का मत है कि सष्टि को सहायता से चल सकती है। परन्तु यदि कोई वस्त चलना न किसी ने बनाया था, न इसका कभी पन्त होगा। न चाहे तो उसे यह जबरदस्ती चला नहीं सकती। जैसे पह सदा से थी और सदा रहेगी। पानी मछली के चलने में सहायक है परन्तु मछली चलना अब ऊपर जो न० (१) में बात कही गई है उसका न चाहे तो वह उसको जबरदस्ती नही चला सकता। माधार समझ लेना जरूरी है। (घ) अधर्म-द्रव्य (Anti-Ether): यह धर्म-द्रव्य यह समस्त संसार छ: मूल द्रव्यों से भरा हुआ है। का उल्टा ह। मथात् अधम द्रव्य वस्तुओं को रुकने मे उदासीन रूप से (indirectly) सहायक होता है। इन छहों द्रव्यों का अपमा-अपना अलग अस्तित्व है और (ख) प्रजोव-द्रव्य : इसको जड़, अचेतन, पुद्गल, ये कभी, किसी भी अवस्था मे, एक दूसरे से मिलकर एक इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है । इसके असंख्य नहीं हो सकते । यद्यपि एक ही स्थान पर, एक ही समय परमाणु हैं । इसमें जान (soul) या चैतन्य (feeling) मे विभिन्न द्रव्य मिली-जुली अवस्था में पाए जाते हैं, नहीं होती। इस द्रव्य में वर्ण (colour), स्पर्श (shape फिर भी उनका अपना-अपना अस्तित्व (existence) or form which can be felt by touch) रस कभी भी मिट कर दूसरे द्रव्यरूप नही हो सकता (taste) भोर गन्ध (smell) गुण होते हैं। परन्तु यह यदि ऐसा हो जाता तो कोई ऐसा भी समय पा सकता जीव द्रव्य के संयोग (combination) से जामदार था कि छ: में से किसी द्रव्य का सर्वथा प्रभाव हो जाता। मालूम पड़ने लगता है। जैसे हमारा शरीर तो जड़ परन्तु ऐसा कभी नहीं हुमा पोर न होगा, इसका इतिहास (पुदगल) है परन्तु हमारी प्रात्मा के संयोग से चलताव विज्ञान साक्षी है। ये द्रव्य इस प्रकार है: फिरता तथा अन्य क्रियायें करने के योग्य बना हुआ है। प्रकाश-द्रव्य : या जिसको अंग्रेजी में space यदि इससे पात्मा मलग कर दी जाए तो इसका असली कहते है-इसमें प्रवगाहन (accommodation) शक्ति रूप सामने प्रा जाएगा। होती है। यही इसका गुण है पोर इसके सिवा या इसके (क) जीव द्रव्य : या जिसको मात्मा कहते हैं। विपरीत यह प्रौर कोई कार्य नहीं करता । संसार की हर यह द्रव्य अनन्त है । इनका गुण है जानना प्रोर देखना। किसी ...जगह... में है। अगह न हों तो वस्तु भी जिसको पास्त्रीय भाषा में कहते हैं ज्ञान और दर्शन। मही हो सकती।मस्तु की होने के लिए जमा नरूरी है। पल्तु इनमें अनादि काल से जीव 'द्रव्य का खोट' मिला Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य रूप से जैनधर्म क्या है ११९ हुपा है जिसके कारण इसके ये गुण बुरी तरह से दबे हुए अपने असली स्वरूप का श्रद्धान होने में देर न लगी यद्यपि है। जैसे खान से निकले सोने में खोट अनादि काल से सिंह के जैसा प्राचरण करने मे उसे समय अवश्य लगा मिला हुमा होता है और उसकी चमक-दमक और सौन्दर्य होगा। इसी प्रकार सच्चे देव-शास्त्र गुरू के द्वारा जब को ढके या कम किए रखता है । साफ तपाया हुमा हम अपने असली स्वरूप का सम्पूर्ण ज्ञान-श्रद्धान कर सोना, जिसमें से खोट सर्वथा निकाल दिया जाता है, लेगे और यह समझ लेंगे कि ज्ञान-दर्शन मात्र कार्य करने अपने स्वाभाविक रूप-गुण को प्राप्त कर लेता है। उसी वाला जो यह जीव है वह तो मैं हूँ शेष समस्त भाव, प्रकार यदि इस प्रात्मा मे से खोट या मिलावट या विकार वे चाहे जो भी हों, विकारी है तथा मेरे अपने नहीं हैं, सर्वथा दूर हो जाए तो इसके जो स्वाभाविक गुण है मोर त्याज्य है। तभी हम अपनी प्रात्मा के कल्याण के वे पूर्ण विकसित हो जाएंगे और यह मात्र अनन्त ज्ञान, मार्ग पर लग सकेंगे। इसी दृढ़ सच्ची श्रद्धा को शास्त्रीय अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य (शक्ति) का भाषा मे सम्यक् दर्शन कहा गया है। प्रखण्ड पिण्ड भर रह जाएगा। ऐसी ही प्रात्मा को परन्तु, जन्म-जन्मान्तर से संचित इन विकारों को सिद्ध परमात्मा कहते हैं और जो इस अवस्था को प्राप्त दूर करने में बहुत समय व पुरुषार्थ लगेगा। शुद्ध अवस्था करने का रास्ता है, वही जैन धर्म है। सिद्ध परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अपनी आत्मा मे ही निर्विकल्प पुन: विकृत अवस्था (संसार) को प्राप्त नहीं होता। ठहर जाना बहुत ही दुर्लभ है। अतः प्रश्न उठता है कि अनादिकाल से यह जीव राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, जब तक वह अवस्था प्राप्त नहीं होती तब तक क्या करें? लोभ प्रादि विकारों से जकड़ा सर्वथा अशुद्ध बना हुमा तो ऐसे ही जीवों के लिए शुभ व अशुभ भावों का है और उसी पुदगल के साथ संयोगी अवस्था को अपनी विवेचन किया गया है। जो भाव या कार्य कषायों को वास्तविक अवस्था मान बैठा है। ठीक उस सिंह के मन्द करे, वीतरागता की पुष्टि करें भोर जीव को बच्चे की भांति जो संयोग से जन्म से ही भेड़ियों के शुद्धता की ओर बढ़ावा दें वे शुभ भाव हैं भोर जब तक बच्चो के बीच पला और अपने पापको उन्ही के अनुरूप शुद्धता प्राप्त नहीं होती, ग्राह्य हैं जैसे दान पूजा मादि मान कर वैसा ही पाचरण करता रहा। उसको अपने और जो भाव या कार्य गग-द्वेष-कषाय के पोषक हों पौर मसली स्वरूप का बोध ही नही था तो फिर वर्तमान उन विकारों को बढावा दें वे प्रशुभ भाव हैं और सर्वथा अवस्या से निकलने का प्रयास कसे करता? भगवान त्याज्य हैं जैसे सप्त व्यसन प्रादि । जिनेन्द्र देव अपनी वीतरागी मुद्रा से सच्चे गुरुत्रों और हमे चाहिए कि हम परम उद्देश्य-शुद्ध परमात्मपद सच्चे शास्त्र के द्वारा हमें यह बोध करा रहे है कि तेरा की प्राप्ति को दष्टि मे रख कर उसके प्राप्त न होने तक असली स्वरूप तो यह है-अनन्त सुख, अनन्त वीर्य बीतरागत्व की प्रागधना करते हुए शुभ भावों को (शक्ति) अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से युक्त शुद्ध अपनाएं और विकारी प्रशभ भावों से बचें। इससे हम परम चैतन्य मात्र। न सिर्फ अच्छे नागरिक ही बनेगे बल्कि अन्ततोगत्वा सिंह के बच्चे को जब उसकी शक्ल पानी में दिखाई विषय-कषायों पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्रर्थात् सच्चे गई मौर उसने उसका मिलान सिंह से किया तो उसे सुख की प्राप्ति के मार्ग मे लग सकेगे। HTTENSES Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनार मन्दिर ले. टी. एस. श्रीपाल अनुवादक : पं० बलभद्र जैन मइलापुर (मद्रास) में त्रिवल्लुवर मन्दिर को सभी पाषाण मूर्तियां और शिलालेख बहुसंख्या में भूगर्भ से जानते हैं । यद्यपि यह मन्दिर आजकल त्रिवल्लुवर मंदिर प्राप्त हुए हैं जिनसे पता चलता है कि यह स्थान विद्वान कहलाता है, किन्तु बीस वर्ष पूर्व तक यह तैनार मन्दिर जनों का केन्द्र था। इस स्थान पर नल्लुल के भाषाकार के रूप में प्रसिद्ध था। नैनार शब्द का अर्थ जिन । मिलयनाथर अविरोधनाथर गुणवीर पडित रहते थे। सिलप्पादिकरम् में इलंगोवाडिगल मधुराइ कण्डं शीर्षक इसलिए यह कोई पाश्चर्यजनक बात नहीं है कि प्राचीन प्रध्याय का प्रारम्भ भी महत्प्रार्थना से करता है। मंग- मइलापुर के जैन मन्दिर मे थिरुक्कुरल के कर्ता का मंदिर लाचरण की टोका में अडयरप्पुनल्लार कहता है कि बन पाया था, उसमें थीवर के चरण चिह्न स्थापित किये अर्हत्मन्दिर का अर्थ नैनार मन्दिर है। प्राजकल भी यह थे और वे लोग उनकी पूजा करते थे। देखा जा सकता है कि कलुगु मलाई मे जैन मुनियों के जनों ने ही सर्वप्रथम अपने तीर्थङ्करों, प्राचार्यों और सम्बन्ध मे जो शिलालेख लिखे गये है। उमसे यह प्रद- मुनियों के चरण चिन्हों की स्थापना और पूजा की। शित होता है कि वे नयनार थे। येरूवडिकाई मे उप- तीर्थ डुरों के विशेष उल्लेखनीय चरण चिन्ह अब भी लब्ध शिलालेखों मे जैन मन्दिर को नयनार मन्दिर बत- कैलाश, चम्पापुरी, सम्मेद शिखर, पावापुरी और गिरनार लाया है। थिरुप्परित्तिकुन्नम् मन्दिर में शिलालेख है। मे मिलते है। तमिलनाडु मे थिरुकुरल के कर्ता प्राचार्य जिसमें तीर्थङ्करों को नयनार लिखा गया है । मिलाईनथर कुन्दकुन्द के चरण चिन्हे उनकी जन्मभूमि कुन्दकुन्द पर्वत, ने नन्नूल व्याकरण की अपनी टीका में एक जैन विद्वान को पोन्नूर पहाड़ी मे अकलंक थीवर के चरण चिन्ह थिरुप्पप्रविननार लिखा है। कुछ प्राचीन शिलालेखों में जैन रमूल मे बावन मुनि के जिन काञ्ची में और गुणसागर के मुनियों और तीथंकरों को नैनार लिखा गया है। कोलि- चरण चिन्ह विजुक्कम में विद्यमान हैं। भद्रबाहु स्वामी यनूर (विलमुपुरय जेक्शन) मे जैन मन्दिर में एक और चन्द्रगुप्त मौर्य के चरण चिन्ह श्रवणवेलगोला मे पूजे लेख है जिसमे लिखा है 'स्वस्ति श्री नैनार मन्दिर' जाते। जोमानीसरी हातानी में ही पौर कलियनूर के दूसरे मन्दिर में लेख इस प्रकार उत्कीर्ण भारत मे उनकी यात्रा के स्मारिक हैं। इस परम्परा के हैं-"नल्लुर नैनार मन्दिर ।" इस प्रकार पहले जैन अनुसार प्राचीन मइलापुर के जैन थिरुकुरल के कर्ता के तीर्थंकरों को नैनार कहा जाता था। चरण चिन्हों की पूजा करते थे और उन्हें थिरुवल्लुवर इस पृष्ठभूमि मे हम थिरुवल्लुवर मन्दिर अथवा नैनार मोर थिरुवल्लुवर थीवर इन नामों के साथ स्मरण मइलापुर में थिरुकुरल के कर्ता का इतिहास और उसके करते थे। इस पूजा माराधना में प्रजन लोग भी बड़ी उपनाम नैनार मौर थीवर के संबंध में कुछ जानकारी भक्ति पूजा से सम्मिलित होते थे। ये जब पूजा के लिए प्राप्त करने का प्रयत्न करे। थीवर का प्रथं जैन मुनि। जाते थे तब वे इस मन्दिर को बड़े प्रेम से नैनार मन्दिर मइलापुर में पहले नेमिनाथर का मन्दिर था। 'थेरूनुद्रन्- कहते थे। थति' नामक पुस्तक में नेमिनाथर की प्रशंसा में अनेकों एक दशक पहले प्रगर कोई थिरुवल्लुवर मन्दिर के गीतिकाएं हैं। मइलापुर में इस प्रकार की कविताएं, संबंध में पूछता था तो उस गली में मन्दिर के पास पास Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनार मन्दिर १२१ रहने वाले लोग अपनी अज्ञानता जाहिर करते थे। किन्तु चिन्हो के पीछे रख दी और इसके कुछ ही दिन बाद यदि कोई नैनार मन्दिर के बारे में पूछता था तो फौरन वे पादुका चरण चिन्ह गायब हो गए। इस शरारत के विरुद्ध मदिर की तरफ सकेत कर देते थे। वे मन्दिर को नैनार एक आन्दोलन उठ खडा हा जिससे भयभीत होकर मदिर क्यों कहते थे? इसका एक मात्र कारण यह था कि चरण चिन्होक' कुछ खनिन और परिवर्तित करके १७वीं शताब्दी तक मइलापूर के अधिकाश निवासी नैनार मन्दिर के बाहर हाल में रख दिया गया। इस दशा (जैन) थे। मइलापूर उन दिनो में जैनो का केन्द्र था में चरण चि हाल मे कुछ माल तक रक्ख रहे । इसका उल्लेख प्राचीन थिन्त्तीरत्तु (प्रार्थना-गीता का उमके पश्चात वे फिर गायब हो गए, इस बार उन्ह सग्रह) मे संकलित है और वह मइलापुर पटु कहलाता मन्दिर की दीवार में जड़ दिया गया । है । प्राचीन रचनामों से मालूम पड़ता है कि मइलापुर में इन सब घटनाप्रो की कहानी लगभग दो दशक करत थ । तामलनाडु म जना पहले लेखक ने बुजूर्गों से सूनी जो मन्दिर के सामने वाले को अब भी नैनार के नामों से पहिचाना जाता है। मकान में रहते थे। उसने इस बात की चर्चा कुछ विद्वानो जिन जैनों ने दूसरे धर्मों को स्वीकार कर लिया, से की उन्होने इसकी स्वय जांच की और सही पाया। सन् उन्होंने भी नयनार पद को नहीं छोडा । जैसे नल्लीपम के १६४५ में लेखक ने इन चरण चिन्हों का नाम वनग नीरपूशी, वेल्लारस, पनरुति, जिनजी, पारनी, कप्पालर, या एक पम्पलेट मे छपाकर प्रकाशित किया । १९४७ में कलश, पलायम् प्रादि गांवों में नार पद अब तक विरुवल्लुवर की जन्म जयन्ती के अवसर पर इस लेखक प्रचलिन है। दक्षिण भारत के अनेक मुसलमानों में भी ने उस समारोह की अध्यक्षता की पोर इस मन्दिर का नैनार पद का अब भी प्रचलन है। इस बात के पर्याप्त वस्तविका इतिहास जनता को बतलाया और प्रार्थना की प्रमाण है कि जैन धर्म को छोडकर ये लोग मुसलमान कि इसकी प्राचीनता की रक्षा करने की प्राजकल भा। बने हैं । तिन्नेलवेली जिले के कुछ भागों में अब तक अपने प्रावश्यकता है। उसने भारतीय पुरातत्त्व के विद्वानों व । आपको नैनार पिल्लई कहते है । इसके अतिरिक्त तमिल- मन्दिर ले जाकर मन्दिर की दीवाल मे लगे हुए चरण नाडु के बहुत से भागों में इस बात के पर्याप्त प्रमाण चिन्हों को भी दिखलाया। उन्होने एक वृद्ध महिला से मिलते हैं कि इन स्थानों में जैन बहुसख्या में रहते थे। यह प्रश्न भी किया कि तुम मन्दिर के नाम के बारे में इन ठोस प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कुछ जाननी हो क्या ? उम महिला ने बिना किमी हिचकि थिरुवल्लुवर मन्दिर ही नैनार मन्दिर था । विनाट के उत्तर दिया कि यह एक नैनार मन्दिर था। यह जानना प्रत्यन्त रुचिकर होगा कि इस मन्दिर में विद्वानो ने इस उत्तर को सुनकर हर्ष प्रकट करते हुए जिन चरण चिन्हों की पूजा की जानी थी उनका क्या कहा तिरुवल्लुवर के नामपर नकली मूर्ति विराजमान हुपा। स्पष्ट ही ये चरण चिन्ह थिरुकुरल रचयिता के किये जाने के बावजूद भी जनता के दिमाग मे अभी तक थे। प्राचीन मइलापूर के जैन जो थिरकूरल के रचयिता नैनार मन्दिर ही है और पवित्र चरण चिन्हो मे कोई के चरण चिन्हो की पूजा किया करते थे, वे उदासीन हो परिवर्तन नहीं किया गया। गये, उनके मन्दिर की मूर्तियां या तो परिवर्तित कर दी प्रतः हमारा पवित्र कर्तव्य है कि हम प्रागे पायें और गई या दबा दी गई। सौ या एक सौ बीस वर्ष पहले थिरुकुरुल के रचयिता के चरण चिन्हों को उनके मूल थिरुकुरल के रचयिता के नाम पर एक छद्म (नकली) स्थान पर विराजमान करें और इस मन्दिर को जनों के मूर्ति का निर्माण किया गया, यह मूर्ति बनाकर चरण अधिकार में दे । वस्तुतः यह जिनका मन्दिर है। -: .: Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० दौलतराम कासलीवाल परमानन्द जैन शास्त्री हिन्दी साहित्य के जैन विद्वानो मे पं दौलतराम जी चित किया है। प्रध्यात्मिक शैली का प्रचार था। पंडित कासली वाल का नाम उल्लेखनीय है । प्राप १८वी शता. भूधरदास जी अागरा मे शाहगज में रहते थे । और श्राव ब्दी के उत्तरार्द्ध और १६वी शताब्दी के प्रारम्भ के प्रनिभा को चित पट कर्मो में प्रवीण तथा अच्छे विद्वान और कवि सम्पन्न विद्वान थे। संस्कृत भाषा पर प्रापका अच्छा अधि- थे। स्याह (शाह) गज के मदिर मे वही शास्त्र प्रवचन कार था। खास कर जैन पुराण ग्रन्थों के विशिष्ट करते थे । अध्यात्म ग्रंथो की सरस चर्चा मे उन्हें विशेष रस मभ्यासी टीकाकार और कवि थे । आपके पिता का नाम प्राता था। उस समय प्रागरे में साधर्मी भाइयों की एक प्रानंदराम था, और वे जयपुर स्टेट के बसवा' नामक शैली थी। जिसे अध्यात्म शैली के नाम से उल्लेखित ग्राम के रहने वाले थे । इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र किया जाता था। और जो ममक्ष जीवों को तत्त्व चर्चादि कासलीवाल था । अापके मकान के सामने जिन मन्दिर सत्कर्मों में अपना पूरा योग देती थी। यह अध्यात्म शैली था। किन्तु उनकी अभिरुचि उस समय जैनधर्म के प्रति वहाँ विक्रम को १७वी शताब्दी से बराबर चली मा रही प्रायः नही थी। रामचन्द्र मुमुक्षु के अनुसार संस्कृत थी। उसी की वजह से प्रागरावासी लोगों के हृदयों में जैन पूण्याश्रव कथाकोष की टीका प्रशस्ति के अनुसार पडित धर्म का प्रभाव प्रकित हो रहा था। इसी तरह की दौलतराम जी को अपनी प्रारम्भिक अवस्था मै जैन धर्म अध्यात्म शैलिया जयपुर, दिल्ली, खतौली और सहारनपुर का विशेष परिज्ञान न था और न उस समय उनकी प्रादि मे थी, जो जैन सस्कृति का प्रचार करती थी। उस विशेष रुचि ही जैन धर्म के प्रति थी। किन्तु उस समय समय इस शैली में हेमराज, सदानद, अमरपाल, विहारीउनका झुकाव मिथ्यात्व की ओर हो रहा था। इसी लाल, फतेहचद' चतुर्भज और ऋषभदास के नाम खासबीच उनका कारणवश घागरा जाना हुमा। आगरा में --- सरल है । इनकी कविता भाव पूर्ण सरल तथा मनउस समय आध्यात्मिक विद्वान पं० भूधरदास जी की, मोहक है । इन के सिवाय 'कलियुग चरित' नामक जिन्हें पंडित दौलतराम जी ने भूधरमल' नाम से सम्बो ग्रन्थ का और भी पता चला है जो स. १७५७ में १. वसवा जयपुर स्टेट का एक कस्बा है जो प्राज भी आलमगीर (पौर गजेब) के राज्य में लिखा गया उसी नाम से प्रसिद्ध है। यह देहली से अहमदाबाद है । जैसा कि उस पुस्तक के निम्न पद्यों से जाने वाली रेल्वे का स्टेशन है । यहां एक बडा शास्त्र- प्रकट हैभंडार भी है जो देखने योग्य है। संबत सत्तरह सौ मत्तावन जेठ मास उजियाग। २. इनका अधिक प्रचलित नाम पंडित भूधर दास था। तिथि मा वम अरुणाभ प्रथम ही वार जु मगलवारा॥ यह १८वीं शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न कवि थे। इन्होंने संवत् १७८१ में जिनशतक और संवत् कही कथा शुघर सुकवि पालमगीर के राज । १७८६ में पार्श्व पुराण की रचना की है । इन दोनों नगर मुलकपुर पर बसे दया धर्म के काज ।। रचनामों के अतिरिक्त प्राध्यात्मिक पद सग्रह भी पर इस समय ग्रन्थ प्रति सामने न होने से यह इन्ही का बनाया हुमा है, ये सब रचनाए प्रकाशित निश्चय करना कठिन है कि उक्त ग्रन्थ इन्ही पडित भूधरहो चुकी हैं। ये तीनों ही कृतियाँ बड़ी सुन्दर और दास की कृति है। या अन्य किसी भूघर दास को। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० दौलतराम कासलीवाल तौर पर उल्नेखनीय है' ! उसमे मे ऋमदास जी के उप. कील बन कर उदयपुर गये । उदयपुर में पडित जी जयदेश से पंडित दौलतराम जी को जैन धर्म की प्रतीति हुई पुर के तत्कालीन राजा सवाई जयसिंह और उनके पुत्र थी और वह मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्वरूप ने परिणित माधवमिह जी के वकील अथवा मत्री थे। उनके संरक्षण हो गई थी। इसी से पडित जी ने भगवान ऋषभदेव का का कार्य भी पाप ही किया करते थे। उस समय उदयजयगान करते हुए उनके दास को सुखी होने की कामना पुर में राणा जगत सिह जी का राज्य था और वे उन्हे व्यक्त की है। जैसा कि पुण्यास्रव कथा कोष टीका प्रशस्ति अपने पास ही रखने थे । जमा कि उनकी सं० १७६८ म गत निम्न दो पद्यों से स्पष्ट है-- रचित 'अध्यात्म बार खडी, की प्रशासक निम्न पद्यों से ऋषभदास के उपदेश सौं, हमें भई परतीत । प्रकट हैमिथ्यामत को त्याग के, लगी धरम सौं प्रीत। वसवा का वासी यहै अनुचर जय को जानि । ऋषभदेव जयवत जग, सुखी होहु तसु दास । मंत्री जय सुत को सही जाति महाजन जानि ।। जिन हमको जिन मत विष, कियौ महा जुगदास । जय को राखै राण पै रहे उदयपुर मांहि । प० दौलत राम जी को प्रागरे मे रामचंद्र मुमुक्षु के जगत सिह कृपा करै राखे अपने पांहि ।। 'पुण्यास्रव कथा कोष' नाम के ग्रन्थ को सुनने का अवसर इसके अतिरिक्त स. १७६५ मे रचित क्रिया कोष मिला था और जिसे सुनकर उन्हे अत्यत सुख हुमा, तथा की प्रशस्ति मे भी वे अपने को जयमुत का मन्त्री और उसकी भाषा टीका बनाई। उक्त कथा कोष की यह जय का अनुचर व्यक्त करते है। चूकि राणा जगत सिंह भाषा टीका स. १७७७ मे समाप्त हुई। इसके पश्चात् जी द्वितीय का गज्य संवत् १८६० से १८०८ तक रहा पं. दौलतराम जी स. १७८६ के पास-पास' जयपुर के है । अतः पडित जी का स०१७६८ मे जगासह जी की १. देखो पुण्डास्रव टीका प्रशस्ति । कृपा का उल्लेख करना समुचित ही है। क्योकि वे वहाँ २. सवत् सत्रह सो विख्यात, सं० १७६५ से पूर्व पहुँच चुके थे। ता ऊपरि धरि सत्तरि अरु सात । उदयपुर मे धान की मडी के अग्रवाल दिगम्बर भादव मास कृष्ण पख जानि, जैन मंदिर मे प्रवचन करते थे । उसमे अनेक साधर्मी जन तिथि पाँचे जानो परवानि ।। २८ पाकर शास्त्र श्रवण करते थे। इससे वहां के निवासी रवि सुत को पहलो दिन जोय, श्रावक-श्राविकानो मे तथा प्रागतुक साधर्मी जनो मे जैन पर सुर गुरु के पीछे होय।। धर्म के प्रति विशेष उल्लास और जिन वाणी के प्रति श्रद्धा वार है गनि लीज्यो महो, का प्रचार हुग्रा। उनके जीवन मे धार्मिक वातावरण बना। तादिन ग्रन्थ ममापत सही ।। २६ सायमियो के धार्मिक बात्मल्य में वृद्धि हुई। वहां ३. सन् १९२६ (वि. स १७८६) मे जयपर नरेश सवाई उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना व टीकादि का निर्माण जयसिंह जी माघोमिह और उनकी माता चंद्रकुवरि को किया । पडित जी वहाँ राजकार्यों का विधिवत् संचालन लेकर उदयपुर गये है और उनके लिये 'रामपुरा' का करते हुए जैन ग्रन्थों के अभ्यास में समय व्यतीत करते परगना दिलाया गया है। देखो; राजपतान का इतिहास थे। और अपने दैनिक नैमित्तिक कार्यों के साथ ग्रहस्थो. चतुर्थ खण्ड । चित देव पूजा और गुरू उपासनादि षट् कमो का भी इससे मालूम होता है कि सवाई जयसिंह ने इसी भली भांति पालन करते थे। जिससे उस समय वहाँ के न हीलत. स्त्री पुरुषों में धर्म का खासा प्रचार हो गया था। और राम जी को भी उदयपर रखा होगा। इससे पूर्व वे अपने प्रावश्यक कर्तव्यों के साथ स्वाध्याय नस र राज्य कार्य और सामायिकादि कार्यों का उत्साह के साथ विधिवत करते रहे होंगे। ४. देखो, रायमल्ल का परिचय, वीर वाणी अंक २. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४, वर्ष २५, कि०३ भनेकान्त अनुदान करते थे। इनके अतिरिक्त वहाँ रहते हुए बारह खड़ी करिये भया, भक्ति प्ररूप अनप। उन्होंने साहित्यिक कार्य भी किया। अनेक ग्रन्थों की अध्यातम रस की भरी, चर्चा रूप सरूप ॥ १० टीकाए भी बनाई और कुछ ग्रन्थो का निर्माण भी किया। ग्रंथ बहुत अच्छा है। कविता सुन्दर है, पर यह अभी उनके नाम इस प्रकार है -- अध्यात्म बारह खडी. वसुनदि तक अप्रकाशित है । दूसरा ग्रन्थ 'पन क्रिया कोश' नाम श्रावकाचार टवा टीका, क्रिया कोप, जीवघर चरित, का है। जिसमे गृहस्थ की ५३ क्रियामो का विवंचन श्रीपाल चरित, श्रेणिक चरित, तत्त्वार्थ सूत्र टब्बा टीका किया गया है। यह ग्रन्थ भी पद्य बद्ध है। इसका रचना और सार समुच्चय टीका का निर्माण । काल स. १७६५ भाद्र पद शुक्ला द्वादशी मगलवार है। ___ अध्यात्म बारह खड़ी-यह एक पद्य बद्ध ग्रन्थ ' तीसरी कृति जीवघर चरित है जो पद्यात्मक खण्ड है जिसे उन्होने स० १७६८ मे बनाकर समाप्त किया काव्य है। जिसे कवि ने सस्कृत स हिन्दी में रूपान्तर किया था।' इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में उस समय के उदयपुर है । इसम जोवधर कुमार का जीवन परिचय अकित किया निवासी कितने ही साधर्मी सज्जनो का नामोल्लेख किया गया है । ग्रन्थ मे ७२५ पद्य है और जीवधर की जीवन गया है । पडित जी के इस प्रयत्न से तत्कालीन उदयपुर गाथा को दोहा चौपाई, अरिल्ल, भुजग प्रयात और में साधर्मी सज्जन गोष्ठी और तत्त्व चर्चादि का अच्छा वेसरी प्रादि विविध छदो मे गूथा गया है। ग्रन्थ पाँच समागम एव प्रभाव हो गया था । अत्म ह खडी की अध्यायो में विभक्त है । जिनमे नगर वर्णन, विरह, मिलन प्रशस्ति मे दिये हुए साधर्मी मज्जनो के नाम इस प्रकार और युद्धादि का सुन्दर सजीव वर्णन किया गया है । है-पृथ्वीराज, चर्तुभुज, मनोहर दास, हरिदास, बखता यद्यपि जीवधर का चरित्र चित्रण विविध कवियो द्वारा वर दास, कर्णवास, और पडित चीमा। इन सबकी सस्कृत, अपभ्र श और हिन्दी प्रादि भाषाओं में किया प्रेरणा एवं अनुरोध से उक्त ग्रथ की रचना की गई है। गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा सीधी-सादी है, किन्तु जैसा कि प्रशस्तिगत निम्न पद्यो से ज्ञात होता है घटनाचक्र को बड़े ही सरल शब्दो मे व्यक्त किया गया उदियापुर में रुचिधरा कैयक जीव मुजोव । है। भाषा मे ढुढारी के माथ व्रजभाषा का मिश्रण है। पृथ्वीराज चतुभं जा श्रद्धा घरहि अतीव ।। ५ चरित नायक ने अपने खोए हुए राज्य को कैसे प्राप्त दास मनोहर अरहरी, द्वै वखतावर कर्ण। किया ? और उसे प्राप्त कर कुछ समय भोग कर उसका केवल केवल रूप कों, राखै एकहि सर्ण।। ६ परित्याग किया कौर अन्नर बाह्य ग्रथि का परित्याग कर चीमा पंडित आदि ले, मन में धरिउ विचारि। दिगम्बरी दीक्षा अगीकार की । और घोर तपश्चरण द्वारा बारह खड़ी हो भक्तिमय, ज्ञान रूप अविकार ।। ७ कर्म, शत्रुग्रो का विनाश कर अविचल स्थान प्रत किया। भाषा छंदनि मांहि जो, अक्षर मात्रा लेय ।। ग्रन्थ का कथा भाग सक्षिप्त, सरल, सुन्दर और सजीव प्रभु के नाम बखानिये, समुझे बहुत सुनेय ।। ८ बन पड़ा है। इह विचार सब जना, उर धर प्रभु की भक्ति । कवि ने जीवन्धर की बाल्य लीला का उ: करते बोले दौलतराम सौ, करि सनेह रस व्यक्ति ।। हुए उसकी बुद्धिमत्ता का दिग्दर्शन कराया है। बालक १. सवत् सत्रह सौ प्रढाणव, फागुन मास प्रसिद्धा। जीवन्धर अपने अन्य साथियों के साथ लाख की गोलियो शुक्ल पक्ष दुतिया उजयारा, भायो जगपति सिद्धा । ३० से खेल रहा था । वह प्रारम्भ से ही कुशाग्र बुद्धि और जब उत्तरा भाद्र नक्षत्रा, शुक्ल जोग शुभकारी। तत्काल उत्तर देने वाला था। उन्हे गोली खेलते देख बालव नाम करण त ब वरत, गायो ज्ञान बिहारी ।। ३१ उनसे एक साधु ने पूछा कि नगर कितनी दूर है ? उसका एक महरत दिन जब चढ़ियो मीन लगन तब सिद्धा। उत्तर कुमार ने बड़े ही सुन्दर शब्दो में दिया है :भगतिमाल त्रिभवन राजा कौं, भेंट करी परसिद्धा ॥ "एक दिवस या पर के पासा. (अध्यात्म बारह खडी) कँवर करत है केलि किलासा। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दौलतराम कासलीवाल १२५ लाखतनी गोली करिवाला, शक्ला द्वितीया गुरुवार के दिन समाप्त किया था। खेलत है रस रूप रसाला ॥ ___ चौथी कृति श्रीपाल चरित है। इस चरित की रचना बोले कुवर सबै इह जाने, उदयपुर में हुई, किन्तु अथ के सामने न होने से उसके बालक चेलक पंथ पिछाणें। सम्बन्ध मे कुछ लिखना शक्य नही है। यद्यपि ग्रन्थ में तू अति वृद्ध ज्ञान न तोकों, राजा श्रीपाल का चरित वणित है । कितो दूर पूर पंछत मोकों। पांचवी कृनि तत्त्वार्थ सूत्र की रवा टीका है, यह तरुवर सरवर वाग विसाला, सामने न होने से परिचय नहीं दिया जा सकता। वहरि देखिये खेलत बाला। छठवीं कृति सार समुच्चय की टीका है, यह कुलतहां क्यों न लखिये पुर नीरा, भद्राचार्य के ग्रंथ की टीका है । यह ग्रथ देखने में नही संसै कहा राखिये वीरा ।। शाया और अब सामने नही है। ज्यों लखि धूम अगनिह्व जाने, श्रेणिक चरित सातवी कृति है। जिसमे भगवान तो बालक लखि पर परवानै ।" महावीर और गौतम बुद्ध के समकालीन मगध सम्राट श्रेणिक बिम्बसार का जीवन परिचय दिया गया है, इस ग्रंथ में कथानक के साथ कवि ने धार्मिक सिद्धान्तों समय यह ग्रन्थ भी मेरे सामने नही है, अत: उसके सबंध का भी अच्छा परिचय दिया है। जीवन्धर कुमार का हर मे अभी विचार करना सम्भव नहीं है । जीवन अनेक घटनामो से परिपूर्ण है, उनमें कितनी ही सवत १८१० मे ब्रह्म रायमल्ल जी उदयपुर में घटनाए कौतुहलपूर्ण है, फिर भी उन्होने उन पर विजय आपसे मिलने गए थे। तब वे पडित जी की सास्कृतिक प्राप्त कर जीवन का उच्चादर्श स्थापित किया है । इसी से लगन से बड़े प्रसन्न हुए थे । पाठवी कृति वसुनन्दिधावइनका जीवन परिचय संस्कृत, अपभ्रश और हिन्दी भाषा काचार की टव्वा टीका है, जिसे कवि ने उदयपुर में पे लिखा गया है । कवि को जीवघर का यह काव्य लिखने निवास करते हुए सेठ बेल जो सागवाड़ा के अनुरोध से के लिए काला डेहरा के चतुर्भुज अग्रवाल, पृथ्वीराज स. १८१८ में बनाकर समाप्त किया था। इसकी एक और सागवाडा निवासी सेठ बेल जी क्वड ने बनाने की प्रति दीवान जी कामा के मदिर के शास्त्र भडार मे सुरप्रेरणा की थी। और कवि ने उसे स० १८०५ आषाढ़ क्षित है। उसमे उसका रचना काल सवत १८१८ दिया हमा है।' पडित दौलतराम जो इसके पश्चात् किसी १. तब वोलियो अग्रवाल। वासी काला डहरको। समय उदयपुर से जयपुर मा गये जान पड़ता है। क्योकि चतुर चतुरभुज नाम चरची प्रथ पथ सिव सहर को। सवत् १५०६ या १८०७ मे जयसिंह जी के सुपुत्र माधव जो ह है गिरथ अनूप देश भाषा के माही, बांचं बहुतहि लोक लोक या महि ससे नाही। २. अठारहस, जु पच प्राषाढ़ सुमासा । सब ग्रथ को वर्णन पावै तो यह जीवंघर तनी, तथि दोइज गुरुवार पक्ष सुकल जु तुम भासा ॥ अवसिमेव करनी सुरिभाषा प्रथीराज इह भनी । -जीवघर चरित्र प्रशस्ति सुनी चतुरमुख बात मोहि दौलत उर धरी, ३. उदयापुर में कियो बखान, दौलतराम मानन्दसुत जान। सेठ बेल जी सुघर जाति हूँमड हितकारी। बाच्यो श्रावक वृत्त विचार, वसुनन्दी गाथा अविकार।। सागवाड है वास श्रवण की लगन घनेरी, बोले सेठ बेल जी नाम, सुन नृपमत्री दौलत राम । तब साधरमी लोक घरै श्रद्धा श्रुत केरी। टबा होय जो गाथा तनो, पुण्य ऊपजे जियको घनो। तिन ने प्राग्रह करि कहि फनि दौलत के मन बसी, सूनिकै दौलत वैनसुवन, मन भरि गायो मारग जैन । संस्कृत ते भाषा कीनी इह कथा है नौ रसी ।। -टव्वा टीका प्रशस्ति -जीवघर चरित प्रशस्ति ४. देखो, ग्रन्थ सूची पंचम भाग पृ. १६२ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १२६, वर्ष २५, कि०३ के बालक हो जाने पर जयपुर की राजगद्दी के साधक बतलाया है। वे विवेकी, क्षमावान, बाल अपचारी उत्तराधिकार का वाद-विवाद छिड़ा। तब जयपुर नरेश दयालु पोर पहिसक थे। उनमें मानवता टपकती थी। वे ईश्वरी सिंह जी को विषपान द्वारा देहोत्सर्ग करना पड़ा जनधर्म के श्रद्धानी थे भोर उसके पवित्रतम प्रचार था; क्योंकि उनमें इतनी सामर्थ्य नही थी कि वे मेवाडा अभिलाषा उनकी रग-रग में पाई जाती यो पौर धीश राणा जगत सिंह जी और महाराष्ट्र नेता होल्कर भर उसके प्रचार का प्रयत्न भी करते थे। प्राचीन जैन ग्रन्थों के उद्धार के साथ उनकी हिन्दी टीकानों के कराने के समक्ष विजय प्राप्त कर सके। अतएव उन्हें मजबूर रत होकर आत्मघात में प्रवृत्त होना पड़ा था । ईश्वर तथा उन्हें अन्यत्र भिजवाने का प्रयत्न क सिंह जी के बाद माधव सिंह जी को जयपुर समयसारादि अध्यात्म ग्रंथों को तत्व चर्चा में उन्हें बह का का उत्तराधिकार प्राप्त हमा। माधव सिंह जो रस प्राता था और वे उससे पानन्द विभोर हो उठते के सत्तारूढ़ हो जाने पर सं० १८१८ मे या उसके । स० १८२१ में लिखी एक निमंत्रण पत्रिका में तो उनको कर्तव्य परायणता प्रौर उनकी कर्तव्य परायणता और लगन का सहज ही प्रामास : कुछ समय पश्चात वे उदयपुर से जयपुर मा गये होगे। क्योंकि उनका बहा का कार्य समाप्त हो गया था। और हो जाता है। वे विद्वानों को कार्य के लिए स्वय प्रेरित करते थे और दूसरो से भी प्रेरणा दिलवाते थे। उनकी जिनके वे मंत्री थे वे अब जयपुराधीश थे। तब मंत्री का प्रेरणा के फलस्वरूप जो मधुर फल लगे, उससे पाठक उदयपुर में रहना किसी तरह भी सम्भव प्रतीत नहीं परिचित ही है। होता । अतः ५० दोलनराम जी उदयपुर से जयपुर पाकर पापुराण टोका--पुण्यास्रव कथा कोष, क्रिया कोष, वहाँ कार्य करने लगे होंगे। अध्यात्म बारह खड़ो और वसुनन्दि के उपासकाध्य___संवत् १८२१ की ब्र० रायमल्ल जी की पत्रिका यन की टवा टीका, जीवघर चरित्र, तत्वार्थ की सूत्र टन्या से ज्ञात होता है कि उस समय उसमें पद्मपुराण की २० टीकापौर सार समुच्चय टीकाके अतिरिक्त श्रीपाल चरित्र, हजार श्लोक प्रमाण टीका के बन जाने की सूचना दी हुई श्रेणिक चरित तथा विवेकविलास परमात्मप्रकाश टीकर है। इतनी बड़ी टीका के निर्माण में चार पाँच वर्ष का प्रादि की रचना की। यह सब प० दौलतराम जी की मधुर समय लग जाना कुछ अधिक नही है। टीका का शेष भाग लेखनी का प्रतिफल है। आज पडित जी अपने भौतिक बाद मे लिखा गया और इस तरह वह टोका वि० स० शरीर मे नही है परन्तु उनकी अमर कृतियाँ जन-धर्म के १९२३ मे समाप्त हुई है । यह टीका जयपुर में ही ब्रह्म प्रचार से प्रोत-प्रोत हैं, उनको भाषा बड़ी सरल तथा चारी रायमल्ल जो की प्रेरणा व अनुरोध से बनाई गई मनमोहक है । इन टीका ग्रन्थों की भाषा दूढाहड़ देश की है। रायमल्ल जी एक निष्पृह त्यागी और चरित्रनिष्ठ व्यक्ति तत्कालीन हिन्दी गद्य है। जो व्रजभाषा के प्रभाव से थे। धर्म प्रोर साहित्योद्धार को उनकी लगन पहणीय प्रभावित है, उसमें कितना माधुर्य और कितनी सरलता है थी। उनका त्याग विवेक पूर्वक था, वे दयालु और परोप यह उसके अनुशीलन से सहज ही ज्ञात हो जाता हैं। कारी थे। पं० दौलतराम जी ने उनका निम्न वाक्यो मे उनकी भाषा उन्नीसवीं शताब्दी की परिमार्जित और उल्लेख किया है मुहावरेदार है । यह उसके निम्न उदाहरण से स्पष्ट हैरायमल्ल साधर्मा एक, जाके घट में स्व-पर-विवेक । हे देव ! हे विज्ञान भूषण ! अत्यन्त बृद्ध अवस्था बयावान गुणवन्त सुजान, पर उपगारी परम निधान ।। " करि हीन शक्ति जो मैं सो मेरा कहा अपराष? मो पर इस पद्य में ब्रह्मचारी रायमल्ल के व्यक्तित्व का आप क्रोध कगे सो मैं क्रोध का पात्र नाहीं, प्रथम प्रवस्था कितना ही परिचय मिल जाता हैं और उनकी विवेक १. रायमल्ल साधर्मी एक, धर्मसधैया सहित विवेक। भमा और दया मादि गुणों का परिचय प्राप्त हो सो नाना विध प्रेरक भयो, तब यह उत्तम कारज थयो । जाता है। पं० टोडर मल जी ने उन्हें विवेक से धर्म का -लब्धिसार प्रशस्ति Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० दौलतराम कासलीवास १२७ विर्ष मेरे भुज हाथी के संघ समान हते, उरस्थल प्रबल इन्द्रायण के फल समान हैं, संसारी जीव इनको पाई है था। पर जाँच गज बन्धन तुल्य हुती; पर शरीर दृढ सो बडा प्राश्चर्य है । जे उत्तम जन विषयों को विष तुल्य हुना। अब कमनि के उदय करि शरीर अत्यन्त शिथिल आन करि त है पर तप कर है वे धन्य है। अनेक होय गया। पूर्व ऊंची नीची धरती राजहंस ही न्याई विवेकी जीव पुण्याधिकारी महाउत्साह के धरण हारे जिन उलंघ जाता, मन वाछित स्थान पहुँच जाता । अब स्था- शासन के प्रसाद से प्रबोध को प्राप्त भए हैं। मैं कब इन नक से उठा भी न जाय है, तम्हारे पिता के प्रमाद करि विषयों का त्याग कर स्नेह रूप कीच से निकस निवृत्ति मैं यह शरीर नाना प्रकार लड़ाया था सो प्रब कुमित्र की का कारण जिनेन्द्र का मार्ग का प्राचरण करूंगा। मैं पृथ्वी न्याई दुख का करण होय गया। पूर्व मुझे वैरिनि के की बहुत सुख से प्रतिपालना करी पर भोग भी मनवाक्षित विदारने की शक्ति हती सो प्रब लाठी के प्रवलम्बन करि भोगे? पर पत्र भी मेरे महापराक्रमी उपजे । अब मैं महाकष्ट से फिर हूँ। बलवान पुरुषनि करि खीचा जो भी वैराग्य मे विलम्ब करूं तो यह बड़ा विपरीत है । हमारे धनष वा समान वक्र मेरी पीठ हो गई है पर मस्तक के वंश की यही रीति है कि पुत्र को राजलक्ष्मी देकर वैराग्य केश अस्थि समान श्वेत हो गए हैं और मेरे दांत गिर गए, को धारण कर महाघोर तप करने को वन मे प्रवेश करे । मानों दारीर का प्राताप देख न सके। हे राजन् ! मेरा ऐसा चिन्तवन करि राजा भोगनि ते उदास चित्त कई समस्त उत्साह विलय गया, ऐसे शरीर करि कोई दिन एक दिन घर में रहे।" जीऊँ हूँ। सो बडा प्राश्चर्य है। जरा से अत्यन्त जर्जर -पद्मपुराण टीका, पृ० २६५-६ मेरा शरीर साँझ-सकारे विनश जायगा । मोहि मेरी काया इसमे बतलाया गया है कि राज दशरथ ने किसी को सुध नाहीं तो और सुध कहाँ से होय । पके फल समान अत्यन्त वृद्ध खोजे के हाय (गधोदक जैसी) कोई वस्तु जो मेग तन ताहि काल शीघ्र ही भक्षण करेगा, मोहि रानी के कई के पास भेजी थी. जिसे वह शरीर की प्रस्थिमृत्यु का ऐसा भय नही जैसा चाकरी चूकने का भय है। रता वश देर से पहुँचा सका, जबकि वही वस्तु अन्य मर मर प्रापको प्राज्ञा का ही अवलम्बन हे प्रार अवलम्बन रानियों के पास पहले पहें च चकी थी। अतएव केकई ने नाहीं : शरीर की प्रशक्तिता करि विलम्ब होय, ताक राजा दशरथ से शिकायत की। तब राजा दशरथ उस कहा करूं। हे नाथ ! मेरा शरीर जरा के प्राचीन जान खोजे पर अत्यन्त कुद्ध हुए। तब उस खोजे ने अपने शरीर कोप मत करो, कृपा ही करो, ऐसे वचन खोजा के राजा की जर्जर अवस्था का जो परिचय दिया है उससे राजा दशरथ सुनकर वामा हाथ कपोल के लगाय चिन्तावान दशरथ को भी सांसारिक भोगों से उदासीनता हो गई। होय विचारता भया, अहो ! यह जल के बुद-बदा समान इस तरह इन कथा पुराणादि-साहित्य के अध्ययन से प्रात्मा प्रसार शरीर क्षणभगुर है, पर यह यौवन बहुत विभ्रम अपने स्वरूप को प्रोर सम्मुम्ब हो जाता है। को धरै संध्या के प्रकाश समान अनित्य है। पर अज्ञान ऊपर के उद्धरण से जहाँ इस ग्रंथ की भाषा का का कारण है। बिजली के चमत्कार समान शरीर पर सामान्य परिचय मिलता है वहां उसकी मधुरता एवं सम्पदा तिन के अर्थ अत्यन्त दु:ख के साधन कर्म यह रोचकता का भी प्राभास हो जाता है। पं० दौलतराम जी प्राणी कर है। उन्मत्त स्त्री के कटाक्ष समान चचल, सर्प ने पाच-छह प्रथों को टीका बनाई है। पर उन सबमे सब के फण समान विष के भरे, महाताप के समूह के कारण से पहले पुण्यास्रव कथा कोष को और सबसे बाद मे हरिये भोग ही जीवनकों ठगे हैं तात महाठग है, यह विषय वंश पुराण की टीका बनकर समाप्त हुई है। प्रर्थात् स. बिनाशीक, इनसे प्राप्त हुआ जो दुःख सो मूढों को सुख- १७७७ मे लेकर १८२६ तक ५२ वर्ष का अन्तराल इन रूप मास है, ये मूढ जीव विषयों की प्रभिलाषा कर हैं। दोनों टीका-ग्रंथों के मध्य का है। पर इनको मनवाछित विषय दुष्प्राप्य है। विषयो के सुख इस टीका ग्रन्थ का मूल नाम 'पद्मचरित' है। उसमें देखने मात्र मनोज्ञ है, पर इनके फल अतिकटुक हैं, ये सुप्रसिद्ध राम, लक्ष्मण पौर सीता के जीवन की झांकी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८, वर्ष २५, कि०३ भनेकात का अनुपम चित्रण किया गया है। इसके कर्ता प्राचार्य तरह पं० दौलतराम जी को अन्य प्रादिपुराण, हरिवंश रविषेण है जा बिकम की पाठवीं शताब्दी के द्वितीय पुराण की टोकाएं है जिनका सक्षिप्त परिचय प्रागे दिया चरण में (वि०म० ७३३ मे हुए है। यह प्राप्रपनी गया है वे सब मधुर एवं प्रागल भाषा को लिए हुए हैं सानी का एक ही है। इस ग्रन्थ की टीका श्री ब्रह्मचारी और जिनके अध्ययन से हृदय गद्गद हो जाता है, मौर रायमल्ल के अनुरोध से स. १८२३ में समाप्त हुई है। श्रद्धा से भर जाता है। इसका प्रधान कारण टीकाकार की यह टीका जैन समाज में इतनी प्रसिद्ध है कि इसका पठन-पान्तरिक भद्रता, निर्मलता सुश्रद्धा और निष्काम साहित्यपाठन प्रायः भारतवर्ष के विभिन्न नगरों और गांवों में सेवा है। पंडित जी के टीका ग्रन्थों से जैन समाज का जहाँ-जहाँ जैन बस्ती है वहाँ के मन्दिरों, चैत्यालयों और बड़ा उपकार हा है और उनसे जैनधर्म के प्रचार में भी अपने घरो मे होता है। इस प्रथ को लोकप्रियता का सहायता मिली है। इससे बडा सबत और क्या हो सकता है कि इसकी दस- माविपुराण टीका--पडित दौलतरामजी ने प्रादिपुराण दस प्रतियां तक कई शास्त्र भडारो मे देखी गई है। सबसे कोमा जयपर नगर में की है। उस समय जयपर में महत्व की बात तो यह है कि इस टीका प्रथ के अध्ययन से जैन धर्म और जैन सस्कृति का विशेष प्रचार था। शास्त्र अनेकों ने अपने को जैन धर्म में प्रारूद किया है। उन सब मे सभा में जब प्रादिपुराण पर प्रवचन हमा। तब सामियों स्व० पूज्य बाबा भागीरथ जी वर्णी का नाम खास तौर ने उसकी भाषा करने की प्रेरणा की। कवि के मित्र उस से उल्लेखनीय है जो अपनी आदर्श त्याग वृत्ति के द्वारा समय रतनचन्द दीवान थे, जो ज्ञानो और जिनमार्ग के जन समाज में प्रसिद्धि को प्राप्त कर चुके है। प्राप श्रद्धानी थे, जो राजद्वार के सेवक थे। कुछ साभियो ने अपना बाल्यावस्था में जन धम क प्रबल विराधा य भार भी प्रेरणा की, उनमें रतन चन्द जी मुघडिया पोर पडित उसके अनुयायियों तक को भी गालियाँ देत थे। परनु टोडरमल जी के दोनो पुत्र हरिचन्द और गुमानी लाल दिल्ली में जमना स्नान को रोजाना जाने समय एक जैन और बाल ब्रह्मचारी देवीदास गोधा का नाम विशेष सज्जन का मकान जैन मदिर के समीप ही था, वे प्रति- उल्लेखनीय है। उस समय वहीं रायमल्ल जी साधर्मी दिन प्रातः काल पद्म पुराण का स्वाध्याय किया करते थे। को अध्यात्म शनी का प्रचार था। टीकाकार ने सबका एक दिन मापने खड़े होकर उसे थोड़ी देर सुना और भावना को साकार करने के लिए प्रादिपुराण की टीका विचार किया कि यह तो रामायण की ही कथा है मै स०१८२४ प्राश्विन कृष्णा एकादशी शुक्रवार के दिन उमे जरूर मुनगा और पढ़ने का अभ्यास भी करूगा। जयपुर में बनाकर समाप्त की है। उस दिन से रोजाना उसे सुनने लगे और थोडा-थोडा पंडित दौलताम जी ने स्वामि कातिकेयानुप्रेक्षा की करने का अभ्यास भी करने लगे। यह सब कार्य उन्हीं टम्बा टीका इन्द्रजीत के बोध कराने के लिए सबत् १८२६ सज्जन के पास किया। प्रब पापकी रुचि पढ़ने तथा जैन में ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन पूर्ण की है, जैसा कि धर्म का परिचय प्राप्त करने की हई और उसे जानकर उनकी निम्न प्रशस्ति बाक्यो में प्रकट है :जैनधर्म मे दीक्षित हो गये । वे कहते थे कि मैंने पद्मपुराण सुखी होहु राजा प्रजा, सुखी होई चौसंग। का अपने जीवन में कई बार स्वाध्याय किया है, यह बड़ा पावहु शिवपुर सज्जना, सो पद सदा प्रलंध ।। महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस तरह न मालम उक्त कथा ग्रन्थ इन्द्रजीत के कारने, टवा जु बाला बोध । और उसकी टीका से जैनधर्म का प्रभाव तथा लोगों की भाष्यो दौलतराम ने, जाकर होय प्रबोध ।। श्रद्धा का कितना संरक्षण एवं स्थिरीकरण हमा है। इसी १. अट्ठारह स सम्वता ता ऊपर चौवीस । १. सवत् अष्टादश सत जान, ता ऊपर तेईस बखान । कृष्ण पक्ष असोज को पुष्प नक्षत्र वरीश ॥ शुक्लपक्ष नौमी शनिवार, माघमास रोहिणी रिखिसार ॥ शुक्रवार एकादशी पूरण भयो ये ग्रन्थ । -पद्मपुराण टीका प्रशस्ति -मादिपुराण प्रशस्ति Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० दौलतराम कासलीवाल १२६ पं. टोडरमल जी के लगभग ५० वर्ष की उम्र मे और दीवान रतनचन्द्र के भाई वधीचन्द जी दीवान, दिवगत हो जाने पर, पुरुषार्थसिद्धयुगाय की उनकी अधरी जो पडित दौलतराम जी के मित्र थे, उनकी प्रेरणा और टोका को भी प्रापने रतन चन्द जो दीवान के अनुरोध से सहयोगी से कवि ने हरिवंश पुराण की टीका सं० १८२६ स. १८२७ मे पूर्ण किया है । चंत्र शुक्ल पूर्ण मामी के दिन समाप्त की। टीकाकार दोनत राम जी ने धर्म और साहित्य की हरिवंशपुराण टोका जिस लगन से सेवा की है वह अनुकरणीय है। टीका की * रायमल्ल जी जयपुर से जब मानव देश में भापा मुहावरेदार और मधुर है' ढुढारी भाषा होते हुए गए। वहां उन्होंने पद्म पुराण और प्रादि पुराण की भी सरल है। विवेक विलास उनकी छोटी से पद्य बद्ध' टीका पढ़कर सुनाई। जिससे वहां के श्रावकों में धर्म रुचि कृति है। उसके दोहा बड़े प्रिय है। जिन ग्रथों का परिअधिक बढ़ी। उस समय वहाँ के लोगों ने अ० रायमल्ल जी चय इस लेख मे नही दिया जा सका, उनकी प्रतियाँ से कहा कि पाप हरिवश पुराण की टीका दौलत राम जी लेखकको देखने को नहीं मिली अन्यथा उनका परिचय से बनवाइये । तब रायमल्ल जी ने अपने मित्र दौलत राम अवश्य दिया जाता। पडित जी की सबसे पहली जी को पत्र लिखा, और प्रेरणा की कि पाप हरिवश टीका सं० १७७७ की है। उसके बाद सं० १८२६ पुराण की टीका और बनाइए, जिससे सब साधर्मी जन उसे ता साहित्य की जो महान् सेवा की है, वह महत्वपूर्ण है। पढ़कर लाभ उठा सके, और चैत्यालय में सब सामियो सामियो मे विद्वानों के प्रति समाज का बहुमान भोर मादर ने भी प्रेरित किया कि आप हरिवंश की टीका बनायो नितान्त आवश्यक है। टीकाकार का अधिकांश २. रायमल्ल के रुचि बहुत, व्रतक्रिया परवीन । स हित्य अभी तक अप्रकाशित है। समाज का कर्तव्य है गये देश मालव विषे, जिनशासन लवलीन ।।८।। कि वह उसे प्रकाशित करे। तहां सुनाया ग्रंथ उन, भाषा प्रादिपुराण । ३. अठारह सौ सवता तापर घर गुणतीस । पद्मपुराणादिक तथा, तिन को कियो बखान ।।६।। वार शुक्र पून्यो तिथि, चैत्र मास रुति ईस ॥२७ हरिवंशपुराण प्रशस्ति -हरिवश पुराण प्रशस्ति धर्म की महिमा धर्म से मनुष्य को मोक्ष मिलता है और उससे धर्म की प्राप्ति होती है। फिर भला धर्म से बढ़कर लाभदायक वस्तु और क्या है ? धर्म से बढ़कर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देने से बढ़कर दूसरी कोई बुराई भी नहीं है। नेक काम करने में तुम लगातार लगे रहो, अपनी पूरी शक्ति और सब प्रकार से पूरे उत्साह के साथ उन्हें करते रहो। अपना मन पवित्र रक्खो, धर्म का समस्त सार बस एक इसी उपदेश में समाया हुआ है। वाकी और सब बातें कुछ नहीं, केवल शब्दाडम्बर मात्र है। ईर्षा, लालच, क्रोध और अप्रिय वचन इन सबसे दूर रहो। धर्म प्रगति का यही मग है। यह मत सोचो कि मैं धीरे-धीरे धर्ममार्ग का अवलम्बन करूँगा। बल्कि अभी बिना देर लगाये ही, नेक काम करना शुरु कर दो; क्योंकि धर्म हो वह वस्तु है जो मौत के दिन तुम्हारा साथ देने वाला अमर मित्र होगा। -तमिलवेद Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन कवि और उनकी कृतियाँ डा. गजानन मिष एम. ए. पी-एच. डी., प्रार. ई एस. मुशालचन्द काला अद्यावधि कवि की निम्नलिखित रचनाएँ उपलब खुशालचन्द के पूर्वज टोडारायसिंह के निवासी थे। हैं :वहाँ से वे व्यापारिक दृष्टि से सांगानेर में माकर बस गये १. हरिवंश पुराण' वैसाख शुक्ला ३ सं. १७८०) ।' यहीं (सांगानेर) में इनका जन्म हुमा। इनके पिता २. यशोधर चरित्र' (कार्तिक शुक्ला ६ सं. १७९१) का नाम सुन्दर तथा माता का नाम अभिघा था इनके ३. पद्मपुराण' (स. १७८७) गुरु पं. लक्ष्मीदास थे।' जो क्षमावान, ज्ञानवान और ४. व्रत कथाकोश' (२४ कथानों का संग्रह, १७८७) विवेकवान थे। ऐसे उत्तमकोटि के विद्वान के पास रह कर ५. जम्बू स्वामी चरित्र । सुगालचन्द ने विद्या प्राप्त की थी। शिक्षा ग्रहण के उप ६. धन्यकुमार चरित्र। राम्त ही वे दिल्लीके पास जयसिंहपुरा (नई दिल्ली) मे रहने ७. सद्भासितावली (श्रावण शुक्ला १४ सं. १७६४) मग गये थे। उन दिनों जयसिंहपुरा सभी प्रकार से अच्छा ८. उत्तर पुराण' (मार्गशीर्ष शुक्ला १० सं. १७६९) स्थान था। यहीं वे गोकुलचन्द के सम्पर्क मे पाये। इन्हीं ६. सिद्धों की भारती। की प्रेरणा से उन्होंने अनेक काव्यों की रचना की। अपनी १०. चौबीस स्तुति पाठ । रचनामों में कई स्थानों पर उन्होंने इसका उल्लेख किया ११. वर्द्धमान पुराण । है।'खुशालचन्द की जाति खण्डेलवाल तथा गोत्र काला १२. शान्तिनाथ पुराण । १३. पद। हरिवंश पुराण१. उत्तर पुराण भाषा के अन्त मे कवि परिचय । जैसा कि पूर्व पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि कवि २. मोर सुणो पागे मन लाय, मैं सुन्दन को नन्द सुभाय। ने इस पुराण का पद्यानुवाद गोकूलचन्द की प्रेरणा से सिंहतियामभिधा मम भाय, जयसिंहपुरा में किया। सभी रचनाओं के संवत् देखने से ताहिकूखिमें उपजो प्राय।। विदित होता है कि यह कवि को प्रथम रचना है। जिस चंद खुशाल कहै सब लोक, भाषा कीनी सुणत प्रशोक प्रकार पद्मपुराण को जैन रामायण कहा जाता है कि -प्रशस्ति संग्रह (व्रत कथा कोश) पृ० २५७ - ३. पंडित भये नाम तहां लखमीवास । १. शास्त्र भडार, जैन मन्दिर पाटौदी जयपुर के वि. सं. चतुर विवेकी श्रुतज्ञान • उपाय के ॥ ३२७ पर इसकी प्रति उपलब्ध है। तिने पास मैं भी कछु मलासो प्रकाश भगे। २. वही, वे. स. १०४६ । फेरिमें वस्यो जिहानाबाद मध्य मायके । ३. वही। ४. प्रशस्ति संग्रह (व्रत कथा कोश) पृ० २५६ छद २ । ४. वही। ५. सहर मध्य इक वणिकसाह सुखानन्द जान । ५. शास्त्र भन्डार, बाबा दुलीचन्द वे. सं. ३३४ । ताके गेह विर्ष रहे, गोकुलचन्द सुजान ॥ ६. वही, वि. स.७४। तिनके लिंग मैं जाऊ सदा पर्दू सुशास्त्र सुभाय । ७. मामेर शास्त्र भण्डार वे. स. १५५०। जिनको वह उपदेश ले भाषा ग्रंथ बनाय ॥ ८. शास्त्र भण्डार, गोधों का मदिर, वे. सं. १५५० । -हरिवंश पुराण ६. शास्त्र भण्डार, ठोलियों का मन्दिर जयपुर गुटका 1. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि-हा. प्रेमसागर संख्या १२४ एवं वधीचन्द के मन्दिर मे भी उपचम्म जन पृ० २३४ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन कवि और उनको कृतियां उसी प्रकार इसे यदि जैनकृष्णायन या जैन महाभारत पं. दौलतराम प्रारम्भ में जयपुर के महाराणा कहा जाय तो कोई प्रत्युक्ति नहीं होगी। इस ग्रन्थ की सवाई जयसिंह के पुत्र माषसिंह के मंत्री थे। लेकिन भाषा ढूंढाडी है । ग्रन्थ में कुल ३६ सविया एव ५००० । फिर भी वे राज्य कार्य से समय निकाल कर गुरु-उपासना तथा शास्त्र रचना किया करते थे। प्रेमीजी के शब्दों में पचपुराण ये एक मोर तत्कालीन जयपुर मोर उदयपुर की राजनीति इसमें मुनि सुव्रतनाथ एवं उनके शासन में होने वाले के सूत्रधार थे और साहित्य साधक भी। उनकी रचनामों मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र का वर्णन है । इसे कुछ विद्वानों से उनकी विद्वता भी स्पष्ट है। मस्कृत और हिन्दी दोनों मे रामपुराण भी कहा है। भाषामो पर उनका समान अधिकार था। उनका गच चौबीसी स्तुति पाठ हिन्दी की ममूल्य निधि है।' इस कृति मे प्राराध्य की महिमा का बखान व स्वय दौलतराम जी को निम्नलिखित रचनाएं हैके दोषों की अभिव्यक्ति की गई है। चौबीस तीर्थंकरों १. पुण्याश्रव वनिका (माद्रपद कृष्णा ५ स. १७७७) की स्तुति की गई है। भक्त अपने प्रागध्य से स्व-मुक्ति २. क्रियाकोष भाषा (भा. शु. १२ सं. १७६५) की प्रार्थना करता है और हमेशा उनकी सेवा का अधि ३. अध्यात्म बारहखड़ी (फ ल्गुन शुक्ला २ सं. १७९८) कार चाहता है। एक पद दृष्टव्य है ४. वसुननन्दि श्रावकाचार टम्बा (स. १९०८) सुरनर ऐसी सेवा करंजी, चरन कमल की वोर । ५. पपपुराण वनिका (माघ शु. ६ सं. १८२३) भंवर समान लग रहै जी, निसि वासर अरु और ॥ ६.मादि पुराण (माश्विन कृष्णा ११ सं. १८२४) + + + चंद कर या वीनतो जो, सुणिज्यौं त्रिभुवनराई । ७. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय। ८. परमात्म प्रकाश वचनिका। जन्म जन्म पाऊं सही प्रभु तुम सेवा अधिकार ।। ६. हरिवंशपुराण वनिका (चैत्र शु. १५ स. १०२९) पं.बोलतराम १०. श्रीपाल चरित्र । दौलतराम' बसवा के रहने वाले थे, परन्तु जयपुर मे ११. विवेक विलास। माकर बस गये थे। उनके पिता का नाम प्रानन्दराम था। उपर्युक्त कृतियों मे प्रादि पुराण, पपपुराण, हरिवह जाति के कासलीवाल गोत्री खण्डेलवाल थे। अपने वश पुराण, अध्यात्म बारहखड़ी, चौबीस दण्डक, विवेक प्रारम्भिक समय मे पं. दौलतराम जी को जैनधर्म में विलास, छहढाला एव क्रियाकोष भाषा मादि इनके काम विशेष रुचि नहीं थी। लेकिन बड़े होने पर ये प्रागरा प्रथ हैं। गये पोर वहाँ इनका सम्पर्क पं. भूधरदास, हेमराज, सभी काव्य ग्रन्थों मे 'अध्यात्म बारहखड़ी' नामक सदानन्द, बिहारीदास एव ऋषभदास से हुआ। ऋषभ काव्यय उत्कृष्ट कोटि का है,ra महत्वपूर्ण तथा उपदेश से दौलतराम को जैनधर्म पर विश्वास मौलिक। इस ग्रंथ मे प्राठ परिच्छेद हैं। इसी प्रथम हमा और कालान्तर में यह विश्वास अगाध श्रद्धा के रूप परिच्छेद मे 'सकार' दूसरे मे १६ स्वर, तीसरे में .. में में परिणित हो गया।' वर्ग', चौथे में 'च वर्ग', पांचवें में 'ट वर्ग', छठे में वर्ग', १. जैन साहित्य के इतिहास में दौलतराम नामके तीन सातवें मे ‘प वर्ग' तथा पाठवें परिच्छेद में पन्तःस्थ और बिहानों का उल्लेख हमा है। इनमें एक पल्लावाल ४. बसवा का वासी यह अनवर जय को जामि । जातीय हाथरस के, दूसरे बूंदी के दौलतराम पाटनी मत्री जयसुत को सही, जाति महाजन जानि ।। और तीसरे वसवा (जयपुर) रहने वाले थे। ५. हि. ज. सा. स. ... प्रेमी पृ. ४०-पण्याश्रव करा. २. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास-पं. नाथूराम प्रेमी कोश की अन्तिम प्रशस्ति : पृ.६८। पं. टोडरमल जी ने प्रधूरी छोड़ी उसे माघ शुक्ला २ ३. पुण्याश्रव टीका की अन्तिम प्रशस्ति । शनिवार स. १८२७ में पूरा किया। ६. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३२, वर्ष २५, कि०३ प्रनकान्त अन्य व्यंजनों से प्रारम्भ होने वाले छद है। सम्पूर्ण ग्रथ मन्दिर में बैठ कर काव्य रचना किया करते थे। भद्रार में ५००० छंद है। रकों के गुरु कहे जाते थे। इस प्रकार उन्होने केशरीसिंह व भक्तिरस का यह सर्वश्रेष्ट ग्रथ माना जाता है। इस देवाब्रह्म को भिन्न-भिन्न तो माना है लेकिन इन्होने जिस ग्रन्थ में उन्होंने राम की वन्दना करते हुए उन्हें सर्वव्या- 'सम्मेद शिखर विलास' का रचयिता केशरी सिंह को पक माना है। वे प्रात्मा तथा परमात्मा जिनेन्द्र) का माना है वह सत्य नहीं है। 'सम्मेद शिखर विलास' के एक मानते हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एव महेश तीनो के दर्शन रचयिता देवाब्रह्म ही थे लेकिन मल ग्रन्थ का अर्थ केशरी जिनेन्द्र में करते हैं। इस प्रकार उनका दृष्टिकोण सिंह ने देवाब्रह्म को समझाया था। इसीलिए ग्रन्थ के उदार है। अन्तिम पद्यो म केशरीसिंह का नामोल्लेख हमा है। देवात कवियो की तरह उन्होने भी प्राडम्बर] का ब्रह्म तो जयपर के ही रहने वाले थे।' खण्डन करते हुए लिखा है कि मूड मुडाने से कुछ भी देवाब्रह्म की निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध हैनहीं होता अपितुपातमराम की सेवा से ही सब कुछ १. सम्मेद शिखर विलास । सम्भव है १. विनती सग्रह। ...मंड मुंडाये कहा, तत्व नहिं पाव जोलौं । मुनि को उपदेश सुन, मुक्ति जु नदि तोगी। ३. पद सग्रह। मल मूत्रावि भरघो देह कबहूं नहि शुद्धा । ३. सास बहू का झगड़ा। शुद्धो प्रातमराम ज्ञान को मूल प्रबुद्धा ।। देवा ब्रह्म की रचना का एक पद दृष्टव्य है जगतपति तारोला महाराज । देवा ब्रह्मदेवाब्रह्म बहुत अच्छे कवि हुए है। लेकिन अभी विरद विचारोला महाराज ॥ तक ये प्रकाश मे नही पा सके । जहाँ कहीं इनका नामो मैं अपराध अनेक किया जो, माफ करो गुणराज । और देव या सब हो देख्या, खेद सहो बिनकाज ।। ल्लेख हुपा है वही इनके नाम के आगे प्रश्न सूचक चिम्ह लगा हुआ है। अभी नई खोजों से इनकी अनेक कृतियाँ 'देवाब्रह्म' चरणां चित ल्याव, सेवग करिहित कान ।। तथा पद सामने मा गये हैं। देवाब्रह्म के १००० पद साहिब राम पर्याप्त प्रयत्न करने के पश्चात भी साहिबराम के पामेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध है। इन पदो की संख्या से ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी नहीं मिल सकी है। जयपर कितने वडे कवि हुए होगे। २. वीरवाणी-भंवरलाल न्यायतीर्थ का लेख । देवाब्रह्म मे ब्रह्मा' शब्द उपाधि सूचक है जो उनके ३. श्री लोहाचरज मुनि धर्म विनीत है। ब्रह्मचारी होने की बात घोषित करता है। उनका असली तिन कृत घत्ता बन्ध मुग्रथ पुनीत है ।। । माम 'देवजी' था। कामताप्रसाद जैन ने देवाब्रह्म एव ता अनुमार कियो सम्मेद विलास है। • केशरी सिंह के सम्बन्ध में प्रश्नसूचक चिन्ह लगाकर एक देव ब्रह्मचारी जिनवर को दाम है ।। . , शंका उपस्थित कर दी है। उन्होने केशरी सिंह कृत केसगसिंह जान, रहै लसकरी देह । - सम्मेद शिखर विलास का भी उल्लेख किया है। श्री पडित सब गुणजन या को अर्थ बताइयो । भवरलाल न्यायतीर्थ ने भी सम्मेदशिखर विलास एवं -सम्मेदशिखर विलास देवाब्रह्म ४. शास्त्र भडार, गोधो का मन्दिर में उपलब्ध है। वर्द्धमान पुराण की भाषा वनिका के लेखक का नाम ५. शास्त्र भंडार वधीचन्द मन्दिर गुटका न. ५४ । केशरीसिंह ही बताया है। उन्होने देवाब्रह्म का उल्लेख ही ६. भामेर शास्त्र भण्डार तथा वधीचन्द मन्दिर में ४९३ नहीं किया है उनके अनुसार केशरीसिंह जयपुर के लश्कर । पद उपलब्ध है। ..हिन्दी जैन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास-कामता ७. शास्त्र भडार, ठोलियो का मन्दिर मे वे. सं. ४३८ प्रसाद पृ. १६५। पर है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन कवि और उनकी कृतिया के जैन विद्वानों से सम्पर्क करने से यह विदित हुआ है कि मिथ्यात्वखण्डन नाटकसाहिबराम जयपुर के ही रहने वाले थे। जयपुर में रहने इस ग्रन्थ की रचना पोष सुदि ५ सं० १८२१ को का एक अन्य प्रमाण उनके पदो की जयपुरी भाषा है। हुई थी। इस काव्य मे कवि ने तेरहपथ का खण्डन किया अब तक इनके पद ही उपलब्ध हो सके है। इन पदो मे है। यह उनका मौलिक ग्रन्थ है जिसमे १४२३ छंद हैं। ६० पदो का संग्रह बड। तेरहपंथी मन्दिर के शास्त्र भडार बुद्धि विलास में तथा कुछ पद ग्रामर शास्त्र भण्डार के वे० सं० २२६० धार्मिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से यह अन्य महत्वपूर्ण ' में पद हैं । इनका एक पद उदाहरणार्थ दृष्टव्य है- है । इसकी रचना मागशीर्ष शुक्ला १२ स. १८२७ मे समझि प्रोसर पायो रे जिया । हुई ।' ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया गया है ते परकू निज मान्यों यातं पापा कू विसरायोरे ॥१ तदुपरान्त देश वर्णन के अन्तर्गत कवि परिचय देते हुए गल विचि फांसी मोह को लागी इन्द्रिय सुत ललचायौरे ॥२ जयपुर राज्य का ऐतिहासिक वर्णन बहुत ही सुन्दर ढग से भ्रमति अनादि गयो प्रेसही, प्रजहूं मोर न पायो रे॥३ किया है । ग्रन्थ के मूलतः दो भाग है। प्रथम मे मगला. करत फिरत परको चिन्ता तू नाहक जन्म गंवायो रे ॥४ चरण स्वर्ग नरक वर्णन, नृपवश तथा नगर उत्पत्ति वर्णन जिन 'साहिब' की वाणी उरपरि शुध मारग दरसायोरे॥५ प्रादि है एवं दूसरे भाग मे नीतिसार ग्रन्थ का पद्यानुवाद बखतराम है जिसमे जैन धर्म का ऐतिहासिक वर्णन, संघ उत्पत्ति बखतराम शाह का जन्म चाटसू (चाकसू-जयपुर) भट्टारक पट्टावली, श्रावक उत्पत्ति अनेक सूक्तिया तथा मे हुआ था। इनके पिता का नाम प्रेमराज था । जय अन्त मे अपनी (कवि) लघुता बताते हुए ग्रन्थ समाप्त पुर नगर का लश्कर जैन मन्दिर इनकी साहित्यिक गति. किया गया है। कवि के स्वयं के शब्दो मे ग्रन्थ का प्रमुख विधियों का केन्द्र था। इन के समय में जयपुर मे धार्मिक उद्देश्य विविध शास्त्रो के अनुसार जिन धर्म की चर्चा सुधार पान्दोलन चल रहा था जिसके नेता महापण्डित है। टोडरमल जी थे । इस प्रकार ये टोडरमल के समकालीन जयपुर के बाजारों मे सुन्दर चोपडे, चौक तथा थे। बखतराम शाह स. १८४२ से १८४५ तक जयपुर उनमे कुण्ड प्रादि बनाकर उनमे नहर से पानी लाए जाने राज्य के दीवान भी रहे।' उस समय इन्होने जयपुर तथा एव उस मीठे पानी को जनता द्वारा उपयोग में लाए जाने अपातपुरा में जिन मन्दिरो का निर्माण भी कराया। का कितना सुन्दर चित्रण कवि ने इन पक्तियो मे किया वखतराम शाह की निम्नलिखित रचनाए उपलब्ध है१. मिथ्यात्व खंडन नाटक'। चौपरि के कीन्हें हैं बजार, बिचि विचि बनाये चोक चार। २. बुद्धि-विलास। स्याये नेहरि बाजार मांहि, बिचि में बेबे गहरे रबाहि ।। ३. पद। चौकनि में कॅडरचे गंभीर, जगपीवत तिनको मधुर नीर ।। १. यह ग्राज्ञा पाई बखतराम गोत है साह चाटस ठाम । इस ग्रन्थ में १५२६ पद्य हैं। भाषा ढूंढारी है। दोहा पहित कल्याण ते बिनती कीन, चौपाई, सोरठा, छप्पय तथा कुण्डलिया प्रादि छदो का यन कोई ग्रंथ रच नवीन ।। -बुद्धिविलास प्रयोग हुआ है। २.हिन्दी पद सग्रह-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल पृ.१६१ ७. मिथ्यात्व खडन नाटक-छ. स. १४०७ । ४. राजस्थान के जैन भडारों की सूची-भाग ३ (भूमिका) , 1) ८. सवत अठारह सतक, ऊपरि सत्ताईस । ४. शास्त्र भडार बाब दुलीचन्द वि. स, ५७७ एवं प्रामेर मास मगसिर पखि सुकल तिथि द्वादसी लहीस ॥ शास्त्र भंडार के वि. सं. २०३९ । -बुद्धिविलास ५. आमेर शास्त्र भडार वि. स. १८८१ (यह काव्य रा. ६. वरन्यो बुद्धि विलास यह, ग्रन्थादिक अनुसार । प्रा. वि. प्र. जोधपुर से प्रकाशित भी हो गया है। है जिन धर्म अनूप की, चर्चा यामे सार ॥११॥ ६. भामेर शास्त्र भंडार। -बुद्धि विलास Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक को गोम्मट मूर्तियां ले० प्राचार्य पं. के. भुजबलो शास्त्री कर्नाटक में गोम्मट की अनेक मूर्तियाँ हैं । चालुक्यों के पन समारोह में विजय नगर के तत्कालीन राजा द्वितीय समय में ई. सन् ६५० में निर्मित गोम्मट को एक मूर्ति देवराय उपस्थित थे। कार्कल एक सुन्दर राजधानी था बीजापुर के बादामी में है । कर्नाटक की वस्तु कला को ही। प्रब गोम्मटेश्वर की मूर्ति के कारण विशेष प्रसिद्ध विकास करने में प्रमुख सहयोग देने वाले तलकाह के गंग हो गया और जनों का एक तीर्थस्थल बन गया। मूर्ति राजामों के शासन काल मे गङ्गराज रायमल्ल सत्य- की दाहिनी और खुदे लेख में संस्कृत में अङ्कित है कि वाक्य के सेनापति व मत्री चामुण्ड राय द्वारा श्रवणबेल. शालिवाहन शक १३५३, ई० सन् १४३१.३२ में गोल में ई. सन १८२ में स्थापित विश्व प्रसिद्ध गोम्मट विरोधिकृत संवत् की फाल्गुन शुक्ला ११ बुधवार को, मति है । मैसूर के समीप गोम्मटगिरि में १४ फुट ऊंची कार्कल के भररसों के गुरु मसूर के हनसोगे देशी गण के एक गोम्मट मूर्ति है जो चौदहवी शदी मे निर्मित है। ललित कीति जी के प्रादेश से चन्द्रवश के भैरव राजा के इसके समीप ही कन्नबाड़ी (कृष्णराज सागर) के उस पुत्र वीरपाड्य ने इसे स्थापित किया। पार १२ मील दूरी पर स्थित बसदि होसकोट हल्ली में वेणर स्थित गोम्मट मूर्ति को वहाँ के समीप कल्याणी गङ्ग कालीन एक गोम्मट मूर्ति है जो १८ फुट ऊंची है। नामक स्थान के शिला से बनाया गया था । श्रवणबेस्गोल सर राज्य अन्वेषण विभाग ने हाल में इसका अन्वेषण मे चामडराय द्वारा स्थापित गोमा म किया। दक्षिण कन्नण जिले के काल मे ४२ फुट ऊची तिम्मण्ण अजिल ने अपनी राजाधानी में भी ऐसी ही एक एक गोम्मट मूर्ति है जिसे ई० सन् १५६२ मे वीर पाण्ड मूर्ति स्थापित करने का निश्चय किया और यह मूर्ति ने बनवायी थी। श्रवणबेलगोल के भट्टारक चारुकीति की खदवायी। शिल्पी के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। प्रेरणा से तिम्मराज अजिल ने वेणूर मे ई० सन् १६०६ गोम्मट मति की दाहिनी ओर खुदे लेख में जो संस्कृत मे में पतीस फुट ऊंची एक गोम्मट मूर्ति स्थापित की थी। है, बताया गया है कि चामुण्डराय के वश के तिम्मराजने कर्नाटक की गोम्मट मूर्ति का निर्माण पहाड़ी शिला श्रवणबेलगोल के अपने गुरु भट्टारक चारुकीति के प्रादे. से हमा है। माज भी वह स्थान हम देख सकते हैं। शानुसार शालिवाहन शक १५२५ शोषकृत संवत के गहमति बनाने में बहुत समय लगा होगा। अनुमान है कि वार १ मार्च २६०४ को इसका प्रतिष्ठापन कराया। इस मूर्ति का वजन करीब ४०० टन है। मूर्तिकार का मूर्ति के बायी प्रोर के कन्नड पद्यों में भी यही बात रहिल. असली नाम प्रशात है। परन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि खित है। तत्कालीन राजधानी वेणर प्रच्छी लत उन दिनों भनेक चतुर शिल्पी तुलु राज्य मे अर्थात भाज- थी। माज भी हम वहाँ राजमहल मादि के चिह्न देख कल के दक्षिण कन्नड व उत्तर कन्नड जिलो में थे। सकते हैं। कारकल की इस मूतिके निर्माण के सम्बन्ध में चन्द्रम कवि श्रवणबेलगोल के गोमटेश्वर इसके बारे में देखें। sauda सपने 'गोमेटेश्वर चरित' में बहुत कुछ लिखा है। उत्तराभिमुख स्थित यहाँ की यह मूर्ति विश्व की प्रसिद्ध विकी यह कृति मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रका- प्राश्चर्यजनक वस्तुमों मे एक है। लम्बे बड़े कान, लम्बी यद्यपि इसमें प्रत्युक्तियाँ है तथापि वास्तविक वाहें, विशाल वक्षस्थल, पतली कमर, सुगठित शरीर कों की कमी नहीं है। कार्कल के गोम्मटेश्वर प्रतिष्ठा प्रादि ने मूर्ति की सुन्दरता बढ़ाई है। मुख पर अपूर्व तेज Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक की गोम्मट मुर्तियां व अपार शान्ति प्रस्फुटित है घुटनो तक बाबी बनाई है। कहो गई। दक्षिण कन्नर जिले के प्रसिद्ध तीर्थ स्थान के उनमें भयानक विषधर सर्प दिखाये गये है। दोनो टांगो और धर्मस्थल के दिवगत धर्माधिकारी श्री रलवर्म हेगडे की बाहुमों पर माधवी लताए फैली है। तो भी अटल ध्यानाव- इच्छा से उनके पुत्र वर्तमान धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र स्थित मुख-मुद्रा है। यह मूर्ति सचमुच तप का अवतार है। हेग्गडे कार्कल में एक बड़ी गोम्मट मति बनवा रहे हैं। यहाँ का दृश्य वस्तुत: भव्य व दिव्य है। सिंहाहन यह मूर्ति कार्कल की पुरानी मूर्ति के समान वजन की एक खिले कमल के प्राकार मे है । ीि न अपने अपूर्व होगी। राष्ट्रप्रशस्ति विजेता शिल्पी इसे बना रहे हैं । प्रयत्न मे पूर्ण सफलता पाई है। सारी दुनिया में प्रापको कर्नाटक की इन सुन्दर मतियो को देख महाराष्ट्र व कही भी ऐसी मनि नही मिलेगी। बड़े बड़े पश्चिमी उत्तर भारत के गोम्मट भक्तों ने अपने यहां भी ऐसी विद्वानों ने इस मूर्ति की शिल्पकला की खूब प्रशसा की मूर्तियां स्थापित करने का विचार किया और पारा है। इतने भारी व कठिन पत्थर पर चतुर शिल्पी ने (बिहार), बम्बई, बाहुबली देहली प्रादि स्थानों में जयपुरके अपनी जो निपुणता दिखाई है उससे भारतीय वास्तु- श्वेत सगमरमर की मूर्तियां बना कर स्थापित की गई हैं। शिल्पियों की चातुरी प्रदर्शित हुई है। ५७ फीट ऊंची कर्नाटक के बाहर की उन मूर्तियों में पारा में स्थित मूर्ति इम मूर्ति के निर्माण के एक हजार वर्ष बाद भी उसमे ही प्रथम है। यह जयपुर में बनाई गई और रेल द्वारा कोई परिवर्तन नही हुआ है। यहाँ के एक विशाल पत्थर पारा लाई गई। इस सुन्दर मूर्ति को श्रीमती नेमसुन्दरी को काट कर यह मुर्ति बनाई गई है। नामक श्रद्धालु जैन महिला ने 'जन बाला-विश्राम' नामक अब तक कर्नाटक की पुरानी गोम्मट मूर्तियों की बात कन्या विद्यालय के उद्घाटन मे स्थापित करवाया है।* साहित्य-समीक्षा १. पुरुदेव चम्पू-लेखक महाकवि अहंद्दास, (सस्कृत नई-नई कल्पनाओं, श्लेष, विरोधादि अलंकारों के पुट ने हिन्दी टीका सहित), सम्पादक अनुवादक-प० पन्नालाल इसके गौरव को बढ़ा दिया है । ग्रन्थ की भाषा पौर भाव जैन साहित्याचार्य, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ वी० प्रौढ़ है। कवि प्रहंदास की इस रचना पर किस-किस का ४५.४७ कनॉट प्लेस नई दिल्ली। पृष्ठ सख्या ४६४, प्रभाव अंकित है इसका सम्पादक ने तुलना द्वारा स्पष्टीसाइज २२४२६ । मूल्य सजिल्द प्रति का २१) रुपया । करण किया है। उससे ज्ञात होता है कि कवि पर बाण प्रस्तुत ग्रंथ चम्पू का काव्य है, इसमे प्रथम जैन तीर्थ भट्ट की कादम्बरी और हरिचन्द की दोनों कृतियोंकर प्राविनाथ या पुरुदेव का रचित गद्य पद्य मे वर्णित जीवधर चम्पू और धर्मशर्माभ्युदय का प्रभाव रहा है। है। कथावस्तु की दृष्टि से यह काव्य विशेष महत्त्वपूर्ण विद्वान सम्पादक ने मूलग्रन्थ के श्लिष्ट और क्लिष्ट है। क्योकि पुरुदेव का जीवन परिचय प्रत्यन्त रोचक मोर पदों में छिपे हुए प्रथों को सस्कृत टीका द्वारा उद्घाटित उपदेशप्रद है। इन्ही पुरुदेव (ऋषभदेव) के पुत्र भरत किया है। और सरस हिन्दी अनुवाद द्वारा उसे सुगम और चक्रवर्ती पोर बाहुबली के जीवन चरित भारतीय सांस्क ग्राह्य बना दिया है । सम्पादक का यह प्रयास पभिनन्दतिक इतिहास के उज्ज्वल निदर्शन है। इन्ही भरत के नीय है। उनका साहित्यिक प्रेम भी सराहनीय है। इससे नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। विद्याथियो के प्रतिरिक्त अन्य पाठक उससे लाभ उठा पंथ मे दश स्तवक है जिनमें ३ स्तवको मे भगवान मादि- सकेंगे। नाथ पौर उनके पुत्र भरत तथा बाहुबली का चरित्रचित्रण भारतीय ज्ञानपीठ का यह प्रकाशन उसके अनुरूप किया गया है। ग्रन्थका कथानक सुन्दर एव सरस है, काव हा है इसके लिए उसके संचालक गण विशेष धन्यवाद मे ससे पौर भी रोचक बनाने का प्रयत्न किया है। कविने के पात्र है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वर्ष २५, कि.. अनेकान्त २. गाय कुमार चरिउ-मूल लेखक, महाकवि पुष्प- तानों के लिये नय विषयक सामग्री एक स्थान पर मितरे : दन्त, सम्पादक अनुवादक हा हीरालाल जैन, प्रकाशक में सुविधा हो गई है। और उमसे नयोंके सम्बन्ध में विशेष भारतीय ज्ञानपीठ वी. ४५-४७ कनॉट प्लेस न्यू देहली-१। जानकारी मिलती है । अनुवाद प्रच्छा पौर सुगम है। प्रस्तुत ग्रन्थ में नागकुमार का चरित अंकित किया सम्पादक ने ४० पृष्ठ की अपनी महत्वपूर्ण प्रस्तावना गया है जिनका चौबीस कामदेवों की गणना मे में नय चक्र पर अच्छा प्रकाश डाला है। पौर प्रन्थ कर्ता अन्तर्भाव है। नागकुमार ने पूर्व जन्म में श्रुतपंचमी के व्रत माइल्ल घवल के रचना काल पर प्रकाश डालते हुए नय का अनुष्ठान किया था, उसी के पुण्य फल के परिणाम के सम्बन्ध में अच्छा विवेचन किया है। प्रस्तावना पठ. स्वरूप वे कामदेव हुए। नागकुमार का जीवन परिचय नीय है । इस महत्त्वपूर्ण रचना के लिए विद्वान सम्पादक अत्यन्त रोचक और प्रिय रहा है। इसी से संस्कृत प्राकृत और उत्तम प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ दोनों ही पौर अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों में उनकी जीवनगाथा प्रकित धन्यवाद के पात्र हैं। स्वाध्याय प्रेमियों को ग्रन्थ मंगाकर करने का विभिन्न ग्रन्थकारों ने प्रयास किया है। पढ़ना चाहिए। प्रन्थ । परिच्छेदों में निबद्ध है। डा. हीरालाल जी ४. रत्न करण्ड भावकाचार-(सस्कृत हिन्दी टीका जैन समाज के सम्माननीय विज्ञान हैं। उन्होंने प्रस्तन ग्रन्थ सहित)-मूल का प्राचार्य समन्तभद्र, सस्कृत टीकाकार का हिन्दी अनुवाद, संस्कृत टिप्पण, शब्दकोष और विस्तृत प्रभाचन्द्र, हिन्दी रूपान्तर कार एवं सम्पादक पं पन्नालाल अंग्रेजी-हिन्दी प्रस्तावना के साथ समलंकृत किया है। साहित्याचार्य, प्रकाशक डा० दरबारी लाल कोठिया मंत्री, प्रस्तावना में ग्रन्थ का मागोपांग अध्ययन प्रस्तुत वीर-सेवा-मदिर ट्रस्ट, १११२८ दुमराव बाग कालोनी, किया गया है। डा. हीरालाल जी ख्यातिप्राप्त विद्वान वाराणसी ५, पृष्ठ सख्या २७५ मल्य सजिल्द एक प्रति हैं। उन्होंने साहित्य-सेवा का महान कार्य किया है। उनकी का८) रुपया। यह कृति विश्वविद्यालयों के पनठक्रम में रखे जाने के योग्य प्रस्तुत ग्रन्थ एक श्रावकाचार है जिसमें प्राचार्य है। इससे यह ग्रन्थ अपभ्रश भाषा के अध्येता विद्यार्थियों समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र के लिए तो उपयोगी है ही, अन्य पाठकों के लिए भी का वर्णन करते हुए श्रावक धर्म का प्रच्छा वर्णन किया पठनीय है । डा. साहब ने अपभ्रंश भाषा की समृद्धि में जो है। इस ग्रन्थ पर प्रभाचन्द्र की एक सस्कृत टीका है, योगदान दिया है, इसके लिए वे समादरणीय हैं। भार- जिसमें पद्यों का सामान्यार्थ दिया हुआ है और कहीं-कहीं तीय ज्ञानपीठ का यह प्रकाशन सुन्दर है। मंगाकर अवश्य कुछ विशेष विवेचन भी मिलता है। व्रतों में प्रसिद्ध होने पढ़ना चाहिए। वालों की कथाएं भी टीकाकार ने दी हैं। ३. नयचक्र-मूल कर्ता माइल्ल घवल, सम्पादक सम्पादक जी जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान तथा अनेक प्रनवादक पं. कैलाशचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री। प्रका- ग्रंथों के टीकाकार और सम्पादक है। प्रापने प्रस्तुत टीका RTET और rue .. शक भारतीय ज्ञानपीठ हेड ग्राफिस बी. ४५-४७ कनांट का हिन्दी अनुवाद किया है, और टीका के मन्तव्य को प्लेस नई दिल्ली, पृष्ठ सं० ३२६ मूल्य १५ रुपया। स्पष्ट करने के लिये विशेषार्थों की योजना की है। विशेप्रस्तुत ग्रन्थ में सम्पादक ने माइल्ल धवल के द्रव्य षार्थ लिखते समय उन्होंने टीकाकार की मान्यता को पुष्ट स्वभाव नयचक्र का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। और विशेषार्थों द्वारा उम के विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। परन्तु मूल ग्रन्थकार की मान्यता से उसका किया है। दोहों में रचे हुए द्रव्य स्वभाव प्रकाश को माइल्ल सामंजस्य नहीं बैठता । प्राचार्य समन्त भद्र की मान्यता में घवल ने गाथाबद्ध किया। यह रचना देवसेन के मल नय- सम्यग्दृष्टि कुलिंगी वन्दनीय नहीं है । उसका स्पष्ट निषेध चक्र से बहुत अधिक परिमाण को लिए हुए है। है और सम्पादक की भी निजी मान्यता ऐसी नही है। प्रतः सम्पादक ने परिशिष्ट नं०१ मे देवसेन की पालाप उन्हें स्पष्ट करना चाहिए था कि यह मान्यता टीकाकार पद्धति का हिन्दी अनुवाद दिया है। पौर परिशिष्ट न०२ की है, मलकार की नही है मस्त ग्रन्थ उपयोगी है, स्वामें प्राचार्य विद्यानन्द द्वारा श्लोक वार्तिक में दिये हुए नय व्याय प्रेमियों को मंगा कर अवश्य पढ़ना चाहिए। विवरण का भी हिन्दी अनुवाद दे दिया है । जिससे मध्ये -परमानन्द शास्त्री: Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) शोध छात्रवृत्ति जैन विश्वभारती जैन विद्या के अध्ययन, अनुमधान एवं साधना का केन्द्र है। यह केन्द्र जैन विद्या के क्ष त्र में शोधरत विद्यायिो के प्रति वर्ष चार शोधवृत्ति प्रदान करेगा। नियम :-- (१) भारत के सभी विश्वविद्यालयों में जन विद्या पर पी. एच. डी अथवा उच्च अध्ययन हेतु कार्यरत शोधाथियों के लिए, विश्वविद्यालय के मान्य निर्देशक के अन्तगत कार्य करने वालों को यह छात्रवत्ति उपलब्ध हा सकेगी। यह राशि २०० रु० मासिक होगी। (२) जन विद्या के सम्पादित ग्रन्थ, पालोचनात्मक एवं उनके हिन्दी अथवा अंग्रेजी अनुवाद हेतु एक छात्रवृत्ति होगी। यह १५० म० प्रति माह होगी। (३) छावनि की अवधि दो वर्ष होगी। (अ) शोध छात्र को प्रत्येक छ माह के बाद जैन विश्वभारती में पाकर गति-प्रगति से अवगत कराना होगा। कार्य को गति मे मतुष्ट होने पर छ. माह की अवधि बढा दी जावेगी। (ब) प्रत्येक वर्ष की समाप्ति पर शोध छात्र को जैन विश्वभारती में ३ माह की सेवाये देना अनिवार्य होगी। शिक्षा एवं शोध कार्य सम्बन्धी सेवाय होंगी। इन तीन मास की अवधि में २५०) रु० को छात्रवृत्ति होगा। शोध छात्राएँ इम शन से मुक्त रहेगी। (४) छात्रवनि प्रति वर्ष जनवरी मास मे प्रारम्भ होगी। (५) आवेदन पत्र में छात्र, अपना नाम, शोध विषय, निर्देशक का नाम तथा विश्वविद्या लय के रजिस्ट्रेशन की प्रतिलिपि, विश्वविद्यालय की अन्तिम परीक्षा के अंकों की प्रतिलिपि भेजनी होगी। (६) आवेदन पत्र-१ दिसम्बर ७२ तक मंत्री जैन विश्वभारती के पास पहुँच जाना चाहिए। (७) इस बार छात्रवत्ति जनवरी ७३ से उपलब्ध होगी। पत्र व्यवहार का पता :डा० महावीर राज गोलड़ा, स्नातकोत्तरीय अध्यक्ष, डूंगर कालेज, बीकानेर (राज.) भवदीय : महावीर राज गोलडा (मानद) मत्रो, जैन विश्वभारती, लाडनं (राज.) