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अनेकान्त
एकत्व-शुभ अशुभ करम फल जेते भोगे जिय एकहि ते तें।
सुत दारा होय न सोरी सब स्वारथ के हैं भीरी ।६। अन्यत्व-जल पय ज्यों जियतन मेला पै भिन्न नहि भेला।
तो प्रकट जूदै धन धामा क्यों है इक मिलि सुत रामा ७। प्रशचि-पल-रुधिर राध मल थैलो कीकस वसादि ते मली।
नव द्वार बहे घिनकारी अस देह करे किम यारी।। पाश्रव-जो जोगन की चपलाई तातै ह प्राधव भाई।
प्राथव दुखकार धनेरे बुधिवंत तिन्है निरवेरे ।। संवर-जिन पुण्य पाप नही कीना आतम अनुभव चित दीना।
तिनही विधि पावत रोके सवर लहि सुख अबलाके ।१०। निर्जरा-निज काल पाय विधि झरना तासौं निज काज न सरना ।
तप करि जो कर्म खपावं सोई शिव सुख दरसावै ॥११॥ लोक-किनहू न करयो न धरै को षद्रव्यमयी न हरै को।
सो लोक माहिं बिन समता दुख सहे जीव नित भ्रमत।।१२। बोधिदलंभ-अतिम ग्रीवक लौं की हद पायो अनत बिरियाँ पद।
पर सम्यक ज्ञान न लाध्यो, दुलभ निज में मूनि साध्यो ।१३। धर्म-जे भाव मोह ते न्यारे दगजान व्रतादिक सारे ।
सोधर्म जबै जिय धारं तबही मुख सकल निहारे ।१४। सो धर्म मुनिन कर धरिए निनकी करतूति उचरिए। ताको सूनि के भवि प्रानी अपनी अनभूति पिछानी।१५॥
बारहभावना श्री बुधजन कृत समाधिमरण से :
तब द्वादश भावन भजे, तीक्षण दुख हो हान ।
सो वरनों संक्षेप से भवि नित करो बखान ।। मनित्य-यौवनरूप त्रियातन गोधन योग विनश्वर हैं जग भाई।
ज्यों चपला चमके नभ में जिमि मंदिर देखत जात बिलाई। प्रशरण-देव खगादि नरेन्द्र हरी मरते न बचावत कोई सहाई।।
ज्यों मग को हार दौड़ दले बनि रक्षक ताहि न कोई लखाई।६०। ससार-जीव भ्रमे गति चार सहे दख लाख चौरासी करे नित फेरी।
पैन लहा सुख रच कदा, ससार को पार लहो न कदेरी। एकत्व-पूरव जो विधि वंध किए, फल भोगत जीव अकेले हि तेरी।
पुत्र त्रिया नही सीर करें सब स्वारथ भीर कर बपुवेरी ।६१। अन्यत्व-ज्यों जल दूध को मेल जिया तन भिन्न सदा नही मेल का धार ।
तो प्रत्यक्ष जुदे धनधाम मिले न कभी निज भाव मझारै। अशुचि-देह अपावन अस्थि पलादि की राग अनेक सो परित सारे । मूत्र मली धर है मुगली नौ द्वार स्रवें किमि कोजिए प्यारे ।६२।
(क्रमशः)