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१५ अप्रैल ७३ को भगवान महावीर की जन्म-जयंती के अवसर पर सावर प्रकाशनार्थ : भगवान् महावीर की साधना-पद्धति
मुनि श्री महेन्द्रकुमार 'प्रथम' भगवान् महावीर राजकुमार थे। उनके लिए सभी दिन प्रस्तुत होते रहते थे । मारने-पीटने पर भी वे अपनी प्रकार के सुख-साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। ये समाधि मे लीन रहते । उनका अपने लिए उपयोग भी करते थे। तीस वर्ष की हार के नियम भी महावीर के बड़े कठिन थे। प्रवस्था तक वे भौतिक सुविधामो मे रहे। सहसा उन्होंने नीरोग होते हुए भी वे मिताहारी थे। रसों मे उन्हें प्रवज्या का निर्णय लिया। सभी प्रकार की सुविधाओं
प्रासक्ति न थी और न वे कभी रसयुक्त पदार्थों की को ठकराकर वे कटोर चर्या के लिए निकल पडे । उनकी
पाकाक्षा ही करते थे । भिक्षा मे रूखा सूखा, ठण्डा, वासी, प्रतिज्ञा थी, मै व्युत्सृष्ट काय होकर रहंगा अर्थात् शरीर
उडद, भात, मुंग, यवादि नोरस घान्य का जो भी को किसी भी प्रकार म सार-सम्भाल नहीं करूंगा। इसमे
पाहार मिलता, उसे बे शान्त भाव से और सन्तोषपूर्वक वे पूर्णतः सफल रहै ।
ग्रहण करते थे। एक बार निरन्तर पाठ महीनो तक बे दुरूह साधना
इन्ही चीजों पर रहे। पखवाड़े, माम और छ:-छः मास महाबीर ने जिस माघना-पद्धति का अवलम्बन लिया तक जल नही पीते थे। उपवास में भी विहार करते। था. वह अत्यन्त रोमाचक थी। वे अचेलक थे, तथापि ठडा बासी पाहार भी वे तीन-तीन, चार चार, पाच-पाच शीत से प्रसित होकर बाहयो को ममेटते न थे, अपितु दिन के अन्तर से करते थे। यथावत हाथ फैलाये ही विहार करते थे। शिशिर ऋतु शरीर के प्रति महावीर की निरीहता बडी रोमानक मे पवन जोर से फुफकार मारता, कडकडाती सर्दी हाती, थी। रोग उत्पन्न होने पर भी व पोषध-सेवन नही करते तबइतर साधु उससे बचने के लिए किसी गम स्थान की थे । विरेचन, वमन, तेल-मर्दन, स्नान और दन्त-प्रक्षालन खोज करते. वस्त्र लपेटते और नापस लकडिया जलाकर नही करते थे। ग्राराम के लिए पैर नही दबात थे । शीत दूर करने का प्रयत्न करन, परन्तु महावीर खुले आँखो में किरकिरी गिर जाती तो उसे भी वे नहीं निकास्थान में नगे बदन रहते और अपने बचाव की इच्छा भी लते । ऐसी परिस्थिति म अांव को भी ब नही खुजलाते। नहीं करते । वही पर स्थिर होकर ध्यान करते । नगे बदन वे कभी नीद नही लेते थे। उन्हे जब कभी नीद अधिक होने के कारण सर्दी-गर्मी के ही नहीं, पर, दश-मणक तथा सताती, वे शीत में महतं भर भ्रमण कर निद्रा दूर करते । अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के अनेक कष्ट भी वे भलते थे। वे प्रतिक्षण जागृत रह ध्यान व कायोत्सर्ग मे ही लीन
महावीर अपने निवाम के लिए भी निर्जन झोपडियो रहते । को चुनते, कभी धर्मशालाप्रो को, कभी प्रपा को, कभी हाट उत्कटक, गोदाहिका, वीरासन, प्रभात अनेक प्रामनों को, कभी लुहार की शाला को, कभी मालियो के घरो को, द्वारा महावीर निर्विकार ध्यान करते थे। शीत में वे कभी शहर को, कभी श्मशान को, कभी सूने घर को, कभी छाया में बैठकर ध्यान करते और ग्रीष्म में उत्कटक आदि वृक्ष की छाया को तो कभी पास की गजियो के समीपवर्ती कठोर आसनों के माध्यम से चिलचिलाती धूप में ध्यान स्थान को। इन स्थानो मे रहते हुए उन्हे नाना उपसर्गों करते । कोई उनकी स्तुति करता और कोई उन्हें दण्ड से से जूझना होता था। सर्प आदि विषले जन्तु और गीध तजित करता या वालो को खींचता या उन्हे नोंचता. वे प्रादि पक्षी उन्हें काट खाते थे । उहण्ड मनुष्य उन्हें नाना दोनों ही प्रवृत्तियो मे समचित्त रहते थे। महावीर इस यातनाए देते थे, गांव के रखवाले हथियारों से उन्हें प्रकार निर्विकार कषाय-रहिन, मूर्छा-रहित, निर्मल ध्यान पीटते थे और विषयातूर स्त्रियां काम-भोग के लिए उन्हें और प्रात्म-चिन्तन मे ही अपना समय बिताते । सताती थी। मनुष्य और तिर्यों के दारुण उपसर्गों और महावीर दीक्षित हुए, तब उनके शरीर पर नाना कर्कश-कठोर शब्दों के अनेक उपसर्ग उनके समक्ष माये प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों का विलेपन किया हुमा था। चार