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________________ २५२ बर्ष २५, कि.६ अनेकान्त बुधजन कृत बारह भावना : अनित्य-जेती जगत में वस्तु तेतो प्रथिर परिणमती सदा। परणमन राखन नाहि समरथ इन्द्र चक्री मुनि कदा। सुत नारि यौवन और तन धन जान दामिनि दमक सा। ममता न कीजे धारि समता मानि जल मे नमक सा ॥१॥ अशरण-चेतन अचेतन सब परिग्रह हुअा अपनी थिति लहै। सो रहे आप करार माफिक अधिक राखे ना रहे। अब शरण काकी ले यगा जब इन्द्र नाहीं रहत हैं। शरण तो इक धर्म प्रातम जाहि मुनिजन गहत हैं ॥२॥ संसार-सुर नर नरक पशु सकल हेरे कर्म चेरे बन रहे। सुख शासता नहि भासता सब विपति में प्रति सन रहे। दुख मानसी तो देवगति में, नारकी दूख ही भरै। तिर्यंच मनुज वियोग रोगो, शोक सकट में जरै ।।३।। एकत्व-क्यों भूलता शठ फूलता है देख परिकर थोक को। लाया कहां ले जायगा क्या फौज भूषण रोक को। जनमत मरत तुझ एकले को काल केता हो गया। संग और नाही लगे तेरे सीख, मेरी सुन भया ।।४।। अन्यत्व-इन्द्रीन ते जाना न जा तू चिदानंद अलक्ष है। स्वसंवेदन करत अनुभव, होत तव परत्यक्ष है । तन अन्य जड़ जानो सरूपी, तू अरूपी सत्य है। कर भेदज्ञान सो ध्यान धर, निज और बात असत्य है ॥५।। प्रशुचि-क्या देखराचा फिर नाचा रूप सुन्दर तन लहा। मलमूत्र भांडा भरा गाढा तू न जान भ्रम गहा। क्यों सूग नाहीं लेत आतुर क्यों न चातुरता धरै । तुहि काल गटके नाहि अटकै छोड़ तुझको गिर परै॥६॥ प्रास्रव-कोई खरा अरु कोई बुरा नहि वस्तु विविध स्वभाव है। तू वृथा विकलप ठान उर में करत राग उपाव है। यं भाव आस्रव बनत तू ही द्रब्य प्रास्रव सून कथा । तुझ हेतु से पुद्गल करमन निमित्त हो देते ब्यथा ॥७॥ संबर-तन भोग जगत सरूप लख उर भविक गुरु शरणा लिया। सुन धर्म धारा मर्म गारा हर्षि रुचि सन्मुख भया। इन्द्री अनिन्द्रो दाविलीनी त्रसरु थावर बध तजा। तब कर्म पाश्रव द्वार रोके ध्यान निज में जा सजा ॥८॥ निर्जरा-तज शल्य तीनों वरत लीनों वाह्यभ्यंतर तपतपा। उपसर्ग सुरनर जड़ पशुकृत सहा निज आतम जपा।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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