________________
बराग्योत्पादिका मनप्रक्षा
तीक माना निशा सुन
तब कर्म रसबिन होन लागे द्रब्य भावन निर्जरा।
सब कर्म हरके मोक्ष बरकै रहत चेतन ऊजरा ।।६।। लोक-बिच लोक नतालोक माही लोक में द्रव्य सब भरा।
सब भिन्न भिन्न अनादि रचना निमित्त कारण की धरा । जिन देव भाषा तिन प्रकाशा भर्म नाशा सुन गिरा।
सुर मनुष तिर्यच नारकी इह ऊर्ध्व मध्य अधोधरा ॥१०॥ बोधिदुर्लभ-अनतकाल निगोद अटका निकस थावर तनधरा।
भू वारि तेज बयार है के बेइन्द्रिय त्रस अवतरा। फिरहो तिइन्द्री वा चौइन्द्री पचेन्द्रो मन बिन बना।
मनयुत मनुषगति होन दुर्लभ ज्ञान अति दुर्लभ घना ।११। धर्म-जिय ! न्हाना धोना तीर्थ जाना धर्म नाही जप जपा।
तन नग्न रहना धर्म नाही धर्म नाही तप तपा। वर धर्म निज आतम स्वभावी ताहि बिन सब निष्फला। बुधजन धरम निज धार लीना तिनहीं कीना सब भला ।१२। अथिराशरण ससार हैं एकत्व अनित्यहि जान । अशुचि आश्रव संवरा निर्जर लोक बखान ।१३। बोध और दुर्लभ धम ये बारह भावन जान ।
इनको ध्यावे जो सदा क्यों न लहैं निर्वान ।१४। बारह भावना श्री रत्नचन्द्र जो कृत : अनित्य-भोग उपभोग जे कहे हैं ससार रूप, रमाधन पुत्र औ कलत्र आदि जानिए।
ज्यों ही जल बुदबुद् प्रत्यक्ष है लखाव तनु । विद्युत चमत्कार स्थिर न रहानिए। त्यों ही जग अथिर विलास को असार । जान थिर नहीं दीखे सो अनादि अनुमानिए। यह जो विचारे सो अनित्य अनुप्रेक्षा कह ।
प्रथम ही भेद जिनराज जो बखानिए ।१। अशरण-निर्जन अरथ माँहि ग्रहे मग सिंह धाय।
शरण न दीखे प्रशरण ताहि कहिए। हरिहरादि चक्रवति पद लूं अथिर गिनो, जन्म मरण सा अनादि ही ते लहिए। याही को बिचारिये असार संसार जान, एक अलब जिनधर्म ताहि गहिए। दढ़ता हिए में धार निज प्रातम को कर विचार,
तज के विकार सब निश्चल हो रहिए।२। संसार-कर्म काण्ड दाही थकी पात्म भ्रमण करे,
नट जैसी नाटक अनन्त काल करे है।