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चाणक्य
परमानन्द जैन शास्त्री
चाणक्य-गोलविषयान्तर्गत चणय नामक प्राम मे स्वभावत: ससार के प्रति विरक्त और मन्तोषी था । जैन उत्पन्न हुप्रा था। उसके पिता का नाम चणो या चणय साधनो की वाणी सुनकर उसे बहा दुख हुअा। वह था और माता का नाम था चणश्वरी । ये दोनों ही जन्म धर्मात्मा था और वैभव को पाप समभता था। अतः से श्रावक थे, और जैन धर्म का अनुष्ठान करते थे। उसने बच्चे के दाँत उखाड डाले। इस पर उन साधुनों चाणक्य का नाम विष्णुगुप्त था। प्राचार्य हेमचन्द्र ने ने भविष्यवाणी की, कि अब यह बालक स्वय गजा न हो प्रभिधान चिन्तामणि मे चाणक्य के पाठ नाम दिये है। सकेगा; किन्तु अन्य व्यक्ति के सहयोग से राज्य करेगा । वात्स्यायन, मल्लिनाग, कुटिल (कौटिल्य), चाणक्य, श्रन्य को राजा बनायेगा। परन्तु वास्तविक राज्य सत्ता पालीभाषा मे 'चणक्क' पोर प्राकृत माण मे चाणक्क उसके ही हाथ मे रहेगी। योग्य वय होने पर उसने तक्षहोता है, द्वामिल, पक्षिलस्वामी, विष्णुगुप्त और अंगुल'। शिला तथा उसके निकटवर्ती स्थानो में रहने वाले रहों की विसत्थप्पकासिनी' के अनुसार चाणक्य तक्ष. प्राचार्यों के निकट चौदह विद्यानो की शिक्षा प्राप्त की। शिला का निवासी था। यद्यपि चाणक्य का पिता जन्म वह छह प्रग चतुरानुयोग, दर्शन, न्याय, पुराण, धर्मसे ब्राह्मण था, किन्तु वह जैनधर्म का अनुयायी था। जिस शास्त्र और निमित्त प्रादि सभी विद्यानो मे पारगत हो ममय चाणक्य का जन्म हुमा उसके मुख में पूर्ण विकसित गया। और यशोमनि नाम की एक श्यामा सुन्दरी से दन्तपक्ति देख कर सब लागो को अाश्चर्य हुआ। किन्तु उसका विवाह हो गया। और वह ब्राह्मणोचित शिक्षक जब जैन साधु उसके पित्रालय मे पाये। तब उसके पिता -
वृत्ति से दरिद्रता के साथ जीवन व्यतीत करने लगा। ने उनसे पूछा, तब उन्होने बतलाया कि ये दात राजत्व
एक बार उसकी स्त्री अपने भाई के विवाह में अपने के बोधक है। किसी दिन यह चाणक्य राजा बनेगा।
मायके चली गई। विवाह में उसकी अन्य विवाहिता चाणक्य का पिता जैनधर्म का पालक था। अतः वह
बहनें भी पाई थी। समागत बहनो ने उसकी दीन अव१. बात्स्यायनो मल्लिनाग: कुटिलश्चणकात्मजः । स्था को देख कर उसकी निर्घनता का उपहास किया। द्रामिन: पक्षिन स्वामो विष्णु गुप्तोऽङगुलश्चस: ।।५१७ जिसमे वह बड़ी दुखी हुई, और रोती हुई अपने घर
-अभिधान चिन्तामणि पृ० २११ आई। उसने सारा वृत्तान्त चाणक्य से कहा। उसी दिन २. "चाणक्केति, गोल्लविसये, चणयग्गामो, तत्थ चणि तो से चाणक्य ने धनोपार्जन करने का निश्चय किया। और
माहणो, सो अवगय सावगो तस्स घेर साहू ठिया, वह घूमता घामता पाटलिपुत्र पहुँचा। वहां उसे ज्ञात पुत्तो से जातो सह दाठाहि, साहूण पाएसु पाडितो, हुमा कि नन्द राजा ने एक दानशाला खोल रक्खी है। कहियं च, साहू हि भणिय-राया भविस्सह, ततो महा पद्मनन्द विद्वानों का बडा प्रादर करता था। मोर मा दुग्गति जाहितीति दन्ता घंसिया पुणो वि पायरि- उन्हें दानादि से सन्तुष्ट भी करता था। चाणक्य वहाँ याणा कहियं, भणति कज्जउ एताहे विवंतरियो गया और उसने राजसभा के समस्त विद्वानों को शास्त्रार्थ राया भविस्सह अम्मुक बालभावेण चोद्दस वि, में परास्त कर दिया, मोर संघ ब्राह्मण का पद प्राप्त विज्जाठाणाणि प्रागमियाणि सोत्थ सावगो संतृट्ठो।" किया तथा वह दानशाला के प्रयासन पर जा बैठा।
-प्रावश्यक चूणि भा० ३, पृ० ५३७ किन्तु उसकी कुरूपता, अभिमानी प्रकृति मौर उरत