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दान की महिमा संकलनकर्ता : मथुरादास जेन एम. ए., साहित्याचार्य
नीतिकारों ने धन तथा विद्या दोनो में विद्या की हम सब जानते है कि जब मनुष्य जन्मता है अपने उच्च पद पर स्थापित करने के लिए यह दलील दी है कि माथ कुछ भी नही लाता तथा जब मरता है तब भी अपने विद्या देने से बढ़ती है और धन देने से घटता है। विद्या माथ कुछ भी नही ले जाता । लेकिन यथार्थ में बात ऐसी का धन की अपेक्षा उच्च स्थान पाना ठीक ही है क्योकि नही है एक व्यक्ति धनी परिवार या राजघराने मे जन्म लेता विद्या प्रति ज्ञान प्रात्मा को निजी बस्तु है और धन तो है और जन्म से ही अपार लक्ष्मी का स्वामो बन जाता है जड़ वस्तु है लेकिन फिर भी धन का महत्त्व कम नही है दूसरा एक अति दरिद्र परिवार में जन्म लेता है जहाँ उसे क्योकि नीतिकार ही ग्रागे धन की महिमा को बढ़ाते हुए शरीर धारण की प्रारम्भिक सुविधाये भी नहीं मिलती। कहते है कि:
इमसे यही प्रतीत होता है कि मनुष्य अपने साथ कामण विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्, शरीर के रूप मे पुण्य व पाप का पिण्ड लेकर पाता है पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनात्धम ततः सुखम् । और उसके परिणामस्वरूप सुख दु.ख पाता है यदि हम
इम नीति वचन मे बतलाया है कि विद्या मनुष्य में अपनी करोड़ों रुपयों की सम्पदा को अपने साथ परभव विनय गुण लाती है विनयी होने से मनुष्य मे पात्रता में ले जाना चाहते है तो हमे यहाँ प्राप्त अपने द्रव्य का (योग्यता) पाती है और पात्र होने से मनुष्य धन प्राप्त सदुपयोग करना न भूलना चाहिए। करता है धन से धर्म करते हुए मुख को पाता है इस सुपात्र या श्रेष्ठ कार्यों में खर्च किया धन हमारे लिए प्रकार धन को सुख का समीपीकरण बताया गया है। अग्रिम जन्म का पेइङ्ग ड्राफ्ट बन जाता है। दान के
यदि हम सही रूप से विचार तो जैसे विद्या देन महत्त्व को प्रदर्शित करने के लिए यहाँ कुछ नीति के से बढ़ती है धन भी देने से बढ़ता है। यदि हम घन को इलोक दिये जाते है । पाठक इनसे कुछ शिक्षा लेगे। थंण्ठ पात्र को देते है या श्रेष्ठ कार्य में लगाते है ता जप
अनुकले विधी देयं यतः पूरयिता विधिः। किमान जमीन मे एक दाना बोकर बदन मे अनेक दाने पा लेता है। उसी तरह सत्यात्र को दिये गये धन से प्रतिकूले विधौ देयं यतः सर्व हरिष्यति ॥२॥ अजित पुण्य अनेक गुणे धन को प्राप्त कराने का निमित्त 'यदि भाग्य अनुकूल है-शभ कर्म के उदय से लाभ बनता है। तत्त्वार्थ मूत्र में प्राचार्य प्रबर उमास्वामो जी ही लाभ हो रहा है-तब दान देना ही चाहिए; क्योकि ने दान के स्वरूप का वर्णन करते हुए बनाया है कि जो कुछ दिया जायगा उमकी पूर्ति भाग्योदय स्वयं कर "अनुग्रहार्थं स्वस्या तिसर्गो दानम्" अर्थात् परोपकार बुद्धि देगा, कोई कमी नहीं रहेगी। और यदि भाग्य प्रतिकून से अपने धन का दूसरे को ममत्वहित देना दान कहाता है प्रशभ कर्म के उदय मे व्यापारादि मे हानि ही हानि है । यह दान दाता. पात्र द्रव्य और विधि को विशेषतामों हो रही है-तब भी दान देना ही चाहिए, क्योकि न से विशेष रूप को धारण करता है दाना (देनेवाला), पात्र देने पर वह घन-सम्पत्ति टहरेगी तो नही, ऋद्ध हुअा विधि (लेने बाला), द्रव्य (वस्तु) और विधि देने का तरीका (भाग्य) उसे भी हर ले जायगा। प्रत: उसके चले जाने जितने प्रशस्त होते हैं दान भी उतना ही अधिक प्रशस्त से पहले दान देना हो श्रेष्ठ है-जो दिया जायगा वह फलदायी माना जाता है।
परलोक मे साथ जायगा।'