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन २.०० परातन जनवाक्य-सूची . पाकृत के प्राचान ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उदधत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो का सूची । सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) में भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । स्तुतिविद्या : स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्नार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-महित । १-५० अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १-५० युक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही या था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अनकृत, मजिन्द। ... श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७ शासनचतुस्त्रिाशका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी ममन्त भद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और प० परमानन्द शास्त्री को इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलकृत, सजिल्द । ... ४-०० समाधितन्त्र प्रौर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका महित ४.०० अनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ तत्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । श्रवणबलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । १-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य २५ अध्यात्मरहस्य : प. पाशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० जनप्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टों सहित। सं. प० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२.०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ मख्या ७४० सजिल्द कसायपाउसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों मे । पृष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द । २०-०० Reality : प्रा०पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में पनुवाद बड़े प्राकार के ३०० प. पक्की जिल्द ६.०० जंन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया प्रकाशक-वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित । Page #154 --------------------------------------------------------------------------  Page #155 --------------------------------------------------------------------------  Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5212 वर्ष २५ : किरण ४-५ द्वैमासिक अनेकान्त भगवान महावीर अक्टूबर १९७२ दिसम्बर १६७२ लखनादौन से प्राप्त भगवान महावीर की कलचुरी कालीन प्राचीन दिगम्बर जैन मूर्ति समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची क्र. १४२ १८६ १५१ विषय पृ० ऋ० विषय १० १. श्री महंतपरमेष्ठी स्तवन १३७ १४. जोगीगमा-कविवर भगवती दास १७५ २. ज्ञान दीप जलाप्रो-मुनि श्री विद्यानन्द जी | १५. जैन धर्म एव यज्ञोपवीत-श्री बशीधर जैन महाराज १३८ एम. ए. १७७ ३. लोकभाषा अर्धमागधी और भगवान महावीर १६. काष्ठा संघ : एक पुनरीक्षण--प्राचार्य के• भुजबली डा० विद्याधर जोहरापुरकर १८८ ४. श्री महावीर : एक विचार व्यक्तित्व १७. श्री शान्तिनाथ स्तोत्रम् -वर्ष २५ कि. ५, श्री जमनालाल जैन नवम्बर दिसम्बर १९७२ । ५. चन्द्रावती का जैन पुरातत्त्व १८. लखनादौन की अलौकिक जिन प्रतिमा___ श्री मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी (शोधछात्र) १४५ डा० सुरेशचन्द्र जैन १६० ६. अपनत्व-श्री मुनि कन्हैयालाल १४७ | ३६. कवि विनोदीलाल-परमानन्द जैन शास्त्री १६३ ७. व्यवहार नीति के अगाध स्रोत-जातक एव |२०. तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकार द्वारा स्वीकृत परधम्मपद-डा० बालकृष्ण 'अकिंचन' १४८ माणु का स्वरूप-सनमत कुमार जैन एम. १६५ ८. रयणसार : प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचना २१. भगवान महावीर का २५०० सौवा निर्वाण ले० डा०देवेन्द्र कुमार शास्त्री दिवस १६५ ६. राजस्थान के जैन कवि और उनकी रचनाएँ २२. शिवपुरी मे पचकल्याणक प्रतिष्ठा-डा. गजानन मिश्र एम. ए., पी. एच. डो. श्री सम्मत कुमार जैन एग. ए. १६८ माई.ई. ऐस. | २३. पावागिरि ऊन - श्री बलभद्र जैन १६६ १०. बौद्धधर्म में ध्यान चतुष्टय :एक अध्ययन- २४, शिवपुरी महिमा-श्री घासी राम जन चन्द्र २१२ डा० धर्मेन्द्र जैन एम. ए., पी. एच. डी. १६१ | २५. चाणक्य-श्री परमानन्द जैन शास्त्री २१४ ११. मालवभूमि के प्राचीन स्थल व तीर्थ २६. क्या प्राणी सुखदुःख प्राप्ति में पराश्रित है? श्री सत्यधर कुमार सेठी मथुरादास जैन एम. ए., साहित्याचार्य २१८ १२. जन संस्कृति के प्रतीक मौर्यकालीन अभिलेख | २७. वीर सेवा मन्दिर के कुछ प्रकाशन - --डा. पुष्पमित्र जैन एम. ए., पी-एच. डी. १७० परमानन्द जैन शास्त्री १३. रामगुप्त के अभिलेख-परमानन्द जैन शास्त्री १७४ २८. हम मुखी कैसे बनें-मथुगदास जैन एम. ए., साहित्याचार्य २२२ सम्पादक-मण्डल २६. श्री भारवर्षीय दि जैन परिषद् स्वर्ण जयन्ती डा० प्रा० ने० उपाध्ये -मथुरादास जैन एम. ए., साहित्याचार्य २२३ डा०प्रेमसागर जैन ३०. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द जैन शास्त्री २२४ श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्रो २२० भनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ महम अनेकान्त पर परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलमितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ बर्ष २५ } वर्ष २५ किरण ४ । बोरसेवा-मस्बिर, २१ वरियागंज, दिल्ली-६ ।। वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६६, वि० स० २०२६ । सितम्बरअक्टूबर १९७२ आदिनाथ-जिन-स्तवन कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपति भिसूनुर्महात्मा मध्याह्न यस्य भास्वानुपरिपरिगतो राजतिस्मोप्रमूर्तिः । चक्रं कर्मेन्धनानामतिबहु दहतादरमौदाख्यवातस्फर्जत्सद्ध घानवह्नरिव रुचिरतरः प्रोद्गतो विस्फुलिङ्गः ॥१॥ -पानन्द्याचार्य काउसग मुद्रा धरि वनमें ठाड़े रिषभ रिद्धि तजि बीनी । निहिल अंग मेरु है मानो दोऊ भुजा छोर जिनि बीनी । फंसे अनन्त जन्तु जग-चहले दुखी देख करुणा चित लोनी। काउन काज तिन्हें समरथ प्रभु, किषों बांह ये दीरघ कोनी।। -भूघरवास अर्थ-कायोत्सर्ग के निमित्त से जिनका शरीर लम्बायमान हो रहा है, ऐसे वे नाभिराय के पुत्र महात्मा प्रादिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें, जिनके ऊपर प्राप्त हुप्रा मध्यान्ह (दोपहर) का तेजस्वी सूर्य ऐसा सुशोभित होता है मानो कर्म रूप ईन्धनों के समूह को अतिशय जलाने वाली एवं उदासीनतारूप वायु के निमित्त से प्रगट हुई समीचीन ध्यान रूपी अग्नि की दैदीप्यमान चिनगारी ही उन्नत हुई हो। विशेषार्थ-भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र को ध्यानावस्था में उनके ऊपर जो मध्यान्ह काल का तेजस्वी सूर्य प्राता था उसके विषय में स्तुतिकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि वह सूर्य क्या था मानों समताभाव से पाठ कर्मरूपी ईन्धन को जलाने के इच्छक होकर भगवान प्रादिनाथ जिनेन्द्र द्वारा किये जाने वाले ध्यानरूपी अग्नि का विस्फुलिंग ही उत्पन्न हुआ है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान दीप जलाओ मुनि श्री विद्यानन्द जलाने की धुन तो प्रायः बहुतों में है परन्तु जनाने का विवेक नहीं है । परिणामस्वरूप किसी का तन जल रहा है तो किसी का मन जल रहा है। किसी की शाति को भाग लगी है तो कोई अपन्तोष के प्रगारे उछाल रहा है। इनसे घोर चाहे जो कुछ हो, प्रालोक प्राप्ति नहीं हो सकती । भाग छुट्टी घर लागी माज सम्पूर्ण राष्ट्र असन्तोष की भागमें दहक रहा है। विश्वास की प्रांधी उसके मानसिक प्राकाश को धूलघूसरित कर रही है । प्रजा और राजा (शासित शासक ) एक दूसरे के मनोभावों को जानकर भी उपेक्षा से पारस्परिक हितों पर श्राघात करते हैं। एक चोर से प्रान्दोलन चलता है, दूसरी भोर से दमनचक्र प्रवर्तित हो जाता है । आन्दोलनकर्ताओं को विश्वास है कि सरकार उग्रप्रचण्ड एवं विशाल प्रदर्शनों द्वारा ही समझायी जा सकती है । विश्व के राजनीतिक मंच पर मध्यस्थता का दर्प रखने वाले भारतीय प्रशासक अपने घर में मध्यस्थ वृत्ति का पाठ भूल गये है और गुरुकुलों की मर्यादा को श्रेष्ठ शालीन नागरिश्व से विभूषित करने वाले छात्र धोर स्नातक अपने अन्तेवासी धर्म को अथवा विद्या ददाति विनयम विद्या विनय की जन्मदात्री है. इस उत्तम पाठ को विस्मरण की गुहा में बन्द कर चुके हैं। कबीर के शब्दों मे -- भाग छुई घर लागी प्रर्थात् इस घर को आग लग गई घर के चिराग से, अपने हाथ में जिस मशाल को पथ देखने के लिए हुए है, उसी से अपने चारों मोर के वातावरण को जलाते चल रहे है । जलाइये ! वसे नही, विकार - लोग बसों, ट्रामों, मकानों, दुकानों को अग्नि दिवा रहे हैं, धनी राष्ट्रीय सम्पदा के साथ होली खेल रहे हैं। संगठन, मताधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं, स्वतन्त्रता - के शब्दों पर स्वच्छन्द वृत्ति की स्याही पोत रहे है । मानवता का मर्दन करारमा लिख रहे है । विश्व-दर्शकों के समक्ष अपने आपको स्वकृत कुचेष्टा से हास्यासपद बना रहे हैं। अपनी माँग की उपप्रथा पूर्ति के लिए जब प्रदर्शन करते हुए लोग तोड-फोड़ करते है तब ऐसा लगता है कि वे अपने ही गों को नोच रहे हैं। जब वे किसी व्यक्तिगत श्रथवा राष्ट्रीय सम्पत्ति को स्वाहा करते है तो प्रतीत होता है। कि कोई उन्मादग्रस्त अपने ही भ्रमों पर स्थिरिट डालकर आत्मदाह कर रहा है, क्योंकि प्राक्रोश को प्रकट करने का यह प्रकार अस्वस्थ है यह प्रक्रिया बीभत्स है ये रग दूषित है क्योकि इन चेष्टाष्टात समूहका हार्दिक भाव समाविष्ट है और ये चेष्टाएं विकृत है, अतः कहा जा सकता है कि यह विरोध स्वस्थ नहीं है । विरोध करने की दिशा में जैन परम्पागत पवित्र साबको को महात्मा गांधी ने हिंसक सत्याग्रह, मौन, उपवास, सविनय अवज्ञा आदि साधुवृत्ति के प्रयोग किये हैं, हिसात्मक उपायों का अवलम्बन कभी नहीं लिया । स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिक यदि अपने साथ ही बर्बर भाचरण करें तो अन्य लोग उनके साथ भाचार के उन्ही मानदन्डो को अपनाने लगेगे । एक जलाने के प्रसंग को ही लें। सूर्य जलता है, चन्द्र जलता ग्रह-तारे, ग्रग्नि स्फुलिंग सभी अपने-अपने सामर्थ्य के धनुसार जलते है, परन्तु तिमिर को अन्धकार को यों अपने ही प्रकाश में खड़े हुए मनुष्य को अन्धा नहीं करते । तेजस्वी का सहज धर्म जलाना हो सकता है, परन्तु वे प्रशुचि तथा बाधक तत्वों को ही जलाते है । इस प्रकार का यह जलाना ग्रात्मशुचिकारक है। कोई भी किसी बस को जलाये, इससे अच्छा है वह अपने अन्तरंग प्रसं तोषमूलक अधिकार को जलाये ज्योति की धनि की उपासना तो अन्धकार परिहार के हेतु है प्रपने में तिमिर Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान-दीप जलामो हटाकर ज्योनि का करना, यही बुद्धिमानों का मभीप्सित धनी व्यक्ति जिस पद की वापथ लेता है उसकी योग्यता घन है। के स्वानुभूत बिम्ब देखता है, केवल पद को धर्षित करने घर फूंक तमाशा: के लोभ में मासन रोकने वाले अपने को प्रसारित करते जान के समान पवित्र अन्य कोई वस्तु नहीं है पोर हैं। जिनके प्रादो की छाया में राष्ट्र धर्म पल रहा है ज्ञान ज्योति स्वरूप (प्रकाशमय) है। इस प्रकाश को वह महात्मा गांधी प्रपती भल स्थल रूप से हम स्व-पर प्रकाशक अग्नि ससुत्पन्न देखते को बोषपाठ देते थे। प्राज के नेतामों की प्रवृत्ति है दूसरों है। एतावता अग्नि ज्ञान जैसे स्व-पर प्रकाशक है मार में दोषोभावना। वे स्वयं दूध के धुले रहकर दूसरों को इस ज्ञानाकार उपादान से दाहात्मक क्रिया करते हुए पंक में सना हमा कहते हैं, परन्तु स्वयं की गरिमा के हम प्रज्ञान का दोहन करें, यह कितनी सोचनाय बात हा स्तोत्र पढे वह यशस्वियों के नहीं दम्भ-कूवालों के लक्षण अग्नि से अन्न का परिपाक होता है और उससे जलाया हैं। भी जा सकता है। यह तो प्रभोक्ता की योग्यता पर पहरुए तो सो रहे हैं निर्भर है कि वह अग्नि द्वारा रोटी सेंककर उसे तृप्ति का राष्ट्रव्यापी अन्धकार में जो सुखनिद्रा ले रहे हैं । साधन बनाए, अथवा उसी अग्नि को अपनी झोली मे दमन चक्र को योग्यता पदक समझते हैं और राष्ट्र की टांककर घर कूक तमाशा देखे । यही बात ज्ञानरूप प्रन्नि प्रात्मा मे झांकने का प्रयत्न नहीं करते, वे अपने प्रति, के प्रयोग-विषय मे कही जा सकती है। अपनी शपथ के प्रति, अपनी नैतिकता के प्रति उपेक्षावान् निष्ठा : अपने पति हैं, अनुदार है। शासन यदि नित्य उठकर मुर्दावाद के ___ जनता मान्दोलन करे और पुलिस लाठी चलाये सभाघोष सुनता है, यदि प्रसन्तुष्ट प्रजामों के रोप-अरुण इसमें पुलिस पर पत्थर बरसाना कहाँ की युक्ति है ? नेत्रों की अग्नि-वर्षा में जलता है तो यह उसके लिए क्योंकि पुलिस तो सरकार के हाथ-पैर हैं इन्हें संचालन अक्षुण्य है, प्रकीति शिलालेख है। जो राष्ट्र शत्रुनों से तो मस्तिष्क से प्राप्त होता है; परन्तु कहते हैं ज्वर तो घिरा हो, उसके सैनिक केसरिया बांधकर मरण-व्रत लेते शरीर को चढ़ता है और कड़वी कुनेन जिह्वा को चखनी हैं । जहाँ साधनो की अल्पता को वहाँ राष्ट्रनायक उद्योहोती है। सीताहरण तो रावण ने किया; परन्तु हनुमान गिनः पुरुषासह मुपात लक्ष्मी का प्रातष्ठा करत गिन; पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी की प्रतिष्ठा करते हैं मोर को दुःख हो गया। इसी प्रकार अन्य के दोष अन्य को जहा सच्चारित्र के विपन्न होने की भावना हो वहाँ श्रेष्ठ लग जाते हैं। जब लोकप्रवास भीरु श्रीराम ने सीता का नागरिक माचार-संहितामों की व्यावहारिक रचना में परित्याग किया और सेनापति कृतान्त वक्र सती को तत्पर हो उठत है। भारत का भाग्य एसाह जहा वन में छोड़ने चले तब लोक-समुदाय ने सेनापति को सभी स्थितियां संकटप्रद होकर उपस्थित हैं, परन्तु दुर्भाग्य साक्षात् कृतान्त (यमराज) बताया; परन्तु उस मृत्य का की बात तो यह है कि पहरुए सो रहे हैं, शासक मान्दो का बात ता क्या दोष? अंगुलि घुमाने पर यदि चर्खा घूमता है तो ल्लास के कृत्रिम मायोजन में मग्न है और राष्ट्र दीपक उसकी गति को स्वतन्त्र तो नहीं कहा जा सकता ? में स्नेह पूरने वाला दिखाई नहीं देता। यशस्वी नहीं, बम्भ-कुशल पन के साथ सहिवेक सेवक सो जो करे सेवकाई सेवक तो स्वामी का जलाने की धुन तो प्रायः बहुतों में है परन्तु जलाने माशानुवर्ती मात्र है उसमें स्वचालितता नहीं होती। यदि का विवेक नहीं है। परिणामस्वरूप किसी का तन जल तन्त्र के ताने-बाने प्रपढ़ हैं तो सूत्र और पट कैसे प्रशस्त ___ रहा है, तो किसी का मन जल रहा है। किसी की शांति हो सकते हैं । शासक यदि शासितों के सुख-दुखों का को पाग लगी है तो कोई प्रसन्तोष के अंगारे उछाल रहा 'प्रारमनीव' अनुभव नहीं करते तो उन्हें गृहीत पद के है । इनसे और चाहे जो कुछ हो, मालोक प्राप्ति नही हो प्रति निष्ठावान् कसे कहा जा सकेगा? योग्य तथा मान सकती। मालोक के लिए ज्ञान का सहयोग प्राप्त करना Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकभाषा अर्धमागधी और भगवान महावीर प्राचार्य के. भुजबली जैन प्रथों से यह सिद्ध हो चुका है कि भगवान् महा- ने अपना उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिया था। यद्यपि वीर के माता-पिता रानी त्रिशला और राजा सिद्धार्थ थे। उनके समय में धर्म की भाषा को ही अपने-अपने उद्देशो ये दोनों २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के अनुयायी थे । महा- का माध्यम बनाया था। ये दोनों धर्म-प्रवर्तक किसी वीर के पिता कृण्डग्राम के शासक थे और माता त्रिशला भाषा विशेष पर मोहित नही थे। उनकी केवल यही लिच्छवि कुल के प्रशासक, राजा चेटक की विदषी एवं भावना थी कि शिक्षित-प्रशिक्षित, नीच-उच्च, गरीबरूपवती पुत्री थी। भगवान महावीर के पित-मातृ दोनो अमीर सभी लोग अपने धर्म को जाने और उसका अनु. ही कुल लोकतंत्र के प्रेमी थे। महावीर के ज्ञात सरण करें। उनकी दृष्टि में भाषा विशेष के प्रयोग का (नात) गोत्रज होने के कारण ही बौद्ध ग्रथों मे उन्हें नात महत्व नहीं था पुत्र कहा गया है। ऊपर कहा गया है कि भगवान महावीर के उपदेशो उपर्युक्त कुण्डग्राम (वैशाली) मगध देश के अन्त का माध्यम अर्धमागधी भाषा थी । इस अर्धमागधी भाषा गंत था। वहाँ की लोकभाषा मागधी थी; किन्तु प्राचीन का अर्थ भिन्न-नि विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से जैन सूत्र ग्रंथों से विदित होता है कि भगवान् महावीर किया है। सोलहवी शताब्दी के ग्रथकार श्रतसागर सूरि के मतानुसार भगवान् महावीर की भाषा का प्राधा पावश्यक है। प्रतः दीपोत्सव के पालोक पर्व पर लोगों भाग मगधदेश की भाषा, अर्थात् मागधी भाषा का रूप को चाहिए कि वे अपना प्रसन्तोष जलाए, तुच्छ वृत्तियों था और भाषा भाग अन्य सर्व भाषाओं का रूप था। की पाहुति दें, मनाचार को इन्धन बनायें, राष्ट्रीय एकता (षट प्राभत टीका ०६६)। सातवीं शताब्दी के चू की मशाल प्रज्ज्वलित करें तथा अन्तःकरण मे ज्ञानदीप कार श्री जिनदास गणी महत्तर ने निशीथ ची में की प्रखण्ड ज्योति का माह्वान करें। अर्धमागधी भाषा का अर्थ दो प्रकार से किया है, "जैसे मात्म-दर्शन की शुभ वेला मगहद्धविसयभासाणिबद्धं प्रद्धमागह, अट्ठारस देसी यह पर्व असामान्य है। भगवान् तीर्थकर परमदेव भासाणिययं प्रद्धमागहं इसमे प्रथम प्रकार का अर्थ प० महावीर की परिनिर्वाण स्मृति का ज्योतिःस्तम्भ है। वेचरदास जी ने मगध देश की प्राधी भाषा में जो निबद्ध निर्जराज्वाला में कोन्धनों की माहुति का पवित्र दिन है, वह अर्घ मागधी है यह अर्थ किया है (जैन सा० सं० हैं। केवलज्ञान से उद्भाषित है । यह द्यूतक्रीडा की नहीं, भाग १, ५४)। मात्मदर्शन की सुवेला है । बाहर के प्रदीप लौकिक निर्वाण परन्तु इसी का अर्थ पं० हरगोविन्ददास जी ने अपने मंगलोत्सव के प्रतीक हैं और माभ्यन्तर ज्ञानदीप प्रात्म- पाइप्रसद्दमहण्णव के उपोद्घात के पृष्ठ २७ मे मगध देश चेतना के प्रबद्ध प्रतीहार । भवन की देहली पर घरा हुआ के अर्घ प्रदेश की भाषा मे जो निबद्ध हो, वह अर्धमागधी, प्रदीप जैसे बाह्य तथा प्रभ्यन्तर प्रगण को समान रूप से किया है। इसका अभिप्राय यह हुमा कि मगध देश पालोकित करता है, वैसे तीर्थकर भगवान महावीर के के मांग की जो भाषा है वह अधमागधी है । उक्त जिनपवित्र परिनिर्वाण-स्मरण मे मनाया जाने वाला यह दीप दास महत्तर का प्राशय भी यही होगा, क्योंकि मगधार्थ पर्व सर्वत्र मालोकमय हो। विषय भाषा निबद्धं का अर्थ मगध देश के भर्घप्रदेश की -वीर निर्वाण विचार सेवा के सौजन्य से भाषा में निबद्ध किया जाना असगत है। मगध देश Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकभाषा प्रर्धमागधी और भगवान महावीर १४१ की माची भाषा में निबद्ध किया अर्थ किया जाना समु. का सार यही हुआ कि अर्धमागधी भाषा ऐसी एक भाषा चित नहीं है। चूर्णिकार के दूसरे प्रकार का अर्थ जो थी, जो मागधी तथा अन्य प्रान्तो को भाषाम्रो के मेल अर्धमागधी भाषा अनेक भाषामों के मेल से निष्पन्न हुई से निष्पन्न हई थी। उसी को भगवान महावीर ने अपने भाषामों का प्रर्थ करना ठीक ही है, क्योंकि भगवान उपदेश का माध्यम बनाया। उसे सभी लोग पासानी से महावीर की जन्मभूमि मगधदेश में होने से उनकी भाषा समझ लेते थे। अनेक भाषामों के मेल से बनने से ही का सम्बन्ध मगघदेश के साथ होना सर्वथा उचित है। भगवान की इस वाणी को शास्त्रो मे (सर्व भाषामयी) साथ ही साथ मगध के समीपवर्ती दूसरे-दूसरे प्रान्तों की कहा होगा। भाषामों के साथ मागधी का सम्पर्क होना भी स्वाभा• ग्रन्थों में भाषा की इस विशेषता को मगर जाति के विक ही है। इस तथ्य को हम लोग वर्तमान युग में भी देवताओं का प्रतिशय कहा गया है। अर्थात् उन देवो के देख रहे है। इसलिए अन्य प्रान्तों की भाषामों से मिश्रित द्वारा उसका परिणभन सर्व भाषामयी के रूप में कर मगधी भाषा ही अर्धमागधी होनी चाहिए। दिया जाता था। इसलिए इस विज्ञान युग मे जिन यन्त्रों मार्कंडेय ने अपने प्राकृत व्याकरण मे शौरसेनी के द्वारा एक भाषा में कही हई बात को तत्काल भिन्नभाषा के निकटवर्ती होने के कारण मागधी ही अर्धमागधी भिन्न भाषामो मे अनुवादित करने वाले यन्त्रो की मिशाल है। ऐसा अर्धमागधी भाषा का लक्षण बताया है कि मगध दी जा सकती है। उन यन्त्रों की सहायता से सुनने वाले देश और शूरसेन देश की भाषा शौरसेनी के साथ संपर्क अपनी-अपनी भाषा में उसका प्राशय सरलता से समझ होने से अर्धमागधी भाषा की उत्पत्ति सम्भव है। लेते है। बल्कि अाजकल ऐसा यन्त्र भी तैयार हुआ है प्रियेर्सन के मत से मध्य प्रदेश (शूरसेन) और मगध के जिसके द्वारा प्राप दूसरे के मन की बात को जान सकते सभी प्रान्तों की भाषा ही जन अर्धमागधी है। एक मत हैं । अर्थात् वह यन्त्र मनःपर्यय ज्ञान का काम करता है। और लीजिए-क्रमदीश्वर ने अपने प्राकृत व्याकरण में बल्कि भगवान की वाणी की विशेषता को तीर्थ हर का महाराष्ट्री से मिश्रित मागधी भाषा को अर्धमागधी कहा। अतिशय भी कहा गया है। जो भी हो भगवान महावीर है। इवेताम्बरी जैन सत्रो की अर्धमागधी मे प्रय भाषायो के द्वारा लोकभाषा में प्रदत्त उपदेश का परिणाम यह की अपेक्षा महाराष्ट्री के लक्षण अधिक उपलब्ध होने के हुमा कि व्यापक रूप से जनता पर उस उपदेश का प्रभाव कारण ही क्रमदीश्वर ने अपने व्याकरण मे ऐसा कहा पड़ा, क्योकि सभी लोग उस उपदेश को ठीक से समझ लेते थे । होगा। मगर उनकी राय से भी यही प्रकट होता है कि अन्यभाषामों से मिश्रित मागधी को ही मर्धमागधी कहते लोकभाषा मे उपदेश देने की भगवान महावीर की थे। मगध देश की भाषा मागधी थी यह बात निविवाद इस सर्वोपयोगी पद्धति को और पूज्य प्राचार्य एवं कवियों है। ऐसी दशा में प्राधे मगध की भाषा उससे भिन्न अन्य ने भी यथावत् प्रक्षुण्य रूप में अपनाया है। यही कारण कोई भाषा नहीं हो सकती, जिसको अर्धमागधी कहा जाए। है कि वे जहाँ गये वहां की भाषा सीख कर उसी मे उपइस परिस्थिति में प्रर्धमगध की भाषा को अर्धमागधी देश दिया और उसी में सर्वोच्य अथो की रचना की। कहना युक्ति सगत प्रतीत नही होता । इन सबों -(वीर निर्वाण विचार सेवा के सौजन्य से) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : एक विचार-व्यक्तित्व जमनालाल जन महावीर वज्ञानिक दृष्टि के प्रवर्तक थे। वैज्ञानिक घटनायो का प्राकार हो वैसा होता है, जैसी हमारा किमो बनाये या पूर्व निश्चित सत्य का अनुगामी नहीं वासना-प्राकाँक्षा होती है। हमारी प्रांखें लीला-प्रिय बोला। उसका सत्य सतत प्रवाहशील, प्रगतिशील पोर होती है। घटनामों में रग भरने में हमें मानन्द भाता है। निननन मायामों को प्रकट करने वाला होता है। यही रस पाता है। प्रत महावीर के जीवन के साथ भी घटसम्यक दष्टि है। सम्यकत्व-सम्पन्न माख ही ठीक-ठीक नाएं जोर देते है। दशन कर पाता है। उन्होन तो कहा कि बाहर की पाख उनकी माता को जो कुछ स्वप्न दिखाई दिये, वे का भरोसा ही न करी, विवेक की प्रास्त्र खली रखो। प्रतीक हैं महावीर के व्यक्तित्व को समझने के । ये स्वप्न ग्रथि ही बाधा है । प्रथि से छूटना ही मोक्ष है। प्रधा महावीर के सम्पूर्ण और व्यापक व्यक्तित्व का सकेत देते मनुकरण या अनुममन सम्यक्तत्व नही है। है। स्वप्नो मे उनकी मां हाथी, बैल और सिंह देखती है, ___ भगवान महावीर दीर्घ तपस्वी थे । उनकी तपस्या सूर्य और चन्द्र देखती है, फूल और प्राग देखती है, जलकुछ वर्षों की या एकाघ जन्म की नही है । वे कई कलश और मीन-युगल देखतो है; ये चीजें बताती हैं कि जन्मो तक स्वयं ही जूझते रहे हैं। इतनी लम्बी तपस्या उनका व्यक्तित्व एक ओर जहाँ फूल की तरह कोमल मोर इतना लम्बा सघर्ष शायद ही किसी ने किया हो। सुरभिमय था, वहाँ माग की तरह जाज्वल्यमान भी मनन्त उत्तार-चढ़ावो से होकर वे इस प्रन्तिम पड़ाव पर था। चन्द्र की त ह शीतल था तो सूर्य की तरह प्रखर पहुँचे थे। उनके पास इतमा अनुभव सचित हो चुका था भी था। गज की तरह बलिष्ठ था तो बैल की तरह कि उनका अन्तिम प्रारम स्तर अनन्त दर्शन और अनन्त कर्मठ या और सिंह की तरह निर्भय था । ज्ञान में प्रखर, ज्ञान से सम्पन्न हो गया था। वे सम्पूर्ण सचराचर जगत् करुणा में कोमल-इस प्रकार शान्ति और क्रान्ति का अनन्त पर्यायो के ज्ञाता.दृष्टा हो गए थे। वे किसी एक जगह भाकर इकट्ठा हो गई थी। सागर की गहराई मादशं, किसी वल्पना और किसी गणित की धारणा से और हिमालय की ऊचाई एक जगह मा गई थी। महाअभिभूत नहीं थे। वीर का यह व्यक्तित्व दिनो-दिन चुपचाप वर्धमान होता वर्द्धमान महावीर का जीवन-घटना-बहुल नहीं है। गया। वर्धमान शब्द के साथ परिवार तथा गाँव-समाज घटनामों में उनके व्यक्तित्व को खोजना व्यर्थ है, नादानी की समदि जोड़ना बहत छोटी बात लगती है। है। ऐसी कौन सी घटना शेष थी जो अनन्त भावों में महावीर सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक रूप हो गये उनके साथ न घटी हो, लेकिन अब तो घटनाएं पीछे छूट थे। वे पूर्ण महिसक थे। उन्होंने जड़ और पशु जगत् गई थी। अब तो वे उस पथ के नेता थे , जहां उन्हें पहुँ- के साथ तादात्म्य अनुभव किया था। इस एकात्मता, चना था और जो उन्हे स्पष्ट दिखाई दे रहा था। पब तो समरसता के लिए वस्त्र बाधक ही हैं। महावीर की घटनाएं उनके लिए गढ़ी जा रही थी, मानो उनके व्यक्ति- नम्नता उनके ज्ञान का प्रग थी। चरित्र का अंग नहीं त्व को संपुट मे बन्द किया जा रहा था। थी। एक स्तुति मे कहा ही है कि जो कुरूप, बेडौल और यह हमारी अपनी वासना मोर भाकांक्षा है कि हम वासना ग्रस्त होता है वही वस्त्राभूषण तथा मायुध घटनामो में व्यक्तित्व को देखते हैं, उसमें रस लेते हैं। रखता है, भाप तो सर्वांग सुन्दर हैं। सच तो यह है कि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : एक विचार व्यक्तित्व १४३ वस्त्रों से, परिधान से, मावरण से, वासना और विकार पुरुष को, अनन्त ज्ञानी को या सम्यज्ञानी को छोना अधिक ही उजागर होते हैं। महावीर का जीवन तो क्या था? क्या वे इन सब बाह्य पदार्थों में रमे हुए थे खुली किताब था, माकाश की तरह स्वच्छ, निर्मल था या इनको पकड़े हुए थे कि छोड़ना पड़ा था ? उनको तो वहाँ हर तरह का भावरण बाधक था। उनके चरण ऐसे अपने पथपर आगे बढ़ना था। इस प्रक्रिया में जो कुछ पीछे पड़ते थे मानों घरा कमल का स्पर्श कर रही हो अथवा छटना था, छूट गया। न उनके साथ कुछ माया था, यों भी कह सकते हैं कि जहां भी उनके चरण पड़ते थे न कुछ साथ जाना था। यह तो प्रासक्त या परिग्रही वहाँ का वातावरण एक सुगंधि से, पवित्रता से भर जाता लोगों को लगता है कि किसी ने कुछ छोड़ा। मासक्त था। उनके तन की स्वाभाविक और प्रखर क्रान्ति जन- चित वस्तु को पकड़े रखता है, उससे चिपका रहता है। जन का मन मोह लेती थी उनके तन को निरख कर छोड़ना उसके लिए बड़ी बात है और जब महावीर यो वासनाग्रस्त अथवा मलिन मन पवित्र हो उठता है। उस ही सहज भाव से निकल पड़े तो उलझे लोगो के लिए, वीतराग-दर्शन में स्त्री-पुरुष का भेद मिट गया था। असमर्थ लोगों के लिए वह चमत्कार बन गया । एक जिनके तन में दुग्ध के रूप में मातु-वात्सल्य भरा हो, समारोह की शक्ल ले बैठा और ऐसे ही भोग से भरे वहाँ शरीर को सजाने संवारने का प्रश्न ही कहाँ रहता लोगों की तालिका बना ली कि महावीर ने क्या-क्या है ? विकार तो उसमें होता है जिसमें शक्ति नहीं होती। त्यागा। महावीर तो जानते थे कि महल मकान तो दूर हमारे सारे प्रावरण हमारे घनीभूत विकारों के प्रतीक है। यह तन भी उनका नहीं है, यह भी एक प्रावरण ही है। केवल ज्ञान-जन्य दस विशेषताएं वणित है। शुद्ध उसे भी जिस दिन छूटना है, छूट जायगा। उनकी कही ज्ञानी का व्यक्तित्व सूर्य सा तेजस्वी, स्फटिक जैसा पार कोई पकड़ या जकड नहीं थी। यही कारण है कि उनका दर्शक, प्राकाश की तरह निर्मल, फूल से भी कोमल, सहज अभिनिष्क्रमण हमारे लिए महान मंगल बन गया, चन्द्र से भी शीतल होता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन कल्याणक बन गया; जो कहते हैं कि महावीर ने इतना. सृष्टि के कण-कण के साथ प्रोत-प्रोत हो जाता है। इतना त्यागा, यह महावीर की प्रात्मा की पावाज नहीं महावीर का अस्तित्व ही परम मगलकारी था, उनके है. यह उन लोगों की भाषा है जिनके मन में भोग भरा दर्शन मात्र से प्रापमी वैर-विरोघ मिट जाता था, उनकी है और त्याग को कीमती मानते है बीमार ही स्वारथ्य का भाषा को सब प्राणी समझ लेते थे । कही प्रकाल नही मूल्य प्रांकता है, स्वास्थ्य को तो पता भी नहीं चलता कि पड़ता था, प्रकृति हर्षोत्फुल्ल हो जाती थी' ऋतुए मस्ती बीमारी क्या होती है। में झूमने लगती थी। यह सब ऐसी विशेषताए हैं कि महावीर ने कोई पगडंडी, संकीर्ण मार्ग नहीं पकडा इनसे सम्पन्न पुरुष व्यक्तिगत रह ही नहीं जाता। इसी था, वे तो सीधे राज-मार्ग पर चल पडे थे। वह राजलिए कहना पड़ता है कि महावीर के व्यक्तित्व को मार्ग भी उनका अपना था। उन्हें कोई अभ्यास नही सीमित देह में, सीमित काल मे खोजना व्यर्थ है। वह करना पड़ा कि प्राज इतना चलना है और कल उतना एक विचार व्यक्तित्व था, जो प्रखड है शाश्वत है। चलना है। उनका पथ पूर्णता का, समग्रता का पथ था। उनकी तो छाया भी नहीं पडती थी: क्योंकि किसी के महावन का था। मुक्ति का पथ महाव्रत से ही शरू होता स्वाभाविक विकास में बाधा पड सकती है। उनके कदम है। अणुवत से होकर जो महावन पे जाते है, वे सम्यकत्व ऐसे पहते थे कि मिटी के एक कण को भी प्राघात से भी बहुत दूर है। अणुव्रत तो शारीरिक क्रियापों न पहुंचे। की विवशता मात्र है । धीरे-धीरे, क्रमिक रूप से त्याग महावीर की दीक्षा ग्रहण का कल्याणक मनाया गया। की भोर वही बढ़ता है, जिसकी पकड़, जिसकी वासना कहते हैं उन्होंने राज सुख छोड़ा, घर-बार त्यागा, विपुल गहरी होती है, जिसकी ग्रन्थि पक्की होती है। वैभव का त्याग कर दिया। लेकिन महावीर जैसे पूर्ण महावीर निकल पड़े सो निकल पड़े। उन्होंने न Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ वर्ष २५, कि० ४ किसी को गुरू बनाया, न किसी शास्त्र का धनुगमन किया और न किसी को शीश नवाया । प्रभिमान नही था, यह सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति अत्यधिक समर्पण था जहां व्यक्ति, ग्रंथ और पंथ मिट जाते हैं। उन्होंने जो कहा वह शास्त्र बन गया, जिधर निकले वह पथ बन गया । उनकी प्रतिभा और प्रमूर्च्छा के समक्ष सारे ग्रंथ निर्ग्रन्थ बन गये । अनेकान्स महावीर वैज्ञानिक दृष्टि के प्रवर्तयेज्ञानिक किसी बने-बनाय या पूर्व निश्चित सत्य का अनुगामी नही होता । उसका सतत प्रवाहशील, प्रगतिशील श्रोर नितनूतन श्रायामों को प्रकट करने वाला होता है । यही सम्यकदृष्टि है । सम्यकत्व सम्पन्न भाख ही ठीक-ठीक दशन कर पाता है। उन्होने तो कहा है कि बाहर की प्रांख का भरोसा ही न करो विवेक की लाख खुनी रखो। ग्रन्थि से छूटना ही मोक्ष है । अन्धा अनुकरण या श्रनुगमन सम्यकत्व नहीं है । महावीर की अन्तिम यात्रा कुल मिलाकर ७२ वर्ष की थी । लेकिन ये ७२ वर्ष उनके लिए बहुत अधिक है । जो मुच्छा और प्रमाद से ग्रस्त है, ऐसे लोग ७२ ही नही ७२०० वर्षो में भी एक कदम आगे नहीं बढ़ पाते। महावीर की यह यात्रा निरन्तर भांख खोलकर चली है। एक पल का भी लाख नही झपका है । इतनी उत्कट जागरूकता अन्यत्र नही मिलती। यह सतत अपलक जागरूकता क्या थी ? यह असीम करुणा की दृष्टि थी । ये भारत थे। परिहंत का अर्थ है अपना निर्माण स्वयं करना । अपना पथ स्वयं बनाना और अपनी मंजिल प्राप्त करना । अपने भीतर रहे हुए शत्रु को पहचानो, उसका सामना करो पौर निकाल बाहर करो, फिर देखो व्यक्तित्व कैसा चाँद सा शीतल मौर सूर्य सा प्रखर बनता है, शरीर कैसा स्फटिक की तरह दमकता है । उसे फिर कहाँ है नहाने धोने की, खाने-पीने की महावीर इतने सहज हो गये थे कि एक बार तो पाँच महीने तक आहार नहीं किया । आत्मस्वरूप में लीनता ही तो सम्यक परिय है। वही उनकी सीख है। आज का युग घोर विषमताम्रो से ग्रस्त है । महावीर ने वीतरागता की जो वैज्ञानिक दृष्टि दी है, जो पथ बताया है। उसके हार्द को ग्रहण कर भाज की समस्यानों से निपटा जा सकता है। अगर हम महावीर के जीवन की स्थूल घटनाओ को ही महत्व देने लगेगे और उन्हीं मे उनको खोजेंगे तो हम अपनी मंजिल पर तो पहुँचेगे ही नही महावीर को भी समझने मे भूल करेंगे । अब तक शायद यही भूल हमसे हुई है । शाश्वत सत्य की ओर जाने के लिए घटनाथो को पीछे छोड़ना ही होगा, वे छूट ही जायेगी । चारित्र्य की बघी- बघाई लोको पर चल कर हमारे हाथ सत्य नही या सकता । हा, तथ्य हमारे हाथ श्रायेगे उनमे हमें रस भी आयेगा, उनमे चमत्कार भी पिरोये जा सकते है लेकिन यह सब श्रात्मस्थ स्थिति नहीं है, कायस्थ स्थिति होगी। महावीर एक व्यक्ति नहीं थे, एक सबल विचार थे, एक तेजस्वी व्यक्ति थे । शरीरघारी महावीर का पास भी पावन करता है, उनको छबि का दर्शन भी आँखों को भाव-विभोर कर देता है, लेकिन विदेह महावीर का प्रात्म व्यक्तित्त्व तो हमें शाश्वत सुख की मजिल तक पहुँचाने मे समर्थ है । उस अनंत दर्शनज्ञान घारी वीरात्मा को सहस्र-सहस्र वन्दन । - ( वीर निर्वाण विचार सेवा के सौजन्य से ) अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हा और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियो, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रुत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करे। इतनी महगाई मे भी उसके मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई, मूल्य वही ६) रुपया है। -व्यस्थापक 'अनेकान्त' Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रावती का जैन पुरातत्व मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी (शोषछात्र) राजस्थान के सिरोही जिले में पाबू रोड से सग- है, जिन्होंने न केवल उक्त स्थल की सूचना दी, परन् उस भग ६ किलोमीटर दूर स्थित ऐतिहासिक स्थल चन्द्रा- स्थल तक जाने का कष्ट भी किया। बती में सम्प्रति जैन व हिन्दू मूर्तियां खुले माकाश के एक तीर्थकर चित्रण (नं०सी०१४५, ३० इंच नीचे बिना सूची-पत्रों (धनवटे लाग्ड) के अव्यवस्थित रूप ४१८ इंच) में जिनका केवल साधारण पासन पर में बिखरी पड़ी है और उनकी सुरक्षा हेतु मात्र दो ध्यान मुद्रा में होना काफी पाश्चर्यजनक है.योंकि रक्षकों को नियुक्त किया गया है। चन्द्रावती स्थित सभी समकालीन जिन मूर्तियों में, जैसा कि स्वयं चन्द्रावती हिन्दू व जैन मन्दिर पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं और उन को पन्य जिनमूर्तियां भी प्रष्टव्य है. तीथंकरों को मन्दिरों का शिल्प वैभव मात्र ही सम्प्रति व्यवस्थित सिंहासन पर पासीन चित्रित किया गया है। तीर्थकर, संग्रह के रूप में प्रविष्ट है। परमार शासकों के काल में जिनकी पहचान लांछन के प्रभाव में सम्मव नही है,के निर्मित समस्त मंदिरों की संगृहीत मूर्तिया ११वीं-१२वीं पासन के नीचे कमल दण्डों को उत्कीर्ण गया किया है। शती की कलाकृतियां हैं प्रारम्भ में यह स्पष्ट कर देना वक्षस्थल में धीवत्स से चिम्हित तीर्थकर की केश रचना उचित ही होगा कि चंद्रावती के जैन मतियों से सम्बन्धित गुच्छकों के रूप में निर्मित होकर पर उष्णीष के रूप में प्रस्तुत लेख में अष्टदिक्पालों के चित्रणों को सम्मिलित पाबद्ध है। तीर्थकर के शीर्ष भाग के ऊपर पिछत्र प्रदनहीं किया जा सका है, क्योंकि सभी मूर्तियों बिना शिंत है, जो दण्ड से युक्त है। रथिका में स्थापित मूलसुची-पत्रों में स्थित होने की वजह से सम्प्रति अष्टदिक्पाल नायक के मस्तक के दोनों मोर दो प्रशोक वृक्ष की मूर्तियों के सम्बन्ध में यह निर्णय कर पाना असम्भव है पार पत्तियां प्रदर्शित हैं। इस चित्रण के दूसरे भाग में चतुकि कोन सी मूर्ति जैन मंदिर, मोर कोन सी हिन्दू मंदिर र्भुज दिक्पाल वायु की त्रिमंग मुद्रा में बड़ी प्राकृति पर उत्कीर्ण पी। मष्टदिक्पाल मतियों के सम्बन्ध में भेद उत्कीर्ण है। वायु की ऊवं दोनों भुजामों में ध्वज स्थित कर पाना इसलिए भी सम्भव हो गया है। क्योंकि दोनों है, पौर निचली बायीं में लटकता कमण्डलु प्रदर्शित है। धर्म सम्प्रदायों में दिक्पालों के मन में वाहनों व मायुषों निचली दाहिमी भुजा भग्न है । वायु के दाहिने पाश्व में के चित्रण में अत्यधिक समानता प्राप्त होती है। फलतः वाहन हिरन को मूर्तिगत किया गया है। करण मुकुट व प्रस्तुत मेख में केवल तीर्थकर कुछ अन्य चित्रणों, अन्य सामान्य प्राभूषणों से सुसज्जित वायु के वाहिने जिनकी निश्चित पहचान सम्भव हो सकी है, को ही पावं में एक स्त्री सेविका बड़ी है, जिसकी वाम भुवा में सम्मिलित किया गया है। संग्रहालय में बिखरी कुल १० चामर स्थित है और दाहिनी मजा कटि पर माराम कर मूर्तियों में एक के अतिरिक्त सभी तीर्थंकरों का चित्रण रही है। रथिका में स्थापित मारुति के दोनों छोरों पर करती है। यह भी ज्ञातव्य है कि श्वेत संगमरमर में व्याल व मकर मुख चिषित है। बिना परिकर के उत्कीर्ण निर्मित सभी मूर्तियां काफी खण्डित है। उल्लेखनीय है तीर्थपुर की एक अन्य कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी मारुति कि चंद्रावती की समस्त जैन मूर्तियाँ अप्रकाशित है जिनका हर में (न० सं० २३५, २१-४ इन्चxe-३ इञ्च) तीर्थ बांधों के नीचे का भाग खण्डित है। तीचंगुर मध्ययन लेखक ने स्वयं उस स्थल पर जाकर किया है। उष्णीष वलम्ब कर्ण से युक्त है। लेखक माउन्ट माबू संग्रहालय के अध्ययन का मामारी अब हम तीन ऐसी तीर्थकर भूतियों का अध्ययन Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १४६२५, ०४ करेंगे, जिनमें सम्प्रति सिहासन ही प्रवशिष्ट हैं। पहले सिहासन (नं० खी १११, २२-५६.६ इच) के इञ्च मध्य में चतुर्भुज देवी की ललितासन मुद्रा में मुद्रासन पर पासीन मूर्ति अवस्थित है, जिनकी पहचान जैन संघ के प्रसार या संरक्षक देवी शान्ति से की जा सकती है। देवी ने ऊपरी भुजाभों में सनाल पद्म धारण किया है, जब कि निचली दाहिनी व बायों में क्रमशः वरदमुद्रा व फल (मातुलिंग) प्रदर्शित है। देवी दोनों प्रोर दो भ्रघं स्तम्भों से है। देवी के दोनों पादयों में दो गज मौर सिंहों को उत्कीर्ण किया गया है। सिहासन के प्रतीक दो सिंह एक-दूसरे की घोर पीठ किये सामने की भोर देखते हुए चित्रित किये गये हैं। सिहासन के प्रत्येक कोने पर एक हाथ जोड़े उपासक प्राकृति को मूर्तिगत किया गया । है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दोनों छोरों पर उत्कीर्ण पक्ष-पक्षी प्राकृतियाँ सम्प्रति नष्ट हो गई हैं। पीठिका के मध्य देवी प्राकृति के नीचे दो हिरनों से वेष्टित धर्मचक उत्कीर्ण है प्रस्तुत मूर्ति में लांघन के प्रभाव में तीर्थ कर की पहचान सम्भव नहीं है । दूसरा सिंहासन ( बिना न० के) काफी भग्नावस्था में स्थित है और प्राकृतियों की निती व योजना में उपर्युक्त सिंहासन के समान है। इस उदाहरण में यक्ष-पक्षी प्राकृतियों को भी सिहासन के दोनों छोरों पर पंकित किया गया है। दाहिनी मोर ललितासन मुद्रा में उत्कीर्णतु न्दीली चतुर्भुज यक्ष प्राकृति सर्वानुभूति का चित्रण करती है। यक्ष की ऊपरी दाहिनी व बायीं भुजाओं मे कमवा धकुश (काफी भरण) व पाया स्थित है, जबकि निचली दाहिनी व बाबी भुजा में क्रमश: वरद मुद्रा और धन का पैसा प्रदर्शित है। बायीं घोर की ललितासन मुदा में उत्कीर्ण द्विभुज पक्षी प्राकृति निश्चित ही अम्बिका का अंकन करती है। देवी की दाहिनी भुजा की वस्तु स्पष्ट है घोर बावों से गोद में बैठे बालक को सहारा दे रही है। यक्ष सर्वानुभूति भोर यक्षी मम्बिका के चित्रण के प्राधार पर यह सम्भा वना व्यक्त की जा सकती है कि मूर्ति तीर्थंकर नेमिनाथ की रही होगी, पर यह बिलकुल जरूरी नहीं है, क्योंकि समकालीन मूर्तियों में ऋषभनाथ, सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के अतिरिक्त अन्य समस्त तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी रूप में सर्वानुभूति और अम्बिका का ही चित्रण सर्वत्र, विशेष कर पश्चिम भारत में प्राप्त होता है। सांछन अतः के प्रभाव में मूर्ति की निश्चित पहचान संभव नहीं है । तीसरा सिहासन ( नं० सी १२०, २०.५ इंच X १२ इंच) जिस पर यक्षी के रूप में चक्रेश्वरी का प्रङ्कन उपलब्ध होता हैं, के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मूर्ति सदैव उन्हीं से सम्बद्ध रूप में प्राप्त होता है। सिहासन के बायें कोने पर चतुभुज चक्रेश्वरी को सावन मुद्रा में उत्कीर्ण किया गया है। देवी के दोनों ऊपरी हाथों में चक्र स्थित है और निचली दाहिनी से अभय मुद्रा प्रदर्शित है। देवी की निचली वाम भुजा खण्डित है। सिहासन के दाहिनी घोर उत्कीर्ण पक्ष प्राकृति सिंहासन के द्योतक सिंह व गज प्राकृतियों के साथ खण्डित है। सिंहासन के मध्य में पूर्ववत् चतुर्भुज शांति देवी प्रदर्शित है, पर पूर्व वित्रण के विपरीत इसमे देवी ने अपनी निचली वाम भुजा में फल के स्थान पर कर्मउलु पारण किया है। बायी ओर की गज सिंह मा तियां भी काफी भग्न हैं। सिंहासन के मध्य की देवी की प्राकृति के नीचे पूर्ववत् दो हिरनों से वेष्टित धर्मचक्र चित्रित है। इन सहित सिहासनों के अतिरिक्त दो विषयो में मात्र ऊपरी परिकर का भाग हो भवशिष्ट है, जिनमें से एक की पहचान (सी- २३८, २२ इन्च X २५ इन्च ) मस्तक के ऊपर प्रदर्शित सप्त फणों के घटाटोपों के प्राधार पर निश्चित की जा सकती है। सभी फण काफी भग्न है पर उनकी संख्या सात होनी निश्चित है। तीर्थकर के स्कन्धों के ऊपर प्रत्येक भाग में एक उड्डायमान मालाधर युगल उत्कीर्ण है, जिनके ऊपर दो प्राकृतियों के साथ मज प्राकृति को मूर्तिगत किया गया है। पाना के मस्तक के ऊपर के उत्कीर्ण त्रिछत्र के ऊपर की प्राकृति काफी भग्न है और त्रिछत्र के दोनों मोर पुनः दो उड्डायमान प्राकृतियों, जिनके मस्तक खण्डित हैं, को उत्कीर्ण किया गया है । दूसरा परिकर ( नं० सी० २३५, १५ इन्च X २१ इन्च) भी लगभग समान विवरणों वाला है पर इसमें सर्प फणों के घटाटोपों का प्रभाव है। इसमें प्रत्येक उडायमान मालावर युगलों के पार्श्व में एक संगीतज्ञ की Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रावती का जैन पुरातत्व १४७ पाति को भी प्रतिगत किया गया है। दाहिने पोर की समान ही तीर्थकर पलंकृत मासन पर ध्यान मदा में प्राकति वेण वादन में रत है। जब कि दूसरी पोर को बैठे हैं । इसमें तीर्थकर की दोनों भुजायें शेष हैं पर बायां माकृति वीणावादन कर रही है यह परिकर भी विभिन्न- घुटना खण्डित है। स्थानों पर काफी भग्न है। द्विभुज मंविका का स्वतन्त्र चित्रण करने वाली मूर्ति जैन मतियों के अन्तर्गत दो ऐसी मूर्तियां भी प्राती है निश्चित ही उपयुक्त समस्त अंकनों से महत्वपूर्ण है। (चित्र जिनमें तीर्थकर प्राकृतियों को केवल अलंकृत प्रासन पर सं०.१) अम्बिका (बिना नं० के, ६.३ इन्च ४८.६ इच) ध्यान मदा में बैठे उत्कीर्ण किया गया है। इन मूतिया के जांघों के नीचे का भाग खडित होने के बाबजुद उसका के सिंहासन पौर ऊपरी परिकर पूरी तरह नष्ट हो चुके बायाँ मुड़ा पाद प्रवशिष्ट है, जिससे देवी के ललितासन मुद्रा हैं। पहली प्राकृति (सी ७६, ११ इन्च २४ इन्च) में में उत्कीर्ण रहे होने की संपुष्टि होती है। देवी के स्कों तीर्थकर के मासन पर रोजिटी और लाजेन्ज पाकार के के ऊपर प्रत्येक भाग में पाम्रलंबि लटक रही है देवी की प्रलंकरण उत्कीर्ण हैं। तीर्थकर की दोनों भुजाएं भोर दाहिनी भुजा भग्न है और अपनी वाम भुजा से वह गोद मस्तक खण्डित हैं। वक्षस्थल में श्रीवत्स चिह्न से पलं. में बैठे बालक को सहारा दे रही है। गोद में प्रदर्शित कृत तीर्थकर के तलवे में चक्र उत्कीर्ण है । मुड़े पैरों के बालक मां का स्तन छू रहा है। करंडमुकुट, हार, स्तनबीच से लटकता पोती का भाग चन्द्रावती के जैन कला हार प्रादि पाभूषणों से सुसज्जित पम्बिका का वाहन के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने की पुष्टि करता सिंह निश्चित ही निचले खडित भाग के साथ नष्ट हो है। दूसरी मूर्ति (सी २६३) में उपर्युक्त चित्रण के गया है। अपनत्व मुनि कन्हैयालाल एक कवि बगीचे में जा पहुंचा। वृक्षों व लताओं की शीतल छाया से उसका मानस प्रतिशय प्रीणित होने लगा। इधर-उधर पर्यटन करते हुए सहसा उसकी दृष्टि माली पर पड़ी। वह सविस्मय मुस्कराया और चिन्तन के उन्मुक्त अन्तरिक्ष में विहरण करने लगा। माली ने भी उसे निहारा। उसकी भाव-भंगिमा देखकर उससे मोन नहीं रहा गया। उसने पूछा-विज्ञवर ! मुस्कराहट किस पर? प्रकृति के ये वरदपुष्प मापके मन में गुदगुदी उत्पन्न कर रहे हैं या मेरे कार्य को देख कर हंस रहे हैं ? कवि-माली! मेरी हँसी का निमित्त अन्य कोई नहीं, तू ही है। जहाँ एक ओर तू कुछ एक पौधों को काट-छांट कर रहा है, निर्दय बन कर केवी का प्रयोग कर रहा है, वहां दूसरी ओर कुछ पौधे लगा भी रहा है, उनमें पानी सींच रहा है, सार-संभाल कर उन्हें पुष्ट कर रहा है। यह तेरा कैसा व्यवहार! इस भेद बुद्धि के पीछे क्या रहस्य है ! तेरी दृष्टि में सब वृक्ष समान हैं; फिर भी एक पर अपनत्व और अन्य पर परत्व, एक को पुचकारना और एक को ललकारना ! तेरे जैसे संरक्षक के व्यवहार में इस अन्तर का क्या कारण है? माली- कविवर ! मेरे पूर्वजों ने मुझे यही भली भांति प्रशिक्षण दिया था कि मनुष्य को अपने कर्तव्य पर अटल रहना चाहिए। मेरा प्रतिकदम उसी तत्व को परिपुष्ट करने के निमित्त उठता है : क्योंकि मुझे उद्यान की सुन्दरता को सुरक्षित रखना है। इस उद्यान का प्रतिदिन विकास करना मेरा परम धर्म है; अतः मैं जो कुछ कर रहा हूं, मतभेद बुद्धि से नहीं, अपितु सम बुद्धि से कर रहा हूँ। यह मेरा पक्षपात नहीं, साम्य है। केवल बहिरंग को हीन देखकर मन्तरंग की परतों को भी खोलना चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो वहां प्रापको स्पष्ट ज्ञात होगा कि मेरी इस प्रवृत्ति के पीछे प्रत्येक पौधे के साथ मेरा कितना प्रट अपनत्व है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार नीति के अगाध स्रोत-जातक एवं धम्मपद डा० बालकृष्ण 'अकिंचन भगवान बुद्ध के जन्म से सम्बन्धित कथानों को विधवा स्त्री नग्न होती है, चाहे उसके दस भाई क्यों न जातक कहते हैं। जातकों के हिन्दी रूपान्तरकार, भदन्त हों।" (जातक प्रथम ११७६७) । "वह जीत मच्छी पानन्द कौशल्यायन के अनुसार इतिहास, भूगोल, समाज जीत नहीं, जिस जीत से फिर हार हो । वही जीत अच्छी शास्त्र, मनोरंजन, धर्म एवं राज्य व्यवस्था से सम्बन्धित जीत है, जिस जीत से फिर हार न हो।" (जातक, प्रथम मान पथाह मात्रा में जातकों में एकत्रित है। व्यवहार भाग ११७७०)। "जो एक (मादमी) सहस्रों जनों को एवं नीति सम्बन्धी तो ऐसी कोई बात शेष नही रह लेकर संग्राम में सहस्र जनों को जीत लेता है और एक जातीयोबीवन साफल्य के लिए मावश्यक हो और सिर्फ अपने को जीतता है तो अपने पापको जीतने वाला जातकों में विद्यमान न हो । भारतीय साहित्य के विशिष्ट ही उत्तम सग्राम विजेता है।" विवेचक श्रीयुत विन्टरनिट्स महोदय ने जातकोय कथा (जातक, प्रथम भाग ११७७०) सामग्रीको सात वर्गों में विभाजित किया है । उन्होंने भा जातियों का सम्मिलित रहना श्रेयस्कर है, भरण्य व्यावहारिक नीति को पृथक वर्ग में रखा है। वस्तुतः में उत्पन्न होने वाले वृक्षों तक का भी। क्योंकि महावृक्ष यही जातकों का प्रधान विषय है। कहानी के साथ मह तक को अकेले खड़े होने पर, हवा उड़ा ले जाती है।" स्वपूर्ण शिक्षा को पचबद्ध कर दिया गया है। ये पद्य प्राकृत (जातक, प्रथम भाग (१८७४) । "जिस प्रकार फूल के प्रिय गाथा में हैं। किसी-किसी जातक में ये वर्ण या गन्ध को बिना हानि पहुँचाये भ्रमर रस को गाथाएं बही पटपटी और सहसा विश्वास न करने वाला लेकर चल देता है, उसी प्रकार मुनि गांव में विचरण व्यवहार नीति का भी उपदेश करती हैं, यथा करे।" (जातक, प्रथम भाग १८७)। "सात कदम अविश्वास करने योग्य में विश्वास न करे। विश्वास साथ चलने से (भला प्रादमी) मित्र हो जाता है, बारह करने योग्य में भी विश्वास न करे । विश्वास करने से भय (दिन) साथ रहने से 'सहायक' हो जाता है, महीना भाषा उत्पन्न होता है, जैसे मगमाता से सिंह को हुमा । महीना (साथ रहने से) 'जाति' (रिश्तेदार) हो जाता है प्रर्थात जो नित्य प्रति परिश्रम करने वाला न हो. पौर इससे अधिक (साथ) रहने से अपने जैसा (मात्म उनकी गृहस्थी नहीं चलती। दूसरों को न ठगने वाले समान) भी हो जाता हैं । (जातक, प्रथम भाग १९८३) की भी गृहस्थी नहीं चलती। दण्ड को त्याग देने वाले "मारोग्यता जो कि परम लाभ है (सर्वप्रथम) उसकी को गृहस्थी भी नहीं चलती...।" "लोक में स्त्रिया प्र- इच्छा; शील (सदाचार), ज्ञान वृक्षों का उपदेश; (बहु) साध्वी होती हैं। उनका कोई समय नहीं होता, जैसे- श्रुतता, धर्मानुकूल माचरण मनासक्ति ये छ: मथं (उन्नति) दीपक की शिखा सबको जला देने (खा लेने) वाली होती के प्रमुख द्वार हैं। है. वैसे ही वह रागानुरक्त तथा प्रगल्म नहीं है..." "वे (जातक, प्रथम माग १९८४) माया है. मरीच है, शोक है, राम हैं, उपद्रव है, कठोर है, इस प्रकार हम देखते हैं कि जातकों की गाथाएं बंधन है, मृत्यु-पाश हैं और गुह्य प्राशय हैं। जो मनुष्य प्रत्यन्त उपयोगी हैं। संस्कृत नीति कवियों ने भागे चल उनका विश्वास करे, वह नरों में प्रथम है।" "बिना पानी कर इनके विषय, भाव, भाषा शैली इत्यादि सभी उपके नदी नग्न होती है, बिना राजा के राष्ट्र नग्न होता है। करणों का प्रभूत मात्रा में उपयोग किया है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार नीति के प्रगाध स्रोत- जातक एवं धम्मपद धम्म पद- बौद्ध साहित्य में त्रिपिटकों का धौर त्रिपिटकों में 'खुद्दक निकाय' का बहुत महत्व है क निकाय का भी सर्वाधिक उपयोगी ग्रन्थ 'धम्मपद' है । विश्व के धर्म - साहित्य में इसका एक अपना स्थान सुरक्षित है। भगवान बुद्ध की कल्याणकारिणी पुनीत वाणी जितने मपुर शब्दों में इस ग्रन्थ में प्रकट हुई है, उतनी धन्यत्र नहीं । इसे बौद्धों की गीता कहा जाता है । ग्रन्थ के प्रथम पृष्ठ को देखते ही नीति काव्य का विद्यार्थी इसके विषय निर्वाचन पर खिल उठता है । क्रोध, तृष्णा, पाप, लोक, साहस, मल, चित्त धौर यमकादि नाम से विभाजित प्रत्येक वय (वर्ग) अपने में एक पॉयटिक ट्रीटाहब' सा प्रतीत होता है। लगभग चार सो गाथाओं मे मानों चारों युगों का सत्य समाहित कर दिया गया है। व्यक्तिगत उत्थान सामाजिक कल्याण तथा विश्व शांति के लिए आवश्यक जितने महन् विचार एक साथ, एक स्थान पर इतनी सरल शब्दावली में उतने सर्वत्र सुलभ नहीं । ग्राइए, इस महान् रत्नागार की एक दर्जन प्रमूल्य मणियों का दर्शन करेंउद्दानवतो सतिमतो सुचिकम्मरस निसम्मकारिनो सज्ज तस्स च धम्म जीविनो प्रप्पमत्तस्स यसोभिवढति ।२।४ अर्थात् जो उपयोगी सचेत, शुचिकर्म वाला तथा सोचकर काम करने वाला भौर संयत है, धर्मानुसार जीविका वाला एव प्रप्रमाद है' उसका यश बढ़ता है । ૨૪૨ अपने से समान व्यक्ति को न पाये, तो दृढ़ता के साथ अकेला ही विचरे, मूर्ख से मित्रता अच्छी नहीं । सेलो यथा एकषनो वातेन न समीरति । एवं निन्दापसंसासु न समिञ्जन्ति पण्डिता ॥ ६६ अर्थात् जैसे ठोस पहाड़ हवा से नहीं डिगता, वैसे ही पण्डित निन्दा भोर प्रशसा से नहीं डिगते । अभिवादन सीलिम्स निच्चं बद्धापचायिनो । बत्ता पम्म बदन्ति बायु वण्णो सुखं बल ॥६।१० नवस्सुतचित्तस्स प्रनन्वाहतचेतसो । पुज पापपहीणस्स दत्थि जागरतो भयं ॥ ३७ अर्थात् जिसके पित्त में राग नहीं, से रहित है, जो पाप-पुण्य विहीन है, को भय नहीं । यथापि रुचिरं पुरकं ववन्तं सत्यकं । एवं सुभासिता वाचा सफला होति कुम्बतो ॥४ अर्थात् जैसे सुन्दर वर्णयुक्त सुगन्धित पुष्प होता है, वैसे कथनानुसार पाचरण करने वाले की सुभाषित बाणी सफल होती है । चरचे नाभिगच्छेय सेयं सवसमतनो । एकचरिये वल्कविरा नरिव वाले सहायता ॥ ५२ जिसका दिल द्वेष उस जायत पुरुष अर्थात् विचरण करते समय यदि अपने से श्रेष्ठ या अर्थात् जो अभिवादनशील है, जो सदा वृद्धों की सेवा करने वाला है, उसकी चार बातें बढ़ती हैं - १. घायु, २. वर्ण, ३. सुख धोर ४. बल । यो च वस्सस जीवे दुप्पोसमाहितो | एकाहं जीवितं सेथ्यो पपजावन्तस्स भायिनो ॥६।१२ अर्थात् दुयश और एकाग्रता रहित के सौ वर्ष के जीने से भी प्रज्ञावान ध्यानी का एक दिन का जीवन श्रेष्ठ है । सुखकामानि भूतानि यो दण्डेन विहिंसति । सुखमेानो पेच सो न लभते सुख ||१०|३ अर्थात् जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने मुख की चाह दण्ड से मारता है, वह मर कर सुख नहीं पाता । पटिक्कोसति तुम्मेयो दिट्टि निस्साय पापिकं । फलानि कटुकस्सेव प्रतहञ्जाय फुल्लति ||१२|८ अर्थात् धर्मात्मा श्रेष्ठ महंतो के शासन की अपनी पापमयी मिथ्या धारणा के कारण निन्दा करता है, वह अपनी ही बर्बादी करता है, जैसे वसि का फूल बास को ही नष्ट कर देता है । कायेन संयुता धीरा प्रथो वाचाय सबुता मनसा संवृता धीरा ते वे सुपरिसंवृता ।। १७।१४ अर्थात् जो धीर पुरुष काय से संयत, वाणी से सयत और मन से संयत रहते हैं, वे ही पूर्ण रूप से सयत है। सेम्पो प्रयोगलो भुसो तसो सिपम यचे भुंजेय्य वुस्सीलो रट्ठपिण्डं सञ्ञतो ॥ २२३ अर्थात् धयमी, दुराचारी होकर राष्ट्र का पि खाने से मग्निशिखा के समान तप्त लोहे का गोला खाना उत्तम हैं । कि ते जाहि दुम्मे कि ते अनिसारिया धम्मग्रं ते गहन बाहिरं परिमसि ।।२६।१२ अर्थात् हे दुर्बुद्धि ! जटाधों से तेरा क्या ( बनेगा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०, वर्ष २५, कि.४ अनेकान्त प्रौर) मग चर्म के पहनने से तेरा क्या ? भीतर (मन) उत्तरो पम्म बड्ढन्ति प्रायु वण्णो सुखं बलं ॥ तो तेरी (राग मादि मलों से) परिपूर्ण है, बाहर क्या इसी भाव एवं भाषा वाला संस्कृत श्लोक निम्नधोता है ? लिखित है अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। इस प्रकार हम देखते हैं कि धम्म पद में, उद्योग, चत्वारि तस्य वर्षन्ते प्रायविद्या यशोवलम् ॥ संयम, शोच, वैराग्य, कथनी-करनी, शत्रु बुद्धिमान, निंदा भारतीय भाषामों का प्रतिनिधित्व करने वाले ऐसे स्तुति, धर्म, कुल, शील, पाप, क्रोध, घृणा इत्यादि विषयों सूक्ति संग्रहात्मक प्राचीन ग्रंथ कम ही मिलेंगे, जिनमें धम्म पर सुन्दर कथन विद्यमान हैं। यहाँ कुछ खण्डन-मण्डना. पद के छन्द उद्धृत न किये गये हों। प्राजकल के संग्रह स्मकता कथन भी प्राप्त होते हैं। ये कथन ब्राह्मण एवं ग्रंथों में भी यह स्वस्थ अभिरुचि विद्यमान है। वस्तुतः सयम इत्यादि स्थापन के सम्बन्ध में हैं। हिन्दी सन्त त्रिपिटक साहित्य नैतिक दृष्टि से इतना महत्त्वपूर्ण है कि कवियो मे, मन की शुद्धि की भोर ध्यान न देकर केवल उसकी अवहेलना हो ही नहीं सकती। त्रिपिटक और अनुकेश मुंड लेने मोर व्रत तीर्थादि कर लेने वालों की निन्दा पिटक साहित्य भी इस दृष्टि से कम इलाधनीय नही है। करने की एक परिपाटी सी चली, उसका मूल इस धम्म त्रिपिटकों के पश्चात् पालि मे जिस साहित्य का निर्माण पद मे ढूंढ़ सकते है । उस परम्परा का स्रोत बहुधा सिद्धों हुमा वह 'अनुपिटक साहित्य' कहलाता है । इसे त्रिपिटकों की वाणियों में वह प्रखड़ता नहीं जो हिन्दी-सन्तों की का व्याख्यात्मक साहित्य भी कहा जा सकता है। इस वाणी का प्रधान स्वर है। यहाँ प्रभावोत्पादकता तो है साहित्य में वे ग्रंथ माते है जो बुद्ध वचनो की व्याख्या किन्तु परुषता के नही। साथ ही यह भी सत्य है कि करने के लिए रचे गये थे। महामति बुद्ध घोषाचार्य को काव्यानुरागियो को वहाँ रस तत्त्व या राग तत्त्व प्राप्त प्राधार मान कर इस साहित्य को तीनो वर्गों में विभाजित नही होता। यहाँ मन से माये पहुँच, पात्मा का रंजन किया जाता हैकरने वाला एक सात्विकार्षणपूर्ण मस्ततत्त्व अवश्य विद्या १. पूर्व बुद्ध घोष युगीन साहित्य (४थी शती तक के मान है। प्रतः तत्वतः धम्म पद काव्य कृति नहीं, धर्म अनुपिटक)। कृति ही है। इतना होते हुए भी कही कही हृदयहारी २. बुद्ध घोष युगीन साहित्य (५वी से १२वीं शती तक)। उपमानों, रूपकों तथा दृष्टान्तों का प्रयोग अपने काव्य ३. पश्चात् बुद्ध घोष युगीन साहित्य (१२वी शती के वैभव के साथ विद्यमान है। उदाहरण के लिए वाल वग्ग पश्चात्)। की पाचवी गाथा को लिया जा सकता है जिसमें कहा यह साहित्य जिसके मूर्धन्य ग्रन्थ प्रकथा, तिपकरण, गया है कि पेटकोपदेस, विसुद्धिमग्ग, अभिधम्मत्थ सग्रह, मिलिन्दपन्ह मख यदि माजीवन विद्वानों की सेवादि करता रहे मादि हैं। ये ग्रंथ एक प्रकार से बद्ध वचनों की शास्त्रीय पर फिर भी वह ज्ञान तत्व से वैसे ही वंचित रहता स्थापना तथा प्राचारपरक विवेचना के ग्रन्थ है। तिप. है. जिस प्रकार करछी स्वाद से। निश्चित ही हलुवे में करण को पालि का निरुक्त ही समझना चाहिए । बौद्ध कण्ठ निम्न रहती हई करछी का स्वाद से वचित रहना धर्म की शास्त्रीय स्थापना के लिए प्रतीव मूल्यवान होते एक अछुती किन्तु प्रभावकारी उपमा है। करछू को भी न पचों का, प्रस्वाद शक्तिहीन तथा मूर्ख की बुद्धि हीनता व्यंग्य है। महत्त्व प्रतीत नहीं होता है। अतः स्पष्ट है नीति की यही कारण है कि भारतीय नीति कवियों को इस प्रथ दृष्टि से जितना महत्त्व जातक एवं धम्म पद का है उतना रत्न ने प्रभावित अवश्य किया है। कहीं-कहीं तो संस्कृत किसी अन्य बौद्ध ग्रन्थ का नहीं। इनमें भी धम्म पद में भी वही भाव उसी रूप में विद्यमान मिलते हैं। इस प्रपना सानी नहीं रखता। निश्चित ही वह धर्म साहित्य कथन की पुष्टि मे ऊपर माया एक उदाहरण उपस्थित की अपूर्व रचना है जिसका पामिक मत मतान्तरों से किया जा सकता है ऊपर उठकर विशुद्ध नैतिक अध्ययन परमावश्यक है। मभिवादन सीलिस्स निच्च वडापचायिनो । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार-आचार्य कुन्दकुन्द की रचना डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री भारतीय अध्यात्म जगत् में प्राचार्य कुन्दकुन्द एक केवल समझी ही नहीं जाती थी, वरन् प्रांध्र कलिंग देश अमर रत्न थे। उनका दीक्षा नाम पद्मनंदी था। वे कोन्ड- के सामान्य लोग भी उस समय इसी प्राकृत का प्रयोग कुण्डपुर के निवासी थे। ब्रह्म श्रुतसागर ने षट्पाहुड टीका में करते थे। इस युग की रामतीर्थम् की जो मिट्टी की सीलें उनके पांचों नामों का उल्लेख किया है अर्वाचीन पढावली मिली हैं और भमरावती के शिलालेख भी इस प्राकृत से में भी उनके नामों का उल्लेख मिलता है- साम्य रखते है मेरी समझ में यह युग ईसा की प्रारम्भिक प्राचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः। प्रथम या द्वितीय शताब्दी होना चाहिए। "भाषा की एलाचार्यो गद्ध-पिच्छश्च पद्मनन्दी वितन्वते ॥४॥ दृष्टि से विचार करने पर यह कथन पूर्णत: सत्य प्रतीत एक अन्य पट्टावली के अनुसार भा० कुन्दकुन्द का होता है । क्योंकि भाचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं में जन्म वि० संवत् ४६, पौष कृ. अष्टमी को हमा था। वे प्रयुक्त प्राकृत पौर परवर्ती रचनामों की प्राकृत में कई केवल ११ वर्ष तक घर में रहे। उन्होंने ३३ वर्ष की प्रकार के अंतर परिलक्षित हैं । उनका निर्देश करना प्रस्तुत अवस्था मे जिनदीक्षा धारण कर ली थी। वे ५१ वर्षों निबन्ध का विषय नहीं है । किन्तु उसका सारांश यही है तक प्राचार्य पट्ट पर रहे। 'उनकी आयु ९५ वर्ष, १० मास कि भाषागत अध्ययन के आधार पर हमार विच और १५ दिन की थी। प्राचार्य कुन्दकुन्द का समय ईसा की प्रथम शताब्दी है। समय-तत्वार्थ सूत्र के कर्ता उमास्वाति का नाम भी शक संवत् ३८८ में उत्कीर्ण मर्करा के तामपत्र मे कोण्डग्रिद्ध पिच्छाचार्य था। एक जगह उन्हें कून्दकुन्द का कुन्दाम्वय की परम्परा के छह पुरातन प्राचार्यों का शिष्य भी लिखा है । वे उन्हीं के प्रन्वय में हुए है। इससे उल्लेख मिलता है । डा. ए. चक्रवर्ती ने भी 'पञ्चास्तिस्पष्ट है कि (उमास्वाति) या उमास्वामी प्राचार्य कुन्द- काय" को प्रस्तावना में यहा समय मान कुन्द के बाद मे हुए । सभी पट्टावलियों में उमास्वाति का (देखिये, श्र• शि०) ५४ । जन्म संवत् १०१ कार्तिक शुक्ल अष्टमी कहा गया है। रचनाएं-श्री जुगल किशोर मुख्तार ने प्राचार्य इनकी प्रायु ८४ वर्ष, ८ मास पोर ६ दिन की बतलाई गई कुन्दकुन्द का २२ कुन्दकुन्द की २२ रचनामों का उल्लेख किया है, जो इस है। इन दोनों के समयोल्लेख से यह निश्चित है कि प्रकार है-१. प्रवचनसार, २. समयसार, ३. पंचास्तिकाय प्राचार्य कुन्दकुन्द उमास्वाति के पूर्ववर्ती हैं। ४. नियमसार, ५. बारस-प्रणुवेक्खा, ६. दसणापाहुड, श्रवणवेल्गोल के शिला लेख सं० ४० में इनका नाम ७. चारित्रप हुड, ८. सुत्तपाहु, ६. बोधपाहुड ११. मोक्ख "कोण्डकुन्द" मुनीश्वर कहा गया है । "कोंडकुन्दपुर" के पाहुड, १२. लिंगपाहुर, १३. शीलपाहुड, १४. रयणसार निवासी होने के कारण इनका नाम 'कुन्दकुन्द" प्रचलित १५. सिद्धभक्ति, १६. श्रुतभक्ति, १७. चारित्रभक्ति, हुप्रा, बताया जाता है। शेषगिरि राव ने अपने लेख "८ १८. योगि (पनगार) भक्ति, १६. प्राचार्य भक्ति, एज माव कुन्दकुन्द" में विस्तार पूर्वक लिखते हुए कहा २०. निर्वाणभक्ति, २१. पंचगुरु (परमेष्ठि) भक्ति, है-"मेरे पास तमिल साहित्य में मोर लोक बोली में २२. योस्सामि थुदि (तीर्थकरभक्ति)। इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि जिस प्रकार की प्राकृत पंचास्तिकायप्रवचनसार-प्रपनी सभी रचनामों मे में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ निबद्ध किए हैं वह से "प्रवचनसार" को सम्भवतः सबसे पहले रचा था। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२, वर्ष २५, कि० ४ क्योंकि प्राचार्य कुन्दकुन्द की बाणी जिनागम का संक्षिप्त सार है। केवलियों ने जैसा कहा है वैसा ही उन्होंने अपने समय की भाषा में वर्णित किया है । विषय की दृष्टि से उन्होंने सर्वप्रथम "पंचास्तिकाय" की रचना की होगी। क्योंकि कालद्रव्य को छोड़कर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और प्रकाश का प्रामाणिक तथा परिचयात्मक वर्णन करने वाला यह प्रथम ग्रन्थ है । उसमें मुख्य द्रव्य का स्वरूप निर्देश एव वर्णन किया गया है। जब तक पाठक को द्रव्य का स्वरूप ज्ञात न होगा वह उन द्रव्यों के परस्पर सम्बन्धधनुबन्धों और पर्व क्रिया मादि को किस प्रकार समझ सकता है । अतएव द्रव्यों का निर्णय कर लेने पर प्रौर उनका लक्षण स्पष्ट प्रतिपादित कर लेने पर "प्रवचनसार," "नियमसार पोर "रमणसार" तथा मंत मे "समयसार" रचा गया प्रतीत होता है। इनके प्रति रिक्त पाहुडग्रन्थ, मूलाचार, श्रावकाचार, ध्यानविषयक एवं क्रिया सम्बन्धी ग्रन्थों तथा प्रतिक्रमण, सामायिकभक्तिपाठ, स्तवन-पूजन प्रोर स्तोष यादि छोटी-बड़ी रचनाएं भी मध्यकाल मे लिखी गई जान पड़ती हैं । अनेकान्त समयसार - प्राचार्य कुन्दकुन्द की सबसे अधिक प्रौढ़ श्रीर श्रेष्ठ रचना "समयसार" मानी जाती है । "प्रवचनसार" में जहां ज्ञान और ज्ञेय तत्त्व का वर्णन किया गया है, वहीं 'समयसार' के नौ अधिकारों में- जीवाजीव, कर्ता कर्म, पुण्य-याच घास, सवर निर्जरा, बन्ध, मोल भौर सर्व विशुद्धि ज्ञान का निरूपण किया गया है । इसमें शुद्ध श्रात्मानुभूति का ही विशेष रूप से वर्णन किया गया है, जो भावलिंगी श्रमण को उपलब्ध हो सकती हैं। अतएव "समयसार" रूप निर्मल आत्मा को उपलब्ध करने योग्य मुनि ही होते हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार, प्रवचनसार और नियमसार को "नाटकत्रय" भी कहा जाता है । यथार्थ में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राध्यात्म विषयक स्तोत्र स्तुति पर भी अपनी लेखनी चलाई थी। इन सभी रचनाओं में हमें दो बातें मुख्य लक्षित होती हैं प्रथम भाव-विशुद्ध और दूसरे पर पदार्थों के प्रति प्रासक्ति को हटाना। " रयणसार की रचना में भी यही वृत्ति मुख्य रही है। रयणसार - जिस प्रकार " प्रवचनसार में आगम के सारभूत द्वारम तत्व का वर्णन किया गया है उसी प्रकार 'नियमसार' में नियम के साररूप शुद्ध रत्नत्रय का और "समयसार" में शुद्ध मात्मा का वर्णन किया गया है। ये तीनों ही ग्रन्थ सातवें गुण स्थान वर्ती श्रमण को ध्यान में रख लिखे गये हैं और अन्त में सहजलिंग से ही मुक्ति का प्रतिपादन किया गया है। इस भाव को प्राचार्य जयसेन ने अपनी टीका में अत्यन्त विशदता और स्पष्टता के साथ निरूपित किया है। उनके ही शब्दों में 'यद्यप्ययं व्यवहारनयो बहिग्यावलम्बत्वेनाभूतार्थस्तथापि रागादिद्रिव्यावलम्बनरहितविशुद्धज्ञानस्वभावस्वावलम्बनस हितस्य परमार्थस्य प्रतिपादकत्वाद्दर्शयितुमुचितो भवति । यदा पुनव्यवहारनयो न भवति तथा शुद्ध निश्चयनयेन त्रसस्थावर जीवा न भवतीति मत्वा निःशकोपमदंनं कुर्वन्ति जनाः । " यथार्थ में अध्यात्मशास्त्र को समझने के लिए व्यव हार और निश्चय दोनों ही दृष्टियों की अपेक्षा है । निरपेक्षनय मिथ्या कहे गये हैं । व्यवहार नय प्रपनी मपेक्षा से सत्य है, पर निश्चय की अपेक्षा से प्रसत्यार्थ एवं प्रभूतार्थ है । निश्चय साध्य है और व्यवहार साधन । इन दोनों दृष्टियों को लेकर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रंथों की रचना की है । प्रतएव "ज्ञानी ज्ञान का कर्ता" है - यह कथन भी व्यवहार है। निश्चय तो व्यवहार को सम झाने के लिए है। व्यवहार कारण है और निश्चय कार्य कहा भी है जई जिणमश्रं पवज्जह तो मा बवहारणिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जद्द तिथ्यं प्रण्णेण पुण तभ्वं ॥ अर्थात् यदि जिन मत में प्रवर्तन करना हो तो व्यव हार और निश्चय को मत त्यागो। यदि निश्चय के पक्ष पाती होकर व्यवहार छोड़ते हो तो रत्नत्रयरूप घर्मतीर्धका प्रभाव हो जायेगा और निश्चय को छोड़ते हो तो शुद्धात्म तत्व की धनुभूति न हो सकेगी। स्वसंवेदन की अनुभूति शब्दों में वर्णित नहीं की जा सकती। इसलिए जन सामान्य को ध्यान में रखकर भ्रष्ट पाहुड भादि जिन ग्रन्थों की रचना हुई है उनमें "रयणसार" व्यवहाररत्नत्रय Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार प्राचार्य कुन्द कुन्द की रचना का प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ है । अन्य रचनाओं की भांति इसमें भी शुद्ध प्रात्मतत्व को लक्ष्य रखकर गृहस्थ और मुनि के संयमचारित्र का निरूपण किया गया है। मुख्य रूप से यह प्राचारशास्त्र है। निम्नलिखित समानताम्रों के कारण प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचना सिद्ध होती है (१) पटना की दृष्टि से प्राचार्य कुन्दकुन्द की रच नामों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैसारमूलक रचनाएं और पाहुडमुलक भक्ति और स्तुतिविषयक रचनाए इनसे भिन्न हैं । प्रवचनसार, समयसार और रत्नसार (रमणसार) के अन्त में "सार" शब्द का सयोग दी रचना सादृश्य को सूचित करता है। (२) प्रवचनसार, नियमसार भौर रयणसार का प्रारम्भ तीर्थंकर महावीर के मंगलाचरण से होता है। "नियमसार" की भांति रयणसार में भी ग्रन्थ का निर्देश किया गया है । निऊजिगं वीरं प्रणतवरणाणदंसणसहावं । वोच्छामि नियमसारं केवलिमुदकेवली भणिदं ॥ १ यथा - तथा णमिण वद्दमाणं परमध्याणं जिणं तिसुद्धेण । वोच्छामि रयणसारं सायारणयारधम्मीणं ॥ २॥ एवम् उक्त गाथानों में शब्द साम्य भी दृष्टव्य है। समयसार में भी "बोच्यामि समयपा०" कहा गया। (३) इन सभी ग्रंथों के प्रप्त में रचना का पुनः नामोल्लेख किया गया है और सागार (गृहस्थ ) और अनागर ( मुनि) दोनों के लिए मागम का सार बताया है। कहा हैबुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो । जो सो पवयणसारं लहूणा कालेण पप्पीदि ॥ २७५॥ - प्रवचनसार १५३ ग्रंथ का भी सूचक हो सकता है। पंचास्तिकाय में भी कहा गया है एवं पययणसारं पंचत्थिसंग्रहं विषाणिता' । १०३ । (५) रयणसार में कहा गया है किणिच्छयववहारसरूवं जो रयणत्तयं ण जाणइ सोइ । जं को रद्द तं मिच्छारुवं सम्यं जिणुद्धिं ।। १२५॥ - रयणसार सम्मं णाणं वेरम्गतवोभावं णिरीहवितिवारितं । गुणसीलसहावं उप्पज्जइ रयणसारमिणं ।। १२५ ।। - रयणंसार (४) इसके प्रतिरिक्त रयणसार में दो-तीन स्थलों पर "प्रवचनसार" के प्रभ्यास का उल्लेख किया गया है जो शुद्ध प्रात्मरूप भागम के सार तत्व मोर प्रवचनसार समयसार में भीदसणाणचरिताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्च । ताणि पुण जाण तिष्णिवि पप्पाणं चेत्र णिच्छयदो । १६ घाचा मतचन्द्र कहते हैं "येनेव हि भावेनात्मा साध्यं साधन व स्वातेनैवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां व्यवहारेण साघुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते ।" अर्थात् साधु को दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप रनत्रय को भेद ( साधन) और प्रभेद (साध्य) जिस भाव से भी हो नित्य सेवन करना चाहिए। प्राचार्य जयसेन ने इसका विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। वास्तव में रत्नत्रय मोक्षमार्ग है, जिसका चारित्र के रूप में लगभग सभी रचनाओं में वर्णन किया गया है किन्तु रयणसार में यह वर्णन सरल है । (६) रयणसार की अन्तिम गाथा : इदि सज्जणपुज्जं रयणसारं गंथं निरालसो णिवं । जो पढ़द्द सुणइ भावइ सो पावइ सासयं ठाणं ॥ मोक्षपाहुर के वचन हैं : जो पढाइ सणइ भावइ सो पावद सासयं सोक्खं । १०७ भावपाहुड में भी कहा गया है : जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं । १६४ द्वादशानुप्रेक्षा का कथन है : जो भाव सुद्धमणो सो पावइ परमणिव्वाणं |१| उक्त सभी पंक्तियों में एक क्रम तथा शब्द साम्य परिलक्षित होता है । (७) सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि की महिमा प्राचार्य कुन्दकुन्द की सभी रचनाम्रो मे प्रकारान्तर से वर्णित मिलती है । रयणसार की अधिकतर गाथानों में सम्यग् Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४, वर्ष २५, कि०४ भनेकान्त दर्शन का व्याख्यान है। जैसे कि : जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥ (प) सम्यग्दर्शन रूपी सुदृष्टिके बिना देव, गुरु, धर्म मादि -मोक्खपाहुड, ३१ का दर्शन नहीं होता, (पा) सम्यक्त्व सूर्य के समान है, अण्णाणीदो विसयविरत्तादो होइ सयसहस्सगुणो। (इ) सम्यक्त्व कल्पतरु के समान है, (ई) सम्यक्त्व औषध णाणी कसाय विरदो विसयासत्तो जिणुद्दिद्रु॥ -रयणसार, ७४ पुव्वं सेवइ मिच्छामलसोहणहेउ सम्मभेसज्ज । पच्छा सेवइ कम्मामयणासणचरियभेसज्जं ।७३। उग्गतवेणण्णाणी जं कम्म खबदि भवहि बहुएहि । -रयणसार तं णाणी तिहिंगतो खवेइ अंतोमुहुत्तण ॥ अर्थात् प्रथम मिथ्यात्वमल की शुद्धि के लिए सम्य -मोक्षपाहुड, ५३ क्त्व रूपी पोषध का सेवन करें, + पश्चात् कर्म रूपी "णाणी खवेइ कम णाणवलेण।" रोग को मिटाने के लिए चारित्र रूपी भौषधि का सेवन -रयणसार करना चाहिए। सम्माण विणारुई भत्तिविणादाण दयाविणा धम्म प्राचार्य जयसेन को टीका से युक्त समयसार की गुरुभत्तिविणा तवचरियं णिप्फलं जाण ॥ गाथा २३३ में लगभग यही भाव व्यक्त किया गया है। -रयणसार,८४ सम्यग्दर्शन के माठ प्रग होते हैं। वह सात व्यसन, इसी प्रकार सात प्रकार के भय, पच्चीस शङ्कादिक दोषो से रहित तच्चरुई सम्मत्तं तच्च गहण च हवइ सण्णाणं । तथा ससार शरीर और भोगों की प्रासक्ति से हट कर चारित्तं परिहारो पयंपियं जिणवरिंदेहि ।। निःशङ्कादिक माठ गुणों से सहित पांच परमेष्ठियो मे -मोक्खपाहुड, ३८ शुद्ध भक्ति भावना रखता है। रयणसार में कहा है- कम्मादविहावमहावगुणं जो भाविऊण भावेण । भयविसणमल विवज्जिय संसारसरीरभोगणिविणो, णियसुद्धप्पा रुच्चइ तस्सय णियमेण होइ णिव्वाणं । अट्ठगुणंगसमग्गो दंसणसुद्धो हु पंचगुरु भत्तो ॥५॥ -रयणसार, १२९ __ समयसार के वचन है तथा सम्मद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण। अप्पा अप्पमि रो रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका ।२२८ संसारतरणहेउ धम्मोत्ति जिणेहिं णिहिट्ठो॥ अर्थात् सम्यग्दृष्टि निःशंक एवं निर्भय होते हैं, -भावपाहुड, ८५ क्योंकि वे सात भयों से रहित होते हैं। (E) यही भाव "पअनन्दिपंचविंशतिका" में भी प्राप्त सम्यक्व के बिना दान, पूजा, जप, तप प्रादि सब निर- होता है र्थक हैं । यह भाव "रयणसार" की गाथा ४० और १५४ तत्प्रति प्रीतिचितेन येन वार्तापि हि श्रता। तथा जयसेनाचार्य की टीका से युक्त समयसार की गाथा निश्चितं स भवेद् भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।२३ सं० २९२ में लगभग समान रूप से वर्णित है। . रयणसार में "पत्तविसेस" का (उत्तम पात्र का) (८) मोक्खपाहुड मौर रयणसार की निम्नलिखित बहुत वर्णन किया गया है। अन्य पात्रों में मविरत, गाथानों मे साम्य लक्षित होता है देश विरत, महाव्रत, तत्त्वविचारक भोर भागमरुचिक देहादिसु अणुरत्ता विषयासत्ताकसायसंजुत्ता। प्रादि कई पात्रों का निवेश किया गया है। कहा हैअप्पसहावे सुत्ता ते साहू सम्मपरिचता ॥ अविरददेसमहव्वय भागमरुइणं वियारतच्चण्हं । । तथा -रयणसार, १०६ पत्तंतरं सहस्सं णिहिट्ठं जिणवरिंदेहि ॥ जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । -रयणसार,१२ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचना १५५ पौर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने द्वादशानुप्रेक्षा में भी पात्रों के टीका युक्त समयसार में २६२ गाथा में वर्णित है। यही इन मेंदों का उल्लेख किया है। उनके ही शब्दों में- नहीं, रयणसार में ज्ञानी कर्ता, कर्म-माव से रहित द्रव्य, उत्समपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण सजुवो साहू। गुण भौर पर्यायों से स्व-पर-समय को जानने वाला कहा सम्माविट्ठो सावय मज्झिमपत्तो विष्णेयो। गया है । समयसार मे भी पत्क र्माधिकार में प्रात्मा के णिहिट्ठो जिणसमये अविरसम्मो जहाणपत्तोत्ति। कर्तृत्व और कर्मत्व का निषेध किया गया है। यथासम्मशरयणरहिमो प्रपत्तमिति संपरिक्खेज्जो ।। दव्वगुणपण्जएहि जाणह परसमय-समयादि विमेयं । द्वादशानुप्रंक्षा, १७१८ प्रप्पाणं जाणह सो सिवगह पहणायगो होह॥ (११) इसी तरह 'मूलाचार' और 'रयणसार' के -समयसार, १३४ भावों मे कही-कहीं साम्य लक्षित होता है। उदाहरण वि परिणमविण गिम्हवि उप्पज्जाविण परदव्यपज्जाए के लिए पाणी जाणतो वि पुग्गलकम्म पणेयर्यावह ।। पुष्वं जो पंचेंदिय तणुमणुवचिहत्थपायमुडाउ । -समयसार, ७६ पच्छा सिरमुंडहरो सिवगइ पहणायगो होई ।। स्वसमय और परसमय का वणन भी दोनों ग्रंथों में -रयणसार,८० पंच विवियन डा वचमडा हत्थपायमणमुंडा । ___समान लक्षित होता है। इसी प्रकार शुद्ध पारिणामिक परमभाव को एवं तण मुंडेण वि सहिया दसमंडा वणिया समये ।। निर्मल मात्मा को "दोनों प्रथों में उपादेय कहा गया है। -(मूलाचार, ३.६) मुनिराज इसी प्रकार के निर्मल स्वभाव से युक्त होते हैं । (१२) भावों की दृष्टि से समयसार और रयणसार ज्ञानी को दोनों ग्रंथों में 'भावयुक्त' एवं 'मात्मस्वभाव में में निम्नलिखित साम्य परिलक्षित होता है। 'ज्ञान के लीन' कहा गया है-दृष्टव्य है, रयणसार, गाथा १०६ बिना मोक्ष नही होता।' यह भाव दोनों में समान रूप से और समयसार जयसेनाचार्य को टोकायुक्त, गाथा ३०३ । वणित होता है। देखिए कहा भी हैजाणम्भासविहीणो सपरं तसचं ण जाणए किपि । गय रायवोसमोहं कुम्वदि णाणी कसायभावं वा। झाणं तस्स ण होइल जाव ण कम्म खवेह ह मोक्खो समयप्पणो सो तेण कारगो तेसि भावाणं ।। -रयणसार, १४ -समयसार, २८० णाणगुणण विहीणा एवं तु पयं वह वि ण लहंते। रयणसार में कहा गया है कि जो विकथामों से त गिह णियवमेवं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ॥ उन्मुक्त प्रधःकर्म मौर उसिक (अध:कम मादि पुदगल -समयसार, २०५ द्रव्य के दोषों को वास्तव में नहीं करता; क्योंकि वे परदोनों ही ग्रंथों में ध्यान को अग्नि रूप कहा गया दृव्य के परिणाम है) से रहित धर्मोपदेश देने में कुशल है। दृष्टव्य है-रयणसार गाथा ६६ मोर भाचार्य जय- और बारह भावनामों से युक्त होता है वह ज्ञानी मुनि सेन की टीका से युक्त समयसार, गाथा २३४ । इसी है। उनके ही शब्दों मेंप्रकार मुनि जब तक जिन लिंग धारण नहीं करता तब विकहाइविप्पमुक्को माहाकम्माइविरहिमो णाणी। तक वह मोक्षमार्ग का नायक नहीं होता। यह भाव धम्मवेसणकुसलो अणुपेहाभावणाजदो जोई।। रयणसार में गा० १, ६, ४ मोर प्रा. जयसेन की टीका तथा । रयणसार,१०० से युक्त समयसार में २४५-२५१ में वणित है। इसी माषाकम्माईया पुग्गलवम्बस्स जे इमे वोसा। प्रकार-सम्यक्त्व के बिना कोरे व्रतादिक करना व्यर्थ हैं। कह ते कुब्वा पाणी परवश्वगुणाउ जे णिच्छ॥ यह भाव रयणसार गा० १२७ में पौर जयसेनाचार्य की -समयसार, २८६ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८, वर्ष २५, कि.४ भनेकान्त जयच. छावड़ा दीनदयाल परम उपकारी, सुगुरु वचन सुखदाय, जयचन्द्र छावड़ा का जन्म खण्डेलवाल जाति में सं० सुमति कुमति की रीति सबै पब नयन बई रसाय ॥२ १८०५ में जयपुर राज्य के फागी गांव में हुमा । प्रमेयरल- बधजनमाला में प्रापने अपना परिचय इस प्रकार दिया है कविवर बुधजन का पूरा नाम वषीचन्द था। वह बेश ढुढाहर जयपुर जहां, सुवस बस नहिं दुखी तहाँ । जयपुर के रहने वाले खण्डेलवाल जैन थे। बज इनका नप जगतेश नीति बलवान, साके बड़े बड़े परधान ।। . गोत्र था। इनके पिता का नाम निहालचन्द था। बुधजन प्रजा सुखी तिनके परताप, काह के न वृथा सताप । के पूर्वज पहले भामेर में रहते थे। वहीं से इनके (बुधजन अपने अपने मत सब चलें. जैन धर्म हूं प्रधिको भल ।। के) पिता जी के बाबा शोमचन्द सांगानेर जा बसे । तामें तेरहपंथ सुपंच, शैली बड़ी गुनी गुन ग्रंथ । लेकिन वहां जब जीवन निर्वाह में कठिनाई होने लगी तो तामें मैं जयचन्द्र सुनाम, बंश्य छावड़ा कह सुगाम ।। बुधजन के बाबा पूरनमल जयपुर पाकर रहने लगे। यहाँ जयचन्द्र के पिता का नाम मोतीराम था। ११ वर्ष सं० १५३० के ग्रासपास बुधजन का जन्म हुमा'। इनके की भवस्था मे ही जयचन्द्र को जिन शासन मे चलने की गुरु का नाम मांगीलाल था। बुधजन बचपन से ही जैनसुबुद्धि मिली । उस समय जयपुर मे टोडरमल, दौलतराम, धर्म के प्रात अगाध श्रद्धा रखत थ भार धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे और धावक के षट् रायमल्ल भादि प्रसिद्ध पण्डित एवं विद्वान् विद्यमान थे। प्रावश्यकों का यथाशक्ति पालन करते थे। यह दीवान इनकी सगति करके जिनवाणी में अपनी बद्धि लगाने के अमरचन्द जी के मुख्य मुनीम भी थे। इनका साहित्यिक विचार से जयचन्द्र जयपुर माकर रहने लगे। जीवन सं० १८५४ से प्रारम्भ होता है जबकि इन्होने पं० जयचन्द्र छावड़ा अल्पायु मे ही पुराण, चरित्र, __'छहढाला' की रचना की। न्याय, मीमासा, व्याकरण मादि शास्त्रों के ज्ञाता तथा अद्याववि बुधजन की निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध सस्कृत, प्राकृत, अपघ्रश एवं हिन्दीके प्रकाण्ड विद्वान पडित हैं:हो गए । मापने न्याय, मीमांसा एव माध्यात्मिक ग्रन्थो के १. छहढाला' (सं० १८५६) भनुवाद किये । आपके अनुवाद प्रन्थों की संख्या १३ है। २. बुधजन सतसई (जेष्ठ कृ० ११८७६) मापके सभी अनूदित ग्रन्थ प्रौढ़ परिमाजित शुद्ध एवं ३. तस्वार्थ बोध । (१८७६) सरल भाषा में हैं। अनूदित ग्रन्थों के अतिरिक्त मापने ४. बुधजन विलास। (कार्तिक शु. २ सं. १८६१) सैकड़ों पदों की भी रचना की है, जो जयपुर के ५. संबोध पंचाशिका" (१७९२) । प्रायः सभी जैन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध है। नमूने के - लिए एक पद दृष्टव्य है : ३. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-कामतामोहि उरझाइ रही भव फंव में कुमति नारि, प्रसाद गुरु पृ० १९७। पाप अनादि मान संग राची, मोकू कलंक लगाय। ४. वीरवाणी। मैं बिन समझयां सारंग राष्यो, भोंदू भरम नसाय, ५. राजस्थान के हिन्दी साहित्यकार पृ० २६१ । कर्म बंध विढ बांषि निरंतर भोगे दुख प्रषिकाय॥१॥ ६. हिन्दी जैन पद सग्रह-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल सुमति नारि जी घर मेरे, तासों विमुख रहाय, पृ०१८६। हित की बात कभ नहिकीनी, महमनग लुभाय। ७. शास्त्र भंडार, मंदिर श्री संधी जी के वे०सं० २९७ पर उपलब्ध है। १. वीरवाणी वर्ष १, पृ० १०१। ८. शास्त्र भंडार, मंदिर पाटौदी वे० सं० ३६७ । २. हिन्दी जन साहित्य का इतिहास-नाथूराम प्रेमी, ६. शास्त्र भंडार, यशोदानन्द जी वे० सं०५७। ७३-७४ । १०. शास्त्र भंडार, मंदिर पाटौदी। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. योगसार भाषा • ( भाव २ सं. १८९५) । (१८६२) । ७. पंचास्तिकाय ८. वर्धमान पुराण (१८९५) । ६. भक्तामर स्तोत्रोत्पत्ति कथा | १०. इष्टतीसी'। ११. वंदना जखडी । १२. चर्चा शतक | १३. सरस्वती पूजा । १४. मृत्युमहोत्सव | १५. पंचमंगल एवं पूजा | १६. दर्शनपाठ' 1 १७. रामचन्द्र चरित्र । १५. स्तुति। १६. षटपाठ एवं । राजस्थान के जन कवि और उनकी रचनाएँ २०. पद । बुधजन विलास बुपजन विलास प्रकाशित हो चुका है। इसमें कवि द्वारा रचित भजनों का संग्रह है । बुधजन ने सगुण व निर्गुण दोनों ही स्वरूपो का चित्रण किया है। इन भजनो में विभिन्न राग-रागनियो का भी उल्लेख हुआ है । जिससे यह कहा जा सकता हैं कि कवि को शास्त्रीय संगीत का भी पूर्ण ज्ञान था, घोर वे ध्रुपद एवं ख्याल दोनों ही प्रकार की गायकी से परिचित थे । डा० कासली वाल के अनुसार - विलास एक मुक्तक संग्रह है जिसे पढ़ कर प्रत्येक पाठक प्रात्मदर्शन करने का प्रयास करता है । १. शास्त्र भंडार, बाबा दुलीचन्द भडार | २. शास्त्र भंडार, विजयराम का मन्दिर वे० सं० ७१ । ३. शास्त्र भंडार, मंदिर पाटोदी। ४. शास्त्र भंडार, मन्दिर यशोदानन्द जी २८७ । ५. शास्त्र भंडार, पाटोदी वे० सं० १००६ । भंडार मंदिर श्री संधी जी २६० । ६. ७. शास्त्र भंडार, मंदिर चौधरियों का वे० स० १०० । ८. शास्त्र भडार, पार्श्वनाथ वे० सं० ५३३ । ९. आमेर शास्त्र भंडार तथा प्रत्य शास्त्र भंडारों में भी उपलब्ध है । १०. हिन्दी जैनपद संग्रह - डा० कासलीवाल पृ० १६० । १५९ बघन विलास का एक पद दृष्टव्य हैकिंकर मरज करें जिन साहब, मेरो घोर निहारो, पतित उपारक दीन दयानिधि, सुन्यों तोरि उपगारो । मेरे चौगुन मति जावो, अपनो सुजस विचारो 1 कोटि बार की बात कहत हूँ यो ही मतलब म्हारो । जो सो भव लौली बमजन को दो सरन सहारो ॥ बुधजन के अब तक ३०० पद प्राप्त हो चुके हैं । इनमें एक से एक उच्चकोटि का पद है । माणिक चन्द्र माणिक चन्द्र के विषय में केवल इतना ही ज्ञात हो सका है कि ये भावसा गोत्रीय खण्डेलवाल वैश्य थे । इनका रचनाकाल सं० १८०० था" । बाबा दुलीचन्द भंडार के वे० सं० ४३६ पर इन द्वारा रचित तेरहपंथ पच्चीसी, तथा १८३ पद प्राप्त हुए हैं। इनका एक पद दृष्टव्य है जोगीया मेरे द्वारे दई कुमती मेरे पीऊ स्वपर छोडि पर ही नाचत हंसी बनी दर्द को कंसी सील पई । संग रावत, चकई ॥ वई ० ||१|| रत्नत्रय निजविधि विगाम के जोडत कर्म कई । रंक भये घर घर डोलत अब कैसी निरभई || २ || यह कुमति म्हारी जनम की परिनिपीय कोनो प्रायु भई पराधीन दुख भोगत भोनू, निज सुष विसरि गई ॥ ३॥ 'मानिक' सुमति धरणनित तो कृपा भई । विछुरे कंत मिलावटु स्वामी चरण कमल बलि गई ||४|| उदयचन्द्र उदयचन्द्र जयपुर के रहने वाले थे। इनका जम्म लुहारिया गोत्रीय खण्डेलवाल वैश्य परिवार मे हुधा था । इनका रचनाकाल सं० १८६० बतलाया गया है" । इन्होने श्रावकाचार वचनिका" तथा कुछ पदों की रचना की है। इनके पद बड़ा तेरहपंथी मन्दिर जयपुर के पदसंग्रह ९४६ व ११८ पर हैं। उपलब्ध पदो की संख्या ९४ है । पद का नमूना यह है ११. वीरवाणी वर्ष १ क १५० ६ । १२. वीरवाणी वर्ष १, अंक १ पृ० ६ । १३. बही । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.२५, कि. ४ अनेकान्त लाग्यो तुम चरणन लार, अब तो मोहि तारो। मेरे साईब तो मोहि तारो। ग्रन्थ में दोहा, छप्पय, सोरठ। एवं सवैया छद मुख्य कोष लोभ म्हारी गैलन छडित प्रति ही सतावत भार। रूप से प्रयुक्त हुए हैं। ग्रन्थ की कुछ पक्तियाँ दृष्टव्य हैं दीन जानकर दयाजी घरोगे, हरोजी मेंरा दुःख भार। जिनमें कवि ने ब्रह्म की अनन्यता बताते हुए कहा है कि कृपा यह तुम्हारी होय, 'उदय' जब ही उतरे भव पार ॥ उसे छोड़कर अन्य कोई भी मार्ग अपनाना व्यर्थ हैमनोहर लाल सर्व देव नित नव, सर्व भिक्षक गुरु मान । मनोहर लाल (दास) सांगानेर के रहने वाले थे। सर्व सासतरि पर्द, धर्मत धर्म न जाने । खण्डेलवाल इनकी जाति थी। इन्होंने 'धर्म परीक्षा' सर्वतीरय फिरिणाव, नामक ग्रन्थ मे अपना परिचय इस प्रकार दिया है परब्रह्मको छोडि प्रान मारग को ध्यावं। कविता मनोहर खडेलवाल सोनी जाति, इह प्रकार जो नर रहै इसी भांति सो पा लहैं । मूल संधी मूल जाको सांगानेर बास है। प्रचरिज पुत्र वेश्या तणो कहो बाप कासों कहें । कर्म के उदय ते घामपुर में बसन भयो, चिन्तामणि मान बावनीसब सो मिलाप पुनि सज्जन को दास है। इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति वधीचन्द के मन्दिर व्याकरण छंद अलंकार कछु पढ्यो नाहि, के शास्त्र भडार के वेष्टन नं० १०१७ में निबद्ध है। इस ग्रन्थ में वणित कवि की विचारधारा निगुणवादी सन्तों भाषा में निपुन तुच्छ बुद्धि को प्रकास है। से मिलती-जुलती है । जिस प्रकार कवीर, सुन्दरदास, दादू बाई दाहिनी कछू समझे संतोष लिये, मादि सन्त कवि ब्रह्म को अपने भीतर ही देखने की जिनकी बुहाई जाक, जिनही की मास है। सलाह देते हैं उसी प्रकार मनोहरदास ने भी शरीर में कवि मनोहरलाल के सम्बन्ध मे इससे अधिक परिचय रचय रहने वाले निरंजन के ध्यान करने की बात कही है सेवा मन्तः साक्ष्य या बहिक्ष्यि के प्राधार पर उपलब्ध नहीं बर्मु धम्म सब जगु कहै, मर्म न कोई लहेत । है। इनकी निम्नलिखित रचनाए हैं अलख निरंजन ज्ञानमय, इहि तनु मध्य रहेत । १. घमं परीक्षा (सं० १७०५)। धम्म धम्मजग कहै मर्म नर थोडा बूमह । २. ज्ञान चितामणि (माघ शुक्ला ८ स०१७२८)। ब्रह्म बस तनु मध्य मोह पटल वृग सुषमा। ३. चिन्तामणिमग्न बाबनी। नकु गुरु केटा वचन एह कज्जल करि भंजन । ४. सुगुरु शोष। हृदय कमल जे नय सुमति अंगुल किया मंजन । ५. गुणठाणागीत। जिम मोह पटल फट्टइ सरयल दृष्टि प्रकास पुरंत प्रति । बम परीक्षा श्रीमान कहै मति माग लौ हौं धर्म पिछावण एह गति ।।३५ इसकी रचना सं० १७०५ में हुई। यह प्राचार्य १. सुमुनि पमित गति जान, सहस कीर्ति एवं कही। अमितगति रचित सस्कृत के प्रन्य 'धर्म परीक्षा' कथा का या में बुषि प्रमान भाषा कोनी जोरि के। अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त पत्र की कुछ पुरानो फाइलें वर्ष ८ ले २४वें वर्ष तक की उपलब्ध है। जिनमें समाज के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं। और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है। लेख पठनीय और संग्रहणीय है। फाइलों को लागत मूल्य पर दिया जायगा। पोष्टेजखर्च अलग होगा। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीर सेवा मन्दिर.२१, दरियागंज, दिल्ली Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धधर्म में ध्यान-चतुष्टय : एक अध्ययन डा. धर्मेन्द्र जैन एम. ए. पो-एच. डी., प्राचार्य प्राध्यापक (पालि-प्राकृत) कुरुक्षत्र विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म मे ध्यान चतुष्टय का महत्वपूर्ण स्थान है। में अधिक मिलता है। ध्यान, योग, समाधि और समापत्ति ये शब्द भारतीय "वेताश्वतरोपनिषद" के प्रथम एवं द्वितीय अध्याय दर्शन-शास्त्र में प्रायः मिलते है। बौद्धधर्म में ध्यान, में ध्यानयोग का सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है । जैन धर्म समाधि और समापत्ति एक-दूसरे के लिए प्रयुक्त हुए है। दर्शन में भी योग ध्यान एवं समाधि की श्रेणियों, शाखाग्री भारतीय ऋषि-महर्षि कन्दरामों मे ध्यान-समाधिस्थ होते एवं उपशाखामों का विस्तृत वर्णन किया गया है और थे और योगादि साधनामों द्वारा अमरत्व, स्वर्गत्व, ईश्व ध्यान का विशिष्ट महत्व बतलाया गया है । अतएव इससे रत्व, प्रात्मत्व एवं ब्राह्मणत्व प्राप्त करना उनका परम इतना तो अवश्य सिद्ध हो ही सकता है कि हमारा भारतीय लक्ष्य होता था। प्रायः सभी भारतीय धर्मों में ध्यानयोग ध्यानयोग साधना अति प्राचीन है। का काफी महत्व है। साधना पद्धति में ध्यान का सर्वोपरि स्थान रहा है। बौद्धधर्म में ध्यानयोग-भगवान बुद्ध ने ध्यानयोग ध्यान प्रादि प्रक्रियाओं का प्रारम्भ पूर्व वैदिक काल में हो को बहुत महत्व दिया था। भगवान् बुद्ध के समय में चुका था। कोई भी प्राध्यात्मिक उपलब्धि बिना साधन आरूढ कलाम, उद्दकरामपुत जैसे दिग्गज ध्यानमार्गी के प्राप्त होना सम्भव नहीं। पवित्र से ही पवित्र साध्य प्राचार्य विद्यमान थे जिनके शिष्य यत्र-तत्र ध्यान की की प्राप्ति होती है। ध्यानयोग का दर्शन हमें बुद्ध पर्व दीक्षा देते थे। "भरण्डुकलामसुत्त" से और भी स्पष्ट हो वैदिक कालीन जातियों में भी मिलता है। "ऋग्वेद," जाता है कि कपिलवस्तु के नागरिक भी ध्यानयोग का "शतपथ ब्राह्मण,""पारण्यक" तथा "उपनिषदों" में योग अभ्यास करते थे। इससे यह भी सम्भव है कि बुद्ध ने शब्द का प्रयोग हुआ है। 'ऋग्वेद' से १०वें मंडल के भी अपने बचपन में उक्त ध्यान का अभ्यास ११४वें सूक्त मे योग शब्द ध्यान, चित्तैकाग्रता और प्राध्या. किया हो। त्मिक साधना की पोर ही संकेत करता है। उपनिषदों त्रिपिटक के अध्ययन से हम पाते है कि भगवान बुद्ध में योग का अध्यात्मयोग से ही भभिहित किया गया है। जब कभी भी थोडा समय खाली पाते थे तभी एकान्त 'कठोपनिषद' में अध्यात्मयोग अन्तर्ज्ञानात्मक पात्म साक्षा चिन्तवन करने लगते थे, ध्यान करत थे, समाधिस्थ हो त्कार के लिए ही प्रयुक्त किया गया है। प्रात्मसाक्षात्कार जाते थे। इसकी पुष्टि "मज्झिमनिकाय," "ललितविके लिए योग शब्द का प्रयोग "बृहदारण्यक,"" "छांदोग्य," तैत्तरीय, ऐतरेय कोषौतिकी और कठोपनिषद" ५. दे० तेतरीय० २।२।३१३, १६१३१२१. १. दे० ऋग्व०१०१११४१६ तथा वही, १३४॥8: ७ ६. द. कोपीति० ४११६. ६७।६; ३।२७।११। ७. दे० स्थानाङ्ग सूत्र ४:१; समवायाङ्ग सूत्र ४, भगवती. २. दे० कठोपनि० श२।१२। २६।७; उत्तराध्ययन सूत्र ३०।१२।३५; तत्त्वार्थसूत्र ३. दे. बृहदा० ३।३।३१७; ४।३।२०, ४।४।२३; ४।५६ ।२७ इत्यादि। ४. दे० छान्दो० ५.१०११, ८६७६ ३३१७१४, ८. धर्मानन्द कोशाम्बी-भगवान् बुद्ध, पृ.१०४ । ६८।६. ६. दे. भ. नि. सुत्त. ३६ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ वर्ष २५, कि० ४ अनेकान्त स्तर"" मोर "बुद्धचरित"" से भी होती है कि बुद्ध को ध्यानयोग वचपन से ही प्राप्त था । तथागत के दशबलों में भी एक बल मे उनके ध्यान, समाधि और समापत्ति से समन्वागत होना बतलाया गया है। उनके अष्टादश श्रावेणिक धर्मों में भी कहा गया है कि 'तथागत के समाधि की हानि नही होती नास्ति तथागतस्य समानः । भगवान् बुद्ध महाभिनिष्क्रमण के बाद ज्ञान की खोज मे श्राचार्य श्राराड कलाम के पास जाते है जहाँ प्राचार्य उन्हें ध्यानमार्ग की सप्त सीढ़ियों तक की शिक्षा देत है। ज्ञान के पिपासु बुद्ध इससे प्रसन्तुष्ट हो अन्वेषक बन उकरामत के पास पहुंचते है जहाँ उन्हें ध्यानयोग का वो सोढी 'नवज्ञानासहायतन" तक की शिक्षा मिलती है। बुद्ध इससे भी आगे बढ़ते हैं और स्वय नरञ्जना नदी के तट पर तपस्या करते हैं, ध्यानरत होते है जिसमे वे स्वयं पाते है कि श्रात्मा को कष्ट देकर ध्यानाराधन और ज्ञानाराघन नहीं किया जा सकता, न ही कामभोगो मे सलीन हो कर ही ज्ञान पाया जा सकता है ।" अतः वे मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए १ तस्य मे शिव एतदभवत्यदह पितुरुद्यान जम्बुछायाया निषण्णे विविश्व कामविति पापककुम सवितर्क विचार प्रीतिमुख प्रथम ध्यानमुपसंपद्य व्याहार्ष यावच्चतुर्थध्यानमुपसंपद्य व्याहार्षम् स्यात्स मार्गो बोधेजतिजरामरणदुःखसमुदयानां असम्भवायास्तगमायेति तदनुसारि च मे विज्ञानम भूस मार्गों बोचेरिति जति पृ. १९३. २. नायं घर्मो विरागाय न बोघाय न विमुक्तये । जम्बुले मया प्राप्तो यस्तदा स विधिवः ।। - बु. च. १२१०१ । , ३. दे० अर्थविनिश्चयसूत्र, पृ० ५३ । ४. यह श्ररूप्य ध्यानों की अन्तिम अवस्था मानी जाती है। इसे 'भवान' भी कहते है। ५. यश्च कामेषु कामसुखल्लिकानुयोगो होनो ग्राम्य: पार्थग्जनको नालमायोंऽनर्थोपसंहितो नायत्यां ब्रह्मचर्यायन निविदेन विरागाय न निरोघाय नाभिज्ञाय न सम्बोधन निर्वाणाय संवर्तते । श्रात्मकायक्ल मयानुयोगो दुःखोपसंहितो-ललित० पृ० कुछ श्राहार ग्रहण कर समाधि में लवलीन हो जाते हैं और सम्यक् सम्बोधि को प्राप्त करते हैं, निर्वाण का अनुभव करते है । सम्बोधि लाभ के बाद भी बुद्ध अपने शेष जीवन भर भी ध्यान चिन्तवन करते रहे थे । इससे यह प्रगट होता है कि 'ध्यानयोग भगवान बुद्ध के जन्म से लेकर परिनिर्वाण पर्यन्त एक सामान्य दैनिक क्रियाओं मे से एक था। बुद्धघोष ने भगवान बुद्ध की दैनिकचर्या बतलाते हुए भी इस बात की पुष्टि की है कि वे प्रतिदिन कुछ समय समाधिस्थ होते थे । भगवान् बुद्ध स्वयं अपने शिष्यों को भी बार-बार पग-पग पर ध्यान करने की, समाधिस्थ होन की शिक्षा देते है एतानि भिख मूलानि एतानि सुब्बागारानि । झापथ, भिक्खवे, मा पमादत्य, मा पच्छा विपसारिनो अहुत्थ । श्रय वो अम्हाक अनुसासनी ति ।"" वे हमेशा समाधि ध्यान की प्रशंसा करते थे । वे कहते थे कि जो ध्यान योगावचर है उसका मन स्वस्थ व प्रसन्न रहता है । समाधि उसे ही सिद्ध होती है जो समाधिस्य है, योग भी उसे ही प्राप्त होता है। ध्यान होने से धर्म प्राप्त होते है जिससे वह परमपद लाभी होता है जो दुर्लभ शान्त अजर और अमर है ।" " ध्यान शब्द की व्याख्या- 'ध्यान' शब्द 'ध्ये' चिन्तायाम्' धातु से निष्पन्न होता है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से ध्यान का अर्थ-पितन हैन्तिनाय हि एवं धातु " वसुबन्धु कहते हैं कि जिससे ध्यान करते है और समा६. संयुक्तनिका ४२५६ तथा तुलना कीजिए : "एतानि वो भिक्षवोऽरण्यायतनानि वृक्षमूलानि शुभ्यागाराणि पर्वतकन्दरागिरिगुहापलालजानि, अभ्यवकाशश्मशानवनप्रस्थ प्रान्तानि शयनासनानि अध्यावसत। ध्यायत्, भिक्षवो, मा प्रमाद्यत । मा पश्चाद् विप्रतिसारिणो भविष्यथ । इदमनुशासनम् ॥ -अर्थं विनि० पृ० ६७ दे० बुद्धचरित १२ १०५ । दुर्लभ शान्तमजरं परं तदमृतं पदम् । वही, १२॥ १०६ । ९. दे० श्रभिधर्मकोशभाष्य, पृ० ४३३; मर्थं विनि० पृ० १७६ । ७. ८. , Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौधर्म में ध्यान-चतुष्टय-एक अध्ययन हित चित्त में जो यथाभूत ज्ञान होता है, वही ध्यान इस प्रकार उपयुक्त चर्चा से ज्ञान होता है कि कहलाता है। प्रभेदरूप से अर्थात् बिना किसी अन्तर ध्यान का सम्बन्ध मन या चित्त से सर्वाधिक है। उत्तम के ध्यान समाधिस्वभाव होने से कुशलचित्त की एकाग्रता परिणामों मे जो चित्त का स्थिर रखना है वही यथार्थ में है। इसी को पालि में 'शान' कहते हैं। बुद्धघोष के समाधि, समाधान प्रथवा ध्यान कहलाता है। अनुसार 'मालम्बन को देखकर चिन्तन करने या प्रतिकूल बौद्धधर्म में जहां ध्यान समाधि को मानसिक कर्म प्रतिकूल धोको जला देनेसे झान-ध्यान कहलाता है-मार- स्वीकार किया गया है वहाँ जनधर्म मे त्रियोगिक-मनम्भणपनिझानतोपच्चनीक झापनतो वा ज्ञानं । जैन धर्म वचन पौर कायिक माना गया है। "जहाँ पतञ्जलि ध्यान में 'झान' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है-चित्त को मोर समाधि के दो पृथक प्रग मानते हैं वहाँ जन पौर किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोष चा बौद्ध धर्म मे ध्यान को इतना विस्तृत स्वीकार किया गया करना ध्यान है-प्रतो मुहत्त काल चित्तस्सेकग्गया हवह गया है जिससे कि समाधि को ध्यान से पृथक मानना झाणं ।"" एकाग्रता से चिन्तन का निरोष 'ध्यान' है। अनावश्यक समझा गया। निश्चल अग्निशिखा के समान प्रवभासमान ज्ञान ही ध्यान के भेद-सामान्यतया बौद्धधर्म एव दर्शन में ध्यान है ।' पतञ्जलि ने ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से ध्यान कदा भद हा । माना है। उनके अनुसार जिसमें धारणा की गयी हो उस पोर २. समापत्ति ध्यान ।" उपपत्ति का अर्थ है--उत्पदेशमें ध्येय विषयक ज्ञान की एकतानता (=सदृशप्रवाह) न होना । ध्यान योग द्वारा सत्त्वों का देवभूमियो में भी जो अन्य ज्ञानों से अपरामष्ट हो 'ध्यान' कहलाता है।' उत्पन्न होना उपपत्ति ध्यान है। यहाँ प्रमुखतः समापत्ति एकतानता का अभिप्राय यह है कि 'जिस ध्येय विषयक ध्यान से ही तात्पर्य है । यह समापत्ति ध्यान भी दो प्रकार पहली वृत्ति हो उसी विषय की दूसरी और तीसरी भी का होता है । इन्हें रूपसमापत्ति मौर मरूपसमापत्ति हो, ध्येय से प्रम्य ज्ञान बीच में न हो। 'गरुडपुराण' में ध्यान कहते है । पुनः रूपसमापत्ति ध्यान चार या पांच ब्रह्मात्म चिन्ता को ध्यान कहा गया है ।" 'साख्यसूत्र' में प्रकार पोर प्ररूपसमापत्ति ध्यान भा चार प्रकार बतविषय रहित मन की स्थिति को ध्यान कहा गया है। लाया गया है जो दोनों मिलाकर कम से प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम और अष्टम ध्यान १. घ्यायन्स्यनेनेति । प्रजानन्तीत्यर्थः । समाहित चित कहलाते है । उपरोक्त प्रथम चार ध्यानों में ग्यारह प्रकार स्य यथाभूत्तप्रज्ञानात् ।-अभि० को भा०पू० को चित्तवत्तियां होती हैं जिन्हें ध्यानांग कहते हैं यथा वितर्क,विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता, अध्यात्मसम्प्रसाद, २. 'मभेदेन कुशलचित्तकाग्रता ध्यान समाधि स्वा सम्प्रजन्य, प्रदुःखासुखा-वेदना, उपेक्षापारिशुद्धि, स्मृतिभावात् ।'-वही, पृ० ४३२। पारिशुद्धि और समाधिपारिशुद्धि । २ तथा पाच से पाठ ३. विसुद्धिमग्ग ४।११६, अट्टसालिनी ३१३३७ । ध्यानों में जिन्हें मारुप्यध्यानं, प्रारुप्यसमापत्ति' आदि ४. मावश्यक नियुक्ति गाथा० १४६३ । ५. 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्।'-तत्त्वार्थसूत्र ६२७ शब्दों से अभिहित किया गया है, चार श्रेणियाँ हैं यथा -माकाशानन्त्याततन, विज्ञानान्त्यायतन, माकिञ्चनन्या'एकाग्रयेण निरोधो यः चित्तस्यैकत्र वस्तुनि ।-महा यतन पोर नवसंज्ञानासज्ञायतन ।" इन्हें ही लौकिक और पुराण २१८ । ६. ज्ञानमेवापरिस्पन्दाग्नि शिखावदवभासमान ध्यान. ८. दे०-विसुद्धिमग्ग (अनुवाद) जि०१ पृ० १४१. मिति-सर्वार्थसिद्धिः पृ० ४५५ । ६. दे. योगशास्त्र गाथा ४१-४३ (जैन ग्रन्थ)। ७. 'तत्रप्रत्ययंकतानता ध्यान ।'-योगदर्शन ३।२। १. दे०-अभि० को भा० -१, पृ० ४३२ । ८. ब्रह्मात्मचिन्ता ध्यान स्यात् ।'-गरुड पु०म०४८। २-३. दे०-विम० अ०४; भभि० को० भा०, पृ० ६. ध्यानं निविषयं मनः । -सांख्य सू० ६२५ । ४३२। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १९४,१६२५, कि. ४ लोकोत्तर ध्यान भी कहा गया है। चित्तकर्मण्यता लक्षणम् । चित्तकर्मण्यता, चित्तलापन. चित्तवत्तियों पर विचार-वितर्क भौर विचार क्या मित्यर्थः।"" प्रिय मालम्बन के मिलने का सन्तोष प्रीति है? तर्क वितर्क करना, वितर्कणमात्र वितर्क है इसे ऊह है मोर प्राप्त हुए का अनुभव करना सुख है। जहां प्रीति भी कहा जाता है-"वितक्कोति वितक्को, वितक्कन वा है वहां सुख है और जहां सुख है वहां प्रीति है। 'विसुद्धिविसको कहनं ति बत्त होति ।" मालम्बन के विषय में मग्ग' में प्रीति संस्कार स्कन्ध में भौर सख वेदनास्कन्ध में स पना कि 'यह ऐसा है' वितर्क है।' विषय में चित्त गिनाया गया है किन्तु "अभिधर्मकोश" में प्रीति चैतसिक का प्रथम प्रवेश ही वितर्क है। पालम्बन में चित्त का सुख है अतः उसे वेदनास्कन्ध में ही गिना जाता है। लगना उसमें विचरण करना विचार है-"प्रारम्भणे तेन प्राचार्य बुद्धघोष उपमा द्वारा प्रीति और सुख को इस प्राचार्य बदघोष उपमा । चित्त विचारतीति विचारो, विचरण वा विचारो।" तरह समझाते है-'निर्जल मरुस्थल को पार करके पाए विषय मे चित्त का निमग्न हो जाना ही विचार है। हए व्यक्ति को वन में पानी देखने हुए व्यक्ति को वन में पानी देखने या सुनने के समान क्सिक और विचार के भेद को बुद्धघोष ने सुन्दर उपमा प्रीति है और वन की झाड़ियो की छाया में प्रवेश करने द्वारा इस तरह समझाया है-'पाकाश में जाते हुए पक्षी तथा पानी पीने के समान सुख है। १३ के दोनो पखों से वायु को पकड़ कर, पाखों को सिकोड़ अध्यात्म संप्रसाद वही है जो पालि में 'अज्झत्त-सम्पसा-- आने के समान पालम्बन में चित्त को लगाने के भाव दन' शब्द से उक्त है।" यह श्रद्धा है। योगी द्वितीय ध्यान से उत्पन्न हुआ वितर्क है और वायु को लेने के लिए का लाभ कर गम्भीर श्रद्धा अपने में उत्पन्न करता है। पखो को हिलाते हुए जाने के समान वार-बार मर्वन के उसकी उसमें प्रतिपत्ति होती है कि समापत्ति की भूमियों स्वभाव से उत्पन्न विचार है।' का भी प्रहाण हो सकता है । इसी श्रद्धा को अध्यात्मतप्त करना प्रीति है-"पीणयतीति पीति ।" सम्प्रसाद कहते है । बाह्य का पहाण कर यह समरूप से यही प्रीति है-"प्रीतिहि सौमनस्यम् ।"" सुख प्रवाहित होती है । इसलिए यह प्रमाद है । जो अध्यात्म ना मन है। काय चित्त के रोम को भलीभॉति खा और सम है वही अध्यात्म सम्प्रसाद है। "विभग' में नाट कर देता है, वह मुख है। यह शीतल और अध्यात्म सप्रमाद की व्याख्या इस प्रकार की गई हैता है-'ग्वन मुखं । सुठ्ठ वा खादति खणति च जो सद्दहन अवकम्पन रूपथद्वा है वही अध्यात्म सप्रसाद है नाबध ति सुख । प्रब्धि सुख है। चित्त की "यो सदा सद्दहना प्रोकम्पना अभिप्पसादो।" "अभियता इमका लक्षण है। लघता-हलकापन ही कर्मण्यता धर्मकोश भाष्य में अध्यात्म सप्रसाद को इस प्रकार बतके अर्थात चित्त का मृद होना सुख है--'सुख-प्रब्धिमुख लाया गया है -वितर्क विचार क्षोभ से विरहित प्रशांत १. दे० वि० ४।८८% पढ० ३।१६८, ३१२७८ । संतति अध्यात्म सम्प्रसाद है क्योकि वितर्क विचार क्षोभ २. दे० बौद्धधर्म दर्शन, पृ० ६७ पर उद्धृत परमत्थ मेलहरों से युक्त नदी के समान संततिचित्तधारा मंजूमा से । मनी-प्रप्रसन्न रहती है-"वितर्क विचार क्षोभविरहात ३. दे० बल्देवोपाध्याय----बौद्धदर्शनमीमांसा, पृ०३४७॥ प्रशांतवाहिता संततेरध्यात्मसम्प्रसादः । सौमिकेव हि ४. विसु० ४।८८; अट्ट० ३।१६८ तथा अभिधम्मत्थ- नदी वितविचारसततेरप्रसन्ना वर्तत इति ।५ "काय सग्रहो (हिन्दी) पृ० ११४ (प्रकाशिनी टीका)। १०. अर्थविनिश्चयसुत्त० पृ० १८१। ५. बौद्ध दर्शन मीमासा, पृ० ३४७ । ११.दे० अभि० को० व्या० २।२५ पृ० ४३ । ६. विसु० ४.८६ । १२. दे० विसु० ४.१००। ७. प्र० ३।२०२, २०६, विसु. ४१६४ । १३. दे० दी. नि० ३।२२२ (रोमन)। ८. अर्थबिनिश्चयमूत्र एण्ड निबन्धन, पू० १८० । १४. दे० विभं० २५८ (रोमन); विसु. ४।१४५ । ६. विस० ४११००; अट्ठ० २०२०, २०६ । १५. अभि. को० भा० पृ० ४४० । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धधर्म में ध्यान-चतुष्टय : एक अध्ययन और चित्त की अवस्थामों की प्रत्यवेक्षा सम्प्रजन्य कह- जाता है और मध्यात्म सम्प्रसाद, प्रीति सुख और एकाग्रता साती है। यह प्रज्ञा है।' ये चार चित्तवत्तियां रहती हैं।' उपेक्षा उपपत्ति के देखने को कहा जाता है अर्थात् प्रीति के विराग से उपेक्षक हो स्मृति सम्प्रजन्य से समभाव से देखना, पक्षपात रहित देखना ही उपेक्षा है।' युक्त होकर काया से सुख को अनुभव करता हुमा विहचित्त जब विषय के साथ अपना सामञ्जस्य स्थापित कर रता है जिसको प्रार्य जन उपेक्षक स्मतिमान सूखबिहारी लेता है तब बह एकाग्रता होती है कुशलचित्त की एका- कहते है ऐसे तृतीय ध्यान को प्राप्त होकर योगावचर ग्रता ही ध्यान समाधि-"कुशलचित्तस्से कग्गता समाधि।" विहरता है। यही तृतीय ध्यान है । इसमे सुख, स्मृतिइस प्रकार योगी कामों और अकुशल धर्मों से अलग सम्प्रजन्य, उपेक्षा और एकाग्रता ये चार चित्तवृत्तियां होकर वितर्क सहित विवेक से उत्पन्न प्रीति और सुख होती है । सुख-दुःख के प्रहाण से सौमनस्य और दोर्मनस्य वाले प्रथम ध्यान को लगाकर विहरता है यही प्रथम के पूर्ण प्रस्त हो जाने से सुखदुःख से रहित उपेक्षा से ध्यान है। इसन बितक विचार, प्रीति सुख और एका उत्पन्न स्मृति एकाग्रता की परिशुद्धि से युक्त योगी चतुर्थ ग्रता ये पाच चित्त वृत्तियां होती है । इनके होने पर हो ध्यान को प्राप्त कर विहरता है । यही चतुर्थ ध्यान प्रथम ध्यान उत्पन्न होता है । वितर्क विचार के शान्त होने पर भीतरी प्रसाद चित्त की एकागृता से युक्त वितक ६. "प्रीतिया च विरागा उपेक्वको च विहरति सतोच विचार से रहित समाधि से (एकाग्रता से) उत्पन्न प्रीति सम्प जानो सुखजच कायेन पटिसवेदेति य तं अरिया सुख वाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त कर योगी विहार करता प्राचिक्खन्ति 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी' ति है। यही द्वितीय ध्यान है। इसमें वितर्क विचार छूट ततियं झान उपसम्पज्ज विहरति ।-दी. नि. १. 'सम्प्रजन्यमिति प्रज्ञा' ।-अर्थविनि० पृ० १८४ । ३।२२२; विसु० ४११५३; विभं० २४५ । २. दे० विसु. ४।१५६ । मिलाइये-'स प्रीतिविरागाद पेक्षको विहरति, ३. वही, ३।३ । स्मृतः सम्प्रजानन् सुख च कायेन प्रतिसवेदयति यत्त४. 'विविच्चेव हि कामेहि विविच्च अकुसलेहि घम्मेहि दार्या पाचक्षते उपेक्षक: रमतिमान् सुख विहारी' ति सवितक्क मविचार विवेकज पीतसुख पढम झानं तृतीयं ध्यानमुपसपद्य विहरनि ।'-प्रविनिश्चय उपसम्पज्ज विहर्गत ।'-दी०नि०६।२२२ विभं. सूत्र, पृ० १७ । २४५; विमु० ४७६ । ७. "सुखस्य च पहाना दुक्खम्म व पहाना पुब्बे सोमतूलना कीजिए- विविक्त कामैः विविक्त नस्स दो मनस्तान अत्थङ्गमा अदुक्खसख उपेक्वापापकर कुशलः धर्मः सवितर्क सविचार विवेकज प्रीति सनिपारिसुद्धि नतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।" सुख प्रथम ध्यान उपसम्पद्य विहरति ।-अर्थविनि -दी० नि० ३.२२२; विभं० २४५; विसु० श्चयसूत्र पृ० १७; तथा देखिए --बु० च० १२ ४६ ४११८३ । तथा तुलना कीजिए५. "वितविचारन वपसमा अज्झत्तं सम्पसादन चेत- "समुखम्य च प्रहाणात द ग्वस्य च प्रहाणात पूर्वमेव सो एकोदिभाव अवितक्क अविचार समाधिज पीति च सौमनस्य दौर्मनस्य योऽस्तङ्गमाददुःखासुखमुपेक्षासुख दुतिय झान उपसम्पज्ज विहरति ।"-दो०नि० स्मत्तिपारिशुद्धि चतुर्थं ध्यानमुपसम्पद्य विहरति ।' ३१२२२; विसु० ४.१३६% विभ २४५ । तथा अर्थविनिश्चयसूत्र पृ० १७ । तुलना कीजिए-"सवितर्कविचाराणां व्युप तथा चशमादध्यात्मसम्प्रसादाच्चेतस एकोत्तीभावाद वितर्क 'सादृशं सुखमासाद्य यो न रज्यत्युपेक्षकः । विचार समाविज प्रीतिसुख द्वितीय ध्यानमुपसम्पद्य चतुर्थ ध्यानमाप्नोति सुखदु:ख विवजितम् ।। विहरति ।"-अर्थविनिश्चय सूत्र, पृ० १७ । -बु० च० १२॥६५॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६, वर्ष २५, कि०४ भनेकान्त है। इसमें प्रसुखादुःखावेदना, स्मृति-उपेक्षा-समाधि. -तृतीय ध्यान का सुख प्रथम-द्वितीय ध्यान के सुख से पारिशुद्धि ये चार चित्तवृत्तियाँ होती हैं। नवीन सुख है और द्रव्यांतर भी है-"तृतीये ध्याने सुखं द्रव्यन्तर मुच्यते ।"" सौत्रान्तिक-ऐसा क्यों ? वैभाषिक उपरोक्त ध्यानों में से प्रथम ध्यान को छोड़कर -प्रथम दो ध्यानों का सुख प्रश्रब्धि सुख है-"प्रथब्धि द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ ध्यान की चित्तवृत्तियों पर सुखमाद्ययोः।" वह प्रश्रब्धि मय है । और तृतीय ध्यान "अभिषम्मत्थसंग्गहो" कार प्राचार्य मनुरुद्ध का मतभेद है। प्रथम तो वे ध्यानों में पांच ही चित्तवृत्तियाँ मानते हैं का सुख सुखावेदना है-यस्मात्तद्वंदनासुखं ।"" क्योकि जो हैं-वितर्क, विचार, प्रीति, सुख मोर एकाग्रता। उक्त दो ध्यानों मे कायिक सुख नही होता-'न हि तत्तयो दूसरे वे एक पांचवां ध्यान भी मानते हैं । जैसे- उपरोक्त । कायिक सुख युज्यते समापन्नस्य कायाभावात् ।" अर्थात् जिस सत्त्व में जो ध्यान समापन्न होता है उसमे पचेन्द्रिय पांचों चित्त वृत्तियों वाला प्रथम ध्यान है. इसमें साधक अपने शरीर को विवेक से उत्पन्न प्रीति से भिगोता है, विज्ञानों का प्रभाव होता है। अत: इन ध्यानों का सुख चारों ओर व्याप्त करता है जिससे उसके शरीर का कोई चैतसिक सुख नहीं है क्योंकि इन ध्यानों में प्रीति होती है भी भाग इस प्रीति सुख से प्रव्याप्त नहीं रहता । विचार, और प्रीति सौमनस्य है-'प्रीतिहि सौमनस्यम्" परस्पर में प्रीति, सुख और एकाग्रता वाला दूसरा ध्यान है इसमें प्रीति और सुख का साहचर्य भाव भी नही है भोर एक के श्रद्धा की प्रबलता और प्रीति, सुख और एकाग्रता की बाद दूसरा होता है यह भी मानना अनुचित है क्योंकि प्रधानता रहती है। यह ध्यान गह्वर जलाशय की तरह है प्रथम ध्यान के पांच अग है और दूसरे के चार ही। जिसके भीतरी स्रोत होता है जो विना वर्षाके पानी से भी दूसरे सौत्रान्तिक वितर्क, विचार, समाधि और एका गता तथा अध्यात्म सम्प्रसाद को एक दूसरे से भिन्न नहीं अपने को परिपूर्ण मधुर जल से अोतप्रोत रखता है। चित्त मानते । इस पर वैभाषिक उनसे पूछते है कि जब ये की एकाग्रता के कारण समाधि जन्य प्रीतिसुख साधक के अभिन्न है तो चैतसिक क्यों कहे जाते हैं ? क्योंकि चित्त शरीर को भीतर से ही प्राप्लावित कर देता है । प्रीति, सुख और एकाग्रता वाला तीसरा ध्यान है । इसमे सुख और की अवस्था विशेष का नाम ही चतसिक है-"अवस्था विशेषो हि नाम चेतसश्चत्तसिको भवति ।" सौत्रान्तिक एकाग्रता को प्रमुखता रहती है। तृतीय ध्यान का योगी उपेक्षक स्मृतिमान और सुख विहारी होता है। उसका इसका प्रतिवाद करते हुए उत्तर देते है कि जब वितर्क शरीर सुख प्रोर प्रीति से व्याप्त रहता है। सख और विचार का विक्षेप समाप्त हो जाता है तब चित्तसन्तति एकाग्रता वाला चौथा ध्यान होता है। इसमें साधक अपने प्रशान्त होती है। शरीर को शुद्धचित्त मे युक्तकर देता है । इममे एकाग्रता इस प्रकार ध्यान और ध्यानाङ्गी के बारे में 'अभिकी ही प्रधानता होती है तथा पांचवा ध्यान अपेक्षा और धर्म कोशभाष्य' में काफी निकाय मतभेद प्राप्त होता है। एकाग्रता से युक्त होता है। इसमें अपेक्षा स्मृति पारिशुद्धि यदि हम पालि अभिधम्म पिटक मे विशेषकर विभंग मे की मुख्यता होती है। ध्यानाङ्गों के नामकरण और सख्या की उत्तरवर्ती अभि धर्म गन्थों से तुलना करे तो काफी मतभेद मिलता है। 'पभिधर्म कोशभाष्य' --में ध्यानों में पाये हुए सुख चार ध्यानों का उत्तरवर्ती अभिधर्म मे पाच ध्यानो मे के अस्तित्व पर एक बहुत ही दिलचस्प विवाद प्राया है जो विभाजन भी इसी विकास का द्योतक है। * विवाद सौत्रान्तिकों और वैभाषिकों के सुख सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करता है। सौत्रान्तिक कहते १-२. दे. अभि० को० भा०, पृ० ४३ । हैं कि प्रथम तीन ध्यानों का सुख क्या एक ही सुख है या १-३. दे. अभि. को० भा० पृ० ४३ ४-५ वही, पृ० द्रव्यान्तर है ? वैभाषित प्रत्युत्तर देते हुए कहते है कि' Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालव भूमि के प्राचीन स्थल व तीर्थ सत्यंधर कुमार सेठी, उज्जैन मध्य प्रदेश बनने के पहले उज्जैन और उसके प्रास- इस प्रांत मे कुछ ऐसे भी स्थल है जिनको जैनों ने पास का बहु प्रदेश महामालव के नाम से प्रसिद्ध था। तीर्थों के रूप में माना है। जैसे बड़वानी (बावन गजा प्राचीन साहित्य मे मालव भूमि की समृद्धि के सम्बन्ध मे जी) सिद्धवर कट, ऊन (पावा गिरि) ममी पाश्वनाथ काफी उल्लेख है। मालव भूमिका जैन मस्कृति से हजारो वनाड़िया और जामवेर । आज भी जैन समाज में इनकी वर्षों का सम्बन्ध है और इसके अचल में कितने ही जैन मान्यता है और लाखो की संख्या मे जैन समाज वहां सतों ने जन्म लेकर इस भूमि को पवित्र किया है । व जाकर श्रद्धा के सुमन समर्पित करती है। कितने ही महापुरुषो का इस क्षेत्र मे विहार हुआ है लेकिन जैन समाज के पास इन तीर्थों का कोई प्रामाजिनके कारण से यह भूमि पावन तीर्थों के रूप में प्रसिद्धि णिक इतिहास नही है जिससे भारतीय इतिहास की दृष्टि को प्राप्त हुई है। में इनका महत्व हो। यह एक निश्चित बात है कि जैन जिस तरह दक्षिण भारत जैनो के लिए गौरव पूर्ण धर्म एक प्राचीन धर्म है । उसका साहित्य विशाल है। हो रहा है। उससे कही अधिक मालव भूमि का इतिहास स्थापत्य और कला के विकास में इसका महान् योगदान जैनो के लिए गौरव पूर्ण है। इस भूमि पर अनेक जैन है। फिर भी जैन समाज ने अपने इतिहास को देश के जनेतर राजाम्रो ने राज्य किया है। प्रवन्ति के सकमाल महान् विद्वानों के सामने लाने का कोई प्रयास नहीं म जैन मतान्ट किया, जिससे वह लोगो की दृष्टि में प्रागे नहीं बढ़ सका रहा है। भद्रबाह श्रुतकेवली भी इसी भूमि पर विशाल बल्कि वह पिछड़ गया और विश्व में उसके सबंध में गलत मुनि संघ के साथ पधारे थे और शिप्रा नदी के उपवन में धारणाएँ बन गई। ठहरे थे । उनके मंगल विहार से यह भू भाग अलंकृत हुया इतिहास के क्षेत्र में हम हमेशा ही जीवित रहे इसके है। इस कारण इस स्थान की महत्ता प्रसिद्ध है। मातव लिए हमारे पूर्वजों ने महान् गौरव पूर्ण कार्य किये हैं। प्रदेश के प्रत्येक कण मे जैन सस्कृति की गंज है और जिनकी दूरदर्शिता का ही यह परिणाम है कि उन्होने उसका प्राचीन वैभव प्राज भी स्थापत्य और कला के नाम भारत के कोने-कोने मे हर पहाड और जगल मे स्थापत्य से जीवित है। इस प्रदेश मे ऐसा कोई शहर जगल पोर को जन्म दिया और उनको तौथा का रूप देकर हमें गौरव पहाड नहीं जहा पर जैनों की ऐतिहासिक निधि मन्दिर शाली बनाया-लोकन । नियमित शाली बनाया-लेकिन आज के जैनों ने इनके सरक्षण और मूतियों के रूप में खण्डित व प्रखडित अवस्था में के लिए कोई प्रयास नहीं कियाबिखरी हुई न पड़ी हो। ये ऐतिहासिक सामग्रिय प्रमा- मालव प्रान्त में हमारा प्रसिद्ध क्षेत्र सिद्धवर कट णित करती हैं कि इस प्रांत में एक समय ऐसा था जब है। निवाणका है। निर्वाणकांड में यह उल्लेख है कि रेवा नदी के तट जैन धर्म काफी विशाल रूप में था। इसी भूमि ने महान् पर पर यह क्षेत्र है और उसमें बतलाया गया है कि यहाँ दो पर यह क्षत्र ह' निग्रंथ मुनि सिद्धसेन दिवाकर महा मानव मान तुंग प्राचार्य __ चक्रवर्ती और दश काम कुमार मुक्ति को गये हैं । लेकिन महाविद्वान धनंजय कवि प्रादि को जन्म दिया है और हमे पाज भी यह मालूम नहीं कि कौन से दो चक्रवर्ती मन्तिम श्रुतकेवली भगवान् भद्र बाहुकी भी विहार भूमि भोर दश काम कुमार यहां से मुक्ति गये । यही महा मालव रहा है। मुझे तो वर्तमान सिद्धवर कूट जहाँ पर है वह स्थान मुक्ति Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ वर्ष २५, कि० ४ अनेकान्त स्थान है इसमे सदेह है। क्योकि वहा कोई प्राचीन अवशेष मे इसको हृदयस्थल माना गया है। भारतीय साहित्य मे नहीं है और न इसके नाम के अनुकूल कोई ऐसी पहाड़ी है इसको तीर्थ का रूप दिया है। और यह एक बड़ा पावन जिसकी कूट पर यह स्थित है। हाँ इसके सामने रेवा नदी तीर्थ है। जैन साहित्य मे उज्जैन का बड़ा महत्त्व है। है और रेवा नदी के उत्तर तट पर एक पहाड़ी अवश्य है जैनों की कई विभूतियो ने इस स्थल को पावन किया है। और उसके अचल में कई मन्दिर है । जिनको वैष्णव लोगो सुप्रसिद्ध दिगम्बर सत मिद्धसेन दिवाकर और मानतुंग की ने तीर्थ का रूप धोकारेश्वर के नाम से दे डाला है। यह विहारस्थली रही है । विश्व बन्धु भगवान महावीर कुछ वर्ष पहले सरकार की तरफ से यहाँ खुदाई की का भी यहां प्रागमन हुआ है। और यहाँ की अति मौक्तिक गई थी, और इस खुदाई में जैन मन्दिरों के अवशेष उनकी श्मशान भूमि पर रुद्र द्वारा भयंकर वर्ग मूर्तियां ही निकली ही थी। एक विशान मानस्तंभ भो उल्लेख है। यह श्मशान भूमि अाज भी उज्जैन मे निकला था। लेकिन वह खुदाई तुर्त वन्द कर दी गई। मौजूद है। और यह अवशेष आज भी यहाँ पर पड़े हुए है। लेकिन उज्जैन शब्द ही जनो के उत्सर्ग का बोधक है। और जैन समाज ने इसके लिए कोई प्रयास नही किया। यदि एक समय था जब इस प्रदेश पर जैनो का पूर्ण प्राधिपत्य इसके लिए प्रयत्न किया जाता तो इतिहास को नया मोड़ था। सुकमाल स्वामी के जीवन चरितो में उज्जैनी का मिलता और जैन समाज को भी यह समझने का अवसर दिगम्बर श्वेतांबर साहित्य में उल्लेख है। सुकमाल की मृत्यु मिलता कि हमारा प्राचीन स्थल कौन सा है । मैं तो यही वर्तमान महाकाल वन में हुई थी। श्वेताबर साहित्य में मानता है कि हमारा सही निर्वाणस्थल भोकारेश्वर तीर्थ उल्लेख है कि उनके पुत्र ने उनकी स्मृतिमे विशाल मन्दिर का हिस्सा ही है, जिसको हमने छोड दिया है । मैं चाहता बनवाया था और वह मन्दिर प्राज का महाकाल मन्दिर हूँ कि इसकी तरफ इतिहास के विद्वान् ध्यान दें। है । क्योंकि इस मन्दिर के चारों तरफ जैन संस्कृति के यही स्थिति ऊनकी भी है। यह लुप्त क्षेत्र था। यहां प्रतीक रूप कई खण्डित अवशेष मिलते रहे है। आज भी भी सुसारी के सुप्रसिद्ध सेठ हरसुखलाल जी को स्वप्न उज्जैन में कई मन्दिर ऐसे है जिन पर अन्य संस्कृति वालो पाया था और स्वप्न के अनुसार खुदाई करने पर इस का कब्जा है। क्षेत्र की उपलब्धि हई थी। इसको ऊन भी कहते है। इसी तरह नगर के मध्य सनी दरवाजा है। जैन धर्म और पावागिरि भी कहते है। में शील कथाहै । उसमे मनोरमा सती का जीवन चरित्र है। लेकिन इसका कोई प्रामाणिक इतिहास हमारे पास जिसमे लिखा है कि लोगो ने उसके कलंक लगाया और नही हैं । वहा को किंवदन्ती के अनुसार यह है कि किमी फिर एक देव ने नगर के समस्त दरवाजे कोलित किये। समय किसी धार्मिक व्यक्ति ने यहा पर मन्दिर बनवाये और इमी गती के प्राठे से वे दरवाजे खोले गये, और एक थे और वे निन्यानवे रह गये, सौ मे एक मन्दिर कम दरवाजा ऐसा रहा जो सती के नाम से प्रसिद्ध हो गया रह गया, इमसे इसका नाम ऊन पडा। लेकिन पाज वे और अभी वह है। मन्दिर भी जमीन के भीतर ध्वस है। कुछ मन्दिर ऐसे है इसी तरह उज्जैन के ग्रासपा। बडनगर, दनावर, जिनकी स्थिति खराब है। मोर उनमे विशाल बिम्ब जमीन सुन्दरसी, सारंगपुर, जामनेर, गौदलमऊका तालाब, भोपाल पर आज भी बिखरे पड़े हैं। जैन समाज जाता है और का प्रासपास का प्रदश, साची के पास के हिस्से समस्तीदेखकर वापिस पा जाता है। लेकिन इसके अनुसंधान के पुर, भंवरासा, पचौर, गन्धावल इच्छाबर, आदि लिए अाज भी मौन है। जब सिद्ध क्षेत्रो में ही यह स्थिति कई ऐसे स्थल है जहाँ सैकडो विशाल जैन मूतिया जमीन है तो अन्य जगह बिखरी स्थिति की हालत तो बहत ही पर बिखरी पड़ी है। दयनीय है। इनमे गंधावल और पचौर ऐसे स्थान है जहा पर उज्जैन इस प्रांत का ही नहीं; किंतु भारतीय इतिहास हजारों की संख्या मे मूर्तिया है। और लोगों ने पाखाना Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालव भूमि के प्राचीन स्थलबती घरों और मकानकी दिवालों तक में उपयोग कर डाला है। सकता है। मैं तो इतिहास का विद्वान भी नहीं हूँ। याज भी जैन समाजकी स्थिति पर वे प्रासू बहा रही हैं। समाज के विद्वानों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए इन्ही सब स्थितियों को देख कर मालवा प्रांतीय दिग. हमारी हार्दिक इच्छा है कि "मालव देश मे जैनधर्म पर जैन सभाने एक पुरातत्व संग्रहालय को जन्म दिया। लेकिन कोई विधान् शोध ग्रन्थ लिखें। हम हर तरह से सहयोग उसके वरिष्ठ अधिकारियों की दृष्टि में इसका कोई महत्व देने के लिए तैयार हैं।" नहीं मांका गया-प्रौर उमने प्र.नी सहायता बन्द कर बदनावर से प्राप्त मति शिलालेखों की नकल दी। तब उज्जैन के सुप्रसिद्ध धनी सेट लालचन्द जी (१) सं० १२१६ जेष्ठ सुदी ५ वुधे भाचार्य कुमारसेन साहब सेठी और उज्जैन के सामाजिक कार्यकर्तामों का चंद्रकीति वर्धमान पुरान्वये साधु वाहिव्यः सुत माल्हा इघर ध्यान गया । और जे. एल. जनी ट्रष्ट फण्ड इन्दौर • भार्या पाणु सुत पील्हा भार्या पाहुणी प्रणति नित्यं ने पूर्ण सहायता दी जिससे यह संग्रहालय मागे बढ़ा मौर (२) सं० १२२८ वर्षे फाल्गुन शुक्ल ५ श्री माथुग्मघे उसने थोड़े से समय में अपूर्व मामप्री इसमें एकत्रित कर पडिताचार्य श्रीधर्म तस्य शिष्य पाचार्य ललितकीति डाली। भाज इस संग्रहालय में करीब ३००-४०० के (३) ६०॥ सं० १२१० वर्ष वैशाख शुक्ला १ शुक्र श्री प्राचीन विम्बों और अवशेषो का संग्रह है। जो जैन समाज माथुरसघे ल्वायवासे(?)कुमारसेन ? शिष्यः वधू भरी की ही नहीं लेकिन मालव प्रदेश की एक स्वणिम निधि जस हसता जयकर कारितं । मानी जाती है। बाज इस संग्रहालय से सैकड़ों शोष (४) सं० १२२२ जेष्ठ शुक्ला ७ वुधे श्री खडे रक गच्छे छात्र प्रेरणा पा रहे है। और देश के बड़े बड़े विद्वानों ने साः गोसल भार्या प्रासा गुण श्री मदन श्री तग..." निरीक्षण करके बहुमूल्य सम्मतियां प्रदान की हैं। ...श्री........"प्रतिष्ठिताः यह भी उल्लेखनीय है कि इसी संग्रहालय में वद- (५) संवत् १२३० माघ शुक्ला १३ श्री मूलसघे प्राचार्य नावर से बहुत सी प्राचीन मूर्तियां लाई गई हैं। और भद्राराम-नागयाने भार्या जमनी सुत साधु सवहा तस्य इन मूर्तियों के लेखो से इन स्थानों से संबंधित इतिहास भार्या रतना प्रणमति नित्यं घांघा वीलू वाल्ही साधू । पर काफी प्रभाव पड़ता है। वदनावर एक ऐतिहासिक (६) १०॥ संवत् १२२६ वैशाख कृष्ण ७ शुक्र ग्रहदास स्थल है । प्राप्त सामग्री से पता चलता है कि किसी समय बद्धनापुरे धीशांतिनाथ चैत्ये सा: भवन सा-गोसल ठः में इस स्थान का नाम वर्द्धमानपुर था। इस वर्द्धमानपुर कड़देवादि कुटंब सहितेन निज गोत्र देत्या श्रीप्रक्लुमके संबंध में श्रद्धेय प्रेमी जी ने जैन इतिहास नामक पुस्तक नायाः प्रतिकृतिः कारिता: श्रीकूलचंद्रोपाध्याय प्रति. में बर्द्धमानपुर यही है होने में शका प्रकट की है। और ष्ठितः गुजरात के वड्ढमान स्थान को वर्धमान माना है। लेकिन (७) स. १२३४ वर्षे माघ सुदी ५ बुधे श्रीमन् माथुर सधे वहां उन्होंने लिखा है कि हरिवंशपुराण मे जिनसेन स्वामी पंडिताचार्य धर्मकीतिः शिष्यः ललितकीतिः बर्द्धमान ने एक दोस्तटिका वस्ती का उल्लेख किया है वह नहीं पुरान्वये सी-प्रामदेव भार्या प्राहिणीः सुत राणसाः मिलती। मैंने इसके सबंध मे खोज की। इसी बदनावर दिगम सा: याका सा: जादह साः राण भार्या माणिकके पास एक दोत्रिया नाम का स्थान है। जहाँ दो नदियों सुत महण किज कुले बालू सा. महण भार्या रोहिणीके तट मिलते हैं। प्राचीन दोस्तटिका का अपभ्रंश ही प्रणमति नित्यं । माज का दोत्रिया है। फिर जिस शातिनाथ चैत्यालय में संवत् ११२२ माघ शुक्ला हरा दिनैश्च प्रोह वर्द्धन बैठकर जिनसेन स्वामी ने हरिवंशपुराण की रचना की है पुरे श्री सियापुर वास्तव्य पुत्र सलन दे. पा.-सेवा उस चैत्यालय की मति भी इस संग्रहालय में माज भी प्रणमति नित्यम् मौजूद है । इस पर विद्वानों को विचार करना चाहिए। इसी तरह अन्य भी लेख हैं जिनमें वर्षनापुर का ऐसा यह मालव प्रदेश है इसमें प्रगणित स्थान ऐसे हैं अपभ्रंश होकर वुदनापुर फिर वुदनावर का उल्लेख है। जिनकी खोज से जैन इतिहास को महत्त्वपूर्ण मोड़ मिल प्रब वह प्रचलित वदनावर के नाम से है। * Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति के प्रतीक मौर्यकालीन अभिलेख डा० पुष्यमित्र जैन एम. ए. पो. एच. से. मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के पर स्थापित किया जाता है। प्रतः उसका निर्माण धर्म सर्वप्रथम सम्राट थे। वह जैनधर्म के अनुयायी थे। अब चक्र प्रवर्तन की स्मति में कराया गया प्रतीत नहीं होता है। ऐतिहासिक तथ्यों के प्राधार पर भी प्रमाणित हो चुका । वास्तविकता यह है कि जैन मान्यतामों के अनुसार है। इनके पश्चात् इस देश में विन्दुसार और सम्प्रति तो भगवान महावीर का चिह्न सिंह है और केवल ज्ञान के प्रारम्भ से अन्त तक जैन धर्म के अनुयायी रहे। परन्तु पश्चात् तीर्थकर चतुंमुखी प्रतीत होने लगते हैं । इसके कलिंग' युद्ध तक जैन धर्म में प्रास्था रखने के पश्चात् अतिरिक्त जब वे विहार करते हैं तो धर्म चक्र उनके प्रशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। राजतरंगिणी में भी भागे-मागे चलत। प्रतः सारनाथ का सिंह चतुष्टय का स्पष्ट उल्लेख है कि अशोक जैन धम का और धर्म चक्र भगवान महावीर के धर्म प्रचारार्थ विहार अनुयायी था। उसने अनेक स्तूपों का निर्माण कराया तथा का स्मरण दिलाते हैं । सांची के सिंह चतुष्टय पर धर्मवितस्तात्रपुर के धर्मारण्य विहार में एक बहुत ऊँचा जिन चक्र नहीं है । वह उनके समवशरण में विराजमान होने मन्दिर बनवाया। मौर्य सम्राटों ने शिला खडों पर अनेक का प्रतीक है । पाटलिपुत्र के खनन कार्य में वषभ चतुष्टय अभिलेखों को उत्कीर्ण कराया। इनका ऐतिहासिक तथा प्राप्त हुपा है। यह (मान) स्तम्भ का शीर्ष भाग है जो सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्व है। कि भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर के द्योतक सारनाथ-इस स्तम्भ के शीर्ष भाग मे सिंह चतुष्टय हैं। अतः महावीर से सम्बन्धित होने से सारनाथ स्तम्भ पर धर्म-चक्र स्थापित था । अब ये दोनो सारनाथ के पुरा- जैन संस्कृति का प्रतीक है । जहाँ तक इसके अभिलेख का तत्त्व सग्रहालय में सुरक्षित है । इसके सबन्ध में इतिहास- प्रश्न है, वह जैन और बौद्ध दोनों पर ही समान रूप से कारों का अभिमत है कि यहां (सारनाथ) पर भगवान लागू होता है। बुद्ध ने साना सर्वप्रथम धर्मोपदेश देकर पांच व्यक्तियों ग्यारह लघु अभिलेख-गुर्जरा, मास्की, रूपनाथ, को अपना शिष्य बनाया और इस प्रकार धर्म चक्र प्रवर्तन सहसराम, ब्रह्मगिरि, सिंहपुर, गोविमठ प्रहरौरा, वैराट का कार्य प्रारम्भ किया।' प्रत: सिंह चतुष्टय पर स्थापित धर्म चक्र उसी स्मृति का प्रतीक है । परन्तु यह तक युक्ति विषय है। "ढाई वर्ष पौर कुछ अधिक समय हुमा, मैं सगत नहीं है क्योकि गिरनार त्रयोदश अभिलेख मे भगवान प्रकाश रूप मे उपासक था । परन्तु मैंने अधिक पराक्रम बुद्ध को हस्ति के रूप में स्मरण किया गया है.।' यदि नहीं किया। एक वर्ष और कुछ अधिक समय हुमा, जब सारनाथ स्तम्भ का धर्म चक्र भगवान बुद्ध के धर्म चक्र मैंने संघ' की शरण ली, तब से अधिक पराक्रम करता हूँ प्रवर्तन की स्मृति में कराया गया होता, तो उसे सिंह चलु. इस काल में जम्बू द्वीप में जो देवता मिश्र थे, वे मिश्र ष्टय के बजाय बुद्ध के प्रतीक हस्ति मथवा हस्ति चतुष्टय किए गए, पराक्रम का यही फल है।" इन में गुजरा १. कलिंग युद्ध राज्याभिषेक के माठवें वर्ष हुमा था पौर मास्की मे प्रशोक तथा शेष मे प्रियदर्शी का उल्लेख मार मास्को २. राजतरंगिणी पृ० ८ । है। इससे विदित होता है कि प्रशोक के लिए भी प्रिय३. डा० राजवलि कृत प्रशोक प्रभिलेख ए०१३ . दर्शी का प्रयोग होता था और ये समस्त अभिलेख उसी ४. वही पृ० २१॥ ५. जैन और बौद्ध संघ । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संमति के प्रतीक मौर्यकालीन अभिलेख जवारा उत्कीर्ण कराये गये हैं, क्योंकि इनके विषय में प्रमुषा (सत्य) थे, वे मुषा किये गये । इसके विपरीत समानता है। अन्य विद्वानों का मत है कि अशोक ने अपने घर्भाचरण हुन प्रभिलेखों में से वैराट मास्की और जटिंग रामे- से जम्बूद्वीप को ऐसा पवित्र बना दिया कि यह देव लोक इवर को छोड़ कर शेर ग्राउ में २५६ प्रकित है। प्यूलर सद्दश हो गया पौर देव तथा मानव का अंतर मिट गया। का कथन है कि यह बुद्ध निर्वाण सवत है। परन्तु ऐसा परन्तु ये दोनों ही व्याख्याएं युक्ति संगत नहीं है, क्योकि मानने से प्रशोक का समय' ५४४-३५६-२८८ ई०पू० पालि या प्राकृत में संस्कृत मुषा का रूप 'मुसा' होता है प्राता है। जबकि प्रशोक का राज्याभिषेक २७२ ई० पू० 'मिसा' नहीं। इसी प्रकार डेढ़ वर्ष के पराक्रम मे अशोक में हमा था। इससे पशोक पौर बुद्ध निर्माण संवत् की ने जम्बू द्वीप को देव लोक सद्दश बनाकर देव और मानव संगति ठीक नहीं बैठती है। प्रतः २५६ बुद्ध निर्वाण संवत् का अन्तर समाप्त कर दिया। यह बात भी हृदयग्राही नहीं हो सकता है। प्राजकल के इतिहासकारों का अभि-, नही है। मत है कि इसका (२५६) अर्थ २५६वां पड़ाव है।' परंतु अब प्रश्न उठता है कि उपयुक्त वाक्य का वास्तविक यह भी युक्ति सगत नही है, क्योंकि एक के अतिरिक्त शेष. तात्पर्य क्या है । मिश्र को प्रामिष का प्रशुद्ध रूप मानने सात में पड़ाव की क्रम संख्या २५६ से कम अथवा अधिक पर अर्थ बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है अर्थात् जम्बद्वीप मे होनी चाहिए । पाठों अभिलेखों में ही पड़ाव की क्रम जिन देवतानों पर पशु-बलि दी जाती थी, अशोक द्वारा संख्या २५६ नहीं हो सकती। अतः २५६ का अर्थ २५६। अहिंसा, प्रचार से वह बन्द होगई और उसके स्थान पर वां पड़ाव नहीं है। देवतानों को मिष्टान्न, घृत, नारियल फल, अन्न प्रादि अशोक कलिंग युद्ध से पूर्व राज्याभिषेक के प्रारम्भिक की बलि दी जाने लगी। वास्तव में धर्म के नाम पर पश माठ वर्षों में जैनधर्म का अनुयायी था । अतः अभिलेखों बन ही उस युग की सबसे बड़ी समस्या थी। अशोक ने पर प्रकित २५६ का अर्थ यह है कि अशोक ने इन अभि. अहिंसः पचार से इस समस्या का समाधान किया। इसी लेखों को वीर निर्वाण संवत् ५२७-२५६२७१' ई० पूर्व तथ्य और इन अभिलेखों में सकेत किया गया है । इस में उत्कीर्ण कराया । प्रतः २५६ वीर निर्वाण संवत् मानने कार्य मे प्रशोक को जो सफलता मिली, वह कोई पाश्चर्य से इसकी प्रशोक के शासन काल तथा अभिलेखों में वर्णित की प्रथवा अनहोनी बात नहीं थी भारतीय वांगमय में इस एक वर्ष और कुछ अधिक समय के पराक्रम से सगति ठीक प्रकार के और भी उदाहरण मिलते है । काश्मीर के राजा बैठती है । ढाई वर्ष के कम पराक्रम का समय राज्याभि- मेघवाहन द्वारा अहिंसा प्रचार का यह परिणाम निकला षेक से पूर्व जान पड़ता है जिसमें प्रशोक को प्रपने भाइयों कि पश-बलि के स्थान पर शिष्ट-पशु (पाटे के पशु) पौर के साथ संघर्ष रत रहना पड़ा था । भाइयों को पराजित घृत पश से काम लिया जाने लगा।' दशवीं शताब्दी में करने के पश्चात् प्रशोक २७२ ई०पू० सिंहासनारूढ हुमा विरचित यशस्तिलक चम्पू से भी विदित होता है कि महा और अगले वर्ष ही उसने इन अभिलेखों को उत्कीर्ण राज यशोधर ने अपनी माता के प्राग्रह पर पाटे के मुर्ग कराया। की बलि दी थी। 'जम्ब द्वीप में जो देवता अमित्र थे उन्हें मित्र बनाया इन अभिलेखों के निर्माण के सम्बन्ध में इतिहासकारों गया'-इसकी व्याख्या के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद का अभिमत है कि प्रशोक ने राज्याभिषेक के बारह वर्ष है। कुछ विद्वानों के अनुसार जम्बू द्वीप में जो देवता अर्थात् २७२-१२-२६०ई०पू० इन्हें उत्कीर्ण कराया था। क्योंकि वे ढाई वर्ष और डेढ़ वर्ष की गणना कलिंग विजय १. डा. राजबलि पाण्डे कृत, प्रशोक मभिलेख पृ० ११२ से करते है। परन्तु ऐसा करना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि २. बुद्ध निर्माण सवत् । ३. वही पृ० ११२। ५. वही पृ० ११२ । ४. वीर निर्वाण सवत् । ६. राजतरंगिणी पृ० ३९ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२, वर्ष २५, कि०४ अनेकान्त अभिलेखों में १२, १३ वें, १९, २०, २६ वें वर्ष प्रभिलेख है। परन्तु इन अभिलेखों में विषय की दृष्टि से प्रादि का भी उल्लेख है। यह गणना राज्याभिषेक से की सेमानता है। अर्थात गिरनार के प्रथम अभिलेख का जो जाती है। इसी भाषार पर यह गणना भी की जानी विषय है शेष पाँचों शिलाखण्डों के प्रथम अभिलेख का चाहिए । कलिंग विजय से इसकी गणना करने का कोई भी वही विषय है। यही बात मन्य अभिलेखों के सम्बन्ध मौचित्य नहीं है। राज्याभिषेक से गणना करने पर यह में भी चरितार्थ होती है। इनमें से प्रथम चार प्रभिलेख स्पष्ट हो जाता है कि अशोक ने ज्ञन अभिलेखों को उस राज्याभिषेक के १२ वें वर्ष उत्कीर्ण कराए गए हैं। समय उत्कीर्ण कराया था जबकि वह जैनधर्म का अनुयायी कलिंग विजय से सम्बन्धित अभिलेख १३ वा है। यदि था प्रतः ये मभिलेख जैन संस्कृति के प्रतीक हैं। इन समस्त प्रभिलेखों का निर्माता प्रशोक होता तो महत्व देवानांप्रिय शंका-इन सभी अभिलेखों में देवाना तथा समय चक्र की दृष्टि से कलिग विजय अभिलेख को प्रिय का उल्लेख है और यह बौद्ध साहित्य की देन है। प्रथम स्थान मिलता । प्रतः इस अभिलेखका १३वां स्थान वैदिक साहित्य में तो इसका अर्थ 'मूख' है। प्रतः यह बात होने से यह निष्कर्ष निकलता है कि इनका प्रशो की समझ में नहीं पाती कि जैन होते हुए अशोक ने बौद्ध- अपेक्षा उसके पूर्वजों से कही अधिक सम्बन्ध है । साहित्य के इस शब्द का प्रयोग इन प्रभिलेखों में क्यों प्रथम अभिलेख में यज्ञों मे पश बलि, हिंसात्मक किया ? उत्सवों तथा राजकीय पाकशाला हेतु पशु वध का निषेध समाषान-'देवानां प्रिय' यह शब्द केवल बौद्ध है। यज्ञों में पशुबलि तथा हिंसात्मक कार्यों की तो जैन साहित्य की ही देन नहीं, जैन साहित्य में भी इस मादर मौर बौद्ध दोनों ही धर्मों में समान रूप से निन्दा की गई सूचक शब्द का प्रयोग साधारण जनता से लेकर राजा है । परन्तु बौद्ध धर्म में मास भक्षण का निषेध नहीं है। महाराजामों तक के लिए मिलता है। उदाहरणार्थ महा स्वयं भगवान बुद्ध का शरीरांत भी मांस भक्षण के कारण राजा सिद्धार्थ अपनी रानी त्रिशला को 'देवाणुप्पिया' तथा ही हुआ था । इसके विपरीत जैनधर्म मे मांस भक्षण की भासदों को 'देवाणप्पिए' कह कर सम्बोधित करते है। घोर निन्दा करते हुए मास-भक्षी को नरकगामी की सज्ञा ऋषभ ब्राह्मण भी अपनी पत्नी देवानन्दा के लिए देवाण- दी गई है । अशोक के पूर्वज चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार जैन प्पिया का प्रयोग करता है।' वीर निर्वाण सम्वत १२०६ धर्म के अनुयायी होने से मास भक्षण के विरोधी थे । इस में विरचित पदमपुराण में रविषेणाचार्य ने गौतम गणधर को पुष्टि अरेमाई अभिलेख से होती है। इसमे लिखा है द्वारा राजा श्रेणिक को 'देवानां प्रिय' इस मादर सूचक कि "राजा जीवधारियों को मारकर खाने मे परहेज करता शब्द से सम्बोधित कराया है। इस प्रकार प्रति प्राचीन है।" विद्वान पुरालिपि शास्त्र के प्राधार पर इस अभि. काल से बिक्रम की पाठवीं शताब्दी तक जैन साहित्य में लेख की तृतीय शती ई० पू० के पूर्वार्द्ध अर्थात् चन्द्रगुप्त इस शब्द का प्रयोग मिलता हैं। प्रतः इसे केवल बौद्ध अथवा बिन्दुसार के समय का मानते है।' साहित्य की देन कहना भ्रम है प्रशोक द्वारा अभिलेखों चाणक्य साम्राज्य का महामत्री तथा चन्द्रगुप्त का मे इसका प्रयोग जैन साहित्य के अनुकूल ही है। गुरु था, वह भी पहिसा धर्म में मास्था रखता था, तथा चतुवंश प्रभिलेख-गिरनार, कालसी, शहवाज गढ़ी, मांस भक्षण भौर मृगया का विरोधी था' प्रतः सम्राट मानसेहरा, घोली तथा जोगाढ़ा में से प्रत्येक जगह एक- तथा महामन्त्री द्वारा पारस्परिक विचार विनियम के एक शिलाखंड पर चतुर्दश प्रभिलेख उत्कीर्ण हैं। धौली पश्चात् हिंसात्मक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगाना तथा राज. भोर जौगाहो के शिलाखंड पर एकादश, द्वादश तथा प्रयो- कीय पाकशाला में निमित्त पशुमो के वध को रोकना दश प्रभिलेख नही है। इसके स्थान पर दो पृथक-पृथक ३. डा०राजबलि पाण्डे कृत अशोक मभिलेख प० १९२। १. कल्पसूत्र पृ० १३५, १३६ । ४. चाणक्व प्रणीत सूत्र ५६१ कोटल्य अर्थशास्त्र १० २. वही पु० १३७ । १८२। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन संस्कृति के प्रतीक मौर्यकालीम अभिलेख स्वभाविक हो इसके विपरीत बौदाधर्माभुयनायी लेख अशोक के पूर्वजो से ही सम्बन्धित प्रतीत होता है। अशोक द्वारा मांस भक्षणका निषेध भस्वाभाविक सा प्रतीत पचम अभिलेख में वमं वृद्धि हेतु भाई-बहिनों तथा होता है क्योंकि बौद्धधर्म मे मांस भक्षण का निषध नहीं, सम्बन्धियों के अन्तःपुर, राज्य कर्मचारियों के बीच पोर है। प्रत: यह अभिलेख प्रशोक की अपेक्षा उसके पूर्वजों से प्रजाजनों में धर्म महामात्र नियुक्त करने का उल्लेख है... कहीं अधिक सम्बन्धित प्रतीत होता है। