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गया है। दो नामरधारी सेवकों से वेष्टित मध्यवर्ती जिन प्राकृति के शीर्ष भाग में कलश व हाथ जोड़े एक मानव भाकृति से युक्त त्रिछत्र उत्कीर्ण है । ऊपरी परिकर के प्रत्येक भाग में एक उड्डायमान मालाघर, नृत्यरत प्राकृति ओर (सूंड में कलश लिए राजको मूर्तिगत किया गया है । त्रिछत्र के दोनों पात्रों में नगाड़ा लिए देवी सगीतज्ञो को प्रदर्शित किया गया है।
अनेकान्त
त्रिशूल की भाँति निर्मित है) चित्रित है और निपली भुजाओं में उसी क्रम में वरद और प्रभय मुद्रा प्रदर्शित है । सभी सामान्य श्रलकरणों से युक्त देवी के वाहन का अकन यहाँ अनुपलब्ध है ।
महाकाली के समीप ही चतुर्भुज रोहिणी ( पहली विद्या देवी) की प्रतिभग मुद्रा में खड़ी प्राकृति उत्कीर्ण है देवी की ऊपरी दाहिनी व वाम भुजाओं में क्रमशः बाण और धनुष स्थित है; जबकि निचली भुजानों में उसी क्रम में वरद मुद्रा और कमण्डलु प्रदर्शित । दाहिनी पार्श्व में उत्कीर्ण देवी के वाहन का स्वरूप काफी अस्पष्ट है, फिर भी ग्रयो के निर्देशों के अनुरूप उसे गाय का चित्रण होना चाहिए ।
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गूढ़ मण्डप की पूर्वी भित्ति की जघा पर प्रतिभग मुद्रा में खड़ी चतुर्भुज वज्राकुश (चौथी विद्या देवी ) की मूर्ति उत्कीर्ण है । पद्मामन पर स्थित देवी की ऊपरी दाहिनी व बायी भुजाग्री मे क्रमशः प्रकुश व वज्र प्रद शित है; जबकि निचनं । भुजाम्रो में क्रमशः वरद मुद्रा और कलश देवी के वाम पाश्व में उसके वाहन गज को उत्कीर्ण किया गया है। देवी रीवा मे हारों, स्तनहार, चोली, पैरो तक प्रसारित घांनी, घुटनो तक प्रसा रित माला, कर्णफूल, पायजेब, बाजूबन्द श्रादि श्राभूषणों से सुसज्जित है। देवी के दोनों पाइयों में दो सेविकाएं अवस्थित है, जिनको एक भुजा में स्कन्ध के ऊपर स्थित चामर प्रदर्शित है और दूमरी भुजा कटि पर आराम कर रही है। विवरणों मे समान बचाया की एक अन्य खड़ी मूर्ति मूल प्रासाद के पश्चिमी भित्ति की जा पर उत्कीर्ण है, जिसमे देवी ने उपर्युक्त मृर्ति के विपरीत अपनी वाम भुजा में कलश के स्थान पर फल धारण किया है। उल्लेखनीय है कि पाश्चन वामपारी वि कामो को इस उदाहरण मे नही उत्कीर्ण किया गया है। वज्रांकुशा का एक अन्य चित्रण मन्दिर के पूर्वी अधिष्ठान पर देखा जा सकता है, जिसमे चतुर्भुज देवी ललितासन मुद्रा में रही है। देवी ने उपर्युक्त मूर्तियों के विपरीत वज्र व अकुश क्रमशः दाहिनी व बायी भुजाओ मे धारण किया है और निपली दाहिनी व बाबी भुजाओं में क्रमशः वरद मुद्रा और फल प्रदर्शित है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अधिष्ठान की छोटी माकृतियों (१५-३X६-४" में देवियों को अधिकाशतः उत्कीर्ण नहीं किया गया है।
मूल प्रासाद के पूर्वी भित्ति की जंघा पर महाकाली (घाटवी महाविद्या) की प्रति भंग मुद्रा में खड़ी चतुर्भुज श्राकृति उत्कीर्ण है। देवी की ऊपरी दाहिनी व वायी भुजामों में क्रमशः वज्र और घण्ट (जिसका ऊपरी भाग
मूल प्रसाद के दक्षिणी भित्ति की जंघा पर उत्कीर्ण चतुर्भुज चक्रेश्वरी (पांचवी विद्या देवी) की प्रतिभङ्ग मुद्रा मे खड़ी मूर्ति की विशेषता अन्य प्राभूषणों के साथ किरीट मुकुट से सुशोभित होना है। देवो ने ऊपरी दोनों भुजाओं में चक्र धारण किया है, और सरस्वती निचली दाहिनी भुजा से वरद मुद्रा प्रदर्शित करती है. किन्तु वाम भुजा की वस्तु प्रस्पष्ट है। दोनों ओर दो स्त्री चामरधारी सेविकाओं से वेष्टित देवी के वाम पार्श्व मे मानव रूप में हाथ जोड़े गरुड़ की प्राकृति उत्कीर्ण है । समान विवरणों वाला चक्रेश्वरी का एक अंकन पश्चिमी भित्ति की जंघा पर देखा जा सकता है। इसमे देवी की निचली वाम भुजा में शख चित्रित है। गरुड़ का प्रकन पूर्ववत् है पर चामरधारी सेविकाओं का नहीं उत्कीर्ण किया गया है । एक अन्य समान विवरणों वाली मूर्ति जिसमें देवी की निचली वाम भुजा खण्डित है । पश्चिमी अधिष्ठान पर देखी जा सकती है। किरीट मुकुट से प्रलंकृत देवी को मानव रूप मे प्रदर्शित गरुड़ पर ललितासन मुद्रा में प्रासीन प्रदर्शित किया गया है । यहां यह उल्लेखनीय है कि चक्रेश्वरी या प्रतिषका विद्या देवी, जिसे कि प्रतिमा लाक्षणिक ग्रन्थों मे चारों भुजानों में चक्र धारण किए उत्कीर्ण किए जाने का विधान है, को जैन शिल्प में मात्र राजस्थान के प्रोसिया और धणेरा स्थित महावीर मंदिरों व कुछ अन्य उदाहरणों को छोड़ कर (जिनमें अप्रति चत्रा की चारों भुजाओंों में चक्र स्थित