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________________ १२, वर्ष २५, कि. १ अनेकान्त क्रमश: 'प्राकृत' का परिष्कार हुमा और उसने भी भाषा अर्ध-मागधी-प्राकृत' है। सस्कृत-नाटकों में प्रयुक्त साहित्यिक-वेश-भूषा धारण की । प्राकृत भाषा में विविध रूप वाली प्राकृत मुक्तक-वादियो की महाराष्ट्री. साहित्यिवो की अभिरुचि होने से अभिवृद्धि होने के कारण प्राकृत है। शिलालेखों की प्राकृत अनेक रूपों में बिखरी संस्कृत की भाति प्राकृत को भी सुगठित बनाने के लिये हुई पड़ी है। इन ममी को सामान्य तथा प्राकृत के नाम वैयाकरणों ने व्याकरण के नियम बनाये । प्राकृतिक- से ही सम्बोधित किया जाता है। बोलियां अपने भनेक भिन्न-भिन्न रूपों मे लोक मे 'वररुचि' ने प्राकृत (महाराष्ट्री), पैशाची, मागधी प्रचलित थीं, जिस कारण से प्राकृत वैयाकरणों द्वारा और शौरसेनी ये चार प्राकृत भाषा के भेद माने हैं, किन्तु उसमें संस्कृत की भांति एकरूपता नही पा सकी। प्रनि- वररुचि के 'प्राकृत-प्रकाश' के पाठ परिच्छेदों में केवल वार्य कारण तो यह था कि प्राकृत-भाषाओं के प्रकार ही। प्राकृत-भाषा का ही विवेचन है। इससे यह सिद्ध होता भिन्न थे, एक भाषा के कारण दूसरी भाषा (प्राकृत) के हैं कि व्याकरण सामान्य रूप से प्राकृत भाषा को ही लक्षण से पृथक् थे-प्राकृत-भाषा की प्रवृत्ति ही बहुरगी मुख्य भाषा मानती है। है । समय के साथ बोलियो मे भी परिवर्तन प्राता रहा । ___'शूद्रक' के 'मृच्छकटक' के अनुसार सूत्रधार द्वारा बोली रचनायें भी भिन्न कालों (यगों) की थी। ये सभी ऐसी जाने वाली भाषा को ही प्राकृत कहा गया है। यद्यपि बाद अव्यवस्थाएं थी, कि वे उन्हें सुचारु रूप देन में असमर्थ के वैयाकरणों के शब्दों में यही भाषा शौरसेनी मानी गयी रहीं। है। 'रुद्रट' के 'काव्यालंकार' (१०६६ ई.) के टीका-कार इस प्रयास का इतना तो प्रतिफल अवश्य हुमा कि नमि' साधु ने लिखा है कि व्याकरण आदि के सस्कार से प्राकृत कुछ व्यवस्थित भाषा बन गयी, किन्तु इससे एक विहीन समस्त जगत के प्राणियो के स्वाभाविक-वचन व्यवबड़ी हानि भी हुई, जन साधारण से इसका नाता टूट हार को प्राकृत कहते है । प्राकृत भाषा मे उपदेश देने के लिये गया। लोक प्रचलित-जिन बोलियों के माघार पर जन-साध छोटे छोटे मुक्तक बड़े ही चुभते हुये कहते थे। 'प्राकृत' की रचना हुई थी, वे बोलियां भी नियमों में नहीं मानन्दवर्धन, धनंजय, भोजराज, रुय्यक, मम्मट, का घी जा सकी। इनका विकास निरन्तर प्रगति पर रहा। हेमचन्द्र, विश्वनाथ आदि काव्य-शास्त्र के दिग्गज विद्वानो 'प्राकृत' का सबसे प्राचीन व्याकरण 'वररुचि' का ने प्रतिपादित रस और अलंकार को स्पष्ट करने के है। 'कालिदास' ने शकुन्तला-नाटक में स्त्री ओर सेवक लिये प्राकृत-काव्य-ग्रन्थों से चुनचुन कर अनेक सरस के मह से प्रायः प्राकृत-भाषा का ही प्रयोग कराया है। उदाहरण प्रस्तुत किये है । यह प्राकृत साहित्य की इससे सहज अनुमान होता है कि 'कालीदास' के समय उत्कृष्टता का प्रमाण है। मे स्त्रियो और जन-साधारण की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत-साहित्य को तीर्थकर 'महावीर' के युग से लेकर ___ 'प्राकृत' के विकास होते-होते उसमे तीन शाखायें १८वी शताब्दि तक इन २५०० वर्षों के दीर्घकाल मे फट निकली :-१.मागधी, २-शौरसेनी और ३-महा- भनेक अवस्थामों से गुजरना पड़ा है । प्राज इन भाषामों राष्ट्री। मगध प्रदेश और बिहार की भाषा 'मागधी', के अनेक रूप पंशाची, मागधी, मागधी, शौरसेनी, शूरसेन-प्रदेश (मथुरा के पास पास) की भाषा 'शौरसेनी' महाराष्ट्री मादि जो विद्यमान है वे ही उसकी महत्ता के मौर महाराष्ट्र-प्रान्त की भाषा महाराष्ट्री कहलायी। बोधक हैं। मागधी और शौरसेनी मिश्रित भाषा को अर्घ-मागधी ईस्वी सन् के पूर्व ५वी शताब्दि से लेकर ईस्वी सन् कहा गया। इसी अर्धमागधी मे जैन धर्म के पुष्कल-ग्रन्थ की पांचवी शताब्दि तक इसमे जैन-प्रागम-साहित्य का उपलब्ध हैं। संकलन और संशोधन होता रहा । ईसा की दूसरी दिगम्बर-जनों के प्राचीन-शास्त्रों की भाषा (प्राय:) शताब्दि से १३वीं शताब्दि तक इस साहित्य पर नियुक्ति, 'शौरसेनी-प्राकृत' है। श्वेताम्बरों के जैन भागमों की भाष्य, चूर्णि, भौर टीकाये लिख कर ग्रन्थकारों ने इसे
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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