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२४४, पर्व २५ कि..
भनेकान्त
वितीय कम-स्थानान के महावीर-गौतम संवाद में स्थित-अर्थात् मात्मा की कर्मों से छुटकर अपने शुद्धरूप यह दूसरा क्रम इस रूप में मिलता है-तथारूप (सांसा में स्थिति व कर्मों को मात्मा-संश्लेष छोड़कर स्वरूप रिक) श्रमण, बाह्मण को पर्युपासना का फल-श्रवण, श्रवण शुद्धस्थिति को पृथक-पृथक् शुद्धस्वरूप प्राप्त करने को का फल-जान, ज्ञान का फल-विज्ञान प्राप्त होता है। 'भात्मा का निर्वाण' माना गया है। विज्ञान का फल-प्रत्यास्थान त्याग और इसका फल- बीप-निर्वाण की तरह प्रात्मा का निर्वाण नहीं होतासंयम रूप होता है। संयम से मनासव पीर पनासब से बौदों ने जिस तरह दीपक के निर्वाणवत प्रात्मा का
सप की प्राप्ति होती है। तपस्या सेम्यवदान (कों की निर्वाण भी स्वीकार किया है। वह नदार्शनिकों की निराधासोपानी कि में-मस-mwitों मालिके..
उपाधि होती है। पश्मिाका फल निर्वाणरूप होता है। सन्दर्भ में अनेक कल्पनाएँ की है। जैसे कि-चित्त तिति निर्वाष से सिरवि' में गमन होता है।
की निरालवता सोपारिनिर्वाण है, और जो दीपनिर्वाण. तृतीय कम-यह तीसरा का दशाभुत स्काध में इस बत बिल की सतति का निर्वाण है वह हिपाविनिर्वाण प्रकार उपसा होता है-रामदेव से रहित निर्मलपित्त- है। यहाँ यह स्मरणीय है कि बोडों ने चूंकि कप-वेदना अति का पारक बीच धर्मध्यानता को प्राप्त करता है। विज्ञान-संजा और संस्कार रूप से पारमा को स्वीकार निःशंकमन से तथा धर्मध्यान से निर्वाण की प्राप्ति होती किया है। प्रतः इसके परिणाम स्वरूप उन्हें निर्वाण दशो है। इस प्रकार के संशिज्ञान से वह अपने उत्सम स्थान में भी पास्मा का निर्वाण अर्थात् प्रभाव (धनस्तित्व) का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। प्रतः जो सर्वविध कामनाओं से विरक्त मौर सहिष्णु होता है वह संयमी तपस्वी भवधि
यहाँ पर यह विचारणीय है कि-निर्वाण में पदि ज्ञान का वारक होता है। तब वह तपःसाधना से शुभ
दीपक के प्रकाश की तरह चित्तसतति का निरोध स्वीकार लेण्यामों को भी दूर करके प्रविज्ञान को पौर निर्मल
किया जाएगा तो मारमा के भी बिनाश का अवसर बनाता है। जिससे कवलोक-मधोलोक म तिर्यमलोक में
उपस्थित हो जाबेगा, जैसे कि चार्वाक दर्शन में मारमा स्थित समस्त जीवादि पदार्थों का प्रत्यक्ष शानी होता है।
का मनस्तित्व स्वीकार किया गया है । क्योंकि निर्वाण मे और शभलेश्यामों के धारण से व तर्क-वितर्क से उत्पन्न
उच्छेद या मरणान्तर उच्छेद, दोनों में कोई मन्तर दृष्टिचित्त की चंचलता से सर्वथा रहित हो जाता है, वह
गत नहीं होता है। यदि प्रभौतिक चित्तसंतति की प्रतिमनःपर्ययज्ञान का धारक होता है । इसके अब जानवरणीय
सधि, (परलोकगमन) भी सम्भव होती है तो निर्वाण की कर्म का प्रत्यन्त भय होता है तब वह केवलशानी होकर
अवस्था मे इसके समूल-उच्छेद का अनौचित्य स्वतः सिद्ध लोकालोक दोनों का ज्ञाता हो जाता है। और 'जिन'
हो जाता है। कहलाता है। तथा प्रतिमानों की विशुद्ध पाराधना से उत्पन्न मोहनीय कर्म का भय करके, समस्त प्रकार के
प्रतः मोक्ष की स्थिति में चित्त संतति की सत्ता कर्मों का नाश करके, देह का परित्याग करके नाम-गोत्र
अवश्य ही स्वीकारनी पड़ेगी क्योंकि यह चित्तसंतति
प्रनादिकाल से ही मानव प्रादि के द्वारा मलिन होती हुई मायु मादि से रहित होता हुमा कर्मरज से सदा सर्वदा के
साधना प्रादि के माध्यम से निरास्रवता को प्राप्त करती लिए छुटकारा प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार जनदर्शन में मात्मा के कर्मों का सर्वथा है। प्राचार्य कमलशीत ने भी निर्वाण का स्वरूप प्रतिउच्छेद-विनाश को मोक्ष माना गया है। मास्मा और पादित करते हुए एक श्लोक का उल्लेख किया हैकर्म (पुद्गल) दोनों ही पदार्थों की अपने-अपने रूप में
सानो चित्तमेव हि संसारो, राणाविक्लेशवासितम्।
तदेव विनिर्मुक्त, भवान्त इति व्यते ॥ १. स्थानाङ्ग-३॥३॥१९॥ २. दशावुत स्कम्ब-०१३, ११११६ ॥
३. तत्व संग्रहपंजिका (पृ. १०४)