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वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा
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दया क्षमादिक रतनत्रय, या में गमित जान ।।१२।।
भी भैयालाल कृत बारहभावना:
पच परम गुरु वन्दन करूं। मन वचन काय सहित उर धरूं।
बारह भावना भावन जान । भाऊँ प्रातम गुणह पहचान ।। प्रनित्य-थिर नहीं दोखे नयनों वस्त, देहादिक अरु रूप समस्त ।
थिर बिन नेह कौन से करूँ, अथिर देख ममता परि हरूँ ॥२॥ अशरण-अशरण तोहि शरन नहि कोय, तीन लोक में दगधर जोय।
कोई न तेरो राखनहार, कम बसे चेतन निरधार ॥३॥ संसार-अरु संसार भावना येह, पर द्रव्यन से कैसे नेह ।
तू चेतन वे जड सर्वग, ताते तजो परायो संग :।।। एकत्व-जीव अकेला फिरे त्रिकाल, ऊरध मध्य भवन पाताल ।
दूजा कोई न तेरे साथ, सदा अकेला भ्रमे अनाथ ॥५॥ अन्यत्व-भिन्न सभो पुद्गल से रहे, भर्म बुद्धि से जड़ता गहे ।
वे रूपी पुद्गल के खन्ध, तू चिन्मूरति महा प्रबंध ॥६॥ मशुचि-अशुचि देख देहादिक अंग, कौन कुवस्तु लगी तो संग।
अस्थि चाम रुधिरादिक गेह, मलमूत्रनि लख तजो सनेह ॥७॥ प्रास्रव-प्रास्रव पर से कीजे प्रीत, ताते बध पड़े विपरीत।
पुदगल तोहि अपनयो नाहि, तू चेतन यह जड़ सब पाहि ।।८।। संवर-सवर पर को रोकन भाव, सुख होवे को यही उपाव ।
आवे नहीं लये जहाँ कर्म, पिछले रुके प्रकटे निजधर्म ॥६॥ निर्जरा-थिति पूर्ण है खिर खिर जाय, निर्जर भाव अधिक अधिकाय ।
निर्मल होय चिदानन्द प्राप, मिटे सहज परसंग मिलाप ।।१०।। लोक-लोक मांहि तेरो कुछ नाहीं, लोक अन्य तू अन्य लखाहिं।
यह सब षट द्रव्यन का धाम, तू चिन्मूरति प्रातम राम ॥११॥ बोघिदुर्लभ-दुर्लभ पर को रोकन भाव, सो तो दुर्लभ है सुन राव ।
जो तेरे है ज्ञान अनन्त, सो नहीं दुर्लभ सुनो महंत ।।१२।। धर्म-धर्म स्वभाव आप ही जान, आप स्वभाव धर्म सोइ मान ।
जब वह धर्म प्रगट तोहि होई, तब परमातम पदलख सोई ।।१३।। येही बारह भावन सार, तीर्थकर भावें निर्धार । होय विराग महाव्रत लेय, तब भब भ्रमण जलांजलि देय ||१४|| भैया भावो भाव अनूप, भावत होय तुरत शिवभूप । सुख अनन्त विलसो निशि दीस, इम भावो स्वामी जगदीश ।।१५॥ प्रथम अथिर अशरण जगत, एकहि अन्य अशुचान । प्रास्रव संवर निर्जरा, लोक बोध तुम मान ।।१६।।