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वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा
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निर्जरा-पूर्व सकल अवस्था कही, सवर कर जो निर्जरा सही।
सो निर्जरा दो परकार सविपाकी अविपाकी सार। सविपाकी सब जीवन होय अविपाकी मुनिवर के जोय । तप के बल कर मुनि भोगाय सोई भाव निर्जरा प्राय।
बंधे कर्म छुटे जिह घरी सोई द्रव्य निर्जरा खरी ।। लोक-अधो मध्य अरु उरध जान लोकत्रय यह कहे बखान ।
चौदह राजू सबे उत्तग बात, त्रय वेढ़े सरवग। धनाकार राजू गणईस, कहे तीन सौ तैतालीस । अधोलोक चौकटो जान मध्यलोक झालरी समान । ऊरघलोक मदगाकार, पुरुषाकार त्रिलोक निहार ।
ऐसो निज घर मखे जु काय सो लोकानुप्रेक्षा यह होय ।१०। बोधिदुर्लभ-दुर्लभ ज्ञान चतुर्गति मांहि, भ्रमत२ मानुष गति पाहि।
जसे जन्म दरिद्रा कोय, मिलो रत्ननिधि ताको सोय । त्यू मिलियां यह नर पर्याय प्रार्य खण्ड ऊँच कुल पाय ।
आयु पूर्ण पञ्च इन्द्री भोग, मन्द कषाय धर्म सयोग । यह दुर्लभ है या जग माहि इन बिन मिले मुक्त पद नाहिं।
ऐसी भावना भावे सार, दुर्लभ अनुप्रेक्षा सुविचार ११॥ धर्म-पाले धम यत्न कर जोय, शिव मंदिर ते लहै जु सोय ।
धर्म भेद दश विधि निर्धार उत्तम क्षमा पून मार्दव सार । मार्जव सत्य शौच पुन जान सञ्जम तप त्यागहि पहिचान । अकिंचन ब्रह्मचयं गनेव, यह दश भेद कहे जिन देव । धर्म हि ते तीर्थकर गति धहि ते होवे सुरपति । धर्महिं ते चक्रेश्वर जान, धर्म ही ते हरि प्रति हरि मान । धर्म ही ते मनोज अवतार, धर्म ही ते हो भवदधि पार ।
रत्नचन्द यह करे बखान धर्म ही ते पावे निर्वान ।१२। बारह भावना पं० दौलतराम जी कृत :
मूनि सकलव्रती बड़भागी भवभोगन ते वैरागी, वैराग्य उपावन भाई चितो अनुप्रेक्षा भाई।। इन चितत समरस जागै जिमि ज्वलन पवन के लागे ।
जब ही जिय प्रातम जाने तब ही जिय शिवसुख ठाने ।२। अनित्य-जोवन गह गोधन नारी हय गय जन प्राज्ञाकारी।
इन्द्रिय भोग छिन थाई सुर धनु चपला चपलाई।। प्रशरण-सुर असुर खगाधिप जेते मग ज्यों हरि काल दलेते।
मणि मत्र तंत्र बहु होई मरते न वचावै कोई ।४। मंसार-चहंगति दूख जीव भर हैं, परिवतन पंच करै हैं।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा ।।