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________________ बौद्धधर्म में ध्यान-चतुष्टय : एक अध्ययन और चित्त की अवस्थामों की प्रत्यवेक्षा सम्प्रजन्य कह- जाता है और मध्यात्म सम्प्रसाद, प्रीति सुख और एकाग्रता साती है। यह प्रज्ञा है।' ये चार चित्तवत्तियां रहती हैं।' उपेक्षा उपपत्ति के देखने को कहा जाता है अर्थात् प्रीति के विराग से उपेक्षक हो स्मृति सम्प्रजन्य से समभाव से देखना, पक्षपात रहित देखना ही उपेक्षा है।' युक्त होकर काया से सुख को अनुभव करता हुमा विहचित्त जब विषय के साथ अपना सामञ्जस्य स्थापित कर रता है जिसको प्रार्य जन उपेक्षक स्मतिमान सूखबिहारी लेता है तब बह एकाग्रता होती है कुशलचित्त की एका- कहते है ऐसे तृतीय ध्यान को प्राप्त होकर योगावचर ग्रता ही ध्यान समाधि-"कुशलचित्तस्से कग्गता समाधि।" विहरता है। यही तृतीय ध्यान है । इसमे सुख, स्मृतिइस प्रकार योगी कामों और अकुशल धर्मों से अलग सम्प्रजन्य, उपेक्षा और एकाग्रता ये चार चित्तवृत्तियां होकर वितर्क सहित विवेक से उत्पन्न प्रीति और सुख होती है । सुख-दुःख के प्रहाण से सौमनस्य और दोर्मनस्य वाले प्रथम ध्यान को लगाकर विहरता है यही प्रथम के पूर्ण प्रस्त हो जाने से सुखदुःख से रहित उपेक्षा से ध्यान है। इसन बितक विचार, प्रीति सुख और एका उत्पन्न स्मृति एकाग्रता की परिशुद्धि से युक्त योगी चतुर्थ ग्रता ये पाच चित्त वृत्तियां होती है । इनके होने पर हो ध्यान को प्राप्त कर विहरता है । यही चतुर्थ ध्यान प्रथम ध्यान उत्पन्न होता है । वितर्क विचार के शान्त होने पर भीतरी प्रसाद चित्त की एकागृता से युक्त वितक ६. "प्रीतिया च विरागा उपेक्वको च विहरति सतोच विचार से रहित समाधि से (एकाग्रता से) उत्पन्न प्रीति सम्प जानो सुखजच कायेन पटिसवेदेति य तं अरिया सुख वाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त कर योगी विहार करता प्राचिक्खन्ति 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी' ति है। यही द्वितीय ध्यान है। इसमें वितर्क विचार छूट ततियं झान उपसम्पज्ज विहरति ।-दी. नि. १. 'सम्प्रजन्यमिति प्रज्ञा' ।-अर्थविनि० पृ० १८४ । ३।२२२; विसु० ४११५३; विभं० २४५ । २. दे० विसु. ४।१५६ । मिलाइये-'स प्रीतिविरागाद पेक्षको विहरति, ३. वही, ३।३ । स्मृतः सम्प्रजानन् सुख च कायेन प्रतिसवेदयति यत्त४. 'विविच्चेव हि कामेहि विविच्च अकुसलेहि घम्मेहि दार्या पाचक्षते उपेक्षक: रमतिमान् सुख विहारी' ति सवितक्क मविचार विवेकज पीतसुख पढम झानं तृतीयं ध्यानमुपसपद्य विहरनि ।'-प्रविनिश्चय उपसम्पज्ज विहर्गत ।'-दी०नि०६।२२२ विभं. सूत्र, पृ० १७ । २४५; विमु० ४७६ । ७. "सुखस्य च पहाना दुक्खम्म व पहाना पुब्बे सोमतूलना कीजिए- विविक्त कामैः विविक्त नस्स दो मनस्तान अत्थङ्गमा अदुक्खसख उपेक्वापापकर कुशलः धर्मः सवितर्क सविचार विवेकज प्रीति सनिपारिसुद्धि नतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।" सुख प्रथम ध्यान उपसम्पद्य विहरति ।-अर्थविनि -दी० नि० ३.२२२; विभं० २४५; विसु० श्चयसूत्र पृ० १७; तथा देखिए --बु० च० १२ ४६ ४११८३ । तथा तुलना कीजिए५. "वितविचारन वपसमा अज्झत्तं सम्पसादन चेत- "समुखम्य च प्रहाणात द ग्वस्य च प्रहाणात पूर्वमेव सो एकोदिभाव अवितक्क अविचार समाधिज पीति च सौमनस्य दौर्मनस्य योऽस्तङ्गमाददुःखासुखमुपेक्षासुख दुतिय झान उपसम्पज्ज विहरति ।"-दो०नि० स्मत्तिपारिशुद्धि चतुर्थं ध्यानमुपसम्पद्य विहरति ।' ३१२२२; विसु० ४.१३६% विभ २४५ । तथा अर्थविनिश्चयसूत्र पृ० १७ । तुलना कीजिए-"सवितर्कविचाराणां व्युप तथा चशमादध्यात्मसम्प्रसादाच्चेतस एकोत्तीभावाद वितर्क 'सादृशं सुखमासाद्य यो न रज्यत्युपेक्षकः । विचार समाविज प्रीतिसुख द्वितीय ध्यानमुपसम्पद्य चतुर्थ ध्यानमाप्नोति सुखदु:ख विवजितम् ।। विहरति ।"-अर्थविनिश्चय सूत्र, पृ० १७ । -बु० च० १२॥६५॥
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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