________________
कर्नाटक के जन मन्दिर
२३
प्रवणबेलगोल के उत्तर में एक मील पर जिननाथपुर भटकल किसी समय बड़ा नगर था। यह एक तीर्थ नामक ग्राम है। पता लगता है कि विष्णुवर्धन के सेना- स्थान भी रहा होगा । यहाँ पनेक मन्दिर हैं। मन्दिर के पति गंगराज ने ई. सन् १९१७ में इसको स्थापित किया बाहर के अन्दर नक्काशी का काम प्रशंसनीय है। यहा था। यहां कर्नाटक शैली की बसदि है जिसमे उसने पर जैन राणी चेन्न, चेन्नथेरादेवी राज करती थी। तब शान्तिनाथ की मर्ति स्थापित की थी। मति के दोनो यह एक जैन केन्द्र था। इस समय यहां जैनों की संख्या पाश्वों में चामर पारिणियां हैं। प्रक्कन बसदि के समान भी अधिक थी। प्राजकल नवायत कहलाने वाले मुसल. ही दालान के खम्भे बड़े सुन्दर बने है । मन्दिर के बाहरी मान पहले जैन थे। भटकल के अतिरिक्त हाडहल्लि दीवार पर जिन मूर्तियां, यक्ष-यक्षिणियां ब्रह्मा, सरस्वती, (संगीतपुर), सोदे (सुधापुर), गेरुसोप्पे (भल्लातकी. मन्यथ, मोहिनी, संगीतकार की मूर्तिया खदी हुई है। पुर), वनवासी (वनवास), बलिगी (श्वेतपुर) प्रादि भी कलचुर्यो के सेनापति बमुधक बान्धव रेचिय्यया ने इस एक जमाने में जैन केन्द्र थे । उपरोक्त जैन राणी गेरुसोप्पे बसदि का निर्माण किया था। यह द्वितीय बल्लाल के मे भी राज करती थी। उस समय यह दक्षिण कन्नड प्राश्रय मे भी था। विद्वानो का मत है कि ई० सन् १२०० याने तुलनाडु के अन्तर्गत था। हाडहल्लि तथा गेरुसोप्पे मे इस वसदि का निर्माण हुप्रा था।
की शिल्पकला भी देखने योग्य है। वनवासी सातवाहनो कहा जाता है कि विष्णुवर्धन के जैनधर्म त्यागकर
के समय में ही अर्थात् कदम्बो के पहले ही जैनधर्म का बनने के बात पता केन्द्र थी। जैनागम प्रथमतः यही पर ग्रन्थस्थ हुमा । निचले भागों में जा बसे । उसके बाद ही प्रति १२वी कन्नड के प्रादि कवि पम्प ने वनवासी की खुब प्रशसा सदी से शायद इस प्रदेश में पत्थर के मन्दिरो का निर्माण की है। प्रारम्भ हुमा। यहाँ की बसदिया बाहर से देखने पर एक जमाने मे तुलनाडु मे जैन धर्म अत्यधिक फैला प्रलकार हीन दिखाई देती है, पर अन्दरूनी भाग की शिल्प था। परिणामस्वरूप जैनो मे हमे चतुर्मख नामक नये सुन्दरता विविधतापूर्ण है तथा घाटी के ऊपर के भागो प्रकार के मन्दिर दिखाई देते है । इनमे गर्भगृह की लबाई, की शिल्पकला से पीछे नही है । वहा के तटीय प्रदेश भर चौड़ाई तथा ऊचाई समान होती है एव मन्दिर में जैनधर्म लम्बे अर्से तक उन्नतावस्था मे था। प्राकार का रहता है। इसके चारों और दरवाजे होते
कार्कल, वेल्नगडि उडुपि तथा उप्पिनगडि तालुके मे है । ये मन्दिर हमे समवसरण की शोभा का स्मरण दिलाते अभी भी जैन वसदियाँ हैं। इनमें मूडूविदरे बड़ा प्रसिद्ध है। समवसरण केवल जैनो मे है। है। यहां १६ बसदिया है। इनमे चन्द्रनाथ' प्रथवा विजयनगर के समय मे मन्दिरो के अनेक मुन्दर त्रिभुवनतिलक चूडामणि बसदि प्रमुख है । बसदि मन्दर मण्डप बन गये। शिल्पियों ने उनमें अपनी कुशलता से बडी विस्तृत है। खम्भे प्रादि बडे सुन्दर व वैविध्य- दिखाई। मन्दिर के खम्भे अधिकाधिक प्रलंकारमय होने पूर्ण हैं। एक के पीछे एक तीन दालान हैं, उनके पीछे लगे । मविदरे की 'त्रिभुवन तिलक चढ़ामणि' बसदि के गर्भगृह भी है। भगृह मे तीथंकर की मूर्ति है । यहाँ के खम्भे इसके उदाहरण है। इसी प्रकार काल की चतुदालानों को तीर्थकर मण्डप, गहिगे मण्डप (सिंहासन मख बसदि की बाहरी दीवारो पर हम अनेक पशु-पक्षी, मण्डप) तथा चित्र मण्डप कहा जाता है। विजयनगर के बेल-बूटे व अनेक प्रकार के फल-फूलो की नक्काशी देख राजा देवराज प्रोडेय की माज्ञा से ई. सन् १४३० में सकते है। इस बसदि का निर्माण किया गया था। इसके अगले भाग खम्भे अनेक प्रकार के है। उदाहरण के लिए जैन में ५० फीट ऊँचा एक सुन्दर मानस्तम्भ है जिसे भैरव बसदियों के सामने के मानस्तम्भ व ब्रह्मस्तम्भ तथा राजाको राणी मागलदेवी ने बनवाया था। मटकल मे वैदिक मन्दिरों के सामने के गरुडस्तम्भ एवं ध्वजस्तम्भ भी ऐसी ही इमारत हैं। . . .
है। इसी प्रकार, जयस्तम्भ अथवा दीपस्तम्भ है। जैन