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________________ भनेकान्त पिता हूं ते पुत्र होय जनक हाय सुत हूं ते, स्वामी हूते दास भृत्य, स्वामी पद धरे हैं। माता हू ते त्रिया होय, कामिनी ते माय होय, भववन माही जीव यूं हा संसरे है।३। एकत्व-भ्रमं जो एकाकी सदा देखिए, अनन्तकाल एकाकी जन्म मृत्यु बहु दुख सहो है। नांगन ग्रसों है एकै पाप फल भुजे घनो, एक शोकवत कोऊ, दुजो नाही सहो है। स्वजन न तात मात, साथी नहि कोय, यह रत्नत्रय साथी निज, ताहि नाहि गहो है। एके यह आत्म ध्यावे एक तपसा करावे, होय शुद्ध भावे तब मुक्ति पद लहो हैं ।४। अन्यत्व-प्रातम है अन्य और पूदगल हं अन्य, लखो प्रात्म मात तात पुत्र त्रिया सव जान रे । जैसे निशि मांहि तरुहं पे खग मैलें होय । प्रात: उड़ जायठोर ठौर तिमि पान रे। तैसे विनाशीक यह सकल पदार्थ है, हाट मध्य जन अनेक होय भेले प्रान रे। इन हू ते काज कछु सरने को नाही, भैया अनित्यानुप्रेक्षारूप यह पहचान रे।५। अशुचि-त्वचा पल अस्तनसा जाल मल मूत्र धाम, शुक्र मल रुधिर कुधातु सप्त मई है। ऐसो तन प्रशचि अनेक दुर्गध भरो, श्रवै नव द्वार तामें मूढ मत दई है। ऐसो यह देह ताहि लख के उदास रहो, मानो जीव एक शुद्ध बुद्ध परणई है। अशुचि अनुप्रेक्षा यह धारै जो इसी ही भांति, तज के विकार तिन मुक्ति रमा लई है।६। माधव-पाथव अनुप्रेक्षा हिय धार सत्तावन पाश्रव के द्वार, कर्माश्रव पैसार जू होय, ताको भेद कहूं अब सोय । मिथ्या अविरत योग कषाय, यह सत्तावन भेद लखाय । बंधो फिरे इनके वश जोव, भवसागर में रुले सदीव। विकल्प रहित ध्यान जब होय, शभ प्राश्रवको कारण सोय । कर्म शत्रु को कर सहार, तब पावै पंचम गति सार। संवर-पाश्रव को निरोध जो ठान, सोई संवर कहै बखान । संवर कर सु निर्जरा होय, सोहे दृश्य परकारहि जोय । इक स्वयमेव निर्जरा पेख, दूजी निर्जरा तपहि विशेखू ।।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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