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अशोक ने राज्याभिषेक से पूर्व ही चतर्थ अभिलेख का प्रमुख विषय "हस्ति दर्शन, अपने समस्त भाई बहिनों का वध कर डाला था। प्रतः विमान दर्शन. अग्नि स्कन्ध दर्शन तथा अन्य दिव्य प्रद- भाई-बहिनों में यहाँ धर्म महामात्र नियक्त करनेवाला शंनों द्वारा जनता में धर्म की रुचि उत्पन्न करना है।" अभिलेख अशोक का नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त परन्तु इनका भी प्रशोक तथा बौद्ध धर्म के साथ सम्बन्ध यह भी विचारणीय है कि प्रशोक ने धर्म प्रचाराला प्रतीत नहीं होता । क्योंकि भगवान बौद्ध का प्रतीक होने में अपने पुत्र भोर पुत्री को बौद्ध भिक्षक और भिक्षणी से हस्तिदर्शन के अतिरिक्त अन्य प्रदर्शनों की बौद्धधर्म से बना कर भेजा। तिब्बत मादि देशों में भी इसके निमित कोई संगति नही बंटती। इसके विपरीत इन समस्त प्रद- भिक्षक भेजे गये । फिर यह बात समझ मे नही पाती र्शनों का जैनधर्म के साथ सीधा सम्बन्ध है । तीर्थकर जब भारत में ही यह कार्य धर्म महामात्रो से क्यो कराया गर्भ में पाते हैं, तो उनकी माता १६ स्वप्न देखती है गया, जबकि यह सर्वविदित है कि ग्रह-त्यागीपोरन जिनमें हस्ति, विमान तथा मग्नि स्कंध भी है। श्वेतांबर प्त भिक्षुओं का जनता पर धर्म के सम्मान मन्दिरो में धातु के बने हए इन स्वप्नों की पयूषण पर्व मधिक प्रभाव पड़ता है उसका शतांश भी जाना तथा अन्य धार्मिक उत्सवो में प्रदर्शन की भी परम्परा है। महामात्रों का नही पड़ सकता है। वास्तविक इस प्रकार इन दिव्य प्रदर्शनों का बौद्धधर्म की अपेक्षा जैन- ये धर्म महामात्र और कोई नहीं वरन र धर्म से कहीं अधिक सम्बन्ध है। चाणक्य के परामर्श से नियुक्त किया गया था। कोटिल्य अर्थशास्त्र में इस प्रकार की चर व्यवस्था का स्पष्ट ____ इस अभिलेख में इस बात का भी उल्लेख है "सैकड़ों उल्लेख है।' वर्षों से कही अधिक समय से श्रमणों मोर ब्राह्मणों के द्वितीय, तृतीय तथा छठवें से बारहवें अभिलेखों का प्रति अनुचित व्यवहार हो रहा था। देवाना प्रियदर्शी के विषय लोकोपकारी कार्य प्रतिवेदन दान तथा महिमा आदि धर्मानुशासनमें उनके प्रति उचित व्यवहारमे वृद्धि हुई है।" से संबधित है। इनकी संगति किसी के साथ भी बैठाई इसका भी अशोक के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि आ सकती है। परन्तु त्रयोदश अभिलेख अशोक का है अशोक के पूर्वज चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार जैनधर्मानुयायी पौर वह उसका प्रथम अभिलेख ही हो सकता है। प्रतः थे । चाणक्य ब्राह्मण चन्द्रगुप्त का गुरु तथा राज्य का निष्कर्ष निकलता है कि इससे पहले के बारह अभिलेख महामन्त्री था । अतः इनके राज्य में श्रमणों और ब्राह्मणों प्रशोक के पूर्वजों के ही हैं। के प्रति अनुचित व्यवहार का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके प्रियदर्शी-शका-रूपनाय प्रादि ग्यारह भभिलेखों के विपरीत चन्द्रगुप्त से पूर्व मगध मे नन्दों का राज्य था। आधार पर प्रियदर्शी अशोक का उपनाम है। उपयुक्त उन्होने १६० वर्ष तक राज्य किया । नन्द राजा शुद्ध और अत्याचारी थे। प्रतः इनके राज्य में श्रमणों और ब्राह्मणों वाणत बारह मभिलेखों में भी प्रियदर्शी का जलेला प्रतः ये सभी चतुर्दश अभिलेख अशोक के ही होने चाहिए। के प्रति अनुचित व्यवहार होना कोई असाधारण बात समाधान-प्रियदर्शी प्रशोक का उपनाम नहीं है। नहीं थी । चाणक्य का तो महापदमनन्द ने अपमान भी किया था चन्द्रगुप्त के सम्राट होते ही स्थिति में परि- याद एसा हाता ता गुजरा और मास्की अभिलेखों में वर्तन हुमा और परिणाम स्वरूप श्रमणों और ब्राह्मणों के शेष पृ० १७६] प्रति उचित व्यवहार में वृद्धि हुई । इस प्रकार यह ममि. १. कोटिल्य अर्थशास्त्र पु० ३६, ४.। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामगुप्त के अभिलेख 'परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय इतिहास में समुद्र गुप्त के दो पुत्र थे । राम वेश नदी के तट वर्ती पुर्जन पुर ग्राम से खुदाई में जैन गुप्त और चन्द्र गुप्त (द्वितीय) रामगुप्त चन्द्र गुप्त द्वितीय तीर्थंकरों की तीन मूर्तियां प्राप्त हुई। जो जिला पुरात्तत्त्व के बडे भाई थे और वे समुद्र गुप्त तथा चन्द्र गुप्त संग्रहालय विदिशा में सगृहीत हैं। ये सभी मतियां खंडित (द्वितीय) के बीच गही पर बैठे थे। राम गूप्त की पत्नी हैं। इन तीनों प्रतिमानों की चरण चौकी पर लेख अंकित हैं। उनमें एक मूर्ति चन्द्र प्रभ पाठवें तीर्थंकर की है पोर का नाम ध्रुवदेवी था। राम गुप्त सन् ३७० से ३७५ दूसरी वें तीर्थंकर पुष्पदन्त की है। तीसरी का पता तक छ: वर्ष राज्य कर पाया था कि एक खास घटना नहीं चलता कि किस तीर्थंकर की है। इनमे चन्द्र प्रभ की घटी। हर्षचरित में कहा है कि-"परिपुर में शक नरेश मूर्ति का लेख सुरक्षित अवस्था में मौजूद है। दूसरी नारी वेश धारी चन्द्र गुप्त द्वारा उस समय मारा गया, जब प्रतिमा का लेख प्राधा अवशिष्ट है । अन्तिम पंक्ति नष्ट वह पर स्त्री का प्रालिंगन कर रहा था।" हर्ष चरित की टीका करते हुए शंकराचार्य (१७१३ ई.) ने इस घटना हो चुकी है। तीसरी मूर्ति के लेख की केवल दो पंक्तियाँ की व्याख्या करते हुए बताया है कि शक नरेश राम गुप्त अवशिष्ट हैं । प्रथम प्रतिमा की चरण चौकी पर उत्कीर्ण लेख इस प्रकार है :की पत्नी ध्र व देवी को चाहता था। इसलिए वह अन्तः "भगवतोऽहंतः। चन्द्र प्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महापुरमें चन्द्र गुप्त के हाथों मारा गया, जिसने अपने भाई की राजाधिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिकपत्नी ध्रुवदेवी का रूप धारण कर रखा था। उसके साथ चन्द्र क्षमाचार्य-क्षमण श्रमण प्रशिस्य प्राचार्य सर्पसेन कुछ अन्य लोग भी नारी वेश मे थे।' इस घटना का क्षमण शिष्यस्य गोल यान्त्या-सत्पुत्रस्य चेल क्षमस्येति ।" स्पष्ट सकेत राष्ट्र कूट राजा अमोघ वर्ष के शक संवत् इसमें बतलाया गया है कि महाराजाधिराज श्री राम ७६५ (८७१) के सजान ताम्र लेख में भी पाया जाता है।' गुप्त के द्वारा भगवान प्रहन्त चन्द्र प्रभ की प्रतिमा की अब तक ऐतिहासिक विद्वान राम गुप्त की ऐतिहा- स्थापना की गई। उन्होंने चेल क्षमण के उपदेश के सिकता पर एक मत नहीं हो पाये। राम गुप्त के नामा- कारण इसका निर्माण कराया था। चेलू क्षमण गोलक्याकित ताबे के सिक्के विदिशा तथा अन्य स्थानों से मिले न्तिका सत्पुत्र और पाणिपात्रिक चन्द्र क्षमाचार्य का प्रशिष्य हैं। जिन पर स्पष्ट गुप्त कालीन अक्षरों में राम गुप्त तथा सर्पसेन क्षमण का शिष्य था। इससे राम गुप्त के लिखा है। ये सिक्के बनावट, शैली और भार-मान में चन्द्र धार्मिक विचारों का संकेत मिलता है । लेख की लिखा. गुप्त (द्वितीय) के सिक्कों के समान हैं। राम गुप्त के वट गुप्त कालीन जान पड़ती है। इन पर उत्कीर्ण लेखों सिक्कों की एक भांत मे अन्य गुप्त राजामों के सिक्कों पर मिलने वाले गरुड़ के समान गरुड़ भी है।' की लिपि समुद्रगुप्त के लेख पोर चन्द्र गुप्त द्वितीय के साँची लेख (गुप्त सं०६३) की लिपि के साथ साम्य रखती सन् १९६६ में विदिशा (मध्य प्रदेश) नगर के निकट है। इन प्रतिमा लेखों में महाराजाधिराज रामगुप्त का १.परिपुर च परकलत्र कामुकं कामिनिवेशगुप्तः चन्द्र- उल्लेख प्राप्त है। पर उनकी वशावली लेख मेनी गुप्तः शक पतिमशातयत् । गई। वंशावली दी होती तो उससे सन्द ह का स्थान नहीं -वर्षचरित निर्णयसागर प्रेस संस्करण पृ. २०० रहता। तो भी उपाधि और लिपित क्षण की विशेषतामों शंकराचार्य ने टीकामें उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- के कारण राम गुप्त का देवी चन्द्र गुप्तम् के रामगुप्त के "शकानाम प्राचार्यःशकपतिः चन्द्रगुप्त भ्रातृजाया ध्रुव- साथ समीकरण हो जाता है। देवी प्रार्थयमान चन्द्र गुप्तेन ध्रुवदेवी वैषधारिणा समुद्रगुप्त का दूसरा बेटा चन्द्र गुप्त द्वितीय गुप्त संवत वेश जनपरिवृत्तेन रहसि व्यापादितः।" ५६ (३७५ ई०) में गद्दी पर बैठा था। अतः उस समय इस घटना का उल्लेख राष्ट्रकूट ताम्रलेखमें भी पाया जाता है से पूर्व रामगुप्त राज्य का अधिकारी रहा होगा। अर्थात् ३. हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरहवींश्च दीनस्तथा। वह ३७० ईस्वी के लगभग राजगद्दी पर बैठा होगा। लक्ष्यं कोटिमलेख यन किलकलो दाता स गुप्तान्वयः ।। पौर ३७५ ईस्वी में उसके राज्य पर चन्द्र गुप्त द्वितीय ने येनात्याजितनु स्वराज्यमसकृद्वाह्यर्थ: का कथा। अधिकार कर लिया होगा। चूंकि वे मूर्तिया राम गुप्तके हो स्तस्योन्नति राष्ट्रकूट तिलको ददितिकीकमपि ।। द्वारा स्थापित हैं। इस कारण वे मूतिया गुप्त कालीन हैं -राष्ट्रकूट ताम्रलेख ए.इ.४ पृ. २५७ ।। पौर उनका समय ईसा की चतुर्थ शताब्दी होना चाहिए। ३. ज.म्यू. सो. इ. १२, पृ. १०३, १३, पृ. १२८ । । ४. देखो गुप्त साम्राज्य पृ. २०१। ५. दूसरी मूर्ति के लेख मे "पुष्पदन्तस्य" उल्लेख है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोगी रासा कविवर भगवती दास भगवतीदास बूढ़िया जिला अम्बाला के निवासी थे । इनके पिता का नाम किसनदास था । जाति अग्रवाल पौर गोत्र वसल था। भगवतीदास बुढिया से दिल्ली मा गए थे और दिल्ली के काष्ठासंधी भट्टारक मुनि महेन्द्रसेन के शिष्य हो गए थे। और भ० सकलचन्द्र के प्रशिष्य थे। इन्होंने चतुर्थ वय में मुनि व्रत धारण कर लिया था। भगवनीदास पच्छे कवि थे। प्रापने हिन्दी साहित्य की अपूर्व सेवा की है। प्रापकी समस्त उपलब्ध रचनाएँ सं० १६५१ से सं० १७०४ तक की उपलब्ध होती हैं। प्रापकी रचनात्रों की संख्या ६० से ऊपर हैं। प्राप दीर्घ नीवी विद्वान थे । अापकी प्रायु ८० वर्ष से कम नहीं जान पड़ती। प्रापको 'जोगीगसा' नाम की अप्रकाशित रचना प्रकाशित की जा रही है। प्राशा है पाठक जन उससे लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। रचना सुन्दर और सरस है। -परमानन्द शास्त्री परम निरंजन भव-दुह-भंजन जिन जोगी जगनाथो। किसकी सुन्दरि किसके मन्दिर किसके सुत अरु भाई। मादि जगत गुरु मुकति रमणवर, ताहि नवाऊं मायो॥ रमणि पंखि ज्यों तरुवर बासो भोर भए तजि जाई ।। वोधि दिवस पर गणघर हुए ते सह पणमो पाया। किसके हय-गय-रहवर-पाइक किसकी राम दुहाई। साह शिरोमणि लोहाचारिज जिन जिनमग बताया ॥ मरण सम कोई संग न दूजा हंस अकेला जाई। पेरबहु हो तुम पेरबहु भाई जोगी जगमहि सोई। धन-जोवन थिर नांहि जगत में मोह न राच गवारा। घट घट अंतर वसइ चिदानन्द अलख लख नहिं कोई॥ पाप करत दुख दुरगति पावत ता दिन सग नहि दारा।। भव बन-भूलि रह्यो भमराबलि शिवपुर सुध विसराई। लख चौरासी जोयनि हई तस-यावर-छं काई। परम प्रतीन्द्रिय सो सुख तजिकर विषयन रह्यो लुभाई ॥ काल प्रनते भूरि भ्रमण करि सत गुरु संगति पाई॥ जम्मण-मरण जरा दुख देखद पर प्रापा न विचारह। पब मैं ऐसा जाण्यों रे भाई हों भ्रम-भल्यो अंधा। सम्यक जाण चरण दंसणगुण चेतन चित न चितारह। जोग जगति प्रा ध्यान सकति दिन क्यों तूटई क्रम फंदा । जो जग दुख सो सुख करि मान्यौ मरम न जान कोई। जोगी होइ करि जोग धरूं जग, अलख निरंजन जोऊ । खरश खजावत ज्यों सुख पावत पीव झरत दुख होई ॥ सदगुरु सोख हिरदै निज धारों निद्रा नेह न सोऊ ॥ विषय न सेवइ मढ़ न वेव शिव सुख सार न जानी। घरम शुकलपरि ध्यान अनुपम भारति रौद्र निवारों। शीत समैं ज्यों मरख मरकट तापत गना प्रानी ॥ समकित प्रासन दिन पदमासन पणतीसों मनपारौं । सरिता सायर वसुधा नरवर ईधन शिखि म प्रधाई। उत्तम क्षिमा मढी महि पैठों दश दिश कंथा भेंटइ । रामा रमण सरसरस भोजन त्यों जिय तृप्ति न पाई॥ तव-पावक नितषली भेलों दुरियन मावा नेरा। ज्यों जल खारो पीवत भाई बाढ़त तिस अधिकाई। जीववयागिरि कंवरि निवसउं, संयम भसम चढ़ाऊं। बोष सुधा संतोष सलिल बिन प्रोस न प्यास बुझाई ॥ सत्य संतोष श्रवण वोहमा मागम सिंगो बजाऊ॥ ज्यो धन हार तउ न संभार जमारी तर्जन जवा। सुमति-गपति खंगरी व बजाऊ माकिचन गुणगाऊ । परको संगति प्राप बघाना ज्यों नलिनी श्रम सूवा ।। पंच महावत विद्या सापों षोडभावना भाऊ॥ १. विशेष परिचय के लिये देखें, भनेकान्त वर्ष २०, कि० '३, पृ० १०४ । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६, वर्ष २५, कि०४ अनेकान्त शील छोटा सउच लंगोटा पाऊ करे कर वंडा। सहज सुभाष करौं तन निर्मल जल में पइठन न्हाऊं। ब्रह्मचरण गुण चक चढ़ाऊ मपणहणों बलवंडा ।। तिल-गुड़ घिय करि देहु न माहुत, गूगल वहि न खेऊ । परम अंधारी कांबइ मेरइ, सोसजटा अनपेहा । नाटक चेटक वंदक चोनक, मिथ्या मंत्र न सेऊ ।। जोग जुगति जो गउटा पहिरौं वेह न कर सनेहा ॥ यंत्र न राषउं करम न बांघउ, कोरति दान न लेऊ । पंच प्रवासउ दा भुगति ज्यों दो कर खप्पर मांही। तिण कंचण-परि-मित्र समाण उ, दोष न विसही देऊं ॥ सरस निरस प्रा लाभ-प्रलाभई हरष विषाद जुनाहों। इंडी दंडउ पाप विहड जिन-शासन-मग-घाऊ । ज्ञान(ग्यान)गुफामहि रहे रयणि दिन ध्यान वन्हि परिजालों वेहा देवल देव निहालउ यह मन मन लाऊ ।। मिथ्यात-तिमिर-हतों खिण भीतर दरशन दीपक-बालों॥ गुणयानक चढि प्रकृति खिपाउं, केवलणाण उपा। चारित चेला मुझ पहि भाई, प्रेम मही निशि वासो। समव सरण सुलहौं तत्क्षण इंदभि नाव बजाऊ । करुणा जोगणि संगह मारह, जगत रह्यो उदासो।। पंच लघूक्षर को थिति जाणउचउदह में गुण थाने । मोह-महा वह भूलि निवासो, माया नगरि न राचौं। पुण पंचम गति जाऊ तिहां हर वसुगण सिद्ध समान ।। मान महीधर निकट न जाऊ, वसुमद मदहि न मांवों॥ लोय शिखरि परि सदा विराजे, शिवनगरी घर मेरा। संवर-पोहण चढ़ि हो घाऊ, लोभ उदधि तिरजाऊ । जम्म न मरण जलांजलि देकर जगमहिं करौं न फेरा॥ प्रज्जव जल सगहों ततक्षण, कोष-हताश बुझाऊं ।। अनन्त चतुष्टय गुण गण राजहि तिनकी हौं बलिहारी। परम प्रराहण मुम पहि दीवी, मंडो गोरखधंधा। मन घर ध्यान जप शिवनायक ज्यों उतरह भवपारी ।। मूनोत्तर गुणमहि हं हं व उ, फेरी यो निरबंधा ।। जोगी रासा सुनहु भविकजन जिम तूटहि क्रम-पासो । सनता सुरसरि के तट वासो, और न तीरथ न्हाऊ। गुरु महिंबसेण चरण नमि, भनत भगौती दासो॥ [पृ० १७३ का शेशांष] प्रशोक के साथ प्रियदर्शी का भी उल्लेख होता। सुदर्शन हरणार्थ अशोक वाटिका मे रावण सीता को 'प्रियदर्शने" झील के अभिलेख से विदित होता है कि इसका जीर्णोद्धार तथा मथुरा मे माली कृष्ण-बलदेव को 'प्रियदर्शी' कह कर अशोक के राज्यकाल में तुष्यनामक राज्यकर्मचारी द्वारा संबोधित करता है। निमित्तज्ञानी भी महाराज सिद्धार्थ कराया गया था। तत्पश्चात् प्रियदर्शी ने इस कार्य को से कहते थे कि तुम्हारा पुत्र प्रियदर्शी होगा। राजामों का कराया। इससे विदित होता है कि अशोक के उत्तरा- का दर्शन कल्याणकारी समझा जाता था। सम्भव है कि इसी धिकारी भी प्रियदर्शी कहलाते थे । जैसा कि पहले वर्णन प्राधार पर ही मौर्य सम्राटों को जनता प्रियदर्शी कहकर किया जा चुका है अरे माई प्रभिलेख चन्द्रगुप्त अथवा सम्बोधित करती हो। बिन्दपार का है और इसमें भी प्रियदर्शी का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त और भी बहुत से मौर्यकालीन अभिअतः यह स्पष्ट है कि प्रशोक के पूर्वज भी प्रियदर्शी कह- लेख है इनमें से कुछ प्रशोक के तथा शेष संप्रति के हैं। लाते थे। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी मौर्य इनके सम्बन्ध में किसी दूसरे लेख में प्रकाश डाला सम्राटों के लिए प्रियदर्शी शब्द का प्रयोग होता था। जायेगा। भारतीय वांगमय का अध्ययन करने से विदित होता है कि जिन व्यक्तियों के दर्शन से सुखानुभूति होती थी १. बाल्मीकि रामायण पृ० ५२६ । उन्हें प्रियदर्शी कहकर संबोधित किया जाता था। उदा- २. हरिवंश पुराण पृ० १२८ । * Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म एवं यज्ञोपवीत श्री बंशोधर जैन एम. ए. यज्ञोपवीत शब्द का अर्थ है-यज्ञ का कपड़ा अर्थात् जैन श्रावकों-गृहस्थों के लिए मावश्यक एवं अनिवार्य वह वस्त्र जो यज्ञ के समय पहना जाता है। तैत्तरीय है ? श्वेताम्बर माम्नाय में यज्ञोपवीत की परम्परा नहीं संहिता में कपड़े का विशेष प्रकार से पहनना ही यज्ञोप- है ऐसी सूचना मिली है। वीत बताया गया है । जब कपड़ा दाहिने हाथ के नीचे जिनसेनाचार्य से पूर्व चरणानुयोग के मुख्य प्रन्थों में मौर बाए हाथ के ऊपर होकर जाता है तब वह 'यज्ञोपवीत' धावक-साधु के लिए यज्ञोपवीत का विधान देखने में नहीं कहलाता है। वही कपड़ा यदि बाएं हाथ के नीचे और माया । वट्टकेर स्वामी के मूलाचार, उमास्वामी के तत्त्वादाहिने हाथ के ऊपर होकर जायगा तो 'प्राचीनावीत 'कह र्थसूत्र, कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार तथा चारित्त पाहुलायेगा । प्राचीन काल में यज्ञोपवीत वस्त्र के रूप में था डादिक, स्वामी समन्तभद्र का रत्नकरण्ड प्रावकाचार, न कि धागे के रूप में । 'गोपथ ब्राह्मण' ने ऊध्र्व वस्त्र के की शिवायं भगवती माराधना, पूज्यपाद की सर्वार्षसिद्धि रूप में सुन्दर मृग चर्म प्रोढ़ने का विधान किया था। धीरे- अकलक देव का तत्वार्थ राजवातिक और विद्यानंद का घोरे यज्ञोपवीत वस्त्र, मगचर्म से 'धागे' पर मा गया ताकि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक मादि प्रमुख मान्य एवं प्राचीन ग्रंथ इसे सुविधापूर्वक हमेशा पहना जा सके । वैदिक मत में हैं जिनमें मुनि धर्म एवं श्रावक धर्म का सर्वागीण विवे. चूंकि यज्ञ जीवन का प्रावश्यक अंग बन गया था, इसलिए चन है, किन्तु इनमें कहीं भी मुनि अथवा श्रावक के लिए यह निश्चित कर दिया गया कि यज्ञोपवीत बिना यज्ञ ही अन्य व्रतों की तरह यज्ञोपवीत को प्रावश्यक नहीं बताया। ही नहीं अपितु गायत्री मंत्र का पाठ भी नहीं किया जा पादिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण तथा अन्य पुराणों सकता। ब विभिन्न वर्गों के सहस्रों जैन स्त्री पुरूषों के कथानक हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का द्विजन्म तभी होता है, जब किन्तु इनमें किसी के यज्ञोपवीत संस्कार होने का विवरण उनका यज्ञोपवीत संस्कार होता है, इसी से वे द्विज कहलाते पढ़ने में नहीं पाया जब कि जीवन के छोटे से प्रसंगों का ऐसे प्रावश्यक एवं महत्वपूर्ण यज्ञोपवीतकी रचना, पहनन विवरण मिलता है। मादि के बारे में भी नाना प्रकार के विधि विधान वैदिक इससे लगता है कि जिनसेनाचार्य से पूर्ववर्ती किसी साहित्य में मिलते हैं जो प्रायः एक रूप नहीं हैं । मध्य- प्राचार्य ने अपने ग्रंध में यज्ञोपवीत भावक या मुनि के काल में इसे हिन्दुत्व का चिह्न माना जाता था। लिए मावश्यक तो क्या उसका उल्लेख भी नहीं किया। वैदिक मत में यज्ञोपवीत की उपयुक्त स्थिति के बारे में जिनसेनाचार्य ने सर्वप्रथम अपने मादिपुराण में यज्ञोपवीत जानकारी के साथ जैनधर्म में यज्ञोपवीत की क्या स्थिति है का वर्णन किया है किन्तु उक्त ग्रंथ में किसी केवली या यह विचार करना है। धर्म प्रवक्ता ने इसे श्रावक धर्म के लिए प्रावश्यक नहीं ___'यश' शब्द मुख्यतः ब्राह्मण धर्म के क्रिया कांड का कहा । चूकि ग्रंथ में इसका वर्णन माया है, इसलिए कुछ सूचक है। फिर भी दिगम्बर माम्नाय के जिनसेनाचार्य भाई इसे विधेय रूप में मानने लगे हैं। (इसकी समीक्षा एवं उनके बाद के कुछ शास्त्रों में 'यज्ञोपवीत', 'ब्रह्मसूत्र' बाद में करेंगे।) या 'व्रत सूत्र' शब्दों का प्रयोग मिलता है। यहां यह विचार वर्तमान में पढ़े जाने वाले एक अभिषेक पाठ में निम्न रना है कि क्या यह यज्ञोपवीत वैदिक मत की तरह श्लोक उपलब्ध होता है Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८, २५, कि.४ अनेकान्त (ग) कु वक के लिये वह व्रत या कि श्री मन्मन्दर सुन्दरे शुचि जले घोते: सदर्भाक्षते । (क) इस श्लोक के अनुसार अभिषेक करने वाला पीठे मुक्तिवरं निधाय रचितां त्वत्पाद पद्मःस्रजः। अपने पाप को इन्द्र मानता है। यह मान्यता अभिषेक इन्द्रोऽहं निज भषणार्थकमिदं यज्ञोपवीतं दधे। करने वाले के लिए प्रावश्यक नहीं है क्योकि मनुष्य जिनेमुद्राणशंखराण्यपि तथा जैनाभिषेकोत्सवे। न्द्र देव की पूजा प्रक्षाल करने का अधिकारी है तब वह इन्द्र बनने की कल्पना क्यों करे ? यह मान्यता मावश्यक इस श्लोक के अनुसार मभिषेक करने वाला अपने नहीं है। माप को इन्द्र मानकर अभिषेक के समय अपने प्राभूषण के स्वरूप यज्ञोपवीत, मुंदरी, कंगन पौर मुकुट धारण (ख) यदि श्रावक यज्ञोपवीत पहने हुए हो (जैसा करता है। कि कुछ भाई अावश्यक मानते हैं) तो वह प्रतिदिन मभिबृहत्पभिषेक पाठों में प्रत्येक प्राभूषण को पहनने के षेक करते समय यज्ञोपवीत पहनने का श्लोक एवं यंत्र क्यों पगता? इसका अर्थ यह हुमा कि वह पहने हुए पूर्व एक-एक श्लोक मौर मंत्र भी दिये हुए है। यथा नहीं रहता। यज्ञोपवीत के लिए (ग) कुछ भाई इसे व्रत-चिन्ह मानते हैं, इसीलिए "पूर्व पवित्रतर सूत्र विनिर्मितं यत प्रत्येक व्रती श्रावक के लिए इसे प्रावश्यक मानते हैं । प्रजापतिरकल्प यदंग संघ्रि । इन्द्र हमेशा अव्रती रहता है। फिर वह व्रत चिन्ह स्वरूप सद्भूषणं जिनमहे निजकंठधार्य यज्ञोपवीत कैसे पहन सकता है ? इससे सिद्ध हुआ कि यज्ञोपवीत महमेष तदा तनोमि । उक्त इलोक के अनुसार इन्द्र जो यज्ञोपवीत पहनता है, (ऊँ नमः परमशान्तायशान्तिकराय पवित्रि वह व्रत चिन्ह वाली यज्ञोपवीत नहीं है। कृतायाह रत्नत्रय स्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि ।) (घ) इन्द्र सूत की यज्ञोपवीत नही पहनता है, वह मुद्रिका के लिए यह श्लोक है एक प्राभूषण है। प्रोत्फुल्लनील कुलिशोत्पलपद्मराग, (ङ) इन्द्र के लिए बताए हुए अन्य प्राभूषणों यथानिर्जत् कर प्रकर बंघ सुरेन्द्रचापः । मुद्रा, ककण, मुकुट आदि पर जोर नहीं दिया जाता तब जैनाभिषेक समयेंगुलिपूर्वमूले, यज्ञोपवीत पर ही जोर क्यों दिया जाता है ? यदि इस रत्नांगुलीयकमहं निवेशयामि ।। इलोक के माधार पर ही अभिषेक करने वाले श्रावक के रत्नमुद्रिका अवधारयामि)। लिए यज्ञोपवीत पहनना प्रावश्यक होता तो इन अन्य इन इलोकों एवं मंत्रों के प्राधार पर यह सिद्ध किया माभूषणों को भी पहनना अनिवार्य बनाना चाहिए था। जाता है कि "भगवान का अभिषेक करने का अधिकारी चूंकि सूत का प्रचलित यज्ञोपवीत सहज सुलभ है इसीयज्ञोपवीतधारी ही है। मभिषेक करने के पूर्व यज्ञोपवीत लिए इसे अनिवार्य बना दिया गया एव अन्य प्राभूषणों पहनने का विधान इसलिए है कि इसे पहने बिना कोई को छोड़ दिया गया। भगवान का अभिषेक नही करे। चूंकि प्रत्येक जैन से यह (च) वस्तुतः उक्त श्लोक किसी पंच कल्याणक अपेक्षित है कि वह भगवान का अभिषेक करे, इसलिए प्रतिष्ठा पाठ का है जिसमें जन्माभिषेक में इन्द्र पाता है प्रकारान्तर से यह सिद्ध हुमा कि प्रत्येक जैन यज्ञोपवीत और वह अपनी सजावट के लिए मुद्रा, कंकण, मुकुट, धारण करे।" कुंडल, हार प्रादि पाभूषणों के साथ यज्ञोपवीत भी धारण भली प्रकार परीक्षा करने से यह ज्ञात होता है कि करता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अन्य माभूयह फलितार्थ समीचीन नहीं है। मेरे इस मत के समर्थन षणों की तरह यज्ञोपवीत भी एक प्रकार का गले में हेतु निम्न तर्क है पहनने का माभूषण ही है। राजस्थान में अब भी कई Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म एवं यज्ञोपवीत स्थानों पर सोने की कंठी को जनेऊ भी कहते हैं (जनेऊ विभिन्न कल्याणकों में इन्द्र का प्रागमन होता है, अन्यथा यज्ञोपवीत काही प्रचलित नाम है)। इस प्रसंग में इन्दौर श्रावक जिनेन्द देव की पूजा-प्रक्षाल करने के लिए अपने केसप्रसिद्ध पं.बंशीघर जी का एक कथन याद माता है पापको इन्द्र होने की कल्पना क्यों नहीं करता? पंचजो उन्होंने एक आचार्य श्री द्वारा यज्ञोपवीत पहनने के लिए कल्याणक प्रतिष्ठा पाठ में इन्द्र बनने वाला इन। जोर देने पर कहा था। उन्होंने अपनी सोने की कंठी को धारण करता है। इस धारण करने की प्रक्रिया के भी दिखाकर कहा कि यही यज्ञोपवीत है, इसे हम घारण उसमें श्लोक एवं मन्त्र दिये हा किए हुए हैं। इस पर वे प्राचार्य श्री कुछ नहीं बोले । पषो वस्त्र (सम्भवतः पोकती), दुकूल (वक्ष पर पहइन्द्र का यज्ञोपवीत के प्राभूषण होने का दूसरा प्रमाण नन का दुपट्टा), मुकुट, मवेयक, हार, कुण्डल, केयूर धारण करने के बाद यज्ञोपवीत एवं कटि भूषण (कमर का गहना नीरदीप पजा विधान पहनने का विधान किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो में इन्द्र के प्राभूषणों का वर्णन इस प्रकार है जाता है कि वक्ष पर कपड़े पहनने के बाद अन्य भाभूषणों थी जिन की पूजा करै सो नर इन्द्र समान । के साथ यज्ञोपवीत पहना गया है, इससे सिद्ध हुमा कि यह माभूषण पहिर इते, सो लोजे पहचान ।। भी एक माभूषण ही है जो दाहिने हाथ के नीचे मोर बाये धरै सोस सु मुकुट सुहावनों, हाथ के ऊपर होकर जाता होगा। भुजन बाजूबंद सुलावनो । पच कल्याणक की परिसमाप्ति के अनन्तर विधान करन कुण्डलमय सोहनी, करने वाला निम्न श्लोक पढ़ कर गुरू के पास यज्ञोपवीत रतन जडित कड़े कर मोहनी ।। प्रादिक यज्ञ की दीक्षा के चिह्नों को छोड़ता हैसरस कंठ विर्ष कठो कही, यज्ञोचितं व्रत विशेषवृतो ह्यतिष्ठन धुकधुकी अरू हार सुलहलही। यष्टाप्रतीन्द्र सहितः स्वयमे पुरावत् पदम पहुंची पहर सुहावनी, एतानि तानि भगवज्जिन यज्ञदीक्षाजगमगात सो जोति कहामनी।। चिहान्यर्थष विसजामि गुरोः पदा। पहर के जो जनेऊ सारजू यदि कोई इन्द्र के यज्ञोपवीत नामक प्राभूषण को कणक मणमई अति मनहार जू। खींचतान कर सूत के धागे वाला जनेऊ सिद्ध कर दे तो रतनमई कट मेखल जानिए भी पच कल्याणक की समाप्ति के बाद इसे उतारने का परम छद्र सुघंटिक मानए ॥ स्पष्ट विधान है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्र जो यज्ञोपवीत धारण . अभिषेक पाठ में इन्द्र को सजाने के लिए योगी करता है वह कनकमय प्राभूषण है उसका सूत के धागे मुकुट, कुडल मादि प्राभूषणों के पहनने की से कोई सम्बन्ध नहीं है। उक्त पद्य में यज्ञोपवीत का प्रच- पाठ से की गई है किन्तु इन्हें उतारने की विधि __करण नहीं किया गया है यह माश्चर्य का विषय है। लित पर्यायवाची शब्द 'जनेऊ' दिया है। मियां जिनेन्द्र देव की पूजा बिना यज्ञोपवीत ही ऐसे प्रतिष्ठिा पाठ के प्राधार पर कुछ भटारकों ने * फिर पुरुष के लिए ही इसे मनिवार्य बनाना अलग अलग अभिषेक के कार्य को कम महत्ता दी गई है, नित्य नहीं रखता। अतः अभिषेक पाठ के उक्त किन्तु अभिषेक करने वाले को इन्द्र रूप में प्रस्तत करने पर श्रावक के लिए यज्ञोपवीत के लिए उसे सजाने के लिए प्रत्येक भाभूषण का अलगकी प्रनिवार्यता सिद्ध नहीं होती यह मलतफहमी केवल अलग श्लोक एवं मन्त्र बना दिये हैं, मानों अभिषेक करने इसलिए हई कि प्रतिष्ठा पाठ के श्लोक मन्त्र दैनिक प्रक्षाल वाला जिनेन्द्रदेव से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति। पाठ में बिना सोचे-विचारे अपना लिए गये हैं, जहां पर लगता यह है कि जहां अभिषेक कराने वाला सेठ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनेकात १८०, वर्ष २५, कि.४ साहकार होता था. वहां अभिषेक करने वाले के लिए प्रकार हो सकता है, सदा निस्पृह रहने वाले मनितो. भाभषण प्राप्त करने का एक तरीक बना दिया गया था हम लोगों से घन नहीं लेते हैं, किन्तु जो मणव्रत को कि सेठ जी उसे इन्द्र बनाने के लिए इन पाभूषणों का धारण करने वाले हैं, घीर वीर हैं और गृहस्थों में मुख्य हान एवश्य कर दे। ब्राह्मण कई क्रिया कांडो में विभिन्न हैं। ऐसे पुरुष ही हम लोगों के द्वारा इच्छित धन, सवारी बतानाम पर वस्त्रादिक का दान यजमान से पादि के द्वारा तर्पण करने योग्य हैं । सत्कार करने योग्य राजिन्हें वे स्वयं ले लेते हैं। जैनियों में भी इस है। व्यक्तियों की परीक्षा करने की इच्छा से भरत ने समस्त परम्परा का प्राविर्भाव इन्द्र बनाने की प्रक्रिया में हुमा हो राजामों को सदाचारी इष्ट मित्रों एवं नौकर-चाकरों तो कोई पाश्चर्य नहीं है। चूंकि उनके देवता वस्त्रा सहित बुलाया । भरत ने उनकी परीक्षा हेत अपने घर के भषणों से रहित हैं। इसलिए उनके नाम पर तो कुछ मांगन में हरे-हरे अंकुर, पुष्प पोर फल खब भरवाहिये। नहीं मांगा जा सकता. तब अभिषेक करने वाले को इन्द्र मागतों में जो प्रवती थे वे सब हरे फल, पुष्पों को करे. रूप में सजाने के नाम पर पाभूषणादि की व्यवस्था की दते हुए मन्दर पा गये एवं जो वतीथे वे दया के विचार गई लगती है। यह ठीक है कि यह परम्परा अभी नही से हरित प्रकुरों से पूर्ण मार्ग से नहीं पाये । भरत ये सब है किन्तकभी रही या नहीं यह अनुसंधान का विषय है। दख रहे थे, उन्होंने उनको दूसरे प्रासक मार्ग होकर इन तकों के प्राधार पर यह निश्चित हो जाता है अन्दर बुलाया। भरत ने उनसे पहले रास्ते से न माने कि अभिषेक पाठ के उक्त श्लोक एवं मन्त्र से सूत वाला एवं दूसरे रास्ते से पाने का कारण पूछा तब उन्होने कहा यज्ञोपवीत पहनना श्रावक के लिए अनिवार्य तो क्या, "माज पर्व के दिन कोंपल, पत्ते तथा पुष्प मादि का विघात विधेय भी नहीं ठहरता है। नहीं किया जाता और न जो कुछ अपना बिगाड़ ही करते भब जिनसेनाचार्य कृत मादि-पुराण के उन प्रसंगों हैं ऐसे उन कोंपल प्राचि मे उत्पन्न होने वाले जीवों का की समीक्षा करनी है जिनमे यज्ञोपवीत का उल्लेख पाया विनाश किया जाता है । हे देव ! हरे अकुर मादि में है । हम इन प्रसंगों को संक्षिप्त तीन विभागों में विभक्त अनन्त निगोदिया जीव रहते है सर्वज्ञदेव से ऐसा सना करते हैं: है इसलिए जिस प्रांगन मे गीले-गोले फल, पुष्प मौर (क) भरत चक्रवर्ती द्वारा व्रतों में दृढ़ रहने वालों अंकुर से सजावट की गई है उसे हमने नही खदा है इनका ब्रह्म सूत्र से सत्कार करने का वर्णन। वचनों से भरत बहुत प्रभावित हुए मोर उन्होंने उन सब (ख) भरत द्वारा नव निर्मित बाह्मण वर्ण को उपदेश की प्रशंसा कर उन्हें दान-मान मादि से सम्मानित किया के प्रसंग में उपनीति, व्रतचर्या एव तावत्तरण क्रिया का पद्म नाम की निधि से प्राप्त हुए एक से लेकर ग्यारह वर्णन। तक की संख्या वाले 'ब्रह्मसूत्र' नामक सूत्र से उन सबके (ग) विभिन्न व्यक्तियों की वेश भूषा का वर्णन । चिन्ह किये । (श्वेताम्बर साहित्य में 'कांकणी रत्न' से कुछ भाई इन वर्णनों के माघार पर यज्ञोपवीत को सम्मान करने का उल्लेख है)। अनिवार्यता सिद्ध करने का प्रयास कर रहे है । मैंने कुछ उक्त प्रसंग के माधार पर यह कहा जाता है कि उपाधिधारी विद्वानों से भी इस प्रसंग में बात की लेकिन ब्रह्म सूत्र या व्रत सूत्र प्रत्येक व्रती श्रावक को धारण करना ज्ञात हमा कि अधिकांश विद्वानो ने इसका गहराई से चाहिए और इसी व्रत सूत्र से यज्ञोपवीत का अर्थ निकालते विचार नहीं किया। हैं, किन्तु विचार करने से यह मान्यता यथार्थ नहीं लगती (क) यह प्रसंग प्रादि पुराण के ३८ वें पर्व में भाया इसमें कोई सन्द है नहीं है कि राजा भरत ने व्रती है। इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है : दयावान धावको को घनादिक से सम्मानित किया था जब भरत दिग्विजय कर वापस पाये तब उन्हें चिता एवं प्रतिमापारियों को 'पद्य' नाम की निधि से प्राप्त हई कि दूसरे के उपकार में मेरी संपदा का उपयोग किस 'ब्रह्ममूत्र' से सम्मानित किया था। यह 'ब्रह्मसूत्र' एक Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम धर्म एवं यज्ञोपवीत प्रकार का माभूषण है जिसमें एक से लेकर ग्यारह सूत्र हैं क्या वे व्रती हो ही नहीं सकती? वे व्रती हो हो सकते है। प्रतः उन्होने बतियों को उनकी प्रतिमानों सकती है किन्तु पहनती नहीं हैं। इसलिए उक्त मान्यता की संख्या के अनुसार उतनी ही सूत्र-सख्या का व्रत सूत्र का समर्थन होता है कि व्रत सूत्र या यज्ञोपवीत वतीने दिया। लिए अनिवार्य नही है। भरत द्वारा प्रदत्त यह 'व्रत सूत्र' प्राजकल खाली (ख) मादि पुराण के ३वें पर्व मे भरत चक्रवतीने धागे का यज्ञोपवीत नही हो सकता। भरत ने अपने पास व्रतियों का सम्मान कर उन्हे पूजाविधि का उपदेश दिया। पागत व्रतियों का सम्मान किया, इसका मतलब यह नहीं उन्होंने इन क्रियानों का माघार 'श्रावकाध्याय सबसे है कि सभी उत्तरवर्ती व्रतधारी स्वतः इस मामूषण व्रत- उल्लिखित कथन बताया है। सत्र को धारण करे। जो स्वयं अपना सम्मान दूसरों इन कियात्रों को तीन मुख्य भागों में विभक्त किया द्वारा दिया जाता है वही मूल्यवान है, जो स्वयं अपना गया है-५३ गर्भावय क्रियाएं, ४५ दीक्षान्वय क्रियाए सम्मान करता है वह अपना प्रदर्शन करता है एवं उप- एवं ७ कीविय क्रियाए है। हास का पात्र बनता है। भारतीय जनता ने तिलक को गभन्विय क्रियानों में गर्भ से लेकर समाधिमरण, तद्'लोकमान्य' एवं गांधी जी को महात्मा की उपाधि दी परान्त इन्द्र पदवी एवं स्वर्ग निवास, फिर पुनः मनुष्य भव इसका मतलब यह नहीं कि उनके लड़के या अनुयायो प्राप्त कर चक्रवर्ती पद की प्राप्ति एवं राज्य लाभ तथा भी स्वयं इस उणधि को लगाने लगें। सेना में अनेक वीर अंत में मात्र तमगे प्रादि से सम्मानित किए जाते हैं, उनकी संतान क्रियायों का वर्णन है। इनमे नामों में टी एन अगर उन तमगों का उपभोग करने लगे, तो हंसोही का भली प्रकार बोध हो जाता हैहोगी। कोई कहे कि भरत द्वारा सम्मान वशानुगतिक १.माधान, २. प्रीति, ३. सुप्रीति, ४.ति, ५. मोद, था इसलिए अब भी धारण किया जा सकता है उन्होंने ६.प्रियोद्भव,७. नामकर्म, ८. बहिर्यान, ६.निषद्या १०.प्राऐसा कोई उल्लेख नहीं किया कि प्रत्येक व्रती इसे धारण सन, ११. व्युष्टि, १२. केशवाय, १३. लिपि सख्यान संग्रह, करे । यदि वे उल्लेख कर देते तो वह श्रावक के लिए १४. उपनीति, १५. प्रतचर्या, १६. व्रतावतरण, १७. विवाह विधेय नहीं हो जाता, क्योकि उस समय वे स्वयं छद्मस्थ १८. वर्णलाभ, १६. कुलचर्या, २०, गृहीशिता, २१.प्र. थे । यदि व्रतधारी गृहस्थ इसे 'व्रत-सूत्र' को अनिवार्य शान्ति, २२. गृहत्याग, दीक्षाद्य, २३: जिन रूपता, रूप से धारण करें तो क्या महाव्रती मा किसा 'महाव्रत- २५. मौनाध्ययन वृत्तत्व २६. तीथंकृत भावना, २७. गुरुसूत्र' को धारण करें ? स्थानाभ्युपगम, गणोपग्रहण, २६. स्वगुरुसंस्थान सक्रांति, वस्तुतः भरत अपने धन का दानादिक में सदुपयोग ३०. निसंगत्वात्मभावना, ३१. योग निर्वाण संप्राति, ३२. करना चाहते थे और उन्होंने व्रतियों (श्रावकों) को इस योग निर्वाण साधन, इंद्रोपपाद, ३४. अभिषेक, ३५. विधि प्रकार धनादि से सम्मानित किया था। उन्होंने यह व्रत दान, ३६. सुखोदय, ३७. इन्द्रत्याग, ३८. अवतार, सूत्र श्रावक के लिए अनिवार्य कही नहीं बताया। मतः ३६. हिरण्योत्कृष्ट जन्मता, ४०. मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१. इस प्रसंग के माधार पर प्रती श्रावक या मुनियों के लिए गुरुपूजोयलम्यन, ४२. यौवराज्य, ४३. स्वराज्य, ४४.चक्र यसोपवीत पहनना अनिवार्य सिद्ध नहीं होता। व्रती लाभ, ४५. दिग्विजय, ४६. चक्राभिषेक, ४७. साम्राज्य, स्त्रियां भी होती हैं, महाव्रती पुरुष भी होते हैं, किन्तु ४८. निष्क्रान्ति, ४६. योग सन्मह, ५०. माहिन्त्य, ५१. उनके लिए तो इसके समर्थक भी विधेय रूप में नहीं तद्विहार, ५२. योग त्याग और ५३. प्रन निवृत्ति । (५५ बताते । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह व्रत सूत्र से ६३ श्लोक सर्ग ३८)। (या खींच-तान कर यज्ञोपवीत भी) व्रती का चिन्ह नहीं दीक्षान्वय क्रिया-व्रत ग्रहण करने के लिए उन्मुख है क्योंकि प्रती स्त्रियां कभी यज्ञोपवीत पहनती ही नहीं हुए पुरुष की प्रवृत्ति दीक्षा कही जाती है और उस दीक्षा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त .१९२, वर्ष २५, कि०४ समानी क्रियाएं दीक्षान्वय कहलातो पहले कही हुई क्रियानों के समूह से शादि को धारण पास ४. गण- करने वाले उस भव्य पुरुषों के योग्य चिन्ह को धारण हैं-१. अवतार, २. वृतलाभ, ३. स्थान लाभ, ४. गण- करने वाले उस भव्य पञ्षों के बन और उप- करने रूप उपनीति किया होती है ।५३। देवता मोर गुरु पह, ५. पूजाराध्य, ५. पुण्य यज्ञ, ७. दृढ़चर्या भौर उप- करने रूप उपनीति हमा गर्भावय क्रियामों की साक्षी पूर्वक विधि के अनुसार अपने वेश, सदाचार को १४वी उपनीति क्रिया से मननिवृत्ति तक ४८ क्रिया भोर समय की रक्षा उपनीति क्रिया करत होती हैं। सफेद वस्त्र एवं उपनीतादि धारण करना वेष कहलाता वय क्रिया-पण्य करने वाले लोगों को प्राप्त है। पार्यों के करने योग्य देवपजा पाटि को हो सकती हैं और जो समी चीन मार्ग की माराधना करने करने को वृत्त कहते हैं और इसके बाद अपने शास्त्र के के फल स्वरूप प्रवत्त होती हैं। ये ७ हैं-१. सज्जाति, अनुसार गोत्र, जाति मादि के दूसरे नाम धारण करने प रिव ३.पारिवाज्य, ४. सुरेन्द्रता, ५.साम्राज्य, वाले पुरुष के जो जैन श्रावक की दीक्षा है उसे समय ६. परमाहंन्त्य, ७. परम निर्वाण । कहते हैं ।५५,५६॥ इन क्रियानों के नामोल्लेख के बाद भरत ने इनका ३८वे पर्व में व्रतचर्या का वर्णन गर्भान्वय क्रियानों में याहन समस्त क्रियानो मे १४वा इस प्रकार किया गया हैउपनीति, १५वीं व्रतचर्या एवं १५वीं व्रतावतरण क्रिया तीन लर की मूंज की रस्सी बांधने से कमर का चिन्ह यज्ञोपवीत से सम्बन्ध रखती है । अतः इन क्रियाओ का पूर्ण होता है, यह मौं नोबन्धन रत्नत्रय की विशुद्धि का अंग है विवरण प्रादि पुराण से उद्धृत किया जाता है और द्विज लोगों का एक चिन्ह है ।१०१। अत्यन्त धुली से प्राइवें वर्ष में बालक की उपनीति क्रिया होती हुई सफेद घोती उसकी जांच का चिन्ह है, वह धोती यह भाइस क्रिया में केशों का मुंडन, व्रत बन्धन तथा सूचित करती है कि मरहत भगवान का कुल पवित्र और जवायन की क्रियाएं की जाती हैं 1१०४॥ प्रथम हा विशाल है।१११। उसके वक्षस्थल का चिन्ह सात लर का जिनालय में जाकर जिसने पहंतदेव की पूजा का ह एस गंया हमा यज्ञोपवीत है, यह यज्ञोपवीत सात परम स्थानों उस बालक को व्रत देकर उसका मोजीबन्धन करना का सूचक है।११२। उसके सिर का चिन्ह स्वच्छ मौर चाहिए अर्थात उसकी कमर में मूंज की रस्सी बांधती उत्कृष्ट मुण्डन है जो कि उसके मन, वचन, कार्य के माहित १५ जो चोटी रखाये हुए है, जिसकी घोता मुंडन को बढ़ाने वाला है ।११६। प्राय: इस प्रकार के मलपटा है, जो वेष भोर विकारों से रहित है, चिन्हों से विशुद्ध और ब्रह्मचर्य से बड़े हए स्थल हिंसा नोवत के चिन्हस्वरूप सूत्र को धारण किये हुए हैं। ऐसा का त्याग मादि व्रत उसे धारण करना चाहिए ।११॥ बबालक ब्रह्मचारी कहलाता है ।१०६। उस समय उसके इस ब्रह्मचारी को वृक्ष की दाँतोंन नही करनी चाहिए,न के योग्य प्रौर भी नाम रखे जा सकते हैं । उस पान खाना चाहिए, न अंजन लगाना चाहिए और न समय बडे वभवशाली राजपुत्र को छोड़ कर सबका हल्दी प्रादि लगाकर स्नान करना चाहिए, उसे प्रतिदिन लिमे ही निर्वाह करना चाहिए और राजपुत्र को केवल शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए ।११। उसे खाट में जाकर माता प्रादि से किसी पात्र से पर नहीं सोना चाहिए, दूसरे के शरीर से अपना शरीर नहीं जानिए क्योकि उस समय भिक्षा लेने का रगड़ना चाहिए और व्रतों को विशुद्ध रखने के लिए अकेला मिर भिक्षा में जो कुछ प्राप्त हो, उसका मन- पृथ्वी पर सोना चाहिए।११६। जब तक विद्या समाप्त Mista को समर्पण कर बाकी बचे हुए योग्य न हो, तब तक उसे यह धारण करना चाहिए और विद्या पसका स्वयं भोजन करना चाहिए।१०७-१०८1 समाप्त होने पर वे व्रत धारण करना चाहिए जो कि Parnप्रियायों में उपनीति का वर्णन ३९६ पर्व गृहस्थों के मूल गुण कहलाते हैं । ११७। सबसे पहले इस .. में इस प्रकार है ब्रह्मचारी को गुरु के मुख से श्रावकाचार पढ़ना चाहिए। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन धर्म एवं यज्ञोपवीत १८५ ११८। उत्तम संस्कारों को जागृत करने के लिए मोर वतरण क्रिया का स्वरूप इस प्रकार बताया गया हैद्विता प्राप्त करने के लिए शब्द-शास्त्र और अर्थशास्त्रादि जिसने समस्त विद्याये पढ़ ली हैं ऐसा श्रावक जब का अभ्यास करना चाहिए क्योकि प्राचार विषयक ज्ञान गुरु के समीप विधि के अनुसार फिर से माभूषण मादि होने पर इन के अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है ।११। ग्रहण करता है, उसे व्रतावरण क्रिया कहा है। इसके बाद ज्योतिशास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशारत्र और वर्तमान मे इन तीनों क्रियामों के उक्त वर्णन के गणितशास्त्र मादि का भी उसे विशेष रूप से प्रध्ययन माघार पर श्रावक या व्रती के लिए यज्ञोपवीत को भनिकरना चाहिए।१२। वार्य बताया जाता है किन्तु परीक्षण करने से यह मत दीक्षान्वय क्रियानो के अन्तर्गत व्रतचर्या का वर्णन यथार्थ प्रतीत नहीं होता है। यज्ञोपवीत की अनिवार्यता ३६वें पर्व में इस प्रकार किया गया है के विरोध में निम्न प्रकार से विचार किया जाता हैयज्ञोपवीत से युक्त हुमा भव्य पुरुष शब्द और अर्थ १. भारत ने व्रतियों को सम्बोधित करते हुए दाना से प्रच्छी तरह उपासकाध्ययन के सत्रों का अभ्यास श्रावकाध्याय सग्रह में इन क्रियामो का उल्लेख बताया कर व्रतचर्या नाम की क्रिया को धारण करे ।५७। है। (पर्व ३८ श्लोक ५०) जिनसेनाचार्य से पूर्व रचित व्रतावरण किया का गर्भान्वय क्रियानों के अन्तर्गत ऐसा कोई थावकाध्याय संग्रह नहीं मिलता और कोई ३८वें पर्व में इस प्रकार वर्णन किया गया है श्रावकों के आचरण का ऐसा ग्रंथ नहीं मिलता जिसमें इन __ जिसने समस्त विद्यानों का अध्ययन कर लिया है, क्रियाओं का वर्णन हो जबकि पूर्व कालीन अनेक प्रामाऐसे उस ब्रह्मचारी की व्रतावतरण क्रिया होती है। इस णिक श्रावक के व्रतादिक का वर्णन करने वाले ग्रंथ मिलते क्रिया में वह साधारण व्रतों का तो पालन करता ही है हैं । यदि सस्कार उम गमय प्रचलित या मान्य होते तो परन्तु अध्ययन के समय जो विशेष व्रत ले रखे थे उनका इनका वर्णन अवश्य होता । परित्याग कर देता है ।१२१। इस क्रिया के बाद उसके २. भरत ने इन क्रियानों का नामोल्लेख करने के मधुत्याग, माँस त्याग, पाच उदम्बर फलो का त्याग और बार कहा है ' महर्षियों ने इन क्रियाओं का समूह अनेक हिंसा मादि पांच स्थूल पापों का त्याग ये सदाकाल रहने प्रकार का माना है परन्तु मैं यहाँ विस्तार छोड़कर सक्षेप वाले व्रत रह जाते हैं ।१२२। यह व्रतावतरण क्रिया गुरु से ही उनके लक्षण कहता हूँ।" (श्लोक ६६-३८ पर्व) को साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर बारह या इससे लगता है कि भरत को स्वयं भी यह ज्ञात था कि सोलह वर्ष बाद करनी चाहिए ।१२३। पहले द्विजों का इन क्रियाओं का अन्य रूप भी था जिन्हें छोड़कर उन्होंने सत्कार कर फिर व्रतावरण करना उचित है और व्रता- किसी महर्षि विशेष द्वारा मान्य क्रियायो का वर्णन किया बरण के बाद गुरू की प्राज्ञा से वस्त्र, प्राभूषण और है यह भी ठीक है कि भरत के उक्त वर्णन तक ऐसे माला प्रादि का ग्रहण करना उचित है ।१२४। इसके बाद महर्षियों के ग्रन्थ ही नही बने होगे। श्रावक के इन यदि वह शास्त्रोपजीवी है तो वह अपनी माजीविका की तिरेपन संस्कारो के स्थान पर क्रियाकोष में निम्न ५३ रक्षा के लिए शस्त्र भी धारण कर सकता है अथवा केवल क्रियाएं श्रावक के लिए संगृहीत एवं मान्य की गई हैं। शोभा के लिए भी शस्त्र ग्रहण किया जा सकता है ।१२५॥ और जिनका प्राधार प्राचीन ग्रथो मे भी सुलभ होता है। इस प्रकार इस क्रिया मे यद्यपि वह भोगोपभोगों के ब्रह्म माठ मूल गुण, बारह व्रत, बारह तप, ग्यारह प्रतिमा, व्रत का अर्थात् ताम्बल मादि के त्याग का अवतरण भभेद समदृष्टि, चार दान, जल छानना, रात्रि भोजन (त्याग कर देता है तथापि जब तक उसके मागे की त्याग, सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र । क्रिया नही होती तब तक वह काम परित्याग रूप ब्रह्मव्रत जबकि भरत द्वारा कथित उक्त तिरेपन संस्कारों की का पालन करता रहता है ।१२६॥ किसी प्राचीन जैन साहित्य से पुष्टि नहीं होती। ३६वें पर्व में दीक्षान्वय क्रियामों के अन्तर्गत व्रता- ३. गर्मान्वय एवं दीक्षान्वय संस्कार एक भव नहीं, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ वर्ष २५, कि.४ अनेकान्त दो भव नहीं, तीन-तीन भवों के काल को लिए हुए हैं। सब वेशभूषा विद्याध्ययन की समाप्ति के बाद छुट जाते ये संस्कार प्रथम मनुष्य भव में प्रारंभ होकर दूसरे भव हैं। प्राज विद्यार्थी काल में न मुंज की डोर पहराई जाती में इन्द्र पद की प्राप्ति तथा तीसरे भव में चक्रवर्ती पद है, न सिर मुंडन कराया जाता है, न भिक्षा मंगाई जाती की प्राप्ति के साथ-साथ अरहत एव निर्वाण पद की प्राप्ति न ब्रह्मचर्य की साधक अन्य प्रतिज्ञामों को कराया जाता तक चलते हैं। कोई व्यक्ति इस प्रकार तीन भव पाने की है फिर केवल यज्ञोपवीत पहनाने पर जोर क्यों दिया जाता कल्पना या इच्छा तो कर सकता है किन्तु इसी प्रकार भव है ? विद्याध्ययन-काल के बाद जब यह छूट जाते हैं फिर प्राप्त हो जायें यह असम्भव नही तो प्रत्यन्त दुर्लभ गृहस्थावस्था में इसे पहनने का कुछ भौचित्य नहीं अवश्य है। रहता। प्रथम भव में गर्भ से लेकर विद्याध्ययन काल के ५. कोई कहे कि यह रत्नत्रय का सूचक है सो यह उपनीति, व्रतचर्या, विवाह प्रादि सस्कार बताए हैं, किन्तु धागा प्रात्मीय गुण रूप रत्नत्रय का सूचक कैसे हो सकता तीसरे भव में उस व्यक्ति के इन संस्कारों का कोई वर्णन है? प्रात्मीयगुण ही रत्नत्रय के सूचक बन सकते हैं। जड़ नहीं किया गया है। क्या तीसरे भव में ये सब संस्कार धागा तो कोई भी पहन सकता है। क्या इस जड़ धागे को नहीं होने हैं ? पहनने से रत्नत्रय हो जाता है ? नहीं। क्या प्रभव्यजड़ इससे यह स्पष्ट होता है कि ये संस्कार कभी किसी धागा पहनले तो वह रत्नत्रय युक्त हो जावेगा? के पूरे होंगे ही नहीं, क्योंकि यह कैसे ज्ञात हो कि इस ६. कोई कहे कि यह प्रत का चिह्न है या अतों की भाव में संस्कार होने हैं या नहीं। याददास्त दिलाने के लिए संकेत का काम करता है। ४. इन क्रियाओं का कोई प्राधार एवं संगति नहीं होते कषामों या पाप से विरक्त होना प्रात्मीय गुण है, जड़ हुए भी यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि क्या उपनीति प्रादि धागा उसका चिह्न नहीं हो सकता फिर माजकल तो इसे क्रियानों के प्राधार से यज्ञोपवीत प्रावश्यक ठहरता है। सभी धारण करते हैं-प्रती भी एवं प्रश्नती भी। फिर उपनीति क्रिया के अनुसार विद्याध्ययन काल में यह प्रतियों के किस का सूचक है ? कमर में मूंज की तीन लर की डोर, गले में सूत का प्रती स्त्रियां इसे क्यों नहीं पहनती यह भी एक प्रश्न यज्ञोपवीत एवं सिर का मुंडन संस्कार रहना चाहिए। है? यदि कोई सावधानी के लिए याददास्त कराने हेतु व्रतचर्या संस्कार के अनुसार उस काल मे ब्रह्मचर्य पूर्वक जनेऊ पहनना चाहे, वह भले ही सूत का मोटा रस्सा पहने, रहते हुए जमीन पर अकेले सोना, ताम्बल प्रादि का किंतु दूसरों को इसे पहनने के लिए वाध्य क्यों किया सेवन न करना, वृक्ष की दतौन न करना, शुद्ध जल से जाय ? स्नान करना मादि नियमों का पालन करना होता है। प्रती स्त्रियों को याद दिलाने के.लिए उन्हें क्यों नहीं विद्याध्ययन समाप्ति होने तक इन नियमों का पालन पहनाया जाता? क्योंकि यह प्रावश्यक नहीं है। इन करना है और फिर सदा काल रहने वाले गृहस्थों के मूल- संस्कारों का वर्णन ३८, ३६ एवं ४० वें पवों में किया गुणों के व्रत धारण करने हैं इसलिए वृतावतरण संस्कार गया है । ४१ वें पर्व में राजा भरत कुछ स्वप्न देखते हैं में विद्याध्ययन काल में ब्रह्मचारी योग्य जितने वृत लिए जिनके फलाफल जानने की इच्छा होती है। वे यह भी थे वे सब छोड़ दिए जाते हैं जो सार्वकालिक वृत (मधु, सोचते हैं कि मैंने ब्राह्मण लोगों की नवीन सष्टि की है मांस, पाँच उदम्बरों फलों का त्याग) हैं, वे रह जाते हैं। उसे भी भगवान के चरणों के समीप जाकर निवेदन करना इससे यह स्पष्ट हो गया कि उक्त क्रियानों के अनुसार चाहिए (श्लोक १२) (ध्यान रहे ऋषभदेव ने अपने यज्ञोपवीत ब्रह्मचर्यावस्था में उसी प्रकार लिया गया था राज्य काल में क्षत्रिय, वैश्य एवं शूा बनाए थे) भरत जैसे मूंज की डोर कमर में ली गई थी या सिर का मुंडन चक्रवर्ती ने समवशरण में जाकर इस प्रकार निवेदन कर अन्य ब्रह्मचर्य की साधक प्रतिज्ञाएं ली गई थीं। ये किया। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न धर्म एवं यज्ञोपवीत १८५ हे भगवन ! मैंने मापके द्वारा कहे हुए उपासकाध्ययन इससे स्पष्ट हो गया कि भगवान ऋषभदेव ने भरत के उक्त सूत्र के मार्ग पर चलने वाले तथा श्रावकाचार में निपुण कार्य को उचित नहीं कहा । केवली भगवान ऋषभदेव के ब्राह्मण निर्माण किए हैं।२०। हे विभो, मैंने इन्हें ग्यारह उक्त समाधान के पढ़ने से भरत द्वारा कथित गर्भाव प्रतिमानों के विभाग से व्रतों के चिह्न स्वरूप (व्रतचिह्न- यादि क्रियानों का कोई मूल्य नहीं रहता मोर न बे सूत्र) एक से लेकर ग्यारह तक यज्ञोपवीत दिए हैं ।(३१) श्रावक के लिए विधेय या अनिवार्य ठहरती हैं। हे प्रभो, समस्त धर्मरूपी सृष्टि को साक्षात् उत्पन्न करने भरत ने 'श्रावकाध्याय सग्रह' का जो उल्लेख किया है वह वाले प्रापके विद्यमान रहते हुए भी "मैंने अपनी बड़ी ऐसा ही उल्लेख है जैसे कोई भी नया कार्य शुरू करना मूर्खता से यह काम किया है।" (३२) हे देव, इन ब्राह्मणों चाहता है वह पहले उसको प्राचीनता सिद्ध करने का की रचना में दोष क्या है, गुण क्या है और इनकी रचना प्रयत्न करता है। भगवान ऋषभदेव द्वारा ब्राह्मणों की योग्य हुई अथवा नहीं इस प्रकार झूला के समान झूलते सृष्टि को 'दोष का बीज रूप' एवं यज्ञोपवीत को 'पापसूत्र' हुए मेरे चित्त को किसी निश्चय में स्थित कीजिए।(३३) बता देने का परिणाम यह हुमा कि जैन परम्परा मे इन भगवान् ऋषभदेव ने भरत की उक्त शका का समा- सस्कारों एवं यज्ञोपवीत मादि को कोई स्थान नही मिला धान करते हुए कहा-हे वत्स, तूने जो धर्मात्मा द्विजों की -क्योंकि भरत के किसी भी कार्य को धर्म क्षेत्र मे पूजा की सो बहुत अच्छा किया परन्तु इसमे कुछ दोष है प्रामाणिकता एवं मान्यता नही मिल सकती है। यदि उसे तू सृन ।४५॥ हे प्रायुष्यमन् ! तूने जो गृहस्थों की भगवान ऋषभदेव मावश्यक समझते तो वे ही वैश्यरचना की है सो जब तक चतुर्थकाल की स्थिति रहेगी क्षत्रियों को यज्ञोपवीत देते, किन्तु उन्होने नही दिया। इससे तब तक तो उचित पाचार का पालन करेंगे परन्तु जब यह सिद्ध होता है कि वे इसे पावश्यक नहीं मानते थे । कलियुग निकट पा जायगा, तब ये जातिवाद के अभियान जिनसेनाचार्य ने भरत के सभी उल्लेखनीय कार्यों मे सदाचार से भ्रष्ट होकर मोक्षमार्ग के विरोधी बन । का उल्लेख किया है, उसी प्रसग में ब्राह्मणों की स्थापना जावेगे।४६। पचम काल में ये लोग, हम सब लोगों में बड़े हैं इस प्रकार जाति के मद से युक्त होकर केवल धन की। एवं तत्सम्बन्धी मौचित्य की शका एव भगवान के समा. माशा से खोटे-खोटे शास्त्रों के द्वारा लोगों को मोहित घान प्रादि का उल्लेख किया है किन्तु इसका अर्थ यह करते रहेगे।४७॥ "(पापसूत्र) पाप के चिह्न स्वरूप यशो नहीं कि भरत के सभी कार्य विघय हो जायें। प्राचार्यश्री पवीत को धारण करने वाले" मोर प्राणियों के मारने में ने अपने ग्रन्थ में प्रसगवश हिंसा, घृत, मास प्रादि का भी सदा तत्पर रहने वाले ये धूतं लोग भागामी युग में समी का वर्णन किया है किन्तु इसका अर्थ यह नही है कि ये पनिचीन मार्ग के विरोधी होंगे।५३। इसलिए यह ब्राह्मणों की । रचना" यद्यपि पान दोष उत्पन्न करने वाली नहीं है कहीं-कहीं भ्रमवश या जान-बूझकर बाहरी अनुकरम तथापि प्रागामी काल में खोटे पाखण्डमतों की प्रवृत्ति के परवर्ती कुछ लेखकों ने उसके ३८वे, ३६वें एव ४०वें करने से "दोष का बीज रूप" है ।४।। पर्व के प्राधार पन तिरेपन क्रियामों (यज्ञोपवीतादि) को . भरत की ब्राह्मणों की स्थापना के मोचित्य सम्बन्धी विधेयरूप में मान लिया; किन्तु यह सब जिनसेनाचार्य को पाका एवं भगवान ऋषभदेव के उक्त समाधान से स्पष्ट प्रभीष्ट नहीं था जैसा कि भगवान ऋषभदेव के कथन से हो जाता है कि भरत ने ब्राह्मणों की स्थापना में भगवान सिद्ध होता है। भ्रम या अनुकरण या दबाव के कारण के शब्दों में "दोष का बीज रूप" कार्य किया था। भरत किसी क्रिया किसी क्रिया को विधेय या मनिवार्य ठहराना मनुने स्वयं भी कहा कि मैंने यह कार्य 'बड़ी मूर्खता से किया चित है। है। भरत ने जिस यज्ञोपवीत 'प्रतचिह्न सूत्र' का विशेषन कभी-कभी भ्रम या अनुकरण या पबाव के कारण दिया उसे भगवान ऋषभदेव ने "पापसूत्र" की संज्ञा दी। लौकिक क्रियाएं अपनाई गई, उन्हें बैन रूप देने के लिये Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६, वर्ष २५, कि०४ अनेकान्त ऐसे श्लोक बनाये गये यथा से सजे हुए रूप में 'ब्रह्मसूत्र' युक्त बताया है वह रल. सर्व एव हि नानां प्रमाणं लौकिको विषि:, जटित स्वर्णमय हार ही हो सकता है। पत्र सम्यक्त्वहानिनं यत्र न व्रत दूषणम् । प्रतः यह स्पष्ट हो गया कि भोगभूमि में उक्त 'ब्रह्म समन्वय की दृष्टि या बैर विरोध कम करने की दृष्टि स्त्र' व्रत चिन्ह सूचक' माना जाने वाले यज्ञोपवीत से ऐसे इलोकों का महत्व हो सकता है किन्तु धार्मिक का परिचायक नहीं है अपितु केयूर, मुकुट प्रादि की तरह कार्यों में ऐसे श्लोकों को अपनाने में कोई भौचित्य का प्राभूषण ही होगा। कई बार देखा जाता है कि मूल नही है। ग्रन्थ में प्रयुक्त ब्रह्मा सूत्र 'व्रतसूत्र' 'सूत्र-चिन्ह' शब्दों का प्रादिपुराण में कुछ ऐसे कथन पाये हैं जिनमें वेप. पर्यायवाची 'यज्ञोपवीत' शब्द दिया जाता है। उसे स्पष्ट भूषा का वर्णन करते हुए व्रतसूत्र, यज्ञोपवीत प्रादि प्रादि रूप से प्राभूषण नही बताया जाता। शब्द पाये हैं और उनके माघार पर कुछ लोग सूतवाली इसलिए सूत के यज्ञोपवीत के समर्थक साधारण यज्ञोपवीत की परम्परा सिद्ध करना चाहते हैं। व्यक्तियो को प्रादि पुराण के उदाहरण देकर समझा सकते भगवान ऋषभदेव का पर्व १६, श्लोक २३५ मे निम्न है। देखो,ऋषभदेव, भरत प्रादि ने यज्ञोपवीत पहन रखा वर्णन है था। ऋषभदेव, भरत या किसी भी अन्य महापुरुष कंठे हार लता विभ्रत कटि सूत्रं कटी तले, का यज्ञोपवीत संस्कार का वर्णन नही मिलता, फिर उनके ब्रह्मसूत्रो पवीतांगं सगांगोषमिवाद्विराट् । सूत का यज्ञोपवीत क्यो होता? इसी प्रकार भरतेश्वर का वर्णन निम्न श्लोक मे किया यज्ञोपवीत का मूलाधार माने जाने वाले प्रादिपुराण गया है के तत्सम्बन्धी प्रसगो की परीक्षा करने से यह स्पष्ट हो अंसावलंबिना ब्रह्मसूत्रेणा ऽसौ वषे श्रियम्, जाता है कि यज्ञोपवीत धावक के लिए प्रावश्यक नही हिमाद्रिरिव गांगेन स्रोत सोत संग संगिना। है। अभिषेक पाठ के श्लोक से भी सिद्ध हो गया है कि वस्तुतः उक्त ब्रह्मसूत्र एक प्राभूषण ही है जैसा कि उसमें प्रयुक्त 'यज्ञोपवीत' शब्द आभूषण विशेष का द्योतक पहले भी अभिषेक पाठ के प्रसंग मे यज्ञोपवीत शब्द का है इसलिए उस पाठ के प्राघार पर पूजा प्रक्षाल या विधान अर्थ माभूषण सिद्ध किया था। स्वयं जिनसेनाचार्य ने भी करने के लिए सूत वाली यज्ञोपवीत पहनना अावश्यक "ब्रह्मसूत्र" को भोग भूमियों का शाश्वत माभूषण कहा है- नहीं है, हाँ पंच कल्याणक प्रतिष्ठा विधान मे इन्द्र बनने केयरं ब्रह्मसत्रं च तेषां शश्वभिषणमा को उसकी सजावट हेतु मुकुट, कुंडल प्रादि की तरह यज्ञोयह तो स्पष्ट ही है कि भोग भूमि में उक्त ब्रह्मसूत्र व्रत पवीत (सोने की कठी जैसा प्राभूषण) पहनाया जा सकता चिह्न सूचक यज्ञोपवीत का परिचायक नहीं है, अपितु। केयूर मादि की तरह का प्राभूषण ही होगा। व्रत चिन्ह का सूचक माना जाने वाला सूत का धागा __ पद्मपुराण के कर्ता प्राचार्य रविषेण भी सूत्र चिह्न नहीं पहनाना चाहिए, क्योकि इन्द्र तो भवती होता है। को माभूषण रूप में ही मानते प्रतीत होते हैं। उन्होंने जिनसेनाचार्य के प्रादिपुराण के आधार पर भी इसका विशेषण 'सरल चामीकरमय' दिया है । इसका अर्थ इसकी रचना के बाद यज्ञोपवीत का प्रचार नहीं हुमा है 'रत्न युक्त स्वर्णमय सूत्र चिन्ह'। इन शब्दों का फलि- क्योकि इसे कभी जनत्व का चिन्ह नहीं माना गया। यह तार्थ रल अणित स्वर्णमय हार के सिवा क्या हो ब्राह्मणों का ही चिन्ह माना जाता है। सकता है। मध्यकाल में कवि बनारसी दास जी को डाकुमों के इसे कहीं सूत्र-चिन्ह, कहीं व्रत सूत्र कहीं ब्रह्म सूत्र सामने अपने को ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए जनेऊ बना कहा है किन्तु इसका अभिप्राय 'रत्न जटित स्वर्णमय हार' कर पहनना पड़ा था। इससे सिद्ध होता है कि उनके समय ही होगा। भरत चक्रवर्ती या राजा ऋषभदेव को वेषभूषा में यज्ञोपवीत ब्राह्मणों का चिन्ह माना जाता था। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म एवं यज्ञोपवीत १८७ राण में श्री रविषेणाचार्य ने ब्राह्मणों को 'सूत्र सम्बन्ध में अभिमत देने का लोभ नहीं कर सकता। स्व. ..' (गने में तागा डालने वाले जैसे शब्दों से उल्ले- पं० जुगल किशोर जी मुख्तार ने यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में वित किया था। इससे ज्ञात होता है कि उनके समय में शास्त्रीय उद्धरणों पर विचार करते हुए यह निष्कर्ष प्रकट यज्ञोपवीत को कोई मान्यता नहीं थी, यदि मान्यता होती किया था-"ऐसी हालत में यज्ञोपवीत को जैन धर्म का तो सत्रधारी ब्राह्मणों को ऐसे हीनता बोधक शब्दों से कोई प्रावश्यक प्रंग नहीं कहा जा मकता पोर न यह जैन सम्बोधित नही करते। , संस्कृति का ही कोई प्रावश्यक प्रग जान पड़ता है।" प्रादि पुराण के अनुसार भरत ने यज्ञोपवीत के सात -अनेकांत वर्ष ६ कि.१ घागों का कथन किया था। किन्तु प्रब तीन घागे का यज्ञो घवलादि महान् ग्रंथों के संपादक पं० फूलचन्द्र जी पवीत बनाया जाता है, कही-कहीं विवाहित पुरुष स्त्री की जो सिद्धान्त शास्त्री ने यज्ञोपवीत के सम्बन्ध मे उपलब्ध पोर से भी एक अधिक जनेऊ पहनते हैं, इसे कब पहनना प्रमाणों पर विचार कर यह निष्कर्ष व्यक्त किया हैचाहिए, क्या रक्षाबन्धन पर्व पर इसे बदलना चाहिए, "जैनधर्म मे मोक्ष की दृष्टि से तो यशोपवीत को स्थान प्रादि ऐसे विषय है जिन पर कोई एक मत नहीं है । इन है ही नहीं। सामाजिक दृष्टि से भी इसका कोई महत्त्व सबके सम्बन्ध में प्रायः ब्राह्मणों में प्रचलित परम्परा अप- नही है । इसे धारण करना और इसका उपदेश देना नाना निरापद समझा जाता है । मैं समझता हूँ कि यदि मात्र ब्राह्मण धर्म का अनुकरण है।"........... प्रादि पुराणकार इसे श्रावक के लिए आवश्यक मानते तो "इससे स्पष्ट है कि यज्ञोपवीत जैन परम्परा में कभी वे इन विषयों पर अवश्य प्रकाश डालते । श्रावक की ली भी स्वीकृत नहीं रहा है और यह उचित भी है क्योंकि हुई प्रतिमानों की संख्या के अनुसार घागों की संख्या मोक्ष मार्ग में इसका रंच मात्र भी उपयोग नहीं है तथा होना भी किसी श्रावकाचार में नहीं बताया गया है। जिससे समाज में ऊँच-नीच का भाव बद्ध मूल हो ऐसी सामावस्तुतः परिग्रड कम करने वाला श्रावक इन घागों का जिक व्यवस्था को भी जैन धर्म स्वीकार नहीं करता।" परिग्रह क्यों बढ़ायेगा जो किसी प्रकार से भी सयम का -वर्ण जाति और धर्म से साधक नही है। कुछ भाइयों ने प्रादि पुराण के उक्त इस प्रकार विचार करने से यह सिद्ध होता है कि प्रसंगो की सही स्थिति न जान कर यह मान लिया कि सूत वाला यज्ञोपवीत जैनमार्गानुसारी मोक्ष मार्ग के राही जनेऊ ब्रह्मचारी के लिए मावश्यक है। किन्तु यह भी धावक के लिए किसी भी अवस्था में प्रावश्यक नहीं है उक्त अथ या अन्य प्रामाणिक ग्रंथों से सिद्ध नहीं होता। चाहे वह पूजा प्रक्षाल करे, चाहे दान करे या चाहे व्रत प्रादि पुराण के उत्तरवर्ती कुछ लेखकों ने भरत के कथनों पाले। जो इसके बिना किसी को पूजा प्रक्षाल या दानादि का मर्म बिना समझे एवं लोक में जनेऊ धारियों को करने से वंचित करते हैं । वे शास्त्रानुकूल कार्य नहीं करते प्रतिष्ठा देखकर अपने शास्त्रों में यज्ञोपवीत का उल्लेख हैं। यही कहा जा सकता है। किया है, एवं ब्राह्मणों में प्रचलित तत्सम्बन्धी रीति- यदि कोई चाबी बांधने या शरीर में खाज खुजाने रिवाजों को अपने ग्रंथ में लिखकर उन पर जनत्व की के लिए यज्ञोपवीत पहने या अपने प्रापको व्रतधारी का मुहर लगाना चाहा है किन्तु जब यज्ञोपवीत का मूलाधार दिखावा करने के लिए भी पहने तो वह स्वेच्छा से पहन ही शास्त्र सम्मत नहीं है तब उसके लिए अनुकरणवर्ती सकता है। किन्तु कोई दूसरों को इसे रत्नत्रय या व्रत के उत्तर कालीन अन्य कथनों की कोई प्रामाणिकता नहीं मिल प्रामाणिकता नही चिन्ह रूप में पहनने के लिए बाध्य करे तो उसे शास्त्रा. नहीं रहती है। लोक में यज्ञोपवीत की उक्त स्थिति भली प्रकार समझ इस युग के प्रसिद्ध दो विद्वानों का यज्ञोपवीत के लेनी चाहिए। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काष्ठासंघ-एक पुनरीक्षण ग० विद्याधर जोहरापुरकर सन् १९५८ में हमने काष्ठासंध के चार गच्छों सेन (सं० १०५५) महासेन तथा विजयकीति (सं० ११. के प्राचार्यों का इतिहास संकलित करते समय यह ४५) । इस प्रकार का जो नया उल्लेख प्राप्त हुपा है सध्य स्पष्ट किया था कि इन चार गच्छों के पहले स्व. वह महाराष्ट्र के पश्चिम खान देश जिले के सुलतानपुर तन्त्र संघों के रूप में अस्तित्व रहा था तथा इसके ग्राम से मिला है । स. १२६ (? यह प्रक अस्पष्ट है) बाद में वे काष्ठासंघ के अन्तर्गत गच्छों के रूप में सम्मि- (सन् ११५४ के पास-पास)के इस मूर्ति लेख में पुन्नाट गुरुलित हए। तत्पश्चात् इसी तथ्य को स्पष्ट करने वाले कुल के प्राचार्य अमृतचन्द्र के शिष्य विजयकीर्ति का नाम कुछ और शिलालेख हमारे प्रवलोकन में पाये जिनका विव. मिलता है, इसमें भी काष्ठासघ का नामोल्लेख नही है।' रण यहाँ दिया जा रहा है। तीसरा गच्छ वागट (या वागड) पहले दो स्थानों काष्ठासंघ के अन्तर्गत सम्मिलित होने के पहले माथुर पर उल्लिखित मिला था जिनमें सुरसेन (स० १०५१) गच्छ माथुर संघके रूप में उल्लिखित हुमा हैं । इसका प्रमाण तथा यश: कीति इन प्राचार्यों के नाम प्राप्त हुए थे। इस हमारे पहले प्रध्ययन में संकलित हैं। जिनमें प्राचार्य प्रमित प्रकार एक अन्य लेख मजमेर संग्रहालय से प्राप्त हुमा गति (सं० १०५०-७३), छत्रसेन (११६६), गुणभद्र है। स. १०६१ के इस मूर्ति लेख में वागट संघ के धर्म(सं०१२२६), ललितकीर्ति (स० १२३४) तथा अमर. सेन प्राचार्य का नाम मिलता है । इसमें भी काष्ठासंघ कीति (सं०१२४४-४७) के उल्लेख है। अब जो नये का नामोल्लेख नही है।' काष्ठासघ के गच्छ के रूप में शिलालेख इसी प्रकार के प्राप्त हुए हैं उनका विवरण इस बागडगच्छ का कोई उल्लेख हमारे अवलोकन मे नही प्रकार है। नाखून ग्राम से प्राप्त लेख जो स० १२१६ का मा पाया है। है तथा अजमेर के संग्रहालय में है प्राचार्य चारूकीति चौथा गच्छ नन्दी तट पहले स्वतन्त्र रहा। इसके कोई द्वारा स्थापित सरस्वती मूर्ति के पाद पीठ पर है। इनकी प्रमाण पहले अध्ययन के समय हमें नहीं मिले थे । अब परम्परा को माथुर संघ कहा गया है-काष्ठासंघका एक ऐसा प्रमाण मिला है। मध्य प्रदेश के मन्दसौर जिले नामोल्लेख नहीं है। इसी संग्रहालय का एक अन्य लेख के वैखर ग्राम से प्राप्त इस मूर्ति लेख में नदियड सप के सं० १२३१ का है जो बघेरा ग्राम से प्राप्त हुमा है। प्राचार्य शुभकीति और विमलकीर्ति के नाम हैं । लेख में इसमें माथुर संघ के धावक दूलाक का नाम है पार्श्वनाथ समय निर्देश नहीं है, लिपि के आधार पर यह दसवीं मूति के पाद पीठ के इस लेख में भी काष्ठासंघ का नामो शताब्दी का माना गया है । इसमें भी काष्ठासंघ का नामोस्लेख नहीं है। ल्लेख नहीं है। दूसरा पच्छ पुन्नाट या लाडवागड काष्ठासंघ में माने के उपयुक्त विवरण से काष्ठासंघ के चारों गच्छ पहले स्वतन्त्र संघों के रूप में थे यह निष्कर्ष और स्पष्ट हो पहले स्वतन्त्र संघ के रूप में था। इसके प्रमाण हमारे पहले अध्ययन में इन प्राचार्यों के उस्लेखों द्वारा संकलित हो जाता है । काष्ठासघ का पहला शिलालेखीय उल्लेख है-जिनसेन (शक ७०५), हरिषेण (शक ८५३), जय पाचार्य देवसेन का है जो दूबकुण्ड के संवत् ११५२ के लेख में है। १. भट्टारक सम्प्रदाय (जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर) पृ. २१०। ३.४.जैन शिलालेख संग्रह भा.५ पृष्ठ ४६ तथा २५ । २.जन शिलालेख संग्रह भा०५ (भारतीय ज्ञानपीठ. .जैन शिलालेख संग्रह भा०४०७२। दिल्ली) पृ०४७ तथा ४६। ६.जन शिलालेख संग्रह भा०२ पृष्ठ ३५२ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रहम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमधनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वष २५ किरण ५ । ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६७, वि० स० २०२६ नवम्बरदिसम्बर १९७२ शान्तिनाथ स्तोत्रम् लोक्याधिपतित्वसूचनपरं लोकेश्वररुद्धृतं, यस्योपयं परोन्दुमण्डल निभं छत्रत्रय राजते। प्रश्रान्तोद्गतकेवलोज्ज्वलरुचा निर्भत्सितार्कप्रभं। सोऽस्मान् पातुनिरजनो जिनपतिः शान्तिनाथः सवा ॥१ देवः सर्व विदेष एष परमो नान्यस्त्रिलोको पतिः, सन्त्यस्येव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमताः । एतदघोषयतोव यस्य बुिधरास्फालितो दन्दभिः, सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥२ -मुनि पचनन्दि प्रर्थ-जिस शान्तिनाथ भगवान के एक-एक के ऊपर इन्द्रों के द्वारा धारण किये गये चन्द्रमण्डल के समान तीन छत्र तीनों लोकों की प्रभुता को सूचित करते हए निरन्तर उदित रहने वाले केवलज्ञानरूप निर्मल ज्योति के द्वारा सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करके सुशोभित होते हैं वह पापरूप कालिमा से रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें॥१॥ ___ जिसकी भेरी देवों द्वारा ताडित होकर मानो यही घोषणा करती है कि तीनों लोकों का स्वामी और सर्वज्ञ यह शान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्कृष्ट देव हैं और दूसरा नहीं है; तथा समस्त तत्त्वं के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले इसी के वचन सज्जनों को अभीष्ट हैं, दूसरे किसी के भी बचन उन्हें अभीष्ट नहीं है। वह पापरूप कालिमा से रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें ॥२॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लखनादौन को अलौकिक जिन प्रतिमा ० सुरेशचन्द्र जैन मानवीय प्रगति का इतिहास अतीत और वर्तमान से जहां तक स्थापत्यकला प्रश्न है उपलब्ध जिन प्रतिसम्बन्धित है। प्रतीत का सदैव यह प्रयत्न रहा है कि वह माएँ अन्य धर्मों की प्रतिमामों से बहुत मागे बढ़ चुकी वर्तमान को उत्प्रेरित कर जीवन को जागृति की विभिन्न हैं-इस तथ्य के तत्व को न केवल भारतीय वरन् पाश्चाप्रवस्थानों में झकझोरता उसे निरन्तर अग्रेषित करने का त्य कलाविद् भी एक स्वर से स्वीकारते है । चकलाविद् प्रयास करे। भारतीय इतिहास सेकड़ों वषा की गुलामो ज्वरीम्मा का कथन है-"स्थापत्य कला के क्षेत्र मे जैनियो के सिसकते हए दिनों से छुटकारा तो पा गया, पर माज ने जो पूर्णता प्राप्त की है कि अन्य कोई भी उसके समक्ष भी स्वतंत्र भारत के नागरिक पराधीनता की परिसीमानों नहीं ठहरता ।" प्राज भी विश्व का प्राठवां प्राश्चर्य से ऊपर उठ कर अपने अतीत के चुने हुए सस्कारों से श्रवणवेलगोला (गोमटेश्वर-बाहुबली), प्राब के जैन मंदिर सम्बन्धित करने की दशा में पूर्णतः सक्षम नहीं हो पाये पाश्र्वनाथ, राजगृही पावापुरी, ककानी टोला (मथुरा) दीखते । अाज हम पश्चिमी सभ्यता की चका-चौध से प्रादि स्थानों की जैन मूर्तियां, पुरातत्त्व एव इतिहास इतने प्रभावित हो गये हैं कि हमें हमारी अपनी शानदार अपनी प्राचीनता एवं कलात्मक वैभव का उद्घोष करती संस्कृति एवं उसके मूल्यो को तनिक भी सम्हालने की हैं। इतना ही नहीं, प्रवृत्ति के अन्तगल मे समय के कूट लालसा नहीं दिखाई देती। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे थपेड़ो से श्रापित यदा-कदा, यत्र-तत्र जो महत्वपूर्ण शिल्प अपने ही क्रिया कलाप अपनी महान् संस्कृति को भूल कर सम्पदा प्राप्त होने के समाचार मिलते है-उनमे ६० प्रतिउनमें विकृतियों को ही पनपाने का उपक्रम रच रहे है। शत जैन पुरातत्त्व से सम्बम्धित होता है। यदि उत्खनन के हमारी भारतीय सस्कृति एक ऐसी स्थली का कार्य करती कार्यको भौर अधिक सक्रिय या गतिशील बना दिया जाये तो है-जहां पर समग्र मानव जीवन के विभिन्न रूप पाकर यह बात निःसन्देह कही जा सकती है कि प्रतीतकी स्थापत्य एक घाट पानी पीते प्रतीत होते हैं । इसने सदैव वैभिन्न कला एक बार पुनः जैन शिल्प से सन्दर्भित ही होगी। में एकत्व को ही प्रश्रय दिया है । अनेकता में एकता ही माज जैन शिल्प सपदा इतनी प्रचुर मात्रा मे जाने-मनइसके मूल भून प्राण है । सस्कृति को सवारने मे धम एक जाने रूप मे बिखरी दिखाई देती है कि उसकी भोर बहुत बड़े सहायक उपकरण के रूप में अपनी भूमिका शासन एव समाज दोनों की पर्याप्त दृष्टि नही जा सकी। निभाता है। भारतवर्ष में पादिकाल से विभिन्न धर्माव- लखन दौन क्षेत्र भी इसी प्रकार के क्षेत्रो मे से एक है लम्बियों का अस्तित्व रहा है । जैनधर्म भी भारतीय और इसी लखनादौन में गत दिनों प्राप्त मलौकिक जिन घमो में प्रत्यन्त प्राचीन एवं मौलिक धर्म है, जिसको अपनी प्रतिमा का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। विशिष्ट विशेषताएं हैं। कला शिल्प , साहित्य, दर्शन आदि बहुत ही निकट समय मे भगवान महावीर स्वामी के प में जैनधर्म ने भारतीय संस्कृति को विशेष रूप से पच्चीस सौवे निर्वाणोत्सव का प्रायोजन विकट रूप से जो देन दी है-वह कभी भी विसरामी नहीं जा सकती। सम्पन्न होने जा रहा है-ऐसे समय में महावीर स्वामी जैनधर्म की मौलिक विशेषताएँ माज भी अविच्छिन्न की इस प्रतिमा का प्राप्त होना निश्चयात्मक रूप से बड़ी रूप में प्रवाहित हो रही है, जो कि कलात्मक प्रताको के उपलब्धि है। यह जिन प्रतिमा (सिंहासन के चिन्हों को रूप में दिखाई देती हैं। जैनधर्म के अनुयायियों ने ही लांक्षन मानकर इसे सभी विद्वानों ने महावीर स्वामी की सर्वप्रथम कला के माध्यम से देवत्व का माभास कराया है। प्रतिमा माना है) सामान्य नहीं, अपितु उसके कलात्मक Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लखनादौन की अलौकिक जिन प्रतिमा सौंदर्य बोष की दृष्टि से बहत ऊपर उठकर है। लखना- लाल जी ने लेख की लिपि के अनुसार हवौं-१०वीं दोन नगरी महाराष्ट्र बंदलखण्ड एवं गोंडवाना की शताब्दी का निरूपित किया है और इस प्रकार यह शिल्प सीमानों को स्पर्श करती हुई, राष्ट्रीय मार्ग न०२६ एवं कलचुरि कालीन ही ठहरता है । इसके साथ ही प्रतिमा न०७ तक रायपुर भोपाल राष्ट्रीय मार्गों की त्रिवेणी के जी के सिर को पञ्चगुच्छक केशावलि लटकते कर्ण, लघु संगम पर स्थित जबलपुर से ५२ मील स्थित सिवनी जिले श्री वत्स एवं कण्ठ में उत्कीणं तीन रेखाएं भी इस प्रतिमा की एक मात्र तहसील का मुख्यालय है। काल के प्रसह- जा का कलचुार कालान हा __ जी को कलचुरि कालीन ही निरूपित करती हैं । प्रतिमा नीय कर थपेड़ों ने लखनादौन के कलात्मक वैभव को जी अत्यन्त मनोज्ञ, दिव्य तथा चित्रावर्षक तप की मुद्रा भूमिगत करने में सफलता प्राप्त की और परिणाम स्वरूप में अत्यन्त सानुपातिक रूप में सुन्दर से सुन्दरतम् भावों यह क्षेत्र, अनदेखा अनजाना सा पडा रहा। इसे देव में उत्कीर्ण करने में कलाकार ने अपनी कला में पूर्णतः सयोग अथवा बहुत बड़े सौभाग्य की ही संज्ञा दी जा प्राप्त की है । शारीरिक शोष्ठव की दृष्टि से प्रब तक सकेगी कि लखनादौन मे भगवान महावीर की यह प्रतिमा प्राप्य कलच म प्राप्य कलचुरि कालीन प्रतिमानो मे यह बहुत ऊपर उठखेत साफ करने समय श्री शारदाप्रसाद माली को मिली कर है। . पौर स्थानीय जैन समाज ने इसे लाकर अपने मन्दिर में भगवान प्रति मनोज्ञ एवं सौम्य मुद्रा में चार खम्भों प्रतिष्ठापनार्थ रक्खा। से निर्मित सिंहासन में पद्मासन रूप से विराजमान है। प्रस्तुत उपरोक्त प्रतिमा उसके सौदर्य में उसकी अलंकरण बीच मे धर्मचक्र की अर्चना करते हुए मूर्ति स्थापक सज्जा संरचनामें अद्वितीय है। प्राचीन मूर्तियों में इसे अनुपात पति पत्नी बैठे हैं। खम्भों के दोनों मोर सिंहासन के में नयनाभिराम एवं हृदयवलेक सौदर्याभिव्यक्ति प्रायः कम सिंह दिखाई देते है । भगवान् की ध्यानस्थ मुद्रा के दोनों ही देखने को मिलती है । उपरोक्त तथ्य अतिशयोक्ति के मोर दो इन्द्र (सौधर्म और ईशान) चवर ढालते खड़े बिन्दु पर ना होकर एक वास्तविक तथ्य का प्रतिपादक हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे उनकी भाव-भक्ति में हैं। ऐसा मत इसे देखकर कला पारखियों ने व्यक्त किया कही कोई त्रुटि नहीं है । भगवान् की दृष्टि नासान पर है। पूर्ति में उत्कीर्ण स्थापत्य कला इस बात का संकेत केन्द्रित है और केश राशि गुच्छकों के रूप में प्रदर्शित देती है कि लखनादौन क्षेत्र मध्य युगीन (९००-१००० की गई है ।