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________________ नदृष्टि में मोक्ष : एक विश्लेषण १४५ निर्माण में जानारिगुणों का भी सर्वया उच्छेद नहीं से विलग हो जाती है तब इसका स्वाभाविक स्वरूप प्रकट होता-वैशेषिकों ने पात्मा के नव विशेष गुणों-बुद्धि होता है। जैन दार्शनिक भी मोक्ष-निर्वाण मे कमजन्य सुख-दुःख पादि का प्रत्यन्त उच्छेद रूप मोक्ष माना है। सुख दुःख प्रादि का विनाश तथा ज्ञान की स्थिति स्वीइनका कहना है कि इन नव विशेष गुणों की उत्पत्ति कार करते हैं। किन्तु यदि वे भी चंन्य का विनाश मात्मा और मन के संयोग से होती है। अत: मोक्ष की स्वीकार करने लगे तो परमतत्त्वरूप प्रात्मा का अपना अवस्था में मन के संयोग का प्रभाव होने से इन गुणों की । स्वरूप ही नष्ट हो जावेगा। उत्ति नहीं होती। इसीलिए.. प्रारमा वहां पर निर्गुण . इसलिए जनदालिमपलेपण स रहतासनी गुण कोसनिलीगु, 'गुणवत्मात्मा का उच्छेद स्वीकार किया गया है और न ही को सत्ता मोम में व्यवस्थित नहीं मानी जा सकती। मात्मा के स्वाभाविक गुणों का सर्वथा विनाया। अमन इस सिद्धान्त में पात्मा के विशेष गुण 'बुद्धि'-(मान)का । सांस्कृतिक परम्पग मे मोक्ष की व्याख्या इस प्रकार उच्छेद मोक्षावस्था में स्वीकार करना सगत नहीं बैठता। स्वीकार को पई है। जीव के समन को के जयका. यपि सांसारिक अवस्था में इन्द्रियों और मन के सयोग अभिप्राय है कि कमपुद्गल जीव से सर्वथा मलम हो जाते से मांशिक सान मारमा को प्राप्त होता है। इसका प्रभाव है। उनका सर्वथा (अत्यन्त) विनाश सम्भव नहीं होता। जी वहाँ सुनिश्चित है, किन्तु मात्मा का जो स्वरूप भूत क्योंकि सत् पदार्थ का द्रव्यदृष्टि से कभी भी विनासन चैतन्य इन्द्रियों पोर मन से परे है, उसका उच्छेद तो तो हमा है और न ही भविष्य में सम्भावित है। इसीलिए कभी सम्भव नहीं हो सकता। पोर न ही ऐसी कमी मात्मा प्रपनी वैभाविक (कर्म सश्लिष्ट) परिणति का सम्भावना की जा सकती है। परित्याग करके सर्वथा के लिए पसंश्लिष्ट हो जाता है। वैशेषिकों ने निर्वाणावस्था में पारमा की स्वरूप में इसी प्रकार चूंकि प्रात्मा एक स्वतंत्र व मौलिक चेतन स्थिति जिस प्रकार स्वीकार की है।वह स्वरूप ही 'इन्द्रि- पदार्थ है, तब फिर उसके मौलिक गुणों की भी मोक्ष में यातीत चैतन्य' है। यही चैतन्य इन्द्रिय-मन मादि पदार्थो विनाशकल्पना नहीं की जा सकती। अपितु उनकी निमं. के निमित्त से विभिन्न विषयाकार बुद्धि के रूप में परि- लता एवं विशुद्धि ही अपेक्षाकृत अधिकतर होती है। यही गत होता रहता है। जब यह पदार्थगत उपाधियां प्रात्मा बद्ध जीव का अभिप्रेत परामर्श होता है। अनेकान्त पत्र के विद्वान लेखक 'अनेकान्त' मासिक वीर सेवा मन्दिर दिल्ली से राष्ट्रभाषा में प्रकाशित होने वाला एक ऐसा पत्र है -जिसे इसके विद्वान् लेखकों के शोषपूर्ण प्राध्यात्मिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, नैतिक मादि लेखों एवं रचनामों के कारण भारतीय प्रायः सभी यूनिवसिटियां मंगाती हैं। यूनिवर्सिटियों में शोध तथा अनुसन्धानात्मक अभ्यास करने वाले छात्र-छात्राएँ इसे रुचिपूर्वक पढ़ते हैं । इस पत्र में अपने लेख भेजने के लिए लेखक महोदय इलाषा के पात्र हैं। लेखक महोदयों से निवेदन है कि वे अपना जो लेख भेजें उसे कागज की एक साइट पर स्पष्ट प्रक्षरों में लिखा हमा या स्पष्ट टाइस किया हुमा ही भेजें। अस्पष्ट लेख प्रकाशित करने में बहुत कठिनता रहती।। उरण (reference) जो दिये जाते हैं उनकी मूल कापियां प्राप्त नहीं होतीं और इस तरह अवसरणों का शोधन -कार्य नहीं हो सकने से लेख का महत्व क्षीण हो जाता है।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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