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________________ २६२, वर्ष २५, कि.६ अनेकान्त का ही उल्लेख है। जीर्ण देव मन्दिर के प्रसंग में 'पारा- पादि का तथा नाटक के पूर्व रंग (४.४०) के साथ वत' शब्द विचारणीय है। गाथा है मण्डितनटी (१-६)लासनत्य (२-१४) एव तन्मयनृत्य का उपरि वरविषण्णु प्रणिलुक्क पारावाणं विरुएहि। भी उल्लेख है। भारतीय संगीत एवं नृत्य कला को णिस्थणइ जानवेधणं सूलाहिण्णं व देप्रउलं ॥ (१.६४) समृद्धि के अनुपात मे ये उल्लेख नगण्य है। संभवतः मांसइसका अर्थ किया गया है-'ऊपर के भाग में कुछ दिग्वाई लता प्रधान शृगार प्रमुखता के कारण ग्रन्थ मे लोकवाद्यों देते हुए लौहदण्ड वाले स्थान में छिपे हए कबतरो के एव लोकसगीत का प्रवेश नहीं हो पाया है। देशी रागकूजने से मन्दिर ऐसा प्रतीत होता है मानों शल गड रागनियो के प्रचार के पूर्व यह ग्रन्थ सुनिश्चित हो गया जाने के कारण पीडा होने से कराह रहा हो।" होगा, ऐसा प्रतीत होता है। ग्रन्थ में प्रयुक्त विभिन्न ऐसा प्रतीत होता है कि शृगार प्रधान ग्रन्थ होने के प्रकार के प्राभूषणों एव वस्त्रों के संदर्भ भी तात्कालीन कारण ऊपर प्राई गाथानों की तरह उक्त गाथा का अर्थ सास्कृतिक जीवन के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, भी जार के प्रति कामकी नायिका की उक्ति से जोड जिन सब का विवेचन यहा सभव नही है। दिया गया है कि ऐसे मन्दिर में सुरत का भणित कबूतरों ग्रन्थ की इस साँस्कृतिक सामग्री के अध्ययन से ज्ञात की पावाज में छिप जायेगा। किन्तु वस्तुतः मन्दिर के होता है, इस रचना की पृष्ठभूमि मे भारतीय सास्कृतिक ऊपर बोलने वाले कबूतर नही थे, संभवतः मन्दिर के विचारधारा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसे अकारण साथ बने हुए पारावत इतने सजीव निर्मित है कि उनसे शृगारिक नही बनाया गया, अपितु जीवन को प्रश्लीलता कबूतरो की आवाज निकलने का भ्रम होता था। भार- के शोधन के हेतु एव नगरजीवन के कृत्रिमता के तीय स्थापत्य मे पारावत के निर्माण की परम्परा अपना अाकर्षणमे कमी लाने के लिए ग्राम्य जीवन को प्रानन्दमय विशिष्ट स्थान रखती है, जिनका पूर्ण परिचय गुप्तकाल के चित्रित किया गया है। हिन्दी सतसईयों ने यद्यपि माध्यम स्थापत्य में प्राप्त होता है। महाकवि वाण ने शिवरों पर दूसरा चुना है, किन्तु उनका उद्देश्य भी मूलप्रवृत्तियों के पारावत माला की स्थिति का उल्लेख किया है शिखरेषु शोधन का रहा है । भारतीय संस्कृति को सुरक्षा के गाथा पारावत माला'-(कादम्बरी पृ० २७)। सतसई वाले इस शृगारिक उपाय को आगे चलकर भारगाथा सतसई मे इन सास्कृतिक सन्दों के अति- तीय कला ने भी अपनाया। खजुराहो, प्रजन्ता प्रादि की रिक्त प्राचीन वाद्यो मे दो मुह वाले मदग (३-५३), मिथुन मूर्तियाँ व्यक्ति को बाह्य आकर्षण से अवगत करा वीणा, (६.६०), बश (बांसुरी ६-५७), हाथो पर रख कर अन्तरात्मा के दर्शन की ओर प्रेरित करती है । गाथा कर बजाने वाला ढक्कन (६-२६) बध्यपटह (१-२६) सतसई ने संभोग से समाधि की ओर अग्रसित होने का २७. दृष्टव्य कादम्बरी : एक सास्कृतिक अध्ययन, मार्ग पहिले ही खोल दिया था, जिसकी व्याख्या प्राज तक पृ. ३६७ । साहित्य और कला के अनेक माध्यम करते पाये है।* २८. दृष्टव्य गाथा न०१-७५, २-७२, ३-११, ४.६८, २६. दृष्टव्य गाथा न० ३.३८, ३.४१, ६-२०, ६.४५, ७.२०, ६-६६, ५-२७, ७-५ प्रादि । मेंढकों की जान जाये बच्चों का खेल हिंसात्मक प्रवृत्तियों को सास्कृतिक कार्यक्रमों में सम्मिलित करना कभी श्लाघनीय नही माना जा सकता । "जैन सन्देश" भाग ४३ सख्या ४८ के मुखपृष्ट पर 'श्रमणोपासक" ५ मार्च के प्रक से उद्धृत एक घटना मे बतलाया गया है कि ग्वालियर नगर निगम द्वारा प्रायोजित अखिल भारतीय महावीर सम्मेलन के अन्तिम दिन के कार्यक्रम में एक स्थान पर भैसे के बच्चे को खडा करके चिड़ियाघर के एक जगरो से भूखे शेर को छोड़कर मनोविनोद का कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया है । यह घोर हिंसात्मक व निर्दयतापूर्ण कार्य है। अहिंसा प्रधान भारत देश मे यह सर्वथा निदनीय कार्य बन्द होने चाहिए। माज के प्रबुद्ध ससार में इस प्रकार के कार्यक्रम कभी भले कार्यक्रम नहीं कहे जा सकते । -सम्पादक
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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