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२६०, वर्ष २५, कि०६
अनेकान्त
बस्वाग्नि से प्राकाश को व्याप्त कर देने वाले 'गणाधि- अपितु चार भुजामों की जगह ८ भुजाएं भी निर्मित की पति' की जय हो । ५ इस गाथा का पौराणिक आख्यात गयी है। इन गाथाओं में विष्णु को हरि और 'मधुसूदन' के साथ सम्बन्ध है। जो सम्भवतः ४५वीं शताब्दी मे जैसे नामों से उल्लिखित करना भी विष्णु के २४ व्यूहों प्रसिद्ध हुमा होगा। इसका कला मे प्रकन प्रज्ञात है। की कल्पना के स्थिर होने का द्योतक हैं, जो गुप्तकाल में वामन रूप हरि :
हुई थी। इस ग्रन्थ मे विष्णु के वामन अवतार से सम्बन्धित समद्र-लक्ष्मी : तीन गाथाएं उपलब्ध है।" उनमे से द्वितीय एव तृतीय ग्रन्थ की एक गाथा के अनुसार-हलवाहे की लडकी गाथा का विष्णु की वामन अवतार मूर्तियो पर स्पष्ट माटा पुत जाने से इस तरह सफेद हो गई है, कि हलप्रभाव नजर पाता है। भारतीय मूर्तिकला मे विष्णु के
वाहे राहगीर दूध के समुद्र से निकली हुई लक्ष्मी के बामन अवतार की प्रतिमाएं दो तरह से निर्मित हुई है।
समान उसे टकटकी वाध कर देखते है ।" भारतीय कला ब्रह्मचारी एवं साधारण मनुष्य के रूप में तथा विराट में लक्ष्मी या श्री को दो पासनो मे प्रदर्शित किया गया है पुरुष के रूप मे । विराट पुरुष के रूप मे बामन अवतार (१) कमलासन पर बैठी हुई लक्ष्मी एव कमल पर खड़ी की प्रतिमा के तीन आकार प्राप्त होते है-(१) विराट- हुइ लक्ष्मा, जिस पर दो हाथो सूड मे पकड़ हुए घडा स पुरुष का बाया पर दाहिने घुटने के बराबर उठा हुमा,
जल धारा छोड़ रहे हैं। प्रस्तुत गाथा मे लक्ष्मी का (२) नाभी के समानान्तर फैला हुअा तथा (३) प्राकाश
तीसरा रूप बणित है। कला में इस समुद्र से निकलती मे ललाट के बराबर तक उठा हा । दक्षिण भारत में इस हुई लक्ष्मी का अंकन हुपा है अथवा नही, ज्ञात नहीं तीसरे प्रकार की वामन अवतारी प्रतिमा प्राप्त हई है। किन्तु साहित्य में यह अभिप्राय अधिक प्रयुक्त हमा है। गाथा शप्तशती की गाथा में भी कहा गया है कि हरि के अर्धनारीश्वर : उस तीसरे चरण को नमन करो जो भूतल मे न अटता । ग्रन्थ में शिव के द्वारा की गयी सन्ध्यावन्दना से हुमा देर तक आकाश में टिका रहा (५-११) आकाश में सम्बन्धित तीन गाथाएँ प्राप्त होती है (१-१, ५.४८, स्थित इस चरण और वामनमूर्ति के ललाट तक उत्थित ७-१००)। शिव का प्राधा शरीर पार्वती का होने के चरण में स्पष्ट साम्य प्रतीत होता है ।
कारण प्रादि और अन्त की गाथा मे उनकी प्रजलि के __तीसरी गाथा मे हरि का मधुमथन कहा गया है। जल मे पार्वती का कुपित मुख प्रतिविम्बित बतलाया यथा जैसे उन्होने प्रथम बामन रूप धारण कर बाद मे गया है। इमसे ऐसा लगता है मानों शिव कमन सहित विस्तृत होकर बलि को बाघा था वैसे हो नायिका के अजलि द्वारा सन्ध्योपासना कर रहे हों। पांचवें शतक स्तन प्रारम्भ में छोटे होते हुए बाद में विस्तृत होकर की ४८वी गाथा मे संध्योपासना के समय पार्वती अपना त्रिबलि तक फैल गये । १८ इस वर्णन का सम्बन्ध विष्णु वामहस्त अंजली से खींच लेती हैं, जिससे शिव का को वामन अवतारी विराटपुरुष मूर्ति से है। बादामो तथा दाहिना हाथ मानों 'कोषपान' के लिए उद्धत हो ऐसा महाबलि पुरुष की वामन प्रतिमाए इतनो विकसित हुई हैं प्रतीत होता है। यहाँ कविने पार्वती के लिए तीनों गाथानों कि न केवल उनके शरीर को विराट बनाया गया है, में 'गौरी' एव शकर के लिए क्रमशः 'पशुपति' 'प्रमथाधिप' १५. हेलाकरग्ग प्रदिप जलरिक्क सापरं पद्मासन्तो।
व 'हर' शब्द का प्रयोग किया है। इनमे 'पशुपति' शब्द जनइ प्रणिग्ग प्रवडवग्गि भरिप्रगगणोगणाहिवई ॥५-३
देव सम्प्रदाय के इतिहास में विशेष महत्व रखता है, १६.५-६, ५.११, ५-२५ ।।
१९. पेच्छन्ति प्रणिमिसच्छा पहिमा हलिपस्स पिट्टपण्डरिम १७. प्रा० भा० मू०, पृ.१००।
घूमं दुद्धसमुददुत्तरन्तलच्छिं विन सम्रहा ॥ ४-८८ १८. पढम वामणविहिणा पच्छा हु कमो विधम्ममाणेण। २०. सझासमए जलपूरि अंजलि विहडिएक्कवामपर ।
थणजुमलेण इमीए महमहणेण व बलिबन्धो॥५-२५ गौरीम कोसपाणुज्जमं व पमहादिवं णमइ॥ ५-४०