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________________ भाषा की उत्पत्ति व विकास समद्ध बनाया । अनेक लोकिक व धार्मिक कथाम्रो प्रादि ५०० ई० से १००० ई. तक माना जाता है। का इस व्याख्या-साहित्य में समावेश हुआ। ईस्वी सन् की प्रत्येक भाषा अपनी ही भाषा के अशुद्ध-शब्द सम्मिचौथी शताब्दि से १६वी तक कथा-साहित्य सम्बन्धी लित हो जाने के कारण नवीन-भाषा को जन्म देती है। अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थो की रचना हुई। प्राकृत भी जब अपने पूर्ण रूप में प्रसरित थी, उस समय ईस्वी सन की छठी शताब्दी से १८वी तक प्राकृत में इसमे जो परिवर्तित शब्द घुमे उससे वह अपभ्रश बनी। व्याकरण, छन्द प्रौर कोषों का निर्माण होता है । अनुमान 'प्राकृत भाषा के अन्तिम वैयाकरणी श्री 'हेमचंद्रसूरि' है कि वररुचि के पूर्व ही प्राकृत-व्याकरण की सजना ने १२वी शताब्दी में अपनी रचना "सिद्ध हेमशब्दानुशासन' रचना) हुई थी। ११वीं शताब्दी से १३वीं तक का काल के प्राठवे अध्याय मे अपभ्रंश-भाषा का उल्लेख किया है तो विशेष रूप में इस साहित्य का उन्नति-काल रहा है। और उसका व्याकरण भी लिखा है। सूरि ने उपलब्ध इस समय गुजरात मे 'चालुक्य' मालवा में 'परमार पोर ग्रथों में से चुन-चुनकर उदाहरणार्थ कितने ही पद्य लिखे राजस्थान में 'गहिलोत' तथा च उहाण राजानों का राज्य है। इनसे उस समय की प्रचलित अपभ्र श-भाषा का था । फलस्वरूप गुजरात में प्रणहिल्लपुर, पाटण, संभारा पर्याप्त ज्ञान मिलता है। और भड़ोंच राजस्थान मे चित्तौड़, मालवा, उज्जैन, ग्वालि- 'सूरि' जी को मृत्यु के कुछ ही वर्षों पश्चात भारत में यर प्रादि नगर मे जैन-श्रमणो की प्रवृत्तियों के केन्द्र थे। राज्य विप्लव हुमा और साम्राज्य के टुकड़े-ट कडे होकर इस भाषा मे धार्मिक-पाख्यान चरित, स्तुति, लोक- विखर गये। छोटे-बड़े सैकड़ों राज्य स्थापित हए । इस कथा, नाटक, काव्य, सट्टक, प्रहसन, व्याकरण, छन्द, राज्य-क्रान्ति का प्रभाव भाषा पर भी पडा। प्रत्येकका कोष, अर्थ-शास्त्र, सगीत-शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, राज- सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से उनमे व्यापक अपभ्रश भाषा नीति-शास्त्र, काम-शास्त्र निमित्त-शास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, भी प्रत्येक प्रान्त में भिन्न-भिन्न रूपो में विकसित और अंग-विद्या, रत्न-विद्या, (परीक्षा) आदि शास्त्रीय-साहित्य लगी। द्वारा इस भाषा ने मां भारती के भण्डार की जो वृद्धि भिन्न-भिन्न प्रान्तो की प्राकृत का अपभ्रंश रूप भी की वह भारतीय-भाषा को इसकी (प्राकृत) की अमर- भिन्न-भिन्न हमा, जैसे शौरसेनी का अपनश नागर अपभ्रश कहलाया (व्रज-भाषा शौरसेनी और प्राकृत का 'प्राकृत' यदि संस्कृत शैली से प्रभावित है तो उसी रूपान्तर मात्र है।) प्रकार सस्कृत को भी प्राकृत प्रभावित करती रही है। उपरोक्त परिस्थिति के कारण 'अपभ्रश-भाषा'वज 'प्राकृत' जन-साधारण की भाषा थी, बालक, वृद्ध, स्त्रियां अवधी, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी पजाबी पास तथा अपढ़ सभी लोग इसे समझते और बोलते थे। बोलियो के उद्भव का कारण बनी। 'संस्कत' तो केवल सुशिक्षितो की ही भाषा थी। काला- 'अपभ्रश' का प्रचलन ११वीं शती तक पर तर में प्राकृत-भाषा ने अपभ्रश का रूप धारण किया रूप में था, पश्चात् दूसरी भिन्न भिन्न शाखाए फटी और और अपभ्रंश व्रज, अवधी, मगही, भोजपुरी, मैथिली, १५वीं शती तक पहुँचते-पहुँचते वे भिन्न-भिन्न वातावरण पंजाबी मादि बोलियों के उद्गम का कारण ई। मे फलने-फूलने लगी। अपभ्रंश: __'अपभ्रश' प्राकृत और प्रान्तीय भाषाओं के मध्य की अपघ्रश का अर्थ है भ्रष्ट, च्युत अथवा बिगड़ा हुमा भाषा है। 'प्राकृत' के पश्चात् अपम्रश और अपनश के रूप । जनता की भाषा व्याकरण से व्यवस्थित न होने के पश्चात् प्रान्तीय भाषामों की सष्टि हुई है। अपभ्रशकारण भ्रष्ट मानी गई और उसे अपभ्रश की संज्ञा दी भाषा से पुरानी हिन्दी व्रजभाषा और गुजराती का बहुत गई । समय की गति के साथ-साथ अपभ्रंश में भी साहि- प्रधिक सम्बन्ध रहा है। भाषा की दृष्टि से मादि काल 'त्यक रचनायें होने लगी। अपभ्रंश-भाषा का काल में चार भाषामों की उत्पत्ति (सष्टि) मिलती है
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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