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जैनदृष्टि में मोक्ष : एक विश्लेषण
डा० मुक्ताप्रसाद पटेरिया
मोक्ष का सदभाव
स्वाभाविक गुणों को प्रभावित करते हुए कर्मरूपता को जैन दर्शन में जीव-जीवादि सात तत्त्व माने गये प्राप्त हो जाते हैं। फलत: पास्मा का वैमाविक परिणमन है। कुछ विद्वानों ने इनमें पुण्य मोर पाप को जोड़कर स्वभाव बन जाता है। यही वैभाविक परिणमन उसकी इनकी संख्या नब भी मानी है। सात तत्त्वों के समर्थक सांसारिकता का साधक होता है। किन्तु जीव (ससाराकिसानों ने इनका अन्तर्भाष प्रात्मपरिणाम के रूप में वस्थित) जब अपने इन वैमाविक परिणमन से बब को मानव व बन्ध के अन्तर्गत स्वीकार किया है। दोनों को छोड़ देता है, तब पुनः स्वाभाविक परिणति की सिद्धान्तों में परमतत्व 'मोक्ष' ही माना गया है: इस
क्षमता अजित कर लेता है । जैनदार्शनिकों ने इसी 'कर्मप्रकार जनतस्व व्यवस्था में 'मोक्ष' का प्राधान्य तथा अन्य
विप्रयोग' (वियोग) को मोक्ष रूप प्रतिपादित किया है। नयों को इसकी प्राप्ति में सहकारी के रूप में निर्वचन सपिसिठिकार ने अपना यही माशय व्यक्त किया किया गया है।
-'कृत्स्नकर्मवियोग लक्षणो मोक्षः' इति । मोक्ष है या नहीं, यद्यपि इस सन्दर्भ में दार्शनिक अनादि काल से बम्धनबद्ध पराधीन भात्मा का मोक्ष विकानों में परस्पर विवाद है, किन्तु मोक्ष के समर्थक कमो के उच्छेद रूप में होता है। तब यह स्वतन्त्र हो प्राचार्यों के अनुसार 'मोक्ष का अस्तित्व' इस अनुभूति से जाता है। इसी स्वतन्त्रता को जगत् से सर्वथा मक्ति ही सिद्ध हो जाता है कि 'मैंबंधा हूँ । यह अनुभूति प्रायः कहा जाता है। इस प्रकार बन्ध के कारणों का प्रभाव
पौर सचित कर्मों का क्षय (निर्जरा) होने पर जब सर्वसभी सांसारिक जीवों को समान रूप से होती है। जिस
विध कर्मों को प्रात्मा समूल नष्ट कर देता है, उसे मोक्ष प्रकार 'कारावास' तथा 'पराधीन' शब्दों की परिणति
कहते हैं । जैनागमों में कर्मों के उच्छेद का यही क्रम उप'स्वातन्त्र्य' के अनुभव की साधिका हैं, इसी प्रकार की प्रतीति मोक्ष के सन्दर्भ में भी होती है। यही कारण है
लब्ध होता है। जब जीव राग-द्वेष मिथ्यादर्शन प्रादि को कि कुछ जैनाचार्यों ने चरमतत्त्व मोक्ष' को बन्ध का प्रति
जीतकर ज्ञान-दर्शन और चारित्र की प्राराधना में तत्पर पक्षी माना है। तत्व विवेचन पद्धति में जीव शब्द को
होता है, तभी वह पाठ प्रकार की कर्म ग्रंथियों को तोड़ने प्रथम तथा मोक्ष शब्द को अन्त में रखने से इस विचार के लिए प्रयत्न करता है। इस प्रयत्न में वह सर्वप्रथम को समर्थन भी मिलता है। क्योंकि जीव-बन्धयुक्त
मोहनीय कर्म की पट्ठाईस प्रकृतियों का क्षय करता है। संसारी प्रात्मा-का सद्भाव हैं, तो बन्धरहित-मुक्त इसके पश्चात् पांच प्रकार के ज्ञानवरणीय कर्म नव प्रकार प्रतएव शुद्ध प्रात्मा का सद्भाब स्वत: सिद्ध हो जाता के दर्शनावरणीय कर्म तथा पांच प्रकार के अन्तरायक है : बन्ध में कर्मों का जहाँ प्रात्मा के साथ सश्लेष होता का एक साथ क्षय करता है। इसके बाद में ही प्रनम्त. है. मोक्ष में इन्ही बद्ध कर्मों का पात्मा से विश्लेष परिपूर्ण, मावरण रहित पोर लोक-प्रलोक उभय के प्रकाहोता है।
शक केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उत्पत्ति होती है। मोक्ष स्वरूप (Differentia of Liberation)-जो केवलज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति होने पर जानावरणीय कर्म पदगल प्रात्मा से संश्लिष्ट होते हैं, वे प्रात्मा के मादि चार घनघाति कर्मों का विनाश हो जाता
१.स्थानाङ्ग-२१५७
२. सर्वार्थसिदि-१४