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१६६, वर्ष २५, कि०४
भनेकान्त
है। इसमें प्रसुखादुःखावेदना, स्मृति-उपेक्षा-समाधि. -तृतीय ध्यान का सुख प्रथम-द्वितीय ध्यान के सुख से पारिशुद्धि ये चार चित्तवृत्तियाँ होती हैं।
नवीन सुख है और द्रव्यांतर भी है-"तृतीये ध्याने सुखं
द्रव्यन्तर मुच्यते ।"" सौत्रान्तिक-ऐसा क्यों ? वैभाषिक उपरोक्त ध्यानों में से प्रथम ध्यान को छोड़कर
-प्रथम दो ध्यानों का सुख प्रश्रब्धि सुख है-"प्रथब्धि द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ ध्यान की चित्तवृत्तियों पर
सुखमाद्ययोः।" वह प्रश्रब्धि मय है । और तृतीय ध्यान "अभिषम्मत्थसंग्गहो" कार प्राचार्य मनुरुद्ध का मतभेद है। प्रथम तो वे ध्यानों में पांच ही चित्तवृत्तियाँ मानते हैं
का सुख सुखावेदना है-यस्मात्तद्वंदनासुखं ।"" क्योकि जो हैं-वितर्क, विचार, प्रीति, सुख मोर एकाग्रता।
उक्त दो ध्यानों मे कायिक सुख नही होता-'न हि तत्तयो दूसरे वे एक पांचवां ध्यान भी मानते हैं । जैसे- उपरोक्त ।
कायिक सुख युज्यते समापन्नस्य कायाभावात् ।" अर्थात्
जिस सत्त्व में जो ध्यान समापन्न होता है उसमे पचेन्द्रिय पांचों चित्त वृत्तियों वाला प्रथम ध्यान है. इसमें साधक अपने शरीर को विवेक से उत्पन्न प्रीति से भिगोता है,
विज्ञानों का प्रभाव होता है। अत: इन ध्यानों का सुख चारों ओर व्याप्त करता है जिससे उसके शरीर का कोई
चैतसिक सुख नहीं है क्योंकि इन ध्यानों में प्रीति होती है भी भाग इस प्रीति सुख से प्रव्याप्त नहीं रहता । विचार,
और प्रीति सौमनस्य है-'प्रीतिहि सौमनस्यम्" परस्पर में प्रीति, सुख और एकाग्रता वाला दूसरा ध्यान है इसमें
प्रीति और सुख का साहचर्य भाव भी नही है भोर एक के श्रद्धा की प्रबलता और प्रीति, सुख और एकाग्रता की
बाद दूसरा होता है यह भी मानना अनुचित है क्योंकि प्रधानता रहती है। यह ध्यान गह्वर जलाशय की तरह है
प्रथम ध्यान के पांच अग है और दूसरे के चार ही। जिसके भीतरी स्रोत होता है जो विना वर्षाके पानी से भी
दूसरे सौत्रान्तिक वितर्क, विचार, समाधि और एका
गता तथा अध्यात्म सम्प्रसाद को एक दूसरे से भिन्न नहीं अपने को परिपूर्ण मधुर जल से अोतप्रोत रखता है। चित्त
मानते । इस पर वैभाषिक उनसे पूछते है कि जब ये की एकाग्रता के कारण समाधि जन्य प्रीतिसुख साधक के
अभिन्न है तो चैतसिक क्यों कहे जाते हैं ? क्योंकि चित्त शरीर को भीतर से ही प्राप्लावित कर देता है । प्रीति, सुख और एकाग्रता वाला तीसरा ध्यान है । इसमे सुख और
की अवस्था विशेष का नाम ही चतसिक है-"अवस्था
विशेषो हि नाम चेतसश्चत्तसिको भवति ।" सौत्रान्तिक एकाग्रता को प्रमुखता रहती है। तृतीय ध्यान का योगी उपेक्षक स्मृतिमान और सुख विहारी होता है। उसका
इसका प्रतिवाद करते हुए उत्तर देते है कि जब वितर्क शरीर सुख प्रोर प्रीति से व्याप्त रहता है। सख और विचार का विक्षेप समाप्त हो जाता है तब चित्तसन्तति एकाग्रता वाला चौथा ध्यान होता है। इसमें साधक अपने
प्रशान्त होती है। शरीर को शुद्धचित्त मे युक्तकर देता है । इममे एकाग्रता
इस प्रकार ध्यान और ध्यानाङ्गी के बारे में 'अभिकी ही प्रधानता होती है तथा पांचवा ध्यान अपेक्षा और
धर्म कोशभाष्य' में काफी निकाय मतभेद प्राप्त होता है। एकाग्रता से युक्त होता है। इसमें अपेक्षा स्मृति पारिशुद्धि
यदि हम पालि अभिधम्म पिटक मे विशेषकर विभंग मे की मुख्यता होती है।
ध्यानाङ्गों के नामकरण और सख्या की उत्तरवर्ती अभि
धर्म गन्थों से तुलना करे तो काफी मतभेद मिलता है। 'पभिधर्म कोशभाष्य' --में ध्यानों में पाये हुए सुख
चार ध्यानों का उत्तरवर्ती अभिधर्म मे पाच ध्यानो मे के अस्तित्व पर एक बहुत ही दिलचस्प विवाद प्राया है जो
विभाजन भी इसी विकास का द्योतक है। * विवाद सौत्रान्तिकों और वैभाषिकों के सुख सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करता है। सौत्रान्तिक कहते १-२. दे. अभि० को० भा०, पृ० ४३ । हैं कि प्रथम तीन ध्यानों का सुख क्या एक ही सुख है या १-३. दे. अभि. को० भा० पृ० ४३ ४-५ वही, पृ० द्रव्यान्तर है ? वैभाषित प्रत्युत्तर देते हुए कहते है कि'