________________
१६८ वर्ष २५, कि० ४
अनेकान्त
स्थान है इसमे सदेह है। क्योकि वहा कोई प्राचीन अवशेष मे इसको हृदयस्थल माना गया है। भारतीय साहित्य मे नहीं है और न इसके नाम के अनुकूल कोई ऐसी पहाड़ी है इसको तीर्थ का रूप दिया है। और यह एक बड़ा पावन जिसकी कूट पर यह स्थित है। हाँ इसके सामने रेवा नदी तीर्थ है। जैन साहित्य मे उज्जैन का बड़ा महत्त्व है। है और रेवा नदी के उत्तर तट पर एक पहाड़ी अवश्य है जैनों की कई विभूतियो ने इस स्थल को पावन किया है। और उसके अचल में कई मन्दिर है । जिनको वैष्णव लोगो सुप्रसिद्ध दिगम्बर सत मिद्धसेन दिवाकर और मानतुंग की ने तीर्थ का रूप धोकारेश्वर के नाम से दे डाला है। यह विहारस्थली रही है । विश्व बन्धु भगवान महावीर
कुछ वर्ष पहले सरकार की तरफ से यहाँ खुदाई की का भी यहां प्रागमन हुआ है। और यहाँ की अति मौक्तिक गई थी, और इस खुदाई में जैन मन्दिरों के अवशेष उनकी श्मशान भूमि पर रुद्र द्वारा भयंकर वर्ग मूर्तियां ही निकली ही थी। एक विशान मानस्तंभ भो उल्लेख है। यह श्मशान भूमि अाज भी उज्जैन मे निकला था। लेकिन वह खुदाई तुर्त वन्द कर दी गई। मौजूद है। और यह अवशेष आज भी यहाँ पर पड़े हुए है। लेकिन उज्जैन शब्द ही जनो के उत्सर्ग का बोधक है। और जैन समाज ने इसके लिए कोई प्रयास नही किया। यदि एक समय था जब इस प्रदेश पर जैनो का पूर्ण प्राधिपत्य इसके लिए प्रयत्न किया जाता तो इतिहास को नया मोड़ था। सुकमाल स्वामी के जीवन चरितो में उज्जैनी का मिलता और जैन समाज को भी यह समझने का अवसर दिगम्बर श्वेतांबर साहित्य में उल्लेख है। सुकमाल की मृत्यु मिलता कि हमारा प्राचीन स्थल कौन सा है । मैं तो यही वर्तमान महाकाल वन में हुई थी। श्वेताबर साहित्य में मानता है कि हमारा सही निर्वाणस्थल भोकारेश्वर तीर्थ उल्लेख है कि उनके पुत्र ने उनकी स्मृतिमे विशाल मन्दिर का हिस्सा ही है, जिसको हमने छोड दिया है । मैं चाहता बनवाया था और वह मन्दिर प्राज का महाकाल मन्दिर हूँ कि इसकी तरफ इतिहास के विद्वान् ध्यान दें। है । क्योंकि इस मन्दिर के चारों तरफ जैन संस्कृति के
यही स्थिति ऊनकी भी है। यह लुप्त क्षेत्र था। यहां प्रतीक रूप कई खण्डित अवशेष मिलते रहे है। आज भी भी सुसारी के सुप्रसिद्ध सेठ हरसुखलाल जी को स्वप्न उज्जैन में कई मन्दिर ऐसे है जिन पर अन्य संस्कृति वालो पाया था और स्वप्न के अनुसार खुदाई करने पर इस का कब्जा है। क्षेत्र की उपलब्धि हई थी। इसको ऊन भी कहते है। इसी तरह नगर के मध्य सनी दरवाजा है। जैन धर्म और पावागिरि भी कहते है।
में शील कथाहै । उसमे मनोरमा सती का जीवन चरित्र है। लेकिन इसका कोई प्रामाणिक इतिहास हमारे पास जिसमे लिखा है कि लोगो ने उसके कलंक लगाया और नही हैं । वहा को किंवदन्ती के अनुसार यह है कि किमी फिर एक देव ने नगर के समस्त दरवाजे कोलित किये। समय किसी धार्मिक व्यक्ति ने यहा पर मन्दिर बनवाये और इमी गती के प्राठे से वे दरवाजे खोले गये, और एक थे और वे निन्यानवे रह गये, सौ मे एक मन्दिर कम दरवाजा ऐसा रहा जो सती के नाम से प्रसिद्ध हो गया रह गया, इमसे इसका नाम ऊन पडा। लेकिन पाज वे और अभी वह है। मन्दिर भी जमीन के भीतर ध्वस है। कुछ मन्दिर ऐसे है इसी तरह उज्जैन के ग्रासपा। बडनगर, दनावर, जिनकी स्थिति खराब है। मोर उनमे विशाल बिम्ब जमीन सुन्दरसी, सारंगपुर, जामनेर, गौदलमऊका तालाब, भोपाल पर आज भी बिखरे पड़े हैं। जैन समाज जाता है और का प्रासपास का प्रदश, साची के पास के हिस्से समस्तीदेखकर वापिस पा जाता है। लेकिन इसके अनुसंधान के पुर, भंवरासा, पचौर, गन्धावल इच्छाबर, आदि लिए अाज भी मौन है। जब सिद्ध क्षेत्रो में ही यह स्थिति कई ऐसे स्थल है जहाँ सैकडो विशाल जैन मूतिया जमीन है तो अन्य जगह बिखरी स्थिति की हालत तो बहत ही पर बिखरी पड़ी है। दयनीय है।
इनमे गंधावल और पचौर ऐसे स्थान है जहा पर उज्जैन इस प्रांत का ही नहीं; किंतु भारतीय इतिहास हजारों की संख्या मे मूर्तिया है। और लोगों ने पाखाना