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________________ अनेकान्त १९४,१६२५, कि. ४ लोकोत्तर ध्यान भी कहा गया है। चित्तकर्मण्यता लक्षणम् । चित्तकर्मण्यता, चित्तलापन. चित्तवत्तियों पर विचार-वितर्क भौर विचार क्या मित्यर्थः।"" प्रिय मालम्बन के मिलने का सन्तोष प्रीति है? तर्क वितर्क करना, वितर्कणमात्र वितर्क है इसे ऊह है मोर प्राप्त हुए का अनुभव करना सुख है। जहां प्रीति भी कहा जाता है-"वितक्कोति वितक्को, वितक्कन वा है वहां सुख है और जहां सुख है वहां प्रीति है। 'विसुद्धिविसको कहनं ति बत्त होति ।" मालम्बन के विषय में मग्ग' में प्रीति संस्कार स्कन्ध में भौर सख वेदनास्कन्ध में स पना कि 'यह ऐसा है' वितर्क है।' विषय में चित्त गिनाया गया है किन्तु "अभिधर्मकोश" में प्रीति चैतसिक का प्रथम प्रवेश ही वितर्क है। पालम्बन में चित्त का सुख है अतः उसे वेदनास्कन्ध में ही गिना जाता है। लगना उसमें विचरण करना विचार है-"प्रारम्भणे तेन प्राचार्य बुद्धघोष उपमा द्वारा प्रीति और सुख को इस प्राचार्य बदघोष उपमा । चित्त विचारतीति विचारो, विचरण वा विचारो।" तरह समझाते है-'निर्जल मरुस्थल को पार करके पाए विषय मे चित्त का निमग्न हो जाना ही विचार है। हए व्यक्ति को वन में पानी देखने हुए व्यक्ति को वन में पानी देखने या सुनने के समान क्सिक और विचार के भेद को बुद्धघोष ने सुन्दर उपमा प्रीति है और वन की झाड़ियो की छाया में प्रवेश करने द्वारा इस तरह समझाया है-'पाकाश में जाते हुए पक्षी तथा पानी पीने के समान सुख है। १३ के दोनो पखों से वायु को पकड़ कर, पाखों को सिकोड़ अध्यात्म संप्रसाद वही है जो पालि में 'अज्झत्त-सम्पसा-- आने के समान पालम्बन में चित्त को लगाने के भाव दन' शब्द से उक्त है।" यह श्रद्धा है। योगी द्वितीय ध्यान से उत्पन्न हुआ वितर्क है और वायु को लेने के लिए का लाभ कर गम्भीर श्रद्धा अपने में उत्पन्न करता है। पखो को हिलाते हुए जाने के समान वार-बार मर्वन के उसकी उसमें प्रतिपत्ति होती है कि समापत्ति की भूमियों स्वभाव से उत्पन्न विचार है।' का भी प्रहाण हो सकता है । इसी श्रद्धा को अध्यात्मतप्त करना प्रीति है-"पीणयतीति पीति ।" सम्प्रसाद कहते है । बाह्य का पहाण कर यह समरूप से यही प्रीति है-"प्रीतिहि सौमनस्यम् ।"" सुख प्रवाहित होती है । इसलिए यह प्रमाद है । जो अध्यात्म ना मन है। काय चित्त के रोम को भलीभॉति खा और सम है वही अध्यात्म सम्प्रसाद है। "विभग' में नाट कर देता है, वह मुख है। यह शीतल और अध्यात्म सप्रमाद की व्याख्या इस प्रकार की गई हैता है-'ग्वन मुखं । सुठ्ठ वा खादति खणति च जो सद्दहन अवकम्पन रूपथद्वा है वही अध्यात्म सप्रसाद है नाबध ति सुख । प्रब्धि सुख है। चित्त की "यो सदा सद्दहना प्रोकम्पना अभिप्पसादो।" "अभियता इमका लक्षण है। लघता-हलकापन ही कर्मण्यता धर्मकोश भाष्य में अध्यात्म सप्रसाद को इस प्रकार बतके अर्थात चित्त का मृद होना सुख है--'सुख-प्रब्धिमुख लाया गया है -वितर्क विचार क्षोभ से विरहित प्रशांत १. दे० वि० ४।८८% पढ० ३।१६८, ३१२७८ । संतति अध्यात्म सम्प्रसाद है क्योकि वितर्क विचार क्षोभ २. दे० बौद्धधर्म दर्शन, पृ० ६७ पर उद्धृत परमत्थ मेलहरों से युक्त नदी के समान संततिचित्तधारा मंजूमा से । मनी-प्रप्रसन्न रहती है-"वितर्क विचार क्षोभविरहात ३. दे० बल्देवोपाध्याय----बौद्धदर्शनमीमांसा, पृ०३४७॥ प्रशांतवाहिता संततेरध्यात्मसम्प्रसादः । सौमिकेव हि ४. विसु० ४।८८; अट्ट० ३।१६८ तथा अभिधम्मत्थ- नदी वितविचारसततेरप्रसन्ना वर्तत इति ।५ "काय सग्रहो (हिन्दी) पृ० ११४ (प्रकाशिनी टीका)। १०. अर्थविनिश्चयसुत्त० पृ० १८१। ५. बौद्ध दर्शन मीमासा, पृ० ३४७ । ११.दे० अभि० को० व्या० २।२५ पृ० ४३ । ६. विसु० ४.८६ । १२. दे० विसु० ४.१००। ७. प्र० ३।२०२, २०६, विसु. ४१६४ । १३. दे० दी. नि० ३।२२२ (रोमन)। ८. अर्थबिनिश्चयमूत्र एण्ड निबन्धन, पू० १८० । १४. दे० विभं० २५८ (रोमन); विसु. ४।१४५ । ६. विस० ४११००; अट्ठ० २०२०, २०६ । १५. अभि. को० भा० पृ० ४४० ।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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