सबसे कार मध्य भाग में त्रिछत्र दर्शाया है। ईस्वी) में कलचुरि कला से सन्दभित है। भारतीय शिला जो कि भगवान के तीनों लोकों का स्वामी होने का प्रतीक लेखो एव शिलापटों के पारखी एवम् इससे सम्बन्धित है त्रिछत्र के दोनों प्रोर गजराज रूपी वाहनों में देवी-देवता सामग्री के अधिकारी विद्वान स्वर्गीय राय बहादुर होरा. गण पुष्प वृष्टि करते दर्शाये गये हैं । हाथियों एवं हाथियों लाल जी ने अपनी पुस्तक "इन्सक्रिप्संस इन सी.पी. एण्ड- पर प्रारूढ़ देवी देवताओं की वेशभूषा, भक्ति रस के अनुबरार" के ६६ पृष्ठ पर जो कि पराधीन भारत के १९३२ रूप एव भाव भंगिमाए ना केवल डोलती वरन् बोलती मे शासकीय मुद्रणालय नागपुर से मुद्रित है, में लखना- सी प्रतीत होती हैं प्रत्येक देवी-देवता के प्राभूषण, मुकुट, दोन से प्राप्त एक द्वार शिला खंड पर प्रकित अभिलेख कण्ठमाल, कर्धनी एवं अन्यादि अलकरणों का इतना सजीव का विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह व्यक्त किया है कि व स्पष्ट चित्रण है कि कलाकार की जितनी प्रशसा की इस क्षेत्र में मैन मन्दिर प्रवषय रहा है और उन्होने जाये, कम ही है । गजों तक की सूंड में कमल पुष्प लिए शिला खड पर उत्कीर्ण लेख की तिथि के अाधार पर भाव-भक्ति में दर्शाया गया है । त्रिछत्र के नीचे भामडल मन्दिर निर्माता को 'अमृतसेन' का प्रशिष्य एव त्रिवि- की सुन्दरतम् रचना है । मूर्ति के मुख-मण्डल पर मन्दा. 'क्रमसेन' का शिष्य बताया है और साथ ही यह बात भी स्मित सौम्य तपस्वी भाव देखते ही बनता है और एक बार कही है कि मन्दिर निर्माता का नाम लेख की तिथि के भी इस मलौकिक जिन प्रतिमा जी के दर्शन कर लेने पर अनुसार अदृश्य सा ही दृष्टिगोचर होता है। स्व० हीरा- भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के व्यक्ति के हृदय मे वीतराग Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२, पर्ब २५, कि०४ अनेकान्त पूजा के भाव उमड़ पड़ते हैं। तो पृथ्वी के गर्भ में सदियों से पड़ा। कोई प्रभाव ऐतिहासिक लखनादौन क्षेत्र में यह बात सर्वविदित है कि लखना अथवा पार्मिक स्थल भग्नावस्था मे मिल सकेगा । लखनादोन नगर एवम् मास-पास अनेकानेक प्रतिमाएं खण्डित दौन नगर से ही प्राप्त दो जिन प्रतिमाएं कलकत्ता एवम मखंडित प्रवशेष विभिन्न देवी-देवताओं की छबियां, तीर्थ नागपुर के संग्रहालय में प्रदान की जा चुकी हैं । चन्द्र कर मूर्तियों के मनोज्ञ विवादि दशाब्दियों से यहां के नाग. प्रभु भगवान् की एक प्रतिमा स्थानीय नागरिक श्री छेदी रिकों को प्राप्त होते रहे हैं और घर-घर कोई न कोई लाल के घर में एवम् अन्य खड़गासन प्रतिमा फुल्ल मेहरा पुरातत्व महत्व की सामग्री उपेक्षित सी दिखाई जाती के खेत से विगत दिनों उपलब्ध हुई है, अन्यत्र घरों में है। किन्ही-किन्हीं घर, दिवाल मथवा नीव तक मे प्रति ग्रामों में भी सैकड़ों की संख्या में ये प्रतिमाएं बिखरी सुन्दर मूर्तियाँ पत्थरों पर उत्कीणं महत्वपूर्ण कला-कृतिया पड़ी हैं और संरक्षण के प्रभाव में क्रमश: नष्ट प्रायः होती घर, मामलक, पाषाण खम्भे अथवा दरवाजे दिखाई देते जा रही हैं। हैं। पाये दिन देखे जाने वाले इन साक्ष्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि हजार बारह सो वर्ष पूर्व लखनादौन माज स्थापत्य कला के संरक्षण की बात शासन एव नगर जैन सस्कृति का कोई महत्वपूर्ण स्थान रहा है। समाज के मस्तिष्क में विशेष प्रभावशाली हो उठी है, सागर विश्व विद्यालय के प्राचीन इतिहास, सस्कृति तब ऐसी स्थिति में लखनादौन एव इमके पास-पास सर्व. एवं पुरातत्व के प्राचार्य एवम् अध्यक्ष डा. कृष्ण क्षण के द्वारा पुरातत्त्व के महत्त्व की सामग्री को प्रकाश में दत्त बाजपेयी ने गत दिनों लखनादौन एवम् प्रास- लाना नितान्त प्रावश्यक है। भगवान महावीर स्वामी पास प्राप्त पुरातत्व स्थलों का सूक्ष्म निरीक्षण के पच्चीस सौंवें निर्वाणोत्सव के कार्यक्रमों में एक कार्य किया था भोर यहा प्राप्त स्थलों के उत्खनन की महती इस क्षेत्र में पुरातत्त्व एवम् ऐतिहासिक पुनरुद्धार का भी मावश्यकता प्रतिपादित की थी। जोड़ा जा सकता है । शिल्प कला मानवीय विकास क्रम में अपना निज का मस्तित्व रखती है। कारण वह मानव जनधर्म के अन्तर्गत मूतियो एवम् मन्दिरो का निर्माण बोध को स्पर्श करती है । उसके चुने सस्कारों को सवाबहुतायत से होता रहा है-कभी-कभी तो इन सबको रती है। उसमें कला के प्रति कलात्मक सौन्दर्य का वपन देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि मनुयायियो ने अपनी कर स्वस्थ्य जीवन दृष्टि प्रदान करती है। उसमें प्रति सस्या से ज्यादा सख्या मे मूर्तियो एवम् मन्दिरो का भौतिकता के गाढ़े रगों को माध्यात्मिकता के रगों से निर्माण कराया होगा । जैन समाज मे माज पुरा- परिवर्तित कर सुख प्रद पात्म कल्याणकारी दर्शन प्रदान तत्व के प्रति जागरूकता प्रकट होती जा रही है और जो करती है-ऐसा दर्शन जो गहनतम् होते हुए भी जनकुछ इने-गिने लोग इसके हेतु प्रयत्नशील है, वे साधन बोष को स्पर्श करता हुपा होता है । अत: जीवन के इतने एवम् सकल्प के प्रभाव मे निष्क्रिय से हो जाते हैं । किसी महत्वपूर्ण पक्ष को उपेक्षा में रखना न्याय संगत ना होगा भी धर्म या समाज के लिए उसकी कला, साहित्य, विज्ञान विशेष कर जैन समाज जिनकी कि ये धरोहर हैं, का ही उत्तरदायी रहते हैं मोर इस दृष्टि से जैन समाज के दायित्व इस दिशा में बहुत अधिक बढ़ जाता है, किन्तु पास अपनी-अपनी जो "थाती है, वह यदि संवारी जाये खेद है कि भाज सम्पन्न जैन समाज भी जिस अनुपात तो मनूठी एवम् सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो सकती है। मेंस पर में इस पुरातन "याती" के प्रति कर्तव्य निष्ठ होना पाहिए, नहीं दीख पड़ती।माज की महती मावश्यकता लखनादौन एवम् पास-पास . ४०-५० मील के है कि जैन समाज इन प्रतिमानों को मानव जीवन हेतु क्षेत्र में भी पुरातत्व की सामग्री बहुतायत से उपलब्ध है उपादेयता को मात्मसात कर इनके संरक्षण एव सम्बर्धन पौर यदि उत्खनन के कार्य को सक्रिय बना दिया जावे की दिशा में क्रियाशील हो उठे। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि विनोदीलाल परमानन्द जैन शास्त्री यह वत्सदेशान्तर्गत सहजादपुर के निवासी थे, यह तेरी मुट्ठी में है, फिर क्यों दशों दिशाओं में दौड़ लगा नगर गंगा तट पर बसा हुमा था । इनकी जाति अग्रवाल रहा है। अपने स्वभाव को पोर देख, विवेक को जागृत कर मोर गोत्र गर्ग था। यह काष्ठासंध माथुरसघ पुष्करगण के ऐसा कार्य करो, जिससे अविचल सुख की प्राप्ति हो और भट्टारक कुमारसैन की माम्नाय के विद्वान थे, इनके फिर संसार में माना न हो। पिता का नाम दरिगहमल्ल था । परदादा का नाम मडन तू यह मयत न, काहे मढ गमावं । पौर दादा का नाम पारस था। दरिगह विद्वान थे पोर सासय सुखदायक सो तू एंदिन पावे।। कवि भी। इनके बनाए हए अनेक पद पोर जकड़ी मादि दंड न पावं पास तुमही, माप माप समावए । हैं जो स्व-पर सम्बोधक हैं । पर इनका बनाया हुआ कोई गुण-रतन मूठी माहि तेरी काई वह विशि धावए ।। ग्रंथ देखने में नहीं पाया । हाँ, जकड़ी में अपने को संबो. वह राज अविचल करहिं शिवपुर, फिर संसार न मावए। धित करते हुए कवि कहता है कि हे जियरा ! तू सुन, यों कहि वरिगह यह मणुय तन काहे मूत गमावए ।। तू सुन! तू तो तीन लोक का राजा है, तू घर-बार को इस कथन पर से दरिगहमल की कविता, उसकी छोड़कर अपने सहज स्वभाव का विचार कर, तूं परमें भाषा पोर भाव का सहज ही भाभास हो जाता है। वह क्यों राग कर रहा है? तुने मनादि काल से आत्मा उदासीन विद्वान थे और सेठ सुदर्शन के समान को पर समझा है पौर पर को प्रात्मा। इसी कारण विजयी और दृढ़ व्रती थे। उनका समय १७वीं शताब्दी चतुगंति में दुःख का पात्र बन रहा है, अब तू एक उपाय का पूर्वाद्ध है। इन्ही के पुत्र कवि विनोदीलाल थे। जो कर, सुगुणों का अवलम्बन कर, जिससे कर्म छीज जाय जैन सिद्धान्त के अच्छे विद्वान भोर कवि थे। मापकी -विनष्ट हो जाय । तू दर्शन ज्ञान चारित्रमय है मोर छह रचनाएं मिलती हैं, भक्तामर कथा सं० १७४७, त्रिभूवन का राव है। जैसा कि जकड़ी के निम्न पथ से सम्यक्त्व कौमुदी सं० १७४६, श्रीपाल विनोद (सिद्ध प्रकट है : चक्र कथा) सं० १७५०, राजुल पच्चीसी, नेमिनाथ व्याला सुन-सुन जियरा रे, तू त्रिभुवन का राव रे। और फूलमाल पच्चीसी। इनके अतिरिक्त अन्य रचनाएं भी दूसवि पर भाव रे, चेतसि सहज सुभाव रे॥ मम्वेषणीय हैं। राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों की सूची के चेतसि सहन सुभावरे बियरा, परसों मिलि क्या राब रहे। पांचवें भाग से विनोदीलाल की दो रचनामों का पौर माया परनाम्या पर पप्पाना, पगासप्रणा सहे। पता चलता है, नवमंगल और बारहमासा । अब सो गुन कीजे कहि छीजे, सुणहन एक उपारे। कवि विनोदीलाल ने 'भक्तामर कथा' की रचना सं. सण-णाण-चरण मयरे जिय, त्रिभुवन का राव॥ १७४७ में सावन सुदी दोइज के दिन की है। उसमें इससे पता चलता है किकवि दरिगहमन की कविता भक्तामर स्तोत्र के उन मंत्र-साधकों की कथा दी है जिन्हें धार्मिक होते हुए भी सरस भोर भावपूर्ण तथा स्व-पर उसका फल प्राप्त हुमा है । दूसरी रचना सम्यक्त्व कौमुदी सम्बोधक है। जकड़ी के अन्य एक पत्र में बतलाया है है, जिस में सम्यक्त्व की उत्पादक कथामों को पचों में कि हे मूक तू मानव जन्म को व्यर्थ न गा, इसी कारण अंकित किया है। उसे कवि ने स. १७४६ में बनाकर तु शाश्वत सुख को नहीं ढूंढ़ पा रहा है। गुण रूपी रल समाप्त किया था। तीसरी रचना 'श्रीपाल विनोद (सिद्ध Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४२१ कि.. पनेकान चक्र कथा) है। यह रचना संस्कृत का पचानुवाद मात्र ता पर वरष षिक रश गए, हम सत्तरा बहत्तर भए। है । शिर भी सरस है। पौर दोहा, चोपाई सोरठा, बुद्धि बुद्धि बालक सम माहि, बूढो बारे सब कहि ताहि । अदिल्ल मादि छन्दों के १३५४ पचों में रखा गया है। ता पर लाल विनोदी बाऊ, भोग बेत में बहुत लगाउं । उसको प्रशस्ति में कवि ने अपना परिचय अंकित करते . कोविद लोग हंसंगे मोहि, तातै कविजन विनउं तोहि ।३४ हुए लिखा है कि अब मेरा तीसरापन मा गया है उसमें जाति वानिये मगरवार, गोत पठारह में सरवार । बुद्धि कहां तक स्थिर रह सकती है ? 'साठे को नाठा' गर्ग गोत अदुवंश प्रधान, मनरव चुल मुझ मल्लि महान । सभी कहते हैं। इस तरह . पेरी उम्र सत्तर वर्ष की हो परदादे को मउन नाम, कुल मंडन हमो सो धाम । गई है। प्रशस्ति में अपना परिचर अंकित किया है। दादो पारस तासु समान, यथा नाम वैसो गुण जान ॥३६ उसमें प्रथ के रचना काल प्रादि पर प्रकाश पड़ता है। बरगहमल्ल तात मुझ तनों, शील शिरोमनि सुदर्शन मनो। जिसे कवि ने सं० १७५० मे पोरगजेब के राज्य काल में ताको अनुज विनोदीलाल, में यह रचना रचो विशाल ।३७ बना कर समाप्त किया है। वह प्रथस्ति इस प्रकार है :संवत सत्रह से पंचास, रोज उवारी पाहण मास । संवत सत्रह से पंचास, वेज उजारी अंगहन मास । रविवासर पाई शुभधरी, ता बिमा सम्परमहरी।२० रवि वासर पाई शुभधरी, ता दिन कया संपूरन भई॥ करी चोपाई बनाय, विपिडा मिलाय। चौथी रचना राजुलपच्चीसी है, जिसमें नेमिनाथ कहूं पडिल्ल सोरठा परेपभिशय बोट बिस्तरे ॥२१ पौर राजमति का वर्णन है। पांचवीं रचना 'नेमिनाथ या विषिसों रचना विस्तरी, संस्काकी मैं भाषा करो। व्याहला' है, जो कवि की छोटी-सी सरस कृति है। इसमें मैं अपनी मति कीनी नाहि,पंप पुरातन भाषी छांह ॥२२ नेमिनाय की बरात का चित्रण किया गया है। पशुनवरंग शाह वली राज, पालमगीर साहि शिरतान। पक्षियों को बाड़े में बन्द देखकर और उनकी करुण पुकार पालमगीर कहावे सोह, बाहि लाब पालम की होह।२३ सुनकर हिंसा से भयभीत हो वैराग्य ग्रहण किया। और बीन वार बिल्मीपति साहि, ताकी उपमा बाहि। भौतिक सुखों का परित्याग कर मानव कल्याण के लिए पैगम्बर सम जग में भयो, केरसमामि उपाधियों गयो।२४ उनका तपस्या के लिए चला जाना सच्चा पुरुषार्थ है । कवि राजनीति जा के सब होप, माफिक सेर कही है सोह। ने वर की वेष-भूषा का वर्णन निम्न पद्य में किया है :ऐसो भयो म हो है और, पाति साहि सहित सिरमोर।२५ मौर परो सिर दुलह के कर कंकण बंध वई कस डोरी। भयो चकत्ता वंश उद्योत, साह प्रकम्बर को पर पोत। कंडल कानन में झलके प्रतिभाल में लाल विराजति रोरी जहांगीर को पोतावली, साहिजहां सुत प्रगट्यो बली।२६ मोतिन की लड़ शोभित है छवि देखि लज वनिता सब गोरी नाम-जास को नौरंग साहि, मोर साहि सब जाहि। 'लालविनोदी' के साहिब के मुख देखनको दुनिया उठ बोरी ताको कविजन देह प्रसीस, दिन-दिन तेज बजगदीशा२७ नेमिनाथ की विरक्तिका चित्रण निम्न पदो में क्रिया हैजाके राम महा सुख पाय, कीनी कथा विचित्र बनाय। नेमि उदास भये जब से कर जोड़ के सिद्ध का नाम लियो है नाम कथा सिरिपाल विनोद, पढ़त सुनत सब होय प्रमोद। अम्बर भूषण शर दिये शिर मोर उतारि के डार वियो है . सिलवक व्रत की यह कपा, कोनी मैं मतिसाया । प धरो मुनि का जबही तवही चदिके गिरिनारि गयो है जो सुबुद्धि उपजी कुछ मोह, तंसी वरन सुमाई तोह ॥२६ 'लाल विनोदो' के साहिब ने तहां पंच महावत योग लयो है छंद भंग प्रक्षर होय, ताहि सम्मारि सुकवि जन लोय। छठी रचना फूलमाल पच्चीसी है, जिसमें २६ पद्य है। तुमको हो है पुण्य पार, शुद्ध प्रगट संसार ३० सातवीं रचना नेमिनाथ बारहमासा है, सूचियों में तातै तुमसौं विनती करों, बार-बार तुम पाान परी। अनेक पंद भी मापके बताये हुए हैं, मिलते हैं, पर वे मेरे जो नहि चूक सम्वार जानि, ताको भी बिनवर को मानि देखने में नहीं माये । मापकी सभी रचनाएं सम्बोधक पौर तीसरो पन मेरो भयो माय, तातेंवृद्धिकहां ठहराय। सुरुचिपूर्ण हैं । कवि की अन्य रचनाए मम्वेषणीय है। साठो बुद्धि नाठो सब कहे, वाकवत सबबग में पह।३२ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार द्वारा स्वीकृत परमाणु का स्वरूप : एक अध्ययन सनमत कुमार जैन, एम. ए. तत्त्वार्थाषिगम भाष्यकार द्वारा स्वीकृत परमाणु के परन्तु परमाणु में शब्द धादि नहीं होते प्रतएव तत्त्वार्थस्वरूप का अध्ययन करने से पूर्व जैन दर्शन माम्य पर- सूत्रकार को पुद्गल का स्वरूप दो सूत्रो में सूत्रित करना माणु का सैद्धान्तिक स्वरूप सार रूप में समझ लेना पड़ा। चाहिए। प्रब तत्त्वार्थ-भाष्यकार द्वारा परमाणु विवेचना पर (१) परमाणु पुद्गल का शुद्ध द्रव्य है। यह एक दृष्टिपात किया जावे-इन्होने परमाणु को बन्धन रहित प्रदेशी है। यदि परमाणु को कम से कम एक प्रदेश वाला बतलाया है जो उचित ही है। क्योंकि यदि परमाणु को नहीं माना जाता तो इसका प्रभाव हो जाता फलतः बन्धन सहित माना जावे तो वह परमाणु नही हो सकता, संसार की सारी प्रक्रिया ही समाप्त हो जाती। वह स्कन्ध कहलाने लगेगा। (२) परमाणु प्रत्यन्त सूक्ष्म है । सर्वार्थसिद्धिकार ने इसके साथ ही माथ माष्य में इन्होने एक कारिका मस्ख को दो रूपों में विभाजित किया है-एक प्रापे- 'उक्तञ्च" करके उद्धृत की है जो कि हरिभद्र सूरि के क्षिक सूक्ष्मत्व प्रौर दूसरा अन्त्य सूक्ष्मत्व, प्रापेक्षिक सूक्मत्व प्रसार किसी धाय को कमतर्गत बेल, पावला पोर बेर को उदाहरण बनाया है विवाद तथा उलझने मस्तिष्क में बहुत समय से उलझ क्योंकि बाद वाला पूर्व वाले से सूक्ष्म है तथा प्रात्य सूक्ष्मत्व रही हैं। भागे की विवेचना करने से पूर्व ही बता देना के अन्तगत परमाणु का लिया ह' क्याकि परमाणु पुषमता चाहता है कि श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थाधिगम मूत्रकी वह स्थिति है, जिससे अन्य कोई सूक्ष्म नही। इस कार तथा भाष्यकार एक ही व्यक्ति माने गये है जबकि प्रकार परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होने से स्वय मादि है, स्वयं दिगम्बर परम्परा यह मानने को तैयार नहीं है। कारिका मध्य है और स्वय अम्त है। प्रादि, मध्य प्रौर पन्त को पर गहन दृष्टि डालने के उपरान्त निष्कर्ष यही निकलता स्थिति उसके एक प्रदेश में ही विलय हो गई है। कि सत्रकार और भाष्यकार नटी (३) परमाणु में स्पर्श, रस, गन्ध पौर वर्ण होते हैं, कारिका के अनुसार परमाणु का स्वरूप इस प्रकार शब्द बन्धादि नहीं । शब्द बन्धादि वाला तो स्कन्ध होता बनता है-(१) परमाणु कारण ही होता है, (२) वह है। तो क्या स्कन्ध में स्पर्शादि नहीं होते ? होते हैं। मन्तिम होता है, (३) वह सूक्ष्म होता है, (४) वह नित्य १. प्रदेशमात्रमा विस्पर्शादिपर्यायप्रसवसामयेंनाण्यन्ते होता है, (५) वह एक गन्ध, एक रस, एक वर्ण और दो स्पर्श वाला होता है, (६) वह कार्य लिंग होता है मर्थात् शब्द्यन्त इत्यणव: स. सि. ५२२५ कार्य के द्वारा अनुमित होता है। २. सौषम्यं द्विविधं, अन्त्यमापेक्षिक च। तत्रात्यं पर. . माणुनाम् । प्रापेक्षिक विल्वामलकवदरादीनाम् ।" ५. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ५॥२३, स. सि. १२४ शब्दबन्ध...५२४ ३. न ह्मणोरल्पीयानन्योऽस्ति" वही श२५ ६. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । ४. अत्तादि अत्तमझ प्रत्तंत व इंदिये गेज्झ । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्य लिङ्गश्च ॥ जं दब अविभागी तं परमाणु विप्राणाहि ।। त. भा.५२२५ उद्धत स. सि. ५२२५, नियम सा. गा. २६ ७.त. भा. की हरिभद्रमूरि रचित टीका ५।२५ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "शिवपुरी में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा" सन्मत कुमार जैन एम. ए. मध्य प्रदेश के ग्वालियर संभाग का एक प्रसिद्ध जिला वर्षावधि में मनाये जाने वाले 'भगवान महावीर का 'शिवपरी' प्राचीन नगर है। इसका प्राचीन नाम 'सीपरी' २५००वा निर्वाणोत्सव' के सम्दर्भ में नमी 7 m. है। स्व. माधवराज सिन्धिया ने इसे शिवपुरी का नाम तीय रूप है। जिनालय में मलनायक भगवान महावीर विद्या शिवपुरी और उसके पास-पास के कोलारस की ममोश एवं हृदयहारिणी विशाल प्रतिमा स्थापित की प्रादि स्थान जैन संस्कृति के केन्द्र रहे हैं। प्राज भी है । प्रघखुले नेत्र, नासा दृष्टि, पद्मासन प्रतिमा किस सहृदय सामादि स्थानों में १२वी और १३वीं शताब्दी की को अपनी पोर सहज प्राकृष्ट नहीं कर लेगी ! उत्सव मे मातियो विद्यमान है। उन स्थानों में 'पाणाशाह' की इसी प्रतिबिम्ब की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हो रही है। धार्मिक वृत्ति का परिचय मिलता है। वर्तमान में यहाँ प्रकृति को सुरम्य स्थली मे स्थित विस्तृत जिनालय के जिलाधीश ने एक 'पुरातत्व सांस्कृतिक म्यूजियम' को अत्यन्त सुन्दर है । उस जिनालय के सामने मनुष्यों के मान माना की जिसमे जन मौर जनेतर प्राचीन कला- रोग को हरण करने वाला मानस्तम्भ बनाया गया है। हतियों को स्थापित किया गया है, जो दर्शनीय है । इस वस्तुतः जिनेन्द्र भगवान का सान्निध्य ही उस स्तम्भ में प्रकार वैदिक मोर जैन संस्कृति के यहां विपुल स्थल मान रोग को art मान रोग को हरण करने की शक्ति प्रदान करता है। विमान । शिवपूरी प्रतीत की गौरवमयी गाथाओं को सजीव प्रतिमा की शक्ति ही मानियों के दम्भ को मोम अपने हृदय में संजोये हुए बैठी है। पर्यटकों का मन की तरह पिघला देती है। मन्दिर में मानस्तम्भ बनाने मानस इसके प्राचीन पोर कलात्मक दृश्यों का अवलोकन की परम्परा दक्षिण भारत की है अब उत्तर भारत में भी कर झम उठता है और तीर्थयात्रियों का मस्तक श्रद्धा से उसी परम्परा का अनुसरण होने लगा है। इसके पतिविनत हो जाता है। रिक्त प्रवचन मण्डप, स्वाध्याय कक्ष, छात्रावास, बाल इसी शिवपुरी के इतिहास में कई सौ वर्ष बाद एक पाठशाला और एक विश्रान्ति गृह इस बात का प्रतीक है सांस्कृतिक महोत्सव होने जा रहा है । कब ? माघ शुक्ला कि निर्माणकर्ता की दृष्टि प्रत्यन्त उदार और विवेक पूर्ण १ से १३, विक्रम सं० २०२६, वीर निर्वाण सं० २४६६, है, साथ ही साथ यदि एक नि:शुल्क पोषधालय का भी दिनांक ११ से १५ फरवरी १९७३ को। जिस उत्सव कक्ष बन जाता तो कहना ही क्या था। का नाम संस्कार 'श्रीजिनेन्द्र पञ्चकल्याणक बिम्ब प्रतिष्ठा माज के इस भौतिक युग में अपना नाम और यश महोत्सव' किया गया है। कौन नहीं चाहता। परन्तु अपने को मनाम मोर प्रज्ञात १८वीं शताब्दी के प्रारम्भ में शिवपुरी वाणगंगा के रखने की इच्छा वाले, शिवपुरी के जाने-माने सम्पन्न निकट मोहनदास खण्डेलवाल ने श्री पार्श्वनाथ प्रादि २४ विचारक श्री नेमीचन्द्र जी गोंद वाले तथा उनके परिवार तीर्थकरों तथा महादेव विश्वनाथ की मूर्तियों को स्थापित वालों ने उक्त जिनालय आदि का निर्माण कराया है जो कर प्रतिष्ठा करवायी थी, यह भी एक महान कार्य है उनकी माथिक उदारता का परिचायक है । अब उन्ही के जिसमें जैन तथा जनेतरों दोनों को समान दृष्टि से देखा द्वारा प्रतिष्ठा कार्य होने जा रहा है, इसके साथ ही साथ गया है जिसके कारण उसे सिंघई पदवी से उल्लिखित विद्वत्परिषद् मादि सस्थानों के अधिवेशन भी सम्पन्न होगे। किया गया है। १८वीं शताब्दीके सिंघई मोहनदास खण्डेलवालके बाद पंचकल्याणक महोत्सव तो समय-समय पर होते ही २०वीं शताब्दी के नेमीचन्द्र गोंद वालों ने जो कार्य किया रहते हैं परन्तु अन्य पंचकल्याणक महोत्सवों से इसकी कुछ है वह शिवपुरी के इतिहास में पुनर्जागृति का प्रतीक है। भिन्नता तथा विशेषता है। बनने वाला नव्य-भव्य जिना पाठकों के लिये शिवपुरी और उसके मास-पास के लय 'श्री महावीर-जिनालय' के नाम से बना है मोर जो प्रदेशों में विखरी हई जैन संस्कृति के अवशेषों को भी मागामी १३ नवम्बर १९७४ से १५ नवम्बर १९७५ की देखने का सुमवर मिलेगा। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावागिरि-ऊन श्री बलभद्र जैन · क्षेत्र की अवस्थिति-श्री पावागिरि सिद्ध क्षेत्र है। यह मध्य प्रदेश के जिला खरगोन में ऊन नामक स्थान से दो फलाँग पर स्थित है। ऊन एक छोटा सा कस्बा है जिसकी प्राबादी लगभग २००० है । यहाँ पर पोस्ट ग्राफिस पुलिस थाना, दवाखाना, माध्यमिक स्कूल धादि हैं । यहाँ माने के लिए खण्डवा १०४ कि० मी०, इन्दौर १५४ कि० मी०, सनावद ८३ कि० मी० और महू १३१ कि०मी० निकटवर्ती रेलवे स्टेशन है। खण्डवा पोर सनावद होकर पाने वाले यात्रियों को खरगोन होकर मोर इन्दौर या महू से श्राने वाले यात्रियों को जुलवान्या होकर वस द्वारा ऊन उतरना पड़ता है । खरगोन यहाँ से केवल ६८ कि० मी० है । खरगोन से जुलवान्या जाने वाली सड़क पर किनारे ही दिगम्बर जैन धर्मशालाब हुई है। धर्मशाला के पावागिरि सिद्धक्षेत्र केवल दो फर्लांग दूर है। सिद्धक्षेत्र पावागिरि के पूर्व भाग में पिकड़ नदी बहती है, पश्चिम में कमल तलाई (तालाब) है। इसमें कमल के फूल खिलते हैं। उत्तर में ऊन ग्राम है । दक्षिण दिशा में एक कुण्ड बना है, जिसे नारायण कुण्ड कहा जाता है। वैष्णव लोग इसे तीर्थं मानते हैं । इस क्षेत्र के पश्चिम में सगिरि बावनगजा जी घोर उत्तर में सिद्धवरकूट क्षेत्र है । सिद्धक्षेत्र प्राकृत निर्वाणकाण्ड में इस क्षेत्र के सम्बन्ध में इस प्रकार उल्लेख है :पावागिरिवर सिहरे भद्दा मुनिवरा पढ चलणाईतडग्गे मियाण गया णमो तेखि ||१३|| ॥१३॥ अर्थात् पावागिरि के शिखर पर चलना नदी के तट पर सुवर्णभद्र प्रावि चार मुनीश्वर निर्वाण को प्राप्त हुए । इस गाथा के अनुसार यह सिद्धक्षेत्र चलना नदी के तट पर अवस्थित था। संस्कृत निर्वाण भक्ति में नदी का - नाम न देकर केवल इतना ही उल्लेख कर दिया है'नद्यास्तटे जितरिपुश्च सुवर्णभद्रः' अर्थात् कर्म शत्रुओं को जीतने वाले सुवर्णभद्र नदी के तट पर मुक्त हुए । निर्वाण काण्ड में पावागिरि दो बताये हैं। उपर्युक्त पावागिरि के अतिरिक्त भी एक प्रौर पावागिरि है, जहां से राम के दो पुत्र भोर लाट नरेन्द्र श्रादि पाँच करोड़ मुनि मुक्त हुए। यह पागिरि बौदा ४५ कि०मी० दूर चापानेर के पास है और इसे पावागढ़ कहा जाता है। क्योंकि यहां बहुत विशाल पहाड़ी किला है । इस किले के कारण पावा को पावगढ़ कहने लगे हैं । चलना नदी कौन सी है, इस विषय में विवाद है । जिन्होंने ऊन के निकट पावागिरि की स्थिति मानी है, वे ऊन के निकट बहने वाली चिरुड़ को ही चलना नदी मानते हैं। उनके मत से खेलना का पेटक, चेटक का चिरट, चिरट का विरूढ़ हो गया। उनके निकट पायानिरि मानने का एक तर्क यह दिया जाता है : 'निर्वाण काण्ड में निमान स्थित सिद्धक्षेत्रों की वंदना का क्रम इस प्रकार है- (१) रेवा नदी के दोनों तटों के मुक्त होने वाले रावण के पुत्र घोर साढ़े पांच कोटि मुनियो की निर्वाण स्थली । (२) रेवा नदी के तट पर पश्चिम दिशा में सिद्धवरकूट क्षेत्र जहाँ से दो की दस कामकुमार और साढ़े तीन करोड़ मुनियों ने मुक्ति लाभ किया । (३) बड़वानी नगर के दक्षिण मे चूलगिरि के शिखर से इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण मुक्त हुए। ( ४ ) चलना नदी के तट पर पावागिरि के शिखर पर सुवर्णभद्र पादि चार मुनियों को निर्वाण हुआ । उपर्युक्त क्रम में सिद्धवरकूट बड़वानी फिर पानागिरि है। इस क्रम से यह संगति बैठाई गई है कि ये दोनों तीर्थ निकटवर्ती है। इसलिए पावागिरि बढ़वानी Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००, २५, कि.५ अनेकान्त नगर के निकट होना चाहिए। इस स्थान के अतिरिक्त उत्खनन में प्राप्त हुए थे। प्रतः यह निश्चय किया गया अन्य कोई स्थान नहीं है, जिसे पावागिरि क्षेत्र माना जा कि परण-चिन्ह सिद्धक्षेत्र पर विराजमान होते थे। अत: सके। ऊन के निकट प्राचीन मन्दिर और मूर्तियां मिली यह स्थान सिद्धक्षेत्र होना चाहिए । यह सिद्धक्षेत्र पावा. हैं, जिनका काल ईसवी सन् की ११-१२वीं शताब्दी तक गिरि हो सकता है, जिसका उल्लेख निर्वाण काण्ड में है। वहीं प्राचीन चरण चिन्ह भी उपलब्ध हैए हैं । सिद्ध किया गया है। क्षेत्रों पर चरण चिन्ह विराजमान करने की परम्परा रही कुछ दिनों पश्चात् अपने इस निर्णय की पुष्टि इन्दौर है। इन सब तर्कसंगत कारणों से ऊन के निकटवर्ती स्थान मादि कई स्थानों के विद्वानों को ऊन बुलाकर उनसे करा को पावागिरि सिद्धक्षेत्र मानना सुसंगत है।" ली गई और इस स्थान को पावागिरि सिद्ध क्षेत्र घोषित उत्खनन द्वारा जन मतियों की प्राप्ति-बात उन कर दिया गया। दिनों की है जब ऊन में प्राचीन जैन मन्दिर जीर्ण-शीर्ण सरकार द्वारा जैन समाज को अधिकार-ऊन में दशा में खड़े हुए थे, तब तक इसकी प्रसिद्धि तीर्थ क्षेत्र पावागिरि सिद्धक्षेत्र की स्थापना और उसका उद्घाटन के रूप में नहीं हुई थी और यहां कोई यात्री नहीं माता कर दिया गया । किन्तु मन्दिर, मूर्तियों पर सरकार का था । यहाँ के जीर्ण मंदिर और मन्दिरों के भग्नावशेष तत्का- अधिकार था। प्रतः अधिकार प्राप्ति के लिए सर सेठ लीन होल्कर रियासत के पुरातत्व विभाग के अधिकार में हुकमचन्द्र जी ने तत्कालीन होल्कर रियासत के महाथे। उन दिनों सेठ मोहीलाल जी वड़वानीऔर सेठ हरसुख राज श्री यशवन्त होल्कर की सेवा में प्रार्थना-पत्र दिया जी सुसारी ने सागर निवासी श्री चेतनलाल पुजारी को मौर यह क्षेत्र दिगम्बर जैन समाज को देने का अनुरोध ऊन के मन्दिरों के प्रक्षाल-पूजन और सफाई के लिए किया। काफी प्रयत्नो के पश्चात् हुजूर श्री शंकर के नियुक्त किया। कुछ समय के बाद प्राषाढ वदी ८ संवत् प्रादेश न० २६४ दिनांक २६८।३५ के अनुसार सर सेठ १९९१ को पुजारी को एक अद्भुत स्वप्न माया । स्वप्न साहब को अधिकार पत्र प्राप्त हुमा, जिसके अनुसार में उनसे कोई कह रहा था-'अमुक स्थान पर जिनेन्द्र दिगम्बर जैन समाज को यह अधिकार प्रदान किया गया भगवान की मूर्तियाँ हैं, तुम उनको खोदो तो दर्शन . कि उन में नई खोजी हुई मूर्तियों पर उसका प्रषिहोगा।' कार रहेगा, ऊन के ग्वालेश्वर मन्दिर में इन्हें विराजमान प्रातःकाल नियमानुसार पुजारी मन्दिर मे प्रक्षाल- किया जा सकता है और अपने व्यय से दिगम्बर जैन पूजा के लिए गया। उससे निवृत्त होने पर जब वह मन्दिर का जीर्णोद्धार करा सकती है । बशर्ते (१) जीर्णोवापिस पाने लगा, तब उसे रात्रि में देखे हुए स्वप्न का स्मरण द्वार का कार्य इन्दौर म्यूजियम के क्यूरेटर के परामर्श से हो पाया। खण्डहरों के बीच में स्वप्न में देखा हुमा स्थान से किया जाय, जिससे इस प्राचीन स्मारक का पूराता. उसे दीख पड़ा । उसने उस स्थान से कुछ मिट्टी हटाई त्विक महत्व प्रौर कलात्मक वैशिष्ट्य नष्ट न हो । (२) ही थी कि मूर्ति का सिर दिखाई पड़ा । तब उत्साहित मूर्तियां ऊन से अन्यत्र नही ले जाई जायेंगी। (३) ऊन होकर मजदूरों से उस स्थान को खुदवाया । फलतः भग- के प्राचीन स्सारकों का स्वमित्व सरकार का होगा।' वान् महावीर को एक सुन्दर प्रतिमा निकली। इसके मतिरिक्त चरण चिन्ह और चार अन्य तीर्थकरी की मूर्तियां 1. From, 1/C. Curator निकलीं। पुजारी ने ये सब मूर्तियां अपनी कुटिया में रख The Museum लीं और यह समाचार निकटवर्ती नगरों में भिजवा दिया। Indore समाचार मिलते ही सुसारी, बड़वानी, लोनारा प्रादि To, St. Seth Harsukhlalji, स्थानों अनेक प्रतिष्ठित सज्जन पधारे । उन्होंने भाकर Leader Digamber Jain Community मूतियों का प्रक्षाल मौर पूजन किया। चरण-चिन्ह भी Susari Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावागिरि-ऊन २०१ Sir. Dated the 4th October 1935 ऊन के राजा बल्लाल के पेट में एक सपिणी चली गई। धीरे-धीरे वह वहां बड़ी हो गई। इसके कारण I have the honour to inform you that His राजा को असह्य वेदना होती थी। उसने अनेक उपचार Highness the Maharaja in Huzur Shree Shankar Order No. 294 Dated 29 8 35 has कराये, किन्तु कोई लाभ नहीं हुमा । तब जीवन से निराश been pleased to order that the Digamber Jain होकर वह गंगा में डूबने के लिए बनारस को चल दिया। Community may be allowed - उसकी रानी उसके साथ थी। एक रात एक साप पाया। i to retain the newly discovered images at और उदरस्थ सपिणी मे वार्तालाप करने लगा । सांप ने Oon. 2. to instal them in the temple of Gwalesh नागिन से पूछा-'अगर राजा को यह ज्ञात हो जाय war at Oon, and कि पानी में बुझाया हुआ चूना खा लेने से तेरा अन्त to repair the temple of Gwaleshwar at हो सकता है तो तेरा जीना सम्भव हो जाय। नागिन their own cost in case they agree to the बोली-'मगर राजा को यह पता चल जाय कि तेरे बिल alat-'ont zit following conditions. मे गरम तेल डालने से तू मर सकता है तो उसे अपार (a) The repairs will be done in consultation with the curator, the Museum, घन मिल जायगा, जिसकी रक्षा तू बराबर करता रहता Indore, so as not to injure the Archaeological importance and artistic रानी ने नाग-नागिन का यह वार्तालाप सुन लिया merit of this ancient monument. (b) The images will never be removed पौर प्रात:काल होने पर राजा को कह सुनाया । राजा from Oon, and ने वैसा ही किया। कुछ चूना खा लिया, जिससे पेट की (c) The Government will continue to नागिन मर गई और उसकी पीड़ा दूर हो गई और उस remain the owner of the ancient सर्प के बिल का पता लगा कर उसमें गर्म तेल डाल दिया monuments at Oon. जिससे सांप मर गया और राजा को विपुल धन-राशि की I am, therefore, to request you kindly to प्राप्ति हुई । धन पाकर उसने १०० मन्दिरों, १०० सरोlet me know when you propose to commence the work of repairs to the Gwaleshwar temple. वरो और १०० कुनों के निर्माण की प्रतिज्ञा की। किन्तु It is further requested that details of the कुएं, सरोवर और मन्दिर प्रत्येक ६६ ही बन पाये। works you propose to undertake and the name and the name प्रत्येक में एक की कमी (ऊन) रहने से इस स्थान का and the full address of the person who will नाम ही 'ऊन' पड़ गया। supervise the works of repairs and the person in whose name further correspondence in this ऊन का ऐतिहासिक महत्व-ऊन का शासक वल्लाल connection may be carried on, may kindly be किस वंश से सम्बन्धित था, इस विषय मे 'इतिहासकारों" communicated to me at an early date. में कुछ मतभेद पाया जाता है। एक मत है कि उन में I have the honour to be मन्दिरों का निर्माता होयसल वंशी वल्लाल द्वितीय था। Your most obedient servant यह नरसिंह देव का पुत्र था। इसका शासन काल सन् V. Singh ११७३ से १२२० तक था। होयसल वंश में विनयादित्य I/C Curator & the Museum, Indore का पुत्र एरेयंग हुमा था, जो चालुक्य राजा का सामन्त कन नाम : एक किम्बदन्ती-इस स्थान का नाम ऊन था तथा जिसने मालवराज को राजधानी धारा नगरी पर क्यों पड़ा? इस सम्बन्ध में एक किंवदन्ती बह प्रचलित है, प्राक्रमण करके उसका विध्वंस किया था। इस घटना से यह जिसका उल्लेख 'दी इन्दौर स्टैट गजेटियर जि.१० अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि एरेयंग की चौथी पीढ़ी में ६६७' पर इस प्रकार किया गया है होने वाला बल्लाल द्वितीय मालवा का शासक रहा होगा। Sir Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२, वर्ष २५, कि०५ अनेकान्त वही वल्लाल वाराणसी की गंगा में प्राण विसर्जन के लिए सकती है, ऐसा विश्वास किया जाता है । इन्हीं की रचमा जाता हुमा जब इस स्थान (ऊस) पर ठहरा होगा, जिसका को माधार बनाकर सोमतिलक सूरि ने विक्रम की चौदसंकेत किंवदन्ती में है। तब इस होयसल वशी वल्लाल हवीं शताब्दी के अन्तिम चरण मे 'कुमार पाल चरित' द्वितीय ने ऊन में मन्दिरों का निर्माण कराया होगा। की रचना की थी। दूसरा मत 'पज्जुण्ण चरिय' (प्रद्युम्न चरित) की इन प्राचार्यों के इन ग्रन्थों से बल्लाल तथा तत्कालीन प्रशस्ति में प्रतिपादित है। इस ग्रन्थ के कर्ता सिद्ध पौर राजाप्रो के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । सिंह कवि हैं। इसका रचना काल अनुमानतः बारहवीं शताब्दी का मध्य काल है। इसमें बताया है कि वम्हण कुमार पाल जब गद्दी पर बैठा, उस समय चौलुक्य वाड नामक नगर मे अनेक मठ, मन्दिर और जिनालय वंश का राज्य विस्तार सुदूर प्रांतों मे था । उसका मन्त्री थे। वहाँ का शासक रणधोरी का पुत्र वल्लाल था, अर्णो- उदयन था । उदयन का तीसरा पुत्र चाहड बड़ा साहसी राज का क्षय करने के लिए वह कानस्वरूप था। उसका समरवीर था। जब राजकुमार पाल अपने राज्य की व्यवभृत्य गुहिलवंशीय भुल्लण था। स्था में लगा हुना था, तब किसी कारण वश चाहड़ कुमार अर्णोराज सपादलक्ष (सांभर) का राजा था। उक्त पाल से असंतुष्ट होकर शांकभरी नरेश अर्णोराज प्रशस्ति मे रणधोरी के पुत्र बल्लाल को अर्णोराज से जा मिला । अर्णोराज के साथ कुमारपाल का क्षय करने के लिए कालस्वरूप बताया है। किन्तु अन्य की बहन देवल देवी का विवाह हुअा था किन्तु अोसाक्ष्यों से यह सिद्ध होता है कि अर्णोराज का संहार राज कुमारपाल के विरुद्ध हो गया था । चाहड़ की फूटचौलुक्य वंशी कुमारपाल ने किया था। इससे लगता है नीति से मालव राज बल्लाल भी कुमारपाल के विरुद्ध कि वल्लाल ने किसी युद्ध में अणोराज को पराजित किया इस गुट मे आ मिला। जब कुमारपाल अणोराज होगा किन्तु बाद मे उन दोनों की मित्रता हो गई होगी के उपर चढाई करने के लिए चला तो चन्द्रावती (माबू पौर उन दोनों को कुमारपाल ने पराजित किया । के निकटस्थ ) के राजा विक्रमसिंह ने कुमारपाल की अभ्य र्थना करके भोजन का निमन्त्रण दिया किन्तु चतुर कुमार इस प्रशस्ति से यह भी स्पष्ट ज्ञात नहीं होता कि पाल उसकी कपट योजना को भांप गया । वास्तव में रणधोरी का पुत्र बल्लाल क्या मालवराज वल्लान था विक्रमसिंह ने लाख का एक महल बनवाया था। वह अथवा निमाड का कोई राजा था। किन्तु विवार करने कुमार पाल को मारना चाहता था। कुमारपाल उस समय पर यह वल्नान मालवराज प्रतीत होता है। कुमारपाल वहाँ से शत्रु से युद्ध करने चला गया । उसने अर्णोराज ने जिम वल्लाल को युद्ध में मरवाया था, वह वही पर प्रबल पाक्रमण करके उसे शरणागत बनने को बाध्य वल्लाल था। जिसने ऊत मे ६६ मन्दिरों का निर्माण किया। लौटते हुए उसने विक्रमसिंह पर प्राक्रमण किया कराया था और जो मालवा का स्वामी था। और उसे पिंजड़े मे बन्द करके अपने साथ अपनी राजप्राचार्य सोमप्रभ ने 'कुमारपाल प्रबोध नामक ग्रंथ धानी ले गया। वल्लाल के उपर माक्रमण करने के लिए ६,००० श्लोक परिमाण लिखा था । इस ग्रन्थ की रचना माने विश्वस्त सेनाध्यक्ष काकभर की सेनाध्यक्षता में एक सं० १२४१ में की गई अर्थात् महाराज कुमारपाल की विशाल सेना भेजी। सेनापति ने मालव नरेश का सिर मृत्यु के ११ वर्ष बाद इस प्रन्य की रचना की गई । सोम- काट कर कुमारपाल की विजय पताका उज्जयिनी के रोजप्रभाचार्य महाराज कुमारपाल के समकालीन थे और महलों पर फहरा दी। इस प्रकार गुजरात के पड़ोसी और उन्होंने महाराज को उपदेश भी दिया था। इसलिए प्रतिस्पर्डी तीन राज्यों को एक साथ गुजरात के मातहत इनकी रचना में ऐतिय सामग्री विशेष प्रामाणिक हो कर लिया। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावागिरि-कन २०३ मन्त्री तेजपाल के माबू स्थित लणवसति' के लेख मे ऊन के एक शिव मन्दिर मे एक शिलालेख है। उस ब का है-मालवराज बल्लाल का वध में बल्लाल देव का नाम पाया है। भोज प्रबन्ध का कर्ता करने वाले का नाम यशोधवल दिया है। इसका समर्थन भी एक बल्लाल था। ऊन नगर के बसाने वाले बल्लाल अचलेश्वर मन्दिर के शिलालेख से भी होता है। से भोज Fagar से भोज प्रबन्ध का कर्ता बल्लाल भिन्न था या दोनों - बोधवल का वि० सं०१२०२ का एक शिलालेख एक ही व्यक्ति थे। यह भी एक प्रश्न है। ऊन को बसाने मजारी गांव से मिला है, जिसमे 'प्रमारवंशोद्भव महा- वाला बल्लाल निश्चय ही एक राजा था और उसका एक मण्डलेश्वर श्री यशोधवल राज्ये' इस वाक्य द्वारा यशोध- सामन्त सामन्त भुल्लण ब्राह्मण वाड का शासक था जैसा कि नको महामण्डलेश्वर और परमार वंश का बताया है। 'पज्जण्ण चरित्र' की प्रशस्ति से पता चलता है। सम्भव यज राजा कुमारपाल का माडलिक राजा था और पाबू में है, इस राजा ने ही भोज प्रबन्ध की रचना की हो । प्रभी राज्य करता था। स० १२२० का उसके पुत्र धारावर्ष एक समस्या शेष है, जिसका समाधान प्रावश्यक है। का एक लेख मिला है। इससे अनुमान लगाया जा सकता वरनाल को कुमार पाल चरित प्रन्थों, शिलालेखों और है कि यशोधवल का देहान्त इससे पूर्व हो गया होगा। प्रशस्तियो मे सर्वत्र मालव राज लिखा है क्या मालवा मे मालवा के परमार राजा यशोवर्मा को गुर्जर नरेश उज्जयिनी भी शामिल सिद्ध राज जयसिंह ने पराजित करके मालवा पर अधि- श्री लक्ष्मीशंकर व्यास ने "चौलुक्य कुमारपाल" कार कर लिया था । यशोवर्मा के पश्चात् मालवाधिपति नामक ग्रंथ लिखा है। उसमे उन्होने बल्लाल नामक दो का विरुद बल्लालदेव के साथ लगा हुआ मिलता है। राजामों का उल्लेख किया है एक उज्जयिनी राज बल्लाल किन्तु परमार वशावली मे वल्लाल नामक कोई व्यक्ति तथा सो मालan तथा दूसरे मालवराज वल्लाल । तथा यह भी लिखा है नही मिलता। तब प्रश्न उठता है कि यह वल्लाल किस कि उज्जयिनी राज बल्लाल ने मालवराज वल्लाल से वश का था। सनिक अभिसन्धि कर ली। वल्लाल की मत्यु के सम्बन्ध में कई प्रशस्तियों मोर इस ग्रथ के प्रामुख लेखक डॉ० राजबली पाण्डेय ने लेखों में उल्लेख मिलता है । बड़नगर में कुमार पाल की भी चोलक्य कुमारपाल के विरुद्ध उज्जयिनी के राजा एक प्रशस्ति मिलती है । उसके १५वे श्लोक मे बताया है बल्लाल द्वारा अभियान करने का उल्लेख किया है। कि बल्लाल को जीत कर उसका मस्तक कुमार पाल के इन इतिहासकारों के मत में उज्जयिनी और मालवा महलो के द्वार पर लटका दिया। इस प्रशस्ति का काल के राजामों के नाम वल्लाल थे। दोनो समकालीन थे सं० १२०८ है और कुमार पाल के राज्याभिषेक का काल और दोनों की परस्पर सुरक्षा सन्धि थी। इन विद्वानो की सं० १२०० है। अतः इस बीच मे ही बल्लाल की मृत्यु इस मान्यता का प्राचार क्या है ? यह स्पष्ट नहीं हो होनी सम्भव है। सका। गेट कंटरवति कीतिलहरी लिप्तामताशद्य ते । प्राचार्य सोमप्रभ, प्राचार्य हेमचन्द्र और प्राचार्य मोस रप्रद्युम्नवशो यशोधवल इत्यासीत्तनूजस्ततः॥ तिलक सूरि के कुमारपाल सम्बन्धी चरित ग्रथो मे बल्लाल यश्चौलुक्य कुमारपाल नपतिः प्रत्यथितामागत ।। को मालवराज लिखा है। तथा यह भी स्पष्ट लिखा है मत्त्वा सत्त्वरमेव मालवपति बल्लालमालघवान् ॥ कि बल्लाल के ऊपर चढ़ाई करने वाले सेनापति ने शत्र अर्थात् परमार वशी रामदेव के अत्यन्त यश- का सिर छेद करके कुमारपाल की विजय पताका उज्जस्वी कामजेता यशोषवल नामक पुत्र हुमा । चोलुक्य यिनी के राजमहल पर फहरा दी। उदयपुर (भेलसा) मे वंशी कुमारपाल के शत्रु मालवपति बल्लाल को कुमारपाल के दो लेख सं० १२२० और १२२२ के मिले माता जानकर इसी ने उसको मारा। है। उनमें कुमारपाल को प्रवन्तिनाथ कहा गया है। ३. भारत के प्राचीन राजवश, भाग १, पृ० ७६-७७। मालवराज वल्लाल को मार कर कुमारपास प्रवंतिनाथ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४, वर्ष २५, कि०५ प्रकान्त कहलाया। इसका तात्पर्य ही यह है कि मालवराज बल्लाल पराजित भी हुआ। चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज के पौर उज्जयिनी का बल्लाल ये दो पृथक् व्यक्ति नहीं थे। हाथों भी उसे करारी पराजय उठानी पड़ी और इसमें दोनों एक थे। वह कंद भी हो गया। वह बाद में छूट गया, किन्तु पर. यहाँ हम संक्षेप मे मालवा के परमारो और गुजरात मार राज्य की चूलें तक इससे हिल गई। के चालुक्य राजाओं का क्रमबद्ध इतिहास' दे रहे है। नरवर्मन का पत्र यशोवर्मन सन ११३३ में गद्दी पर इससे अनेक शकाओं का समाधान हो जाता है। बंठा । परमार राज्य विखर गया था। देवास में विजय र सिन्धुराज ने मालवा मे परमारों का पाल ने अपना राज्य जमा लिया। चन्देल मदनवर्मन ने राज्य सुदृढ़ किया । सिन्धुराज का पुत्र भोज सन् १००० भेलसा पर , भेलसा पर अधिकार कर लिया। फिर चौलुक्य जयसिंह में मालवा की गद्दी पर बैठा। उसने अपना राज्य सिद्धराज ने पनः मालवा पर प्राक्रमण करके उसे बन्दी चित्तौड. बाँस वाडा, डगरपुर, भेलसा, खानदेश, कोकण बना लिया और सम्पूर्ण मालवा पर अधिकार करके उसे और गोदावरी के ऊपरी मूहानों तक विस्तृत कर लिया। अपने राज्य में मिला लिया और 'प्रवन्तिनाथ' विरुद माश उज्जैन और माण्ड उसी के अधिकार में थे। उसके धारण किया । सन ११३८ तक मालवा जयसिंह के पधिराज्यकाल में ही सन् १०४२ मे चोलुक्य जयसिंह कार मे रहा । इसके पश्चात् सम्भवतः यशोवर्मन के पुत्र के पत्र सोमेश्वर प्रथम ने मालवा पर कुछ समय के लिए जयवर्मन ने जयसिंह चौलुक्य के शासन के अन्तिम दिनों प्रधिकार कर लिया । भोज की मृत्यु के बाद सन् १०५५ मे मालवा को स्वतन्त्र कर लिया। किन्तु वह अधिक में मालवा कलचरि और चालुक्यों के हाथ में चला गया। समय तक मालवा पर अपना अधिकार नही रख सका। भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह हुमा । उसने दक्षिण के कल्याण के चालुक्य जगदेकमाल और होयसल नरसिंह विक्रमादित्य षष्टम की सहायता से पुनः एक बार प्रथम ने मालवा पर आक्रमण किया, उसकी शक्ति नष्ट मालवा पर अधिकार कर लिया। सोमेश्वर द्वितीय ने कर दी और उस देश की राजगद्दी पर 'वल्लाल' नामक पनकवार मालवा पर चढ़ाई करके जयसिह को मार एक व्यक्ति को बैठा दिया। इस घटना के कुछ समय दिया और मालवा पर अधिकार कर लिया। जयसिंह की पश्चात् सन् ११४३ मे चोलुक्य कुमारपाल ने बल्लाल को मत्य होने पर भोज के भाई उदयादित्य ने चाहमान राजगद्दी से उखाड फेका और भेलसा तक सारा मालवा विग्रहराज ततीय की सहायता से पुन: मालवा पर अधिकार अपने राज्य में मिला लिया। कर लिया। सन् १०८० और १०८६ के उदयादित्य के लगभग बीस वर्ष तक मालवा गुजरात के राज्य का शिलालेखों के अनुसार उसकी राज्य-सीमाएं दक्षिण में भाग रहा । इस अवधि मे परमार वश के राजा गुजरात निमाड़ जिला, उत्तर में झालावाड़ स्टेट, पूर्व मे भेलसा नरेश के सामन्त बनकर भोपाल, निमाड़ जिला होशंगातक थीं। सन् ११०४ के लेख के अनुसार उसके बाद बाद और खानदेश का शासन चलाते रहे। इन्हें 'महाक्रमशः उसके दो पुत्र-लक्ष्मदेव और नरवर्मन गद्दी पर कुमार' कहा जाता था। बारहवीं शताब्दी के सातवें बठे। शतक मे परमार जयवर्मन के पुत्र विंध्यवर्मन ने चौलुक्य ___नरवर्मन मालवा की गद्दी पर सन् १०६४ मे बैठा। मूलराज द्वितीय को पराजित करके मालवा पर अधिकार नरवर्मन चन्देल और शाकम्भरी के राजामों से दो बार कर लिया। किन्तु विध्यवर्मन शान्तिपूर्वक राज्य नहीं 1. The Paramaras of Malwa (XI), The कर पाया। होयसलो और यादवो ने उसे चंन से नहीं Chaulukyas of Gujrat, (XII) by D.C.Gan- बैठने दिया, वे मालवा पर निरन्तर प्राकमण करते रहे। guly, in The Struggle for Empire, Vol. V, सन् १९६० के लगभग चोलो की सहायता से विध्यवर्मन p.p.66-81, Bhartiya Vidya Bhawan, Bom- ने होयसल राज्य पर प्राक्रमण कर दिया किन्त होयसल bay. नरेश वल्लाल द्वितीय ने उसे भगा दिया।" Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावागिरि-ऊन २०५ उपयुक्त विवरण से कई बातों पर प्रकाश पडता है। खेडला के निकट हप्रा था। अब्दुल रहमान का विवाह (१) मालवराज वल्लाल परमार वंश का राजा नहीं हो रहा था। तभी लडाई छिड़ गई। वह दूल्हे के वेश था। (२) मालवा मोर अवन्ती मे वल्लाल नाम के दो मे ही लड़ा। इस युद्ध मे दोनो मारे गये । राजा नहीं थे, किन्त प्रवन्ति भी मालवा में थी पार इम ऐतिहासिक तथ्य से यह सिद्ध हो जाता है कि वल्लाल चालक्य-होयसल राजानों ने मिलकर परमार नरेश का ऐलवंशी था। इसके पूर्वजों का शासन ऐलिचपुर में था। मार कर उसके स्थान पर बल्लाल को राजा बनाया था। वल्याण के चालुक्य जगदेकमल्ल और होयसल नरसिंह प्रथम (३) होयसल वशी वल्लाल द्वितीय कुमारपाल की मृत्यु ने परमार राजा जयवर्मन के विरुद्ध सन ११३८ के लगभग (सन् १९७२) के पश्चात् सन् ११७३ म राजसिहासन आक्रमण करके उसे राज्यच्युत कर दिया और अपने पर बैठा था। मालवराज वल्लाल की मृत्यु उससे पहले विश्वस्त राजा बल्लाल को ऐन्नि चपुर से बुला कर मालवा ही हो चुकी थी, क्योंकि कुमारपाल के सामन्त यशोधवल का राज्य सौप दिया और सन् ११४३ मे चोलुक्य कुमारने युद्ध में उसे मारा था । इसलिए यह सम्भावना भी पाल की प्राज्ञा से चन्द्रावती नरेश विक्रमसिंह के भतीजे ममाप्त हो जाती है कि प्रशस्तियो और लेखों में जिस परमारवशी यशोधवल ने बल्लाल पर आक्रमण करके युद्ध मालवराज बल्लाल का उल्लेख पाया है, वह होयसल । मे उसका वध कर दिया और उसका सिर कुमारपाल के वंशी वल्लाल द्वितीय हो सकता है। महलो के द्वार पर टाग दिया। इस प्रकार बल्लाल मालवा इन निष्कर्षों के प्रकाश मे हम यह स्वीकार कर सकते है। पर प्रायः ५-७ साल तक ही शासन कर पाया। किन्तु हर मन्दिरो का निर्माता मालवराज वल्लाल था। 'पज्जूपण चरिय' मे बल्लाल को सपाद लक्ष के अधिपति तब एक प्रश्न शेष रह जाता है कि अगर यह मालवराज अर्णोराज के लिए काल स्वरूप बताया है। इससे प्रतीत वल्लाल परमार या होयसन नही था तो फिर यह किस होता है कि बल्लाल अत्यन्त वीर और साहसी था और वंश से सम्बन्धित था ? उसने अल्पकाल मे ही अपने प्रभाव का विस्तार कर इस सम्बन्ध में खेरला गाँव (जिला वैतूल) से प्राप्त लिया था। शिलालेख से कुछ समाधान मिल सकता है। यह शिला ___ हमे यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि बल्लाल लेख शक स. १०७६ (ई. सन् ११५७) का है। इस प्रतापी नरेश था। साथ ही उसका व्यक्तित्व विवादास्पद शिलालेख में राजा नृसिंह-वल्लाल-जंतशाल ऐसी भी था । विभिन्न शिलालेखों और ग्रन्थों में उसके सम्बराज-परम्परा दी हुई है । यह शिलालेख खण्डित है, प्रतः न्ध में एकमत्य नही मिलता । 'पज्जुण्ण चरिय' मे उसे यह पूरा नही पढा जा सकता है । एक और भी लेख यहाँ रणघोरी का पुत्र बताया है तो खेरला के शिलालेख में प्राप्त हुप्रा है । यह लेख शक सं० १०६४ (ई. सन् नसिंह का। सोमप्रभ प्राचार्य ने "कुमार पाल प्रबोष" में ११७२) का है। इस समय जैतपाल राजा राज्य कर कुमार पाल नरेश के सेनाध्यक्ष काकभट को बल्लाल का रहा था। इस लेख का प्रारम्भ 'जिनानुसिद्धिः' पद से । वध करने वाला बताया है तो लूणवसति, अचलेश्वर और हमा है। इससे लगता है कि ये राजा जन थ । किन्तु जारी गांव के शिलालेखों में बल्लाल के सहार कर्ता का जैतपाल को मराठी के प्राद्य कवि मुकुन्दराज ने वैदिक नाम यशोधवल दिया है । इस प्रकार के मतभेदों के कारण धर्म का उपदेश देकर उसे वेदानुयायी बना लिया था। मौर कही भी उसके वश का उल्लेख न होने के कारण होत तशी राजा श्रीपाल के वंशज थे। इतिहासकारों में भी वल्लाल को लेकर भारी मतभेद पाये खेरला ग्राम श्रीपाल राजा के प्राधीन था। राजा श्रीपाल जाते है । ऐसी स्थिति में किसी भी शिलालेख , के साथ महमूद गजनवी (सन् ६६६ से १०२७) के भाजे प्राचीन ग्रंथ की विश्वसनीयता मे सदेह न कर प्रम्दल रहमान का यद्धहमा था। 'तवारीख-ए-अमजदिया' उनमे सामञ्जस्य स्थापित करने का हमे के अनुसार यह युद्ध ई० सन् १००१ में एलिचपुर और तभी सत्य पकड़ में प्रा सकता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६, वर्ष २५, कि०५ अनेकान्त विवादास्पद पावागिरि-ऊन को पावागिरि सिद्ध- जो मूर्तियाँ और शिलालेख यहाँ मिले है, वे सब प्रायः क्षेत्र मानने में जो कारण कार दिये है, कुछ विद्वान इन बल्लाल के समय के अथवा पश्चात्काल के हैं, बल्लाल कारणों को विशेष महत्व नहीं देना चाहते । पुरातत्त्व से पूर्व का कोई लेख, मूर्ति प्रथवा मन्दिर नहीं मिला सामग्री और चरण तो उन स्थानो पर भी प्राप्त हुए है, इससे यह अनुम न लगाया जा सकता है कि जो सिद्धक्षेत्र नही माने जाते है । इसी प्रकार निर्वाण काड बल्लाल से पहले उस स्थान को तीर्थ के रूप में के ऋमित वर्णन को कोई गम्भीर कारण नहीं माना जा मान्यता नही थी; बल्लाल ने तीर्थ क्षेत्र होने के सकता । निर्वाण काण्ड मे क्रम का कोई ध्यान नहीं रक्खा कारण यहाँ मन्दिरों का निर्माण नहीं कराया था। गया। इसके अतिरिक्त इन कारणों के विरुद्ध कई तर्क अन्य किसी कारण से कराया था। यदि तीर्थभूमि हैं । निर्वाण काण्ड की कई प्राचीन प्रतियों मे 'पावागिरि होने के कारण उपते यहाँ मंदिरों का निर्माण कराया पर सिहरे' यह गाथा नहीं मिलती, लगता है यह गाथा होता तो उसे यहाँ वैष्णव मन्दिर बनवाने की क्या पावविवादास्पद रही है । कुछ लोग इसे निवाण काण्ड का श्यकता थी? बल्लाल पपने जीवन में मन्दिरों का ही मल गाथा मानते हैं और कुछ लोग इसे प्रक्षिप्त मानते है। निर्माण करा सका । मनिपा की प्रतिष्ठा तो उसके बाद मे यह बात भी प्राश्चर्यजनक है कि वर्तमान मे ऊन में हुई। जो जैन मूर्तियों अब तक भू गर्भ से प्राप्त हुई है। उपलब्ध किसी शिलालेख, मन्दिर या मूर्ति पर पावागिरि वे सवत् १२१८, १२५२ और १२६३ की है। ये सब का नाम नही मिलता और न यहाँ चेलना अथवा चलना बल्लाल के भी बाद की है । इस स्थान का नाम नदी ही है। यहाँ जो नदी वर्तमान में है। उसे लोगा चिरूड़ कभी पावा रहा हो, ऐसा कोई प्रमाण भी नही मिलता। कहते हैं और सरकारी कागजातों में इस नदी का नाम इन समस्त तर्कों के बावजूद हमारा एक निवेदन है चन्देरी पाया जाता है । चेलना का चिरूड़ या चन्देरी के कि यदि वास्तविक पावागिरि क्षेत्र वर्तमान ऊन न होकर रूप मे कैसे अपभ्रश हो गया, इसकी खोज अब तक नही कोई अन्य स्थान है, जब तक उसके सम्बन्ध में निश्-ि हो सकी है। चत प्रमाण उपलब्ध न हों, तब तक संदेह पोर सम्भावएक बात और भी ध्यान देने योग्य है । मालव नरेशे नामो केवन पर वर्तमान क्षेत्र को अमान्य कर देने की बात बल्लाल ने यहाँ ६६ मन्दिरों का निर्माण कराया था। को गम्भीरता के साथ नही लिया जा सकता। पक्ष-विपक्ष उपयुक्त किवदन्ती के अनुसार उसने इन मन्दिरों का के तर्क उपस्थित करने मे हमारा प्राशय शोध छात्रों और निर्माण व्याधि से मुक्त होने औरदबा हुआ धन प्राप्त होने विद्वानों के समक्ष तथ्य उपस्थित करना है । जिससे पावा. पर उससे ही कराया था। यदि यह किवदन्ती निराधार गिरि सिद्धक्षेत्र वस्तुत: कहाँ है ? इसका निर्णय किया है, यह भी मान लिया जाय तब भी उसने यहाँ पर तीर्थ- जा सके । क्षेत्र होने के कारण इन मन्दिरों का निर्माण कराया था। क्या पवा क्षेत्र पावा गिरि है ?-- पवा क्षेत्र झांसी यह बात विश्वासपूर्वक कहना कठिन है। इन 86 मन्दिरों जिले में झांमी और ललितपुर के मध्य में ताल में कितने जैन मन्दिर थे और कितने वैष्णव मन्दिर यह बहट से १३ कि. मी. दूर है। यह क्षेत्र घने उल्लेख किसी शिलालेख प्रादि में देखने में नहीं पाया। जंगलो में दो पहाड़ियों के बीच में स्थित है। क्षेत्र का किन्तु वर्तमान में जो ११ मन्दिर बचे हुए मिलते है, उन प्राकृतिक सौदर्य प्रत्यन्त मनोरम है । एक ओर देतबन्दी मे मन्दिर वैष्णव हैं और २ मन्दिर जैन हैं । इससे यह बहती है, दूसरी मोर बेलना। चारों भोर पहाड़ियों और अनुमान लगाना अनुपयुक्त न होगा कि वैष्णव मन्दिरों इन सबके बीच में क्षेत्र है। उत्तर की मोर जो नदी बहती की संख्या जैन मन्दिरों की संख्या से अधिक रही होगी। है. उसे नाला कहा जाता है। इसके कई नाम हैं । नाले इन मन्दिरों के अतिरिक्त इस भू भाग मे जो भग्नावशेष को बांध के पास 'बेला नाला' कहते है और दूसरे बांध बिखरे पडे है. वे उन्ही ६ मन्दिरों के प्रतीत होते हैं। के पास इसका नाम 'बैला ताल' पड़ता है। यह ताल Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावागिरि-ऊन . २०७ बहुत बड़ा है । प्रागे पहाड की परिक्रमा करता हुआ यह पावागिरि क्षेत्र पर उपलब्ध पुरातत्त्व सामग्री-गावानाला 'बैलोना' नाम से पुकारा जाता है । किन्तु थोड़ा गिरि क्षेत्र ऊन के सम्बन्ध में होल्कर राज्य के और आगे चल कर इसे 'बेनना' कहते है। गजेटियर' मे उन ग्राम के सम्बन्ध मे विवरण प्रकाक्षेत्र पर एक भोयरा है, जिसमे ६ तीथंकर मूर्तियां शित हुया था उसमे लिखा है--"यह एक छोटा सा शत हुआ है। कुछ मतियां बावडी की खदाई में भी निकली थी। गाँव है । इसकी एक मात्र विशेषता प्राचीन जैन मन्दिरों एक मूर्ति की चरण चौकी पर प्रतिष्ठा-काल संवत् २६६ के भग्नावशेषों में निहित है । ये १२वी शताब्दी के हैं, उत्कीर्ण है । किन्तु मूर्ति को रचना शैली से यह संवत् उनमे से एक मन्दिर मे घार के एक परमार राजा का १२६६ प्रतीत होता है इस लेख मे 'पवा' शब्द भी लिखा एक लेख भी मिला है। हुपा है । जिससे प्रतीत होता है कि मूर्ति की प्रतिष्ठा यही प्रसिद्ध पुरातत्त्व वेत्ता श्री राखाल दास बनर्जी के पर हुई थी। मतानुसार खज राहो के पश्चात् मध्य भारत मे ऊन के इस क्षेत्र के अधिकारियो की मान्यता है कि यह मलावा और कोई स्थान नही है जहा इतने प्राचीन देवाक्षत्र बहुत प्राचीन है तथा यही पावागिरि क्षेत्र है, यही लय अब तक सुरक्षित अथवा अर्व रक्षित दशा मे विद्यसे स्वर्णभद्र आदि चार मुनि मुक्त हुए थे । बेलना नदी ही वस्तुतः चेलना नदी है । चेलना का रूप बदलते २ बेलना प्रारम्भ में यहाँ पुजारी को पांच प्रतिमाएं और एक नाम पड़ गया । अपनी इसी मान्यता की बदौलत ये चरण युगल मिले थे। कुछ समय पश्चात् धर्मशाला के लोग अब पवा को पाबागिरि कहने लगे है। पीछे जमीन खोदते समय एक प्रतिमा और चरण निकले थे। इनके प्रतिक्ति चौवारा डेरा न० २ नामक जैन __इसमें सन्देह नही कि पावा और पवा, चेलना और मंदिर मे बारहवी शताब्दी की दो तीर्थकर मूर्तियां थी। वेलना इनमें शब्द-साम्य है । किन्तु विचारणीय बात यह जो इन्दौर नवरत्न मंदिर (पुरातत्त्व सग्रह लय) में पहुँचा है कि जिस मूर्ति की चरण-चौकी पर पवा शब्द उत्कीर्ण दी गई हैं । इस मदिर के सिर दल पर वि० स०१३३२ मिलता है, उससे लगता है कि सवत् २६६ (ई. सन् का दो पक्तियो का एक लेख था, वह भी इंदौर संग्रहा२४२ मे, अथवा १२६६ (ई० सन् १२४२' में भी इस लय में सुरक्षित है। क्षेत्र को पवा कहा जाता था, पावा नही । बेलना नदी के जो विभिन्न नाम मिलते हैं, जैसे बैलानाला, बैलाताल जो fच मतियां प्रारम्भ मे भूगर्भ से उत्खनन के फलबैलोना बेलना उन नामों में तो परस्पर साम्य है और स्वरूप निकली थी उनका विवरण इस प्रकार है- . बैलानाला का ही रूप बदलते-बदलते बेलना पड़ गया है, प्रतिमा नं० १-प्रतिमा खड्गासन, प्रवगहना एक किन्तु चेलना या चलना के साथ उनका कोई साम्य नहीं पर फुट दस इञ्च । दोनों भोर इन्द्र । ऊपर की ओर दो देव पौर विश्वासपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि चेलना तथा दो पद्मासन तथा एक खड्गासन प्रतिमा। प्रतिमा न०२-खड्गासन, अवगाहना एक फुट दस अथवा चलना का रूप बिगड़ने-बिगडते वेलना पड़ गया। इञ्च । शेष पहली प्रतिमा के समान । इसके अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है कि १६-१३ प्रतिमा न० ३ -- खड्गासन, प्रवगाहना एक फुट दस वीं शताब्दी से पूर्व कोई लेख, मूर्ति अथवा मन्दिर यहाँ उपलब्ध नही जिसमें स्पष्ट पावा का समल्लेख मिलता इच। इधर-उधर दो इन्द्र । ऊपर दो देव तथा दो तीर्थहो। इसलिए केवल सम्भावना अथवा सन्देह के बल पर कर प्रतिमाएँ । एक पद्मासन, दूसरी खड्गासन । इसे पावागिरि और सिद्ध क्षेत्र मानना क्या उचित प्रतिमा न० ४-खड्गासन, एक चमरवाहक । यह हो सकता है, इसके लिए कुछ ठोस माघार खोजने होंगे। शिलाफलक लगभग डेढ फुट का है। वर्तमान कल्पनामो के सहारे अधिक दूर तक नही चला 1 The Indore State Gazetter, Vol, I. Text by जा सकता। __L.C. Dhariwal M.A. L.L.B., p. 669. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० वर्ष २५, कि०५ प्रनकान्त प्रतिमा न०५-- भगवान महावीर को सवा दो फुट दोनों मन्दिरों में एक है चौवारा डेरा और दूसरा है नहाल अवगाहना वाली पद्मासन प्रतिमा । वर्ण सिलहटी। इसकी प्रवार का डेरा। तीसरा मन्दिर ग्वालेश्वर मन्दिर के नाम चरण चौकी पर लेख है जो इस प्रकार पढ़ा गया है- से प्रसिद्ध है जो धर्मशाला से दो फलांग दूर पहाड़ पर ___ "प्राचार्य श्री प्रभाचद प्रणमति नित्य सं० १२५२ माघ अवस्थित है । इनका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैसुदी ५ खो चित्रकूटान्वये साधु वाला भार्या शाल्ह तथा चौवारा डेरा-यह मन्दिर सड़क पर दिगम्बर जैन मदोदरी सुत गोल्ह रतन भालू प्रणमति नित्यं ।" धर्मशाला के पीछे पूर्वाभिमुख अर्धभग्न दशा में विद्य इन मतियों के साथ जो चरण मिले थे, वे लगभग मान है। इस मन्दिर के मध्य में एक सभा मण्डप बना दस इञ्च लम्बे है। उन पर कोई लेख नही है। हमा है तथा पूर्व, दक्षिण और उत्तर की पोर अर्घमंडप धर्मशाला के पीछे जो मूर्ति निकली थी, वह भगवान बने हुए है । सभा मडप के चारों पाधार स्तम्भ कला के संभवनाय की है, जो प्रत्यन्त मनोज्ञ है। इसकी प्रवगाहना उत्कृष्ट नमूनो मे से है। उत्तरी दीवाल पर एक वस्तु लगभग एक गज है। तथा इसके पासन पर सं० १२१८ ऐसी बनी हुई है जिसकी मोर सहज ही ध्यान भाषित का लेख प्रकित है जो दो पंक्तियों में है। हो जाता है और इससे प्राचीन देवनागरी लिपि पर पहाड़ पर ग्वालेश्वर के मदिर मे शान्तिनाय कुन्थु- महत्वपूर्ण प्रकाश पडता है। यह है सर्पबन्ध । एक सपोनाथ भोर मरहनाथ की तीन खड्गासन मूर्तिया है कृति कुण्डलाकार बनी हुई है, जिस पर देवनागरी लिपि भगवान शान्तिनाथ की १२॥ फुट ऊंची है कुन्थुनाथ के वर्ण और घातमो के परस्मैपद और प्रात्मनेपद के की ८ फुट और अरहनाथ की भी ८ फुट उंची प्रति प्रत्यय बने हुए हैं सम्भवतः प्राचीनकाल में मन्दिर के इस माएँ हैं। भगवान कुन्थुनाथ की प्रतिमा पर निम्नलिखित भागका उपयोग एक पाठशाला के रूप के किया जाता था। लेख पढ़ा जा सकता है बालकों को खेल-खिलौनों के माध्यम से उस काल में संवत् १२६३ जेष्ठ बदी १३ गुरी.........प्राचार्य शिक्षण दिया जाता था, इस प्रकार सर्प वन्ध से तत्कालीन श्री यशकीर्ति प्रणमति । शिक्षण पद्धति की ओर संकेत करता है सर्प वन्ध के इसी प्रकार प्ररहनाथ की प्रतिमा पर यह लेख प्रकित निकट ही दो छोटे लेख भी अकित हैं। जिनमे मालवा के परमारवंशी राजा उदयादित्य का उल्लेख है। इसी देवा संवत् १२६३ जेष्ठ वदी १३ गुणोसिन्धी पं. तरंग लय के द्वार पर वि० सं० १३३२ का शिलापट लगा हुमा सिंह जीत सिंह प्रणमति । था, जिसमें लेख था तथा एक धर्मचक्र बनाएमा था। इन शिलाफलकों पर इन प्रतिमानों के दोनों ओर उसके दोनों पोर सिंह और हाथी बने हुए थे। यह पाजइन्द्र यक्ष-यक्षिगी हैं । इन मूर्तियों की संरचना-शैली और कल इन्दौर संग्रहालय में सुरक्षित है। इस मन्दिर का शिल्प विधान प्रत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है। शिखर और उसमें की गई तक्षण कला नयनाभिराम है। क्षेत्र पर अब तक जो पुरातत्त्व सामग्री-मूर्तियां नहाल भवार का डेरा-यह मन्दिर सड़क मोर चरण, शिलालेख प्रादि उपलब्ध हुए हैं, वे प्रायः १२-१३ चौवारा डेरा के बीच मे है। इस मन्दिरके पास-पास नहाल वीं पाताब्दी के हैं। उपलब्ध सामग्री के प्रतिरिक्त भी लोगोंकी बस्ती है, इसलिए इसका नामनहालमवा का डेरा बहुत से मन्दिरों के भग्नावशेष इधर-उधर बिखरे पड़े पड़ गया है । मन्दिर के मध्य में एक मण्डप बना हुआ है, हैं । यदि खुदाई की जाय तो यहाँ प्रौर भी प्राचीन सामग्री जिसमें पाठ स्तम्भ बने हुए हैं। मण्डप में चार द्वार हैं। मिलने की सम्भावना है। पूर्व और पश्चिम के द्वारों से बाहर जाने की सीढ़ियां बनी ___ मन्दिरों का परिचय -क्षेत्र पर तीन मन्दिर प्राचीन हई। एक द्वार से गर्भ गृह में जाने का मार्ग है । इसके हैं-सड़क के पास ग्राम में दो मन्दिर हैं। इन दोनों जैन पर का शिखर सम्भवतः टूट गया है। यह मन्दिर बहुत लापक्ष अत्यन्त समृद्ध और समुन्नत है । इन विशाल और भव्य बना हमा है पौर ऊन के मन्दिरों में Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावागिरि-ऊन २०६ प्रकृति के परमरम्य और अतिगहन वन्य प्रदेश में निर्मित ऊन क्षेत्र का एक विशाल जिन मन्दिर Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०, वर्ष २५, कि०५ अनेकान्त सर्वश्रेष्ठ गिना जाता है। प्राजकल इस मन्दिर में कोई किये जाने के प्रमाण मिलते हैं। प्रचलपुर और खेरला प्रतिमा विराजमान नही है । यहाँ की दो प्रतिमाए इन्दौर का शासक श्रीपाल नरेश जिसका उल्लेख ऊपर किया जा म्यूजियम में पहुंच गई है। उनमे शान्तिनाथ भगवान की चुका है-सम्भवत: इन्ही रामखेत का शिष्य था। यदि प्रतिमा पर स० १२४२ माघ सुदी ७ प्रकित है। दूमगै यह ग्वालेश्वर मन्दिर इसी वाल गोविन्द का बनाया हुमा प्रतिमा पर लेख तो है किन्तु वह प्रस्पष्ट है । सम्भवत: सिद्ध हो जाता है तो ऊन का इतिहास वल्लाल से प्रायः वह भी इसके समकालीन होगी। सौ वष प्राचीन सिद्ध हो सकता है। किन्तु अभी इस सम्बन्ध में कोई निश्चित मत प्रगट करना जल्दबाजी होगी। कहते है, इस मन्दिर मे पहले एक सिंह रहा करता था। हो सकता है, निर्जन और एकान्त इम वन प्रदेश में बने हुए इस पार्वत्य मन्दिर को अपने लिए सुरक्षित और सुविधाजनक समझकर वनराज ने इमे अपना अड्डा बना लिया हो। इस मन्दिर की रचना शैली नहाल प्रवार डंग मदिर से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। शिखर का मामलक और उष्णीश जीर्णप्राय है किन्तु शेष भाग अखण्डित है । इमको छतों मे अत्यन्त कलापूर्ण कमल बने हुए है जा छहसात शताब्दियों के काटन प्राघात सहकर प्राज भी सजीव से प्रतीत होते है। मन्दिर के मध्य मे सभा मण्डप बना हुपा है। तीन द्वार है. जिनके सिग्दलो पर पद्यामन मूर्तियां बनी हुई है। इसका गर्भ गृह सभामण्डप से दस फुट नीचा है । नीचे पहुँचने के लिए दस सीढियाँ बनी हुई है। गर्भ गृह मे तीन विशाल प्रतिमाएं खड्गासन मुद्रा में विराजमान हैं। ये तीनो प्रतिमाएं भगवान शान्तिनाथ, भगवान कुन्थुनाथ और भगवान अरहनाथ की प्रतीत होती हैं। इन मूर्तियों के अभिषेक के लिए दोनो पोर सीढियां बनी हुई है । सभा मण्डप की वेदी मे १४ प्राचीन श्री ग्वालेश्वर जिन भवन के अन्दर निमित तीन प्रतिमाए विराजमान है तथा ६ प्रतिमाए नवीन विराजतीर्थकर भगवानों की खड्गासन मूर्तियां मान की गई है। भगवान सम्भवनाथ की ३ फुट ऊची ग्वालेश्वर मन्दिर -पहाड पर जो विशाल मन्दिर मुख्य प्रतिमा है। बना हमा है, वह ग्वालेश्वर मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर मे मूलनायक भगवान शान्तिनाथ की सम्भवतः यह मन्दिर किसी वाल नामक व्यक्ति ने बन- तिमा. पत: इसे पब शान्तिनाथ मन्दिर भी कहा वाया था, इसीलिए इसका नाम ग्वालेश्वर मन्दिर प्रसिद्ध जाता है। इसी मन्दिर को पावागिरि सिद्ध क्षेत्र कहा हो गया । सिरपुर में एक मन्दिर मे शिलालेख मिला था। जाता है। उसमे रामखेत के शिष्य ग्वाल गोविन्द का नाम मिलता इस मन्दिर को देखने से एक बात की मोर विशेष है उदयपुर केशरिया में भी ग्वाल गोविन्द द्वारा प्रतिष्ठा रूप से ध्यान जाता है । इसके शिखर की रचना अनूठी है Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावागिरि-ऊन मौर वह जैन स्तूपो के प्राचार पर की गई प्रतीत होती है। ११ मन्दिर अर्ध भग्न दशा मे खडे हैं । इनके अतिरिक्त अनेक मन्दिरो के भग्नावशेष इधर-उधर बिखरे हुए है। क्षेत्र का विकास -मन्दिरो का जीर्णोद्धार कार्य यह पुरातत्व विभाग के अन्तर्गत है। तत्कालीन होकर सरकार में क्षत्र के स्वामित्व का अधिकार ___ इस स्थान पर इतने अधिक मन्दिरो के निर्माण को प्राप्त होने पर दि० ५।१०।३५ को प्रारम्भ किया गया देखकर लगता है कि इस स्थान का किसी काल में अवश्य था । इसके फलस्वरूप प्राचीन मन्दिरो का जीर्णो सास्कृतिक महत्त्व रहा है। द्वार हो चुका है। जीर्णोद्धार के अतिरिक्त नवीन निर्माण कार्य भी हग्रा है। सड़क के किनारे एक विशाल धर्मशाला व्यवस्था-क्षेत्र की व्यवस्था "श्री दिगम्बर जैन बन गई है। उममे बडवाहा निवासिनी सेठानी वेमरबाई मिद्धक्षेत्र पावागिरि सरक्षिणी कमेटी द्वारा होती है, की पोर से एक भव्य मन्दिर का निर्माण हो चका है। जिसका निर्वाचन तीन वर्ष पश्चात् होता है । यहाँ प्राय इम मन्दिर में मुल नायक भगवान महावीर की प्रतिमा के साधन यात्रियों द्वाम दिया गया दान. मन किराया है जो पद्मासन है और सवत् १२५२ की है। हम प्रति- पोर ध्रुव कोष की ब्याज है। रिक्त ७ पाषाण की, ५ धातु की प्रतिमाएँ तथा ३ चरण- वाषिक मेला- यहाँ पर पहले फाल्गुन सुदी ५ से १० चिन्ह विराजमान है। यहा एक ऐसा यत्र भी विराजमान तक वाषिक मेला भरता था। किन्तु अब कुछ वर्षों से वह है, जिसमे सम्पूर्ण तत्त्वार्थसूत्र प्रति है। बद हो गया है। सवत् १९९३ म यहा पच कल्याणक पहाड के मन्दिर के मामने एक मुन्दर मानस्तम्भ बन विम्ब प्रनष्ठा हुई थी । सवत् १९६४ मे महावीर चैत्याचुका है। इसमें चार मूर्तियाँ विराजमान है । इस प्रकार लय का वदा-प्रनिष्ठा हई थी। दोनो हा वष यहाँ जनता नीचे और ऊपर के मन्दिरो में प्राचीन और नवीन कुल का उल्लखनीय उपस्थित रहा है। ४० प्रतिम ए है जिनम ३३ पाषाण की है, ७ घातु की क्षेत्र पर संस्थाएँ- इस समय क्षेत्र पर निहाल चन्द है । इनके अतिरिक्त ६ यत्र है। भवन, मिडिल स्कूल, शान्तिनाथ प्रोषधालय प्रोर दिगम्बर क्षत्र पर शिखरबन्द ३ मन्दिर है और ५ चैत्यालय जैन उदासीन प्राथम नामक सस्थाएँ है । अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्टित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमे घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-सस्थाओं, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बने और दूसरों को बनावें। और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। इतनी महगाई में भी उसके मूल्य में कोई वद्धि नहीं की गई, मूल्य वही ६) रुपया है। विद्वानों एवं शोधकार्य मंलग्न महानुभावों से निवेदन है कि वे योग्य लेखों तथा शोधपूर्ण निबन्धों के संक्षिप्त विवरण पत्र में प्रकाशनार्थ भेजने की कृपा करें। -व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवपुरी माहमा धी घासीराम जैन 'चन्द्र' पावन विध्याचल अंचल है, चलती मद् मंद समीर यहां, कलरव करती सरिताओं के, कलनाद भरे वर तीर यहां, झर झर करते झरने सुन्दर, बहता प्रिय निमल नीर यहां, मदमाती हरषाती लहरें, प्रोढ़े प्रिय पल्लव चोर यहा ॥१॥ श्री मोहनदास सिंघई निर्मित, बावन गंगा अति पावन है, नंदोश्वर की मोहक रचना, जल कुण्ड मनोहर बावन है, जलस्रोत भदैयां कुन्ड ललित, निश वासर झरना झरता है, सख्या सागर जल केलि थली, रहता कंचन समनीर यहां ।।२।। सिन्धिया वंश माधव नृप को, शुभ कीर्ति यही पर छायी है, जीजा माता की भव्य मूति, रच कला भवन पधराई है, प्रिय हरित भरित परिधान सजित, शोभाशाली सून्दर उपवन, मनहरण जलाशय पाम्रकुञ्ज, यश गाते कोकिल कीर यहा ।।३।। सिद्धेश्वर धर्म धरा लखिये, शिव मन्दिर शोभा शालो है, शिवपुरी नगर का कीर्तिकुञ्ज, रहती निशदिन खुशहाली है, यह भव्य नगर का गौरव है, सौरभ सूगध यश गान भरी, पूजन अर्चन अाराधन को, रहती भक्तों की भीर यहां ॥