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कुभारिया के संभवनाथ मंदिर को जैन देवियां
मारुतिनंदन प्रसाद तिवारी शोधछात्र उत्तरी गुजरात के वनासकांठा जिले में कुभारिया के रूपमे पैल का प्रदर्शन) का चित्रण भनेकशः प्राप्त होता स्थित सभी पांच जैन मंदिर, जो क्रमशः सम्भवनाथ, है। देवतापों में प्रष्ट-दिग्पालों और गणेश (नेमिनाथ शांतिनाथ, नेमिनाथ और महावीर को समर्पित और भंदिर के पश्चिमी अधिष्ठान पर उत्कीर्ण चतुर्भुज, श्वेताम्बर सम्प्रदाय से संबंधित है, ११वी शती ईसवी से गज मस्तक युक्त नागयज्ञोपत्रीत, प्रासन के समक्ष मूषकः १३वीं शती ईमबी के मध्य निमित हए हैं। कुम्भारिया भुजानो मे निचले दाहिने से घडी के क्रम में हाथीदांत स्थित समस्त जैन मंदिरों का स्थापत्य गत विशेषतानो व (tusk), परश, सनालपदम, मोदक पात्र) का चित्रण भित्तियों, स्तम्भों, छतों पर उत्कीर्ण अलंकरणो, देव उल्लेखनीय है । अन्य प्रमुख चित्रणों में ऋपभनाथ, चित्रणों व तीर्थकरों के जीवन काल से सबंधित कुछ शांतिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ व महावीर प्रादि तीर्थ कगे प्रमुख दृश्यों के प्राधार पर जैन शिल्प व स्थापत्य के के जीवनकाल की प्रमुख घटनापों (केवल शातिनाथ मोर मध्ययन में विशिष्ट स्थान होने के संदर्भ मे भी महत्वपुर्ण महावीर मदिरों की छतो पर) व २४ तीर्थ करों के मातास्थान है। १३वी शती मे निमित सम्भवनाथ मदिर चा पिता का कही सिर्फ मातायों का) का पैनेल में प्रकन मोर दीवार से घिरा है और कुम्भारिया के अन्य चार पाता है। जैन देवी-देवतापो के प्रकन में प्रतिमाशास्त्री मदिरों के विपरीत इसमे देवकुलिकाग्रो का प्रभाव है। प्रथों के निर्देशों का निर्वाह सबघिन देवों के कारी हाथों उत्तर की तरफ भव किये सम्भवनाथ मंदिर गर्भगृह, के प्रमुख प्रायवों व बाहन तक ही सीमिन, और निचली दो अन्तराल, दो और प्रोगागे (Porcher) से युक्त गूढ मडा भुनानों मे कलाकार ने इच्छानुगार मुद्रा (वरद या अभय) व सामने प्रोसारे से युक्त सभामंडप से युक्त है। प्रस्तुत पोर फल (मालिग) या कलश पशित किया है। लेख मे हम मंदिर को बाह्य भित्ति पौर द्वारो पर उत्कीर्ण सम्भवनाथ मन्दिर के गढ मण्डप और मूल प्रासाद मतियो का अध्ययन करेंगे। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत की बाह्य भित्तियाँ रथिनामो से स्थापित तीर्थ दुरो और लेख की सामग्री मेरे शोध कार्य के सदर्भ में गुजरात और देवियों का चित्रण करती है। यह प्राकृतियाँ मन्दिर के राजस्थान के देखे गये कुछ प्रमुख जैन मंदिरों की मूतियों जंघा व अधिष्ठान (कुम्भी) दोनो पर ही उत्कीर्ण है। के विस्तृत अध्ययन पर पाघारित है।
मूल प्रासाद के तीन पोर की दीवारों के मध्य की रथियहां इस बात का उल्लेख करना अप्रासगिक न होगा कानों में स्थापित तीर्थदर प्रतिमायो का सम्प्रति केवल कि कुम्भारिया के जैन शिल्प मे देवियो मे १६ विद्या. सिंहासन व परिकर ही प्रवशिष्ट प्रोर मलनाया की देवियों, उनमे भी रोहिणी, चक्रेश्वरी (प्रप्रति चेक्रा), प्राकृति सभी में गायब है। विवरण मे समान तीनो महाकाली, काली पुरुषदत्ता वैगेटया अच्छुप्ता, सर्वास्त्र मतियों मे सिंहासन के मध्य मे चतुज देवी को प्रासीन महाज्वाला मोर महामानसी, को विशेष लोकप्रियता प्राप्त प्रदर्शित किया गया है (शान्ति देवं). जिनकी ऊपरी थी। जैन शासन देवतामो मे यथा सर्वानुभूति और यक्षी दोनों भुजामों में पप और निचली दाहिनी व बायी में मम्बिका को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी पोर इन्हे ही क्रमशः वरद व फल प्रदर्शित है। मध्यवर्ती देवी क्रमशः लगलग सभी तीर्थकरो के यक्ष-यक्षी के अतिरिक्त गोमुख, दोनों मोर दो गज और सिंह (सिंहासन का प्रतीक) ब्रह्मशांति मोर घरणेन्द्र यक्षों, और चक्रेश्वरी निर्वाणी प्राकृतियों से वेष्टित है। देवी के नीचे उत्कीर्ण धर्मचक्र व पद्मावती यक्षियो का भी प्रकन प्राप्त होता है। अन्य के दोनों पाश्वों मे दो मग प्राकृतियाँ अवस्थित है। यक्षदेवियों मे लक्ष्मी, सरस्वती व एक ऐसी देवी जिनका यक्षी के रूप में चतुर्भुज सर्वानुभति (वरद, प्रकुश, पाश, उल्लेख प्रतिमानिरूपण संबन्धी ग्रंथो मे अप्राप्य है (ऊपरी धन का थैला (रुपया) पौर निर्वाण (वरद, पद्म, फल) भुजानों में त्रिशूल व सर्प धारण किये व कभी-कभी वाहन को सिहासन के दोनो कोनो पर प्रासीन प्रदर्शित किया