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२५, कि.
अनेकान्त
मास से भी अधिक भ्रमर भादि जन्तु उनके शरीर पर गर्मी प्रादि शरीर की अनिवार्य प्रावश्यकतामों पर विजय मडराते रहे, उनके मांस को नोचते रहे और रक्त को पीते पाना होता है । इन सबका सम्बन्ध है प्राण-वायु से । शरीर रहे। महावीर ने तितिक्षाभाव की पराकाष्ठा कर दी। में पांच प्रकार की वायु होती है । प्राण-वायु उनमें उत्कृष्ट उन जन्तुमों को मारना तो दूर, उन्हें हटाने की भी वे है और उसका सम्बन्ध मन की सूक्ष्म क्रियामो के साथ इच्छा नहीं करते थे।
है। यही वायु स्नायुयों की प्राण-शक्ति को प्रत्येक कार्य ___महावीर ने इस प्रकार की शारीरिक कृच्छ साधना में उबुद्ध, प्रेरित तथा क्रियाशील करती है। किन्तु एक पर इतना बल क्यो दिया तथा शरीर के स्वभावों पर प्रक्रिया ऐसी होती है, जिसके द्वारा क्रियाशीलता को ये विजयी हए, जबकि सामान्यत: कोई भी व्यक्ति शरीर उद्बोध में बदला जा सकता है। जब वह इस प्रकार के धर्मों को अवगणना नही कर सकता? ये दो प्रश्न ही परिवतित हो जाती है, शारीरिक अपेक्षामो की पूर्ति न महावीर की साधना-पद्धति की विभिन्न भूमिकामों पर हान
होने पर भी व्यथा की अनुभूति नही होती। फिर देह प्रकाश डालते हैं।
होता है, किन्तु देहाध्यास नहीं होता। महावीर ने इसी
प्रक्रिया का प्रारम्भ किया था मोर वे इसके द्वारा शरीर. कष्ट साध्य साषना क्यों ?
विजय में पूर्णतः सफल हुए। शरीर उनके अधीन रहा, ___ सभी अध्यात्मवादियों का दृढ़ विश्वास है कि प्रात्मा वे शरीर के अधीन नहीं रहे। शरीर रूप बन्धन में प्राबद्ध है। चेतन पर जड़ का यह एक प्रवाह चलता है। उसे यदि बदला नहीं जाता अवतरण इतना सधन हो गया है कि सस्कार विकार मे है, तो जो होता प्राया है, वही भविष्य में होता रहेगा। बदल गये हैं और चेतन की क्रिया विकारो को सबल करने उसे बदलने के लिए जितना श्रम अपेक्षित होता है, उससे में प्रयुक्त होने लगी है। साधना चैतन्य और जड़ की इस प्रधिक मार्गान्तरण के चयन मे सजगता अपेक्षित होती दुरभिसंधि को समाप्त करने की क्रिया का प्रारम्भ करती है। महावीर जब प्रवजित हुए, चालू प्रवाह को बदलने है। उसकी पहली व्यूह-रचना शरीर के साथ होती है। की उस प्रक्रिया को ही उन्होने अपना लक्ष्य बनाया और शरीर के द्वारा मात्माके होने वाले संचालन को रोकने उसमें सफल भी हुए । यही कारण है कि उन तपश्चरण के लिए उपक्रम प्रारम्भ होता है और सारा नियन्त्रण में भी वे कभी म्लान नहीं हुए। मात्मा के केन्द्र से उद्भूत होने लगता है। ऐसी स्थिति में
शरीर-विज्ञान के अनुसार भी जब-जब रक्त की गति मनिवार्यतया अपेक्षा हो जाती है, कुछ साधना की । एक में वेग और गति-मन्दता माती है, तब-तब सम्बन्धित बार उससे छटपटाहट अवश्य होती है, क्योंकि जन्मजन्मा- अन्य अवयव प्रभावित होते हैं और किसी विकार का न्तरों से लगा हुमा अनुबन्ध ट्टना प्रारम्भ होता है । किन्तु
प्रारम्भ हो जाता है। यह विकार रोग के रूप में भी ऐसा हुए बिना जड़ चेतन का पृथक्करण भी नहीं हो
व्यक्त होता है पोर इन्द्रियज उद्वेग, मावेश, मह प्रादि के सकता।
रूप में भी प्रगट होता है। प्राण-वायु का जागरण तथा अन्य प्राण-वायु पर विजय
चार प्रकार की वायुषों की श्लथता रक्त की सम स्थिति बुर कष्टसाध्य साधना से विचलित हो गये। उन्हें को उजागर करती है। यही से शरीर से सम्बन्धितनाना अपने मार्ग को भी बदलना पड़ा। महाबीर अपने निर्धा- अनुभूतियां गौण हो जाती हैं और स्व०-केन्द्रिता जागरूक। रित क्रम में सफल होते गये। उन्हें मार्गान्तरण की भाव. महावीर इस प्रक्रिया में भारम्भ से ही निष्णात थे, इसी. श्यकता नहीं हुई। दोनों का एक ही उद्देश्य था। फिर लिए कष्ट साध्य साधना मे उन्हें कष्टों की अनुभूति नहीं इतना अन्तर क्यों हमा? इस प्रश्न का उत्तर पाने के होती थी। वे जनता को भी इसका ही प्रशिक्षण देते थे। लिए कुछ यौगिक क्रियानो की गहराई में उतरना माव- मानसिक उद्वेगों के इस वर्तमान युग मे प्राण-यायु पर श्यक होगा। साधक को सबसे पहले भूख-प्यास, सर्दी- विजय पाने की इस प्रक्रिया की प्रत्यन्त मावश्यकता है।