४॥ स्वातत्र्य युद्ध ज्वाला फंकी, तात्या टोपे सेनानी ने, आजादी का था मंत्र दिया, लक्ष्मी झांसी की रानी ने, शिवपुरी नगर बलिदान भूमि, यह मूर्तिमंत तीर्थस्थल है, वन भी सरिता सर गिरि मंदिर, मन भावन सिन्धु गहीर यहां ।।५।। कैसा अति सुन्दर संग्रह है, यह पुरातत्त्व की झांकी है, खंडित जिन प्रतिमाएँ अद्भुत, शोभा सुखदायक वाकी है, विखरी चहुं ओर कला पाकर, शिवपुरी धन्य कहलायी है, सुरनर मुनि नतमस्तक होते, छवि छटा छलकते क्षीर यहां ।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवपुरी महिमा २१३ निर्जन गिरि कंदर खोह भरे, विचरण करती वन बालायें। शृंगार भरी गगनागन को, छती प्रिय पवत मालायें । यह नरवर गढ़ है निकट यहीं, नल दमयंती की केलि थलो। वीरबा प्रदेश प्रसिद्ध यही, होते आये रणवीर यहा ।।७।। शुभ मिद्ध भूमि जहा पावन हो. चलिये सोनागिर वंदन को। जिन चंदनाथ को तपोभूमि, भव भव के पाप निकंदन को। जिन के दर्शन अरु वदन गे. तन मन हो जाते हैं पावन । वह मुक्ति थान अभिराम गये, मुनि साढ़े पांच कराड़ यहा ।।८।। गोपाचल पर्वत पून्यथली, जिन विम्ब विशाल सूहाते हैं। जिनके दर्शन पर वंदन से, कृत कृत्य धन्य हो जाते है। नप मानसिंह को रगथली, कीति कलधौत सनातन है। वापो अरु कूप सरोवर है, अमृत मय जिनमें नार यहा ।।६।। कविलासनगर कोलारस है, गढ़ कोट द्वार चहं अोर बने। कुशवाह नपति के रगमहल, जिससे थे सुन्दर कोति सने । जिनमदिर अतिशय क्षत्र यहा, जिनविम्ब विशाल सुहावन है। शुभ स्वग लोक से वदन को, पातो देवो को भीर यहा ।।१०।। प्रावो दर्शन करले चलके, यह तीर्थ क्षेत्र पचराई है। चौरासी की शोभा सुन्दर, अतिरूप राशिधर पाई है। थूवन जी के मदिर विशाल, मन भावन वैभवशाली हैं। चंदेरी की प्राचीन कला, हरती जन मन की पीर यहां ।।११।। शिवपुरी की भूमि पुरातन है, नतनता की छवि छाई है। श्री वार जिनालय भवन कला, नव रूपराशि धर पाई है। यह मानस्तभ गगनचुबी, कचनमय कलग शिखर सोहे। रवि किरण प्रभा देती, बरसाता चन्द्र सुधा के सीर यहा ।।१२।। पावन विध्याचल अंचल है, वहती मृदु मंद समीर यहा ।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्य परमानन्द जैन शास्त्री चाणक्य-गोलविषयान्तर्गत चणय नामक प्राम मे स्वभावत: ससार के प्रति विरक्त और मन्तोषी था । जैन उत्पन्न हुप्रा था। उसके पिता का नाम चणो या चणय साधनो की वाणी सुनकर उसे बहा दुख हुअा। वह था और माता का नाम था चणश्वरी । ये दोनों ही जन्म धर्मात्मा था और वैभव को पाप समभता था। अतः से श्रावक थे, और जैन धर्म का अनुष्ठान करते थे। उसने बच्चे के दाँत उखाड डाले। इस पर उन साधुनों चाणक्य का नाम विष्णुगुप्त था। प्राचार्य हेमचन्द्र ने ने भविष्यवाणी की, कि अब यह बालक स्वय गजा न हो प्रभिधान चिन्तामणि मे चाणक्य के पाठ नाम दिये है। सकेगा; किन्तु अन्य व्यक्ति के सहयोग से राज्य करेगा । वात्स्यायन, मल्लिनाग, कुटिल (कौटिल्य), चाणक्य, श्रन्य को राजा बनायेगा। परन्तु वास्तविक राज्य सत्ता पालीभाषा मे 'चणक्क' पोर प्राकृत माण मे चाणक्क उसके ही हाथ मे रहेगी। योग्य वय होने पर उसने तक्षहोता है, द्वामिल, पक्षिलस्वामी, विष्णुगुप्त और अंगुल'। शिला तथा उसके निकटवर्ती स्थानो में रहने वाले रहों की विसत्थप्पकासिनी' के अनुसार चाणक्य तक्ष. प्राचार्यों के निकट चौदह विद्यानो की शिक्षा प्राप्त की। शिला का निवासी था। यद्यपि चाणक्य का पिता जन्म वह छह प्रग चतुरानुयोग, दर्शन, न्याय, पुराण, धर्मसे ब्राह्मण था, किन्तु वह जैनधर्म का अनुयायी था। जिस शास्त्र और निमित्त प्रादि सभी विद्यानो मे पारगत हो ममय चाणक्य का जन्म हुमा उसके मुख में पूर्ण विकसित गया। और यशोमनि नाम की एक श्यामा सुन्दरी से दन्तपक्ति देख कर सब लागो को अाश्चर्य हुआ। किन्तु उसका विवाह हो गया। और वह ब्राह्मणोचित शिक्षक जब जैन साधु उसके पित्रालय मे पाये। तब उसके पिता - वृत्ति से दरिद्रता के साथ जीवन व्यतीत करने लगा। ने उनसे पूछा, तब उन्होने बतलाया कि ये दात राजत्व एक बार उसकी स्त्री अपने भाई के विवाह में अपने के बोधक है। किसी दिन यह चाणक्य राजा बनेगा। मायके चली गई। विवाह में उसकी अन्य विवाहिता चाणक्य का पिता जैनधर्म का पालक था। अतः वह बहनें भी पाई थी। समागत बहनो ने उसकी दीन अव१. बात्स्यायनो मल्लिनाग: कुटिलश्चणकात्मजः । स्था को देख कर उसकी निर्घनता का उपहास किया। द्रामिन: पक्षिन स्वामो विष्णु गुप्तोऽङगुलश्चस: ।।५१७ जिसमे वह बड़ी दुखी हुई, और रोती हुई अपने घर -अभिधान चिन्तामणि पृ० २११ आई। उसने सारा वृत्तान्त चाणक्य से कहा। उसी दिन २. "चाणक्केति, गोल्लविसये, चणयग्गामो, तत्थ चणि तो से चाणक्य ने धनोपार्जन करने का निश्चय किया। और माहणो, सो अवगय सावगो तस्स घेर साहू ठिया, वह घूमता घामता पाटलिपुत्र पहुँचा। वहां उसे ज्ञात पुत्तो से जातो सह दाठाहि, साहूण पाएसु पाडितो, हुमा कि नन्द राजा ने एक दानशाला खोल रक्खी है। कहियं च, साहू हि भणिय-राया भविस्सह, ततो महा पद्मनन्द विद्वानों का बडा प्रादर करता था। मोर मा दुग्गति जाहितीति दन्ता घंसिया पुणो वि पायरि- उन्हें दानादि से सन्तुष्ट भी करता था। चाणक्य वहाँ याणा कहियं, भणति कज्जउ एताहे विवंतरियो गया और उसने राजसभा के समस्त विद्वानों को शास्त्रार्थ राया भविस्सह अम्मुक बालभावेण चोद्दस वि, में परास्त कर दिया, मोर संघ ब्राह्मण का पद प्राप्त विज्जाठाणाणि प्रागमियाणि सोत्थ सावगो संतृट्ठो।" किया तथा वह दानशाला के प्रयासन पर जा बैठा। -प्रावश्यक चूणि भा० ३, पृ० ५३७ किन्तु उसकी कुरूपता, अभिमानी प्रकृति मौर उरत Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाणक्य २१५ स्वभाव के कारण युवराज धननन्द उससे रुष्ट हो गया। के लक्षण दीख पडे । पूछ ताछ से ज्ञात हुमा कि यह वही मोर उसने चाणक्य का अपमान किया, और उसे अग्रामन बालक है जिसकी माता का दोहला शान्त किया था। से शिखा पकड कर उतरवा दिया। इस अपमान से । तरवा दिया। इस अपमान से प्रतएव वह उस बालक को साथ लेकर चल पड़ा। और चाणक्य भाग बबूला हो गया। उसने उमी ममय नन्दवश कई वर्ष नक उसे राज्योचित शस्त्र और शास्त्र विद्या की का सान्वयनाश करने की कठोर प्रतिज्ञा की'। अपने शिक्षा देकर निपुण बना दिया। और धीरे-धीरे उसने जन्म समय मे माधुणों द्वारा की गई भविष्यवाणी का उसके कमाधी व भी जटा दिये। स्मरण कर परिव्राजक के वेष मे वह एक ऐसे व्यक्ति की ३२६ ई० पूर्व सिकन्दर का जब भारत पर प्राक्रमण खोज मे निकल पड़ा, जो गजत्व के गुणो से युक्त हो। हया पौर विदेशी यवनों के भारत पर होने वाले प्राधि हिमालय की तराई मे पिप्पलीवन के मोरियो का पत्य मे देशमन चाणक्य के हृदय को बड़ी चोट लगी। एक गणतत्र था। ये लोग व्रात्य क्षत्री थे, और जनधर्म किन वह विश्वजिना सिकन्दर की प्रसिद्धि से प्रभावित को मानते थे । एक दिन घमत घाम चाणक्य इसी ग्राम भी उपा। प्रतमने चन्द्रगप्त को सलाह दो कि वह में गलैचा, प्रो. गांव के मोयंवजी मुखिया के यहाँ ठहग। यनानियो को सैनिक पद्धति, सैन्य सचालन मोर युद्ध उस मुखिया का पुत्री गर्भवती थी, उसे उसी समय चन्द्र कौशल का पक्ष पनुभव करे। चन्द्र गुप्त यूनानी शिविर पान करने का दोहना उत्पन्न हुपा था। चाणक्य ने मे चना गया। पोर गपचर होने के सन्देह में बन्दी हो कहा उत्पन्न होने वाले शिशु पर मेरा अधिकार रहेगा, गया। और सम्राट के सामने उपस्थित किया गया । इस शर्त पर युक्ति से वह दाहला शान्त कर दिया । और उसकी निर्भीकता से प्रसन्न होकर सम्राट् ने उसे मुक्त वहाँ से चल दिया। कुछ समय पश्चात् उस लड़की ने कर दिया और पुरस्कार भी दिया। चन्द्रगुप्त ने अभीष्ट एक सुन्दर तेजम्बी पुत्र का जन्म दिया। दाहले के प्राचार मैनिक जानकारी प्राप्त की। और सम्राट् सिकन्दर के पर उसका नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। ये घटनाए भारत स बाहर निकलने ही पजाब के वाहीकों को मम्भवत: ३४५ ई० पूर्व महई। उभा कर यूनानी सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर दिया। विशाल राज्य के अधिपनि नन्दों का समूल विनाश न नन्दों का समूल विनाश और ई० पूर्व ३२३ में चाणक्य के निर्देशानुसार अपना करना हमी-खेल नही था। चाणक्य इस तथ्य से परिचित एक छोटा मा राज्य मगध साम्राज्य की सीमा पर स्थाथा, किन्तु दृढ प्रतिज था और बडे धैर्य के साथ उसकी पित कर लिया। प्रौर ई० पूर्व ३२१ में चन्द्रगुप्त और तय्यारी मे सलग्न रहा। पाठ-दश वर्ष बाद वह फिर जब । चाणक्य न छोटी सी सना के साथ छपवेष में पाटलीपुत्र उसी ग्राम मे प्राया, तब उसे ग्राम के कुछ बालक खेलते तब उसे ग्राम के कुछ बालक खेलते पहुँच कर गजधानी पर पाक मण कर दिया । परन्तु नन्द हुए मिले। उनमे एक तेजस्वी बालक राजा बना हुआ की असीम सैन्य शक्ति के सामने उनकी कूट नीति सफल था और अन्य बालकों पर शासन कर रहा था। चाणक्य न हो सकी। और वे दोनो प्राण बचाकर वहां से भागे। कुछ देर तक उन बालकों के कौतुक को देखता रहा। नन्द की सेना ने पीछा भी किया, पौर बाल-बाल बचकर पश्चात् उसने उस बालक से वार्तालाप किया । वह उसकी किसी तरह प्राणो की रक्षा कर सके। तुरत बुद्धि, वीरता, साहस पोर तेजस्विता को देख कर एक दिन एक वृद्धा के झापड़े के बाहर खड़े हुए इन बड़ा प्रसन्न हमा । वह सामुद्रिक शास्त्र का भी ज्ञाता था, दोनों ने उस बद्धा को अपनी सन्तान को डाँटने के मिस प्रतएव उसे बालक के सामुद्रिक चिन्हों में सम्राट् बनने यह कहते हुए सुना कि चाणक्य प्रधीर और मूर्ख है। ३. कोशेन भृत्यश्च निबद्ध मूल, उसने सीमा प्रान्तो को प्राधीन किये बिना ही साम्राज्य पुत्रश्च मित्रश्च विवृद्ध शाखम् । के केन्द्र पर धावा बोल कर बड़ी भारी भूल की है, उसी उत्पाटघ नन्दं परिवर्तयामि, तरह तू भी कर रहा है। इससे चाणक्य को अपनी भूल महादुम वायुरिवोग्रतेजः।। -सुखबोषा का परिज्ञान हुमा। और फिर उन दोनों ने नये उत्साह Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनेकान्त २१६, वर्ष २५, कि० ५ और सहा और 1 और कौशल से तैयारी करना शुरू कर दिया। विन्ध्याटवी में पूर्व सचित किये हुए विपुल धन की यता से विशाल सैन्य शक्ति का संग्रह किया पश्चिमोत्तर प्रदेश के पवन, काम्बोज, पारसीक, पुलात और सबर प्रादि म्लेच्छ जातियों की एक विशाल सेना तय्यार की । और पंजाब के मल्लि या मालव को अपना सहायक बनाया तथा गोकर्ण (नेपाल) के राजा पर्वत को साम्राज्य को प्राधा भाग देने का लोभ देकर अपना सहयोगी बनाया । और मगध के सीमावर्ती प्रदेशों को जीतना प्रारम्भ कर दिया और जीते हुए प्रदेशो को सुसंगठित और अनुशासित करने का पूरा प्रयत्न किया। और उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए राजधानी का घेरा डाल दिया । घोर युद्ध हुआ । कूट नीति श्रौर षड्यन्त्रों से नन्दों को पराजित कर दिया। यद्यपि नन्द बड़ी वीरत से लड़े और लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हुए प्रस्त में वृद्ध राजा महापद्म ने धर्मद्वार के निकट हथियार डाल कर श्रात्म समर्पण कर दिया। उसने चाणक्य से धर्म की दुहाई देकर सुरक्षित चले जाने की याचना की। चूकि चाणक्य की अभिलाषा पूर्ण हो चुकी थी । अतः उसने द्रवित होकर नन्दराज को सपरिवार राज्य त्यागकर अन्यत्र चले जाने की अनुमति दे दी। और यह भी कह दिया कि आप अपने साथ में जितना धन ले जा सको ले जाम्रो । वृद्ध नन्द ने अपनी दो पत्लियो, पुत्री और थोडा साधन लेकर नगर का परित्याग कर दिया । जाते हुए मार्ग में नन्द पुत्री सुप्रभा ने विजयी सेना नायक चन्द्रगुप्त के रूप को देखा, वह उस पर मोहित हो गई। इधर चन्द्रगुप्त की भी वही दशा हुई। दोनों की दशा लक्ष्य मे कर नन्द और चाणक्य ने विवाह की अनुमति दे दो । अब चन्द्रगुप्त मौर्य सुप्रभा को पट्टमहिरी बना कर मगध के राज्य सिहासन पर ग्रारूढ हुआ । और नन्द के जन-धन शक्ति सम्पन्न साम्राज्य का अधिपति हुआ । चार वर्ष के युद्ध प्रयत्नों के बाद सन् ३१७ ई० पूर्व पाटली पुत्र में मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई । चन्द्रगुप्त के संम्राट् बनने के पश्चात् चाणक्य ने नन्द के मंत्री राक्षस के षड्यन्त्रों को विफल किया। धौर उसे चन्द्रगुप्त की सेवा करने को राजी कर लिया। धौर किरातराज पर्वत को राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त की हत्या करने के लिए भेजी गई विष कन्या के प्रयोग द्वारा मरवा डाला । इस तरह चन्द्रगुप्त का राज्य निष्कण्टक हो गया । चाणक्य को राज्य का प्रधान मंत्री बनाया, और चन्द्रगुप्त ने चाणक्य के सहयोग से शासन की 'सुव्यवस्था की । मौर्य साम्राज्य का संगठन विस्तार बराबर वृद्धि करता रहा । ई० पूर्व ३१२ मे उसने प्रवन्ति को विजित कर उसे साम्राज्य की उप राजधानी बनाया। इस तरह चाणक्य ने नन्दवश का समूल नाश कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की। और मौर्य साम्राज्य का प्रधान मंत्री बन कर उसे शक्तिशाली बनाने का उपक्रम किया । द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष के समय चन्द्रगुप्त ने राज्य का परित्याग कर भद्रबाहु से दीक्षा लेकर दक्षिण की ओर उनके साथ चला गया। तब भी चाणक्य बराबर राज्य का संचालन करता रहा । चाणक्य राज्यनीति का पूर्ण पण्डित था। माम्राज्य की उन्नति और प्रजा में सुख-शान्ति की समृद्धि कैसे बने यह उसका ध्येय था । उसका लोक व्यवहार व्यावहारिक, नीतिपूर्ण और प्रसप्रदायिक था। वह ग्रन्तिम अवस्था में साधु के रूप मे पक्का जैन था उसकी एक मात्र कृति 'अर्थशास्त्र' है। यद्यपि वह लोकशास्त्र और वह अपने श्रमजी मूल रूप में अनुपलब्ध है । पर जो उपलब्ध संस्करण प्राप्त है वह उसके बहुत कुछ बाद का और क्षेपक सस्करण है । तो भी उसमें जैनधर्म और जैनो का उल्लेख है। उसमें जंनो के प्रति कोई विद्वेष प्रदर्शित नहीं है किन्तु न्याय सम्पन्न वैभव प्राप्ति के प्रकरणो मे जैन धर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है । बिन्दुसार (ममित्रघात) के समय भी चाणक्य मंत्री पद का कार्य कता रहा है किन्तु बिन्दुसार को उसका प्रभाव सह्य नहीं था । उस समय चाणक्य पर्याप्त वृद्ध हो चुका था और वह राज्य को छोड़ कर आत्म-साधना का इच्छुक था । किन्तु चन्द्रगुप्त के प्राग्रह से उसके पुत्र की देख-रेख करने के लिए कुछ समय के लिए वह ठहर गया था। बिन्दुसार युवक था और वह उसका प्रादर भी करता था; किन्तु वह उसके प्रभाव से प्रसंतुष्ट था। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि चाणक्य राज्य कार्य में विशेष भाग किन्तु उसके अधिकार तो भी पूर्ववत् थे असन्तोष चाणक्य से छिपा हुमा नहीं था। पूर्व २६५ के लगभग साँसारिक सुखों का दिगम्बर मुनि हो गया और तपश्चरण साधना करने लगा । चाणक्य नही लेता था । बिन्दुसार का अतः वह ई० परित्याग कर द्वारा प्रात्म गोकुल स्थान मे संलग्न हो गया । प्रागमन सुनकर पूजा वन्दना मुनि चाणक्य अपने पांच सौ शिष्यों के साथ विहार करता हुआ कोयपुर नगर के बाहर कायोत्सर्ग में स्थित हो प्रात्मध्यान में कौञ्चपुर का राजा सुमित्र मुनिसघ का उनकी वन्दना के लिए गया । और उनकी कर तथा धर्मोपदेश सुनकर नगर में वापिस लौट आया । राजा के मंत्री सुबन्धु ने क्रोधवश शाम के समय घासफूस इकट्ठा कर कण्डों में आग लगवा दी, जिससे चाणक्य ने पांच सौ मुनियों के साथ प्रायोपगमन संन्यास धारणकर, अग्नि के भयकर उपसर्ग को सहकर उत्तमार्थ की प्राप्ति की' - अपने पद से विचलित न होकर समाधि से शरीर का परित्याग कर देवलोक प्राप्त किया । हरिषेण कथाकोष के अनुसार पांच सौ मुनियों के साथ प्रायोपगमन संन्यास का अवलम्बन किया, और महान उपसर्ग सहकर समाधि मरण द्वारा श्रात्म प्रयोजन सिद्ध १. गोट्ठे पयोगदो सुबंधुणा गोव्वरे पलिविदम्मि | उम्भन्तो चाणक्को पडिवो उत्तमं घट्ट ॥ -प्राराधना १५५६ गाथा २१७ किया। कौञ्चपुरीकी पश्चिम दिशा में चाणक्य की निषद्या बनी हुई है जिसकी साधु लोग भाज भी वन्दना करते हैं । जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट है : चाणक्यारूपो मनस्तत्र विशष्य पचशः सह। पांबोपगमनं कृत्वा शुक्लध्यानमुपेयिवान् ।। उपसगं सहिरवेमं सुबन्धुविहितं तथा । समाधिमरणं प्राप्य चाणक्यः सिद्धिमीयिवान् || ततः परमविभागे दिव्य कोचरस्य सा । निवद्यका मुनेरस्य वन्द्यतेऽद्यापि सामूभिः ॥ -- हरिषेण कथाकोश पृ० ३३८ प्राराधना कथाकोश में 'उत्तमं ब्रह्म नेमिदत्त ने " अट्ठ' वाक्य का अर्थ किया है, जो ठीक प्रतीत नहीं होता । वह सिद्धान्त विरुद्ध जान पड़ता है। उन्होंने लिखा है कि उन मुनियों ने शुक्ल ध्यान मे स्थित होकर कर्मों का निःशेष नाश सिद्धि को (मोक्ष को) प्राप्त किया । उत्तमार्थ का अर्थ रत्नत्रय प्राति भी लिखा है । पर उत्तमार्च का पर्थ श्रेष्ठ प्रयोजन को प्राप्त किया। वे रत्नत्रय सेत नहीं हुए किन्तु शरीर का परिस्याग कर देवलोक प्राप्त किया । - २. पापी बन्नामा च मंत्री मिध्यात्व दूषितः । समीपे सम्मुनीन्द्राणां कारीया कुपदी ॥४१ तदाते मुनयो धीरा, शुक्ल ध्यानेन संस्थिताः । हत्वा कर्माणि निशेष प्राप्ताः सिद्धि जगद्धिताम् ॥४२ - प्राराधना कथाकोष पृ० ३१० जीवन में उतारने योग्य नीति वाक्य १. यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा । परापवाद स्वयशोभ्यः चरन्तींगां निवारय ॥ यदि तुम अपने एक कार्य से संसार के प्राणियों के प्रिय एवं भद्धास्पद बनना चाहते हो तो दूसरों को बुराई करने वाली तथा मपनी प्रशंसा करने वाली वाणी को अपने मुख से कभी न कहो । २. ग्रात्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । जो बात तुम्हें प्रपने लिए प्रिय नहीं लगती उसका प्रयोग तुम दूसरे के लिए कभी मत करो । ३. मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् । मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ॥ 1 दुष्ट योग मन में कुछ और विचारते है, बचने से कुछ पौर कहते हैं तथा कार्य कुछ और ही प्रकार का करते हैं । परन्तु महात्मा लोगों के मन, वचन एवं कर्म तीनों में एकता होती है । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या प्राणी सुख प्राप्ति में पराश्रित है ? सुखदुःख मथुरादास जैन एम. ए., साहित्याचार्थ संसार में लोग प्रायः ऐसा कहते सुने जाते हैं कि जो भगवान को मंजूर है वही होता है । अर्थात् हमारा सुखदुःख भगवान की इच्छा के अधीन है। लेकिन इस प्रकार की धारणा ठीक नहीं यह केवल शिष्टाचार की वस्तु है । जैन सिद्धान्तानुसार यह जीव स्वयं ही अपने सुख दुःख कर्ता तथा भोत है। सिद्धान्त चक्रवर्ती माचार्य श्री नेमिचन्द्र जी ने अपने ग्रन्थ द्रव्यसग्रह में जीव के नो अधिकारों को बतलाते हुए इसके स्वरूप का वर्णन किया है कि जोश्रो उपयोगमो प्रमुत्तिकला सवेहपरिमाणो । भोता संसारथ्यो सिद्धो सो बिस्ससोढगई । जीव ज्ञानवान अमूर्त (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन पुद्गल गुणों से रहित ) कर्ता - अपने धच्छे बुरे कार्य का स्वयं करने वाला, स्वदेह परिमाण अर्थात् जिस शरीर मे रहता है उसके परिमाण तथा भोक्ता अपने किये शुभ अशुभ कर्म के फल को स्वयं पाने वाला होता है । जो जीव संसार बन्धन से मुक्त होता है वह स्वभाव से ऊर्ध्व गमन कर जाता है । जीव के इस स्वरूप से हमें ज्ञात होता है कि हम अपने सुख दुःख के पाने में किसी ईश्वर या शक्ति विशेष के पति नहीं है। जैसा हम करते हैं, वैसा ही फल भोगते हैं । कुछ लोग ऐसा विचार रखने वाले को यह कह कर कि यह ईश्वर भगवान को नहीं मानता नास्तिक कहते हैं। लेकिन यह मनुष्य की भूल है परमात्मा ईश्वर की सत्ता मानना और बात है तथा उसे प्राणियों सुख दुःख देने वाला मानना भीर बात है। शास्त्रों का वह वचन है कि को अशो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयोः । ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा वभ्रमेव वा ॥ अर्थात् यह प्राणी प्रज्ञ-नादान है घोर स्वयं अपने सुखदुःख को पाने मे सर्वथा असमर्थ है, यह ईश्वर के द्वारा प्रेरित हुआ। स्वर्ग या नरक में जाता है। इस प्रकार के विचार से मनुष्य मे अकर्मण्यता प्राती है वह सोचता है कि मेरे सुख दुःख ईश्वर के अधीन हैं। वह जैसा चाहेगा सुख दुःख देगा । मेरे करने से उसमे कुछ नही हो सकता, लेकिन इस प्रकार का विचार सर्वथा गलत है । हम अच्छा या बुरा जंसा कार्य करते है उसका वैसा फ्ल पाते हैं । जैसे मनुष्य भोजन खाता है तो उसमे क्षुषा रोग की निवृत्ति होती है उसी तरह हम अच्छा या बुरा जैसा कार्य करते हैं उसका सा फल पाते है"कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस कर सो तस फल चाखा ।" अर्थात् यह संसार कर्मप्रधान है जो जैसा शुभ या अशुभ 'कर्म करता है वह उसका वैसा ही प्रच्छा या बुरा फल पाता है । "जैसा बोम्रो वैसा काटी" की उक्ति यही सिद्ध करती है कि जैसा हम करते है तदनुसार ही फल पाते हैं। यदि हम सुखी होना चाहते हैं तो हमें कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे हम दूसरो के दुख पहुँचाने वाले बनें । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच पाप बतलाये गये हैं । इनके करने से हम निरन्तर दूसरे प्राणियों को दुःख पहुँचाते रहते है । अपनी स्वार्थ साधना में हमें यह महसूस नही होता कि ऐसा करने से दूसरों का हित होगा या महित जैसे एक मनुष्य नीम का बीज बोकर मीठे फल प्राप्त करने के साधन स्वरूप ग्राम के पेड़ को प्राप्त नहीं कर सकता उसी तरह पाप कार्य करते हुए कोई सुख प्राप्ति का साधन पुण्य नहीं प्राप्त कर सकता । गीता में श्रीकृष्ण जी ने बतलाया है किउद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ग्रात्मव प्रात्मनोवन्मुः धात्मंव रिपुरात्मनः । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या प्राणी सुखदुःख प्राप्ति में पराधित है ? २१९ हमें अपनी प्रात्मा का भला करना चाहिए। अपने न क्रोधादि जन्य हिंसात्मक भाव हो । उनकी प्रसन्नता से पापको पतनोन्मुख (गिरावट की भोर जाने वाला) नहीं अभिप्राय यही है कि जब हम अपने विशुद्ध (राग-द्वेष बनाना चाहिए। यह मात्मा ही पात्मा का (स्वयं ही रहित) हृदय से भगवान की भाराधना करते हैं तो स्वयं स्वय का) सबसे बड़ा मित्र हैं और यह पात्मा ही मात्मा पुण्योपार्जन करते हुए हम अपने इष्ट कार्यों में सफल हो का सबसे बड़ा शत्रु है। यदि हम भले कार्य कर अपने जाते है और व्यवहार मे कह देते हैं कि भगवान की प्रापको दुःख के गड्ढे में पड़ने से बचाते हैं तो हमसे कृपा से हमारे इस मनोरथ की सिद्धि हो गई। यथार्थ में अधिक हमारा और कौन मित्र हो सकता है। इसी तरह भगवान् के हृदय में न दया है और न निर्दयता ही । इसी यदि हम पाप कर्म कर अपने प्रापको दुःख के गड्ढे में बात को प्राचार्य श्री अपनी बनाई टीका में स्पष्ट करते गिराते हैं तो हमसे अधिक भोर कोई अन्य हमारा शत्रु हैं कि "प्रसादः पुनः परमेष्ठिन तद्विनेयानां प्रसन्नमनोनहीं हो सकता । गीता के इस उपदेश से यह बात स्पष्ट विषयत्वमेव वीतरागाणां तुष्टि लक्षण प्रसादासभवात्, हो जाती है कि हम अपने पाप का सुखी या दुःखी बनाने कोपासंभववत् ।" अर्थात् भगवान की प्रसन्नता से अभिमें सर्वथा स्वतन्त्र हैं। इतना ही नही बल्कि हमें समझना प्राय यही है कि यदि हम प्रसन्न (निदोष) मन से चाहिए कि यदि हम पवित्र मार्ग पर चल रहे हैं तो भगवान की प्राराधना करते है तो वही भगवान को हम दूसरा हमें दुःख पहुँचाने की नीयत रखते हुए भी दुःख पर प्रसन्नता है। वैसे वीत रागियों मे सन्तुष्ट होने रूप नही पहुँचा सकता। इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि किसी प्रसाद की उपपत्ति उसी तरह नहीं होती जिस यह जीव स्वयं अपने शुभाशुभ का कर्ता तथा उसके फल तरह से कि कोप की उपपत्ति नहीं होती। जैनधर्म में का भोक्ता है। प्राप्त के स्वरूप का वर्णन करते समय उनमे तीन गुणों __कुछ महानुभाव श्रीमदाचार्य विद्यानन्द स्वामी द्वारा का विशेष रूप से उल्लेख किया है । वीतराग, हितोपदेशो लिखित प्राप्त परीक्षा प्रन्थ के मंगलाचरण स्वरूप निम्न और सर्वज्ञ। वीतराग शब्द में राग पद से राग के सहश्लोक को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि जैनधर्म में भग- चारी देषकामी ग्रहण किया गया है। प्रतः वीतराग से वान की प्रसन्नता से इष्ट कार्यों को सिद्धि का उल्लेख है अभिप्राय रागद्वेष से रहित होना है। हितोपदेशी से अभिअर्थात् यदि हम भगवान को प्रसन्न कर ले तो हमारे प्राय जो लोगों को सन्मार्ग दिखावें और सर्वज्ञ से अभिकार्य की सिद्धि हो सकती है । श्लोक इस प्रकार है- प्राय सम्पूर्ण वस्तुओं के जानकार होने से है। जिनमें ये श्रेयो मार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात परमेष्ठिनः। तीन गुण विद्यमान होते हैं, वे अपने मे पूर्ण होते हैं । ऐसे इत्याहस्तव गुण स्तोत्रं शास्त्रादौ मनिपुङ्गवाः ।। महापुरुष के द्वारा अन्यथा उपदेश की कोई सम्भावना नहीं होती । क्योंकि प्राय: दोष पूर्णकथन का प्राधार या अर्थ इस प्रकार है कि कल्याण माग को प्राप्ति भग- तो रागद्वेष का सद्भाव होता है या ज्ञान की न्यूनता अथवा वान् का प्रसन्नता स हाता है। इसलिए मुनि प्रवर उपदेश को प्रकुशलता। प्राप्तमें इन तीनो बातों के प्रभाव शास्त्र के प्रारम्भ में भगवान का गुण-स्तवन करते हैं। के कारण प्राप्त में तथा उनके वाक्यों में पूर्ण प्रामायहाँ प्रसाद शब्द से भगवान की कृपा का अभिप्राय नहीं णिकता होती है। है । भगवान् (केवल ज्ञान सम्पन्न) तो इच्छा रहित होते अतः यह निर्विवाद सिद्ध है कि यह जीव अपने सुखहैं। क्योंकि जीव को केवल ज्ञान की प्राप्ति घातियाकर्भ दुःख में पराश्रित नहीं है। जैसा करता है वैसा ही फल मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय के पाता है। यदि हम अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते सर्वथा क्षय से होती है जैसा कि तस्वार्थ सूत्र में कहा है हैं तो हमें ऐसे कामों से सदा अलग रहना चाहिए जिनसे "मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणान्त राय क्षयाच्च केवलम्" कि हम दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले बनते हैं। "कर मोहनीय के क्षय के बाद इच्छा की उत्पत्ति असम्भव है। भला होगा भला" का सिद्धान्त सर्वथा सत्य सिद्धान्त है उनके हृदय में न करुणात्मक भाव ही होते हैं और भौर यही जीवन को सुखी बनाने का मार्ग है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर के कुछ प्रकाशन परमानन्द जैन शास्त्री श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द की जिन बिम्ब, बिन्ध्यगिरि के जिन चैत्यालय, मेदपाट अपूर्व कृति है । यह स्तोत्र स्वामी समन्तभद्र के देवागम (मेवाड़) देशस्थ नागफणी ग्राम के मल्लि जिनेश्वर, (माप्तमीमांसा) स्तोत्र जैसा सुन्दर, महत्त्वपूर्ण पोर दार्श. मालव देश के मंगल पुरस्थ अभिनन्दन जिन इत्यादि निक है। इसमें स्तुतिकार ने 'देवागम' स्तोत्र की शैली अनेक जिन बिम्बो के लोक-विश्रुत अतिशयों का उल्लेख को अपनाया है। इसके प्रत्येक पद्य की रचना बड़ी गमीर किया है। इस प्रकार यह शासन चतुस्त्रिशिका जहाँ और सात्विक है। यह सम्पूर्ण स्तोत्र भक्ति मौर तर्क से दिगम्बर शासन के प्रभाव की प्रकाशिका है, वहाँ साथ मे परिपूर्ण है । इसका हिन्दी अनुवाद न्यायाचार्य प० इतिहास प्रेमियो के लिए इतिहासानुसन्धान की कितनी दरबारीलाल जी कोठिया ने किया है। साथ में विस्तृत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री लिए हुए है। इसका अनुवाद व प्रस्तावना दी गई है जिसमें स्तोत्र गत विशेषताओं को सम्पादन ५० दरबारीलाल जी कोठिया न्यायाचार्य ने प्रकट करते हुए स्तोत्रकार के समयादि पर प्रकाश डाला। किया है। प्रस्तावना मे महत्त्व की बातों पर प्रकाश डाला गया है । मूल्य ७५ पैसा है। __ गया है। प्रत्येक सरस्वती भण्डार और स्वाध्याय प्रेमी शासनचतुस्चिशिका-पं. बाशाधर जी के सम- को इसकी एक प्रति अवश्य मंगाकर रखना चाहिए। कालिक, तेरहवीं शताब्दी के महाविद्वान् मदनकोति यति- सरसाधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्री जुगलकिशोर जी पति की रचना है। इसमें अनेक सिद्ध क्षेत्रों और प्रति मुख्तार द्वारा संकलित भगवान महावीर और उनके शय क्षेत्रों पर स्थित जिन बिम्बों के प्रतिशयो, माहात्म्यो पश्चादर्ती २१ महान् प्राचार्यों के, अनेक प्राचार्यों तथा पौर प्रभावों के प्रदर्शन द्वारा यह बतलाया है कि दिगम्बर विद्वानों द्वारा किये गये १३७ पुण्य स्मरणों का यह महत्वशासन अपनी निर्ग्रन्थता, अनेकान्त वादिता प्रादि विशेष- पूर्ण संग्रह है। साथ में उन सबका हिन्दी अनुवाद भी तामों के कारण सर्व प्रकार से जयकार के योग्य है और दिया गया है। इस पुस्तक के पाठ से अपने महान् उसके लोक में बड़े ही प्रभाव और प्रतिशय रहे हैं । इस भाचार्यों के प्रति भक्ति मोर श्रद्धा जागृत होती है । तथा रचना में उन्होंने कैलाश-स्थित ऋषभदेव का जिन बिम्ब, प्राचार्यों का कितना ही इतिहास सामने पा जाता है। पदिनपुर के बाहुबली, श्रीपुर के पावं नाथ, होलागिरि पुष्ट चिकना कागज और सुन्दर टाइप । मूल्य ५० के शंखजिन, धारा के पार्श्वनाथ, वृहत्पुर के वृहद्देव, पैसा । जनपुर के (जनवरी) के गोम्मट स्वामी, पूर्व दिशा के माचार्य प्रभाचन्द्र का तत्स्वार्थ सूत्र-यह अन्य भाकार पाश्वं जिनेश्वर, विश्वसेन द्वारा समुद्र से निकाले गये मे छोटा होने पर भी उमास्वाति के तत्त्वार्य सूत्र की तरह शान्तिजिन, उत्तर दिशा के जिन बिम्ब, सम्मेद शिखर के दश अध्यायों में विभक्त है । मूल विषय भी इसका सूत्र जी बीस तीर्थकर, पुष्पपुर के पुष्पदन्त, नागबह के नाग- के समान मोक्षमार्ग का प्रतिपादक है। और क्रम भी हृदेश्वर जिन, पश्चिम समुद्र तट के चन्द्रप्रभ जिन, पावा- प्रायः एक जैसा है-कहीं-कहीं पर थोड़ी सी कुछ विशेके वीर-जिन, गिरनार के नेमिनाथ, चम्पापुर के वासुपूज्य, षता अवश्य पाई जाती है। एक प्रकार से इसे सस्वार्थनर्मदा के जल से मभिषिक्त शान्ति जिनेश्वर, केशोराय- सूत्र का ही संक्षिप्त संस्करण कहा जा सकता है। विद्यापाटन (माशारम्य) के मुनि सुव्रत जिन, विपुलगिरि के पियों पौर स्वाध्याय प्रेमियों को कंठस्थ करने योग्य है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोर सेवा मन्दिर के कुछ प्रकाशन २२१ इसके दशों प्रध्यायों के सूत्रों की संख्या १०७ है। प्रारभ उनके विचारों का प्रसार करने की दृष्टि से मुख्तार सा० मे मुख्तार साहब की खोजपूर्ण प्रस्तावना, मूल सूत्र पाठ ने इस पुस्तक को लिखा है। इसमें 'स्व पर-बैरी कोन', पोर हिन्दी अनुवाद है। ऐसे उपयोगी ग्रन्थ का मूल्य वीतराग की पूजा क्यों, वीतराग से प्रार्थना क्यो मोर पच्चीस पंसा है। पाप-पुण्य की व्यवस्था क्यों इन चार विषयों की मार्मिक अनित्य भावना-माचार्य पद्मनन्दि विरचित 'मनित्य चर्चा प्रत्यन्त सरल ढंग से की गई है। पूस्तक स्वाध्याय पचाशत्' नाम की कृति का मुख्तार सा. द्वारा हिन्दी में एव सर्व साधारण में प्रचार के योग्य है । मूल्य २० पैसा । किये गये पद्यानुवाद और गद्यानुवाद के साथ यह सुन्दर महावीर जिन पूजा-इसमें महावीर की पूजा दी सस्करण प्रकाशित किया गया है । इसके नित्य पाठ करने गई है। और जयमाला में भ. महावीर के तत्त्वज्ञान का से पाठक का हृदय हर्ष-विषाद की दलदल में प्रौर मोह भी अच्छा समावेश किया गया है। इस पूजन को पढ़ते क फन्दे में नही फंसता है। प्रत्येक भाई को इसका पाठहए पजक का हृदय प्रानन्द और भक्ति से प्रात्म-विभार करना चाहिए । मूल्य पच्चीस पैसा । हो जाता है । मूल्य २० पैसा । अनेकान्त रस लहरी-अनेकान्त जैसे गूढ गम्भीर बाबली जिनपूजा-भरत चक्रवर्ती को तीनों युद्धों विषय को मुरूनार सा० ने ऐसे मनोरंजक ढंग से सरल मे जीतने के पश्चात् संसार का त्याग करने वाले बाहुवली शब्दा में समझाया है, जिससे बच्चे तक भी उसके मर्म के उत्कृष्ट त्याग और तपस्या से प्रभावित होकर मुख्तार को प्रासानी से समझ सके। प्रध्यापक और विद्यार्थी के साहब ने अत्यन्त भक्ति के साथ इस पूजा को लिखा है । बीच बात-चीत के रूप में इस पुस्तक को लिखा गया है। इसकी जयमाल पढ़ते हुए भरत बाहुबली का दृश्य सन्मुख पुस्तक प्रत्येक तत्त्व प्रेमी को अवश्य मगा कर पढना उपस्थित हो जाता है और तपस्वी बाहुवली मूर्तिमान चाहिए और प्रचारार्थ वितरण करना चाहिए। मूल्य सामने खडे प्रतीत होते हैं। यह पूजा प्रत्येक भाई के पच्चीस पैसा। मित्य करने योग्य है। पार्ट पेपर पर छपी है। मूल्य महावीर का सर्वोदय तीर्थ-भ० महावीर का २५ पैसा । शासनरूप तीर्थ ही सर्व प्राणियों का उवय अर्थात कल्याण परिग्रह का प्रायश्चित्त-परिग्रह का संचय पाप है, का कारण और दुःख संहारक है। यह बात मुख्तार सा० और उसका परित्याग दान या पण्य नहीं, किन्तु प्रायने बड़े ही सरल ढग से प्रमाणों के साथ प्रस्तुत पस्तक में श्चित्तमात्र है। इस बात को मुख्तार सा० ने अनुपम ढग दिखाई है । पन्त में सर्वोदय तीर्थ के १२० सुवर्ण सत्र से दर्शाया है। पुस्तक सर्वसाधारण मे वितरण योग्य है । देकर इसकी उपयोगिता शतगुणी कर दी है। जैन शासन मूल्य १० पैसा। के प्रचार के लिए यह बहुत उपयोगी है। मूल्य बीस सेवाधर्म-लोग पहिसा, सत्य, शोच प्रादि अनेक पंसा है। घों से परिचित हैं; किन्तु सेवाधर्म से वे प्रायः प्रपरिसमन्तभद्र-विचार-दीपिका-दूसरी शताब्दी के पति- चित हैं । भोर भनेक लोग सेवा करने को धर्म नहीं तीय विद्वान समन्तभद्र स्वामी हुए हैं। जिनके विषय में समझते हैं। ऐसे लोगों के सम्बोधनार्थ ही यह पुस्तक शिलालेख में लिखा मिलता है कि उन्होंने अपने समय में लिखी गई है। इसे पढ़कर मनुष्य सहज ही में सेवाभावी वीर शासन को हजार गुणी वृद्धि की है। लोकहितार्थ हो जायगा । मूल्य १० पैसा। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम सुखी कैसे बनें ? मथुरादास जैन एम. ए., साहित्याचार्य मनुष्य के सुखदुःख का कारण बहुत अंशों में उसकी "बोये पेड़ बबूल के प्राम कहां ते खाय । बबूल के पेड़ प्रवत्तियाँ होता है । वह जैसा व्यवहार करता है तदनुकूल वोकर कोई ग्राम के फल की प्राप्ति नहीं कर सकता। फल पाता है। अच्छे व्यवहार भोर माचरण के परिणाम हमे अपना व्यवहार ठीक रखना चाहिए, ऐसा करने से प्रच्छे होते हैं। “कर भला होगा भला" का मत्र हमें हो देश में खुशहाली प्रायेगी । जब तक देश से बेईमानी, यही सिखाता है कि हम दूसरों के साथ अन्याय का व्यव- रिश्वतखोरी, स्वार्थान्धता, गरीबों की उपेक्षा, ये बुराइयां द्वार न करें। "प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत्" न हटेंगी देश समृद्धिशाली नहीं हो सकता । इनके हटने में की नीति पर जो पमल करते हैं वे सदा दूसरों के प्रिय ही प्रत्येक मनुष्य का सुख है और देश की उन्नति है। व स्नेहभाजन रहते हैं। __ उन्नत देशों की मुख्य-मुख्य बातें ये ही होती है कि __ ऐसा होने पर भी मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं देशवासियों में प्राध्यात्मिक, व्यावसायिक, वैज्ञानिक, और इस तरह हम सबो के सुखदुःख एक दूसरे से सम्ब- साहित्यिक प्रादि विषयोंका पूर्ण ज्ञान हो । इनके होने से ही न्धित रहते हैं। जिस तरह हमारा अन्यायपूर्ण व्यवहार देश में सम्पत्ति की वृद्धि हो सकती है और देश की गरीबी दूसरे को दुःखी करता है उसी तरह दूसरे का प्रन्यायपूर्ण दूर हो सकती है। इसके साथ ही प्रत्येक देशवाशी में व्यवहार हमारे दुःख का कारण बन जाता है। नैतिक, चारित्रिक बल का होना भी परमावश्यक है। इन माज भारत के स्वतन्त्र होने पर भी भारत की जनता गुणो के प्रभाव में देश कभी ख्याति, विश्वासपात्रता एव का बहत बड़ा भाग सुखी नही है। देश की १५ अगस्त प्रामाणिकता को प्राप्त नही कर सकता । पशुबल, घन एवं सन ४७ की स्थिति से प्राज सन् १९७३ की स्थिति का वैभव की बढ़ोतरी एकान्तरूप से देश को समुन्नत बनाने जब हम मिलान करते हैं तो भले ही देश की पराधीनता वाली नहीं होती। देश तभी समुन्नत बनता है जब उसके के बन्धनों के टूटने से देश उन्नत हुमा है उद्योग बढ़ा है, निवासियों की सात्विक वृत्तिया वृद्धि को प्राप्त करती हैं। राष्ट. समाज व जनता को प्रतिदिन के व्यवहार को सम्राट अशोक का जीवन यदि कलिङ्ग विजय तक ही वस्तयों के निर्माण में देश के प्रात्मनिर्भर होने से राष्ट्र सीमित रहता तो देश के इतिहास में अशोक को जो गौरव की आर्थिक क्षमता बढ़ी है लेकिन सभी क्षेत्रो मे महगाई प्राप्त है वह न होता । इस गौरव के बीज तो अशोक के के उग्ररूप धारण कर लेने से साधारण जनता के दु.ख जीवन मे सात्त्विक वृत्ति के जगने से ही प्राप्त हुए। देश घटने के स्थान पर कई गुने बढ़ गये हैं। साधारण जनता में जब स्वार्थान्धता, लोलुपता, कामुकता ईर्ष्यालुता बढ़ को दृष्टि दूर तक नहीं जाती वह तो नित्यप्रति के कार्यों जाती हैं तो देश कमजोर हो जाता है। और उसे तब से अपने सुखदुःख का निर्णय करती है । जनता के इस बड़े किसी भी मुसीबत का शिकार बनने में देर नही लगती।' हुए दुःख का कारण देश में सच्चरित्रता (सच्चापन) की हमारे देश में परतन्त्रता का पदार्पण जब जब हुमा फिर कमी ही है। जब मनुष्य के हृदय में स्वार्थ भावना चाहे बह परतन्त्रता मुस्लिम साम्राज्य जन्य हो या ब्रिटिश बढ़ जाती है तो वह दूसरो के सुखदुःख के प्रति उदासीन साम्राज्य जन्य उसका कारण देश की कमजोरी ही थी। हो जाता है। अन्याय के मार्ग में कदम रखना उसे अन्याय कमजोरी देश को स्वतन्त्रता की रक्षा में प्रशक्त बना देती नही लगता । पाज देश की नैतिकता में इतनी गिरावट भा है। प्रतः हमें इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिए कि गई है कि मनुष्य दूसरों के सुखदुःख की तरफ पांखें मूंद- देश कमजोर न हो। वे बुराईयां, (बेईमानी, रिश्वतखोरी, कर केवल अपने सुखदुःख का ही ध्यान रखने लगा है। स्वार्थान्धता मादि) जो देश को खोखला कर देती हैं यह नैतिक गिरावट हट जाय तो देश की बहुत कुछ मुसी- उनका मूलोच्छेद बिनाश ही देश को सुखी और गौरवपूर्ण बतें हल हो जाय। मनुष्य को सोचना चाहिए कि- बना सकता है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भारतवर्षीय दि. जैन परिषद् की स्वर्ण जयन्ती प्राचीन संस्कृतियों से सम्पन्न, राजस्थान की मोद्यो. भगवान महावीर के पच्चीस सौवी निर्वाण शताब्दि के गिक नगरी कोटा मे श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परि- प्रादर्श रूप से मनाने के सम्बन्ध मे है। ३रा प्रस्ताव षद् की स्वर्ण जयन्ती का उत्सव ता०६, ७ जनवरी सन् सामाजिक कुरीतियो के निवारण के बारेमें है। ४था प्रस्ताव ७३ को सानन्द एवं सफलता पूर्वक सम्पन्न हो गया। इस समाज में विद्यमान चारित्रिक गिरावट को दूर करने के ऐतिहामिक महोत्सव का उद्घाटन जैन समाज के रत्न, विषय मे है । ५वा प्रस्ताव समाज एवं देश से बेकारी को अनुपम दानी स हू शान्तिप्रसाद जी के करकमलों से हुआ। हटाकर खुशहाली लाने के सम्बन्ध मे है। ६ठा प्रस्ताव परिषद् अधिवेशन के अध्यक्ष बा. महावीर प्रसाद जी प्रकाल पीड़ितों की सहायता करने के बारे में है। इमा जैन एडवोकेट हिसार हरियाणा थे। उत्सव के स्वागता. प्रकार अन्य छ प्रस्ताव परिषद को सदस्य संख्या बढ़ाने, ध्यक्ष श्री जम्ब कुमार जी जैन थे। इस स्वर्ण जयन्ती जैन मूतियो की चोरी से सुरक्षा करने तथा बूचड़खानों मे समारोह के अवसर पर जैन युवक सम्मेलन जिसके अध्यक्ष भारत सरकार द्वारा निश्चित दिनो मे निषिद्ध हिंसा के रमेशचन्द्र जी जैन तया जैन महिला सम्मेलन जिसकी बन्द रखने की व्यवस्था के सम्बन्ध में है। प्रध्यक्षा श्रीमती लेखवती जी जैन थी प्रति सफलता भारत की राजधानी दिल्ली में शिक्षा साधनों को पूर्वक सम्पन्न हुए । उत्सव मे भारत के सभी भागों से प्रोत्माहन देने के बारे मे अखिल भारतवर्षीय जैन परिषद् गण्य मान्य जैन बन्धु पधारे थे। दोनों दिन भारत को की विशेष रुचि का होना भी आवश्यक है। शिक्षा के प्राचीन नगरी कोटा की चहल-पहल एवं शोभा अति मन माध्यम से धर्म एव समाज का स्थायी प्रचार व प्रसार लुभावनी रही। होता है इस विषय में दो राय नही हो सकतीं। राजपरिषद् की स्थापना भारत का राजधानी दिल्ली घानी में हिन्दू मुमलिम, सिक्ख ईसाई समाज के नगरी मे सन् १९२३ मे जैन समाज के सामाजिक सुधार अनेक कालेज है लेकिन कोई जैन कालेज नहीं है। हालां की बलवती भावना से प्रेरित स्वनाम धन्य ब्रह्मचारी कि इस प्रकार के जैन कालेज को पोषण देने वाले अनेक शीतलप्रसाद जी, वरिष्टर जुगमन्दर लाल जी, वैरिस्टर प्राइमरी, हायर सेकण्डरी स्कूल लडके तथा लडकियों के चम्पतराय जी, वकील अजितप्रसाद जी लखनऊ मादि जैन यही विद्यमान है। इस प्रावश्यक कमी पूतिके लिए जब तब समाज के तात्कालिक उत्साही एवं पाश्चात्य शिक्षा से प्रयत्न भी हुए है लेकिन उनकी पूर्ति का सौभाग्य दिन सुसम्पन्न महानुभावों ने की थी। सन् १९२३ से १९७३ प्रभी नही पाया है । भगवान महावीर की पच्चीस सोवी तक यह परिषद् उत्साह और लगन से जैन समाज सेवा निर्वाण शताब्दि के एक स्मारक के रूप मे यदि एक महाका कार्य करती मा रही है। परिषद् के प्रयत्नों से देश. बीर जैन कालेज की स्थापना हो जाय तो यह एक सराहविदेश में जैनधर्म का बहुत प्रचार एवं प्रसार हुआ है। नीय एवं स्मरणीय कार्य होगा। यद्यपि दिल्ली की जैन इस महोत्सव में परिषद् ने जैन समाज को उन्नति को समाज, जहाँ कोटयधीशों की कमी नहीं है, के लिए भी यह लक्ष्य बनाकर उसकी पूर्ति के लिए जो प्रस्ताव पास किये कोई कठिन कार्य नहीं फिर भगवान महावीर का पच्चीस हैं उनका संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया है। सौवां निर्वाण दिवस तो जैन समाज की एक विशाल प्रथम प्रस्ताव दिवंगत ४२ समाजसेवी बन्धुनों की समष्टि का पायोजन है। प्राशा है समाज का ध्यान इस शान्तिलाभ की कामना का है। द्वितीय प्रस्ताव सन् १९७५ कमी की पूर्ति के लिए दृढ़ता पूर्वक जायेगा। में राष्ट्रीय स्तर पर प्रति समृद्ध रूप से मनाये जाने वाले -मथुरावास न एम. ए, साहित्याचार्य Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १.पावती पूजा मिच्यास्व है-लेखक श्री रतन- परिशिष्टों से ग्रन्थ की उपयोगिता अधिक बढ़ गई है। लाल जी कटारिया केकड़ी । पृष्ठ २८ मूल्य २५ पैसा। अनुसन्धाता प्रेमियों के लिए ग्रन्थ बहुत उपयोगी है । श्री मिलापचन्द जी कटारिया जैन ग्रन्थमाला का इसके लिए लेखक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवाद के प्रथम पुष्प । इसमें अनेक प्रमाणों के माधार पर पद्मावती पात्र हैं। देवी की पूजा को मिथ्यात्व बतलाया गया है। पं० रतन ३. गीत वीतराग प्रवन्ध-श्री अभिनव पण्डितालाल जी जैन समाज के सुयोग्य विद्वान हैं। उनके समी चार्य । सम्पादक डा. मा. ने. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट क्षात्मक लेख सुन्दर पोर जैनधर्म की मूल माम्नाय के प्राध्यापक जैन विद्या पौर प्राकृत, मैसूर विश्वविद्यालय, संरक्षक होते हैं। मैसूर । प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ वी. ४५-४७, कनाट २. अपभ्रंश भाषा मोर साहित्य की शोषप्रवृतियां- प्लेस, नई दिल्ली-१ पत्र सं०७७, मूल्य सजिल्द प्रति का लेखक डा. देवेन्द्र कुमार जैन शास्त्री साहित्याचार्य नीमच। ३) रुपया। प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ ३६२०/२१ नेताजी सुभाष प्रस्तुत कृति जयदेवकृत गीत गोविन्द की पति मार्ग देहली-६ । पृष्ठ संख्या २०७, मूल्य चौदह रुपया। पर लिखी गई हैं जो ललित एवं गेय है। इसके कर्ता प्रस्तुत पुस्तक पांच अध्यायों में विभक्त है उनमें से अभिनव पण्डिताचार्य हैं। इस गीत वीतराग प्रबन्ध का प्रथम दो प्रध्यायों में प्राच्य विद्यापों के अध्ययन अनु- मूलाधार जिनसेन के प्रादिपुराण की कथा वस्तु है। सन्धान के सन्दर्भ मे एक महत्त्वपूर्ण कृति है । इसमे लेखक इसमें प्रादिनाथ तीर्थकर का सम्पूर्ण चरित्र पूर्वभवों से ने सन् १९३६ से १९७१ तक के प्रकाशित ८०० शोष- लेकर मोक्षप्राप्ति तक का निबद्ध है। इसका सम्पादन निवन्ध, पुस्तकों तथा प्रवन्धों का विवरण प्रकाशन के सुन्दर हुमा है । डा. उपाध्ये ने अग्रेजी प्रस्तावना मे ग्रन्थ काल कम से दिया है। तृतीय अध्याय में 'अपभ्रश के को विशिष्टता का दिग्दर्शन कराया है। पुस्तक विविध हस्तलिखित अन्य' शीर्षक में ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध रागों में गाई जा सकती है। यह पुस्तक गांगेयवशी राजलगभग एक हजार पाण्डुलिपियों का विवरण दिया है। पुत्र देवराज के अनुरोध से रची गयी है। ग्रन्थकार द्राविड़ मौर चतुर्थ अध्याय में अपभ्रंश के प्रकाशित प्रप्रकाशित देशस्थ सिंहपुर के निवासी थे। उनका जन्म सिंहउपलब्थ साहित्य का विवरण लेखक क्रम से दिया गया है पुर में हुमा था। वे कुन्दकुन्दान्वयदेशीगण के विद्वान जिसमें डेढ़ सौ लेखकों की लगभग तीन सौ रचनामों के प्राचार्य थे। मोर श्रवण वेलगुल मठ के अध्यक्ष थे। सन्दर्भ की सूचना है। पोर पांचवें अध्याय में अपभ्रंश के कवि ने इस ग्रन्थ की रचना शक १३२१ (सन् १३६६) पज्ञात एवं अप्रकाशित ग्रन्थों के चंश दिये गए हैं। तीन में की थी। -परमानन्दन Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य, दर्शन व इतिहास में अनुसंधान की आवश्यकता वर्तमान काल के विज्ञानयुग होने के कारण जैसे वैज्ञानिक प्राविष्कार नई खोजो के परिणाम हुए है पोर वैज्ञानिक अध्ययन का महत्त्व बढ़ा है बसे ही शिक्षण क्षेत्र में भी अनमन्धानात्मक शिक्षण निर तर महत्त्व एव बृद्धि को प्राप्त करता जा रहा है। जैन साहिय, दर्शन व इतिहास में भी अनसन्धान की विशेष प्रावश्यकता है जैन शिक्षण संस्थानों में जो अध्ययन अध्यापन को ब्यवस्था है वह के बल म ग्रन्थो के पठनपाठन तक ही सीमित है यही कारण है कि इन क्षेत्रो मे अनसन्धानात्मक कार्य नहीं हो सका है और जैनधर्म का जितना प्रचार देश-विदेश मे होना चाहिए नहीं हो पाया है। छापे के सुलभ साधन वाले इस जमाने में भी प्रनेकानेक जैन ग्रन्थ अप्रकाशित अवस्था में पड़े हैं और निरन्तर क्षीणता को प्राप्त होते जा रहें है। अनेक ऐसे ग्रन्थ व विषय है जिन पर शोषपूर्ण काय हो 'सकता है । जैनधर्म मे स्वीकृत ६ द्रयों में प्रत्येक द्रब्य पर अनुसन्धारात्मक ग्रयो को प्रावश्यकता है। जीव द्रव्य के सम्बन्ध मे प्रचलित सभी धर्मो व दर्शनों का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए उसके असली स्वरूप पर प्रकाश डाला जा सकता है । जोव के अवादि निधनत्व का सिद्ध कर प्रात्न कल्याण के माग को प्रदर्शित किया जा सकता है । जैनधर्म मे जीव को स्वयं कर्ता व भोक्ता बतलाया है भगवद्गीता को यह उक्ति प्रात्मैव प्रात्मनो बन्धुः प्रात्मैव रिपुगत्मनः । मनुष्य स्वयं ही अच्छे प्राचरण को रखने से अपना कल्याण करने वाला मित्र तथा पाप कार्य में निरत रहने से अपना अहित करने वाला शत्रु है। इसी तथ्य पर प्रकाश डालनी है। वैज्ञानिक लोग भौतिक पदार्थों के अनुसन्धान में जैसे सफल हुए है से हो वे प्रात्मतत्त्व के अनुसन्धान में प्रवत्त है। भारतीय दार्शनिकों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे अपने ऋषियो, महषियो, गणधरो एवं तीर्थंकरों द्वारा कथित प्रात्मतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को प्रकाश मे लाकर लोगो को धर्म और कर्तव्य का सच्चा भान कराये। जीवद्रव्य की तरह अन्य पुदगल, धर्म, अधर्म प्राकाश व काल द्रव्य भी अनसन्धानात्मक अध्ययन को अपेक्षा रखती हैं। हर्ष की बात है कि राजधानी में स्थित वीर सेवा मन्दिर, जो पिछले एक बड़े लम्बे समय से अपने प्रका. शित ग्रन्थों, लेखो प्रावि से देश, धर्म एवं समाज की सेवा करता पा रहा है, उसमें एक अनसाधान कक्ष की स्थापना की गई है। यहाँ अनसन्धान के उपयुक्त साहित्य सामग्री व अन्य साधन एकत्रित किए जा रहे है। जो सज्जन जनधर्म व वर्शन तथा इतिहास से सम्बन्धित अनुसन्धान कार्य कर रहे है वे अपने निब.धो, लेखो प्रादि को इ । सस्था के प्रसिद्ध पत्र "अनेकान्त" में प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं। वीर सेवा मन्दिर के विशाल सरस्वती भवन का भी नवीनीकरण हो रहा है। जिससे कि ग्रन्थो का अधिकाधिक उपयोग हो सके। वीर सेवा मन्दिर सस्था का एक प्रकाशन विभाग भी है इसके द्वारा अनक ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है। ये ग्रन्थ विक्री के लिए भी रखे गये हैं। जिन विद्वानो ने भिन्न भिन्न विषयो पर अनुसन्धान कार्य कर जो निबन्ध, ग्रन्थ तैयार किये हैं उनको एक-एक प्रति यहां पुस्तकालय मे रहने से राजधानी मे रहने वाले तथा अनुसन्धानात्मक अध्ययन की इच्छा से यहां पाने वाले लोग भी उनसे लाभ उठा सकते है। प्राशा है इस प्रकार के अनुसन्धानात्मक ग्रन्थ प्रस्तुत करने वाले विद्वान राखक अपने-अपने ग्रन्यो की एक-एक प्रति सस्था के सरस्वती भवन में भेजने को कृपा करेगें। तथा अपने खोजपूर्ण निबन्धों को "अनेकान्त" पत्र में प्रकाशनाथं भेजने का प्रयत्न करेंगे। निवेदक : 'अनेकान्त" वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्ली-६ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.N. 1059162 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन २.००' . xx पुगतन जैन वाक्य-मूची : पान के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके माथ ४८ दीकादि ग्रन्थो मे उत मरे पछी को भी अनुत्र नगी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो का मुची। मपादक मृतार श्री जगनकिमोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना में अलकृत, डा० कानीदाम नाम पम , डा. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा . एन. उपाध्ये एम.ए.डी. निट. की भूमिका (Introduction) मे भूपित है, गोध-ग्बोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, ममिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की म्बोपज मटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक मृन्दर विवेचन को लिए झा, लायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद मे युक्त, मजिल्द । ८.०० स्वयम्भूस्तोत्र : ममन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुस्तार श्री जुगलकिशोर जी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवणापूर्ण प्रस्तावना में मुगाभिन । स्तुतिविद्या : स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी वृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, मानुवाद और श्री जुगल किगीर मुन्नार का महत्व की प्रस्तावनादि मे अल कृत मुन्दर जिल्द-महित । अध्यात्म कमलमार्तण्ड . पनाध्यायांकार कवि गजमल की सुन्दर प्राध्यामिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-हित १-५० यक्त्यनशामन : तत्वज्ञान में परिपूर्ण, ममन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि में अलकृत, मजिल्द । श्रीपुर पाश्वनाथस्तोत्र प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुनि, हिन्दी अनुवादादि महित । शामन चतुस्त्रिशिका . (नीपरिचय) मुनि मदनवाति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद महित समीचीन धर्मशास्त्र - म्वामी ममन्तभद्र का गृहम्याचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाग्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, मजिल्द । ... जैन ग्रन्थ-प्रशस्ति स ग्रह भा० १: मस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण मदिन अपूर्व मग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और प० परमानन्द शास्त्री को इनिहाय-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में ग्रलकृत, मजिल्द । ४.०० समाधिनन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्म कृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका महित प्ररित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वको रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ मांडत तत्वाधसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । श्रवण बलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ। महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा बाहुबली पूजा प्रत्येक का मुन्य अध्यात्मरहस्य : प. अशावर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दा अनुगद सहित । जन ग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह। पचपन ग्रन्थ कागे के ऐतिहामिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो महित। सं.५० परमानन्द शास्त्री। मजिल्द। १२.०० न्याय-दीपिका : आ. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी मिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के माथ बडे साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों मे। पुष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द । Reality : प्रा० पूज्यपाद की मर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में घनवाद बडे पाकार के ३००प. पक्की जिल्द ६-००। - निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया ५.०० प्रकाशक - मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित । Page #244 --------------------------------------------------------------------------  Page #245 --------------------------------------------------------------------------  Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५: किरण ६ द्व मासिक अकत भगवान प्रादिनाथ (श्री ऋषभदेव ) फरवरी १६७३ जैन संस्कृति के प्राचीन क्षेत्र लाडनू ( राजस्थान) में प्राप्त प्रतिमा का चित्र परिचय के लिए देले पृष्ठ संख्या २४६ समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख - पत्र Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *० विषय-सूची विषय ९ धर्म का स्वरूप २ धर्म का जीवन में स्थान - - मथुरादास जैन एम० ए०, साहित्याचार्य ३ डाक्टर दरबारीलाल जी कोठिया का अध्यक्षीय भाषण ४ अनेकान्त के स्वामित्व तथा अन्य व्योरे के विषय मे ५. प्रसिद्ध उद्योगपति साहू शान्तिप्रसाद जी जैन का उद्घाटन भाषण ६ जैन दृष्टि मे मोक्ष एक विश्लेषण ७] लाइन की एक महत्वपूर्ण जिन प्रतिमा ७ जियो और जीने दो' के सिद्धान्त पर एक वैज्ञानिक प्रकाश "फूल भावुक होते है" C स्व० ला० राजकिशन जी - मथुरादास जैन १० वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा -- सकलनकर्ता श्री बन्शीधर शास्त्री ११ गाथा सप्तसती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि १२ भगवान महावीर की साधना पद्धति - मुनि श्री महेन्द्रकुमार ( प्रथम ) १३ दान की महिमा - मथुरादास जैन एम. ए. १३] अनेकार वर्ष २५ को वार्षिक सूची पृ० २२७ २२८ अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा २२६ २३५ २३६ २४२ २४६ २४७ २४८ - डा० प्रेम सुमन जैन एम. ए., पी-एच. डी. २५७ २४६ २६३ २६५ २६८ सम्पादक मण्डल डा० आ० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन श्री मथुरादास जैन एम. ए. साहित्याचार्य * समवेदना वीर सेवा मन्दिर परिवार जैन समाज के उद्भट विद्वान् डा० हीरालाल जी जैन एम० ए०, डी० लिट० के असामयिक निधन पर हार्दिक शोक और समवेदना प्रकट करता है। डाक्टर साहेब की जिन वाणी सम्बन्धी सेवायें परमादरणीय एवं अनुकरणाय है । भगवान् से प्रार्थना है कि डाक्टर साहब की आत्मा को सुगति को प्राप्ति हो तथा उनके वियोग सन्तप्त परिवार को धैर्य लाभ हो । महेन्द्र सेन जंगी महासचिव वीर सेवा मन्दिर, २१. रियाज दिल्ली। न्यायाचार्य डा० दरबारीलाल जी कोठिया का अध्यक्षीय भाषण अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद् के शिवपूरी (मालियर) मे हुए अधिवेशन में डा० कोठिया जी ने जो ग्रध्यक्षीय भाषण प्रस्तुत किया है एक विशेष महत्व का लेख निबन्ध है । यह भाषण जहा जैन समाज व जिनवाणी के उत्थान के अनेक सभाओ का प्रदर्शन करता है वहा परिषद् के इतिहास की रूप रेखा पर भी पर्याप्त प्रकाश डालता है । आपका भाषण जैन समाज एव जैन वाङ्मय की स्थिति का एक सुन्दर चित्र बन गया है । जैन सिद्धान्त और दर्शन के तत्वों को भी भली भाति समझाया गया है । सभाध्यक्षो के भाषण प्रायः समाचार पत्रो की तरह सामयिक साहित्य के महत्व तक ही पहुंचते हैं लेकिन श्रावका भाषण अनेक विषयों के अनुसन्धान पूर्ण विवेचन के कारण निश्वय ही स्थायी साहित्य की कोटि मे परि गणनीय हो गया है। जैनधर्म एवं जैन माहित्य की उन्नि वीषा वाले व्यक्ति के लिए भाषण ध्यान से पढ़ने, मनन करने एवं प्राचरण में लाने की बस्तु बन गया है। अनेकान्त में प्रकाशित मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं । -सम्पादक विचारों के लिए सम्पादक - व्यवस्थापक प्रनेकाल Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * महंम अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजास्यन्वसिन्धुरविधानम् । सालनयविलसिताना विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २५ । बोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९६, वि० सं० २०२६ 5 जनवरी किरण ६ ) फरवरी १९७३ धर्म का स्वरूप धर्मो जीवदया गृहस्थ शमिनोभैदाद्विधा च त्रयं । रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्ट क्षमादिस्ततः । मोहोमूत विकल्पजाल रहिता वागङ्गसंगोज्झिता। शुद्धानन्वमयात्मनः परिगतिधर्माख्यया गीयते ॥१॥ प्राधा सतत संचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपा। मलं धर्मतरोरनश्वरपदारोहकनिःश्रेणिका। कार्या सद्भिरिहाङ्गि प्रथमतो नित्यं क्या धामिकः । घि नामाप्यवयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या विशः ॥२॥ अर्थ-धर्म की आत्मा जीव दया है। यह धर्म पालक गहस्थ व मुनियों के भेद से गृहस्थधर्म तथा मुनिधर्म दो प्रकार का है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र के भेद से तीन प्रकार का तथा उत्तम क्षमा, मार्दव पार्जवादि के भेद से १० प्रकार का भी कहा जाता है। यथार्थ में तो मोह से उत्पन्न मन, वचन व काय की परिणतियों से भिन्न शुद्ध एवं मानन्द रूप प्रात्मा की परिणति का नाम ही धर्म है। धर्म की प्रात्मा जो दया है वही श्रेष्ठ प्राचरण, सुख तथा सम्पत्तियों की जननी है। यह दया धर्म रूपी वृक्ष की जड़ तथा मुक्ति में पहुंचाने की नसैनी है। धार्मिक मनुष्यों को प्रात्मकल्याण के निमित्त सब देहधारियों में दया धारण करनी चाहिए। निर्दय आदमी का नामोच्चारण भी अशुभ माना जाता है उसे संसार में कहीं भी सुख शान्ति प्राप्त नहीं होती। दयाधर्म की सर्वत्र जयजयकार होती है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का जीवन में स्थान मथुरादास जैन एम. ए., साहित्याचार्य । संसार के सभी प्राणी सदा सुख की अभिलाषा करते हैं तो हमें अपने व्यवहार एवं कार्यों को ऐसा बनाना है। दुःख किसी को भी इष्ट अथवा प्रिय नहीं है। यही चाहिए जो दूसरों को दुःख पहुँचाने वाले न हों। मौर बात कविवर दौलतराम जी ने अपने छहढाला प्रन्थ के यदि इस प्रकार हर एक व्यक्ति का ध्येय और कार्य प्रारम्भ में ही कही है-'जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, दूसरे को दुःख पहुँचाने का न रहे तो फिर संसार में कोई सुख चाहे दुःख ते भयवन्त' उर्व, मध्य तथा पाताल लोक प्राणी दुःखी कैसे हो सकता है। सुख से सुख तथा दुख में में जितने भी जीव हैं वे सब सुख चाहते हैं पोर दुःख से दुःख की ही उत्पत्ति होती है। इसी लिए शास्त्रकार हरते हैं। संसार में सर्वश्रेष्ठ वस्तु वही मानी जा सकती पुकार पुकार कर कहते हैं कि हमे अपने जीवन को धर्म के है जो हमें सुखी वनावे तथा दु:ख से हमारी रक्षा ढाचे में ढालना चाहिए। धर्माचरण से यदि कभी कष्ट की करे। प्राप्ति हो तो उसे सुखरूप ही मानना चाहिए। धर्म की सुख सव को इष्ट है यह एक सर्वसम्मत तथ्य है महिमा को बतलाते हुए एक कवि ने ठीक ही कहा लेकिन सुख का असली स्वरूप क्या है यह बात विवाद- है किग्रस्त है। कभी-कभी मनुष्य दूसरों को कष्ट देने में ही धर्मः सर्व सुखकरो हितकरो धर्म बुधाः चिन्वते । सुख मान लेता है। चोर दूसरों को सम्पत्ति का हरण धर्मणव समाप्यते शिव सुखं धर्माय तस्मै नमः । करने में अपना सुख मानता है। शिकारी पशुओं का वध धर्मान्मास्त्यपरो सुहवभवभूतां धर्मस्य मूलं वया । करने में अपना सुख समझता है । इस तरह जो एक जीव धर्मे चित्तमहंदधे प्रतिदिनं हे धर्म | मां पालय ।। का सुख है वही दूसरे का दुःख है लेकिन यह सुख की धर्म संसार मे सब सुखो को देने वाला है इस लिए समीचीन परिभाषा नहीं है। जैसे कटक रस मधुर रस बुद्धिमान लोग इसे जानते और माचरण मे लाते हैं। का कारण नही हो सकता। उसी तरह जिस कार्य में धर्म से मोक्ष की भी प्राप्ति होती है, ऐसे धर्म को हम दूसरों को कष्ट मिले वह कार्य सुख का जनक नही हो नमस्कार करते हैं । ससारी जीवों के लिए धर्म से अधिक सकता । चोर चोरी कर अनेक प्रकार के कष्ट पाता है। प्रिय कोई मित्र नहीं । धर्म की जड़ दया है ऐसे धर्म में मैं पकड़े जाने पर सजा भुगतता है भोर समाज में निन्दा का अपना चित्त लगा दूं, हे धर्म तू मेरी रक्षा कर । राष्ट्र पात्र बनता है । यदि कदाचित न भी पकड़ा जाय तो भी भाषा में भी धर्म के महत्त्व पर प्रकाश डालने वाला यह जिस चोरी रूप पृणित कार्य को करते हुए वह प्रशुभ उत्तम पद्य है। कर्म का बन्ध करता है उसकी सजा से वह कभी बच धर्म करत संसार सुख धर्म करत निर्वाण । नहीं सकता। 'कर भला होगा भला' या मात्मन: प्रति- धर्म पंथ साधे बिना नर तिर्यञ्च समान ॥ कूलानि परेषां न समाचरेत्' प्रादि त्रिकालसत्य उक्तियाँ संसार सुख एवं निर्वाण (मोक्षसुख) की प्राप्ति का हमें यही बतलाती हैं कि पाप कभी सुख का देने वाला कारण धर्म ही है। जिस मनुष्य के जीवन में धर्म की नहीं हो सकता । यदि हम सच्चा मोर स्थायी सुख चाहते वासना नहीं वह मनुष्य पशु के तुल्य ही है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० भारतीय दि० जैन विद्वत् परिषद् के शिवपुरी में सम्पन्न रजत जयन्ती उत्सव पर डा० दरबारीलाल जी कोठिया का अध्यक्षीय भाषण धर्मीक रेम्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः । ऋषभादिमहावीरान्तेभ्यः स्वाये || - मट्टाकस सुरेव वयस्य १ वन्दनीय त्यागीगण, समादरणीय स्वागताध्यक्ष तथा स्वागत समिति के सदस्यगण, सम्मान्य विद्वद्वृन्य, साधर्मो बन्धुमो धौर वात्सल्यमूर्ति धर्म बहिनो ! इस पावन भी महावीरजनन्यचकस्यागक प्रतिष्ठा महोत्सव के मङ्गलमय भवसर पर अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद के बारहवें रजत जयन्तीअधिवेशन का आपने मुझे अध्यक्ष चुना, इसके लिए भाषका प्रत्यन्त कृतज्ञ है । लगता है कि आपने मेरी कमियों की भोर दृष्टिपात नहीं किया और केवल स्नेहवश इस दायित्वपूर्ण पद पर बिठा दिया है। इसे मैं आप सबका आशीर्वाद मानकर स्वीकार कर रहा हूँ । विश्वास है इस जोखमभरे पद के निर्वहण में आप सभी का पूरा सहयोग मिलेगा । दिवंगत संयमियों और विद्वानों को श्रद्धाञ्जलि : पिछला अधिवेशन सन् १९६८ मे सागर ( म०प्र० ) में और नैमित्तिक अधिवेशन] सन् १९७० में खतौली ( उ० प्र० ) में हुआ था। इन पांच वर्षो में हमारे बीच से अनेक पूज्य संयमियों तथा प्रतिष्ठित विद्वानों का वियोग हो गया है । उनके वियोग से समाज की महती क्षति हुई है। सममियों में पूर्णसागर जी महाराज और क्षु० दयासागर जी महाराज की स्मृति प्रमिट रहेगी । पूर्णसागर जी महाराज ने दि० जैन संस्कृति घौर तत्त्वज्ञान के संरक्षण एवं सम्यग्ज्ञान के हेतु दिल्ली में दिगम्बर जैन केन्द्रीय महासमिति की स्थापना मे प्रथक प्रयत्न किया और उसके प्रवर्तन में निरन्तर अनेक वर्षों तक शक्तिदान किया था। क्षु० दयासागर जी महाराज बहुत ही अच्छे वक्ता, लेखक और विचारक थे। लोक हित के लिए उनके हृदय में अपार करुणा थी। वियुक्त विद्वानों में घन्तिम क्षण तक वाङ्मय सेवा में निरत, इतिहास लेखक, महान्य-समीक्षक पण्डित युगल किशोर जी मुख्तार 'युगवीर' सरसावा, सिद्धान्तमहोदि तर्करत्न, न्यायाचार्य पण्डित माणिकचन्द्र जी कौन्य फिरोजाबाद (उ० प्र०), महामनस्वी, सूक्ष्मचिन्तक पण्डित चैनसुखदास जी न्यायतीचं जयपुर (राज.), सिद्धा ममंश पण्डित इन्द्रलाल जी शास्त्री जयपुर, प्रत्यन्त नैष्ठिक सहृदय पण्डित प्रजित कुमार जी शास्त्री दिल्ली, यावज्जीवन समाजसेवी महोपदेशक पण्डित मक्खनलाल जी प्रचारक दिल्ली, जैन संघ मथुरा के यशस्वी प्रचारक पण्डित इन्द्रचन्द्र जी शास्त्री मथुरा भोर सदा समाजसेवातो पति रामशान जीएम० ए० दमोह (म० प्र० ) समाज के अनुपम विद्वत्न थे। इन मनीषियों ने अपने विचारों, लेख, भाषणों और ग्रन्थों द्वारा समाज की जड़ता को दूर कर ज्ञानदान के स्तुत्य प्रयास किये है हम इन वियुक्त पूज्य संयमियों और सारस्वतों के प्रति कृतज्ञ - भाव से नम्र श्रद्धाञ्जलि उनकी स्मृतिस्वरूप प्रति करते हैं। पिछले अधिवेशन और कार्यो पर एक विहङ्गम दृष्टि : विद्वत्परिषद के जन्म से ही मेरा इससे सम्बन्ध रहा है। इसके जन्म की महत्त्वपूर्ण घटना है । सन् १६४४ में कलकत्ता में वीरशासन- महोत्सव का विशाल आयोजन था । इस प्रायोजन के कार्यक्रमों मे अग्रेजी भाषा के विशेषज्ञों को ही प्राथमिकता दी गई थी । प्रायोजन में सम्मिलित समाज के विद्वानों का योगदान नहीं लिया गया था। यद्यपि वहाँ बहुसंख्यक सून्य विद्वान थे। इससे विद्वानों के स्वाभिमान को चोट पहुँची। उधर हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में आयोजित अखिल भार तीय प्राच्य विद्यासम्मेलन के जैन विद्या विभाग से पठित भाषण में कुछ ऐसी स्थापनाएं की गई थीं, जो दिगम्बर Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८, वर्ष २५, कि.६ अनेकान्त जैन मान्यतामों के प्रतिकूल थीं। इन दो कारणों से वहाँ पर विचार करके उसका-रंग केशरिया प्राकार प्रायतएकत्रित नये-पुराने सभी विद्वानों ने एक स्वर से अनुभव चतुरस्र और प्रतीक लाल रंग से लिखा हुमा स्वस्तिककिया कि दिगम्बर जैन सिद्धान्तों के संरक्षण और विद्वानों निर्धारण किया गया था। में परस्पर सौहाई एवं ऐक्य स्थापन के लिए उनका एक छठे अधिवेशन में, जो १९५३ में खुरई (म०प्र०) में संगठन होना आवश्यक है। फलतः ज्ञान वृद्ध एवं वयोवृद्ध हुआ था, पारित प्रस्ताव न० ६ के द्वारा महर्षि कुन्दकुन्द, स्वर्गीय प० श्रीलाल जी पाटनी मलीगढ़ को अध्यक्षता में गृध्रपिच्छ, समन्तभद्र जैसे महानाचार्यों की कृतियों को 'अखिल भारतीय वि० जैन विद्वत्परिषद' की स्थापना की काट-छांटकर उन्हे भ्रष्ट रूप में छपाने की मुनि क्षीरगयी। उल्लेखनीय है कि परिषद् का शुभारम्भ कलकत्ता सागर जी की प्रवृत्ति पर क्षोभ प्रकट करते हुए समाज से में ही जैन भवन में माहूत उस बैठक से हुमा, जो महो- इस प्रकार के साहित्य का प्रकाशन न करने के लिए अनुत्सव में पधारे उक्त भाषणकर्ता के साथ उनकी स्थापनामों रोष किया गया था। इस प्रस्ताव का समाज पर सार्थक पर चर्चा करने के लिए भायोजित की गयी थी। उप- प्रभाव पड़ा था। स्थित विद्वानों में प्रपूर्व उत्साह एवं उल्लास देखा गया द्रोणगिरि (म.प्र.) में १९५५ में हुए सातवें प्रधिथा और सभी ने परिषद् की सार्थकता तथा मावश्यकता वेशन में सम्मिलित रथों को चलाने वालों के लिए सिंघई को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया था। या सेठ पदवी देने पर रोक लगायी गयी थी, जिसके फलइसका प्रथम अधिवेशन सन् १९४५ में कटनी में स्वरूप वहाँ रथ चलाने वालों को कोई पद प्रदान नहीं हमा था, जिसमें जैन संस्कृति के संरक्षण तथा जैनधर्म के किया गया था। सम्यग्ज्ञान हेतु प्रात्मसमर्पक सुयोग्य विद्वानों का एक पाठवा अधिवेशन सन् १९५८ में थी मढ़ियाजी'वीर-संघ' बनाने का निश्चय हुआ था । जबलपुर (म.प्र.) में सम्पन्न हुअा था। इस अधिवेशन दुसरा अधिवेशन सन् १९४६ में मथुरा में किया मे नूतन मन्दिरों और मूर्तियों की अनावश्यक निर्माण गया। इस अधिवेशन में जैन साहित्य और इतिहास प्रवृत्ति पर चिन्ता व्यक्त करते हुए समाज से पुराने से अपरिचित लेखकों के गलत उस्लेखों एवं भूलों-भ्रान्तियों मन्दिरों-मूर्तियों की रक्षा तथा जीर्णोद्धार मे द्रव्य का उपका निरास करने के लिए एक विभाग की स्थापना का योग करने का अनुरोध किया गया था। साथ ही ज्ञाननिर्णय हुआ था। दान, शास्त्र-प्रकाशन मादि उपयोगी पुण्यकार्यों में द्रव्य को तीसरा अधिवेशन सन् १९४७ मे सोनगढ़ (सौराष्ट्र) लगाने की प्रेरणा की गयी थी। मे हुमा था। इसमें तत्कालीन चर्चा के विषय जीवट्ठाण नववें अधिवेशन में, जो ललितपुर (उ० प्र०) में संतपरूवणा के ९३वे सूत्र में 'संजब' पद के पौचित्य- हमा था, त्यागी-व्रतियों से धनसंग्रह की प्रवृत्ति से दूर निर्णयार्थ विद्वत्सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया, जो रहने का अनुरोध, बेदिकाशुद्धि प्रादि धार्मिक क्रियामों की उसी वर्ष सागर में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुमा था। एक प्रामाणिक पुस्तक के निर्माण भौर परिषद् के रजिस्ट्रे. ___ चौथे अधिवेशन की, जो सन् १९४८ में बरवासागर शन का निश्चय किया था। परिषद् के सुयोग्य एवं कर्मठ (झांसी) में बुलाया गया था, उपलब्धि केन्द्रीय छात्रवृत्ति मंत्री पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा स्वयं उक्त फण्ड स्थापित करने का निश्चय की है, जिससे विदेशों में पुस्तक निर्मित होकर दो बार श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन जाकर शिक्षा लेने वाले और वहाँ जैनधर्म का प्रचार प्रस्थमाला से प्रकाशित हो गयी। परिषद् का रजिस्ट्रेशन करने वाले प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्ति दी जा भी मध्यप्रदेश शासन से गत १९७० में हो चुका है। सके। दशम अधिवेशन १६६५ में सिवनी में हुआ था। इस पांचवा अधिवेशन सोलापुर (महाराष्ट्र) में १९४६ में अधिवेशन में गुरु गोपालदास वरैया स्मृति-ग्रन्थ की योजना, किया गया था। इस अधिवेशन में जैन झ3 के स्वरूप मौलिक या सम्पादित कृति पर एक हजार रुपए के Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० दरबारीलाल जी कोठिया का अध्यक्षीय भाषण २२९ पुरस्कार की योजना और अंग्रेजी तथा संस्कृत दोनों वर्षों मे हुए, सांस्कृतिक कार्यों की एक गौरवपूर्ण लम्बी भाषाओं के ज्ञातानों को सदस्य बनाने के प्रस्ताव पारित श्रृंखला है, जिन पर हमें गर्व है और जिनका उल्लेख इस किए गए थे। प्रसन्नता की बात है कि ये तीनों प्रस्ताव रजत-जयन्ती के उत्सव पर अावश्यक होने से किया क्रियात्मक रूप पा चुके है । वरया स्मृतिग्रन्थ का प्रकाशन गया है। तो इतना सुरूप और प्राकर्षक हुमा कि सब ओर से विद्वान और समाज : . उसका समादर हुआ है और दिल्ली मे मनायी गयी गुरुजी विद्वान समाज का विशिष्ट प्रङ्ग है। शरीर में जो की जन्म-शताब्दी चिरस्मरणीय रहेगी। पुरस्कार-योजना स्थान शिर (उत्तमाङ्ग) का है वही समाज में विद्वान् के अन्तर्गत चार विद्वान् और उनकी सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ (जानवान) का है। यदि शरीर में शिर न हो या रुग्ण पुरस्कृत हो चुकी है। पांचवे विद्वान् को उनकी सर्वश्रेष्ठ हो तो शरीर शरीर न रहकर घड़ हो जायेगा या उससे कृति पर इसी रजत जयन्ती अधिवेशन में पुरस्कृत किया सार्थक जीवन-क्रिया नहीं हो सकेगी। सारे शरीर की जा रहा है। इस योजना को मूर्त रूप देने का श्रेय शोभा भी शिर से ही है । प्रतः शिर मौर उसके उपाङ्गों श्रावकशिरोमणि, दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जी जैन मोर मांख, कान, नाक प्रादि की रक्षा एवं चिन्ता सदा की उनकी धर्मपरायणा धर्मपत्नी श्रीमती रमारानी जी जाती है। विद्वान समाज के धर्म, दशन, इतिहास मार मध्यक्षा भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली को है। उन्हीं के प्रकल्प श्रत का निर्माण एवं संरक्षण करके उसे तथा उसका मौदार्य से यह योजना सफल हो सकी है। संस्कृति को सप्राण रखता है। यदि विद्वान् न हो वा वह १९६८ में सागर (म.