SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ बर्ष २५, कि.६ अनेकात बोधयन्ते न याचन्ते भिक्षाचारा: गहे गहे। हाथ से उठाकर देते हैं, प्राज्ञा-पादेश या हुक्म के द्वारा दीयतां दीयतां नित्यमदातुः फलमीदशम् ॥२॥ देते हैं, संकेत करके देते है अथवा दान-पत्रादि के रूप में 'घर-घर में जो ये भिखमगे मांगते फिरते हैं वे, सच पूछा लिख लिखाकर देते हैं। परन्तु कृपण ऐसा महान् दानी है चाय तो, मांगते नहीं बल्कि हमे यह शिक्षा दे रहे अथवा जो यह सब कुछ भी न करके बिना छए अथवा विना इच्छा के ही अपनी सारी घन-सम्मति दूसरों को दे जाता बोधपाठ पढ़ा रहे हैं कि 'दो-दो, न देने का फल यो !' -हमने पूर्व जन्म में दान नही दिया, उसी का यह फल है जो हम घर-घर भीख मांगते फिरते हैं।' एक दूसरे कवि महानुभाव दातार को कृपण और कृपण को दातार बनाते हुए एक दूसरे ही ढंग का व्यंग यो न ददाति न भुक्ते सति विभवे नैव तस्य तद्रव्यम् करते हैं । वे लिखते हैं :तृणमय-कृत्रिम-पुरुषो रक्षति शस्यं परस्यार्थम ।।३।। दातारं कृपणं मन्ये मतोऽप्यर्थ न मचति । ___ 'जो मनुष्य अपनी सम्पत्ति को न तो दान में देता है अदाता हि धनत्यागो धनं हित्वा हि गच्छति ।। पौर न अपने भोगोपभोग में ही लगाता है वह वास्तव में उस सम्पत्ति का मालिक ही नही है, वह तो उस घास 'मैं तो दातार को कृपण समझता हूँ; क्योंकि वह फूम के बने मादमी के समान है जिसे किसान लोग बना मर जाने पर भी धन को नहीं छोडता-उमे अपने साथ कर खेत में खड़ा कर देते है और जो खेत को न तो खुद ले जाता है, दान की हुई लक्ष्मी उसे परलोक में अनेक गुणी होकर मिल जाती है । दान न करने वाला कृपण ही, खाता है न खाने देता है किन्तु किसी तीसरे के लिए सच पूछा जाय तो, दानी है; क्योकि वह धन को सच. उसकी रक्षा करता रहता है। ऐसे कोरे रखवाले ही कृपण मुच छोडकर ही चला जाता है-परलोक मे उसका कुछ कहलाते हैं। भी प्रश साथ नहीं ले जाता, वहाँ वह प्रायः खाली हाथ एक कवि महाशय ऐसे कृपणों की स्तुति में व्यंग करते भिखारी बनकर रहता है।' हुए लिखते हैं :कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति। दान से जहां कृपणता की मलिनता दूर होती है वही सत्कीतिका उपार्जन भी होता हैं। इसी से कीर्ति को अस्पशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति ॥४॥ त्याग को, दान की अनुसारिणी ('कीर्तिस्त्यागाऽनुसारिणी') 'कृपण के समान दाता न तो कोई हमा और न होगा; कहा है। इस कीति का कभी कोई दूसरा मालिक या क्योंकि जितने भी दातार है वे या तो किसी को स्वयं उत्तराधिकारी नही होता: सुधार के लिए निवेदन श्री माननीय देवराज जी उर्स मुख्य मन्त्री मंसर सरकार ने अपने भाषण में मांस भक्षण के लिए प्रेरणाप्रद जो वाक्य कहे हैं वे यदि किसी साधारण व्यक्ति द्वारा कहे गये होते तो इतने क्षोभकारी न होते । भारतीय संस्कृति के संरक्षण के महान पद पर प्रतिष्ठित होकर श्री उर्स जो के लिए अहिंसा के महान उपासक महात्मा गांधी बी के प्रादर्श पर चलने वाली राज्य प्रणाली के नायक के रूप में इस प्रकार से हिंसा का पोषण करना यथार्थ में प्रशोभनीय कार्य है । हम थी उस जी से निवेदन करेंगे कि वे भारतीय संस्कृति की महत्ता को दृष्टि में रखते हुए हिंसा को प्रोत्साहन देने वाला उपदेश न दें। इनके इस प्रकार के उपदेश से जैन समाज तथा निरामिष माहासे जनता की मान्यता को गहरी ठेस पहुंची है।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy