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१००, वर्ष २५, कि०३
अनेकान्त
'वीनती' रचना में कवि का उद्देश्य चौवीसों तीर्थ- पाय पडूं मैं करूं जी वीनती, दूरों की विनय-भाव से वीनती करना है। हरिचद की।
तुमरी सरण हू नाहिं मान के । 'विनतियो' में अपने पाराध्य के प्रति विनम्र याचना सर्वत्र हो जिन स्वामी चंद' नमामी, दृष्टिगोचर होती है :
यो सिव वसुविधि नाश ठानि के। अभिनंदन परज सुणो मेरीटेक।
___ जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित 'दशधा भक्ति' मे से तुम करमन को नाश कीयो है, मोकू नहीं छोरे बेरो। तीर्थकर भक्ति के अतिरिक्त श्रत भक्ति', 'तीर्थ भक्ति' आठौं मिलि मोय घेरि लियो है,ज्यौं रवि प्रभ्र पटल घरी। na
| एव प्राचार्य भक्ति' का स्वरूप भी हरिचद के पदों मे चह गति मैं या बसि दुष पायो, ज्यौं पावक लोहा संग केरी।
विद्यमान है । उन्होने कई पदो में जिनवाणी को निर्विकार प्रथम उपारण विरद निहारी तारचौ 'चंद' सरण तोरी।
अनक्ष', सुग्यकारी, सर टहरण तथा स्व-पर-तत्व का ज्ञान भक्ति :-हरिचंद की सभी रचनापो का मूल स्वर
कराने वाली कह कर उसके प्रति श्रद्धा व्यक्त की हैभक्ति है । अपनी रचनाओं में सभी तीर्थडुरों का स्मरण
नमन करूं में श्री जिनवाणी, स्व पर तत्त्व दरसावण जानी। करने पर भी कवि का भक्तिभाव तीर्थकर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के प्रति अधिक है। प्रभु का
श्री जिन मुष अंबज त निकसो, निविकार अनप्रक्षर जानी। गुणगान, स्वदोषों का निरूपण, अनन्यता मादि दास्यभावी
सप्त धातुमल रहित अनौपम, भक्त की विशेषताएं हरिचद मे विद्यमान है। आराध्य
श्री गणराज हिये निज प्राणी। का गुणगान करते समय वह उनके पठारह दोषो व राग
संसै तिमर हरण सुषकारी,
गुण अनत की बानि बषाणी। द्वेप के प्रभाव के अतिरिक्त उनकी दयालुना और उ.द्वार
सुरपति निज थल माहि उचार । प्रवृत्ति का स्मरण भी करते है :
ध्यान कर श्री मनियर ज्ञानी । वीर सिनेश्वर पाय मक्त के कारण ।
जन्म मरण प्राताप हरण घन, दोष अठारह रहित हो जी, प्रभु छियालीस गुण धार ।
भवि जन मन पंकज रवि ध्यानी । चौतीसौ प्रतिसं धणी सजि, जै जै भव दुष हार ।
मात तुही बहु जीव उघारे, चद नमैं दीज्यों सिवर्गणी। समव सरण जत तूमल सौजि प्रभु, नख दुति भान लजाय ।
हरिचद ने भक्त के पवित्र प्राचरण पर बडा बल प्रथम उधारण विरद तिहारो, नम सीस निज नाय ।
दिया है। वह क्रोध को इतना भयक र मानते है कि तीन लोक फिर मैं लजि प्रभु, तुम सम वेव न कोय ।
उसकी विद्यमानता मे साधक का तप, जप, सयम, ध्यान राग द्वेष कर सहित सवै है, या ते पूजू तोप ।
ज्ञान, पूजा और सामायिक सभी निष्फल हो जाता हैतुम ही तारण तिरण हो जि प्रभू, जगपति दीनदयाल ।
तप जप सजम ध्यान ज्ञान अरु पूजा दान सामाई । भव प्राताप मिटाय जिनेश्वर 'चंद' नम निज भाल।।
जार्क हिरवं क्रोधानल है करणी निरफल जाई । हरिचद जिनेन्द्र के अनन्य भक्त है । वह ३ वल उन्ही
हरिचद की दृष्टि में किसी के मन को दुःख पहुचाने के चरणों की सेवा करते है तथा प्रष्ट द्रव्य से उन्ही का
वाले वचन न कहना मोक्ष प्राप्त कराने का महत्वपूर्ण पूजन करते हैं। जिनेन्द्र की शरण प्राप्त कर उन्ही से।
साधन हैमोक्ष की याचना भी करते है।
जो बच सुणि निज मन दुष पावै सो पर कू ने कहानी। तुम प्रभु दोनदयाल कहावो, कोज्यो कृपा मोपं दीन जानि काटेर।।
कोटि बात की बात यही है चंद' प्रर्ष निधि पानी। पुण्य उदै श्रावग कुल पाया,
उक्न विवेचन के प्राघार पर हरिचद जैन भक्ति कोन्हीं सेव तुम चरण प्रानि के। काव्य परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी प्रतीत होते हैं। उन प्रष्ट दरव ले पूर्जी निस दिन,
जैसे प्रज्ञात कवियों की रचनामों के शीघ्र प्रकाशन की देहू सुमति प्रभु कुमति हानि के । मोर ध्यान दिया जाना प्रावश्यक है।