SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा सप्तसती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि जिसका प्रयोग सम्भवतः ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद कला में इनका विविध प्रयोग हुमा है । गाथा सतसई की हमा है। सन्ध्या के साथ पार्वती का 'सौतभाव' भी इसके नायिका के केश अल्पकालीन पुरुषायित में मयूरपिच्छ पूर्व साहित्य व कला में प्रचलित नहीं था। तीसरी बात की भौति विखर गये । अर्थात् मस्तक के दोनों भोर इन गाथानों से यह ज्ञात होती है कि -अर्धनारीश्वर' की लहरायो हई केशराशि। कालिदास ने इन्हीं खुले बालों कल्पना साहित्य मे भले पहले से विद्यमान रही हो किन्तु को मेघदूत मे--'शिखिना बहभारेषु केशान्' (२.४१) उसका कलागत प्रयोग एव विशेष प्रचार शैव तथा शाक्त तथा दण्डी ने दशकुमार चरित में 'लीलामयूर बहमन्य' मतों के संमिश्रण के बाद ही हुप्रा है। यदि भारत के केशपाश च विधाय' कहा है। कला मे राजघाट के मिट्टी के विभिन्न स्थानों में प्राप्न 'अर्धनारीश्वर' प्रतिमानो का खिलौनों मे जो स्त्री मस्तक प्राप्त हुए हैं उनमें इस प्रकार सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो संभव है सन्ध्या के साथ की केशराशि अडित पायी जाती है, जिसे डा. वासुदेव गौरी के उक्त सौत भाब का अंकन भी किसी प्रतिमा मे शास्त्री अग्रवाल ने 'कुटिल पटिया नाम दिया है।" प्राप्त हो जाय । यद्यपि शिव को गगाघर मूर्ति मे जो 'धम्मिल्ल' के श रचना के लिए बहु प्रचलित शब्द एलीफेन्टा, इनौरा, काचो प्रादि स्थानो म प्राप्त है, गगा है। बालो का जूडा बनाकर उसे जब मालापों मे बांध की उपस्थिति से उमा का चेहरा मलिन अङ्कित किया दिया जाता था तो वह 'धम्मिल' कहलाता था। गाथा गया है ।" सभव है, सन्ध्या के साथ सौत भाव का सतसई में भी मदनोत्सव में प्रियतम के द्वारा खींचातानी विकास गंगा के साथ भी जुड़ गया हो। मे नायिका का 'घम्मिल्ल' छूट जाता है, फिर भी वह मूर्तिकला के अन्य प्रतीक : आकर्षक लगती है (६.४४) कालिदास ने इसे 'मोलि' गाथा सतसई में नायक-नायिकानों की जिन भाव. कहा है ।" अजता के कुछ चित्रों में स्त्री मस्तको पर इस भगिमानों का वर्णन हुया है, उनमें से अनेक उपमानों का प्रकार की केश रचना प्राप्त होती है। साम्प भारतीय मूर्तिकला में प्रयुक्त प्रतीकों से हैं। इस सुगंधित चिकामार' के संदर्भ मे नायिका के केशों दृष्टि से प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी की मूर्तिकला को को कामाग्नि के धूम, जादूगर की पिच्चिका (मोहणपिच्छि) नारी मूर्तियां गाया सतसई को नायिकानो के अगमौष्ठव तथा योविन को ध्वज मदृश कहा गया है । प्राचीन भारत प्रादि को प्रतिरूपित करती है। नायिकानों के स्तनों के मे केशो को विभिन्न मशालों व सुगन्धो से धूमिल करने लिए गजकुम्म, कलश, विल्वफल और रथाग के उपमान की परम्परा थी, किन्तु जादूगर की पिच्छिका और ध्वजा प्रस्तुत ग्रन्थ एव तत्कालीन मूर्तिकला मे समानरूप से के प्राकार वाली केशरचना का कोई अकन भारतीयकला ब्यबहन हुए है। इस समय की नगरी मतिया उत्तेजनामय में स्पष्ट रूप से प्राप्त नहीं है सभवतः खुन बालों की एव कामुक अकित की गयी है। संभवतः गाथा सतसई सुन्दरता के वर्णन के लिए ही कवि ने इन उपमानों का के शृंगारमय वर्णन का इनके अंकन के साथ कोई निकट प्रयाग किया है। 'सीमन्त' केशरचना का अर्थ मांग द्वारा का सम्बन्ध रहा है। विभाजित केशराशि से हैं। इस प्रकार केशविन्यास के भारतीय मूर्तिकला मे प्राप्त केशविन्यासों एवं गाथा प्रकारों के वर्णन से भी ज्ञात होता है कि गाथा सतसई सतसई में उल्लिखित केशरचनाप्रकारो में भी सिहिनिच्छ और भारतीय मूर्तिकला के मकन मे सम्बन्ध बना रहा है। लुलिस केशे (१-५२), धम्मिल्ल (६-४४) सुगन्धित चिकुर. स्थापत्यकला की दृष्टि से गाथा सतसई मे देवमंदिर भार (६।७२) तथा सोमन्त (७-८२) शब्दो का प्रयोग (१.६४)। सज्जाघर (२-७२) देवल, चत्वर, रथ्यामुख केशविन्याशो के लिए हुआ है। परवर्ती साहित्य एवं (२-६०), बाडलिया (७-२६) मादि ग्रामीण स्थापत्य २१. प्रा. भा. मैतिविज्ञाय, पृ० १२६ २४. रघुवंश १७-३ २२. वही पृ० ४७ २५. प्रौधकृत अजन्ता फ्लैट, ६५ २३. कला और संस्कृति, पृ० २८५ २६. गा० स० परमानन्द शास्त्री, पृ० ३२०
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy