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२५०, वर्ष २५, कि०६
अनेकान्त
संवर-सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमै ।
तब कुछ बनहि उपाय, कर्मचोर पावत रुके। ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोध भ्रम छोर ।
या विध बिन निकस नहीं बैठे पूरब चोर ।। निर्जरा-पंच महाव्रत संचरण समिति पच परकार ।
प्रबल पंच इन्द्री विजय घार निर्जरा सार ।। लोक-चौदह राज उतंग नभ, लोक पुरुष संठान ।
तामें जीव अनादि ते भरमत हैं बिन ज्ञान ।। वोधिदुर्लभ-धनकन कचन राजसुख, सबहि सुलभ करजान ।
दुर्लभ है संसार मे, एक जथा रथ ज्ञान ।। धम-जांचे सुरतरु देय सुख, चितत चिता रैन ।
बिन जांचे बिन चितये, धर्म सकल सुख दैन ।।
पं० जयचन्द कृत बारह भावना : अनित्य-द्रव्य रूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कोन ।
द्रव्य दृष्टि प्रापा लखो, पजय नय करि गौन । प्रशरण-शुद्धात्मा अरु पंचगुरु, जग में सरनो दोय ।
मोह उदय जिय के वथा, प्रान कल्पना होय ।।२।। संसार-पर द्रव्यन तै प्रीति जो, है संसार अबोध ।
ताको फल गति चार में, भ्रमण कहयो श्रुत शोध ॥३॥ एकत्व-परमारथ तें प्रातमा, एक रूप ही जोय ।
कर्म निमित्त विकलप घने, तिन नासे शिव होय ।।४।। मन्यत्व-अपने अपने सत्वक सर्ववस्तु विलसाय ।
ऐसे चितवै जीव तब, पर ते ममत न थाय ।।५।। प्रशचि-निर्मल अपनी प्रातमा, देह पावन गेह ।
जानि भव्य निज भाव को, भासों तजो सनेह ॥६॥ पाश्रव-पातम केवल ज्ञानमय, निश्चय दृष्टि निहार ।
सब विभाव परिणाम मय, आश्रवभाव विडार ।।७।। संवर-निज स्वरूप में लीनता. निश्चय सवर जानि ।
समिति गृप्ति सजम धरम, धरै पाप की हानि ॥८॥ निर्जरा-संवरमय है प्रातमा, पूर्वकर्म झड़ जाय।
निज स्वरूप को पाय कर, लोकशिखर जब थाय ||६|| लोक-लोक स्वरूप विचारिक, पातम रूप निहार।
परमारथ व्यवहार गुणि मिथ्याभाव निवारि ॥१०॥ बोधिदुर्लभ-बोधि आपका भाव है निश्चम दुर्लभ नाहि ।
__ भव में प्रापति कठिन है यह व्यवहार कहाहिं ॥११॥ धर्म-दर्श ज्ञानमय चेतना, प्रातम धर्म बखानि ।