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पनागर के भग्नावशेष
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नन्दीश्वर द्वीप मन्दिर में तथा हरिसिंग सिंघई के चाहते है। अच्छा होगा कि समस्त जैन अवशेषों को मन्दिर में प्रतिमानों पर क्रमशः देवेन्द्र भूषण तथा नरेन्द्र- समाज अपने अधिकार मे लेकर उन्हें सुरक्षित स्थानों में भूषण के नाम मिलते हैं जिन्हें क्रमशः सम्बत् १८५३ और रखे जिससे कि उन्हें कोई क्षति न पहुँचे। १८७५ से सम्बद्ध बताया गया है।
तालाब पर निर्मित मन्दिरों का जीर्णोद्धार हो और प्रतिमाओं पर अकित भट्टारकों के नामो से ऐसा ज्ञात वर्ष में सामूहिक रूप से एक-दो बार वहाँ समाज अवश्य होता है कि ये चरण उन्ही भट्टारको के है जिन्हें उनकी जाकर पूजनादि करे। मन्दिरो को कॅटीले तार से घेर भक्ति से प्रेरित होकर उनके श्रद्धालुप्रों ने निर्मित कराया देना भी आवश्यक है ताकि मन्दिरो के निकट कोई होगा।
शौचादि न करे और स्वच्छता बनी रहे । भ० महावीर नगर की प्राचीनता
की २५००वी जयन्ती की स्मृति में इन कार्यों को कराने प्राप्त अवशेषों से ऐसा ज्ञात होता है कि १२वीं
के लिए समाज प्रार्थनीय है। १३वी शती के पास-पास यह स्थान जैन सस्कृति का केन्द्र रहा है। यहाँ के जैन वंभव सम्पन्न, धर्म प्रेमी रहे
नगर मे सचालित जैन पत्रीशाला मे प्रजन प्राचार्य ज्ञात होते है।
का रहना, सस्था की प्रगति तथा जैनाचार व्यवस्था के वर्तमान में क्या हो ?
लिए अवरोध प्रतीत होता है। प्राशा है कि अविलम्ब वर्तमान मे समाज की धार्मिक प्रवृत्तियाँ उनकी समाज इम और भी अपना ध्यानाकर्षित कर अधिक से प्राचीनता की परिचायक है। ये अवशेष अपनी मूक अधिक जन पाठिकानो को सेवा करने का अवसर प्रदान वाणी से समाज का ध्यान अपनी प्रोर केन्द्रित करना करेगी।
अज्ञात कवि हरिचंद का काव्यत्व
डा. गंगाराम गर्ग
मध्य युग में अनेक जैन कवियो ने चरितग्रन्थो के
गिरनार पंपाज मची होरी ॥टेर अतिरिक्त पर्याप्त पद, सवैये और दोहे लिखे है; किन्तु नेम जिन द अनुभव जल माही, तप सुरंग केसर घोरी। इनके फुटकर रूप में मिलने से यह निश्चित कर सकना पंच समति पिचकारी भरि, निज हित कारण सिव पं छोरी। अभी कठिन है कि किस कवि की छद सख्या कितनी है ? पंच महावत गुपति प्ररगजा, ज्ञान गलाल भरी झोरी। अज्ञात कवि हरिचंद के २० पद और २८ सर्वये ही प्राप्त वंश वृष सोलह कारण मेवा, तीहू जग मांहि बढ़ायो री। हुए है। किन्तु उनकी काव्य-गरिमा मोर भाषा-प्रवाह से प्रेसी होरी मचाय जिनेश्वर, 'चंद' अर्ष निषि पायोरी। उनकी रचनाएं अधिक होने के सकेत मिलते है ।
'जिन चौवीसी की स्तुति' में सवैया, अडिल्ल, दोहा रचनायें-हरिचंद की रचनाए पडित भवरलाल जी अादि ३० छद है। प्रमुख छद सवैया ही है। चौवीसों पोल्याका के सौजन्य से पाटोदी मन्दिर जयपुर में प्राप्त तीर्थड्गे की सविनय स्तुति करते समय भक्त हरिचद हुई। पाटोदी मन्दिर में प्राप्त एक गुटके में इनकी तीन का ध्यान तीर्थड्रों का गुण-वर्णन मे अधिक रमा है। रचनाएं संगृहीत हैं-१. पद, २. जिन चौवीसी की स्तुति, अनन्त गुण-धारी भगवान महावीर के प्रति कवि की ३. वीनती। हरिचद की प्रथम रचना 'पद' में भक्ति- वदना' दृष्टव्य हैपरक, विरहात्मक, नीतिपरक तथा प्राध्यात्मिक चारों ही थी जिन वीर नमो महाधीर, तू ही महावीर सदा सुखदाई। प्रकार के पद मिलते है। धानतराय, बुधजन, पार्वदास वद्धमान सुसन्मति नाम कह, सुभ पच सुरासुर ध्याई । मादि प्रमुख जैन कवियों के समान हरिचंद की भी राजित हो गुण अनंत घरे, तुम ही जिन केवलज्ञान उपाई। माध्यात्मिक होली बड़ी काव्यात्मक है :
नासि प्रघाति भये सिव रूप, नमैं पद 'चंद' सबै तुष जाई।