________________
पोदनपुर
७५
में साधारण सा संकेत इस प्रकार दिया गया है- मूर्ति का मुख प्रगट हमा। तब उन्होंने ५०० कारीगर प्रथोत्तरापथे देशे पुरे पोवननामनि ।
लगाकर गोम्मटेश्वर बाहुबली की उस अद्भत मूर्ति का राजा सिंहरथो नाम सिंहसेनास्य सुन्दरी ॥३॥ निर्माण कगया। चामुण्ड राय ने अपने गुरु श्री अजितसेन अर्थात् पोदनपुर नामक नगर उत्तरापथ देश में था। की प्राज्ञा से ग्रानी माता को समझाया कि पोदनपर
इसी प्रकार कथा २५ मे 'तयोत्तगपये देशे पोदनारूये जाना हो नहीं सकता, तुम्हारी प्रतिमा यही पूर्ण हो पुरे ऽभवत्' यह पाठ है। इससे तो लगता है कि पोदनपुर गई। दक्षिणा पथ में नहीं, उत्तरापथ मे अवस्थित था। किन्तु इम कथा का समर्थन कई शिलालेखों और चन्द्रगिरि अन्य पृष्ट प्रमाण इसके विरुद्ध है और उनसे पोदनपुर पर स्थित एक अभिलिखित पाषाण से-जो चामुण्ड गप दक्षिण मे था, ऐसा निश्विन होता है। जनता की पर- चट्टान के नाम से प्रसिद्ध है-भी होता है। सम्भवतः म्प गगत धारणा का अवश्य कोई मबन प्राधा रहा है। दक्षिण मे बाहुबली को विशाल प्रतिमाएं इसी कारण
दक्षिणापथ मे होने की इस धारणा को वीर मार्तण्ड बनी। चामुण्डाय के चरित रो अधिक बल मिला है। राजाबली कथे और मुनिवंशाभ्युदय काव्य में बताया श्रवणबेलगोन के शिलालेख न० २५० (८०) म है कि बाहुबनी की मूर्ति की पूजा श्री राम वन्द्र, रावण श्रवणबेलगोल की बाह नाली प्रतिमा और प्रतिष्ठा श्री सम्बन्धी एक कहानी दी गई है, जो वह प्रचलित हो
इन उल्लेग्वों को पढ़कर मन में यह बात जमती है चुकी है।
कि पोदनपुर कही दक्षिण में रहा होगा। भरत चक्रवर्ती ने पोदनपूर मे ५२५ धनुप ऊंची इग मम्बन्ध मे यहा मदनकीर्ति विरचित शासन स्वर्णमय बाहुबली प्रतिमा बनवाई थी। कहते है, इस
चतुस्विंशिका के दो श्लोक उल्लेखनीय है - पद्य नं. २ भूति को कुक्कूट-मर्प चारो पोर मे घेरे रहते थे, इसलिए पोर ७ । पद्य सम्पा २ में ऋषि-मुनि और देवताओं द्वारा यादमी उगके पाग नहीं जा सकता था।
वदनीय पोदनगर के बाहुबली स्वामी के अतिशय का एक जैनाचार्य जिनमत थे । वे दक्षिण मथुग गये। वर्णन है। तथा पद्य मख्या ७ मे जनबद्री में देवो द्वारा उन्होंने पांदनपर को इस मूर्ति का वर्णन चामुण्डराय की पूजित दक्षिण गोम्मटदेव की स्तुति की गई है। माता कालनदेवी में किया । उसने यह नियम ले लिया भग्त बाहबानी का युद्ध कहाँ हुप्रा था ? इम प्रश्न कि जब तक मुझे इम मुनि का दर्शन नहीं होगा, मैं दूध का उत्तर पनप गण और हरिवंश पुराण में मिलता है। नही पीऊँगी। इस नियम का समाचार गगवंशी महाराज पद्मपुराण ४।६७.८ में बताया है कि चक्रवर्ती भरत अपनी राचमल्ल के मन्त्री नामुण्डराय को उनकी स्त्री अजितादेवी चतुरग सेना के द्वारा पृथ्वीतल को नाच्छादित करता हुमा ने बता दिया । तब चामुण्ड राय ने उम मूनि की तलाश युद्ध करने के लिए पोदनपुर गया । हरिवा पुगण में के लिए चारो पोर अपन सैनिक भेजे और स्वयं अपनी इस प्रश्न का गौर भी अधिक स्पष्ट उत्तर दिया है। वह माता को लेकर चल दिये । मार्ग में 'चन्द्रगिरि' (श्रवण- उहनेम्व इस प्रकार है - वेल गोल) मे ठहरे। रात्रि को पद्मावती देवी ने चामुण्ड. पोवनान्निर्ययौ योद्धगय को स्वप्न दिया कि सामने दोहवेट (विन्ध्यगिरि
मक्षौहिण्या यतो व्रतम् ॥१११७८।। अथवा इ. द्रगिरि) पर्वत पर श्री गोम्मट स्वामी की मूर्ति चक्रवर्त्यपि सम्प्राप्तः झाडी जंगल के भीतर छिपी हुई है । यदि तू यहाँ से खड़े
सैन्यसागररुद्धविक् । होकर सामने पर्वत पर तीर मारेगा तो मनि प्रगट होगी। विलतापरदिग्भागे चामुण्डराय ने ऐसा ही किया। सुबह उठकर जमाकार
चम्दो: स्पर्शस्तयोरभूत ।.११७।। मन्त्र पढ़कर सामने पर्वत पर तीर मारा। तीर लगते ही अर्थात् वे (बाहुवली) शीघ्र ही प्रक्षौहिणी सेना