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________________ वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा २१९ निर्जरा-पूर्व सकल अवस्था कही, सवर कर जो निर्जरा सही। सो निर्जरा दो परकार सविपाकी अविपाकी सार। सविपाकी सब जीवन होय अविपाकी मुनिवर के जोय । तप के बल कर मुनि भोगाय सोई भाव निर्जरा प्राय। बंधे कर्म छुटे जिह घरी सोई द्रव्य निर्जरा खरी ।। लोक-अधो मध्य अरु उरध जान लोकत्रय यह कहे बखान । चौदह राजू सबे उत्तग बात, त्रय वेढ़े सरवग। धनाकार राजू गणईस, कहे तीन सौ तैतालीस । अधोलोक चौकटो जान मध्यलोक झालरी समान । ऊरघलोक मदगाकार, पुरुषाकार त्रिलोक निहार । ऐसो निज घर मखे जु काय सो लोकानुप्रेक्षा यह होय ।१०। बोधिदुर्लभ-दुर्लभ ज्ञान चतुर्गति मांहि, भ्रमत२ मानुष गति पाहि। जसे जन्म दरिद्रा कोय, मिलो रत्ननिधि ताको सोय । त्यू मिलियां यह नर पर्याय प्रार्य खण्ड ऊँच कुल पाय । आयु पूर्ण पञ्च इन्द्री भोग, मन्द कषाय धर्म सयोग । यह दुर्लभ है या जग माहि इन बिन मिले मुक्त पद नाहिं। ऐसी भावना भावे सार, दुर्लभ अनुप्रेक्षा सुविचार ११॥ धर्म-पाले धम यत्न कर जोय, शिव मंदिर ते लहै जु सोय । धर्म भेद दश विधि निर्धार उत्तम क्षमा पून मार्दव सार । मार्जव सत्य शौच पुन जान सञ्जम तप त्यागहि पहिचान । अकिंचन ब्रह्मचयं गनेव, यह दश भेद कहे जिन देव । धर्म हि ते तीर्थकर गति धहि ते होवे सुरपति । धर्महिं ते चक्रेश्वर जान, धर्म ही ते हरि प्रति हरि मान । धर्म ही ते मनोज अवतार, धर्म ही ते हो भवदधि पार । रत्नचन्द यह करे बखान धर्म ही ते पावे निर्वान ।१२। बारह भावना पं० दौलतराम जी कृत : मूनि सकलव्रती बड़भागी भवभोगन ते वैरागी, वैराग्य उपावन भाई चितो अनुप्रेक्षा भाई।। इन चितत समरस जागै जिमि ज्वलन पवन के लागे । जब ही जिय प्रातम जाने तब ही जिय शिवसुख ठाने ।२। अनित्य-जोवन गह गोधन नारी हय गय जन प्राज्ञाकारी। इन्द्रिय भोग छिन थाई सुर धनु चपला चपलाई।। प्रशरण-सुर असुर खगाधिप जेते मग ज्यों हरि काल दलेते। मणि मत्र तंत्र बहु होई मरते न वचावै कोई ।४। मंसार-चहंगति दूख जीव भर हैं, परिवतन पंच करै हैं। सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा ।।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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