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________________ २१८, वर्ष २५, कि०६ अनेकान्त पुष्टि गाथा सप्तसती के उपर्युक्त राम-लक्ष्मण वाले करते है। रेखाचित्र द्वारा स्त्री-पुरुषों की प्राकृतियों के भित्तिचित्र के उल्लेख से होती है । भित्ति चित्रकला की प्रकन का उल्लेख चित्रकला की उस प्रक्रिया का उद्घा. विषयवस्तु के इस विस्तार का प्रभाव उत्तरकालीन साहित्य टक है, जो कलाकार द्वारा चित्र में रंग भरने के पूर्व एव कला पर भी पड़ा है। भवभूति के 'उत्तर रामचरित' खाका खीचा जाता है, जिसे चित्रकला की शब्दावली में नाटक मे सीता द्वारा राम कथा के चित्रों का वर्णन करना कहा जाता है। इस बात का उदाहरण है । सयोग की बात यह कि दोनों प्राचीन भारतीय चित्रकला के सम्बन्ध में गाथा प्रसंगो में राम कथा के चित्र दर्शन द्वारा मन को परिव. सप्तसती की यह गाथा और अधिक प्रकाश डालती है ;नित करने का प्रयत्न किया गया है। जंज पुलएमि दिस पुरजो लिहिन व्व दोससे तत्तो। ___ नायक के प्रवास के दिनों मे नायिका द्वारा भित्ति तुह पडिमापडिवाडि वहइ व्व सग्रल दिसा प्रक्क ।६-३० पर अंकित की जाने वालो रेखाए मात्र साहित्यिक अभि- 'पडिमापडिबाडि' शब्द किसी भी नायक के प्रतिरूप प्राय नहीं है। उनका कलात्मक महत्व भी है । प्राधे दिन की अनेक पक्तियों का द्योतक है, जो प्रत्येक दिशा मे में ही भीत को अवधि चिन्हो से यो ही नही भर दिया प्रतिबिंबित हो रही थी चित्रकला के इतिहास में यह गया होगा बल्कि गाथा में प्रयुक्त चित्तलियों' शब्द से ज्ञात स्थिति दो माध्यमों से पा सकती है। प्रथम, यदि चित्रहोता है कि नायिका ने भीत शीघ्र न भर जाय इस डर कला मे जिस भित्ति पर चित्राकन हुआ है उसके सामने से सावधानी पूर्वक एक कतार में रेखाएँ चित्रित की एव छत की दीवाल को विशेष मसाले द्वारा अधिक होंगी, जिससे उन्हें गिना भी जा सके । सम्भवतः भित्ति चिकना कर पारदर्शी बना दिया जाय तो स्वयमेव चित्रित चित्रो में जमीन के खाली स्थान को भरने में जिन रेखा- भित्ति के दृश्य इन पर प्रतिबिंबित होने लगेगे । भारतीय त्मक तरहों (डिजाइनों) का प्रयोग हुआ है, वे इन चित्रकारों के इस प्रकार के कलाकोशल का प्रथम उल्लेख अवधिसुचक रेखाओं से विकसित हुई हो । गाथा सप्तसती 'गाथाधम्म कहा' की कथा मे मिलता है। गाथा सप्तसती की इन अनपढ नायिकामों से 'मेघदूत' की यक्षिणी को को इस गाथा के समय तक निश्चित रूप से इस कला का श्री जोगलेकर ने अधिक सुशिक्षित और उत्तरकालीन और विकास हा होगा। सभव है, ग्राम्य जीवन में भी माना है क्योंकि वह देहली पर फल रख-रखकर अवधि इस प्रकार का माध्यम प्रर्चालत हो चुका था, जिससे के दिनों की गणना करने में सक्षम है। किन्तु माध्यम , चित्र प्रतिबिंबित किये जा सकते थे। चित्रो को प्रतिबिके परिवर्तन मात्र से 'मेघदूत' का प्रसंग उत्तरकालीन बित करने का दूसरा माध्यम दर्पण था। चित्र कक्ष मे नहीं कहा जा सकता है। बहुन सम्भव है कि रेखायो चारो और छोटे-छोटे दर्पण के टकड़ जड़ दिये जाते थे, एव फलों के द्वारा अवधि गणना का अभिप्राय किसी एक जिनमें चित्रों के साथ दर्शक के भी अनेक प्रतिबिंब परिही स्रोत से विकसित हुअा हा, जो लोक मे अधिक प्रच. लक्षित होते थे । मध्यकाल मे चित्रकला के इस माध्यम लित रहा होगा। का अधिक प्रचार हुआ । उदयपुर के महल में दर्पण कला चित्रकला के उपयुक्त सदों से यह भी स्पष्ट होता मे गाथासप्तसती की उक्त गाथा साकार हो उठती है। है कि भित्तिचित्रों के दश्य अधिक यथार्थ होन थे तथा गाथा सप्तसती में प्राप्त मूर्तिकला सबधो सदों अनुकूल लेप एव पक्के रगो के प्रयोग के कारण देश-काल की दो दृष्टि से व्याख्या की जा सकती है। प्राचीन भारका व्यवधान होने पर भी विकृत नही होत थे। यह तीय मूर्तिकला की प्रसिद्ध देव मूर्तियो के स्वरूप वर्णन स्थिति अजन्ता कालोन चित्रो के साथ ही हो सकती है। की दृष्टि से तथा ग्रन्थ में वणित नायक-नायिकानों की बहुरंगी तूलिकानों, फलक, वर्ण एवं अंकन क्रम आदि के विशेष भावभगिमाओं का भी मूर्तिकला की भंगिमानों के उल्लेख चित्रकला के विकसित युग को प्रोर ही संकेत साथ तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से । ग्रंथ मे पशुपति८. मेघदूत, २.२७ । ६. ज्ञाताधर्मकथा, ५-७८ ।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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