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गाथा सप्तसती की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
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गौरी (१-१), विष्णु-लक्ष्मी (२-५१), नगरगृह देवता उपयोग के रूप में हुमा है । एक वृद्धा अपने बुढ़ापे को (२-६४), सूर्य प्रतिमा (१.१, १-३४, ४-३२), गणपति कोसती हुई कहती है-"युवक सुरत के समय गणपति (४.७२), गणाधिपति (५-३), वामनरूप हरि (५-६, की जिस प्रतिमा को मेरे सिर के नीचे रख लिया करते ५-११, ५-२५), समुद्र लक्ष्मी (४.८८), अर्धनारीश्वर थे, उसी को अब मे प्रणाम करती हूँ।" दुष्ट वृद्धावस्थे, (५-४८), त्रिनेत्रधारी शिव (५.५५), अपर्णा (५-६७) अब तो तुम्हे सन्नोष है"। प्रादि देव मूर्तियो के सबंध मे सकेत प्राप्त होते है। देव प्रतिमानों का दुरुपयोग किस-किस प्रकार से यद्यपि इनमे से अधिकांश घार्मिक एव पौराणिक कथा हुपा है यह एक अलग प्रश्न है । भग्नावशेषो के खोजी प्रसगो के रूप में प्रयुक्त किये गये है, किन्तु इनकी विद्वान इससे अपरिचित नहीं है। किन्तु गणेश प्रतिमा प्रतिमाओं के संबंध में भी कुछ प्रकाश पडता है, मूर्तियो के इतिहास की दृष्टि से यह उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण के कुछ स्वरूप विचारणीय है।
है। कला मे गणेश का प्रारम्भ लगभग गुप्तकाल के बाद सूर्य प्रतिमा
हुप्रा है। वृहत्साहिता के प्रतितमा लवण अध्याय मे गणेश गाथा सप्तसती में सूर्य पूजा से सबघित तीन प्रसग की मूर्ति का वर्णन डा. भण्डारकर के अनुसार क्षेपक प्राप्त हैं। प्रथम में पशुपति गौरी के साथ अजलि के जल सदश है। गणेश की प्रतिमा पुराणों में वर्णित ध्यान के द्वारा सूय नमन करते है। (१.१) दूसरे में सूर्य के रथ प्राधार पर कला में बनना प्रारम्भ हुई है। अत: गाथा के ध्वज की छाया से नायिका के मुख की कान्ति की सप्तसती के उक्त उल्लेख से गणेश की प्रतिमानो की तुलना की गई है। (१-३४) तथा तीसरे प्रसग मे सूर्य प्रचुरता एवं निर्जन स्थानों में उनकी स्थापना का सकेत देवता की अंजलि बाँधकर प्रणाम करने के बहाने अपने मिलता है। इस प्राधार पर ग्रन्थ की यह गाथा ६.७वी प्रिय को प्रणाम करने की बात कही गई है। इन शताब्दी के बाद सग्रहीत की गई प्रतीत होती है। इससे उल्लेखो से सूर्य पूजा के प्रचलन का ज्ञान तो होता है, पूर्व की गणेश प्रतिमाए प्राप्त नहीं हुई है। गणेश की किन्तु सूर्य की प्रतिमा के स्वरूप के सबंध में कुछ नहीं एकाकिन् मूर्ति मथुरा तथा मितरगांव से प्राप्त हुई है। कहा गया। सूर्य के रथ के उल्लेख से इतना स्पष्ट होता इस गाथा में 'गणवई' का पाटान्तर 'वहजणो' है कि कला में सूर्य प्रतिभा और रथ का घनिष्ठ सम्बन्ध 'वडणको', 'वडणति' भी प्राप्त होता है। इनके अनुसार रहा है । भारतवर्ष में सूर्य प्रतिमा ई०पू० दूसरी शताब्दी वटवृक्ष मे बनी यक्ष की मूर्ति या वटवृक्ष को ही उपाधान से उपलब्ध हुई है। कुषाणपुरा मे सूर्य प्रतिमा को चार बना लिया गया होगा। कला में 'वटयक्ष' अथवा यक्ष घोड़ो वाले रथ पर बैठा दिखलाया हैं। बोधगया की मूर्तियों का अस्तित्व अधिक प्राचीन है। अतः गाथा वेदिका पर भी सूर्य की प्राकृति रथ एव घोड़ों सहित सप्तसती के रचनाकाल प्रथम शताब्दी की दृष्टि से 'गणवई' अंकित हुई है। अतः सूर्य प्रतिमा की पूजा का प्रचार के इन पाठान्तरों को यदि स्वीकारा जाय तो कोई असगाथा सप्तसती के रचनाकाल तक अवश्य हो गया था। गति प्रतीत नहीं होगी। किन्तु 'गणवई' का गणश की सम्भवतः ग्रन्थकार भी सूर्यपूजक था, जिसने प्रथम गाथा प्रतिमा प्रर्थ लेना ही अधिक ठीक है। मे ही इसके महत्त्व को अकित किया है।
गणेश का दूसरा नाम ग्रन्थ मे 'गणाधिपति' प्रयुक्त गणपति
हमा है यथा 'समुद्र के जल को खेल-खेल में सूड के अग्रगणपति की प्रतिमा का उल्लेख ग्रन्थ में एक विशेष भाग से खींच कर प्रकाशित करने वाले एवं निग्रहरहित १०. सूरच्छलेण पुत्तम कस्स तुम भञ्जलिं पणामेसि । १२. जो सीसम्मि बिइण्णो मज्म जुमाहिं गणवई मासी।
हासकडवखुम्मिस्सा ण हान्ति देवाणं जेक्कारा ।४.३२ तबिन एलि पणमामि हमजरे होहि संतुद्रा ।४-७२ ११. प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान, डा. वासुदेव १३. प्रा. भा. म. वि., पृ. १६४ उपाध्याय, पृ० १५८-५६ ।
१४. हिन्दी गाथा सप्तसती, पाठफ, पृ. २०७