________________
२२, वर्ष २५, कि. १
अनेकान्त
मे मनष्य को चित्र-विचित्र प्रतिच्छाया का प्रकट होना मदिवादिता में सर चटाया। उस जमाने के शिल्प में मुख हमारे शिल्पज्ञो के लिए माज भी एक समस्या बनी चित्र तण नवकाशी की अधिकता थी। चित्रमख शीघ्र
ही समाप्त हो गये। बेल गांव मे तीन प्राचीन मन्दिर हैं। उनमे एक
राजा जनक चोल राजा कट्टर शैव थे। फिर भी उनके समय के वैष्णव मन्दिर है, शेष दोनो जैन बसादया है । जैनबसदियों सुन्दर वैष्णव जैन व बौद्ध विग्रह भी प्राप्त हैं । नक्काशी में एक उत्तराभिमुख है तो दूसरी दक्षिणाभिमुख है। में बेल-बूटे, पशु पक्षी, सगीतकार, नाट्य, कलाकार, सेना इनमे पहली बसदि मूख्य है। मुखमण्डल के खम्भे गोल व वनतंकों की मण्डली तथा पौराणिक दश्यावली दिखाई चिकने हैं। बंकापुर मे किले के दक्षिण में '६३ खम्भों
देती हैं। परन्तु जैन मन्दिरों में पौराणिक दृश्य नहीं के का मन्दिर' नामक इमारत है। यह मूलतः जैन बसदि
बराबर हैं । शिल्पियों का जैन पुराणों से अपरिचित होना है। प्राचार्य गुण भद्र यही पर अपना उत्तर पुराण लिख
इसका कारण रहा होगा। कर्नाटक साहित्य के विकास चुके थे। किसी समय में यह जैनधम क। न्द्र था । यहाँ
में भी ब्राह्मण, जैन तथा वीर शैव इन तीनों पन्थों के लोगों
ने योगदान दिया है। पर पांच महाविद्यालय थे। तब यहाँ पर पाजतसन जैसे दिग्गज विद्वान रहते थे। महाकवि रन्न न प्रारम्भिक
कर्नाटक मे जैनधर्म बहुत समय तक उन्नतावस्था में था।
बादामी के चालुक्य तथा मलखेड के राष्ट्रकूटों के समय शिक्षा यही पर पाई थी। लोकादित्य ने अपन पिता
मे जैनधर्म अत्यन्त प्रबल था। कर्नाटक के मोर भी व केय के नाम पर यह राजधानी बनाई थी। यह बड़ा
अनेक राजानो ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया था। प्रतः हम सुन्दर नगर था।
कर्नाटक के सभी भागों में जैन बसदियां पा सकते हैं। घारवाड जिले मे गदग से ७ मील दूर स्थित लक्कुड़ि
श्रवणबेलगोल, मनेयूरु, होम्बुज, मुडुबिदरे, कार्कल, पहले 'लोक्किगुंडि' थी। यहाँ दो जैन वसदियों एवं काशी
वेलुर प्रादि जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ स्थान हैं । कोप्पण अथवा विश्वेश्वर तथा नन्नेश्वर नामक दो मन्दिर है। यह
__कोप्पल भी किसी समय में जैनो का पुण्य क्षेत्र था। होयसल राजा वीर बल्लाल की राजधानी थी। जैन
श्रवणबेलगोल की चालुक्य बसदि मत्यन्त मुख्य है । बसदि पर गोपरमा है। बाकी मन्दिरों पर गोपुरम नहीं
शिलालेखों से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण १०वीं है। दानचितामणि प्रतिमब्वे ने जैन बसदि बनाई थी।
शताब्दी में हुमा है। यह भी द्राविड़ शैली की इमारत उन्होंने अनेक जिनालय भी निर्मित किये थे। यह जैन
है। वहां की 'मक्कन वसदि' कर्नाटक शैली की बनी है। बसदि इस बात का दृष्टान्त है कि प्राचीन चालुक्य शिल्प
ज्ञात होता है कि द्वितीय बल्लालराय के मन्त्री चन्द्रमौनी शैली होयसल के रूप में परिवर्तित हो गई थी। मन्दिर
की पत्नी प्रचियक्का से इसका निर्माण हुअा था । श्रवणकी दीवारों के बाहरी भाग में, मण्डप के खम्भों पर
बेलगोल में कर्नाटक शैली की यही एक इमारत है । अन्य प्रतिमा विधान की कारीगरी प्रत्यन्त सुन्दर बन पड़ी है।
सब द्राविड़ शैली की हैं। गर्भगृह में पार्श्वनाथ की मूर्ति वहाँ पर चित्रित पशुभों की पंक्तियां, पकि संकुल, पेड़
है। ड्योढी में घरणेन्द्र व पपावती की मूर्तियां प्रामनेपौधे बड मच्छ बने हैं। ई० सन् ७०० में पत्थर की पूर्ण ।
सामने हैं। दालान के मध्य के चार खम्भे काले पत्थर से मतियां बनाने की पद्धति व मन्दिर निर्माण की वास्तु
सुन्दर बने है। उनके ऊपर की छतें भी लगभग तीन शैली प्रयोग में लाई गई। इन इमारतों की दीवारों पर।
फीट गहरी व सुन्दर हैं। अन्य छतें भी इसी प्रकार की हम बहुत से चित्र देख सकते हैं। ई. सन् ६-१०वी
हैं। खम्भे चिकने हैं व हलेबीड़ के पार्श्वनाथ बसदि के
पाने शताब्दी मे सम्पूर्ण दक्षिण भारत में यह पद्धति जारी थी। खम्भों के समान चमकते हैं। मुखमण्डल के बाहरी भाग ग्यारहवी बारहवी शताब्दियां दक्षिण भारत की वास्तु- मे चबूतरा व उसके पीछे रेलिंग है। मन्दिर की दीवार कला का स्वर्ण युग थी। प्रारम्भिक दिनो में शिल्प मे के बाहरी भाग में छोटे-छोटे गोमुख हैं। वसदि का गोपुकोमा व कान्ति की भरमार भी। पर जाते-जाते उसमें रम भी सुन्दर है।