प्र.) में हए ग्यारहवें अधि- चिन्ताग्रस्त हो तो स्वस्थ समाज मोर उसकी उच्च वेशन को कई उपलब्धियाँ है। प्रस्ताव नं. ३ के द्वारा संस्कृति की कल्पना ही नही की जा सकती है। पर जन पुरातत्त्व के संरक्षण और प्रकाशन का संकल्प लेते दुर्भाग्य से इस तथ्य को समझा नहीं जाता। यही कारण हुए उसे क्रियात्मक रूप देने के लिए दि० जैन अतिशय है कि समाज में विद्वान् की स्थिति चिन्तनीय और दयक्षेत्रों मोर सिद्ध क्षेत्रों व वहां की प्रामाणिक सामग्री का नीय है। किसी विद्यालय या पाठशाला के लिए विद्वान् सचित्र विवरण प्रकाशित करने का निश्चय किया गया की पावश्यकता होने पर उमसे व्यवसाय की मनोवृत्ति से था। प्रसन्नता की बात है कि यह कार्य भारतीय ज्ञानपीठ वात की जाती है। संस्था-सचालक उसे कम-से-कम देकर द्वारा द्रुतगति से हो रहा है। इसी अधिवेशन में प्रस्ताव अधिक-से-अधिक काम लेना चाहता है। कुछ महीने पूर्व न०५ के द्वारा भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाणो- एक सस्था-सचालक महानुभाव ने हमे विद्वान् के लिए त्सव के अवसर पर २५०० पृष्ठों की सांस्कृतिक सामग्री के उसकी वाछनीय योग्यतामों का उल्लेख करते हुए लिखा। प्रकाशन का भी निश्चय किया गया था। इसके लिए बनाई हमने उन्हें उत्तर दिया कि यदि उक्त योग्यता सम्पन्न गई उपसमिति के प्रधान लेखक सहद्वर डा० नेमिचन्द्रजी विद्वान के लिए कम-से-कम तीन सौ रुपए मासिक दिया शास्त्री ने 'तीर्थंकर महावीर' नाम से उक्त सामग्री को जा सके तो विद्वान् भेज देंगे। परन्तु उन्होंने तीन सो तैयार कर पुस्तक का रूप भी दे दिया है, जो शीघ्र ही रुपए मासिक देना स्वीकार नहीं किया। फलतः वही प्रेस को दे दी जावेगी। विद्वान् छह सौ रुपए मासिक पर अन्यत्र चला गया। ____ विद्वत्परिषद् के विगत अधिवेशनों के महत्त्वपूर्ण एवं कहा जाता है कि विद्वान् नहीं मिलते। विचारणीय है कि उल्लेखनीय कतिपय कार्यों का यह सक्षिप्त विहङ्गावलो. जो किसी धार्मिक शिक्षण संस्था में दश वर्ष धर्म-दर्शन का कन है। इनके अलावा शङ्का-समाधान, तत्त्वगोष्ठियां, शिक्षण लेकर विद्वान् बने और बाद में उसे उसकी श्रुतशिक्षण-शिविर, शिक्षा-सम्मेलन, श्रुत-सप्ताह जैसे अन्य सेवा के उपलक्ष्य मे सौ-डेढ़ सौ रुपए मासिक सेवा-पारिकार्य भी विद्वत्परिषद् द्वारा सम्पन्न हुए हैं। इससे स्पष्ट श्रमिक दिया जाय तो वह माज के समय में उससे कैसे है कि विद्वत्परिषद् के, जन्म से लेकर अब तक गत २७ निर्वाह करेगा। काश ! वह सद्गृहस्थ हो और दो-बार Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२, वर्ष २५, कि०६ अनेकाति विवेचन 'षट्खण्डागम' मे प्राचार्य भूतबली पुष्पदन्त ने 'उभयनय के विरोध को दूर करने वाले 'स्यात्' पद मौर कषायप्राभूत' में प्राचार्य गुणघर ने किया है । तथा से अङ्कित जिमशासन में जो ज्ञानी स्वयं निष्ठ हैं वे अनव इन्हीं के माधार से गोम्मटसारादि ग्रन्थ रचे गये हैं। -नवीन नहीं, एकान्त पक्ष से प्रखण्डित पौर अत्यन्त धर्म का प्राधार मुमुक्षु और सद्गृहस्थ दोनों है तथा उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप समयसार को शीघ्र देख (पा) हीं सद्गृहस्थों के लिए संस्कृति और तत्वज्ञान प्रावश्यक है। लेते हैं।' और इन दोनों की स्थिति के लिए वाङ्मय, तीर्थ, मन्दिर, अमृतचन्द्र से तीन लो वर्ष पूर्व भट्ट प्रकलङ्कदेव ने मूर्तियां, कला, पुरातत्त्व और इतिहास अनिवार्य है। इनके ऋषभ प्रादि को लेकर महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकरों विना समाज की कल्पना और समाज के बिना धर्म की को धर्मतीर्थकर्ता और स्याद्वादी कहकर उन्हें विनम्रभाव स्थिति सम्भव ही नहीं। मुमुक्षुधर्म भी गृहस्थधर्म पर से नमस्कार किया तथा उससे स्वात्मोपलब्धि की भभिउसी प्रकार प्राधारित है जिस प्रकार खम्भों पर प्रासाद लाषा की है। जैसा कि भाषण के प्रारम्भ में किये गये निर्भर है। मुमुक्षु को मुमुक्षु तक पहुँचाने के लिए भारम्भ मङ्गलाचरण से, जो उन्ही के लघीयस्त्रय का मङ्गलश्लोक मे दर्शन-शास्त्र का विमर्श प्रावश्यक है। उसके बिना है, स्पष्ट है। इससे हम सहज ही जान सकते हैं कि उसकी नींव मजबूत नही हो सकती। यह भी हमें नहीं स्यावाद तीर्थंकर-वाणी है-उन्ही की वह देन है। वह भूलना है कि लक्ष्य को समझने और पाने के लिए उसकी किसी प्राचार्य या विद्वान् का प्राविष्कार नहीं है। वह मोर ध्यान और प्रवृत्ति रखना नितान्त प्रावश्यक है। एक तथ्य और सस्य है, जिसे इंकारा नहीं जा सकता। दर्शन-शास्त्र को तो सहस्रों बार ही नहीं, कोटि-कोटि बार निश्चयनय से पात्मा का प्रतिपादन करते समय उस परभी पढा सुना है फिर भी लक्ष्य को नहीं पा पाये। तात्पर्य द्रव्य का भी विश्लेषण करना प्रावश्यक है, जिससे उसे यह है कि दर्शन-शास्त्र और अध्यात्म शास्त्र दोनों का मुक्त करना है । यदि बद्ध पर द्रव्य का विवेचन, जो षट्चिन्तन जीवन शुद्धि के लिए परमावश्यक है। इनमे से खण्डागमादि मागम ग्रन्थों में उपलब्ध है, न किया जाय एक की भी उपेक्षा करने पर हमारी वही क्षति होगी. भोर केवल प्रात्मा का ही कथन किया जाय, तो जनजिसे प्राचार्य अमृतचन्द्र ने निम्न गाथा के उद्धरणपूर्वक दशन कर दर्शन के प्रात्म-प्रतिपादन में और उपनिषदों के प्रात्मबतलाया है प्रतिपादन में कोई अन्तर नहीं रहेगा। जह जिणमयं पवजह तो मा ववहार-णिच्छए मुयह । एक बार न्यायालङ्कार पं० वंशीधर जी ने कहा था एक्केण विणा छिज्जा तित्वं प्रणेण उण तमचं॥ कि एक वेदान्ती विद्वान् ने गुरुजी से प्रश्न किया था कि -प्रात्मख्याति, स० सा०, गा०१२ पापके मध्यात्म मे और वेदान्त के अध्यात्म में कोई अन्तर 'यदि जिन-शासन की स्थिति चाहते हो, तो व्यवहार नहीं है ? युरुजी ने उत्तर दिया था कि जैन दर्शन में पौर निश्चय दोनो को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के प्रात्मा को सदा शुद्ध नहीं माना, संसारावस्था मे प्रशद्ध छोड़ देने पर धर्मतीर्थ का पौर निश्चय के छोड़ने से तत्त्व पौर मुक्तावस्था में शुद्ध दोनों माना गया है। पर वेदान्त (मध्यात्म) का विनाश हो जायेगा।' में उसे सदा शुद्ध स्वीकार किया है। जिस माया की उस यह सार्थ चेतावनी ध्यातव्य है । पर छाया है वह मिथ्या है। लेकिन जैन दर्शन में प्रात्मा स्वामी प्रमतचन्द्र ने उभयनय के विरोध मे ही जिस पुद्गल से बद्ध, एतावता अशुद्ध है वह एक वास्तसमयसार की उपलब्धि का निर्देश किया है विक द्रव्य है। इससे संयुक्त होने से प्रात्मा में विजातीय उभयनविरोषध्वंसिनि स्यात्पदा परिणमन होता है । यह विजातीय परिणमन ही उसकी जिनपचसि रमन्ते वे स्वयं वान्तमोहाः । अशुद्धि है। इस प्रशुद्धि का जैन दर्शन मे विस्तार से सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चे विवेचन है । उससे मुक्त होने के लिए ही सबर, निर्जरा रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥४॥ आदि तत्त्वों का विवेचन है। तात्पर्य यह है कि जिन Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० दरबारीलाल जी कोठिया का अध्यक्षीय भाषण २३३ शासन जब स्वयं स्याद्वादमय है, तो उसमे प्रतिपादित भारतीय ज्ञानपीठ की मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला। इस ग्रन्थमाला मात्मस्वरूप स्याद्वादात्मक होना ही चाहिए। इस तरह से सिद्धिविनिश्चय जैसे अनेक दुर्लभ ग्रन्थ सामने आये है दोनो नयो से तत्त्व को समझने और प्रतिपादन करने से ही और पा रहे है । इसका श्रेय जहाँ स्व० ५० महेन्द्रकुमार तत्त्वोपलब्धि एव स्वात्मोपलब्धि प्राप्य है । जी, ५० कैलाशचन्द्र जी, प० फूलचन्द्र जी, प० हीरालाल साहित्यिक प्रवृत्तियां और उपलब्धियां : जी आदि उच्च बिद्वानो को प्राप्त है वहाँ ज्ञानपीठ के अाज से पचास वर्ष पूर्व जैन साहित्य सब को सुलभ । सस्थापक साहू शान्तिप्रसाद जी और अध्यक्षा श्रीमती रमारानी जी को भी है । उल्लेख्य है कि श्री जिनेन्द्र वर्णी नही था । इसका कारण जो भी रहा हो। यहाँ साम्प्रदायिकता के उन्माद ने कम उत्पात नही किया । उसने बहु द्वारा सकलित-सम्पादित जनेन्द्र-सिद्धान्त कोष (२ भाग) मूल्य सहस्रों ग्रन्थो की होली खेली है। उन्हे जलाकर पानी का प्रकाशन भी स्वागत योग्य है। इस प्रकार पिछले गरम किया गया है और समुद्रों एव तालाबों में उन्हे डुबो पचास वर्षों मे साहित्यिक प्रवृत्तिया उत्तरोत्तर बढ़ती गई दिया गया है। सम्भव है उक्त भय से हमारे पूर्वजो ने हैं, जिसके फलस्वरूप बहुत-सा जैन वाङ्मय सुलभ एवं बचे खुचे वाङ्मय को निधि की तरह छिपाया हो या उपलब्ध हा सका ह स हाथ पकड़ने पर प्रविनय का उन्हें भय रहा हो। इधर डा० नेमिचन्द्र जी शास्त्री विद्यादान और प्रकाशन के साधन उपलब्ध होने पर सम्भवतः उसी भय साहित्य सजन मे जो असाधारण योगदान कर रहे है वह के कारण उन्होने छापे का भी विरोध किया जान पड़ता मक्तकण्ठ से स्तुत्य है। लगभग डेढ़ दर्जन शोधार्थी विद्वान् है। परन्तु युग के साथ चलना भी प्रावश्यक होता है। आपके निर्देशन मे जैन विद्या के विभिन्न अङ्गों पर पीमतएव कितने ही दूरदर्शी समाज-सेवको ने उस विरोध एच.डी. कर चुके है और लगातार क्रम जारी है। का सामना करके भी ग्रन्थ-प्रकाशन का भी कार्य किया। भारतीय ज्योतिष, लोकविजय-यत्र, प्रादिपुराण मे प्रतिफलतः प्राज जैन वाङ्मय के हजारो ग्रन्थ प्रकाशन मे आ पादित भारत, सस्कृत-काव्य के विकास मे जैन कवियो का गये है। षट्खण्डागम, कषायप्राभत, धवला-जयघवलादि योगदान जैसे अनेक ग्रन्थ-रत्न प्रापकी रत्नगर्भा सरस्वती टीकाएँ जैसे सिद्धान्त ग्रन्थ भी छप गये है और जन- ने प्रसत किये हैं। पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य की सामान्य भी उनसे ज्ञानलाभ ले रहा है। इस दिशा में भारती ने तो भारत के प्रथम नागरिक सर्वोच्च पदासीन श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द जैन-साहित्योद्धारक राष्टपति श्री वराह वेकटगिरि तक को प्रभावित कर फण्ड द्वारा डाक्टर हीरालाल जी, उनके सहयोगी पं. उन्हें राष्टपति-सम्मान दिलाया और भारतीय वाङ्मय फूलचन्द्र जी शास्त्री, पं० हीरालाल जी शास्त्री सौर पं० को समद्ध बनाया है। प्रादिपुराण, हरिव शपुराण, पद्मबालचन्द्र जी शास्त्री के सम्पादन-प्रनुवादादि के साथ षट्- पुराण, उत्तरपुराण, गद्यचिन्तामणि, जीवन्धर चम्पू, पुरुखण्डागम के १६ भागों का प्रकाशन उल्लेखनीय है। सेठ देव चम्प. तत्त्वार्थसार, समयसार, रलकरण्डक श्रावका. माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला से स्वर्गीय पं. नाथूराम जी चार मादि अर्धशती ग्रन्थ-राशि प्रापके द्वारा अनूदित एव प्रेमी ने कितने ही वाङ्मय का प्रकाशन कर उद्धार किया सम्पादित हुई है। डा. देवेन्द्र कुमार जी रायपुर का है । जीवराज ग्रन्थमाला से डाक्टर ए० एन० उपाध्ये ने अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोधप्रवृत्तियां, डा. तिलोयएण्णत्ती यादि अनेक ग्रन्थों को प्रकाशित कराया है। हीरालाल जी जैन का 'णायकुमारचरिउ', डा. ए. एन. स्व० ५० जुगलकिशोर मुख्तार के वीर-सेवा-मन्दिर दिल्ली उपाध्ये का गीत बीतराग, प० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का भोर वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट वाराणसी से कई महत्त्व के नयचक्र', पं० ममतलाल जी शास्त्री का 'चन्द्रप्रभचरित', ग्रन्थ प्रकट हुए है। श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रंथमाला का डा. कस्तूरचन्द्र जी कासलीवाल का 'राजस्थान के जैन योगदान भी कम महत्त्वपूर्ण नही है। जिस प्रकाशन- सन्त : कृतित्व और व्यक्तित्व', श्री श्रीचन्द्र जी जैन संस्था से सर्वाधिक जैन वाङ्मय का प्रकाशन हुमा, वह है उब्जैन का 'जैन कथानको का सांस्कृतिक अध्ययन' मादि Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४, वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त नयभव्य रचनायों ने जन वाङमय के भण्डार की उन मावश्यक सेवामों से बचे समय और शक्ति का ही अभिवद्धि की है। डा. हरीन्द्रभूषण जी उज्जैन के निर्द- उत्सर्ग वे समाज, साहित्य और संगठन में करते हैं। प्रतः शन में दो विद्वानों ने जैन-विद्या पर पी-एच०डी० की है। हमें अपनी परिधि के भीतर पागामी कार्यक्रम तय करना हमें प्राशा है जैन विद्या और जैन वाङ्मय के प्रादर का चाहिए । क्षेत्र उत्तरोत्तर बढ़ता जायेगा। हमारा विचार है कि परिषद् को निम्न तीन कार्य जैन शिक्षण-संस्थाएँ: हाथ मे लेकर उन्हें सफल बनाना चाहिए। माज से पचास वर्ष पूर्व एकाध ही शिक्षण संस्था यो। १. जैन विद्या-फण्ड की स्थापना । गुरु गोपालदास जी वरैया और पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी २. भगवान् महावीर की २५००ी निर्वाण शती पर सेमिनार।। वर्णी के धारावाही प्रयत्नों से सौ से भी अधिक शिक्षण ३. ग्रन्थ-प्रकाशन। संस्थानों की स्थापना हुई। मोरेना थिद्यालय भौर काशी का स्याद्वाद महाविद्यालय उन्हीं में से हैं। मोरेना से जहाँ १. पूज्य वर्णी जी के साभापत्य में सन् १९४८ में प्रारम्भ में सिद्धान्त के उच्च विद्वान तैयार हए वहाँ काशी परिषद् ने एक केन्द्रीय छात्रवृत्ति-फण्ड स्थापित करने का Pam ता तोहरा ही प्रस्ताव किया था, जहां तक हमें ज्ञात है, इस प्रस्ताव को अंग्रेजी के भी विद्वान् निकले हैं। यह गर्व की बात है कि क्रियात्मक रूप नहीं मिल सका है। माज इस प्रकार के प्राज समाज में जो वहुसंख्यक उच्च विद्वान हैं वे इसी फण्ड की मावश्यकता है । प्रस्तावित फण्ड को 'म विद्याविद्यालय की देन हैं। वस्तुतः इसका श्रेय प्राचार्य गुरुवर्य फण्ड' जसा नाम देकर उसे चालू किया जाय। यह फण्ड १० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री को है, जो विद्यालय के पर्याय- कम-से-कम एक लाख रुपये का होना चाहिए। इस फण्ड वाची माने जाते है। सागर के गणेश विद्यालय की भी से (क) मार्थिक स्थिति से कमजोर विद्वानों के बच्चों को समाज को कम देन नहीं है। इसने सैकड़ों बुझते दीपकों सम्भव वृत्ति दी जाय । (ख) उन योग्य शोधानियों को में तेल पौर बत्ती देकर उन्हें प्रज्वलित किया। भी वृति दी जाय, जो जैन-विद्या के किसी प्रकार किसी पर प्राज ये शिक्षण-संस्थाएँ प्राणहीन-सी हो रही हैं। विश्वविद्यालय मे शोधकार्य करें। (ग) शोधार्थी के शोधइसका कारण मुख्यतया माथिक है। यहां से निकले विद्वानों 'प्रबन्ध के टडुन या शुल्क या दोनों के लिए सम्भव मात्रा की खपत समाज में प्रब नहीं के बराबर है और है भी.तो में प्राधिक साहाय्य किया जाय।. .. उन्हें श्रुतसेवा का पुरस्कार प्रल्प दिया जाता है। अतः ..... . २. भगवान महावीर की २५००वीं निर्भण-सती छात्र, अब समाज के बाजार में उनकी खपत कमोनो सारे भारतवर्ष में व्यापक पैमाने पर मनायी जायगी। दूसरे बाजारों को टटोखने लगे हैं मोर उनमें उनका मालः . उसमें विद्वत्परिषद् के सदस्य व्यक्तिशः योगदान करेंगे ही, ऊँचे दामों पर उठने लगा है। इससे विद्वानों का ह्रास “परिषद् मी एक सांथ' पनेक स्थानों पर अथवा मिन्नहोने लगा है। फलतः समाज भोर संस्कृति को जो क्षति भिन्न समयों में अनेक विश्वविद्यालयों में सेमिनारों (संगोपहुँचेगी, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। प्रतः ष्ठियों) का प्रायोजन करे। इन सेमिनारों में जैन एवं समाज के नेतामों को इस दिशा में गम्भीरता से विचार जनेतर विद्वानों द्वारा जैन विद्या की एक निर्णीत विषया. करना चाहिए। यदि तत्परता से तुरन्त विचार न मा वलि पर शोषपूर्ण निबन्ध-पाठ कराये जायें। इन सेमितो निश्चय हमारी हजारों वर्षों की .संस्कृति और तत्व- मारों का माज प्रपना महत्व है और उनमें विज्ञान रुचिशान की रक्षा के लिए संकट की स्थिति मा सकती है। पूर्वक भाग लेंगे। विद्वत्परिषद्का भावी कार्यक्रम : : ३. पागामी तीन वर्षों की अवधि के लिए एक अन्धवित्परिषद् के साधन सीमित हैं और उसके चालक प्रकाशन की योजना बनायी जाय। इस योजना के अन्तर्गत अपने-अपने स्थानों पर रहकर दूसरी सेवापों में संलग्न हैं। तीर्थकर महावीरवन्धका तो प्रकाशन हो ही, उसके Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० दरबारीलाल जी कोठिया का अध्यक्षीय भाषण २३५ अतिरिक्त तीन अप्रकाशित संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रश के प्रथों गरिमा मे चार चांद लगाये जा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि या भगवान् महावीर सम्बन्धी नयी मौलिक रचनामों का मध्य प्रदेश की सरकार द्वारा यहाँ जो प्राचीन मूर्ति संग्रप्रकाशन किया जाय। हालय स्थापित है उसमे बहुत सी जैन मूर्तियां सगृहीत एवं ___ यदि अगले तीन वर्षों में परिषद् ये तीन कार्य कर लेती सुरक्षित है। इसके लिए मध्यप्रदेश शासन निश्चय ही । हता वह संस्कृति की एक बहुत बड़ी सेवा कही जावेगी। पहमूल्य पुरातत्व सरक्षण काल वहुमूल्य पुरातत्व-स रक्षण के लिए धन्यवावाहं है । यहाँ के पूर्व कलेक्टर श्री रामविहारीलाम भी कम बधाई योग्य शिवपुरी और उसकी गरिमा : नहीं हैं, जिन्होने अपने निसर्गज पुरातत्व प्रेम से इस सनविद्वत्परिषद् का यह रजत-जयन्ती अधिवेशन जिस हालय को जन्म दिया। यहां का मनीकुण्ड, भदैयां कुण्ड शिवपुरी में श्री महाजिनबिम्ब-पचकल्याणकप्रतिष्ठा-महो भोर कोलारस की प्राचीन विशाल खड्गासन मूर्तियां त्सव के पुण्यावसर पर हो रहा है उसकी ऐतिहासिक भोर शिवपुरी पाने वालों के लिए प्राकर्षण की वस्तुएं हैं। सांस्कृतिक गरिमा है। भारतीय स्वतंत्रता के प्रमर सेनानी विद्वत्परिषद् के माकर्षण के लिए ये वस्तुएँ तो रही हैं, वीर तात्या टोपे को यहीं फांसी दी गयी थी। उनके प्रमर . भाई नेमीचन्द जी और सुहृवर ५० परमेष्ठीदास जी की बलिदान का यह पुण्य स्थल है। खडेलवाल वंशीय दान प्रेरणा पौर सौहार्द भी भाकर्षक रहे हैं। विद्वत्परिषद इन वीर सिंघई मोहनदास और उनके परिवार ने १७०३ में सबसे लाभान्वित हुई है। वावन कुण्डो से युक्त नन्दीश्वर द्वीप की रचना करके इसकी सास्कृतिक गरिमा भी स्थापित की और प्रब भाई अन्त में प्राप सबके प्रति नम्रतापूर्वक प्राभार प्रकट . नेमीचन्द जी गोदवालो तथा उनके परिवार द्वारा महावीर- करता करता है, जो मापने धैर्यपूर्वक मेरे भाषण को सुना । जिनालय एव सम्बद्ध अन्य सस्थान निर्मित होकर उस 'जयतु जनं शासनम्'। 'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य व्योरे के विषय में प्रकाशन का स्थान 'वीर सेवा मन्दिर' भवन, २१, दरियागंज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि द्वैमासिक मुद्रक का नाम श्री वंशीधर जैन शास्त्री राष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागंज, दिल्ली प्रकाशक का नाम श्री वंशीधर जैन शास्त्री, मन्त्री, वीर सेवा मन्दिर राष्ट्रीयता भारतीय पता .२१, दरियागंज, दिल्ली सम्पादकों का नाम डा०मा० ने० उपाध्ये, कोल्हापुर; डा. प्रेमसागर, बड़ौत; श्री यशपाल जैन, दिल्ली; परमानन्द जैन शास्त्री, दिल्ली। राष्ट्रीयता भारतीय पता मार्फत : वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्ली स्वामिनी संस्था वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्ली मैं वंशीघर जैन शास्त्री घोषित करता है.कि उपयुक्त विवरण मेरी जानकारी मौर विश्वास के अनुसार सही है। १७-२-७३ ह.बंशीपर बैन शास्त्री Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय दि० जैन परिषद् के स्वर्ण जयन्ती अधिवेशन पर : प्रसिद्ध उद्योगपति साहू शान्तिप्रसाद जी जैन का उद्घाटन भाषण प्रिय अध्यक्ष, स्वागताध्यक्ष, बहिनो और भाइयो, थी। सेठ मेवाराम जी, पण्डित प्यारेलाल जी, न्याय भारतवषीय दिगम्बर जैन परिषद के प्राज का यह दिवाकर पं० पन्नालाल जी आदि ने तत्वचर्चा और स्वा. स्वर्ण जयन्ती उत्सव हमे पिछले ५० वर्ष में जैन समाज में ध्याय की ओर ध्यान आकर्षित किया और जगह-जगह जो उतार-चढ़ाव हुए है, उन्हें प्रवलोकन करने का और शास्त्र-स्वाध्याय और तत्वचर्चा की प्रणाली को बल मिला। उन पर सोचने पौर विचारने तथा समाज को आगे किस साथ-साथ मे बैरिस्टर जुगमन्दरलाल जी, वैरिस्टर चम्पत. दिशा में बढ़ना है, इस पर निश्चय करने का अवसर राय जी, प० अजितप्रसाद जी, श्रद्धेय ब्र० शीतल प्रसाद देता है। जी आदि ने जैनतत्वों को नवीन ढंग से अंग्रेजी भाषा में करीव १०० वर्ष पहले श्री राजाराम मोहन राय ने अनुवादित किया। प० पन्नालाल जी बाकलीवाल, बा. इस देश की सामाजिक व्यवस्था को एक नया मोड़ दिया। सूरजभानु वकील, प० नाथू गम जी प्रेमी प्रादि ने जैन इसी समय उत्तर भारत में स्वामी दयानन्द हुए और हिन्दू सिद्धान्तों को जन साधारण तक पहुँचाने के लिए सरल धार्मिक परम्परा मे एक नया रूप लाये। श्री दादा भाई भाषा का उपयोग किया। १९वी सदी में यातायात के नौरो जी ने राजनैतिक क्षेत्र में एक नया विचारधारा का साधन बढ़ चुके थे और समाज में तीर्थयात्रा के लिए परम्परा डालने का प्रयत्न किया। इन नयी चेतना से भक्तजनों की संख्या बढ़ी। तीर्थ की व्यवस्था सुधारने के जैन समाज अछूता नहीं रहा। लिए सेठ जम्बू प्रसाद जी, सेठ देवीसहाय जी, सर सेठ वीसवीं सदी के प्रारम्भ मे स्वनामधन्य राजा लक्ष्मण हुक्मचन्द जी, श्री रतनचन्द जी जरीवाले आदि ने तीर्थोदास जी, डिप्टी चम्पतराय जी और सेठ देवकुमार जो द्वार का बीड़ा उठाया। समाज-उत्थान की ये सब परम्प- . यादि महानभावों ने समाज-धर्म-सेवा के लिए महासभा रायें उत्साहपूर्वक महासभा के नियत्रण में करीब २५-३० की नीव डाली। महासभा ने सस्कृत अध्ययन के लिए वर्ष तक चलती रही। और अंग्रेजी अध्ययन के लिए जहाँ पर राज्य के मुख्य महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान पाये विश्वविद्यालय थे, वहाँ पर होस्टल बनाने की पद्धति और प्रछतोद्धार, नारी-जागरण और देश को विदेशी अपनायी । पण्डित गोपालदास जी वरया, म्यायाचायं ब्र० शासन से मुक्त करने के लिए एक नया प्रोग्राम उन्होंने गणेश प्रसाद जी वर्णी, वावा भागीरथ जी वर्णी ने विद्या- देश को दिया। इसका असर जैन समाज पर भी होना लयो को निर्मित किया और सेठ माणिकचन्द्र जी प्रादि ने था। श्री अर्जनलाल मेत्री श्री नेगोडारण जी होस्टल वनवाने की प्रथा डाला। नारानशक्षा मश्रामता लाल जी और अनेक ने गांधी जी के नेतृत्व को मानकर मगन बहिन,. चन्दा बाई आदि ने विशेष उत्साह उनके विचार और कार्य में हाथ बटाया। इसका प्रसर दिखाया और प्रेरणा दी। ब्रिटिश मोर मुस्लिम प्रभुत्व जैन समाज की कार्यप्रणाली पर होना भी स्वाभाविक था। के लम्बे दौरान के कारण समाज में तस्वचर्चा और स्वा- १९३२ में ही महासभा के दिल्ली अधिवेशन में समाजध्याय की मोर रुचि करीब-करीब समाप्त जैसी हो गयी सुधार को प्रगति किस तेजी से हो इसमें मतभिन्नता हो Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध उद्योगपति साहू शान्तिप्रसाद नी जंन का उद्घाटन भाषण २३७ गई। समाज-सुधार कार्य में अधिक प्रगति के लिए ब० गया। दिगम्ब रत्व की रक्षा करने के लिए और दिगम्बशीतलप्रसाद जी, बेरिस्टर चम्पतराय जी, राय बहादुर रत्व की प्रभावना के लिए तमाम दिगम्बर जैन समाज ने जुगमन्दरदास जी, श्री रतनलाल जी, श्री राजेन्द्रकुमार एक होकर एक समिति का गठन दिल्ली मे किया। इस जी प्रादि ने मिलकर परिषद की स्थापना दिल्ली में को। गठन में पहली बार स्थितिपालक और सुधारक एक साथ जिससे समाज-सुधार का कार्य तेजी से हो सके। कार्य कर रहे हैं और इम गठन की नीव इस निश्चय पर भारत की सामाजिक उन्नति का इतिहास जैन समाज है कि एक दूसरे का कोई विरोध नहीं करे। आज सभी की प्रगति का इतिहास है। महासमा की बागडोर जिस जानते हैं कि यह गठन बहुत सुदृढ़ है और इसकी शाखाएँ समय परिषद् बनी थी सर सेठ हुकमचन्द जी के हाथ भारत के प्रत्येक स्थान में भगवान महावीरोत्सव मनाने के मे रही और उन्होंने अपने को स्थितिपालक कहा। लिए बन गई है। करीब २० वर्ष बाद १९४२ में सर सेठ ने मालबा अहिंसा, अपरिग्रह, स्यावाद शाश्वत सिद्धान्त हैं । प्रान्तिक और खण्देलवाल सभा का अधिवेशन इन्दौर मे वर्तमान कालचक्र के प्रारम्भ मे इन धर्मों का प्रतिपादन बुलाया। और उसके स्वागताध्यक्ष भैया राजकुमार जी भगवान आदिनाथ ने किया। भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थ हुए। उसके अध्यक्ष पद के लिए सर सेठ ने मुझे प्राम- के अन्तिम पद में भारतीय समाज मे धर्म के नाम से त्रित किया। सेठ जी मेरे विचारो से पूरे जानकार थे हिंसा बहुत बढ़ गई थी और शूद्र और नारियो का क्रयऔर उन्हे मालूम भी था कि मैं परिषद का अध्यक्ष रह विक्रय एक सामाजिक सस्था बन गई थी। उसे उन्मूलन चुका हूँ और परिषद से मेरा बहुत सबध है। लोहड़साजन करने के लिए भगवान महावीर ने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा और बड़साजन की खण्डेलवाल समाज में वही रीति थी भारतीय समाज को अहिंसा और संयम का रास्ता जैसा अग्रवाल समाज मे दस्सा-विस्सा प्रथा थी। लोहड़- बताया। बडसाजन को एक करने का प्रस्ताव हुमा और बराबर भगवान ने मनुष्य को स्वतन्त्रता का उपदेश दिया, अधिकार दिये गये । परिषद बनने का एक कारण दस्सा- उसे उन धार्मिक, सामाजिक और मानसिक रूढि-बन्धनों विस्सा प्रथा भी थी। सर सेठ ने २० वर्ष बाद इन्दौर मे से मुक्त किया, जो उसके मन में अज्ञान, प्रात्मा मे जड़ता, लोहड वड़साजन को मिलाकर समस्त समाज का नेतृत्व उपासना में प्राडम्वर, क्रिया में रूढ़ि, समाज मे कटुता किया। और विश्व में हिंसा उत्पन्न करते थे। भगवान महावीर भारत की स्वतंत्रता के बाद विदेशों में मूर्तियों तथा की श्रमण सस्कृति का प्राधार मनुष्य का अपना अनुभव, भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों और चिह्नों को बेचकर धन अपना ज्ञान और अपनी प्रात्मसाधना है, इसलिए जैन कमाने के लिए एक बड़ा धन्धा प्रारम्भ हुआ जो अभी भी शासन के प्रवर्तको ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुजारी है। इसी धन्धे के कारण मध्य भारत में प्रतिष्ठित सार ही युगधर्म का उपदेश दिया है। मन्दिरों में प्रतिमानों को खण्डित किया गया और चोरी धार्मिक जगत में परीक्षण, अनुभव और बुद्धिवाद को हुई । इस पर समस्त समाज प्रतिमानो के खण्डित होने आदर देकर भगवान महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन के कारण क्षुब्ध था। इस पर विचार करने के लिए दिल्ली किया है, उसे आप चाहे जैन धर्म कहें, चाहे श्रमण धर्म, में जैन समाज की एक बृहसभा हुई। सर सेठ भागचन्द । वह वास्तव में है मानवधर्म हो है। यह बात नही कि इस जी ने समय को देखा और उन्होने एकता लाने का भरसक धर्म में मनुष्य की श्रद्धा की उपेक्षा की गई हो। वास्तप्रयत्न किया। उनका प्रयत्न आज तक महासभा और विक श्रद्धा के विना मनुष्य की बुद्धि भटक जाती है, और परिषद को मिलाने का जारी है। बुद्धि के समाधान विना श्रद्धा अन्धविश्वास के स्तर पर तीन वर्ष पहले तमाम भारतवर्ष में भगवान महावीर जा गिरती है। इसीलिए भगवान ने धार्मिक प्राचरण के का २५००वा निर्वाणोत्सव मनाने का निश्चय किया मूल में ज्ञान के साथ भद्धा को रखा और मनुष्य के धर्म Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८, वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त कोष को श्रद्धा, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रयनिधि से. वीर शासन की एक विशेष देन जो संसार के दर्शन समुज्ज्वल किया। जीवन के उद्देश्य के लिए उन्होने शास्त्रों मोर विचारधारामों मे अपना अद्वितीय स्थान अभ्युदय की जगह निःश्रेयस, प्रेय के स्थान मे श्रेय, भोग रखती है, वह हैं स्याद्वाद या अनेकान्तवाद । मनुष्य के की जगह योग पोर प्रवृत्ति की जगह निवृत्ति को प्रधा- विचारों में जो विभिन्नता है और सत्य की खोज करने . नतादी। वाले व्यक्तियों की धारणामों मे कभी-कभी जो स्पष्ट । · भगवान महावीर के लिए प्राचीन प्राचार्यों ने 'परि विरोध दिखाई देता है, उसके मूल मे प्रायः यही कारण यट्टये विशेषण का उपयोग किया है, जो विशेष महत्वपूर्ण होता है कि एकांग सत्य को पूर्ण सत्य मान बैठते हैं। है। परियट्टये' शब्द का अर्थ है परिवर्तक अथवा परि- पदार्थों में अनेक धर्म हैं, सत्य को अनेक दृष्टिकोणों से वर्तम करने वाला या सशोधन करने वाला। वीर शासन देखा जा सकता है, किन्तु भाषा का माध्यम इतना निर्बल अपने युग के लिए क्रान्ति के रूप में अवतरित हमा, है कि वह वस्तु के सब धर्मों को, सत्य के अनेक दृष्टिजिसने समाज की जीर्णशीर्ण व्यवस्था में नये प्राण फूंके, कोणों को, एक साथ व्यक्त नहीं कर सकता। मनुष्य के सहज चैतन्य को जगाया तथा मतान्धता घोर . भगवान महावीर के समय में ६ प्रमुख तत्त्ववेत्ता थे, कट्टरता को हटाकर वैज्ञानिक विचारधारा के सूखे स्रोत उन्होंने वस्त के एक धर्म में ही सम्पूर्ण सत्य की मान्यता को पुन: जीवनदान दिया। करली थी। सीधे तौर पर हम यह कह सकते हैं किउस समय की सामाजिक व्यवस्था में दलित वर्ग का १. अजित केशकम्बलि भौतिकवादी थे, २. मक्खलि शोषण और जातिवाद का दुरभिमान प्रादि जो दोष मा गोशाल अकर्मण्यतावादी थे, और ३. पूर्णकश्यप प्रक्रियावादी गये थे, उनको दूर करने के लिए भगवान ने वर्णव्यवस्था अथवा नियतिवादी थे, ४. प्रकुध कात्यायन नित्य पदार्थवादी के आधार की स्पष्ट व्याख्या की। उन्होंने कहा :- थे, ५. गौतमबुद्ध क्षणिक पदार्थवादी थे, ६. संजय भेलट्टिपुत्त . । 'कम्मुणा बम्हणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो । संशयवादी या अनिश्चिततावादी थे। भगवान महावीर . बासो कम्मुणा होई, सुद्दो हबई कम्मणा ॥' के उप्पन्नेई वा, विगमेई वा, धुवेई वा इस मातृकात्रिपदी । अर्थात, मनुष्य का वर्ण वह नहीं जो उसे जन्म से में वताये गये, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाद या अनेकान्तवाद मिला हो, वल्कि मनुष्य अपने कर्म से ब्राह्मण होता है, दर्शन ने नित्यपदार्थवादो प्रकुध कात्यायन मोर क्षणिक कर्म से क्षत्री होता है और कर्म से ही वैश्य तथा शब्द पदार्थवादी गौतमबुद्ध के दर्शनों का वस्तु स्थिति के प्राधार होता है। महावीर स्वामी ने वर्णव्यवस्था को व्यवहार. पर पूरा-पूरा समन्वय किया। स्याद्वाद की निश्चित शैली मूलक ही माना धर्ममूलक नहीं। ने संजयवेलट्टिपुत्त के संशयवाद या अनिश्चिततावाद का श्रमण सस्कृति मे समय के उतार-चढ़ावके साथ अनेक निराकरण किया । 'स्यात्' शब्द न तो 'शायद' का पर्यायऐसी धारणाएँ प्रा मिली है, जिन्होंने कहीं-कहीं मूल रूप वाची है और न अनिश्चितता का रूपान्तर । यह तो को ढक दिया है। वीर शासन के अनुयारी जिन्हें अपने 'अमुक सुनिश्चित दृष्टिकोण' के पर्थ में प्रयुक्त होता है। 'घामिक संस्कारों के कारण सत्य का दर्शन सुलम होना धार्मिक सिद्धान्त का प्रभाव यदि हमारे दैनिक जीवन 'चाहिए, इस विषय में देश के प्रति विशेष उत्तरदायित्व पर न पडा, तो फिर उस सिद्धान्त का विशेष लाभ ही रखते है । देशवासियों का एक बड़ा भाग पाज जीवन के क्या हमा? पुरातनवाद पौर सुधारवाद का द्वन्द्व, पूंजी अनेक अधिकारों और मनुष्य के प्रेम से वचित है। भग- वाद और समाजवाद का संघर्ष तथा हिन्दू-मुस्लिम समवान महावीर के शासन मे इन प्राणियों का भी विशेष स्यानों की कटुता, यह सब वस्तुस्थिति के विभिन्न पक्षों 'स्मीन था । अतः हमारा कर्तव्य है कि. हम उन्हें वीर की के एकान्त प्राग्रह के फल हैं। यदि हम अनेकान्त के प्रतिपादित-मानवता और विश्वबन्धुत्व के निकट लाने में सिद्धान्त को अपनाकर विचारों में सामंजस्य उत्पन्न करने प्रयत्नशील हों। की चेष्टा करें या मन को उदार तथा. हृदय को विशाल Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिव उद्योगपति साहू शान्तिप्रसाद जी बैन का उद्घाटन भाषण २३९ बनाएं, तो हमारे देश के धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक वीर शासन का उद्देश्य प्राणिमात्र की हित कामना और प्रार्थिक क्षेत्र की कटुता और वमनस्य दूर हो जाये। पौर उद्धार कार्य था, इसीलिए युग परिवर्तक भगवान भगवान महावीर का दृष्टिकोण सब दिशामों में महावीर ने अपना धर्मोपदेश उस भाषा में दिया, जो सर्ववैज्ञानिक था, इसलिए समाज के जीवन में प्रचलित रूढ़ि- साधारण की बोली थी। तत्कालीन धार्मिक जगत में इस वाद के विरुद्ध उनका वज्र निर्घोष हुआ। बात ने ही एक क्रान्ति उतान्न कर दी। भगवान को वीर भगवान की मौलिक और वैज्ञानिक चिन्तनधारा मानवधर्म का उपदेश देना था, इसलिए यह प्रावश्यक था का उत्कृष्ट प्रमाण इस बात से मिलता है कि उन्होंने अन्य कि वह धर्म के चिरन्तन सिद्धान्तो को ऐसी भाषा में कहें, संस्कृतियों की परम्परागत इस विचारधारा का निराकरण जो लोगों की समझ मे माये और हृदय मे स्थान बनाये। किया कि यह जगत ईश्वर ने बनाया है और इसका शासन इसलिए प्रभु ने उस समय की प्रचलित बोली अर्धमागधी ईश्वर उसी तरह करता है, जिस तरह कोई राजा अपने में अपना उपदेश दिया। अर्धमागधी वोली में माघे शब्द देश का। माधुनिक विज्ञान भी प्राज इस निश्चय की मोर मगध देश की बोली के थे और शेष शब्द दूसरे गणतन्त्रों पहुँचा है कि ससार के प्रनादि द्रव्यों का विकास की भाषामों के। इसी वीर परम्परा को अपनाकर ही और ह्रास केवल द्रव्य की पर्यायों की अदला-बदली जैन प्राचार्यो, जैन कवियों और लेखको ने भारत की का खेल है, जो वस्तु के परिवर्तनशील स्वभाव के विभिन्न भाषाओं में अमर लोकसाहित्य रचा है। माज कारण होता है । ज्युलियन हक्सले जो माज के बहुत बड़े जब कि हम देश के लिए एक भाषा का निर्माण करना वैज्ञानिक और प्राणिशास्त्र के विद्वान हैं अपना मत स्पष्ट चाहते हैं, हमे वीर के पराक्रम, उनकी सूझ और उनके लिखते हैं : उदाहरण से शिक्षा लेनी चाहिए । वीर भगवान की प्रघं. ___ "इस विश्व पर शासन करने बाला कौन या क्या" मागधी उस समय की हिन्दुस्तानी थी, जो वोलचाल का है ? जहाँ तक हमारी दृष्टि जाती है, हम यही देखते हैं माध्यम तो थी ही, साहित्य का भी सफल माध्यम वनी। कि विश्व का नियन्त्रण स्वयं अपनी ही शक्ति से हो रहा माज यदि हम सार्वजनिक सुघार, शिक्षा पोर उन्नति है। और वास्तव में बात तो यह है कि विश्व का सादृश्य चाहते हैं, तो हमे वीर के पदचिह्नों पर चलकर देश के देश और उसके शासक के साथ बैठना नितान्त भ्रमपूर्ण हैं। लिए एक भाषा-हिन्दुस्तानी-गढ़नी होगी और उसमे भगवान महावीर ने निर्वाण के लिए जिन सात तत्त्वों उपयोगी साहित्य की सृष्टि करनी होगी। जन-साहित्य ने का श्रद्धान और ज्ञान प्रावश्यक बतलाया और प्राचरण के सदा ही समय की प्रचलित वोली का माध्वम स्वीकार जो नियम बनाये, वे मानव जीवन के मूल माघार | किया है, इसलिए संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, अपभ्रंश, भगवान ने मनुष्य का भाग्य मनुष्य के हाथ में सौंपा है, कन्नड़, तामिल, गुजरातो प्रादि प्रान्तीय तथा सार्वजनिक उसे मोक्ष प्राप्ति के लिए अपने ही साधनों पर प्रवलम्बित भाषामों में उच्चकोटि का विपुल जैन-साहित्य मिलता है। होना सिखाया है। .. हमें पाज भी अपनी साहित्यिक प्रतिभा की ज्योति प्रक्षण्ण जैन दर्शन का ध्येय केवल यही है कि मादमी अपने बनाये रखनी चाहिए और हिन्दी, बंगाली, पुषरातो, मराठी, को पहचाने, अपनी प्रात्मा के स्वभाव और सुख को प्राप्त तामिल, तेलगू मादि भाषामों के साहित्य को अपनी करे। कर्मवन्ध को रोकने मौर काटने का उपाय शुद्ध संस्कृति के योगदान से समृद्ध करना चाहिए। पाचरण, संयम और तप है। जैन दर्शन का जीवन सूत्र वीर शासन ने जहां धार्मिक क्षेत्र में अहिंसा स्यावाद पौर मात्मानुभूति की महत्ता बता कर धर्म को सुबोध 'माणं पयासयं, सोहमो तबो, संयमो यमुत्तियरो।' भोर सार्वजनिक बनाया तथा सामाजिक क्षेत्र में समता, ज्ञान प्रकाशक है, चित्त शोषम करता है और संयम शुद्धता और स्वतन्त्रता का प्रचार किया, वहाँ राजनैतिक रक्षा करता है। क्षेत्र में लोककल्याण की भावना को प्रोत्साहित किया है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त साहित्य के क्षेत्र में वीर शासन की परम्परा ने ससार को प्रयत्नों और राजनैतिक आन्दोलनों मे जिन भाइयों ने उत्कृष्ट काव्य, नाटक, चम्पू, कोष, इतिहास, वैद्यक और प्रमुख भाग लिया है, उन्होने राष्ट्रीय दृष्टिकोण से ही ज्योतिष प्रादि ग्रन्थो का दान दिया। इसी तरह वीर ऐसा किया है आज भी हम बहुमत से उन सब प्रवृत्तियों शासन के अनुयायियो ने रुचिर चित्रकला, सुन्दर स्थापत्य को राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध समझते है, जो देश की स्वाऔर मनोरम मूर्ति निर्माण-कला के उत्कृष्ट उदाहरणों से धीनता मे रुकावट डाले, उसकी एकता को नष्ट करे और कलाकौशन के वैभव को बढ़ाया है। उसे प्रार्थिक तथा राजनैतिक अवनति की ओर ले जाएँ। वीर शासन पोर जैन धर्म के उपासकों मे सभी वर्गो हम न तो हिन्दुनो से अलग राजनैतिक प्रतिनिधित्व चाहते और सभी श्रेणियों के व्यक्ति सम्मिलित रहे है। शिश- है, न भारत की वह मुखी एकता को खण्डित कर देने के नाग कदम्ब, चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, सोल की प्रादि पक्ष में है। राजवंशों मे लेन धर्म को मान्यता थी, जिसका प्रमाण हमारा समाज व्यापार और खेतिहर प्रधान है। देश भारतवर्ष के कोने-कोने मे प्राप्त जैन तीर्थों, मन्दिरो और ने खेती में उत्पादन बढ़ाने के लिए खेतिहरो को प्राह्वान स्तूपो के शिलालेखो के रूप में मिलता है। किया था। हमारे खेतिहर समाज ने पूरा सहयोग दिया___ पिछली जनगणना के अनुसार जैनियों की संख्या २५ कइयों को कृषि पण्डित की उपाधि से सम्मान मिला, जो लाख कही जाती है, किन्तु वास्तव मे जैन धर्म के मानने समाज का हिस्सा गरीबी के कारण नगण्य-सा हो गया वालो की सख्या करीब ८० लाख से ऊपर होगी, ऐसा था उन्होने पिछले कई वर्षों में धार्मिक कार्यों में बहुनमेरा अनुमान है । जनगणना के समय बहुत से जैनी अपने सा धन दिया है। तीर्थों की रक्षा के लिए सबसे अधिक को हिन्दू लिखवाते है, बहुत से वैश्य, बनिया अथवा सरा- धन महाराष्ट्र और कन्नड के खेतिहरो से ही मिला है। वगी प्रादि । जैनियो ने जनगणना में अपनी जाति और बगाल और बिहार का खेतिहर समाज भी उन्नतिपथ धर्म ठीक-ठीक भरवाने मे सामूहिक रूप से कुछ उपेक्षा पर है। दिखाई है। इसके अतिरिक्त सराक, मीना, कलार प्रादि आज हमारी प्रधान मत्री श्रीमती इन्दिरा गाधी बेरोजातियो के लाखो की सख्या में ऐसे लोग है, जिनमे पहले जगारी हटाने के अभियान से छोटे उद्योगो को बढ़ाने के जैन धर्म प्रचलित था और पाज यद्यपि जैन धर्म और लिए बहुत बल दे रही हैं और उन्होंने गल्ले के व्यापार जैन समाज से उनका सीधा सम्पर्क टूट गया है, फिर भी का स्वामित्व राज्य को दिया है। उद्योग का कार्य व्यापार वे साल में किसी विशेष त्यौहार के दिन अथवा शादी. से कुछ कठिन होने पर भी हम व्यापारियों को उद्योग विवाह के अवसर पर जैन मन्दिरों मे जाकर अपनी विधि मे लग जाना चाहिए, इससे हमारा और देश दोनो का से भगवान की पूजा करते है। इन जातियों में धर्म को लाभ होगा, परिषद का यह एक मुख्य कार्यक्रम होना पुनर्जागृति करना, उनके सस्कार को सुधारना और सबसे चाहिए। हमे इसके लिए सब स्तर पर कमेटियों का गठन बड़ी बात यह कि उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और जीविका करना चाहिए। की ओर ध्यान देना मानवता की दृष्टि से भी जैन समाज पश्चिमी सभ्यता इस देश में तेजी से बढ़ रही है, 47 विशेष कर्तव्य हो जाता है। प्रामिष भोजन और शराब का प्रचार तेजी पर है। यहाँ यह बात हमें स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि हमारी सरकार स्वस्थ भोजन के नाम पर आमिष भोजन यद्यपि जैनियों का धर्म और उनकी संस्कृति वैदिक संस्कृति के पक्ष मे है। ऐसे कठिन समय मे परिषद को निरामिष से भिन्न है और वह हिन्दू धर्म की न शाखा है और न भोजन की परम्परा को बनाये रखने के लिए बड़े और अग, पर जहाँ तक हमारे समाज का सम्बन्ध है, हम छोटे शहरों में निरामिष क्लब, निरामिष भोजनालय, विशाल हिन्दू संघ के साथ है और सामाजिक तथा राज- निरामिप होटल बनाना और उन्हें जनप्रिय बनाने का नैतिक मामलों में उससे मभिन्न है । देश के अनेक सुधार- प्रोग्राम बनाना चाहिए। इन सब स्थानों पर स्वस्थ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध उद्योगपति साहू शान्तिप्रसाद जोन का उद्घाटन भावन २४१ मामोद-प्रमोद का इन्तजाम हो। यदि हमने मोक्ष हेतु ने और धर्म साधकों ने बीज रूप मंत्रइस ससार को केवल हेय ही समझा, तो भाने वाली सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राणि मोम मार्गः समाज को सन्तान भारतीय संस्कृति से बहुत दूर चली जायगी और दिया, जो परम सत्य है। किन्तु जो मार्ग मुक्ति का है। भगवान महावीर के जो ममतमय नैतिक उपदेश हैं, उनसे उस पर चलने से पहले जो संसार का लम्बा-चौडा मैदान मानवता वचित हो जायगी। है, उसमे किस प्रकार विचरण करना चाहिए। इसका समाज को स्वस्थ बनाने का उपाय भगवान प्रादिनाथ पूरा विधिवत उपदेश न मिलने के कारण समाज मे अनेक ने सुझाया, इसका विवरण मादिनाथ पुराण में विस्तृत विषमताये मा गई । जैसे स्थापना का सिद्धान्त तो सत्य रूप से है। उन्होंने सभी विद्यायो और कलामो को जन्म है, किन्तु उसकी प्रति के कारण बच्चे उसे समझ नहीं दिया, राजनीति, समाजनीति, युद्धनीति का विवेचन पाते हैं और उनके विश्वास पर चोट लगती है। स्थापना किया। भगवान मादिनाथ के बताये हुए रास्ते पर चल- वही करनी चाहिए, जह! उसकी परम प्रावश्यकता हो । कर स्वस्थ समाज का निर्माण ही हमारा लक्ष्य है, जो परिषद को भगवान मादिनाथ का बताया हुआ भगवान महावीर का उपदेश साधुपो को लक्ष्य करके कहा नैतिकता और मानव धर्म पर स्थित, जो श्रावक प्राचार गया है, उस पर दृष्टि तो रखनी चाहिए-किन्तु यदि परम्परा है उस पर अधिक बल देना चाहिए। उस मार्ग पर गृहस्थ रहते हुए चलने की कोशिश की तो समाज के सभी सूधारकों का मैं अभिनन्दन करता न हम घर के रहेगे न घाट के। हूँ। अनेक प्राज हमारे बीच नही हैं, उनकी सेवामों के चल तो सकेगे नही पौर विडम्बना मात्र कहे जायेगे। ही कारण प्राज जैन समाज देश की सभी प्रवृत्तियों में मुक्तिप्राप्ति शुक्ल ध्यान से होती है । हम धर्म ध्यान भी कधे-से-कंधा मिलाकर सहयोग दे रहा है और देश का नही कर पाते है। द्रव्यो की पूजा के द्वारा मोक्ष की सब प्रकार समद्ध और सबल बनाने में समर्थ होगा। कामना करते है-जो असंभव है। पूजा और दान से सद्- श्रीमती इन्दिरा गांधी ने भगवान महावीर के गति की कामना भोर प्राप्ति ही सत्य है। २५००वें निर्वाणोत्सव की नेशनल कमेटी की अध्यक्षा-पद सद्गृहस्थ रहते हुए स्वर्ग मोर मनुष्य गति ही हमें स्वीकार किया है। हम उनके प्राभारी हैं और हमे प्राप्त हो सकती है । मुस्लिम प्राधिपत्य के समय मे ज्ञान विश्वास है कि निर्वाणोत्सव से देश का नैतिक बल बढ़ेगा का ऊहापोह होना असभव-सा हो गया था। प्राचार्यों और समाज सब प्रकार से सुखी होगा। अनेकान्त के ग्राहक बनें "अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रुत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। इतनी महगाई में भी उसके मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई, मूल्य वही ६) रुपया है। विद्वानों एवं शोधकार्य संलग्न महानुभावों से निवेदन है कि वे योग्य लेखों तथा शोधपूर्ण निबन्धों के संक्षिप्त विवरण पत्र में प्रकाशनार्थ भेजने की कृपा करें। -व्यवस्थापक 'भनेकान्त' Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदृष्टि में मोक्ष : एक विश्लेषण डा० मुक्ताप्रसाद पटेरिया मोक्ष का सदभाव स्वाभाविक गुणों को प्रभावित करते हुए कर्मरूपता को जैन दर्शन में जीव-जीवादि सात तत्त्व माने गये प्राप्त हो जाते हैं। फलत: पास्मा का वैमाविक परिणमन है। कुछ विद्वानों ने इनमें पुण्य मोर पाप को जोड़कर स्वभाव बन जाता है। यही वैभाविक परिणमन उसकी इनकी संख्या नब भी मानी है। सात तत्त्वों के समर्थक सांसारिकता का साधक होता है। किन्तु जीव (ससाराकिसानों ने इनका अन्तर्भाष प्रात्मपरिणाम के रूप में वस्थित) जब अपने इन वैमाविक परिणमन से बब को मानव व बन्ध के अन्तर्गत स्वीकार किया है। दोनों को छोड़ देता है, तब पुनः स्वाभाविक परिणति की सिद्धान्तों में परमतत्व 'मोक्ष' ही माना गया है: इस क्षमता अजित कर लेता है । जैनदार्शनिकों ने इसी 'कर्मप्रकार जनतस्व व्यवस्था में 'मोक्ष' का प्राधान्य तथा अन्य विप्रयोग' (वियोग) को मोक्ष रूप प्रतिपादित किया है। नयों को इसकी प्राप्ति में सहकारी के रूप में निर्वचन सपिसिठिकार ने अपना यही माशय व्यक्त किया किया गया है। -'कृत्स्नकर्मवियोग लक्षणो मोक्षः' इति । मोक्ष है या नहीं, यद्यपि इस सन्दर्भ में दार्शनिक अनादि काल से बम्धनबद्ध पराधीन भात्मा का मोक्ष विकानों में परस्पर विवाद है, किन्तु मोक्ष के समर्थक कमो के उच्छेद रूप में होता है। तब यह स्वतन्त्र हो प्राचार्यों के अनुसार 'मोक्ष का अस्तित्व' इस अनुभूति से जाता है। इसी स्वतन्त्रता को जगत् से सर्वथा मक्ति ही सिद्ध हो जाता है कि 'मैंबंधा हूँ । यह अनुभूति प्रायः कहा जाता है। इस प्रकार बन्ध के कारणों का प्रभाव पौर सचित कर्मों का क्षय (निर्जरा) होने पर जब सर्वसभी सांसारिक जीवों को समान रूप से होती है। जिस विध कर्मों को प्रात्मा समूल नष्ट कर देता है, उसे मोक्ष प्रकार 'कारावास' तथा 'पराधीन' शब्दों की परिणति कहते हैं । जैनागमों में कर्मों के उच्छेद का यही क्रम उप'स्वातन्त्र्य' के अनुभव की साधिका हैं, इसी प्रकार की प्रतीति मोक्ष के सन्दर्भ में भी होती है। यही कारण है लब्ध होता है। जब जीव राग-द्वेष मिथ्यादर्शन प्रादि को कि कुछ जैनाचार्यों ने चरमतत्त्व मोक्ष' को बन्ध का प्रति जीतकर ज्ञान-दर्शन और चारित्र की प्राराधना में तत्पर पक्षी माना है। तत्व विवेचन पद्धति में जीव शब्द को होता है, तभी वह पाठ प्रकार की कर्म ग्रंथियों को तोड़ने प्रथम तथा मोक्ष शब्द को अन्त में रखने से इस विचार के लिए प्रयत्न करता है। इस प्रयत्न में वह सर्वप्रथम को समर्थन भी मिलता है। क्योंकि जीव-बन्धयुक्त मोहनीय कर्म की पट्ठाईस प्रकृतियों का क्षय करता है। संसारी प्रात्मा-का सद्भाव हैं, तो बन्धरहित-मुक्त इसके पश्चात् पांच प्रकार के ज्ञानवरणीय कर्म नव प्रकार प्रतएव शुद्ध प्रात्मा का सद्भाब स्वत: सिद्ध हो जाता के दर्शनावरणीय कर्म तथा पांच प्रकार के अन्तरायक है : बन्ध में कर्मों का जहाँ प्रात्मा के साथ सश्लेष होता का एक साथ क्षय करता है। इसके बाद में ही प्रनम्त. है. मोक्ष में इन्ही बद्ध कर्मों का पात्मा से विश्लेष परिपूर्ण, मावरण रहित पोर लोक-प्रलोक उभय के प्रकाहोता है। शक केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उत्पत्ति होती है। मोक्ष स्वरूप (Differentia of Liberation)-जो केवलज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति होने पर जानावरणीय कर्म पदगल प्रात्मा से संश्लिष्ट होते हैं, वे प्रात्मा के मादि चार घनघाति कर्मों का विनाश हो जाता १.स्थानाङ्ग-२१५७ २. सर्वार्थसिदि-१४ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनदृष्टि में मोल : एक विश्लेषण २४३ इसके पश्चात् जो अन्तमुहर्तात्मक प्रायु काल शेष रहता के प्रभाव में सम्यक चारित्र का सद्भाव भी नहीं होता। है, उसमें केवली सर्वप्रथम मन के व्यापार रूप मनोयोग चारित्र गुणों के प्रभाव मे कर्मों से मुक्ति पाना असम्भव के फिर बाग व्यापार (योग) को तथा शरीर व्यापार हो जाता है। कर्म मुक्ति के प्रभाव मे 'निर्वाण' (काययोग) और श्वासोच्छवास को रोक लेता है। भी सम्भव नही हो सकता है। क्योकि यदि 'ज्ञान' से इसके अनन्तर पाँच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण काल की जीव पदार्थों का ज्ञान करता हो तो 'दर्शन' से श्रद्धाभाजन अबधि में 'शैलेशीकरण' की अवस्था शल्क ध्यान की वनता है भोर चारित्र से प्रास्त्रत्र का निरोध और तपस्याचतुर्थ श्रेणी में स्थित होता है। इस स्थिति मे यह शेष साधना से कर्मों की निर्जरा करता हा अन्त मे शुद्ध हो कर्मो वेदनीय-मायु:-नाम और गोत्र को एक साथ नष्ट जाता है। यही कारण है कि जैनदार्शनिक प्राचार्यों ने करता है। इन समस्त कमों के क्षय के साथ ही वह मोक्षाभिलाषी जीव की सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (तप मौदारिक, कार्मण तथा तेजस शरीरों से भी सदा सर्वदा और उपयोग) मोक्ष मार्ग के लक्षण' रूप कहे हैं । के लिए मुक्त हो जाता है। इस प्रकार संसार स्थित जीव मोक्षमार्ग के विभिन्न क्रम-जैन दृष्टि मे सर्वसम्मत सिद्ध, बुद्ध और मुक्त' कहलाने लगता है। उक्त एक ही लक्षण मोक्षमार्ग का माना गया है किन्तु __ शैलेशीकरण' शब्द के सन्दर्भ में प्राचार्यों के विभिन्न इस मार्ग द्वारा मोक्षसिद्धि (प्राप्ति) की परम्परा या क्रम विचार मिलते हैं, जिसका माशय यह है-शैलेश-मेंरु के एकाधिक प्रकार जैनागमों में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होते समेह). इस पर्वतराज की तरह कम्पनरहित, स्थिर व है क्रम TET | साम्य अवस्था में स्थित होना शैलेशीकरण है। प्रथवाशील-सर्व सवर, इसका ईश-शीलेश, शीलेश की जो प्रथम क्रम-चेतन-मचेतन उभयरूप जगत् का योगनिरोधरूपा प्रवस्था-शैलेशी, अथवा-शील-समाधो सम्यग्ज्ञान होने पर प्रात्मा जीव की विविध गतियो का तथा ईश-एश्वर्य धातुपो से निष्पत्ति के प्राधार पर भी ज्ञाता हो जाता है । इस गतिज्ञान से उसे पुण्य-पाप व शीय-समाधि, इसमे ईश-समर्थ, उसकी जो समाधिस्थ बन्धमोक्षविषयक ज्ञान भी उत्पन्न हो जाता है। जिसके अवस्था वह शैलेशी । इस स्थिति मे जीव वेदनीय नाम व माधार पर मनुष्य एवं देवो के काम-भोगो का ज्ञान गोत्र रूप अघाति कमों का तथा प्रवशिष्ट प्रायः कर्म का करता हुमा इन काम-भोगों से विरक्त होने लगता है। निरण करता है। अतः इस स्थिति से यक्त योगी को भोर इनसे अपना बाह्य-प्राभ्यन्तर उभयविध सम्बन्ध भी 'पयोगी" कहा जाता है। धीरे धीरे तोड़ने लगता है। इस सम्बन्ध विच्छेद से मोक्ष का साधन रत्नत्रय (Path of Liberation) अनागार वृत्ति को धारण करता हुमा उत्कृष्ट संयम -जन दृष्टि में सम्यक् दर्शन-शान मोर सम्यक चारित्र तथा प्रमुत्तरधर्म के संस्पर्श से प्रज्ञान के माध्यम से सचित इन तीनो को सामूहिक रूप मे मोक्ष का साधन स्वीकार कलुषित कर्मराज को झाड़ डालता है। तब उसे केवल किया गया है । न कि पृथक-पृथक को । इनकी इस साम- ज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होते हैं। इसी प्राप्ति से वह हिक शक्ति को दृष्टिगत करते हुए दार्शनिकाचार्यों ने इस 'केवली होकर लोक मोर मलोक का ज्ञाता कहलाता है। समूह को 'रत्नत्रय' की सज्ञा से भी व्यबहुत किया है। अब वह अपने योगों का निरोध करके 'शैलेगी' अवस्था जैनागमो मे इनके सन्दर्भ मे कहा गया है कि प्रात्मा मे में स्थित हो जाता है। इस अवस्या मे कर्मों का सर्वथा 'सम्यक्त्व' तथा 'चरित्र' की एक साथ उत्पत्ति होती है। क्षय करके 'सिद्धत्व को प्राप्त करता है, और लोक के प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। क्योंकि श्रद्धा के प्रभाव अग्रभाग में स्थित होकर 'शाश्वत-सिद्ध" हो जाता हैं। में ज्ञान कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकता। सम्यग् ज्ञान ३. उत्तराध्ययन सूत्र-२८२-३, ५, १५, २६, ३०, १. उत्सराध्ययन सूत्र-२६७१-७३, ३५॥ २. संक्रमणकरण-पृ० १३७, ४. दशवकालिक सूत्रम् -४११४.२५ ।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४, पर्व २५ कि.. भनेकान्त वितीय कम-स्थानान के महावीर-गौतम संवाद में स्थित-अर्थात् मात्मा की कर्मों से छुटकर अपने शुद्धरूप यह दूसरा क्रम इस रूप में मिलता है-तथारूप (सांसा में स्थिति व कर्मों को मात्मा-संश्लेष छोड़कर स्वरूप रिक) श्रमण, बाह्मण को पर्युपासना का फल-श्रवण, श्रवण शुद्धस्थिति को पृथक-पृथक् शुद्धस्वरूप प्राप्त करने को का फल-जान, ज्ञान का फल-विज्ञान प्राप्त होता है। 'भात्मा का निर्वाण' माना गया है। विज्ञान का फल-प्रत्यास्थान त्याग और इसका फल- बीप-निर्वाण की तरह प्रात्मा का निर्वाण नहीं होतासंयम रूप होता है। संयम से मनासव पीर पनासब से बौदों ने जिस तरह दीपक के निर्वाणवत प्रात्मा का सप की प्राप्ति होती है। तपस्या सेम्यवदान (कों की निर्वाण भी स्वीकार किया है। वह नदार्शनिकों की निराधासोपानी कि में-मस-mwitों मालिके.. उपाधि होती है। पश्मिाका फल निर्वाणरूप होता है। सन्दर्भ में अनेक कल्पनाएँ की है। जैसे कि-चित्त तिति निर्वाष से सिरवि' में गमन होता है। की निरालवता सोपारिनिर्वाण है, और जो दीपनिर्वाण. तृतीय कम-यह तीसरा का दशाभुत स्काध में इस बत बिल की सतति का निर्वाण है वह हिपाविनिर्वाण प्रकार उपसा होता है-रामदेव से रहित निर्मलपित्त- है। यहाँ यह स्मरणीय है कि बोडों ने चूंकि कप-वेदना अति का पारक बीच धर्मध्यानता को प्राप्त करता है। विज्ञान-संजा और संस्कार रूप से पारमा को स्वीकार निःशंकमन से तथा धर्मध्यान से निर्वाण की प्राप्ति होती किया है। प्रतः इसके परिणाम स्वरूप उन्हें निर्वाण दशो है। इस प्रकार के संशिज्ञान से वह अपने उत्सम स्थान में भी पास्मा का निर्वाण अर्थात् प्रभाव (धनस्तित्व) का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। प्रतः जो सर्वविध कामनाओं से विरक्त मौर सहिष्णु होता है वह संयमी तपस्वी भवधि यहाँ पर यह विचारणीय है कि-निर्वाण में पदि ज्ञान का वारक होता है। तब वह तपःसाधना से शुभ दीपक के प्रकाश की तरह चित्तसतति का निरोध स्वीकार लेण्यामों को भी दूर करके प्रविज्ञान को पौर निर्मल किया जाएगा तो मारमा के भी बिनाश का अवसर बनाता है। जिससे कवलोक-मधोलोक म तिर्यमलोक में उपस्थित हो जाबेगा, जैसे कि चार्वाक दर्शन में मारमा स्थित समस्त जीवादि पदार्थों का प्रत्यक्ष शानी होता है। का मनस्तित्व स्वीकार किया गया है । क्योंकि निर्वाण मे और शभलेश्यामों के धारण से व तर्क-वितर्क से उत्पन्न उच्छेद या मरणान्तर उच्छेद, दोनों में कोई मन्तर दृष्टिचित्त की चंचलता से सर्वथा रहित हो जाता है, वह गत नहीं होता है। यदि प्रभौतिक चित्तसंतति की प्रतिमनःपर्ययज्ञान का धारक होता है । इसके अब जानवरणीय सधि, (परलोकगमन) भी सम्भव होती है तो निर्वाण की कर्म का प्रत्यन्त भय होता है तब वह केवलशानी होकर अवस्था मे इसके समूल-उच्छेद का अनौचित्य स्वतः सिद्ध लोकालोक दोनों का ज्ञाता हो जाता है। और 'जिन' हो जाता है। कहलाता है। तथा प्रतिमानों की विशुद्ध पाराधना से उत्पन्न मोहनीय कर्म का भय करके, समस्त प्रकार के प्रतः मोक्ष की स्थिति में चित्त संतति की सत्ता कर्मों का नाश करके, देह का परित्याग करके नाम-गोत्र अवश्य ही स्वीकारनी पड़ेगी क्योंकि यह चित्तसंतति प्रनादिकाल से ही मानव प्रादि के द्वारा मलिन होती हुई मायु मादि से रहित होता हुमा कर्मरज से सदा सर्वदा के साधना प्रादि के माध्यम से निरास्रवता को प्राप्त करती लिए छुटकारा प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार जनदर्शन में मात्मा के कर्मों का सर्वथा है। प्राचार्य कमलशीत ने भी निर्वाण का स्वरूप प्रतिउच्छेद-विनाश को मोक्ष माना गया है। मास्मा और पादित करते हुए एक श्लोक का उल्लेख किया हैकर्म (पुद्गल) दोनों ही पदार्थों की अपने-अपने रूप में सानो चित्तमेव हि संसारो, राणाविक्लेशवासितम्। तदेव विनिर्मुक्त, भवान्त इति व्यते ॥ १. स्थानाङ्ग-३॥३॥१९॥ २. दशावुत स्कम्ब-०१३, ११११६ ॥ ३. तत्व संग्रहपंजिका (पृ. १०४) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदृष्टि में मोक्ष : एक विश्लेषण १४५ निर्माण में जानारिगुणों का भी सर्वया उच्छेद नहीं से विलग हो जाती है तब इसका स्वाभाविक स्वरूप प्रकट होता-वैशेषिकों ने पात्मा के नव विशेष गुणों-बुद्धि होता है। जैन दार्शनिक भी मोक्ष-निर्वाण मे कमजन्य सुख-दुःख पादि का प्रत्यन्त उच्छेद रूप मोक्ष माना है। सुख दुःख प्रादि का विनाश तथा ज्ञान की स्थिति स्वीइनका कहना है कि इन नव विशेष गुणों की उत्पत्ति कार करते हैं। किन्तु यदि वे भी चंन्य का विनाश मात्मा और मन के संयोग से होती है। अत: मोक्ष की स्वीकार करने लगे तो परमतत्त्वरूप प्रात्मा का अपना अवस्था में मन के संयोग का प्रभाव होने से इन गुणों की । स्वरूप ही नष्ट हो जावेगा। उत्ति नहीं होती। इसीलिए.. प्रारमा वहां पर निर्गुण . इसलिए जनदालिमपलेपण स रहतासनी गुण कोसनिलीगु, 'गुणवत्मात्मा का उच्छेद स्वीकार किया गया है और न ही को सत्ता मोम में व्यवस्थित नहीं मानी जा सकती। मात्मा के स्वाभाविक गुणों का सर्वथा विनाया। अमन इस सिद्धान्त में पात्मा के विशेष गुण 'बुद्धि'-(मान)का । सांस्कृतिक परम्पग मे मोक्ष की व्याख्या इस प्रकार उच्छेद मोक्षावस्था में स्वीकार करना सगत नहीं बैठता। स्वीकार को पई है। जीव के समन को के जयका. यपि सांसारिक अवस्था में इन्द्रियों और मन के सयोग अभिप्राय है कि कमपुद्गल जीव से सर्वथा मलम हो जाते से मांशिक सान मारमा को प्राप्त होता है। इसका प्रभाव है। उनका सर्वथा (अत्यन्त) विनाश सम्भव नहीं होता। जी वहाँ सुनिश्चित है, किन्तु मात्मा का जो स्वरूप भूत क्योंकि सत् पदार्थ का द्रव्यदृष्टि से कभी भी विनासन चैतन्य इन्द्रियों पोर मन से परे है, उसका उच्छेद तो तो हमा है और न ही भविष्य में सम्भावित है। इसीलिए कभी सम्भव नहीं हो सकता। पोर न ही ऐसी कमी मात्मा प्रपनी वैभाविक (कर्म सश्लिष्ट) परिणति का सम्भावना की जा सकती है। परित्याग करके सर्वथा के लिए पसंश्लिष्ट हो जाता है। वैशेषिकों ने निर्वाणावस्था में पारमा की स्वरूप में इसी प्रकार चूंकि प्रात्मा एक स्वतंत्र व मौलिक चेतन स्थिति जिस प्रकार स्वीकार की है।वह स्वरूप ही 'इन्द्रि- पदार्थ है, तब फिर उसके मौलिक गुणों की भी मोक्ष में यातीत चैतन्य' है। यही चैतन्य इन्द्रिय-मन मादि पदार्थो विनाशकल्पना नहीं की जा सकती। अपितु उनकी निमं. के निमित्त से विभिन्न विषयाकार बुद्धि के रूप में परि- लता एवं विशुद्धि ही अपेक्षाकृत अधिकतर होती है। यही गत होता रहता है। जब यह पदार्थगत उपाधियां प्रात्मा बद्ध जीव का अभिप्रेत परामर्श होता है। अनेकान्त पत्र के विद्वान लेखक 'अनेकान्त' मासिक वीर सेवा मन्दिर दिल्ली से राष्ट्रभाषा में प्रकाशित होने वाला एक ऐसा पत्र है -जिसे इसके विद्वान् लेखकों के शोषपूर्ण प्राध्यात्मिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, नैतिक मादि लेखों एवं रचनामों के कारण भारतीय प्रायः सभी यूनिवसिटियां मंगाती हैं। यूनिवर्सिटियों में शोध तथा अनुसन्धानात्मक अभ्यास करने वाले छात्र-छात्राएँ इसे रुचिपूर्वक पढ़ते हैं । इस पत्र में अपने लेख भेजने के लिए लेखक महोदय इलाषा के पात्र हैं। लेखक महोदयों से निवेदन है कि वे अपना जो लेख भेजें उसे कागज की एक साइट पर स्पष्ट प्रक्षरों में लिखा हमा या स्पष्ट टाइस किया हुमा ही भेजें। अस्पष्ट लेख प्रकाशित करने में बहुत कठिनता रहती।। उरण (reference) जो दिये जाते हैं उनकी मूल कापियां प्राप्त नहीं होतीं और इस तरह अवसरणों का शोधन -कार्य नहीं हो सकने से लेख का महत्व क्षीण हो जाता है। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाडनू की एक महत्त्वपूर्ण जिन-प्रतिमा देवेन्द्र हाण्डा लाडन उत्तर रेलवे के रतनगढ-डेगाना खण्ड पर एक सहस्र वर्ष पूर्व लाडनं एक महत्वपूर्ण नगर रहा रतनगढ़ से ५५ किलोमीटर दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम तथा होगा। यहां के गढ, मन्दिरों मस्जिदों तथा विभिन्न भवनों डीडवाना से ३१ किलोमीटर उत्तर-उत्तर-पश्चिम में की नीवों की खुदाई से प्राप्त प्रतिमानों, पूजा-पात्रों, स्थित राजस्थान के नागौर जिले का एक प्रसिद्ध ऐति- अभिलेखों एवं अन्य भग्नावषों से इसी प्राशय के प्रमाण हासिक नगर हैं, इस प्राचीन नगर की ऐतिहासिकता एव मिलते है कि इस नगर ने सवत् १०१० के पश्चात अनेक अवशेषो ने कई विद्वानों का ध्यान प्राकृष्ट किया है। राज्यों तथा विभिन्न धर्मों का उत्थान पतन देखा है। यद्यपि एक स्थानीय किंवदन्ती के अनुसार यहा के गढ़ का लाडन के उच्च शिखर, बृहत् दिगम्बर जैन मन्दिर मे निर्माण लगभग चार सौ वर्ष पूर्व हग्रा तथापि इसकी जो अब बाह्य घरातल से लगभग तीन मीटर नीचे पृथ्वी दीवालों में लगी मूर्तियों, उत्कीणं खण्डों एव अभिलेखो से मे धंसा प्रतीत होता है, लाडनं की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक स्पष्ट है कि इसके निर्माण मे दसवी शताब्दी के भग्नाव- एव घामिक धरोहर के दर्शन किए जा सकते है। यद्यपि शेषों का प्रयोग किया गया। निस्सन्देह प्राज से लगभग इस मन्दिर के अधिकतर अवशेषो- उत्कीर्ण स्तम्भों, १. गोविन्द अग्रवाल, "लाडनं की एक अद्वितीय सरस्वती अभिलेखों मृतियो, तोरणो तथा पूजा-पात्रो को प्रकाश मे प्रतिमा" । मरुभारती, वर्ष १६, प्रक २ (जुलाई लाया जा चुका है तथापि इसमे एक प्राचीन प्रतिमा ऐसी १९७१), पृ० ५१-२, “६०० वर्ष प्राचीन अनुपम है जिस पर ध्यान नहीं दिया गया है। यह प्रतिमा है कलाकृति-लाडनू", मरभारती, वष १६, प्रक३ जैन धर्म के अधिष्ठाता प्रादि तीर्थकर भगवान् ऋषभनाथ (अक्टूबर १९७१), १० ५२; ऐतिहासिक व की, जिसका विवरण निम्नलिखित पक्तियो में दिया जा सांस्कृतिक नगर लाडनू", विश्वम्भरा, वर्ष ७ मक रहा है । १ (जन्माष्टमी, विक्रम संवत् २०२८), पृ० ६२-६६ जिन कमलासन पर ध्यान मुद्रा मे प्रासीन है, जिनकी तथा युवक परिषद स्मारिका, लाडन, १९७१-७२; कर्ण-पालि (earlobes) लम्बी, 5 घन्वाकार, नयन मुन्नालाल पुरोहित, "लाडनू : एक ऐतिहासिक ध्यान-निष्ठ, नासिका त्रिकोणात्मक, प्रघर पूर्ण, ग्रीवा पर विवेचन", तथा वैद्य मोहनलाल दीक्षित, "लाडनूं के मांस-बलन, स्कन्ध विस्तृत एव गोलाकार तथा कर-पाद प्रतीत की एक झांकी", युवक परिषद स्मारिका, पञ्चदलीय-पुष्पों से मकित हैं । केश-काकुल कर्ण पालियों लाडनूं, देवेन्द्र हाण्डा, "लाडनूं के दो साभिलेख धातु- के साथ लगते हुए दोनों कन्धो पर गिर रहे हैं । शिरोरुह प्रतिमाएँ", मह भारती, वर्ष २०, प्रक ४ (जनवरी दाएं हाथ धमते हुए घुघर बनाते हैं मोर उष्णीष पर्याप्त १९७३), पृ०१६-१७; Devendra Handa and उन्नत है। वक्ष पर श्री वत्स अक तथा मुख पर परमाGovind Agrawal, "Another Magnificent नन्द-परिचायिका स्मित-रेखा स्पष्ट है । पीछे हल्का-हल्का Saraswati From Rajasthan", East and उत्कीर्ण पुण्डरीक-प्रभामण्डल है और ऊपर त्रिस्तरीय west, Rome (under print); Indian Ar- छत्र, जिनके दोनो पोर पाश्वों में बहुत सुन्दर ग से chacology 1968-69-A Review, p. 49. उत्कीर्ण हाथो में चोरी लिए परिचारिकाएँ खड़ी हैं। २. गोविन्द अग्रवाल के उपरिनिर्दिष्ट लेख। चौरी उनके दाएं हाथ मे है और वे कर्ण:कुण्डल, कण्ठ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाडनूं की एक महत्वपूर्ण दिन-प्रतिमा १४७ हार, भुज बन्ध, मणि बन्ध तथा नूपुर पहने प्रत्यन्त पाक- भाव-सौन्दर्य का प्रभाव है तथापि इसमें लय, सन्तुलन, बंक ढंग से त्रिभंग मुद्रा में खड़ी जिन को निहार रही हैं। रेखामों की तीक्ष्णता तथा पंकन की कुशलता स्पष्ट दृष्टिउन्होंने चोली तथा अधोवस्त्र पहन रखे हैं जो सुन्दर कटि- गत होती है तथा मध्य-युगीन प्रतिमामों की निरुद्ध दनं. बन्धों से बद्ध हैं, जानुमों पर प्रधोवस्त्र की प्रन्थियां भी म्यता, कठोरता निर्जीव मावृत्ति, पलङ्कारों की अधिकता. बहुत सुन्दर हैं। बालों को पिंगलोद्ध ढंग से-पीछे को गति-प्लानता मादि भी नही है। प्रचुर कलात्मक उत्कर्ष कंघी कर ऊपर जूड़ा बना कर, संवारा गया हैं । प्रभा- से युक्त यह एक भव्य एवं महिमामय दृष्टान्त है जिसे मण्डल के दोनों पोर छत्र के पीछे छिन्न वृक्ष के पत्रों एव कलात्मक दृष्टि से ७००ई०के पास-पास की कृति माना पुष्पों को बड़ी कुशलता से पङ्कित किया गया है जिन पर जा सकता है। उडीयमान मुद्रा में हाथों मे पुष्प मालाएं लिए वस्त्रा. इस प्रकार हम देखते हैं कि यह प्रतिमा लाडनू के भूषण पहने विद्यारियां दिखाई गई है (चित्र १)। प्रयतन प्राप्त अवशेषों में प्राचीनतम है। इससे सातवीं यद्यपि इस प्रतिमा में गुप्तकालीन प्रतिमानों के पाठवीं शताब्दी में लाइन के अस्तित्व, इस क्षेत्र मे जेन३, इस चित्र के लिए मैं श्री जयन्ती लाल जी (जैन। धर्म की लाकप्रियता, तत्कालीन वस्त्राभूषणों एवं कला का चित्रालय, लाइन का प्राभारी हूँ। पता चलता है पतः यह एक प्रत्यन्त महत्वपूर्ण प्रतिमा है। "जिनो मोर जोने दो" के सिद्धान्त पर एक वैज्ञानिक प्रकाश ___'फूल' भावुक होते हैं "हिन्दुस्तान टाइम्स" अंग्रेजी दैनिक के २७-२-७३ के अंक में प्रकाशित समाचार के अनुसार सोवियत वैज्ञानिकों ने जिरेनियम (एक फूल का नाम) के एक पौधे मे भाबुकता के लक्षण प्रमाणित करने में सफलता प्राप्त कर ली है। "सोशलिस्ट इण्डस्ट्री" सत्र के अनुसार, उनका कहना है कि पौधे भय, खुशी, दर्द और उल्लास का "अनुभवन कर सकते हैं। डा. वी. पुश्किन ने कहा कि वैज्ञानिकों ने प्रसन्नता तथा दुःख की भावनामों को जागृत करके एक व्यक्ति को सम्मोहित (hypnotize) किया। उन यन्त्रों में भी उसी के अनुरूप प्रतिक्रियाएं पाई गई जो दूर पर विरेनियम को एक पत्ती से जोड़ दिए गए थे। मनोवैज्ञानिकों ने दर्शाया कि यदि पौधों से नम्रता से बात की जाय तो वे अधिक प्रच्छे ढंग से बढ़ सकते है। पाज से बहुत वर्ष पहले भारत के वरिष्ठ वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र वसु ने भी कतिपय प्रयोगो द्वारा वनस्पति मे प्रोत्मा (जीव) होने के सिद्धान्त को सिद्ध किया था। प्रथम प्रयोग उसका यह था कि वह अपने उद्यान मे बैठा था यकायक समीप प्रदेश में स्थित किसी चिमनी का धुमां उसके उद्यान मे पाया और तब उसने देखा कि उसके कतिपय पेड़ों की काया पलट हो गई यानी वे मुरझा गए । घूमां के स्पर्श से पूर्व पेड़ों की जो प्रसन्नमुद्राची वह न रही। वैज्ञानिक को इस परिवर्तन से दुःख हुमा और उसने जिस द्रव्य के धुएं से पेड़ों की यह अवस्था हई उसे अपनी प्रयोगशाला में लाकर उसका प्रयोग किया। फलतः उसको मालूम हुमा कि जैसे मनुष्य व पशु स्वास्थ्यप्रद खराक खाकर पूष्ट पौर विर्षली खुराक खाकर क्षीण होते हैं वही स्थिति पेड़ों की भी है। इसी सिद्धान्त के माघार पर उसने वनस्पति में जीव तत्त्व की स्थिति को सिद्ध किया। जैनधर्म में हजारों वर्ष पूर्व से ही तत्वदर्शी प्राचार्यों ने वनस्पति में जीव तत्त्व को माना है और उसके प्रति सदय एवं सहृदय रहने का उपदेश दिया है । जैनधर्म में वनस्पति को एकेन्द्रिय जीव माना है। -महेन्द्रसेनन Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० श्री राजकिशन जी स जाती येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम भी बन जाता है। साधारण स्तर से ऊचा उठकर वह परिवर्तनि ससारे मनः को वा न जायते । अपने पूर्व कालीन मित्रों एवं सहयोगियों को भूल जाता मरणशील इस संसार मे उन्ही व्यक्तियो का जीवन है लेकिन ये सव दूषित वृत्तियां राजकिशन जी के जीवन अभिनन्दनीय समझा जाता है जिनम जन्म लेने से देश, से सदा दूर रही है और इस रूप में उनका जीवन पादर्श धर्म, जाति व वश की उन्नति हो .कार दिये नीतिहनोक रहा है। में वंश शब्द उपलक्षण सामथ्र्य से देश, धर्म, जाति का भी लक्ष्मी और यश की प्राप्ति पुण्य सम्पदा का फल प्राहक होता है। वैसे तो परिवर्तनशील इम संसार में होते है । इसमे दो राय नहीं हो सकती । सागरण व्यक्ति मरने तथा उत्पन्न होने का नक्र प्रनादिकाल से चला पा जिस पुण्य सम्पदा से लक्ष्मी की प्राप्ति कर लेता है उसकी रहा है। लोग जन्मते संथा मरते है लेकिन सफल जीवन तरफ से उदासीन हो जाता है लेकिन राजकिशन जी का दाले व्यक्ति ही ससार में इलाषा तथा अनुकरण के पात्र जीवन इस विषय मे भी असाधारण ही रहा है उन्होंने बनते हैं। धन कमा कर धर्म को भुलाया नहीं दरियागज क्षेत्र में ऐसे अनेक कार्य हैं जो उनके धर्म प्रेम एवं परोपकार प्रवणता को प्रगट करते हैं । दरियागज न०१ में विशाल जिन भवन, पारमार्थिक प्रौषघालय, अहिंसा भवन, सर. स्वती भवन मादि.