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________________ जनदृष्टि में मोल : एक विश्लेषण २४३ इसके पश्चात् जो अन्तमुहर्तात्मक प्रायु काल शेष रहता के प्रभाव में सम्यक चारित्र का सद्भाव भी नहीं होता। है, उसमें केवली सर्वप्रथम मन के व्यापार रूप मनोयोग चारित्र गुणों के प्रभाव मे कर्मों से मुक्ति पाना असम्भव के फिर बाग व्यापार (योग) को तथा शरीर व्यापार हो जाता है। कर्म मुक्ति के प्रभाव मे 'निर्वाण' (काययोग) और श्वासोच्छवास को रोक लेता है। भी सम्भव नही हो सकता है। क्योकि यदि 'ज्ञान' से इसके अनन्तर पाँच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण काल की जीव पदार्थों का ज्ञान करता हो तो 'दर्शन' से श्रद्धाभाजन अबधि में 'शैलेशीकरण' की अवस्था शल्क ध्यान की वनता है भोर चारित्र से प्रास्त्रत्र का निरोध और तपस्याचतुर्थ श्रेणी में स्थित होता है। इस स्थिति मे यह शेष साधना से कर्मों की निर्जरा करता हा अन्त मे शुद्ध हो कर्मो वेदनीय-मायु:-नाम और गोत्र को एक साथ नष्ट जाता है। यही कारण है कि जैनदार्शनिक प्राचार्यों ने करता है। इन समस्त कमों के क्षय के साथ ही वह मोक्षाभिलाषी जीव की सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (तप मौदारिक, कार्मण तथा तेजस शरीरों से भी सदा सर्वदा और उपयोग) मोक्ष मार्ग के लक्षण' रूप कहे हैं । के लिए मुक्त हो जाता है। इस प्रकार संसार स्थित जीव मोक्षमार्ग के विभिन्न क्रम-जैन दृष्टि मे सर्वसम्मत सिद्ध, बुद्ध और मुक्त' कहलाने लगता है। उक्त एक ही लक्षण मोक्षमार्ग का माना गया है किन्तु __ शैलेशीकरण' शब्द के सन्दर्भ में प्राचार्यों के विभिन्न इस मार्ग द्वारा मोक्षसिद्धि (प्राप्ति) की परम्परा या क्रम विचार मिलते हैं, जिसका माशय यह है-शैलेश-मेंरु के एकाधिक प्रकार जैनागमों में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होते समेह). इस पर्वतराज की तरह कम्पनरहित, स्थिर व है क्रम TET | साम्य अवस्था में स्थित होना शैलेशीकरण है। प्रथवाशील-सर्व सवर, इसका ईश-शीलेश, शीलेश की जो प्रथम क्रम-चेतन-मचेतन उभयरूप जगत् का योगनिरोधरूपा प्रवस्था-शैलेशी, अथवा-शील-समाधो सम्यग्ज्ञान होने पर प्रात्मा जीव की विविध गतियो का तथा ईश-एश्वर्य धातुपो से निष्पत्ति के प्राधार पर भी ज्ञाता हो जाता है । इस गतिज्ञान से उसे पुण्य-पाप व शीय-समाधि, इसमे ईश-समर्थ, उसकी जो समाधिस्थ बन्धमोक्षविषयक ज्ञान भी उत्पन्न हो जाता है। जिसके अवस्था वह शैलेशी । इस स्थिति मे जीव वेदनीय नाम व माधार पर मनुष्य एवं देवो के काम-भोगो का ज्ञान गोत्र रूप अघाति कमों का तथा प्रवशिष्ट प्रायः कर्म का करता हुमा इन काम-भोगों से विरक्त होने लगता है। निरण करता है। अतः इस स्थिति से यक्त योगी को भोर इनसे अपना बाह्य-प्राभ्यन्तर उभयविध सम्बन्ध भी 'पयोगी" कहा जाता है। धीरे धीरे तोड़ने लगता है। इस सम्बन्ध विच्छेद से मोक्ष का साधन रत्नत्रय (Path of Liberation) अनागार वृत्ति को धारण करता हुमा उत्कृष्ट संयम -जन दृष्टि में सम्यक् दर्शन-शान मोर सम्यक चारित्र तथा प्रमुत्तरधर्म के संस्पर्श से प्रज्ञान के माध्यम से सचित इन तीनो को सामूहिक रूप मे मोक्ष का साधन स्वीकार कलुषित कर्मराज को झाड़ डालता है। तब उसे केवल किया गया है । न कि पृथक-पृथक को । इनकी इस साम- ज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होते हैं। इसी प्राप्ति से वह हिक शक्ति को दृष्टिगत करते हुए दार्शनिकाचार्यों ने इस 'केवली होकर लोक मोर मलोक का ज्ञाता कहलाता है। समूह को 'रत्नत्रय' की सज्ञा से भी व्यबहुत किया है। अब वह अपने योगों का निरोध करके 'शैलेगी' अवस्था जैनागमो मे इनके सन्दर्भ मे कहा गया है कि प्रात्मा मे में स्थित हो जाता है। इस अवस्या मे कर्मों का सर्वथा 'सम्यक्त्व' तथा 'चरित्र' की एक साथ उत्पत्ति होती है। क्षय करके 'सिद्धत्व को प्राप्त करता है, और लोक के प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। क्योंकि श्रद्धा के प्रभाव अग्रभाग में स्थित होकर 'शाश्वत-सिद्ध" हो जाता हैं। में ज्ञान कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकता। सम्यग् ज्ञान ३. उत्तराध्ययन सूत्र-२८२-३, ५, १५, २६, ३०, १. उत्सराध्ययन सूत्र-२६७१-७३, ३५॥ २. संक्रमणकरण-पृ० १३७, ४. दशवकालिक सूत्रम् -४११४.२५ ।।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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