ऐसी सस्थाए है जो श्री राजकिशन जी के धर्म प्रेम को प्रगट करती है । ..श्री राजकिशन जी इस विषय में विशेष यशस्वी एव भाग्यशाली रहे कि वे अपने पीछे एक विशाल भरापूरा परिबार छोड़ गये है । मनुष्य जो अपने जीवन मे ही अपने. पुत्र, पौत्र, प्रपोत्र, प्रप्रपौत्र प्रादि को देख लेता है भाग्यशाली समझा जाता है। प्राज श्री राजकिशन जी के परिवार में पुरुष-स्त्री सभी सदस्य उच्च शिक्षा प्राप्त एव धर्मानुयायी हैं। वीरसेवा मन्दिर २१ दरियागज दिल्ली, जिसके प्रसिद्ध पत्र "अनेकान्त" में यह उनकी जीवन सस्तुति प्रकाशित हो रही है, से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था। इस स्व. श्री राजकिशन जैन सस्था के विशाल भवन निर्माण में उनका क्रियात्मक सहराजधानी के दरियागज क्षत्र में श्री राजकिशन जी योग सदा ही मिलता रहा है। इस विशाल भवन की जिनका निधन ४ फरवरी १६७३ को प्राकसरी निर्माण भूमि उपलब्धि मे भी श्री राजकिशन जी ने विशेष योग दिया है। व्यक्ति थे जिनकी कर्मठता, धम-प्रेम भोर सात्विक " क श्री राजकिशन जो मेरे घनिष्ठ मित्र थे उनके जीवन वृत्ति का स्मरण कर लोग कुछ प्ररणा ले सकत है। श्रा को सस्तुति करता हमा मैं यही माशा करता हूँ कि उनके राजकिशन जी अपनी 47क सम्पत्ति से विशेष धनी नही परिवार के लोगों में उनकी कर्मठता, धर्म प्रेम, पर थे माज जो लाखो रुपयो की सम्पत्ति वे छोड गये हैं वह साहाय्यभावना सदा सजग रहे मोर Worthy, Fathers. सब उनके सतत् श्रम एव व्यापारिक सूझ-बूझ का ही worthy Son को कहावत के अनुसार वे सब योग्य, परिणाम है। सम्पत्ति को पाकर साधारणत: लोगो में योग्यतर एव योग्यतम बने । अभिमान की मात्रा बढ़ जाती है वह व्यसनो का शिकार -मथुरादास जैन एम. ए.. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा सकलनकर्ता: वशोधर शास्त्री [मैंने २-३ वर्ष पूर्व हिन्दी की बारह भावनाओं का संकलन करना प्रारम्भ किया था किन्तु कार्य प्रागे नहीं बढ़ा था। अब देहली में आने के बाद वीर सेवा मन्दिर के पुस्तकालय का उपयोग करने से अनेक ऐसी मावनाएँ उपलब्ध हुई जो अब तक नहीं मिली थीं। अब इनकी संख्या ३० से ऊपर हो गई है। इनमें कुछ तो बहत प्रचलित हैं जैसे पं० भूधरदास जी की 'राजा राणा..' वाली बारह भावना । जो भावनायें जिनवाणी संग्रह में प्रकाशित हुई हैं वे तो फिर भी प्रचलित हैं किन्तु उनके सिवा बारह भावनायें अधिक संख्या में हैं जो प्रचलित नही है। यदि प्रकाशित भी हैं तो वे सुलभ नहीं हैं। कुछ अभी तक अप्रकाशित हैं। कुछ पुराण या चरित्रों में हैं उन सबको एक जगह प्रकाशित किये जाने की आवश्यकता है। सरस्वती भण्डारों के गुटकों में अनेक अप्रकाशित भावनायें हैं जिनका संकलन एवं प्रकाशन प्रावश्यक है। अभी बाबू पन्नालाल जोअग्रवाल की कृपा से अनेक बारह भावनायें मिली हैं उनको भी हम यथावसर प्रकाशित करेगे। अभी चूंकि वारह भावनामों की रचनायें मिलने का क्रम चालू हैं इसलिए इन सबको पुस्तकाकार देने के पूर्व अनेकान्त में क्रमशः प्रकाशन करना उपयुक्त समझा है। पाठक चाहें तो इन बारह भावनाओं का संकलन अनेकान्त से कर सकते हैं।] बारह भावना पं० भूधरदासकृत (पार्श्वनाथ पुराण से) : अनित्य-राजा राणा छत्रपति, हाथिन के मसवार । मरना सब को एक दिन, अपनो अपनो बार ।। मशरण-दल बल देई देवता मात पिता परिवार। मरती बिरियां जीव को कोई न राखनहार ।। संसार-दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।। एकत्व-पाप अकेलो अवतरै, मरे अकेलो होय। यं कवहं इस जीव को, साथी सगा न कोय ।। अन्यत्ब-जहाँ देह अपनी नहीं तहाँ न अपना कोय। घर सम्पति पर प्रकट ये पर हैं परिजन लोय ।। अशुचि-दिपै चाम चादर मढ़ी हांड पीजरा देह । भीतर या समगत में और नहीं घिन गेह ।। प्रास्रव-मोह नीद के जार जगवासी घूमैं सदा। कर्म चोर चहं ओर सरवस लूटें सुध नहीं। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०, वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त संवर-सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमै । तब कुछ बनहि उपाय, कर्मचोर पावत रुके। ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोध भ्रम छोर । या विध बिन निकस नहीं बैठे पूरब चोर ।। निर्जरा-पंच महाव्रत संचरण समिति पच परकार । प्रबल पंच इन्द्री विजय घार निर्जरा सार ।। लोक-चौदह राज उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें जीव अनादि ते भरमत हैं बिन ज्ञान ।। वोधिदुर्लभ-धनकन कचन राजसुख, सबहि सुलभ करजान । दुर्लभ है संसार मे, एक जथा रथ ज्ञान ।। धम-जांचे सुरतरु देय सुख, चितत चिता रैन । बिन जांचे बिन चितये, धर्म सकल सुख दैन ।। पं० जयचन्द कृत बारह भावना : अनित्य-द्रव्य रूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कोन । द्रव्य दृष्टि प्रापा लखो, पजय नय करि गौन । प्रशरण-शुद्धात्मा अरु पंचगुरु, जग में सरनो दोय । मोह उदय जिय के वथा, प्रान कल्पना होय ।।२।। संसार-पर द्रव्यन तै प्रीति जो, है संसार अबोध । ताको फल गति चार में, भ्रमण कहयो श्रुत शोध ॥३॥ एकत्व-परमारथ तें प्रातमा, एक रूप ही जोय । कर्म निमित्त विकलप घने, तिन नासे शिव होय ।।४।। मन्यत्व-अपने अपने सत्वक सर्ववस्तु विलसाय । ऐसे चितवै जीव तब, पर ते ममत न थाय ।।५।। प्रशचि-निर्मल अपनी प्रातमा, देह पावन गेह । जानि भव्य निज भाव को, भासों तजो सनेह ॥६॥ पाश्रव-पातम केवल ज्ञानमय, निश्चय दृष्टि निहार । सब विभाव परिणाम मय, आश्रवभाव विडार ।।७।। संवर-निज स्वरूप में लीनता. निश्चय सवर जानि । समिति गृप्ति सजम धरम, धरै पाप की हानि ॥८॥ निर्जरा-संवरमय है प्रातमा, पूर्वकर्म झड़ जाय। निज स्वरूप को पाय कर, लोकशिखर जब थाय ||६|| लोक-लोक स्वरूप विचारिक, पातम रूप निहार। परमारथ व्यवहार गुणि मिथ्याभाव निवारि ॥१०॥ बोधिदुर्लभ-बोधि आपका भाव है निश्चम दुर्लभ नाहि । __ भव में प्रापति कठिन है यह व्यवहार कहाहिं ॥११॥ धर्म-दर्श ज्ञानमय चेतना, प्रातम धर्म बखानि । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा २११ दया क्षमादिक रतनत्रय, या में गमित जान ।।१२।। भी भैयालाल कृत बारहभावना: पच परम गुरु वन्दन करूं। मन वचन काय सहित उर धरूं। बारह भावना भावन जान । भाऊँ प्रातम गुणह पहचान ।। प्रनित्य-थिर नहीं दोखे नयनों वस्त, देहादिक अरु रूप समस्त । थिर बिन नेह कौन से करूँ, अथिर देख ममता परि हरूँ ॥२॥ अशरण-अशरण तोहि शरन नहि कोय, तीन लोक में दगधर जोय। कोई न तेरो राखनहार, कम बसे चेतन निरधार ॥३॥ संसार-अरु संसार भावना येह, पर द्रव्यन से कैसे नेह । तू चेतन वे जड सर्वग, ताते तजो परायो संग :।।। एकत्व-जीव अकेला फिरे त्रिकाल, ऊरध मध्य भवन पाताल । दूजा कोई न तेरे साथ, सदा अकेला भ्रमे अनाथ ॥५॥ अन्यत्व-भिन्न सभो पुद्गल से रहे, भर्म बुद्धि से जड़ता गहे । वे रूपी पुद्गल के खन्ध, तू चिन्मूरति महा प्रबंध ॥६॥ मशुचि-अशुचि देख देहादिक अंग, कौन कुवस्तु लगी तो संग। अस्थि चाम रुधिरादिक गेह, मलमूत्रनि लख तजो सनेह ॥७॥ प्रास्रव-प्रास्रव पर से कीजे प्रीत, ताते बध पड़े विपरीत। पुदगल तोहि अपनयो नाहि, तू चेतन यह जड़ सब पाहि ।।८।। संवर-सवर पर को रोकन भाव, सुख होवे को यही उपाव । आवे नहीं लये जहाँ कर्म, पिछले रुके प्रकटे निजधर्म ॥६॥ निर्जरा-थिति पूर्ण है खिर खिर जाय, निर्जर भाव अधिक अधिकाय । निर्मल होय चिदानन्द प्राप, मिटे सहज परसंग मिलाप ।।१०।। लोक-लोक मांहि तेरो कुछ नाहीं, लोक अन्य तू अन्य लखाहिं। यह सब षट द्रव्यन का धाम, तू चिन्मूरति प्रातम राम ॥११॥ बोघिदुर्लभ-दुर्लभ पर को रोकन भाव, सो तो दुर्लभ है सुन राव । जो तेरे है ज्ञान अनन्त, सो नहीं दुर्लभ सुनो महंत ।।१२।। धर्म-धर्म स्वभाव आप ही जान, आप स्वभाव धर्म सोइ मान । जब वह धर्म प्रगट तोहि होई, तब परमातम पदलख सोई ।।१३।। येही बारह भावन सार, तीर्थकर भावें निर्धार । होय विराग महाव्रत लेय, तब भब भ्रमण जलांजलि देय ||१४|| भैया भावो भाव अनूप, भावत होय तुरत शिवभूप । सुख अनन्त विलसो निशि दीस, इम भावो स्वामी जगदीश ।।१५॥ प्रथम अथिर अशरण जगत, एकहि अन्य अशुचान । प्रास्रव संवर निर्जरा, लोक बोध तुम मान ।।१६।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ बर्ष २५, कि.६ अनेकान्त बुधजन कृत बारह भावना : अनित्य-जेती जगत में वस्तु तेतो प्रथिर परिणमती सदा। परणमन राखन नाहि समरथ इन्द्र चक्री मुनि कदा। सुत नारि यौवन और तन धन जान दामिनि दमक सा। ममता न कीजे धारि समता मानि जल मे नमक सा ॥१॥ अशरण-चेतन अचेतन सब परिग्रह हुअा अपनी थिति लहै। सो रहे आप करार माफिक अधिक राखे ना रहे। अब शरण काकी ले यगा जब इन्द्र नाहीं रहत हैं। शरण तो इक धर्म प्रातम जाहि मुनिजन गहत हैं ॥२॥ संसार-सुर नर नरक पशु सकल हेरे कर्म चेरे बन रहे। सुख शासता नहि भासता सब विपति में प्रति सन रहे। दुख मानसी तो देवगति में, नारकी दूख ही भरै। तिर्यंच मनुज वियोग रोगो, शोक सकट में जरै ।।३।। एकत्व-क्यों भूलता शठ फूलता है देख परिकर थोक को। लाया कहां ले जायगा क्या फौज भूषण रोक को। जनमत मरत तुझ एकले को काल केता हो गया। संग और नाही लगे तेरे सीख, मेरी सुन भया ।।४।। अन्यत्व-इन्द्रीन ते जाना न जा तू चिदानंद अलक्ष है। स्वसंवेदन करत अनुभव, होत तव परत्यक्ष है । तन अन्य जड़ जानो सरूपी, तू अरूपी सत्य है। कर भेदज्ञान सो ध्यान धर, निज और बात असत्य है ॥५।। प्रशुचि-क्या देखराचा फिर नाचा रूप सुन्दर तन लहा। मलमूत्र भांडा भरा गाढा तू न जान भ्रम गहा। क्यों सूग नाहीं लेत आतुर क्यों न चातुरता धरै । तुहि काल गटके नाहि अटकै छोड़ तुझको गिर परै॥६॥ प्रास्रव-कोई खरा अरु कोई बुरा नहि वस्तु विविध स्वभाव है। तू वृथा विकलप ठान उर में करत राग उपाव है। यं भाव आस्रव बनत तू ही द्रब्य प्रास्रव सून कथा । तुझ हेतु से पुद्गल करमन निमित्त हो देते ब्यथा ॥७॥ संबर-तन भोग जगत सरूप लख उर भविक गुरु शरणा लिया। सुन धर्म धारा मर्म गारा हर्षि रुचि सन्मुख भया। इन्द्री अनिन्द्रो दाविलीनी त्रसरु थावर बध तजा। तब कर्म पाश्रव द्वार रोके ध्यान निज में जा सजा ॥८॥ निर्जरा-तज शल्य तीनों वरत लीनों वाह्यभ्यंतर तपतपा। उपसर्ग सुरनर जड़ पशुकृत सहा निज आतम जपा। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराग्योत्पादिका मनप्रक्षा तीक माना निशा सुन तब कर्म रसबिन होन लागे द्रब्य भावन निर्जरा। सब कर्म हरके मोक्ष बरकै रहत चेतन ऊजरा ।।६।। लोक-बिच लोक नतालोक माही लोक में द्रव्य सब भरा। सब भिन्न भिन्न अनादि रचना निमित्त कारण की धरा । जिन देव भाषा तिन प्रकाशा भर्म नाशा सुन गिरा। सुर मनुष तिर्यच नारकी इह ऊर्ध्व मध्य अधोधरा ॥१०॥ बोधिदुर्लभ-अनतकाल निगोद अटका निकस थावर तनधरा। भू वारि तेज बयार है के बेइन्द्रिय त्रस अवतरा। फिरहो तिइन्द्री वा चौइन्द्री पचेन्द्रो मन बिन बना। मनयुत मनुषगति होन दुर्लभ ज्ञान अति दुर्लभ घना ।११। धर्म-जिय ! न्हाना धोना तीर्थ जाना धर्म नाही जप जपा। तन नग्न रहना धर्म नाही धर्म नाही तप तपा। वर धर्म निज आतम स्वभावी ताहि बिन सब निष्फला। बुधजन धरम निज धार लीना तिनहीं कीना सब भला ।१२। अथिराशरण ससार हैं एकत्व अनित्यहि जान । अशुचि आश्रव संवरा निर्जर लोक बखान ।१३। बोध और दुर्लभ धम ये बारह भावन जान । इनको ध्यावे जो सदा क्यों न लहैं निर्वान ।१४। बारह भावना श्री रत्नचन्द्र जो कृत : अनित्य-भोग उपभोग जे कहे हैं ससार रूप, रमाधन पुत्र औ कलत्र आदि जानिए। ज्यों ही जल बुदबुद् प्रत्यक्ष है लखाव तनु । विद्युत चमत्कार स्थिर न रहानिए। त्यों ही जग अथिर विलास को असार । जान थिर नहीं दीखे सो अनादि अनुमानिए। यह जो विचारे सो अनित्य अनुप्रेक्षा कह । प्रथम ही भेद जिनराज जो बखानिए ।१। अशरण-निर्जन अरथ माँहि ग्रहे मग सिंह धाय। शरण न दीखे प्रशरण ताहि कहिए। हरिहरादि चक्रवति पद लूं अथिर गिनो, जन्म मरण सा अनादि ही ते लहिए। याही को बिचारिये असार संसार जान, एक अलब जिनधर्म ताहि गहिए। दढ़ता हिए में धार निज प्रातम को कर विचार, तज के विकार सब निश्चल हो रहिए।२। संसार-कर्म काण्ड दाही थकी पात्म भ्रमण करे, नट जैसी नाटक अनन्त काल करे है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त पिता हूं ते पुत्र होय जनक हाय सुत हूं ते, स्वामी हूते दास भृत्य, स्वामी पद धरे हैं। माता हू ते त्रिया होय, कामिनी ते माय होय, भववन माही जीव यूं हा संसरे है।३। एकत्व-भ्रमं जो एकाकी सदा देखिए, अनन्तकाल एकाकी जन्म मृत्यु बहु दुख सहो है। नांगन ग्रसों है एकै पाप फल भुजे घनो, एक शोकवत कोऊ, दुजो नाही सहो है। स्वजन न तात मात, साथी नहि कोय, यह रत्नत्रय साथी निज, ताहि नाहि गहो है। एके यह आत्म ध्यावे एक तपसा करावे, होय शुद्ध भावे तब मुक्ति पद लहो हैं ।४। अन्यत्व-प्रातम है अन्य और पूदगल हं अन्य, लखो प्रात्म मात तात पुत्र त्रिया सव जान रे । जैसे निशि मांहि तरुहं पे खग मैलें होय । प्रात: उड़ जायठोर ठौर तिमि पान रे। तैसे विनाशीक यह सकल पदार्थ है, हाट मध्य जन अनेक होय भेले प्रान रे। इन हू ते काज कछु सरने को नाही, भैया अनित्यानुप्रेक्षारूप यह पहचान रे।५। अशुचि-त्वचा पल अस्तनसा जाल मल मूत्र धाम, शुक्र मल रुधिर कुधातु सप्त मई है। ऐसो तन प्रशचि अनेक दुर्गध भरो, श्रवै नव द्वार तामें मूढ मत दई है। ऐसो यह देह ताहि लख के उदास रहो, मानो जीव एक शुद्ध बुद्ध परणई है। अशुचि अनुप्रेक्षा यह धारै जो इसी ही भांति, तज के विकार तिन मुक्ति रमा लई है।६। माधव-पाथव अनुप्रेक्षा हिय धार सत्तावन पाश्रव के द्वार, कर्माश्रव पैसार जू होय, ताको भेद कहूं अब सोय । मिथ्या अविरत योग कषाय, यह सत्तावन भेद लखाय । बंधो फिरे इनके वश जोव, भवसागर में रुले सदीव। विकल्प रहित ध्यान जब होय, शभ प्राश्रवको कारण सोय । कर्म शत्रु को कर सहार, तब पावै पंचम गति सार। संवर-पाश्रव को निरोध जो ठान, सोई संवर कहै बखान । संवर कर सु निर्जरा होय, सोहे दृश्य परकारहि जोय । इक स्वयमेव निर्जरा पेख, दूजी निर्जरा तपहि विशेखू ।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा २१९ निर्जरा-पूर्व सकल अवस्था कही, सवर कर जो निर्जरा सही। सो निर्जरा दो परकार सविपाकी अविपाकी सार। सविपाकी सब जीवन होय अविपाकी मुनिवर के जोय । तप के बल कर मुनि भोगाय सोई भाव निर्जरा प्राय। बंधे कर्म छुटे जिह घरी सोई द्रव्य निर्जरा खरी ।। लोक-अधो मध्य अरु उरध जान लोकत्रय यह कहे बखान । चौदह राजू सबे उत्तग बात, त्रय वेढ़े सरवग। धनाकार राजू गणईस, कहे तीन सौ तैतालीस । अधोलोक चौकटो जान मध्यलोक झालरी समान । ऊरघलोक मदगाकार, पुरुषाकार त्रिलोक निहार । ऐसो निज घर मखे जु काय सो लोकानुप्रेक्षा यह होय ।१०। बोधिदुर्लभ-दुर्लभ ज्ञान चतुर्गति मांहि, भ्रमत२ मानुष गति पाहि। जसे जन्म दरिद्रा कोय, मिलो रत्ननिधि ताको सोय । त्यू मिलियां यह नर पर्याय प्रार्य खण्ड ऊँच कुल पाय । आयु पूर्ण पञ्च इन्द्री भोग, मन्द कषाय धर्म सयोग । यह दुर्लभ है या जग माहि इन बिन मिले मुक्त पद नाहिं। ऐसी भावना भावे सार, दुर्लभ अनुप्रेक्षा सुविचार ११॥ धर्म-पाले धम यत्न कर जोय, शिव मंदिर ते लहै जु सोय । धर्म भेद दश विधि निर्धार उत्तम क्षमा पून मार्दव सार । मार्जव सत्य शौच पुन जान सञ्जम तप त्यागहि पहिचान । अकिंचन ब्रह्मचयं गनेव, यह दश भेद कहे जिन देव । धर्म हि ते तीर्थकर गति धहि ते होवे सुरपति । धर्महिं ते चक्रेश्वर जान, धर्म ही ते हरि प्रति हरि मान । धर्म ही ते मनोज अवतार, धर्म ही ते हो भवदधि पार । रत्नचन्द यह करे बखान धर्म ही ते पावे निर्वान ।१२। बारह भावना पं० दौलतराम जी कृत : मूनि सकलव्रती बड़भागी भवभोगन ते वैरागी, वैराग्य उपावन भाई चितो अनुप्रेक्षा भाई।। इन चितत समरस जागै जिमि ज्वलन पवन के लागे । जब ही जिय प्रातम जाने तब ही जिय शिवसुख ठाने ।२। अनित्य-जोवन गह गोधन नारी हय गय जन प्राज्ञाकारी। इन्द्रिय भोग छिन थाई सुर धनु चपला चपलाई।। प्रशरण-सुर असुर खगाधिप जेते मग ज्यों हरि काल दलेते। मणि मत्र तंत्र बहु होई मरते न वचावै कोई ।४। मंसार-चहंगति दूख जीव भर हैं, परिवतन पंच करै हैं। सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६, २५, कि०६ अनेकान्त एकत्व-शुभ अशुभ करम फल जेते भोगे जिय एकहि ते तें। सुत दारा होय न सोरी सब स्वारथ के हैं भीरी ।६। अन्यत्व-जल पय ज्यों जियतन मेला पै भिन्न नहि भेला। तो प्रकट जूदै धन धामा क्यों है इक मिलि सुत रामा ७। प्रशचि-पल-रुधिर राध मल थैलो कीकस वसादि ते मली। नव द्वार बहे घिनकारी अस देह करे किम यारी।। पाश्रव-जो जोगन की चपलाई तातै ह प्राधव भाई। प्राथव दुखकार धनेरे बुधिवंत तिन्है निरवेरे ।। संवर-जिन पुण्य पाप नही कीना आतम अनुभव चित दीना। तिनही विधि पावत रोके सवर लहि सुख अबलाके ।१०। निर्जरा-निज काल पाय विधि झरना तासौं निज काज न सरना । तप करि जो कर्म खपावं सोई शिव सुख दरसावै ॥११॥ लोक-किनहू न करयो न धरै को षद्रव्यमयी न हरै को। सो लोक माहिं बिन समता दुख सहे जीव नित भ्रमत।।१२। बोधिदलंभ-अतिम ग्रीवक लौं की हद पायो अनत बिरियाँ पद। पर सम्यक ज्ञान न लाध्यो, दुलभ निज में मूनि साध्यो ।१३। धर्म-जे भाव मोह ते न्यारे दगजान व्रतादिक सारे । सोधर्म जबै जिय धारं तबही मुख सकल निहारे ।१४। सो धर्म मुनिन कर धरिए निनकी करतूति उचरिए। ताको सूनि के भवि प्रानी अपनी अनभूति पिछानी।१५॥ बारहभावना श्री बुधजन कृत समाधिमरण से : तब द्वादश भावन भजे, तीक्षण दुख हो हान । सो वरनों संक्षेप से भवि नित करो बखान ।। मनित्य-यौवनरूप त्रियातन गोधन योग विनश्वर हैं जग भाई। ज्यों चपला चमके नभ में जिमि मंदिर देखत जात बिलाई। प्रशरण-देव खगादि नरेन्द्र हरी मरते न बचावत कोई सहाई।। ज्यों मग को हार दौड़ दले बनि रक्षक ताहि न कोई लखाई।६०। ससार-जीव भ्रमे गति चार सहे दख लाख चौरासी करे नित फेरी। पैन लहा सुख रच कदा, ससार को पार लहो न कदेरी। एकत्व-पूरव जो विधि वंध किए, फल भोगत जीव अकेले हि तेरी। पुत्र त्रिया नही सीर करें सब स्वारथ भीर कर बपुवेरी ।६१। अन्यत्व-ज्यों जल दूध को मेल जिया तन भिन्न सदा नही मेल का धार । तो प्रत्यक्ष जुदे धनधाम मिले न कभी निज भाव मझारै। अशुचि-देह अपावन अस्थि पलादि की राग अनेक सो परित सारे । मूत्र मली धर है मुगली नौ द्वार स्रवें किमि कोजिए प्यारे ।६२। (क्रमशः) Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सप्तसती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ___डा. प्रेम सुमन जैन एम. ए., पो-एच. डी. गाथासतसई का विद्वानों ने विभिन्न दृष्टि यो से चित्रित कर डाला। अध्ययन किया है, किन्तु अभी तक ग्रन्थ में उपलब्ध ३-मित्र उसे बनाना चाहिए जो विपत्ति पड़ने पर सास्कृतिक सामग्री का विवेचन नहीं हो सका है। प्राचीन ___ कहीं और किसी समय भीत पर लिखे गए पुतले की भांति भारतीय कला एवं सास्कृतिक जीवन के यद्यपि सकेत मुंह नही फेरता। मात्र ही गाथासतसई मे प्राप्त होते है, किन्तु उनसे इस तसइ म प्राप्त हात है, किन्तु उनस इस ४-विरह मे प्रासूमो के कारण नायिका को नायक रचना के निर्माण की पृष्ठभूमि स्पष्ट हो जाती है । कला के चित्र दर्शन का भी प्राधार जाता रहा। भौर साहित्य में प्रयुक्त कई अभिप्रायो को समझने में भी ५-चित्र मे लिखित मोदक की यथार्थता उसे स्पर्श सहायता मिलती है। करके ही ज्ञात की जा सकती है। (७.४१) गाथा सप्तसती मे प्रायः चित्रकला सम्बन्धी उल्लेख ६-रग और छाया सयोजन से रहित जिस रेखा. ईसा की प्रथम शताब्दी से गुप्त युग तक को भारतीय चित्र में एक पुरुष को आलिंगनबद्ध मकित किया जाता चित्रकला के विकास को सूचित करते है। प्रमुख चित्र है, वे पल भर को भी अलग नहीं होते है। संकेत इस प्रकार है : ७-मन प्राभा की बहुरगी तूलिकामों से हृदय १-अपते प्रति देवर के मन को विकारयुक्त जान फलक पर जिस चित्र का प्रकन करता है उसे विधाता कर कुल बधू सारे दिन घर की दीवाल पर राम का मनु- वालक की भांति हसता हुघा पोंछ देता है। गमन करते हुए लक्ष्मण के चरित्रों को चित्राकित करती चित्रकला से सम्बन्धित इन सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि भित्तिचित्रो का जनजीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध था। २-दीवाल पर लिखे हुए अवधिसूचक दिवस सयुक्त परिवार में रहते हुए स्त्रिया चित्रांकन द्वारा चिन्हों को जल धारामों से सुरक्षित रखने के लिए मनोविनोद कर सकती थी । भित्तिचित्रों पर केवल प्राकृ. नायिका अपने हाथों से ढकने का प्रयत्न करती है। तिक दृश्य ही नहीं, अपितु पौराणिक कथाओं के दृश्य भी अन्यत्र नायिका की सखियां भीत पर लिखी हुई रेखानों चित्रित किये जाने लगे थे। अजन्ता के भित्ति चित्रों मे मे से दो-तीन रेखाएं चोरी से पोंछ डालती है ताकि बौद्ध दृश्यों की ही भरमार है। सम्भव है, वैदिक कथानायक के निश्चित समय पर न लौटने पर नायिका जीवन नकों के दृश्यों का चित्रण अजन्ता के चित्रों के बाद धारण कर सके (३-६) एक अन्य नायिका ने नायक के प्रारम्भ एवं जनसामान्य में प्रचलित हमाहो, जिसकी परदेश जाने के बाद प्राधे दिन में ही भीत को रेखामों से : ३. पढमविम दिग्रहदे कुड्डो रेहाहि चित्तलिम्रो ।।३.५ 4. भा. प्राच्य विद्या सम्मेलन के उज्जैन मधिवेशन ४. प्रालिहिअभित्ति बाउल्लप्रवण परम्मुह ठाइ ।३.१७ १९७२ मे पठित निबन्ध । १.दिपरस्स प्रसुद्धमणस्स कुलवहू णिग्रप कुड्डलिहिणाई ६. वण्णक्कमर हिस्स वि एस गुणोणवरि चित्त कम्मस्स । दिग्रहं कहेइ रामाणु लग्ग सोमित्तिचरिमाई ॥१.३५ णिमिस पि ज ण मुञ्चइ पिनो जणो गाढमुवऊढो ॥७-१२ २. झज्झा वाजत्तिणि अधर विवर पलोट्टसलिल पाराहिं, ७. जं जं आलिहइ मणो मासावट्टोहि हि मप्रफलमम्मि । कुइलिहि मोहिदिग्रहं रक्खाइ मज्जा कर मलेहिं ।।२-७. तं तं वालो व्व विही णिहमं हसिऊण पम्हसह ७-५६ ५. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८, वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त पुष्टि गाथा सप्तसती के उपर्युक्त राम-लक्ष्मण वाले करते है। रेखाचित्र द्वारा स्त्री-पुरुषों की प्राकृतियों के भित्तिचित्र के उल्लेख से होती है । भित्ति चित्रकला की प्रकन का उल्लेख चित्रकला की उस प्रक्रिया का उद्घा. विषयवस्तु के इस विस्तार का प्रभाव उत्तरकालीन साहित्य टक है, जो कलाकार द्वारा चित्र में रंग भरने के पूर्व एव कला पर भी पड़ा है। भवभूति के 'उत्तर रामचरित' खाका खीचा जाता है, जिसे चित्रकला की शब्दावली में नाटक मे सीता द्वारा राम कथा के चित्रों का वर्णन करना कहा जाता है। इस बात का उदाहरण है । सयोग की बात यह कि दोनों प्राचीन भारतीय चित्रकला के सम्बन्ध में गाथा प्रसंगो में राम कथा के चित्र दर्शन द्वारा मन को परिव. सप्तसती की यह गाथा और अधिक प्रकाश डालती है ;नित करने का प्रयत्न किया गया है। जंज पुलएमि दिस पुरजो लिहिन व्व दोससे तत्तो। ___ नायक के प्रवास के दिनों मे नायिका द्वारा भित्ति तुह पडिमापडिवाडि वहइ व्व सग्रल दिसा प्रक्क ।६-३० पर अंकित की जाने वालो रेखाए मात्र साहित्यिक अभि- 'पडिमापडिबाडि' शब्द किसी भी नायक के प्रतिरूप प्राय नहीं है। उनका कलात्मक महत्व भी है । प्राधे दिन की अनेक पक्तियों का द्योतक है, जो प्रत्येक दिशा मे में ही भीत को अवधि चिन्हो से यो ही नही भर दिया प्रतिबिंबित हो रही थी चित्रकला के इतिहास में यह गया होगा बल्कि गाथा में प्रयुक्त चित्तलियों' शब्द से ज्ञात स्थिति दो माध्यमों से पा सकती है। प्रथम, यदि चित्रहोता है कि नायिका ने भीत शीघ्र न भर जाय इस डर कला मे जिस भित्ति पर चित्राकन हुआ है उसके सामने से सावधानी पूर्वक एक कतार में रेखाएँ चित्रित की एव छत की दीवाल को विशेष मसाले द्वारा अधिक होंगी, जिससे उन्हें गिना भी जा सके । सम्भवतः भित्ति चिकना कर पारदर्शी बना दिया जाय तो स्वयमेव चित्रित चित्रो में जमीन के खाली स्थान को भरने में जिन रेखा- भित्ति के दृश्य इन पर प्रतिबिंबित होने लगेगे । भारतीय त्मक तरहों (डिजाइनों) का प्रयोग हुआ है, वे इन चित्रकारों के इस प्रकार के कलाकोशल का प्रथम उल्लेख अवधिसुचक रेखाओं से विकसित हुई हो । गाथा सप्तसती 'गाथाधम्म कहा' की कथा मे मिलता है। गाथा सप्तसती की इन अनपढ नायिकामों से 'मेघदूत' की यक्षिणी को को इस गाथा के समय तक निश्चित रूप से इस कला का श्री जोगलेकर ने अधिक सुशिक्षित और उत्तरकालीन और विकास हा होगा। सभव है, ग्राम्य जीवन में भी माना है क्योंकि वह देहली पर फल रख-रखकर अवधि इस प्रकार का माध्यम प्रर्चालत हो चुका था, जिससे के दिनों की गणना करने में सक्षम है। किन्तु माध्यम , चित्र प्रतिबिंबित किये जा सकते थे। चित्रो को प्रतिबिके परिवर्तन मात्र से 'मेघदूत' का प्रसंग उत्तरकालीन बित करने का दूसरा माध्यम दर्पण था। चित्र कक्ष मे नहीं कहा जा सकता है। बहुन सम्भव है कि रेखायो चारो और छोटे-छोटे दर्पण के टकड़ जड़ दिये जाते थे, एव फलों के द्वारा अवधि गणना का अभिप्राय किसी एक जिनमें चित्रों के साथ दर्शक के भी अनेक प्रतिबिंब परिही स्रोत से विकसित हुअा हा, जो लोक मे अधिक प्रच. लक्षित होते थे । मध्यकाल मे चित्रकला के इस माध्यम लित रहा होगा। का अधिक प्रचार हुआ । उदयपुर के महल में दर्पण कला चित्रकला के उपयुक्त सदों से यह भी स्पष्ट होता मे गाथासप्तसती की उक्त गाथा साकार हो उठती है। है कि भित्तिचित्रों के दश्य अधिक यथार्थ होन थे तथा गाथा सप्तसती में प्राप्त मूर्तिकला सबधो सदों अनुकूल लेप एव पक्के रगो के प्रयोग के कारण देश-काल की दो दृष्टि से व्याख्या की जा सकती है। प्राचीन भारका व्यवधान होने पर भी विकृत नही होत थे। यह तीय मूर्तिकला की प्रसिद्ध देव मूर्तियो के स्वरूप वर्णन स्थिति अजन्ता कालोन चित्रो के साथ ही हो सकती है। की दृष्टि से तथा ग्रन्थ में वणित नायक-नायिकानों की बहुरंगी तूलिकानों, फलक, वर्ण एवं अंकन क्रम आदि के विशेष भावभगिमाओं का भी मूर्तिकला की भंगिमानों के उल्लेख चित्रकला के विकसित युग को प्रोर ही संकेत साथ तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से । ग्रंथ मे पशुपति८. मेघदूत, २.२७ । ६. ज्ञाताधर्मकथा, ५-७८ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सप्तसती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि २५९ गौरी (१-१), विष्णु-लक्ष्मी (२-५१), नगरगृह देवता उपयोग के रूप में हुमा है । एक वृद्धा अपने बुढ़ापे को (२-६४), सूर्य प्रतिमा (१.१, १-३४, ४-३२), गणपति कोसती हुई कहती है-"युवक सुरत के समय गणपति (४.७२), गणाधिपति (५-३), वामनरूप हरि (५-६, की जिस प्रतिमा को मेरे सिर के नीचे रख लिया करते ५-११, ५-२५), समुद्र लक्ष्मी (४.८८), अर्धनारीश्वर थे, उसी को अब मे प्रणाम करती हूँ।" दुष्ट वृद्धावस्थे, (५-४८), त्रिनेत्रधारी शिव (५.५५), अपर्णा (५-६७) अब तो तुम्हे सन्नोष है"। प्रादि देव मूर्तियो के सबंध मे सकेत प्राप्त होते है। देव प्रतिमानों का दुरुपयोग किस-किस प्रकार से यद्यपि इनमे से अधिकांश घार्मिक एव पौराणिक कथा हुपा है यह एक अलग प्रश्न है । भग्नावशेषो के खोजी प्रसगो के रूप में प्रयुक्त किये गये है, किन्तु इनकी विद्वान इससे अपरिचित नहीं है। किन्तु गणेश प्रतिमा प्रतिमाओं के संबंध में भी कुछ प्रकाश पडता है, मूर्तियो के इतिहास की दृष्टि से यह उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण के कुछ स्वरूप विचारणीय है। है। कला मे गणेश का प्रारम्भ लगभग गुप्तकाल के बाद सूर्य प्रतिमा हुप्रा है। वृहत्साहिता के प्रतितमा लवण अध्याय मे गणेश गाथा सप्तसती में सूर्य पूजा से सबघित तीन प्रसग की मूर्ति का वर्णन डा. भण्डारकर के अनुसार क्षेपक प्राप्त हैं। प्रथम में पशुपति गौरी के साथ अजलि के जल सदश है। गणेश की प्रतिमा पुराणों में वर्णित ध्यान के द्वारा सूय नमन करते है। (१.१) दूसरे में सूर्य के रथ प्राधार पर कला में बनना प्रारम्भ हुई है। अत: गाथा के ध्वज की छाया से नायिका के मुख की कान्ति की सप्तसती के उक्त उल्लेख से गणेश की प्रतिमानो की तुलना की गई है। (१-३४) तथा तीसरे प्रसग मे सूर्य प्रचुरता एवं निर्जन स्थानों में उनकी स्थापना का सकेत देवता की अंजलि बाँधकर प्रणाम करने के बहाने अपने मिलता है। इस प्राधार पर ग्रन्थ की यह गाथा ६.७वी प्रिय को प्रणाम करने की बात कही गई है। इन शताब्दी के बाद सग्रहीत की गई प्रतीत होती है। इससे उल्लेखो से सूर्य पूजा के प्रचलन का ज्ञान तो होता है, पूर्व की गणेश प्रतिमाए प्राप्त नहीं हुई है। गणेश की किन्तु सूर्य की प्रतिमा के स्वरूप के सबंध में कुछ नहीं एकाकिन् मूर्ति मथुरा तथा मितरगांव से प्राप्त हुई है। कहा गया। सूर्य के रथ के उल्लेख से इतना स्पष्ट होता इस गाथा में 'गणवई' का पाटान्तर 'वहजणो' है कि कला में सूर्य प्रतिभा और रथ का घनिष्ठ सम्बन्ध 'वडणको', 'वडणति' भी प्राप्त होता है। इनके अनुसार रहा है । भारतवर्ष में सूर्य प्रतिमा ई०पू० दूसरी शताब्दी वटवृक्ष मे बनी यक्ष की मूर्ति या वटवृक्ष को ही उपाधान से उपलब्ध हुई है। कुषाणपुरा मे सूर्य प्रतिमा को चार बना लिया गया होगा। कला में 'वटयक्ष' अथवा यक्ष घोड़ो वाले रथ पर बैठा दिखलाया हैं। बोधगया की मूर्तियों का अस्तित्व अधिक प्राचीन है। अतः गाथा वेदिका पर भी सूर्य की प्राकृति रथ एव घोड़ों सहित सप्तसती के रचनाकाल प्रथम शताब्दी की दृष्टि से 'गणवई' अंकित हुई है। अतः सूर्य प्रतिमा की पूजा का प्रचार के इन पाठान्तरों को यदि स्वीकारा जाय तो कोई असगाथा सप्तसती के रचनाकाल तक अवश्य हो गया था। गति प्रतीत नहीं होगी। किन्तु 'गणवई' का गणश की सम्भवतः ग्रन्थकार भी सूर्यपूजक था, जिसने प्रथम गाथा प्रतिमा प्रर्थ लेना ही अधिक ठीक है। मे ही इसके महत्त्व को अकित किया है। गणेश का दूसरा नाम ग्रन्थ मे 'गणाधिपति' प्रयुक्त गणपति हमा है यथा 'समुद्र के जल को खेल-खेल में सूड के अग्रगणपति की प्रतिमा का उल्लेख ग्रन्थ में एक विशेष भाग से खींच कर प्रकाशित करने वाले एवं निग्रहरहित १०. सूरच्छलेण पुत्तम कस्स तुम भञ्जलिं पणामेसि । १२. जो सीसम्मि बिइण्णो मज्म जुमाहिं गणवई मासी। हासकडवखुम्मिस्सा ण हान्ति देवाणं जेक्कारा ।४.३२ तबिन एलि पणमामि हमजरे होहि संतुद्रा ।४-७२ ११. प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान, डा. वासुदेव १३. प्रा. भा. म. वि., पृ. १६४ उपाध्याय, पृ० १५८-५६ । १४. हिन्दी गाथा सप्तसती, पाठफ, पृ. २०७ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०, वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त बस्वाग्नि से प्राकाश को व्याप्त कर देने वाले 'गणाधि- अपितु चार भुजामों की जगह ८ भुजाएं भी निर्मित की पति' की जय हो । ५ इस गाथा का पौराणिक आख्यात गयी है। इन गाथाओं में विष्णु को हरि और 'मधुसूदन' के साथ सम्बन्ध है। जो सम्भवतः ४५वीं शताब्दी मे जैसे नामों से उल्लिखित करना भी विष्णु के २४ व्यूहों प्रसिद्ध हुमा होगा। इसका कला मे प्रकन प्रज्ञात है। की कल्पना के स्थिर होने का द्योतक हैं, जो गुप्तकाल में वामन रूप हरि : हुई थी। इस ग्रन्थ मे विष्णु के वामन अवतार से सम्बन्धित समद्र-लक्ष्मी : तीन गाथाएं उपलब्ध है।" उनमे से द्वितीय एव तृतीय ग्रन्थ की एक गाथा के अनुसार-हलवाहे की लडकी गाथा का विष्णु की वामन अवतार मूर्तियो पर स्पष्ट माटा पुत जाने से इस तरह सफेद हो गई है, कि हलप्रभाव नजर पाता है। भारतीय मूर्तिकला मे विष्णु के वाहे राहगीर दूध के समुद्र से निकली हुई लक्ष्मी के बामन अवतार की प्रतिमाएं दो तरह से निर्मित हुई है। समान उसे टकटकी वाध कर देखते है ।" भारतीय कला ब्रह्मचारी एवं साधारण मनुष्य के रूप में तथा विराट में लक्ष्मी या श्री को दो पासनो मे प्रदर्शित किया गया है पुरुष के रूप मे । विराट पुरुष के रूप मे बामन अवतार (१) कमलासन पर बैठी हुई लक्ष्मी एव कमल पर खड़ी की प्रतिमा के तीन आकार प्राप्त होते है-(१) विराट- हुइ लक्ष्मा, जिस पर दो हाथो सूड मे पकड़ हुए घडा स पुरुष का बाया पर दाहिने घुटने के बराबर उठा हुमा, जल धारा छोड़ रहे हैं। प्रस्तुत गाथा मे लक्ष्मी का (२) नाभी के समानान्तर फैला हुअा तथा (३) प्राकाश तीसरा रूप बणित है। कला में इस समुद्र से निकलती मे ललाट के बराबर तक उठा हा । दक्षिण भारत में इस हुई लक्ष्मी का अंकन हुपा है अथवा नही, ज्ञात नहीं तीसरे प्रकार की वामन अवतारी प्रतिमा प्राप्त हई है। किन्तु साहित्य में यह अभिप्राय अधिक प्रयुक्त हमा है। गाथा शप्तशती की गाथा में भी कहा गया है कि हरि के अर्धनारीश्वर : उस तीसरे चरण को नमन करो जो भूतल मे न अटता । ग्रन्थ में शिव के द्वारा की गयी सन्ध्यावन्दना से हुमा देर तक आकाश में टिका रहा (५-११) आकाश में सम्बन्धित तीन गाथाएँ प्राप्त होती है (१-१, ५.४८, स्थित इस चरण और वामनमूर्ति के ललाट तक उत्थित ७-१००)। शिव का प्राधा शरीर पार्वती का होने के चरण में स्पष्ट साम्य प्रतीत होता है । कारण प्रादि और अन्त की गाथा मे उनकी प्रजलि के __तीसरी गाथा मे हरि का मधुमथन कहा गया है। जल मे पार्वती का कुपित मुख प्रतिविम्बित बतलाया यथा जैसे उन्होने प्रथम बामन रूप धारण कर बाद मे गया है। इमसे ऐसा लगता है मानों शिव कमन सहित विस्तृत होकर बलि को बाघा था वैसे हो नायिका के अजलि द्वारा सन्ध्योपासना कर रहे हों। पांचवें शतक स्तन प्रारम्भ में छोटे होते हुए बाद में विस्तृत होकर की ४८वी गाथा मे संध्योपासना के समय पार्वती अपना त्रिबलि तक फैल गये । १८ इस वर्णन का सम्बन्ध विष्णु वामहस्त अंजली से खींच लेती हैं, जिससे शिव का को वामन अवतारी विराटपुरुष मूर्ति से है। बादामो तथा दाहिना हाथ मानों 'कोषपान' के लिए उद्धत हो ऐसा महाबलि पुरुष की वामन प्रतिमाए इतनो विकसित हुई हैं प्रतीत होता है। यहाँ कविने पार्वती के लिए तीनों गाथानों कि न केवल उनके शरीर को विराट बनाया गया है, में 'गौरी' एव शकर के लिए क्रमशः 'पशुपति' 'प्रमथाधिप' १५. हेलाकरग्ग प्रदिप जलरिक्क सापरं पद्मासन्तो। व 'हर' शब्द का प्रयोग किया है। इनमे 'पशुपति' शब्द जनइ प्रणिग्ग प्रवडवग्गि भरिप्रगगणोगणाहिवई ॥५-३ देव सम्प्रदाय के इतिहास में विशेष महत्व रखता है, १६.५-६, ५.११, ५-२५ ।। १९. पेच्छन्ति प्रणिमिसच्छा पहिमा हलिपस्स पिट्टपण्डरिम १७. प्रा० भा० मू०, पृ.१००। घूमं दुद्धसमुददुत्तरन्तलच्छिं विन सम्रहा ॥ ४-८८ १८. पढम वामणविहिणा पच्छा हु कमो विधम्ममाणेण। २०. सझासमए जलपूरि अंजलि विहडिएक्कवामपर । थणजुमलेण इमीए महमहणेण व बलिबन्धो॥५-२५ गौरीम कोसपाणुज्जमं व पमहादिवं णमइ॥ ५-४० Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सप्तसती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि जिसका प्रयोग सम्भवतः ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद कला में इनका विविध प्रयोग हुमा है । गाथा सतसई की हमा है। सन्ध्या के साथ पार्वती का 'सौतभाव' भी इसके नायिका के केश अल्पकालीन पुरुषायित में मयूरपिच्छ पूर्व साहित्य व कला में प्रचलित नहीं था। तीसरी बात की भौति विखर गये । अर्थात् मस्तक के दोनों भोर इन गाथानों से यह ज्ञात होती है कि -अर्धनारीश्वर' की लहरायो हई केशराशि। कालिदास ने इन्हीं खुले बालों कल्पना साहित्य मे भले पहले से विद्यमान रही हो किन्तु को मेघदूत मे--'शिखिना बहभारेषु केशान्' (२.४१) उसका कलागत प्रयोग एव विशेष प्रचार शैव तथा शाक्त तथा दण्डी ने दशकुमार चरित में 'लीलामयूर बहमन्य' मतों के संमिश्रण के बाद ही हुप्रा है। यदि भारत के केशपाश च विधाय' कहा है। कला मे राजघाट के मिट्टी के विभिन्न स्थानों में प्राप्न 'अर्धनारीश्वर' प्रतिमानो का खिलौनों मे जो स्त्री मस्तक प्राप्त हुए हैं उनमें इस प्रकार सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो संभव है सन्ध्या के साथ की केशराशि अडित पायी जाती है, जिसे डा. वासुदेव गौरी के उक्त सौत भाब का अंकन भी किसी प्रतिमा मे शास्त्री अग्रवाल ने 'कुटिल पटिया नाम दिया है।" प्राप्त हो जाय । यद्यपि शिव को गगाघर मूर्ति मे जो 'धम्मिल्ल' के श रचना के लिए बहु प्रचलित शब्द एलीफेन्टा, इनौरा, काचो प्रादि स्थानो म प्राप्त है, गगा है। बालो का जूडा बनाकर उसे जब मालापों मे बांध की उपस्थिति से उमा का चेहरा मलिन अङ्कित किया दिया जाता था तो वह 'धम्मिल' कहलाता था। गाथा गया है ।" सभव है, सन्ध्या के साथ सौत भाव का सतसई में भी मदनोत्सव में प्रियतम के द्वारा खींचातानी विकास गंगा के साथ भी जुड़ गया हो। मे नायिका का 'घम्मिल्ल' छूट जाता है, फिर भी वह मूर्तिकला के अन्य प्रतीक : आकर्षक लगती है (६.४४) कालिदास ने इसे 'मोलि' गाथा सतसई में नायक-नायिकानों की जिन भाव. कहा है ।" अजता के कुछ चित्रों में स्त्री मस्तको पर इस भगिमानों का वर्णन हुया है, उनमें से अनेक उपमानों का प्रकार की केश रचना प्राप्त होती है। साम्प भारतीय मूर्तिकला में प्रयुक्त प्रतीकों से हैं। इस सुगंधित चिकामार' के संदर्भ मे नायिका के केशों दृष्टि से प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी की मूर्तिकला को को कामाग्नि के धूम, जादूगर की पिच्चिका (मोहणपिच्छि) नारी मूर्तियां गाया सतसई को नायिकानो के अगमौष्ठव तथा योविन को ध्वज मदृश कहा गया है । प्राचीन भारत प्रादि को प्रतिरूपित करती है। नायिकानों के स्तनों के मे केशो को विभिन्न मशालों व सुगन्धो से धूमिल करने लिए गजकुम्म, कलश, विल्वफल और रथाग के उपमान की परम्परा थी, किन्तु जादूगर की पिच्छिका और ध्वजा प्रस्तुत ग्रन्थ एव तत्कालीन मूर्तिकला मे समानरूप से के प्राकार वाली केशरचना का कोई अकन भारतीयकला ब्यबहन हुए है। इस समय की नगरी मतिया उत्तेजनामय में स्पष्ट रूप से प्राप्त नहीं है सभवतः खुन बालों की एव कामुक अकित की गयी है। संभवतः गाथा सतसई सुन्दरता के वर्णन के लिए ही कवि ने इन उपमानों का के शृंगारमय वर्णन का इनके अंकन के साथ कोई निकट प्रयाग किया है। 'सीमन्त' केशरचना का अर्थ मांग द्वारा का सम्बन्ध रहा है। विभाजित केशराशि से हैं। इस प्रकार केशविन्यास के भारतीय मूर्तिकला मे प्राप्त केशविन्यासों एवं गाथा प्रकारों के वर्णन से भी ज्ञात होता है कि गाथा सतसई सतसई में उल्लिखित केशरचनाप्रकारो में भी सिहिनिच्छ और भारतीय मूर्तिकला के मकन मे सम्बन्ध बना रहा है। लुलिस केशे (१-५२), धम्मिल्ल (६-४४) सुगन्धित चिकुर. स्थापत्यकला की दृष्टि से गाथा सतसई मे देवमंदिर भार (६।७२) तथा सोमन्त (७-८२) शब्दो का प्रयोग (१.६४)। सज्जाघर (२-७२) देवल, चत्वर, रथ्यामुख केशविन्याशो के लिए हुआ है। परवर्ती साहित्य एवं (२-६०), बाडलिया (७-२६) मादि ग्रामीण स्थापत्य २१. प्रा. भा. मैतिविज्ञाय, पृ० १२६ २४. रघुवंश १७-३ २२. वही पृ० ४७ २५. प्रौधकृत अजन्ता फ्लैट, ६५ २३. कला और संस्कृति, पृ० २८५ २६. गा० स० परमानन्द शास्त्री, पृ० ३२० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२, वर्ष २५, कि.६ अनेकान्त का ही उल्लेख है। जीर्ण देव मन्दिर के प्रसंग में 'पारा- पादि का तथा नाटक के पूर्व रंग (४.४०) के साथ वत' शब्द विचारणीय है। गाथा है मण्डितनटी (१-६)लासनत्य (२-१४) एव तन्मयनृत्य का उपरि वरविषण्णु प्रणिलुक्क पारावाणं विरुएहि। भी उल्लेख है। भारतीय संगीत एवं नृत्य कला को णिस्थणइ जानवेधणं सूलाहिण्णं व देप्रउलं ॥ (१.६४) समृद्धि के अनुपात मे ये उल्लेख नगण्य है। संभवतः मांसइसका अर्थ किया गया है-'ऊपर के भाग में कुछ दिग्वाई लता प्रधान शृगार प्रमुखता के कारण ग्रन्थ मे लोकवाद्यों देते हुए लौहदण्ड वाले स्थान में छिपे हए कबतरो के एव लोकसगीत का प्रवेश नहीं हो पाया है। देशी रागकूजने से मन्दिर ऐसा प्रतीत होता है मानों शल गड रागनियो के प्रचार के पूर्व यह ग्रन्थ सुनिश्चित हो गया जाने के कारण पीडा होने से कराह रहा हो।" होगा, ऐसा प्रतीत होता है। ग्रन्थ में प्रयुक्त विभिन्न ऐसा प्रतीत होता है कि शृगार प्रधान ग्रन्थ होने के प्रकार के प्राभूषणों एव वस्त्रों के संदर्भ भी तात्कालीन कारण ऊपर प्राई गाथानों की तरह उक्त गाथा का अर्थ सास्कृतिक जीवन के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, भी जार के प्रति कामकी नायिका की उक्ति से जोड जिन सब का विवेचन यहा सभव नही है। दिया गया है कि ऐसे मन्दिर में सुरत का भणित कबूतरों ग्रन्थ की इस साँस्कृतिक सामग्री के अध्ययन से ज्ञात की पावाज में छिप जायेगा। किन्तु वस्तुतः मन्दिर के होता है, इस रचना की पृष्ठभूमि मे भारतीय सास्कृतिक ऊपर बोलने वाले कबूतर नही थे, संभवतः मन्दिर के विचारधारा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसे अकारण साथ बने हुए पारावत इतने सजीव निर्मित है कि उनसे शृगारिक नही बनाया गया, अपितु जीवन को प्रश्लीलता कबूतरो की आवाज निकलने का भ्रम होता था। भार- के शोधन के हेतु एव नगरजीवन के कृत्रिमता के तीय स्थापत्य मे पारावत के निर्माण की परम्परा अपना अाकर्षणमे कमी लाने के लिए ग्राम्य जीवन को प्रानन्दमय विशिष्ट स्थान रखती है, जिनका पूर्ण परिचय गुप्तकाल के चित्रित किया गया है। हिन्दी सतसईयों ने यद्यपि माध्यम स्थापत्य में प्राप्त होता है। महाकवि वाण ने शिवरों पर दूसरा चुना है, किन्तु उनका उद्देश्य भी मूलप्रवृत्तियों के पारावत माला की स्थिति का उल्लेख किया है शिखरेषु शोधन का रहा है । भारतीय संस्कृति को सुरक्षा के गाथा पारावत माला'-(कादम्बरी पृ० २७)। सतसई वाले इस शृगारिक उपाय को आगे चलकर भारगाथा सतसई मे इन सास्कृतिक सन्दों के अति- तीय कला ने भी अपनाया। खजुराहो, प्रजन्ता प्रादि की रिक्त प्राचीन वाद्यो मे दो मुह वाले मदग (३-५३), मिथुन मूर्तियाँ व्यक्ति को बाह्य आकर्षण से अवगत करा वीणा, (६.६०), बश (बांसुरी ६-५७), हाथो पर रख कर अन्तरात्मा के दर्शन की ओर प्रेरित करती है । गाथा कर बजाने वाला ढक्कन (६-२६) बध्यपटह (१-२६) सतसई ने संभोग से समाधि की ओर अग्रसित होने का २७. दृष्टव्य कादम्बरी : एक सास्कृतिक अध्ययन, मार्ग पहिले ही खोल दिया था, जिसकी व्याख्या प्राज तक पृ. ३६७ । साहित्य और कला के अनेक माध्यम करते पाये है।* २८. दृष्टव्य गाथा न०१-७५, २-७२, ३-११, ४.६८, २६. दृष्टव्य गाथा न० ३.३८, ३.४१, ६-२०, ६.४५, ७.२०, ६-६६, ५-२७, ७-५ प्रादि । मेंढकों की जान जाये बच्चों का खेल हिंसात्मक प्रवृत्तियों को सास्कृतिक कार्यक्रमों में सम्मिलित करना कभी श्लाघनीय नही माना जा सकता । "जैन सन्देश" भाग ४३ सख्या ४८ के मुखपृष्ट पर 'श्रमणोपासक" ५ मार्च के प्रक से उद्धृत एक घटना मे बतलाया गया है कि ग्वालियर नगर निगम द्वारा प्रायोजित अखिल भारतीय महावीर सम्मेलन के अन्तिम दिन के कार्यक्रम में एक स्थान पर भैसे के बच्चे को खडा करके चिड़ियाघर के एक जगरो से भूखे शेर को छोड़कर मनोविनोद का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया है । यह घोर हिंसात्मक व निर्दयतापूर्ण कार्य है। अहिंसा प्रधान भारत देश मे यह सर्वथा निदनीय कार्य बन्द होने चाहिए। माज के प्रबुद्ध ससार में इस प्रकार के कार्यक्रम कभी भले कार्यक्रम नहीं कहे जा सकते । -सम्पादक Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अप्रैल ७३ को भगवान महावीर की जन्म-जयंती के अवसर पर सावर प्रकाशनार्थ : भगवान् महावीर की साधना-पद्धति मुनि श्री महेन्द्रकुमार 'प्रथम' भगवान् महावीर राजकुमार थे। उनके लिए सभी दिन प्रस्तुत होते रहते थे । मारने-पीटने पर भी वे अपनी प्रकार के सुख-साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। ये समाधि मे लीन रहते । उनका अपने लिए उपयोग भी करते थे। तीस वर्ष की हार के नियम भी महावीर के बड़े कठिन थे। प्रवस्था तक वे भौतिक सुविधामो मे रहे। सहसा उन्होंने नीरोग होते हुए भी वे मिताहारी थे। रसों मे उन्हें प्रवज्या का निर्णय लिया। सभी प्रकार की सुविधाओं प्रासक्ति न थी और न वे कभी रसयुक्त पदार्थों की को ठकराकर वे कटोर चर्या के लिए निकल पडे । उनकी पाकाक्षा ही करते थे । भिक्षा मे रूखा सूखा, ठण्डा, वासी, प्रतिज्ञा थी, मै व्युत्सृष्ट काय होकर रहंगा अर्थात् शरीर उडद, भात, मुंग, यवादि नोरस घान्य का जो भी को किसी भी प्रकार म सार-सम्भाल नहीं करूंगा। इसमे पाहार मिलता, उसे बे शान्त भाव से और सन्तोषपूर्वक वे पूर्णतः सफल रहै । ग्रहण करते थे। एक बार निरन्तर पाठ महीनो तक बे दुरूह साधना इन्ही चीजों पर रहे। पखवाड़े, माम और छ:-छः मास महाबीर ने जिस माघना-पद्धति का अवलम्बन लिया तक जल नही पीते थे। उपवास में भी विहार करते। था. वह अत्यन्त रोमाचक थी। वे अचेलक थे, तथापि ठडा बासी पाहार भी वे तीन-तीन, चार चार, पाच-पाच शीत से प्रसित होकर बाहयो को ममेटते न थे, अपितु दिन के अन्तर से करते थे। यथावत हाथ फैलाये ही विहार करते थे। शिशिर ऋतु शरीर के प्रति महावीर की निरीहता बडी रोमानक मे पवन जोर से फुफकार मारता, कडकडाती सर्दी हाती, थी। रोग उत्पन्न होने पर भी व पोषध-सेवन नही करते तबइतर साधु उससे बचने के लिए किसी गम स्थान की थे । विरेचन, वमन, तेल-मर्दन, स्नान और दन्त-प्रक्षालन खोज करते. वस्त्र लपेटते और नापस लकडिया जलाकर नही करते थे। ग्राराम के लिए पैर नही दबात थे । शीत दूर करने का प्रयत्न करन, परन्तु महावीर खुले आँखो में किरकिरी गिर जाती तो उसे भी वे नहीं निकास्थान में नगे बदन रहते और अपने बचाव की इच्छा भी लते । ऐसी परिस्थिति म अांव को भी ब नही खुजलाते। नहीं करते । वही पर स्थिर होकर ध्यान करते । नगे बदन वे कभी नीद नही लेते थे। उन्हे जब कभी नीद अधिक होने के कारण सर्दी-गर्मी के ही नहीं, पर, दश-मणक तथा सताती, वे शीत में महतं भर भ्रमण कर निद्रा दूर करते । अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के अनेक कष्ट भी वे भलते थे। वे प्रतिक्षण जागृत रह ध्यान व कायोत्सर्ग मे ही लीन महावीर अपने निवाम के लिए भी निर्जन झोपडियो रहते । को चुनते, कभी धर्मशालाप्रो को, कभी प्रपा को, कभी हाट उत्कटक, गोदाहिका, वीरासन, प्रभात अनेक प्रामनों को, कभी लुहार की शाला को, कभी मालियो के घरो को, द्वारा महावीर निर्विकार ध्यान करते थे। शीत में वे कभी शहर को, कभी श्मशान को, कभी सूने घर को, कभी छाया में बैठकर ध्यान करते और ग्रीष्म में उत्कटक आदि वृक्ष की छाया को तो कभी पास की गजियो के समीपवर्ती कठोर आसनों के माध्यम से चिलचिलाती धूप में ध्यान स्थान को। इन स्थानो मे रहते हुए उन्हे नाना उपसर्गों करते । कोई उनकी स्तुति करता और कोई उन्हें दण्ड से से जूझना होता था। सर्प आदि विषले जन्तु और गीध तजित करता या वालो को खींचता या उन्हे नोंचता. वे प्रादि पक्षी उन्हें काट खाते थे । उहण्ड मनुष्य उन्हें नाना दोनों ही प्रवृत्तियो मे समचित्त रहते थे। महावीर इस यातनाए देते थे, गांव के रखवाले हथियारों से उन्हें प्रकार निर्विकार कषाय-रहिन, मूर्छा-रहित, निर्मल ध्यान पीटते थे और विषयातूर स्त्रियां काम-भोग के लिए उन्हें और प्रात्म-चिन्तन मे ही अपना समय बिताते । सताती थी। मनुष्य और तिर्यों के दारुण उपसर्गों और महावीर दीक्षित हुए, तब उनके शरीर पर नाना कर्कश-कठोर शब्दों के अनेक उपसर्ग उनके समक्ष माये प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन किया हुमा था। चार Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४, २५, कि. अनेकान्त मास से भी अधिक भ्रमर भादि जन्तु उनके शरीर पर गर्मी प्रादि शरीर की अनिवार्य प्रावश्यकतामों पर विजय मडराते रहे, उनके मांस को नोचते रहे और रक्त को पीते पाना होता है । इन सबका सम्बन्ध है प्राण-वायु से । शरीर रहे। महावीर ने तितिक्षाभाव की पराकाष्ठा कर दी। में पांच प्रकार की वायु होती है । प्राण-वायु उनमें उत्कृष्ट उन जन्तुमों को मारना तो दूर, उन्हें हटाने की भी वे है और उसका सम्बन्ध मन की सूक्ष्म क्रियामो के साथ इच्छा नहीं करते थे। है। यही वायु स्नायुयों की प्राण-शक्ति को प्रत्येक कार्य ___महावीर ने इस प्रकार की शारीरिक कृच्छ साधना में उबुद्ध, प्रेरित तथा क्रियाशील करती है। किन्तु एक पर इतना बल क्यो दिया तथा शरीर के स्वभावों पर प्रक्रिया ऐसी होती है, जिसके द्वारा क्रियाशीलता को ये विजयी हए, जबकि सामान्यत: कोई भी व्यक्ति शरीर उद्बोध में बदला जा सकता है। जब वह इस प्रकार के धर्मों को अवगणना नही कर सकता? ये दो प्रश्न ही परिवतित हो जाती है, शारीरिक अपेक्षामो की पूर्ति न महावीर की साधना-पद्धति की विभिन्न भूमिकामों पर हान होने पर भी व्यथा की अनुभूति नही होती। फिर देह प्रकाश डालते हैं। होता है, किन्तु देहाध्यास नहीं होता। महावीर ने इसी प्रक्रिया का प्रारम्भ किया था मोर वे इसके द्वारा शरीर. कष्ट साध्य साषना क्यों ? विजय में पूर्णतः सफल हुए। शरीर उनके अधीन रहा, ___ सभी अध्यात्मवादियों का दृढ़ विश्वास है कि प्रात्मा वे शरीर के अधीन नहीं रहे। शरीर रूप बन्धन में प्राबद्ध है। चेतन पर जड़ का यह एक प्रवाह चलता है। उसे यदि बदला नहीं जाता अवतरण इतना सधन हो गया है कि सस्कार विकार मे है, तो जो होता प्राया है, वही भविष्य में होता रहेगा। बदल गये हैं और चेतन की क्रिया विकारो को सबल करने उसे बदलने के लिए जितना श्रम अपेक्षित होता है, उससे में प्रयुक्त होने लगी है। साधना चैतन्य और जड़ की इस प्रधिक मार्गान्तरण के चयन मे सजगता अपेक्षित होती दुरभिसंधि को समाप्त करने की क्रिया का प्रारम्भ करती है। महावीर जब प्रवजित हुए, चालू प्रवाह को बदलने है। उसकी पहली व्यूह-रचना शरीर के साथ होती है। की उस प्रक्रिया को ही उन्होने अपना लक्ष्य बनाया और शरीर के द्वारा मात्माके होने वाले संचालन को रोकने उसमें सफल भी हुए । यही कारण है कि उन तपश्चरण के लिए उपक्रम प्रारम्भ होता है और सारा नियन्त्रण में भी वे कभी म्लान नहीं हुए। मात्मा के केन्द्र से उद्भूत होने लगता है। ऐसी स्थिति में शरीर-विज्ञान के अनुसार भी जब-जब रक्त की गति मनिवार्यतया अपेक्षा हो जाती है, कुछ साधना की । एक में वेग और गति-मन्दता माती है, तब-तब सम्बन्धित बार उससे छटपटाहट अवश्य होती है, क्योंकि जन्मजन्मा- अन्य अवयव प्रभावित होते हैं और किसी विकार का न्तरों से लगा हुमा अनुबन्ध ट्टना प्रारम्भ होता है । किन्तु प्रारम्भ हो जाता है। यह विकार रोग के रूप में भी ऐसा हुए बिना जड़ चेतन का पृथक्करण भी नहीं हो व्यक्त होता है पोर इन्द्रियज उद्वेग, मावेश, मह प्रादि के सकता। रूप में भी प्रगट होता है। प्राण-वायु का जागरण तथा अन्य प्राण-वायु पर विजय चार प्रकार की वायुषों की श्लथता रक्त की सम स्थिति बुर कष्टसाध्य साधना से विचलित हो गये। उन्हें को उजागर करती है। यही से शरीर से सम्बन्धितनाना अपने मार्ग को भी बदलना पड़ा। महाबीर अपने निर्धा- अनुभूतियां गौण हो जाती हैं और स्व०-केन्द्रिता जागरूक। रित क्रम में सफल होते गये। उन्हें मार्गान्तरण की भाव. महावीर इस प्रक्रिया में भारम्भ से ही निष्णात थे, इसी. श्यकता नहीं हुई। दोनों का एक ही उद्देश्य था। फिर लिए कष्ट साध्य साधना मे उन्हें कष्टों की अनुभूति नहीं इतना अन्तर क्यों हमा? इस प्रश्न का उत्तर पाने के होती थी। वे जनता को भी इसका ही प्रशिक्षण देते थे। लिए कुछ यौगिक क्रियानो की गहराई में उतरना माव- मानसिक उद्वेगों के इस वर्तमान युग मे प्राण-यायु पर श्यक होगा। साधक को सबसे पहले भूख-प्यास, सर्दी- विजय पाने की इस प्रक्रिया की प्रत्यन्त मावश्यकता है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान की महिमा संकलनकर्ता : मथुरादास जेन एम. ए., साहित्याचार्य नीतिकारों ने धन तथा विद्या दोनो में विद्या की हम सब जानते है कि जब मनुष्य जन्मता है अपने उच्च पद पर स्थापित करने के लिए यह दलील दी है कि माथ कुछ भी नही लाता तथा जब मरता है तब भी अपने विद्या देने से बढ़ती है और धन देने से घटता है। विद्या माथ कुछ भी नही ले जाता । लेकिन यथार्थ में बात ऐसी का धन की अपेक्षा उच्च स्थान पाना ठीक ही है क्योकि नही है एक व्यक्ति धनी परिवार या राजघराने मे जन्म लेता विद्या प्रति ज्ञान प्रात्मा को निजी बस्तु है और धन तो है और जन्म से ही अपार लक्ष्मी का स्वामो बन जाता है जड़ वस्तु है लेकिन फिर भी धन का महत्त्व कम नही है दूसरा एक अति दरिद्र परिवार में जन्म लेता है जहाँ उसे क्योकि नीतिकार ही ग्रागे धन की महिमा को बढ़ाते हुए शरीर धारण की प्रारम्भिक सुविधाये भी नहीं मिलती। कहते है कि: इमसे यही प्रतीत होता है कि मनुष्य अपने साथ कामण विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्, शरीर के रूप मे पुण्य व पाप का पिण्ड लेकर पाता है पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनात्धम ततः सुखम् । और उसके परिणामस्वरूप सुख दु.ख पाता है यदि हम इम नीति वचन मे बतलाया है कि विद्या मनुष्य में अपनी करोड़ों रुपयों की सम्पदा को अपने साथ परभव विनय गुण लाती है विनयी होने से मनुष्य मे पात्रता में ले जाना चाहते है तो हमे यहाँ प्राप्त अपने द्रव्य का (योग्यता) पाती है और पात्र होने से मनुष्य धन प्राप्त सदुपयोग करना न भूलना चाहिए। करता है धन से धर्म करते हुए मुख को पाता है इस सुपात्र या श्रेष्ठ कार्यों में खर्च किया धन हमारे लिए प्रकार धन को सुख का समीपीकरण बताया गया है। अग्रिम जन्म का पेइङ्ग ड्राफ्ट बन जाता है। दान के यदि हम सही रूप से विचार तो जैसे विद्या देन महत्त्व को प्रदर्शित करने के लिए यहाँ कुछ नीति के से बढ़ती है धन भी देने से बढ़ता है। यदि हम घन को इलोक दिये जाते है । पाठक इनसे कुछ शिक्षा लेगे। थंण्ठ पात्र को देते है या श्रेष्ठ कार्य में लगाते है ता जप अनुकले विधी देयं यतः पूरयिता विधिः। किमान जमीन मे एक दाना बोकर बदन मे अनेक दाने पा लेता है। उसी तरह सत्यात्र को दिये गये धन से प्रतिकूले विधौ देयं यतः सर्व हरिष्यति ॥२॥ अजित पुण्य अनेक गुणे धन को प्राप्त कराने का निमित्त 'यदि भाग्य अनुकूल है-शभ कर्म के उदय से लाभ बनता है। तत्त्वार्थ मूत्र में प्राचार्य प्रबर उमास्वामो जी ही लाभ हो रहा है-तब दान देना ही चाहिए; क्योकि ने दान के स्वरूप का वर्णन करते हुए बनाया है कि जो कुछ दिया जायगा उमकी पूर्ति भाग्योदय स्वयं कर "अनुग्रहार्थं स्वस्या तिसर्गो दानम्" अर्थात् परोपकार बुद्धि देगा, कोई कमी नहीं रहेगी। और यदि भाग्य प्रतिकून से अपने धन का दूसरे को ममत्वहित देना दान कहाता है प्रशभ कर्म के उदय मे व्यापारादि मे हानि ही हानि है । यह दान दाता. पात्र द्रव्य और विधि को विशेषतामों हो रही है-तब भी दान देना ही चाहिए, क्योकि न से विशेष रूप को धारण करता है दाना (देनेवाला), पात्र देने पर वह घन-सम्पत्ति टहरेगी तो नही, ऋद्ध हुअा विधि (लेने बाला), द्रव्य (वस्तु) और विधि देने का तरीका (भाग्य) उसे भी हर ले जायगा। प्रत: उसके चले जाने जितने प्रशस्त होते हैं दान भी उतना ही अधिक प्रशस्त से पहले दान देना हो श्रेष्ठ है-जो दिया जायगा वह फलदायी माना जाता है। परलोक मे साथ जायगा।' Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बर्ष २५, कि.६ अनेकात बोधयन्ते न याचन्ते भिक्षाचारा: गहे गहे। हाथ से उठाकर देते हैं, प्राज्ञा-पादेश या हुक्म के द्वारा दीयतां दीयतां नित्यमदातुः फलमीदशम् ॥२॥ देते हैं, संकेत करके देते है अथवा दान-पत्रादि के रूप में 'घर-घर में जो ये भिखमगे मांगते फिरते हैं वे, सच पूछा लिख लिखाकर देते हैं। परन्तु कृपण ऐसा महान् दानी है चाय तो, मांगते नहीं बल्कि हमे यह शिक्षा दे रहे अथवा जो यह सब कुछ भी न करके बिना छए अथवा विना इच्छा के ही अपनी सारी घन-सम्मति दूसरों को दे जाता बोधपाठ पढ़ा रहे हैं कि 'दो-दो, न देने का फल यो !' -हमने पूर्व जन्म में दान नही दिया, उसी का यह फल है जो हम घर-घर भीख मांगते फिरते हैं।' एक दूसरे कवि महानुभाव दातार को कृपण और कृपण को दातार बनाते हुए एक दूसरे ही ढंग का व्यंग यो न ददाति न भुक्ते सति विभवे नैव तस्य तद्रव्यम् करते हैं । वे लिखते हैं :तृणमय-कृत्रिम-पुरुषो रक्षति शस्यं परस्यार्थम ।।३।। दातारं कृपणं मन्ये मतोऽप्यर्थ न मचति । ___ 'जो मनुष्य अपनी सम्पत्ति को न तो दान में देता है अदाता हि धनत्यागो धनं हित्वा हि गच्छति ।। पौर न अपने भोगोपभोग में ही लगाता है वह वास्तव में उस सम्पत्ति का मालिक ही नही है, वह तो उस घास 'मैं तो दातार को कृपण समझता हूँ; क्योंकि वह फूम के बने मादमी के समान है जिसे किसान लोग बना मर जाने पर भी धन को नहीं छोडता-उमे अपने साथ कर खेत में खड़ा कर देते है और जो खेत को न तो खुद ले जाता है, दान की हुई लक्ष्मी उसे परलोक में अनेक गुणी होकर मिल जाती है । दान न करने वाला कृपण ही, खाता है न खाने देता है किन्तु किसी तीसरे के लिए सच पूछा जाय तो, दानी है; क्योकि वह धन को सच. उसकी रक्षा करता रहता है। ऐसे कोरे रखवाले ही कृपण मुच छोडकर ही चला जाता है-परलोक मे उसका कुछ कहलाते हैं। भी प्रश साथ नहीं ले जाता, वहाँ वह प्रायः खाली हाथ एक कवि महाशय ऐसे कृपणों की स्तुति में व्यंग करते भिखारी बनकर रहता है।' हुए लिखते हैं :कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति। दान से जहां कृपणता की मलिनता दूर होती है वही सत्कीतिका उपार्जन भी होता हैं। इसी से कीर्ति को अस्पशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति ॥४॥ त्याग को, दान की अनुसारिणी ('कीर्तिस्त्यागाऽनुसारिणी') 'कृपण के समान दाता न तो कोई हमा और न होगा; कहा है। इस कीति का कभी कोई दूसरा मालिक या क्योंकि जितने भी दातार है वे या तो किसी को स्वयं उत्तराधिकारी नही होता: सुधार के लिए निवेदन श्री माननीय देवराज जी उर्स मुख्य मन्त्री मंसर सरकार ने अपने भाषण में मांस भक्षण के लिए प्रेरणाप्रद जो वाक्य कहे हैं वे यदि किसी साधारण व्यक्ति द्वारा कहे गये होते तो इतने क्षोभकारी न होते । भारतीय संस्कृति के संरक्षण के महान पद पर प्रतिष्ठित होकर श्री उर्स जो के लिए अहिंसा के महान उपासक महात्मा गांधी बी के प्रादर्श पर चलने वाली राज्य प्रणाली के नायक के रूप में इस प्रकार से हिंसा का पोषण करना यथार्थ में प्रशोभनीय कार्य है । हम थी उस जी से निवेदन करेंगे कि वे भारतीय संस्कृति की महत्ता को दृष्टि में रखते हुए हिंसा को प्रोत्साहन देने वाला उपदेश न दें। इनके इस प्रकार के उपदेश से जैन समाज तथा निरामिष माहासे जनता की मान्यता को गहरी ठेस पहुंची है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के २५वें वर्ष को वाषिक विषय-सूची . مگر ج किरण १ १०. ब. शीतलप्रसाद जी और उनको साहित्य १. सम्भव जिन स्तृति माधना-श्री पन्नालाल जी अपवान २. मृक्तक काव्य-श्री पाण्डेय रूपचन्द्र २ ११. सम्पादकीय नोट-श्री परमानन्द जी ३. जनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि ३ १२. साहित्य समीक्षा-श्री परमानन्द जी टा. पृ . -डा. दरबारीलाल जैन न्यायाचार्य किरण ३ ४. भाषा की उत्पत्ति व विकाम-गणेश प्रमाद जैन ६ १. अहंपरमेष्ठी सवन ५. वैशाली गणतन्त्र का अध्यक्ष गजा चेटक २. मुक्तक काव्य (प्रध्यात्म दोहावली) -श्री परमानन्द जैन शास्त्री -पाण्डे रूपचन्द ६. विश्व मंकृत मम्मेलन से जन विद्या का ३२ ३. विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के पुरातत्व संग्रप्रतिनिधित्व-प्रो. प्रेम समन जैन हालय की अप्रकाशित जन प्रतिमायें ७. उत्तर भारत मे जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्ति. -श्री डा. सुरेन्द्र कुमार प्रार्य, एम.ए. पीएच.डी. गत अवतारण-श्री मारुतिनन्दन प्रसाद ति० ३५ ४. कलचुरि काल मे जैनधर्म । -श्री शिव कुमार नामधेय ८. बड़ा मन्दिर नगर की प्राचीन जैन ५. पाहड के जैन मन्दिर का प्रकाशित शिलालेख ६१ शिल्प कल-वस्त रचन्द समन एम००४१ -श्रीगम वल्लभ सोमाणी ६.पं० व खतराम मह-श्री परमानन्द जी शास्त्री ४५ ६. पनागर के भग्नावशेष--श्री कस्तूरचन्द एम. ए. ६५ १०. अपभ्रश की एक प्रज्ञान कथा रचना ७. अजात कवि हरिचन्द्र का काव्यत्व E - डा. देबेन्द्र कुमार जैन -डा० गगाराम गर्ग किरण २ ८. कुम्भाग्यिा के सम्भवनाथ मन्दिर की जन देवियाँ -श्री मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी १०॥ १. वर्धमान जिन स्तवन ६. जैन दृष्टि मे अचलपुर--श्रीचन्द शेखर गुप्त १०४ २. मुक्तक काना दोहा-पाण्डे रूपचन्द ३. सल्लेखना या समाधिमरण १०. काघट (कहानी)--मुनि श्री महेन्द्रकुमार प्रथम १०० ११. प्राकृत भाषा और नीति -श्री परमानन्द जी शास्त्री ४. राजस्थान के जंन व वि और उनकी रचनाये ६२ --डा. बालकृष्ण अकिंचन एम.ए., पीएच.डी. -डा. गजानन मिश्र एम. ए., पीएच. डी. १२. सामान्य रूप से जैनधर्म क्या है ? ११० --श्री महेन्द्रसेन जैनी ५. कलचुरि कला में शासन देवियाँ १३. नयनार मन्दिर--श्री टी० एस० श्रीपाल १२. -श्री शिवकुमार नामदेव १४.५० दौलतराम कासलीवाल १२२ ६. कालकोट के दुर्ग से प्राप्त एक जन प्रतिमा ६७ --श्री परमानन्द शास्त्री -डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री १५. राजस्थान के जैन कवि और उनकी कृतियाँ १३. ७. गोला पूर्व जाति पर बिचार -डा० गजानन मिश्र एम. ए. प्राध्यापक -श्री यश तकुमार मलया १६. कर्नाटक की गोम्मट मूर्तियां ८. गुप्तकालीन ताम्र शासन-श्री परमानन्द शास्त्री ७१ --पं० के० भुजबली शास्त्री। ६. पोदनपुर-५० बलमद्र जी न्यायतीयं ७३ १७. साहित्य समीक्षा-परमानन्द जैन शास्त्री १२५ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८, वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त २२२ किरण ४-५ २१. भगवान महावीर का २५०० सौवां निर्वाण १. श्री महंतपरमेष्ठी स्तवन दिवस १३७ १९७ २. ज्ञान दीप जलाप्रो-मुनि श्री विद्यानन्द जी २२. शिवपुरी मे पंचकल्याणक प्रतिष्ठामहाराज श्री सम्मत कुमार जैन एम. ए. १६८ ३. लोकभाषा अर्धमागधी और भगवान महावीर २३. पावागिरि ऊन-श्री बलभद्र जन १६६ -पाचार्य के. भुजबली २४. शिवपुरी महिमा-श्री धामी गम जैन चन्द्र २१२ ४. श्री महावीर : एक विचार व्यक्तित्व २५. चाणक्य-श्री परमाद जैन शास्त्री २१४ श्री जमनालाल जैन १४२ २६. क्या प्राणी सुखदुःख प्राप्ति मे पगाथत है ? १. चन्द्रावती का जैन पुरातत्त्व मथुगदास जैन एम. ए., साहित्याचार्य २१० श्री मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी (शोवछात्र) १४५ २७. वीर सेवा मन्दिर के कुछ प्रकाशन -- ६. अपनत्व-श्री मुनि कन्हैयालाल १४७ परमानन्द जैन शास्त्री २२० ७. व्यवहार नीति के अगाध स्रोत-जातक एवं २८. हम सुम्बी कैसे बनें-मथुरादाम जन एम. ए., धम्मपद-डा० बालकृष्ण 'अकिंचन' साहित्याचार्य २६. श्री भारतवर्षी दि० जैन परिपद् व जयती ८. रयणसार : प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचनाले० डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री -मथुरादास जैन एम. ए., माहित्याचार्य २२३ ६. राजस्थान के जैन कवि और उनकी रचनाएँ ३०. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द जैन शास्त्री २२४ किरण ६ -डा. गजानन मिश्र एम. ए., पी. एच. डी. प्राई. ई. ऐस. १. धर्म का स्वरूप २२७ १०. बौद्धधर्म मे ध्यान चतुष्टय :एक अध्ययन २. धर्म का जीवन में स्थान डा० धर्मेन्द्र जैन एम. ए., पी. एच. डी. १६१ -मथुरादास जैन एम० ए० साहित्याचार्य २२८ ३. डा० दरबारीलाल जी कोठिया का ११. मानवभूमि के प्राचीन स्थल व तीर्थ अध्यक्षीय भाषण २२६ श्री सत्यधर कुमार सेठी ४. अनेकान्त के स्वामित्व तथा अन्य व्यारे के १२. जैन सस्कृति के प्रतीक मौर्यकालीन अभिलेख विषय में २३५ -डा. पुष्पमित्र जैन एम. ए., पी-एच. डी. १७० ५. प्रसिद्ध उद्योगपति साह शान्तिप्रसाद जी १३. रामगुप्त के अभिलेख-परमानन्द जैन शास्त्री १७४ जैन का उद्घाटन भाषण १४. जोगीरासा-कविवर भगवती दास १७५ ६. जैन दृष्टि में मोक्ष : एक विश्लेषण २४२ १५. जैन धर्म एव यज्ञोपवीत-श्री बशीघर जैन ७. लाडनू को एक महत्वपूर्ण जिन प्रतिमा शास्त्री एम. ए. ८. जिओ और जीने दो' के सिद्धान्त पर एक १६. काष्ठा संघ : एक पुनरीक्षण वैज्ञानिक प्रकाश "फन भावक होत है" २४७ डा० विद्याधर जोहरापुरकर १८८ ६. स्व. श्री राजकिशन जी-मथ गदास जैन ४८ १७. श्री शान्तिनाथ स्तोत्रम्-वर्ष २५ कि०५, १०. वैराग्योत्पादिक अनुप्रेक्षा नवम्बर-दिसम्बर १९७२ १८६ -संकलनकर्ता श्री बन्शीघर शास्त्री २४६ १८. लखनादौन की अलौकिक जिन प्रतिमा ११. गाथा सप्तसती की सांस्कृतिक पृष्टभूमि डा० सुरेशचन्द्र जैन १६० -डा. प्रेम सुमन जैन एम. ए., पी.एच. डी. २५७ ३६. कवि विनोदीलाल-परमानन्द जैन शास्त्री १६३ १२. भगवान महावीर की साधना-पद्धति २०. तत्वार्थाधिगम भाष्यकार द्वारा स्वीकृत पर -मुनि श्री महेन्द्रकुमार (प्रथम) माणु का स्वरूप-सनमत कुमार जैन एम ए. १६५ १३. अनेकान्त वर्ष २५ को वार्षिक मूची २६५ १६७ १७७ २६३ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन लक्षणावलो (प्रथम भाग) श्री प्रगरचन्द नाहटा जैन धर्म के अनेक पारिभाषिक शब्द हैं जिनका सही अर्थ प्राप्त करने के लिए जैन लक्षण ग्रन्थों और शब्द कोषों की अत्यावश्यकता है। ऐसे ग्रंथों के निर्माण में बहुत लम्बा समय प्रौर प्रचर खर्च तथा काफी श्रम लगता है, पर उनकी उपयोगिता और महत्व को देखते हए यह कार्य बहत जरूरी होता है। अभी-अभी 'जैन लक्षणावली' नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली में प्रकाशित हुया है। श्री जुगलकि गोर जी मुख्तार ने इस ग्रन्थ को योजना बनाई थी। जब-जब मै वीर सेवा मन्दिर में उनमे मिलता तो इस ग्रथ की भी चर्चा होती और पिछले कई वर्षों से तो इसका कार्य होता हया प्रत्येक बार देखता। उस चिर प्रतीक्षित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रथम भाग गत वर्ष प्रकाशित हो गया तो उसे देखकर बडी ही प्रसन्नता हई। पं० बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री इधर कुछ वर्षों से इस ग्रन्थ को अन्तिम रूप देने में लगे हए थे, उन्होंने इस प्रथम भाग की प्रस्तावना भी काफी विस्तृत तथा महत्वपूण लिखी है। इस जैन पारिभाषिक शब्द कोष के प्रथम भाग में (असे लगाकर औ) तक म्वरों के शब्द आये हैं। तीन सौ बारह (३१२) पृष्ठों में मूल ग्रन्थ है। ८६ पृष्ठों की प्रस्तावना है। मूल ग्रन्थ के बाद इस ग्रन्थ को तैयार करने में जिन-जिन ग्रन्थों का उपयोग किया गया है, उन तीन सौ इकावन (३५१) दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के ग्रन्थो का मूचो दी गई है। साथ ही इन ग्रन्थों के रचयिता एक सौ सैंतीस (१३७) विद्वानों को भी मूची दे दी गई है। प्रस्तावना में तीन मौ इकावन (३५१) ग्रन्थों में से एक सौ दो (१०२) ग्रन्थों का परिचय दिया गया है। बाकी ग्रन्थो का परिचय अगले भागों में दिया जायगा। इस ग्रन्थ में पारिभाषिक लक्षणात्मक शब्द संस्कृत में दिये है। इन शब्दो के लक्षण पिनजन ग्रन्थों में मिलते हैं, उनका मावश्यक उद्धरण देकर अन्त में हिन्दी में सारांश दिया गया है। इससे यह ग्रन्थ सभी के लिए बहत उपयोगी हो गया है। समय, थम और इस कार्य में होने वाले अर्थ व्यय खर्च की दृष्टि से इसका मूल्य २५ रु. रखा जाना उपयुक्त हो है। अगले भाग शीघ्र ही प्रकाशित हों, यही शुभ कामना है। जैन ग्रन्थालयों को इसे अवश्य खरीद करके पूरे प्रकाशित किा जाने में सहयोग देना ही चाहिए। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _____R. N. 10391/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन xxx पुरातन जन वाक्य-मूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्यो मे उदघत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों का मूची । मपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डा लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्य एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) मे भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अनीव उपयोगी, बड़ा साइज, मजिल्द । १५.०० पाप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० स्वयम्भूस्तोत्र : ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।। ... २-०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पौर श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित। प्रध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० पक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुना था । मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द नित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जन ग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा०१: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, सजिल्द । ... समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित प्रनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद पोर भावार्थ सहित तत्वायंसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त। भवणबलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । ... १-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य ध्यात्मरहस्य : प. प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । अनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण सग्रह। पचपन ग्रन्थकागे के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित। सं.पं. परमानन्द शास्त्री। मजिल्द। १२-०. न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु। ७-०. जन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ मख्या ७४० सजिल्द कसायपाहडसुत : मूल ग्रन्थ की रचना पाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १.०० से भी अधिक पृष्ठो में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । ... ... २०... Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में मनूवाद बड़े पाकार के ३०० प. पक्की जिल्द न निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया ५.०० प्रकाशक-वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित। . . . .xxx Page #292 -------------------------------------------------------------------------- _